Total Pageviews

Tuesday, 20 April 2021

काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ - ग्यार्गी प्लेखानोव

 



लोक चेतना


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


ग्यार्गी प्लेखानोव


अनुवाद और संपादन नरेश 'नदीम'




प्रकाशन संस्थान नयी दिल्ली-110002





एम के आजाद द्वारा 

कामगार-ई-पुस्तकालय के लिए

हिंदी यूनिकोड में रूपांतरित

अप्रैल 2021


https://kamgar-e-library.blogspot.com/ 





विषय-सूची


यह रचना.                                    9


19वीं सदी का फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद.                                  25


टिप्पणियाँ.                                   68


19वीं सदी का काल्पनिक समाजवाद 77


(अ) ब्रिटिश काल्पनिक समाजवाद     80


(ब) फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद.  95


(स) जर्मन काल्पनिक समाजवाद    110


टिप्पणियाँ.                               119



यह रचना


29 नवंबर 1856 को रूस के तांबोव प्रांत के ग्राम गुदालोका में जन्मे ग्यार्गी वैलेंतिनोविच प्लेखानोव को अकसर 'रूसी मार्क्सवाद के पुरोधा के रूप में जाना जाता है। मार्क्स की मृत्यु के फौरन बाद के काल में, बल्कि एंगेल्स के जीवनकाला में ही, प्लेखानोव की गिनती पहली कतार के मार्क्सवादी विचारकों में की जाने लगी थी।


प्लेखानोव ने अभी नौजवानी की मंज़िल में कदम रखा ही था कि, उन दिनों के रूस के तमाम उन्नत विचार वाले व्यक्तियों की तरह, उनका झुकाव भी राजनीति की ओर गया। 1870 की दहाई के उत्तरार्ध में प्लेखानोव ने अपने क्रांतिकारी जीवन का आरंभ एक नरोदनिक समूह के सदस्य के रूप में किया और इसके चलते उनको, गिरफ्तार करके साइवेरिया भेजे जाने से बचने के लिए, भागकर पश्चिमी यूरोप जाना पड़ा जहाँ उनका अधिकांश समय जेनेवा (स्विट्जरलैंड) और जर्मनी में गुजरा।


प्लेखानोव की खुद पर लादी हुई इस जलावतनी का अंत 1917 में ही हुआ जब फ़रवरी 1917 की बुर्जुवा जनवादी क्रांति के बाद वे मार्च 1917 में, 35 साल की जलावतनी के बाद अपने वतन लौटे। यही वह समय था जब लेनिन और दूसरे बहुत से क्रांतिकारी भी पश्चिमी यूरोप से वापस अपने देश लौटे: जब लेनिन ने रूस को, जारशाही के दिनों के विपरीत, यूरोप का सबसे अधिक स्वतंत्र देश बतलाया था।


लेकिन 1905 की असफल रूसी क्रांति के दिनों से ही रूसी सामाजिक जनवाद के एक अग्रणी नेता के रूप में प्लेखानोव की प्रतिष्ठा लगातार गिरती आ रही थी. और नवंबर 1917 की समाजवादी क्रांति में भी उनकी कोई भूमिका नहीं रही। उनके विचार में यह क्रांति लेनिन और उनके नेतृत्वनाले  बोल्शेविकों  के दुस्साहसवाद के अलावा कुछ भी नहीं थी, और इसलिए उन्होंने उसका विरोध ही किया। जान रोड की मशहूरे-जमाना किताब दस दिन जब दुनिया हिल उठी में प्लेखानोव बस एक जगह आता है जब क्रांति-समर्थक कुछ सैनिक उनके घर पर


काल्पनिक समाजवाद की धाराएं/ 9

पहुँचते हैं। यहाँ बीमारी की हालत में बिस्तर पर लेटे हुए प्लेखानोव की उन सैनिकों से बातचीत है तो बहुत ही संक्षिप्त, मगर उनके आखिरी दिनों में उनकी त्रासदी को अच्छी तरह उजागर करती है। प्लेखानॉव उन सैनिकों और बोल्शेविक पार्टी के दुस्साहसवाद की निंदा करते हैं तो एक सैनिक आगे बढ़कर उनसे कहता है कि उनका ज़माना अब जा चुका है; बेहतर है वे खामोश रहें।


लेकिन इस क्रांति के बाद प्लेखानोव बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहे। क्रांति के कुल सात माह के अंदर, 30 मई 1918 के रोज़, फ़िनलैंड के तेरियोकी नामक स्थान पर प्लेखानोव का देहांत हो गया। (पहले फ़िनलैंड भी जार के साम्राज्य का भाग था और यहाँ जिस काल की बात चल रही है तब तक रूस से अलग नहीं हुआ था। फ़िनलैंड की स्वतंत्रता वास्तव में कम्युनिस्टों की देन थी और लिथुआनिया, सात्विया और एस्तोनिया की भी) मृत्यु के समय तक उन्होंने 60 साल की आयु भी पूरी नहीं की थी।


जैसा कि कहा गया, प्लेखानोव ने अपने क्रांतिकारी जीवन का आरंभ एक नरोदनिक के रूप में किया। ये नरोदनिक, आतंकवाद जिनकी कार्यनीति का सबसे प्रमुख तत्व था, मुख्यतः किसान वर्ग को ही अपना सामाजिक आधार समझते थे और उन्हीं के बीच सक्रिय थे। इसके अलावा उनका विश्वास था कि रूस का पूँजीवादी विकास की अवस्था से गुज़रना अनिवार्य नहीं है। वे समझते थे कि एक लंबे समय से देश के देहातों में जो सामूहिक संपत्ति चली आ रही थी उसी को नवजीवन देकर देश को पूँजीवादी विकास के चरण से गुज़रने से बचाया जा सकता है और सीधे समाजवाद की अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। इसके विपरीत पी वी स्तुरवे आदि के नेतृत्व में तथाकथित 'कानूनी' मार्क्सवादियों का विचार था कि रूस में सामूहिक संपत्ति की व्यवस्था पर आधारित कम्यूनों का विनाश अवश्यंभावी है और यह कि देश को पूँजीवाद के चरण से गुज़रना और उससे जुड़ी हुई तमाम मुसीबतों और आर्थिक संकटों को झेलना ही पड़ेगा।


इसके विपरीत, पूँजी की पहली जिल्द (1857) का रूसी में अनुवाद करने वाले नरोदनिक बुद्धिजीवी निकोलाई दानियल्सन के नाम एक पत्र (10 अप्रैल 1879) में मार्क्स ने उन लोगों की कड़ी आलोचना की है जो उनके ऐतिहासिक विकास के सिद्धांत को समझे बिना उसे एक 'परा-ऐतिहासिक' (सुप्राहिस्टारिकल) सूत्र में बदल देते हैं। (हमारे देश में भी ऐसे लोगों की तादाद कुछ कम नहीं रही है जो आदिम साम्यवाद दास प्रथा-सामन्तवाद-पूँजीवाद-समाजवाद-साम्यवाद के फ़ार्मूले में आँख मूदकर यकीन करते रहे हैं। उनसे अगर पूछा जाता है कि 'साम्यवाद के बाद क्या?'


10 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


तो वे एकाएक खामोश हो जाते हैं। साम्यवाद पर पहुँचकर इतिहास की गति ही समाप्त हो जाएगी, इसे वे स्वीकार करना नहीं चाहते, इसे मानते भी हों तो खुलकर कहना नहीं चाहते, और इस सवाल का कोई और जवाब भी मुमकिन है, यह बात उनकी चेतना में होती ही नहीं।)


 इसी पत्र में रूसी कम्यूनों के बारे में भी मार्क्स ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। मार्क्स का सोचा-विचारा हुआ मत यह था कि इन कम्यूनों को आधार बनाकर रूस पूँजीवाद के चरण से कतराकर निकल सकता है और सीधे समाजवाद की मंज़िल में पहुँच सकता है, लेकिन इसके लिए कुछ बुनियादी दशाओं का मौजूद होना आवश्यक है, और सत्ता पर सर्वहारा की विजय इन दशाओं में सबसे महत्वपूर्ण दशा है। मार्क्स ने यही विचार वेरा जासुलिच के नाम अपने 8 मार्च 1881 के पत्र में तथा कम्युनिस्ट घोषणापत्र के रूसी अनुवाद की भूमिका (1882) में भी व्यक्त किए हैं। 


मार्क्स का यही नज़रिया आगे चलकर 'विकास का गैर-पूँजीवादी रास्ता' जैसी महत्त्वपूर्ण धारणा का आधार बन गया और मंगोलिया आदि की मिसालों में इस धारणा को व्यवहार में परखा भी गया। यह और बात है कि इस धारणा को ठीक-ठीक समझे बगैर कुछ लोगों ने इसे बस तोते की तरह रटा और मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया।


मार्क्स के ये पत्र और उनमें व्यक्त विचार आगे चलकर रूसी मज़दूर आंदोलन के लिए बुनियादी अहमियत वाले दस्तावेज़ साबित हुए।


इसका कारण बहुत सीधा-सा है। मार्क्स के जीवनकाल में ही उनकी कई एक रचनाएँ रूसी क्रांतिकारियों के बीच गौर से पढ़ी जाती थीं और वे उन पर तीखी बहसें करते रहते थे। जैसा कि कहा गया, पूँजी की पहली जिल्द के रूसी अनुवादक निकोलाई दानियल्सन एक नरोदनिक ही थे। मार्क्स की जो बात रूसी नरोदनिकों को बेहद पसंद आई वह थी पूँजीवादी व्यवस्था और उसके मनुष्य को पतित बनाने वाले प्रभावों के बारे में मार्क्स द्वारा अपनी रचनाओं में की गई तीखी आलोचना। लेकिन एक बात यहाँ माननी ही पड़ेगी, हालाँकि यहाँ इसके विस्तार में जाना संभव नहीं है। रूसी नरोदनिक, मार्क्स के विपरीत, पूँजीवाद को एक शुद्ध रूप से घटिया व्यवस्था मानते थे। सामंतवाद के मुक़ाबले पूँजीवाद की जिस प्रगतिशील (बल्कि क्रांतिकारी) भूमिका को मार्क्स ने, मिसाल के लिए कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (1848) के पहले ही अध्याय में, रेखांकित किया है, वह गोया इन नरोदनिकों के लिए कोई अस्तित्वहीन वस्तु थी। जोसेफ शुंपीटर जैसे मार्क्सवाद-विरोधी अर्थशास्त्री तक को यह बात माननी पड़ी कि पूँजीवाद की जितनी 'तारीफ़' मार्क्स ने की है, उतनी तो किसी पूँजीवादी अर्थशास्त्री ने नहीं की है। (हिंदी अनुवाद में शुपीटर की पुस्तक दस महान अर्थशास्त्री देखें जिसमें पहला ही अध्याय मार्क्स के बारे में है।) यह अलग बात है कि शुंपीटर की यह बात भी अधिक नहीं तो उतनी अनैतिहासिक


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 11

अवश्य है जितनी नरोदनिकों की थी।


कारण कि सवाल यहाँ न तो पूँजीवाद की प्रशंसा का है और न उसकी निंदा का। मार्क्स और एंगेल्स ने घोषणापत्र में पूँजीवाद के बारे में जो कुछ भी कहा है वह उनके गंभीर ऐतिहासिक विश्लेषण का परिणाम था और यह विश्लेषण पूँजीवाद की पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया का विश्लेषण है; यह उसके जन्म से लेकर उसके विकास और फिर उसका अंत करने वाली ताक़तों का विश्लेषण है। कहने का यह मतलब हरगिज़ नहीं कि तथाकथित वस्तुनिष्ठता का दावा करनेवाले पूँजीवादी समाजविज्ञानियों की तरह मार्क्स भी 'निष्पक्ष' थे। लेकिन पूँजीवाद के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का सवाल इस ऐतिहासिक विश्लेषण से पहले नहीं आता; इसके बाद आता है। मार्क्स ने पूँजीवाद के प्रति जो रुख अपनाया, वह इसी विश्लेषण का परिणाम है। वास्तव में जिस चीज़ को शुंपीटर ने मार्क्स द्वारा पूँजीवाद की प्रशंसा कहा है, वह पूँजीवाद की ऐतिहासिक प्रक्रिया के सिर्फ़ आरंभिक चरण का बयान है।


दूसरी ओर नरोदनिकों ने मार्क्स के यहाँ पूँजीवाद की सिर्फ़ निंदा ही देखी; उन्हें भी इसमें कोई ऐतिहासिक विश्लेषण नज़र नहीं आया। या फिर यूँ कह लें कि उन्होंने पूँजीवाद के बारे में मार्क्स के विश्लेषण का उपयोग अपने तपते हुए दिलों पर पानी के छींटे देने के लिए किया; उससे कुछ सीखने की जहमत उन्होंने गवारा नहीं की। वैसे यह बात आम तौर पर मानी जाती है कि 19वीं सदी की आखिरी और 20वीं सदी की पहली चौथाई के दौरान रूस में, जहाँ तक अर्थशास्त्रीय ज्ञान और विश्लेषण का सवाल था, नरोदनिकों जैसा स्थिरप्रज्ञ कोई और समूह शायद था भी नहीं।


फिर भी अगर नरोदनिक मार्क्स की रचनाओं को गौर से पढ़ते और उन पर बहसें करते थे तो इसका लाज़मी तौर पर यही नतीजा निकला कि इन्हीं नरोदनिकों में से कुछ लोगों ने नरोदवाद की सीमाओं को पहचाना, उसकी कमजोरियों को जाना और उससे अलग हो गए। रूस में मार्क्सवाद को अपने प्रारंभिक समर्थक ऐसे ही नरोदनिकों में से मिले।


इन्हीं नरोदनिकों में एक नाम ग्यार्गी वैलेंतिनोविच प्लेखानोव का था। यह मानने का हमारे पास आधार है कि 1878 तक प्लेखानोव नरोदनिकों की संगत छोड़कर मार्क्सवादियों के साथ आ चुके थे जिनकी तादाद यूरोप, अमरीका में तब कुल मिलाकर शायद 200 से अधिक नहीं रही होगी। नरोदनिकों के मुक़ाबले प्लेखानोव ने राजनीतिक आतंकवाद को नकारा और किसानों की बजाय मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी क्षमताओं को रेखांकित करना आरंभ किया, हालाँकि किसान वर्ग के प्रति उनका रुख तब तक बहुत स्पष्ट न सही, नकारात्मक तो नहीं ही था। इसी के साथ उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों, दस्तावेज़ों, आँकड़ों और तर्कों आदि के सहारे रूसी किसानों के कम्यूनों के बारे में ठीक उसी विचार को पुष्ट किया जिसे दानियल्सन


12 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के नाम अपने पत्र में मार्क्स पहले ही व्यक्त कर चुके थे। 1882 में कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र का रूसी अनुवाद प्रकाशित हुआ जो प्लेखानोव का किया हुआ था; इसकी भूमिका खुद मार्क्स और एंगेल्स ने लिखी थी। इसी भूमिका में मार्क्सवाद के संस्थापकों ने पहली बार यह संकेत दिया था कि क्रांति का केंद्र पश्चिमी यूरोप से खिसककर पूरब की ओर चला गया है:  जार "आज गातचिना में क्रांति का युद्ध-बंदी है और रूस यूरोप में क्रांतिकारी कार्यकलाप का हिरावल है।" यहाँ मार्क्स और एंगेल्स का इशारा समाजवादी नहीं बल्कि जनवादी क्रांति की ओर था, लेकिन ये बहुत पहले ही इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि मजदूर वर्ग का नेतृत्व हो तो जनवादी क्रांति का समाजवादी क्रांति में सुचारू रूप से संक्रमण हो सकता है।


नरोदवाद से संबंध-विच्छेद के बाद प्लेखानोव की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना हमारे मतभेद थी जो 1885 में प्रकाशित हुई थी। आज से 118 साल पहले प्रकाशित इस रचना में यूँ तो बहुत कुछ ऐसा है जिसका सीधा-सीधा संबंध कुछ विशेष घटनाओं, विशेष परिस्थितियों और विशेष व्यक्तियों से है, लेकिन इसका महत्त्व सिर्फ़ ऐतिहासिक नहीं है। पुस्तक में प्लेखानोव ने जिस तरह से कुछेक ऐतिहासिक, अर्थशास्त्रीय और राजनीतिक प्रश्नों की विवेचना की है, वह आज भी बहुत-सी बातों को स्पष्ट करने, बहुत से भ्रमों को दूर करने में उपयोगी है।


इसके बाद, इतिहास के प्रति एकसत्तावादी दृष्टिकोण का विकास, भौतिकवाद का इतिहास, एन जी चेनशेव्स्की, इतिहास में व्यक्ति की भूमिका, जुझारू भौतिकवाद, मार्क्सवाद की बुनियादी समस्याएँ, कला और सामाजिक जीवन, असंबोधित पत्र आदि प्लेखानोव की प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं। मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं के रूसी अनुवाद करने/ कराने में भी उनका अमूल्य योगदान रहा है।


सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में अपनी गलत समझ और गलतियों के बावजूद सिद्धांत के क्षेत्र में प्लेखानोव की भूमिका असंदिग्ध रूप से महत्वपूर्ण रही है। चाहे बर्नस्टाइन और कोनराड श्मिट का संशोधनवाद रहा हो, रूस के 'क़ानूनी' मार्क्सवादी या नरोदनिक रहे हों, इस या उस विचारक से मार्क्सवाद को समन्वित करने के प्रयास रहे हों, नव-कांटवाद या माखवाद का हमला रहा हो या इसी तरह की कोई और विजातीय प्रवृत्ति रही हो, मार्क्सवादी दर्शन की शुद्धता की रक्षा हमेशा प्लेखानोव की पहली प्राथमिकता रही। 


प्लेखानोव के साथ एक बात और भी थी, और अगर हमारे बुद्धिजीवी (1) इससे कुछ सीख सकें तो इससे बेहतर कोई बात नहीं होगी। अपने बुद्धिजीवीवृंद का पूरा-पूरा सम्मान करते हुए हम उन्हें मीमांसा-दार्शनिक कुमारिल भट की यह बात याद नहीं दिलाएँगे कि कुछ लोग अपनी मूढ़ता को छिपाने के लिए जानबूझकर क्लिष्ट भाषा का सहारा लेते हैं; लाला (मुँह से टपकने वाली लार) जैसे एक आसान संस्कृत शब्द की जगह एक क्लिष्ट शब्द वक्त्रासव लिखते हैं। यहाँ हम इस सच्चाई की


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 13

भी याद नहीं दिलाएंगे कि कठिन भाषा लिखना कम कठिन तथा आसान भाषा लिखना कम आसान होता है। अपने बुद्धिजीवियों के प्रति अपने विनीत आदर-भाव के कारण हम यह भी नहीं कहेंगे (हालांकि यह हमारी सोची-विचारी राय है) कि क्लिष्ट भाषा के सहारे एक लेखक पाठक को थोड़ी देर के लिए आतंकित भले ही कर ले, पाठक ऐसे लेखक को कुछ समय बाद विस्मृति के कूड़ेदान में ज़रूर फेंक देता है। हम तो बस एक बात जानते हैं - यह कि भाषा आसान होगी या मुश्किल होगी, इसका दारोमदार बस एक प्रश्न के उत्तर पर होता है : लेखक को किसी तक अपनी बात पहुँचानी है या फिर कथित रूप से बुद्धिजीवी कहलाने के लिए अपनी कथित प्रबुद्धता की कथित रूप से अभिव्यक्ति करनी है? सही बात तो यह है कि एक लेखक की जब अपनी समझ स्पष्ट नहीं होती, जब उसके दिमाग में मकड़जाल होता है तो उसका कलम अनायास ही कागज़ पर उस मकड़जाल की तस्वीर उभार देता है।


