. …….लेनिन को मार्क्स का सर्वांगपूर्ण ज्ञान था। वह १८९३ में जब पीटर्सबर्ग आये तो हम लोग, उस समय के मार्क्सवादी यह देखकर चकित रह गये कि उन्हें मार्क्स तथा एंगेल्स का कितना ज्ञान है।
१८९१-१९०० में जब मार्क्सवादी मंडलियां संगठित होना आरम्भ ही हो रही थीं, हर एक मुख्यतया "पूंजी" के प्रथम खण्ड का अध्ययन करता था। "पूंजी" प्राप्त करना बहुत कठिन, परन्तु सम्भव था। वैसे जहां तक मार्क्स की अन्य कृतियों का सम्बन्ध था, स्थिति, कहना। चाहिए, खराब थी। हमारी मंडली के अधिकांश सदस्यों ने "कम्युनिस्ट घोषणापत्र तक कभी नहीं देखा था। उदाहरण के लिए, मुझे उसे पहली बार पढ़ने का जर्मन भाषा में मौका १८६८ में निर्वासन काल में मिला था।
मार्क्स तथा एंगेल्स की कृतियों पर कड़ी पाबन्दी लगी हुई थी। इत बताना काफ़ी होगा कि लेनिन अपने लेख "आर्थिक रोमानीयत का चरिख-चित्रण" में, जिसे उन्होंने 'नोवोये स्लोवो *नया शब्द ) लिए लिखा था, " मार्क्स " तथा 'मार्क्सवाद" शब्दों का उपयोग न के करने तथा माक्र्क्स की केवल अन्योक्तिपरक चर्चा करने के लिए विवश हुए थे ताकि पत्रिका का अस्तित्व खटाई में न पड़े।
लेनिन जर्मन तथा फ्रेंच भाषाएं जानते थे और मार्क्स तथा एंगेल्स की जो कृतियां इन भाषाओं में हासिल हो सकती थीं, उन्हें उन्होंने हासिल करने की कोशिश की। आन्ना इल्यीनिच्ना ने ( उनकी बहिन - सं० ) हमें बताया है कि लेनिन ने कैसे अपनी बहिन ओल्गा के साथ मिलकर फ्रेंच भाषा में " दर्शन की दखिता" का अध्ययन किया। परन्तु उन्हें अधिकतर
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जर्मन भाषा में पढ़ना पड़ा था। वह मार्क्स तथा एंगेल्स की कृतियों के किसी भी अत्यधिक महत्वपूर्ण अंश का, जो उन्हें दिलचस्प लगता था, अपने लिए रूसी में अनुवाद कर डालते थे।
लेनिन की प्रथम प्रमुख रचना में" 'जनता के मित्र' क्या है और वे सामाजिक-जनवादियों के विरुद्ध कैसे लड़ते हैं", जिसे उन्होंने १८९४ में गैरकानूनी तौर पर प्रकाशित करवाया था, "कम्युनिस्ट घोषणापत्र 21 " राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास", " दर्शन की दरिद्रता", "जर्मन विचारधारा" आर्नोल्ड रुगे के नाम मार्क्स की १८४३ की चिट्ठी तथा एंगेल्स की " 'ड्यूहरिंग मत-खण्डन" तथा "परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति" पुस्तकों का हवाला दिया गया है।
जनता के मित्र" रचना ने उस जमाने के अधिकांश मार्क्सवादियों के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने के लिए बहुत काम किया, जिन्हें उस समय तक मार्क्स की कृतियों का बहुत कम ज्ञान था; उसने कई प्रश्नों पर नयी रोशनी डाली और इस कारण उसे बहुत सफलता मिली।
लेनिन की अगली कृति "नरोदवाद का आर्थिक तत्त्व तथा श्री स्वे की पुस्तक में उसकी समीक्षा" में "अठारहवीं ब्रूमेर" 44 फ्रांस में गृहयुद्ध" " गोथा कार्यक्रम की आलोचना 'पूंजी" के द्वितीय एवं तृतीय खण्डों का हवाला दिया गया है।
आगे के वर्षों के दौरान प्रवास में दिन विताने के कारण लेनिन मार्क्स तथा एंगेल्स की कृतियों का पूरा-पूरा अध्ययन कर सके और इस तरह उनका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सके।
लेनिन ने १९१४ में ग्रानात के "विश्वकोष" के लिए मार्क्स की जो जीवनी लिखी, वह मार्क्स की कृतियों के लेनिन के शानदार ज्ञान पर बहुत सुन्दर ढंग से प्रकाश डालती है।
