दुनिया के मजदूरो, एक हो!
प्लेखानोव
जुझारू भौतिकवाद
श्री बोग्दानोव को उत्तर
एम के आजाद द्वारा कामगार-ई-पुस्तकालय के लिए
हिंदी यूनिकोड में रूपांतरित
अप्रैल 2021
https://kamgar-e-library.blogspot.com/
राहुल फाउण्डेशन
लखनऊ
अनुवाद: ज. च. पाण्डेय
ISBN: 81-87728-57-4
मूल्य: रु.35.00
प्रथम संस्करण: जनवरी, 2006
प्रकाशक : राहुल फाउण्डेशन
69, बाबा का पुरवा, पेपरमिल रोड, निशातगंज, लखनऊ-226 006
लेज़र टाइपसेटिंग: कम्प्यूटर प्रभाग, राहुल फाउण्डेशन
मुद्रक क्रिएटिव प्रिन्टर्स, 628 S-28, शक्तिनगर, लखनऊ
Jujharu Bhautikvad by GV. Plekhanov
विषय-सूची
प्रकाशक की टिप्पणी | 5 |
जुझारू भौतिकवाद (श्री बोग्दानोव को उत्तर) | 7 |
पहला पत्र | 7 |
दूसरा पत्र | 36 |
तीसरा पत्र | 71 |
टिप्पणियाँ | 125 |
नाम-निर्देशिका | 130 |
प्रकाशक की टिप्पणी
गे.व. प्लेखानोव मार्क्सवादी दर्शन के एक असाधारण प्रचारक तथा भौतिकवादी विश्व दर्शन के चैम्पियन थे। अपने लेख 'मार्क्सवाद तथा संशोधनवाद' (1908) में लेनिन ने लिखा: ...अन्तरराष्ट्रीय सामाजिक-जनवादी आन्दोलन में संशोधनवादियों की अविश्वसनीय नीरस उक्तियों की सुसंगत भौतिकवादी दृष्टिकोण से आलोचना करने वाले एकमात्र मार्क्सवादी प्लेखानोव थे। इस पर अधिकाधिक जोर से, बल दिया जाना चाहिये क्योंकि वर्तमान काल में प्लेखानोव के कार्यनीतिक अवसरवाद की आलोचना के छद्मरूप में पुराने व प्रतिक्रियावादी दार्शनिक कचरे को चोरी-छिपे लाने की गहरी भ्रान्तिपूर्ण कोशिशें की जा रही हैं।"
माखवाद, नवधर्म प्रणयन तथा प्रत्ययवाद के अन्य प्रकारान्तरों के खिलाफ़ प्लेखानोव का संघर्ष मार्क्सवादी दर्शन के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। प्लेखानोव ने माखवादियों के विरुद्ध कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ लिखीं। उनमें रूसी माख्वादियों तथा उनके विदेशी शिक्षकों-माख तथा आवेनारिउस के प्रत्ययवादी दृष्टिकोणों की गहन आलोचना की गयी है।
उनके तीन पत्र 'जुझारू भौतिकवाद' मुख्य रूप से, रूसी माखवाद के एक प्रमुख प्रतिनिधि अ.अ.बोग्दानोव के विरुद्ध हैं।
उन्हें अपनी रचना 'जुझारू भौतिकवाद' को लिखने की तात्कालिक प्रोत्तेजना अ.अ. बोग्दानोव की प्लेखानोव के नाम खुली चिट्ठी से प्राप्त हुई। यह चिट्ठी मासिक पत्रिका 'वेस्तनिक जीज़िन के सन 1907 के सातवें अंक में छपी थी। (यही वजह है कि प्लेखानोव के तीन 'पत्रों' का उपशीर्षक 'श्री बोग्दानोव को उत्तर' है)। लेकिन उन्हें लिखने का इससे कहीं अधिक गहरा कारण उन संशोधनवादियों को करारा जवाब देने की जरूरत थी जो मार्क्सवाद के स्थान पर माखवाद को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर रहे थे।
प्लेखानोव ने 1908 के प्रारम्भिक दिनों से अपने लेखों को लिखने का काम शुरू किया। पहला और दूसरा लेख (पत्र) 1908 के ग्रीष्म में 'गोलोस सोत्सिअल-देमोक्राता' पत्रिका में छपा। तीसरा पत्र, 'प्रतिरक्षा से आक्रमण तक'
जुझारू भौतिकवाद / 7
(1910) शीर्षक के अन्तर्गत, उनके एक लेख संग्रह के लिए खास तौर से लिखा गया था। प्लेखानोव ने बोग्दानोव के विरुद्ध अपने तीनों उस संग्रह में सम्मिलित किये।
लेखक के जीवनकाल में इन पत्रों के अन्य संस्करण नहीं छपे। मौजूदा संस्करण का पाठ वही है जो 'गोलोस सोसिअल-देमोक्राता' (पहला और दूसरा पत्र) तथा 'प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' (तीसरा पत्र) में प्रकाशित हुआ था।
8/जुझारू भौतिकवाद
जुझारू भौतिकवाद
श्री बोग्दानोव को उत्तर
पहला पत्र
Tu l'as voulu, Georges Dandin! 1
प्रिय महोदय,
1907 की 'वेस्तनिक जीज़िन 2, अंक 7 में आपकी 'कामरेड प्लेखानोव के नाम खुली चिट्ठी' छपी है। इस चिट्ठी से साफ़ जाहिर हो जाता है कि आप कई कारणों से मुझसे असन्तुष्ट हैं। अगर मैं ग़लती नहीं कर रहा हूँ तो इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि पिछले तीन वर्षों से मैं, जैसा कि आपने कहा है, अनुभवात्मक एकत्ववाद3 के खिलाफ़ कोई भी गम्भीर तर्क प्रस्तुत किये बिना "उधार पर" उसके साथ विवाद चल रहा हूँ और, जैसा कि आप ही ने फिर कहा है, मेरी इन "युक्तियों" को किंचित सफलता मिल गयी प्रतीत होती है। इसके बाद, आप मेरी इसलिए निंदा करते हैं कि मैं आपको श्री बोग्दानोव कहकर "सम्बोधित किये जाता हूँ"। इसके अलावा आप डीयेट्ज़गेन के Das Akquisit der Philosophie तथा Briefe uber Logik की मेरी समीक्षा से भी असन्तुष्ट हैं। आप कहते हैं कि मैं पाठकों को इस आधार पर डीयेट्ज़गेन के दर्शन के प्रति अपने रवैये में अति विश्वासप्रवण व असावधान होने के ख़िलाफ़ आगाह करता हूँ कि वह कभी-कभी आपके दर्शन जैसा लगता है। मैं आपकी असन्तुष्टि के एक और कारण की चर्चा करूँगा। आप ज़ोर देकर कहते हैं कि मेरे विचारों से सहमत कुछ लोग आपके ख़िलाफ़ लगभग "फ़ौजदारी" आरोप लगा रहे हैं, और आप यह दावा करते हैं कि उनके "नीति भ्रष्ट" होने का आंशिक दोष मेरा है। मेरे खिलाफ़ लानत भेजने के आपके कारणों की सूची को मैं और
भी लम्बा बना सकता हूँ, लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं है : जो मुद्दे मैंने उठाये हैं वे ऐसा स्पष्टीकरण पेश करने के लिए पर्याप्त हैं जो सामान्य दिलचस्पी से खाली नहीं होगा।
इस काम को हाथ में लेने पर अब मैं उस चीज़ से शुरू करूँगा जो मुझे तृतीय नहीं तो द्वितीय महत्व का प्रश्न लगता है, लेकिन जो आपकी निगाहों में, दृष्टतः, कम महत्व का नहीं है। यह है आपकी "पदवी" का प्रश्न।
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* [जार्ज दन्देन, तूने खुद ही यह मुसीबत बुलायी!]
जुझारू भौतिकवाद / 9
जब में आपको "श्री" कहकर सम्बोधित करता हूँ तो आप अपने को अपमानित हुआ मानते हैं और कहते हैं कि मुझे आपका अपमान करने का कोई अधिकार नही है। प्रिय महोदय, इस मुद्दे पर में आपको तत्काल आश्वस्त करता हूँ कि आपको अपमानित करने का मेरा कभी कोई इरादा नहीं था। लेकिन जब आप अ की बात करते हैं तो मुझे यह सोचने का कारण मिलत, है कि, आपकी राय में, मे सामाजिक जनवादी दायित्वों में से एक आपको कामरेड कहकर पुकारना भी है। परन्तु-ईश्वर और हमारी केन्द्रीय समिति मेरे पंच हो!-में इस प्रकार के किसी दायित्व को नहीं मानता। और इसका कारण अत्यन्त सरल और सुस्पष्ट है - आप मेरे कामरेड नहीं हैं। और आप मेरे कामरेड इसलिए नहीं है कि आप और में दो प्रत्यक्ष विरोधी विश्व दर्शनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। और चूंकि मेरा प्रश्न अपने दृष्टिकोण का पक्षपोषण करता है, इसलिए मेरे सन्दर्भ में आप मेरे कामरेड नहीं बल्कि सर्वाधिक हठी और समझौताहीन विरोधी हैं। मैं पाखण्ड क्यों करूँ, शब्दों में नितान्त मिथ्या अर्थ क्यों भरूं?
बुअलो ने एक बार सलाह दी थी-"चोर को चोर ही कहो... मैं इस विवेकपूर्ण सलाह को ग्रहण करता हूँ : एक चोर को चोर कहता हूँ और आपको अनुभवात्मक एकत्ववादी में सिर्फ़ उन लोगों से कामरेड कहता हूं जो मेरे ही जैसे विचार रखते हैं और उसी उद्देश्य की सेवार्थ काम करते हैं जिसे मैंने, हमारे यहाँ बर्नस्टीनवादियों, माख़वादियों तथा मार्क्स के अन्य "आलोचकों" के प्रकट होने से बहुत पहले अंगीकार कर लिया था। सोचिये, श्रीमान बोग्दानोव, पूर्वाग्रहरहित बनने का प्रयत्न कीजिये और मुझे बताइये क्या मुझे इस तरह का बरताव करने का सचमुच "कोई अधिकार नहीं"? क्या मुझ पर सचमुच ही भिन्न ढंग से काम करने का दायित्व है?
और आगे सुनिये। यदि आप यह कल्पना करते हैं कि मैं इस आशय के कमोबेश स्पष्ट संकेत दे रहा हूं कि आपको, अगर "फाँसी" न चढ़ाया जाये तो, कम से कम, मार्क्सवाद की सीमाओं से शीघ्रातिशीघ्र "निकाल बाहर" किया ही जाना चाहिए, तो आप भयंकर भ्रम में हैं। यदि कोई आपके साथ इस तरह का बरताव करने का इरादा रखता हो तो उसे अपने इस क्रूर मन्सूबे को पूरा करने की घोर असम्भाव्यता का सामना करना पड़ेगा। अपनी सारी चमत्कारी शक्तियोंवाला दुम्बाद्जे भी उस व्यक्ति को अपनी रियासत से बाहर नहीं निकाल सकता था जो उसकी रियासत में रहता ही नहीं था। इसी प्रकार कोई वैचारिक पोम्पादूर'4 भी किसी विशेष शिक्षा की सीमाओं से उस "विचारक" को "निकाल बाहर" नहीं कर सकता
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• [शब्दश: "बिल्ली को बिल्ली ही कहो।"]
10 / जुझारु भौतिकवाद
जो पहले से उसके बाहर हो। और आप मार्क्सवाद की सीमाओं से बाहर हैं, यह बात उन सबके लिए ज़ाहिर है जो यह जानते हैं कि इस शिक्षा का सम्पूर्ण भवन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर टिका है और जो यह समझते हैं कि आप एक पक्कै माखवादी के रूप में, भौतिकवादी दृष्टिकोण न तो रखते हैं न रख सकते हैं। और जो लोग यह नहीं जानते तथा इस बात को नहीं समझते उनके लाभार्थ में निम्नांकित पैरे को उद्धृत करता हूँ जो स्वयं आपकी कलम से निकला है।
"वस्तु-निजरूप" के प्रति विभिन्न दार्शनिकों के दृष्टिकोणों की लाक्षणिकता बखानते हुए आप यह कहना उचित समझते हैं :
"अधिक आलोचनात्मक प्रवृत्ति के उन भौतिकवादियों ने एक स्वर्णिम मध्य मार्ग अपनाया है, जो 'वस्तु-निजरूप' की निरपेक्ष अज्ञेयता को नामंजूर तो करते हैं, लेकिन साथ ही इसे 'दृश्य सत्ता' से मूलतः भिन्न मानते हैं और इसी कारणवश उसे हमेशा दृश्य सत्ता में केवल 'अस्पष्ट रूप से ज्ञेय' तथा, जहाँ तक उसकी अन्तर्वस्तु का प्रश्न है (यानी, सम्भवतः, जहाँ तक उन 'तत्वों' का सम्बन्ध है जो वैसे ही नहीं होते जैसे कि अनुभव के तत्व होते हैं), अनुभव-बाह्य, लेकिन उनकी सीमाओं के अन्दर मानते हैं जिन्हें अनुभव के रूप कहा जाता है, अर्थात्, देश, काल और कार्य कारण सम्बन्धों की सीमाओं के अन्दर अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादियों का और आधुनिक दार्शनिकों में एंगेल्स तथा उनके रूसी अनुयायी बेल्तोय का मत मोटे तौर पर ऐसा ही है।" *
अपनी "अन्तर्वस्तु" में अपेक्षाकृत फूहड़ यह पैरा उन लोगों के सामने भी वस्तुस्थिति को स्पष्ट कर देगा जो सामान्यतः, दर्शनशास्त्र की कोई चिन्ता नहीं करते। उन लोगों के सम्मुख भी अब यह जाहिर हो गया है कि आप एंगेल्स के दृष्टिकोण को नामंजूर करते हैं और जो लोग जानते हैं कि एंगेल्स का दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में भी 'पूँजी' के लेखक के साथ पूर्ण मतैक्य था वे आसानी से समझ जायेंगे कि जब आप एंगेल्स के दृष्टिकोण को ठुकराते हैं तो, फलतः, मार्क्स के दृष्टिकोण और उनके "आलोचकों" में सम्मिलित हो जाते हैं।
प्रिय महोदय, मैं आपसे नम्र निवेदन करता हूँ कि डरें नहीं, आप मुझे किसी प्रकार का दर्शनीकरण करने वाला पोम्पादूर न समझें और यह कल्पना न करें कि मैं मार्क्स के विरोधियों के साथ आपके लगाव को आपको "निकाल बाहर करने के मकसद से सिद्ध कर रहा हूँ। मैं फिर कहता हूं किसी भी शिक्षा की सीमाओं से उस व्यक्ति को निकालना असम्भव है जो पहले से ही उसके बाहर है। और जहाँ तक मार्क्स के आलोचकों का सम्बन्ध है, तो अब हर कोई, चाहे उसने किसी
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• अ. बोगदानोव, 'अनुभवात्मक एकत्ववाद, दूसरा खण्ड, मास्को, 1905, पृ. 391
जुझारू भौतिकवाद / 11
धार्मिक विद्यालय में न भी पढ़ा हो, जानता है कि यह महानुभाव मार्क्सवाद की सीमाओं से पलायन कर गये हैं और उनका वापस आना मुश्किल है।
"मौत की सज़ा" "निकाल बाहर" किये जाने की तुलना में अतुलनीय कड़ा उपाय है। प्रिय महोदय, यदि मैं आपको "फाँसी चढ़ाने" (केवल उद्धरण चिह्नों के बीच में ही) का संकेत करने में कभी भी समर्थ होता तो में, किसी समुचित अवसर पर, आपको "निकाल बाहर" करने के विचार से भी सहमत हो सकता था। लेकिन इसमें भी या तो आप निराधार भय से ग्रस्त हो गये हैं या पूर्णरूपेण आधाररहित व्यंग्योक्ति का उपयोग कर रहे हैं।
मैं आपको हमेशा-हमेशा के लिए बता देता हूँ कि मुझे किसी को फाँसी चढ़ाने की कभी कोई इच्छा नहीं रही। यदि में सैद्धान्तिक अनुसंधान की पूर्ण स्वाधीनता को स्वीकार नहीं करता तो मैं बेहद घटिया सामाजिक-जनवादी होता। लेकिन साथ ही यदि मैं यह न समझता कि अनुसंधान की स्वाधीनता के साथ लोगों के लिए अपने विचारों के अनुसार संगठित होने की स्वाधीनता का होना तथा उससे पहली स्वाधीनता को परिपूर्ण बनाना भी जरूरी है तो भी मैं एक घटिया सामाजिक-जनवादी होता।
मुझे पक्का विश्वास है-किसे नहीं होगा?-कि 'लोग सिद्धान्त में मूलतः भिन्न मतावलम्बी होते हैं वे व्यवहार में भी भिन्न होते हैं, यानी वे अपने आपको भिन्न-भिन्न शिविरों में गठित करते हैं। मुझे इस बात तक का यक़ीन है कि ऐसी "परिस्थितियाँ" सचमुच पैदा होती हैं, जब ऐसा करना उनका कर्तव्य होता है। क्या हम पुश्किन के समय से ही नहीं जानते :
काँपती चरथराती हिरनी संग
उचित नहीं जोतना अश्व को...
यूथबद्ध होने की इस असंदिग्ध व अविवादास्पद स्वाधीनता के नाम पर मैंने रूसी मार्क्सवादियों को अपने विचारों के प्रचार के लिए एक विशेष ग्रुप में एकजुट होने और कुछ मार्क्सवादी विचारों को स्वीकार न करने वाले अन्य ग्रुपों से अपने आपको विलग करने के लिए बारम्बार आमंत्रित किया है। बारम्बार और नितान्त बोधगम्य आवेश के साथ मैंने यह राय जाहिर की है कि वैचारिकी में किसी भी तरह की अस्पष्टता से बहुत ही ज़्यादा नुकसान होता है। मैं यह समझता हूँ कि आज तक प्रतिक्रिया के प्रभाव से तथा सैद्धान्तिक मूल्यों में संशोधन के बहाने से सब प्रकारों व रंगों का प्रत्ययवाद हमारे साहित्य में सचमुच की पैशाची लीलाएँ कर रहा है, और जब कुछ प्रत्ययवादी, सम्भवतः स्वयं अपने ख्यालों को फैलाने की गरज से, अपने विचारों को नवीनतम नमूने का मार्क्सवाद घोषित कर रहे हैं तब वैचारिक अस्पष्टता
12 / जुझारु भौतिकवाद
हमारे लिए विशेष हानिकारक है। यह मेरा गहन विश्वास है, और ऐसा विश्वास है जिसे व्यक्त करने में में पूरी तरह से स्वतंत्र हूँ कि इस समय इन प्रत्ययवादियों से सैद्धान्तिक सम्बन्धविच्छेद करना पहले किसी भी समय से अधिक आवश्यक है। मैं जानता हूँ कि कभी-कभी यह बात एक या अन्य प्रत्ययवादी की पसन्द की बात नहीं होगी, खास तौर से उन लोगों की पसन्द की बात, जो अपने सैद्धान्तिक माल असबाब को मार्क्सवाद की ध्वजान्तर्गत ले जाना पसन्द करेंगे। लेकिन इसके बावजूद में जोर देकर दृढ़ता से कहता हूँ कि जो लोग इन आधारों पर किसी की स्वाधीनता (निकाल बाहर" करके) या उसके जीवन तक पर ("फाँसी" चढ़ाकर) हमला करने के प्रयत्नों को लेकर मेरी भर्त्सना करते हैं वे यह जाहिर कर देते हैं कि जिस स्वाधीनता के नाम पर वे मुझ पर अभियोग लगाते हैं उसके बारे में उनकी समझ बेहद संकीर्ण है।
जब मैं अपने विचारों से सहमति रखने वालों को उन लोगों से अलग होने के लिए आमंत्रित करता हूँ जो उनके वैचारिक साथी नहीं हो सकते तो मैं प्रत्येक "मनुष्य मनुष्य व नागरिक" के अभिन्न अधिकार का उपयोग करता होता हूँ। और श्रीमान बोग्दानोव, जब आप इस बात को लेकर ऐसा उपहासास्पद हो-हल्लड़ मचाते और मुझ पर सन्देह करते हैं कि मैं आपके व्यक्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रहा हूँ तो आप सिर्फ़ यह दर्शाते हैं कि आपने उस अभिन्न अधिकार के अभिप्राय को ग़लत ढंग से आत्मसात किया है।
स्वयं मार्क्सवादी न होते हुए आप इससे बेहतर कुछ नहीं चाहेंगे कि हम मार्क्सवादी आपको अपना कामरेड स्वीकार कर लें। आपको देखकर मुझे ग्लेब उस्पेन्स्की की एक कहानी की माँ याद आ जाती है। उसने अपने पुत्र को लिखा कि चूँकि वह बहुत दूर रहता है और उससे मिलने के लिए उत्सुक नहीं है, इसलिए वह पुलिस से शिकायत करेगी और यह माँग करेगी कि अधिकारीगण उसके बेटे को "पहरेदारों के अन्तर्गत" भेजें ताकि वह उसे "गले लगा सके"। उस्पेन्स्की के इस कूपमण्डूक को, जिसके खिलाफ़ वह मातृक धमकी सम्बोधित की गयी थी, जब कभी इसकी याद आती तो उसके आँसू छलकने लगते। हम रूसी मार्क्सवादी ऐसे कारणों पर नहीं रोयेंगे। लेकिन यह हमें आपको दो-टूक शब्दों में यह बताने से नहीं रोक सकता कि हम अलग होने के अपने अधिकार का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहते हैं और न तो आप न कोई अन्य "पहरेदारों के अन्तर्गत" हमें "गले लगाने" में सफल नहीं होगा।
मैं इतना और जोडूंगा। यदि में किसी अन्वेषणाधिकारी से जरा भी मिलता-जुलता होता, यदि मुझे जरा भी विश्वास होता कि ऐसे लोग भी हो सकते हैं जिन्हें उनकी धारणाओं के कारण मृत्युदण्ड (चाहे उद्धरण-चिह्नों के अन्तर्गत ही क्यों न हो) दिया
जुझारू भौतिकवाद / 13
जा सकता है तो भी जनाब बोगदानोव, मैं उनमें आपको क़तई न गिनता। तब मैं अपने आपसे कहता : "मृत्युदण्ड पाने का हक़ प्रतिभा से प्राप्त होता है और अनुभवात्मक एकत्ववाद के हमारे सिद्धान्तविद में प्रतिभा लेश मात्र भी नहीं है। वह मृत्युदण्ड के अयोग्य है।"
प्रिय महोदय, आप मुझे निष्कपट होने के लिए लगातार ललकारते हैं। इसलिए मेरे ऐसा होने पर बुरा मत मानियेगा।
मेरे लिए आप अलोकिक स्मृतिवाले वसीली तेयाकोव्स्की से भिन्न नहीं हैं-वे उल्लेखनीय रूप से उद्यमशील पर, अफ़सोस, अत्यन्त कम प्रतिभासम्पन्न थे। भाषणकला तथा काव्यात्मक बारीकियों के प्रोफ़ेसर की क्षमता वाले लोगों के साथ भिड़े रहने के लिए उकताहट को सहने की विराट क्षमता का धनी होना जरूरी है। मुझमें ऐसी क्षमता अधिक नहीं है। यही कारण है कि आपकी प्रत्यक्ष चुनौतियों के बावजूद मैंने इससे पहले आपको उत्तर नहीं दिया।
मैंने अपने आपसे कहा: Jai d'autres chats à fouetter". आपके साथ विवादात्मक लड़ाई को टालने के लिए महज बहाने नहीं खोज रहा था यह मेरे कमों से सिद्ध हो जाता है वास्तव में जब से आपने मुझे ललकारना शुरू किया मैं "बिल्लियों" की एक खासी संख्या को "कोड़े लगाने" की शोचनीय आवश्यकता में उलझा हुआ था। हाँ, यह सच है कि आपने मेरी खामोशी का कुछ और ही अर्थ लगाया। स्पष्ट है कि आपने यह सोचा कि मुझमें आपके दार्शनिक दुर्ग पर प्रत्यक्ष आक्रमण करने का साहस नहीं है और इसकी बजाय मैं आपको खोखली धमकियाँ देना तथा "उधार पर आपकी आलोचना करना पसन्द करता हूँ। मैं आत्मप्रवंचना के आपके अधिकार से इनकार नहीं करता, लेकिन मुझे भी यह कहने का अधिकार है कि आप आत्मप्रवंचना में लगे थे। सच बात यह है कि मैंने आपके साथ तर्क करना जरूरी समझा ही नहीं, क्योंकि मेरा विश्वास है कि रूसी सर्वहारा के वर्ग-सचेत प्रतिनिधि आपकी दार्शनिक सूक्ष्मताओं का खुद ही मूल्यांकन कर लेंगे। इसके अलावा, जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, javais d'autres chats à fouetter. मसलन, काफ़ी पहले, 1907 के अन्तिम दिनों, यानी 'वेस्तनिक जीज़िन' में मेरे नाम आपकी खुली चिट्ठी प्रकाशित होने के तुरन्त बाद, मेरे कुछ कामरेडों ने मुझे आपसे निबटने की सलाह थी। लेकिन मैंने उत्तर दिया कि श्री आर्तुरी लाब्रिओला से निबटना अधिक उपयोगी होगा क्योंकि आपके सह-विचारक, श्री अनातोली, लुनाचास्की, द्वारा "कट्टर माक्र्क्सवादियों के लिए सान चढ़ाये" हथियारों के रूप में रूस के अन्दर उनके विचारों का प्रचार किया जा रहा था। श्री तुनाचास्की द्वारा लिखित
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• [मुझे इसके अलावा और भी बहुत कुछ करना है। शब्दशः मुझे अन्य बिल्लियों को भी कोड़े लगाने हैं।]
14 / जुझारू भौतिकवाद
उत्तर कथन के साथ लात्रिओला की पुस्तक ने रूस में संघ आधिपत्यवाद का रास्ता तैयार किया और मैंने उस पर काम करना तथा उस दौरान आपकी खुली चिट्ठी के उत्तर को स्थगित करना बेहतर समझा। सच बात यह है कि मुझे ऊब से भय लगता है, और, श्रीमान बोग्दानोव, यदि यही श्री लुनाचास्की न होते तो मैंने इस समय आपको उत्तर देने का फ़ैसला न किया होता। जिस वक्त आप तेयाकोबकी की शैली में "अनुभवात्मक एकत्ववाद" का निरूपण कर रहे थे, उस वक़्त लुनाचारस्की ने (यह पाजी हर जगह अपनी नाक घुसेड़े रहता है) एक नये धर्म की शिक्षा देनी शुरू कर दी और इस शिक्षा का, आपके कथित दार्शनिक विचारों के प्रचार की तुलना में, कहीं अधिक व्यावहारिक महत्व हो सकता है। यह सच है कि, एंगेल्स की तरह, मैं यह समझता हूँ कि वर्तमान समय में धर्म की सारी सम्भावनाएँ खत्म हो गयी है" (alle Möglichkeiten der Religion sind erschopft)*, लेकिन मैं इस तथ्य से ध्यान नहीं हटाता कि, असल में, ये सम्भावनाएँ सिर्फ़ वर्ग सचेत सर्वहारा के लिए ही खत्म हुई हैं। वर्ग-सचेत सर्वहारा जनों के अलावा ऐसे भी हैं जो अपनी वर्गीय स्थिति के बारे में अंशतः सचेत हैं और कुछ उससे पूरी तरह से बेखबर हैं। मजदूर वर्ग के इन तत्वों के विकास के दौरान धार्मिक शिक्षा का प्रबल नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अन्ततः, अपनी वर्ग स्थिति के बारे में अंशतः सचेत व पूर्णतः बेख़बर सर्वहारा जनों के अलावा हमारे यहाँ ढेरों ऐसे "बौद्धिक" हैं जो सहज ही यह कल्पना कर लेते हैं कि वे अपनी स्थिति के प्रति पूर्णतः सचेत हैं, पर वास्तव में अचेतन रूप से हर चालू प्रवृत्ति के दीवाने हैं और वर्तमान काल"- गेटे ने कहा है कि समस्त प्रतिक्रियावादी युग आत्मगत होते हैं-में हर प्रकार के रहस्यवाद की ओर बहुत ज़्यादा झुके हुए हैं। प्रिय महोदय, आपके सह-विचारक के नये धर्म जैसे आविष्कार इन लोगों के लिए वास्तविक रूप में ईश्वर प्रदत्त हैं। वे उनकी ओर ऐसे भागते हैं जैसे मक्खियाँ शहद की तरफ़ और चूँकि नवीनतम पुस्तक में पड़ी हुई हर चीज़ को तृष्णातुर होकर ग्रहण करने वाले इन महानुभावों की एक खासी बड़ी संख्या ने सर्वहारा के साथ अपने सम्बन्धों को, दुर्भाग्यवश, पूर्णतः नहीं तोड़ा है**, वे इन रहस्यवादी
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• देखिए एंगल्स का लेख Die Lage Englands जो पहले पहल Deutsch Framosische Jarbucher में छपा और Nachiass etc खण्ड 1, पृ. 484 में पुनः प्रकाशित हुआ।
** वे जल्द ऐसा करेंगे। हर भौतिकवाद विरोधी चालू "वाद" के साथ हमारे बौद्धिकों का व्यामोह आधुनिक बुर्जुआजी के विचार "समुच्चय" के प्रति अपने "विश्व दर्शन" को अनुकूलित बनाने का एक नैदानिक लक्षण है। लेकिन भौतिकवाद का विरोध करने वाले बहुत से बौद्धिक अपने आपको अभी भी सर्वहारा का प्रवक्ता मानते हैं, उसे प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं और कभी-कभी सफल हो जाते हैं।
जुझारू भौतिकवाद / 15
दीवानगियों से उन्हें भी संक्रमित कर सकते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर मैंने यह फैसला किया कि हम मार्क्सवादियों को अनातोली की नयी धार्मिक शिक्षा का ही नहीं बल्कि एन्ट (माख) के दर्शन का करारा जवाब देना चाहिए जो और चाहे कुछ हो नया दर्शन नहीं है तथा जिसे आपने, श्रीमान बोग्दानोव, रूस में हमारे इस्तेमाल के लिए कमोबेश अनुकूलित बनाया है और सिर्फ इसी कारण से मैंने आपको उत्तर देने का बीड़ा उठाया।
मैं यह जानता हूँ कि कई साथियों को इस बात पर आश्चर्य था कि मैंने पहले आपके साथ विवाद उठाना आवश्यक नहीं समझा। लेकिन यह एक ऐसी पुरानी कथा है जो हमेशा नयी रहती है। यहाँ तक कि उस समय भी जब श्री स्वे ने अपनी सुज्ञात 'आलोचनात्मक टिप्पणियाँ " प्रकाशित की थीं, मेरे कुछ सह-विचारकों ने (तब उनकी संख्या बहुत कम थी) बिल्कुल सही तौर से समझ लिया था कि यह टिप्पणियाँ ऐसे आदमी की कृति हैं जिसने सोचने की सुस्थिर शैली विकसित नहीं की है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि में उसका विरोध करूँ। जब इन्हीं जनाब स्तूवे ने 'वोप्रोसी फ़िलोसिफइ इप्सिखोलोगिइ' में अपना लेख 'स्वतंत्रता व आवश्यकता पर" प्रकाशित किया तो इस प्रकार की सलाह और भी जोर से दी जाने लगीं। मुझे याद है कि जब मैं सन् 1900 के ग्रीष्म में लेनिन से मिला था तो उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने स्थूबे के लेख के सिलसिले में कुछ क्यों नहीं किया। मेरा उत्तर निहायत सीधा था: श्री स्तूये ने अपने लेख 'स्वतंत्रता व आवश्यकता पर में जो विचार प्रकट किये हैं उनका मेरी पुस्तक 'इतिहास के एकत्ववादी दृष्टिकोण का विकास' में पहले ही खण्डन किया जा चुका है। 'आलोचनात्मक टिप्पणियों' के लेखक ने जो नयी ग़लती की है वह ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए स्पष्ट रही होगी जिसने मेरी पुस्तक को पढ़ा और समझा है। मेरे पास इस मामले पर उन लोगों से बहस करने का वक़्त नहीं है जिन्होंने मेरी पुस्तक नहीं पढ़ी या उसे नहीं समझा है। मैं यह नहीं समझता कि मुझ पर अपने मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों के सन्दर्भ में श्चेद्रीन के उल्लू की भूमिका अदा करने का दायित्व है। यह उल्लू उकाब को ध्वानिक विधि से पढ़ाने के लिए लगातार उसके पीछे लगा होता है: "महामहिम, बोलिये क, ख, ग..." श्चेद्रीन की कथा में उकाब उल्लू से इस कदर तंग आ गया कि पहले तो वह उससे चीखकर बोला "मुझे तन्हा छोड़ दो और जहन्नुम रसीद हो जाओ," और फिर अन्त में उसे जान से मार दिया। मैं नहीं जानता कि कमोबेश मार्क्सवादी प्रवृत्ति के रूसी बौद्धिकों की श्रेणी के लिए प्रशिक्षक उल्लू की भूमिका में मेरे लिए कोई ख़तरा है या नहीं। लेकिन मुझमें ऐसे नाशुक्रे पार्ट को अदा करने का न तो रुझान है न कर सकने का अवसर, क्योंकि मेरे पास अन्य व्यावहारिक और-जो और भी महत्वपूर्ण है- सैद्धान्तिक काम हैं। यदि मैं ऐसी हर चीज के प्रति अपनी
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"प्रतिक्रिया व्यक्त" करूँ जिसके प्रति मुझसे "प्रतिक्रिया व्यक्त" करने की अपेक्षा की जाती थी और की जाती है तो क्या में सिद्धान्त के मामले में बहुत उन्नत हो जाऊँगा? इस सन्दर्भ में इतना कहना काफ़ी है कि मेरे कुछ पाठक यह चाहते हैं कि मैं अपने सामयिक कामशास्त्र पर (यानी श्री आसिबाशेव तथा उनके बंधुओं पर) अपनी राय जाहिर करूँ और कुछ अन्य ने मुझसे पूछा कि मैं श्रीमती अइसिडोरा इन्कन के नृत्य के बारे में क्या सोचता हूँ। वज्र टूटे उस लेखक पर जो उस अस्थिरमना और अधीर महिला-रूसी बौद्धिक श्रेणी की सारी आध्यात्मिक सनकी के प्रति "प्रतिक्रिया" दिखलाने की सोचे। इस "महिला" की किसी भी दार्शनिक सनक को ले लीजिये ! क्या इस बात को बहुत समय हो गया है जब वह काण्ट का राग अलाप रही थी? क्या यह काफ़ी समय पहले की बात है जब वह यह माँग कर रही थी कि हम मार्क्स के काण्टवादी "आलोचना" का जवाब दें? नहीं, जरा भी अधिक समय नहीं हुआ है। वास्तव में यह इतने कम समय पहले की बात है कि इस छिछोर "महिला" के वे जूते अभी घिसे नहीं हैं जिन्हें पहनकर वह नवकाण्टबाद 10 के पीछे भाग रही थी और काण्ट के बाद आवेनारिउस और माख आये। आलोचनात्मक अनुभववाद के इन दो एजाक्सों के बाद जोजेफ़ डीयेट्जगेन तशरीफ़ लाये और अब डीयेट्जगेन के ठीक पीछे-पीछे प्वाइंकारे तथा वर्गसन हाजिर हैं। 'क्लियोपाट्रा के अनेक प्रेमी थे!" लेकिन उनके खिलाफ़ जो गदा उठाना चाहे उठाये मैं ऐसा करने के लिए इसलिए और भी कम तैयार हूँ कि मैं अपनी आधुनिक बौद्धिक श्रेणी को, उस श्रेणी को प्रसन्न करने का लेशमात्र भी दावा नहीं करता जो मेरे रोमांस की नायिका नहीं है...
यद्यपि में अपनी रूसी क्लियोपाटा के अनेकानेक प्रेमियों के साथ लड़ाई करने के लिए अपने आपको विवश नहीं मानता तथापि उसका यह मतलब नहीं कि मुझे उन पर सरसरी तौर पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं। यह भी आदमी और नागरिक के अभिन्न अधिकारों में से एक है। मिसाल के लिए, मैंने मसीही मतांध धर्मशास्त्र की कभी आलोचना नहीं की और सम्भव है कि कभी करूँगा भी नहीं। लेकिन इससे में अवसर आने पर किसी भी मसीही रूढ़मत पर अपनी राय जाहिर करने के अधिकार से वंचित नहीं हो जाता। श्रीमान बोग्दानोब, आप उस कट्टरपंथी धर्मशास्त्री के बारे में क्या सोचेंगे जो मसीही रूढ़मतों के बारे में मेरी किसी, सरसरी तौर पर की गयी, टिप्पणी-मेरे लेखन में ऐसी टिप्पणियों का मिलना बहुत सम्भव -को पा जाता और मुझ पर ईसाई मत की "उधार पर आलोचना का आरोप लगाने लगता। मैं समझता हूँ कि आपमें ऐसे आरोप को उपेक्षा की दृष्टि से देखने की पर्याप्त सहजबुद्धि है। इसलिए प्रिय महोदय, यदि मुझमें इससे कम सहजबुद्धि नहीं है, यानी जब में यह सुनने पर आपकी उपेक्षा कर देता हूँ कि आप माख़वाद
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के बारे में मेरी, सरसरी तौर पर की गयी टिप्पणियों को जिन्हें आप "उधार पर आलोचना कहते हैं, आरोप लगाने के लिए किस प्रकार इस्तेमाल करते हैं, तो आपको भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
इस पत्र में पहले, पक्ष की विश्वसनीयता के लिए, मैंने एंगेल्स के दार्शनिक दृष्टिकोण पर आपकी राय उद्धृत की, यह ऐसी राय थी जिससे सर्वाधिक मन्द बुद्धि के लोगों के मस्तिष्कों में भी रंचमात्र सन्देह नहीं रह जाता कि मार्क्सवादी दर्शन के सन्दर्भ में आपकी क्या स्थिति है। लेकिन अब मुझे याद आता है कि जेनेवा में रूसियों की हाल की एक बैठक में मैंने अपने भाषण में आपकी उन पक्तियों की तरफ आपका ध्यान दिलाया, तब आप अपनी सीट से उठे और चिल्लाये "यह वह है जो मैं सोचा करता था, अब मैं समझ गया हूँ कि मैं गलती पर था।" यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बयान था और मुझे तथा हमारे दार्शनिक विवाद में दिलचस्पी लेने वाले हर पाठक को इसे निश्चय ही सूचना के रूप में तथा मार्गदर्शन के लिए स्वीकार करना चाहिए बशर्ते कि इसमें इतना पर्याप्त विवेक हो जिससे कोई मार्गदर्शन प्राप्त कर सके।
पहले आप यह सोचते थे कि एंगेल्स का दार्शनिक दृष्टिकोण स्वर्णिम मध्यमार्ग का था और आपने उसे दोषपूर्ण मानकर ठुकरा दिया। अब आप ऐसा नहीं सोचते। इसका क्या अर्थ है? क्या इसका यह अर्थ है कि अब आप एंगेल्स के दृष्टिकोण को सन्तोषजनक मानते हैं? मुझे आपसे यह सुनकर बहुत प्रसन्नता होती, चाहे यह सिर्फ एक ही चीज के लिए होती तब मुझे आपके साथ दार्शनिक विवाद की उकताहट का सामना न करना पड़ता। लेकिन अब तक मुझे यह सुख नहीं मिल सका है क्योंकि आपने कहीं भी यह घोषणा नहीं की कि आप मॉल से पॉल बन गये हैं, यानी आपने माखवाद छोड़ दिया है और द्वंद्वात्मक भौतिकवादी बन गये हैं। इसके सर्वथा विपरीत, 'अनुभवात्मक एकत्ववाद' के अपने तीसरे खण्ड में आपने ठीक वही दार्शनिक विचार अभिव्यक्त किये हैं जो आपने अपनी पुस्तक के दूसरे खण्ड में प्रतिपादित किये थे और जिससे मैंने एंगेल्स के साथ आपकी पूर्ण असहमति को दर्शाने वाला उद्धरण लिया था। तो, श्रीमान बोग्दानीय, बदला क्या?
