यह लेख मार्क्सवाद की उत्पत्ति और लगभग 160 वर्षों में इसके विकास पर चर्चा करता है। यह इस बात पर जोर देता है कि कैसे मार्क्सवाद का लक्ष्य दमनकारी सामाजिक संरचनाओं को उखाड़ फेंकना और श्रमिक वर्ग के लिए एक न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करना था। लेखक ने मार्क्सवाद के नकारात्मक चित्रण की आलोचना करते हुए इसे धोखेबाज और अपने अनुयायियों के प्रति शत्रुता पैदा करने वाला बताया है। पाठ में 1848 के कम्युनिस्ट घोषणापत्र का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें यूरोपीय शक्तियों में पैदा हुए भय और उसके बाद साम्यवाद को बदनाम करने और दबाने के अभियानों पर प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा, यह नारीवादियों, पर्यावरणविदों और दलितों जैसे विभिन्न समूहों की आलोचनाओं को संबोधित करता है, जो विविध सामाजिक मुद्दों पर मार्क्सवादी सिद्धांतों की प्रयोज्यता पर सवाल उठाते हैं। लेखक ने पिछले 25-30 वर्षों में दलित बुद्धिजीवियों और अन्य समूहों द्वारा मार्क्सवाद के खिलाफ तीव्र और आक्रामक आलोचना की हालिया प्रवृत्ति पर ध्यान देते हुए निष्कर्ष निकाला है।
लेखक ने मार्क्सवाद के आलोचकों को सवालों की एक श्रृंखला के साथ चुनौती दी है, उनसे आग्रह किया है कि वे ईमानदारी से अपने संगठनों के वित्तीय स्रोतों का खुलासा करें और यह भी बताएं कि क्या उन्हें पूंजीवादी संस्थाओं से समर्थन मिलता है। लेखक इन संघों से प्राप्त राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक लाभों पर भी सवाल उठाता है। मार्क्सवादी विचारधाराओं के खिलाफ ऐतिहासिक प्रतिरोध पर जोर देते हुए, लेखक पिछले 160 वर्षों में मार्क्सवाद के आसपास की स्थायी वैश्विक आलोचना और भय को उजागर करते हुए आलोचकों को रचनात्मक बातचीत में शामिल होने के लिए आमंत्रित करता है।
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मार्क्सवाद के जानकार पाठक जानते होंगे, और जो नहीं जानते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि आज के लगभग 160 साल पहले जब मार्क्सवाद का जन्म 1848 में हुआ था, सो भी इस सरेआम घोषित उद्देश्य के साथ की हर देश की राजशाही,पूंजीशाही व दीगर धन्नाशाही की अमानवीय व शोषणकारी समाज व्यवस्था को उखाड़ के, इसकी जगह आज तक के शोषित, उत्पीड़ित व शासित मजदूरों --किसानों व अन्य कमकर वर्गों की समाज व्यवस्थाएं कायम की जायें।
तभी से आज तक आप जानते हैं, क्या होता आया है ? ! केवल एक काम: मार्क्सवाद पर हर तरह के झूठे, जहरीले और भ्रामक इल्जाम लगाके उसके प्रति आम लोगों में दुश्मनी व घृणा पैदा करना और इसके अनुयायियों को हर हिंसक व अहिंसक तरीके से दबाना कुचलना।
इस सच्चाई के बतौर सबूत आप 1848 में मार्क्स, एंगेल्स के द्वारा प्रतिपादित "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" पढ़ कर देख ले, सो भी इसके एकदम शुरुआती वाक्य जो यूं है:-------