इसका पता उन अनगिनत उद्धरणों से भी चल जाता है जिन्हें लेनिन मार्क्स की कृतियां पढ़ते समय हमेशा उतार लिया करते थे। मार्क्सवाद लेनिनवाद संस्थान के पास कई नोटबुक है जिन में ब्लादीमिर इल्यीच द्वारा मार्क्स की कृतियों से लिये गये उद्धरण हैं।
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लेनिन अपने कार्यकलाप में इन उद्धरणों का उपयोग किया करते थे, उन्हें फिर से पढ़ते थे तथा उन पर अपने निशान लगा देते थे। परन्तु लेनिन मार्क्स को केवल जानते ही नहीं थे, उनकी पूरी शिक्षा के विषय में गम्भीर चिन्तन भी किया करते थे। १९२० में कोम्सोमोल की तीसरी अखिल-रूसी कांग्रेस में भाषण करते हुए उन्होंने नौजवानों को सलाह दी कि वे "मानव-ज्ञान के समग्र योग को ग्रहण करें तथा इस तरह ग्रहण करें कि कम्युनिज्म कोई ऐसी वस्तु नहीं होगी जिसे रटकर हासिल किया जा सके, बल्कि कुछ ऐसी चीज होगी जिस पर आपने स्वयं सोच-विचार किया है, कुछ ऐसी चीज होगी जिस में मौजूदा शिक्षा के दृष्टिकोण से अवश्यम्भावी निष्कर्ष मूर्त होंगे।" "यदि कोई कम्युनिस्ट घोर, गम्भीर और कठिन परिश्रम किये बिना ऐसे तथ्यों को समझे बिना जिनका उसे आलोचनात्मक रूप से निरीक्षण करना चाहिए, पके-पकाये निष्कर्षों के आधार पर कम्युनिज्म की डींग हांकना शुरू कर दे, तो वह निस्सन्देह बहुत ही निन्दनीय कम्युनिस्ट होगा।"
और यह चीज हमारे सामने यह सवाल प्रस्तुत करती है। लेनिन मार्क्स का अध्ययन किस तरह करते थे? इसका उत्तर अंशत: उनके उपरोक्त शब्दों में देखा जा सकता है: यह नितान्त आवश्यक है कि मार्क्स की विधि साफ़ तौर पर समझी जाये और उनसे सीखा जाये कि देशविशेष में मजदूर आन्दोलन के विशिष्ट लक्षणों का किस तरह अध्ययन किया जाता है। यही लेनिन ने किया। उनके लिए मार्क्स का सिद्धान्त कोई जड़सूत्र नहीं था, बल्कि कार्यकलाप के लिए पथ-प्रदर्शक था। एक बार उन्होंने कहा था : " जो कोई मार्क्स का परामर्श चाहता है... यह उनका लाक्षणिक गुण था। वह मार्क्स से हमेशा " परामर्श " किया करते थे। सबसे विकट क्षणों में, क्रान्ति के हर मोड़ पर वह मार्क्स को फिर से पढ़ने लगते। आप जब उनके अध्ययन-कक्ष में प्रवेश करते, आप उनके इर्द-गिर्द सबको उद्वेलित अवस्था में पाते, पर उधर इल्यीच मार्क्स को पढ़ रहे होते तथा इतने तल्लीन होते कि उन्हें वहां से अपना ध्यान हटाने के लिए काफ़ी कोशिश करनी पड़ती थी। वह अपने स्नायुतंत्र को ठंडक पहुंचा सकने के लिए अथवा मजदूर वर्ग की शक्ति में या उसकी अन्तिम
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विजय में विश्वास से अपने को लैस करने के उद्देश्य से मार्क्स के अध्ययन से लीन नहीं होते थे- यह विश्वास तो स्वयं उनके पास बहुत था ; एक मात्र उद्देश्य मार्क्स से "परामर्श " करना तथा उनसे मजदूर आन्दोलन के चालू प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना होता था । लेनिन ने अपने लेख "द्वितीय दूमा के बारे में फ्रांज मेहरिंग" में लिखा : "ऐसे लोगों के तर्क गलत ढंग से चुने गये उद्धरणों पर आधारित होते हैं, वे प्रतिक्रियावादी निम्न पूंजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए समर्थन के संबंध में ग्राम प्रस्थापनाओं को चुनते हैं तथा उन्हें बिना आलोचनात्मक ढंग के रूसी कैडटों तथा रूसी क्रान्ति पर लागू करते हैं ।