बिल्कुल सही क्या बदला है, यह मैं बताऊँगा। जब 'अनुभवात्मक एकत्ववाद का आपका द्वितीय खण्ड प्रकाशित हुआ और वह पुराने जमाने की बात नहीं, बल्कि 1905 की थी, तब आपमें एंगेल्स और मार्क्स की, जिनसे आप उतने ही असहमत थे और अब भी है जितना कि एक प्रत्ययवादी किसी भौतिकवादी से हो सकता है, आलोचना करने का साहस था। इसमें शक नहीं कि वह साहस आपके लिए श्रेय की बात थी। यदि कोई व्यक्ति सत्य का सामना करने में डरता है तो यह एक घटिया विचारक है, लेकिन उससे घटिया वह है जो सत्य को सामने देखता और फिर दुनिया को यह बताते हुए डरता है कि उसने क्या देखा और सबसे
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ज्यादा घटिया वह है जो किन्हीं व्यावहारिक फायदों को देखकर अपनी दार्शनिक धारणाओं को छुपाता है। ऐसा विचारक, स्पष्टतः मोरचालिनों" की उपजाति का होता है। श्री बोग्दानोव, मुझे एक बार फिर कहने दें कि अभी हाल ही में, 1905 में आपने जो साहस दिखलाया था यह आपके लिए श्रेय की बात थी। यह खेद की बात है कि आप उसे इतनी जल्दी गंवा बैठे हैं।
आपने देख लिया कि मेरी युक्तियाँ, जैसा कि आप उन्हें कहते हैं, वस्तुतः एक ऐसे सीधे सरल तथ्य के रूप में रखी जा सकती हैं जो सबके लिए स्पष्ट है, मानो यह कि आप मार्क्स के एक आलोचक है। और इन "युक्तियों" को जैसा आपने स्वयं कहै है, कुछ सफलता मिल गयी है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि हमारे मार्क्सवादियों ने आपको अपना कामरेड मानना बन्द कर दिया है। इससे आप घबरा गये हैं, इसलिए आपने मेरे खिलाफ अपनी खुद की "युक्तियाँ" सोच निकाली हैं। आपने यह सोचा कि अगर आप यह ऐलान कर दें कि आप वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापकों के पक्षधर हैं और मैं उनका एक किस्म का आलोचक हूँ तो मेरे साथ वाकयुद्ध में आपकी स्थिति अधिक अनुकूल हो जायेगी। दूसरे शब्दों में, आपने उन युक्तियों को लागू करने का फ़ैसला किया जिन्हें किसी अन्य पर आरोप थोपना कहते हैं। यह फैसला लेने के बाद आपने संज्ञान के मेरे सिद्धान्त का यह आलोचनात्मक विश्लेषण लिखा जिसे 'अनुभवात्मक एकत्यवाद के तीसरे में प्रकाशित किया और उसमें अपने दूसरे खण्ड में आपने जो कहा है उसके बावजूद मुझे मार्क्स और एंगेल्स के अनुयायियों में शामिल नहीं किया गया है। आपका साहस आपका साथ छोड़ गया, श्रीमान बोग्दानोय, मुझे आपके लिए अफ़सोस है। लेकिन हमें उन लोगों से भी न्याय करना चाहिए जिनमें साहस का अभाव है। इसलिए मुझे यह अवश्य कहना चाहिए कि इस अवसर पर अपने सामान्य स्वभाव के विपरीत आपने चालाकी कम नहीं दिखलायी है। इस काम में आप शायद, मठवासी साधु प्रसिद्ध गोरनफ़्लों को भी मात कर गये हैं।
फ्रांसीसी लोग इस साधू को जानते हैं। लेकिन रूसियों में वह शायद इतना तुलात नहीं है, इसलिए मैं इस साधू के बारे में चन्द शब्द कहूँगा।
एक बार मुझे ठीक से याद नहीं कि यह किस व्रत का दिन था, साधू गरफ्लो को मुर्गा खाने की तीव्र इच्छा हुई। लेकिन ऐसा करना पाप होता। यह क्या करे कि मुर्गा भी खा लिया जाये और साथ ही पाप कर्म से भी बच लिया जाये। साधू गोरनफ़्लो ने एक सरल तरीका खोज निकाला। उसने लुभावने मुर्गे को पकड़ा और उसके नामकरण का अनुष्ठान सम्पन्न करके उसका नाम कार्प अथवा कोई अन्य मछली रख दिया। यह ज्ञात है कि मछली मांसरहित सादा व्यंजन मानी जाती है और व्रत के दिनों में खाना निषिद्ध नहीं है। इस तरह हमारा साधू इस
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बहाने से मुर्गा चट कर गया कि उसने उसका नाम मछली रख दिया था। श्रीमान बोग्दानोव, आपने भी ठीक उसी तरह से काम किया जैसे इस चतुर साधू ने आपने "अनुभवात्मक एकत्ववाद" के प्रत्ययवादी दर्शन की दावत उड़ाई 1 और अभी भी उड़ा रहे हैं। लेकिन मेरी "युक्तियों" ने आपको यह महसूस करा दिया कि यह कट्टर मार्क्सवादियों की नज़रों में एक सैद्धान्तिक पाप है। इसलिए मामले पर संक्षिप्त रूप से विचार करने के बाद आपने अपने "अनुभवात्मक एकत्ववाद" के नामकरण का पवित्र संस्कार सम्पन्न किया और उसका नया नाम रख दिया : मार्क्स और एंगेल्स की दार्शनिक शिक्षा। कोई भी कट्टर मार्क्सवादी इस प्रकार के मानसिक व्यंजन का भी निषेध नहीं करेगा। इस तरह आपके दोनों हाथों लड्डू आ गये : आप "अनुभवात्मक एकत्यवाद" का सुखोपभोग भी करते रहे हैं और साथ ही अपने आपको कट्टर मार्क्सवादियों के परिवार का सदस्य भी मानते रहे हैं। और आप अपने को उस परिवार का एक सदस्य ही नहीं मानते बल्कि उन लोगों पर नाराज़ भी होते हैं (या नाराजी का बहाना बनाते हैं) जो आपको अपने में से एक मानना नहीं चाहते। हूबहू साधू गोरनफ़्लो! लेकिन वह साधू छोटे मामलों में चालाक था, परन्तु जनाब बोग्दानोव, आप बड़ी बातों में चालाकी दिखलाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आप उस प्रसिद्ध साधू से कहीं ज़्यादा चतुर हैं।
लेकिन अफ़सोस, चतुर से चतुर लफ़्फ़ाज़ भी तथ्यों के सम्मुख लाचार हो जाता है। साधू अपने मुर्गे का नाम मछली रख सकता था, मगर मुर्गा मुर्गा ही रहा। इसी प्रकार, श्री बोग्दानोव, आप अपने प्रत्ययवाद को मार्क्सवाद कह सकते हैं। लेकिन यह आपको द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नहीं बनायेगा। और आप अपनी नयी "युक्तियों" को जितने अधिक उत्साह से लाल करेंगे, यह बात उतनी ही स्पष्टता से दिखायी देगी कि आपके दार्शनिक विचार मार्क्स और एंगेल्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से बिल्कुल मेल नहीं खाते; यही नहीं-और यह बात इससे भी बुरी है- यह अधिक अच्छी तरह से जाहिर हो जायेगा कि आप इस भौतिकवाद के मुख्य लक्षणों को समझने में बिल्कुल अक्षम हैं।
जो भी हो, निष्पक्षता के हित में यह कहा जाना चाहिए कि आपके लिए भौतिकवाद, सामान्यतः, एक बन्द पुस्तक रहा है। आपने संज्ञान के मेरे सिद्धान्त की अपनी आलोचना में जो अनेक बड़ी-बड़ी भूलें की हैं उनका स्पष्टीकरण इसी में निहित है।
उन बड़ी भूलों में से एक इस प्रकार है। जहाँ 1905 में आपने मुझे एंगेल्स का अनुयायी कहा है वहीं अब आप मुझे होल्याण के शिष्य होने का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। किन आधारों पर? सिर्फ इस आधार पर कि आपकी नयी "युक्तियाँ" आपको निर्देश देती हैं कि मुझे मार्क्सवादी न माना जाये। आपके पास इसके सिवा और
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कोई कारण नहीं है। चूँकि मुझे होल्याण का शिष्य कहने के लिए आपके पास साधू गोरनफ़्लो की "यौक्तिक" बुद्धिमत्ता को लागू करने की जरूरत के अलावा और कोई कारण नहीं है इसलिए आपका कमजोर पक्ष, भौतिकवादी सिद्धान्तों के प्रश्नों में आपकी पूर्ण पुसत्वहीन, उजागर हो जाता है। वास्तव में, यदि आप भौतिकवाद के इतिहास से लेशमात्र भी परिचित होते तो समझ जाते कि मुझे होल्याखवादी या जैसा कि रूसो कहते थे, holbachien कहने का कोई कारण नहीं है। चूंकि संज्ञान के जिस सिद्धान्त का मैं पक्षपोषण करता है उसके सन्दर्भ में आप मुझे होल्वावादी कहते हैं इसलिए मेरे वास्ते आपको यह सूचित करना व्यर्थ नहीं होगा कि यह .सिद्धान्त होल्या की तुलना में प्रीस्टले* की शिक्षाओं से अधिक मिलता-जुलता है। अन्य मामलों में जिस दार्शनिक दृष्टिकोण का मैं पक्षपोषण करता हूँ वह, मिसाल के लिए, हेल्थेलियस** या यहाँ तक कि लामेत्री, जैसा कि अन्त में वर्णित नाम के व्यक्ति की कृतियों से परिचित कोई भी आसानी से समझ सकता है, के भी मुकाबले में होल्याख से अधिक दूर है। लेकिन परेशानी यह है कि आप लामंत्री, या हेल्वेलियस, अथवा प्रीस्टले की रचनाओं के बारे में कुछ नहीं जानते और, अन्त में स्वयं उस होल्वास के बारे में भी कुछ नहीं जानते जिनके अनुयायियों में आपने मुझे, मार्क्स और एंगेल्स के स्कूल से निकालकर, भर्ती कर दिया है, शायद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की समझ में मेरी मन्द प्रगति के कारण हाँ, यही परेशानी है। आप भौतिकवाद के बारे में कुछ भी नहीं जानते, न उसके इतिहास को और न आज वह जैसा है। और श्रीमान योग्दानोव, यह सिर्फ आप ही की परेशानी नहीं है। यह भौतिकवाद के समस्त विरोधियों की पुरानी परेशानी है। यह एक पुरानी कहानी है कि जो भौतिकवाद के बारे में क़तई कुछ नहीं जानते वे भी इसके खिलाफ बोलने के अधिकार का दावा करते हैं। यह स्वयंसिद्ध है कि यह योग्य आदत इतनी मजबूती से केवल इसलिए स्थापित हो सकी कि यह शासक वर्गों के पूर्वाग्रहों के पूर्णतः अनुरूप थी। लेकिन इसके बारे में हम बाद में बातें करेंगे।
आप मुझे Systeme de la nature*** के लेखक के स्कूल को इस आधार पर भेजते हैं कि, आपके अपने शब्दों में, में मार्क्स के नाम पर होल्वाख के उद्धरणों की सहायता से भौतिकवाद का आशय स्पष्ट करता हूँ।**** लेकिन, पहली बात यह
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• देखिए उनकी कृति Disquisitions Relating to Matter and Spirit [भूतद्रव्य) तथा अध्यात्म से सम्बन्धित गवेषणाएँ] और प्राइस के साथ उनका विवाद "
**देखिये इतिहास के भौतिकवादी स्पष्टीकरण के उनके उल्लेखनीय प्रयत्न। मैंने उनकी चर्चा अपने Beitrage zur Geschichte des Materialismus में की है।
***''प्रकृति की प्रणाली' ।।
****'अनुभवात्मक एकत्ववाद', तीसरा खण्ड, प्रस्तावना, पृ. 10-111
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है कि मैं अपने दार्शनिक लेखों में केवल होल्बाख ही को उद्धृत नहीं करता हूँ। और दूसरी,-जो मुख्य मुद्दा है--आप यह बिल्कुल नहीं समझते कि मुझे होल्बाखू को तथा अठारहवीं शताब्दी के भौतिकवाद के अन्य प्रतिनिधियों को इतनी बार क्यों उद्धृत करना पड़ा। मैंने यह काम, जैसा कि आप हर किसी को यकीन दिलाना चाहेंगे, मार्क्स के विचारों को पेश करने के उद्देश्य से नहीं किया, बल्कि भौतिकवाद को उन अनर्थक भर्त्सनाओं से बचाने के लिए किया जिन्हें उसके विरोधियों द्वारा सामान्यतः तथा नवकांतवादियों द्वारा खास तौर से उसके विरुद्ध पेश किया जा रहा था।
मसलन, जब लांगे अपने बदनाम पर मूलतः सतही 'भौतिकवाद के इतिहास' में यह कहते हैं कि "भौतिकवाद वास्तविक वस्तुओं की दुनिया के रूप में हटपूर्वक इंद्रियगत प्रतीतियों की दुनिया को ग्रहण करता है तो मैं यह दर्शाना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि लांगे ऐतिहासिक सत्य को विरूपित कर रहे हैं। और चूँकि वे यह राय होल्वा से सम्बन्धित अध्याय में ही जाहिर करते हैं, इसलिए उनका पर्दाफाश करने के लिए मुझे होल्याख को उद्धृत करना पड़ा था, यानी उस लेखक को उद्धृत करना पड़ा था जिसके विचारों को लांगे विरूपित करते हैं। लगभग ऐसे ही कारण से मुझे महाशय बर्नस्टीन तथा सी. शिमइट के साथ अपने विवाद में Systeme de la nature के लेखक को उद्धृत करना पड़ा था। इन महानुभावों ने भी भौतिकवाद के बारे में बहुत अनर्गल बकवास की और मुझे यह दिखलाना पड़ा कि उन्होंने जिस विषय पर निर्णय देने का बीड़ा उठाया है उसे वे कितना गलत सलत समझे हैं। इसके अलावा उनके साथ अपने तर्कों में मुझे सिर्फ होल्वाख ही नहीं बल्कि लामंत्री, हेल्देतियस तथा, खास तौर से, दिदेरों को भी उद्धृत करने की जरूरत पड़ी। यह सच है कि यह सभी लेखक अठारहवीं सदी के भौतिकवाद के प्रतिनिधि हैं, इसलिए विषय से अपरिचित कोई भी व्यक्ति, शायद, अपने आपसे यह पूछ सकता है: प्लेखानोब अठारहवीं सदी के भौतिकवादियों को खास तौर से उद्धृत क्यों कर रहे हैं? मेरे पास इसका एक निहायत सीधा-सादा जवाब है: में ऐसा करता हूँ क्योंकि भौतिकवाद के विरोधी, खास तौर से वही लांगे, अठारहवीं सदी को उस शिक्षा के अधिकतम फूलने-फूलने की अवधि मानते थे। लांगे अठारहवीं सदी के भौतिकवाद की, सीधे-सीधे क्लासिकी भौतिकवाद कहकर चर्चा करते हैं।
श्री बोगदानोव, जैसा कि आप देख रहे हैं, समस्या को सुलझाना नितान्त सरल है। लेकिन साधु गोरनफ़्तों की चालाकी भरी "युक्तियों में निष्णात आप समस्या को हल करना नहीं उसे ज्यों का त्यों बनाये रखना चाहते हैं, क्योंकि उसे हल करना आपके हित में नहीं है। लेकिन आप जानते हैं? जब कोई सरल स्पष्टीकरणों को धुंधला बनाने का प्रयत्न करता है तो उसके हेत्वाभासों के बगैर काम चलाना कठिन होता है और जैसा कि हेगेल ने कहा है, हेत्वाभासी में विचारों से निबटने की
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कुशलता थोड़ी-बहुत अवश्य होनी चाहिए। परन्तु जहाँ तक आपका सम्बन्ध है, आप चतुर गोरनफ़्लो की कितनी ही नक़ल क्यों न करें आप ऐसी कुशलता से कोसों दूर हैं। यही कारण है कि आपके हेत्वाभास बेहद बेढंगे और फूहड़ हैं। यह आपके लिए बहुत असुविधाजनक है। इसलिए मैं आपको सलाह देता हूँ कि जब कभी आपको हेत्वाभासों की जरूरत हो तो श्री लुनाचास्की की तरफ उन्मुख होइये, क्योंकि उनके हेत्वाभास कहीं ज़्यादा सरलता और नजाकत के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। इससे आलोचना और भी अधिक सुविधाजनक हो जाती है। मैं नहीं जानता कि अन्य लोगों के लिए यह कैसा है पर मुझे, श्रीमान बोग्दानोव, आपके फूहड़ हेत्वाभासी प्रयत्नों के मुक़ाबले श्री लुनाचारकों के परिमार्जित वाक्छल का पर्दाफ़ाश करना कहीं अधिक आनन्दप्रद लगता है।
मैं नहीं कह सकता कि आप अच्छे इरादे से दी गयी मेरी सलाह को मानेंगे या नहीं (वैसे, जैसा कि आप देखते हैं, यह सलाह बिल्कुल निःस्वार्थ भाव से नहीं दी गयी है, लेकिन फ़िलहाल मुझे आपकी फूहड़ हेत्वाभासी कपोलकल्पनाओं से ही निबटना पड़ रहा है। इसलिए ऊब व उकताहटविरोधी अपनी शक्तियों को बटोरकर, मैं एक बार उनका भण्डाफोड़ करना जारी रखुगा।
मुझे होल्वाख के शिष्यों में शामिल करके आप अपने पाठकों की निगाहों में मुझे नीचा गिराना चाहते थे। माख के 'संवेदनों का विश्लेषण' के रूसी अनुवाद की प्रस्तावना में आप कहते हैं कि माख के दर्शन के प्रतिकार के रूप में मेरे साथी और मैं "अठारहवीं सदी के प्राकृतिक विज्ञान के उस दर्शन को पेश करते हैं जिसे बेरन होल्चाल ने निरूपित किया है। वे विशुद्ध बुर्जुआ विचारक हैं और एन्र्स्ट माख की • नरम समाजवादी सह-अनुभूतियों से भी बहुत दूर हैं।" यहाँ हम देखते हैं कि इस विषय का आपका अकूत अज्ञान तथा "विचारों से निबटने" में आपका असाधारण रूप से उपहासास्पद बेढंगापन अपनी भद्दी नग्नता के साथ प्रकट हो जाता है।
बैरन हील्बा माख की नरम समाजवादी सह-अनुभूतियों से निश्चय ही बहुत दूर है। और ये क्यों न हों? इनमें और उनमें लगभग डेढ़ सौ साल की दूरी है! वास्तव में इसका दोष होल्यात या अठारहवीं शताब्दी के उनके किसी भी सह-विचारक पर मढ़ने के लिए त्रेयाकोव्स्की का सचमुच ही योग्य वंशज होना जरूरी है। जाहिर है कि समय के सन्दर्भ में होल्वाख अपनी इच्छा के कारण माख से पिछड़े हुए नहीं थे। यदि हम इस विधि से तर्क करने लगें तो हम, मिसाल के लिए, क्लीस्थेनीज़ पर भी यह दोष मढ़ सकते हैं कि वे श्री बर्नस्टीन के अवसरवादी समाजवाद तक से "कोसों दूर है"। हर चीज का, श्रीमान बोग्दानोव, अलग समय होता है। लेकिन वर्गीय समाज में किसी एक समय-विशेष पर ईश्वर की पृथ्वी पर दार्शनिक वस्तुओं की कम क्रिस्में नहीं होती है और लोग उनमें से किसी एक को अपनी रुचि के
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अनुसार चुनते हैं। फ़िखटे ने ठीक ही कहा था कि एक आदमी को जानना उसके दर्शन को जानना है। इसलिए मुझे "एर्स्ट माख की नरम समाजवादी सह-अनुभूतियों" के लिए श्री बोग्दानोव की असंदिग्ध और पुरगरम सह-अनुभूति भी बहुत विचित्र जान पड़ती है।
अब तक मैंने यह मान लिया था कि श्री बोग्दानोव किसी भी प्रकार की "नरम समाजवादी सह-अनुभूतियों" के साथ सहानुभूति रखने में केवल अक्षम ही नहीं हैं, वरन चिन्तन की "उग्र" पद्धति के व्यक्ति होने के नाते वे उन्हें हमारे युग के लिए अयोग्य अवसरवाद कहने को प्रवृत्त होंगे। अब मैं देखता हूँ कि मैं ग़लती पर था। और अब विचार करने पर मैं समझ गया हूँ कि मेरी ग़लती का सही कारण क्या था। एक क्षण के लिए मैं भूल गया था कि श्री बोग्दानोव मार्क्स के आलोचकों" में से एक हैं। यह कहावत यों ही नहीं कही गयी है- मुर्गे के पंजे बाँध दो और बाजी हार जाओ। श्री बोग्दानोव ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को दूर हटाने से शुरुआत की और समापन किया माख़ की "नरम समाजवादी सह-अनुभूतियों के साथ- ऐसी सहानुभूति के साथ, जो स्पष्ट भी थी और पुरगरम भी। यह सर्वथा स्वाभाविक है : "Wer a sagt, muss auch b sagen*
होल्बाखू बैरन थे, यह अविवादास्पद है, ऐतिहासिक सत्य है; लेकिन, श्रीमान बोग्दानोव, आपने पाठकों को उसके बैरन की हैसियत की याद क्यों दिलायी? हमें यह मानना होगा कि आपने यह काम पदवियों के प्रति प्रेमवश नहीं बल्कि इसलिए किया कि आप हमें, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के रक्षकों को यह ताना देना चाहते थे कि हम बैरन के कथित शिष्य हैं। क्यों नहीं, आपको इसका हक़ है। लेकिन, अति आदरणीय महोदय, हमें ताना देते समय यह मत भूलियेगा कि आप एक बैल से दो खालें नहीं खींच सकते। वह आप ही हैं जो यह कहते हैं कि बैरन होल्वाख बुर्जुआजी के शुद्धतम वैचारिक थे। इसलिए, यह स्पष्ट है कि उनके दर्शन का समाज शास्त्रीय तुल्यांक निर्धारित करने में उनकी बैरन की पदवी का कोई महत्व नहीं है। सारा प्रश्न यह है कि अपने समय में उनके दर्शन ने क्या भूमिका अदा की? अपने समय में इसने एक अत्यन्त क्रान्तिकारी भूमिका अदा की- यह बात आप कई सामान्यतः उपलब्ध स्रोतों, जिनमें, प्रसंगतः, एंगेल्स भी शामिल हैं, जान सकते हैं। एंगेल्स ने अठारहवीं सदी की फ्रांसीसी दार्शनिक क्रान्ति के लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा: "फ्रांसीसी हर प्रकार के सरकारी विज्ञान के खिलाफ़, चर्च के खिलाफ़ और कभी-कभी राज्य के भी खिलाफ़ खुला संघर्ष कर रहे थे। उनकी कृतियाँ सीमा पार, हालैण्ड अथवा इंग्लैण्ड में छपती थीं और अक्सर वे खुद भी वैस्तील में कैद मुसीबत में पड़े होते थे।"** प्रिय
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* [जो कोई भी 'ए' कहता है उसे 'बी' कहना ही होगा।]
**लुडविग फायरवाख सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 30
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महोदय, जब मैं आपसे कहता हूँ कि होल्वाख तथा उस काल के अन्य भौतिकवादी ऐसे ही क्रान्तिकारी थे तो आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं। इसके अलावा निम्नांकित बात अवश्य नोट की जानी चाहिए।
होल्वाख और सामान्यतः उस काल के फ्रांसीसी भौतिकवादी बुर्जुआजी के विचारक उतने नहीं थे जितने कि जनसाधारण की मध्यम श्रेणी के उस ऐतिहासिक अवधि में यह श्रेणी क्रान्तिकारी भावना से ओतप्रोत थी। भौतिकवादी जनसाधारण की मध्यम श्रेणी की सैद्धान्तिक सेना का वाम पक्ष थे। और जब अपने समय में यह मध्यम श्रेणी विभाजित हुई, जब उससे एक तरफ़ बुर्जुआजी और दूसरी तरफ ..सर्वहारा का जन्म हुआ तब सर्वहारा के विचारकों ने भौतिकवादियों की शिक्षा को ठीक इसलिए अपना आधार बनाया कि वह अपने काल का सर्वाधिक क्रान्तिकारी दार्शनिक सिद्धान्त था। भौतिकवाद समाजवाद व कम्युनिज्म का आधार बना। मार्क्स ने अपनी पुस्तक Die hellige Familie में उसकी ओर ध्यान दिलाया। उसमें उन्होंने लिखा
"सभी मनुष्यों की मूल अच्छाई व समान बौद्धिक प्रतिमा, अनुभव, आदत व शिक्षा की सर्वशक्तिमत्ता और मनुष्य पर पर्यावरण के प्रभाव पर, उद्योग के विशेष महत्व, सुखोपभोग के औचित्य आदि पर फ्रांसीसी भौतिकवाद की शिक्षाओं से यह समझने के लिए किसी गहरी पैठ की जरूरत नहीं है कि भौतिकवाद कम्युनिज्म और समाजवाद से किस प्रकार अनिवार्यतः जुड़ा है।*
मार्क्स फिर आगे कहते हैं कि "लॉक के एक प्रारम्भिक अनुयायी मैण्डेवील कृत 'बुराइयों का पक्षपोषण' भौतिकवाद की समाजवादी प्रवृत्ति का लाक्षणिक है। मैण्डेबील सिद्ध करते हैं कि आधुनिक समाज में बुराई अपरिहार्य और उपयोगी है। यह किसी भी दशा में आधुनिक समाज का पक्षपोषण नहीं था।"**
मार्क्स सही कहते हैं। भौतिकवाद और समाजवाद के बीच अनिवार्य सम्बन्ध को समझने के लिए असाधारण बुद्धिमान होने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन इसके लिए थोड़ी बुद्धि अवश्य होनी चाहिए। यही कारण है कि जिन "आलोचकों में बुद्धि का पूर्ण अभाव होता है वे मार्क्स के बताये हुए सम्बन्ध को नहीं समझ पाते और यह सोचते हैं कि वे भौतिकवाद का विरोध करते हुए, समाजवाद के लिए एक "आधार" के रूप में एक नये सिद्धान्त को खोज भी सकते हैं और उसका समर्थन भी कर सकते हैं। इसके अलावा, समाजवाद के जिन समर्थकों में कुछ भी बुद्धि नहीं होती वे भौतिकवादी दर्शन के सिवा और किसी भी दर्शन को गले लगाने
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• एंगेल्स के 'लुडविग फायरबाख' का पहला परिशिष्ट, सेण्ट पीटर्सवर्ग, 1906, पृ. 871
**वही, पृ. 88
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के लिए तैयार रहते हैं। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भौतिकवाद पर अपना फैसला सुनाते समय वे उसके बारे में सर्वथा अक्षम्य और विवेकहीन प्रलाप क्यों करते हैं।
प्रिय महोदय, भौतिकवाद और समाजवाद के बीच अनिवार्य सम्बन्ध पर आपने भी ध्यान नहीं दिया। क्यों? में इस प्रश्न का उत्तर पाठकों पर छोड़ दूंगा और खुद अपने आपको यह याद दिलाने तक ही सीमित रखूँगा कि आप हम मार्क्सवादियों की यह कहकर किस प्रकार निन्दा करते हैं कि हम फ्रांसीसी भौतिकवाद के विचारों को फैला रहे हैं- एक ऐसी हरकत, जो, आपके मुताबिक़, आधुनिक समाजवादी प्रचार के कार्यों के अनुरूप नहीं है। यहाँ भी आप अपने सामान्य ढंग से, वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापकों से पूर्णतः भिन्न मत रखते हैं।
1874 में Volksstaat13 के 73वें अंक में प्रथमतः प्रकाशित तथा कालान्तर में Internationales aus dem Volksstaat* संग्रह में पुनः प्रकाशित लेख Programm der blankistischen Kommune Fluchllinge** में एंगेल्स सन्तोष के साथ नोट करते हैं कि जर्मन सामाजिक जनवादी मज़दूर sind mit Gott einlach fertig (ईश्वर को तिलांजलि दे चुके हैं) और भौतिकवादियों की भाँति रहते व सोचते हैं और इसी संग्रह के 44वें पृष्ठ में वे कहते हैं कि इस बात की सारी सम्भावनाएँ हैं कि यह फ्रांस के लिए भी सच हो। "अगर ऐसा नहीं है," वे बल देते कहते हैं, "तो फ्रांसीसी मजदूरों के बीच पिछली शताब्दी (यानी अठारहवीं शताब्दी, श्रीमान बोग्दानोव-गे.प.) के उत्तम फ्रांसीसी भौतिकवादी साहित्य को बड़े पैमाने पर वितरित करने से अधिक सरल कुछ नहीं होगा, उस साहित्य को, जिसमें, रूप और विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टियों से, फ्रांसीसी भावना को अपनी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति मिली है और जो, विज्ञान के तत्कालीन स्तर को देखते हुए आज भी, विषय-वस्तु की दृष्टि से, अत्यन्त श्रेष्ठ (dem, Inhalt nach auch heute noch unendlich hoch steht) और, रूप की दृष्टि से अभी भी अद्वितीय है।" श्रीमान बोग्दानोव, जैसा कि आप देखते हैं, एंगेल्स सर्वहारा के मध्य "प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन" का, जिसे आप "बुर्जुआजी के शुद्धतम विचारकों" का दर्शन कहते हैं, प्रचार करने से नहीं डरते थे, इसके विपरीत, उन्होंने इसके विचारों को उन फ्रांसीसी मजदूरों के बीच व्यापक रूप से प्रचारित करने की सिफ़ारिश की थी जो
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• [Volksstaat से अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर लेख |]
** ['कम्यून के ब्लांकीवादी प्रवासियों का कार्यक्रम' ।] श्री बोग्दानोव, आपके लिए, लेकिन खास तौर से आपके सहविचारक, महाभाग अनातोली", नये धर्म के प्रवर्तक, के लिए एक सलाह।
26/ जुझारू भौतिकवाद
तब तक भौतिकवादी नहीं बने थे। हम, मार्क्स और एंगेल्स के रूसी अनुयायी, इन विचारों को रूसी सर्वहाराओं में प्रचारित करना उचित समझते हैं, जिनके वर्ग सचेत प्रतिनिधियों में से, दुर्भाग्यवश, सभी ने भौतिकवादी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया है। लगभग दो वर्ष पूर्व, इस काम को उपयोगी मानते हुए मैंने रूसी में ऐसी भौतिकवादी पुस्तकमाला प्रकाशित करने की योजना बनायी थी जिसमें पहला स्थान अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादियों की कृतियों के अनुवादों को दिया जाता-उन कृतियों के जो वस्तुतः रूप में अतुल्य हैं और विषय-वस्तु में अब भी बहुत ही शिक्षाप्रद हैं। लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला। रूस में किसी न किसी तरीक़े से भौतिकवाद से सम्बन्धित साहित्य की तुलना में उस सामयिक दर्शन के अनेकानेक स्कूलों की कृतियों को बेचना कहीं ज़्यादा आसान है जिन्हें एंगेल्स ने दरिद्रों के लिए सारसंग्रहवादी सालन के सामान्य तिरस्कारपूर्ण नाम से पुकारा है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण एंगेल्स के 'लुडविग फायरदाख' की बेहद कम बिक्री है। रूसी में उसका अनुवाद मैंने किया था। वह हर तरह से एक उत्कृष्ट पुस्तक है। हमारे पाठक आजकल भौतिकवाद के प्रति उदासीन हैं। लेकिन, श्री बोग्दानोव, फ़ौरन खुशी मत मनाइयेगा। भौतिकवाद के प्रति हमारे पढ़ने वालों की उदासीनता एक बुरा संकेत है। क्योंकि इसका मतलब यह है कि वे ऐसी अवधि में भी अपनी लम्बी कट्टरपंथी चुटिया रखे हुए हैं जबकि वे स्वयं ऐसे काम में डूबे हुए हैं जो सर्वाधिक निर्भय और "उन्नत" सैद्धान्तिक "खोजबीन" प्रतीत होता है। बेचारे रूसी चिन्तन का ऐतिहासिक दुर्भाग्य यह है कि अपने महत्तम क्रान्तिकारी उभार के क्षणों में भी यह पश्चिमी बुर्जुआजी के चिन्तन के प्रभाव से कभी-कभार ही छुटकारा पाने में सफल होता है। यह चिन्तन, पश्चिम में इस समय प्रचलित सामाजिक सम्बन्धों को देखते हुए, कट्टरपंथी के सिवा और कुछ नहीं हो सकता है।
अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी मुक्ति आन्दोलन का सुज्ञात ग़द्दार लाहापं अपनी पुस्तक Réfutation du livre de l'Esprit* में कहता है कि जब उसने हेल्वेतियस का अपना पहला खण्डन पेश किया, तो फ्रांसवासियों के बीच उसकी मुश्किल से ही कोई प्रतिक्रिया हुई। बाद में उसने कहा, उन्होंने उसके प्रति सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण अपनाना शुरू कर दिया। लाहार्प ने इसको स्वयं इस तथ्य से स्पष्ट किया है कि उसका पहला प्रयत्न क्रान्तिपूर्व युग में तब किया गया था जबकि फ्रांसीसियों को भौतिकवादी विचारों से उत्पन्न होने वाले खतरनाक परिणामों को व्यवहारतः देखने का अवसर नहीं मिल पाया था। इस मामले में उस ग़द्दार का कथन सही था। फ्रांसीसी दर्शन का महान क्रान्ति के बाद का इतिहास अधिक स्पष्टता से यह
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*["मन पर पुस्तक का खण्डन]
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नहीं दिखला सका कि उसकी लाक्षणिक भौतिकवाद विरोधी प्रवृत्तियों की जड़ें उस बुर्जुआजी की आत्मरक्षण की सहजप्रकृति में निहित थीं जिसने भूतपूर्व शासन का किसी प्रकार से मुकाबला कर लिया था और इसीलिए अब वह अपने भूतपूर्व क्रान्तिकारी व्यामोह को छोड़कर रूढ़िवादी बन गया था। यह बात, कमोबेश, फ्रांस के अलावा अन्य देशों पर भी लागू होती है। इस बात को न समझनेवाला निश्चय ही बड़ा मूढ़ होगा कि आज के बुर्जुआ सिद्धान्तकार भौतिकवाद को हर जगह पर जिस प्रकल्पित अहंकारपूर्ण घृणा से देखते हैं उसमें कितना कायरतापूर्ण पाखण्ड निहित होता है। बुर्जुआजी ऐसे क्रान्तिकारी सिद्धान्त के रूप में भौतिकवाद से भय खाते हैं जो सर्वहारा की आँखों के सामने से उस धर्मशास्त्रीय पर्दे को फाड़ फेंकने के लिए सुअनुकूलित है जिसके जरिए वे उसे अंधकार में रखना और उसकी आ यात्मिक प्रगति में अड़चनें डालना चाहते हैं। एंगेल्स ने Neue Zeits के अंक 1 और 21892-1893 में प्रकाशित लेख Cber historischen Materialismus*' में, जो सबसे पहले सुप्रसिद्ध पैम्पलेट, वैज्ञानिक समाजवाद का विकास' के अंग्रेजी संस्करण की प्रस्तावना के रूप में प्रकाशित हुआ था, स्वयं इस सत्य को किसी भी अन्य से अधिक अच्छी तरह दर्शाया है। एंगेल्स ने बर्तानवी पाठकों को सम्बोधित करते हुए इस तथ्य का भौतिकवादी स्पष्टीकरण दिया है कि बर्तानवी बुर्जुआ सिद्धान्तकार भौतिकवाद को पसन्द नहीं करते।
एंगेल्स ने ध्यान दिलाया है कि भौतिकवाद, जो पहले इंग्लैण्ड में और फिर फ्रांस में अभिजात वर्गीय सिद्धान्त था, फ्रांस में शीघ्र ही एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त बन गया और "इस हद तक क्रान्तिकारी बन गया कि जब महान क्रान्ति प्रारम्भ हुई तब इंग्लैण्ड के राज्यतंत्रवादियों द्वारा पोषित इस सिद्धान्त ने फ्रांसीसी गणतंत्रवादियों तथा आतंकवादियों को एक सैद्धान्तिक ध्वज प्रदान किया और मानवाधिकारों की घोषणा के लिए पाठ मुहैया किया।" कुहासे से ढके ऐल्बियान के "सम्माननीय" कूपमण्डूकों को भयाक्रान्त करने के लिए इतना ही काफ़ी होता। "इस तरह भौतिकवाद फ्रांसीसी क्रान्ति का पंथ बना," एंगेल्स आगे कहते हैं, "तो ईश्वर-भीरु अंग्रेज बुर्जुआ अपने धर्म से और भी बुरी तरह चिपक गया। क्या पेरिस में आतंक-राज्य से यह सिद्ध नहीं हुआ कि जनसमुदायों की धार्मिक वृत्ति लुप्त होने का क्या नतीजा होता है ? भौतिकवाद फ्रांस से पड़ोसी देशों की ओर जितना अधिक फैला और उसी प्रकार की सैद्धान्तिक धाराओं... से पुनर्बलीकृत हुआ, महाद्वीप में सुसंस्कृत व्यक्ति के लिए भौतिकवाद व मुक्त विचार जितने अधिक आवश्यक गुण बने, अंग्रेज मध् यम वर्ग अपने अनेक धार्मिक पंथों के साथ उतनी ही अधिक कट्टरता से चिपक
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• [ऐतिहासिक भौतिकवाद के बारे में ]
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गया। ये पंथ एक दूसरे से भिन्न हो सकते हैं, लेकिन वे सब स्पष्टरूपेण धार्मिक, मसीही पंथ थे 16
वर्गों के संघर्ष तथा सशस्त्र सर्वहारा विद्रोहों वाले कालान्तर के आंतरिक यूरोपीय इतिहास से बर्तानवी बुर्जुआजी को, पहले किसी भी समय से अधिक दृढ़ विश्वास हो गया कि धर्म को लोगों के ऊपर एक अंकुश के रूप में बनाये रखना जरूरी है। अब समस्त महाद्वीपीय बुर्जुआजी इस धारणा पर विश्वास करने लगी। एंगेल्स ने लिखा "वस्तुतः चन्मत तवइनेजने दिन व दिन अधिक malitiosus होता गया।* फ्रांसीसी और जर्मन बुआजी के पास अन्तिम उपाय के रूप में मुक्त चिन्तन का चुपके चुपके परित्याग करने के सिवा और कोई चारा न रहा। एक के
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*[प्रतिरक्षा से आक्रमण तक संग्रह की टिप्पली जनता के बारे में के कथन की और इशारा Paer robustus et maliticsus (एक सुपुष्ट और दुर्भावनापूर्ण बच्चा)। असंगतः, मुझे यह कहना चाहिए कि हॉब्स की प्रणाली तक में भौतिकवाद क्रान्तिकारी भावना से पूर्णतः वंचित नहीं था। राजतंत्र के सिद्धान्तविद उस काल में यह समझते थे कि ईशकृपा से राजतंत्र एक चीज की और हॉक्स के अनुसार राजतंत्र नितान्त अन्य वस्तु थो लागि ने ठीक ही कहा था "Dassjede Revolution, welche Macht hat, auch berechtigt ist, sobald es ihr gelingt, irgend eine neue Staatsgewalt herzustellen, folgt aus diesem System von selbst, der Spruch 'Macht geht vor Recht' ist als Trost der Tyrannen unnöthig. da Macht und Recht geradezu identisch sind: Hobbes verweilt nicht gern bei diesen Konsequenzen seines Systems und malt die Vortheile eines absolutistischen Erbkonigthums mit Vorliebe aus allein die Theorie wird dadurch nicht geandert" (F.A. Lange, Geschichte des Materialismo, Erstes Buch, Leipzig, 1902, S. 244.) ["खुद इस प्रणाली से यह अर्थ निकलता है कि जो क्रान्ति काफी शक्तिशाली हो वह एक नये प्रकार की राज्य सत्ता की स्थापना करने में सफल होते ही उचित भी हो जाती है, निरंकुश शासकों को इस कहावत से अपने आपको दिलासा देने की जरूरत नहीं 'अधिकार से पहले बल है क्योंकि बल और अधिकार वस्तुतः समरूप है। अपनी प्रणाली के इन परिणामों की विस्तार से चर्चा करने में हिचकते हैं और निरपेक्षत राजतंत्र की वरीयता के वर्णन को तरजीह देते हैं, लेकिन इससे उनके सिद्धान्त में कोई परिवर्तन नहीं होता। (ए.ए. लांगे, भौतिकवाद का इतिहास, पहली पुस्तक, लाइपि 19002, पृ. 2441), प्राचीन यूनानी-रोमन जगत में भौतिकी कान्तिकारी भूमिका का ठिकशियस ने किया है, एपिक्यूरस के बारे में उन्होंने लिखा है: जब मानव जीवन सब की निगाहों के सामने दब-कुचला, अंधास्था के तले दूषित-कलुषित धरती पर पड़ा था और वह आकाशीय अंचनों से अपना सिर दिखलाती भयानक निगाहों से नीचे मनुष्य को देख रही थी, तब एक ग्रीसवासी ने सबसे पहले नजरें उठाकर उसकी तरफ देखा - प्रथम व्यक्ति जिसने उसका सामना करने का साहस किया। उसे न तो
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बाद एक धर्मनिन्दक धर्मनिष्ठ बन गये... चर्च, उसकी रूढ़ियों और धार्मिक कर्मों के बारे में सम्मान से बातें करने लगे और जहाँ कोई अन्य चारा न था वहाँ चर्च के अनुरूप आचरण भी करने लगे। फ्रांसीसी बुर्जुआ शुक्रवारों पर पवित्र निरामिष भोजन करता और जर्मन रविवारों के दिन अपने-अपने गिरजों के आसनों में बैठकर लम्बे प्रोटेस्टैण्ट प्रवचन सुना करता। भौतिकवाद से वे विपत्ति में पड़ गये थे। 'धर्म की जनता के लिए जीवित रखा ही जाना चाहिए'- समाज को घोर विनाश से बचाने का एकमात्र और अन्तिम साधन वही था। "17
तब इतना अपनी ओर से मैं जोहूँगा-"काण्ट की वापसी" के साथ-साथ भौतिकवाद के ख़िलाफ़ यह प्रतिक्रिया शुरू हुई जो अभी भी यूरोपीय चिन्तन की प्रवृत्ति का सामान्यतः और दर्शन का ख़ास तौर से लाक्षणिक तत्व है। पश्चाताप रत बुर्जुआ, न्यूनाधिक पाखण्ड के साथ, दार्शनिक "आलोचना" की सफलता के सर्वोत्तम प्रमाण के रूप में इस प्रतिक्रिया की तरफ़ संकेत करता है। लेकिन हम मार्क्सवादी, जो जानते हैं कि चिन्तन के विकास का मार्ग जीवन के विकासक्रम से निर्धारित होता है, इस प्रकार के, कमोबेश पाखण्डपूर्ण, दावों से अनायास स्थानच्युत नहीं होते। हम इस प्रतिक्रिया के समाजवैज्ञानिक तुल्यमान को परिभाषित करने में सक्षम हैं; हम जानते हैं कि इसका कारण विश्व इतिहास के मंच पर क्रान्तिकारी सर्वहारा का प्रकट होना है। चूँकि हमें सर्वहारा से डरने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि, इसके विपरीत, हम उसका सिद्धान्तकार बनने को सम्मान की बात समझते हैं, इसलिए हम भौतिकवाद का परित्याग नहीं करते हैं। वास्तव में, हम बुर्जुआ लालबुझक्कड़ों की कायरतापूर्ण और पूर्वाग्रहों से भरी "आलोचना" के खिलाफ़ इसकी रक्षा करते हैं।
बुर्जुआजी का भौतिकवाद से मुँह मोड़ने का एक कारण और भी है, प्रसंगतः, इसकी जड़ें भी आधुनिक पूँजीवादी समाज के शासक वर्ग के रूप में बुर्जुआजी की मानसिकता में निहित है। ऐसा हर वर्ग जिसने सत्ता प्राप्त कर ली हो स्वभावतः आत्मतृप्ति की ओर उन्मुख हो जाता है और माल उत्पादकों के बीच कटु पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता पर आधारित समाज में शासन करता हुआ बुर्जुआजी एक ऐसी परितृप्ति की ओर प्रवृत्त हो जाता है जिसमें परोपकारिता का नाम निशान भी नहीं होता। बुर्जुआजी के हर योग्य प्रतिनिधि का अनमोल "अहं" उसकी हर आकांक्षा और प्रयोजन में पूरी तरह से छाया रहता है। जूडरमान के Das Blumenboot" के
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देवताओं की कथाएँ दबा सकीं, न गरजता आकाश और न इसकी..." इत्यादि। लांगे, जिनका सामान्यतः भौतिकवाद के प्रति अच्छा रुख नहीं है, भी यह मानते थे कि एथेंस के समाज में प्रत्ययवाद की रक्षात्मक भूमिका थी।
• [पुष्प-नाव' ।]
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द्वितीय अंक, प्रथम दृश्य में बैरोनेस एरफ़्लिंगेन अपनी सबसे छोटी बेटी को उपदेश देते हुए कहती है: "हमारे रुतबे के लोग दुनिया की सारी चीज़ों को एक ऐसे खुशगवार पैनोरमा में तब्दील करने के लिए जीते हैं जो हमारे सामने से गुजरता है, या फिर, गुजरता हुआ सा प्रतीत होता है। दूसरे शब्दों में तड़क-भड़कदार बैरोनेस जो प्रसंगतः पक्के बुर्जुआ परिवार की थी, जैसे लोगों की दुनिया की हर वस्तु और घटना को केवल अपने ही कमोबेश, सुखद, व्यक्तिगत अनुभवों की दृष्टि से देखने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करना जरूरी होता है। नैतिक अहंमात्रबाद- यह दो ऐसे शब्द हैं जो आज के बुर्जुआजी के सर्वाधिक लाक्षणिक प्रतिनिधियों की भावनाओं को सटीक रूप में दर्शाते हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसी भावनाओं से वे प्रणालियाँ जन्म लेती हैं जो आत्मगत "अनुभवों" के सिवा और कुछ नहीं मानती और वे अवश्यम्भावी रूप से सैद्धान्तिक अहंमात्रवाद पर जा पहुँचतों, यदि उनके संस्थापकों में तर्कबुद्धि के अभाव के कारण वे उससे बच न गयी होतीं।
प्रिय महोदय, अपने अगले पत्र में मैं आपको बतालाऊँगा कि आपके प्रिय माख और आवेनारिउस तर्कहीनता के किन करतबों से आपको अहंमात्रवाद से बचाते हैं। उसी में मैं यह प्रदर्शित करूंगा कि स्वयं आपके लिए भी, जो कुछ
• [ प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह से टिप्पणी]-"Notre morale, notre religion, notre sentiment de nationalite," मोरिस बारेस कहते हैं, "sont choses écroulées, constatais-je, auxquelles nous ne pouvons emprunter des règles de vie, et en attendant que nos maîtres nous aient refait des certitudes, il convient que nous nous en tenions à la seule réalité. au Moi. C'est la conclusion du premier chapitre (assez insuffisant, d'ailleurs) de Sous l'oeil des Barbares". (Maurice Barrès, Le culte du Moi. Examen de trois ideologies, Paris, 1892) [ "मैंने नोट किया कि हमारी नैतिकता, हमारा धर्म, हमारी राष्ट्रीय भावनाएँ पहले ही ध्वस्त हो गयी हैं, हम उनसे जीवन के नियम नहीं बना सकते और जब तक हमारे शिक्षक उनमें विश्वास को पुनर्जीवित नहीं करते तब तक यही ठीक है कि हम अपनी एकमात्र वास्तविकता, अपने अहं से चिपके रहें। यह 'बर्बरों के दृष्टिकोण' पुस्तक के पहले अध्याय का (प्रसंगतः, जो पर्याप्त नहीं है) निष्कर्ष है" (मोरीस बारेस, 'अहं का पन्थ', तीन विचारधाराओं का विश्लेषण, पेरिस, 18921), यह बहुत स्पष्ट है कि इस प्रकार की भावनाएं लोगों को प्रत्ययवाद की, और वह भी उसके अशक्ततम रूप-आत्मगत प्रत्ययवाद की ओर प्रवृत्त करती हैं। जिन लोगों का सारा दर्शन क्षेत्र उनके अमोल "अहं" से ढका हुआ है उन्हें भौतिकवाद से कोई सहानुभूति नहीं हो सकती है। ऐसे लोग भी हैं जो भौतिकवाद को अनैतिक सिद्धान्त समझते हैं। जिन लोगों का समसामयिक फ्रांसीसी साहित्य से जरा सा भी परिचय है उन्हें यह याद दिलाना जरूरी नहीं है कि बारेस अपने "अहं" के पन्च के साथ, अन्ततः, कहाँ पहुँचे थे।
जुझारू भौतिकवाद 31
मामलों में उनसे अलग रहना उपयोगी समझते हैं, अनर्गल असंगति में जा पड़ने के सिवा अहंसात्रवाद से बचने का और कोई उपाय नहीं है। लेकिन फिलहाल मुझे अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवाद के प्रति मेरे अपने रवैये से सम्बन्धित बात पूरी कर लेनी चाहिए।
इस शिक्षा से, जो विषय-वस्तु में इतनी समृद्ध व विविधतापूर्ण तथा रूप में इतनी परिष्कृत है,* मैं एंगेल्स से कम सम्मोहित नहीं हुआ हूं, लेकिन एंगेल्स की ही भाँति मैं यह समझता हूँ कि जब यह सिद्धान्त फल-फूल रहा था तब से अब तक प्राकृतिक विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति हो गयी है और कि अब हम भौतिकी, रसायन या जैविकी पर उस काल के विचारों के सहभागी नहीं हो सकते-मसलन, होल्दाख के विचारों के। मैं 'लुडविग फ्रायरबाख' में फ्रांसीसी भौतिकवाद पर एंगेल्स द्वारा की गयी आलोचनात्मक टिप्पणियों से सिर्फ सहमत ही नहीं हूँ बल्कि, जैसा कि आप जानते हैं, मैंने अपनी तरफ से स्रोतों का सन्दर्भ देकर उन आलोचनात्मक टिप्पणियों को बढ़ाया तथा पुनर्बलीकृत किया है। इस बात को जाननेवाला पाठक आपको यह कहते सुनकर सिर्फ हँस भर देगा कि भौतिकवाद की सफाई पेश करते हुए मैं बीसवीं सदी के प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन से बिल्कुल भिन्न रूप में, अठारहवीं सदी के उसी दर्शन का बचाव कर रहा हूँ ('संवेदनों का विश्लेषण के रूसी अनुवाद में आपकी प्रस्तावना)। जब उसे याद आयेगा कि हेकेल भी एक भौतिकवादी हैं तो वह और भी दिल खोलकर हँसेगा या शायद आप हमें बतायेंगे कि हेकेल भी हमारे युग के प्राकृतिक वैज्ञानिकों की पात में नहीं हैं? यह साफ जाहिर है कि इस सम्बन्ध में, आपके नेत्रों की एकमात्र ज्योति माख हैं, और हाँ, उनके सहित हैं जो उन्हीं तरह से सोचते हैं।
यह सच है कि बीसवीं सदी के प्रकृतिविदों में आपको ऐसे अनेक लोग नहीं मिलेंगे जो, हेकेल की तरह, भौतिकवादी दृष्टिकोण रखते हों। लेकिन यह हेकेल के ख़िलाफ़ नहीं, उनके पक्ष का तर्क हैं, क्योंकि यह दर्शाता है कि वे उस भौतिकवाद विरोधी प्रतिक्रिया का मुकाबला करने में समर्थ रहे, जिसके सामाजिक तुल्यमान को मैंने ऊपर एंगेल्स की मदद से परिभाषित किया है। प्रिय महोदय, यहाँ प्राकृतिक विज्ञान को कुछ लेना-देना नहीं है, यह इस मामले का सार नहीं है।"
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* मैं "विविधतापूर्ण" इसलिए कहता हूँ कि अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवाद में, सजातीय होते हुए भी कई भिन्न प्रवृत्तियाँ थीं।
** ['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह से टिप्पणी, इसका पष्टिकरण सुप्रसिद्ध प्रकृतिविद जं. सैन्के के 10 मई, 1907 को प्रशिया के ऊपरी सदन में दिये गये उस भाषण में खोजा "जा सकता है जो हेकेल द्वारा संस्थापित एकत्यवादियों की लीग के बारे में था। यह कीएल का वनस्पति वैज्ञानिक अपने आपको तथा अपने श्रोताओं को हर सम्भव तरीके
32 / जुझारू भौतिकवाद
प्राकृतिक विज्ञान की वस्तुस्थिति कैसी ही क्यों न हो, यह बात दिन के उजाले की तरह सुस्पष्ट है कि माखवादी दर्शन का एक पक्षपोषक होने के नाते आपको मार्क्स और एंगेल्स का अनुयायी होने का दावा नहीं करना चाहिए। वास्तव में माख ने अपने 'संवेदनों का विश्लेषण' के रूसी अनुवाद की प्रस्तावना तथा रूसी पाठ के पृष्ठ 292 में स्वयं स्वीकार किया है कि उनका दर्शन ह्यूम के दर्शन का सजातीय है। और आपको याद है कि ह्यूम के बारे में एंगेल्स क्या कहते हैं?
वे कहते हैं कि अगर जर्मनी के नवकाण्टवादी काण्ट के विचारों को और अंग्रेज़ अज्ञेयवादी ह्यूम के विचारों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं, तो "यह वैज्ञानिक दृष्टि से प्रतिगमन है"।* ऐसा ज्ञात होगा कि यह सर्वथा सन्देहरहित है और इससे आपको शायद ही प्रसन्नता हो क्योंकि आप चाहेंगे कि हम इस बात पर यकीन कर लें कि ह्यूम और माख के झण्डे तले आगे बढ़ा जा सकता है और बढ़ना ही चाहिए।
श्रीमान बोग्दानोब, जिस दिन आपके दिमाग में मुझे मार्क्स और एंगेल्स के स्कूल से निकालने और होल्याख के शिष्यों में भर्ती करने का विचार आया वह दिन आपके लिए शुभ नहीं था। ऐसा करने में आपने केवल सत्य के विरुद्ध पाप ही नहीं किया, बल्कि वादविवाद में कुशलता के आश्चर्यजनक अभाव का उद्घाटन भी कर दिया।
अब अपने कारनामे पर मुग्ध होइए। आप यह लिखकर प्रसन्न हैं: "भौतिकवाद का आधार और मूलसार, बेल्तीय के अनुसार, 'अध्यात्म' के ऊपर 'प्रकृति की प्रधानता की धारणा है। यह परिभाषा बहुत व्यापक है और, इस मामले में, इसकी अपनी हानियाँ हैं।"**
फिलहाल हम इन हानियों को अकेला छोड़ देंगे, और यह याद दिलायेंगे कि
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में विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि मतान्य "हेकेल" जिस भौतिकवादी एकत्ववाद" की (इस तरह से रीन्के हेकेल की शिक्षा को बिल्कुल सही ढंग से कहता है) शिक्षा देता है उसकी वैज्ञानिक आधारहीनता उनको अप्रसन्न कर देती है। लेकिन सैन्के के भाषण को सावधानी से पढ़ने का कष्ट उठाने वाला कोई भी व्यक्ति यह देखेगा कि वह विज्ञान का नहीं कर रहा है बल्कि उसका बचाव कर रहा है जिसे वह "पुराने विश्व दर्शन की ज्योति" (Licht der alten Weltanschauung) कहता है। उन सामाजिक सम्बन्धों लिए इतनी सुखद यह "ज्योति" पैदा हुई। (रीन्के का भाषण एक पैम्पलेट: Haeckels की विस्तार से चर्चा करने की जरूरत नहीं है जिनमें रीन्के तथा उसके जैसे वैज्ञानिकों के Monismsus sund seine Freunde "हेकेल का एकत्ववाद और उसके दोस्त], von J.
Rcinke, Leipzig, 1907 में पुनप्रकाशित हुआ।
*लुडविग फायबाख, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 43 वाक्यांश पर जोर मेरा है। गे.प.
**अनुभवात्मक एकत्ववाद', तीसरा खण्ड, पृ. 111
जुझारू भौतिकवाद / 33
आपने इन पंक्तियों को यह कह चुकने के फ़ौरन बाद लिखा था कि मैं "मार्क्स के नाम पर और होत्बाख के उद्धरणों की सहायता से" भौतिकवाद की व्याख्या कर रहा था। फलतः यह सोचा जा सकता है कि भौतिकवाद के "आधार और मूलसार" की मेरी परिभाषा होल्बाख़ से ली गयी है और मार्क्सवाद के नाम पर जिसकी व्याख्या करने का मुझे अधिकार होता उसका, वस्तुतः, खण्डन करती है। लेकिन वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापकों ने भौतिकवाद को किस प्रकार परिभाषित किया है ?
एंगेल्स लिखते हैं कि सत्य के साथ चिन्तन के सम्बन्ध में प्रश्न पर दार्शनिकगण दो विशाल शिविरों में विभाजित हो गये : "जो इस बात पर बल देते थे कि प्रकृति से पहले अध्यात्म विद्यमान था और इसीलिए, अन्ततोगत्वा, किसी एक रूप में विश्व की सृष्टि मान लेते थे, उन्होंने प्रत्ययवाद के शिविर का निर्माण किया। जो अन्य प्रकृति को प्रधान मानते थे वे भौतिकवाद के विभिन्न शिविरों में आ गये।*.
क्या यह ठीक वही नहीं है जो मैंने "भौतिकवाद के आधार और मूलसार" के बारे में कहा है? इसलिए, कम से कम इस मामले में, मुझे मार्क्स और एंगेल्स के नाम पर तथा होल्बाख की किसी सहायता की जरूरत के बग़ैर भौतिकवाद की व्याख्या करने का पूरा अधिकार था।
प्रिय महोदय, क्या आपने यह नहीं सोचा कि भौतिकवाद की जो परिभाषा मैंने स्वीकार की है उस पर हमला करके आप अपने आपको किस स्थिति में डाल रहे हैं? आप मुझ पर हमला करना चाहते थे, परन्तु जैसा कि हुआ, आपने मार्क्स और एंगेल्स पर हमला किया। आप मुझे इन विचारकों के स्कूल से निकाल देना चाहते थे, लेकिन जैसा कि हुआ, आप मार्क्स के "आलोचक" के रूप में सामने प्रकट हो गये। बेशक, यह अपराध नहीं है, लेकिन यह एक तथ्य है और मौजूदा स्थिति में, बहुत ही शिक्षाप्रद है। यह आपके साहस के अभाव का एक और प्रमाण है। आप एंगेल्स की आलोचना करना चाहते हैं, लेकिन खुलेआम उनका विरोध करने में डरते हैं, इसलिए आप उनके विचारों को होल्बाखू और प्लेखानोव के मत्थे मढ़ देते हैं। आपकी लाक्षणिकता का इससे बेहतर प्रदर्शन और कुछ नहीं हो सकता। मेरे लिए यह आम तौर पर आपको उत्पीड़ित करने का प्रश्न नहीं बल्कि आपको परिभाषित करने, यानी, अपने पाठकों को यह समझाने का प्रश्न है कि आप लालबुझक्कड़ों की किस विशेष श्रेणी के हैं।
मेरा विश्वास है कि अब यह उनके लिए पर्याप्त रूप लेकिन मुझे उन्हें आगाह कर देना चाहिए कि अभी हमने आपको सिर्फ़ फूलते हुए स्पष्ट हो गया है। देखा है; फलों को हम अगले पत्र में खायेंगे, जिसमें हम संज्ञान के मेरे सिद्धान्त को
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• 'लुडविग फायरबाख', पृ. 41
34 / जुझारू भौतिकवाद
आपके द्वारा की हुई आलोचना के बाग़ में टहलेंगे। वहाँ हमें कई रसीले, स्वादिष्ट फल मिलेंगे !
लेकिन अब मैं समाप्त करने को विवश हूँ। अच्छा तो प्रिय महोदय, फिर मिलेंगे और श्री लुनाचास्की के मंजुलमनोरम देवता से प्रार्थना है कि वह आपकी रक्षा करे !
गे.व. प्लेखानोव
जुझारू भौतिकवाद / 35
दूसरा पत्र
"Tu l'as voulu, Georges Dandin!"
प्रिय महोदय,
आपके लिए मेरा यह पत्र स्वभावतः दो भागों में बँट गया है। पहला, मैं "अपने" भौतिकवाद के विरुद्ध आपके द्वारा उठायी गयी "आलोचनात्मक" आपत्तियों का उत्तर देने के लिए अपने आपको बाध्य समझता हूँ। दूसरा, मैं आक्रामक स्थिति में जाने, और उस "दर्शन" के आधार की छानबीन करने के अपने अधिकार को उपयोग में लाना चाहता हूँ जिसके नाम पर आप मुझ पर हमला करते हैं और जिसकी सहायता से आप मार्क्स को "पूर्णता प्रदान करना चाहेंगे- तात्पर्य है, माख के दर्शन से। मैं जानता हूँ कि पहला भाग कई पाठकों के लिए निहायत उबाऊ होगा। परन्तु मैं आपका अनुसरण करने को विवश हूँ और अगर आपके "आलोचनात्मक" भाग़ में हमारे संयुक्त भ्रमण के दौरान किंचित हँसी-विनोद की कोई बात हो तो दोष मेरा नहीं, उसका होगा जिसने उस बाग़ की योजना बनायी तथा उसे लगाया।
आप भूतद्रव्य की "मेरी" परिभाषा की आलोचना करते हैं जिसे आपने मेरी पुस्तक 'हमारे आलोचकों की आलोचना' के निम्नांकित पैरे से लिया है:
"अध्यात्म के विपरीत हम उसे 'भूतद्रव्य' कहते हैं जो हमारे संवेद-अंगों पर प्रभाव डालता है और हममें विभिन्न संवेदनों को जगाता है। वह यथार्थतः क्या है जो हमारे संवेद-अंगों पर असर करता है? इस प्रश्न का उत्तर में काण्ट के साथ देता हूँ: निजरूप वस्तुएँ। इस तरह, जहाँ तक ये वस्तुएँ हमारे संवेदनों का स्रोत हैं वहाँ तक भूतद्रव्य निजरूप वस्तुओं की समग्रता के सिवा और कुछ नहीं है।"
ऐसा लगता है कि इस पैरे से आपको हँसी आ गयी।
आप मुस्कराते हुए लिखते हैं: "अतः 'भूतद्रव्य' (या 'अध्यात्म' की प्रतिस्थापना में 'प्रकृति') को 'निजरूप-वस्तुओं' के जरिए तथा 'हमारे संवेद-अंगों पर प्रभाव
36 / जुझारू भौतिकवाद
डालकर संवेदनों को प्रोत्तेजित करने की उनकी क्षमता के जरिए परिभाषित किया गया है। लेकिन ये 'निजरूप वस्तुएँ' क्या हैं? 'वे जो हमारे संवेद-अंगों पर असर डालती हैं और हममें विभिन्न संवेदन पैदा करती हैं। बस, कुल इतना ही। अगर आप, सम्भवतः अन्तर्निहित, नकारात्मक लक्षणों अ-'संवेद', निः-'दृश्य सत्ता', अन-'अनुभव' - को ध्यान में न रखें तो आप पायेंगे कि कामरेड बेल्लोत्व के पास कोई अन्य परिभाषा नहीं है।*
जरा रुकिये, प्रिय महोदय, यह मत भूलिए कि rira bien, qui rira le dernier.**
में निजरूप वस्तुओं के "ज़रिए" भूतद्रव्य की परिभाषा क़तई नहीं करता हूँ। मैं सिर्फ़ इस बात पर बल देता हूँ कि समस्त निजरूप वस्तुएँ भौतिक तत्व हैं। वस्तुओं की भौतिकता से मेरा तात्पर्य और इस मामले में आप सही हैं-किसी न किसी तरीक़े से, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे संवेद-अंगों पर प्रभाव डालने और इस तरह हमारे अन्दर किसी एक या अन्य प्रकार के संवेदन को उत्पन्न करने की उनकी क्षमता से है। काण्टवादियों के साथ अपने विवाद में मैंने सोचा कि मुझे यह हक़ है कि मैं अपने आपको महज यह बताने तक सीमित रखु कि वस्तुओं में यह क्षमता होती है। मैंने ऐसा इसलिए किया कि काण्ट ने अपनी 'विशुद्ध विवेक की 'मीमांसा' के पहले ही पृष्ठ में इस क्षमता पर न सिर्फ़ सन्देह नहीं किया है बल्कि स्पष्ट रूप से इसे स्वीकार किया है। लेकिन काण्ट सुसंगत नहीं रहे। ऊपर बतायी गयी पुस्तक के पहले पृष्ठ में वे निजरूप वस्तुओं को हमारे संवेदनों का स्रोत मानते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें यह मानने से भी कोई गुरेज नहीं कि ये वस्तुएँ कोई अभौतिक चीजें हैं, यानी हमारे संवेदों की पहुंच से बाहर हैं। उनका यह रुझान, जिससे वे स्वयं अपना ही खण्डन करते हैं, उनकी 'व्यावहारिक विवेक की मीमांसा' में विशेष स्पष्टता से प्रकट हुआ है। उनके इस रुझान को देखते हुए, मेरे लिए यह नितान्त स्वाभाविक था कि मैं काण्ट के अनुयायियों से तर्क करते समय इस बात पर जोर दूं कि निजरूप-वस्तुएँ उनकी अपनी ही स्वीकारोक्ति के अनुसार हमारे संवेदनों का स्रोत हैं, यानी कि उनमें भौतिक होने के सभी चिह्न विद्यमान हैं। इस बात पर जोर देते हुए मैंने काण्ट की असंगति को निरावरण किया और उनके अनुयायियों को उनकी यह तार्किक आवश्यकता दर्शायी कि वे अपने आपको उस अन्तरविरोध के दो अन्योन्यविरोधी तत्वों में से किसी एक के पक्ष में घोषित करें जिससे बचने का रास्ता उनके गुरु नहीं खोज पाये। मैंने कहा कि वे काण्ट के द्वैतवाद से सन्तुष्ट नहीं हो सकते; उन्हें या तो आत्मगत प्रत्ययवाद को चुनना होगा
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*अनुभवात्मक एकत्ववादा, तीसरा खण्ड, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 131
**[अन्तिम हँसी ही सुख की हँसी होती है।]
जुझारू भौतिकवाद / 37
या भौतिकवाद को।* जब हमारे वादविवाद ने ऐसा रूप धारण कर लिया तो मैंने आत्मगत प्रत्ययवाद और भौतिकवाद के अन्तर को स्पष्ट करने वाले प्रधान लक्षण को, कि आत्मगत प्रत्ययवाद वस्तुओं की भौतिक प्रकृति को नकारता है जब कि भौतिकवाद उसे मान्यता देता है,** नोट करना उचित समझा। श्रीमान बोग्दानोव आप तक को, जो दर्शनशास्त्र के इतिहास के बारे में क़तई कुछ नहीं जानते, यह बात ज्ञात हो सकती है।
ऐसी थी वह वस्तुस्थिति। लेकिन आपने सम्बन्धित बात को जरा भी समझे बग़ैर (और समझने में प्रत्यक्षतः असमर्थ) उन शब्दों को फ़ौरन लपक लिया जिनका अर्थ आपके लिए बिल्कुल "अज्ञेय" रहा और आप अपने सस्ते व्यंग्य को लेकर मुझ पर झपट पड़े। जल्दबाजी, श्रीमान बोग्दानोव, लाती है बर्बादी।
आगे। मुझे आपके साथ इस विवाद में आत्मगत प्रत्ययवाद से भौतिकवाद के अन्तर को स्पष्ट करने वाले प्रधान लक्षण की चर्चा उससे भी अधिक बार करनी पड़ेगी जितनी काण्टवादियों के साथ तर्क करते समय करनी पड़ती है। इसलिए, मैं आपके लिए इस लक्षण को, आशा है, कुछ काफ़ी विश्वसनीय उद्धरणों की सहायता से स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा।
अपनी कृति Of the Principles of Human Knowledge*** में सुप्रसिद्ध आत्मगत प्रत्ययवादी और अंग्रेज़ बिशप) जॉर्ज बर्कले लिखते हैं :
"लोगों के बीच यह सचमुच अजीब ढंग से प्रचलित मत है कि मकानों, पर्वतों, नदियों और, संक्षेप में, सभी इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं (all sensible objects) का बुद्धि द्वारा अनुभूत रूप (being perceived by the understanding) से भिन्न एक सहज या वास्तविक (natural or real) अस्तित्व है। " **** लेकिन यह मत एक सुस्पष्ट अन्तरविरोध पर आधारित है, "क्योंकि ऊपर बतायी गयी वस्तुएँ संवेदों द्वारा अनुभूत चीज़ों के सिवा और क्या है? और हम अपने ही विचारों या संवेदनों (ideas or
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• [ प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह की टिप्पणी- इस मामले पर मेरी रचना 'हमारे आलोचकों की आलोचना' सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 167-202) में यह लेख देखें 'कोनराड श्मिट बनाम कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स' तथा 'भौतिकवाद या काण्टवाद?] ।
** यह सच है कि निरपेक्ष प्रत्ययवाद भी भूतद्रव्य के बारे में भौतिकवादी दृष्टि को नहीं मानता; लेकिन अध्यात्म के "अन्य स्वत्व" के रूप में इसकी शिक्षा में हमें ठीक वैसे ही दिलचस्पी नहीं जैसे नवकाण्टवादियों के साथ मेरे विवाद में यह मेरे लिए कोई दिलचस्पी की चीज नहीं थी।
*** [ 'मानव ज्ञान के सिद्धान्तों के बारे में। .
****The Works of George Berkley D.D., formerly bishop of Cloyne, Oxford, MDCCCLXXI, Vol. I, pp. 157-58 [जॉर्ज बर्कले, धर्मशास्त्र के डॉक्टर, क्लोयन के भूतपूर्व बिशप की कृतियाँ, आक्सफोर्ड, 1871, खण्ड 1, पृ. 157-58
38 / जुझारू भौतिकवाद
sensations) के अलावा और क्या अनुभव करते हैं? "* बर्कले आगे कहते हैं: रंग, आकृति, गति, विस्तार हमें अपने संवेदनों के रूप में भली भाँति ज्ञात हैं। लेकिन अगर हम उन्हें चिन्तन के बाहर अस्तित्वमान वस्तुओं के चिह्न या छवियाँ मानें तो हम अपने आपको अन्तरविरोधों में जकड़ लेंगे।**
आत्मगत प्रत्ययवादियों के विपरीत भौतिकवादी फ़ायरबाख कहते हैं: कुछ चीज़ है सिद्ध करने का अर्थ यह सिद्ध करना है कि वह चीज़ सिर्फ़ विचार में ही विद्यमान नहीं है (nicht nur gedachtes ist) ।***
ड्यूहरिंग के साथ अपने विवाद में एंगेल्स ने एक प्रत्यय के रूप में विश्व के प्रत्ययवादी विचार के विरुद्ध अपने विचार पेश करते हुए ठीक यही बात कही है, वे ऐलान करते हैं कि विश्व की वास्तविक एकता उसकी भौतिकता में निहित है (bestehet in ihrer Materialität)**** |
इसके बाद यह और स्पष्ट करना जरूरी है कि हम भौतिकवादी वस्तुओं की भौतिकता से ठीक क्या समझते हैं? पक्ष की निरापदता के लिए, मैं इसे स्पष्ट करूँगा।
हम उन वस्तुओं (पिण्डों) को भौतिक वस्तुएँ कहते हैं जो हमारी चेतना से अलग स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में हैं और हमारे संवेदों को प्रभावित करके हमारे अन्दर कुछ संवेदन जगाती हैं और संवेदन बाह्य जगत की यानी उन्हीं भौतिक वस्तुओं तथा उनके सम्बन्धों की हमारी धारणाओं में अन्तर्निहित होते हैं।
यह, मैं समझता हूँ, पर्याप्त है। मैं सिर्फ़ इतना और कहूँगा : माख, जिनके "दर्शन" को, प्रिय महोदय, आप बीसवीं सदी के प्राकृतिक विज्ञान का "दर्शन" मानते हैं, इस प्रश्न पर अठारहवीं सदी के प्रत्ययवादी बर्कले के दृष्टिकोण से मजबूती के साथ चिपके हैं। और तो और वे लगभग उसी योग्य बिशप के शब्दों तक का इस्तेमाल करते हैं। वे कहते हैं: "यह पिण्ड नहीं हैं जो संवेदनों को उत्पन्न करते हैं, बल्कि तत्वों के समुच्चय (संवेदनों के समुच्चय) हैं जो पिण्डों की रचना
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* वहीं ।
** वही, पृ. 2001
*** Feuerbach's Werke, Bd. II, S. 308. [फ़ायरबाख की कृतियाँ, खण्ड 2, पृ. 3081] मुझसे पूछा जा सकता है: क्या वह विद्यमान नहीं जो केवल विचार में विद्यमान है? में हेगेल के शब्दों को किंचित बदलकर उत्तर देता हूँ-वह वास्तविक अस्तित्व के प्रतिबिम्ब के रूप में टिका हुआ विद्यमान है।
**** Herrn Eugen Dühring's Umwälzung der Wissenschaft, V. MAuflage, S. 31. [ श्री यूजेन ड्यूहरिंग द्वारा विज्ञान में प्रवर्तित क्रान्ति', पाँचवाँ संस्करण, पृ. 911]
जुझारू भौतिकवाद / 39
करते हैं। यदि किसी भौतिक शास्त्री को पिण्ड टिकाऊ तथा वास्तविक चीज और 'तत्व' उनके क्षणभंगुर व अचिरस्थायी प्रतिबिम्ब जान पड़ते हैं तो वह यह नहीं देखता कि सभी 'पिण्ड' तत्वों के समुच्चय (संवेदनों के समुच्चयों) के तार्किक प्रतीक मात्र हैं।"*
श्री बोग्दानोव, इस विषय पर आपके शिक्षक जी कहते हैं उसे आप निश्चय ही भली भाँति जानते हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि बर्कले ने इसके बारे में जो कहा है उसके बारे में आप कुछ नहीं जानते हैं। आप मोलियेर के जुर्देन" की तरह हैं जो बहुत लम्बे समय तक यह नहीं जान पाया कि वह गद्य में बोलता था। आपने भूतद्रव्य के बारे में माख के विचारों में महारत हासिल कर ली है, लेकिन अपने सीधेपन में आपको यह ख्याल तक नहीं कि यह विशुद्ध रूपेण प्रत्ययवादी दृष्टिकोण है। भूतद्रव्य की मेरी परिभाषा पर आपके चकित होने का यही कारण है, आपके यह न समझ सकने का कारण भी यही है कि नवकाण्टवादियों के साथ तर्क करते समय निजरूप वस्तुओं की भौतिकता पर जोर देना मेरे लिए क्यों जरूरी था। हास्यास्पद मोसिये जुर्देन बेचारे श्रीमान बोग्दानोव !
