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Saturday, 9 December 2023

मार्क्सवाद- जी डी सिंह

यह लेख मार्क्सवाद की उत्पत्ति और लगभग 160 वर्षों में इसके विकास पर चर्चा करता है।  यह इस बात पर जोर देता है कि कैसे मार्क्सवाद का लक्ष्य दमनकारी सामाजिक संरचनाओं को उखाड़ फेंकना और श्रमिक वर्ग के लिए एक न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करना था।  लेखक ने मार्क्सवाद के नकारात्मक चित्रण की आलोचना करते हुए इसे धोखेबाज और अपने अनुयायियों के प्रति शत्रुता पैदा करने वाला बताया है।  पाठ में 1848 के कम्युनिस्ट घोषणापत्र का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें यूरोपीय शक्तियों में पैदा हुए भय और उसके बाद साम्यवाद को बदनाम करने और दबाने के अभियानों पर प्रकाश डाला गया है।  इसके अलावा, यह नारीवादियों, पर्यावरणविदों और दलितों जैसे विभिन्न समूहों की आलोचनाओं को संबोधित करता है, जो विविध सामाजिक मुद्दों पर मार्क्सवादी सिद्धांतों की प्रयोज्यता पर सवाल उठाते हैं।  लेखक ने पिछले 25-30 वर्षों में दलित बुद्धिजीवियों और अन्य समूहों द्वारा मार्क्सवाद के खिलाफ तीव्र और आक्रामक आलोचना की हालिया प्रवृत्ति पर ध्यान देते हुए निष्कर्ष निकाला है।


 लेखक ने मार्क्सवाद के आलोचकों को सवालों की एक श्रृंखला के साथ चुनौती दी है, उनसे आग्रह किया है कि वे ईमानदारी से अपने संगठनों के वित्तीय स्रोतों का खुलासा करें और यह भी बताएं कि क्या उन्हें पूंजीवादी संस्थाओं से समर्थन मिलता है।  लेखक इन संघों से प्राप्त राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक लाभों पर भी सवाल उठाता है।  मार्क्सवादी विचारधाराओं के खिलाफ ऐतिहासिक प्रतिरोध पर जोर देते हुए, लेखक पिछले 160 वर्षों में मार्क्सवाद के आसपास की स्थायी वैश्विक आलोचना और भय को उजागर करते हुए आलोचकों को रचनात्मक बातचीत में शामिल होने के लिए आमंत्रित करता है।


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मार्क्सवाद के जानकार पाठक जानते होंगे, और जो नहीं जानते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि आज के लगभग 160 साल पहले जब मार्क्सवाद का जन्म 1848 में हुआ था, सो भी इस सरेआम घोषित उद्देश्य के साथ की हर देश की राजशाही,पूंजीशाही व दीगर धन्नाशाही की अमानवीय व शोषणकारी समाज व्यवस्था को उखाड़ के, इसकी जगह आज तक के शोषित, उत्पीड़ित व शासित मजदूरों --किसानों व अन्य कमकर वर्गों की समाज व्यवस्थाएं कायम की जायें।

तभी से आज तक आप जानते हैं, क्या होता आया है ? ! केवल एक काम: मार्क्सवाद पर हर तरह के झूठे, जहरीले और भ्रामक इल्जाम लगाके उसके प्रति आम लोगों में दुश्मनी व घृणा पैदा करना और इसके अनुयायियों को हर हिंसक व अहिंसक तरीके से दबाना कुचलना।

इस सच्चाई के बतौर सबूत आप 1848 में मार्क्स, एंगेल्स के द्वारा प्रतिपादित "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" पढ़ कर देख ले, सो भी इसके एकदम शुरुआती वाक्य जो यूं है:-------

"आज साम्यवाद का भूत पूरे यूरोप को भयभीत कर रहा है । इसीलिए बूढ़े यूरोप की सभी ताकते इस भूत से छुटकारा पाने के लिए आपस में पवित्र गठबंधन बना रही है ।"   

"कौन सा ऐसा विरोधी दल नहीं होगा जो अपने विरोधी सत्ताधारी दल को बदनाम करने के लिए उसे कम्युनिस्ट न कहे।  इसके बदले में सत्ताधारी दल भी विरोधी दलों को कम्युनिस्ट कहके बदनाम करते हैं। इससे दो निचोड़ निकलते हैं : 
" पहला सभी यूरोपी ताकते साम्यवाद को एक ताकत मान ली है।  दूसरा, ऐसी स्थिति में अब वक्त आ गया है कि कम्युनिस्ट अपने विचारों, रुझानों व उद्देश्यों को सरेआम सारी दुनिया के सामने अपने दल का घोषणा पत्र जारी करके इस डरावने भूत का निपटारा कर दें ।

इस उद्देश्य के लिए लंदन में इकट्ठा हुए विभिन्न देशों के साम्यवादियों ने इसे तैयार करके इसे अंग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी, डेनिश व बेल्जियाई भाषाओं में प्रकाशित करने का निर्णय लिया है।"

शुरुआती वाक्यों के बाद उसे छोटी सी पुस्तिका में अन्य महत्वपूर्ण बातों के अलावा यह भी बार- बार बताया गया है कि उनके समाजवादी सिद्धांतों के उद्देश्यों पर निहायत ही छिछले, झूठे गंदे वह भ्रामक इल्जाम लगाकर पूरे यूरोप में उन्हें बदनाम करने के अभियान चलाए जा रहे हैं। इन अभियानों में यूरोप की तमाम धन्नाढ्य व संभ्रांत आर्थिक , राजनीतिक , साहित्य व धार्मिक तबके लगे हुए हैं।

इनके सिद्धांतों व उद्देश्यों को बार --बार अधर्मी व ईश्वर विरोधी नास्तिक कहा जा रहा है । इन्हें अमानवीय व जनतंत्र विरोधी कहके भी प्रचारित किया जा रहा है । इन्हें स्वतंत्रता विरोधी निरंकुशतावादी भी कहा जा रहा है । इतना ही नहीं, और भी । इन पर नारी स्वतंत्रता और नारीवाद के विरोधी होने के भी इल्जाम लगाए जा रहे हैं । वह भी यह कहते हुए की साम्यवाद आने पर सभी महिलाओं को इकट्ठा करके उनसे काम करवा कर इनका भी सर्वजनिक करण कर दिया जाएगा । कमकर वर्गों से जानवरों की तरह काम लिया जाएगा।

प्रश्न है, 1848 से मार्क्सवाद या समाजवाद पर लगाने शुरू किए गए उपरोक्त इल्जाम आज 2018 में भी नहीं लगाए जाते हैं ?  एकदम लगाए जाते हैं ।  फर्क के नाम पर फर्क केवल यह है कि इसमें वर्तमान परिस्थितियों जैसे भारतीय परिस्थितियों से पैदा हुए कई प्रकार के "वाद" भी इसमें आन जुड़े हैं : जैसे दलितवाद अब नारीवाद और प्रदूषणवाद।

ऐसे सभी 'वाद' भी मार्क्सवाद -- लेनिनवाद के मूलत: वैसे ही आलोचक व निन्दक बनते जा रहे हैं, जैसे कि पहले से ही चले आ रहे सामंतवाद, पूंजीवाद, धर्मावाद, मानवतावाद, इनके निंन्दक आलोचक आज भी बने हुए हैं। इसी कारण हमने कहा था कि मार्क्सवाद --लेनिनवाद के पुराने निंदक अभियानों में प्रदूषणवाद,नारीवाद, दलितवाद भी इन अभियानों में पिछले 25 --30 सालों में नए-नए शामिल हो गए हैं। वस्तुत: ये शामिल कर लिये गये है । अब.............

वर्तमान के ठोस विषय -------------

आजकल दलितवादी, नारीवादी तथा पर्यावरणवादी ये तीनों मार्क्सवाद की आलोचनाएं बार-बार करते रहते हैं, जो अपने मूल में एक जैसी है। जैसे, दलितवादियों का कहना है कि मार्क्सवाद चुकि यूरोप में पैदा हुआ था। वहां चुकि जातिवादी वर्ण --व्यवस्था नहीं थी । पूंजीवादी वर्ग --व्यवस्था थी  । इसीलिए मार्क्सवाद ने पूंजीवादियों द्वारा मजदूरों के वर्गीय शोषण उत्पीड़न को तो देखा। इसके शोषण उत्पीड़न विरोधी संघर्षों को संगठित भी किया, परंतु वर्ण --व्यवस्था और इसमें  रहे शूद्रों के अमानवीय उत्पीड़न व भेदभाव को चूंकि मार्क्स ने नहीं देखा समझा था,  इसीलिए शूद्रों की स्थितियों तथा जाति व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं कहा।  इसीलिए मार्क्सवाद जाति व्यवस्था वाली भारती परिस्थितियों में लागू नहीं हो सकता।

उधर नारीवादियो का भी कहना है कि मार्क्स ने चूंकि पुरुष प्रभुत्व से दबी कुचली नारियों के शोषण --उत्पीड़न को नहीं देखा था, इसीलिए मार्क्स ने नारी उत्पीड़न के विरोध में नारी- मुक्ति के लिए आवश्यक संघर्षों के बारे में कुछ नहीं कहा  । इसके अलावा सच्चाई यह भी है कि मार्क्स व एंगेल्स चूंकि स्वयं पुरुष --प्रभुत्व से प्रभावित रहते थे। इसीलिए भी नारी उत्पीड़न का विरोध नहीं किये।

