जात नहीं, धर्म पूछा,
मारने वाले ने,
न जात पूछा, न धर्म पूछा
बचाने वाले ने।
एक ने पेट चाक किया,
दूजे ने पट्टी बाँधी।
पर अख़बारों ने किसका नाम लिखा?
चाकू थामने वाले का,
हाथ थामने वाले का नहीं।
टीवी पर कौन आया?
जो नफरत से भरा था,
जिसके हाथ खून में सने थे—
वो "मुसलमान" बनकर उभरा।
और जिसने इंसान बनकर
इंसान बचाया—
वो बेनाम, वो गुमनाम,
वो ग़ायब रहा गोदी मीडिया की स्क्रिप्ट से।
क्योंकि यहाँ
ख़बर वही बनती है
जो ज़हर फैलाती है।
जो मरहम रखे,
वो टीआरपी में नहीं आता।
पर याद रखो—
इंसानियत जिंदा रहेगी,
जब तक घोड़ेवाले,
ऑटोवाले,
रोज़ कमाने-खाने वाले
जिंदा हैं।
पहलगाम गवाह है,
जहाँ न सरकार थी,
न सेना,
बस थे कुछ इंसान—
जो बिना नाम-धर्म पूछे
बचाव में कूदे थे।
ये वक़्त है पूछने का—
हीरो कौन है?
जो जान ले,
या जो जान बचा ले?
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