यदि आपको दर्शनशास्त्र के इतिहास का थोड़ा सा भी ज्ञान होता तो आप यह बात अच्छी तरह से जानते कि भूतद्रव्य की जिस परिभाषा से आपकी हँसी बाँध तोड़कर फूट निकली वह मेरी निजी सम्पदा नहीं है बल्कि भौतिकवादी तथा प्रत्ययवादी शिविर के भी अनेकानेक विचारकों की सामूहिक सम्पदा है। मिसाल के लिए, अठारहवीं सदी में भौतिकवादी होल्बाख और जोजेफ़ प्रीस्टले इसी को मानते थे।** अभी हाल ही में, हम कह सकते हैं कि कुछ ही दिन पूर्व प्रत्ययवादी (पर आत्मगत) प्रत्यावादी नहीं) ई. नवील ने फ्रांसीसी अकादमी में पढ़े अपने एक निबन्ध में उस प्रश्न "भूतद्रव्य क्या है?" का उत्तर यह कहकर दिया: "Chest ce qui se revele a nos sens" (जो हमारे संवेद-अंगों को उद्घाटित होता है)।*** प्रिय महोदय, इससे आप समझ सकते हैं कि भूतद्रव्य की "मेरी" परिभाषा कितनी व्यापक रूप से प्रचलित है।**** लेकिन इससे यह कल्पना मत कीजियेगा कि इसकी व्यापकता
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• 'संवेदनों का विश्लेषण', ग. कोतल्यार द्वारा अनूदित, स्किर्मुन्त द्वारा प्रकाशित, पृ. 931 'प्रीस्टले के अनुसार भूतद्रव्य object of any of our senses, यानी हमारे किसो भी संवेद का विषय है। Disquisitions [ 'गवेषणाएँ']. पृ. 142
*** La Matière. mémoire présenté à l'Institute de France, etc.. p. 5 [भूतद्रव्य । फ्रांसीसी अकादमी में पढ़ा निबन्ध, आदि, पृ. 5], 'निबन्ध' उस वर्ष अप्रैल में पढ़ा गया था। ['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह से टिप्पणी]-
प्लेटो के ज्ञान सिद्धान्त के लक्षण
बताते हुए विडिलबॉण्ड ने कहा "यदि धारणाओं में वह ज्ञान सम्मिलित होता है, जो अनुभूतियाँ
भौतिकवाद 40 / जुझारू
का हवाला देकर मैं आपके "आलोचनात्मक" आघातों को अपने से अन्य की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। ऐसा कुछ नहीं है। मैं उनका परिहार स्वयं कर सकता हूँ, और इसके लिए मुझे कोई बड़ी दिलेरी या चुस्ती की जरूरत नहीं है क्योंकि आपके आघात, सचमुच ही, निहायत कमज़ोर और फूहड़ हैं, इसलिए उनसे जरा भी डरने की जरूरत नहीं है।
जब मैं भूतद्रव्य को हमारे संवेदनों के स्रोत रूप में परिभाषित करता हूँ तो आप, नितान्त अनुचित रूप से, यह विश्वास करते हैं कि मैं "शायद" भूतद्रव्य का विशिष्टता-वर्णन नकारात्मक तरीके" से यानी अ-अनुभव के रूप में कर रहा हूँ। यह बात मुझे विचित्र लगती है कि आप इतने भारी भ्रम में कैसे पड़ सकते हैं; वस्तुतः जिस पुस्तक 'हमारे आलोचकों की आलोचना' से आप उद्धरण देते हैं उसी के कई पृष्ठों से आप अनुभव की मेरी संकल्पना को साफ़ समझ गये होते। इसके
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से बनने पर भी उनसे विकसित नहीं होता और मूलतः उनसे भिन्न रहता है, तो प्रत्ययों में, जो धारणाओं के विषय हैं, अनुभूतियों के विषयों के साथ-साथ एक स्वतंत्र और उच्चतर वास्तविकता होनी ही चाहिए। लेकिन अनुभूतियों के विषय हर मामले में पिण्ड और उनकी गतियाँ होती हैं या, जैसा कि प्लेटो ने सीधे-सीधे ढंग से कहा है, दृश्य जगत होता है; फलतः, धारणाओं में अभिव्यक्त संज्ञान के विषय के रूप में प्रत्ययों को एक स्वतंत्र, पृथक वास्तविकता, अदृश्य व अर्भूत जगत का प्रतिनिधित्व करना चाहिए" (प्लेटो, पृ. 84 ) । प्रत्ययवाद और भौतिकवाद के अन्तर को स्पष्ट करने के लिए मैंने हमारे संवेदनों के स्रोत के रूप में भूतद्रव्य की परिभाषा क्यों की इस बात को समझने के लिए यह पर्याप्त होगा। ऐसा करते हुए मैं उस प्रधान लक्षण पर जोर दे रहा था जो संज्ञान के भौतिकवादी सिद्धान्त को प्रत्ययवादी सिद्धान्त से स्पष्टतः अलग कर देता है। श्री बोग्दानोव इसे नहीं समझे और उनकी हँसी फूट निकली, जबकि उन्हें मामले पर विचार करना चाहिए था। मेरे विरोधी कहते हैं कि मेरी परिभाषा से सिर्फ इतना अर्थ निकाला जा सकता है कि भूतद्रव्य अध्यात्म नहीं हैं। इससे फिर यह सिद्ध होता है कि वे दर्शनशास्त्र के इतिहास से परिचित नहीं हैं। "अध्यात्म " की धारणा भौतिक वस्तुओं के गुणों के अमूर्तीकरण के जरिए विकसित हुई। भूतद्रव्य को अ-अध्यात्म कहना गलत है। हमें कहना ही होता है: अध्यात्म (यानी, वस्तुतः अध्यात्म की धारणा) अ-भूतद्रव्य है। वही विंडेलबॉण्ड दावा करते हैं (पृ. 85) कि प्लेटो के ज्ञान सिद्धान्त की विशिष्टता इस "माँग में निहित है कि उच्चतर जगत निश्चय ही अदृश्य या अभौतिक होना चाहिए।" स्पष्ट है कि यह माँग मनुष्य द्वारा अनुभव के आधार पर "दृश्य", भौतिक विश्व की एक धारणा बना चुकने के बहुत समय बाद ही पैदा हो सकती थी। प्रत्ययवाद की भौतिकवादी आलोचना की "विशिष्टता" उस उद्घाटन में निहित है कि एक "अदृश्य" और "अभौतिक" उच्चतर "जगत" की माँग करना असंगतिपूर्ण है। भौतिकवादियों का दावा है कि केवल उस भौतिक जगत का ही अस्तित्व है, जिसकी जानकारी हम किसी न किसी तरह से, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, अपने संवेदों की सहायता से प्राप्त करते हैं और कि अनुभव के सिवा दूसरा कोई ज्ञान न तो है न हो सकता है।
जुझारू भौतिकवाद / 41
अलावा, अनुभव की मेरी संकल्पना एंगेल्स के 'लुडविग फ्रायरबाख' की टिप्पणियों से भी, जिन्हें आप भी उद्धृत करते हैं, आपके लिए स्पष्ट हो जाती। उनमें से एक टिप्पणी में, काण्टवादियों के साथ विवाद करते हुए, मैंने कहा है: "मनुष्य का हर अनुभव और हर उत्पादक क्रिया, उसकी तरफ से, बाह्य जगत के साथ उसके सक्रिय सम्बन्ध का, निश्चित घटनाओं के संकल्पित प्रकटीकरण का प्रतिनिधान करती है। और चूंकि एक घटना मेरे ऊपर वस्तु-निजरूप की क्रिया का फल है (काण्ट कहते हैं उस वस्तु द्वारा मेरा प्रभावित होना), इसलिए एक अनुभव करने या किसी एक चीज का उत्पादन करने में में वस्तु-निजरूप को अपने "अहं" पर, पहले से ही और मेरे द्वारा निर्धारित एक निश्चित तरीके से प्रभाव डालने के लिए विवश करता हूँ। फलतः, में उसके, कम से कम कुछ, गुणों को यानी उन गुणों को जानता हूँ जिनके माध्यम के जरिए में इसे काम करने के लिए विवश करता हूँ।"* इसका सीधा अर्थ यह है कि अनुभव कर्ता और उससे बाहर रहने वाली वस्तु के बीच अन्तक्रिया की पूर्वकल्पना करता है। इससे यह बात स्पष्ट है कि यदि मैंने अ-अनुभव शब्दों से वस्तु को नकारात्मक ढंग से परिभाषित करने का प्रयत्न किया होता तो में स्वयं अपने साथ एक अक्षम्य अन्तरविरोध में उलझ जाता। भला हो दयानिधान का, यह ठीक "अनुभव" ही है। अधिक सही तौर पर: अनुभव की दो अनिवार्य शर्तों में से एक है।
श्री बोग्दानोय, आपने अपनी पुस्तक के अगले पृष्ठ (14) में उस विचित्र विचार को कुछ भिन्न तरीके से निरूपित किया है जिसे आपने मुझ पर आरोपित किया। वहाँ आप मुझसे यह कहलाते होते हैं कि "निजरूप वस्तुओं" का पहले तो अस्तित्व है, और, आगे, हमारे अनुभव से बाहर है; दूसरे, वे कार्य-कारण सम्बन्ध के नियम का विषय हैं। यह फिर अत्यन्त विचित्र बात है।
यदि निजरूप-वस्तुएँ "कार्य-कारण सम्बन्ध के नियम का विषय हैं, तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारे अनुभव के बाहर उनका अस्तित्व नहीं है। जब आपने दो, एक दूसरे के तीव्र विरोधी, तर्कवाक्य मेरे मत्थे मढ़े तो आप इसे समझ क्यों नहीं पाये? और अगर आप यह समझते थे कि यहाँ मैं अपनी ही बात काट रहा हूँ तो आपको चाहिए था कि आप अपने पाठकों का ध्यान फ़ौरन मेरे अक्षम्य तर्कभाव की ओर आकृष्ट करते, क्योंकि सिर्फ इतनी बात उद्घाटित कर देना ही "मेरे" सारे संज्ञान-सिद्धान्त को निष्फल करने के लिए पर्याप्त होता। जनाब बोग्दानोव, आप बुरे विवादी हैं या शायद, आपने मेरे अन्तरविरोध का पर्दाफ़ाश करने में इसलिए संयम बरता कि आपको इसका धुंधला सा अहसास था कि इस बात का
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*'लुडविग फायरबाख', सेण्ट पीटसबर्ग, 1906, पृ. 1181
42 / जुझारू भौतिकवाद
अस्तित्व सिर्फ़ आपकी कल्पना में ही था? यदि ऐसा था, तो आपको चाहिए था कि आप अपने इस "अनुभव" पर विचार करते ताकि यह धुँधला होने की बजाय स्पष्ट होता। ऐसा करके तथा इस दृढ़ विश्वास पर पहुंचते कि मेरा अन्तरविरोध आपकी अपनी कल्पना का फल थ, आप उसे मेरे ऊपर न थोपते और साथ ही एक सर्वाधिक उपहासास्पद भूल करने से अपने आपको बचा लेते। अतः यहाँ भी यह कहना ही पड़ेगा कि, जनाब बोग्दानोव, आप बुरे और अनाड़ी विवादी हैं!
आइए, आगे बढ़ें और सबसे पहले यह नोट करें कि यह पदावली: "निजरूप वस्तुएँ हमारे अनुभव के बाहर विद्यमान होती हैं" बहुत अच्छी नहीं है। इसका यह अर्थ हो सकता है कि वस्तुएँ सामान्यतः हमारे अनुभव की पहुँच के बाहर हैं। काण्ट इस बात को ऐसे ही समझे थे और जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, इसके फलस्वरूप खुद अपनी बात काट चुके थे।* लगभग सारे नवकाण्टवदी भी इसे इसी तरह से समझते हैं और इस मामले में माख की उनसे सहमति है। उनके लिए "वस्तु-निजरूप" हमेशा किसी प्रकार के ऐसे अज्ञात एक्स की धारणा के साथ जुड़ी होती है जो हमारे अनुभव की सीमा से बाहर है। जिसे वस्तु-निजरूप कहते हैं उसकी इस प्रकार की संकल्पना की बदौलत माख ने यह नितान्त तर्क सम्मत घोषणा की थी कि वस्तु-निजरूप उन धारणाओं का सर्वथा अनावश्यक अधिभूतवादी अनुबन्ध है जिन्हें हम अनुभव से व्युत्पन्न करते हैं। श्रीमान बोग्दानोव, आप इस प्रश्न को अपने शिक्षक की आँखों से देख रहे हैं और आप, स्पष्टतः, एक क्षण के लिए भी यह स्वीकार नहीं कर सकते कि ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो "वस्तु-निजरूप" पद को काण्टवादियों और माखवादियों से नितान्त भिन्न अर्थ में प्रयुक्त करते हैं। यही कारण है कि आप मुझे समझने में पूर्णतः असमर्थ क्यों है, क्योंकि मैं न तो नवकाण्टवादी हूँ न माख़वादी।
हमारे वैसे प्रश्न काफ़ी सीधा-सादा है। यदि मैं इस अमंगल पद "निजरूप वस्तुएँ अनुभव के बाहर विद्यमान हैं" को इस्तेमाल करने का फ़ैसला कर भी लेता उसका किसी भी तरह से यह अर्थ नहीं हो सकता कि निजरूप-वस्तुएँ हमारे अनुभव की पहुँच के बाहर हैं बल्कि सिर्फ़ यह अर्थ होता कि वे तब भी अस्तित्व में होती हैं जब किसी एक या अन्य कारण से हमारा अनुभव उन तक नहीं पहुँच पाता है।
."हमारा अनुभव" कहने से मेरा तात्पर्य मानव अनुभव से है। लेकिन हम यह जानते हैं कि एक समय हमारी पृथ्वी पर लोग नहीं थे। और अगर लोग नहीं थे
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*काण्ट के इस अन्तरविरोध के बारे में देखिये मेरी कृति 'हमारे आलोचकों की आलोचना', पृ. 167 और क्रमानुसार अन्य।
जुझारू भौतिकवाद / 43
तो उनका अनुभव भी नहीं था। पर इसके बावजूद पृथ्वी मौजूद थी। और इसका मतलब यह है कि वह (जो भी वस्तु-निजरूप है!) मानव अनुभव के बाहर विद्यमान थी। वह अनुभव के बाहर अस्तित्व में क्यों थी? क्या इसलिए कि वह सामान्यतः अनुभव का विषय नहीं हो सकती थी? नहीं, वह अनुभव के बाहर अस्तित्व में मात्र इसलिए थी कि वे जीव, जो अपनी संरचना से अनुभव करने में सक्षम होते हैं, तब तक उत्पन्न नहीं हुए थे।* दूसरे शब्दों में अनुभव के बाहर विद्यमान" का अर्थ है अनुभव के पूर्व मौजूद थी। इसका यही और केवल यही अर्थ है। इसलिए जब अनुभव प्रारम्भ हुआ तब वह (पृथ्वी) सिर्फ़ अनुभव के बाहर ही नहीं बल्कि अनुभव में भी विद्यमान थी और इस तरह अनुभव की एक अनिवार्य दशा की रचना करती थी। संक्षेप में यह सब बातें इन शब्दों में कही जा सकती हैं: अनुभवकर्ता और वस्तु की अन्तक्रिया का परिणाम है; लेकिन वस्तु और कर्त्ता के बीच अन्तक्रिया न होने पर भी, यानी अनुभव के न होने पर भी, वस्तु का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। यह सुप्रसिद्ध तर्क वाक्य : "कर्त्ता के बगैर वस्तु नहीं होती" मूलतः ग़लत है।** जब कर्त्ता उपस्थित न हुआ हो या जब कर्त्ता का अस्तित्व समाप्त हो गया हो तब भी वस्तु का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है और कोई भी व्यक्ति, जिसके लिए आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान के निष्कर्ष कोरे वाक्य नहीं हैं, इससे अवश्यमेव सहमत होगा। हम देख चुके हैं कि क्रमिक विकास के सामयिक सिद्धान्तानुसार, कर्त्ता तभी प्रकट होता है जब वस्तु विकास की एक निश्चित अवस्था पर पहुँच जाती है। जो लोग यह दलील देते हैं कि कर्त्ता के बिना वस्तु नहीं हो सकती ये दो नितान्त भिन्न धारणाओं को महज़ उलझा रहे होते हैं: वस्तु का "निज में" अस्तित्व और कर्त्ता की संकल्पना में उसका अस्तित्व हमें अस्तित्व के इन दो रूपों को एक सम बनाने का कोई अधिकार नहीं है। मिसाल के लिए, श्रीमान बोग्दानोव, आपका, पहले तो, "अपने आपमें" अस्तित्व है, और दूसरे, उदाहरणार्थ, लुनाचास्की की संकल्पना में, जो आपको अत्यन्त गहन विचारक मानते हैं। "निजरूप में" वस्तु को कर्त्ता के लिए अस्तित्वमान वस्तु समझ लेना ही उस उलझाव का स्रोत है जिसके जरिए सभी रंगों और आभाओं वाले प्रत्ययवादी भौतिकवाद का "खण्डन" करते हैं।
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* वास्तव में जानवर भी अनुभवक्षम होते हैं, लेकिन यहाँ इस पर विचार करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मैंने मानवीय अनुभव के बारे में जो कुछ कहा है वह मेरी बात को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है। " ['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह से टिप्पणी] "Kein Objekt ohne Subjekt"
** ["कर्ता के बगैर वस्तु नहीं होती] यह शुप्पे ने कहा है, उनका "अंतर्भूत दर्शन" [आत्मगत प्रत्ययवादी दर्शन] मूल में माख और आवेनारिउस के दर्शन का प्रतिरूप है।
44 / जुझारू भौतिकवाद
प्रिय महोदय, आप मेरे खिलाफ़ जो आपत्तियाँ उठाते हैं वे इसी उलझाव पर आधारित हैं। वास्तव में, आप संवेदनों के खापत-रूप में भूतद्रव्य की मेरी परिभाषा में असन्तुष्ट हैं। आइए, जरा गहराई से देखें कि आपके असन्तोष के सही-सही कारण क्या हैं। आप भूतद्रव्य की "मेरी" परिभाषा को उस तर्कवाक्य से मिलाते हैं जो इस प्रकार है: "निद्राजनक शक्ति वह है जो नींद उत्पन्न करती है" (पृष्ठ 15) आपने यह पद मोलियेर के एक पात्र से लिया है, लेकिन जैसा आप आम तौर पर करते हैं, आपने इसे बुरी तरह से उद्धृत किया है। मोलियेर का पात्र कहता है: " अफ़ीम नींद लाती है क्योंकि उसमें निद्राजनक शक्ति है। यहाँ हँसी की बात यह है कि एक व्यक्ति किसी तथ्य के स्पष्टीकरण रूप में उसे स्वीकार करता जो वास्तव में तथ्य को प्रस्तुत करने का दूसरा तरीका है। यदि मोलियर का पात्र यह कहकर महज़ तथ्य प्रस्तुत करके सन्तुष्ट हो जाता है कि "अफ़ीम नींद लाती है," तो हँसने की क़तई बात न होती। अब याद कीजिए मैं क्या कहता हूँ "भूतद्रव्य हममें कुछ संवेदन उत्पन्न करता है।" क्या यह मोलियेर के पात्र द्वारा दिये गये स्पष्टीकरण से मिलता-जुलता है? जरा सा भी नहीं। मैं स्पष्टीकरण नहीं दे रहा हूँ, महज़ वह बात बयान कर रहा हूँ जिसे मैं अविवादास्पद तथ्य मानता हूँ। अन्य सारे भौतिकवादी ठीक ऐसा ही करते हैं। जो लोग भौतिकवाद का इतिहास जानते हैं उन्हें मालूम है कि इस शिक्षा के किसी भी प्रतिनिधि ने अपने आपसे कभी नहीं पूछा कि बाह्य जगत की वस्तुओं में हमारे अन्दर संवेदन पैदा करने की क्षमता क्यों है। सच है कि अंग्रेज़ भौतिकवादी कभी-कभी यह दावा करते थे कि यह देवी इच्छा से होता है। लेकिन जब वे इस पवित्र विचार की वाणी दे रहे थे तो वे भौतिकवादी दृष्टिकोण का परित्याग कर रहे थे। प्रिय महोदय, एक बार फिर जाहिर होता है कि आप मुझ पर किसी समुचित कारण के बिना हँसे थे, और अगर एक आदमी बिना समुचित कारण के दूसरे पर हंसता है तो वह महज अपने आप ही को उपहासास्पद बनाता है।
Rira bien, qui rira le dernier.
आप सोचते हैं कि यह परिभाषा: "भूतद्रव्य वह है जो हमारे संवेदनों के स्रोत का काम करता है" एक निपट खोखला वाक्यांश है। आपके ऐसा सोचने का एकमात्र कारण यह है कि आप ज्ञान के प्रत्ययवादी सिद्धान्त पर आधारित पूर्वाग्रहों से आपादमस्तक ग्रस्त हैं।
इस प्रश्न से कि वह ठीक क्या है जो हममें संवेदन पैदा करता है मुझे तंग किया के अलावा हम उसके बारे में और ठीक-ठीक क्या जानते हैं। और जब में करके आप वास्तव में यह चाहते हैं कि में बताऊँ कि हमारे ऊपर भूतद्रव्य की उत्तर देता हूँ : हमारे ऊपर इसकी क्रिया के अलावा यह हमारे लिए पूर्णतः अज्ञात
जुझारू भौतिकवाद / 45
है, तो आप विजयगर्व से उल्लसित हो चिल्लाते हैं: "इसका मतलब है कि हम उसके बारे में कुछ नहीं जानते।" अब जरा बताइये, आपके पास इस विजयोल्लास के क्या आधार हैं? आपके प्रत्ययवादी दृढविश्वास के ये आधार कि वस्तुएँ हम पर जो प्रभाव डालती हैं उनके जरिए उन्हें जानना तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं जानना है। आपको यह विश्वास माख से मिला, उन्होंने इसे काण्ट से ग्रहण किया और उन्होंने अपनी बारी में इसे प्लेटों से प्राप्त किया।* लेकिन यह दृढविश्वास अपनी उम्र के कारण कितना ही सम्माननीय क्यों न हो, पर है बिल्कुल गलत।
वस्तु का उसके सिवा और कोई ज्ञान न तो है, न तो हो सकता है जो हम पर उसके प्रभावों के जरिए हासिल होता है। इसलिए, यदि में यह मानता हूँ कि भूतद्रव्य हमें उन संवेदनों के जरिए ही ज्ञात है जिन्हें वह हममें उत्पन्न करता है तो उसका किसी भी हालत में यह तात्पर्य नहीं है कि मैं भूतद्रव्य को कोई "अज्ञात" या अज्ञेय चीज मानता हूँ। इसके विपरीत, इसका अर्थ है, पहला, कि भूतद्रव्य ज्ञेय है और, दूसरा, कि यह मनुष्य को उस सीमा तक ज्ञात हो गया है जिस सीमा तक वह अपने दीर्घकालिक जैविक व ऐतिहासिक अस्तित्व के दौरान उससे प्राप्त भावों के जरिए उसके गुणों को जानने में सफल हो गया है।
यदि ऐसा है, यदि हम वस्तु को केवल हम पर पड़े उसके प्रभावों के ही ज़रिए जान सकते हैं तो चिन्तन में समर्थ किसी के लिए भी यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अगर हम इन प्रभावों की उपेक्षा करते हैं तो हम वस्तु के बारे में यह कहने के अलावा और कुछ नहीं कह सकेंगे कि इसका अस्तित्व है।** इसलिए जो भी हमसे यह माँग करता है कि हम इन प्रभावों की उपेक्षा करते हुए वस्तु को परिभाषित करें वह एक ऐसी चीज़ की माँग करता है जो निपट निरर्थक है। अपने तार्किक अर्थ में, या अधिक सही शब्दों में, अपने तार्किक अनर्थ में यह माँग यह पूछने के समकक्ष है कि वस्तु का उस काल में कर्त्ता के साथ क्या सम्बन्ध होता है जिस काल में उन दोनों के बीच कतई कोई सम्बन्ध नहीं होता। और आप, प्रिय महोदय,
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• ['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक संग्रह की टिप्पणी।]-"इसलिए प्लेटों के दर्शन की जड़ द्वैतवाद है, जो इस दर्शन में संज्ञान के दो रूपों के बीच स्थापित है-चिन्तन और अवबोधन के बीच और इसी प्रकार उनके दो विषयों के बीच अभीतिक और भौतिक जगत के बीच" (डब्लू. विंडेलबॉण्ड, 'प्लेटो', पृ. 85-86)।
** "Das Ding an sich hat Farbe erst an das Auge gebracht, Geruch an die Nase, u.s.w.," हेगेल ने कहा (Hegel, Wissenschaft der Logik, Erster Band, Zweites Buch, Nürnberg, 1813). ["वस्तु-निजरूप में रंग केवल आँखों के सम्बन्ध में है, गन्ध केवल नाम के सम्बन्ध में, आदि, आदि" (हंगेल, तर्कशास्त्र', खण्ड 1, पुस्तक 2, न्युरनवर्ग, 1813)]
46 / जुझारु भौतिकवाद
मुझसे ठीक यही अनर्गल प्रश्न पूछ रहे हैं, यह माँग कर रहे हैं कि मैं आपको यह बताऊं कि जब भूतद्रव्य हममें कोई संवेदन पैदा नहीं करता तब यह कैसा है, यानी जब गुलाब को कोई नहीं देखता मैं तब भी बताऊँ कि उसका रंग क्या है, जब उसे कोई नहीं सूँघता मैं तब भी बताऊँ कि उसकी गन्ध क्या है, आदि, आदि। आपके प्रश्न की बेहूदगी यह है कि उसे पेश करने के तरीके से ही उसका कोई विवेक-सम्मत उत्तर देने की सारी सम्भावनाएँ खत्म हो जाती हैं।"
माख, जो इस मामले में बर्कले के सच्चे शिष्य हैं (यह रहा "बीसवीं सदी का प्राकृतिक विज्ञान") के चरण-चिह्नों पर चलते हुए श्रीमान बोग्दानोव, आप कहेंगे अगर हमें वस्तु का ज्ञान केवल उन संवेदनों और फलतः संकल्पनाओं के जरिए हो ही सकता है जो उस वस्तु के हमारे साथ किसी न किसी प्रकार से सम्पर्क में आने पर उत्पन्न होती हैं, तो हमें यह स्वीकार करने की कोई तार्किक आवश्यकता नहीं है कि वस्तु का इन संवेदनों व संकल्पनाओं से स्वतंत्र कोई अस्तित्व है। जिस पैरे से आपने भूतद्रव्य की "मेरी" परिभाषा प्राप्त की थी उसी में मैंने पहले ही इस आपत्ति का, जो मेरे अनेकानेक प्रत्ययवादी विरोधियों को अखण्डनीय लगती है, उत्तर दिया है। लेकिन आप मेरे उत्तर को या तो समझ नहीं सकते या समझना नहीं चाहते, इसलिए मैं इस पत्र के दूसरे भाग में माख के "दर्शन" की जाँच करते समय इसे दोहराऊँगा, क्योंकि मैंने, अगर आपमें नहीं मुझे आपसे बेहद कम उम्मीदें हैं तो कम से उन पाठकों में, फ़िखटे के शब्दों में, "जबरन समझ भरने " का दृढ़ संकल्प कर लिया है जिन्हें प्रत्ययवादी पूर्वाग्रहों पर आग्रह करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन अपने उत्तर को दोहराने से पहले मैं आपके उन "आलोचनात्मक तर्को" में से सबसे महत्वपूर्ण तर्क का विश्लेषण और जिस लायक वह है, मूल्यांकन करूंगा, जिन्हें आप मेरे साथ अपने वादविवाद में पेश करते हैं। आप मेरे "मौलिक पर्दो" में निम्नांकित विचार को "सावधानी से निरूपित" करते हैं: "उनके (निजरूप वस्तुओं के गे.प.) रूपों और सम्बन्धों के तदनुरूप दृश्य सत्ताओं के रूप व सम्बन्ध होते हैं जैसे चित्र-लिपि के संकेत उन चीज़ों के तदनुरूप होते हैं जिनके लिए वे अभिहित होते हैं।" इस विचार के बारे में आप निम्नांकित लम्बा वार्तालाप करते हैं:
"यहाँ, निजरूप वस्तुओं के 'रूप' और 'सम्बन्धों' की बात की जाती है। इसका "
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*['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह की टिप्पणी] लेकिन सर्वश्री अनुभवात्मक एकत्ववादी तथा "अनुभवात्मक प्रतीकवादी" ही वे लोग हैं जो लोग इसका उत्तर की चेष्टा करते हैं। मैं जो. पेट्ज़ोल्ड्ट और पा. युश्केविच द्वारा इसका उत्तर देने के प्रयत्न की 'कायरतापूर्ण 'प्रत्ययवाद' लेख में जांच कर रहा हूँ।
** "हमारे आलोचकों की आलोचना, पृ. 193-94।
जुझारू भौतिकवाद / 47
मतलब यह है कि उनमें यह दोनों, पहला और दूसरा होते हैं। बहुत बढ़िया और क्या उनका 'आभास' भी होता है? पाठक कहेगा, मूर्खतापूर्ण प्रश्न है। किसी 'आभास' के बिना उनका रूप कैसे हो सकता है? यह तो दो शब्द एक ही चीज़ के द्योतक हैं। मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ। लेकिन एंगेल्स के 'लुडविग फ़ायरबाख' के रूसी अनुवाद में कामरेड प्लेखानोव की टिप्पणी में हम जो पढ़ते हैं वह यह है :
"... लेकिन 'आभास' हम पर निजरूप वस्तुओं की क्रिया का परिणाम ही है। इस क्रिया के बग़ैर उनका कोई आभास नहीं है। इसलिए, उनके 'आभास' को, जिस ढंग से वह हमारी चेतना में विद्यमान है, उस 'आभास' के विरुद्ध खड़ा करना जो कथित रूप में यथार्थतः उनमें होता है, इस बात को न समझना है कि शब्द 'आभास' किस धारणा से सम्बन्धित है... अतः निजरूप वस्तुओं में किसी प्रकार का आभास नहीं है। उनका 'आभास' केवल उन कर्ताओं की चेतना में विद्यमान होता है जिन्हें वे प्रभावित करती हैं..." (पृष्ठ 112, 1906 का संस्करण, वह वर्ष जिसमें उद्धृत संग्रह, 'हमारे आलोचकों की आलोचना प्रकाशित हुआ था।)
"उपरोक्त उद्धरण में हर जगह 'आभास' शब्द की इसके पर्याय 'रूप' से, जिसका अर्थ इस मामले में पूर्णतः उसके समानुरूप है, प्रतिस्थापित कर दीजिये, बस, कामरेड प्लेखानोव अपनी कुशाग्र बुद्धि से कामरेड बेल्तोव का खण्डन कर देते हैं।"
क्या यह उत्तम नहीं है। प्लेखानोव कुशाग्र बुद्धि से बेल्लोव का खण्डन कर देते हैं, दूसरे शब्दों में, खुद अपना क्या खूब कहा। लेकिन ठहरिये, प्रिय महोदय rira bien, qui rira le dernier. उस स्थिति को याद कीजिये जिसमें मैंने उस विचार को व्यक्त किया था जिसकी आप आलोचना कर रहे हैं और उसका वास्तविक "आभास" क्या था।
मैंने इसे श्री कोनराड श्मिट के साथ अपने वादविवाद में व्यक्त किया था। उन्होंने भौतिकवाद पर स्वत्य और चिन्तन की समानुरूपता का सिद्धान्त थोपा था और मुझे सम्बोधित करते हुए कहा कि अगर मैं अपने ऊपर निजरूप वस्तुओं की क्रिया को मानने में "गम्भीर" हूँ तो मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि देश और काल का वस्तुगत अस्तित्व है, न कि महज कर्ता की विशिष्ट विचारणा के रूपों में मैंने इसका निम्नांकित उत्तर दिया : "यह बात, कि देश और काल चेतना के रूप हैं, और कि, इसीलिए, आत्मपरकता उनका प्राथमिक पहचान लक्षण है, " टॉमस हॉब्स को पहले से ही ज्ञात थी और आज के किसी भी भौतिकवादी द्वारा इसे नकारा नहीं जायेगा। सारा सवाल यह है कि वस्तुओं के कुछ रूप या सम्बन्ध चेतना के इन रूपों के तदनुरूप है या नहीं। यह कहे बिना भी स्पष्ट है कि भौतिकवादी इस प्रश्न का सिर्फ़ हाँ में उत्तर दे सकते हैं। पर इसका, निश्चय ही, यह अर्थ नहीं है कि वे उस मिथ्या (या, वस्तुतः अनर्थक) समानुरूपता को मान्यता
48 / जुझारू भौतिकवाद
देते हैं, जिसे काण्टवादी, श्रीमान शिमइट सहित, उन पर अनुग्रहकारी भोलेपन के साथ लाद देना चाहेंगे।* नहीं, निजरूप वस्तुओं के रूप और सम्बन्ध वे नहीं हो सकते जो हमें प्रतीत होते हैं, यानी, जैसे कि वे हमें हमारे मस्तिष्कों में 'अनूदित' रूप में जान पड़ते हैं। निजरूप वस्तुओं के रूपों ओर सम्बन्धों की हमारी संकल्पनाएँ चित्रलिपि के अक्षरों से अधिक कुछ नहीं होते; लेकिन ये अक्षर इन रूपों और सम्बन्धों को सही-सही अभिहित करते हैं और इतना हमें यह अध्ययन करने में सक्षम बनाने के लिए काफ़ी है कि निज रूप-वस्तुएँ हम पर कैसे प्रभाव डालती हैं और हम उन पर कैसे असर डाल सकते हैं। **21
यह पैरा किस-किसके बारे में है? उसी चीज के बारे में, श्रीमान बोग्दानोव, जिसके बारे में मैंने आपसे ऊपर बातचीत की है कि वस्तु-निज-में एक चीज़ है और कर्त्ता की संकल्पना-में-वस्तु नितान्त भिन्न चीज है। अब प्रश्न है- क्या यहाँ में तर्कशास्त्र की दृष्टि से "रूप" शब्द को "आभास" शब्द से, जो आपके कथनानुसार इसका पर्याय है, प्रतिस्थापित करने का अधिकारी हूँ? आइए कोशिश करें और देखें कि क्या होता है। "यह बात कि देश और काल चेतना के आभास हैं और कि, इसलिए, आत्मपरकता उनका प्राथमिक पहचान लक्षण है, टॉमस हॉब्स को पहले से हो ज्ञात थी और आज के किसी भी भौतिकवादी द्वारा इसे नकारा नहीं जायेगा.. एक क्षण रुकिए, ऐसा कैसे हो सकता है? चेतना के ये आत्मपरक "आभास" क्या हैं? मैं "आभास" शब्द को एक वस्तु के दृश्य आभास के अर्थ में प्रयुक्त करता हूँ जो कर्त्ता की चेतना में विद्यमान है। प्रश्न वस्तु की "संवेदनात्मक विचारणा' का है, अतः विचाराधीन पैरे में "चेतना के आभास" पद का-यदि "आभास" शब्द सचमुच "रूप" का पर्याय है तो- अर्थ चेतना के बारे में चेतना के दृश्य आभास के सिवा और कुछ नहीं होना चाहिए। इस प्रकार का आभास सम्भव है या नहीं, इस प्रश्न को कुछ देर के लिए अलग छोड़ते हुए प्रिय महोदय, में आपका ध्यान इस परिस्थिति की तरफ़ मोड़ता हूँ कि यहाँ चेतना के बारे में चेतना का दृश्य-आभास देश और काल सिद्ध होगा, लेकिन यह निपट, निकम्मा कचरा है, विवेकशून्यता है। और यह, स्वाभाविक है, टॉमस हॉब्स को ज्ञात नहीं था, और हाँ, एक भी भौतिकवादी इसे स्वीकार नहीं करेगा। इस मूर्खतापूर्ण संकट की दशा में हमें कौन लाया? दार्शनिक धारणाओं के विश्लेषण की आपकी क्षमता पर निराधार विश्वास जब
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* स्वत्व तथा चिन्तन के बीच समानुरूपता के प्रश्न पर अब मैं अपनी रचना 'मार्क्सवाद की मूलभूत समस्याएँ, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1908, पृ. 9 और क्रमानुसार अन्य का हवाला दे सकता है।
**हमारे आलोचकों की आलोचना, पृ. 253-541
जुझारू भौतिकवाद / 49
आपने कहा कि "आभास" शब्द "रूप" शब्द का पर्यायवाची है तो हमने आप पर विश्वास किया, एक दूसरे के स्थान पर रख दिया और ऐसा घालमेल हासिल कर लिया जिसे शब्दों में रखना भी कठिन है। तो "आभास" शब्द "रूप" का पर्याय नहीं है? हाँ, नहीं है। "आभास" की धारणा "रूप" की धारणा का क़तई पर्याय नहीं है, क्योंकि उसमें इस दूसरे के सभी अर्थ हरगिज नहीं समाते। जैसा कि हेगेल ने अपने 'तर्कशास्त्र' में भली भाँति दर्शाता है, वस्तु का "रूप" उसके "आभास" के साथ केवल एक खास और वह भी सतही अर्थ में, बाह्य रूप के अर्थ में, समानुरूप है। अधिक गहन विश्लेषण हमें रूप का वस्तु के एक "नियम" की शक्ल में, या, अधिक सही, उसकी संरचना की शक्ल में बोध करायेगा। रूप के तार्किक सिद्धान्त में हेगेल का यह महत्वपूर्ण योगदान'* यहाँ रूस में गत सदी के तीसरे दशक में ही उन लोगों को ज्ञात था जो दर्शनशास्त्र से सम्बन्ध रखते थे। आपको इस बात का यकीन दिलाने के लिए मैं, उदाहरणार्थ, काउन्टेस "एन.एन." को द. वैनेवितिनोव द्वारा लिखे पत्र का निम्नांकित अंश पढ़ने के लिए आमंत्रित करता हूँ। "अब आप समझ गयी हैं," उन्होंने विज्ञान की धारणा को परिभाषित करने के बाद लिखा, "कि शब्द रूप विज्ञान के बाह्याभास को अभिव्यक्त नहीं करता, बल्कि उस सामान्य नियम को करता है जिसका पालन विज्ञान को करना ही चाहिए" (वैनेवितिनीय, संग्रहीत रचनाएँ, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1855, पृष्ठ 125) श्री बोग्दानीव, यह सचमुच ही बड़े खेद की बात है कि आप उसके बारे में अवगत नहीं है जो, बेनेबितिनोय की कृपा से, कम से कम, शिष्ट समाज की कुछ रूसी महिलाओं को लगभग अस्सी साल पहले ज्ञात था। अब, एक प्रश्न और कोनराड श्मिट साथ बहस करते समय मैंने "चेतना के रूप" पद को किस अर्थ में प्रयुक्त किया? क्या जैसा बेनेवितिनोय कहते, चेतना के बाह्याभास के अर्थ में? क़तई नहीं। मैंने "रूप" शब्द को चेतना के नियम के, उसकी "संरचना" के अर्थ में इस्तेमाल किया। अतः, शब्द "रूप" मेरे लिए किसी भी दशा में "आभास" का पर्याय नहीं था; और आपने मुझे उपहास का पात्र बनाने के लिए एक शब्द के स्थान पर दूसरा शब्द स्थापित करने का जो प्रस्ताव किया वैसा प्रस्ताव वह आदमी कर सकता है जो दर्शनशास्त्र में क़तई कुछ नहीं समझता।
Rira bian, qui rira le dernier.
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* ['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह से टिप्पणी] हेगेल के इस योगदान की चर्चा करते हुए मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि "आभास" और "रूप" की धारणाओं में इस अन्तर को देखने वाले पहले व्यक्ति वही थे। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि उन्होंने किसी भी अन्य महान प्रत्ययवादी से अधिक अच्छी तरह से इस अन्तर को परिभाषित किया है।
50 / जुझारू भौतिकवाद
कभी-कभी लोग केवल इसलिए लम्बी बहस में फंस जाते हैं कि वे शब्दों को भिन्न-भिन्न अर्थों में इस्तेमाल कर रहे होते हैं। इस प्रकार की बहसें उबाऊ और व्यर्थ की होती है। लेकिन इससे कहीं अधिक उबाऊ और कहीं अधिक व्यर्थ की वे बहसें होती हैं जिनमें एक प्रतिद्वन्द्वी विशेष शब्दों से एक निश्चित धारणा को जोड़ता है और उसका विरोधी उन्हीं शब्दों को इस्तेमाल करते हुए उनके साथ कोई. निश्चित धारणा को कभी जोड़ता ही नहीं, फलतः, वह जैसा उचित समझता है उसी तरह से उन शब्दों के साथ खेलने में समर्थ हो जाता है। मुझे अफ़सोस है कि अब में आपके साथ ऐसी ही बहस बचाने के लिए विवश हूं। जब मैंने "रूप" शब्द का उपयोग किया, तब मैं जानता था कि उससे ठीक-ठीक क्या समझा जाना चाहिए, परन्तु दर्शनशास्त्र के इतिहास के बारे में अपने आश्चर्यजनक अज्ञान के कारण आप यह नहीं जानते थे; आपको यह बात सूझी तक नहीं कि यह एक ऐसी चीज़ थी जिसके लिए अध्ययन और चिन्तन जरूरी थे। आपने अपने आपको शब्दों के साथ इस तरह खेलने दिया जैसे कि सिर्फ ऐसा ही व्यक्ति खेल सकता है जिसको इस बात का भान तक न हो कि शब्दों से जुड़ी हुई भिन्न-भिन्न धारणाएँ कितनी असमरूप हैं। परिणाम वही हुआ जो अपेक्षित था। आपकी "भाषा-प्रवीणता" के निपट खोखलेपन का पर्दाफ़ाश करने में मैंने सिर्फ़ अपने को ही उकताहट में नहीं डाला, बल्कि मैं अपने पाठकों को भी उबाने के लिए विवश हो गया और प्रिय महोदय, आपने अपने आपको सिर्फ इसलिए उपहास का पात्र बनाया कि आपको "भाषा-प्रवीणता" में विषय वस्तु का पूर्ण अभाव था। आपको ऐसा करने की क्या जरूरत थी?
अपने खोखलेपन में विलक्षण आपकी "भाषा-प्रवीणता" एक और सन्दर्भ में भी उल्लेखनीय है, जिसकी विशिष्टताओं का वर्णन में पाठक के लिए छोड़ देता हूँ, बशर्ते कि यह आपके साथ मेरे तर्कों को पढ़ने का प्रयत्न करते-करते ऊब न गया हो।
मेरा मतलब उन "चित्राक्षरों" से है जिनकी चर्चा मेरे लेख के आपके द्वारा उद्धृत भाग में ही की गयी है और जिसमें मैंने चेतना के रूपों के प्रश्न को भी उठाया है।
यह लेख ('भौतिकवाद फिर और') 1899 के प्रारम्भ का है। मैंने "चित्राक्षर" शब्द सेचेनोव से लिया था जो उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक के प्रारम्भ में ही 'वस्तुगत चिन्तन और वास्तविकता' लेख में पहले ही लिख चुके ये : "हमारी चेतना से स्वतंत्र, वस्तुएँ-निज-में कुछ भी क्यों न हों - यदि हम उनके बारे में अपनी अनुभूतियों को अनुबंधित संकेत भी मान लें - किसी भी मामले में, इन संकेतों की जिस समानता तथा भिन्नता की हमें प्रतीति होती है वह वास्तविकता की समानता और भिन्नता के तदनुरूप होती है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य वस्तुओं के बीच जिन
जुझारू भौतिकवाद / 51
समानताओं और विभिन्नताओं को महसूस करता है वे वास्तविक समानताएँ और वास्तविक विभिन्नताएँ होती हैं।" प्रिय महोदय, नोट कीजिये कि 'भौतिकवाद फिर और' में मैंने जो विचार व्यक्त किया है और जिससे आपको शब्दों का वस्तुतः गर्हित खेल खेलने का बहाना मिला व उपरोक्त पैरे में सेचेनोव द्वारा प्रसारित विचार के पूर्णतः समानुरूप है। मैंने सेचेनोव के विचारों के साथ अपने विचारों की समानता को रंचमात्र नहीं छिपाया; इसके विपरीत, मैंने एंगेल्स के 'लुडविग फ़ायरबाख' के अपने अनुवाद के पहले संस्करण (1892 में प्रकाशित) की अपनी एक टिप्पणी में इस पर जोर दिया है। इसलिए, प्रिय महोदय, आपके पास यह जानने के सभी अवसर थे कि इस तरह के मामलों में मैं अठारहवीं सदी के प्राकृतिक विज्ञान के नहीं बल्कि सामयिक भौतिकवादी शरीर क्रिया विज्ञान के दृष्टिकोण को मानता रहा हैं। लेकिन यह केवल प्रसंगतः है। यहाँ मुख्य मुद्दा यह है 'लुडविग फ़ायरबाख' के मेरे अनुवाद के नये संस्करण में, जो विदेश में 1905 में और रूस में 1906 में छपा, मैंने ऐलान किया कि इस प्रश्न पर में सेचेनोव के दृष्टिकोण का सहभागी तो है, परन्तु उनकी शब्दावली मुझे आंशिक रूप से दो अर्थ देने वाली जान पड़ी।
मैंने कहा: "जब वे स्वीकार करते हैं कि हमारी अनुभूतियाँ निजरूप वस्तुओं के केवल अनुवन्धित संकेत हैं, तो वे यह स्वीकार करते से जान पड़ते हैं कि निजरूप वस्तुओं में कुछ इस प्रकार का 'आभास' होता है जिसके बारे में हम नहीं जानते और जो हमारी चेतना की पहुँच के बाहर है। लेकिन 'आभास' निजरूप-वस्तुओं की हम पर होने वाली क्रिया का ही परिणाम है; इस क्रिया के बाहर उनका कहीं कोई 'आभास' नहीं होता है। इसलिए हमारी चेतना में विद्यमान उनके 'आभास' को कल्पित रूप से यथार्थ में होने वाले 'आभास' उनके 'आभास' के विरुद्ध खड़ करने का मतलब इस बात को नहीं समझना है कि शब्द के साथ कौन सी धारणा जुड़ी है। अभिव्यक्ति की ऐसी त्रुटि, जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, काण्टवादियों के सम्पूर्ण 'संज्ञानात्मक' वितण्डावादी तर्क-वितकों में अन्तर्निहित है। मैं जानता हूँ कि श्री सेचेनोव इस प्रकार के वितण्डाबाद की ओर प्रवृत्त नहीं हैं; में पहले ही कह चुका हूँ कि उनका ज्ञान सिद्धान्त बिल्कुल सही है, लेकिन हमें दर्शनशास्त्र के अपने विरोधियों को शब्दों की छूट नहीं देनी चाहिए क्योंकि यह हमें अपने विचारों को बिल्कुल सही ढंग से व्यक्त करने से रोकती है।"* सम्यक अर्थ में, मेरा यह कथन इस प्रकार पेश किया जा सकता है: यदि वस्तु-निजरूप में रंग केवल तभी है का उसे देखा जाये, गन्ध केवल तभी है जब उसे सूंघा जाये, आदि, आदि, तो उसके बारे में हमारी संकल्पना को अनुबन्धित संकेत कहने पर हम यह सोचने का आधार
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• विदेशी संस्करण के पृ. 102-103 और पीटर्सबर्ग संस्करण के पृ. 111-112
52 / जुझारू भौतिकवाद
प्रदान कर देते हैं कि हमारे दृष्टिकोण से हमारे संवेदनों में विद्यमान उसके रंग, गन्ध, आदि, आदि के तदनुरूप किसी प्रकार के रंग-निजरूप, किसी प्रकार के गन्ध-निजरूप, आदि, आदि का अस्तित्व भी होता है- संक्षेप में किसी प्रकार के निजरूप-संवेदनों का अस्तित्व होता है जो हमारे संवेदनों के विषय नहीं बन सकते। यह सेचेनीव के विचारों का, जिन्हें मैं मानता हूँ, विरूपण होता, और इसीलिए 1905 में मैंने कहा था कि मैं सेचेनोव की शब्दावली के विरुद्ध हूँ।* लेकिन चूँकि पहले मैंने स्वयं उसी किंचित संदिग्ध शब्दावली का इस्तेमाल किया था इसलिए मैंने फ़ौरन इस ओर इशारा किया था। "मैं क्यों यह पूर्वनिर्देश दे रहा हूँ इसका अन्य कारण," मैंने आगे कहा, "यह है कि एंगेल्स के इस पैम्पलेट के पहले संस्करण की टिप्पणी में में अपनी बात को बिल्कुल सही अभिव्यक्ति नहीं दे सका और कालान्तर में मुझे उस त्रुटि की सारी ग्लानि सिर लेनी पड़ी"।**इस पूर्वनिर्देश के बाद ऐसा प्रतीत होगा कि अब किसी प्रकार की ग़लतफ़हमी असम्भव होगी। लेकिन, प्रिय महोदय, आपके लिए असम्भव भी सम्भव है। आपने इस पूर्वनिर्देश को न देखने का "आभास" दिया और एक बार फिर शब्दों से खेलने का अपना तुच्छ खेल शुरू कर दिया, जिस शब्दावली को मैं अब इस्तेमाल करता हूँ और जिसे पहले इस्तेमाल करता था तथा जिसे में किंचित संदिग्ध होने के कारण स्वयं ठुकरा चुका था इन चीजों के तादात्म्य को इस खेल का आधार बनाया। इस तरह की "आलोचना की "खूबसूरती" किसी पूर्वाग्रहरहित व्यक्ति के लिए स्पष्ट है और मुझे इसकी विशिष्टताएँ गिनाने की कोई जरूरत नहीं है। प्रत्ययवादी शिविर में मेरे कई विरोधी अब आपके
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"जब मैंने बिशुद्ध विवेक की मीमांसा' को पुनः पढ़ा तो मुझे इस शब्दावली की असन्तोषजनक प्रकृति की उस स्थल पर पूरा यक़ीन हो गया जहाँ मैंने पहले संस्करण में निम्नांकित पैर को देखा: "नोउपेन [noumen] के लिए एक ऐसी वास्तविक वस्तु का द्योतक होने के लिए जिसे समस्त फ्रेनोमेना [phenomena] समझने की गलती न की जाये, मेरे वास्ते अपने चिन्तन को संवेदनात्मक विचारणा की समस्त शर्तों से मुक्त करना पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा, मेरे पास संवेदनात्मक के अलावा विचारणा के किसी अन्य को मान्यता देने के कुछ आधार होने चाहिए जिसमें इसी के समान एक वस्तु दी जा सके, अन्यथा मेरा चिन्तन रिक्त हो जायेगा चाहे अन्तरविरोधों से मुक्त ही हो जाये" ("विशुद्ध विवेक की मीमांसा, अनुवाद नं.म. सोकीलोय द्वारा, पृ. 218 टिप्पणी में इस बात पर बल देना चाहता था कि संवेदनात्माक के अलावा ध्यान का कोई और रूप सम्भव नहीं है, लेकिन यह हमें वस्तुओं को उन प्रभावों के करिए जानने से नहीं रोकता जो वे हम पर डालती हैं। लेकिन हाँ, श्रीमान बीग्दानोव, आप इसे नहीं समझे। आप मुझे कितना अधिक कष्ट पहुंचाते हैं। अब आप समझ मये है कि दर्शनशास्त्र का अध्ययन सीधे-सीधे माल से शुरू करने का क्या मतलब होता है। 'लुडविग फायरवाला सेण्ट पीटर्सबर्ग, पृ. 112
जुझारू भौतिकवाद / 53
उदाहरण का अनुकरण कर रहे हैं और उस शब्दावली की कमजोरी पर तक कुल करके मेरे दार्शनिक विचारों की "आलोचना" कर रहे हैं जिसे मैं उनकी आलोचनात्मक क़लम" उठने से पहले ही असन्तोषजनक घोषित कर चुका था। बहुत सम्भव है कि इनमें से कुछ महानुभावों ने सबसे पहले मुझ ही से सुना हो कि यह शब्दावली असन्तोषजनक क्यों है। इसलिए, जब मैं उनकी कमोबेश बहुखण्डी रचनाओं का उत्तर नहीं देता तो उन्हें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। हर "आलोचना" निश्चय ही प्रत्यालोचना के लायक नहीं होती।
श्रीमान बोग्दानोव, अब फिर आपके बारे में। आप विद्वेषपूर्ण ढंग से इस तथ्य की और संकेत करते हैं कि 'लुडविग फायरबाख' के मेरे अनुवाद का दूसरा संस्करण उसी साल (1906) में प्रकाशित हुआ जिस साल मेरा संग्रह 'हमारे आलोचकों की आलोचना' प्रकाशित हुआ। आप इसका हवाला क्यों देते हैं? इसका कारण यह है। आप स्वयं यह जानते थे कि उस शब्द पर झपट पड़ना उपहासास्पद और निरर्थक है जिसे मैंने खुद अपने किसी भी विरोधी द्वारा उसकी आलोचना करने से पहले ही, असन्तोषजनक घोषित कर दिया था। इसलिए आपने अपने पाठकों को यह आश्वस्त करने का फ़ैसला किया कि 1906 में मैंने एक साथ दो भिन्न शब्दावलियों का उपयोग करते हुए खुद अपना ही "कुशाग्रबुद्धि से खण्डन कर दिया"। आपने अपने आपसे यह पूछना जरूरी नहीं समझा कि 1906 में छपे हुए संग्रह में सम्मिलित यह वादविवादात्मक लेख किस कालावधि का था। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि वह 1899 के प्रारम्भ का था। मैंने वादविवाद से सम्बन्धित उस लेख की शब्दावली की
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• [प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह से टिप्पणी] इस बात को कहने से मेरा तात्पर्य यह नही है कि यदि में पुरानी शब्दावली को इस्तेमाल करता रहता तो मेरे आलोचक सही सिद्ध हो जाते। नहीं, इस स्थिति में भी उनके विचार वैसे ही पूर्णतः निराधार रहते जैसे कि भौतिकवादियों के विरुद्ध प्रत्ययवादियों की सारी आपत्तियाँ हैं। यहाँ अन्तर सिर्फ़ दर्जे का ही हो सकता है, लेकिन यह बात अवश्य मानी जानी चाहिए कि मेरे माननीय विरोधियों ने हद दर्जे की कमज़ोरी दिखलायी है। जैसा भी हो, मुझे इस बात पर कोई सन्देह नहीं है कि मैं पहले जिस शब्द को इस्तेमाल करता थ उसके उपयोग को निरस्त करने से ही इन महानुभावों का ध्यान पहली दफ़ा कुछ ऐसी चीज़ की तरफ़ गया जिसे उन्होंने "मेरे" भौतिकवाद के अशक्ततम के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया। मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मैंने उन्हें अपनी इल्यीन जैसे प्रत्ययवाद के विरोधी ने अपनी पुस्तक : 'भौतिकवाद', आदि में मेरे चित्राक्षरों को आलोचना करना जरूरी समझा, इस अवसर पर उन्होंने अपने आपको उन लोगों के साथ एक ही खाने में क्यों रख दिया जिन्होंने इस बात का अत्यन्त अकादय और स्पष्ट प्रमाण दे दिया। या कि बारूद का आविष्कार उन्होंने नहीं किया था।
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जिन कारणों से ठीक करना सम्भव नहीं समझा उन्हें में अपने इतिहास का एकत्ववादी दृष्टिकोण के द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना में पहले ही बता चुका है। उसमें मैंने लिखा "यहाँ मैंने सिर्फ़ भूलों तथा छपाई की उन गलतियों को सुधारा है जो प्रथम संस्करण में हो गयी थीं। मैंने अपने तर्कों में इस सीधे-सरल कारण से कोई परिवर्तन करना उचित नहीं समझा कि यह एक विवाद सम्बन्धी रचना है। विवाद-सम्बन्धी रचना में कोई बदलाव करना अपने विपक्षी के सम्मुख एक नया हथियार लेकर जाना तथा उसे पुराने ही हथियार से लड़ने के लिए विवश करने के समान है। यह अननुज्ञेय है..."