ऐसे ही पर्यावरणवादियों का कहना है कि मार्क्सवाद मानव समाज में से केवल मजदूरों की भलाई के बारे में सोचता रहा। समाज के बढ़ते हुए आर्थिक व तकनीकी विकास से पर्यावरण में फैलने वाले प्रदूषण को नहीं देखा। क्योंकि मार्क्स व एंगेल्स  खुद भी प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहते थे इसीलिए पर्यावरण की समस्या पर कुछ नहीं कहे।

पिछड़ावादियों और विशेषकर दलितवादियों के उपरोक्त इल्जाम यूं तो पिछले 60 /70 साल पहले से अंबेडकर और लोहिया जी के समय से लगते आ रहे थे। परंतु पिछले 25 /30 साल से दलितवादियो के मार्क्सवाद विरोध आलोचनात्मक को रुख रवैये एवं इनकी बोल भाषाएं अधिकाधिक आक्रामक व तीखी होती जा रही है । 

मार्क्सवाद के दलित आलोचकों में हरिजन, पासी जैसी जातियों के लोगों तो शामिल है ही है इसके अलावा निजी तौर पर स्वंय को उच्चजातीय मानने वाले कई एक ब्राह्मण, क्षत्रिय भूमिहार भी दलितों के इल्जामों में हां में हां मिलाकर मार्क्सवाद की तीखी आलोचनाओं में शामिल होते जा रहे हैं, विशेषकर पिछले 20/ 25 साल से। क्यों ?  इस पर बाद में चर्चा होगी। 

इससे पहले मार्क्सवाद के उपरोक्त आलोचकों व निन्दकों से एकदम दोटूक सुस्पष्ट व  सीधे ..प्रश्न कर लिए जायें ।

मार्क्सवाद के आलोचकों से प्रश्न : 

पहला प्रश्न ------ मार्क्सवाद के आप सभी आलोचकों सज्जन चाहे आप पर्यावरणवादी हो, चाहे दलितवादी या नारीवादी अथवा धर्मवादी या मानव अधिकारवादी या किसी अन्य प्रकार के संघ --संगठनवादी, आप कृपया हृदय पर हाथ रख कर ईमानदारी से सच --सच बताएं कि आपके नाना प्रकार के नामों वाले संघ, संस्थाएं व संगठन और उनके प्रचारतंत्र क्या आपके स्वयं अपने नगदी व गैर नगदी स्रोतों व साधनों के बूते पर स्वतंत्रतापूर्वक चलते हैं ??

अथवा, सच्चाई यह है कि आप अपने संघों, संस्थाओं व इनके प्रचार तंत्रों (जैसे,लेखन, बोलन करना तथा गोष्ठियां व सभाएं करना, चुनाव लड़ना इत्यादि जैसे कार्यों) के लिए भारती तथा विदेशी पूंजीवादी संघों, संस्थाओं व संगठनों या व्यक्तियों से एक तो नगदी उधारी वित्तीय सहायताएं लेते हैं ??

दूसरे, नाना प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक एवं प्रचारतंत्रीय सुविधाएं एवं सहयोग लेते हुए इन्हें लेकर ही आप नाना प्रकार के अपने बौद्धिक व सांगठनिक व भौतिक कार्य करते हैं । इन्हीं में एक आप का मार्क्सवाद विरोधी अभियान भी है। 

इस पर हमारे पास ठोस सबूत तो नहीं है लेकिन देश दुनिया के सामाजिक व राजनीतिक ज्ञान व अनुभव, और वैसे आए दिन की पत्र --पत्रिकाएं भी यही बताती रहती है कि देसी व विदेशी संघों, संस्थाओं और व्यक्तियों के द्वारा आपको वित्तीय व गैर वित्तीय सहयोग, सहायताएं,अनुदान मिलते रहते हैं। अगर यह इल्जाम झूठा व गलत लगे तो आप अपनी आमदनीयों के स्रोतों व खर्चों के बही --खाते दिखा दे ।

लिहाजा, अब अगर यह कहा जाए की आप उनसे सहयोग सहायताएं लेने के बदले में मार्क्सवाद की निंदा आलोचना करते रहते हैं, तो क्या यह गलत होगा ??  ध्यान रहे, मार्क्सवाद का यही 160 साल पुराना इतिहास भी है।

मार्क्सवाद चुकि सरेआम घोषणा करके पूंजी वासियों, राजशाहियों को इनके दरबारियों इत्यादि को उखाड़ के शोषित व पीड़ित श्रमशक्ति का राज कायम करने का एकमात्र उद्देश्य बनाया हुआ है , इस उद्देश्य की शत्रुता पूर्ण प्रतिक्रिया भी स्वभाविक है । हर देश के पूजीशाहों सामंतो और इनकी राजनीतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक तबकों के द्वारा इंकलाबी मार्क्सवाद को अपना अटूट दुश्मन मानके, इसके विरुद्ध हर प्रकार के शांतिपूर्ण व अशांतिपूर्ण हिंसक व अहिंसक अभियान चलाते रहना। 

इसके लिए आजकल शोध संस्थाओं,विद्यालयों, राजनीतियों तथा हर प्रकार की कला संस्कृति व सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। आप पर्यावरणवादी नारीवादी दलितवादी भी इसी नकारात्मक अभियान में शामिल हो गए हैं। अगर शामिल नहीं है तो आप कृपया एक काम करके    एक काम करके दिखाएं। वह यह कि ---

आप किसी भी देसी या विदेशी पूंजीवादी संघों संस्थाओं या व्यक्तियों से वित्तीय या गैर वित्तीय सहायताएं या संहयोग इत्यादि लेना बंद कर दे। अपने स्वतंत्र बौद्धिक व भौतिक संसाधनों के बूते पर खड़े होकर स्वतंत्रता पूर्वक मार्क्सवाद ------ लेनिनवाद  व समाजवाद की जैसी चाहे वैसी आलोचनाएं निन्दायें करें, आपकी एसी आत्मनिर्भर  व स्वतंत्रत मार्क्सवाद विरोधी आलोचनाओं को हम भी नहीं रोकेंगे ।
इनका स्वागत करते हुए आपकी आलोचनाओं के हम भी तर्कसंगत जवाब देंगे। 

ऐसा करने से हमारे जैसे सत्ताविहीन व पूंजीविहिन मार्क्सवादीयों और आप जैसे पर्यावरणवादियों दलितवादियों व  नारीवादियों से स्वतंत्र व स्वस्थ चर्चाएं बहसे हो जाएगी । इनके सकारात्मक नतीजे भी निकलेंगे । इस संदर्भ में आपको भी याद रखना चाहिए कि पूरे विश्व इतिहास में मार्क्सवादी --लेनिनवादी सिद्धांत और इनका मजदूर समाजवाद स्थापित करने का उद्देश्य यही एकमात्र वैचारिक व  व्यवहारिक विषय वस्तु है जिनकी पिछले 160 सालों से आज तक पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आलोचनाएं वह निन्दायें होती आ रही है, जो भी हर देश के हर नगर में ।

इसी इतिहास के कारण मार्क्सवाद --लेनिनवाद संसारभर में धन्नाढ्य वर्गो, इनके राजनीतिक व सांस्कृतिक समर्थकों एवं चाटुकारों की निन्दाओं व आलोचनाओं से भयभीत होने वाला नहीं है, और ना ही कभी भयभीत हुआ है। 

जी.डी. सिंह

Thursday, 30 November 2023

Mind and Heart

In the depths of my mind, a truth resides, A stark reality, my heart denies. My brain has grasped it, clear and plain, Yet my heart, it lingers, filled with pain.

The intellect perceives, the mind comprehends, But emotions surge, like waves that transcend. The heart, it clings to hope, to a dream, A fragile illusion, a fleeting gleam.

The mind's understanding, sharp and keen, Cuts through the haze, where emotions convene. It sees the truth, the path to embrace, Yet the heart resists, in its own pace.

Oh, the heart, it yearns for solace and light, For warmth and affection, in the darkest of night. It clings to memories, to moments so dear, Unwilling to let go, to shed a tear.

But time, it whispers, with gentle sway, Allowing the heart to gradually give way. The mind's knowledge seeps in, like a gentle rain, Softening resistance, easing the pain.

Slowly, the heart begins to surrender, To the truth it acknowledges, no longer a contender. It accepts the reality, though bittersweet, And finds a newfound strength, no longer incomplete.

For the heart, once burdened, now finds release, In the embrace of truth, it finds peace. The mind and the heart, in harmony they reside, Accepting what's known, with each passing tide.


