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Tuesday, 27 June 2023

आर्थिक मंदी



आर्थिक मंदी

मौजूदा व्यवस्था के रहते हमारे देश में चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का उत्पादन सम्भव नहीं है क्योंकि यदि पूँजीपति वर्ग अपने उद्योगों का विस्तार करके चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का उत्पादन करता है तो एक हद तक सस्ता माल तैयार हो सकता है और सस्ते मालों के बल पर कुछ समय के लिए चीन को टक्कर दिया जा सकता है। मगर हमारे देश का पूँजीपति वर्ग चीन के टक्कर में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर ही नहीं सकता क्योंकि-
1- उसके पास पूँजी का अभाव है।
2- उसके पास आन्तरिक बाजार नहीं है क्योंकि यहाँ लोगों के पास क्रय शक्ति नहीं है। 
3- आर्थिक मंदी के कारण उसका माल अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में भी नहीं बिक सकता।

अब यंहा फिर प्रश्न उठता है कि क्या कोई पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वाला विकसित देश भी चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का औद्योगीकरण नहीं कर सकता है? तो कोई कितना भी विकसित पूँजीवादी देश क्यों न हो वह चीन के टक्कर में विराट पैमाने का उत्पादन नहीं कर पा रहा है और कर भी नहीं पायेगा, क्योंकि समाजवादी देशों  में जल, जंगल, जमीन कल-कारखाना, खान-खदान, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा, बीमा और बैंक सरकारी हैं इसका मतलब सारी पूँजी सरकार द्वारा नियंत्रित होती है। एफ.डी.आई., एफ.आई.आई.... आदि के जरिये जो विदेशी पूँजी आती है वह भी सरकार के नियंत्रण में ही रहती है। इस प्रकार सारी पूँजी एक जगह से नियंतित्र होती है। इसी कारण चीन की पूँजी पूरी दुनिया में फैली होने के बावजूद भी संगठित है। इसीलिये वह बड़े से बड़ा उद्योग लगाने में सक्षम है इसके विपरीत पूँजीवादी देशों  की पूँजी में तीन कमजोरियाँ होती हैं-
1- उत्पादन के संसाधनों के निजी मालिकाने के कारण पूँजीवादी देशों  की सारी पूँजी बिखरी हुई होती है।
2- पूँजीपति वर्गों में आपसी तालमेल नहीं होता। लाखों पूँजीपति अपनी-अपनी पूँजी को अपने-अपने ढंग से जहाँ चाहते हैं वहाँ लगाते हैं। वे अपनी पूँजी को अलग-अलग नियंत्रित करते हैं।
3- पूंजीपति एक दूसरे से अधिक मुनाफा कमाने के लिये आपस में होड़ करते हैं तथा एक दूसरे के विरुद्ध गलाकाट प्रतिस्पर्धा करते हैं। 
इन तीन कारणों से पूँजीवादी देशों की पूँजी से विराट पैमाने का उत्पादन संभव ही नहीं है। विश्व के सारे पूँजीवादी देशों  का सरगना अमेरिका भी चीन की तुलना में बड़े से बड़ा उद्योग लगाने में सक्षम नहीं हैं।
वालमार्ट अमेरिका की बहुत बड़ी कम्पनी है, जो दुनिया भर में शापिंग माल खोल कर चीन का सस्ता माल बेच रही है। और भारी मुनाफा कमा रही है। यदि वालमार्ट कम्पनी अपना कारखाना खोलकर माल पैदा करके बेचती तो उसे जोखिम ज्यादा उठाना पड़ता। और जोखिम के मुकाबले उतना भारी मुनाफा नहीं मिलता। बाजार में चीन के सस्ते मालां के मुकाबले उसका माल नहीं बिक पाता तो उसे भारी घाटा हो सकता था, और उसकी पूँजी डूब सकती थी। यही भय भारत के पूँजीपतियों को भी है। 