"आज साम्यवाद का भूत पूरे यूरोप को भयभीत कर रहा है । इसीलिए बूढ़े यूरोप की सभी ताकते इस भूत से छुटकारा पाने के लिए आपस में पवित्र गठबंधन बना रही है ।"
"कौन सा ऐसा विरोधी दल नहीं होगा जो अपने विरोधी सत्ताधारी दल को बदनाम करने के लिए उसे कम्युनिस्ट न कहे। इसके बदले में सत्ताधारी दल भी विरोधी दलों को कम्युनिस्ट कहके बदनाम करते हैं। इससे दो निचोड़ निकलते हैं :
" पहला सभी यूरोपी ताकते साम्यवाद को एक ताकत मान ली है। दूसरा, ऐसी स्थिति में अब वक्त आ गया है कि कम्युनिस्ट अपने विचारों, रुझानों व उद्देश्यों को सरेआम सारी दुनिया के सामने अपने दल का घोषणा पत्र जारी करके इस डरावने भूत का निपटारा कर दें ।
इस उद्देश्य के लिए लंदन में इकट्ठा हुए विभिन्न देशों के साम्यवादियों ने इसे तैयार करके इसे अंग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी, डेनिश व बेल्जियाई भाषाओं में प्रकाशित करने का निर्णय लिया है।"
शुरुआती वाक्यों के बाद उसे छोटी सी पुस्तिका में अन्य महत्वपूर्ण बातों के अलावा यह भी बार- बार बताया गया है कि उनके समाजवादी सिद्धांतों के उद्देश्यों पर निहायत ही छिछले, झूठे गंदे वह भ्रामक इल्जाम लगाकर पूरे यूरोप में उन्हें बदनाम करने के अभियान चलाए जा रहे हैं। इन अभियानों में यूरोप की तमाम धन्नाढ्य व संभ्रांत आर्थिक , राजनीतिक , साहित्य व धार्मिक तबके लगे हुए हैं।
इनके सिद्धांतों व उद्देश्यों को बार --बार अधर्मी व ईश्वर विरोधी नास्तिक कहा जा रहा है । इन्हें अमानवीय व जनतंत्र विरोधी कहके भी प्रचारित किया जा रहा है । इन्हें स्वतंत्रता विरोधी निरंकुशतावादी भी कहा जा रहा है । इतना ही नहीं, और भी । इन पर नारी स्वतंत्रता और नारीवाद के विरोधी होने के भी इल्जाम लगाए जा रहे हैं । वह भी यह कहते हुए की साम्यवाद आने पर सभी महिलाओं को इकट्ठा करके उनसे काम करवा कर इनका भी सर्वजनिक करण कर दिया जाएगा । कमकर वर्गों से जानवरों की तरह काम लिया जाएगा।
प्रश्न है, 1848 से मार्क्सवाद या समाजवाद पर लगाने शुरू किए गए उपरोक्त इल्जाम आज 2018 में भी नहीं लगाए जाते हैं ? एकदम लगाए जाते हैं । फर्क के नाम पर फर्क केवल यह है कि इसमें वर्तमान परिस्थितियों जैसे भारतीय परिस्थितियों से पैदा हुए कई प्रकार के "वाद" भी इसमें आन जुड़े हैं : जैसे दलितवाद अब नारीवाद और प्रदूषणवाद।
ऐसे सभी 'वाद' भी मार्क्सवाद -- लेनिनवाद के मूलत: वैसे ही आलोचक व निन्दक बनते जा रहे हैं, जैसे कि पहले से ही चले आ रहे सामंतवाद, पूंजीवाद, धर्मावाद, मानवतावाद, इनके निंन्दक आलोचक आज भी बने हुए हैं। इसी कारण हमने कहा था कि मार्क्सवाद --लेनिनवाद के पुराने निंदक अभियानों में प्रदूषणवाद,नारीवाद, दलितवाद भी इन अभियानों में पिछले 25 --30 सालों में नए-नए शामिल हो गए हैं। वस्तुत: ये शामिल कर लिये गये है । अब.............