मेरे मन की गहराइयों में एक सच्चाई बसती है, एक कटु सच्चाई, जिसे मेरा दिल नकारता है। मेरे मस्तिष्क ने इसे स्पष्ट और स्पष्ट रूप से समझ लिया है, फिर भी मेरा हृदय दर्द से भरा हुआ है

बुद्धि समझती है, मन समझता है, लेकिन भावनाएँ लहरों की तरह बढ़ती हैं जो पार हो जाती हैं। दिल, यह आशा से, एक सपने से, एक नाजुक भ्रम, एक क्षणभंगुर चमक से चिपक जाता है।

दिमाग की समझ, तेज़ और तेज़, धुंध को काटती है, जहाँ भावनाएँ एकत्रित होती हैं। वह सत्य को देखता है, गले लगाने का मार्ग देखता है, फिर भी हृदय अपनी गति से प्रतिरोध करता है।

ओह, दिल, यह रात के सबसे अँधेरे में सांत्वना और रोशनी, गर्मी और स्नेह के लिए तरसता है। यह यादों से चिपक जाता है, इतने प्यारे क्षणों से, जाने देने को तैयार नहीं होता, आंसू बहाने को तैयार नहीं होता।

लेकिन समय, धीरे-धीरे फुसफुसाता है , दिल को धीरे-धीरे रास्ता देने की इजाजत देता है। मन का ज्ञान एक हल्की बारिश की तरह अंदर समा जाता है, प्रतिरोध को नरम कर देता है, दर्द को कम कर देता है।

धीरे-धीरे, हृदय समर्पण करना शुरू कर देता है, सत्य को वह स्वीकार कर लेता है, अब वह दावेदार नहीं है। यह वास्तविकता को स्वीकार करता है, भले ही कड़वी हो, और एक नई ताकत पाता है, जो अब अधूरी नहीं है।

क्योंकि हृदय, जो कभी बोझिल था, अब मुक्ति पाता है, सत्य के आलिंगन में, उसे शांति मिलती है। मन और हृदय, सामंजस्य में रहते हैं, प्रत्येक गुजरते ज्वार के साथ,

जो ज्ञात है उसे स्वीकार करते हैं ।


Saturday, 5 August 2023

Madina and Kufa school of Islamic law

Madina and Kufa are two significant cities in the early history of Islam that played a crucial role in the development of Islamic law. Both cities became centers of knowledge and learning, attracting scholars and jurists who contributed to the formation of different schools of Islamic jurisprudence.

The Madina School of Islamic Law: The Madina School, also known as the Medinan School, refers to the legal teachings and practices that originated in the city of Madina, where the Prophet Muhammad migrated after facing persecution in Mecca. Madina served as the capital of the growing Islamic state and became a hub of knowledge and governance during the time of the Prophet.

One of the key figures associated with the Madina School is Imam Malik ibn Anas (d. 795 CE). He is considered the founder of the Maliki school of jurisprudence, which gained prominence in the regions of North Africa, Andalusia, and some parts of West Africa. Malik compiled the famous legal treatise known as "Al-Muwatta," which encompasses various aspects of Islamic law, including rituals, commercial transactions, and criminal law.

The Madina School emphasized the importance of the local customs and practices of the people of Madina. Scholars of this school focused on the traditions and practices of the early Muslim community, particularly the Companions of the Prophet Muhammad, as a source of guidance for legal rulings. The Madina School gave particular importance to the concept of consensus (ijma) among scholars as a basis for legal interpretation.

The Kufa School of Islamic Law: Kufa, located in present-day Iraq, was another city that played a significant role in the development of Islamic law. It emerged as a center of learning during the early Islamic period and attracted renowned scholars and jurists.

One of the prominent figures associated with the Kufa School is Imam Abu Hanifa (d. 767 CE), who founded the Hanafi school of jurisprudence. Abu Hanifa's legal methodology emphasized the rational interpretation of the Quran and hadith (sayings and actions of the Prophet Muhammad). He formulated legal principles and analogical reasoning (qiyas) to derive rulings for new and complex issues that were not explicitly addressed in the primary sources of Islamic law.

The Kufa School focused on the principles of legal reasoning (fiqh) and applied a more flexible approach to legal interpretation compared to other schools. Scholars of the Kufa School emphasized the importance of independent reasoning (ijtihad) and personal judgment in deducing legal rulings.

The Impact and Legacy: Both the Madina and Kufa schools contributed significantly to the development of Islamic law and jurisprudence. The teachings and methodologies of these schools influenced subsequent generations of scholars and played a vital role in shaping the various schools of Islamic thought that exist today.

It's important to note that Islamic law is not limited to these two schools alone. Other prominent schools of jurisprudence, such as the Shafi'i, Hanbali, and Ja'fari (Shia) schools, also emerged later, each with its own distinctive legal methodology and regional influence.

These different schools of Islamic law reflect the rich diversity of legal thought within the Muslim world. They provide a framework for Muslims to navigate and understand religious obligations, ethical principles, and legal issues in accordance with their respective schools' teachings. The study and application of Islamic law continue to be a dynamic field, with scholars and jurists engaging in ongoing discussions and debates to address contemporary challenges and changing societal contexts.

इस्लाम के प्रारंभिक इतिहास में मदीना और कूफ़ा दो महत्वपूर्ण शहर हैं जिन्होंने इस्लामी कानून के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  दोनों शहर ज्ञान और शिक्षा के केंद्र बन गए, जिन्होंने विद्वानों और न्यायविदों को आकर्षित किया जिन्होंने इस्लामी न्यायशास्त्र के विभिन्न विद्यालयों के निर्माण में योगदान दिया।

 मदीना स्कूल ऑफ इस्लामिक लॉ: मदीना स्कूल, जिसे मेडिनान स्कूल के नाम से भी जाना जाता है, उन कानूनी शिक्षाओं और प्रथाओं को संदर्भित करता है जो मदीना शहर में उत्पन्न हुई थीं, जहां पैगंबर मुहम्मद मक्का में उत्पीड़न का सामना करने के बाद चले गए थे।  मदीना ने बढ़ते इस्लामी राज्य की राजधानी के रूप में कार्य किया और पैगंबर के समय में ज्ञान और शासन का केंद्र बन गया।

 मदीना स्कूल से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों में से एक इमाम मलिक इब्न अनस (मृत्यु 795 ई.पू.) हैं।  उन्हें न्यायशास्त्र के मलिकी स्कूल का संस्थापक माना जाता है, जिसने उत्तरी अफ्रीका, अंडालूसिया और पश्चिम अफ्रीका के कुछ हिस्सों में प्रमुखता हासिल की।  मलिक ने प्रसिद्ध कानूनी ग्रंथ "अल-मुवत्ता" को संकलित किया, जिसमें अनुष्ठान, वाणिज्यिक लेनदेन और आपराधिक कानून सहित इस्लामी कानून के विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है।

 मदीना स्कूल ने मदीना के लोगों के स्थानीय रीति-रिवाजों और प्रथाओं के महत्व पर जोर दिया।  इस स्कूल के विद्वानों ने कानूनी फैसलों के लिए मार्गदर्शन के स्रोत के रूप में प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय, विशेष रूप से पैगंबर मुहम्मद के साथियों की परंपराओं और प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित किया।  मदीना स्कूल ने कानूनी व्याख्या के आधार के रूप में विद्वानों के बीच आम सहमति (इज्मा) की अवधारणा को विशेष महत्व दिया।

 इस्लामिक कानून का कूफा स्कूल: कूफा, वर्तमान इराक में स्थित, एक और शहर था जिसने इस्लामी कानून के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  प्रारंभिक इस्लामी काल के दौरान यह शिक्षा के केंद्र के रूप में उभरा और प्रसिद्ध विद्वानों और न्यायविदों को आकर्षित किया।

 कूफ़ा स्कूल से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों में से एक इमाम अबू हनीफ़ा (मृत्यु 767 ई.पू.) हैं, जिन्होंने न्यायशास्त्र के हनफ़ी स्कूल की स्थापना की थी।  अबू हनीफा की कानूनी पद्धति ने कुरान और हदीस (पैगंबर मुहम्मद के कथन और कार्य) की तर्कसंगत व्याख्या पर जोर दिया।  उन्होंने नए और जटिल मुद्दों के लिए निर्णय प्राप्त करने के लिए कानूनी सिद्धांत और अनुरूप तर्क (क़ियास) तैयार किए जिन्हें इस्लामी कानून के प्राथमिक स्रोतों में स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया गया था।

 कूफ़ा स्कूल ने कानूनी तर्क (फ़िक्ह) के सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित किया और अन्य स्कूलों की तुलना में कानूनी व्याख्या के लिए अधिक लचीला दृष्टिकोण लागू किया।  कूफ़ा स्कूल के विद्वानों ने कानूनी फैसले निकालने में स्वतंत्र तर्क (इज्तिहाद) और व्यक्तिगत निर्णय के महत्व पर जोर दिया।

 प्रभाव और विरासत: मदीना और कूफ़ा दोनों स्कूलों ने इस्लामी कानून और न्यायशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।  इन स्कूलों की शिक्षाओं और कार्यप्रणाली ने विद्वानों की अगली पीढ़ियों को प्रभावित किया और आज मौजूद इस्लामी विचारों के विभिन्न स्कूलों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस्लामी कानून केवल इन दो स्कूलों तक ही सीमित नहीं है।  न्यायशास्त्र के अन्य प्रमुख स्कूल, जैसे शफ़ीई, हनबली और जाफ़री (शिया) स्कूल भी बाद में उभरे, जिनमें से प्रत्येक की अपनी विशिष्ट कानूनी पद्धति और क्षेत्रीय प्रभाव था।