"ऐसे लोगों के लिए मेहरिंग एक अच्छा सबक़ मुहैया करते हैं । पूंजीवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग के कार्यों पर जो कोई मार्क्स से परामर्श करना चाहता है (मोटे अक्षर मेरे द्वारा न० क० ), उसे ठीक जर्मन पुँजीवादी क्रांति के युग के सम्बन्ध में उनके बयानों को पढ़ना चाहिए। हमारे मेन्शेविक उन बयानों से अकारण ही नहीं कतराते। उन में हम पूंजीवादी समझौतापरस्तों के खिलाफ़ उस निर्मम संघर्ष की सर्वाधिक पूर्ण तथा सर्वाधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति देखते हैं जिसे रूसी 'बोल्शेविक रूसी पूँजीवादी क्रान्ति में चला रहे हैं।"
मार्क्स की उन कृतियों को चुनना जो वैसी ही स्थितियों के विश्लेषण से सम्बन्धित थीं, उनका पूरी तरह अध्ययन करना तथा उनकी उस स्थिति से तुलना करना, जिस में हम रह रहे थे, ताकि सादृश्यता तथा अन्तर सामने लाये जा सके- यह थी लेनिन की विधि। इसे वह १९०५- १९०७ को क्रान्ति में कैसे अमल में लाये, यह उनके कार्य करने के ढंग का उत्कृष्ट और सुस्पष्ट प्रमाण है…
…...मार्क्स की चिट्ठी-पत्री तथा कार्यकलाप पर १९०७ के ब्लादीमिर इलीविच लेनिन के लेख विशेष रूप से दिलचस्प है।
ये है"० कुरोलमन के नाम कार्ल मार्क्स की चिट्ठियों के रूसी अनुवाद की प्रस्तावना ", "द्वितीय दूमा के बारे में फांज मेहरिंग" तथा फ. आ. जोर्गे की चिट्ठी-पत्नी के लिए प्रस्तावना"। ये लेख -खास तौर से अंतिम- मार्क्स का अध्यन करने की लेनिन की विधि को विशेष
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रूप से अच्छी खासी तस्वीर पेश करते हैं। यह अन्तिम लेख उस समय लिखा गया था, जब लेनिन बोगदानोव के साथ अपने मतभेद के सिलसिले में दर्शन के गहन अध्ययन में तल्लीन थे तथा उनका ध्यान इन्द्वात्मक भौतिकवाद की समस्याओं पर केन्द्रित था।
उसी तरह के प्रश्नों पर, जिन्हें इस देश में क्रान्ति की पराजय ने जन्म दिया था, मार्क्स के बयानों का तथा द्वन्द्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद के प्रश्नों का एक साथ अध्ययन कर लेनिन ने मार्क्स से यह सीखा कि ऐतिहासिक विकास के अध्ययन पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की विधि को कैसे लागू किया जा सकता है। उन्होंने " फ० प्रा० जोगें की चिट्ठी-पत्री के लिए प्रस्तावना" में लिखा: " मार्क्स तथा एंगेल्स ने ब्रिटिश, अमरीकी तथा जर्मन मजदूर आन्दोलनों पर जो बयान दिये उनकी एक दूसरे से तुलना करना बहुत शिक्षाप्रद है। ऐसी तुलना तब और भी महत्व ग्रहण कर लेती है, जब हम यह याद रखें कि एक ओर जर्मनी और दूसरी ओर ब्रिटेन तथा अमरीका पूंजीवादी विकास की अलग-अलग मंजिलों का तथा उन देशों के सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन पर एक वर्ग के रूप में पूंजीपति वर्ग के प्रभुत्व के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारे सामने यहां भौतिकवादी द्वन्द्ववाद का नमुना, विभिन्न राजनीतिक तथा आर्थिक अवस्थाओं के विशिष्ट गुणों के सिलसिले में भिन्न-भिन्न मुद्दों तथा समस्या के भिन्न-भिन्न पहलुओं को सामने लाने तथा उन पर जोर देने की योग्यता मौजूद है। मजदूर पार्टी की व्यावहारिक नीति तथा कार्यनीति के दृष्टिकोण से यहां हमारे सामने उस तरीके का एक नमूना मौजूद है जिससे "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" के रचनाकारों ने भिन्न-भिन्न देशों में राष्ट्रीय मजदूर आन्दोलनों की अलग अलग मंजिलों के अनुसार संघर्षशील सर्वहारा वर्ग के कार्यों की परिभाषा की थी। "