श्रीमान बोग्दानोय, आपने अपने आपको एक बार फिर मूर्खतापूर्ण बखेड़े में डाल दिया है, लेकिन इस बार इसलिए ऐसा हुआ कि आपने अपने साहित्यिक विवेक की उस आवाज की उपेक्षा की जिसने आपको आगाह किया था कि आप उन शब्दों के खोट निकालकर गलती कर रहे थे जिनका मैं पहले ही परित्याग कर चुका था। इस कथा की नैतिक शिक्षा है: साहित्यिक विवेक की टीसें उस "अनुभव" का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसकी उपेक्षा करना कभी-कभी बहुत ही अविवेकपूर्ण होता है। श्रीमान बोग्दानोव, आपको यह बात याद रखनी चाहिए।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि "कामरेड प्लेखानोव" "कामरेड बेल्तोय" का कतई खण्डन नहीं करते हैं लेकिन आप मेरे मत्थे केवल एक अन्तरविरोध मढ़कर सन्तुष्ट नहीं थे। आपकी योजना बृहत्तर थी। "कामरेड प्लेखानोव" को "कामरेड बेल्तोव" के साथ अन्तरविरोध का भागी बताने के बाद आप आगे कहते हैं : लेकिन एक मिनट बाद कामरेड प्लेखानोव कामरेड बेल्तोव के लिए क्रूरता से अपना बदला लेते हैं" (पृष्ठ 15 )। क्या, फिर दुर्भावना? अच्छी बात है, भला हो आपका! लेकिन...rira bien, qui rire le dermier.
आप 'लुडबिग फायरबाख' की मेरी टिप्पणियों को उद्धृत करते हैं। उनमें, अन्य बातों के अलावा, कहा गया है कि वस्तु का आभास कर्त्ता के संगठन पर निर्भर करता है। "मैं नहीं जानता कि एक घोंघा कैसे देखता है," मैंने उसमें कहा है लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि वह ऐसा मनुष्य से भिन्न तरीके से करता है।' फिर में यह विवेचन करता है: "मेरे लिए एक घोंघा क्या है? उस बाहा जगत का एक अंश जो मेरे ऊपर मेरे संगठन से निर्धारित तरीके से सक्रिया कर रहा है। अतः यदि में यह मान लूँ कि घोंघा किसी विधि से बाह्य जगत को 'देखता' है, तो में यह स्वीकार करने के लिए विवश हूँ कि बाह्य जगत घोंघे के सम्मुख अपने . आपको जिस 'आभास' में प्रकट करता है वह स्वयं इस वास्तविक, अस्तित्वमान जगत के विशिष्ट गुणों से निर्धारित होता है।
माखवादी के रूप में आपको ऐसा लगेगा कि इस विवेचन का कोई तर्कसंगत
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आधार नहीं है। जब आप इसे उद्धृत करते हैं तो आप "विशिष्ट गुण" शब्दों को रेखांकित करते हैं और चिल्लाते हैं :
"विशिष्ट गुण! क्यों, वस्तुओं के वे 'विशिष्ट गुण', जिनमें उनका 'रूप' और सामान्यतः उनका 'आभास' भी सम्मिलित है ये 'विशिष्ट गुण' स्पष्टतः निजरूप वस्तुओं की हम पर होने वाली क्रिया का परिणाम हैं; हम पर उनकी इस क्रिया के अलावा उनका और कोई 'विशिष्ट गुण' नहीं हैं। निस्सन्देह 'विशिष्ट गुण की धारणा का वही अनुभवात्मक उद्गम ही तो है जो 'आभास' और 'रूप' की धारणाओं का है। यह उनकी जातिगत धारणा है और इन धारणाओं की तरह ही अनुभव से उसी अमूर्तीकरण के रास्ते से आती है। निजरूप वस्तुओं के विशिष्ट गुण' कहाँ से आते हैं? उनके विशिष्ट गुण सिर्फ़ उन कर्ताओं की चेतना में विद्यमान होते हैं जिन पर वे क्रिया करती हैं!"*
श्री बोग्दानोव, आप पहले से ही जानते हैं कि "आभास" को "रूप" का पर्याय घोषित करने में आपने कैसी लापरवाही की थी। अब मुझे आपका ध्यान इस बात की ओर ले जाने का सम्मान मिला है कि आपने वस्तु के "आभास" को उसके "विशिष्ट गुणों" के समानुरूप बताने में और मेरे सामने यह व्यंग्यात्मक प्रश्न पेश करने में फिर वैसी ही लापरवाही से काम किया है: "निजरूप-वस्तुओं" के "विशिष्ट गुण" कहाँ से आते हैं? आप समझते हैं कि यह प्रश्न मुझे चित्त कर देगा क्योंकि आप यह विचार मेरे सिर मढ़ देते हैं कि वस्तुओं के "विशिष्ट गुण" केवल उन कर्त्ताओं की चेतना में ही विद्यमान होते हैं जिन पर वे क्रिया करती हैं। परन्तु तथ्य यह है कि मैंने यह विचार कभी भी व्यक्त नहीं किया जो केवल, उदाहरणार्थ, बर्कले और माख जैसे आत्मगत प्रत्ययवादियों और उनके अनुयायियों के ही योग्य है। मैंने इससे सर्वथा भिन्न बात कही है और यह आपको मालूम होना चाहिए क्योंकि आपने लुडविग फ़ायरबाख' की मेरी टिप्पणियों पढ़ी हैं और उन्हें उद्धृत तक किया है।
जब मैंने यह कहा कि एक घोंघा बाह्य जगत को मनुष्य से भिन्न तरीके से देखता है तो मैंने मत प्रकट किया: "लेकिन इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि बाह्य जगत के विशिष्ट गुणों का केवल आत्मगत महत्व है। किसी भी तरह से नहीं ! यदि एक मनुष्य और एक घोंघा बिन्दु 'क' से बिन्दु 'ख' तक चलें तो मनुष्य तथा घोंघे, दोनों के लिए उन दो बिन्दुओं के बीच की कम से कम दूरी सरल रेखा ही होगी। यदि यह दोनों प्राणी टेढ़ी-मेढ़ी रेखा से होकर जायें तो उन्हें अपने आगे बढ़ने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। फलतः विकास की विभिन्न अवस्थाओं पर भिन्न-भिन्न प्राणियों द्वारा भिन्न-भिन्न तरीक़े से देखे जाने के बावजूद देश के
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• अनुभवात्मक एकत्ववाद', तीसरा खण्ड, पृ. 15।
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विशिष्ट गुणों का वस्तुगत महत्व भी होता है।"*
अब, आपको वस्तुओं के विशिष्ट गुणों पर यह आत्मगत प्रत्ययवादी विचार मेरे ऊपर मढ़ने का क्या अधिकार था कि वे कुछ ऐसी चीज़ हैं जो केवल कर्त्ता की चेतना ही में विद्यमान होती है? अब, शायद, आप हमें यह बतायेंगे कि देश भूतद्रव्य नहीं है। आइए यह मान लेते हैं कि यह सच है और भूतद्रव्य के बारे में बातें करते हैं।
चूँकि आपके साथ दर्शनशास्त्र पर बहस करते समय किसी लोकप्रिय तरीक़े से बोलना जरूरी है, इसलिए मैं एक उदाहरण दूँगा: यदि, हेगेल के ऊपर उद्धृत शब्दों के अनुसार, वस्तु-निजरूप में रंग केवल तभी है जब उसे देखा जा रहा हो, और गन्ध केवल तभी है जब उसे सूंघा जा रहा हो, आदि, आदि तो यह बात दिन के उजाले की भाँति सुस्पष्ट है कि उसे देखना या सूँघना बन्द कर देने पर हम उसे उसकी उस क्षमता से वंचित नहीं करते हैं जो हममें उसे फिर देखने पर रंग का और फिर नाक के पास लाने पर गन्ध, आदि, आदि का संवेदन उत्पन्न करती है। यह क्षमता वस्तु का वस्तु-निजरूप की शक्ल में एक विशिष्ट गुण है यानी एक ऐसा विशिष्ट गुण है जो कर्त्ता से स्वतंत्र है। बात स्पष्ट है ना?
आपको जब भी कभी इसका अनुवाद दर्शनशास्त्र की भाषा में करने की इच्छा हो तो हेगेल की ओर देखियेगा-वे भी प्रत्ययवादी हैं, लेकिन आत्मगत नहीं, और इस मामले में यही मुख्य मुद्दा है। प्रतिभा का धनी यह वृद्ध आपको समझायेगा कि दर्शनशास्त्र में "विशिष्ट गुण" शब्द के भी दो अर्थ हैं: किसी वस्तु के विशिष्ट गुण सबसे पहले तो अन्य के साथ उसके सम्बन्धों में अभिव्यक्त होते हैं। लेकिन इससे विशिष्ट गुणों की धारणा पूर्ण नहीं होती। ऐसा क्यों होता है कि एक वस्तु अन्य के सम्बन्ध में अपने आपको एक तरीके से उद्घाटित करती है और दूसरी वस्तु अपने को भिन्न तरीक़े से उद्घाटित करती है? स्पष्टतः इसलिए कि यह अन्य वस्तु-निजरूप में पहली के समान नहीं है।**
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'लुडविग फायरबाख', टिप्पणियाँ, पृ. 112-113। **"Ein Ding hat Eigenschaften; sie sind erstlich seine bestimmten
Beziehungen auf anderes... Aber zweitens ist das Ding in diesem Gesetzsein an sich... Ein Ding hat die Eigenschft, dies oder jenes im Andern zu bewirken und auf eine eigenthümliche Weise sich in seiner Beziehung zu äussern" (Hegel, Wissenschaft der Logik, Erster Band, Zweites Buch, S.S. 148, 149) ["एक वस्तु में विशिष्ट गुण होते हैं। यह है, पहला, अन्य के साथ उसके सुस्थापित सम्बन्ध... लेकिन, दूसरा, वस्तु इस सुस्थापना में वस्तु-निजरूप है... एक वस्तु में अन्य पर एक या दूसरा कोई प्रभाव डालने का और अन्य वस्तुओं से अपने सम्बन्धों में एक खास ढंग से अपने आपको उद्घाटित करने का विशिष्ट गुण होता है"
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और वास्तव में भी ऐसा ही होता है। यद्यपि वस्तु-निजरूप में रंग सिर्फ तभी होता है जब उसे देखा जा रहा हो, तथापि, इस शर्त को सही मानते हुए, यदि का रंग लाल है और अन्नबूटी के फूल का रंग नीला तो यह स्पष्ट है कि इस अन्तर के कारणों को उन विशिष्ट गुणों की भिन्नता में खोजना चाहिए, जो निजरूप वस्तुओं में अन्तर्निहित हैं, उन वस्तुओं में, जिनमें से एक को, उन्हें देखने वाले कर्त्ता से सर्वथा स्वतंत्र रूप में, हम गुलाब कहते हैं और दूसरे को अन्नबूटी का फूल |
हम पर अपनी क्रिया से वस्तु-निजरूप हममें कई संवेदन उत्पन्न करती है जिनके आधार पर हम उसके बारे में अपनी संकल्पना बनाते हैं। जब हमारे पास यह संकल्पना आ जाती है तो वस्तु-निजरूप दोहरी प्रकृति ग्रहण कर लेती है वह पहले तो निज में वर्तमान होती और दूसरे उसके बारे में हमारी संकल्पना में उसके विशिष्ट गुण-जैसे, मान लीजिये, उसकी संरचना-ठीक इसी तरह से अस्तित्व में होते हैं: पहले निजरूप में और दूसरे हमारी संकल्पना में। यह बात कुल इतनी ही है।
जब मैंने यह कहा कि वस्तुओं "आभास" हम पर उनकी क्रिया का परिणाम है तो मेरे मन में वस्तुओं के उन विशिष्ट गुणों की बात थी जो कर्त्ता की संकल्पना में प्रतिबिम्बित होते हैं (im Subjektiven Sinne aufgefasst, जैसा कि हेगेल कहते, लेकिन मार्क्स के शब्दों में, "जैसा कि मानवीय चेतना की भाषा में रूपान्तरित होकर विद्यमान रहते हैं")। लेकिन उपरोक्त बात कहने में मैं इस बात की पुष्टि से कोसों दूर था कि वस्तुओं के विशिष्ट गुण सिर्फ़ हमारी संकल्पना में ही विद्यमान होते हैं। इसके विपरीत, और आप मेरे दर्शन को इसी कारण पसन्द नहीं करते कि यह कर्त्ता की संकल्पना में वस्तु के अस्तित्व के अलावा कर्त्ता की चेतना से स्वतंत्र "वस्तु-निजरूप" के अस्तित्व को बेहिचक मान्यता देता है और इस (अत्यन्त दुर्लभ) मामले में काण्ट के शब्दों में यह दावा करता है कि यह निष्कर्ष • निकालना अनर्थक है कि दृश्य सत्ता उसके बग़ैर विद्यमान है जो उसमें आभासित होता है।"*
"लेकिन यह द्वैतवाद 22 है." यह बात हमसे वे लोग कहते हैं जो श्री माख, फ़ेरवोर्न**, आवेनारिउस तथा अन्य के प्रत्ययवादी "एकत्ववाद" की तरफ़
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*(हेगेल, 'तर्कशास्त्र', पहला खण्ड, दूसरी पुस्तक, पृ. 148, 149) 1] • विशुद्ध विवेक की मीमांसा, पृ. 151
** [ 'प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह की टिप्पणी। कुछ लोग जो माख की तरह सोचते हैं, मसलन जो. पेट्ज़ोल्ड्ट, अपने को फ़ेरबोर्न से पृथक करना चाहते हैं और स्वयं स्वीकार करते हैं कि वे प्रत्ययवादी हैं फ़ेरवोर्न निश्चय ही एक प्रत्ययवादी हैं, लेकिन वे वैसे ही प्रत्ययवादी हैं जैसे कि माख, आवेनारिउस और पेट्ज़ोल्ड्ट, परन्तु वे उनसे अधिक संगत हैं; वे उन प्रत्ययवादी निष्कर्षो से डरते नहीं जो इन लोगों को भयाक्रान्त कर देते हैं और उन्हें अत्यन्त उपहासास्पद हेत्वाभासों से टालने की कोशिश करते हैं।
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रुझान रखते हैं। नहीं, प्रिय महोदयो, हम उन्हें उत्तर देते हैं, यहाँ द्वैतवाद की गन्ध तक नहीं है। यह सच है कि अगर हम कर्त्ता को उसकी संकल्पनाओं के साथ वस्तु से विलग करते तो हमें द्वैतवाद को लेकर उलाहना दिया जा सकता था। लेकिन हम यह पाप नहीं करते। मैंने पहले कहा है कि कर्त्ता के अस्तित्व में यह पूर्वकल्पित है कि वस्तु विकास की एक निश्चित अवस्था में पहुंच गयी है। इसका क्या तात्पर्य है? इससे न अधिक न कम कि कर्त्ता स्वयं वस्तुगत जगत का एक घटक है। फ़ायरबाख ने सही कहा है: मैं अनुभव करता हूँ और सोचता हूँ तो वस्तु के विरुद्ध खड़े कर्त्ता के रूप में नहीं बल्कि एक कर्त्ता वस्तु के रूप में, एक वास्तविक भौतिक स्वत्व के रूप में मेरे लिए वस्तु सिर्फ़ अवबोधन का विषय नहीं है, यह मेरे संवेदन का एक आधार, उसकी आवश्यक शर्त है। वस्तुगत जगत सिर्फ़ मेरे बाहर ही नहीं है, वह मेरे अन्दर भी है, मेरे अपने चर्म के अन्दर। मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है, स्वत्व का एक अंग है; इसलिए उसके चिन्तन और स्वत्व के बीच अन्तरविरोध के लिए कोई स्थान नहीं है।"
अन्यत्र (Wider den Dualismus von Leib and Seele, Fleisch und Geist) ** वे कहते हैं: "अपने लिए मैं एक मनोवैज्ञानिक वस्तु हूँ; अन्य के लिए एक शरीर क्रिया वैज्ञानिक वस्तु हूँ।"***
अन्त में वे दोहराते हुए कहते हैं: "मेरी देह अपनी सम्पूर्णता में मेरा अहं है, मेरा सच्चा सार है। जो चिन्तन करता है वह अमूर्त स्वत्व नहीं बल्कि वास्तविक स्वत्व है, यह देह है।" अब, अगर यही मामला है (और भौतिकवादी की दृष्टि से मामला बिल्कुल यही है) तो यह समझना कठिन नहीं है कि आत्मगत "अनुभव" वस्तुतः और कुछ नहीं बल्कि वस्तु की आत्मचेतना है, अपने आपकी उसकी चेतना तथा उस विराट पूर्ण ("बाह्य जगत") की उसकी चेतना है जिसका अंग वह स्वयं है। जो जीव चिन्तन-क्रिया से सम्पन्न है वह केवल "निज में" ही नहीं, केवल "अन्यों के लिए" ही नहीं (यानी अन्य जीवों की चेतना में), बल्कि "स्वयं के लिए" भी अस्तित्व में होता है। श्रीमान बोग्दानीव, आप केवल भूतद्रव्य की निश्चित मात्रा में ही नहीं, और आपको गहन विचारक समझने वाले महाभाग अनातोली के मन में ही विद्यमान नहीं हैं, बल्कि आप स्वयं अपने मन में भी अस्तित्वमान हैं और भूतद्रव्य की उस मात्रा को जिससे आप बने हैं, और कुछ नहीं, श्रीमान बोग्दानोव
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• Werke. X. S. 193.
** दिह व आत्मा तथा स्थूलकाया व भाव के द्वैतवाद के विरुद्ध ।
*** Werke. II. S. 348-49.
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के रूप में जानते हैं।* तो हमारा मिथ्या द्वैतवाद असंदिग्ध एकत्ववाद सिद्ध हो जाता है। और इतना ही नहीं, यही एकमात्र सच्चा, यानी एकमात्र सम्भव एकत्यवाद है। क्योंकि कर्त्ता और वस्तु का विप्रतिषेध प्रत्ययवाद में किस प्रकार सुलझता है ? प्रत्ययवाद घोषणा करता है कि वस्तु कर्त्ता का "अनुभव" मात्र है, या, दूसरे शब्दों में, वस्तु-निज में विद्यमान नहीं है। लेकिन, जैसा कि फायरबाख ने कहा है, यह समस्या को हल करना नहीं, यह इसके समाधान को टालना मात्र है।**
यह सब इतना ही सरल है जितना क-ख-ग। पर इसके बावजूद, श्री बोग्दानोव, यह आपके लिए "अज्ञात" ही नहीं रह गया है बल्कि "अज्ञेय" भी है। आपको आपकी जवानी के प्रारम्भ में ही आपकी दार्शनिक धाय माख ने बिगाड़ दिया था और तब से अब तक आप सामयिक भौतिकवाद के सर्वाधिक सरल और सर्वाधिक स्पष्ट सत्यों को समझने में असमर्थ रहे हैं। इसलिए जब कभी आपको इन सरल स्पष्ट सत्यों में किसी एक का सामना होता है, मसलन मेरे लेखों में, तो वह फ़ौरन आपके दिमाग़ में एक अनिष्टकारी "आभास" बन जाता है और इस "अनुभव" के अन्तर्गत वह आपको उस कलहँस की तरह कुड़कुड़ाने को प्रेरित कर देता है जिसने कैपिटोल को बचाया था और मेरे खिलाफ़ ऐसी आपत्तियाँ उठाने को विवश कर देता है जो धारणाओं की अत्यन्त थकाने वाली परिभ्रान्ति और सर्वाधिक विनाशकारी क्लान्ति कोसों दूर तक फैला देती हैं।
शेक्सपीयर के 'मर्चेन्ट आफ़ वेनिस' में, बैस्सेनियो ग्रेशियानों के बारे में कहता है: "उसके तर्क दो बुशेल भूसे में छिपे गेहूँ के दो दानों की तरह हैं। आप उन्हें पाने से पहले दिन भर खोजेंगे; और जब वे आपको मिल जायेंगे खोज के लायक़ ही नहीं होंगे।"
श्रीमान बोग्दानोव, सत्य बताना ही होगा आप ग्रेशियानों से बिल्कुल नहीं मिलते; आपके "भूसे" में गेहूँ का एक भी दाना नहीं है। इसके अलावा यह दार्शनिक गहाई-कुटाई की फ़र्श पर डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय से सड़ रहा है और, ऊपर से, बहुत पहले ही चूहों का काटा कुतरा पड़ा है। परन्तु फिर भी आप इसे बेशर्मी के साथ ऐसे पेश करते हैं मानो यह "प्राकृतिक विज्ञान" की ताज़ातरीन
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• [प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह की टिप्पणी]-स्पिनोजा के अनुसार, वस्तु (res) देह) (corpus) है और साथ ही देह का विचार (idea corporis) भी है। लेकिन चूँकि जिसे स्वयं की चेतना है वह अपनी चेतना के प्रति भी सचेत है, इसलिए वस्तु एक देह (corpus), देह का विचार (idea corporis) और अन्ततः देह के विचार का विचार (idea ideae corporis) है। इससे यह समझा जा सकता है कि फायरबाख का भौतिकवाद स्पिनोजा की शिक्षा के कितना निकट है।
** तुलना कीजिये 'मार्क्सवाद की मूलभूत समस्याएं', पृ. 9 तथा क्रमानुसार अन्य।
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फ़सल से लाया गया हो। क्या चूहों के उच्छिष्ट में नाक डालना सुखद होता है? इस पर भी आप समझ नहीं पा रहे थे कि मैं आपके साथ बहस में पड़ने की जल्दी में क्यों नहीं था...
लेकिन मैं भूल रहा था कि आप मार्क्स और एंगेल्स के...असफल "आलोचक" ही नहीं बल्कि साहस के अभाव से भी ग्रस्त हैं। उनके दार्शनिक विचारों की "आलोचना" करते हुए अब आप अपने पाठकों को यह यक़ीन दिलाने की चेष्टा करते हैं कि आपका मतभेद, सही-सही तौर पर, केवल मुझसे है और इस लक्ष्य से आप मुझे बैरन होल्वाख के एक शिष्य के रूप में पेश करते हैं। आपकी मौजूदा, क्या कहें, निष्कपटता का अभाव मुझे विवश करता है कि आपको उस भले पुराने समय की और शायद इतने पुराने भी नहीं-1905 की याद दिलाऊँ, जब आपमें यह स्वीकार करने के लिए काफ़ी भोलापन बाक़ी था कि मैं एंगेल्स के विचारों को माननेवालों में से एक हूँ। प्रिय महोदय, आप स्वयं जानते हैं कि तब आप सत्य के अधिक निकट थे। और हो सकता है कि कोई सीधा-सादा पाठक इस बात को न जानता हो इसलिए मैं एंगेल्स के Uber historischen Materialisms से, जिसे में अपने पहले पत्र में उद्धृत कर चुका हूँ, एक खासा लम्बा उद्धरण पेश करूँगा। लेख के पहले भाग में एंगेल्स, अन्य बातों के अलावा, अज्ञेयवादियों के विरुद्ध भौतिकवाद का पक्षपोषण करते हैं। हम इसी पक्षपोषण पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।
ईश्वर के अस्तित्व पर अज्ञेयवादियों के विचारों से सम्बन्धित एंगेल्स की आलोचनात्मक टिप्पणियों को, यहाँ अप्रासंगिक मानकर, छोड़ते हुए, मैं "वस्तु-निजरूप" तथा हमारे द्वारा उसे जानने की सम्भावना के प्रश्न पर वे जो कुछ कहते हैं उसे लगभग पूरा का पूरा उद्धृत करूँगा।
एंगेल्स के अनुसार, अज्ञेयवादी स्वीकार करते हैं कि हमारा सारा ज्ञान उन संसूचनाओं (Mitteilungen) पर आधारित है जिन्हें हम अपने संवेदों के जरिए हासिल करते हैं। लेकिन इसे स्वीकार करते हुए अज्ञेयवादी पूछता है- यह हम कैसे जानें कि हमारे संवेद हमें उन निजरूप वस्तुओं का सही भान कराते हैं जिन्हें हम उनके जरिए ग्रहण करते हैं? एंगेल्स इसका उत्तर फॉस्ट के शब्दों को उद्धृत करके देते हैं : आदि में कर्म था। फिर वे आगे कहते हैं: "जिस क्षण हम इन वस्तुओं को उनके, हमारे द्वारा अनुभूत (Wahrnehmen), गुणों के अनुसार स्वयं अपने काम में लाते हैं, उसी क्षण हम अपने संवेद-ज्ञान की सत्यता-असत्यता को एक अमोध परीक्षा में डाल देते हैं। यदि ये अनुभूतियाँ ग़लत होती हैं तो एक वस्तु को जिस काम में लाया जा सकता है उसके उपयोग का हमारा प्राक्कलन भी निश्चित
• [ 'ऐतिहासिक भौतिकवाद के बारे में ]
जुझारू भौतिकवाद / 61
ही गलत होना चाहिए और हमारा प्रयत्न विफल हो जाना चाहिए। लेकिन यदि हम अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाते हैं, यदि हम देखते हैं कि वह वस्तु उसके बारे में हमारे विचार से मेल खाती ही है तथा उस उद्देश्य की पूर्ति करती है जिसमें अनुरूप हम उसे लगाना चाहते थे, तो यह इसका स्पष्ट प्रमाण है कि उसका तथा उसके गुणों का हमारा संवेद-ज्ञान, इस हद तक, हमारे बाहर की वास्तविकता के है (mit der ausser uns bestehenden Wirklichkeit)".
एंगेल्स की राय में, वस्तुओं के गुणों के हमारे निर्णयों की ग़लतियाँ इस तथ्य के कारण होती हैं कि जिन अनुभूतियों पर हमने काम किया वे या तो सतही थो या अपूर्ण, अथवा अन्य अनुभूतियों के परिणामों के साथ इस ढंग से सम्मिलित हो गयी थीं जो यथार्थ द्वारा (durch die Sachlage) समर्थित नहीं था। एंगेल्स आगे कहते हैं: "जब तक हम अपने संवेदों को समुचित ढंग से साधने व उनका उपयोग करने का ध्यान रखते हैं और अपने कार्यों को समुचित ढंग से प्राप्त तथा प्रयुक्त अनुभूतियों द्वारा तय सीमाओं के अन्दर रखते हैं, तब तक हमारे कार्यों का परिणाम अनुभूत वस्तुओं की वस्तुगत प्रकृति से हमारी अनुभूतियों की अनुरूपता (übereinstimmen) को सिद्ध करेगा। अब तक एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जहाँ हमें यह निष्कर्ष निकालना पड़ा हो कि वैज्ञानिक ढंग से नियंत्रित हमारी संवेदनात्मक अनुभूतियों हमारे दिमाग में बाह्य जगत से सम्बन्धित ऐसे विचार प्रेरित करती हैं जो अपनी प्रकृति से ही वास्तविकता से भिन्न हों या कि बाह्य जगत तथा हमारी संवेदनात्मक अनुभूतियों के बीच अन्तर्निहित असंगतता (Unvertraglichkeit) हो। "
लेकिन "नवकाण्टवादी अज्ञेयवादी" हिम्मत नहीं हारता। वह उत्तर देता है कि यद्यपि हम एक वस्तु के विशिष्ट गुणों का सही अनुभव कर सकते हैं, तथापि हम किसी भी संवेदनात्मक अनुभूति अथवा मानसिक प्रक्रिया से वस्तु-निजरूप को समझ नहीं सकते जो, इस तरह, हमारे ज्ञान से परे है। यह तर्क तथा वस्तु-निजरूप के बारे में माख जो सोचते हैं वे दो मटरों की तरह एक समान है, लेकिन उससे भी एंगेल्स को कोई परेशानी नहीं होती। वे कहते हैं कि हेगेल ने बहुत समय पहले इसका उत्तर दे दिया है: "यदि आप एक वस्तु के सारे गुणों को जानते हैं तो आप स्वयं वस्तु को जानते हैं; इस सूरत में इस तथ्य के सिवा और कुछ नहीं बचता कि वह वस्तु हमारे बाहर विद्यमान है; और जब आपके संवेदों ने यह तथ्य आपको सिखला दिया है तो आपने वस्तु-निजरूप के, काण्ट के सुप्रसिद्ध अज्ञेय Dingan sich के अन्तिम अवशेष को भी जान लिया है। इसमें एकस ने इतना और जोड़ा. कि काण्ट के समय में भौतिक वस्तुओं के बारे में हमारा ज्ञान इतना टूटा-फूटा था कि उनमें से प्रत्येक के पीछे एक रहस्यमय वस्तु-निजरूप का सन्देह किया जा
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सकता था। "लेकिन विज्ञान की विराट प्रगति द्वारा एक के बाद एक इन वस्तुओं को जान लिया गया, उनका विश्लेषण किया गया और, यही नहीं, उनका पुनरुत्पादन कर दिया गया; और जिसका हम पुनरुत्पादन कर सकते हैं उसे निश्चय ही अज्ञेय नहीं मान सकते। "
श्री बोग्दानोव- अगर आपने सचमुच ध्यान न दिया हो तो मुझे आपको यह सूचित करने का सम्मान प्राप्त है कि यहाँ एंगेल्स ने चन्द शब्दों में संज्ञान के उसी सिद्धान्त के मूल को पेश किया है जिसका में अब तक पक्षपोषण करता रहा हूँ और करता रहूँगा। मैं अपनी इस तत्परता का अग्रिम ऐलान करता हूँ कि मैं संज्ञान-सिद्धान्त पर अपने उन सारे विचारों का परित्याग कर दूँगा जो इस सिद्धान्त के विरोधी सिद्ध होंगे-ऐसा है मेरा दृढ़ विश्वास उनकी अटल सच्चाई पर। अगर आप यह सोचते हों कि मेरे संज्ञान-सिद्धान्त में दूसरे या तीसरे दर्जे के महत्व वाला कोई ब्योरा एंगेल्स की शिक्षाओं से सचमुच भिन्न मत का है, तो कृपया इसे सिद्ध कीजिये। आपके साथ बहस करना कितना ही उबाऊ क्यों न हो, इस मामले में, आपको उत्तर के लिए अधिक नहीं रुकना पड़ेगा। इस बीच मैं आपको निमंत्रण देता हूँ कि आप अपनी अन्योक्तियों को छोड़ें" और हम सबकी, अपने इच्छुक व अनिच्छुक सभी पाठकों को, निम्नांकित प्रश्न का उत्तर दें: क्या आप उपरोक्त उद्धरण में अभिव्यक्त एंगेल्स के भौतिकवादी विचारों के सहभागी हँ?
लेकिन याद रखिए हमें इस "अभिशप्त प्रश्न" का किसी तरह की "अन्योक्तियों" या "खोखली प्राक्कल्पनाओं" से रहित "सीधा-सरल" उत्तर चाहिए। चूँकि आप "खोखली प्राक्कल्पनाओं" और अनावश्यक "अन्योक्तियों" के बहुत लती हैं, इसलिए मैं आपको चेतावनी देता हूँ कि अलग-थलग शब्दों को न पकड़िए और मुद्दे की बात कहियेगा। केवल इसी शर्त पर हम, पाठकों के लिए कुछ लाभ के साथ, माम पर विचार कर सकते हैं। लेकिन अगर यह शर्त पूरी की जाती है तो सारा विवाद अन्तिम सीमा तक सरलीकृत हो जाएगा।
यह कहने के मेरे अपने कारण हैं। मुझे आपके "दार्शनिक" (हूँ!) चितन की पद्धति का खासा अन्दाजा है और मैं मिसाल के लिए, निम्नांकित ढंग के विषयान्तर की सम्भावना को पहले ही से देख रहा हूँ।
एंगेल्स ने कहा कि अब यह विश्वास करना- जैसा कि काण्ट के समय में अनुज्ञेय था- सम्भव नहीं है कि हमारे गिर्द प्रकृति के अंश की रचना करने वाली हर वस्तु के पीछे किसी प्रकार का रहस्यमय वस्तु-निजरूप छिपा हुआ है, जो हमारे ज्ञान से परे है। श्रीमान बोग्दानोव इस दृष्टि से आप मार्क्सवाद के महान सिद्धान्तकार को निजरूप के अस्तित्व से इनकार करने के कारण उसी श्रेणी में रखने में समर्थ है जिसमें माख हैं। लेकिन इस किस्म का हेत्वाभास इतना दयनीय है कि यह
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वस्तुतः इस्तेमाल करने लायक़ ही नहीं है।
"हमारे स्वयं से बाहर की उस वास्तविकता", जो उसके बारे में हमारे विचारानुरूप हो भी, या, नहीं भी हो सकती है, की एंगेल्स की निरपेक्ष स्वीकृति से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि उनकी शिक्षा के अनुसार, वस्तुओं का अस्तित्व हमारे अवबोधन में उनके अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है। एंगेल्स केवल काण्टवादी वस्तु-निजरूप के अस्तित्व से इनकार करते हैं, यानी केवल उससे जो कथित रूप में कारण कार्य सम्बन्ध के अन्तर्गत नहीं है और हमारे ज्ञान से परे है। यहाँ भी मैं एंगेल्स से, जैसा कि आप कोनराड श्मिट के ख़िलाफ़ मेरे लेखों को पढ़कर आसानी से सत् कर सकते हैं, पूर्णतः सहमत हूँ। वे लेख 'हमारे आलोचकों की आलोचना' में पुनर्प्रकाशित हुए थे और आपने उनका हवाला मेरे साथ अपने विवाद में दिया था। फलतः, इस मामले में भी कोई "वाक्छल" व्यर्थ है।
इसलिए और भी अधिक व्यर्थ है कि, मेरे पत्र के प्रारम्भ में उद्धृत एंगेल्स के विचारों के अनुरूप, हमारे अवबोधन से स्वतंत्र रूप में विद्यमान जगत की वास्तविक एकता उसकी भौतिकता में ही है। यह ठीक वही दृष्टिकोण है जिसे मैंने नवकाण्टवादियों के साथ अपने विवाद में प्रस्तुत किया था और जिसने भूतद्रव्य की मेरी परिभाषा पर आपके "कुकल्पित आक्रमणों के लिए बहाने का काम दिया था।
तर्क के अपने ही नियम हैं और उनके सामने सभी खोखली प्राक्कल्पनाएँ" सत्वहीन हो जाती हैं। श्रीमान वोग्दानोव, यदि आप सचमुच मार्क्सवादी बनना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले, अपने उपदेशक, माख, के खिलाफ़ बगावत करनी पड़ेगी और उस चीज़ के आगे "झुकना" पड़ेगा जिसे वे पुण्य स्मृति के क्लोयन के बिशप बर्कले द्वारा क़ायम मिसाल के मुताबिक़ "जलाने की कोशिश कर रहे हैं। आपको यह कबूल करना पड़ेगा कि "पिण्ड" संवेदनों के समुच्चय के सहज प्रतीक मात्र नहीं हैं, बल्कि वे इन संवेदनों के आधार हैं और उनसे स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में हैं। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। यह नहीं हो सकता कि कोई मार्क्सवाद के दार्शनिक आधार को ठुकराये और फिर भी मार्क्सवादी हो।
जो माख की तरह यह समझता हो कि पिण्ड संवेदन-समुच्चयों के सहज प्रतीक हैं, उसे उस नियति का भागीदार होना ही पड़ेगा जो समस्त आत्मगत प्रत्ययवादियों की होती है वह अहंमात्रवाद पर जा पहुंचेगा या इससे बचने के प्रयत्न में, असाध्य अन्तरविरोधों में फंस जायेगा। माढ़ का यही हाल हुआ। आप इस पर यक्क़ीन नहीं करते, श्रीमान बोग्दानोव? मैं इसे आपके लिए सिद्ध करूँगा और खुशी से ऐसा करूँगा, क्योंकि आपके शिक्षक की नजोरियाँ उद्घाटित करने में मैं, साथ ही साथ, आपकी अपनी "दार्शनिक" कमजोरियाँ भी उद्घाटित कर दूँगा-कोई भी प्रतिलिपि मौलिक कृति से श्रेष्ठतर कभी नहीं होती। और आखिर
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मौलिक कृति से निबटना उसकी प्रतिलिपि, और खास तौर से आपके "अनुभवात्मक एकत्ववादी" अभ्यासों की जैसी धुँधली प्रतिलिपि से निबटने की बजाय कहीं अधिक सुखद होता है ।
2
एतदर्थ, प्रिय महोदय, मैं आपसे विदा लेता हूँ और माख़ की ओर जाता हूँ। वाकई, यह एक बोझ मेरे कन्धों से उतरा है; और मुझे यकीन है कि पाठक भी राहत की साँस लेगा।
माख अधिभूतवाद26 से संघर्ष करना चाहते हैं। उनकी पुस्तक 'संवेदनों का विश्लेषण' का पहला ही अध्याय, "अधिभूतवादविरोधी प्रारम्भिक टिप्पणियों" को समर्पित है। लेकिन यह प्रारम्भिक टिप्पणियाँ ही हैं जो यह दर्शाती हैं कि उनमें प्रत्ययवादी अधिभूतवाद के बचे हुए अवशेष बहुत संलग्नशील हैं।
उन्होंने इस बात का स्वयं वर्णन किया है कि उन्हें दार्शनिक विचारों की तरफ़ ठीक किसने उकसाया और उनका क्या स्वरूप बना। वे लिखते हैं:
"जब मैं बहुत छोटा था (उस समय मैं पन्द्रह वर्ष का था) मुझे एक दिन अपने पिता के पुस्तकालय में काण्ट की कृति 'प्रत्येक भावी अधिभूतवाद का उपोद्घात' मिली और मैंने इस घटना को अपने लिए हमेशा शुभ माना। इस कृति ने मुझ पर ऐसा जबरदस्त और स्थायी प्रभाव डाला, जिसके समतुल्य प्रभाव को मैंने दार्शनिक कृतियाँ पढ़ने में फिर कभी महसूस नहीं किया। दो या तीन वर्ष बाद मुझे सहसा अहसास हुआ कि 'वस्तु-निजरूप' कैसी अनावश्यक भूमिका अदा करती है। ग्रीष्म के एक सुखद दिन मैं खुली हवा में टहल रहा था तो मुझे एकबारगी ऐसा प्रतीत हुआ कि सम्पूर्ण विश्व अन्तर्सम्बन्धित संवेदनों का एक समुच्चय है और मेरा 'अहं' इस समुच्चय का एक अंश है, एक ऐसा अंश जिसमें ये संवेदन केवल अधिक मजबूती से सम्बन्धित हैं। यद्यपि मैंने इस पर समुचित रीति से बाद में ही विचार किया तथापि मेरे सम्पूर्ण विश्व दर्शन पर इस क्षण का निर्णायक महत्व था।"*
इससे हम समझ सकते हैं कि माख का चिन्तन उसी दिशा का अनुसरण करता है जो फ़िखटे की है। फ़िखटे ने अपने प्रारम्भिक बिन्दु के रूप में काण्ट के अनुभवातीत प्रत्ययवाद को भी ग्रहण किया था और जल्दी ही इस निर्णय पर भी पहुंचा था कि वस्तु-निजरूप नितान्त "अनावश्यक भूमिका अदा करती है लेकिन फ्रिखुटे को दर्शनशास्त्र का अच्छा ज्ञान था, जबकि माख अपने बारे में कहते हैं कि वे दर्शन के लिए अपने रविवासरीय भ्रमण में ही समय निकाल पाते थे (doch nur
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*"ए. माझ्, 'संवेदनों का विश्लेषण, पृ. 34, टिप्पणी |
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als Sonntagsjager durchstreifen)* . इसलिए फ़िख़टे के दार्शनिक विचार कभी-कभी अन्तरविरोधी होते हुए भी काफ़ी व्यवस्थित ढंग से ढले हैं, लेकिन माख के "खुली हवा में" रविवासरीय "अधिभूतवादविरोधी" भ्रमणों का नितान्त दुखद परिणाम हुआ।
आप स्वयं निर्णय कीजिये। माख़ को अपने इर्दगिर्द की सारी दुनिया "एकबारगी" संवेदनों का एक समुच्चय जान पड़ी और उनका "अहं" इस समुच्चय का अंश। परन्तु यदि यह "अहं" विश्व का सिर्फ़ एक अंश है तो यह स्पष्ट है कि संवेदनों के विश्व समुच्चय का एक बहुत तुच्छ हिस्सा ही इस "अहं" के पल्ले पड़ता है और एक अतुलनीय रूप से विशाल भाग "अहं के बाहर" मौजूद है और उसके सन्दर्भ में बाह्य जगत, "निःअहं" है। इसका फल क्या है? यह "अहं" और "निःअहं" का, यानी कर्त्ता और वस्तु का, या उसी, ठीक उसी विप्रतिषेध का मामला है जो, जैसा कि एंगेल्स ने उचित ही कहा है, सम्पूर्ण आधुनिक दर्शन का मूलभूत प्रश्न है और जिससे, "अधिभूतवाद" के प्रति घोर घृणा से ओतप्रोत, माख़ ने परे निकलना चाहा। यह रविवासरीय भ्रमणों का बुरा फल नहीं है। लेकिन यह एकमात्र फल नहीं है : अब हम देखेंगे कि "खुली हवा" में माख के विचारने के कुछ और भी फल थे, जो कम महत्वपूर्ण नहीं थे।
जब कर्त्ता और वस्तु ("अहं" और बाह्य जगत) का विप्रतिषेध प्रस्तुत कर दिया गया, तो इसका किसी न किसी तरह समाधान करना ही होगा, और इसके लिए यह स्पष्ट करना निश्चय ही जरूरी होगा कि विप्रतिषेध की रचना करने वाले दो तत्वों के बीच के सही सम्बन्ध क्या हैं। माख ऐलान करते हैं कि सम्पूर्ण विश्व अन्तर्सम्बन्धित संवेदनों का एक समुच्चय है जाहिर है कि वे यह विश्वास करते हैं कि "अहं" और बाह्य जगत और बाह्य जगत व "अहं" के बीच सम्बन्धों के प्रश्न का जो उत्तर खोजा जा रहा है वह यही है। लेकिन मैं हाइने के शब्दों में पूछता हूँ :
क्या उत्तर सचमुच यही है?
आइए, यह मान लें कि "अहं" में निहित संवेदन सचमुच ही बाह्य जगत का निर्माण करने वाले संवेदनों से "सम्बन्धित" हैं।
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• Erkenntnis und Irrthum, Leipzig, 1905, Vorwort, S.S. VI-VII. [संज्ञान और भ्रम', लाइपजिंग, 1905, प्रस्तावना, पृ. 6-7।]
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लेकिन इस कल्पना में इस सम्बन्ध के लक्षण का संकेत तक नहीं है। माख, मिसाल के लिए, अहंमात्रवाद का अनुमोदन नहीं करते। वे कहते हैं: "es gibt keinen isolierten Forscher" (एक अलग-थलग अन्वेषक जैसी कोई चीज नहीं होती*), और, निस्सन्देह, वे ठीक कहते हैं। लेकिन हमारे लिए सिर्फ़ दो अन्वेषकों की कल्पना कर लेना पर्याप्त होगा कि हम चारों तरफ़ से उन्हीं अधिभूतवादी प्रश्नों से घिरे होंगे जिन्हें माख "खुली हवा में सर्वविदित coup detat** से खत्म करना चाहते थे। हम अपने अन्वेषकों" को 'क' और 'ख' कहेंगे। 'क' और 'ख' संवेदनों के उस विराट समुच्चय से जुड़े हैं जिससे-जैसा कि माख ने हमें आश्वस्त किया है पर अपने आश्वासन को किसी भी तरीके से सिद्ध नहीं किया है- ब्रह्माण्ड की, "सम्पूर्ण विश्व" की रचना हुई है। यह पूछा जा सकता : क्या 'क' और 'ख' एक दूसरे के अस्तित्व के बारे में जान सकते हैं? प्रथम दृष्टि में यह प्रश्न लगभग अनावश्यक लगता है; बेशक वे एक दूसरे को जान सकते हैं क्योंकि अगर वे नहीं जान सकते तो उनमें से हर एक दूसरे के सन्दर्भ में, एक अलभ्य और अज्ञेय वस्तु-निजरूप होगा और ऐसी वस्तु को उस रविवार के दिन अस्तित्वहीन घोषित कर दिया गया था जब माख को सम्पूर्ण विश्व संवेदनों का एक समुच्चय जान पड़ा था। लेकिन मामला ठीक इस परिस्थिति के कारण जटिल हो जाता है कि "अन्वेषक" 'क' "अन्वेषक" "ख" को और विलोमतः 'क' को 'ख' ज्ञात हो सकता है। यदि 'क' को 'ख' के अस्तित्व की जानकारी हो गयी है तो उसकी उसके बारे में एक निश्चित धारणा भी होगी। और चूँकि ऐसा मामला है, इसलिए 'ख' संवेदनों के विशाल विश्व समुच्चय के अंश रूप में केवल अपने आपमें ही नहीं बल्कि उस 'क' के मस्तिष्क में भी विद्यमान है जो स्वयं भी इस समुच्चय के एक अंश से अधिक कुछ नहीं है। दूसरे शब्दों में, अन्वेषक 'ख' अन्वेषक 'क' के सन्दर्भ में 'क' से बाहर विद्यमान एक वस्तु है उस पर कुछ निश्चित प्रभाव डालता है। इस तरह, हमारे सम्मुख कर्त्ता और वस्तु का विप्रतिषेध ही नहीं आ खड़ा हुआ है बल्कि इसका भी कुछ आभास मिल गया है कि इसका समाधान कैसे किया जाता है: वस्तु कर्त्ता बाह्य विद्यमान है लेकिन यह वस्तु को कर्त्ता में कुछ संवेदन उत्पन्न करने में बाधा नहीं डालता। वस्तु निजरूप, जिसे हमने सोचा था कि हम माख की रविवासरीय खोज के परिणामस्वरूप हमेशा के लिए बड़े खाते में डाल चुके थे, फिर से हाजिर हो गयी। यह सच है कि माख़ ने अज्ञेय वस्तु-निजरूप के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ी थी, लेकिन अब हमें एक ऐसी वस्तु से निबटना है जो पूर्णरूपेण हमारी चेतना की पहुँच में है: "अन्वेषक" 'ख' का अन्वेषण
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* Erkenntnis und Irrthum, S. 9.
** [उलट-फेर] |
जुझारू भौतिकवाद/67
"अन्वेषक" 'क' द्वारा किया जा सकता है और "अन्वेषक" 'ख' भी 'क' के साथ यह भलाई कर सकता है। और इससे यह पता लगता है कि हमारा एक कदम आगे बढ़ गया है। लेकिन यह कदम सिर्फ़ काण्ट के अनुभवातीत प्रत्ययवाद के सन्दर्भ में आगे बढ़ा है न कि भौतिकवाद के, जो-जैसा कि मैं और श्रीमान बोग्दानोव, आप भली भाँति जानते हैं, क्योंकि यह बात ऊपर कही ही जा चुकी है-वस्तु-निजरूप की अज्ञेयता से इनकार करता है। तो फिर मा ""दर्शन" और भौतिकवाद में क्या अन्तर है? आइए, मैं समझाता हूँ।
भौतिकवादी कहेगा कि हमारे दो अन्वेषकों में से प्रत्येक "कर्त्ता व वस्तु", एक वास्तविक भौतिक स्वत्व, संवेद व चिन्तन की क्षमता से युक्त एक पिण्ड के सिवा और कुछ नहीं है। परन्तु अधिभूतवाद के विरुद्ध बगावत करने वाले माख यह आपत्ति उठायेंगे कि चूँकि पिण्ड "तत्वों के समुच्चयों के (संवेदनों के समुच्चयों के) सहज प्रतीक" होते हैं, इसलिए हमें यह स्वीकार करने का कोई तार्किक अधिकार नहीं है कि हमारे अन्वेषक भौतिक हैं, हम उन्हें संवेदनों के विश्व समुच्चय का अंश मानने के लिए बाध्य हैं। फ़िलहाल हम इस पर न तो विवाद करेंगे और न इसका खण्डन इस क्षण हम यह मान लेंगे कि हमारे "अन्वेषक" संवेदनों के तथाकथित छोटे समुच्चय हैं। लेकिन हमारी यह नम्रता हमारी राह की बाधा नहीं हटाती हम इस बारे में अभी भी पूर्ण अज्ञान की दशा में हैं कि 'क' किस विधि से 'ख' के अस्तित्व तथा उसके गुण विशेषों की जानकारी हासिल करता है। यदि हमने भौतिकवाद की दृष्टि से यह मान लिया होता कि 'ख' अपने शरीर से तथा अपने कर्मों से 'क' में निश्चित संवेदन उत्पन्न करता है जो सुनिश्चित संकल्पनाओं का आधार बनते हैं, तो परिणाम निपट निरर्थक होता संवेदनों का एक समुच्चय संवेदनों के दूसरे समुच्चय में निश्चित संवेदन पैदा कर रहा है? यह उस सुप्रसिद्ध "दर्शनशास्त्र" से भी गया-गुजरा होगा जो यह बतलाता है पृथ्वी हेलों पर टिकी है, हेलें पानी पर तैरती है और पानी पृथ्वी पर है। और तो और, स्वयं माख, जैसा कि हम बाद में देखेंगे, इस प्रकार की पूर्वकल्पनाओं का विरोध करते हैं।
जो भी हो, हमें अपने दिलचस्प विषय से नहीं भटकना चाहिए।
इस पूर्वकल्पना से कि 'ख' 'क' में कुछ संवेदन पैदा करके उसको ज्ञात होता है हम उसी तरह से अनर्गलता पर आ पहुँचे जैसे कि इस पूर्वकल्पना से कि 'ख' 'क' के ज्ञान से परे है। अब हम करें तो क्या? हमें हमारे अन्याग्रही प्रश्न का उत्तर कहाँ मिलेगा? कोई हमें सलाह दे सकता है कि हम लीबनिज़ को पुकारें और उनके "पूर्वस्थापित सामंजस्य" से अपील करें। चूँकि इस समय हम सब कुछ मानने को तैयार हैं, इसलिए हमने, शायद, यह सलाह भी मान ली होती, लेकिन अप्रशम्य माख ने हमें इस अन्तिम उपाय से वचित कर दिया है: वे पूर्वस्थापित सामंजस्य
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को पैशाचिक सिद्धान्त (monstruose Theorie) घोषित कर देते हैं।*
बिल्कुल ठीक, हम इसे अस्वीकार करने को राजी हैं-एक पैशाचिक सिद्धान्त हमारा क्या भला करेगा। लेकिन, दुर्भाग्यवश, Analyse der Empfindungen ** के रूसी अनुवाद के 38वें पृष्ठ पर निम्नांकित बात देखने को मिलती है:
"अगर एक विशेष, पूर्णतः सीमित उद्देश्य के लिए उपयुक्त विचार को पहले से ही सारी खोजबीन का आधार बना दिया जाता है स्वतंत्र वैज्ञानिक अनुसन्धान आसानी के साथ दुरुह बन जाता है। ऐसा, मसलन, तब होता है जब हम समस्त अनुभवों को बाह्य जगत की हमारी चेतना में पहुँचने वाली 'क्रियाएँ' मान लेते हैं। इससे अधिभूतवादी कठिनाइयों की एक पूरी गुत्थी जन्म लेती है जो पूर्णतः असाध्य प्रतीत होती है। लेकिन जैसे ही हम इस समस्या पर तथाकथित गणितीय अर्थ से विचार करते हैं, यानी, जब हमारे लिए यह स्पष्ट हो जाता है कि सिर्फ कार्यिक सम्बन्धों की स्थापना का, हमारे अनुभवों के बीच मौजूद निर्भरता का स्पष्टीकरण ही हमारे लिए मूल्यवान है, तो यह कठिनाइयाँ तुरन्त गायब हो जाती हैं। तब सबसे पहले यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके और किसी प्रकार की अज्ञात, आद्य परिवर्ती वस्तुओं (निजरूप वस्तुओं) के बीच सम्बन्ध की स्थापना एक ऐसा मामला है जो पूर्णतः काल्पनिक और निरुद्देश्य है।"
माख स्पष्टतः घोषणा करते हैं कि हमारे अनुभवों को हमारी चेतना में आने वाली बाह्य जगत की क्रियाओं का परिणाम मानना अर्थहीन है। हम माड़ की यह बात मान लेते हैं और अपने आपसे कहते हैं: यदि किसी क्षण-विशेष पर हमें अन्य व्यक्ति की आवाज़ सुनने का "अनुभव" होता है और अगर हम इस अनुभव को बाह्य जगत के, यानी, बिल्कुल सही-सही रूप में, बाह्य जगत के उस अंश, जिससे बोलने वाले व्यक्ति की रचना हुई है, के प्रभाव से स्पष्ट करने की सोचते हैं तो हम बहुत बड़ी गलती करते हैं। माख हमें आश्वस्त करते हैं कि इस तरह की क्रिया की हर पूर्वकल्पना कालातीत अधिभूतवाद है। इसलिए हमारे पास सिर्फ यह मानने को रह जाता है कि हम अन्य व्यक्ति की आवाज़ इसलिए नहीं सुनते कि वह बोल रहा है (और वायु के कम्पनों के जरिए हम पर क्रिया कर रहा है), बल्कि इसलिए सुनते हैं कि हमें एक ऐसा "अनुभव" हुआ है जिसके कारण वह हमें बोलता हुआ जान पड़ता है। और अगर वह हमारा उत्तर सुनता है तो इसका स्पष्टीकरण भी यह तथ्य नहीं है कि हमारे द्वारा उत्पन्न वायु-कम्पन उसके अन्दर किन्हीं श्रवण-संवेदन को प्रोत्तेजित कर
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*Erkenntnis und Irrthum, S. 7. **[संवेदनों का विश्लेषण ।।
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रहे हैं, बल्कि उसका वह "अनुभव" है जिसका अभिप्राय यह है कि हम उसे उत्तर देते हुए जान पड़ते हैं। यह निश्चय ही, बहुत स्पष्ट है और यहाँ वास्तव में कोई "अधिभूतवादी कठिनाइयाँ" नहीं हैं। लेकिन क्या यह आपकी अनुमति से! फिर वही "पूर्वस्थापित सामंजस्य" का सिद्धान्त नहीं है जिसे माख़ ने पैशाचिक बताया है ?*
माख हमारे सम्मुख सिद्ध करते हैं कि हमारे लिए एकमात्र मूल्यवान चीज कार्यिक सम्बन्धों को प्रकट करना, यानी हमारे अनुभवों की एक दूसरे पर निर्भरता को सुस्पष्ट करना है। हम एक बार फिर उनकी बात मान लेते हैं और फिर अपने आपसे कहते हैं: चूँकि सारा मामला हमारे अनुभवों की एक दूसरे पर कार्यक निर्भरता सिद्ध करने का है, इसलिए हमें यह मानने का कोई अधिकार नहीं है कि अन्य लोगों का अस्तित्व इन अनुभवों से स्वतंत्र है। ऐसी मान्यता "अधिभूतवादी कठिनाइयों" की एक पूरी गुत्थी को जन्म दे देगी। पर बात यहीं तक नहीं है। यही विवेचन हमें इस विश्वास की ओर ले जाता है कि हम, तर्क के विरुद्ध पाप किये बग़ैर, उन "तत्वों" अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकते जो हमारे "अहं" के अंग नहीं हैं और जो "निःअहं" की, बाह्य जगत की रचना करते हैं। सामान्य रूप से, हमारे अनुभवों के सिवाय और किसी का अस्तित्व नहीं है। शेष सभी कुछ गढ़ा हुआ है, "अधिभूतवाद" है। अहंमात्रवाद जिन्दाबाद! **
यदि माख का यह विश्वास है कि वे संकीर्णतम अर्थ में "अहं*** तथा व्यापकतर अर्थ में "अहं**** के बीच अन्तर करके इस असन्दिग्ध "कठिनाई" को दूर कर सकते हैं तो वे भयानक भ्रम में हैं। उनके बृहत्तर "अहं" में, जैसा कि आश्वस्तकारी हाव-भावों से वे स्वयं संकेत देते हैं, बाह्य जगत सम्मिलित है जिसकी संविरचना में, प्रसंगतः, अन्य "अहं" भी शामिल हैं। लेकिन फ़िखटे यह भेद पहले
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• 'संवदेनों का विश्लेषण' के एक अन्य भाग (पृ. 265, रूसी संस्करण) में माख कहते हैं : "एक व्यक्ति की विभिन्न संवेदनानुभूतियाँ तथा विभिन्न लोगों की संवेदनानुभूतियाँ भी नियमानुरूप एक दूसरे पर निर्भर होती हैं। यही यह है जिससे भूतद्रव्य बना है।" हो सकता है। परन्तु यहाँ सम्पूर्ण प्रश्न यह है क्या, माख के दृष्टिकोण से, सुस्थापित सामंजस्य की तदनुरूपी निर्भरता के अलावा कोई और भी निर्भरता है?