 इस्लामी कानून के ये विभिन्न स्कूल मुस्लिम दुनिया के भीतर कानूनी विचारों की समृद्ध विविधता को दर्शाते हैं।  वे मुसलमानों को उनके संबंधित स्कूलों की शिक्षाओं के अनुसार धार्मिक दायित्वों, नैतिक सिद्धांतों और कानूनी मुद्दों को समझने और समझने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं।  इस्लामी कानून का अध्ययन और अनुप्रयोग एक गतिशील क्षेत्र बना हुआ है, जिसमें विद्वान और न्यायविद समकालीन चुनौतियों और बदलते सामाजिक संदर्भों को संबोधित करने के लिए चल रही चर्चाओं और बहसों में लगे हुए हैं।



Tuesday, 18 July 2023

लेनिन समाधि Lenin Mausoleum

लेनिन समाधि, जिसे आधिकारिक तौर पर व्लादिमीर लेनिन की समाधि के रूप में जाना जाता है, रेड स्क्वायर, मॉस्को, रूस में स्थित एक प्रमुख ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थल है।  यह बोल्शेविक पार्टी के नेता और सोवियत संघ के पहले प्रमुख व्लादिमीर लेनिन का अंतिम विश्राम स्थल है।

  1924 में  21 जनवरी को लेनिन की मृत्यु के बाद उनके शरीर को रखने के लिए एक अस्थायी संरचना के रूप में मकबरे का निर्माण किया गया था।  हालाँकि, इसके महत्व और लेनिन के प्रति लोगों की श्रद्धा के कारण, यह एक स्थायी स्थिरता और सोवियत शक्ति का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गया।

 मकबरे का वास्तुशिल्प डिजाइन रचनावाद के सिद्धांतों को दर्शाता है, एक शैली जो सोवियत संघ के प्रारंभिक वर्षों के दौरान उभरी थी।  यह इमारत ग्रेनाइट से बनी है, जिसमें सरल ज्यामितीय आकार और न्यूनतम विवरण हैं।  इसका डिज़ाइन पारंपरिक मकबरे संरचनाओं से हटकर था, जो नए क्रांतिकारी राज्य के आदर्शों पर जोर देता था।

 मकबरे के अंदर, लेनिन का शरीर एक कांच के ताबूत में रखा हुआ है, जो  कब्र से गुजरने वाले आगंतुकों को दिखाई देता है।  लेनिन के शरीर का संरक्षण एक सावधानीपूर्वक शव लेपन प्रक्रिया के माध्यम से किया गया है, जिसमें विशेषज्ञों की एक समर्पित टीम द्वारा निरंतर निगरानी और रखरखाव शामिल है।

 लेनिन समाधि सोवियत नागरिकों और दुनिया भर के आगंतुकों दोनों के लिए तीर्थयात्रा का एक प्रतिष्ठित स्थल रहा है।  यह सोवियत साम्यवाद और लेनिन के आसपास के व्यक्तित्व के पंथ का प्रतीक बन गया।  मकबरा महत्वपूर्ण राज्य समारोहों और परेडों के लिए केंद्र बिंदु के रूप में भी काम करता था।

 पिछले कुछ वर्षों में, मकबरे में कई नवीकरण और संशोधन हुए हैं।  इसने ऐतिहासिक घटनाओं, राजनीतिक परिवर्तनों और सार्वजनिक भावनाओं में बदलाव देखा है।  एक ऐतिहासिक शख्सियत के मकबरे को बनाए रखने की उपयुक्तता के बारे में बहस और चर्चा के बावजूद, लेनिन का विश्राम स्थल रूसी इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है और देश के क्रांतिकारी अतीत में रुचि रखने वाले आगंतुकों को आकर्षित करना जारी रखा है।

 लेनिन समाधि व्लादिमीर लेनिन की स्थायी विरासत और रूस और दुनिया पर बोल्शेविक क्रांति के प्रभाव के प्रमाण के रूप में खड़ी है।  यह उस जटिल इतिहास और विचारधाराओं की याद दिलाता है जिसने रूस जैसे पिछड़े देश को पूंजी के शासन के विरुद्ध शोषण मुक्त समाजवादी समाज की स्थापना की दिशा में आकार दिया।

The Lenin Mausoleum, officially known as the Mausoleum of Vladimir Lenin, is a prominent historical and cultural landmark located in Red Square, Moscow, Russia. It is the final resting place of Vladimir Lenin, the leader of the Bolshevik Party and the first head of the Soviet Union.

The Mausoleum was constructed as a temporary structure in 1924 to hold Lenin's body after his death on January 21 of that year. However, due to its significance and the reverence people had for Lenin, it became a permanent fixture and an important symbol of Soviet power.

The architectural design of the Mausoleum reflects the principles of constructivism, a style that emerged during the early years of the Soviet Union. The building is made of granite, with a simple geometric shape and minimalistic details. Its design was a departure from traditional mausoleum structures, emphasizing the ideals of the new revolutionary state.

Inside the Mausoleum, Lenin's body lies in a glass sarcophagus, visible to visitors who pass through the tomb in a solemn procession. The preservation of Lenin's body has been achieved through a meticulous embalming process, which involves constant monitoring and maintenance by a dedicated team of specialists.

The Lenin Mausoleum has been an iconic site of pilgrimage for both Soviet citizens and visitors from around the world. It became a symbol of Soviet communism and the cult of personality surrounding Lenin. The mausoleum also served as a focal point for important state ceremonies and parades.

Over the years, the Mausoleum has undergone several renovations and modifications. It has witnessed historical events, political changes, and shifts in public sentiment. Despite debates and discussions about the appropriateness of maintaining a mausoleum for a historical figure, Lenin's resting place remains a significant part of Russian history and continues to attract visitors interested in the country's revolutionary past.

The Lenin Mausoleum stands as a testament to the enduring legacy of Vladimir Lenin and the impact of the Bolshevik revolution on Russia and the world. It serves as a reminder of the complex history and ideologies that  shaped the nation against the rule of capital towards establishment of exploitation free socialist society.


Monday, 17 July 2023

अरुणा आसफ अली

1942 में, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, भारत छोड़ो आंदोलन एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था।  यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंत और स्वतंत्र भारत की स्थापना की मांग करते हुए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ शुरू किया गया एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन था।  आंदोलन में शामिल कई साहसी नेताओं और कार्यकर्ताओं में अरुणा आसफ अली, एक प्रमुख कम्युनिस्ट नेता और स्वतंत्रता सेनानी थीं।

 अरुणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई, 1909 को कालका, हरियाणा, भारत में हुआ था।  वह एक राजनीतिक रूप से जागरूक परिवार में पली-बढ़ीं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के आदर्शों से प्रभावित थीं।  अरुणा आसफ अली ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया और अपने समय की प्रमुख महिला नेताओं में से एक बन गईं।

 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, अरुणा आसफ अली ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को संगठित करने और संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  वह भूमिगत प्रतिरोध आंदोलन में एक अग्रणी व्यक्ति बन गईं और उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर उनके प्रयासों को एकजुट करने और समन्वय करने के लिए काम किया।  अरुणा आसफ अली ने निडर होकर उत्पीड़ितों के अधिकारों की वकालत की और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी, जिससे वह कई लोगों के लिए प्रेरणा बन गईं।

 9 अगस्त, 1942 को ब्रिटिश अधिकारियों ने महात्मा गांधी और अन्य प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, जिससे भारत छोड़ो आंदोलन के नेतृत्व में एक शून्य पैदा हो गया।  अरुणा आसफ अली ने अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर इस कमी को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाया और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखा।  उन्होंने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान (जिसे अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाता है) में कांग्रेस का झंडा फहराया, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ अवज्ञा की भावना का प्रतीक था।  यह अधिनियम प्रतिरोध का एक प्रतिष्ठित प्रतीक बन गया और भारत छोड़ो आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।

 कई चुनौतियों और गिरफ्तारी के जोखिम का सामना करने के बावजूद, अरुणा आसफ अली स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर दृढ़ रहीं।  उन्होंने भूमिगत गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया, विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया, पर्चे बांटे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लोगों को एकजुट किया।  उनके समर्पण और साहस ने उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में एक प्रभावशाली व्यक्ति बना दिया।

 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अरुणा आसफ अली का योगदान भारत छोड़ो आंदोलन से भी आगे तक फैला हुआ था।  वह समाज के कल्याण के लिए काम करती रहीं, विशेषकर महिलाओं, हाशिये पर पड़े लोगों और पीड़ितों के अधिकारों के लिए।  1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, उन्होंने राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई, संविधान सभा के सदस्य और बाद में दिल्ली के मेयर के रूप में कार्य किया।

 एक कम्युनिस्ट नेता, स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक न्याय और समानता के चैंपियन के रूप में अरुणा आसफ अली की विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनी रहेगी।  उनके उल्लेखनीय साहस, दृढ़ संकल्प और स्वतंत्रता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता ने उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में श्रद्धा का स्थान दिलाया है।

Saturday, 8 July 2023

Film अमिस्ताद

अमिस्ताद" स्टीवन स्पीलबर्ग द्वारा निर्देशित एक ऐतिहासिक ड्रामा फिल्म है, जो 1997 में रिलीज़ हुई थी। यह फिल्म अमिस्ताद दास जहाज विद्रोह और उसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में कानूनी लड़ाई की सच्ची कहानी पर आधारित है।