१६०५ की क्रान्ति ने बहुत बड़ी तादाद में नये तथा फ़ौरी मसलों को तात्कालिक समाधान के लिए प्रस्तुत किया तथा उन्हें हल कर सकने के लिए लेनिन ने मार्क्स की कृतियों का और भी अधिक गहन मनन किया। मार्क्स के अध्ययन की लेनिन की विधि ( सही अर्थो में मार्क्सवादी) इस तरह कान्ति की ज्वाला में तपी-मंजी थी।
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मार्क्स का अध्ययन करने की लेनिन की विधि ने उन्हें मार्क्सवाद को तोड़ने-मरोड़ने के तथा उसे क्रान्तिकारी तत्त्व से वंचित कर देने की कोशिशों के विरुद्ध संघर्ष करने के साधनों से सज्जित किया। हम जानते हैं कि अक्तूबर क्रान्ति के संगठन में तथा सोवियत सत्ता की स्थापना में लेनिन की पुस्तक "राज्य और क्रान्ति" ने कितनी जबर्दस्त भूमिका अदा की थी। यह पुस्तक राज्य के सम्बन्ध में मार्क्स की क्रान्तिकारी शिक्षाओं का उनके गहन अध्ययन पर पूरी तरह आधारित है।
आइये "राज्य और क्रान्ति" के प्रथम पृष्ठ को उद्धृत करें :
" मार्क्स के सिद्धांत के साथ आज जो हो रहा है, वह इतिहास में मुक्ति के लिए संघर्षरत उत्पीडित वर्गों के क्रान्तिकारी चिन्तकों तथा नेताओं के सिद्धांतों के साथ बार-बार हुआ है। महान क्रान्तिकारियों के जीवनकाल में उन्हें उत्पीडित वर्ग लगातार यंत्रणाएं देते रहे, उनके सिद्धान्तों का अधिकतम बर्बर द्वेषभाव, अधिकतम क्रोधोन्मत घृणा तथा झूठ और कुत्सा के अधिकतम बेइमानीभरे मुहिमों से सामना करते रहे। उनकी मृत्यु के बाद उत्पीड़ित वर्गों को "बहलाने" तथा उन्हें बेवकूफ़ बनाने के उद्देश्य के लिए, साथ ही क्रान्तिकारी सिद्धान्त को उसके सार से वंचित करने, उसकी क्रान्तिकारी धार को कुंठित करने तथा उसे भ्रष्ट करने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमा में बदलने, कहा जा सकता है, उन्हें देवत्व प्रदान करने तथा कुछ हद तक उनके नामों को पूजा बनाने के प्रयत्न किये जाते हैं। मार्क्सवाद को इस तरह दूषित करने पर आज पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर आन्दोलन में मौजूद अवसरवादियों के बीच सहमति है। वे इस सिद्धान्त के क्रान्तिकारी पहलू को, उसकी क्रान्तिकारी आत्मा को मिटा देते हैं, धुंधला बना देते हैं अथवा विकृत कर देते हैं जो पूंजीपति वर्ग के लिए स्वीकार्य है अथवा स्वीकार्य प्रतीत होता है, उसे वे सामने लाते हैं, उसकी स्तुति करते हैं। सारे सामाजिक-अंधराष्ट्रवादी आज "मार्क्सवादी" बन गये है, हंसिये नहीं! जर्मन पूजीवादी विद्वान जो कल तक मार्क्सवाद का संहार करने के विशेषज्ञ थे, अब अधिकाधिक "राष्ट्रीय-जर्मन" मार्क्स की बात करते हैं, जिन्होंने उनका दावा है, मजदूर यूनियनों को शिक्षित किया जो दस्युतापूर्ण युद्ध चलाने के लिए इतने
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शानदार ढंग से संगठित हैं। इन परिस्थितियों में मार्क्सवाद की अभूतपूर्व रूप से व्यापक विकृति को देखते हुए, हमारा प्रथम कर्त्तव्य राज्य के विषय में मार्क्स के वास्तविक सिद्धान्त की पुनःस्थापना करना है। "