पूँजीवादी तरीके से समाजवादी उत्पादन का मुकाबला करना सम्भव नहीं रह गया है क्यांकि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली अनियंत्रित बाढ़ अथवा सूखे की तरह होती है। पूँजीवादी उत्पादन हमेशा ही सीमित पैमाने का उत्पादन होता है। पूँजीवादी उत्पादन जितना ही ज्यादा बढा़ते हैं उतनी ही ज्यादा भयानक मन्दी आती है। पूँजीवादी व्यवस्था में जितना ही भारी पैमाने का उत्पादन करेंगे, पूँजीपतियों के बीच निजी स्वामित्व के कारण उतनी ही भयानक प्रतिस्पर्धा होगी। वे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए लागत मूल्य घटायेंगे। लागत मूल्य घटाने के लिए बड़ी से बड़ी मशीनें लगायेंगे जिससे कम मजदूरों द्वारा ज्यादा माल पैदा कर सकेंगे। बड़ी मशीनें लगा कर पैदावार को बढ़ा देते हैं, परन्तु मजदूरों की छँटनी कर देते हैं। इस प्रकार खरीदने वालों की संख्या घटा देते हैं। दरअसल काम से हटाये गये मजदूर तनख्वाह नहीं पाते हैं, अतः खरीददारी नहीं कर पाते इस प्रकार पूँजीपति माल की पैदावार तो बढ़ा देता है परन्तु साथ ही साथ खरीदने वालों की संख्या घटा देता है। जिसके कारण अनिवार्य रूप से एक ऐसा समय आता है, जब बाजार माल से पट जाता है और खरीदने वाले बहुत कम रह जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक मंदी आ जाती है। पूँजीपति जितने ही बड़े पैमाने का उत्पादन करते हैं उतनी ही भयानक आर्थिक मंदी आती है। पूँजीवाद विकसित होकर साम्राज्यवाद में बदल जाता है तब अति उत्पादन के कारण नहीं बल्कि उत्पादन ठप्प या कम होने के कारण भी मंदी आती है। इस दौर में औद्योगिक पूँजी वित्तीय पूँजी के रूप में बदलती जाती है। वह वित्तीय पूँजी उन तमाम गैर जरूरी चीजों के उत्पादन को बढ़ावा देती है, जिसमें कम से कम समय, कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा हो। तब वह वित्तीय पूँजी मनुश्य की बुनियादी जरूरतों- रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी वस्तुओं का उत्पादन करने की बजाय हथियार, शराब आदि नशीले पदार्थ, गंदी फिल्में, गंदे गाने तथा कामुकता बढ़ाने की दवायें एवं उपकरण आदि के उत्पादन को बढ़ावा देती है। और अपने मजबूत प्रचार तंत्रों के जरिये अपने इन गैर जरूरी उत्पादों को खरीदने के लिए लोगो के मन में कृत्रिम जरूरत पैदा करती है।