फिल्म की शुरुआत 1839 में सिएरा लियोन के मेंडे लोगों के एक समूह को पकड़ने से होती है, जिन्हें क्यूबा में गुलामी में बेचने के लिए जबरन गुलाम जहाज ला अमिस्ताद पर ले जाया जाता है। यात्रा के दौरान, सेंगबे पिएह (जिसे जोसेफ सिंक्वे के नाम से भी जाना जाता है) नाम के एक व्यक्ति के नेतृत्व में बंदियों ने अपने बंधकों के खिलाफ विद्रोह कर दिया, जिससे चालक दल के अधिकांश लोग मारे गए लेकिन जहाज को वापस अफ्रीका ले जाने के लिए कुछ को बचा लिया गया। मेंडे लोगों को अंततः अमेरिकी नौसेना के एक जहाज द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के तट से पकड़ लिया गया।

दासों को कनेक्टिकट में कैद कर दिया जाता है, और उनके भाग्य का निर्धारण करने के लिए एक अदालती मामला चलता है। उन्मूलनवादी वकील रोजर शर्मन बाल्डविन (मैथ्यू मैककोनाघी द्वारा अभिनीत) अदालत में मेंडे बंदियों का बचाव करने के लिए सहमत हैं। उनका तर्क है कि उन्हें अवैध रूप से अपहरण कर लिया गया और गुलामी के लिए बेच दिया गया, और इसलिए उन्हें स्वतंत्र व्यक्ति माना जाना चाहिए। हालाँकि, स्थानीय हित और अमेरिकी सरकार, स्पेन के साथ राजनयिक तनाव के डर से, जहाँ से शुरू में गुलामों को ले जाया गया था, मेंडे लोगों को क्यूबा वापस लौटाने और गुलामी की संस्था को बरकरार रखने की मांग कर रहे हैं।

प्रसिद्ध पूर्व राष्ट्रपति जॉन क्विंसी एडम्स (एंथनी हॉपकिंस द्वारा अभिनीत) की भागीदारी को आकर्षित करते हुए, मामले ने राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। एडम्स ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष न्याय और मनुष्य के रूप में मेंडे लोगों के अंतर्निहित अधिकारों की मान्यता के लिए एक भावुक दलील देते हुए बहस की। अदालत ने अंततः मेंडे बंदियों के पक्ष में फैसला सुनाया, उनकी स्वतंत्रता की पुष्टि की और उन्हें अफ्रीका लौटने का अधिकार दिया।

"अमिस्ताद" न्याय, स्वतंत्रता और विपरीत परिस्थितियों में मानवीय भावना के लचीलेपन के विषयों की पड़ताल करता है। यह गुलामी की संस्था और मानवाधिकारों की लड़ाई से जुड़ी नैतिक और कानूनी जटिलताओं पर प्रकाश डालता है। यह फिल्म गुलाम और आज़ाद दोनों तरह के व्यक्तियों के साहस और दृढ़ संकल्प को चित्रित करती है, जिन्होंने यथास्थिति को चुनौती देने और न्याय पाने का साहस किया।

अपनी सशक्त कहानी कहने और सम्मोहक प्रदर्शन के माध्यम से, "अमिस्ताद" एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना पर प्रकाश डालता है और स्वतंत्रता और समानता के लिए स्थायी संघर्ष की याद दिलाता है।

Tuesday, 4 July 2023

पाब्लो नेरूदा: महान मनुष्यपंथी



" जो शक्तियां न्याय व जनतंत्र के विरोध में हैं उनके पास लफंगे, मसखरे, जोकर, पिस्तौल लिए आतंकवादी और नकली धर्मगुरु हर तरह के लोग थे। उनकी ताकत के आगे स्वप्नदर्शी लोगों का अंत लगभग निश्चित था।" फ़ासिस्ट शक्तियों को देश में उत्पात मचाते हुए देखकर ऐसा कहने वाले चिली में जन्मे स्पेनिश भाषा के लेखक पाब्लो नेरूदा ( 12 जुलाई 1904 - 23 सितंबर 1973 ) विश्व में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखकों में से एक हैं। उनका असली नाम नेफ्ताली रिकार्दो रेइस बासोल्ता था। 

नेरूदा को विश्व स्तर पर मशहूर करने में योगदान सिर्फ उनकी कविताओं का ही नहीं बल्कि उनके गतिशील बहुआयामी व्यक्तित्व का भी था। तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने पर उन्हें लम्बे अर्से तक निर्वासन भोगना पड़ा। सचमुच में विश्व-नागरिक की श्रेणी में शुमार इस शख्स का जीवन बेहद रोमांचक रहा। इटली में जहां उन्होंने शरण ली वहां भी उन्हें प्रशासन के साथ आंख मिचौली खेलनी पड़ी। उन पर जितनी पाबन्दियाँ लगीं, उतना ही उनका रचना- संसार विस्तृत होता चला गया। उन्हें जितना कैदखानों में रखने की कोशिश की गई, वे उतने ही ज्यादा उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता दृढ़ होती गई। अपने उथलपुथल भरे जीवन में वे कई देशों में चिली के राजदूत भी रहे। 

महान मनुष्यपंथी

हम चाहें तो इसे जनता की मज़बूती कह लें या कमज़ोरी कि वह बहुत सहनशील होती है। लेकिन जब सहनशीलता का बांध टूटता है तो जन आक्रोश फूट पड़ना लाज़िम है। फिर भले ही सरकार राष्ट्रीय हो या विदेशी, उसका जनता के क्रोध से बच पाना नामुमकिन हो जाता है। उकता चुकी जनता में विद्रोही भावनायें तथा सामुहिक शक्ति होती हैं और वह भले ही निहत्थी हो पर सरकार से टकरा जाती है। ऐसी दशा में विद्रोह को कुचलने के लिए सरकार सब हथकंडे अपनाती है। जनता के पैसे और खून-पसीने से अर्जित सैनिक शक्ति और शस्त्र बल को सरकार अपनी ही जनता को दमित करने में झोंक देती है। इस संघर्ष में जीत किसी भी पक्ष की हो पर अक्सर देखने में आता है कि बुद्धिजीवी एवं सहृदय विचारशील व्यक्तियों का समर्थन तो जनता के पक्ष में ही होता है।

सन् 1936 में स्पेन में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ था। एक ओर थी निहत्थी, निर्धन और शोषित जनता तथा दूसरी ओर थी सशस्त्र, समर्थ एवं बर्बर फासिस्ट सरकार। स्पेन के उस गृह युद्ध के दौरान चिली के राजनयिक अधिकारी पाब्लो नेरूदा ने, जो उन दिनों स्पेन में ही थे, अपनी सहानुभूति स्पेन की जनता के प्रति प्रकट की। नेरूदा ने कहा कि मेरी सहानुभूति निहत्थी स्पेनी जनता के साथ है, यहां के फासिस्ट फौजी तानाशाह के मैं ख़िलाफ़ हूँ। चिली सरकार को अपने राजनयिक नेरुदा के इस रुख का पता चला तो उन्हें स्पेन से वापस बुला लिया गया। लेकिन इसके पूर्व ही वे स्पेन छोड़ चुके थे, यह कह कर कि जब तक स्पेन में जनता का शासन कायम नहीं हो जाता, तब तक मैं यहीं नहीं आऊंगा।

स्पष्ट है कि नेरूदा ने यह बात अपने आपको सर्वप्रथम मनुष्य मानने के नाते कही थी न कि किसी अपने देश के राजनयिक होने के नाते। नेरूदा ने उस समय ख़ुद को स्पेन में चिली के राजदूत पद पर होने के बावजूद भी प्रथमतः मनुष्य माना। मनुष्य होने की यह गहरी अनुभूति ही उन्हें राजनयिक औपचारिकता के कृत्रिम सीमा बंधनों को तोड़ने के लिए प्रेरित कर गयी। नेरुदा ने स्वयं को पद और उन दायित्वों से सर्वथा विलग कर लिया जिन्हें ओढ़ने पर उन्हें यह लगता था कि उनका मनुष्यत्व पंगु, परतंत्र और विवश हो जायेगा। 

सन् 1947 में नेरूदा चिली की संसद के सीनेटर चुने गए। जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने जनता का जिस निर्भीकता से पक्ष लिया वह चिली के संसदीय इतिहास में गौरव का विषय रहा है। अपनी निर्भीकता के कारण ही उन्हें कई खतरे झेलने पड़े। सीनेटर के रूप में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति गैब्रियल विडैला पर जब यह आरोप लगाया कि उन्होंने देश को अमेरिका के हाथों बेच दिया है तो सरकार ने उन पर देशद्रोह का आरोप जड़ दिया। फलतः उन्हें देश छोड़ना पड़ा। परिस्थितियां बदली और सरकार ने उन्हें सन् 1953 में वापस चिली बुला लिया।