शुक्र है कि प्लेखानोव इस प्रकार के 'बुद्धिजीवी' नहीं थे। प्लेखानोव ने दर्शनशास्त्र जैसे गूढ़ और नीरस विषय पर भी क़लम चलाया है, मगर हमें उनकी बात समझने में कहीं कोई दुश्वारी नहीं आती। विषय का बस मामूली-सा परिचय हो तो भी पाठक प्लेखानोव के साथ आसानी से अपना सफ़र जारी रख सकता है, बशर्ते कि अनुवादक बीच में बाधक न हो और 'मार्क्सवाद के परचम तले' या 'मार्क्सवाद के झंडे तले' की जगह 'मार्क्सवाद के ध्वजांतर्गत' न लिखने लगे या 'पीला पिशाच' अनुवादक को दिमागी पीलिया का शिकार बनाकर उससे 'पांडुर पिशाच' न लिखवाने लगे। कला के बारे में शार्ल बादलियर जैसे कई एक व्यक्तियों की राय थी (कइयों की आज भी है) कि एक नज्म या कहानी जितने ही अधिक लोगों की समझ में आ जाए उसे उतनी ही घटिया समझना चाहिए। इस मानदंड से देखें तो प्लेखानोव एक निहायत 'घटिया' लेखक हैं, और उनके 'घटियापन' पर नाज़ करना हमारे अपने 'घटियापन' का सुबूत है।


क्रांतिकारी कार्यनीति के सवाल पर अपने तमाम मतभेदों के बावजूद मार्क्सवादी दर्शन की शुद्धता की रक्षा के सिलसिले में प्लेखानोव की भूमिका को लेनिन ने साफ़ तौर पर पहचाना था। कहते हैं: “ अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक जनवादी आंदोलन में सुसंगत द्वंद्ववादी भौतिकवाद के दृष्टिकोण से संशोधनवादियों की हेरानकुन घिसी-पिटी बातों की आलोचना करनेवाले एकमात्र मार्क्सवादी प्लेखानोव थे।” (कलेक्टेड वर्क्स, जिल्द 15, पृ. 38 देखें।)


प्रसंगवश, जहाँ ऐतिहासिक भौतिकवाद की शब्दावली का प्रयोग सबसे पहले एंगेल्स ने समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक की भूमिका में किया था, वहीं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की शब्दावली प्लेखानोव की देन हैं; उन्होंने इसका प्रयोग इतिहास के प्रति एकसत्तावादी दृष्टिकोण का विकास (1894) में किया था।


प्लेखानोव के निधन के कुछ ही समय बाद लेनिन ने कहा था "...यहाँ मैं


14 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


नौजवान पार्टी सदस्यों के लाभ के लिए कोष्ठक में इतनी बात जोड़ दूँ कि प्लेखानोव की तमाम दार्शनिक रचनाओं का अध्ययन -और मेरा मतलब है अध्ययन- किए बगैर आप एक सच्चे, प्रबुद्ध कम्युनिस्ट बनने की आशा नहीं कर सकते, क्योंकि दुनिया में कहीं भी मार्क्सवाद के बारे में उनसे बेहतर कुछ नहीं लिखा गया है।"


(कलेक्टेड वर्क्स, जिल्द 32, पृ. 94 देखें; ज़ोर लेनिन का ।) कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं प्रस्तुत पुस्तक खुद ही लेनिन की बात की सच्चाई का पूरा-पूरा सुबूत दे देगी।


प्रस्तुत पुस्तक प्लेखानोव के दो लेखों का संग्रह है। मास्को के मिर प्रकाशन गृह ने जून 1911 में प्लेखानोव से फ्रांस में सामाजिक कल्पनावादी सिद्धांतों और जर्मनी में हेगेलवाद और उसके विभिन्न रूपों का विकास' विषय पर एक लेख लिखने का आग्रह किया था। यह प्रकाशन गृह 19वीं सदी में पश्चिमी साहित्य का इतिहास शीर्षक से कई जिल्दों वाली एक पुस्तक के प्रकाशन की योजना बना रहा था, और प्लेखानोव का लेख इसी ग्रंथ की किसी जिल्द में शामिल किया जानेवाला था।


1912 के आरंभिक महीनों में किसी समय प्लेखानोव ने लेख तैयार करके मिर प्रकाशन गृह को भेज दिया, मगर प्रकाशकों ने इस आग्रह के साथ लेख उनके पास वापस भेज दिया कि उसे कुछ और छोटा कर दिया जाए। तब प्लेखानोव ने इसे पत्रिका सोब्रेमेन्नी मिर के अंक 6 और 9 (1918) में प्रकाशित करा दिया। यहाँ संकलित '19वीं सदी का फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद' इसी लेख का शीर्षक है। मिर प्रकाशन गृह की प्रस्तावित योजना के लिए उन्होंने दो नये लेख लिखे। इनमें से एक लेख '19वीं सदी का काल्पनिक समाजवाद' ही प्रस्तुत पुस्तक में संकलित दूसरा लेख हैं; इसे प्लेखानोव ने अगस्त-सितंबर 1913 में लिखा था और यह मिर प्रकाशन गृह के प्रस्तावित ग्रंथ की दूसरी जिल्द में शामिल किया गया था। दूसरा लेख, जिसे यहाँ शामिल नहीं किया गया है, 'विचारवाद से भौतिकवाद तक' था जिसे प्लेखानोव ने 1915 के आरंभ में पूरा किया था और जिसे मिर प्रकाशन गृह ने प्रस्तावित ग्रंथ की चौथी जिल्द में प्रकाशित किया था।


प्लेखानोव की बहुत सी छोटी या बड़ी रचनाओं की तरह इन लेखों की भी अनकही मान्यता यही है कि मार्क्सवाद की गंभीर समझ के लिए उन धाराओं का गंभीर अध्ययन आवश्यक है जिनका मार्क्सवाद के जन्म और विकास में योगदान रहा है। जैसा कि एंगेल्स ने और आगे चलकर लेनिन ने दिखाया, क्लासिकी जर्मन दर्शनशास्त्र (हंगेल, फायरबाख), ब्रिटिश अर्थशास्त्र (एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो आदि) और फ्रांसीसी समाजवादी सिद्धांत (शार्ल फूरिये, सेंत-साइमन और ब्रिटेन के राबर्ट


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 15


. ओवेन) मार्क्सवाद के बुनियादी स्रोत रहे हैं। अपने एक छोटे से लेख 'मार्क्सवाद के तीन स्रोत और तीन घटक' में लेनिन ने यही बात दिखलाई। उनसे पहले एंगेल्स ने इयूहरिंग मत-खंडन में यूगेन ड्यूहरिंग के खिलाफ़ शास्त्रार्थ (पोलेमिक) करते हुए यही दिखाया। वास्तव में इस पुस्तक के तीन भागों का संबंध जर्मन दर्शन, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद से ही है। कुछ ही समय बाद एंगेल्स ने इसी ग्रंथ के तीन अध्यायों में थोड़ा फेरबदल करके, एक नयी भूमिका के साथ अलग से प्रकाशित कराया था; इसी पुस्तिका को आज हम समाजवाद काल्पनिक और वैज्ञानिक नाम से जानते हैं।


लेकिन जहाँ मार्क्स पूँजी की दूसरी ओर तीसरी जिल्दों में ही उलझे हुए थे, वहीं मार्क्सवादी विचारधारा के प्रसार-प्रचार के लिए एंगेल्स ने जो कुछ भी किया वह अपने आपमें मूल्यवान होते हुए भी पर्याप्त नहीं था। उदाहरण के लिए एंगेल्स के यहाँ जहाँ मुख्यतः हेगेल और फायरबाख के दर्शन की ही विवेचना मिलती है, वहीं क्लाउद आद्रिएन हेल्वेतियस (1715-1771) और पाल हेनरी होलबाख (1723-1789) की कोई खास विवेचना नहीं मिलती जिनका आधुनिक भौतिकवाद के विकास में प्रत्यक्ष योगदान रहा है। इसी तरह मार्क्स के समकालीन जोसेफ डिएल्ज़गेन (1828-1888) के बारे में खुद एंगेल्स ने एक जगह लिखा है कि वे मार्क्स से स्वतंत्र रूप से द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन पर पहुँचे हालाँकि उनके यहाँ इस दर्शन की वह समृद्ध प्रस्तुति देखने को नहीं मिलती जैसी मार्क्स के यहाँ मिलती है। लेकिन एंगेल्स की अपनी ही व्यस्तताएँ थीं जो मार्क्स की मृत्यु के बाद और भी गंभीर हो गई, और इसलिए उनके यहाँ डिएल्ज़गेन के बारे में इससे अधिक हमें कोई खास जानकारी नहीं मिलती। इसी तरह एंगेल्स की पुस्तिका समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक में कुल जमा तीन समाजवादी विचारकों का हवाला मिलता है जो मार्क्स के अग्रगामी थे, ये हैं राबर्ट ओवेन, सेंत-साइमन और शार्ल फूरिये। तो क्या काल्पनिक समाजवाद इन्हीं तीन विचारकों तक सीमित था? मार्क्स के समकालीनों में एक नाम बार-बार आता है-विल्हेल्म वाइटलिंग (1808-1871) का नाम, जो मार्क्स से मिलने कई बार आए और दोनों के बीच कई-कई रातों तक विचार-विमर्श होता रहा। लेकिन वाइटलिंग के विचार क्या थे, इसका हमें पता नहीं चलता। मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं में लुई ब्लांक (1811-1882) का भी जिक्र आता है और लुई आगस्त ब्लांकी(1805-1881) का भी। फिर जोसेफ पियरे प्रूदों (1809-1865) का कहना ही क्या मगर इन सबके विचारों की चर्चा कुछ खास नहीं मिलती। 


यही कमी थी जिसे ग्यार्गी प्लेखानोव ने एक बड़ी हद तक पूरा किया। विशेष रूप से दर्शन और समाजवादी सिद्धांतों के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह न सिर्फ़ हमारी जिज्ञासा को शांत करता है बल्कि हमें नयी राहें भी दिखाता है। दर्शन के क्षेत्र में प्लेखानोव वे पहले मार्क्सवादी थे जिन्होंने भौतिकवादी दर्शन के विकास


16 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

में हेल्वेतियस, होलबाख और देनिस दिदेगे (1713-1784) के योगदान को पूरी तरह उभारकर सामने रखा और मार्क्सवाद से इन विचारकों का संबंध बड़े स्पष्ट ढंग से स्थापित किया। इतना ही नहीं, प्लेखानोव अगर अंधराष्ट्रवादी नहीं थे तो पश्चिम के अंधे नक़्क़ाल भी नहीं थे और भौतिकवाद के इतिहास को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने रूसी भौतिकवादियों जैसे अलेक्सांद्र इवानोविच हजैन (1812-1870), निकोलाई अलेक्सांद्रोविच द्रोब्रोल्यूबोव (1886-1861) और सबसे बढ़कर निकोलाई गाविलोबिच चेनशेव्स्की (1828-1889) के योगदान को या पश्चिमी यूरोप के भौतिकवादियों से इन विचारकों के संबंध को, आँखों से ओझल नहीं होने दिया। चेनशेस्की के बारे में तो उन्होंने बड़े स्पष्ट ढंग से दिखाया है कि वे किस प्रकार लुडविग फायरबाख के सच्चे उत्तराधिकारी थे।


प्रस्तुत पुस्तक में शामिल लेख भी इसी श्रेणी में आते हैं। मार्क्स के अग्रगामी तीन समाजवादी विचारकों के बारे में एंगेल्स ने जो कुछ लिखा है, उसकी अहमियत अपनी जगह मुसल्लम है। मगर ये तीनों अध्याय एक विशेष फार्मेट में, अर्थात् यूगेन ड्यूहरिंग के साथ एक शास्त्रार्थ के फार्मेट में लिखे गए थे और इस तरह के फॉर्मेट की अपनी सीमाएँ होती हैं। एंगेल्स भी ड्यूहरिंग मत-खंडन में उतनी ही बातों तक सीमित रहे जितनी ड्यूहरिंग का जवाब देने के लिए आवश्यक थीं। एंगेल्स ने सिर्फ तीन समाजवादी विचारकों की चर्चा की, तो इसका एक कारण यह भी था।


प्लेखानोव के यहाँ संकलित दोनों लेख भी, इस अर्थ में, इसी गंभीर कमी को पूरा करने के प्रयास हैं, और इनके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इन लेखों में प्लेखानोव ने न सिर्फ मार्क्स से पहले के समाजवादी विचारकों के मतों को विस्तार से प्रस्तुत किया है, बल्कि उन्होंने ऐसे विचारकों को भी अपनी प्रस्तुति में शामिल किया है जिनका मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं में या तो संक्षिप्त उल्लेख ही मिलता है या वह भी नहीं मिलता। इन विचारकों की एक छोटी-सी सूची ही इस दिशा में प्लेखानोव के योगदान को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है-सबैक्यू बाज़ेयर, लुई ब्लांक, लुई आगस्त ब्लांकी, जान फ्रांसिस , ब्यूख्नर, काबे, कोसिदरों, देज़ामी, एडमंड्स, इनफृतिन, गाडविन, जान ग्रे, चार्ल्स हाल, हारिस्कन, पियरे लेंगे, प्रूदों, रेनो, रोडबर्टस, वाइटलिंग, वगैरह-वगैरह। जाहिर है कि एंगेल्स ने जिन तीन विचारकों की चर्चा की है उन्हें हमने इस सूची में शामिल नहीं किया है हालांकि ये भी प्लेखानोव की विवेचना के विषय हैं।


पुस्तक चूँकि आपके हाथों में है, हम इसकी विषय-वस्तु की कोई विस्तृत चर्चा नहीं करेंगे। मगर एक बात हम ज़रूर कहना चाहेंगे। वर्ग संघर्ष के प्रति इन समाजवादी विचारकों के विरोध और राजनीति से उनकी विरक्ति की जहाँ प्लेखानोव ने विस्तृत विवेचना की है और इन विचारकों की कमियों और कर्मजोरियों की ओर इशारा किया है (निश्चित ही कुछ अपवाद भी हैं और प्लेखानोव ने उन पर भी समुचित ध्यान


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 17

दिया है। उत्तों अर्थात् ज्ञानिक समाजवाद के विकास इयों के महत्व को तथा भक्ति से उनके संबंध को पूरी 9. Yo Rant - या है। मिसाल के लिए वे एक जगह (प्रस्तुत पुस्तक में


इन विचारों का अध्ययन करते समय अनायास और अकसर हमें उस सिद्धांत की याद आती है जो आगे चलकर अस्तित्व में आया और ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से जाना गया। ये विचार इस सिद्धांत के विस्तृत निरूपण के लिए बिना बहुमूल्य सामग्री थे।


यहाँ हमेला शहीद भगतसिंह की एक बात याद आती है। लाला रामसरन पाटों के तिकारी थे जिनको पहले लाहौर साजिश मुकदमे (1915-16) में फांसी की सजा मिली थी जिसे बाद में उम्रकैद में बदल दिया गया था। जेल में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजी में एक काला पुस्तक को रचना ड्रीमलैंड शीर्षक से की भी जिसमें उन्होंने अपने सपनों की दुनिया के बारे में अपने विचार व्यक्त किए थे। से पहले अंडमान तुलर जेल में थे पर बाद में लाहौर सेंट्रल जेल में पहुंचा दिए गए थे। दूसरे लाहौर साजिश मुकदमे (1929-30) में जब फाँसी की सजा पाकर भगतसिंह इस जेल में पहुंचे तब लाला रामसरन दास ने भगतसिंह से आग्रहपूर्वक अपनी पुस्तक की भूमिका लिखवाई थी। यह भूमिका, जिसमें भगतसिंह क्रांतिकारी आंदोलन के लिए सपनों के महत्व की चर्चा करते हैं, पड़ने से ताल्लुक रखती है। भगतसिंह इसमें एक जगह कहते हैं


आखिर में उनकी (लाला रामसरनदास की संपादक) शायरी का सबसे अहम हिल्सा आता है जहाँ उन्होंने भविष्य के उस समाज की बात की है जिसका निर्माण हम सब करना चाहते हैं। लेकिन में शुरू में ही एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। 'स्वप्नलोक' एक सचमुच का कल्पनालोक है। लेखक ने शीर्षक में ही बहुत साफदिली के साथ इस बात को स्वीकार कर लिया है। वे इस विषय पर कोई वैज्ञानिक प्रबंध ग्रंथ लिखने का दावा नहीं करते। शीर्षक ड्रीमलँड ही उसे काफी कुछ स्पष्ट कर देता है। लेकिन इसमें शक नहीं कि कल्पनालोक भी सामाजिक प्रगति में एक बहुत ही अहम भूमिका निभाते हैं। संत-साइमन, फूरिये और राबर्ट ओवेन के बिना और उनके सिद्धांतों के बिना कोई वैज्ञानिक, भावसंवादी समाजवाद भी नहीं होता। लाला रामसरनदास के कल्पनालोक को भी ऐसा ही स्थान प्राप्त है। जब हमारे कार्यकर्ता अपने आंदोलन के दर्शन को व्यवस्थित करने का और आंदोलन के लिए एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण तय


18 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

करने का महत्व समझेंगे, तब यह पुस्तक उनके लिए बहुत उपयोगी साबित होगी।


-शिव वर्मा (संपादक), सेलेक्टेड राइटिंग्स आफ़ शहीद भगतसिंह, पहला अंग्रेजी संस्करण, 1986, पृ. 120-21, जोर हमारा।


इसीलिए अगर प्लेखानोव  फूरिये के प्रति-व्हलो,  प्रति-शाकों, प्रति सिंहों आदि का जिक्र करते हैं और फिर यह बतलाते हैं कि फूरिये के अनुसार भावी समाज में एक प्रति-सिंह पर सवार होकर एक व्यक्ति पेरिस में नाश्ता करके चलेगा तो  ल्योन्स में दोपहर का भोजन और मार्सेइलीज़ में रात का भोजन करेगा, तो वे किसी भी ढके या खुलै ढंग से फूरिये का मज़ाक नहीं उड़ाते। उससे पहले एंगेल्स ने भी फूरिये की चर्चा बड़े सकारात्मक अंदाज़ में की थी, यहाँ तक कि ये परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राजसत्ता की उत्पत्ति की आखिरी टिप्पणी में 'सभ्यता' के बारे में फूरिये की प्रतिभापूर्ण समालोचना की बात करते हैं जिसकी विवेचना के बारे में उन्हें अफ़सोस है कि 'दुर्भाग्यवश इसके लिए समय मैं नहीं निकाल सकूँगा।' और सच पूछिए तो फूरिये की इस कल्पना में कुछ भी असंभव नहीं है। समाज में अगर संपत्ति संबंधी असमानताएँ नहीं तो क्या अपने आपमें, यह बात हमारे लिए असंभव है कि हम देहली में नाश्ता करके चलें, मुंबई में दोपहर का भोजन करें और रात की शिलांग में आराम फरमाएँ?