आर्थिक मंदी के दौरान अपना मुनाफा बरकरार रखने के लिए जब पूँजीपति लोग मजदूरों की छँटनी करते हैं  तो मंदी और बढ़ जाती है। मंदी के दौरान मुनाफा बढ़ाने के लिए जब पूँजीपति महँगाई बढ़ाते हैं तो चीन का सस्ता माल और अधिक तेजी से उन्हें बाजार से बाहर खदेड़ता है। महँगाई बढ़ने से खर्च भी बढ़ जाता है। तब बढ़े हुए खर्च को पूरा करने के लिए भ्रष्टाचार भी बढ़ता है। जहाँ पूँजीपति वर्ग प्राकृतिक संसाधनों एवं टैक्स की चोरी आदि से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है वहीं सरकारी अधिकारी व कर्मचारी अपने कानूनी अधिकारों को बेचकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते रहते हैं। यदि आर्थिक मंदी से उबरने के लिए विदेशों  से कर्ज लेते हैं, तो कर्ज देने वाले देश की शर्तों को मानना पड़ता है, जिससे साम्राज्यवादी शोषण व गुलामी की जकड़न और अधिक बढ़ जाती है, जिससे जनाक्रोश बढ़ता है, जनता विकल्प तलाशती है तो पूँजीपति वर्ग जनता को भुलावा देने के लिए चुनाव करवाता है। चुनाव का खर्च जनता से वसूलने के लिए टैक्स बढ़ाया जाता है जिससे महँगाई बढती है। और यह महँगाई आर्थिक मंदी को और बढ़ाती है। अतः पूँजीपति वर्ग समाजवादी उत्पादन के मुकाबले भारी पैमाने का उद्योग चला ही नहीं सकता। इसलिए पूँजीवादी उत्पादन द्वारा समाजवादी उत्पादन के मुकाबले सस्ता माल नहीं तैयार किया जा सकता। 
समाजवादी उत्पादन का मुकाबला करने में पूँजीपतियों की पूँजी निश्चित ही डूब जायेगी। क्योंकि समाजवादी उत्पादन में आर्थिक मंदी नहीं आती जबकि पूँजीवादी उत्पादन में हर छठवें-सातवें.... दसवें-पन्द्रहवें.... साल तक अनिवार्य रूप से आर्थिक मंदी आती ही है। पहले जब आर्थिक मंदी आती थी तो धीरे-धीरे साल दो साल में दूर हो जाया करती थी परन्तु जब पूँजीवादी मंदी का फायदा उठाने में समाजवादी अर्थव्यवस्था सक्षम हो जाती है तब पूँजीवादी मंदी प्रायः महामंदी में बदल जाती है और उस महामंदी के दूर होने की संभावना खत्म होती जाती है। ऐसी परिस्थिति में अल्प विकसित देशों  की बात ही छोडि़ये, अमेरिका जैसे विकसित पूँजीवादी साम्राज्यवादी देश की पूँजी को सौ गुना बड़ा कर दिया जाय तो भी उसकी पूँजी भागकर चीन की तरफ जायेगी। पूँजीवाद की आर्थिक मंदी का फायदा उठाकर समाजवादी उत्पादन उससे बहुत आगे बढ़ता जायेगा और इतना बड़ा हो जायेगा कि पूँजीवादी उद्योगों को ही निगल जायेगा। अतः समाजवादी उत्पादन के मुकाबले पूँजीवादी उद्योग लगाकर पूँजीपति वर्ग मुनाफा कमाने की बात छोडि़ये अपना उद्योग भी नहीं बचा पायेगा। और बिना मुनाफा के वह कोई जोखिम उठा ही नहीं पायेगा। इसलिए उसके सामने एक ही उपाय होता है कि वह अपने उद्योग बन्द कर समाजवादी उद्योगों का माल खरीदे और बेचे।
तो फिर  चीन में बड़े पैमाने का उत्पादन करने के बावजूद भी आर्थिक मंदी क्यों नहीं आती? क्योंकि चीन का सामाजिक संगठन पूँजीवादी देशों के सामाजिक संगठन से अलग तरह का है। वहाँ दास और दास मालिक वाला समाज नहीं है, वहाँ राजा-प्रजा या मजदूर-मालिक वाला समाज नहीं है। वहां पूरा समाज ही उत्पादन के साधनों का मालिक है। श्रमिक वर्ग के सामूहिक नेतृत्व में कारखाने चल रहे हैं। श्रमिक वर्ग आपस में मुनाफाखोरी के लिए होड़ नहीं करता। वह समाज की आवष्यकताओं को ध्यान में रखकर "योजनाबद्ध तरीके" से उत्पादन करता है। और भारी पैमाने के उद्योगां के बल पर सस्ता सामान सबके लिए उपलब्ध कराता है। इसी वजह से बडे़ पैमाने का उत्पादन होने के बावजूद भी चीन में आर्थिक मंदी नहीं आती और न ही वहाँ महँगाई और बेरोजगारी की गुंजाइश बन पाती है। ऐंगेल्स ने घोशणा-पत्र में पेज 80 पर लिखा है-''.... इस तरह, बड़े पैमाने के उद्योग का ठीक वह गुण जो आज के समाज में सारी गरीबी और सारे व्यापार संकटों को जन्म देता है, ही बिल्कुल वह गुण है जो भिन्न सामाजिक संगठन में उस दरिद्रता को तथा इन विनाशकारी उतार-चढ़ावों को नश्ट कर देगा।'' अर्थात बड़े पैमाने के उद्योग द्वारा किये जाने वाले भारी पैमाने के उत्पादन पूँजीपति वर्ग के अधीन होते हैं तो विनाशकारी उतार-चढ़ावों (आर्थिक मंदी) को जन्म देते हैं जिससे तमाम छोटे कारखानेदार तबाह हो जाते हैं और लाखों मजदूर बेरोजगार हो जाते हैं। महँगाई बढ़ती है तो भ्रष्टाचार भी बढ़ता है और कर्ज, युद्ध एवं दिवालियापन का संकट भी बढ़ता है परन्तु बड़े पैमाने के वही उद्योग जब समाज के अधीन रह कर उत्पादन का असीम विस्तार करते हैं तो विकास होता है तथा आर्थिक मंदी भी नहीं आती और महँगाई, बेरोजगारी, गरीबी आदि तमाम संकट दूर हो जाते हैं। 

*रजनीश भारती*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा*

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