वर्तमान के ठोस विषय -------------
आजकल दलितवादी, नारीवादी तथा पर्यावरणवादी ये तीनों मार्क्सवाद की आलोचनाएं बार-बार करते रहते हैं, जो अपने मूल में एक जैसी है। जैसे, दलितवादियों का कहना है कि मार्क्सवाद चुकि यूरोप में पैदा हुआ था। वहां चुकि जातिवादी वर्ण --व्यवस्था नहीं थी । पूंजीवादी वर्ग --व्यवस्था थी । इसीलिए मार्क्सवाद ने पूंजीवादियों द्वारा मजदूरों के वर्गीय शोषण उत्पीड़न को तो देखा। इसके शोषण उत्पीड़न विरोधी संघर्षों को संगठित भी किया, परंतु वर्ण --व्यवस्था और इसमें रहे शूद्रों के अमानवीय उत्पीड़न व भेदभाव को चूंकि मार्क्स ने नहीं देखा समझा था, इसीलिए शूद्रों की स्थितियों तथा जाति व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं कहा। इसीलिए मार्क्सवाद जाति व्यवस्था वाली भारती परिस्थितियों में लागू नहीं हो सकता।
उधर नारीवादियो का भी कहना है कि मार्क्स ने चूंकि पुरुष प्रभुत्व से दबी कुचली नारियों के शोषण --उत्पीड़न को नहीं देखा था, इसीलिए मार्क्स ने नारी उत्पीड़न के विरोध में नारी- मुक्ति के लिए आवश्यक संघर्षों के बारे में कुछ नहीं कहा । इसके अलावा सच्चाई यह भी है कि मार्क्स व एंगेल्स चूंकि स्वयं पुरुष --प्रभुत्व से प्रभावित रहते थे। इसीलिए भी नारी उत्पीड़न का विरोध नहीं किये।
ऐसे ही पर्यावरणवादियों का कहना है कि मार्क्सवाद मानव समाज में से केवल मजदूरों की भलाई के बारे में सोचता रहा। समाज के बढ़ते हुए आर्थिक व तकनीकी विकास से पर्यावरण में फैलने वाले प्रदूषण को नहीं देखा। क्योंकि मार्क्स व एंगेल्स खुद भी प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहते थे इसीलिए पर्यावरण की समस्या पर कुछ नहीं कहे।
पिछड़ावादियों और विशेषकर दलितवादियों के उपरोक्त इल्जाम यूं तो पिछले 60 /70 साल पहले से अंबेडकर और लोहिया जी के समय से लगते आ रहे थे। परंतु पिछले 25 /30 साल से दलितवादियो के मार्क्सवाद विरोध आलोचनात्मक को रुख रवैये एवं इनकी बोल भाषाएं अधिकाधिक आक्रामक व तीखी होती जा रही है ।
मार्क्सवाद के दलित आलोचकों में हरिजन, पासी जैसी जातियों के लोगों तो शामिल है ही है इसके अलावा निजी तौर पर स्वंय को उच्चजातीय मानने वाले कई एक ब्राह्मण, क्षत्रिय भूमिहार भी दलितों के इल्जामों में हां में हां मिलाकर मार्क्सवाद की तीखी आलोचनाओं में शामिल होते जा रहे हैं, विशेषकर पिछले 20/ 25 साल से। क्यों ? इस पर बाद में चर्चा होगी।
इससे पहले मार्क्सवाद के उपरोक्त आलोचकों व निन्दकों से एकदम दोटूक सुस्पष्ट व सीधे ..प्रश्न कर लिए जायें ।
मार्क्सवाद के आलोचकों से प्रश्न :
पहला प्रश्न ------ मार्क्सवाद के आप सभी आलोचकों सज्जन चाहे आप पर्यावरणवादी हो, चाहे दलितवादी या नारीवादी अथवा धर्मवादी या मानव अधिकारवादी या किसी अन्य प्रकार के संघ --संगठनवादी, आप कृपया हृदय पर हाथ रख कर ईमानदारी से सच --सच बताएं कि आपके नाना प्रकार के नामों वाले संघ, संस्थाएं व संगठन और उनके प्रचारतंत्र क्या आपके स्वयं अपने नगदी व गैर नगदी स्रोतों व साधनों के बूते पर स्वतंत्रतापूर्वक चलते हैं ??
अथवा, सच्चाई यह है कि आप अपने संघों, संस्थाओं व इनके प्रचार तंत्रों (जैसे,लेखन, बोलन करना तथा गोष्ठियां व सभाएं करना, चुनाव लड़ना इत्यादि जैसे कार्यों) के लिए भारती तथा विदेशी पूंजीवादी संघों, संस्थाओं व संगठनों या व्यक्तियों से एक तो नगदी उधारी वित्तीय सहायताएं लेते हैं ??