•• हॅन्स कार्नलियस, जिन्हें माल अपने जैसे विचारों वाला व्यक्ति बताते हैं, सीधे-सीधे यह स्वीकार करते हैं कि वे अहंमात्रवाद से बचने का कोई वैज्ञानिक उपाय नहीं जानते। (देखिये उनकी कृति Einleitung in die Philosophie, Leipzig. 1903, S. 323. [दर्शनशास्त्र परिचय', लाइपजिग, 1909, पृ. 325]. ख़ास तौर से टिप्पणी) ***देखिये Erkenntnis und Irrthum, SI
****वही, पृ. 29 ।
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ही कर चुके हैं, वे "अहं" को "निःअहं" के विरुद्ध रखते हैं और इस "निः अहं" में अन्य व्यक्ति भी समाविष्ट हैं।* लेकिन इससे फ़िटे आत्मगत प्रत्ययवादी बने रहने से बच नहीं सके- और इसका एक निहायत सीधा-सादा कारण था उनके लिए, जैसे कि बर्कले और माख़ के लिए, "निःअहं" केवल "अहं" की संकल्पना में ही विद्यमान था। चूँकि फ़िखटे के लिए, वस्तु-निजरूप के अस्तित्व से इनकार करने के कारण, "अहं" की सीमाओं से बाहर निकलने का रास्ता बहुत मज़बूती से बन्द हो गया था इसलिए अहंमात्रवाद से बचने की उनकी सारी सैद्धान्तिक सम्भावनाएँ लुप्त हो गयी थीं। लेकिन अहंमात्रवाद भी कोई उपाय नहीं था। इसलिए फ़िखटे ने निरपेक्ष "अहं" में सुरक्षा की खोज की। उन्होंने जैकोबी को लिखा: "यह स्पष्ट है कि मेरा निरपेक्ष 'अहं' व्यक्ति नहीं है... लेकिन व्यक्ति को निरपेक्ष 'अहं' से निगमित किया जाना चाहिए। मेरा 'विज्ञान का सिद्धान्त' 27 प्राकृतिक अधिकार के सिद्धान्त में ऐसा करेगा।" दुर्भाग्यवश, "विज्ञान के सिद्धान्त" ने यह नहीं किया। फ़िखटे अहंमात्रवाद से सिद्धान्ततः कभी नहीं निबट पाये। माख भी ऐसा नहीं कर सके। लेकिन दार्शनिक धारणाओं के विवेचन में अतिकुशल फ़िखटे कम से कम अपने दर्शन की कमजोरी को जानते अवश्य थे। पर माख, जो सम्भवतः अच्छे भौतिकीविद हैं, लेकिन निस्सन्देह एक निकृष्ट विचारक हैं और इस बात से बिल्कुल बेखबर है कि उनका "दर्शन" अत्यधिक अस्वीकार्य और अत्यन्त स्पष्ट अन्तरविरोधों से भरा पड़ा है। वे इन अन्तरविरोधों के भीतर-बाहर ऐसी अटूट शान्ति से आते-जाते रहते हैं जो सचमुच ही किसी अन्य बेहतर उद्देश्य के योग्य है।
इधर, श्री बोग्दानोव, इसे देखिये मान को एक प्रश्न सूझता है क्या अजैव भूतद्रव्य भी संवेदनों का अनुभव करता है? इस सन्दर्भ में वे निम्नांकित बात कहते है:
"यदि हम व्यापक रूप से प्रचलित उन भौतिक धारणाओं पर चलें जिनके अनुसार भूतद्रव्य वह प्रत्यक्ष और अविवादास्पद रूप से विद्यमान वास्तविकता है, जिससे हर जैविक व अजैव वस्तु निर्मित है तो यह प्रश्न सहज स्वाभाविक है। ऐसी सूरत में भूतद्रव्य से निर्मित संरचना में संवेदन को सहसा कहीं प्रकट हो जाना चाहिए या फिर इस संरचना के आधार में पहले से ही वर्तमान होना चाहिए। हमारे दृष्टिकोण से यह प्रश्न मूलतः मिथ्या है। हमारे लिए भूतद्रव्य वह नहीं है जो आदि
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*प्रतिरक्षा से आक्रमण तक संग्रह की टिप्पणी-इसमें इतना और जोड़ा ही जाना चाहिए। सच है कि इस तरह का भेद करने वाले एकमात्र व्यक्ति फ्रिख ही नहीं थे। यह वस्तुतः न सिर्फ समस्त प्रत्यवादियों बल्कि अमात्रवादियों पर भी जा चिपका था।
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प्रदत्त है। इसकी बजाय आदि प्रदत्त तत्त्व हैं जो किसी निश्चित अर्थ में संवेदन कहे जाते हैं।" *
माख को उचित श्रेय देने के लिए कहना होगा कि यहाँ वे सर्वथा तार्किक ढंग कुछ से चले हैं। वे इसके बाद के पृष्ठ में भी कम तार्किक नहीं हैं। वहाँ यह दोहराने के बाद कि भूतद्रव्य तत्वों के एक निश्चित प्रकार के सम्बन्ध के अलावा और नहीं है, वे सही तर्कानुमान करते हैं: "फलतः, भूतद्रव्य में संवेदन के प्रश्न को इस प्रकार से निरूपित करना चाहिए: क्या तत्वों का एक निश्चित प्रकार का सम्बन्ध संवेदनों का अनुभव करता है (तत्व जो एक निश्चित अर्थ में ठीक वही संवेदन है)? इस प्रश्न को ऐसे रूप में कोई पेश नहीं करेगा।"**
यही बात है। लेकिन निम्नांकित पैरा, जो भूतद्रव्य पर माख की अभी उद्धृत तार्किक (माख़ के दृष्टिकोण से) दलील से ठीक पहले है, बिल्कुल अतार्किक है : "यदि मेरे द्वारा संवेद का अनुभव करते समय में स्वयं या कोई अन्य सभी सम्भव भौतिक व रासायनिक उपकरणादि से मेरे मस्तिष्क का प्रेक्षण कर सके तो यह पता लगाना सम्भव होगा कि शरीर की किन प्रक्रियाओं से कौन संवेदन सम्बन्धित हैं। तब, कम से कम साम्यानुमान द्वारा हम बहुधा उठाये जाने वाले इस प्रश्न के समाधान के निकटतर पहुँच जायेंगे जीव जगत में संवेदन कितनी दूरी तक फैले हैं, क्या निम्न प्राणियों में संवेदन होते हैं, क्या पौधों में संवेदन होते हैं?"
यहाँ मैं इस प्रश्न को फिर उठाना नहीं चाहता कि वह "कोई अन्य" "मेरे" मस्तिष्क की प्रेक्षण करने वाला कहाँ से आयेगा। हम पहले से ही जानते हैं कि माख के "दर्शन" में निश्चित रूप से ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ से वह आ सके। लेकिन हम अपने दार्शनिक में इस तर्काभाव के आदी हो गये हैं, अब इसमें हमारी दिलचस्पी नहीं रही। हमारे दिमाग़ में एक दूसरी चीज़ है। माख़ ने हमें बताया कि "भूतद्रव्य में संवेदन का प्रश्न को इस प्रकार से निरूपित करना चाहिए क्या तत्वों का एक निश्चित प्रकार का सम्बन्ध संवेदनों का अनुभव करता है (तत्व जो एक निश्चित अर्थ में ठीक वही संवेदन हैं)?" और हम उनके साथ सहमत थे कि प्रश्न को इस रूप में रखना बेहूदगी थी। अब अगर यह सच है तो यह प्रश्न प्रस्तुत करना भी कम बेहूदगी नहीं है कि "क्या निम्न प्राणियों में संवेदन होते हैं, क्या पौधों में संवेदन होते हैं"। माख ने उस प्रश्न के समाधान के कि पहुँचने" की उम्मीद नहीं खोयी जो कि उनके अपने दृष्टिकोण से बेहूदा है। समाधान - के निकट कैसे पहुंचा जाये? "कम से कम साम्यानुमान से।" साम्यानुमान किसके
* 'संवेदनों का विश्लेषण, पृ. 1971
** वही।
72 / जुझारू भौतिकवाद
साथ उसके साथ जो किसी निश्चित अनुभव के समय मेरे मस्तिष्क में होता और मेरा मस्तिष्क क्या है? मेरी देह का हिस्सा। और देह क्या है? भूतद्रव्य । भूतद्रव्य क्या है? "तत्वों के एक निश्चित प्रकार के सम्बन्ध के अलावा और नहीं।" इसलिए हमें वैसे ही तर्कानुमान लगाना पडेगा जैसे माख ने लगाया कलतः, इस प्रश्न को कि जब मैं एक निश्चित संवेदन का अनुभव करता हूँ मेरे मस्तिष्क में क्या होता है, इस तरह निरूपित करना चाहिए : जब "अहं" चिदनों का अनुभव करता है तो "अहं" की संविरचना करने वाले निश्चित प्रकार = "तत्वों" के, "जो एक निश्चित अर्थ में ठीक वही संवेदन हैं", एक निश्चित कार के सम्बन्ध में क्या होता है? यह प्रश्न तर्क की दृष्टि से (माख़ के दृष्टिकोण से) उतना ही असम्भव है जिना कि अजैव भूतद्रव्य में संवेदनों से सम्बन्धित प्रश्न । पर इसके बावजूद हम 'संवेदनों का विश्लेषण' के लगभग हर पृष्ठ पर किसी न किसी रूप में इस प्रश्न को देखते हैं। ऐसा क्यों है?
कारण इस प्रकार है। एक प्रकृतिविद के रूप में माख, बिल्कुल अनजाने ही, भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए लगातार बाध्य रहते हैं। और जब वे ऐसा करते हैं, तो हर बार अपने "दर्शन" के प्रत्ययवादी आधार के साथ तार्किक झगड़े में उलझ जाते हैं। एक उदाहरण इस प्रकार है। माख़ कहते हैं: "अनेकानेक शरीरक्रियाविदों तथा सामयिक मनोवैज्ञानिकों के साथ ही मुझे भी... इस बात का पक्का यक़ीन है कि संकल्प की अभिव्यक्तियाँ-संक्षेप में तथा सामान्यरूपेण समझे जाने वाले शब्दों में कहें तो विशुद्ध जैव-भौतिक शक्तियों से बोधगम्य बन जायेंगी।"* यह वाक्य, "संक्षेप में तथा सामान्यरूपेण समझे जाने वाले शब्दों में कहें तो", केवल तभी सार्थक होता है जब यह किसी भौतिकवादी की ही क़लम से लिखा गया हो।**
एक और उदाहरण। उसी पुस्तक के पृष्ठ 91 में हम पढ़ते हैं : "रंग में
* 'संवेदनों का विश्लेषण', पृ. 141 142
** प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह की टिप्पणी, मैं कहता हूँ "किसी भौतिकवादी की ही क़लम से" क्योंकि माख के इस वाक्यांश का तात्पर्य यह है कि चेतना की, यानी प्रसंगतः "संकल्प की अभिव्यक्तियों" को "स्वत्व" निर्धारित करता है (उन जीवों की भौतिक संरचना से जिनमें चर्चित अभिव्यक्तियों देखी गयी है। इसलिए यह कहना निरर्थक है कि यह स्वत्य केवल अनुभूति में ग्राह्य स्वत्व है, या "संकल्प की अभिव्यक्तियों"। को उद्घाटित करने वाले स्वत्वों के संवेदनों में यह स्वत्व निश्चित रूप से "स्वत्व-निजरूप" भी है। ऐसा जान पड़ता है कि मास के लिए, एक तरफ, भूतद्रव्य चेतना की एक दशा ("अनुभव") है और दूसरी तरफ़, भूतद्रव्य, यानी जीव शरीर की भौतिक संरचना, उसके उन "अनुभवों" को निर्धारित करता है जिन्हें हमारा विचारक संकल्प की अभिव्यक्तियों कहता है।
जुझारू भौतिकवाद / 73
अभिव्यक्त रासायनिक व जीवन की दशाओं के प्रति अनुकूलन स्वाद तथा गन्ध में अभिव्यक्त रासायनिक व जीवन दशाओं के प्रति अनुकूलन के मुकाबले बहुत अधिक गति की माँग करता है।"
यह बहुत सुन्दर, लेकिन फिर भी पूर्णतः भौतिकवादी विचार है।*
तीसरा उदाहरण। माख लिखते हैं: "यदि अजैव और जैव दोनों ही पिण्डों में कोई ऐसी प्रक्रिया जारी है जो पूर्णतः उसी क्षण की परिस्थितियों से निर्धारित है और स्वयं में इस तरह सीमित है कि उससे और कोई परिणाम नहीं निकलता तो हम एक लक्ष्य की बात मुश्किल से ही कर सकते हैं, ऐसा एक मामला, मिसाल के लिए, तब होता है जब उत्तेजना से प्रकाश का संवेदन उत्पन्न होता है या पेशी-संकुलन का।** इस बात से सहमत न होना असम्भव है। लेकिन माल द्वारा विश्लेषित मामले में (प्रदत्त कर्त्ता के किसी अंग में) ऐसी उत्तेजना की पूर्वकल्पना की गयी है जिसका परिणाम संवेदन होता है। यह संवेदनों की उत्पत्ति से सम्बन्धित विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण है और मास की इस शिक्षा से कतई मेल नहीं खाता कि पिण्ड और कुछ नहीं प्रतीक है (संवेदनों के किसी समुच्चय का प्रतीक)
माख के भीतर का प्रकृतिविद भौतिकवाद की ओर प्रवृत्त है, और इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता-ग़ैर-भौतिक प्राकृतिक विज्ञान हो ही नहीं सकता। लेकिन माछ के भीतर का "दार्शनिक प्रत्ययवाद की ओर प्रवृत्त है। यह बात भी पूर्णतः बोधगम्य है-सामयिक (रूढ़िवादी) बुर्जुआजी का जनमत जो
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• [ प्रतिरक्षा से आक्रमण तक संग्रह की टिप्पणी] कुछ रासायनिक व जीवन दशाए होती हैं। उनके प्रति जीव शरीर का अनुकूलन, प्रसंगतः, "स्वाद तथा गन्ध" में पानी उस जीव शरीर के लिए विशिष्ट संवेदनों की प्रकृति में, "अभिव्यक्त होता है। यह पूछा जा सकता है क्या कोई व्यक्ति, अत्यन्त बेढंगे अन्तरविरोधों में उलझे बग़ैर, यह दावा कर सकता है कि ऊपर बतायी गयी "रासायनिक व जीवन दशाएँ" उस जीवशरीर के लिए विशिष्ट संवेदनों का समुच्चय मात्र हैं? दृष्टतः नहीं। लेकिन माख के अनुसार, यह केवल कहा ही नहीं जा सकता, बल्कि कहा ही जाना चाहिए। माख इस "दार्शनिक धारणा पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि पृथ्वी हेलों पर टिकी है, हेलें पानी में तैरती हैं और पानी पृथ्वी पर है। यही वह दृढ़ विश्वास है जिससे वे उस महान खोज के लिए उपकृत हैं जिसने मेरे युवा मित्र फ्रेडरिक एडलर को इतना प्रसन्न कर दिया (देखिये उनका पैफ्लेट : Dic Entdeckung der Weltelemente. Sonderabdruck aus No 5 der Zeitschrift Der Kampf, Wein, 1908) [fara तत्वों की खोज', 'संघर्ष' पत्रिका, अंक 5 की प्रतिलिपि, विवेना, 19081] प्रसंगतः, मैंने यह उम्मीद नहीं छोड़ी है कि किसी दिन मेरे युवा दोस्त दर्शनशास्त्र के मूल प्रश्नों पर कुछ अधिक गहराई से विचार करेंगे और माछ के साथ अपने वर्तमान सीधे-सरल व्यामोह पर स्वयं मुस्करायेंगे।
** [प्रतिरक्षा से आक्रमण तक संग्रह की टिप्पणी] पृ. 85 ।
74 / जुझारू भीतिकवाद
सामयिक (क्रान्तिकारी) सर्वहारा के साथ संघर्षरत है, भौतिकवाद के प्रति बहुत ही शत्रुतापूर्ण है, इसकी वजह से एक प्रकृतिविद के लिए अपने आपको सीधे-सीधे, जैसा कि हेकेल ने किया था, भौतिकवादी एकत्ववाद का पक्षपोषक घोषित करना कभी-कभार ही सम्भव है। माख के वक्ष में दो आत्माएँ हैं। यही उनकी विसंगति का कारण है।*
इस सबके बावजूद, मुझे एक बार फिर उनका समुचित श्रेय उन्हें देना चाहिए। उनकी जानकारी, प्रत्ययवाद या भौतिकवाद ? के प्रश्न पर ही अपर्याप्त नहीं है। वे भौतिकवाद को तो नहीं ही समझते। साथ ही, प्रत्ययवाद को भी नहीं समझते हैं। श्री बोग्दानोव, आप इस पर विश्वास नहीं करते? पढ़ते चलिये। माख शिकायत djragati mube kre diolahu edgad kv ugk h (Berkleyaner) या भौतिकवादी बनाना सम्भव समझा गया था। वे समझते हैं कि उस प्रकार का आरोप निराधार है। "मैं इस आरोप को अस्वीकार करता हूँ," वे कहते हैं।** रूसी अनुवाद के पृष्ठ 288 में यही "प्रतिवाद" दोहराया गया है। लेकिन पृष्ठ 292 में माख काण्ट के साथ अपने "अत्यन्त विलक्षण" सम्बन्ध को परिभाषित करते हुए लिखते हैं: "जैसा कि मुझे गहनतम कृतज्ञता के साथ स्वीकार करना चाहिए, काष्ट का आलोचनात्मक प्रत्ययवाद मेरे सम्पूर्ण आलोचनात्मक चिन्तन का प्रारम्भिक स्थल था। लेकिन मैंने इसके प्रति वफ़ादार रहना असम्भव पाया। जल्दी ही मैं बर्कले को, जिनके विचार कमोबेश प्रच्छन्न रूप में काण्ट में अनुरक्षित हैं, लौट गया। संवेद अंगों की क्रियाओं के क्षेत्र में अनुसन्धान तथा हर्बर्ट के अध्ययन से मैं धूम के सजातीय विचारों पर पहुँचा, यद्यपि उस समय में ह्यूम की कृतियों से
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*['प्रतिरक्षा से आक्रमण तक' संग्रह की टिप्पणी] - "गहराई तक पैठने वाले पाठक" के लिए जिसके साथ एक समय नि.ग. चेर्निशेक्स्की ने अपने उपन्यास 'क्या करें' में संघर्ष किया था, में निम्नांकित बात जोडूंगा। मैं यह कतई नहीं कहना चाहता कि माल और उन्हीं के जैसे विचारों के चिन्तक अपने तथाकथित दार्शनिक दृष्टिकोणों को सामयिक बुर्जुआजी की आप यात्मिक आवश्यकताओं के साथ सचेत रूप से समायोजित करते हैं। इस प्रकार के मामलों में, सामाजिक (या वर्गीय) चेतना का सामाजिक (या वर्गीय) स्वत्व के साथ अनुकूलन, अधिकांशतः, व्यक्ति के अनजाने ही हो जाता है। इसके अलावा, मौजूदा मामले में स्वल्य के साथ चेतना का अनुकूलन दर्शन के दायरे में भारत के रविवासरीय भ्रमणों के प्रारम्भ से पहले हो चुका था। माख का दोष मात्र इस तथ्य में निहित था कि उन्हें अपने काल की प्रमुख दार्शनिक प्रवृत्ति पर आलोचनात्मक दृष्टि डालने का समय नहीं मिला। लेकिन यह पाप कई अन्य लोगों, उनसे कहीं अधिक प्रतिभा सम्पन्न लोगों ने भी किया था।
** संवेदनों का विश्लेषण, पृ. 49, रूसी संस्करण। चौथे जर्मन संस्करण में सम्बन्धित पैरा पू. 39 में है।
जुझारू भौतिकवाद / 75
परिचित नहीं था। और आज भी मैं बर्कले और ह्यूम को काण्ट से कहीं अधिक संगत माने बिना नहीं रह सकता।" तो इससे यह नतीजा निकलता है कि आग के बिना धुँआ नहीं हो सकता। और आग भी कैसी! यह कहा जा सकता है कि यहाँ तो असली धधकती हुई लपटें हैं। वास्तव में माख़वाद किंचित नये तरीक़े से गढ़ा हुआ तथा "बीसवीं सदी के प्राकृतिक विज्ञान" के रंगों से पुनरजित बर्कलेवाद है। यह महज संयोग नहीं था कि माख़ ने अपनी रचना Erkenntnis und Irrthum विल्हेल्म शूप्पे को समर्पित की है, जो, चाहे आप कुछ भी क्यों न कहें, विशुद्ध जल के प्रत्ययवादी हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे उनके Erkenntinistheoretische Logik* को पढ़कर आसानी से सत्यापित किया जा सकता है।
लेकिन-माख़ के दर्शन के बारे में अनेकानेक "लेकिनों" के बग़ैर बात करना नामुमकिन है-हमारे यह दार्शनिक ऐसे विचार भी रखते हैं जो उन्हें, शायद, बर्कले से दूर ले जाते हैं। मसलन, वे कहते हैं: "यह सच है कि कुछ प्राणि-जातियाँ नष्ट हो गयीं और, इसी तरह, इसमें भी सन्देह नहीं कि कुछ नयी जातियाँ अस्तित्व में आयी हैं। इसलिए सुख पाने तथा पीड़ाओं से बचने के लिए प्रयत्नशील संकल्प के कार्यक्षेत्र को वंश के संरक्षण की सीमाओं से परे तक फैल जाना चाहिए। संकल्प संरक्षण के योग्य होने पर वंश का संरक्षण करता है और जब अस्तित्व में अधिक समय तक रहना उपयोगी नहीं रह जाता तो उसे नष्ट कर देता है।"**
यह कौन सा "संकल्प" है? किसका है? कहाँ से आ टपका है? बर्कले ने इसका, निश्चय ही, यह उत्तर दिया होता कि यह ईश्वर का संकल्प है। और इस तरह का उत्तर एक ईश्वरनिष्ठ व्यक्ति के मन की अनेक ग़लतफ़हमियों को दूर कर देता। श्रीमान बोग्दानोव, इसका यह फ़ायदा भी हुआ होता कि यह आपके दोस्त-महाभाग अनातोली के धार्मिक विचारों के पक्ष में एक नया तर्क भी प्रस्तुत कर सकता था। परन्तु माख ईश्वर के बारे में एक भी शब्द नहीं कहते; इसलिए हम "ईश्वर की प्राक्कल्पना" का परित्याग कर देंगे और अपना ध्यान अपने "विचारक" माख के निम्नांकित शब्दों पर केन्द्रित करेंगे: "संकल्प और शक्ति के बीच सम्बन्ध के शोपेनहार के विचार को उन दोनों में से किसी में भी कोई अधिभूतवादी बात माने बिना स्वीकार किया जा सकता है।*** जैसा कि आप देखते हैं, अब मंच पर शोपेनहार के क़दम पड़ गये हैं और अवश्यम्भावी रूप से प्रश्न पैदा होता है : संकल्प और शक्ति के बीच सम्बन्ध के शोपेनहार के विचार
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* [संज्ञानात्मक तर्कशास्त्र' ।,
** माख, 'संवेदनों का विश्लेषण, पृ. 74।
*** माख, 'संवेदनों का विश्लेषण', पृ. 74, टिप्पणी।
76 / जुझारू भौतिकवाद
में कोई कुछ भी अधिभूतवादी बात कैसे नहीं मान सकता? माख के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है और न किसी उत्तर के होने की सम्भावना ही है। खैर, जो भी हो, लेकिन यह तथ्य शेष रह जाता है जब माल ने उस संकल्प के बारे में बोलना शुरू किया जो संरक्षण के योग्य वंश का संरक्षण करता है और संरक्षण के योग्य न होने पर उसे नष्ट कर देता है, तो माल ने निकृष्टतम कोटि के अधिभूतवाद में डुबकी लगा ली।
एक और उदाहरण अपने 'संवेदनों का विश्लेषण के पृष्ठ 45 में माख "हरित-निजरूप की प्रकृति" की बात करते हैं और उन्हीं का है); यही एक ऐसी प्रकृति है जो किसी भी दृष्टि से क्यों न देखिये, अपरिवर्तनशील ही रहती है। मूल जर्मन के तदनुरूप पैरे में हम पढ़ते हैं: "das Grune an sich"* हरित-निजरूप लेकिन, "हरित-निजरूप" हो कैसे सकता है? क्या उन्हीं माख ने हमें यह आश्वस्त नहीं किया था कि किसी वस्तु "निजरूप" के होने की सम्भावना नहीं है? जरा कल्पना कीजिये। वस्तु-निजरूप माख से कहीं ज्यादा शक्तिशाली सिद्ध हो जाती है। ये उसे द्वार से बाहर भगाते हैं और वह "रंग-निजरूप" का घोर अनर्थक वेश धारण करके उड़ती हुई फिर खिड़की से भीतर आ जाती है। क्या अजेय शक्ति है!
कोई बरबस उद्गगार प्रकट करता हुआ, जैसे एल, बुखनर ने किया, कह सकता है:
O Ding an sich,
Wie lieb' ich dich,
Du, aller Dinge Ding!**
ऐसा कैसे हो सकता है? आखिर यह किस किस्म का दर्शनशास्त्र है? महानुभावो,
यही तो मुद्दा है, यह दर्शनशास्त्र है ही नहीं। मासु खुद ही इसका ऐलान करते हैं Esgibt vor allem keine Mach'sche Philosophie" (मुख्य बात यह है कि माझ का कोई दर्शन नहीं है। यह बात उन्होंने Erkenntnis und Irrthum की प्रस्तावना में कही है। यही वक्तव्य 'संवेदनों का विश्लेषण' में भी है "मैं फिर दोहराता है, माल का कोई दर्शन नहीं है।***
अच्छी बात, सत्य से कोई इनकार नहीं माख का दर्शन सचमुच नहीं है। और इसलिए नहीं है कि माख उन दार्शनिक धारणाओं को आत्मसात करने में नितान्त
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• चौथे संस्करण का पृ. 361
** वस्तुओं में वस्तु अनूप,
अनुराग मुझे कितना तुझसे,
अरे ओ वस्तु-निजरूप
***वही, पृ , . 203
जुझारू भौतिकवाद / 77
अक्षम थे जिनसे वे काम लेना चाहते थे। लेकिन, अगर वे दार्शनिक की भूमिका के लिए गम्भीरता से तैयार भी हुए होते तो स्थिति किंचित बेहतर होती। आत्मगत प्रत्ययवाद, जो उनका दृष्टिकोण था, उनको या तो अहंमाजवाद, जिसे वे नहीं चाहते थे, की ओर ले जाता या असाध्य तार्किक अन्तरविरोधों की पूरी श्रृंखला और "अधिभूतवाद" के साथ समझौते की तरफ़ मास का कोई दर्शन नहीं है। यह हम रूसी मार्क्सवादियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से मास के इस "दर्शन" को हम पर थोपा गया और हमसे इस अस्तित्वहीन दर्शन को मार्क्स की शिक्षाओं के साथ मिलाने का आग्रह किया गया। परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि माझ सरीखे दर्शन या अधिक सही बर्कले या फ़िखटे सरीखे दर्शन-को उसके लाइलाज अन्तरविरोधों से मुक्त नहीं किया जा सकता है। खास तौर से वर्तमान काल में आत्मगत प्रत्ययवाद अठारहवीं सदी में भी दर्शनशास्त्र का मृतजन्मा शिशु था और अब, प्राकृतिक विज्ञान के सामयिक वातावरण में, इसके लिए साँस लेना बिल्कुल असम्भव है। इसलिए जो लोग इसे पुनर्जीवित करना चाहते हैं उन्हें भी लगातार इसका परित्याग करना पड़ता है। मैं फिर कहता हूँ, तर्कशास्त्र के अपने ही नियम हैं।
श्रीमान योग्दानोव, मैं समझता हूँ कि अब में आपसे विदा ले सकता हूँ। मैं अब आगे केवल एक बात कहूँगा। मेरे नाम अपनी खुली चिट्ठी में आप यह शिकायत करते हैं कि रूस में दर्शनशास्त्र के मेरे सहयोगी आपके बारे में हर तरह की कपोलकल्पित कथाएँ फैला रहे हैं। आप गलती पर हैं। मैं आपको आश्वस्त करने नहीं जा रहा हूँ कि जिन लोगों पर आप जानबूझकर मैंने आपकी बात से ऐसा ही समझा है आपके विचारों को विरूपित करने का आरोप लगा रहे हैं उनमें आचरण की ऐसी नीचाइयों तक झुकने की बजाय नैतिकता की कहीं ऊँची भावना है। मैं इस प्रश्न पर विशुद्ध व्यावहारिक दृष्टि से देखता हूँ और पूछता हूँ आपके विचारों को कोई विरूपित क्यों करेगा, जबकि उनके बारे में सच-सच कहना किसी भी झूठ से कहीं अधिक हानिकारक है?
मैं -अफ़सोस- इस असन्दिग्ध सम्भावना पर आपसे हार्दिक सहानुभूति प्रकट करता हूँ।
गे. प्लेखानोव
78 / जुझारु भौतिकवाद
तीसरा पत्र
"Tu l'as voulu, Georges Dandin!"
प्रिय महोदय,
आपके नाम अपना दूसरा पत्र समाप्त किये पूरा एक वर्ष बीत गया है। मैंने सोचा था कि मेरा अब आपसे फिर कोई वास्ता नहीं पड़ेगा। परन्तु मुझे आपको यह तीसरा पत्र लिखने के लिए अपनी क़लम फिर उठानी पड़ी है। यह इस प्रकार हुआ।
1
आप विवादास्पद रूप से माख के शिष्य हैं। लेकिन सभी शिष्य एक समान नहीं होते : कुछ शिष्ट होते हैं और कुछ अशिष्ट। शिष्ट सत्य के हितों को मूल्यवान मानते हैं और अपने गुणों का बखान करने को कभी उत्सुक नहीं रहते; अशिष्ट सबसे पहले यही सोचते हैं कि अपने लिए प्रसिद्धि कैसे हासिल करें, और सत्य के हितों के प्रति उदासीन होते हैं। चिन्तन का इतिहास यह दर्शाता है कि एक शिष्य की शिष्टता लगभग हमेशा उसकी प्रतिभा के सीधे अनुपात में होती है, जबकि अशिष्टता उल्टे अनुपात में। मिसाल के लिए, चेर्निशेव्स्की को ले लीजिये। वे शिष्टता का मूर्त रूप थे। फ़ायरबाख के दार्शनिक विचारों को प्रतिपादित करते समय वे फ़ायरबाख को श्रेय देने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे और उन विचारों तक के लिए ऐसा करते थे जो स्वयं उनके अपने होते थे। अगर उन्होंने फ़ायरबा के नाम की चर्चा नहीं की तो केवल सेंसरशिप के कारण। उन्होंने पाठकों को यह जताने के लिए वह सब कुछ किया जो वे कर सकते थे कि 'सोब्रेमेन्निक' किसके दार्शनिक सिद्धान्तों का पक्षपोषण कर रहा है। वे दर्शनशास्त्र के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी इतने ही शिष्ट थे। समाजवाद के क्षेत्र में चेनिशेव्स्की पश्चिम यूरोप के कुशाग्रबुद्धि यूटोपियाइयों के अनुयायी थे। फलतः, अपने समाजवादी विचारों के प्रस्तुतीकरण व पक्षपोषण के समय वे अपनी अन्तर्जात शिष्टता से पाठकों को
जुझारू भौतिकवाद / 79
बारम्बार सुस्पष्टता से बताते थे कि ये विचार, सही-सही तौर पर, उनके नहीं बल्कि उनके "महान पश्चिमी शिक्षकों" के हैं। इन सब बातों के बावजूद चेर्निशेक्की ने अपनी दार्शनिक कृतियों तथा अपने समाजवादी लेखों, दोनों ही में अपनी बुद्धि, तर्क, ज्ञान और प्रतिभा की प्रचुरता का प्रदर्शन किया है। पुनरावृत्ति के लिए एक शिष्य की शिष्टता लगभग हमेशा उसकी प्रतिभा के सीधे अनुपात में होती है और अशिष्टता उल्टे अनुपात में आप अशिष्ट शिष्यों की श्रेणी के हैं। रूस में माख के "दर्शन" का प्रचार करते हुए आप जिन गुणों का उद्घाटन करते हैं ये फायरबाख के दर्शन के प्रचार में चेर्निशेक्की द्वारा प्रदर्शित गुणों से बिल्कुल उल्टे हैं आप विचारों की स्वाधीनता और मौलिकता का दावा करते हैं। आपने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि मैंने अपने दूसरे पत्र में अपने कुछ दार्शनिक विचारों के सम्बन्ध में आपकी तथाकथित आलोचनात्मक टिप्पणियों का खण्डन करके अपने आपको उन असाध्य और वस्तुतः हास्यास्पद अन्तरविरोधों से निबटने तक ही सीमित रखा जिनमें माख ने अपने आपको उलझा लिया था, और मैंने आपके अपने मनगढन्त विचारों को हाथ में लेना आवश्यक नहीं समझा। कोई भी व्यक्ति, जो तर्कशास्त्र के मामले में बिल्कुल कोरा नहीं है, यह जानता है कि जब एक दार्शनिक सिद्धान्त का आधार ढह जाता है, तो उस आधार की घोषणा करने वाले विचारक के शिष्यों द्वारा उस पर बनाये गये ढाँचों का ढहना भी सुनिश्चित होता है। और अगर माड़ के साथ आपके अपने सम्बन्धों के बारे में हर कोई जानता होता तो सभी फ़ौरन समझ जाते कि माझ्वाद के ध्वस्त होने के साथ ही आपकी अपनी दार्शनिक संरचनाएँ भी धूल और मलबे के सिवा कुछ न रहतीं। लेकिन जैसे अशिष्ट विद्यार्थी आप हैं, आपने मान के साथ अपने असली रिश्ते को अपने पाठकों से छुपाने के लिए हर तरह की सावधानी बरती। फलतः, ऐसे लोग बचे हुए हो सकते हैं, जो उस निर्लज्जता से प्रभावित हो सकते हैं जिसकी मदद से आप-मिसाल के लिए, जैसा आपने अपने नाम मेरे दूसरे पत्र के प्रकाशित होने के तुरन्त बाद एक सार्वजनिक सभा में करने की कोशिश की यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। कि माढ़ के "दर्शन" के लिए उठायी गयी आपत्तियों का आपसे कोई वास्ता नहीं है। ऐसे ही लोगों के लिए मैं अपनी क़लम फिर उठा रहा हूँ मैं उन्हें उनके भ्रमों से मुक्त करना चाहता हूँ। जब मैंने आपको अपने पहले दो पत्र लिखे तो मेरे पास अपेक्षाकृत कम जगह थी और में मूल तथा प्रतिलिपि दोनों से नहीं निबट सका। स्वाभाविक है कि मैंने मूल का विश्लेषण करना पसन्द किया। अब मुझे जगह की ऐसी तंगी नहीं है और इसके अलावा मेरे पास कुछ फ़ालतू दिन भी हैं। अतः मैं आपके साथ निबट सकता हूँ।
.80 / जुझारू भौतिकवाद
2
आप कहते हैं : "मैंने माख़ से बहुत कुछ सीखा है। मैं समझता हूँ कि कामरेड बेल्तोव भी इस असाधारण वैज्ञानिक और विचारक से, वैज्ञानिक अंधश्रद्धा के इस ..महान विनाशक से दिलचस्पी की बहुत बातें सीख सकते हैं। युवा कामरेडों को मेरी सलाह है कि वे इस दलील से गड़बड़ में न पड़ें कि माख मार्क्सवादी नहीं हैं। उन्हें कामरेड बेल्तोव के उदाहरण पर चलना चाहिए जिन्होंने हेगेल और होल्बाख़ से जो, अगर मैं ग़लती नहीं कर रहा हूँ तो, दोनों ही, मार्क्सवादी नहीं थे, इतना अधिक सीखा है। लेकिन मैं अपने आपको दर्शनशास्त्र में माख़वादी नहीं कह सकता। सामान्य दार्शनिक सिद्धान्त में मैंने माख़ से सिर्फ एक चीज़ ग्रहण की है- 'भौतिक') और 'मानसिक' के सम्बन्ध में अनुभव के तत्वों की तटस्थता और केवल अनुभव के सम्बन्ध पर इन विशिष्ट गुणों की निर्भरता। आगे की सारी बातों-मानसिक और भौतिक अनुभव की उत्पत्ति का सिद्धान्त, प्रतिस्थापना का सिद्धान्त, उक्त बातों पर आधारित विश्व की सामान्य परिकल्पना में जटिल प्रक्रियाओं के 'व्यतिकरण' के बारे में शिक्षा-इन सब में मेरे और माख़ के बीच उभयनिष्ठ कुछ नहीं है। संक्षेप में, कामरेड बेल्लोब जितने 'होल्बाखवादी' है, मैं उससे कहीं कम 'माख़वादी' हूँ और आशा करता हूँ कि यह चीज़ हम दोनों को अच्छे अच्छे मार्क्सवादी होने से नहीं रोक सकती है। "*
मैं अपनी या अपने विरोधी की बड़ाई करके आपका अनुकरण नहीं करूँगा। जहाँ तक विरोधी, यानी, प्रिय महोदय, आपका सम्बन्ध है, मुझे आशंका है कि मुझको एक बार फिर दयामया छोड़नी होगी और आपको याद दिलाना होगा कि मैंने अपने पहले पत्रों में क्या कहा था-यानी यह कि कोई भी व्यक्ति जो मार्क्स और एंगेल्स के विश्व दर्शन के भौतिकवादी आधार को नकारता है उसके लिए एक "अच्छा मार्क्सवादी" होना कैसा घोर असम्भव है।** आप "अच्छा मार्क्सवादी" होने से कोसों दूर ही नहीं हैं बल्कि उन सब लोगों को आकृष्ट करने की बदक़िस्मती भी
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*अ. बोग्दानोब, 'अनुभवात्मक एकत्ववाद', तीसरा खण्ड, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 12
**यहाँ मैं एक छोटी सी बात और कहूँगा : 'ड्र्यूहरिंग मत खण्डन' के दूसरे संस्करण की प्रस्तावना में एंगेल्स ने कहा है: "मार्क्स और में ही एकमात्र ऐसे लोग थे जिन्होंने सचेतन द्वन्द्वबाद को जर्मन प्रत्ययवादी दर्शन से लेकर प्रकृति तथा इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना में लागू किया" (फ्रे. एंगेल्स, 'दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र, समाजवाद', सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1907, पृ. 5) 29। जैसा कि आप देखते हैं, एंगेल्स के लिए प्रकृति का भौतिकवादी स्पष्टीकरण सही विश्व दर्शन का उतना ही आवश्यक अंग था जितना कि इतिहास का भौतिकवादी स्पष्टीकरण। इस बात को वे लोग बहुधा बहुत आसानी से भूल जाते हैं जिनका झुकाव सारसंग्रहबाद की या, जो लगभग वही चीज़ है, सैद्धान्तिक "संशोधनवाद" की तरफ़ है।
जुझारू भौतिकवाद / 81
आपकी ही है जो मार्क्सवादी की पदवी का दावा करते हुए अपने दृष्टिकोण को हमारे सामयिक बुर्जुआ अतिमानव की रुचि के अनुकूल बनाना चाहते हैं। लेकिन यह बात यही प्रसंगतः कही गयी। मैंने आपके शब्द सिर्फ़ यह दिखलाने के लिए उद्धृत किये कि आपने अपने शिक्षक माख के प्रति अपने रवैये के स्पष्टीकरण में आत्मप्रबंधना की कैसी बड़ी मात्रा इन्जेक्ट की है। यदि आपका विश्वास कर लिया जाता तो ऐसा लगता कि आप और माख में "अनुभवात्मक एकत्ववाद" की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रस्थापनाओं की एक पूरी श्रृंखला में बहुत ही कम समानता है। मुश्किल यह है कि मौजूदा मामले में हम आपका यक़ीन नहीं कर सकते हैं। आप मिथ्या अहंकार से अंधे हो गये हैं। इस बात पर पक्का यकीन करने के लिए इस अविवादास्पद और अत्यन्त सरल परिस्थिति को ध्यान में रखने में जरूरत है कि जहाँ आप अपने स्वयं को अपने शिक्षक से स्वाधीन होने की कल्पना करते हैं वहाँ भी आप सिर्फ उस शिक्षा को बिगाड़ते भर हैं जिसे आपने उनसे ग्रहण किया था। यही नहीं, आप यह हरकत उसकी भावना के प्रति पूर्णतः सच्चे रहकर करते हैं जिससे आपका सारा का सारा "अनुभवात्मक एकत्यवाद" उस चीज़ को स्पष्टरूपेण निरर्थक बनाने के सिवा और कुछ नहीं रहता जो चीज आपके शिक्षक के सिद्धान्त में सम्भावित रूप से निरर्थक थी (absurdum an sich* जैसा कि हेगेल ने कहा होता)। यह किस प्रकार की स्वाधीनता है? इसमें स्वाधीनता का कहीं कोई संकेत भी है? काफ़ी हो गया, हमारे माननीय मित्र! आपके हास्यास्पद मिथ्यापूर्ण दावे आलोचना की हलकी सी साँस में ताश के महल की तरह धराशायी हो जाते हैं।
आप मुझे अन्यायी समझते हैं? यह बोधगम्य बात है। मैं फिर कहता हूँ, आप मिथ्या अहंकार से अंधे हो गये हैं। लेकिन मामला ठीक वैसा ही है जैसा मैंने कहा है।
प्रमाण? उनकी कोई कमी नहीं है। फ़िलहाल, मैं "आलोचनात्मक अनुभववाद" के दर्शन में आपके योगदानों की ऊपर बतायी गयी सूची में से पहले को लेता हूँ, आपका "भौतिक और मानसिक अनुभव की उत्पत्ति का सिद्धान्त" । इस सिद्धान्त से अधिक आपका लाक्षणिक और कुछ नहीं हो सकता है, इसलिए यह हर तरह से ध्यान देने लायक है। यह सिद्धान्त किससे निर्मित है? इससे :
माख और आवेनारिउस के "समसामयिक विज्ञान की उपलब्धियाँ पर गहराई से आधारित** विश्व दर्शन को प्रतिपादित करके और यह टिप्पणी जोड़कर कि "यदि हम इस दर्शन को आलोचनात्मक विकासात्मक और समाज वैज्ञानिक दृष्टि
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• [निरर्थकता-निजरूप।]
**प्रिय महोदय, स्पष्ट है कि मैं आपकी "मौलिक शैली की पाठक के सामने सारी जिम्मेदारियों को अस्वीकार करता हूँ।
82 / जुझारू भौतिकवाद
से प्रत्यक्षवाद से रंजित कहें तो हम दार्शनिक चिन्तन की उन मुख्य धाराओं को एकबारगी इंगित करेंगे जो इसमें मिलकर एक सरिता बन जाते हैं"* आप आगे कहते हैं :
"भौतिक और मानसिक सभी को एक समान तत्वों में परिणत करते हुए आलोचनात्मक अनुभववाद किसी प्रकार के द्वैतवाद की सम्भावना नहीं रहने देता। लेकिन यहाँ एक नया आलोचनात्मक प्रश्न पैदा हो जाता है: द्वैतवाद का खण्डन कर दिया गया है, उन्मूलन कर दिया गया है, लेकिन क्या एकत्ववाद उपलब्ध हो गया है? क्या माख़ और आवेनारिउस का दृष्टिकोण हमारे चिन्तन को द्वैतवादी प्रकृति से सचमुच मुक्त कर देता है? हमारे पास इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। "**
फिर आप यह स्पष्ट करते हैं कि आप अपने शिक्षकों से असन्तुष्ट होने के लिए अपने आपको "विवश" क्यों पाते हैं। आप कहते हैं कि इन लेखकों के अभी भी दो सिद्धान्ततः भिन्न और किसी उच्चतर नियम के अन्तर्गत एक होने के लिए अप्रभाव्य दो सम्बन्ध हैं। यह हैं: एक ओर भौतिक श्रेणियों का सम्बन्ध और दूसरी और मानसिक श्रेणियों का सम्बन्ध। आवेनारिउस इसमें द्वैतता तो देखते हैं पर द्वैतवाद नहीं। आप उनके इस विचार को ग़लत मानते हैं।
आप दलील देते हैं: "तथ्य यह है कि पूर्ण व सुसंगत संज्ञान के लिए सिद्धान्ततः भिन्न और एक में परिणत न किये जा सकने वाले नियम सिद्धान्ततः भिन्न तथा एक न बनायी जा सकने वाली वास्तविकताओं से किंचित ही बेहतर होते हैं। जब अनुभव का क्षेत्र दो ऐसी श्रेणियों में बँट जाता है जिनके साथ संज्ञान बिल्कुल भिन्न-भिन्न ढंग से क्रिया करने को बाध्य हो जाता है, तो संज्ञान अपने को समूचा व सामंजस्यपूर्ण नहीं महसूस कर सकता है। हमारे सामने अवश्यम्भावी रूप से कई ऐसे प्रश्न उठ खड़े होते हैं जिनका लक्ष्य द्वैतता को दूर करना और उसे उच्चतर एकत्व से प्रतिस्थापित करना होता है। मानव अनुभव की एकीकृत सरिता में एक दूसरे से सिद्धान्ततः भिन्न दो नियम कैसे हो सकते हैं? और ठीक दो ही क्यों? निर्भर 'मानसिक' श्रेणी का ठीक तत्रिकातंत्र के साथ ही घनिष्ठ कार्यिक सम्बन्ध क्यों होता है और किसी अन्य पिण्ड' के साथ क्यों नहीं होता; और अन्य प्रकार के 'पिण्डों' के साथ जुड़ी अनगिनत निर्भर श्रेणियाँ अनुभव के क्षेत्र में क्यों नहीं होती? तत्वों के कुछ समुच्चय अनुभव की दोनों श्रेणियों-'पिण्डों तथा 'संकल्पनाओं के रूप में क्यों प्रकट होते हैं, जबकि अन्य पिण्ड के रूप में कभी
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*अनुभवात्मक एका पहला खण्ड मास्को, 1908, पृ. 18।
** वही पृ. 18-19
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नहीं होते और हमेशा एक श्रेणी में सम्मिलित होते हैं, आदि ?*
चूँकि "समसामयिक विज्ञान की उपलब्धियों पर गहराई से आधारित" मान्ड और आवेनारिउस का विश्व दर्शन आपके अनगिनत और गहन "क्यों क्यों?" को उत्तर नहीं दे सकता, इसलिए आपने अपने लाक्षणिक आत्मविश्वास से "इस द्वैत को दूर करने का बीड़ा उठाया हैं,"** और ठीक यहीं, "इस द्वैतता" के विरुद्ध आपकी लड़ाई में, आपकी दार्शनिक प्रतिभा पूरी शान से प्रदर्शित होती है।
सबसे पहले आप यह स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि अनुभव की दो श्रेणियों भौतिक और मानसिक के बीच भिन्नता कहाँ है; और फिर आप "यदि सम्भाव्य लगता है तो इस भिन्नता की उत्पत्ति की छानबीन करने"*** की कामना करते हैं। इस प्रकार जो समस्या आप अपने लिए बनाते हैं वह दो अलग-अलग समस्याओं में बँट जाती है। इनमें से पहली को निम्नांकित ढंग से हल किया जाता है।
आपके अनुसार, हर भौतिक चीज़ का एक स्थायी लक्षण उसकी वस्तुगतता है। भौतिक हमेशा वस्तुगत होता है। इसलिए आप वस्तुगत के लिए एक परिभाषा खोजने की कोशिश करते हैं। आपका यह विश्वास दृढ़ होने में देर नहीं लगती कि निम्नांकित परिभाषा को सर्वाधिक सही स्वीकार किया जाना चाहिए :
"हम अनुभव की उस आधार सामग्री को वस्तुगत कहते हैं जिसका हमारे तथा अन्य लोगों के लिए एक ही जीवन्त अर्थ होता है, यह वह आधार सामग्री है। जिस पर, अन्तरविरोधों के बग़ैर, केवल हम ही अपने क्रियाकलापों का निर्माण नहीं करते हैं बल्कि जिस पर, हमें दृढ़ विश्वास है, अन्य लोग भी, अन्तरविरोधों से बचने के लिए, अपने आपको आधारित करते हैं। भौतिक जगत का वस्तुगत लक्षण इस तथ्य में निहित है कि इसका अस्तित्व व्यक्तिगत रूप मेरे लिए ही नहीं है बल्कि सबके लिए है और इसका हर किसी के लिए एक निश्चित अर्थ है और मुझे पक्का यक़ीन है कि वहीं अर्थ है जो मेरे लिए है। भौतिक श्रेणी की वस्तुगतता इसके सार्वभौमिक महत्व में निहित है। जहाँ तक अनुभव में आत्मगतता' का सम्बन्ध है यह वह है जिसका सार्वभौमिक महत्व नहीं है, जिसका केवल एक या कुछ। व्यक्तियों के लिए अर्थ होता है। "****
इस परिभाषा को, जो वस्तुगतता को सार्वभौमिक महत्व की बताती है और सार्वभौमिक महत्व को विभिन्न लोगों के अनुभव के समन्वय में समेट लेती हैं खोज निकालने के बाद आप विश्वास करते हैं कि आपने उन दो द्वितीयक समस्याओं
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*'अनुभवात्मक एकत्ववादा, पहला खण्ड, पृ. 19-20
**वही, पृ. 20
***वही।
****वही, पृ. 22-23।
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में से पहली को हल कर लिया है जिनमें आपने अपनी मुख्य समस्या को विभाजित किया था। अब आप दूसरी की ओर बढ़ते हैं। आप पूछते हैं: "हमें यह समन्वय, यह पारस्परिक अनुरूपता कहाँ से मिलती है? क्या इसे 'पूर्वस्थापित सामंजस्य' या विकास का परिणाम मान लेना चाहिए? "* यह समझना आसान है कि आप इन प्रश्नों को किस अर्थ में हल करते हैं: आप "विकास" के पक्ष में हैं। आप कहते हैं :
"जैसा कि हम जान गये हैं, अनुभव के 'भौतिक' क्षेत्र का एक सामान्य लक्षण वस्तुगतता, या सार्वभौमिक महत्व है। भौतिक जगत से हम केवल उसे सम्बन्धित करते हैं जिसे हम वस्तुगत मानते हैं.... इस 'वस्तुगतता' में अभिव्यक्त सामूहिक अनुभव का समन्वय केवल पारस्परिक शब्दोच्चारणों के जरिए विभिन्न लोगों के अनुभव के प्रगतिशील समन्वय के फलस्वरूप ही प्रकट हो सकता है। अपने अनुभवों में हमें जिन भौतिक पिण्डों का सामना होता है उनकी वस्तुगतता, अन्तिम विश्लेषण के अनुसार, पारस्परिक सत्यापन तथा विभिन्न लोगों के शब्दोच्चारणों के समन्वय से ही प्रकट होता है। सामान्यतः भौतिक जगत समाज-समन्वित, समाज द्वारा सामंजस्यीकृत, संक्षेप में, सामाजिक रूप से संगठित अनुभव है।"**
यह स्वयं में पर्याप्त रूप से स्पष्ट है। लेकिन आपको ग़लत समझ लिये जाने की आशंका है। आप यह मान लेते हैं कि कोई एक व्यक्ति पूछ सकता है क्या एक व्यक्ति, जिसका एक पैर पत्थर से छिल गया हो, उस पत्थर की वस्तुगतता पर विश्वास करने के लिए किसी अजनबी के शब्दोच्चारण की प्रतीक्षा करे? जो प्रश्न निश्चय ही व्यर्थ नहीं है उसे पहले से ही टालने के लिए आप उत्तर देते हैं :
"बाह्य वस्तुओं की वस्तुगतता, अन्तिम विश्लेषण के अनुसार, हमेशा शब्दोच्चारणों के विनिमय में सीमित हो जाती है, लेकिन बहुधा उस पर प्रत्यक्षतः आधारित नहीं होती। सामाजिक अनुभव की प्रक्रिया में निश्चित सामान्य सम्बन्धों, सामान्य नियमों-नियमितताओं (अमूर्त देश और काल भी इन्हीं में हैं) की रचना होती है जो भौतिक जगत की लाक्षणिक विशेषता होती हैं और इसे आवेष्टित करती हैं। सामाजिक रूप से निर्मित तथा घनीभूत ये सामान्य सम्बन्ध अधिकांशत: अनुभव के सामाजिक समन्वय द्वारा जुड़े होते हैं, और ज़्यादातर वस्तुगत होते हैं। हर नया अनुभव जो इन सम्बन्धों के साथ पूर्णतः मेल खाता है, जो पूर्णतः इन सम्बन्धों की सीमा में होता है, उसे हम, किसी के शब्दोच्चारणों की प्रतीक्षा किये बगैर, वस्तुगत मानते हैं। नया अनुभव, स्वभावतः, उस पुराने अनुभव को ग्रहण करता है जिसके
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वही, पृ. 23।
वही, पृ. 32-33।
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रूप में वह घनीभूत होता है।*
प्रिय महोदय, आप देख रहे हैं कि आपकी रायों की व्याख्या करने में मैंने आपको उससे, जिसे कुछ पाठक, मसलन श्री दाउगे, भोलेपन में "अ. बोग्दानोव का दर्शन" मानते हैं, निबटने में एक सर्वाधिक योग्य व्यक्ति मानकर आपको अपने बारे में बोलने का अधिकार खुशी के साथ प्रदान किया है। आप यह नहीं कह सकते कि आपके विचारों को अपने शब्दों में पेश करके मैंने उनकी विषय-वस्तु बदल दी है। यह एक बड़ी सुविधा है। इसलिए, मैं आपको अपनी तरफ से फिर बोलने का निमंत्रण देता हूँ, ताकि पत्थर के आपके उदाहरण के सम्बन्ध में सम्भवतः उत्पन्न किसी भी ग़लतफ़हमी को दूर किया जा सके। आप कहते हैं कि पत्थर किसी वस्तुगत चीज़ के रूप में हमारे सम्मुख इस कारण आता है, कि यह भौतिक जगह की देशीय व कालिक संघनता के बीच पाया जाता है। लेकिन यह आपत्ति उठायी जा सकती है कि प्रेतादि भी भौतिक जगत की देशीय व कालिक संघनता में भटकते हैं। क्या, सचमुच, प्रेतादि भी "वस्तुगत" हैं? आप कृपाभाव से मुस्कराते हैं और टिप्पणी करते हैं कि प्रतिभासों की वस्तुगतता विकसित होते हुए सामाजिक अनुभव के नियंत्रण के अन्तर्गत आती है और कभी-कभी उसी के द्वारा मंसूख" कर दी जाती है: "जो पिशाच रात में मेरा गला घोंटता है उसमें मेरे लिए वस्तुगतता है और शायद उस पत्थर से तिलभर भी कम नहीं जिससे टकराकर मुझे चोट आती है, लेकिन अन्य लोगों के उच्चारणों से यह वस्तुगतता जाती रहती है। यदि वस्तुगतता की इस उच्चतर कसीटी को भुला दिया जाता है तो क्रमबद्ध दृष्टिभ्रमों से एक ऐसे वस्तुगत जगत की रचना हो सकती है जिससे स्वस्थ लोग मुश्किल से ही सहमत हो सकते हैं।"**
3
अब मैं कुछ समय के लिए आपको परेशान करना बन्द कर दूंगा। आप काफी बोल चुके हैं; मैं आपके शब्दों पर विचार करना चाहता हूँ। जब जब हमारे पास आपक कृपा से, "वस्तुगतता की एक उच्चतर कसौटी है, मैं यह जाँचना चाहूंगा कि इसके बारे में आपका अपना "सिद्धान्त" ठीक कितना "वस्तुगत है, पानी तात्पर्य यह है कि आत्मवाद से कितना असम्बद्ध है।
व्यक्तिगत बात है, रात में कोई भूत-पिशाच कभी भी मेरा पता नहीं घोटता। लेकिन कहा जाता है कि जमोक्योरेध्ये के सौदागरों की मोटी-ताजी पत्नियों के
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वही, पृ. 53
वही, पृ. 34
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साथ, जो सोने से ठीक पहले भरपेट भोजन करना पसन्द करती हैं, अक्सर ऐसा होता है। इन योग्य महिलाओं के लिए भूत-पिशाच उन पत्थरों से कम वस्तुगत नहीं हैं जिनसे जमोस्क्वोरेच्ये की सड़कें (दुर्भाग्यवश, हमेशा नहीं) पटी रहती हैं। प्रश्न पैदा होता है क्या पिशाच वस्तुगत हैं? आप समाश्वासन देते हैं कि नहीं हैं, क्योंकि अन्य लोगों के शब्दोच्चारणों से उनकी वस्तुगतता" जाती रहती है। यह, पक्की बात है, बड़ी सुखद चीज है, क्योंकि सभी सहमत होंगे कि भूत-पिशाचों के साथ की बजाय भूत-पिशाचों के बिना जिन्दगी ज़्यादा शान्तिमय होगी। लेकिन यहाँ हम एक छोटी परन्तु कुटिल "रुकावट" से आ टकराते हैं। इसमें शक नहीं कि आजकल ऐसे काफ़ी लोग हैं जो इस बात का पक्षपोषण करते हैं कि शैतानों का, सामान्यतः, और भूत-पिशाचों का मुख्यतः, कोई अस्तित्व नहीं है। आजकल इन सब दुष्टात्माओं को सार्वभौमिक महत्व" के प्रमाण चिह्न से वंचित कर दिया गया है। लेकिन एक ऐसा जमाना था और बहुत ही लम्बा- जब यह प्रमाणचिह्न पूर्णरूपेण "दुष्टात्माओं" का अपना चिह्न था और जब भूत-पिशाचों की वस्तुगतता से इनकार करने की बात किसी के दिमाग़ में नहीं आती थी। इससे क्या निष्कर्ष निकलता है? कि तब भूत-पिशाच वस्तुगत रूप से अस्तित्वमान थे? यदि हम आपकी "वस्तुगतता की उच्चतर कसौटी" की दृष्टि से तर्क करें तो हमें सकारात्मक उत्तर देना चाहिए। यह "उच्चतर कसौटी" कितनी अधिक निरर्थक है, इसे समझने के लिए तथा वस्तुगतता के आपके सिद्धान्त को, एक सर्वाधिक अकुशल विद्यादम्भी व्यक्ति के सर्वाधिक असंगत कार्य के रूप में, ठुकराने के लिए केवल इतना ही पर्याप्त है।
कुछ आगे चलकर आप इस प्रश्न को एक और मोड़ देते हैं। आप कहते हैं : "सामाजिक अनुभव सामाजिक रूप से पूर्णतः संगठित नहीं होता है और उसमें हमेशा ऐसे विविध अन्तरविरोध होते हैं और उसके कुछ अंशों का अन्य से मेल नहीं बैठता है। प्रेत और भूत-पिशाच किसी विशेष जनता या जनता के विशेष वर्गों-मसलन किसानों के सामाजिक अनुभव के दायरे में विद्यमान हो सकते हैं. लेकिन उन्हें सामाजिक रूप से संगठित या वस्तुगत अनुभव के अन्तर्गत शामिल करने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि वे शेष सामूहिक अनुभव के साथ मेल नहीं खाते और उसके संगठनकारी रूपों, उदाहरणार्थ कार्य कारण सम्बन्ध को श्रृंखला, में फ़िट नहीं होते।"*
प्रेत और भूत-पिशाच शेष सामूहिक अनुभव के साथ मेल नहीं खाते सचमुच, प्रिय महोदय, यदि समस्त जनता विशेष प्रेतों और भूत-पिशाचों के अस्तित्व पर विश्वास करती है तो "शेष" किसके "अनुभव" से? यह स्पष्ट है कि प्रेम और
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• 'अनुभवात्मक एकत्यवाद, पहला खण्ड, पृ. 41, टिप्पणी ।
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भूत-पिशाच इस जनता विशेष के सामूहिक अनुभव का रंचमात्र भी प्रतिकार नहीं करते। आप शायद यह उत्तर देंगे कि शेष सामूहिक अनुभव के बारे में बातें करते समय आपके मन में अधिक विकसित जनता का सामूहिक अनुभव था। यदि ऐसा है, तो मैं आपसे नम्र निवेदन करता हूँ कि आप हमें यह बतायें कि जिस जमाने में सर्वाधिक विकसित जनता भी प्रेतों और भूत-पिशाचों पर विश्वास करती थी उस ज़माने में यह मामला कैसा था? ऐसी एक अवधि सचमुच थी। इसे आप स्वयं जानते हैं (आदिम सर्वात्मवाद 30 ) । फलतः, आदिम सर्वात्मवाद की अवधि में प्रेत व भूत-पिशाचों तथा सामान्यतः हर प्रकार की आत्माओं का वस्तुगत अस्तित्व था। और जब तक आप अपनी "वस्तुगतता की उच्चतर कसौटी" से चिपके रहेंगे तब तक आपको कोई भी चीज इस निष्कर्ष से नहीं बचा सकती है।
और कार्य कारण सम्बन्ध की श्रृंखला! आप किस अधिकार से यहाँ इसका जिक्र करते हैं? क्या कुछ पृष्ठ पहले आपने यह ऐलान नहीं किया था कि "ह्यूम के पास कार्य-कारण सम्बन्ध के निरपेक्ष सार्वभौमिक महत्व से इनकार करने का हर आधार था"?* आपके अनुभव सिद्धान्त की दृष्टि से देखने पर यह बात पूर्णतः बोधगम्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार, कार्य कारण सम्बन्ध तो "समाज के संज्ञानात्मक विकास का अपेक्षतया नया उत्पाद था"। इसके अलावा, इस उत्पाद के विकास की एक विशेष अवधि (सर्वात्मवाद की अवधि) में प्रेतों तथा भूत-पिशाचों की धारणा का कार्य कारण सम्बन्ध की धारणा के साथ पूर्ण सामंजस्य था। इसलिए, साफ़ ज़ाहिर है कि आपके दृष्टिकोण से कार्य कारण सम्बन्ध "वस्तुगतता की उच्चतर कसौटी" का काम नहीं दे सकता है।
नहीं, श्रीमान बोग्दानोव, आप कैसी ही कलाबाजियों क्यों न दिखायें आप भूत-पिशाचों और प्रेतों से, जैसा कि कहा जाता है, न तो क्रूस से पीछा छुड़ा सकते हैं और न मूसल से अनुभव का एक सही सिद्धान्त ही आपको उनसे "छुटकारा" दिला सकता है, लेकिन आपका "दर्शन" ऐसे सिद्धान्त से उतना ही दूर है जितना कि हम आकाश के तारों से हैं।
•वस्तुगतता के आपके सिद्धान्त के सुस्पष्ट और अविवादास्पद अर्थ से निर्देशित होकर, हमें पिशाच के अस्तित्व से सम्बन्धित इस प्रश्न का इस तरह से उत्तर देना चाहिए एक ऐसा समय था जब पिशाच का वस्तुगत अस्तित्व था; कालान्तर में यह "दादाजी" (जैसा कि हमारे किसान उसे अभी हाल तक कहा करते थे) अपना वस्तुगत अस्तित्व गंवा बैठा, और अब केवल जमोस्क्वोरेच्ये के सौदागरों की पत्नियों के लिए तथा उन अन्य व्यक्तियों के लिए ही अस्तित्व में है जिन्हें उसी अर्थ में
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*अनुभवात्मक एकत्यवाद', पहला खण्ड, पृ. 34, टिप्पणी |
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"शब्दोच्चारण" करने की उपहासास्पद आदत है जैसे कि वे करती हैं।
"यह पिशाच कैसे "विकास" से होकर गुजरा! और क्यों "गुजरा"? क्योंकि लोगों ने उसके खिलाफ़ "शब्दोच्चारण" करना शुरू कर दिया। यह मानना ही पड़ेगा कि कभी-कभी कुछ उल्लेखनीय "शब्दोच्चारण" सुनने को मिलते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि पिशाच के ख़िलाफ़ सामयिक "शब्दोच्चारण" उसे उसके वस्तुगत अस्तित्व से वंचित कर देते हैं, जबकि मध्यकाल में मंत्रोच्चारणों और झाड़-फूंक से ही उनसे "मुक्ति" दिलायी जा सकती थी। इस पद्धति से एक विशेष सौदागर की पत्नी एक पिशाच को भगा सकती थी, लेकिन उसका पूरा सफ़ाया नहीं कर सकती थी, लेकिन आजकल की स्थिति इससे कहीं बेहतर है !