सच पूछें तो दुनिया की कोई भी क्रांति ऐसी नहीं जो किसी न किसी सपने से प्रेरित न रही हो। फूरिये के अग्रगामियों में एक बहुत ही प्रमुख नाम वाल्तेयर (1694-1778) का है जिनके एकमात्र उपन्यास का शीर्षक कांदीद है। उपन्यास में इसी नाम का नायक एक ऐसे अजीबोगरीब लोक में जा पहुंचता है जिसे   वाल्तेयर ने अल-दोरोदो नाम दिया है, इसी के बाद यह नाम इहलौकिक स्वर्ग का पर्याय बन गया। यह वह लौक है जहाँ कांदीड दिखता है कि बच्चे सोने के कचों से खेल रहे है और खेल से मन भर जाता है तो ये लापरवाही से एक किनारे फेंककर घर चले जाते हैं। जिन सोने-चाँदी-हीरों के लिए यूरोपवाले आपस में एक दूसरे का खून बहा रहे हैं, वे ही चीजें यहाँ चारों तरफ बिखरी पड़ी है और कोई पूछनेवाला तक नहीं। और तो और अल-दोरेदी का मुखिया कांदीद और उसके साथी से कहता है-तुम इन बेकार पत्थरों की बात कर रहे हो! अरे, जितने ले जा सकते हो, उठा ले जाओ।


यह सच है कि फ्रांस की 1789 की क्रांति ने जनता के उन सपनों को पूरा नहीं किया जिनको इस उपन्यास में वाल्तेयर ने वाणी दी थी। लेकिन क्या हम यह बात कह सकते हैं कि इस क्रांति को जन्म देने में इन सपनों की कोई भूमिका नहीं थी?


क्या करे? में लेनिन साफ तौर पर कहते है: "सपने हमे देखने चाहिए।"


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ/19



और कुछ नहीं तो बस इसलिए भी कि दिल बैठ न जाए, रूह मुर्दा न हो जाए। बक़ौल 'साहिर' लुधियानवी- 


आओ कि कोई ख्वाब बुनें कल के वास्ते वरना ये रात आज के संगीन दौर की 

डस लेगी जानो-दिल को कुछ ऐसे कि जानो-दिल 

ताउम्र फिर न कोई हसीं ख्वाब बुन सकें।


काल्पनिक समाजवाद का दौर भी ऐसे ही स्वप्नदर्शियों का दौर था जिन्होंने अपनी तमाम खामियों के बावजूद, घोर अँधेरे में भी इंसान के लिए उम्मीद की ज्योत जगाए रखी।


काल्पनिक समाजवादियों में यहाँ हम राबर्ट ओवेन का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहेंगे। प्रायः कुछ लोग जिनमें वामपंथ-विरोधी ही नहीं, कुछ वामपंथ के हमदर्द भी शामिल होते हैं, यह ताना मारते हैं (या शिकायत करते हैं) कि अगर आप गरीबों के, मज़दूरों और किसानों के सचमुच शुभचिंतक है तो पहले अपनी संपत्ति उनमें बाँट क्यों नहीं देते। इस तरह के जुमलों के पीछे मंशा चाहे जो भी हो, इनके पीछे एक मान्यता यह मौजूद है कि अगर सभी लोग अपनी-अपनी संपत्ति को समाज के हवाले कर दें तो पूँजीवादी सामंती व्यवस्था को बदले बिना, इस व्यवस्था के अंदर ही समाजवाद को साकार करना संभव है। राबर्ट ओवेन की मिसाल यहाँ हमें बहुत ही प्रासंगिक और शिक्षाप्रद दिखाई देती है।


जैसा कि आप प्रस्तुत पुस्तक के दूसरे लेख में देखेंगे या जैसा कि आपने एंगेल्स की पुस्तिका समाजवाद काल्पनिक और वैज्ञानिक में देखा होगा, एक समय में ओवेन न्यू लेनार्क के एक ऐसे कारखाने के मालिक थे जो बहुत ही कामयाबी से चल रहा था और मुनाफा कमा रहा था। ओवेन ने न सिर्फ कारखाने को सुचारु ढंग से चलाया बल्कि अपने मज़दूरों को भी गरीबी, भुखमरी, अज्ञान, अशिक्षा, गंदगी और बीमारियों के गड्ढे से निकाला उन्हें इंसानों की तरह जीना सिखाया। ओवेन का यह सब काम निश्चित ही प्रशंसनीय है और अगर वे आज हमारे सामने होते तो निश्चित ही श्रद्धापूर्वक सर झुकाकर हम उनके चरण छू लेते। लेकिन आखिर हुआ क्या? यह तो आगे आप पढ़ेंगे ही हम तो संक्षेप में बस एक बात कह सकते हैं। एक व्यक्ति अगर अपनी दौलत को समाज के दबे-कुचले लोगों के लिए समर्पित कर देता है तो वह निश्चित ही श्रद्धा और प्रशंसा का पात्र है। (जाहिर है हमारी


20 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


मुराद उन लोगों से नहीं है जो पाप की कमाई करते हैं और फिर अपनी आत्मा की शांति के लिए गरीबों के आगे उसी कमाई का एक टुकड़ा फेंक देते हैं जो कभी कुछ करोड़ या कुछ सौ करोड़ के बराबर होती है। शायद यहाँ यह नियम कार्यरत हो कि कपड़ा जितना ही गंदा होगा, उसकी सफ़ाई के लिए पाउडर भी उतना ही अधिक लगेगा।) लेकिन यह बात तय है कि इस तरह की परमार्थ-वृत्ति प्रशंसनीय होते हुए भी समाज का रूपांतरण नहीं कर सकती, समाज के सदस्यों की दशा में कोई बुनियादी तब्दीली नहीं ला सकती। इसके लिए तो समाज की संस्थाओं, उसके पूरे ढाँचे में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।


राबर्ट ओवेन की मिसाल इसी बात को सिद्धांत से आगे बढ़कर व्यवहार के स्तर पर साबित करती है। और व्यवहार, जैसा कि आप जानते ही होंगे, सबसे बड़ा शिक्षक है।


काल्पनिक समाजवादियों ने शिक्षा, कला आदि के प्रश्नों पर जो विचार व्यक्त किए हैं उनमें चाहे जो भी कमियाँ हों, उनको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन यहाँ हम सिर्फ़ एक बात कहकर इस भूमिका के समापन की ओर बढ़ेंगे। यूनान रहा हो या भारत, चीन रहा हो या पश्चिमी यूरोप, दुनिया भर के मक्कारों ने भौतिकवाद को विषय भोग का पर्याय ठहराने में कोई कोताही नहीं की है। भारत में लोकायत के बारे में इन मक्कारों की धूर्तता को दिवंगत देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने बहुत अच्छी तरह बेनक़ाब किया है। प्राचीन यूनान में एपीक्यूरस जैसे संत तक को बख्शा नहीं गया; शेक्सपियर का मैकबेथ भी एक जगह कहता है: Those English epicures! यानी कि खाओ पियो, मौज उड़ाओ का उसूल माननेवाले वे अंग्रेज़! दूसरी ओर इन मक्कारों के नज़दीक मुस्टंडे और हराम की कमाई पर पलनेवाले साधु-महात्मा ऊँचे आदर्शों के साकार रूप रहे हैं। कुछ ऐसी ही बातें उन काल्पनिक समाजवादियों के बारे में कही जाती रही हैं जिनका ज़िक्र यहाँ किया जा रहा है। इस सिलसिले में प्लेखानोव लिखते हैं :


अगर मनुष्य का चरित्र उसके विकास की दशाओं से निर्धारित होता है... तो ज़ाहिर है कि मनुष्य का चरित्र सुंदर तभी होगा जब उसे सुंदर दशाओं में विकास की इजाजत दी जाएगी। इन दशाओं को सुंदर बनाने के लिए मौजूदा सामाजिक ढाँचे के दोषों से मुक्त होना होगा। 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवादियों ने संन्यासवाद को अस्वीकार कर दिया और किसी न किसी रूप में 'इंद्रिय-सुख' (Rehabilitation of the flesh) का ऐलान किया। इन


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 21


कारणों से उन्हें 'कुमार्गी भावनाओं को बेलगाम करने की, मनुष्य की उदात्त आवश्यकताओं पर उसकी निकृष्ट आवश्यकताओं की विजय सुनिश्चित करने की कोशिश करने का दोषी ठहराया गया। ऐसी गालियों सिर्फ मूर्ख दे सकते हैं। काल्पनिक समाजवादियों ने कभी मनुष्य के आत्मिक विकास को अनदेखा नहीं किया... संत-साइमनवादियों की रचनाओं में इस बात के अनेक, आँखें खोलनेवाले दृष्टांत दिखाई देते हैं कि आधुनिक समाज में गरीब व्यक्ति किस तरह नैतिकता से वंचित होते हैं। उन्होंने कहा यह समाज अपराधों की रोकथाम में असमर्थ है; यह उनको सिर्फ सज़ा दे सकता है और इसलिए आज 'जल्लाद नैतिकता का एकमात्र प्रामाणिक प्रवक्ता' है। (पृ. 106 देखें)


इसी तरह हमारे समाजवादी विचारकों की यह राय भी निराधार नहीं थी कि आज मनुष्य की उदात्त भावनाओं को मौजूदा समाज व्यवस्था में सही दिशा नहीं दी जा सकती। मनुष्य जरूरत से मजबूर होकर उन तमाम चीज़ों से वंचित हो जाता है जो उसके आत्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं। इसी को 'साहिर' इस प्रकार पेश करते है- 


इल्मो-तहजीब1 तारीखो-मंतक2 लोग सोचेंगे इन मसइलों पर 3। 

जिंदगी के मशक्कतकदे में कोई अहदे-फ़रागत4 तो आए!


और अगर इजाज़त हो तो प्रस्तुत लेखक भी अपना एक शेर सुना दे


यहाँ से वहाँ तक, वहाँ से यहाँ तक, तगे-दी मुसलसल5, रविश दायराती6

मिले फुरसते यक-नफ़स7 गर तो हम भी लगाएँ कुतब की8 दुकानों का फेरा । 


खैर, हमारे इन समाजवादी विचारकों ने यह बात पूरी तरह स्पष्ट कर दी कि समाज व्यवस्था को बदले बिना मानव चरित्र को उदात्त नहीं बनाया जा सकता, मनुष्य के आत्मिक विकास को संभव नहीं बनाया जा सकता। जो लोग व्यवस्था में परिवर्तन के बिना मानव चरित्र को बदलने की बात करते हैं, या तो अज्ञानी और मूढ़ हैं जो वास्तविकता को नहीं जानते, या फिर वे वास्तविकता को जानते हुए भी यह बात करते हैं और इस तरह परले दर्जे के धूर्त और पाखंडी हैं। 


मार्क्स से पहले के काल्पनिक समाजवादियों को इन्हीं सब बातों की रोशनी

---------------

1. ज्ञानव सभ्यता 2. इतिहास व तर्कशास्त्र, 3. समस्याओं पर, 4. फुरसत का युग, 5. लगातार भागदौड़, 6. वृत्ताकार गति (कोलू के जैसी) 7. एक साँस (अर्थात एक पल) की फुरसत, 8. किताबों की।


22 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

में परखा जाना चाहिए। प्लेखानोव ने सही कहा था :


...सवाल भावी सामाजिक संगठन की योजनाओं का नहीं है, क्योंकि ऐसी योजनाएँ तो बहरहाल कभी साकार नहीं होतीं। अहम बात यह है कि काल्पनिक समाजवादियों ने एक महान विचार को सामाजिक प्रचलन में धकेल दिया और मज़दूरों के मन में पैठ जाने के बाद यही विचार 19वीं सदी की सबसे ज़ोरदार सांस्कृतिक शक्ति बन गया। इस विचार का प्रचार-प्रसार काल्पनिक समाजवाद द्वारा की गई सबसे बड़ी सेवा है। (पृ. 105 देखें।)


और इसका कारण यही है, कि जैसा कि मार्क्स ने कहा था, "भौतिक शक्ति का सामना निःसंदेह भौतिक शक्ति से किया जाना चाहिए। लेकिन जनता के दिलों को अपनी गिरफ्त में ले लेने के बाद एक विचार भी भौतिक शक्ति बन जाता है।"


और इस विचार का, इस '19वीं सदी की सबसे ज़ोरदार सांस्कृतिक शक्ति' का मूलमंत्र क्या था? यह मूलमंत्र वह था जिसे संत-साइमन ने इन शब्दों में व्यक्त किया था


अंधी परंपरा ने अभी तक जिसे अतीत में रख छोड़ा है, वह स्वर्णयुग हमारे आगे है।


कहने की ज़रूरत नहीं कि यही मूलमंत्र आज की तमाम प्रगतिशील, जनवादी शक्तियों का भी है।


नरेश 'नदीम'


नयी देहली


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 23


19वीं सदी 


का 


फ्रांसीसी


काल्पनिक


समाजवाद


फ्रांस में 19वीं सदी के काल्पनिक (यूटोपियन) समाजवाद की विभिन्न धाराओं और सिद्धांतों में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के बारे में बहुत अधिक मतभेद पाए जाते हैं।1' तो भी उन सबके बीच ऐसी अनेक बुनियादी विशेषताएँ साझी हैं जो उनको अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समाजवाद से, जैसाकि हम आज इसे जानते हैं, अलग ठहराती हैं। अगर उनमें ये विशेषताएँ साझी न होतीं तो मेरे लिए यहाँ फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद का एक वृत्तांत प्रस्तुत करना असंभव होता; उसकी विभिन्न प्रणालियों और शिक्षाओं का विस्तार से निरूपण प्रस्तुत लेख में नहीं किया जा सकता था और वह बहरहाल अप्रासोंगेक भी होता।


इसके पहले कि ऊपर दर्ज काल के फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद की सभी छायाओं की साझी विशेषताओं का कोई निश्चय करे, उसके ऐतिहासिक मूल को याद करना आवश्यक है।


एक


ब्रूनो बावेर और उनके सहयोगियों से अपने शास्त्रार्थ (पोलेमिक) के दौरान मार्क्स ने लिखा था : 'मनुष्य की बुनियादी अच्छाई और समान बौद्धिक क्षमता, अनुभव, आदत और शिक्षा की सार्वभौम शक्ति, मनुष्य पर वातावरण के प्रभाव, उद्यमशीलता के भारी महत्त्व, सुख आनंद के औचित्य आदि के बारे में भौतिकवाद की शिक्षाओं से यह समझने के लिए भारी जहमत उठाने की ज़रूरत नहीं कि साम्यवाद और समाजवाद से भौतिकवाद का किस क़दर लाज़मी संबंध है।"2 प्रसंगवश मार्क्स फिर आगे बढ़कर इस कथन की पुष्टि इस विचार की सहायता से करते हैं कि अगर मनुष्य को उसके समस्त ज्ञान, उसकी संवेदनाओं आदि की प्राप्ति इंद्रियों के संसार से और उससे प्राप्त अनुभवों से होती है जैसी कि 18वीं सदी के भौतिकवादियों की शिक्षा थी, तो अनुभवों के इस संसार को ही इस तरह व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि जो कुछ वास्तव में मानवीय है, मनुष्य उसी का अनुभव करे और उसी का अभ्यस्त बने तथा वह मनुष्य के रूप में स्वयं की चेतना प्राप्त करे। यह बात बिलकुल सही


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 27


है। मार्क्स का यह कथन भी पूरी तरह सत्य था कि, मिसाल के लिए, शार्ल फूरिये की शिक्षा 'सीधे-सीधे फ्रांसीसी भौतिकवादियों की शिक्षाओं पर आधारित है।3 अगर किसी को इस बात में शक हो तो बेहतर है कि वह होलबाल के सलेम सोशल (सामाजिक व्यवस्था) के पहले भाग के पहले अध्याय में जो कुछ कहा गया है उससे राग-द्वेष के बारे में फ़रिये की शिक्षाओं की तुलना कर ले। इस सिलसिले में हेल्बेतियस से फ़रिये की तुलना करना भी दिलचस्पी से कुछ कम खाली नहीं होगा। लेकिन नीचे की बातों को याद कर लेना अहमियत रखता है।


हालाँकि फ़रिये4 फ्रांसीसी भौतिकवाद की शिक्षाओं को लेकर ही आगे बढ़ते हैं, मगर साथ ही 18वीं सदी में प्रबोध (इनलाइटेनमेंट) के पूरे फ्रांसीसी दर्शन के बारे में उनका रवैया एक सिरे से नकारात्मक है। यह रवैया उनकी पहली रचना थ्योरी देस क्वात्रे मूवमेंत्स एत देस देस्तिनीज़ सोशिएल्स में ही दिखाई देता है जो 1808 में ल्योंस5 से प्रकाशित हुई थी। वहाँ हम पढ़ते हैं कि


"जब अपने पहले प्रयोग में, अर्थात् फ्रांसीसी क्रांति में ही, दार्शनिकों ने अपनी नपुंसकता का पता दे दिया तो उन सबके बीच इस बात पर सहमति थी कि उनके दर्शन को मानव बुद्धि की एक भूल माना जाना चाहिए तथा राजनीतिक और नैतिक प्रबोध (इनलाइटेनमेंट) की धाराएँ भ्रांति की धाराएँ नज़र आने लगीं और क्या उन विद्वानों की रचनाओं में कोई और बात मिलती भी जिन्होंने अपने सिद्धांतों को पूर्णता प्रदान करने तथा समस्त प्राचीन और आधुनिक प्रबोध को एकजुट करने के प्रयास में दो हज़ार पाँच वर्ष गँवाने के बार अपने पहले प्रयास में ही, जितने सुखों का वादा उन्होंने किया था उससे कुछ कम मुसीबतें पैदा नहीं कीं? ऐसे ही नतीजे उन पहले पाँच वर्षों के निकले जब फ्रांस में दार्शनिक सिद्धांतों को व्यवहार में उतारने की कोशिश की गई। 1793 के महासंकट (कैटेस्ट्राफी) के बाद ये भ्रांतियाँ दूर हो गई... "6


इसी रचना में एक और स्थान पर फ़रिये चिढ़ के साथ समानता के बारे में उन वितंडावादी झगड़ों को याद करते हैं जिन्होंने सिंहासनों, पूजा की वेदियों और संपत्ति के विधानों को उलट-पलट कर दिया और जिनके कारण, उनके शब्दों में, यूरोप बर्बरता की ओर बढ़ रहा है। 


फूरिये कभी भी, किसी भी समय, पुरानी व्यवस्था के समर्थक नहीं रहे। इसके विपरीत ऐन मुमकिन है कि, अपने दौर के समूचे तीसरे जनवर्ग (थर्ड एस्टेट) की तरह, उन्होंने कभी उस व्यवस्था का अनुमोदन नहीं किया होगा और वे उसका अंत होते देखना चाहते थे। लेकिन उस दौर के फ्रांसीसी समाज में विभिन्न वर्गों के क्रांतिकारी संघर्ष ने इतना हिंसक चरित्र ग्रहण कर लिया, खासकर 1793 में, कि अपने अधिकांश समकालीनों की तरह फ़ूरिये भी डर से काँप उठे। उनका यह मानना था कि 18वीं