सन् 1970 में चिली के राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया के दौरान राष्ट्रपति पद हेतु नेरूदा का नाम प्रस्तावित किया गया। बड़ी आनाकानी के बाद वे इसके लिए राजी हुए। परन्तु जब उन्हें यह पता चला कि उनके योग्य, प्रतिभाशाली और अच्छे मित्र आयेंदे भी राष्ट्रपति बनने के इच्छुक हैं तो उन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया। सहृदयता, मैत्री और विश्वास को उन्होंने सब बंधनों से परे कर दिया और अपने योग्य मित्र को अवसर देने के लिए ख़ुद चुनाव मैदान से हट गए।

घुमन्तू जीवन

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पाब्लो नेरूदा के संस्मरण की पुस्तक 'I Confess, I have Lived', भी उऩके संघर्षों और जीवन को कविता की तरह प्रस्तुत करने में समर्थ है। नेरुदा ने इसमें देश की राजनीतिक घटनाओं का भी उल्लेख किया है। चिली के जंगलों, झरनों व ऊँचे पर्वतों से उनका प्रेम ही उनसे कहलवा देता है- 'जो चिली के जंगल में नहीं गया, वह इस पृथ्वी को समझता ही नहीं है।'

नेरूदा का मानना था कि इंसान एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ और मौत के आग़ोश में समाने से पहले अपनी सभी ख्वाइशें पूरी करने के संघर्ष में इतना अंधा हो जाता है कि वह कभी भी अपने आसपास की दुनिया देख और समझ नहीं पाता। दुनिया को देखने-समझने की लालसा से वशीभूत नेरुदा की जीवनशैली में खास तरह का घुमंतूपन और खुलापन शामिल था। उनका आवारा घुमंतू जीवन उनकी कविताओं के लिए सहायक सिद्ध हुआ। उनकी कविताओं में लातिन अमेरिका के जीवन के साथ-साथ कई देशों की प्रकृति और आंदोलन का चित्रण भी मिलता है। दुनिया भर में फैली उथलपुथल और सामाजिक आंदोलनों को निकट से देखने के कारण उन्हें संसार में कविता की बदलती भूमिका के प्रति भी नए सिरे से सोचने का अवसर मिला।

नेरूदा लिखते हैं- 'यह हमारे युग का सौभाग्य रहा है कि युद्धों, क्रांतियों और बड़े सामाजिक परिवर्तनों वाले समय में कविता को नए-नए अकल्पनीय क्षेत्रों का उद्घाटन करने का अवसर मिला है। आम आदमी को भी उससे मुठभेड़ करनी पड़ी कि या तो वह उसे व्यक्तिगत रूप से अथवा सामूहिक रूप से सराहे या उसकी निंदा करे।' 

नेरूदा इस बात को रेखांकित करते हैं कि यात्राएं रोमांचक होती हैं लेकिन लौटना अपने देश और प्रांत में चाहिए। नेरूदा भी चिली लौटते हैं और भटकने के संघर्षों से स्वयं को मुक्त करके चिली के संघर्षों में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं। आक्रोशित हो जाते हैं ये देख कर कि सरेआम चिली को लूटा जा रहा है और उसकी खनिज संपदा के लिए पूरे देश को गुलाम बनाने की तैयारी चलती रहती है। उनके मित्र राष्ट्रपति अलांदे की हत्या कर दी गई क्योंकि उसने तांबे की संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। न्याय व जनतंत्र की विरोधी शक्तियों की जनविरोधी कारस्तानियों का विरोध करने पर उन्हें उन शक्तियों का कोपभाजन बनना पड़ा।

प्यार और क्रांति का समन्वय

सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में ही अपने कविता संग्रह 'प्रेम की बीस कविताएँ और विषाद का एक गीत' ( Twenty Love poems and a Song of Despair ) से विश्व प्रसिद्ध हो चुके प्रेम के कवि नेरूदा एक निष्ठावान कम्युनिस्ट थे। सही मायने में जनकवि शायद वही होता है जो प्यार को क्रांति और क्रांति को प्यार मानता है, उन्हें अलग नहीं बल्कि एक ही नदी की दो लहरों की तरह देखता है- जो बहती है जन-जन के दिल में। 

नेरूदा की कविताओं में इश्क़ और इंकलाब के हर क़िस्म के रंग बिखरे हुए हैं। सताए हुए लोगों से प्यार करने वाले इस कवि की पंक्तियां हज़ारों प्रेमियों के लिए अपने प्यार का इज़हार करने का जऱिया रही हैं। एक प्रखर क्रांतिकारी, विचारक और विद्रोही होने के बावजूद उन्होंने अपने दिल से प्यार और करुणा का एहसास कभी मरने नहीं दिया। 

पाब्लो नेरूदा जब 1971 में नोबेल पुरस्कार लेने के लिए पेरिस से स्टाकहोम पहुँचे तो हवाई अड्डे पर एक पत्रकार ने उनसे पूछा: 'सबसे सुन्दर शब्द क्या है ?' नेरुदा का उत्तर था, ''मैं इसका जवाब... एक ऐसे शब्द के जरिए देने जा रहा हूँ जो बहुत घिसा-पिटा है: वह शब्द है 'प्रेम'। आप इसका जितना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, यह उतना ही ज्यादा मजबूत होता जाता है। और इस शब्द का दुरुपयोग करने में भी कोई नुकसान नहीं है।'' नेरुदा की एक खूबसूरत पंक्ति है: ''कितना संक्षिप्त है प्यार और भूलने का अरसा कितना लम्बा।'' 

नेरूदा ऐसे प्रेम कवि थे, जिन्होंने दुनिया के तमाम देशों में हजारों लोगों को अपनी कविताएं सुना कर मुग्ध किया। उनके जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जब वे कोयला खदान मजूरों को, सड़क पर काम कर रहे दिहाड़ी कामगारों को, सैनिकों को, आम जनता को, पार्टी कार्यकर्ताओं को अपनी प्रेम कविताएं सुना कर विभोर करते रहे। चार्ली चैप्लिन ने शायद पाब्लो की कविताएं सुनने के बाद ही कहा होगा कि कविता दुनिया के नाम लिखा गया एक खूबसूरत प्रेम पत्र होती है।

पाब्लो आजीवन दुनिया के नाम कविता के रूप में हजारों प्रेम पत्र लिखते और सुनाते रहे। पाब्लो नेरूदा की रचनाओं में प्रेम की कई नई परिभाषाओं के साथ- साथ लातिन अमरीका की शोषित जनता का आक्रांत स्वर भी व्यक्त होता है। 

विचार क्रांति के दृष्टा और सृष्टा

पाब्लो नेरूदा एक ऐसे कवि हैं जिसने अपनी कविताओं को स्याही से अधिक लहू से लिखा। स्पेनिश नाटककार और नेरूदा के मित्र लॉर्का ने कहा था कि नेरूदा की कविता स्याही के नहीं बल्कि ख़ून के करीब है। उनकी कवितायें उस वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा जागृत करती हैं जो शताब्दियों से समाज के अभिजात्य कुलों द्वारा पैरों तले रौंदा जाता रहा है। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि किस तरह श्रमिकों और किसानों के पसीने की मेहनत पर शोषक वर्ग अपनी विशाल अट्टालिकायें खड़ी कर रहा था। इसलिए गरीबों और दीन-दुखियों के प्रति उनकी कविताओं में परानुभूति ही नहीं आक्रोश भी उभरता है। स्वस्थ आक्रोश, जो उस व्यवस्था को तहस-नहस कर देने के लिए उत्सुक है, जिसमें गरीब और श्रमजीवी वर्ग शोषण चक्की में पिसते जाते हैं। 

नेरूदा की कविता 'सीधी- सी बात' कितने सीधे और सहज अन्दाज़ में आत्ममुग्धता रोग से ग्रसित लोगों को गहरी बात समझा देती है। पढ़ लीजिए।

सीधी-सी बात
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शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)

और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)

और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा :

'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'

जड़ ने कभी नहीं कहा :

'मैं बेहद गहराई से आई हूँ !'

और रोटी कभी नहीं बोली :

दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल

पाब्‍लो नेरूदा की कविता ' सड़कों, चौराहों पर मौत और लाशें' का एक अंश पेश है--

अनुवाद: रामकृष्ण पाण्डेय

मैं दण्ड की माँग करता हूँ

अपने उन शहीदों के नाम पर

उन लोगों के लिए

मैं दण्ड की माँग करता हूँ

जिन्होंने हमारी पितृभूमि को

रक्तप्लावित कर दिया है

उन लोगों के लिए

मैं दण्ड की माँग करता हूँ

जिनके निर्देश पर

यह अन्याय, यह ख़ून हुआ

उसके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ

विश्वासघाती

जो इन शवों पर खड़े होने की हिम्मत रखता है

उसके लिए मेरी माँग है

उसे दण्ड दो, उसे दण्ड दो

जिन लोगों ने हत्यारों को माफ़ कर दिया है

उनके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ

मैं चारों ओर हाथ मलते

घूमता नहीं रह सकता

मैं उन्हें भूल नहीं सकता

मैं उनके ख़ून से सने हाथों को

छू नहीं सकता

मैं उनके लिए दण्ड चाहता हूँ

मैं नहीं चाहता कि उन्हें यहाँ-वहाँ

राजदूत बनाकर भेज दिया जाये

मैं यह भी नहीं चाहता

कि वे लोग यहीं छुपे रहें

मैं चाहता हूँ

उन पर मुक़दमा चले

यहीं, इस खुले आसमान के नीचे

ठीक यहीं

मैं उन्हें दण्डित होते देखना चाहता हूँ

नेरूदा के इन क्रांतिदर्शी विचारों के कारण ही समकालीन कवियों ने उन्हें कवि के रूप में मान्यता नहीं दी। कोई मान्यता दे या न दे कलाकार इसकी चिन्ता कहां करता है? नेरुदा की कविताओं में गरीब और शोषित का स्वर तीव्रता से मुखरित होता रहा।