और इसके बावजूद, ऐसे लोग अभी भी मौजूद हैं जो प्रगति की शक्ति पर सन्देह करते हैं!
अगर कभी ऐसा वक़्त था, जब पिशाचों का वस्तुगत अस्तित्व था तो यह मी कल्पना की जा सकती है कि साथ ही साथ यही वस्तुगत अस्तित्व, मिसाल के लिए, डाकिनियों पर भी लागू होता होगा। ऐसा होने पर, हम उन न्यायिक कार्यवाहियों के बारे में क्या सोचें जिनके जरिए मध्यकाल के लोग शैतान, जो तब "वस्तुगत रूप से" अस्तित्व में था, के कुछ अप्रिय षड्यंत्रों को खत्म करने की उम्मीद करते थे? ऐसा प्रतीत होगा कि इन कार्यवाहियों का, जिनकी बाद में घृणित मानकर निन्दा की गयी, कुछ "वस्तुगत" आधार था। क्या यह सच नहीं है, श्री बोग्दानोव ?
यह साफ़ जाहिर है कि आपकी "वस्तुगतता की उच्चतर कसौटी" की मदद से जाँच करने के बाद मानव-चिन्तन का इतिहास नितान्त भिन्न रूप धारण कर लेना। यह स्वयं में एक बढ़िया बात है। यह किसी एक को महान दार्शनिक प्रतिभा की पदवी दिलवाने के लिए काफ़ी है। लेकिन प्रश्न अभी खत्म नहीं हुआ है और किसी भी हालत में नहीं हुआ है। आपकी "वस्तुगतता की उच्चतर कसौटी" की दृष्टि से देखने पर पृथ्वी का सारा इतिहास एक नये प्रकाश में सामने आता है। पिछले 70 वर्षों की अवधि में प्राकृतिक विज्ञान विकास के विचार में पारंगत होने के लिए प्रयत्नशील है। लेकिन श्री बोग्दानोव, आपको सुनने के बाद, हम यह स्वीकार करने के लिए मजबूर हैं कि विकास के जिस विचार में आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान धीरे-धीरे पारंगत होता जा रहा है, उसमें विकास के उस विचार के साथ कुछ भी समानता नहीं है जिसे आपने, जैसा कि आप ही कहते हैं, उसी प्राकृतिक विज्ञान के सहारे प्रस्तुत किया है। इस मामले में आपने, निर्विवाद रूप से, एक और क्रान्ति सम्पन्न कर डाली है। आप दोहरी महान प्रतिभा हैं!
हम सब अबोध लोगों को, जो विकास के पुराने सिद्धान्त से जुड़े हैं, दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य के उद्भव और फलतः, मनुष्य के "उच्चारणों" से पहले
जुझारू भौतिकवाद / 89
हमारी पृथ्वी के विकास की एक बहुत लम्बी अवधि थी। फिर आप प्रकट हुए और, मोलियेर के स्गानारेल 3' की तरह, Vous avez changé cela* अब हम घटनाक्रम को बिल्कुल उल्टी दिशा में चलते हुए देखने के लिए विवश हैं।
इस बात में जरा भी सन्देह नहीं हो सकता है कि हमारी पृथ्वी वस्तुगत "भौतिक" जगत की है। इसी प्रकार इस बात में भी सन्देह की छाया तक नहीं हो सकती कि इस पृथ्वी के विकास की प्रक्रिया भी इस जगत का अभिन्न अंग है।
लेकिन, श्रीमान अ. बोग्दानोव, हमें आपसे जानकारी मिली है कि "सामान्यतः ' भौतिक जगत समाज-समन्वित, समाज द्वारा सामंजस्यीकृत, संक्षेप में, सामाजिक रूप से संगठित अनुभव है।**' इसलिए, निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्यों का अस्तित्व हमारी पृथ्वी के अस्तित्व से पहले का है: पहले मनुष्य पैदा हुए; मनुष्यों ने अपने अनुभव को सामाजिक रूप से संगठित करते हुए "शब्दोच्चारण" करना शुरू किया; इस सुखद स्थिति से सामान्यतः भौतिक जगत और विशेषतः हमारी पृथ्वी पैदा हो गयी। यह भी, बेशक, "विकास" है, लेकिन विलोम विकास है, या और ज़्यादा सही, भीतर से बाहर की ओर उल्टा विकास है। पाठकों को यह प्रतीति हो सकती है कि यदि मनुष्य पृथ्वी से पहले ही अस्तित्व में थे तो लोग, जैसा कि होगा, कुछ समय तक हवा में लटके रहे होंगे। लेकिन, श्री योग्दानोव, आप और में जानते हैं कि यह महज एक "गलतफ़हमी" है-तर्क की आवश्यकताओं के प्रति थोड़ा ध्यान न देने का परिणाम है। देखिये ना, हवा भी भौतिक जगत का अंग है। अतः उस विचाराधीन काल में हवा भी नहीं थी। सामान्य रूप से तब वस्तुगत, भौतिक अर्थ में कुछ नहीं था, लेकिन तब लोग थे जिन्होंने एक दूसरे से अपने अनुभव का "उच्चारण किया", अपने अनुभव को समन्वित किया और इस तरह भौतिक जगत की रचना की। यह बिल्कुल सीधी और स्पष्ट बात है।
में यहाँ चलते-चलते एक बात कहूँगा कि यह बात अब बिल्कुल स्पष्ट हो गयी है कि आपके ही जैसे विचारों वाले आपके दोस्त, श्री लुनाचास्की ने किस तरह अपने धार्मिक आह्वान को महसूस किया और हमारे लिए "परमेश्वर रहित" धर्म का आविष्कार किया। सिर्फ़ वे ही लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं जो यह सोचते हैं कि उसने विश्व की रचना की है। लेकिन श्री बोग्दानोव, आपने हम सबके
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• आपने वह सब बदल दिया।
**ऊपर देखिये प्रिय महोदय, मैं आपको याद दिलाता हूँ कि यह गहन विचार आपने 'अनुभवात्मक एकत्यवाद' के पहले खण्ड के तीसरे संस्करण के 35वें पृष्ठ पर व्यक्त किया है।
90 / जुझारु भौतिकवाद
सामने और ख़ास तौर पर अपने सहयोगी, श्री लुनाचारकों के सामने सिद्ध कर दिया है कि विश्व की रचना परमेश्वर ने नहीं मनुष्यों ने की है। कुछ पाठक देखेंगे कि वह "दर्शनशास्त्र", जो यह दावा करता है कि भौतिक जगत की रचना मनुष्यों ने की, वह विशुद्ध रूप से प्रत्ययवादी दर्शन है, हालाँकि बेहद उलझा पुलझा है। और वह, शायद, इतना और जोड़ सकता है कि ऐसे दर्शन का मार्क्स और एंगेल्स की शिक्षाओं से मेल बैठाने की कोशिश केवल एक सारसंग्रहवादी ही कर सकता है। लेकिन, श्री बोग्दानोव, आप और मैं फिर कहेंगे कि यह महज एक "ग़लतफ़हमी" है। वह दर्शन जो भौतिक जगत को सामाजिक रूप से संगठित अनुभव का परिणाम बताता है वह मार्क्सवाद की भावना में निष्कर्ष निकालने में किसी भी अन्य से अधिक समर्थ है। सामाजिक रूप से संगठित अनुभव, वस्तुतः, मानव द्वारा अपने अस्तित्व के लिए किये गये संघर्ष में प्राप्त अनुभव है। और अस्तित्व के लिए मनुष्य का संघर्ष उत्पादन की आर्थिक प्रक्रिया की पूर्वापेक्षा करता है, उत्पादन की आर्थिक प्रक्रिया उत्पादन के कुछ विशेष सम्बन्धों के अस्तित्व की, यानी समाज की किसी एक आर्थिक व्यवस्था की पूर्वापेक्षा करती है। समाज की आर्थिक व्यवस्था की धारणा हमारे सामने "आर्थिक भौतिकवाद" का व्यापक क्षेत्र उन्मुक्त कर देती है। अपने आपको सुदृढ़ विश्वासी मार्क्सवादी कहलाने का निर्वाध अधिकार पाने के लिए हमें इस क्षेत्र में क़दम ही तो जमाने होते हैं और मार्क्सवादी भी कैसे! सर्वाधिक आत्यन्तिक जो सामाजिक रूप से संगठित अनुभव के परिणामस्वरूप पृथ्वी के पैदा होने से पहले भी मौजूद थे और उस सन्तोषजनक घटना के बाद भी। हम महज मामूली मार्क्सवादी नहीं, महामार्क्सवादी हैं। मामूली मार्क्सवादी कहते हैं:
"आर्थिक सम्बन्धों और उनके द्वारा निर्धारित मनुष्यों के सामाजिक अस्तित्व के आधार पर तदनुरूप विचारधाराओं का जन्म होता है। लेकिन हम महामार्क्सवादी इतना और जोड़ते हैं : "केवल विचारधाराओं का ही नहीं बल्कि भौतिक जगत का भी।" अब पाठक समझ सकता है कि हम मार्क्सवादी स्वयं मार्क्स से भी बेहतर हैं, बल्कि श्री शुल्यातिकोव से भी बेहतर हैं, और यह क्या खूब बात है!
स्वाभाविक है, श्री बोग्दानोब, आप हमारी अतिशयोक्ति पर चीखने जा रहे हैं। लेकिन आप बेकार में अपनी साँस बर्बाद करेंगे। मेरे शब्दों में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। मैंने आपके वस्तुगतता के सिद्धान्त, जो सचमुच नितान्त अविश्वसनीय हैं, के स्पष्ट आशय का और आपके सिद्धान्त के प्रेरणास्रोत का बिल्कुल सही वृत्तान्त पेश किया है। आपने यह कल्पना की कि भौतिक जगत का सामाजिक रूप से संगठित अनुभव के साथ समानुरूपण करके आपने आर्थिक भौतिकवाद के सम्मुख एक निपट नया और अधिक व्यापक सैद्धान्तिक सन्दर्श उन्मुक्त कर दिया है। आप सामान्यतः नादान तो हैं पर आर्थिक भौतिकवाद के विषय पर
जुझारु भौतिकवाद / 91
सर्वाधिक अपटु हैं। आपसे बातें करते समय में न्यूटन के नियम पर चलता : hypothesis non fingo*. लेकिन यहाँ मैं इस सामान्य नियम का एक छोट सा अपवाद पेश करूँगा। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझे इस बात का पक् सन्देह है कि आप मान की तरफ़ मुख्य रूप से अपनी हद दर्जे की सिधाई क वजह से आकृष्ट हुए। आप कहते हैं: "जहाँ मात्र संज्ञान और सामाजिक श्रम की प्रक्रियाओं के बीच सम्बन्ध को निरूपित करते हैं वहाँ उनके और मा के विचारों के बीच समानता कभी-कभी सचमुच आश्चर्यजनक हो जाती है।"** इस बात को प्रमाणित करने के लिए आप माख से निम्नांकित उद्धरण पेश करते हैं: "विज्ञान व्यावहारिक जीवन की आवश्यकताओं से... टेक्नीक से विकसित हुआ।" श्री बोग्दानोव, "अर्थव्यवस्था" शब्द-जिसे माख ने भी अक्सर इस्तेमाल किया है के साथ जुड़ी यही "टेक्नीक" वह चीज़ है जो आपकी बर्बादी लेकर आयी। आपने सोचा कि माख और मार्क्स को मिलाकर आप एक सर्वथा नयी दिशा से संज्ञान-सिद्धान्त को देख सकेंगे और हमारे सामने "अनुच्चारित शब्दों" की घोषणा कर देंगे। आपने सोचा कि आपको दोनों मार्क्स और एंगेल्स तथा माख़ और आवेनारिउस की शिक्षाओं को सही करने तथा परिपूर्णता प्रदान करने की जिम्मेदारी दी गयी है। लेकिन यह एक ग़लतफ़हमी-इस बात बग़ैर उद्धरण चिह्नों के थी। पहली बात तो यह है कि आपने मान को घटाकर निरर्थक बना दिया और दूसरी, आपने सबकी निगाहों के सामने यह प्रदर्शित कर दिया कि अपने आपको एक "अच्छा मार्क्सवादी" मानकर आपने कितनी बड़ी गलती की है। संक्षेप में, जो परिणाम आपको उपलब्ध हुए वे उनसे नितान्त भिन्न हैं जिनकी आपको अपेक्षा थी।***
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*[ मैं एक प्राक्कल्पना का आविष्कार नहीं करता।]
** 'अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 81
***आपको उन विचारों के इतिहास की बहुत कम जानकारी है, जो 19वीं सदी के सामाजिक विज्ञान में प्रचलित थे। यदि आप इस बात को जानते तो माख और मार्क्स को सिर्फ़ इस आधार पर साथ न मिलाते कि भौतिकी के ऑस्ट्रियाई प्रोफ़ेसर विज्ञान की उत्पत्ति को "व्यावहारिक जीवन....टेक्नीक की आवश्यकताओं" से स्पष्ट करते हैं। यह एक नये विचार से कोसों दूर है। लित्तरे ने पाँचवें दशक में ही कहा था: "Toute. science provient d'un art correspondant, dont elle se detache peu a peu, le besoin suggerant les arts et plus tard la reflexion suggerant les sciences; c'est ainsique la physiologie, mieux denommee biologie, est nee de la medecine. Ensuite et a fur et a mesure les arts recoivent des sciences plus qu'ils ne leur ont d'abord donne." ["प्रत्येक विज्ञान एक तदनुरूप
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पर, एक मिनट रुकिये। इससे पहले का अध्याय लिख चुकने के बाद मैंने अपने आपसे पूछा कि क्या मैंने आपके विचार को यह कहकर सचमुच सही ढंग से प्रस्तुत किया था कि "वस्तुगतता" के आपके सिद्धान्त से यह नतीजा निकलता है कि पहले मनुष्य थे, और बाद में उनके द्वारा भौतिक जगत की रचना हुई। मैं निष्कपट भाव से स्वीकार करता हूँ कि मन ही मन इस मामले पर विचार करने के बाद मैंने देखा कि सारी बातें जैसी मैंने लिखी थीं ठीक वैसी या शायद बिल्कुल भी वैसी नहीं थीं। "पहले" और "बाद में" शब्द यह दर्शाते हैं कि लाल की दृष्टि से तथ्यों का सम्बन्ध क्या था। यदि काल जैसी कोई चीज नहीं होता, तो ये शब्द अर्थहन होते । लेकिन आपने कहा है कि देश की ही भाँति स्वयं काल भी मानव अनुभव के सामाजिक संगठन की प्रक्रिया से निर्मित हुआ। आपके अपने शब्द इस प्रकार हैं "अपने अनुभव का अन्य लोगों के अनुभव से समन्वय करते हुए मनुष्य ने काल के अमूर्त रूप की रचना की।* और आगे: "अतः अन्तिम विश्लेषण में, देश और काल के अमूर्त रूप किसके द्योतक हैं? वे अनुभव की सामाजिक रूप से संगठित अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं। अनगिनत उच्चारणों का विनिमय करते हुए लोग अपने सामाजिक अनुभव के पारस्परिक अन्तरविरोधों को लगातार मिटाते हैं, उसमें सामंजस्य लाते हैं, उसे सामान्यतः महत्वपूर्ण, यानी वस्तुगत रूपों में संगठित करते हैं। अनुभव का और आगे का विकास इन रूपों के आधार पर चलता है और आवश्यक रूप से उनकी सीमाओं के अन्दर रहता है। "**
जैसा कि आप देखते हैं, अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि एक समय था जब कोई समय नहीं था। यह किसी न किसी प्रकार से विचित्र है। जाहिर है कि मैं ऐसी ग़लत शब्दावली का उपयोग कर रहा हूँ, जिससे 'अनुभवात्मक एकत्ववाद' को न जानने वाले हम अज्ञानियों का छुटकारा बहुत कठिन है। यह कहना असम्भव है कि एक ऐसा समय था जब कोई समय नहीं था। यह इस स्पष्ट कारण से असम्भव है कि जब समय का अस्तित्व नहीं था तब कोई समय नहीं था। यह उन
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हुनर से उत्पन्न होता है और शनैः शनैः उससे विलग होता जाता है; आवश्यकता हुनर का आभास देती है और बाद का चिन्तन विज्ञान का इस तरह शरीरक्रिया विज्ञान, जो अधिक सही तौर से जैविकी कहलाता है, मेडिसिन से जन्मा। फिर धीरे-धीरे, हुनरों को विज्ञान से जो प्राप्ति होती है वह उससे कहीं अधिक होती है जो उन्होंने विज्ञान को दिया था। (Alfred.. Espinas ang, Les origines de la technologie, Paris, 1897, P.12. [ एस्पिनास द्वारा उद्धृत, 'टेक्नोलॉजी की उत्पत्ति, पेरिस 1897, पृ. 121] '*अनुभवात्मक एकत्ववाद पहला खण्ड, पृ. 50, शब्दों पर जोर आपका है।
**वही, पृ. 31
जुझारू भौतिकवाद / 93
सत्यों में से एक है जिसकी खोज मानव-मन को अधिकतम श्रेय प्रदान करती है। लेकिन ऐसे सत्य तड़ित प्रकाश की तरह अन्धा करने वाले होते हैं और एक अन्या आदमी शब्दों के बीच आसानी से भटक जाता है। मैं अपने आपको समय से बेख़बर करते हुए नितान्त भिन्न तरीके से सोचूंगा तथा अभिव्यक्त करूंगा: सामाजिक रूप से संगठित कोई अनुभव नहीं है, न समय ही है। तो है क्या? ऐसे लोग हैं जिनके अनुभव से समय का "विकास हो रहा है"। बहुत बढ़िया। लेकिन अगर समय का "विकास हो रहा है, तो उसका अर्थ यह है कि यह विकसित हो चुकने वाला होगा। इससे हम इस मुद्दे पर आ पहुँचते हैं कि एक ऐसा समय होगा जब समय होगा। यहाँ मैं एक बार फिर अपनी इच्छा के विपरीत, उसी पुरानी शब्दावली पर लौट आया हूँ। लेकिन, श्रीमान बोग्दानोव, जब मैं समय-बाह्य विकास के बारे में सोचने में स्पष्टतः इतना अक्षम हूँ तो किया क्या जाये?
इससे मुझे एंगेल्स द्वारा समय के ही सिद्धान्त पर ड्यूहरिंग को दिये गये उत्तर की याद आती है। ड्यूहरिंग ने दलील दी थी कि काल का एक प्रारम्भ होता है और उनका यह विचार इस संकल्पना पर आधारित था कि पहले यह विश्व एक अपरिवर्तनीय और स्व-समान अवस्था में था, यानी, ऐसी दशा में था जिसमें एक के बाद एक सिलसिले से परिवर्तन नहीं होते थे। उन्होंने दलील दी कि जब सिलसिलेवर परिवर्तन नहीं होते तो काल की संकल्पना अवश्यमेव रूप से स्वत्व की अधिक सामान्य धारणा में रूपान्तरित हो जाती है। एंगेल्स ने इसका निम्नांकित उत्तर दिया और वे पूर्णतः सही थे: "पहली बात यह है कि यहाँ हमारा इससे रंचमात्र भी सम्बन्ध नहीं है कि हेर ड्यूहरिंग के सिर में कौन से विचार रूपान्तरित होते हैं। विचाराधीन मसला समय की संकल्पना नहीं, असली काल है, जिससे हर ड्यूहरिंग इतने सस्ते में छुटकारा नहीं पा सकते हैं। दूसरी बात यह है कि काल की संकल्पना स्तत्व की अधिक सामान्य धारणा में कितना ही क्यों न रूपान्तरित हो जाये, यह हमें एक भी कदम आगे नहीं ले जाता है, क्योंकि हर प्रकार के स्वत्व मूल रूप देश और काल हैं, और काल-बाह्य स्वत्व वैसी ही घोर निरर्थक बात है जैसे देश-बाह्य स्वत्व... इस काल-बाह्य स्वत्व की तुलना में हेगेल का 'कालहीन अतीत स्वत्य' और नव-शेल्लिंगवादियों का 'अपूर्वकल्पनीय स्वत्व' (unvordenkliches Sein) विवेक-सम्मत विचार हैं।" *
प्रिय महोदय, जिस मार्क्स और एंगेल्स के साथ आप खुद अपने लिए भी "परिवार के एक सदस्य का सा बर्ताव" चाहेंगे, उनकी दृष्टि से यह मामला ऐसा है। काल-बाह्य स्वत्व वैसा ही घोर निरर्थक है जैसा कि देश बाह्य स्वत्व। आपने इन
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एंगेल्स, उद्धृत कृति, पृ. 39
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दोनों निरर्थक चीजो को माख के दर्शन में चिपका दिया और उस वस्तुतः अशक्त आधार पर आपने कल्पना की कि आपके प्रबुद्ध की कृपा से, ●आलोचनात्मक अनुभववाद" "अनुभवात्मक एकत्यवाद" में रूपान्तरित हो गया। और जब मैंने आपके शिक्षक माझ की आलोचना की तो आपने, जैसा कि कहते है, उंगली तक न हिलाई। आपने अर्थ निकाला कि उसका आपसे कोई वास्ता नहीं- मैं बहुत बातों के लिए माख का आभारी हूँ लेकिन, आखिर में एक स्वतंत्र विचारक हूँ। बेशक, क्या विचारक है आप! वस्तुतः आप कैसी उत्तम स्वतंत्रता का प्रदर्शन करते हैं! यह बारोगियाइयों को बुलवाने से पहले के रूस से मिलता-जुलता है। सच है कि यह बड़ा नहीं है, लेकिन है उपजाऊ (दो-दो निपट निरर्थक विचार) और …..उसमें व्यवस्था भी कोई नहीं है।32
लेकिन, एक बार फिर, स्थिति की सत्यता सबसे पहले सचाई के हित में मैं इतना और कहूँगा कि आप माख का अनुकरण करते हुए, ज्यामितिक या अमूर्त देश को दैहिक देश से बिल्कुल भिन्न" मानते हैं। और काल की धारणा के प्रति भी यही रवैया अपनाते हैं। जरा देखें कि आपका यह प्रभेद आपको उन दो निरर्थकताओं से बचाता है या नहीं जो आपके नाम को अमर बनाने का खतरा पैदा कर रही हैं।
दैहिक देश ज्यामितिक देश के साथ किस तरह से सम्बन्धित है?
आप कहते हैं: "दैहिक देश विकास का परिणाम है; बच्चे के जीवन में यह दृश्य और स्पर्शग्राह्य तत्वों की उथल-पुथल से धीरे-धीरे घनीभूत होता है। यह विकास जीवन के प्रारम्भिक वर्षों के बाद तक जारी रहता है। दूरी, आकार तथा वस्तुओं का रूप बच्चे के मुकाबले वयस्क की अनुभूति में अधिक स्थायी होता है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि पाँच वर्ष के एक बच्चे के रूप में मैंने पृथ्वी और आकाश के बीच की दूरी एक-दो मंजिला मकान की ऊँचाई से दो या तीन गुना तक ऑकी थी और जब तक छत पर जाकर मैंने देखा कि आकाश का चंदवा निकटतर आया हुआ नहीं जाने पड़ रहा है तो में बहुत ही आश्चर्यान्वित हो गया। इस तरह से मैं देहिक देश के एक अन्तरविरोध से परिचित हुआ। ये अन्तरविरोध वयस्कों की अनुभूति में कम होते हैं, पर होते हमेशा हैं। अमूर्त देश अन्तरविरोधों से मुक्त होता है। इसमें एक और वह वस्तु जो पर्याप्त कियाओं का विषय नहीं रही है, एक अन्य निश्चित वस्तु से, जो इस या उस किसी भी आकृति की होड़ या छोटी कभी सिद्ध नहीं होती, आदि। यह नियम के पूर्णता अनुरूप हर जगह पर पूरी तरह से समरस देश है।"*
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*अनुभवात्मक एकवाद, पहला खण्ड पू. 25 ।
जुझारू भौतिकवाद/95
अब काल के बारे में आपको क्या कहना है ?
"दैहिक और अमूर्त काल का सम्बन्ध, सामान्यतः, वैसा ही है जैसा कि देश के रूपों का सम्बन्ध, जिस पर हमने विचार किया है। अमूर्त काल की तुलना में दैहिक काल समरस नहीं होता है। इसका प्रवाह विषम होता है, कभी तीव्र, कभी-कभी मन्द; कभी-कभी ऐसा लगता है कि चेतना के लिए इसका अस्तित्व समाप्त हो गया है, मसलन, गहरी नींद अथवा बेहोशी में इसके अलावा, यह व्यक्तिगत जीवन की सीमाओं में बंधा होता है। इस सबके तदनुरूप दैहिक काल में ली गयी उसी घटना का 'कालिक परिमाण' भी परिवर्तनशील होता है। बाह्य प्रभाव का अनुभव न करने वाली कोई एक क्रिया हमारे वास्ते 'तीव्रता से' या 'आहिस्ता से' प्रवाहित हो सकती है और कभी-कभी हमारे दैहिक काल से पूर्णतः बाहर प्रतीत होती है। अमूर्त काल ("ध्यान का शुद्ध रूप") के साथ ऐसा नहीं होता यह पूर्णरूपेण समरस और इसका प्रवाह अनवरत होता है और इसमें होने वाली घटनाएँ पूर्ण रूप से नियमानुरूप होती हैं। यह अपनी दोनों दिशाओं (अतीत और भविष्य) में अनन्त होता है। ""
आप कहते हैं कि अमूर्त देश और काल विकास के उत्पाद हैं। ये दैहिक देश और काल से, उनकी समरसता के लक्षण का अभाव समाप्त होने पर, उनमें निरन्तरता का समावेश होने तथा अन्त में हर निश्चित अनुभव की सीमाओं से परे उनके मानसिक विस्तार से उत्पन्न होते हैं। अत्युत्तम। लेकिन देहिक देश और काल भी विकास के उत्पाद हैं। इसलिए हमें अत्याग्रही प्रश्नों का फिर सामना करना पड़ गया है: 1. क्या वह बच्चा, जिसके जीवन में दैहिक देश दृश्य और स्पर्शग्राह्य तत्वों की उथल-पुथल से धीरे-धीरे बनीभूत हो रहा है, देश में विद्यमान होता है? 2. क्या वह बच्चा, जिसके जीवन में दैहिक काल विकसित होता है, काल में विद्यमान होता है? आइए, मान लें कि हमें इन प्रश्नों का निम्नांकित उत्तर देने का अधिकार है (वैसे, बिल्कुल सही कहें तो, नहीं है): वह बच्चा, जिसके जीवन में देहिक देश और काल शनैः शनैः ही बनते हैं, अमूर्त देश और अमूर्त काल में विद्यमान होता है। पर स्पष्ट है कि ऐसा उत्तर तभी सार्थक होगा जब हम यह मान लें कि अमूर्त देश और काल, विकास के फलस्वरूप (यानी, सामाजिक अनुभव से) पहले ही पैदा हो गये हैं। इसलिए, यह बात अभी स्पष्ट नहीं हुई कि उनके प्रकट होने से पहले की स्थिति क्या थी। सहजबुद्धि अवश्यम्भावी रूप से सुझाती है कि. अमूर्त देश व काल के प्रकट होने से पहले वह बच्चा देश के बाहर और काल के बाहर विद्यमान था। लेकिन हम अज्ञानियों के लिए और आपके, प्रिय महोदय
'अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 26-27
वही, पृ. 28 ।
96 / जुझारू भौतिकवाद
बोग्दानोव, "आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान" के लिए भी देश व काल के बाहर अस्तित्वमान बच्चे अकल्पनीय हैं। हम केवल अटकल लगा सकते हैं कि अमूर्त देश और काल की रचना से पहले के उन वास्तविक रूप से तमसाच्छन्न दिनों में बच्चे अधिक सही अर्थ में, बच्चे नहीं फरिश्ते होते थे। देश और काल के बाहर जीवित रहने के लिए, बच्चों की तुलना में, सम्भवतः फ़रिश्तों को काफ़ी अधिक आसानी होती है। जो भी हो, मुझे पक्का यकीन नहीं है कि यह कहकर मैंने धर्मद्रोह नहीं किया होगा। बाइबिल के अनुसार ऐसा लगता है कि फ़रिश्तों का अस्तित्व भी देश और काल, दोनों में होता है।
इतना ही उलझा हुआ और इस विषय से घनिष्ठता से सम्बन्धित एक प्रश्न और भी है। यदि अमूर्त काल और अमूर्त देश "अनगिनत उच्चारणों के जरिए लोगों द्वारा रचित वस्तुगत रूप हैं, तो क्या अनगिनत उच्चारणों" की यह प्रक्रिया काल और देश के बाहर सम्पन्न की गयी? यदि इसका उत्तर हाँ है, तो यह एक बार फिर अर्थहीन ही रहता है, यदि उत्तर नहीं है तो इसका मतलब है कि हमें केवल दो प्रकार के देश-काल (दैहिक और अमूर्त काल और दैहिक व अमूर्त देश) के नहीं बल्कि तीन के बीच भेद करना है। और तब आपका सारा "दार्शनिक" निर्माण धुएँ की तरह विलायमान हो जाता है और आप थोड़ा बहुत डगमगाते हुए, उस भौतिकवाद की पापी धरती में प्रविष्ट होते हैं जिसके अनुसार देश-काल केवल ध्यान के नहीं, बल्कि स्वत्व के भी रूप हैं।
नहीं, श्रीमान बोग्दानीव, यहाँ की वस्तुस्थिति आपको माफ़िक़ नहीं आती। बेशक, यह बहुत बहुत मर्मस्पर्शी बात है कि पाँच साल की कच्ची उमर में, जब शायद आपका दैहिक देश पूरी तरह से "घनीभूत" नहीं हुआ था और आपका दैहिक काल पूर्णतः "विकसित" नहीं हुआ था, आप पृथ्वी और आकाश की दूरी नापने में जुटे थे। लेकिन इस प्रकार की नाप-जोख दर्शनशास्त्र की बजाय खगोलविद्या में ही अधिक होती है। इसलिए, यदि आप खगोलविद बने रहते तो वह आपके लिए बेहतर होता। यदि प्रशंसा और व्यंग्य के बगैर कहा जा सके तो कहना होगा कि आपका जन्म दर्शनशास्त्र के लिए नहीं हुआ। इस विषय में आप सर्वाधिक अविश्वसनीय असफलता के सिवा और कुछ उपलब्ध नहीं करते।
एक उदाहरण लीजिये। आप लिखते हैं: "हम भूत, वर्तमान और भविष्य के अन्य समस्त लोगों-यहाँ तक कि जानवरों को भी-'उसी देश-काल में रहते हुए सोचने-समझने के आदी हैं जिसमें हम स्वयं रह रहे हैं। लेकिन रिवाज प्रमाण नहीं हैं। यह अविवादास्पद है कि हम इन लोगों और जानवरों को अपने देश काल में कल्पित करते हैं, लेकिन यह सिद्ध करने के लिए कुछ नहीं है कि वे स्वयं को तथा हमें ठीक उसी देश व काल में कल्पित करते हैं। यह सही है कि जहाँ तक उनका
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सामान्य संगठन हमारे संगठन से मिलता है और जहाँ तक उनके शब्दोच्चारण हमारे लिए बोधगम्य हैं वहाँ तक हम कल्पना कर सकते हैं कि उनके "ध्यान के रूप' हमारे ध्यान रूपों से मिलते-जुलते हैं, परन्तु एक समान नहीं होते हैं।"*
आपके अभी-अभी उद्धृत इस पैरे से मिलाने के लिए, इस पत्र में मैंने पहले दैहिक देश-काल तथा अमूर्त देश-काल के बीच भेद से सम्बन्धित आपका लम्बा "शब्दोच्चारण" जानबूझकर उद्धृत किया था। यह मत सोचियेगा कि मैं आपको एक अन्तरविरोध में पकड़ना चाहता हूँ। अन्तरविरोधों के लिए आपकी नैसर्गिक प्रवृत्ति के बावजूद यहाँ कोई अन्तरविरोध नहीं हैं। आपके पहले के "शब्दोच्चारणों से इस पैरे की पूर्ण पुष्टि हो जाती है। ये तथा पहले के शब्दोच्चारण सर्वाधिक अदूरदर्शी के लिए भी इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि आप ध्यान के रूप" और उसके विषयों के बीच भेद नहीं करते और अपने अनुभवात्मक एकत्ववाद" का पक्षपोषण करते हुए वस्तुतः भेद कर ही नहीं सकते हैं। आप इस बात को अविवादास्पद स्वीकार करते हैं कि "हम" लोगों और जानवरों को "अपने" देश और काल में कल्पित करते हैं, लेकिन आप यह सन्देह करते हैं कि "वे" उसी देश-काल में स्वयं को कल्पित कर सकते हैं। एक असाध्य और पक्के प्रत्ययवादी के रूप में आपको यह सूझता ही नहीं कि इस प्रश्न को नितान्त भिन्न तरीके से पेश किया जा सकता है, कि आपसे पूछा जा सकता है: क्या ऐसे जानवर, जो स्वयं को किसी प्रकार के काल या किसी प्रकार के देश में कल्पित नहीं कर सकते, किसी क़िस्म के देश और काल में रहते भी हैं या नहीं? और पौधों की क्या दशा है? मुझे बहुत सन्देह है कि आप उनमें ध्यान के किसी रूप को आरोपित करेंगे, जबकि देश और काल में उनका भी अस्तित्व है। और श्री बोग्दानोव, वे सिप "हमारे लिए" अस्तित्व नहीं रखते, क्योंकि पृथ्वी का इतिहास हमें जरा भी सन्देह में नहीं छोड़ता कि उनका हमसे पहले अस्तित्व था। ड्यूहरिंग के प्रति अपनी आपत्ति को, जिसकी मैंने पहले चर्चा की है, और आगे बढ़ाते हुए एंगेल्स ने लिखा "हेर ड्यूहरिंग के अनुसार, काल केवल परिवर्तन के ज़रिए अस्तित्व में होता है, काल में और काल के जरिए परिवर्तन का अस्तित्व नहीं होता है।** आप ड्यूहरिंग की ग़लती को दोहरा रहे हैं। आपके लिए काल और देश का सिर्फ इसलिए अस्तित्व है कि जीवित प्राणी उनका अनुभव करते हैं। आप किसी के भी चिन्तन से स्वतंत्र काल के, उस काल के होने से इनकार करते हैं, जिसमें जीव अपने आपको धीरे-धीरे "चिन्तन" के स्तर पर लाते हुए, विकसित हुए। आपके लिए वस्तुगत, भौतिक जगत सिर्फ़ एक
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• 'अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 32, टिप्पणी।
** 'एंगेल्स, उद्धृत कृति, पृ. 40।
98 / जुझारू भौतिकवाद
संकल्पना है। और जब आपसे प्रत्ययवादी कहा जाता है तो आप बुरा मान जाते हैं। यह अविवादास्पद है कि प्रत्येक व्यक्ति को सनकी होने का अधिकार है, लेकिन, श्रीमान योग्दानोव, आप इस असन्दिग्ध अधिकार का जाहिरा तौर से और लगातार दुरुपयोग कर रहे हैं।
5
अच्छा जनाव, ये जानवरों के "उच्चारण" भला हैं? हम स्तनपायियों, मसलन गधों को छोड़ देते हैं, जो कभी-कभी बहुत जोर के "उच्चारण" करते हैं, वैसे वे "हमारे" कानों के लिए पूरी तरह से सुखद नहीं होते; हम फिर अमीबा के स्तर पर आ जाते हैं। श्री योग्दानोव, मैं आपको निमंत्रण देता हूँ कि आप इस पर एक दृढ "उच्चारण" करें क्या अमीबा "उच्चारण कर सकता है? मेरे विचार से शायद ही। लेकिन यदि वह "उच्चारण" नहीं कर सकता, तो इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भौतिक जगत उच्चारणों का परिणाम है, हम फिर से इस निरर्थकता पर जा पहुँचते हैं: जब जीव अमीबा के तदनुरूप विकास की अवस्था में थे तब भौतिक जगत का अस्तित्व नहीं था। आगे। चूँकि भौतिक जगत की संरचना में, जो उस सम्बन्धित अवधि में अस्तित्व में नहीं आया था, भूतद्रव्य का योग होता है, इसलिए यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि तब निम्न प्राणी अभौतिक थे, इस पर प्रिय महोदय, में इन दिलचस्प प्राणियों को भी तथा आपको भी बधाई देता हूँ!
परन्तु निम्न प्राणी ही क्यों? मानव शरीर भी भौतिक जगत के ही हैं। और क्योंकि भौतिक जगत विकास ("उच्चारणों, आदि) का परिणाम है, इसलिए हम इस निष्कर्ष को कभी भी और किसी भी तरह से नहीं टाल सकेंगे कि इस परिणाम के प्रकट होने से पहले मानवों का भी कोई शरीर नहीं था, कहने का तात्पर्य यह है कि अनुभव के समन्वय की प्रक्रिया कम से कम उन प्राणियों द्वारा प्रारम्भ की गयी होगी जो अशरीरी थे। बेशक, यह इस अर्थ में बुरा नहीं है कि इससे मानवों के लिए अमीचाओं से ईर्ष्या करने का कोई कारण नहीं रह जाता, लेकिन यह, प्रिय महोदय, आपके तथा आपकी ही तरह सोचने वालों द्वारा स्वज्ञापित "मार्क्सवाद" के लिए मुश्किल से ही सुविधाजनक सक है। तथ्य यह है कि आप मार्क्स ओर एंगेल्स के भौतिकवाद को ठुकराते हुए हमें बहकाना चाहते हैं कि जाप इतिहास के उनके भौतिकवादी स्पष्टीकरण का समर्थन करते हैं। लेकिन, माझ और आवेनारिउस की खातिर हमें यह बताइये कि क्या ऐसे इतिहास का भौतिकवादी स्पष्टीकरण हो सकता है जिसके पूर्व... अशरीरी प्राणियों का प्रागैतिहासिक जीवन रहा हो ?"
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*संशोधनबाद की एक नयी किस्म' शीर्षक लेख में, जो आपको पसन्द नहीं था, लुबोव
जुझारू भौतिकवाद/99
बाद में, जब मैं आपके "प्रतिस्थापन" सिद्धान्त का विश्लेषण करूँगा तो मुझे मानव शरीर क्या है तथा किस तरह इस शरीर की उत्पत्ति होती है के प्रश्न की फिर है से चर्चा करनी होगी, तब यह बात बिल्कुल साफ़ जाहिर हो जायेगी कि आप विरूपित प्रत्ययवाद की भावना से माख़ को "अनुपूर्ण" कर रहे हैं। फ़िलहाल, इस पर विचार कीजिये। आप भौतिक, वस्तुगत जगत को लोगों के "शब्दोच्चारणों" से निगमित करना उचित समझते हैं। लेकिन आपको ये लोग मिले कहाँ से? मैं जोर देकर कहता हूँ कि, प्रिय महोदय, अन्य लोगों के अस्तित्व को मान्यता देने में आप अत्यन्त असंगतिपूर्ण रहे हैं और आपने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में अपने "शब्दोच्चारणों" के पैरों तले ज़मीन खिसका दी है। दूसरे शब्दों में, मैं जोर देकर कहता हूँ कि आपको अहंमात्रवाद को अपने लिए अग्राह्य ठहराने का तिल भर भी तार्किक अधिकार नहीं है। श्री बोग्दानोव, इस बात को लेकर मैं पहली बार आपको उलाहना नहीं दे रहा हूँ। अपने 'अनुभवात्मक एकत्ववाद' के तीसरे खण्ड की प्रस्तावना में आपने इस उलाहने को अस्वीकार करने की चेष्टा की, लेकिन आप असफल हो गये। इस सम्बन्ध में आपने जो लिखा वह इस प्रकार है :
"यहाँ मुझे एक और ऐसी परिस्थिति पर ध्यान केन्द्रित करना है जो इस स्कूल की लाक्षणिक है; अनुभव की 'आलोचना' में यह स्कूल लोगों के बीच संसर्ग को एक पूर्व प्रदत्त क्षण के रूप में, एक प्रकार के 'a priori" के रूप में लेता है और विश्व की सर्वाधिक सरल और सर्वाधिक सच्ची तस्वीर बनाने के प्रयत्न में यह स्कूल इस तस्वीर की सामान्य व्यवहार्यता, 'सह-मानवों' की अधिकतम सम्भव संख्या तथा दीर्घतम सम्भव समयावधि के लिए उसकी व्यावहारिक उपयुक्तता ध्यान में रखता है। इससे यह बात पहले ही स्पष्ट जाती है कि इस स्कूल पर को अहंमात्रवाद की प्रवृत्ति का, व्यक्तिगत अनुभव को ही Universum के रूप में संज्ञाता के लिए विद्यमान 'समस्त' के रूप में अंगीकार करने का आरोप लगाने में कामरेड प्लेखानोव कितने ग़लत है। 'मेरे' अनुभव तथा मेरे 'सह-मानवों' के 'उच्चारणों के जरिए मुझ तक पहुंचे हुए उनके अनुभव की समतुल्यता को मान्यता देना
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अवसेलरोद ने, श्रीमान बोग्दानोय, आपको मार्क्स की इस मजेदार टिप्पणी की याद दिलायी थी कि अभी तक कोई भी ऐसे जलाशय में मछली पकड़ने की कला विकसित नहीं कर पाया है जिसमें मछलियाँ है ही नहीं। ('दार्शनिक निबन्ध', सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 176)1 दुर्भाग्यवश, इस याद-दिलवायी से आपका दिमाग़ बदल नहीं पाया। सीधे इस क्षण तक आप यह दावा करने जा रहे हैं कि मत्स्याखेट के क्षेत्र में अपने अनुभवों को समन्वित करते हुए और इस उपयोगी व्यवसाय के बारे में एक दूसरे से "शब्दोच्चारण" करते हुए लोगों ने पानी भी बनाया और मछलियाँ भी। क्या खूब ऐतिहासिक भौतिकवाद है!