28 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


सदी का प्रबोध का दर्शन ही '1799 "महासंकट"7 के लिए जिम्मेदार था। इसलिए उन्होंने उस पूरे दर्शन को ही दिवालिया घोषित कर दिया। उसके विरोध में ये इतनी दूर तक चले गए कि उन्होंने अपने लिए दो कामकाजी नियम तय कर लिए (1) 'पूर्ण संदेह' (आब्सोल्यूट डाउट) और (2) पूर्ण विषयांतर' (आब्सोल्यूट डाइग्रेशन) । 'पूर्ण संदेह' का मतलब यह था कि वे अपने काल में अत्यंत प्रचलित मतों और विचारों को भी संदेह की दृष्टि से देखने लगे। मिसाल के लिए और यह खुद उनकी दी हुई मिसाल है-तरह-तरह की तमाम दार्शनिक प्रवृत्तियों के बीच इस बात की सहमति थी कि सभ्यता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए। लेकिन यहाँ अपने 'पूर्ण संदेह' के नियम को लागू करते हुए फूरिये ने सभ्यता की 'पूर्णता' में ही संदेह व्यक्त किया। उन्होंने खुद से पूछा क्या कोई भी चीज़ इस सभ्यता से भी अधिक अपूर्ण हो सकती है जिससे इतनी इतनी तबाहियों का चोली-दामन का साथ है? क्या कोई भी चीज़ उसकी आवश्यकता और उसके भावी अस्तित्व की अपरिहार्यता से भी अधिक संदिग्ध हो सकती है? क्या इसकी संभावना नहीं है कि यह सामाजिक विकासक्रम के एक चरण की सूचक मात्र हो ? 8 अपने आगे ये सब सवाल लेकर जल्द ही वे इस बात के कायल हो गए कि 'सभ्यता' का तात्पर्य यह कि उन सामाजिक संबंधों का जो सभ्य राष्ट्रों में पाए जाते हैं-सामुदायिक जीवन के दूसरे रूपों के हित में अंत हो जाना चाहिए, और वे उन्हीं भावी रूपों के बारे में चिंतन करने लगे। 


जहाँ तक फूरिये के पूर्ण विषयांतर' का सवाल था, इसके चलते उन्होंने निश्चय किया कि 'कभी भी उन रास्तों पर न चला जाए जिनको संदिग्ध विज्ञानों ने तैयार किया हो,' अर्थात् 18वीं सदी के उसी दर्शन में यहाँ यह जानकारी दिलचस्पी की है कि कार्यकलाप के इस नियम को उचित ठहराने के लिए फ़रिये ने इस परिस्थिति का हवाला दिया कि उद्योग-धंधे की बेपनाह सफलताओं के बावजूद ये 'संदिग्ध विज्ञान' तो 'निर्धनता को खत्म करने तक में असमर्थ थे।



लेकिन इन दो नियमों के व्यवहार से ही यह बात साफ़ हो गई कि 18वीं सदी के दर्शन के खिलाफ़ विद्रोह करने के बावजूद फूरिये उससे बहुत अधिक प्रभावित रहे। जैसाकि हमें पता है, वह दर्शन बुनियादी तौर पर प्रगतिशील था। उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण, उसे अलग ठहराने वाली विशेषताओं में एक विशेषता प्रगति में, मनुष्य की और मानव समाज की पूर्णता पा सकने की क्षमता में उसकी गहरी आस्था थी। फूरिये ने आदतवश इस आस्था पर भी नाक-भौं चढ़ाया। लेकिन यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि सभ्यता पर 'पूर्ण संदेह' का नियम लागू करते हुए थे, सटीक करें तो, स्वयं सभ्यता पर संदेह नहीं कर रहे थे, बल्कि सभ्य राष्ट्रों के सामाजिक दाच में मौजूद कुछ गंभीर दोषों के अस्तित्व की अपरिहार्यता पर संदेह व्यक्त कर रहे थे। वे जब इस नतीजे पर पहुँचे कि इन गंभीर दोषों को समाप्त नहीं किया जा सकता और जब उन्होंने एक नयी सामाजिक व्यवस्था का खाका तैयार कर लिया


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 29


तो वे खुद ही पूर्णता के लक्ष्य को पाने के लिए सक्रिय हो उठे, हालांकि स्वयं को पूर्ण बनाने के सिलसिले में मनुष्य और मानव समाज की क्षमता को लेकर 'संदिग्ध विज्ञानों की शिक्षाओं पर नाक-भौं चढ़ाना उन्होंने बंद नहीं किया। फिर इससे कुछ कम उल्लेखनीय यह तथ्य भी नहीं है कि 'संदिग्ध विज्ञानों' के तैयार किए हुए रास्तों से पूरी तरह अलग चलनेवाले' इस राही ने फ़ौरन निर्धनता की समस्या को उठाया। जो शख्स 18वीं सदी के फ्रांसीसी दर्शन पर ताने कसता था कि वह निर्धनता का खात्मा नहीं कर सका है, वही शख्स उसकी भावना के प्रति निष्ठावान बना रहा। कारण कि यह दर्शन लगातार यह बात दोहराता रहता था salus populi-suprema lax अर्थात् जनता का कल्याण ही सर्वोच्च विधान है।


लेकिन अगर यह बात सही है, अगर फूरिये 18वीं सदी के दर्शन का तीखा विरोध करने और निर्ममता के साथ उस पर नाक-भौं चढ़ाने के बावजूद बुनियादी तौर पर उसी के निष्ठावान अनुयायी बने रहे और उसी की शिक्षाओं को उन्होंने अपने सैद्धांतिक कार्यकलापों का आधार बनाया, तो यह बात ज़रूर पूछी जा सकती है कि उनके 'पूर्ण संदेह' और 'पूर्ण विषयांतर' ने उन्हें आखिर पहुँचाया कहाँ।


पहली बात, इन्होंने उनसे सैद्धांतिक मनमौजीपन की अनेक हरकतें कराई जिन पर एक लंबे समय तक समाजवाद के विरोधी चुटकियाँ लेते रहे। 'पूर्ण संदेह ने फूरिये से सैद्धांतिक चिंतन के उन नियमों की उपेक्षा कराई जिनको कोई भी लापरवाही के साथ नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। जब वे 'दोहफ़ अमरत्व' पर बहस करते हैं। और 'देहांतर (metempsychoses) का एक समान्य सोपान' खड़ा करते हैं, जब वे हमें विश्वास दिलाते हैं कि 'वह जिसने हमें सिंह दिए हैं, हमें ऐसे प्रति सिंह (एंटी-लायंस) भी देगा जिन पर हम तीव्र गति से यात्रा कर सकते हैं, जब वे भविष्य के प्रति व्हेलों, प्रति-शार्को, प्रति-दरियाई घोड़ों और प्रति-सीलों के अच्छे गुणों का वर्णन करते हैं। तो ज़ाहिर है वे उसी विषयांतर का दुरुपयोग कर रहे हैं जो पहले के तमाम दार्शनिकों के खिलाफ़ उनके विद्रोह की उपज था। उन्होंने अगर इस तरह का विद्रोह न किया होता तो उन्होंने स्वशिक्षितों की तरह की आत्मतुष्टि का इस तरह परिचय


न दिया होता और अपनी कल्पना की उड़ानों पर रोक लगाने की कोशिश करते। दूसरे, 'पूर्ण विषयांतर' के नियम का पालन करते हुए, फुरिये ने, उनके अपने शब्दों में, सिर्फ़ उन समस्याओं को उठाने की कोशिश की जिनको 18वीं सदी के दर्शन ने छुआ नहीं था। चूंकि इस दर्शन का राजनीति और धर्म से गहरा सरोकार था, इसके विरोध में फ़ूरिये ने खुद को मजबूर पाया 'समाज कल्याण की तलाश सिर्फ़ उन उपायों में करने के लिए जिनका प्रशासन से और पुरोहितों से भी लेना-देना नहीं है तथा जिनका विस्तार सिर्फ़ उद्योग-धंधों और घरेलू जीवन तक है, और जिनका तालमेल किसी भी सरकार के साथ, उसके हस्तक्षेप की किसी भी तरह की आवश्यकता के बगैर, बैठ सकता है।12 इसी बात से उनकी समाज व्यवस्था की प्रकृति एक बड़ी


30 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

हद तक निरूपित होती है; यह वास्तव में किसी भी तरह की राजनीतिक आकांक्षा से रहित है।


 लेकिन बात इसके अलावा कुछ और भी है। 18वीं सदी के फ्रांसीसी दर्शन


के खिलाफ़ फ़रिये की बगावत उनके इस विश्वास की उपज थी कि यही '1798


के महासंकट' के लिए दोषी था। इसीलिए उन्होंने हर सुविधाजनक अवसर पर (और


शायद कुछ ऐसे अवसरों पर भी जो उतने सुविधाजनक नहीं थे) इस बात पर जोर


दिया कि उनकी विचार प्रणाली की कोई क्रांतिकारी आकांक्षा नहीं है। इतना ही नहीं,


उन्होंने अपनी प्रणाली की इसी रूप में सिफ़ारिश भी की कि यह ऐसी क्रांतिकारी


आकांक्षाओं के खिलाफ़ संघर्ष का एकमात्र विश्वसनीय साधन है। उनकी पुस्तक La fausse industrie, morcelee, repugnante, mensongere et l'antidote, l' industric natirelle, combinee वगैरह-वगैरह की पहली जिल्द में एक दिलचस्प अध्याय है जिसका शीर्षक है सम्राट के हिंतों संबंधी टिप्पणियाँ: षड्यंत्रों की समाप्ति के साधन। इसमें (पृ. 337 पर) फूरिये बतलाते हैं कि चूंकि विनाशकारी विस्फोटक यंत्र षड्यंत्रकारियों का नया अस्त्र है, ऐसे आविष्कार का परीक्षण करना आवश्यक है जो 'लोक-कल्याण और शुभ नैतिकता का सृजन करके षड्यंत्रों को विकल करे 3 उसके बाद उनकी नयी समाज-व्यवस्था का एक अच्छा-खासा विस्तृत निरूपण मिलता है। इसी रचना की दूसरी जिल्द में, जो साल भर बाद प्रकाशित हुई थी, यही विचार एक टिप्पणी में दोहराया गया है जिसका शीर्षक है। सामान्य विषय, नृपहत्या के प्रयास के संबंध में। इसमें फ़रिये इन प्रयासों के लिए प्रबोध के दर्शन को दोषी ठहराते हैं। कहते हैं 'पिछले 18 वर्षों के दौरान सम्राटगण दर्शन के खिलाफ़ बुद्धरत हैं, लेकिन वे उसके खिलाफ़ सिर्फ आधे-अधूरे क़दम उठाते हैं जो इसे मजबूत ही बनाते हैं; वे उसके खिलाफ एक प्रभावशाली विरोध खड़ा करने में असमर्थ हैं, उसके मुकाबले उद्योगतंत्र और समाज की नियति का एक सटीक विज्ञान खड़ा करके उसके झूठे ज्ञान को बेनक़ाव करने में असमर्थ हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यह सटीक विज्ञान फूरिये की अपनी विचार प्रणाली ही है जिसकी लुई फिलिप ने षड्यंत्रों के खिलाफ सर्वश्रेष्ठ साधन कहकर सिफारिश की थी।


कुछ ही आगे हम देखेंगे कि फ़रिये इस सिलसिले में अपने समय के समाजवादियों के बीच कोई अपवाद नहीं थे। उलटे, इस तरह की अपीलें 19वीं सदी के फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद के लिए बहुत आम थी। इसलिए अगर हम उनकी सामान्य मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि का निश्चय कर सकें तो उपयोगी ही होगा।


दो


देखिए कि फूरिये किस तरह (अपनी ऊपर दर्ज पुस्तक Theorie des quatre mouvements में) समाज की उस क्रांतिकारी दशा की तस्वीर पेश करते हैं जिससे,


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 31


उनके कहे मुताबिक़, उनकी समाजसुधार की योजना को व्यवहार में रखकर ही छुटकारा पाया जा सकता है।


वे चीखकर कहते हैं : 'हाँ, सभ्य व्यवस्था" अधिकाधिक लड़खड़ा रही है; दर्शन ने 1789 में जो ज्वालामुखी पैदा किया वह उसका बस पहला विस्फोट है; जैसे ही आंदोलनकारियों के अनुकूल एक कमज़ोर शासन होगा, ऐसे और विस्फोट भी होंगे।"" 'अमीरों के खिलाफ़ गरीबों की लड़ाई इतनी कामयाब थी कि सभी देशों के षड्यंत्रकारी बस उसे दोहराने के सपने देख रहे हैं। इससे बचने की कोशिश बेकार, है; प्रकृति हमारे प्रबोध और हमारी दूरदृष्टि का मखौल उड़ा रही है; वह उन्हीं उपायों से क्रांति पैदा करने में समर्थ साबित होगी जो हम सामाजिक शांति सुनिश्चित करने के लिए अपनाते हैं। "


ये सब बातें अधिक से अधिक ध्यान दिए जाने की अधिकारी हैं। फूरिये ने 1808 में ही उस महान क्रांति (1789 की फ्रांसीसी क्रांति-संपादक) को वर्ग संघर्ष का एक दृष्टांत समझ लिया था अमीरों के ख़िलाफ़ गरीबों की लड़ाई का। वे गोया कि अफ़सोस करते हुए कहते हैं कि यह लड़ाई सफल भी रही। इससे कोई यह नतीजा निकाल सकता है कि वे पुरानी व्यवस्था के हमदर्द थे लेकिन, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बात ऐसी नहीं थी। पुरानी व्यवस्था से उनकी कोई हमदर्दी नहीं थी; बात बस यह थी कि उन्होंने सामान्यतः वर्ग संघर्ष और विशेषकर क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष को अस्वीकार किया। उनका कहना था कि उन्होंने जो खोजें '1798 के महासंकट' के बाद की थीं वही खोजें अगर पुरानी व्यवस्था के दिनों में कोई और प्रतिभा पुरुष कर लेता और समय रहते समाज-सुधार के लिए उनका उपयोग करता तो फ्रांस उस महाक्रांति से बच सकता था। लेकिन अब जबकि ये खोजें की जा चुकी हैं, सामाजिक उथल-पुथल को रोका जा सकता है और 'अमीरों के ख़िलाफ़ गरीबों की लड़ाई' से बचा जा सकता है, बशर्ते जो लोग सामाजिक शांति बनाए रखने में दिलचस्पी रखते हैं वे उस समाज व्यवस्था के लाभों को समझें जिसकी रूपरेखा फ़रिये ने सोच रखी है। इसलिए उनसे गुहार करते हुए उन्होंने उथल-पुथल की तस्वीर पेश करते हुए किसी भी रंग को नहीं बख़्शा। उन्होंने कहा कि सभ्य समाज अगर उनकी आवाज़ पर कान देने में नाकाम रहा तो उसे यही क्रीमत देनी होगी।


यही उनकी कार्यनीतियाँ थीं। उनकी पहली विशेषता राजनीति के प्रति उदासीनता थी तो दूसरी विशेषता वर्ग संघर्ष के प्रति एक पूरी तरह नकारात्मक रवैया थी। उनकी विचार प्रणाली की इन दो सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषताओं के बीच एक बहुत ही स्पष्ट और गहरा संबंध था। और वह संबंध यह था कि दूसरी विशेषता ने पहली को पैदा किया।


वर्ग संघर्ष के प्रति फ़रिये का नकारात्मक रवैया '1798 के महासंकट' का परिणाम था। अब चूँकि राजनीति वर्ग संघर्ष का ही एक अस्त्र होती है, फ़रिये के


32 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


यहाँ इस संघर्ष के निषेध के बाद राजनीति का निषेध स्वाभाविक था। यह मत सोचिए कि यह काल्पनिक समाजवाद के इतिहास का कोई विशेष


दृष्टांत मात्र है। नहीं! इससे मिलते-जुलते दृष्टांत इतने अधिक हैं कि हमें एक सामान्य नियम की बात करने का पूरा-पूरा अधिकार पहुँचता है। एक और मिसाल यह रही: संभवतः कम नाटकीय, पर कुछ कम महत्त्व की नहीं।


सेंत-साइमन" भी फ्रांसीसी क्रांति को एक वर्ग संघर्ष, और ठीक-ठीक कहें संपत्तिधारी वर्ग के खिलाफ संपत्तिहीन वर्ग का संघर्ष, मानते थे। फूरिये की तरह वे भी इस संघर्ष के प्रति बहुत निष्ठुर थे। 1802 में, अर्थात् फ़रिये की पहली पुस्तक से 6 वर्ष पहले, प्रकाशित अपनी रचना Lettres d'un habitant de Genve a ses contemporains (अपने समकालीनों के नाम एक जेनेवावासी के पत्र) में वे फ्रांसीसी क्रांति को अत्यंत भयानक विस्फोट तथा बलाओं में सबसे बड़ी बला बतलाते हैं। " वे 'समानता के सिद्धांत के इस व्यवहार से पैदाशुदा भयानक बेरहमियों' के बारे में विस्तार से लिखते हैं 120 संपत्तिहीन वर्गों के नाम एक अपील में वे कहते हैं : 'आओ देखो कि फ्रांस में जब तुम्हारे कामरेडों का बोलबाला था तब वहाँ क्या हुआ!  वहां उन्होंने अकाल पैदा कर दिया।" यह बात स्पष्ट है कि '1793 के महासंकट' ने सेंत-साइमन पर भी बेहद गहरा प्रभाव डाला था। फ़रिये ने अगर इस महासंकट हुआ! वहाँ के लिए 18वीं सदी के दार्शनिकों को दोषी ठहराया तो सेंत-साइमन ने उसकी व्याख्या संपत्तिहीन वर्गों के अज्ञान के आधार पर की। लेकिन यह अंतर सिर्फ़ ज़ाहिरा है क्योंकि सेंत-साइमन की राय में 'समानता के सिद्धांत का व्यवहार' इन अतिवादी निष्कर्षों के व्यावहारिक उपयोग से अधिक कुछ भी न था जिन पर प्रबोध के दार्शनिक पहुँचे थे। इस तरह सेंत-साइमन की शिक्षा राजनीति के प्रति उसी उदासीनता का पता देती है जो हमें फ़रिये के यहाँ दिखाई देती है। एक व्यावहारिक अर्थ में (प्रथम) श्रेणी का) सेंत-साइमनवाद क्रांति को समाप्त करने के लिए आवश्यक उपायों के अध्ययन से अधिक कुछ भी नहीं है। क्रांति के विचार मात्र से ही सेंत-साइमन किस सीमा तक चिढ़ते थे, इसका अंदाज़ा इस उद्धरण से किया जा सकता है जिसे उनकी पुस्तक Du systeme industricle (औद्योगिक व्यवस्था) से किया जा सकता है। सामाजिक संबंधों में जिन परिवर्तनों की कल्पना वे करते हैं उन्हें कौन-सी शक्ति जन्म देगी और उस शक्ति का मार्गदर्शन कौन करेगा- इस सवाल का वे यह जवाब देते हैं :



ये परिवर्तन नैतिक भावना की शक्ति से होंगे और इस शक्ति का प्रमुख चालक यह विश्वास होगा कि तमाम राजनीतिक सिद्धांत उस सामान्य सिद्धांत से व्युत्पन्न होने चाहिए जिसे प्रभु ने मानवजाति को प्रदान किया है। (अर्थात् 'एक दूसरे से प्रेम करो'-प्लेखानोव।) 'इस शक्ति का मार्गदर्शन परमार्थी व्यक्तियों द्वारा


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 33

किया जाएगा जो, जैसा कि ईसाइयत के जन्म के समय था, शाश्वत (सत्ता) के तात्कालिक निमित्त होंगे।


थोड़ा ही आगे चलकर वे लिखते हैं : 'ये परमार्थी जिस एकमात्र साधन का व्यवहार करेंगे रह होगा मौखिक और लिखित उपदेश | 23


फ़रिये की तरह संत-साइमन भी वर्ग संघर्ष के विचार से ही भयभीत थे और कभी-कभी अपने पाठकों को 'संपत्तिहीन वर्ग' का, 'जनता' का नाम लेकर डराना पसंद करते थे। श्रीमन उद्योगपतिगण के नाम अपने चौथे पत्र में वे दिखाते हैं कि 'बोनापार्त के सामंतवाद' के खिलाफ़ उनका संघर्ष किस तरह का अवांछित मोड़ ले सकता है। लिखते हैं : 'इसके अलावा, सज्जनो, थरथराए बिना कोई भी यह नहीं सोच सकता कि खुली लड़ाई की हालत में यह' (बोनापार्त का सामंतवाद-प्लेखानोव) 'कुछ समय के लिए जनता को अपनी ओर खींच सकता है। हालाँकि आप जनता के स्वाभाविक और अपरिहार्य नेतृत्वकर्मी' (शेफ़) हैं और हालांकि जनता आपको इस रूप में मान्यता देती है, फिर भी अनुभव ने आपको यही दिखाया है कि कुछ समय के लिए यह सेना और विधि-विशेषज्ञों के परचम तले भी लामबंद की जा सकती है। आप यही सोचते हैं कि जनता पर आंदोलनकारियों का जो प्रभाव हो सकता था वह अब' (महाक्रांति के दौर की तुलना में प्लेखानोव) 'अच्छा-खासा कम हुआ है... लेकिन यह पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ है। तुर्क समानता का मताग्रह (डोग्मा)... अभी भी, अगर आप सावधानी नहीं बरतते तो, भारी उथल-पुथल ला सकता है...जब तक आप पहले से ही जनता के सामने उसके सच्चे हितों की स्पष्ट और सटीक धारणाएँ प्रस्तुत नहीं करते, आपके पास इस मताग्रह के फुसलावों से लड़ने के लिए भला कौन-सा साधन होगा?