नेरूदा जन कवि थे। वे कहते हैं,''मैंने कविता में हमेशा आम आदमी के हाथों को दिखाना चाहा। मैंने हमेशा ऐसी कविता की आस की जिसमें उँगलियों की छाप दिखाई दे.. .।'' उनसे पूछा गया ''आप क्यों लिखना चाहते हैं ?'' उनका उत्तर था ''मैं एक वाणी बनाना चाहता हूँ ?'' दुनिया में नेरुदा की पहचान 'जनवाणी के कवि' के रूप में रही है। 

ऐसा आख़िर क्या था नेरूदा की कविताओं में जो लोगों को अपने जादू की ग़िरफ़्त में बांधता चला जाता था? इसका बड़ा कारण है उनकी कविता की स्थानीयता। उनकी कविता सार्वभौमिक होते हुए भी बहुत ठोस रुप से लातिनी अमरीकी कविता थी।

अशोक वाजपेयी कहते हैं, "उनकी कविताओं में प्रेम और क्रांति का अद्भुत समन्वय है। उन्होंने दोनों विरोधाभासी माने जाने वाली चीज़ों को संगुफित करके नया काव्यशास्त्र रच दिया।"

कवि और कविता के बारे में नेरूदा कहते हैं कि, "कवि को भाइचारे और एकाकीपन के बीच एवं भावुकता और कर्मठता के बीच, व अपने आप से लगाव और समूचे विश्व से सौहार्द व कुदरत के उद्घघाटनों के मध्य सँतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है और वही कविता होती है।" नेरूदा यह भी कहते थे, "जो कविता को राजनीति से अलग करना चाहते हैं, वे कविता के दुश्मन हैंI"

जिंदगी का अंतिम पड़ाव 

'एकजुट लोगों को कोई ताक़त नहीं हरा सकती...' यह गीत नेरूदा के आख़री सालों की याद दिलाता है जो उनकी ज़िंदगी के सबसे खुशनसीबी के दिन ही नहीं बल्कि सबसे गमगीन दिन भी थे।

1970 में चिली में सैलवाडॉर अलेंदे ने साम्यवादी सरकार गठित की जो विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई साम्यवादी सरकार थी। अलेंदे ने 1971 में नेरूदा को फ़्रांस में चिली का राजदूत नियुक्त किया और इसी वर्ष उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया गया। 1973 में चिली के सैनिक जनरल ऑगस्टो पिनोचे ने अलेंदे सरकार का तख्ता पलट दिया। इसी कार्रवाई में राष्ट्रपति अलेंदे की मौत हो गई और आने वाले दिनों में अलेंदे समर्थक हज़ारों आम लोगों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया। 

कैंसर से बीमार नेरूदा चिली में अपने घर में बंद इस जनसंहार के ख़त्म होने की उम्मीद करते रहे। लेकिन अलेंदे की मौत के 12 दिन बाद ही नेरूदा ने दम तोड़ दिया। सेना ने उनके घर तक को नहीं बख़्शा और वहाँ की हर चीज़ को तबाह कर दिया। तबाही की मार झेल चुके इस घर से नेरुदा के कुछ दोस्त उनका जनाज़ा लेकर निकले। सैनिक कर्फ़्यू के बावजूद हर सड़क के मोड़ पर आतंक और शोषण के ख़िलाफ़ लड़नेवाले इस सेनानी के हज़ारों चाहने वाले काफ़िले से जुड़ते चले गए। रुँधे हुए गलों से एक बार फिर उमड़ पड़ा सामूहिक शक्ति का वो गीत जो नेरूदा ने कई बार इन लोगों के साथ मिल कर गाया था- "एकजुट लोगों को कोई ताक़त नहीं हरा सकती..." .

नेरूदा कहते हैं कि जीवन के गहन अनुभवों ने उन्हें सूझ-बूझ दी और यही उनकी कविता यात्रा का पाथेय बना। जीवन का अनुभूत सत्य ही उनके लेखन की पूँजी था। वे झूठ, मक्कारी, शोषण का नाश कर एक सत्य, शिव और सुन्दर जगत की कल्पना करते थे। अदम्य आशा, विश्वास, मनुष्य पर आस्था, भविष्य के असीम स्वप्न- ये सब व्यक्त हैं उनकी कविताओं में। नेरूदा कहते हैं, - 'कल आएगा हरे पदचाप के साथः भोर की नदी को कोई रोक नहीं सकता है'।

पाब्लो नेरूदा की आत्मकथा पढ़ कर और उसके रचना संसार से गुज़र कर पाठक पहले की तुलना में वैचारिक तौर पर और अमीर हो जाता है।

साहित्य का अंतिम फैसला काल करता है। मृत्यु के लगभग चार दशकों के पश्चात भी नेरूदा की ख्याति तथा प्रतिष्ठा को क्षति नहीं पहुंची है। यह इस बात का सबूत है कि उनके साहित्य में काल के पार जाने की क्षमता है।

H.R. Isran
Former Principal, College Education, Raj.

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Tuesday, 27 June 2023

आर्थिक मंदी



आर्थिक मंदी

मौजूदा व्यवस्था के रहते हमारे देश में चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का उत्पादन सम्भव नहीं है क्योंकि यदि पूँजीपति वर्ग अपने उद्योगों का विस्तार करके चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का उत्पादन करता है तो एक हद तक सस्ता माल तैयार हो सकता है और सस्ते मालों के बल पर कुछ समय के लिए चीन को टक्कर दिया जा सकता है। मगर हमारे देश का पूँजीपति वर्ग चीन के टक्कर में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर ही नहीं सकता क्योंकि-
1- उसके पास पूँजी का अभाव है।
2- उसके पास आन्तरिक बाजार नहीं है क्योंकि यहाँ लोगों के पास क्रय शक्ति नहीं है। 
3- आर्थिक मंदी के कारण उसका माल अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में भी नहीं बिक सकता।

अब यंहा फिर प्रश्न उठता है कि क्या कोई पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वाला विकसित देश भी चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का औद्योगीकरण नहीं कर सकता है? तो कोई कितना भी विकसित पूँजीवादी देश क्यों न हो वह चीन के टक्कर में विराट पैमाने का उत्पादन नहीं कर पा रहा है और कर भी नहीं पायेगा, क्योंकि समाजवादी देशों  में जल, जंगल, जमीन कल-कारखाना, खान-खदान, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा, बीमा और बैंक सरकारी हैं इसका मतलब सारी पूँजी सरकार द्वारा नियंत्रित होती है। एफ.डी.आई., एफ.आई.आई.... आदि के जरिये जो विदेशी पूँजी आती है वह भी सरकार के नियंत्रण में ही रहती है। इस प्रकार सारी पूँजी एक जगह से नियंतित्र होती है। इसी कारण चीन की पूँजी पूरी दुनिया में फैली होने के बावजूद भी संगठित है। इसीलिये वह बड़े से बड़ा उद्योग लगाने में सक्षम है इसके विपरीत पूँजीवादी देशों  की पूँजी में तीन कमजोरियाँ होती हैं-
1- उत्पादन के संसाधनों के निजी मालिकाने के कारण पूँजीवादी देशों  की सारी पूँजी बिखरी हुई होती है।
2- पूँजीपति वर्गों में आपसी तालमेल नहीं होता। लाखों पूँजीपति अपनी-अपनी पूँजी को अपने-अपने ढंग से जहाँ चाहते हैं वहाँ लगाते हैं। वे अपनी पूँजी को अलग-अलग नियंत्रित करते हैं।
3- पूंजीपति एक दूसरे से अधिक मुनाफा कमाने के लिये आपस में होड़ करते हैं तथा एक दूसरे के विरुद्ध गलाकाट प्रतिस्पर्धा करते हैं। 
इन तीन कारणों से पूँजीवादी देशों की पूँजी से विराट पैमाने का उत्पादन संभव ही नहीं है। विश्व के सारे पूँजीवादी देशों  का सरगना अमेरिका भी चीन की तुलना में बड़े से बड़ा उद्योग लगाने में सक्षम नहीं हैं।
वालमार्ट अमेरिका की बहुत बड़ी कम्पनी है, जो दुनिया भर में शापिंग माल खोल कर चीन का सस्ता माल बेच रही है। और भारी मुनाफा कमा रही है। यदि वालमार्ट कम्पनी अपना कारखाना खोलकर माल पैदा करके बेचती तो उसे जोखिम ज्यादा उठाना पड़ता। और जोखिम के मुकाबले उतना भारी मुनाफा नहीं मिलता। बाजार में चीन के सस्ते मालां के मुकाबले उसका माल नहीं बिक पाता तो उसे भारी घाटा हो सकता था, और उसकी पूँजी डूब सकती थी। यही भय भारत के पूँजीपतियों को भी है। 