• [प्राग- अनुभव।)
100 / जुझारू भौतिकवाद
आलोचनात्मक अनुभववाद की लाक्षणिकता है। यह 'ज्ञानशास्त्रीय जनतंत्रवाद' क प्रकृति की कोई चीज़ है।*
श्रीमान "ज्ञानशास्त्रीय जनतंत्रवादी" जी, इससे यह स्पष्ट है कि आप "कामरेड प्लेखानोव" द्वारा अपने विरुद्ध लगाये गये आरोप को समझे ही नहीं। आप लोगों के बीच संसर्ग को पूर्व प्रदत्त क्षण के एक प्रकार के "a priori" के रूप में लेते हैं। लेकिन प्रश्न है: क्या आपको ऐसा करने का तार्किक अधिकार है ? मैंने इसे अस्वीकार किया, लेकिन अपने दावे के कारणों को पेश करने की बजाय आप प्रमाण के रूप में उसे प्रस्तुत कर रहे हैं जिसे अभी सिद्ध किया जाना । तर्कशास्त्र में इस प्रकार की गलती को petitio principii कहते हैं। प्रिय महोदय, आप अवश्य सहमत होंगे कि petitio principii किसी भी प्रकार के दार्शनिक सिद्धान्त के लिए समर्थन का काम नहीं दे सकता है।
आप आगे कहते हैं: "ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्कूल के जिस व्यक्ति पर हमारे स्वदेशी दार्शनिक 'प्रत्ययवाद' और 'अहंमात्रवाद' का सबसे अधिक सन्देह करते हैं, वह इस स्कूल के जनक, माख, हैं (जो, प्रसंगतः, अपने आपको आलोचनात्मक अनुभववादी नहीं कहते)। आइए देखें, वे दुनिया को किस रूप में देखते हैं। उनके लिए Universum संवेदन के तत्वों के समरूप, तत्वों के समुच्चयों का एक असीम जालक है। ये समुच्चय बदलते हैं, एक होते हैं, विखण्डित होते हैं; वे विविध सम्बन्धों के अनुसार विधि सम्मेलों में जुड़ते हैं। इस जालक में 'मूल-स्थल' (मेरा) पद है) कहे जा सकने वाले कुछ ऐसे स्थल होते हैं जहाँ ये तत्व एक दूसरे के साथ अधिक संघनता व संहतता से जुड़े होते हैं (माख का सूत्रीकरण) । इन स्थलों को मानवीय 'अहं' कहते हैं; इन्हीं के समान कम जटिल सम्मेल भी होते हैं- अन्य जीवित प्राणियों की मानसिकता। विविध समुच्चय इन जटिल सम्मेलों के सम्बन्धन में प्रविष्ट होते हैं और फिर विभिन्न जीवों के अनुभव बन जाते हैं; फिर यह सम्बन्धन टूट जाता है- समुच्चय जीव-विशेष के अनुभवों के तंत्र से गायब हो जाता है। आगे चलकर यह तंत्र में नये सिरे से, सम्भवतः परिवर्तित रूप में, फिर प्रविष्ट हो सकता है, आदि, आदि। लेकिन, किसी भी हालत में, जैसा कि माख जोर देते हैं, यह या वह समुच्चय इस या उस प्राणी की 'चेतना' से गायब होने पर अस्तित्वहीन नहीं होता है, वह अन्य सम्मेलनों में, सम्भवतः अन्य 'मूल-स्थलों' के
साथ, अन्य 'अहमों' के साथ सम्बन्ध में फिर प्रकट हो जाता है…"**
प्रिय महोदय, इस "उच्चारण" में आप एक बार फिर petitio principii का
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• 'अनुभवात्मक एकत्यवाद', तीसरा खण्ड, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 18-191 **अनुभवात्मक एकत्ववाद', पृ. 19
जुझारू भौतिकवाद / 101
सहारा लेने की दुर्दमनीय चाह का प्रदर्शन करते हैं। आप एक बार फिर उस मूल तर्क-वाक्य को सिद्ध मान लेते हैं जिसे अभी सिद्ध किया जाना है। माख "जोर देते हैं" कि यह या वह समुच्चय इस या उस प्राणी की चेतना से गायब होने पर अस्तित्वहीन नहीं होता है। ऐसा है। लेकिन उन्हें यह स्वीकार करने का कौन सा तार्किक अधिकार है कि "ये या वे" प्राणी अस्तित्व में हैं? सारा प्रश्न यही है। लेकिन अपनी सारी लफ़्फ़ाजी के बावजूद आप उस मूल प्रश्न का कोई उत्तर नहीं देते हैं और, जैसा कि मैंने पहले कहा आप इसका उत्तर तब तक नहीं दे सकते जब तक कि आप अनुभव-सम्बन्धी उन विचारों से चिपके हैं जिन्हें आपने माख से उधार लिया है।
यह या वह आदमी, "यह या वह प्राणी" मेरे लिए किसका प्रतिनिधित्व करता है? किसी एक "संवेदनों के समुच्चय" का आपका सिद्धान्त (यानी, वस्तुतः आपके शिक्षक का सिद्धान्त) यह स्पष्ट करता है। लेकिन यदि इस सिद्धान्त के अनुसार, यह या वह प्राणी मेरे लिए "संवेदनों का एक समुच्चय" है, तो प्रश्न उठ खड़ा होता है: मेरे पास यह दावा करने का क्या तर्कसम्मत अधिकार है कि यह प्राणी सिर्फ़ मेरे "संवेदनों" पर आधारित मेरी ही अनुभूति में विद्यमान नहीं है, बल्कि मेरी अनुभूति के बाहर भी है, यानी कहने का तात्पर्य है, उसका मेरे संवेदनों और अनुभूतियों से बिल्कुल अलग, स्वतंत्र अस्तित्व है? माख का "अनुभव" सम्बन्धी सिद्धान्त मुझे यह अधिकार नहीं देता है। यह सिद्धान्त कहता है कि अगर मैं यह दावा करता हूँ कि अन्य लोगों का मुझसे बाह्य अस्तित्व है तो मैं अनुभव को सीमाओं को लाँघता हूँ, एक अनुभवेतर प्रस्थापना का "उच्चारण" करता हूँ। और प्रिय महोदय, आप एक अनुभवेतर या, ठीक आपके अपने शब्द में अधिअनुभ प्रस्थापनाओं को "अधिभूतवादी" कहते हैं। अतः इससे यह सिद्ध हो जाता है कि आप और माख शुद्धतम अधिभूतवादी हैं। यह बहुत बुरा है। लेकिन उससे भी बुरा यह है कि, यद्यपि आप एक शुद्धतम अधिभूतवादी हैं, तथापि आप इस तथ्य से बिल्कुल अवगत नहीं हैं। आप ओलिम्पस के समस्त देवताओं की कसम खाते हैं कि आप और आपके शिक्षक, माख और आवेनारिउस, हमेशा ही अनुभव के दायरे में रहते हैं, और वहाँ से आप नीचे "अधिभूतवादियों" पर घोर घृणा
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• दर्शनशास्त्र का स्व-ज्ञान' लेख में आप लिखते हैं हमारा Universum सबसे पहले अनुभव जगत है। लेकिन यह प्रत्यक्ष अनुभव का ही जगत नहीं है नहीं, यह कह व्यापक है" ('अनुभवात्मक एकत्ववाद', तीसरा खण्ड, पृ. 155) सचमुच अधिक व्यापक इतना अधिक व्यापक कि एक "दर्शन" जो कल्पित रूप में अनुभव पर आधारित है ""तत्वों" के एक ऐसे विशुद्ध हठधर्मी सिद्धान्त पर भरोसा करता है जो प्रत्ययवादी के साथ घनिष्ठता से जुड़ा है।
102 / जुझारु भौतिकवाद
डालते हैं। आपकी कृतियों को, और हाँ, आपके शिक्षकों की रचनाओं को भी, पढ़ते समय किलोव की यह नीति-कथा बरबस याद आ जाती है :
'मुख छवि देखे बन्दरिया, रूप निहारे दर्पण में
लतियाती जाये भालू को, जो पहुँच पड़ा उस क्षण में। 33
आप तर्कशास्त्र की प्रारम्भिक शर्तों का ही उल्लंघन नहीं करते बल्कि बन्दरिया के "आलोचनात्मक रवैये" की नक़ल करते हुए अपने आपको बेहद उपहासास्पद बना देते हैं। यदि श्रीमान दाउगे, वालेन्तीनोव, युश्केविच, बेर्मान, बाज़ारोव तथा अन्य मिथ्या पण्डित, जिनके नाम प्रभु को ज्ञात हैं, यदि यह सारा दार्शनिक कूड़ा-कचरा (शेल्लिंग के सोत्साह शब्दों में) आपको न्यूनाधिक गम्भीर विचारक मानते हैं (यद्यपि वे आपसे हमेशा सहमत नहीं होते), तो हर कोई, जिसने दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया है, पर केवल चालू लोकप्रिय किताबों से नहीं, वह "अधिभूतवाद" पर आपके धावों के बारे में पढ़कर व्यंग्य से अवश्य मुस्करायेगा और उसी कथा की निम्नांकित पंक्तियाँ दोहरायेगा :
रूप विरूपित अपना, पर दोष गिनाती यारों के,
खुद पर नज़र तनिक सी, बेहतर होगी बातों से।
लेकिन जो भी हो, आप अहंमात्रवाद का त्याग करते हैं। आप "सह-मानवों" के अस्तित्व को स्वीकार कतरे हैं। मैं इस पर गौर करता हूँ और कहता हूँ, यदि "ये या वे प्राणी" मेरी अनुभूति में ही नहीं, बल्कि साथ ही मेरी अनुभूति से स्वतंत्र पृथक प्राणी भी हैं तो इसका मतलब निश्चय ही यह हुआ कि वे सिर्फ़ "मेरे लिए" नहीं, बल्कि "निज में" भी विद्यमान हैं। इस प्रकार, "यह या वह प्राणी" उसी बदनाम "वस्तु-निजरूप" का एक विशिष्ट मामला बन जाता है जिसने दर्शनशास्त्र में इतना बावेला मचाया है। और, माननीय महोदय, "वस्तु-निजरूप" के बारे में आपको क्या कहना है?
अन्य बातों के अलावा निम्नांकित: "समुच्चय का प्रत्येक विशिष्ट अंग प्रस्तुत क्षण पर हमारे अनुभव में अनुपस्थित हो सकता है, परन्तु इसके बावजूद हम 'वस्तु' को ठीक उसी के रूप में मान्यता देते हैं जैसा कि हमारे लिए सारा समुच्चय होता। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि एक वस्तु के सारे 'तत्वों', सारे 'लक्षणों' को अलग किया जा सकता है, पर फिर भी वह एक परिघटना के रूप में नहीं बल्कि 'द्रव्य' के रूप में बनी रहेगी? सच है कि यह तर्क की एक पुरानी त्रुटि मात्र है। एक आदमी के सिर के हर बाल को अलग-अलग उखाड़ा जा सकता है और वह आदमी गंजा नहीं होता, लेकिन सारे बाजों को एक साथ उखाड़ दीजिये, आदमी गंजा हो जायेगा। ऐसी ही वह प्रक्रिया भी है जिससे 'द्रव्य' की, उस 'द्रव्य' की रचना होती
जुझारू भौतिकवाद / 103
है जिसे हेगेल ने 'अमूर्तीकरण का caput mortuum* अकारण नहीं कहा है। यदि समुच्चय के सारे तत्वों को अलग हटा दिया जाता है तो समुच्चय नहीं रहेगा उसका द्योतक शब्द रह जायेगा। शब्द यानी, वस्तु-निजरूप**।
अतः वस्तु-निजरूप सम्पूर्ण अन्तर्वस्तु से रिक्त एक खोखला शब्द मात्र है, अमूर्तीकरण का caput mortuum है, जैसा कि आप हेगेल के पीछे दोहराते हैं। लेकिन यहाँ आप उनका नाम निश्चित रूप से व्यर्थ ले रहे हैं। खैर, मैं आपसे सहमत हो जाऊँगा, आखिर में वोही बहकावे में आ जाने वाला "प्राणी" जो हुआ। "वस्तु-निजरूप" खोखला शब्द है परन्तु अगर ऐसी ही बात है तो प्राणी "निज भी खोखला शब्द हुआ। और अगर एक प्राणी "निजरूप" खोखला शब्द है तो ये या वे "प्राणी" सिर्फ मेरी अनुभूति में ही विद्यमान हैं और अगर ऐसा है तो मैं विश्व में नितान्त अकेला हूँ और.... अवश्यम्भावी रूप से दर्शनशास्त्र में अहंमात्रयाद पर पहुंच जाता हूँ। Solus ipse!*** इसके बावजूद, श्रीमान बोग्दानोय, आप अहंमात्रवाद को अस्वीकार करते हैं। यह कैसे सम्भव है? क्या इससे फिर यही अर्थ नहीं निकलता कि खोखले, अर्थहीन शब्दों को उच्चारित करने के दोषी "सबसे पहले आप ही हैं न कि अन्य प्राणी" आपने इन अर्थहीन, खोखले शब्दों को एक लम्बे लेख में ठूंस दिया और मानो स्वयं अपनी खिल्ली उड़ाते हुए उसका शीर्षक रखा संज्ञान का आदर्श क्या ही श्रेष्ठ आदर्श है।
श्री बोग्दानोय, मेरे और आपके बीच की आपसी बात है कि दार्शनिक मामलों में आप किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। इसलिए में स्पष्ट उदाहरण देकर आपको अपना विचार समझाऊँगा।
आपने, शायद, हाउप्टमान का नाटक Und Pippa tanzt! **** पढ़ा होगा। दूसरे दृश्य में पिप्पा बेहोशी के दौरे के बाद, होश में आने पर पूछती है "Wo bin ich denn?"***** हेलरीगल उत्तर देता है: "In meinem Kopfe!*******
हेलरीगल सही था। पिप्पा सचमुच उसके सिर में विद्यमान थी। लेकिन अब प्रश्न यह पैदा होता है क्या वह सिर्फ उसके सिर ही सिर में थी? हेलरीगल ने, जिसने उसे देखने के बाद सोचा कि वह स्वयं उन्मादग्रस्त है, शुरू में मान लिया कि पिप्पा का अस्तित्व सचमुच ही केवल उसके सिर में है। लेकिन, बेशक, पिप्पा इससे
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• [मुर्दा सिर ।]
**अनुभवात्मक एकत्ववाद' पहला खण्ड, पृ. 11-12, टिप्पणी
*** [Solus-एकमात्र, ipse- अहं अतः अमात्रवाद ।
**** ['और पिप्पा नाचती है!"]
*****[तो मैं कहाँ हूँ? ]
******[मेरे सिर में ! ]
104 / जुझारू भौतिकवाद
सहमत नहीं हो सकती, वह प्रतिरोध करती है :
"Aber sich doch, ich bin doch von Fleisch und Blut!"* हेलरीगल शनैःशनैः उसके तर्कों को स्वीकार करता है, उसकी छाती पर अपने कान लगाता है (डाक्टर की भाँति, हाउप्टमान कहता है) और जोर से बोल उठता
"Du bist ja lebendig! du hast ja ein Herz, Pippa!"**
अब, यहाँ हुआ क्या? शुरू में हेलरीगल के पास "संवेदनों का एक समुच्चय" था, जिसकी वजह से उसने यह सोचा कि पिप्पा सिर्फ़ उसकी अनुभूति में विद्यमान है, फिर कई नये "संवेदन" (हृदय की धड़कन, आदि) उसके इस "समुच्चय" में प्रविष्ट हुए जिनसे हेलरीगल तुरन्त उस अर्थ में एक "अधिभूतवादी" बन गया जिस अर्थ में, जनाब बोग्दानोव, आप इसे ग़लती से इस्तेमाल करते हैं। उसने पिप्पा के अस्तित्व का अपने "अनुभव" से बाहर होना स्वीकार कर लिया (यह भी, श्री बोग्दानोव, आप ही के शब्दार्थ में), तात्पर्य यह है कि पिप्पा का हेलरीगल के संवेदनों से नितान्त निरपेक्ष, पृथक अस्तित्व था। यह बात इतनी ही सरल है जैसे "अ-आ, क-ख" । आइए, सब आगे बढ़ें।
जैसे ही हेलरीगल यह समझ गया कि पिप्पा एक निश्चित तरीक़े से सम्मिलित उसके संवेदनों से निर्मित नहीं हुई है, बल्कि उसके संवेदन पिप्पा की वजह से उत्पन्न हुए हैं, तो वह उस स्थिति में जा पहुँचा, जिसे, श्रीमान बोग्दानोव, आप समझे-बूझे बग़ैर द्वैतवाद कहते हैं। वह सोचने लगा कि पिप्पा उसकी अनुभूति में ही नहीं स्वयं में भी विद्यमान है। श्री बोग्दानोव, अब शायद आप भी भाँप गये होंगे कि यहाँ द्वैतवाद का नामोनिशान नहीं है और कि यदि हेलरीगल पिप्पा के, स्वयं में उसके अस्तित्व से इनकार करना जारी रखता तो वह उसी अहंमात्रवाद पर पहुंच गया होता जिसे आप अंगीकार करने के लिए इतना व्यर्थ प्रयत्न करते हैं।
यह है लोकप्रिय तरीक़े से बोलने का मतलब हाउप्टमान के नाटक का उदाहरण देने के बाद मैं यह सोचने लगा हूँ कि अब, अन्ततः, मेरी बातों को वे अनेकानेक पाठक भी समझ लेंगे, जिनकी कृपा से आपकी "दार्शनिक" रचनाओं के कई संस्करण रूस की धरती के व्यापक विस्तार में फैल गये हैं। जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह निहायत आसान है। मुझे समझने के लिए और कुछ नहीं, थोड़ा सा प्रयत्न चाहिए।
सीखो बच्चों सीखो, क-ख-ग,
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* तुम देख नहीं सकते, मैं रुधिर व मांस की बनी हूँ!
* * हाँ, तुम जिन्दा हो, पिप्पा, तुम्हारे पास एक दिल है!
जुझारू भौतिकवाद / 105
सही-सही हो, सब मन भाये,
फिर पढ़ भी लो तुम, लिख भी लो,
तो सारी दुनिया खुश हो जाये !
6
प्रिय महोदय, आप कहते हैं कि काण्ट द्वारा पूरी तरह अर्थ से वंचित वस्तु-निजरूप संज्ञान की दृष्टि से अनुपयोगी हो गयी है। और यह कहने के उपरान्त आप, हमेशा की तरह, यह कल्पना करते हैं कि आप महान विचारक हैं। परन्तु यह समझना कठिन नहीं है कि यहाँ पर जो सत्य आपने अभिव्यक्त किया है वह बेहद सस्ता है। काण्ट ने सिखलाया कि वस्तु-निजरूप ज्ञान की पहुंच के बाहर है। यदि यह ज्ञान की पहुंच के बाहर है तो किसी को भी, यहाँ तक कि अनुभवात्मक एकत्ववाद के बारे में कुछ न जानने वाले लोगों को भी यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि संज्ञान की दृष्टि से यह अनुपयोगी है। आखिर यह ठीक वही एक वस्तु नहीं क्या? तो इसका क्या नतीजा निकत्ता ? प्रिय महोदय, वह क़तई नहीं, जो आप सोचते हैं। यह नहीं कि वस्तु-निजरूप का अस्तित्व नहीं है, बल्कि यह कि इसके बारे में काण्ट की शिक्षा गलत थी। लेकिन आपने दर्शनशास्त्र के इतिहास और खास तौर से भौतिकवाद की इतने गलत तरीके से अपनाया है कि आप इस बात को हर बार भूल जाते हैं कि वस्तु-निजरूप के बारे में काण्ट के अलावा कोई अन्य शिक्षा भी स्वीकार की जा सकती है। इस बीच, यह स्पष्ट हो गया है कि यदि "ये या वे प्राणी" सिर्फ़ मेरे दिमाग़ में ही नहीं हैं, तो वे मेरे स्व के सन्दर्भ में निजरूप-वस्तुएँ हैं। और यदि यह स्पष्ट है तो यह भी साफ़ जाहिर हो जाना चाहिए कि हमें कर्त्ता और वस्तु के पारस्परिक सम्बन्ध को ध्यान में रखना होगा। जहाँ तक आप अहंमात्रवाद से इनकार करते हैं वैसे मैं पहले ही संकेत कर चुका हूँ कि आप किसी रहस्यमय शक्ति से हमेशा, अनजाने ही, उसके उदास तटों की ओर खिंच जाते हैं-जहाँ तक आप अहंमात्रवादी नहीं हैं, आप ख़ुद भी वस्तु और कर्त्ता के सम्बन्ध को सुलझाने की कोशिश करते हैं। वस्तुगतता से सम्बन्धित आपका पूर्णरूपेण बेतुका सिद्धान्त, जिसका मैंने ऊपर विश्लेषण किया है, इस • समस्या को सुलझाने का ऐसा ही एक प्रयत्न है। लेकिन ऐसा करने में आपने प्रश्न के विस्तार को सीमित कर दिया। आपने वस्तुगत जगत से सामान्यतः समस्त लोगों को हटा दिया और फलतः "उन या इन प्राणियों को भी बाहर कर दिया जिनकी चर्चा आप अहंमात्रवाद से बच निकलने के लिए कर रहे। आपको करने
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"अनुभवात्मक एकत्ववाद, दूसरा खण्ड, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1906, पृ. 9 ।
106 / जुझारू भौतिकवाद
का कोई तर्कसम्मत अधिकार नहीं था, क्योंकि वस्तुगत जगत हर अलग-अलग व्यक्ति के लिए वह सम्पूर्ण बाह्य जगत है, जिसमें प्रसंगतः, उस हद तक अन्य समस्त लोग भी शामिल हैं जिस हद तक वे केवल इसी व्यक्ति के मन में अस्तित्वमान नहीं हैं। आप इसके बारे में महज इस वजह से भूल जाते हैं कि अनुभव से सम्बन्धित जिस सिद्धान्त का दृष्टिकोण आपने अपनाया है वह अहंमात्रवाद का दृष्टिकोण है।* लेकिन मैं एक बार फिर आपकी बात मान लेता हूँ, मैं फिर स्वीकार करता हूँ कि "इन या उन प्राणियों" को वस्तुगत जगत का अंग न मानने का आपका दावा सही है। मैं आपसे केवल यह समझाने का नम्र निवेदन करता हूँ कि "इन या उन प्राणियों" का एक-दूसरे के साथ क्या रिश्ता है और वे एक-दूसरे के साथ किस प्रकार सम्पर्क कायम करते हैं? मुझे आशा है यह प्रश्न आपको परेशानी में नहीं डालेगा बल्कि, इसके विपरीत, यह आपको सुखी बनायेगा क्योंकि यह आपको इस बात का अवसर देता है कि आप अपने विश्व दर्शन की सर्वाधिक "मौलिक" विशेषता को हम सबके सामने उद्घाटित करें।
आप स्वभावतः (आपका अपना शब्द इस्तेमाल करें तो इस प्रश्न की छानबीन के लिए प्रारम्भिक मुद्दे की शक्ल में "प्रत्यक्ष अनुभवों" के एक निश्चित "समुच्चय" के रूप में मनुष्य की धारणा को लेते हैं। लेकिन एक अन्य व्यक्ति के लिए मनुष्य "सबसे पहले अन्य अनुभूतियों के मध्य एक अनुभूति के रूप में, अन्य समुच्चयों के बीच एक निश्चित दृश्य-स्पर्शीय-श्रव्य समुच्चय के रूप में प्रकट होता है। " यहाँ मैं इस बात को फिर उठा सकता हूँ कि अगर व्यक्ति 'क' के लिए व्यक्ति 'ख', सबसे पहले, एक निश्चित दृश्य-स्पर्शीय-श्रव्य समुच्चय के सिवा और कुछ
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'जब मैं "अनुभव" कहता हूँ तो मेरे मन में दो बातों में से एक है या तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव या केवल व्यक्तिगत अनुभव ही नहीं बल्कि मेरे "सह-मानवों" का अनुभव भी। पहली स्थिति में मैं एक अहंमात्रवादी हूँ, क्योंकि अपने व्यक्तिगत अनुभव में में सर्वदा अकेला होता हूँ दूसरी स्थिति में में अहंमात्रवाद से साफ़ बच निकलता हूँ क्योंकि मैं व्यक्तिगत अनुभव की सीमा लाँघ जाता हूँ। लेकिन "सह-मानवों" के अपने से स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करके मैं इस बात की पुष्टि करता हूँ कि उनमें उनके निज का स्वत्व है और उनके बारे में मेरी अनुभूति से, मेरे व्यक्तिगत अनुभव से परे व पृथक है। दूसरे शब्दों में, "सह-मानवों" के अस्तित्व को मान्यता देकर मैं, बल्कि बेहतर बात: मैं और आप, उस बात को घोर निरर्थक घोषित कर देते हैं जिसे, श्री बोग्दानोव, आप स्वत्व-निजरूप के ख़िलाफ़ कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह से हम "माझ्वाद", "आलोचनात्मक अनुभववाद", "अनुभवात्मक एकत्ववाद", आदि, आदि, आदि के सारे दर्शन का तख्ता पलट देते हैं। ** 'अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 121 |
जुझारू भौतिकवाद / 107
नहीं है तो 'क' को व्यक्ति 'ख' के स्वतंत्र व पृथक अस्तित्व को मानने का तार्किक अधिकार केवल उसी हालत में होगा जिस हालत में वह व्यक्ति 'क', आपकी (या अधिक सही मात की) अनुभव सम्बन्धी शिक्षा को नहीं मानता है। यदि वह इस शिक्षा को मानता है तो उसमें कम से कम, यह स्वीकार करने की ईमानदारी होनी चाहिए कि व्यक्ति 'ख' को अपने से व्यक्ति 'क' से पृथक अस्तित्ववाला घोषित करने में वह एक अधि-अनुभवात्मक, यानी अधिभूतवादी (में इन शब्दों को उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त कर रहा हूँ जैसा कि आप उन्हें समझते हैं) प्रस्थापना का "उच्चारण" कर रहा है, अन्यथा वह सम्पूर्ण माझ्वाद के आधार से ही इनकार करता है। लेकिन मैं इस पर ज़ोर नहीं दूंगा, क्योंकि मैं यह समझता हूँ कि अब पाठक आपकी असंगति के इस पक्ष को काफ़ी अच्छी तरह से समझने लगा है। अब मेरे लिए महत्वपूर्ण बात यह पता करना है कि प्रत्यक्ष अनुभवों का एक समुच्चय" (व्यक्ति 'ख') "प्रत्यक्ष अनुभवों के अन्य समुच्चय" (व्यक्ति 'क') को "अन्य अनुभूतियों के मध्य एक अनुभूति" के रूप में या अन्य समुच्चयों के मध्य एक निश्चित दृश्य-स्पर्शीय-श्रव्य समुच्चय के रूप में किस प्रकार प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, में यह समझना चाहूँगा कि "प्रत्यक्ष अनुभवों के" एक "समुच्चय" का "प्रत्यक्ष अनुभवों के" दूसरे "समुच्चय" द्वारा "प्रत्यक्ष अनुभव" की प्रक्रिया कैसे सम्पन्न होती है? मामला "सबसे पहले" हद दर्जे तक अंधकारपूर्ण लगता है। यह सच है कि आप इस पर यह स्पष्ट करके रोशनी डालने की चेष्टा करते हैं कि एक व्यक्ति दूसरे के लिए इस तथ्य की कृपा से प्रत्यक्ष अनुभवों का समन्वय बन जाता है कि लोग एक दूसरे के "उच्चारणों को समझते हैं।* लेकिन मुझे यह अपराध स्वीकार करना है कि मैं "तथ्य की इस कृपा" के लिए आप पर कृपा करना असम्भव पा रहा हूँ, क्योंकि इसकी "कृपा" से मामला पहले से अधिक स्पष्ट नहीं हुआ। इसलिए मैं आपके लेखों के लम्बे उद्धरण देने की अपनी प्रणाली का फिर उपयोग करता हूँ। शायद, वे मुझे यह पता लगाने में मदद करें कि जिस क्षेत्र में मुझे अब दिलचस्पी हुई है उसमें आपकी स्वतंत्र खोजें क्या हैं।
समुच्चय 'क' और समुच्चय 'ख' के बीच सम्बन्ध कायम होते हैं, जैसा कि आप कहते हैं, पारस्परिक प्रभाव** होता है। समुच्चय 'क' प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से समुच्चय 'ख' में प्रतिबिम्बित होता है; समुच्चय 'ख' समुच्चय 'क' में प्रतिबिम्बित होता है या कम से कम प्रतिबिम्बित हो सकता है। आप नितान्त सामयिक स्पष्टीकरण
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*"अन्त में, इस तथ्य की कृपा से कि लोग एक दूसरे के 'उच्चारणों' को परस्पर समझते हैं', मनुष्य अन्य के लिए भी प्रत्यक्ष अनुभवों का एक समन्वय, एक मानसिक प्रक्रिया, आदि बन जाता है।" ('अनुभवात्मक एकत्ववादा, पहला खण्ड, पृ. 121 ।)
**अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 1241
108 / जुझारू भौतिकवाद
देते हैं कि यद्यपि कोई विशेष समुच्चय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अन्य समजात समुच्चयों में प्रतिबिम्बित हो सकता है,* तथापि "वह उनमें अपने निज रूप में नहीं, अपने प्रत्यक्ष रूप में नहीं प्रतिबिम्बित होता है, बल्कि इन समुच्चयों के फेरबदल की इस या उस श्रृंखला के रूप में, समुच्चयों के आन्तरिक सम्बन्धों को जटिल बनाते हुए उनमें प्रविष्ट होने वी तत्वों के नये समूहनों के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। **
हम आपके इन शब्दों को ध्यान में रखेंगे, इनमें एक ऐसा विचार निहित है जो आपके प्रतिस्थापन के सिद्धान्त को समझने के लिए नितान्त आवश्यक है। इस समय हम अपना ध्यान एक और परिस्थिति, जिसे श्री योग्दानोव, आप बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं, के स्पष्टीकरण की ओर लगा ।
यह निम्नांकित है :
आप कहते हैं "जीवित प्राणियों" की अन्तक्रिया सीधे-सीधे, प्रत्यक्षतः सम्पन्न नहीं होती है; एक प्राणी का अनुभव अन्य के अनुभव के दायरे में नहीं होता है। एक जीवन प्रक्रिया दूसरे में केवल अप्रत्यक्ष रूप से ही प्रतिविम्बित होती है। *** और यह पर्यावरण की मध्यस्थता के द्वारा ही सम्पन्न होती है।
यह भौतिकवादी सिद्धान्त का आभास देता है। फ्रायरवाख अपने Vorlanifigen Thesen zur Reform der Philosophie**** में कहते हैं: "Ich bin lch-fur mich, und zugleich Du-fur Andere." (में स्वयं के लिए "मैं" हूँ, और साथ ही दूसरों के लिए "तू' हूँ।)34 लेकिन अपने संज्ञान-सिद्धान्त में फ्रायरबाख एक पक्कै भौतिकवादी बने रहते हैं वे "मैं" को (और न उन "तत्वों" को जिनमें "" को विभाजित किया जा सकता है) देह से जुदा नहीं करते। ये लिखते हैं: "में असली संवेदनशील स्वत्व हूँ, मेरी देह मेरे स्वत्व की है। यह कहा जा सकता है कि मेरी देह अपनी समग्रता (in seiner Totalitat) में मेरा अहं है, मेरा स्वयं स्वत्व है।***** इसलिए फायरबा की भौतिकवादी दृष्टि से दो लोगों को अन्तक्रिया "सबसे पहले" एक निश्चित तरीके से संगठित दो देशों की अन्तक्रिया है।****** यह अन्तक्रिया
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* उसी पुस्तक के बाद के पृष्ठ में आप जैसा में ऊपर उल्टी बात कहते है कि जीवित प्राणियों (यानी समुच्चयों को अन्तरक्रिया नहीं होती। यह आपके उन अनगिनत अन्तरविरोधों में से एक है जिन्हें जांचना व्यर्थ है।
**वही, पृ. 1241
*** अनुभवात्मक एकल्यवाद पृ. 1251 **** ['दर्शनशास्त्र के सुधार की प्रारम्भिक थीसिस।
***** Week, II, 325
****** Nicht dem Ich, sondern dem Nicht-ich in mir, um in der Sprache Fichtes zu reden, ist ein Objekt, d.i. anderes Ich gegeben; denn nur da,
जुझारू भौतिकवाद / 109
कभी-कभी, प्रत्यक्ष रूप से होती है, मसलन, जब व्यक्ति 'क' व्यक्ति 'ख' को छूता है, और कभी-कभी पर्यावरण को मध्यस्थता से होती है, मसलन, जब व्यक्ति 'क' व्यक्ति 'ख' को देखता है। यह कहे बिना भी स्पष्ट है कि फ़ायरबाख के लिए मनुष्य का पर्यावरण केवल भौतिक पर्यावरण ही हो सकता है। लेकिन आपके लिए तो यह बहुत ही सरल है: vous avez changé tout cela* इसलिए, कृपया हमें बताइये, वह पर्यावरण क्या है जिसकी मध्यस्थता से, आपकी "मौलिक" शिक्षा के अनुसार, प्रत्यक्ष अनुभवों के उन समुच्चयों की पारस्परिक क्रियाएँ होती हैं जिन्हें हम अज्ञानी लोग कहते हैं, और जिन्हें आप, हमारी कमजोरी के लिए गुंजाइश निकालकर लेकिन उसे मान्यता देने की कामना न करते हुए "लोग" (यानी, आलोचनात्मक अनुभववादी उद्धरण चिह्नों
के भीतर रखे लोग) कहते हैं। हमें इसके उत्तर के लिए प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। उत्तर पहले से ही हाजिर है :
"लेकिन पर्यावरण क्या है? इस धारणा में अर्थ केवल तभी होता जब यह उसके मुक़ाबले में हो जिसका अपना 'पर्यावरण' होता है, या, मौजूदा स्थिति में, जीवन-प्रक्रिया के। यदि हम जीवन-प्रक्रिया को प्रत्यक्ष अनुभवों का समुच्चय मानें तो 'पर्यावरण' वह सब होगा जो इस समुच्चय में प्रविष्ट नहीं होता है। लेकिन अगर यह वह 'पर्यावरण' है जिसकी कृपा से कुछ जीवन-प्रक्रियाएँ अन्य में प्रतिबिम्बित होती हैं तो उसके लिए उन तत्वों की समग्रता होना लाज़िमी है जो अनुभवों संगठित समुच्चयों में प्रविष्ट नहीं होते असंगठित तत्वों की समग्रता, सही अर्थों में तत्वों की उथल-पुथल हमारी अनुभूति तथा संज्ञान में 'अजैव जगत' के रूप में यही प्रकट होता है।**
इस प्रकार, तात्कालिक अनुभवों के समुच्चयों की पारस्परिक क्रियाएँ अजैव जगत की मध्यस्थता से सम्पन्न होती हैं और अजैव जगत "सही अर्थों में तत्वों की
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wo ich aus einem Ich in ein Du umgewandelt werde, wo ich leide, entstehet die Vorstellung einer ausser mir seienden Aktivitat, d.i. Objektivitat. Aber nur durch den Sinn ist Ich-Nicht-lch" (Werke, II, 322). ["यदि यह फ़िखटे की भाषा में व्यक्त हो सके तो वस्तु, अर्थात अन्य 'मैं', 'मैं' को नहीं बल्कि मेरे अन्दर के 'मैं-नहीं' को प्रदत्त है; वस्तुतः केवल वहीं, जहाँ पर मैं 'मैं' से 'तू' में रूपान्तरित होता हूँ, भोगता हूँ, वहीं पर मुझसे बाह्य क्रियाकलापों की संकल्पना उत्पन्न होती है, यानी वहीं पर वस्तुगतता की छाप पड़ती है। लेकिन सिर्फ़ संवेदन की क्षमता से ही में नहीं हो जाता
• आपने यह सब बदल दिया।
** अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 1251
110 / जुझारू भौतिकवाद
उथल-पुथल" के अलावा और कुछ नहीं है। खूब। लेकिन अजैव जगत, जैसा कि हर कोई जानता है, वस्तुगत भौतिक जगत का एक अंग है। तो फिर भौतिक जगत क्या है? श्री बोग्दानोव, अब हम आपके उद्घाटनों से इसे बहुत अच्छी तरह से जान गये हैं। आपने हमें बताया था (और हम भूले नहीं) कि "सामान्यतः भौतिक जगत समाज-समन्वित, समाज द्वारा सामंजस्यीकृत और, संक्षेप में, सामाजिक रूप से संगठित अनुभव होता है।* आपने यह बात सिर्फ़ कही ही नहीं है, बल्कि काटो की हठधर्मिता के साथ दोहरायी है जो जोर देकर दोहराता जाता था कि कार्थेज को नष्ट करना ही चाहिए। अब हमारे सम्मुख पाँच यंत्रणादायी प्रश्न "स्वभावतः" उठ खड़े होते हैं।
पहला। वह भयावह विपत्ति "अनुभवों" की किस कोटि में आती है जिसके फलस्वरूप "समाज-समन्वित, समाज द्वारा सामंजस्यीकृत और, संक्षेप में, सामाजिक रूप से संगठित अनुभव" "सही अर्थों में तत्वों की एक उथल-पुथल" में परिवर्तित हो गया ?
दूसरा। यदि लोगों (जिन्हें आप विविधता के लिए जीवित प्राणी कहते हैं, पर आलोचनात्मक अनुभववादी उद्धरण-चिह्नों के साथ) की पारस्परिक क्रियाएँ सीधे-सीधे और प्रत्यक्ष रूप से सम्पन्न नहीं होतीं "बल्कि केवल" पर्यावरण, यानी, अजैव जगत जो भौतिक जगत का अंग है, की मध्यस्थता से होती हैं, आगे, यदि भौतिक जगत सामाजिक रूप से संगठित अनुभव है और इस रूप में विकास का एक उत्पाद है (जैसा कि हमने आपसे ही कई बार सुना है), तो विकास के इस उत्पाद की उत्पत्ति से पहले, यानी अनुभव के "सामाजिक रूप से संगठित" होने से पहले, उस अनुभव के जो वही भौतिक जगत है जिसमें अजैव जगत सम्मिलित है, यानी यही पर्यावरण सम्मिलित है जो, आपके अनुसार, जरूरी है ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों के समुच्चय या लोग एक दूसरे को प्रभावित कर सकें इससे पहले लोगों की पारस्परिक क्रियाएँ कैसे सम्भव थीं ?
तीसरा। यदि अनुभव के "सामाजिक रूप से संगठित" होने से पहले अजैव पर्यावरण नहीं था तो इस अनुभव के संगठन का "समारम्भ" कैसे हुआ? क्या हमें यह नहीं बताया गया है कि "जीवित प्राणियों की अन्तकिया सीधे-सीधे और प्रत्यक्षतः सम्पन्न नहीं होती ?
चौथा। यदि इंगित विकास के फलस्वरूप अजैव पर्यावरण की रचना से पहले लोगों की पारस्परिक क्रियाओं की कोई सम्भावना नहीं थी, तो किसी भी प्रकार की
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*यह पैरा 'अनुभवात्मक एकत्ववाद' के पहले खण्ड के 33व पृष्ठ पर है और शब्दों पर जोर, श्रीमान योग्दानोव, आप ही ने दिया है।
जुझारू भौतिकवाद / 111
विश्व प्रक्रियाएँ कैसे हो सकती थी? प्रत्यक्ष अनुभव के उन अलग-थलग समुच्चयों, जो अल्लाह जाने कहाँ से प्रकट हुए, के अलावा किसी भी प्रकार की कोई भी चीज कैसे उत्पन्न हो सकती थी?
पाँचवाँ। जिस काल में सर्वा कुछ नहीं था और फलतः, जय "अनुभव" करने के लिए किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं था तब ये समुच्चय वस्तुतः किसका "अनुभव" कर सकते थे।
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यहाँ आप खुद महसूस करते हैं कोई चीज फिर सही नहीं और आप सम्भव गलतफहमियों को मिटाना जरूरी समझते हैं। आप उन्हें कैसे मिटाते हैं?
"हमारे अनुभव में," आप लिखते हैं, अजैव जगत तत्वों की उथल-पुथल नहीं बल्कि निश्चित देशकालिक समूहों की एक श्रृंखला है, हमारे संज्ञान में अजव • जगत सम्बन्धों की अनवरत नियमितता द्वारा एकीकृत एक व्यवस्थित प्रणाली तक में रूपान्तरित हो जाता है। लेकिन 'अनुभव में' और 'संज्ञान में' का अर्थ है किसी के अनुभवों में एकता और व्यवस्था अनवरतता और नियमितता तत्वों के संगठित समुच्चयों के रूप में अनुभवों की चीज है, इस संगठित अवस्था से पृथक रूप में देखने पर, 'an sich' मानने पर, अजेय जगत सचमुच ही तत्वों की उथल-पुथल है एक पूर्ण अथवा लगभग पूर्ण अनिश्चितता है। यह किसी भी हालत में अधिभूत नहीं है, यह महज इस तथ्य की अभिव्यक्ति है कि अजैव जगत जीवन नहीं है, तथा इस मूलभूत एकत्यवादी विचार की अभिव्यक्ति है कि अजैव जगत जीवित प्रकृति से अपने पदार्थ (यही 'तत्व' जो अनुभव के तत्व है) से नहीं बल्कि अपनी असंगठित अवस्था से भिन्न है।*
यह "शब्दोच्चारण गलतफहमियों को मिटाने की बजाय उन्हें बढ़ा देता है। इसने कुछ ऐसी नयी ग़लतफ़हमी पैदा कर दी है जो पहले नहीं थी। "मूलभूत एकत्ववादी विचार" का हवाला देते समय आप स्वत्व के दो रूपों में भेद करने की उस प्रवृत्ति पर लौट आते हैं, जिसकी आलोचना करने में आपको, माछ और आवेनारिका अनुकरण करते हुए, इतनी ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। आप स्वत्व "an sich" और हमारे संज्ञान में स्वत्व, यानी, किसी की अनुभूतियों में पानी, "अनुभव में के बीच भेद करते हैं। परन्तु यदि यह भेद करना सही है तो आपका सिद्धान्त, आपकी अपनी परिभाषाओं के अनुसार, अधि अनुभवात्मक, यानी, अधिभूतवादी सिद्धान्त है। आपको स्वयं यही आभास होता है, इसलिए आप लेशमात्र प्रमाण के बिना यह घोषणा करते हैं कि यह किसी भी हालत में अधिभूतवाद नहीं है। प्रिय महोदय, आपके
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*अनुभवात्मक एकत्ववाद, पृ. 125-1261
जुझारु भौतिकवाद/112
अनुभव-सिद्धान्त की रोशनी में-और इस सिद्धान्त पर सम्पूर्ण "आलोचनात्मक अनुभववाद", सारा मालवाद और सम्पूर्ण "अनुभवात्मक एकत्ववाद" आधारित है-और "वस्तु-निजरूप" की आपकी आलोचना की रोशनी में यह विशुद्ध अविवादास्पद अधिभूतवाद है। लेकिन यहाँ आप "अधिभूतवादी बनने से बच नहीं सकते थे, क्योंकि अपने अनुभव- सिद्धान्त के वशीभूत होकर आपने स्वयं को कभी न सुलझ सकने वाले अन्तरविरोधों में उलझा लिया। उस "दर्शनशास्त्र" के बारे में क्या कहा जा सकता है जो स्वयं अपने आधार को त्याग कर निरर्थकता से मुक्ति पाने की थोड़ी उम्मीद करता है?
परन्तु आप यह भी महसूस करते हैं कि "अनुभव में" स्वत्व तथा स्वत्व "an sich" के बीच भेद को स्वीकार करके आपका दर्शन स्वयं अपना गला काट रहा है। इसलिए आप ऐसी चीज का सहारा लेते हैं जिसे शाब्दिक चालबाजी कहा जा सकता है। आप "अनुभव में जगत को जगत-निजरूप से पृथक नहीं करते बल्कि • जगत "an sich" से करते हैं और इस दूसरे जगत को उद्धरण चिह्नों के घेरे में रख देते हैं। यदि "यह या वह" प्राणी यह ध्यान दिलाये कि यहाँ आप उस स्वत्व-निजरूप को पेश कर रहे हैं जिसे आपने, खुद ही, "संज्ञानात्मक दृष्टि से व्यर्थ" घोषित किया था, तो आप उत्तर देंगे कि यद्यपि आपने "संज्ञान की दृष्टि से व्यर्थ" धारणा के द्योतक पुराने शब्द का उपयोग किया है, तथापि आपने उसे उद्धरण-चिह्नों के अन्दर रखकर नितान्त भिन्न अर्थ प्रदान कर दिया है। कमाल है! यह संयोग नहीं था कि अपने पहले पत्र में मैंने आपकी तुलना चतुर साधू गोरनफ़्लो से की थी।
स्वत्व-निजरूप के रूसी कपड़े उतारकर उसे एक जर्मन लिबास पहनाने तथा उसके गिर्द उद्धरण-चिह्नों का घूँघट डालकर आप बेमौक़े चतुराई दिखाने वाले इस या उस" प्राणी की आपत्तियों को टालना चाहते थे; यह बात उस नोट से प्रकट होती है जो आपने कुछ समय बाद, और बिल्कुल सही कहें तो पृष्ठ 159 में, लिखा है।* वहाँ आप हमें "याद दिलाते" हैं कि आपने "an sich" पद का उपयोग किसी भी हालत में अधिभूतवादी अर्थ में नहीं किया। और आप इसे निम्नांकित तरीक़े से सिद्ध करते हैं:
"अन्य लोगों की कुछ दैहिक प्रक्रियाओं के लिए हम 'प्रत्यक्ष समुच्चयों' चेतना-को प्रतिस्थापित करते हैं; मानसिक अनुभव की आलोचना हमें विवश करती है कि हम इस प्रतिस्थापन के क्षेत्र को विस्तृत बनायें, और हम सारे दैहिक जीवन को प्रत्यक्ष संगठित समुच्चयों का "प्रतिबिम्ब" मानते हैं। लेकिन
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*अनुभवात्मक एकत्ववाद', Universum (पृथक और निरन्तर का अनुभवात्मक एकत्ववाद')।
जुझारू भौतिकवाद / 113
अजैव प्रक्रियाएँ मूल रूप में देहिक, जो उनके संगठित सम्मेल मात्र होती हैं, से भिन्न नहीं होतीं। दैहिक प्रक्रियाओं के साथ एक ही अविच्छिन्न श्रृंखला में होने के कारण अजैव प्रक्रियाओं को भी स्पष्टतः, 'प्रतिबिम्ब' माना जाना चाहिए, लेकिन किसका? प्रत्यक्ष असंगठित समुच्चयों का। हम इस प्रतिस्थापन की ठोस रूप में अपनी चेतना से लागू करने में अभी तक असमर्थ हैं। तो क्या? हम बहुधा जानवरों के सन्दर्भ में भी (अमीबा के अनुभव) और अन्य लोगों तक के सन्दर्भ में सी (उनकी मानसिकता की 'अबोध्यता') ऐसा करने में असमर्थ होते हैं। लेकिन दोस प्रतिस्थापन की जगह पर हम इन मामलों के सम्बन्धों को निरूपित कर सकते हैं। ('जीवन an sichh' प्रत्यक्ष संगठित समुच्चय, पर्यावरण an sich' असंगठित समुच्चय)"
आपके इस नये बयान का महत्व पूरी तरह से केवल तब उद्घाटित होगा। जब हम आपके "प्रतिस्थापन सिद्धान्त के उपयोग मूल्य का निर्धारण करेंगे। जैसा कि हमने देख लिया है, आपका यह सिद्धान्त दर्शन के क्षेत्र में मौलिकता के आपके दावे का एक आधार है। परन्तु यह बात पहले से ही कही जा सकती है कि यह बयान "संज्ञानात्मक दृष्टि से व्यर्थ है। श्री योग्दानोद, इसे आप खुद सोच निकालिये, यहाँ आपके इंगित किये हुए "मामलों" के "सम्बन्धों के आपके निरूपण का क्या महत्व हो सकता है? हम मान लेते हैं कि यह निरूपण जीवन an sich" प्रत्यक्ष संगठित समुच्चय हैं, "पर्यावरण an sich" असंगठित समुच्चय बिल्कुल सही है। अब आगे क्या है? आखिर प्रश्न यह नहीं है कि जीवन an sich" "पर्यावरण an sich" के साथ किस तरह सम्बन्धित हैं, बल्कि यह है कि "जीवन an sich" और "पर्यावरण an sich" "हमारे अनुभव में", हमारे "संज्ञान", हमारी "अनुभूतियों" में जीवन और पर्यावरण से किस प्रकार सम्बन्धित हैं। आपके नये बयान में इसका कोई उत्तर नहीं मिलता है। इसलिए, न तो यह बयान और न स्वत्व-निजरूप के रूसी कपड़ों को बदलकर जर्मन लिबास पहनाने की कटिल कला ही चतुर "प्राणियों" को यह घोषणा करने के अपने अधिकार से वंचित कर सकती है कि अगर आप अपने "दर्शन" में अन्तर्निहित असाध्य अन्तरविरोधों को क्षण भर के लिए टालते हैं तो केवल निज-में-स्वत्य और अनुभव-में-स्वत्व के बीच "संज्ञान की दृष्टि से व्यर्थ" भेद को स्वीकार करके ही टाल पाते हैं।* अपने शिक्षक माख की तरह, आप, नितान्त प्रारम्भिक तार्किक आवश्यकता की
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• असाध्य अन्तरविरोधों को क्षण भर के लिए टालने की बात में इसलिए कहता हूँ कि आप उन्हें अधिक समय तक टाल ही नहीं सकते। वास्तव में, अगर अजूद जगत की उथल-पुथल है, जबकि हमारे संज्ञान में वह सम्बन्धों को अनवरत नियमितता द्वारा एकीकृत एक व्यवस्थित प्रणाली तक में रूपान्तरित हो जाता है, तो यह दो चीज़ों में से
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खातिर, जिसकी पूजा करने के लिए हमें आमंत्रित करते हैं उसे जला डालते हैं और जिसे जलाने के लिए हमें बुलाते हैं उसकी पूजा करते हैं।
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केवल एक शब्द और, इसके बाद में तर्कशास्त्र के विरुद्ध आपके घातक पापों की सूची को बन्द कर दूंगा। मैं आपके "प्रतिस्थापन" सिद्धान्त पर आता हूँ। यही वह विशेष सिद्धान्त है जिसको हम अज्ञानियों को यह समझाना चाहिए कि एक मनुष्य "एक अन्य व्यक्ति के लिए" "अन्य समुच्चयों के बीच एक निश्चित दृश्य-स्पर्शीय श्रव्य समुच्चय" के रूप में किस प्रकार "प्रकट होता है"।
हमें पहले से ही मालूम है कि प्रत्यक्ष अनुभवों के समुच्चयों (या, सरल रूप में, लोगों) के बीच अन्तक्रिया होती है। वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, एक दूसरे में "प्रतिविम्बित" होते हैं। लेकिन ये "प्रतिबिम्बित" कैसे होते हैं? यही मुख्य सवाल है।
यहाँ हमें आपके उस विचार को याद करना होगा जिसे मैं पहले ही नोट कर चुका हूँ, कि यद्यपि प्रत्येक कल्पित "समुच्चय" अन्य समजात समुच्चयों में प्रतिबिम्बित हो सकता है, तथापि वह अपने प्रत्यक्ष रूप में प्रतिबिम्बित नहीं होता बल्कि इन समुच्चयों के किन्हीं परिवर्तित रूपों में, "समुच्चयों के आन्तरिक सम्बन्धों को जटिल बनाते हुए उनमें प्रविष्ट होने वाले तत्वों के नये समूहनों के रूप में, " प्रतिबिम्बित होता है। मैंने टिप्पणी की थी कि आपके "प्रतिस्थापन" सिद्धान्त को समझने के लिए यह विचार अत्यन्त आवश्यक है। अब इससे निबटने का वक़्त आ गया है।
श्री बोग्दानोव, इस महत्वपूर्ण विचार को आपके अपने शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए मैं कहूँगा कि समुच्चय 'क' का समुच्चय 'ख' में प्रतिबिम्ब "इस दूसरे समुच्चय के परिवर्तनों की एक निश्चित श्रृंखला है, उन परिवर्तनों की, जो कार्यिक
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एक का मामला है: या तो आप स्वयं नहीं जानते कि आप कह क्या रहे हैं, या आप, जो खुद को एक ताज़ातरीन क़िस्म का स्वतंत्र चिन्तक मानते हैं, अत्यन्त शर्मनाक ढंग से वृद्ध काण्ट की विचारधारा को मानने लगे हैं, जिनका दावा था कि विवेक बाह्य जगत के लिए अपने नियम तय करता है। श्रीमान बोग्दानोव, मैं आपसे सत्यतः, सत्यतः कहता हूँ • आप अपने अन्तिम दिनों तक एक अन्तरविरोध से दूसरे की ओर, बग़ैर पाल और पतवार के, भटकते रहेंगे। मुझे यह सन्देह होने लगा है कि आपका "दर्शन" ही तत्वों की वह उथल-पुथल है जिनसे, आप हमें बताते हैं, अजैव जगत की रचना हुई है।
जुझारू भौतिकवाद / 115
निर्भरता द्वारा पहले समुच्चय की अन्तर्वस्तु व संरचना से सम्बन्धित होते हैं।* यहाँ पर "कार्यिक निर्भरता' का क्या अर्थ है? सिर्फ़ यह कि समुच्चय 'क' और समुच्चय 'ख' के बीच अन्तक्रिया में पहले समुच्चय की अन्तर्वस्तु और संरचना के तदनुरूप दूसरे समुच्चय के परिवर्तनों की एक निश्चित श्रृंखला होती है। न कम न ज्यादा। इसका मतलब यह है कि जब मुझे आपसे वार्तालाप करने का सम्मान प्राप्त होता है तो मेरे "अनुभव" आपके अनुभवों की संरूपता में आ जाते हैं। इस संरूपता का क्या स्पष्टीकरण है? उन्हीं "कार्यिक निर्भरता" शब्दों के सिवा इसे स्पष्ट करने के लिए और कुछ भी नहीं है और यह शब्द क़तई स्पष्ट नहीं करते। इसलिए, श्री योग्दानोव: मैं आपसे पूछता हूँ, क्या इस "कार्यिक" संरूपता तथा उस "पूर्वस्थापित सामंजस्य" के बीच कोई भी फ़र्क है जिसे आप अपने शिक्षक माख के चरणचिह्नों पर चलते हुए घोर घृणा के साथ ठुकरा चुके हैं? एक बार फिर सोचिये तब आप खुद ही देखेंगे कि उनके बीच क़तई कोई फर्क नहीं है और कि, इसीलिए, आप पुराने बुजुर्ग पूर्वस्थापित सामंजस्य" का अकारण अपमान किये जा रहे हैं। अगर आप सचमुच निष्कपट होना चाहते हैं (वैसे मुझे इसकी कोई खास उम्मीद नहीं) तो आप खुद हमें बतायेंगे कि "पर्यावरण" का हवाला आपने दिया था वह "पूर्वस्थापित सामंजस्य" के पुराने सिद्धान्त तथा आपकी "कार्यिक निर्भरता" के बीच आपके लिए निहायत अरुचिकर समानता की धुंधली धुंधली सी चेतना के कारण दिया गया था। लेकिन मैंने ऊपर जो कहा है उसके बाद यह समझाना शायद ही जरूरी है कि इस कठिन मामले में पर्यावरण संज्ञान की दृष्टि से व्यर्थ है, चाहे इसका सिर्फ़ यही कारण हो कि आपके सिद्धान्त में यह समुच्चयों की अन्तक्रिया का परिणाम है और यह स्पष्ट नहीं करता है कि "पूर्वस्थापित सामंजस्य" के सिवा ऐसी अन्तर्क्रिया कैसे सम्भव है।
आगे।
इस "अधि-अनुभवात्मक" (यानी "अधिभूतवादी") प्रस्थापना को पेश करने के बाद कि अजैव जगत "an sich" "हमारे अनुभव में" अजैब जगत से नितान्तः भिन्न है, आप आगे कहते हैं
"यदि असंगठित 'पर्यावरण' जीवन-प्रक्रियाओं की अन्तक्रिया में मध्यवर्ती कड़ी है, यदि इसके माध्यम से अनुभवों के समुच्चय एक दूसरे में प्रतिबिम्बित होते हैं, तो इस तथ्य में कोई नवीनता और विचित्रता नहीं है कि इसी की म यस्थता से प्रस्तुत जीवन समुच्चय स्वयं में भी प्रतिबिम्बित होता है। समुच्चय 'क' समुच्चय 'ख' पर क्रिया करते हुए 'ख' की मध्यस्थता से समुच्चय 'ग' पर भी
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* अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 124
116 / जुझारु भौतिकवाद
प्रभाव डाल सकता है और समुच्चय 'क' पर भी, यानी, स्वयं अपने ऊपर...इस दृष्टिकोण से यह बात पूर्णतः बोधगम्य है कि जीवित प्राणी को स्वयं की 'बाह्यानुभूति' हो सकती है, वह स्वयं को देख सकता है, स्पर्श कर सकता है, सुन सकता है, आदि, आदि, कहने का तात्पर्य है कि अपने ही अनुभवों की श्रृंखला के मध्य उनको ग्रहण कर सकता है जो ('पर्यावरण' की मध्यस्थता से) ठीक उसी श्रृंखला के एक अप्रत्यक्ष बिम्ब का प्रतिनिधित्व करते हैं।*
इन सब बातों का दैनिक जीवन की भाषा में अनुवाद करने पर यह अर्थ होता है कि जब एक मनुष्य स्वयं अपने शरीर का अनुभव करता है तब वह अपने ही कुछ "अनुभवों" का "अनुभव करता है, जो "दृश्य-स्पर्शीय समुच्चय" का रूप धारण कर लेते हैं क्योंकि वे पर्यावरण की मध्यस्थता के द्वारा प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। यह चोर अबोधगम्य "an sich है जरा यह समझने की कोशिश कीजिये कि एक आदमी अपने ही "अनुभवों" का कैसे "अनुभव करता है फिर चाहे यह उस "पर्यावरण" की मध्यस्थता के जरिए ही क्यों न हो, जिसका, जैसा कि हमें पहले से ही मालूम है, क़तई कुछ अर्थ नहीं होता है।** श्रीमान बोग्दानोव, यहाँ आप उस अर्थ में एक अधिभूतवादी बन गये हैं जो वोल्तेयर ने इसे दिया था- उन्होंने दृढ शब्दों में कहा था कि जब एक आदमी कोई ऐसी बात कहता है जिसे वह खुद नहीं समझता तो वह अधिभूतवादी काम करता होता है। लेकिन जो अबोधगम्य "an sich" विचार आपने व्यक्त किया है उसे इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है। : हमारा शरीर एक खास तरीके से प्रतिबिम्बित हमारे मानसिक अनुभव के अलावा और कुछ नहीं है। यदि यह प्रत्ययवाद नहीं है, तो और क्या है?