यह उद्धरण बहुत ही विश्वसनीय ढंग से दिखाता है कि संपत्तिहीन वर्ग वह वर्ग था ही नहीं जिस पर सेंत साइमन अपनी व्यावहारिक योजनाओं को साकार करने के लिए भरोसा करते। फ़रिये की तरह सेंत-साइमन के विचार भी किसी भी तरह सर्वहारा के विचार नहीं थे।


फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद के इन दो महान संस्थापकों के अनुयायी उनके प्रति, मैंने जिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण पहलुओं का संकेत दिया है उनके बारे में पूरी तरह वफ़ादार थे। समाज में जो वर्ग संघर्ष जारी था उसे उन्होंने अपनी समाज-सुधार की आकांक्षाओं का आधार बनाने का विचार पूरी तरह आगबगूला होकर खारिज कर दिया। एक मिसाल के तौर पर मैं फूरिये के सबसे प्रतिभाशाली अनुयायियों में एक का, अर्थात् विक्तर कोसिदेरों का, हवाला दूंगा।


34 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


तीन


अपनी पुस्तिका Debacle de la politique en france (फ्रांस में राजनीति का पतन) में जो 1836 में प्रकाशित हुई थी, अर्थात् अभी फूरिये जीवित थे तभी, कोंसिदेरों ने राजनीति की परिभाषा 'शासन के बुनियादी उसूलों के बारे में या राष्ट्र के अधिकतम कल्याण के लिए विभागों को लेकर खींचतान करनेवाली विभिन्न प्रशासनिक व्यवस्थाओं के बारे में प्रचलित परस्परविरोधी मतों और सिद्धांतों की समग्रता' के रूप में की थी। " इस उद्धरण में राष्ट्र के अधिकतम कल्याण के लिए' शब्दों में विडंबना की एक बहुत ही स्पष्ट छाया दिखाई देती है तथा ये दिखाते हैं कि कोसिदेरों की निगाहों में राजनीति का कोई अधिक महत्त्व नहीं था। अपनी राय को छिपाना तो दूर, वे संतोष के साथ यह कहते हैं कि फ्रांस में हाल के दौर की तुलना में राजनीति में रुचि और उसके प्रति सम्मान के भाव में खासी कमी आई थी। * क्यों? राजनीति की कुछ सैद्धांतिक त्रुटियों के कारण और ये त्रुटियाँ क्या थीं? जवाब 'हितों की जो एकता सभी हितों के लिए लाभदायक हो सकती है, उसे साकार करने के लिए आवश्यक साधनों के बारे में मग़ज़मारी करने की बजाय' (विभिन्न राजनीतिक दलों के प्लेखानोव) 'लोगों को शुद्ध रूप से अपने संघर्ष का समर्थन करने और उनको बल पहुंचाने में लगा दिया जाता है जो सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए लाभदायी होता है जो उस संघर्ष के नाम पर व्यापार करते हैं।


राजनीति वर्ग संघर्ष का एक अस्त्र है, और अपने गुरु फूरिये की तरह कोसिदेरौँ भी वर्ग संघर्ष के इच्छुक नहीं थे। फलस्वरूप- यहाँ भी फ़रिये की ही तरह-वे राजनीति की ओर से अपना मुँह फेर लेते हैं। इससे अधिक तार्किक कोई बात हो ही नहीं सकती थी। इसी पुस्तिका के एक और हिस्से में कोसिदेरों निम्नलिखित प्रस्थापना को एक ऐसी सच्चाई के रूप में सामने रखते हैं जिससे इनकार की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं:


हम सबकी दिलचस्पी इसमें है कि बिना किसी अपवाद के सभी प्रसन्न रहें, और हर वर्ग के भौतिक हितों को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा ढंग यह है कि उसके अपने हितों से दूसरे वर्गों के हितों को जोड़ा जाए।"


कोसिदेरों 18वीं सदी के फ्रांसीसी दर्शन को वैसे ही ज़ोरदार ढंग से खारिज करते हैं जैसे फ़रिये ने किया था। वे इसे विध्वंसक बतलाते हैं और कहते हैं कि जब इस दर्शन के बुनियादी विचार को, अर्थात् सामंतवाद और कैथलिक धर्म को उखाड़ फेंकने के विचार को साकार किया जाने लगा तो मारी सामाजिक उथल-पुथल पैदा हुई। वे हमें यह समझाना चाहते हैं कि 18वीं सदी के अंत में, उनकी राय में, क्रांतिकारी संघर्ष का सहारा लिए बिना समाज व्यवस्था में सुधार के साधन उपलब्ध थे। " जहाँ


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 35


तक उनके अपने युग का सवाल है, समाज के शांतिपूर्ण रूपांतरण की संभावना में उन्हें जरा सा भी शक नहीं। इस संभावना को फ़रिये की ये खोजें पूरी तरह सुनिश्चित करती हैं जो सभी सामाजिक वर्गों के हितों के बीच तालमेल बिठाने का सबसे विश्वसनीय साधन प्रदान करती हैं। क्रांतिकारी, जो बड़ी बेचैनी के साथ हिंसा के कृत्यों का सहारा लेते हैं, इस बात को समझना ही नहीं चाहते।" क्रांतिकारियों की बेहद निर्मम निंदा का कारण यही है। यह बात सही है कि वे सत्ताधारियों को भी नहीं बाते जो उनकी राय में, अपने भडिपन के कारण अपने ही ध्येय को नुकसान पहुँचाते हैं।" लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद उन्हें इस बात का पक्का विश्वास है कि आज के काल में जो पक्ष व्यवस्था बनाए रखने में दिलचस्पी रखता है, उस पक्ष की अपेक्षा कम समाज-विरोधी हैं जो उसे उखाड़ फेंकने के लिए प्रयासरत हैं। क्यों? उनका जवाब है 'समाज की समकालीन दशाओं से चूँकि यह बात स्पष्ट है कि आज लड़ने की नहीं बल्कि सुधार करने और संगठित होने की आवश्यकता है, इसलिए जिस पक्ष की स्थिति ही उसे व्यवस्था का प्रेमी बनाती है वह उस कार्रवाई के प्रति कम विरोध-भाव रखता है जो की जानी चाहिए, उस पक्ष के मुकाबले जो आज भी बहिष्कार करना, तोड़फोड़ करना और उखाड़ फेंकना चाहता है।


यहाँ रूस में लेब तालस्ताय का तर्क भी ठीक इसी तरह का था; ठीक ऐसे ही विचारों के चलते वे भी क्रांतिकारियों के मुकाबले सत्ताधारियों के प्रति अधिक सहानुभूति रखते थे।


यह सब मुझे विश्वास है कि काफ़ी हद तक स्पष्ट है। लेकिन कॉसिदेरी के विचार निम्नलिखित उद्धरण में और भी रंगारंग ढंग से व्यक्त हुए हैं:


एक तत्त्व के खिलाफ़ किसी और तत्त्व का कोई भी विद्रोह अवैधानिक है; केवल मेलमिलाप, सामंजस्य, मुक्त और पूर्ण विकास और व्यवस्था ही वैधानिक हैं। "


ये शब्द काल्पनिक समाजवाद की पूरी कार्यनीति को सामने लाते हैं। मैं यह नहीं कहता कि उनकी कार्यनीति कभी बदली ही नहीं। फ्रांस में उन दिनों के तूफ़ानी सार्वजनिक जीवन में यह बात पूरी तरह अस्वाभाविक होती। लेकिन संशोधनों के बावजूद काल्पनिक समाजवाद की कार्यनीति का यह चरित्र सामान्यतः अंत तक बना रहा। काल्पनिक समाजवादियों के एक संप्रदाय को दूसरे से अलग करने वाली विशेषताएँ चाहे जितनी अधिक रही हों, वे सभी संप्रदाय राजनीति के प्रति उदासीन बने रहे- यहाँ भी थोड़े से अपवाद हैं जिनकी चर्चा में बाद में करूंगा और वे सभी,


फिर उन्हीं थोड़े से अपवादों को छोड़ दें तो, वर्ग-संघर्ष के ख़िलाफ़ थे। संत-साइमनवादियों को लीजिए अपना सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए वे वर्ग संघर्ष का जिक्र करते हैं जो इतिहास में जारी रहा है, तथा 'मनुष्य द्वारा मनुष्य


36/ काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के' शोषण का भी। वे कहते हैं कि आधुनिक समाज में निठल्ले कामगारों का शोषण कर रहे हैं। अपने पहले प्रकाशन Le Producteur (उत्पादक) में ही, जो 1825-26 में सामने आया था, उन्होंने कहा कि आज 'यह सोचना ही असंभव हो गया है कि निठल्लों के हित वही हैं जो कामगारों के हैं। उनका कहना है कि वर्गीय शत्रुताओं का खात्मा और 'मेलमिलाप' की विजय सामाजिक विकास का उद्देश्य है। लेकिन जब यह सवाल पूछा जाता है कि 'मेलमिलाप' की विजय कैसे हो, तो वे वर्गों के बीच तालमेल की बात करते हैं। उनके व्याख्यानों के दिलचस्प संकलन Doctrine Saint-Simonienne Exposition (संत-साइमनवादी सिद्धांत परिचय) में ये तमाम बातें पढ़ने को मिलती हैं। (विशेषकर इसकी पहली जिल्द देखें।) लेकिन ये विचार साफ़ तौर पर संत-साइमनवादी परिवार के कामकाज पर रिपोर्ट में व्यक्त किए गए हैं जिन्हें स्तीफान फुलाशे ने 'फादर' बाज़ेयर और 'फ़ादर' इनफैतिन की सेवा में प्रस्तुत किया था।"


स्तीफान फुलाशे दो वर्गों में समकालीन समाज के विभाजन को स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी बात को अधिकांश ऐसे लोगों के मुकाबले कहीं बहुत अधिक सटीक ढंग से प्रस्तुत करते हैं जो उनके विचारों के समर्थक थे। सेंत-साइमनवादियों के बेपनाह बहुमत की राय में समकालीन समाज 'निठल्लों' के एक वर्ग और 'कामगारों' के एक वर्ग में विभाजित है। वहीं फ्लाशे बुर्जुवा वर्ग और सर्वहारा वर्ग के विरोध की बात करते हैं, हालांकि साथ ही साथ भोलेपन में उन्होंने यह भी मान लिया था कि शब्दों के इस अंतर के पीछे सामाजिक संबंधों का कोई अंतर नहीं है। कहते हैं कि 1830 की क्रांति के बाद बुर्जुवा वर्ग ने सर्वहारा के हितों पर गंभीरता से ध्यान देने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं की और पूँजीपति वर्ग की इस गलती को मुआफ़ करने की तमाम तत्परता के बावजूद वे इतना ज़रूर सोचते हैं कि इस गलती को सुधारने का समय आ गया है। कारण कि इसके बिना तो समाज के सामने ख़तरा .मौजूद है ऐसी उथल-पुथल का जो पूँजीपति वर्ग और सामंतवाद के संघर्ष में होने वाली उथल-पुथल से अधिक लंबी और अधिक गंभीर होगी। इससे जाहिर है कि महाक्रांति के दौर के वर्ग संघर्ष की यादें इस समाजवादी टिप्पणीकार के मन में अभी भी बहुत ताज़ा हैं। वे उसे वर्गों के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करने पर मजबूर करती हैं। फुलाशे सेंत-साइमन के इस कथन का उद्धरण देते हैं कि अंग्रेज़ सर्वहारा पहला मुनासिव मौका मिलते ही अमीरों के ख़िलाफ़ गरीबों की लड़ाई शुरू करने के लिए तैयार हैं।" फिर वे आगे कहते हैं:


ये ही हालात हैं जिनमें हम रंगमंच पर आते हैं। हम पूँजीपति वर्ग से कहते हैं हम जनता की आवाज़ हैं और उसके लिए सहकार्य में उसका न्यायपूर्ण भाग माँग रहे हैं; एक जोश भरी आवाज़ हैं क्योंकि यह माँग न्यायोचित है,


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ /37.


लेकिन शांतिपूर्ण आवाज़ हैं क्योंकि, भविष्य के हरकारे होने के नाते, हमें अपने गुरु से यह ज्ञान मिला है कि हिंसा प्रतिगामी होती है और इसका दौर खत्म हो चुका है। जनता से हम कहते हैं, हर रोज़ दोहराते हैं: हम पूँजीपति वर्ग की आवाज़ हैं। तुम सब लोग जो तकलीफ़ भोग रहे हो, सार्वभौम सहकार्य की माँग करो और वह तुम्हें मिलेगा क्योंकि यही ईश्वर की इच्छा है। लेकिन यह तुम्हें तभी दिया जाएगा जब तुम शांतिपूर्ण और क्रमिक ढंग से इसकी माँग करोगे। कारण कि आज श्रम के साधन जिन लोगों के हाथों में हैं उनसे तुम उन्हें अगर बलपूर्वक छीनने की कोशिश करोगे, तो याद रखो कि जो ताक़तवर लोग तुम्हारे गुस्से को एक दिशा दे रहे होंगे वे अपने लिए उन हवेलियों और महलों को बहुत बड़ा या बहुत शान-शौकत से भरपूर नहीं पाएँगे जिनके मालिकों को वे पहले ही निकाल चुके होंगे, और तुम्हारे तो सिर्फ मालिक बदलेंगे। 42


‘ताक़तवर लोगों' संबंधी यह चेतावनी हो सकता है आज के पाठक को हैरान करे। लेकिन टिप्पणीकार के लिए इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी। फुलाशे का विश्वास था कि सर्वहारा वर्ग 'अपने अज्ञान के चलते अपनी आवश्यकताओं और अपनी आशाओं को स्पष्ट रूप से निरूपित करने में असमर्थ हैं। " वास्तव में ऐसे किसी सामाजिक वर्ग की नाक में नकेल डालकर उसे इधर-उधर घुमाना बहुत आसान था। सवाल तो कुल मिलाकर यह था कि राजनीति से परहेज़ क्या ऐसे किसी वर्ग के बौद्धिक विकास को बढ़ावा देता


तालमेल की यह मानसिकता उस युग की भावना में, और अधिक सही ढंग से कहें तो उस युग के सामाजिक प्रश्नों में रुचि रखनेवाले व्यक्तियों के मन में, कहाँ तक जड़ें जमाए बैठी थी, इसका पता प्रसंगवश निम्नलिखित तथ्य से चलता है।


पियरे लेरो" ने जब सेंत-साइमनवादियों का साथ पकड़ा-और हमें पता है। कि लेरो ने रूस में, बेलिंस्की और हर्ज़ेन के हलके में भारी दिलचस्पी जगाई तथा उन्होंने सावधानी बरतते हुए उन्हें प्योत्र राइझी कहा- तब उन्होंने सेंत-साइमनवादियों के 'सिद्धांत' के शांतिपूर्ण चरित्र का ज़िक्र ऐसे पहलू के रूप में किया जिन्होंने उन्हें सबसे अधिक प्रभावित किया था।"


लुई ब्लांक" एक और व्यक्ति थे जो वर्ग संघर्ष के कट्टर विरोधी थे। उनकी प्रसिद्ध रचना Organisation du trawail (श्रम का संगठन) इन शब्दों से शुरू होती है : 'यह पुस्तक तुमसे, ऐ अमीरो, तुमसे, सम्बोधित है क्योंकि यह गरीबों का एक सवाल है। कारण कि उनका ध्येय तुम्हारा ध्येय है। आगे चलकर इसी गुज़ारिश का एक और, थोड़ा संशोधित रूप मिलता है : "यह गुज़ारिश मैं दोहरा दूँ कि तुमसे


38 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


है; ऐ अमीरो, तुमसे है..हाँ, यह ध्येय, गरीबों का यह पवित्र ध्येय तुम्हारा ही है। सिर्फ उनकी मुक्ति ही तुम्हें मधुर आनंद के उन खजानों का पता देगी जिनको तुमने अभी तक जाना ही नहीं है।"


रहे प्रदों" जिन्हें आज भी बहुत से लोग किसी न किसी कारण से एक महान क्रांतिकारी मानते हैं, तो उन्होंने भी एक क्रांतिकारी ढंग से सामाजिक प्रश्न उठाए जाने की बात को खारिज कर दिया था। मार्क्स के नाम 17 मार्च 1846 के एक पत्र में वे कहते हैं: 'हमें सामाजिक सुधार के साधन के तौर पर क्रांतिकारी कार्रवाई की बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह दिखावे का साधन बलप्रयोग की, निरंकुश शासन की अपील मात्र होगा और, संक्षेप में, एक अंतर्विरोध होगा। इसीलिए अपने सामने इस समस्या को मैं इस प्रकार रखता हूँ: एक आर्थिक संयोजन के ज़रिये समाज को वह दौलत लौटाना जिसे (पूँजी पर ब्याज, भू-कर, मकान का किराया, सूदखोरी के रूप में) एक दूसरे आर्थिक संयोजन ने उससे ले लिया है। दूसरे शब्दों में, स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र में संपत्ति के सिद्धांत को संपत्ति के ही खिलाफ़ मोड़ देना।"