पूँजीवादी तरीके से समाजवादी उत्पादन का मुकाबला करना सम्भव नहीं रह गया है क्यांकि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली अनियंत्रित बाढ़ अथवा सूखे की तरह होती है। पूँजीवादी उत्पादन हमेशा ही सीमित पैमाने का उत्पादन होता है। पूँजीवादी उत्पादन जितना ही ज्यादा बढा़ते हैं उतनी ही ज्यादा भयानक मन्दी आती है। पूँजीवादी व्यवस्था में जितना ही भारी पैमाने का उत्पादन करेंगे, पूँजीपतियों के बीच निजी स्वामित्व के कारण उतनी ही भयानक प्रतिस्पर्धा होगी। वे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए लागत मूल्य घटायेंगे। लागत मूल्य घटाने के लिए बड़ी से बड़ी मशीनें लगायेंगे जिससे कम मजदूरों द्वारा ज्यादा माल पैदा कर सकेंगे। बड़ी मशीनें लगा कर पैदावार को बढ़ा देते हैं, परन्तु मजदूरों की छँटनी कर देते हैं। इस प्रकार खरीदने वालों की संख्या घटा देते हैं। दरअसल काम से हटाये गये मजदूर तनख्वाह नहीं पाते हैं, अतः खरीददारी नहीं कर पाते इस प्रकार पूँजीपति माल की पैदावार तो बढ़ा देता है परन्तु साथ ही साथ खरीदने वालों की संख्या घटा देता है। जिसके कारण अनिवार्य रूप से एक ऐसा समय आता है, जब बाजार माल से पट जाता है और खरीदने वाले बहुत कम रह जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक मंदी आ जाती है। पूँजीपति जितने ही बड़े पैमाने का उत्पादन करते हैं उतनी ही भयानक आर्थिक मंदी आती है। पूँजीवाद विकसित होकर साम्राज्यवाद में बदल जाता है तब अति उत्पादन के कारण नहीं बल्कि उत्पादन ठप्प या कम होने के कारण भी मंदी आती है। इस दौर में औद्योगिक पूँजी वित्तीय पूँजी के रूप में बदलती जाती है। वह वित्तीय पूँजी उन तमाम गैर जरूरी चीजों के उत्पादन को बढ़ावा देती है, जिसमें कम से कम समय, कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा हो। तब वह वित्तीय पूँजी मनुश्य की बुनियादी जरूरतों- रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी वस्तुओं का उत्पादन करने की बजाय हथियार, शराब आदि नशीले पदार्थ, गंदी फिल्में, गंदे गाने तथा कामुकता बढ़ाने की दवायें एवं उपकरण आदि के उत्पादन को बढ़ावा देती है। और अपने मजबूत प्रचार तंत्रों के जरिये अपने इन गैर जरूरी उत्पादों को खरीदने के लिए लोगो के मन में कृत्रिम जरूरत पैदा करती है।

आर्थिक मंदी के दौरान अपना मुनाफा बरकरार रखने के लिए जब पूँजीपति लोग मजदूरों की छँटनी करते हैं  तो मंदी और बढ़ जाती है। मंदी के दौरान मुनाफा बढ़ाने के लिए जब पूँजीपति महँगाई बढ़ाते हैं तो चीन का सस्ता माल और अधिक तेजी से उन्हें बाजार से बाहर खदेड़ता है। महँगाई बढ़ने से खर्च भी बढ़ जाता है। तब बढ़े हुए खर्च को पूरा करने के लिए भ्रष्टाचार भी बढ़ता है। जहाँ पूँजीपति वर्ग प्राकृतिक संसाधनों एवं टैक्स की चोरी आदि से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है वहीं सरकारी अधिकारी व कर्मचारी अपने कानूनी अधिकारों को बेचकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते रहते हैं। यदि आर्थिक मंदी से उबरने के लिए विदेशों  से कर्ज लेते हैं, तो कर्ज देने वाले देश की शर्तों को मानना पड़ता है, जिससे साम्राज्यवादी शोषण व गुलामी की जकड़न और अधिक बढ़ जाती है, जिससे जनाक्रोश बढ़ता है, जनता विकल्प तलाशती है तो पूँजीपति वर्ग जनता को भुलावा देने के लिए चुनाव करवाता है। चुनाव का खर्च जनता से वसूलने के लिए टैक्स बढ़ाया जाता है जिससे महँगाई बढती है। और यह महँगाई आर्थिक मंदी को और बढ़ाती है। अतः पूँजीपति वर्ग समाजवादी उत्पादन के मुकाबले भारी पैमाने का उद्योग चला ही नहीं सकता। इसलिए पूँजीवादी उत्पादन द्वारा समाजवादी उत्पादन के मुकाबले सस्ता माल नहीं तैयार किया जा सकता। 
समाजवादी उत्पादन का मुकाबला करने में पूँजीपतियों की पूँजी निश्चित ही डूब जायेगी। क्योंकि समाजवादी उत्पादन में आर्थिक मंदी नहीं आती जबकि पूँजीवादी उत्पादन में हर छठवें-सातवें.... दसवें-पन्द्रहवें.... साल तक अनिवार्य रूप से आर्थिक मंदी आती ही है। पहले जब आर्थिक मंदी आती थी तो धीरे-धीरे साल दो साल में दूर हो जाया करती थी परन्तु जब पूँजीवादी मंदी का फायदा उठाने में समाजवादी अर्थव्यवस्था सक्षम हो जाती है तब पूँजीवादी मंदी प्रायः महामंदी में बदल जाती है और उस महामंदी के दूर होने की संभावना खत्म होती जाती है। ऐसी परिस्थिति में अल्प विकसित देशों  की बात ही छोडि़ये, अमेरिका जैसे विकसित पूँजीवादी साम्राज्यवादी देश की पूँजी को सौ गुना बड़ा कर दिया जाय तो भी उसकी पूँजी भागकर चीन की तरफ जायेगी। पूँजीवाद की आर्थिक मंदी का फायदा उठाकर समाजवादी उत्पादन उससे बहुत आगे बढ़ता जायेगा और इतना बड़ा हो जायेगा कि पूँजीवादी उद्योगों को ही निगल जायेगा। अतः समाजवादी उत्पादन के मुकाबले पूँजीवादी उद्योग लगाकर पूँजीपति वर्ग मुनाफा कमाने की बात छोडि़ये अपना उद्योग भी नहीं बचा पायेगा। और बिना मुनाफा के वह कोई जोखिम उठा ही नहीं पायेगा। इसलिए उसके सामने एक ही उपाय होता है कि वह अपने उद्योग बन्द कर समाजवादी उद्योगों का माल खरीदे और बेचे।
तो फिर  चीन में बड़े पैमाने का उत्पादन करने के बावजूद भी आर्थिक मंदी क्यों नहीं आती? क्योंकि चीन का सामाजिक संगठन पूँजीवादी देशों के सामाजिक संगठन से अलग तरह का है। वहाँ दास और दास मालिक वाला समाज नहीं है, वहाँ राजा-प्रजा या मजदूर-मालिक वाला समाज नहीं है। वहां पूरा समाज ही उत्पादन के साधनों का मालिक है। श्रमिक वर्ग के सामूहिक नेतृत्व में कारखाने चल रहे हैं। श्रमिक वर्ग आपस में मुनाफाखोरी के लिए होड़ नहीं करता। वह समाज की आवष्यकताओं को ध्यान में रखकर "योजनाबद्ध तरीके" से उत्पादन करता है। और भारी पैमाने के उद्योगां के बल पर सस्ता सामान सबके लिए उपलब्ध कराता है। इसी वजह से बडे़ पैमाने का उत्पादन होने के बावजूद भी चीन में आर्थिक मंदी नहीं आती और न ही वहाँ महँगाई और बेरोजगारी की गुंजाइश बन पाती है। ऐंगेल्स ने घोशणा-पत्र में पेज 80 पर लिखा है-''.... इस तरह, बड़े पैमाने के उद्योग का ठीक वह गुण जो आज के समाज में सारी गरीबी और सारे व्यापार संकटों को जन्म देता है, ही बिल्कुल वह गुण है जो भिन्न सामाजिक संगठन में उस दरिद्रता को तथा इन विनाशकारी उतार-चढ़ावों को नश्ट कर देगा।'' अर्थात बड़े पैमाने के उद्योग द्वारा किये जाने वाले भारी पैमाने के उत्पादन पूँजीपति वर्ग के अधीन होते हैं तो विनाशकारी उतार-चढ़ावों (आर्थिक मंदी) को जन्म देते हैं जिससे तमाम छोटे कारखानेदार तबाह हो जाते हैं और लाखों मजदूर बेरोजगार हो जाते हैं। महँगाई बढ़ती है तो भ्रष्टाचार भी बढ़ता है और कर्ज, युद्ध एवं दिवालियापन का संकट भी बढ़ता है परन्तु बड़े पैमाने के वही उद्योग जब समाज के अधीन रह कर उत्पादन का असीम विस्तार करते हैं तो विकास होता है तथा आर्थिक मंदी भी नहीं आती और महँगाई, बेरोजगारी, गरीबी आदि तमाम संकट दूर हो जाते हैं। 

*रजनीश भारती*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा*

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