दूसरे, नाना प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक एवं प्रचारतंत्रीय सुविधाएं एवं सहयोग लेते हुए इन्हें लेकर ही आप नाना प्रकार के अपने बौद्धिक व सांगठनिक व भौतिक कार्य करते हैं । इन्हीं में एक आप का मार्क्सवाद विरोधी अभियान भी है।
इस पर हमारे पास ठोस सबूत तो नहीं है लेकिन देश दुनिया के सामाजिक व राजनीतिक ज्ञान व अनुभव, और वैसे आए दिन की पत्र --पत्रिकाएं भी यही बताती रहती है कि देसी व विदेशी संघों, संस्थाओं और व्यक्तियों के द्वारा आपको वित्तीय व गैर वित्तीय सहयोग, सहायताएं,अनुदान मिलते रहते हैं। अगर यह इल्जाम झूठा व गलत लगे तो आप अपनी आमदनीयों के स्रोतों व खर्चों के बही --खाते दिखा दे ।
लिहाजा, अब अगर यह कहा जाए की आप उनसे सहयोग सहायताएं लेने के बदले में मार्क्सवाद की निंदा आलोचना करते रहते हैं, तो क्या यह गलत होगा ?? ध्यान रहे, मार्क्सवाद का यही 160 साल पुराना इतिहास भी है।
मार्क्सवाद चुकि सरेआम घोषणा करके पूंजी वासियों, राजशाहियों को इनके दरबारियों इत्यादि को उखाड़ के शोषित व पीड़ित श्रमशक्ति का राज कायम करने का एकमात्र उद्देश्य बनाया हुआ है , इस उद्देश्य की शत्रुता पूर्ण प्रतिक्रिया भी स्वभाविक है । हर देश के पूजीशाहों सामंतो और इनकी राजनीतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक तबकों के द्वारा इंकलाबी मार्क्सवाद को अपना अटूट दुश्मन मानके, इसके विरुद्ध हर प्रकार के शांतिपूर्ण व अशांतिपूर्ण हिंसक व अहिंसक अभियान चलाते रहना।
इसके लिए आजकल शोध संस्थाओं,विद्यालयों, राजनीतियों तथा हर प्रकार की कला संस्कृति व सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। आप पर्यावरणवादी नारीवादी दलितवादी भी इसी नकारात्मक अभियान में शामिल हो गए हैं। अगर शामिल नहीं है तो आप कृपया एक काम करके एक काम करके दिखाएं। वह यह कि ---
आप किसी भी देसी या विदेशी पूंजीवादी संघों संस्थाओं या व्यक्तियों से वित्तीय या गैर वित्तीय सहायताएं या संहयोग इत्यादि लेना बंद कर दे। अपने स्वतंत्र बौद्धिक व भौतिक संसाधनों के बूते पर खड़े होकर स्वतंत्रता पूर्वक मार्क्सवाद ------ लेनिनवाद व समाजवाद की जैसी चाहे वैसी आलोचनाएं निन्दायें करें, आपकी एसी आत्मनिर्भर व स्वतंत्रत मार्क्सवाद विरोधी आलोचनाओं को हम भी नहीं रोकेंगे ।
इनका स्वागत करते हुए आपकी आलोचनाओं के हम भी तर्कसंगत जवाब देंगे।
ऐसा करने से हमारे जैसे सत्ताविहीन व पूंजीविहिन मार्क्सवादीयों और आप जैसे पर्यावरणवादियों दलितवादियों व नारीवादियों से स्वतंत्र व स्वस्थ चर्चाएं बहसे हो जाएगी । इनके सकारात्मक नतीजे भी निकलेंगे । इस संदर्भ में आपको भी याद रखना चाहिए कि पूरे विश्व इतिहास में मार्क्सवादी --लेनिनवादी सिद्धांत और इनका मजदूर समाजवाद स्थापित करने का उद्देश्य यही एकमात्र वैचारिक व व्यवहारिक विषय वस्तु है जिनकी पिछले 160 सालों से आज तक पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आलोचनाएं वह निन्दायें होती आ रही है, जो भी हर देश के हर नगर में ।
इसी इतिहास के कारण मार्क्सवाद --लेनिनवाद संसारभर में धन्नाढ्य वर्गो, इनके राजनीतिक व सांस्कृतिक समर्थकों एवं चाटुकारों की निन्दाओं व आलोचनाओं से भयभीत होने वाला नहीं है, और ना ही कभी भयभीत हुआ है।
जी.डी. सिंह