एक आर्थिक संयोजन के द्वारा सामाजिक समस्या को हल करने की यह इच्छा राजनीति के निषेध की सूचक है जिसके बारे में अब तक हम खूब जान चुके हैं। प्रूदों के विचारों में इस निषेध की हमेशा निर्णायक भूमिका रही है। यही उन्हें अराजकवाद" की ओर ले गया और यह उनके पास से फिर एम ए बाकुनिन, एलिसी रेक्लस, पी ए क्रोपातकिन, जे ग्रेव और अराजकवाद के दूसरे सिद्धांतकारों तक, और साथ ही आज के फ्रांसीसी और इतालवी 'क्रांतिकारी संघवादियों तक भी पहुंचा।


1848 में प्रूदों ने, शब्दों को इधर-उधर घुमाकर जैसी कि उनकी आदत थी, ऐलान किया कि अस्थायी सरकार लाल रंग पर तिरंगे को वरीयता देती है। बेचारे लाल झंडे, हर कोई तुम्हें त्याग रहा है लेकिन तुम्हें में चूमूँगा, मैं तुम्हें सोने से लगाऊंगा ....लाल झंडा मानवजाति के संघ का परचम है। लेकिन लाल झंडे के प्रति इस पुरजोश समर्पण भाव ने उन्हें सर्वहारा और पूँजीपति वर्ग के मेल का उपदेश देने से जरा भी नहीं रोका मसलन जब बेसानश्योन से उन्हें उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव रखा गया तब उन्होंने अपने चुनाव-भाषण में लिखा 'मजदूरो, अपने मालिकों की और अपने हाथ बढ़ाओ और ऐ मालिको, उन लोगों को को ठुकराओ जो तुम्हारे मज़दूर से अपने पत्र La Voix du Pouple (20 मार्च 1850 के अंक में उन्होंने लिखा पूँजीपति वर्ग और वर्ग की एकता का अर्थ, पहले की तरह आज भी, भूदास की मुक्ति है, पूंजीपति और कुलीन के ख़िलाफ़ उद्योगपतियों और मजदूरों का एक प्रतिरक्षात्मक और काम गठबंधन है, सर्वहारा और मालिक के हितों की एकजुटता  है।' 54


पूजीपति के खिलाफ मालिक का यूँ खड़ा किया जाना दिखाता है कि सटीक


काल्पनिक समाज की धाराएँ /39


कहें तो पूँजीपति वर्ग (बुर्जुवाज़ी) से प्रूदों की मुराद निम्न-पूँजीपति वर्ग (पेटी बुर्जुबाज़ी) से थी उन्होंने मालिक को मुलाज़िम कारीगर (जर्नीमैन) से हाथ मिलाने की दावत दी। उन दिनों के समाज में मौजूद आर्थिक संबंधों पर काल्पनिक समाजवादियों के दृष्टिकोण की लाक्षणिक सामग्री के रूप में यह बात ध्यान देने योग्य है। मुझे उनके विचारों का आगे और भी विस्तार से विशेषण करना है। इस बीच में बस एक और बात कहूँगा प्रूदों की पुस्तक Idee generale de la revolution au dixneuvieme siecle (मध्य-19वीं सदी में क्रांति का सामान्य विचार) पूँजीपति वर्ग को समर्पित थी; इस किताब ने जो 1851 में प्रकाशित हुई थी, एक लंबे समय तक के लिए लातीनी देशों और रूस के समाजवादियों के विचारों पर गहरे नक़्श छोड़े। इसका समर्पण-पृष्ठ उस वर्ग की तारीफ़ में एक पूरे चारण-गीत की हैसियत रखता है 'तुम्हारे नाम, ऐ पूँजीपति, इन नये लेखों का यह अर्घ्य तुम्हारे नाम! समस्त युगों में तुम्हीं सबसे अधिक निर्भीक, सबसे कुशल क्रांतिकारी रहे हो...तुमने और सिर्फ़ तुम्हीं ने...हाँ, तुम्हीं ने 19वीं सदी में सिद्धांतों का निरूपण किया, क्रांति की बुनियाद डाली। तुम्हारे बिना या तुम्हारे ख़िलाफ़ किया गया कोई काम चल नहीं सका। तुम्हारा किया हुआ कोई काम बेकार नहीं गया। तुम्हारा तैयार किया हुआ कोई मंसूबा नाकाम नहीं होगा...क्या ऐसा हो सकता है कि इतनी इतनी क्रांतियाँ कर लेने के बाद, आखिर में तुम दिलचस्पी के बावजूद, बुद्धि के बावजूद, सम्मान के बावजूद निराशाजनक सीमा तक प्रतिक्रांतिकारी हो जाओ?" वगैरह-वगैरह। आगे चलकर प्रूदों 1798 की क्रांति की बात भी करते हैं जिसके दौरान, उनके शब्दों में, जनता के बातूनी जननेता कुछ भी नहीं कर सके, और बात करते हैं 1848 की क्रांति की जो सामाजिक प्रश्न को हल करने में असमर्थ रही। फिर वे एक बार फिर पूँजीपति वर्ग से सर्वहारा के साथ तालमेल बिठाने की गुज़ारिश करते हुए अपनी बात ख़त्म करते हैं: 'मैं कहता हूँ तुमसे : तालमेल ही क्रांति है। इससे कोई यह बात सोच सकता है कि प्रूद 1851 में एक क्रांतिकारी बन चुके थे, मगर उनकी पुस्तक की अंतःवस्तु इस धारणा का खंडन करती है। बेहद विस्तार के साथ वे एक ख़ासे शांतिपूर्ण 'सामाजिक विसर्जन' (सोशल लिक्वीडेशन) की योजना पेश करते हैं जिसे वे सिर्फ़ इसलिए सामाजिक क्रांति


का नाम देते हैं कि वे आम तौर पर शब्दों का बुरी तरह दुरुपयोग करते हैं। क्रांतिकारी कार्रवाई से काल्पनिक समाजवादियों के मिसाली परहेज़ को एतियेन काबे ने बड़े क्लासिकल ढंग से व्यक्त किया था


अगर क्रांति मेरी मुट्ठी में होती तो मैं हरगिज़ अपनी मुट्ठी नहीं खोलता, भले ही मुझे इसके लिए जलावतन होकर परदेस में मरना पड़ता।57


40 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


चार


इस तरह काल्पनिक समाजवादी समकालीन समाज में वर्ग-संघर्ष के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। लेकिन वे अपनी सुधार की योजनाओं को इस संघर्ष के अनुसार नहीं डालते और अपने उद्देश्यों को साकार करने के लिए उसका लाभ उठाने से दृढ़ता से इनकार करते हैं। वे वर्गों के बीच तालमेल बिठाकर अपनी योजनाओं को अमल का जामा पहनाने की आशा रखते हैं। इसी की संगति में ये क्रांतिकारी कार्रवाई को खारिज करते हैं और राजनीति की ओर से मुँह मोड़ लेते हैं।58


जब जुलाई क्रांति भड़क उठी, संत-साइमनवादियों ने उसमें कोई भाग न लेने का फैसला किया। प्रांतों में रह रहे संत-साइमनवादियों के नाम एक संदेश में उनके 'फादर' बाजेयर और 'फादर' इनफैलिन ने लिखा 'आज जो विजयी हैं, निःसंदेह उस बात पर नाराज़ होंगे जिसे वे हमारी सर्द-दिली और हमारी उदासीनता कहेंगे, हम उनके अपमानजनक शब्दों और उनके कृत्यों को बरदाश्त करने के लिए तैयार हैं...प्यारे बच्चों, एक और भी सुखद भविष्य हमारी राह देख रहा है। इस और भी सुखद भविष्य की कुंजी 'पृथ्वी पर प्रभु के साम्राज्य को साकार करने के लिए प्रयास करना है।


लेकिन राजनीति की ओर से मुँह मोड़ने का यह मतलब नहीं कि ऐतिहासिक कुरुक्षेत्र से उसमें सक्रिय राजनीतिक शक्तियों गायब हो जाएँ। राजनीति से परहेज़ करते हुए भी काल्पनिक समाजवादियों को उन राजनीतिक शक्तियों की मौजूदगी स्वीकार करनी पड़ी। लेकिन किस तरह? उनके लिए बस एक रास्ता खुला था: किसी विशेष राजनीतिक शक्ति के किसी प्रभावशाली प्रतिनिधि को यह विश्वास दिलाना कि उसके अपने ध्येय के हित, अगर सही-सही उन्हें समझा जाए तो उनकी समाज-सुधार की योजना के यथाशीघ्र व्यवहार की मांग करते हैं। लेकिन उसे विश्वास कैसे दिलाया जाए? इसका दारोमदार इस पर था कि सुधारक ने अपील किससे की और वह अपील किन विशेष परिस्थितियों में की गई। सेंत-साइमन जब नेपोलियन प्रथम का ध्यान अपनी रचनाओं की ओर खींचना चाहते थे तब उन्होंने एक रचना को ऐसा शीर्षक दिया जिसमें यह दिखाने का वादा किया गया था कि इंग्लैंड पर विजय किस प्रकार पाई जा सकती है, हालांकि वास्तविक रचना एक विलकुल ही भिन्न विषय पर थी। जब फूरिये के मन में यह बात समाई कि लूई फिलिप को वे अपनी और लाएं, जिन्हें पड्यंत्रकारी परेशान कर रहे थे, तब यह दोहराने लगे कि फैलेस्तरियों59 की स्थापना क्रांतिकारियों का सबसे अच्छा उपाय थी। जुलाई राजतंत्र की पुलिस ने जब बेरी की डचेज़ को अपने पुत्र अर्थात् बोर्दियों के यूक के पक्ष में  पुनर्स्थापना का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और पूरे समाज में यह अवाह त गई कि वह मौत की सजा पाएगी, तब 'फादर'


काल्पनिक समाजवाद की धारा 41

इतफैतिन ने फ़ौरन महारानी के नाम एक खुला पत्र लिखा जिसमें मौत की सजा का विरोध करते हुए उन्होंने स्त्रियों की भावी मुक्ति की (मोटे अक्षरों में) घोषणा की। इस पत्र के बारे में अपने बच्चों को जानकारी देते हुए उन्होंने आशा व्यक्त की कि इससे 'राजनीति में स्त्रियों के प्रवेश को बढ़ावा मिलेगा।60 बाद में अल्जीयर्स चले जाने के बाद इनफैतिन ने अपने एक पत्र-मित्र के माध्यम से लियास के ड्यूक से संपर्क बनाने की कोशिश की। इस कोशिश का यह त्रासद- हास्यास्पद परिणाम निकला कि इयूक ने कृपा की बारिश करते हुए संत-साइमनवादियों के इस 'सर्वोच्च फादर' को सब-प्रिफ़ेक्ट का पद देने की पेशकश की। दुर्भाग्य से इन्फ्रेंतिन को फिर भी गंभीरता का उपहार नहीं मिला। वे ताजदारों को उपदेश देने की लंबी-चौड़ी योजनाएँ बनाने से बाज़ नहीं आए। इन योजनाओं के चलते उन्होंने कुछ तो बहुत ही भोंडी गलतियों कीं; वैसे यह सही है कि इन गलतियों की प्रकृति व्यावहारिक से कहीं बहुत अधिक सैद्धांतिक थी। हमें पता है कि संत-साइमनवादियों में हाइने की दिलचस्पी और उनसे हमदर्दी थी। उनकी पुस्तक De Allemagne का पहला संस्करण 'फादर' इनफ़ैतिन के नाम समर्पित था। उन्होंने 'हाइनरिख हाइने के नाम' शीर्षक से जवाब में एक पत्र प्रकाशित कराया जिसमें उन्होंने कुछ राजनीतिक विचार व्यक्त किए। ये बहुत नरमी से कहें तो हैरानकुन थे।


जर्मनी की बात करते हुए इनफ़फैतिन ने आस्ट्रिया (मैटरनिख के आस्ट्रिया) के प्रति बेपनाह हमदर्दी का परिचय दिया। उनकी राय में आस्ट्रिया व्यवस्था, सोपान-व्यवस्था (हायरार्की), कर्त्तव्य भावना और विशेषकर शांति का प्रतिनिधित्व करता था। 'यह स्वीकार करके कि स्वतंत्रता और समानता का मताग्रह जनगण के मार्गदर्शन के लिए न तो पर्याप्त पूर्ण है और न पर्याप्त संपन्न है, आइए हम आस्ट्रिया को आशीर्वाद दें कि उसने इन शुद्ध क्रांतिकारी विचारों का विरोध किया और उन्हें बल्कि जोजफ़ द्वितीय के रूप में निकाल बाहर भी किया; आइए हम उस राष्ट्र के उदात्त धैर्य को आशीर्वाद दें जो नेपोलियन के रूप में साकार होने वाली क्रांति के बरछों की चुभन को बराबर झेल रहा है... आइए, हम आस्ट्रिया को आशीर्वाद दें कि उसने सामंती विधान के अंतिम प्रतिनिधियों, अर्थात् हमारे बोर्बनों को सम्यक् शरण दिया, क्योंकि उस संक्रमण के रूप के बारे में अभी तक प्रभु ने अपना अंतिम निर्णय नहीं दिया है जिससे होकर मानवजाति पुराने विधान का उन्मूलन करेगी और नये विधान को अपनाएगी। आखिर में आइए, हम उसे इस बात के लिए आशीर्वाद दें के उसने अपना लौह हाथ आल्प्स पर्वत के पार तक फैलाया है जो इतालवी जनगणों को काबू में रखता है और उन्हें एक दूसरे की छुरा घोंपने से रोकता है। जिन राष्ट्र में स्वतंत्रता का उबाल जारी है उनसे घिरा होकर भी आस्ट्रिया अपनी शांतिमय और साधिकार वाणी में लगातार दोहरा रहा है:  बच्चो, तुममें व्यवस्था के प्रति प्रेम नहीं, अभी तक तुम स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हुए।'


42 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


फिर इन्फ्रेंतिन यह स्वीकार करते हैं कि पवित्र गठबंधन के खिलाफ़ तथा 'कैबिनेट्स की दक्रियानूसी' के खिलाफ़ जारी लड़ाई उन्हें एक, काफ़ी-कुछ भोंडी चीज़ मालूम होती थी; 'कम से कम एक दृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति के लिए' तो थी ही। 62 


इस पर हाइने की खामोश प्रतिक्रिया यह थी कि इनफैतिन के प्रति लिखे गए समर्पण-शब्दों को उन्होंने अपनी पुस्तक के बाद के संस्करणों में नहीं छपने दिया। जाहिर है कि यही अपने आपमें उनकी सबसे मुखर आलोचना थी।63


ऐसा शायद नहीं कि वैधानिकता के प्रति इनफ़ैतिन का कोई खास लगाव रहा हो। वे बस ये चाहते थे कि उच्च पदों पर बैठे लोगों के बीच कूटनीतिज्ञों जैसे शिष्टाचार के साथ अपना प्रवचन कार्य जारी रखें जबकि ये लोग अपनी स्थिति के ही कारण 'व्यवस्था बनाए रखने में दिलचस्पी रखते थे। 


जब लुई बोनापार्त ने, जिसे वैधानिकता का दोष शायद दिया ही नहीं जा सकता था, फ्रांस में तख्तापलट किया, इनफैतिन इस सौभाग्यशाली दुस्साहसी की ओर प्रेम की पींगें बढ़ाने लगे; उन्होंने तो बल्कि उसके लिए कार्रवाई की एक पूरी योजना ही बना डाली। यह सही है कि यह कोई खास स्पष्ट योजना नहीं थी। इनफैतिन चाहते थे कि लुई बोनापार्त शुभ समाजवाद के लक्ष्य की सेवा करे। इस सेवा का मतलब यह था कि सैन्यवाद को विदाई दी जाए और फ्रांस में औद्योगिक विकास को जोर-शोर से आगे बढ़ाया जाए।64 


पाठक ने शायद यह देखा हो कि मेरी पूरी प्रस्तुति का सुर व्यंग्यात्मक रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि उच्च पदस्थ व्यक्तियों के बीच इनफैतिन के प्रवचन कार्य को आज हम पीछे मुड़कर देखें तो बिना मुस्कुराए नहीं रह सकेंगे। लेकिन इसे सिर्फ़ इनफैतिन की भूल मानना गलत होगा। इस तरह की गलती राजनीति के प्रति काल्पनिक समाजवादियों के इस नकारात्मक दृष्टिकोण की स्थायी और तार्किक उपज थी जिसकी और मैंने ध्यान दिलाया है। राजनीति का अस्वीकार तार्किक रूप से राजनीतिक षड्यंत्रों का कारण बन गया। (यह अस्वीकार उनके साथ भी यही कर रहा है जो आज उसी गलती को दोहरा रहे हैं) काल्पनिक समाजवाद के कुछ प्रतिनिधियों ने अपनी साज़िशों के दौरान दूसरों के मुकाबले निःसंदेह अधिक भोंडी गलतियों कीं। लेकिन यह बस तफ़सील की बात है। दुनियादी बात है कि राजनीति का त्याग करने और षड्यंत्र-वृत्ति अपनाने के बाद सबसे यशस्वी लोग भी इस तरह की गलतियाँ करने से नहीं बच सके जो आज हमें काफ़ी असंभाव्य लगती हैं।


इसका विश्वासोत्पादक प्रमाण यह रहा। 'आतंक-पुरुष' प्रूदों सामान्यतः 'सर्वोच्च फादर' इनफ्रेंतिन से बहुत ही भिन्न थे। अनेक अर्थों में वे इनफफैतिन के ठीक उलट थे। लेकिन इनफ्रेंतिन ने जो हैरान कर देने वाली गलतियाँ की थीं, ठीक वैसी ही गलतियों करने से प्रूदों भी नहीं बच सके।


प्रूदों फ्रांसीसी अराजकवाद के जन्मदाता के रूप में जाने जाते हैं।65 अराजकवादी


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 43


के रूप में वे राजनीति के प्रति घोर अपमान भाव रखते थे। लेकिन फिर भी राजनीति के प्रति उनका अपमान भाव भी उन्हें राजनीतिक षड्यंत्रों से दूर नहीं रख सका। उलटे, इसने उनको उन्हीं में फँसा दिया। वे अपने एक पत्र में कहते हैं कि वह जो राजनीति में शामिल होता है, उसे अपना हाथ गोबर में धोना चाहिए। यह गोबर से हाथों को धोना राजनीतिक षड्यंत्र ही है। वे कभी-कभी कितने जोश के साथ इसमें शामिल हुए, यह उनकी पुस्तक La revolution social, demontree par le coup d'etal du 2 decembre से ज़ाहिर है। इसमें वे पाठक को और निःसंदेह सबसे बढ़कर खुद लुई बोनापार्त को यह भरोसा दिलाने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि 2 दिसंबर67 का ऐतिहासिक अर्थ 'जनबादी और सामाजिक क्रांति' था।68  