श्री योग्दानोव, आपने माख को शानदार ढंग से परिपूर्ण बनाया है। मैं यह बात मजाक में नहीं कह रहा हूँ। एक भौतिकीविद के रूप में माख कभी-कभार भटकते हुए भौतिकवाद में आ जाते थे। मैंने यह बात आपके नाम अपने दूसरे पत्र में कुछ सुस्पष्ट उदाहरणों से दर्शायी थी। इस अर्थ में माख ने द्वैतवाद का पाप किया था। आपने उनकी गलती सुधार दी है। आपने उनके दर्शन को आयोपान्त प्रत्ययवादी बना दिया। इसके लिए हम आपकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकते।***
कृपया यह मत सोचियेगा, श्रीमान बोग्दानोव, कि मैं इस पर आपको खिल्ली
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*अनुभवात्मक एकत्ववादा, पृ. 1261
**हम पहले की किसी भोगी हुई बात को याद करके ही स्वयं अपने अनुभवों का "अनुभव कर सकते हैं। पर, श्री बोग्दानोय, आप किसी नितान्त भिन्न बाल के बारे में बोल रहे हैं।
***आपको प्रतीत हुआ कि माख और आवेनारिउस द्वारा मानसिक तथा भौतिक को दो भिन्न-भिन्न श्रृंखलाओं के रूप में मान्यता दिया जाना एक प्रकार की दैतता को
जुझारु भौतिकवाद / 117
उड़ा रहा हूँ। इसके बिल्कुल विपरीत, मैं आपके लिए एक प्रशंसा वाक्य कहने जा रहा हूँ और शायद एक बहुत बड़ा प्रशंसा वाक्य। मैं आपके जिस तर्क को अभी-अभी उद्धृत कर रहा था उससे मुझे उस रचनात्मक बुद्धि के बारे में शैल्लिंग की शिक्षा याद आती है जो अपनी ही सक्रिया पर विचार करती है लेकिन विचारने की इस प्रक्रिया के बारे में सचेत नहीं है, और इसीलिए अपने उत्पादों को बाहर से प्राप्त वस्तुओं के रूप में ग्रहण करती है। यह सच है कि आपके मामले में शैल्लिंग की यह शिक्षा काफ़ी बदल गयी हैं, बल्कि सच तो यह है कि इसने, यह कहा जा सकता, एक विकृत नक़ल का सा रूप ग्रहण कर लिया है। लेकिन आपके लिए यह कुछ सान्त्वना की बात अवश्य है कि आप कम से कम एक महान आदमी की विकृत नकल तो हैं।
आपको नोट करना चाहिए कि आपके लिए यह प्रशंसा वाक्य कहते समय, जो, में स्वीकार करता हूँ, आपको सन्दिग्ध लग रहा होगा, मेरी इच्छा यह अर्थ निकालने की किसी भी हालत में नहीं है कि माख के "दर्शन" में अपना परिशिष्ट जोड़ते समय आपको यह पता था कि आप किसी और व्यक्ति के प्रत्ययवादी सिद्धान्त को, और यह भी खासे पुराने सिद्धान्त को परिवर्तित कर रहे थे। नहीं, मैं समझता हूँ कि यह पुराना सिद्धान्त, आपके "पर्यावरण" के कुछ विशेष गुणों के कारण, बिल्कुल अनजाने ही, "आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान" की मुख्य उपलब्धियों से निकले दार्शनिक निष्कर्षो के "समुच्चय" के रूप में आपके सिर के भीतर "प्रतिबिम्बित हुआ। लेकिन प्रत्ययवाद का प्रचार करने वाला उसकी प्रकृति के बारे में कितना ही अनभिज्ञ क्यों न हो, प्रत्ययवाद तो प्रत्ययवाद ही है। जिस प्रत्ययवाद को आपने आत्मसात किया है उसे अपने ढंग से विकसित, यानी, विरूपित, करते हुए आप "स्वभावतः" भूतद्रव्य के बारे में विशुद्ध प्रत्ययवादी विचार पर आ पहुंचते हैं। यद्यपि आप इस पूर्वकल्पना को अस्वीकार करते हैं कि आपके मत से "भौतिक" "मानसिक" का "अन्य स्वत्व" मात्र है, तथापि वास्तव
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मान्यता देने के बराबर है। आपने इस द्वैतता को समाप्त करना चाहा। जिन अनेकों और गहन "क्यों-क्यों" की रद से आपने माख और आवेनारिउस को दिक़ किया ये इस बात के स्पष्ट संकेत ये कि आप परेशान करने वाली उस द्वैतता से छुटकारा पाने का रहस्य जानते हैं। वास्तव में, आपने साफ़-साफ़ ऐसा कह दिया था। अब हम जानते हैं कि वह रहस्य क्या था आप घोषणा करते हैं कि "भौतिक" "मानसिक" का अन्य स्वत्व है। बेशक, यह एकत्ववाद है। पर दुर्भाग्य से, प्रत्ययवादी एकत्ववाद है।
• मैंने इन तीन शब्दों को उद्धरण-चिह्नीं के अन्दर इसलिए रखा क्योंकि स्वयं आपने उन्हें इस उम्मीद से ऐसे चिह्नों के अन्दर रखा था ताकि उन्हें उनके प्रत्यक्ष, यानी, सही अर्थ को समझने में पाठक का कोई प्रयत्न सफल न हो सके। देखिये 'अनुभवात्मक एकत्ववाद', दूसरा खण्ड, पृ. 26 ।
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में यह पूर्वकल्पना सत्य के पूर्णतः अनुरूप है। भूतद्रव्य सम्बन्धी तथा किसी भी वस्तु के बारे में आपके विचार, मैं फिर कहता हूँ, प्रत्ययवाद में गले-गले तक हैं। इस बात पर पूर्णतः विश्वास करने के लिए, उदाहरणार्थ, क्रियावैज्ञानिक पर आपके गहन विचारों को पढ़ना पर्याप्त है। "संक्षेप में, इस बात को सर्वाधिक माना जाना चाहिए कि संगठित जीवित एल्बुमिन मानसिक प्रकृति के प्रत्यक्ष की भौतिक अभिव्यक्ति ('या प्रतिबिम्ब') है और यह सही है कि वे हर विशेष में जितने आदिम होंगे उतना ही कम जटिल इस जीवित एल्बुमिन का संग होगा।* यह स्पष्ट है कि जो रसायनविद और शरीरक्रियाविद इस दृष्टिकोण क करना चाहेंगे उन्हें विशुद्ध प्रत्ययवादी "विद्याओं" का निर्माण करना, शेलि "परिकल्पनात्मक" प्रकृति विज्ञान की ओर लौटना होगा।
अब यह समझना कठिन नहीं है कि जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के को देखता है तो ठीक-ठीक क्या होता है। लेकिन सबसे पहले हमें उन उद्धरण पर ध्यान देना चाहिए जिनकी, श्रीमान बोग्दानोव, आपके "दर्शन" में एक असा भूमिका है। एक व्यक्ति दूसरे के शरीर को किसी भी तरह से नहीं देखता है तो "आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान" के लिए अयोग्य भौतिकवाद है! वह "शरीर देखता है, यानी उद्धरण-चिह्नों के अन्दर शरीर को, वैसे वह उन उद्धरण चिह केवल तभी देखता है जब वह "अनुभवात्मक एकत्ववादी" के स्कूल का हो । उद्धरण-चिह्नों के अन्दर शरीर का मतलब है उसे, जैसा कि धर्मज्ञान प्रश्न कहती है, आध्यात्मिक दृष्टि से समझना होगा, या श्री बोग्दानोव, जैसा कि और मैं कहते हैं, मानसिक रूप में समझना होगा। "शरीर" अनुभवों के समुच्चय का दूसरे ऐसे ही समुच्चय में एक विचित्र प्रतिबिम्ब (प्रतिबिम्ब, जो अ पर्यावरण की मध्यस्थता के जरिए बना) के सिवा और कुछ नहीं है। मान (उद्धरण-चिह्नों सहित भी और रहित भी) "भौतिक" (और भौतिक) और "दैहि (और दैहिक) दोनों से पहले होता है।
यह रहा, श्रीमान बोग्दानोव, आपका किताबी ज्ञान ।
यह रहा आपके सम्पूर्ण दर्शन का आशय!
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'*अनुभवात्मक एकत्ववाद', पृ. 30। अन्यत्र आप कहते हैं: "हमारी दृष्टि से, प्रत्येक जी कोशिका के अनुरूप, महत्वहीन होते हुए भी, अनुभवों का एक निश्चित समुच्चय होता ("अनुभवात्मक एकत्ववाद', पहला खण्ड, पृ. 134)। जिन लोगों ने यह सोचा होगा कि बात को कहने में आपका संकेत हेकेल की "कोशिकीय आत्माओं" से है, उन्होंने गम्भीर गुल की होगी 35 आपके विचार से, "जीवित कोशिका" तथा अनुभवों के एक महत्वहीन महत्वहीन समुच्चय के बीच सानुरूपता इस बात में निहित है कि यह कोशिका उस समुच्च का "प्रतिबिम्ब", यानी उसका अन्य स्वत्व है।
जुझारू भौतिकवाद /119
या इसे अधिक नम्रता से कहें तो उसका अर्थ, जिसे आपने क्रमबद्ध, संशोधित प्रतिस्थापन का शब्दाडम्बरपूर्ण नाम दिया है।
"कमबद्ध संशोधित प्रतिस्थापन के दृष्टिकोण से, आप घोषणा करते हैं, "सम्पूर्ण प्रकृति ऐसे प्रत्यक्ष समुच्चयों की एक अनन्त श्रृंखला प्रतीत होती है जिनकी सामग्री वही है जो अनुभव के 'तत्वों' हैं, पर उनका रूप 'अजैव जगत' के तदनुरूप निम्नतम से लेकर मनुष्य के 'अनुभव' के तदनुरूप उच्चतम तक, संगठन की सर्वाधिक विविधताओं से युक्त होता है। यह समुच्चय एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। 'बाह्य जगत' की हर अलग 'अनुभूति' निश्चित, निरूपित समुच्चय में जीवित मानसिकता में इन समुच्चयों में से किसी एक का प्रतिबिम्ब होती है और 'भौतिक अनुभव ऐसी अनुभूतियों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से एकताबद्ध करती हुई, सामूहिक रूप से संगठन करने वाली प्रक्रिया का परिणाम है। 'प्रतिस्थापन' प्रतिबिम्ब का एक प्रकार का विलोम बिम्ब बनाता है जो प्रथम बिम्ब की तुलना में प्रतिबिम्बित से अधिक मिलता-जुलता होता है जैसे एक फोनोग्राफ़ में पुनरुत्पादित संगीत की थुन उसके द्वारा अनुभूत संगीत का दूसरा बिम्ब है, और पहले प्रतिबिम्ब फोनोग्राफ़ के सिलेण्डर में बने बिन्दुओं, खाँचों आदि के मुकाबले उस संगीत-धुन से अधिक मिलता-जुलता है।*
ऐसे किसी भी व्यक्ति के साथ दार्शनिक विचार-विमर्श में पड़ना व्यर्थ है जो ऐसे एक दर्शन की प्रत्ययवादी प्रकृति पर क्षण भर के लिए भी सन्देह करता हो, क्योंकि दर्शन की दृष्टि से वह निपट निकम्मा है।
मैं आपको माख के स्कूल का enfant terrible** कहूँगा, बशर्ते कि "प्रत्यक्ष अनुभवों के ऐसे एक भारी-भरकम "समुच्चय" की तुलना एक उपद्रवी, नटखट बच्चे से की जा सके। लेकिन जो भी हो, इस स्कूल का रहस्य आपके मुँह से निकल ही पड़ा है, आपने यह बात खुलेआम कह दी जिसे यह स्कूल शर्म के मारे लोगों के सामने कह नहीं पाता था। आपने माख के "दर्शन" में निहित प्रत्ययवाद को अधिकाधिक स्पष्ट कर दिया है और में अपनी इस बात को दोहराता हूँ कि आपने ऐसा इसलिए किया कि आपको माढ़ का (और आवेनारिउस का) "दर्शन" अपर्याप्त रूप से एकत्ववादी प्रतीत हुआ था। आप भाँप गये कि इस दर्शन" का एकत्ववाद प्रत्ययवादी एकत्ववाद था। इसलिए आपने उसे प्रत्ययवादी भावना से परिपूर्णता" प्रदान करने का संकल्प किया। इस मामले
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-अनुभववाद एक्त्ववाद, दूसरा खण्ड, पृ. 391
**[शब्दश: बहुत बुरा बच्चा एक ऐसा आदमी जिसके भोवरेपन और उजडपन से लोग किंकर्तव्यविमुद्र हो जाते हैं।]
120 / जुझारु भौतिकवाद
में आपके द्वारा निर्मित वस्तुगतता के सिद्धान्त ने औज़ार का काम किया। इसकी सहायता से आपने अपनी अन्य सारी दार्शनिक-मान लें कि-उपलब्धियाँ आसानी से गढ़ लीं। इसे आपने निम्नांकित पैरे में, जो आपके दुर्भाग्य से आपकी भारी-भरकम क़लम से निकले अन्य की तुलना में असाधारण रूप से सुस्पष्ट है, स्वयं स्वीकार किया है :
"चूंकि मानसिक विकास का इतिहास यह दर्शाता है कि तंत्रिका तंत्र के साथ अपने सम्बन्धों तथा सुव्यवस्थित नियमितता के साथ वस्तुगत अनुभव दीर्घकालिक विकास का परिणाम है, और प्रत्यक्ष अनुभवों की धारा से कदम ब कदम करके ही घनीभूत हुआ है, इसलिए हमें सिर्फ़ यह स्वीकार करना था कि वस्तुगत दैहिक प्रक्रिया प्रत्यक्ष अनुभवों के समुच्चय का प्रतिबिम्ब है न कि विलोम बात। शेष प्रश्न यह रहा: यदि यह "प्रतिबिम्ब" है तो ठीक किसमें प्रतिबिम्बित है? जो उत्तर हमने दिया वह अनुभव की उस सामाजिक-एकत्ववादी सिद्धान्त के अनुरूप है जिसे हमने अपनाया है। वस्तुगत अनुभव की सामाजिक रूप से संगठित अवस्था की एक अभिव्यक्ति के रूप में उसके सार्वभौमिक महत्व को मान्यता देते हुए हम निम्नांकित अनुभवात्मक एकत्ववादी निष्कर्ष पर पहुँचे : दैहिक जीवन जीव-शरीरों की उन 'बाह्यानुभूतियों' के सामूहिक सामंजस्यीकरण का परिणाम है, जिनमें से प्रत्येक अनुभूति अनुभवों के एक समुच्चय में (या स्वयं में) अनुभवों के अन्य समुच्चय का प्रतिबिम्ब है। दूसरे शब्दों में, दैहिक जीवन जीवित स्वत्वों के सामाजिक रूप से संगठित अनुभव में प्रत्यक्ष जीवन का प्रतिबिम्ब है।" *
यह अन्तिम वाक्य : "दैहिक जीवन जीवित स्वत्वों के सामाजिक रूप से संगठित अनुभव में प्रत्यक्ष जीवन का प्रतिबिम्ब है" आपके प्रत्ययवादी होने की भी और आपके एक "मौलिक" प्रत्ययवादी होने की भी गवाही देता है। दैहिक प्रक्रियाओं को प्रत्यक्ष मानसिक अनुभवों का "प्रतिबिम्ब" केवल एक प्रत्ययवादी ही मान सकता है। और सर्वाधिक उलझे विचारों वाला प्रत्ययवादी ही इस बात का दावा कर सकता है कि देहिक जीवन के क्षेत्र से सम्बन्धित "प्रतिबिम्ब" सामाजिक रूप से संगठित अनुभव, अर्थात सामाजिक जीवन के उत्पाद हैं।
लेकिन "आलोचनात्मक अनुभववाद" का रहस्योद्घाटन करने के बाद आपने इस "दार्शनिक" सिद्धान्त में कुछ और घोर असंगत तथा असाध्य रूप से अन्तरविरोधी कपोलकल्पनाओं के सिवा क़तई कुछ नहीं जोड़ा। इन कपोल-कल्पनाओं को पढ़ने वाले पर लगभग वैसी ही गुजरती है जैसी कि चीचिकोव
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''अनुभवात्मक एकत्ववाद', पृ. 136, शब्दों पर जोर आपका है।
जुझारू भौतिकवाद / 121
को कोरोबोच्का के घर में एक रात रहने पर भुगतना पड़ा था।36 फ़ेतिनिया ने पंखों के उसके बिस्तर को इतनी कुशलता से तैयार किया कि वह लगभग छत तक जा पहुँचा। "जब एक कुर्सी पर खड़ा होकर वह जैसे-तैसे पंखों के उस बिस्तर पर चढ़ा तो वह उसके वजन से नीचे धँसकर लगभग फ़र्श तक जा पहुँचा और पंख अपने आवरण के बाहर निकलकर फरफराते हुए कमरे के हर कोने में फैल गये।" आपकी "अनुभवात्मक एकत्ववादी" कपोलकल्पनाएँ भी लगभग छत तक पहुँचती हैं और विभिन्न विद्वतापूर्ण शब्दों और कपट बुद्धि से उसी की तरह भरी पड़ी हैं। परन्तु आलोचना के पहले ही स्पर्श पर आपके "दार्शनिक" पंखों के बिस्तर के पंख हर दिशा में उड़ने लगते हैं और शीघ्रता से गिरता हुआ विस्मित पाठक महसूस करता है कि वह घोर नीरस अधिभूतवाद की पंकिल गहराइयों में धँसता चला जा रहा है। ठीक इसी कारण से आपकी आलोचना करना बहुत सरल है, लेकिन यह बेहद उबाऊ धन्धा है। यही कारण है कि पिछले साल मैंने आपको छोड़ दिया था और आपके शिक्षक की आलोचना का बीड़ा उठाया था। लेकिन चूँकि आपने स्वतंत्र महत्व का दावा किया इसलिए मुझे आपके दावे से निबटने को विवश होना पड़ा। मैंने प्रदर्शित कर दिया है कि आपका "वस्तुगतता का सिद्धान्त" कैसा विसंगत है और "प्रतिस्थापन" का आपका सिद्धान्त परिघटनाओं के प्राकृतिक सम्बन्धों को कितना विरूपित कर देता है। यह पर्याप्ति है। आपकी और आगे जाँच करना समय की घोर बर्बादी है। पाठक समझता है। कि आपके "स्वतंत्र" दर्शन का क्या मूल्य है।
मैं अन्त में एक बात और कहूँगा। खेद की बात, श्री बोग्दानोव, यह नहीं है कि एक आप जैसा "प्रत्यक्ष अनुभवों का समुच्चय" हमारे साहित्य में पैदा हो सका, बल्कि यह है कि वह "समुच्चय" उसमें कुछ भूमिका अदा कर सका। आपकी पुस्तकें पढ़ी गयीं, उनमें से दर्शन की कुछ पुस्तकों के कई संस्करण निकले। अगर आपकी पुस्तकें केवल ज्ञान विरोधियों द्वारा खरीदी, पढ़ी व समर्थित होती तो इससे भी समझौता किया जा सकता था* क्योंकि वे लोग इससे बेहतर यात्मिक भोजन के लायक नहीं हैं। लेकिन हम इस तथ्य से समझौता नहीं कर
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• विलियम जेम्स अपने धार्मिक विचारों को प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हुए कहते हैं। : "La realite concrete se compose exclusivement d'experiences individuelles". ("ठोस यथार्थ विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत अनुभवों से रचित हैं")। Lexperience religieuse, Paris Geneve, 1908, p. 417 [ धार्मिक अनुभव, पेरिस-जेनेवा, 1908, पृ. 417 ) । यह इस दावे के समतुल्य है कि "प्रत्यक्ष अनुभवों के समुच्चय" सम्पूर्ण यथार्थ के आधार में अन्तर्निहित हैं। जेम्स का यह सोचना ग़लत नहीं है कि इस प्रकार के दावे धार्मिक अंधविश्वासों के द्वार उन्मुक्त कर देते हैं।
122 / जुझारू भौतिकवाद
सकते कि चिन्तन की उन्नत पद्धति के लोगों ने आपको गम्भीरता से पढ़ा व स्वीकार किया। यह एक बहुत बुरा संकेत है। यह दर्शाता है कि हम लोग अभूतपूर्व बौद्धिक अवनति की अवधि से गुजर रहे हैं। आपको मार्क्सवाद का दार्शनिक औचित्य दिखलाने में समर्थ चिन्तक स्वीकार करने के लिए यह जरूरी था कि लोगों में न तो दर्शनशास्त्र और न ही मार्क्सवाद का कोई भी ज्ञान हो। अज्ञान हमेशा बुरी चीज होती है। यह समस्त लोगों के लिए समस्त कालों में ख़तरनाक है, लेकिन यह उन लोगों के लिए खास तौर से ख़तरनाक है जो आगे बढ़ना चाहते हैं। और सामाजिक गतिरोध की अवधियों में, जब उनसे अधिकाधिक जोश के साथ सैद्धान्तिक आयुधों से लड़ाई" करने का आग्रह होता है तब यह उनके लिए दो गुना खतरनाक होता है। श्री बोग्दानोव, जो हथियार आपने बनाये हैं वे अग्रगामी लोगों के लिए अनुपयुक्त हैं; ऐसे हथियारों से विजय नहीं पराजय सुनिश्चित होती है। इससे भी बुरी बात। ऐसे हथियारों से लड़ने वाले अग्रगामी लोग खुद भी प्रतिक्रिया के सेनानियों में रूपान्तरित हो जाते हैं और रहस्यवाद तथा हर प्रकार के अन्धविश्वासों का रास्ता खोल देते हैं।
विदेशों में जो लोग हमारे ही जैसे विचारों को मानते हैं उनका, मेरे दोस्त काउत्स्की की तरह, यह सोचना बहुत ग़लत है कि रूस में आप और आप ही जैसे सैद्धान्तिक संशोधनवादियों द्वारा प्रसारित उस "दर्शन" को लेकर लड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। काउत्स्की रूस में वर्तमान सम्बन्धों को नहीं जानते हैं। वे इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं कि सैद्धान्तिक बुर्जुआ प्रतिक्रिया, जो हमारे प्रबुद्ध बौद्धिकों की पाँतों में वास्तविक विध्वंस मचा रही है, हमारे देश में दार्शनिक प्रत्ययवाद के झण्डे तले निष्पादित हो रही है और, फलतः, हमें ऐसे दार्शनिक मतों से असाधारण हानि होने का ख़तरा है जो अपने मूलाधार तक प्रत्ययवादी होते हुए भी उस प्राकृतिक विज्ञान के निर्णायात्मक शब्द होने का ढोंग रचते हैं जो हर अधिभूतवादी धारणाओं के लिए परकीय हैं। ऐसे मतों के विरुद्ध संघर्ष सिर्फ़ उपयोगी ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है, और उतना ही अनिवार्य है जितना कि रूसी उन्नत चिन्तन के दीर्घकालिक प्रयत्नों से उत्पन्न "मूल्यों" के प्रतिक्रियावादी "पुनर्मूल्यन" के विरुद्ध प्रतिरोध करना।
मैं आपके पैम्फ़्लेट 'एक दार्शनिक स्कूल के उपक्रम' (सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1908) के बारे में कुछ कहने का इरादा रखता था, लेकिन मेरे पास समय की तंगी है और मुझे यह इरादा त्यागना ही पड़ेगा। इसके अलावा इस पैम्फ़्लैट का विश्लेषण करने की कोई बड़ी आवश्यकता नहीं है। मैं समझता हूँ कि मेरे तीन पत्र यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि मैं जिस दार्शनिक विचारों के स्कूल का हूँ उसका, प्रिय महोदय, आपके विचारों से और खास तौर से आपके शिक्षक मास के विचारों से
जुझारू भौतिकवाद / 123
क्या सम्बन्ध है। मैं सिर्फ़ इतना ही चाहता हूँ। बेकार की बहस करने को तैयार लोगों की कोई कमी नहीं है, लेकिन मैं उनमें नहीं हूँ। इसलिए मेरे लिए तब तक इन्तज़ार करना बेहतर है जब तक आप मेरे खिलाफ़ या अपने शिक्षक की, अथवा, कम से कम, अपनी "वस्तुगतता" और अपने "प्रतिस्थापन" की सफ़ाई में कुछ न लिखें। तब हम एक वार्तालाप और करेंगे!
गे. प्लेखानोव
124 / जुझारू भौतिकवाद
टिप्पणियाँ
1 प्लेखानोव ने अपने हर पत्र की विषय वस्तु का संकेत देने वाले सूत्र-वाक्य के रूप में मोलियेर की कॉमेडी 'जार्ज दन्देन' के इसी नाम के अभागे किसान के इस उद्गार को पसन्द किया। उनकी पसन्द का स्पष्टीकरण यह तथ्य है कि 'प्लेखोनोव के नाम खुली चिट्ठी' में बोग्दानोव ने अनुभवात्मक एकत्ववाद की आलोचना करने के लिए प्लेखानोव को खुद ही ललकारा था।
2 'वेस्तनिक जीज्नि' ('जीवन का अग्रदूत') वैज्ञानिक, साहित्यिक और राजनीतिक पत्रिका, आर.एस.डी.एल.पी. (बोल्शेविक) का वैध पत्र सेण्ट पीटर्सबर्ग में मार्च, 1906 से लेकर सितम्बर, 1907 तक इसके कुल 20 अंक प्रकाशित हुए थे। इसमें प्रमुख राजनीतिक समस्याओं सम्बन्धी लेखों के अलावा साहित्यिक आलोचना, कला व दर्शन को काफ़ी स्थान दिया जाता था।
3. अनुभवात्मक एकत्ववाद (Empiriomonism)- आलोचनात्मक अनुभववाद की एक क़िस्म; उसके संस्थापक अ. बोग्दानोव थे, जिनका यह दावा था कि विश्व संगठित अनुभव है।
आलोचनात्मक अनुभववाद (Empiriocriticism ) - (*अनुभव की आलोचना") यानी माखवाद-दर्शन में वह आत्मगत प्रत्ययवादी प्रवृत्ति, जिसे ई. माख़ और आर. आवेनारिउस ने स्थापित किया। आलोचनात्मक अनुभववाद का प्राथमिक बिन्दु वह "शुद्ध अनुभव" है, जिसकी व्याख्या अन्तिम "तटस्थ" (अभौतिक और अमानसिक) यथार्थ के रूप में की गयी है। आलोचनात्मक अनुभववादी के लिए विश्व संवेदनों का समुच्चय है, दर्शनशास्त्र के प्रवर्ग (भूतद्रव्य, आत्मा, कार्य-कारण, आदि) उस पर लागू नहीं हो सकते। संज्ञान पर्यावरण से जैविक अनुकूलन का एक माध्यम है, इसलिए उसे सरल और व्यावहारिक होना चाहिए। वैज्ञानिक अनुसन्धानों का लक्ष्य सिर्फ़ तथ्यों का वर्णन है। आलोचनात्मक अनुभववाद ने अपने को "बीसवीं सदी के प्रकृति विज्ञान का दर्शन" घोषित किया और नवीनतम भौतिकीवैज्ञानिक अन्वेषणों की प्रत्ययवादी व्याख्या की।
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4. पोम्पादूर : मि. ये. साल्तिकोव-श्वेद्रीन के 'पोम्पादूरी इ पोम्पादूर्शी' का एक व्यंग्यात्मक पात्र। इसमें उन्होंने जार के उच्चतर प्रशासन, मंत्रियों तथा गवर्नरों की भर्त्सना की है। यह नाम निरंकुशता तथा स्वमताग्रह का पर्याय बन गया।
5 अलेक्सान्द्र पुश्किन की कविता 'पोल्तावा' से उद्धृत
6 सन्दर्भ देव-निर्माण से है-यह दर्शन की एक धार्मिक वृत्ति थी। इसका उदय प्रतिक्रिया के वर्षों (1907-10) में पार्टी के उन बौद्धिकों के बीच हुआ था जिन्होंने 1905-07 की क्रान्ति की हार के बाद मार्क्सवाद का परित्याग कर दिया था। देव-निर्माताओं (अनातोली लुनाचास्क, व्ला. बाजारोव तथा अन्य ) ने मार्क्सवाद और धर्म को मिलाने की कोशिश में एक नये समाजवादी धर्म की रचना करने की वकालत की थी।
7. एंगेल्स का लेख इंगण्ड की स्थिति। टॉमस कार्लाइल, "अतीत और वर्तमान" 1844 में Deutsch-Französische Jahrbucher पत्रिका में प्रकाशित हुआ। यह मार्क्स और रूगे द्वारा सम्पादित थी और पेरिस में छपती थी। 1902 में स्टुटगार्ट में Aus dem literarischen Nachlass von K. Marx, F. Engels und F. Lassalle ('का. मार्क्स, फ्रे. एंगेल्स और फ़. लासाल की साहित्यिक सम्पदा') के फ. मेहरिंग द्वारा सम्पादित तीन खण्ड प्रकाशित हुए। उसमें कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की 1844-1850 की रचनाएँ सम्मिलित थीं।
8. इसका सन्दर्भ प. बे. स्थूबे के रूस के आर्थिक विकास के विषय पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ', पहला खण्ड, सेण्ट पीटर्सबर्ग, 1894 से है।
9 प.बे. स्नूवे का लेख 'स्वतंत्रता और ऐतिहासिक आवश्यकता पर' 'दर्शन तथा मनोविज्ञान की समस्याएं पत्रिका, नंबर 1, 1897 में प्रकाशित हुआ।
10. 'नवकाण्टवाद-एक बुर्जुआ दार्शनिक प्रवृत्ति जो जर्मनी में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रकट हुई। "वापस काण्ट के दर्शन को" का नारा काण्ट के प्रत्ययवाद को पुनर्जीवित करने, द्वंद्वात्मक व ऐतिहासिक भौतिकवाद से लड़ने, काण्ट को मार्क्स के विरुद्ध रखने के लिए इस्तेमाल किया गया। रूस में नवकाण्टवाद की वकालत स्तूवे, बुल्गाकोव तथा अन्य ने की।
11 दो एजाक्स- होमर के 'इलियड' के दो यूनानी वीर जो ट्राय के लोगों के विरुद्ध लड़ाई में एक दूसरे के अभिन्न मित्र थे।
12 मोल्वालिन- रूसी लेखक अलेक्सान्द्र ग्रिबोयेदोव की रचना 'अक्ल बनी आफ़त का पात्र, चाटुकारिता तथा खुशामदखोरी का पर्याय है।
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13 Der Volksstaar ('जन राज्य') - जर्मन सामाजिक-जनवाद का केन्द्रीय पत्र; यह 1869 तथा 1876 के मध्य लाइपज़िग में प्रकाशित होता था। इसके लेखकों में मार्क्स और एंगेल्स भी शामिल थे।
14 महाभाग अनातोली- अ.व. लुनाचार्की ।
15 Die Neue Zeit ('नया जमाना')- जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी का सैद्धान्तिक पत्र, जो 1883 से 1923 तक स्टुटगार्ट में प्रकाशित होता था। अक्तूबर, 1917 तक इसका सम्पादन कार्ल काउत्स्की ने किया।
16 फ्रेडरिक एंगेल्स, 'समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक, अंग्रेजी संस्करण की भूमिका ।
17 फ्रेडरिक एंगेल्स, 'समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक', अंग्रेजी संस्करण की
भूमिका ।
18 एकत्ववादियों की लीग की स्थापना धार्मिक ज्ञानविरोधवाद से संघर्ष करने तथा "एकत्ववादी" विचारों के प्रचारार्थ 1906 में हेकेल द्वारा की गयी थी।
19 जुर्देन-मोलियर के Le bourgeois gentilhomme का एक पात्र
20 प्लेखानोव जब जोर देकर यह कहते हैं कि देश व काल का पहला पहचान लक्षण आत्मगतता है तो वे अज्ञेयवादियों को छूट दे देते हैं। वास्तव में देश और काल वस्तुगत हैं, मानव-चेतना द्वारा प्रतिबिम्बित भूतद्रव्य के वास्तविक रूप हैं।
21 संज्ञान के मार्क्सवादी सिद्धान्त की व्याख्या करने तथा उसका पक्षपोषण करने में जब प्लेखानोव यह दावा करते हैं कि मनुष्य की अनुभूतियाँ प्रकृति की वास्तविक चीजों तथा प्रक्रियाओं की अनुकृतियाँ नहीं हैं, बल्कि उनके प्रतीक, "चित्रलिपि के अक्षर" हैं, तो वे एक ग़लती कर बैठते हैं। अपनी कृति 'भौतिकवाद तथा आलोचनात्मक अनुभववाद' में लेनिन ने कहा है कि "प्लेखानोव भौतिकवाद के अपने स्पष्टीकरण में एक स्पष्ट गलती के दोषी हैं," कि "मालवादी प्रसन्नतापूर्वक प्लेखानोव के चित्रलिपि के अक्षरों पर टूट पड़े और अपने भौतिकवाद के परित्याग को 'चित्राक्षरबाद' की आलोचना के नाम पर चला दिया।"
22 द्वैतवाद (Dualism)- दर्शनशास्त्र का वह सिद्धान्त, जिसके अनुसार विश्व की नींद में आत्म और भूतद्रव्य दोनों हैं। एकत्ववाद की विलोम शिक्षा।
23 एकत्ववाद (Monism)- एक ऐसा सिद्धान्त जो विश्व की नींव के रूप में एक ही चीज़ को मानता है। एकत्ववाद भौतिकवादी भी होता है और प्रत्ययवादी
जुझारू भौतिकवाद / 127
भी। भौतिकवादी भूतद्रव्य को और प्रत्ययवादी आत्मा, प्रत्यय को विश्व की नींव मानते हैं।
24 अज्ञेयवाद (Agnosticism) - एक ऐसा दार्शनिक सिद्धान्त जिसके अनुसार वस्तुगत जगत, उसके सारतत्व और उसकी नियमितताओं का ज्ञान असम्भव है; विज्ञान की भूमिका वस्तुओं के वर्णन तक सीमित है।
25 अहंमात्रबाद (Solipsism) एक ऐसा आत्मगत प्रत्ययवादी सिद्धान्त जिसके अनुसार सिर्फ़ मनुष्य और उसकी चेतना ही विद्यमान हैं, जहाँ तक वस्तुगत जगत का प्रश्न है, वह केवल मानव-चेतना में विद्यमान है।
26 अविभूतवाद (Metaphysics)- (1) स्वत्व के अनुभवेतर (यानी अनुभव-बाह्य) सिद्धान्तों पर आधारित एक दर्शन (2) द्वंद्ववाद का विलोम एक ऐसी पद्धति, जो विश्व की सभी वस्तुओं और घटनाओं को एक दूसरी से असम्बन्धित, जड़ रूप में देखती है और विकास के स्रोत के रूप में उनके अन्तरविरोधों को अस्वीकार करती है।
27 "विज्ञान का सिद्धान्त" ("Wissenschaftslehre") फ़िख़टे ने इस शब्द को उसे निर्दिष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जिसे वे वास्तविक दर्शन समझते थे और जो प्रधान रूप से आत्मगत प्रत्ययवाद का उनका अपना दर्शन था। उनके अनुसार, विज्ञान का सिद्धान्त एक ही प्रामाणिक सिद्धान्त से ज्ञान के प्रवर्गों की समस्त विविधता को निगमित करने वाला था।
28. 'सोब्रेमेन्निक' ('सामयिक) - 1836 से 1866 के बीच सेण्ट पीटर्सबर्ग से प्रकाशित एक वैज्ञानिक, राजनीतिक तथा साहित्यिक मासिक पत्रिका। इसके लेखकों में नि.ग. चेर्निशेव्स्की, वि.ग. बेलीस्की और मि.ये. साल्तिकोय-श्चेद्रीन थे। यह अपने समय की सर्वोत्तम पत्रिका थी, क्योंकि यह क्रान्तिकारी जनवादियों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करती थी और रूस में प्रगतिशील तत्वों पर बहुत प्रभाव रखती थी।
29 यही वह शीर्षक था जिसके अन्तर्गत एंगेल्स का 'ड्यूहरिंग मत-खण्डन' पहले-पहल रूसी में प्रकाशित हुआ।
30 सर्वात्मवाद (Animism)–आदिम समाज में उत्पन्न भूत-प्रेतों में विश्वास, जिसके अनुसार भूत-प्रेत लोगों, जानवरों, वस्तुओं और दुनिया की सभी घटनाओं को प्रभावित करते हैं।
31 स्गानारेल-मोलियेर के Don Juan का एक पात्र, डॉन जुआन का नौकर, एक
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चतुर और घाघ व्यक्ति।
32.यह पद एक रूसी पुराण कथा से लिया गया है। इसके अनुसार स्लाव ब के प्रतिनिधियों ने वारोगियाइयों से यह कहकर अपील की "हमारी धरती बड़ी और उपजाऊ है, लेकिन वहाँ कोई व्यवस्था नहीं है। आइए और हम पर शासन कीजिये।" आधुनिक ऐतिहासिक विज्ञान ने इस आरोप को असत्य सिद्ध कर दिया है।
33 इ.ऑ. क्रिलोय की नीति-कथा 'बन्दर और दर्पण का एक अंश।
34 यहाँ प्लेखानोव गलती पर हैं। वास्तव में यह बीसिस नीचे उद्धृत दो की ही तरह, लुडविग फ़ायरबाख के Grundsatze der Philosophte der Zukun (भविष्य के दर्शन के मूल सिद्धान्त') से है।
35 हेकेल ने सर्वजीववाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार समस्त भूतद्रव्य सजीव है। इसके अनुसार भूतद्रव्य और आत्मा अविभाज्य हैं। यहाँ तक कि परमाणु, जो स्वत्व के अन्तिम अविभाज्य तत्व हैं, भी संवेदनशील होते हैं। जीवित कोशिकाओं में एक आत्मा होती है और चेतना विशेष आत्मिक कोशिकाओं के विकास से उत्पन्न होती है।
36 चीचिकोव, कोरोबोच्का- नि.व. गोगोल रचित 'मृत आत्माएँ के पात्र।
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नाम-निर्देशिका
अक्सेलरोद, लुबोच इसाकोव्ना (1868-1946) - दार्शनिक और साहित्यिक आलोचक।
आर्त्सिबाशेव, मिखाईल पेत्रोविच (1878-1927 ) - रूसी प्रतिक्रियावादी साहित्यकार |
आवेनारिउस, रिहार्ड (1843-1896) जर्मनी के प्रत्ययवादी दार्शनिक, आलोचनात्मक अनुभववाद के एक संस्थापक।
इल्यीन, ब्ला-लेनिन, व्ला. इ.।
उस्पेन्स्की, ग्लेब इवानोविच (1849-1902 )-रूसी लेखक।
एंगेल्स, फ्रेडरिक (1820-1895) ।
एडलर, फ्रेडरिक (1879-1960) आस्ट्रियाई दक्षिणपन्थी समाजवादियों के नेता।
एपिक्यूरस (लगभग 341-270 ई.पू.) प्राचीन यूनानी भौतिकवादी दार्शनिक । एस्पिनास, अल्फ्रेद- (1844-1922) फ्रांसीसी दार्शनिक और समाजशास्त्री ।
काउत्स्की, कार्ल (1854-1938 ) - जर्मन सामाजिक-जनवाद के तथा दूसरे इन्टरनेशनल के एक नेता, जो पहले मार्क्सवादी थे और बाद में अवसरवाद की सबसे ख़तरनाक क़िस्म-मध्यमार्ग के विचारक बन गये।
काटो (मार्कुस पोर्सियस, वरिष्ठ) (234-149 ई.पू.) - रोमन राजनीतिज्ञ तथा लेखक।
काण्ट, इमानुइल (1724-1804) - जर्मन दार्शनिक, जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के संस्थापक।
कार्नेलियस, हैन्स (1863-1947 ) जर्मन दार्शनिक, आत्मगत प्रत्ययवादी।
क्रिलोब, इवान आन्द्रेयेविच (1769-1844) रूसी नीति कथा लेखक ।
क्लियोपाट्रा (69-30 ई.पू.) मिस्र की रानी |
क्लीस्थेनीज (छठी शताब्दी ई.पू.) - एथेन्स के राजनीतिज्ञ ।
130 / जुझारू भौतिकवाद
गेटे, जोहान वोल्फगाँग (1749 - 1832 ) - महान जर्मन लेखक और विचारक । चेर्निशेव्स्की, निकोलाई गन्रीलोविच (1828-1889 ) रूसी क्रान्तिकारी जनवादी यूटोपियाई समाजवादी, भौतिकवादी दार्शनिक ।
जूडरमान, हर्मान (1857-1928 ) - जर्मन उपन्यासकार और नाटककार ।
जेम्स, विलियम (1842-1910) - अमरिकी दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक, व्यवहारवा के संस्थापकों में से एक।
जैकोबी, फ्रेडरिक हेनरिक (1743 - 1819 ) - जर्मन प्रत्ययवादी, अधिभूतवादी। यह मानते थे कि विश्वास और अन्तर्जात ज्ञान संज्ञान के सर्वाधिक विश्वसनीय साधन हैं।
डीयेट्ज़गेन, जोजेफ़ (1828-1888) जर्मन श्रमिक, सामाजिक-जनवादी, दार्शनिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मूल सिद्धान्तों पर स्वतंत्र रूप से पहुँचे थे।
डून्कन, अइसिडोरा (1878 1927 ) प्रसिद्ध अमरिकी नर्तकी।
ड्यूहरिंग, यूजेन (1888-1921) जर्मन सारसंग्रहवादी दार्शनिक, बाजारू अर्थशास्त्री |
त्रेयाकोव्स्की, वसीली किरील्लोविच (1703-1769) - रूसी कवि और भाषाविद ।
दाउगे, पावेल गेओर्गियेविच (1869-1946) - लाटवियाई सामाजिक जनवादी, इतिहासकार व प्रचारक। अपनी रचनाओं में उन्होंने डीयेट्जगेन के विचारों को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के विरुद्ध खड़ा किया।
दिदेरो, देनी (1713-1784) फ्रांसीसी भौतिकवादी दार्शनिक ।
दुम्बाद्जे, इवान अन्तोनोविच (1851-1916) - जारशाही के जनरल याल्ता में जब गवर्नर थे तो आतंक की प्रणाली स्थापित की तथा मुकदमों में हस्तक्षेप किया।
नवील, जूल एर्नेस्त (1816-1909) - स्विटज़रलैण्ड के प्रचारक तथा धर्मशास्त्री। न्यूटन, आइज़क (1642-1727) - अंग्रेज़ भौतिकीविद, खगोलशास्त्री तथा गणितज्ञ। पुश्किन, अलेक्सान्द्र सेर्गेयेविच (1799-1837 ) - महान रूसी कवि।
पेट्ज़ोल्ड्ट, जोजेफ़ (1862–1929) - जर्मन आत्मगत प्रत्ययवादी दार्शनिक। प्राइस, रिचार्ड (1723-1791) - अंग्रेज़ अर्थशास्त्री व प्रचारक ।
प्रीस्टले, जोजेफ़ (1733–1804) - अंग्रेज़ रसायनविद और भौतिकवादी दार्शनिक।
जुझारू भौतिकवाद / 131
प्लेखानोव, गेओर्गी वलेन्तीनोविच (न. बेल्तोव) (1856-1918) 1
प्लेटो (लगभग 427-347 ई.पू.) प्राचीन यूनानी दार्शनिक, प्रत्ययवादी।
प्वाइंकारे, आँरी (1854-1912) फ्रांसीसी गणितज्ञ व भौतिकीविद। दर्शन में वे माख के बहुत निकट थे।
फ़ायरबाख, लुडविग अंड्रेयस (1804 1872) जर्मन भौतिकवादी दार्शनिक । फ़िखटे, जोहान गोटलिब (1762-1814) - जर्मन आत्मगत प्रत्ययवादी दार्शनिक फ़ेरबोर्न, माक्स (1863-1921) जर्मन शरीरक्रियाविद जो दर्शन में माख के बहुत निकट थे।
बर्कले, जॉर्ज (1685-1753) अंग्रेज़ दार्शनिक, आत्मगत प्रत्ययवादी।
बर्गसन, ऑरी (1859-1941) फ्रांसीसी प्रत्ययवादी दार्शनिक, जो यह मानते थे कि अन्तर्जात ज्ञान दार्शनिक व सौन्दर्यबोधात्मक ज्ञान का सर्वोच्च रूप होता है।
बर्नस्टीन, एडुअर्ड (1850-1932) जर्मन सामाजिक जनवाद में उग्र अवसरवादी पक्ष के नेता, जिन्होंने मार्क्सवाद के खुले संशोधन का समर्थन किया था।
बाज़ारोव, व्ला. (रुद्नेव, ब्ला.अ. का उपनाम ) ( 1874 1939) रूसी सामाजिक जनवादी, माख़वादी
बारेस, मोरिस (1862-1923)- फ्रांसीसी बुर्जुआ लेखक व प्रचारक, कैथोलिकवाद के जुझारू विचारधारा-निरूपक।
बुअलो, निकोला (1636–1711) फ्रांसीसी कवि और क्लासिसिज़्म के सिद्धान्तकार।
बुख़नर, लुडविग (18241899 ) जर्मन दार्शनिक और शरीरक्रियाविद, बाजारू भौतिकवाद के समर्थक
बेर्मान, याकोब अलेक्सान्द्रोविच (1868-1933) रूसी वकील और दार्शनिक जिन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के संशोधन का पक्षपोषण किया था।
बेल्तोव, न.- देखिये प्लेखानोव, गे.व. ।
बोग्दानोब, अ. (मालिनोव्स्की, अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रोविच का उपनाम) (1873–1928)–दार्शनिक, समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री; 1907 में उन्होंने मार्क्सवाद के संशोधन का पक्षपोषण किया और आलोचनात्मक अनुभववाद की एक क़िस्म अनुभवात्मक एकत्ववाद की स्थापना की।
132 / जुझारू भौतिकवाद
माख़, एर्न्स्ट (1838–1916)–आस्ट्रियाई भौतिकीविद तथा आत्मगत प्रत्ययवादी।
मार्क्स, कार्ल (1818-1883) 1
मैडिबील, बेर्नार्ड (1670-1733) इंगलैण्ड के नैतिक लेखक।
मोलियर, जान बतिस्त (1622-1673) - महान फ्रांसीसी नाटककार।
युश्केविच, पावेल सोलोमोनोविच (1873-1945) रूसी सामाजिक जनवादी। उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन को संशोधित करने की वकालत की और उसे अनुभवात्मक प्रतीकवाद से, जो माख़वाद की एक क़िस्म थी, प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया।
रीन्के, जोहानेस (1849-1931) जर्मन प्रकृतिविद व वनस्पतिवैज्ञानिक।
रूसो, जान जाक (1712-1778) फ्रांसीसी ज्ञान-प्रसारक व निर्गुण ईश्वरवादी
दार्शनिक ।
लांगे, फ्रेडरिक आल्बेर्ट (1828-1875) जर्मन दार्शनिक, नवकाण्टवादी।
लॉक, जॉन (1632-1704) - अंग्रेज भौतिकवादी दार्शनिक
लाब्रिओला, आर्तुरो (1873-1959) इतालवी समाजवादी, मार्क्सवाद के संशोधनवादी, अराजक संघ आधिपत्यवादी, राजनीतिज्ञ व अर्थशास्त्री।
लामेत्री, जुलिएन (1709-1751)- फ्रांसीसी डाक्टर और दार्शनिक, यांत्रिक भौतिकवाद के प्रमुख प्रतिनिधि।
लाहार्प, जां फ्राँसुआ दे (1739 1803) फ्रांसीसी नाटककार और आलोचक । लित्तरे, एमील (1801-1881) फ्रांसीसी दार्शनिक, सारसंग्रहवादी।
लीवनिज, गोटफीड विल्हेल्प (1646-1716) जर्मन वैज्ञानिक, प्रत्ययवादी दार्शनिक ।
लुक्रेशियस, टीटुस कारूस (99-55 ई.पू.) रोमन कवि, भौतिकवादी दार्शनिक, 'वस्तुओं की प्रकृति पर' के लेखक।
लुनाचार्की, अनातोली वसील्येविच (1875-1933) सोवियत राजनीतिज्ञ, सार्वजनिक कार्यकर्ता, प्रचारक, रूस में प्रतिक्रिया की अवधि में (1907-1910) माख़वादी व देव-निर्माता बन गये थे।
लेनिन (उल्यानोव), व्लादीमिर इल्पीच (1870-1924)।
वालेन्तिनोय, न. (वोल्स्की, निकोलाई व्लादिस्लावोविच का उपनाम) (1879-1964) - सामाजिक-जनवादी, माखवादी ।
जुझारू भौतिकवाद / 133
विंडेलाबॉण्ड, विल्हेल्म (1848-1915 ) - जर्मन प्रत्ययवादी दार्शनिक, दर्शन के इतिहासकार ।
बेनेवितिनोव, दमीत्री व्लादीमिरोविच (1805-1827) रूसी कवि, दार्शनिक, शेल्लिंग के अनुयायी।
बोल्तेयर, अरुए फाँसुआ मारी (1694-1778) फ्रांसीसी लेखक, प्रचारक, निर्गुण ईश्वरवादी दार्शनिक
शुल्यातिकोव, व्लादीमिर मिखाइलोविच (1872-1972)- रूसी साहित्यिक आलोचक, सामाजिक-जनवादी, बाज़ारू समाजविज्ञान की दृष्टि से प्रत्ययवाद के विरोधी, अतः मार्क्सवाद को विरूपित रूप में पेश करने वाले।
शूप्पे, विल्हेल्म (1886-1913) - जर्मन आत्मगत प्रत्ययवादी दार्शनिक
शेक्सपीयर, विलियम (1564-1616) - अंग्रेज़ कवि और नाटककार।
शेल्लिंग, फ्रेडरिक विल्हेल्म (1775-1854) जर्मन क्लासिकी दार्शनिक, प्रत्ययवादी
शोपेनहावर, आर्थर (1788-1860) जर्मन प्रत्ययवादी दार्शनिक
श्चेद्रीन- देखिये, साल्तिकोव-श्चेद्रीन।
श्मिइट, कोनराड (1863-1992) जर्मन अर्थशास्त्री और दार्शनिक, उन रचनाओं के लेखक जिन्होंने संशोधनवाद के वैचारिक स्रोत का काम किया।
साल्तिकोव-श्वेदीन, मिखाईल फ़ोविच (उपनाम न. श्चेद्रीन (1826-1889) रूसी
लेखक-व्यंग्यकार ।
सेचेनोव, इवान मिखाइलोविच (1829-1905 ) - रूसी प्रकृति वैज्ञानिक, भौतिकवादी शरीर क्रिया विज्ञान के जनक
स्त्रूवे, प्योत्र बेर्नगार्दोविच ( 1870 - 1944) रूसी अर्थशास्त्री, प्रचारक और मार्क्स के "आलोचकों" में से एक।
स्पिनोजा, बारूख (बेनेडिक्ट) (1632-1677) हॉलैण्ड के भौतिकवादी दार्शनिक
हर्बर्ट, जोहान फ्रेडरिक (1776- 1841) जर्मन प्रत्ययवादी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक ।
हाइने, हेनरिख (1797-1856) महान जर्मन कवि।
हाउप्टमान, गेर्हार्ट (1862-1946) जर्मन नाटककार ।
हॉब्स, टॉमस (1588-1679) अंग्रेज़ दार्शनिक, यांत्रिक भौतिकवाद के एक संस्थापक।
134 / जुझारू भौतिकवाद
हेकेल. एन्स्ट (1834-1919) जर्मन प्रकृतिवैज्ञानिक, भौतिकवादी। उन्होंने डार्विन की शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाया।
हेगेल, गेओर्ग विल्हेल्म फ्रेडरिक (1770-1831) महान जर्मन प्रत्ययवादी दार्शनिक जिन्होंने प्रत्ययवादी द्वंद्रवाद को विकसित किया।
हेल्वेतियस, क्लोद आद्रियों ( 1715-1771)- फ्रांसीसी भौतिकवादी दार्शनिक, अनीश्वरवादी।
होल्बाख, पोल ऑरी (1723-1789) फ्रांसीसी भौतिकवादी दार्शनिक।
ह्यूम, डेविड (1711-1776) अंग्रेज अज्ञेयवादी दार्शनिक।
जुझारू भौतिकवाद / 135
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