मार्क्स तथा एंगेल्स ने लिखा कि उनकी शिक्षा "कोई जड़सूत्र नहीं वरन कार्यकलाप का पथ-प्रदर्शक" है । लेनिन उनके इन शब्दों को दुहराते हुए कभी नहीं थकते थे। लेनिन, मार्क्स तथा एंगेल्स की कृतियों का अध्यन करने की अपनी विधि तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन के व्यावहारिक कार्य और सर्वहारा कान्तियों के युग के पूरे वातावरण की ही बदौलत मार्क्स के सही अर्थों में क्रान्तिकारी सिद्धान्त को कार्यकलाप का वास्तविक पथ-प्रदर्शक बना सके।
मैं एक और बहुत आवश्यक प्रश्न की चर्चा करूंगी। हमें सोवियत सत्ता के अस्तित्व का पन्द्रहवां वर्ष मनाये अधिक दिन नहीं हुए। इस सिलसिले में हमने याद किया था कि अक्तूबर, १९१७ में सत्ता हासिल करने का कार्य किस तरह संगठित किया गया था। यह स्वतःस्फूर्त ढंग से नहीं हुआ, परन्तु उस पर लेनिन ने पहले ही गहन चिन्तन कर लिया था, मार्क्स के इन प्रत्यक्ष निर्देशों ने उनका पथ-प्रदर्शन किया था कि विप्लव कैसे संगठित किया जाना है।
अक्तूबर क्रान्ति ने सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथों में स्थानान्तरित करने के बाद संघर्ष की तमाम अवस्थाएं मौलिक रूप से बदल डाली, परन्तु चूंकि लेनिन ने मार्क्स तथा एंगेल्स की कृतियों के शब्दों से नहीं, वरन उनके क्रान्तिकारी सारतत्त्व से पथ-प्रदर्शन पाया, वह सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की अवधि में मार्क्सवाद को समाजवाद के निर्माण पर लागू कर सके।
मैंने चन्द बातों का ही जिक्र किया है। लेनिन ने मार्क्स से जो कुछ ग्रहण किया, उस सब का पता लगाने, उसे करने के- किस मौके पर तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन के किस कार्य के सिलसिले में -उनके तरीके का विवेचन करने के लिए बहुत अधिक शोध करना होगा। मैंने तो राष्ट्रीय प्रश्न साम्राज्यवाद आदि जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की चर्चा तक नहीं की है। लेनिन की संग्रहीत रचनाएं तथा लेनिन के संकलित ग्रंथों का
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प्रकाशन शोध कार्य को अधिक सुगम बना देगा । क्रान्तिकारी संघर्ष की तमाम मंजिलों में शुरू से लेकर आखिर तक - लेनिन जिस तरीके से मार्क्स का अध्ययन करते थे, वह मार्क्स के बारे में ही नहीं, वरन स्वयं लेनिन के बारे में, अध्ययन की उनकी विधि तथा मार्क्स की शिक्षा को व्यवहार में लाने की उनकी विधि के बारे में हमारी समझदारी को बेहतर, गहन बनायेगा ।
एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य की भी चर्चा की जानी चाहिए, वह यह है कि मार्क्स का लेनिन द्वारा अध्ययन मार्क्स तथा एंगेल्स की कृतियों तक ही सीमित नहीं था, मार्क्स के बारे में उनके "आलोचकों" ने जो कुछ लिखा, उसका भी वह अध्ययन करते थे। मार्क्स ने यह या वह विचार कैसे बनाया, इसका भी वह अध्ययन करते थे, उन्होंने वे पुस्तकें भी पढ़ीं जिन्होंने स्वयं मार्क्स के विचारों को जन्म दिया था तथा उन्हें उस पथ की ओर निर्देशित किया था जिसे उन्होंने अपनाया। यों कह सकते हैं कि उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण के उद्गम का अध्ययन किया, इस बात का अध्ययन किया कि मार्क्स ने इस या उस लेखक से क्या और कैसे ग्रहण किया....
"बूदेम उचीत्स्या रबोतात उ लेनिना" ("हम लेनिन से सीखेंगे कि काम कैसे करना चाहिए") । मास्को, पातिंज्दात, १९३३, पृष्ठ १७-३६
एम के आजाद द्वारा कामगार-ई-पुस्तकालय के लिए
हिंदी यूनिकोड में रूपांतरित
अप्रैल 2021
https://kamgar-e-library.blogspot.com/
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