राजनीतिक षड्यंत्र जब इतनी तीव्रता ग्रहण कर लें तो यह राजनीति के निषेध के तार्किक परिणाम से अधिक भी कुछ होता है। यह संभवतः इसमें संलग्न काल्पनिक समाजवादियों के सामाजिक विचारों की असंगतियों और दिशाभ्रम का सबसे अच्छा सूचक है।


पाँच


अब मैं पाठक को यही याद दिलाना चाहूँगा कि फ्रांस में 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवाद में एक प्रवृत्ति ऐसी थी- साम्यवाद के रूपों में एक रूप-जो वर्ग संघर्ष से नफ़रत नहीं करती थी और राजनीति को बिलकुल नहीं नकारती थी, हालाँकि इसका वह एक बहुत संकीर्ण अर्थ लगाती थी। जैसा कि मैंने कहा, यह प्रवृत्ति सामान्य नियम का अपवाद थी। लेकिन इस अपवाद के अर्थ को अच्छी तरह समझने के लिए हमें सबसे पहले स्वयं नियम के सारे पहलुओं की छानबीन करनी होगी।


हालांकि काल्पनिक समाजवादियों ने वर्ग संघर्ष को अस्वीकार किया, पर साथ ही वे इसके ऐतिहासिक महत्त्व को समझ रहे थे। यह बात विरोधाभासी लग सकती है, पर फिर भी सही है। पाठक को पता ही है कि संत-साइमन, फूरिये और उनके अनुयायियों की नज़रों में फ्रांस की महाक्रांति 'अमीरों के ख़िलाफ़ ग़रीबों की लड़ाई' थी। सच तो यह है कि फ्रांसीसी क्रांति के बारे में सेंत-साइमन ने अपने ध्यान देने योग्य विचारों को बहुत पहले, 1802 में ही व्यक्त किया था, जिन्हें उन्होंने बाद में कुछ विस्तार से विकसित किया। उन्होंने कहा कि हर देश में बुनियादी क़ानून वही होता है जो संपत्ति को और उसकी रक्षा करनेवाली संस्थाओं को संचालित करे। सामाजिक गठजोड़ का मक़सद उत्पादन होता है। फलस्वरूप जो लोग उत्पादन के अगुवा हैं, हमेशा इस गठजोड़ के मुखिया रहे हैं और रहेंगे। 15वीं सदी तक कृषि सामाजिक उत्पादन ही सबसे अहम शाखा थी। कुलीन वर्ग कृषि का मुखिया था। इसलिए असैनिक सत्ता उसके हाथों में केंद्रित थी। मगर धीरे-धीरे एक नयी सामाजिक शक्ति का - तीसरे जनवर्ग (वर्ड एस्टेट) का -उदय हुआ।  समर्थन पाने की ज़रूरत


44 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के चलते इस जनवर्ग ने राजतंत्र से गठबंधन किया और इस गठबंधन के माध्यम से उसने समाज के पूरे परवर्ती विकास को निर्धारित किया। ऐसा कहते समय सेंत-साइमन के मन में ख़ासकर फ्रांस की बात थी और उन्होंने इस बात की भारी निंदा की कि लुई चौदहवें के रूप में राजतंत्र ने तीसरे जनवर्ग को धोखा दिया और कुलीन वर्ग की ओर झुक गया। बोर्बनों ने इस गलती की बहुत भारी कीमत चुकाई, हालाँकि यह तीसरे जनवर्ग की प्रगति को रोक नहीं सकी। सड़ी-गली सामंती व्यवस्था के खिलाफ़ नयी औद्योगिक व्यवस्था के संघर्ष ने ही फ्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया और यही हमारे दौर के सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक घटनाक्रमों का निर्धारण कर रही है।


दर्शन और इतिहास पर सेंत-साइमन के विचार उनसे फिर आगस्तिन थियेरी को मिले। सेंत-साइमन तो यह भी समझते थे कि गीज़ो ने भी उन विचारों को अपने ऐतिहासिक अनुसंधानों का आधार बनाया। हो सकता है कि यह महान फ्रांसीसी •इतिहासकार सेंत-साइमन से स्वतंत्र रूप से इन विचारों पहुँचा हो; ऐसे ऐतिहासिक विचार उन दिनों खासे व्यापक थे। एक बात को लेकर कोई शक नहीं: गिज़ो, थियेरी, मिग्ने और उस प्रवृत्तिवाले तमाम फ्रांसीसी इतिहासकार ठीक वैसे ही ऐतिहासिक विचार रखते थे जिनको मूलतः सेंत-साइमन ने सुव्यवस्थित ढंग से पेश किया था। इन विचारों का अध्ययन करते समय अनायास और अकसर हमें उस सिद्धांत की याद आती है जो आगे चलकर अस्तित्व में आया और ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से जाना गया। ये विचार इस सिद्धांत के विस्तृत निरूपण के लिए, बिना शक, बहुमूल्य सामग्री थे। लेकिन कुछ समय तक ऐतिहासिक विचारवाद के घोर अतिवादी रूपों के साथ भी उनका तालमेल जारी रहा। आगे चलकर मैं इस ज़ाहिरा तौर पर अजीबो-गरीब स्थिति की व्याख्या करूँगा। हमारे अभी के मक़सद के लिए तो इतना ही कहना काफ़ी होगा कि सेंत-साइमन और फूरिये के पदचिह्नों पर चलते हुए फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों के एक विशाल बहुमत ने यूरोप के इतिहास में ऐसे वर्ग संघर्ष की एक लंबी प्रक्रिया देखी (यह सही है कि अफ़सोस के भाव से देखी, मगर देखी ज़रूर) जो कभी-कभी बेहद तीखा हो जाता था।


काल्पनिक समाजवादियों ने उस समाज में भी यही वर्ग संघर्ष देखा जिसमें ये रहते थे; सच तो यह है कि इसके बारे में उनका बात करना कभी थमा ही नहीं। वे संघर्ष के अस्तित्व पर ताली पीटते थे और युद्धरत वर्गों को एक साथ लाने के प्रयास करते थे। उनके व्यावहारिक पक्ष को लें तो उनकी विभिन्न विचार प्रणालियाँ ऐसे उपायों के संग्रह से अधिक कुछ भी नहीं थीं जिनका उद्देश्य वर्गयुद्ध समाप्त करना और सामाजिक शांति की स्थापना करना था। लेकिन वे वर्गयुद्ध का मातम और सामाजिक शांति के लिए प्रयास करते थे, यह तथ्य ही इसका प्रमाण है कि वे इस युद्ध के अस्तित्व को पूरी तरह स्वीकार करते थे। इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 45

रूप से उठता है: फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों की निगाहों में कौन-कौन से वर्ग आधुनिक समाज में जारी युद्ध के वे प्रमुख पक्ष थे ? समाजवादी विचारों के इतिहास के लिए इस प्रश्न का उत्तर अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 


जैसा कि इशारा किया जा चुका है, सेंत-साइमन का विचार था कि उनके समय के समाज के आंतरिक जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाएँ पुरानी सामंती व्यवस्था के ख़िलाफ़ नयी औद्योगिक व्यवस्था के संघर्ष से - संक्षेप में, सामंतवादियों के खिलाफ़ उद्योगपतियों के संघर्ष से निर्धारित हो रही थीं। सेंत-साइमन की राय में यही संघर्ष उनके काल का सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ग संघर्ष था। कहा: "पंद्रह सदियों के काल में सामंती व्यवस्था क्रमशः विघटित और औद्योगिक व्यवस्था क्रमशः संगठित हुई। उद्योग-धंधों के प्रमुख प्रतिनिधियों की व्यवहार कुशलता औद्योगिक व्यवस्था को हमेशा-हमेशा के वास्ते स्थापित करने के लिए काफ़ी होगी, और समाज को उस सामंती ढांचे के मलबे से पाक करने के लिए भी जिसमें हमारे पूर्वज कभी रहते थे।70 लेकिन उद्योग-धंधों के ये प्रमुख प्रतिनिधि थे कौन? ज़ाहिर है, सर्वहारा नहीं थे। ये थे एक तो बैंकर और दूसरे, बड़े उद्योगपति। सेंत-साइमन उन्हें कामगारों के पूरे वर्ग के स्वाभाविक प्रतिनिधि और नेता मानते थे। कामगार क्या कर सकते हैं, इसके बारे में वे इन प्रतिनिधियों को कैसे धमकाते थे, हम इसे पहले ही देख चुके हैं। लेकिन वे ऐसा उनको मज़दूर वर्ग के स्वाभाविक अगुवों के रूप में उनके कर्तव्यों की याद दिलाने के लिए ही करते थे। हमें यह भी पता है कि कम से कम अपने जीवन के अंतिम भाग में संत-साइमन मजदूर वर्ग के सबसे निर्धन भाग के प्रति सरोकार को इन कर्तव्यों में पहला कर्त्तव्य मानते थे। तब उन्होंने कहा था 'सबसे बहुसंख्य और सबसे निर्धन वर्ग का नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक सुधार ही सभी सामाजिक संस्थाओं का उद्देश्य होना चाहिए। यही उनकी आखिरी रचना Lenonveau christi anisme (नई ईसाइयत) का प्रमुख स्वर था लेकिन इस 'सबसे बहुसंख्य और सबसे निर्धन वर्ग को उद्योग-धंधों के प्रतिनिधियों के संरक्षण में होना चाहिए। संत-साइमन का तर्क था कि सामाजिक जीवन में अग्रणी भूमिका उद्योगों के उन उच्चपदस्थ प्रतिनिधियों-बैंकरों और उद्योगपतियों- की ही होनी चाहिए।


संत-साइमन जहाँ तक इस विचार के समर्थक थे, वहाँ तक वे 18वीं सदी के उन प्रगतिशील विचारकों के ध्येय के तात्कालिक उत्तराधिकारी थे जो लौकिक-पारलौकिक अभिजातों पर तीसरे जनवर्ग को विजय दिलाना अपना प्रमुख सामाजिक कार्यभार समझते थे। पाठक ने सियेस के इन सुप्रसिद्ध शब्दों को निश्चित ही सुना होगा: 'तीसरा जनवर्ग क्या है? कुछ भी नहीं उसे क्या बनना होगा? सब-कुछ।' सेंत-साइमन 18वीं सदी की संतान थे। यह सही है कि उनके जीवन के उत्तरार्द्ध में तीसरा जनवर्ग 'कुछ भी नहीं' नहीं रह गया था बल्कि बहुत कुछ बन चुका था। लेकिन अभी भी यह 'सब-कुछ नहीं बना था (मैं यहाँ याद दिला दूँ कि सेंत-साइमन का निधन 1825


46 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


में हुआ, पुनर्स्थापना (रेस्टोरेशन) के काल में) और उन्होंने जल्द से जल्द उसे 'सब-कुछ' बनाने की कोशिश की। यही कारण है कि अमीरों को गरीबों की हालत के प्रति सरोकार दिखाने की बराबर दावत देते हुए भी, उन्होंने खुद तीसरे जनवर्ग के अंदर मौजूद सामाजिक संबंधों का विश्लेषण नहीं किया, अर्थात् एक ओर काम देनेवालों और दूसरी ओर उजरती मज़दूरों के संबंधों का उनका ध्यान पूरी तरह क्रांति के बाद स्थापित संबंधों पर, पुरानी व्यवस्था के प्रतिनिधियों और 'उद्योगपतियों के संबंधों पर केंद्रित था। उन्होंने अपनी मशहूर रचना पैराबोला में इन संबंधों का एक उल्लेखनीय और अच्छा खासा गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। 71


उनके शिष्यों ने एक से अधिक अवसरों पर कहा कि सेंत-साइमन के विचारों को मानते हुए वे साथ ही साथ उन्हें और विकसित कर रहे हैं। यह तो मानना ही होगा कि अनेक मुआमलों में वे अपने गुरु से काफ़ी कुछ आगे बढ़ चुके थे। मिसाल के लिए वे उनकी अपेक्षा आर्थिक प्रश्नों में कहीं बहुत अधिक दिलचस्पी रखते थे। उन्होंने अर्थशास्त्र की दृष्टि से 'निठल्ला वर्ग' और 'कामगार वर्ग' जैसी अभिव्यक्तियों के अर्थ स्पष्ट करने की कोशिश की। निठल्ले वर्ग में उन्होंने लगान पर जीने वाले भूस्वामियों को शामिल किया और उन पूँजीपतियों को भी जिनकी आय उनकी पूँजी पर आनेवाले व्याज पर आधारित थी। Le Producteur (उत्पादक) में अर्थशास्त्र के बारे में इनफैतिन के जो लेख प्रकाशित हुए उनमें उन्होंने इन श्रेणियों के व्यक्तियों के बारे में बहुत कुछ कहा है। फिर भी ध्यान देने की बात है कि उन्होंने उद्योगपतियों के मुनाफ़ों को मज़दूरियों का समकक्ष ठहराया। रिकार्डों के लगान के सिद्धांत पर (मैं तो कहूँगा बेहद कम सफलता के साथ आपत्ति करते हुए वे साफ़-साफ़ कहते हैं: 'हम 'मज़दूरियाँ' शब्द में रोजगारदाता के मुनाफ़े शामिल समझते हैं क्योंकि हम उसके मुनाफ़ों को उसकी मेहनत का भुगतान मानते हैं।'72 रोजगार देने वालों और उनके उजरती मजदूरों के संबंधों की इस धारणा में औद्योगिक पूँजी और उजरती मज़दूरी के हितों के बीच किसी शत्रुता का सवाल ही नहीं था। पाठक को यह बात नहीं भूली होगी कि अनेक वर्षों बाद प्रूदों के विचार भी ऐसी ही अस्पष्टता से ग्रस्त थे। इस लेख में में उनके एक लेख से एक उद्धरण दे चुका हूँ जो 1850 में प्रकाशित हुआ था; इसमें उन्होंने बुर्जुवा वर्ग को दावत दी थी कि 'कुलीन और पूँजीपति' के खिलाफ़ संघर्ष में वह सर्वहारा से हाथ मिलाए।73 इस तरह की दावते सिर्फ ऐसे व्यक्ति के क़लम से लिखी जा सकती थीं जो पूँजीपति का अर्थ सिर्फ पूँजी पर ब्याज पाने वाला शख्स समझता हो। 


पूँजी पर ब्याज के सवाल की छानबीन करते हुए इनफैतिन ने इस तथ्य की विवेचना की है कि औद्योगिक रूप से विकसित देशों में ब्याज की दर पिछड़े देशों के मुक़ाबले बहुत ही कम है। इससे वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि आम तौर पर पूरे 'निठल्ले वर्ग' की आमदनी, उद्योग के विकास के कारण ही, बराबर घटती जाती


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 47


है। कहते हैं 'हमारा ख़याल है...कि निठल्ले व्यक्ति का, संपत्ति के निष्क्रिय स्वामी का कारोबार बद से बदतर होता जाता है और पूँजी की तरह भूमि भी ऐसी शर्तों पर उठाई जाने लगती है जो उस पर काम करनेवालों की जहमत उठानेवालों के लिए अधिकाधिक अनुकूल होती हैं।74 आप देख सकते हैं कि यह सभ्य समाज के हालात की एक काफ़ी कुछ आशावादी धारणा है। इसमें यह बात भी जोड़ी जानी चाहिए कि इनफ़ैतिन की राय में राष्ट्रीय आय में स्वामियों और उजरती मजदूरों का मिलाजुला भाग बराबर बढ़ रहा था; इतना ही नहीं, वे समझते थे कि इसमें मज़दूरों का भाग भी बराबर बढ़ रहा था। स्पष्ट है कि अगर राष्ट्रीय आय में रोज़गार देने वालों और मज़दूरों का कुल मिलाजुला भाग एक निश्चित राशि हो तो उसका मज़दूरों को जाने वाला भाग सिर्फ़ उस भाग की क़ीमत पर बढ़ सकता है जो रोज़गार देनेवालों की जेबों में जाता है। इससे जाहिर है कि इनफ़ैतिन के यह मानने का कोई आधार नहीं था कि उजरती मज़दूर के हित और रोजगारदाता के हित मेल खाते हैं। लेकिन ये सवाल के इस पहलू पर क़तई कोई विचार नहीं करते। वे यह टिप्पणी करके ही संतोष कर लेते हैं कि पहले के मुक़ाबले आज मज़दूरों को बेहतर खाना-कपड़ा नसीब हो रहा है।75 यह बात उनकी समझ में नहीं आई कि मज़दूर वर्ग के जीवन की दशाओं में तब भी सुधार संभव है जबकि राष्ट्रीय आय में उसका भाग घट रहा हो, अर्थात् रोज़गार देनेवालों के हाथों उनका शोषण बढ़ रहा हो या, दूसरे शब्दों में, उनकी सापेक्ष निर्धनता बढ़ रही हो।


आम तौर पर यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इनफ़तिन का अर्थशास्त्र का ज्ञान बहुत ही सतही था हालाँकि ले प्रोदक्तियर के पन्नों में वे इस क्षेत्र के प्रमुख सिद्धांतकार थे। जिस रिकार्डो से उन्होंने काफ़ी विवाद किया, स्पष्ट है कि उनके बारे में इनफ़ैतिन की जानकारी अप्रत्यक्ष स्रोतों पर आधारित थी और जे बी से उन्हें एक महान अर्थशास्त्री दिखाई देते थे। तमाम काल्पनिक समाजवादियों की तरह इनफ़ैतिन के लिए भी मुख्य प्रश्न 'क्या है' नहीं बल्कि 'क्या होना चाहिए' था। इसलिए स्वाभाविक है कि जो कुछ था उसकी वे सावधानी के साथ छानबीन तब तक ही करते थे जब तक कि जो कुछ होना चाहिए, उसके बारे में उनके विचार स्पष्ट न हो जाएँ। लेकिन तमाम दूसरे काल्पनिक समाजवादियों की तरह ही उनकी यह धारणा भी मुख्यतः नैतिक सोचों से निर्धारित थी। फलस्वरूप इनफ्रेंतिन बुर्जुवा अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों की जितनी आलोचना करते हैं, उससे कहीं अधिक उनकी नैतिकता की घुट्टी पिलाते हैं।76


ले प्रोदक्तियर ऐसे समय में प्रकाशित हो रहा था जब सेंत-साइमनवादियों के विचारों को एक पूरी तरह स्पष्ट रूपरेखा नहीं मिली थी। ऐसा माना जा सकता है कि आगे चलकर इस संप्रदाय के आर्थिक सिद्धांतों की अंतःवस्तु में और गहराई आई। वास्तव में बात ऐसी नहीं है। 1831 में आइज़क पेरेइरे द्वारा दिए गए व्याख्यान


48 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

औद्योगिक पूँजी और उजरती मज़दूरी के संबंध पर वैसी ही अस्पष्टता का पता देते हैं और वही एकदम अस्वीकार्य तर्क दोहराया गया है कि 'श्रम द्वारा निठल्लेपन को दी गई रक्कमें लगातार कम हो रही हैं। जैसे-जैसे ये रक्कमें कम होंगी, मज़दूरों की खुशहाली ही नहीं बढ़ेगी बल्कि उत्पादन भी कहीं बहुत अधिक नियमित हो सकेगा।77


संत-साइमनवादियों के समाज की अर्थव्यवस्था पर उनके अस्पष्ट विचारों को ध्यान में रखते हुए यह बात माननी ही होगी कि, उनकी शांतिपूर्ण मनोस्थिति के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं, उनके सिद्धांत ने भी उन्हें ऐसा कोई आधार प्रदान नहीं किया कि उजरती मज़दूरी और कारोबारी पूँजी के शत्रुतापूर्ण हितों का अस्तित्व स्वीकार करके उसके आधार पर वे व्यावहारिक कार्यकलाप की योजनाएँ बना सकें। उलटे, इसने उन्हें लाज़मी तौर पर सामाजिक शांति के उपदेश देने पर मजबूर किया। माना कि उन्होंने यह स्वीकार किया कि मज़दूर वर्ग और निठल्ले स्वामियों के हित शत्रुतापूर्ण हैं। इस शत्रुता को समाप्त करने के लिए उन्होंने उत्तराधिकार के उन्मूलन का प्रस्ताव किया जिसके कारण उनकी राय में उत्पादन के साधन सामाजिक स्वामित्व में आ सकेंगे। इस बारे में वे सचमुच अपने गुरु से मीलों आगे निकल गए जिन्होंने संपत्ति के स्वरूप को बदलने पर विचार ही नहीं किया था। लेकिन, जैसा कि इनफ्रेंतिन ने कहा, अगर निठल्ले स्वामित्व का कारोबार दिनों-दिन गिर रहा था या, दूसरे शब्दों में, अगर ब्याज दरों में कमी के कारण इस वर्ग की स्थिति कठिन से कठिनतर होती जा रही थी तो घटनाओं का क्रम ही उस सुधार के शांतिपूर्ण व्यवहार की संभावना सुनिश्चित करता जो संत-साइमनवादियों द्वारा प्रस्तावित सुधारों में सबसे अहम था अर्थात् उत्तराधिकार के उन्मूलन का। इसलिए इस सिलसिले में भी सामाजिक विकास के शांतिपूर्ण मार्ग में सेंत-साइमनवादी अपने प्रिय विश्वास से चिपके रहे।


पाठक आसानी से इस बात को महसूस करेगा कि उत्तराधिकार के उन्मूलन का प्रस्ताव रखकर सेंत-साइमनवादियों ने अपने दौर के कूपमंडूकों को ऐसा डराया कि उनकी जान ही निकल गई। ये कूपमंडूक सेंत-साइमनवादियों को साम्यवादी समझते थे और एक हद तक आज भी समझते हैं। अभी हाल में रूसी सामाजिक विचारों के एक इतिहासकार ने उन्हें इसी रूप में पेश किया है।) मगर उन्हें साम्यवादी मानने का कोई कारण न था और न है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे अपने प्रकाशनों में उन्होंने खुद ही बार-बार दोहराया है।


सेंत-साइमनवादियों की शिक्षाओं के अनुसार उत्पादन के जो साधन समाज की संपत्ति बनेंगे उन उत्पादकों के हवाले कर दिए जाएँगे जो उन्हें सफलता से प्रयोग करने में समर्थ होंगे। लेकिन उनके मन में लघु उद्योगों को बहाल करने का विचार कभी आया ही नहीं, वे बड़े पैमाने के औद्योगिक उद्यमों के पक्के समर्थक थे। इन उद्यमों की आय का वितरण कैसे होगा ? सेंत-साइमनवादियों ने कहा हरेक को उसकी योग्यता के अनुसार, हरेक योग्यता को उसके कामों के अनुसार। तो कामों का निश्चय


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 49


कैसे करें? हम जानते हैं इनफ़तिन का विश्वास था कि उद्योगपति का मुनाफ़ा उसकी मजदूरी ही था। यहाँ से यह विश्वास बस एक क़दम की बात रह जाता है कि अगर एक विशेष स्वामी अपने मज़दूर के मुक़ाबले अतुलनीय सीमा तक 'अधिक' मज़दूरी पाता है तो यह उसके काम की मात्रा में मौजूद अंतर का परिणाम है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि अन्य संप्रदायों के बहुत से समाजवादियों ने-मिसाल के लिए फ्रांस में कम्युनिस्टों, लुई ब्लांक और अन्य ने, रूस में एन जी चेनशेव्स्की ने-'हरेक को उसकी योग्यता और कामों के अनुसार' के सेंत-साइमनवादी सिद्धांत को निर्णायक रूप से अस्वीकार कर दिया। हो सकता है इस तरह के तर्क बहुत बोदे लगें : रीछ मारा जाए, उससे पहले उसकी चमड़ी के बंटवारे को लेकर हुज्जत करने के भला क्या मानी? और आसानी से हम देख सकते हैं कि सेंत-साइमनवादियों के समाजवादी विरोधियों की आलोचनात्मक पद्धतियाँ हमेशा संतोषजनक नहीं होती थीं। सच तो यह है कि उन्होंने अधिकतर सेंत-साइमनवादियों की गलतियाँ ही दोहराई; जिन सवालों की छानबीन उत्पादन के संबंधों के, अर्थात् सामाजिक अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से की जानी चाहिए थी, उनकी छानबीन उन्होंने नैतिकता, न्याय और इसी तरह के अमूर्त सिद्धांतों के दृष्टिकोण से किया। फिर भी उनकी पद्धति की गंभीर त्रुटि के बावजूद अपने ढंग से वे सही थे। वितरण के जिस सेंत-साइमनवादी सिद्धांत की उनकी निंदा की उसमें वह पूरी की पूरी अस्पष्टता मौजूद थी जिसे हम उस दौर के समाज के उत्पादक संबंधों पर सेंत-साइमनवादियों की शिक्षा में पहले ही देख चुके हैं। आज के समाज की बातें करते हुए जो शख्स रोज़गारदाता के मुनाफ़े को मज़दूरियों से गड्डमड्ड करता है, इसका बहुत गंभीर जोखिम उठाता है कि एक भावी सामाजिक व्यवस्था संबंधी उसकी योजना में 'मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण' के लिए एक खासी लंबी-चौड़ी जगह बची रह जाएगी। सर्वहारा अगर अपने श्रम से रोज़गारदाताओं को समृद्ध बनाता है तो वह कारखाना चाहे खुद मालिक के हाथ में हो, किसी और व्यक्ति के हाथ में हो या अंततः समाज के हाथ में हो, सर्वहारा के लिए तो बस एक जैसा ही है। अपने बचाव में सेंत-साइमनवादी यह दावा कर सकते थे कि उनकी योजना के अनुसार बने समाज में उद्योग-धंधे आज की तरह असंगठित नहीं, संगठित होंगे। आज के मालिकों की जगह समाज की सेवा में रत, उद्योगों के अगुवे ले लेंगे और समाज से अपना मेहनताना पाएँगे। मगर इसके साथ हम फिर उसी पुराने सवाल पर पहुँच जाते हैं : 'उद्योगों के अगुवों' को दिए जाने वाले मेहनताने की मात्रा का निश्चय कैसे हो? दूसरे शब्दों में, क्या संत-साइमनवादी समाज इन अपेक्षाकृत थोड़े से अगुवों के हाथों उत्पादक जनता के विशाल बहुमत के शोपण पर आधारित नहीं होगा ? संत-साइमनवादी उसका भी कोई जवाब नहीं दे सके, सिवा उनके 'कामों का हवाला देने के। मगर इससे कुछ भी स्पष्ट नहीं


50 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


होता। वास्तव में अंत तक इस विषय के आर्थिक पक्ष के बारे में वे कुछ सोच ही नहीं सके।

छः


आधुनिक समाज में आर्थिक विकास क्रम के बारे में सेंत-साइमनवादियों के आशावादी विचारों में काल्पनिक समाजवादियों के दूसरे संप्रदाय साझीदार नहीं थे। सेंत-साइमन के महान समकालीन और विरोधी फूरिये ने यह मानने से दो-टूक इनकार कर दिया कि कामगार या उनके शब्दों में गरीब वर्ग की स्थिति सुधर रही थी। उन्होंने कहा : 'सामाजिक प्रगति एक भ्रांति है। धनी वर्ग आगे बढ़ रहा है, लेकिन निर्धन वर्ग जहाँ था, वहीं है, अर्थात् शून्य पर।78 कभी-कभी तो वे और भी अधिक निराशावाद का परिचय देते हैं। कहते हैं कि 'आधुनिक समाज में गरीबों की स्थिति जंगलवासियों से बदतर है जिन्हें कम से कम जहाँ भी चाहें शिकार करने या मछली मारने का अधिकार था, बल्कि अपने क़बीले के सदस्यों के अलावा किसी से भी कुछ चुरा लेने तक का अधिकार था। अलावा इसके, जंगलवासी उतना ही चिंतामुक्त होता है जितना पशु होता है; यह एक ऐसी विशेषता है जो सभ्य मनुष्य के लिए पूरी तरह पराई है। आज के समाज ने गरीब व्यक्ति को जो स्वतंत्रता दी है, दिखावा है क्योंकि जंगलवासी को जो लाभ प्राप्त है उनसे उसे वंचित कर देने के बाद भी यह समाज उसे जीवनयापन के न्यूनतम साधनों तक की ज़मानत भी नहीं देता कि वह उसके लाभों के खात्मे का मुआवज़ा ही कहला सके। फूरिये अंत में यह ऐलान करते हैं कि 'प्रगति की प्रशस्ति गाने वाले कुतर्कियों के बावजूद सभ्य समाज में जनता की स्थिति जंगली पशुओं से भी बुरी है। जिन बातों को गिनना या वर्गीकृत करना संभव ही न हो, उनको भी गिनने और वर्गीकृत करने की आदत के चलते फूरिये औद्योगिक मज़दूरों के बारह दुर्भाग्यों के संकेत देते हैं जिनमें वे सटीकता के लिए चार और जोड़ देते हैं। उनकी सभ्य मानव की बदनसीबियों की गणना करने की कोशिश हो सकता है हमारे होठों पर मुस्कान खिला दे इसलिए तो और भी कि हमारा यह लेखक क्षमा भी माँगता है कि उसकी गणना अधूरी रही और वह उसे पूरी करने का काम और भी अनुभवी लोगों के भरोसे छोड़ रहा है। तो भी यह बुद्धि की एक दुर्लभ स्पष्टता का पता ज़रूर देती है। एक मिसाल के रूप में में 'दूसरी' बदनसीबी का ज़िक्र करूंगा: यह कि सभ्य व्यक्ति ऐसे श्रम में लगा हुआ है जो उसकी ताक़त को चूस लेता है, उसके स्वास्थ्य के खराब होने का जोखिम पैदा करता है जिस पर उसके बच्चों का और खुद उसका जीवन निर्भर है। फिर रही फूरिय की बताई 'दसवीं' बदनसीबी जिसे वे पूर्वानुमानित निर्धनता कहते हैं; मतलब मज़दूर के इस डर से है कि उसकी मज़दूरी मारी जाएगी। अंत में रही 'सातवीं' बदनसीबी जिसका कारण अमीरों की बढ़ती ऐयाशी है जिसे देखकर गरीब आदमी खुद को


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 51

और भी ग़रीब महसूस करने लगता है। (यही आज का सापेक्ष निर्धनता का सिद्धांत है।)" संत-साइमनवादियों ने अगर मज़दूरों और मालिकों की स्थितियों के बीच कोई अंतर नहीं किया तो दूसरी तरफ़ फूरिये इन दो सामाजिक श्रेणियों के हितों को परस्पर शत्रुतापूर्ण मानते हैं। कहते हैं कि आधुनिक समाज में औद्योगिक उद्यमों की सफलता का आधार मज़दूरों की बढ़ती निर्धनता, अर्थात् उनकी मज़दूरियों में न्यूनतम संभव स्तर तक कमी है। जहाँ सेंत-साइमनवादी बैंकों के विकास को प्रगति की आखिरी मंज़िल समझते हैं, वहीं फूरिये बैंकरों और स्टाक बाज़ार के सट्टाबाज़ों के ख़िलाफ़ गरजते हैं। जहाँ सेंत-साइमनवादी बड़े पैमाने के उद्योगों के विकास पर मुग्ध हैं, वहीं फूरिये यह साबित करते हैं कि इसके साथ पूँजी का संकेंद्रण होता है तथा एक नये वित्तीय, व्यापारिक और औद्योगिक लिबास में सामंतवाद पुनर्स्थापित होता है।


उनके अनुयायी भी इसी ढंग से अपनी बात कहते हैं। कोंसिदेराँ कहते हैं : ‘पहले सामंतवाद ने, जो सैनिक विजयों से पैदा हुआ, ज़मीन को सेना के अगुवों के हवाले कर दिया तथा पराजित जनता को भूदास प्रथा (सर्फ़डम) के बंधनों के द्वारा विजेताओं से नत्थी कर दिया। व्यापारिक और औद्योगिक युद्ध ने, जिसका रूप ऐसी प्रतियोगिता का है जिसके द्वारा पूँजी और सट्टाबाज़ी लाज़मी तौर पर बेचारी श्रम की शासक बन जाती हैं, जब से 'सैनिक युद्ध (!) को विस्थापित किया है, उसने अपनी विजयों के सहारे एक नयी भूदास प्रथा स्थापित करने का प्रयास किया है और वास्तव में हमेशा स्थापित किया है। अब जन्म होता है वैयक्तिक और अव्यवहित (इमेडिएट) निर्भरता का नहीं बल्कि व्यवहित (मेडिएट) और सामूहिक निर्भरता का, तबाह वर्गों पर उस वर्ग के सामूहिक शासन का जो पूँजी, मशीनों और श्रम के उपकरणों का स्वामी है। वास्तव में, कुल मिलाकर लें तो, नगरीय और ग्रामीण सर्वहारा श्रम के उपकरणों के स्वामियों पर संपूर्ण निर्भरता की स्थिति में है। यह महत्त्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक सच्चाई व्यावहारिक जीवन के निम्नलिखित सूत्र में व्यक्त होती है : रोटी का एक टुकड़ा पाने के लिए हर मज़दूर को एक मालिक तलाश करना होगा। (मुझे पता है कि आज आप उसे रोज़गारदाता कहेंगे, मगर अपनी आदिम सरलता के कारण ज़बान बार-बार मालिक ही कहती है, और यही तब तक सही होगा जब तक कि नयी व्यवस्था स्थापित न हो जाए, जब तक कि मौजूदा सामंती व्यवस्था के, वित्तीय, औद्योगिक और व्यापारिक सामंतवाद के आर्थिक संबंधों की जगह नये संबंध न ले लें।)83


आधुनिक समाज में बार-बार फूटनेवाले औद्योगिक संकटों को फूरिये पहले ही प्रचुरता के संकट कह चुके थे और उन्होंने जोर देकर कहा था कि इस समाज की निर्धनता उसके धन से पैदा होती है। इस ठोस विचार को कोसिदेराँ ने और आगे विकसित किया। उन्होंने इंग्लैंड की मिसाल की ओर इशारा किया जिसका 'अपनी ही प्रचुरता से दम घुट रहा था, तथा उस समाज-व्यवस्था को निरर्थक और अमानवीय


52 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


घोषित किया जो 'मज़दूर वर्ग को भूख से मारती है और साथ ही उपभोक्ताओं की कमी से परेशान रहती है।' 


वे आगे कहते हैं: प्रतियोगिता बीच के सामाजिक स्तरों को नष्ट कर देती है और समाज को दो वर्गों में विभाजित करती है जिनमें 'कुछ के पास सब कुछ है और एक बड़ी संख्या के पास कुछ भी नहीं है। 84


आमतौर पर कहें तो फूरियेवादी अकसर वेशतर आर्थिक प्रश्नों पर सेंत-साइमनवादियों की उलटी राय अपनाते थे तथा उन दिनों के फ्रांस में और पूरे सभ्य जगत् में उत्पादक शक्तियों के विकास की समस्या के बारे में उनके अपने-अपने रवैयों से यह बात खुलकर सामने आती है। सेंत-साइमनवादियों ने रेलों के निर्माण का वेदाग़ उत्साह से स्वागत किया तथा स्वेज़ और पनामा नहरों के निर्माण के सपने देखे। इसके विपरीत फूरियेवादी समझते थे कि रेलों के निर्माण से पहले मालिकों और मज़दूरों के हितों में तालमेल बिठाना तथा फैलेंस्तरियाँ बनाकर पूँजी, श्रम और प्रतिभा के बीच वस्तुओं का सही वितरण सुनिश्चित करना आवश्यक है। यहाँ फूरियेवादी बिना शक पूरी तरह गलत थे; फ्रांस में पूँजी और श्रम के बीच आज तक तालमेल नहीं हो सका है। लेकिन रेलों के बिना आज फ्रांस नज़र कैसा आता? रेलों का निर्माण औद्योगिक सामंतवाद को मज़बूत बनाएगा, इस तर्क के जवाब में इनफ़ैतिन ने कहा कि औद्योगिक सामंतवाद सामाजिक विकास के एक चरण के रूप में लाज़मी है। बात सही थी। लेकिन इनफ़ैतिन फिर सरककर अपने कल्पनालोक में जा पहुँचे और कहा कि सेंत-साइमन और सेंत-साइमनवादियों की खोजों के फलस्वरूप मानवजाति को शांतिपूर्ण सामाजिक रूपांतरण का भेद आज पता है, और इसलिए मानवजाति सचेत रहकर तथा उथल-पुथल के बिना औद्योगिक सामंतवाद का अंत करने में समर्थ है। जब उन्होंने कहा कि जिस तरह, मिसाल के लिए, धर्म-सुधार (रिफ़ार्मेशन) के युग में लूथर और काल्विन के साथ चलना ज़रूरी था उसी तरह आज 'उड़कर रोथ्सचाइल्ड के पास पहुँचना' आवश्यक है', तब भी वे कल्पनावादी ही थे। 19वीं सदी के सुधारकों का कार्यभार बिलकुल अलग था। 'रोथ्सचाइल्ड' से अपील 'आओ, प्रशिक्षण पाने के लिए पूँजीवाद की ओर चलें' का ही सेंत-साइमनवादी संस्करण था। 88


फूरियेवादियों की तरह लुई ब्लांक भी किराये के श्रम की स्थिति पर सेंत-साइमनवादियों के आशाबाद में क़त्तई साझीदार नहीं थे। अपनी रचना श्रम का संगठन में वे लिखते हैं कि प्रतियोगिता के प्रभाव से मज़दूरियाँ बराबर नीचे जाती हैं जिससे मज़दूर वर्ग के लिए बेहद गंभीर परिणाम निकल रहे हैं: यह पतित हो रहा है। फिर फूरियेवादियों की ही तरह लुई ब्लांक ने भी समकालीन समाज में संपत्ति की बढ़ती असमानता का ज़िक्र किया; इस बारे में उन्होंने सिर्फ़ पूँजी नहीं, भूस्वामित्व के संकेंद्रण की बात भी की। जहाँ सेंत-साइमनवादियों ने निठल्ले वर्ग के मुक़ाबले औद्योगिक वर्ग को रखा, ब्लांक ने 'पूँजीपति' के मुक़ाबले 'जनता' को रखा।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 53


लेकिन यह बात ध्यान देने की है कि उनकी पूँजीपति की परिभाषा इस वर्ग के ऊपरी से अधिक निचले स्तरों पर सटीक बैठती है। कहते हैं: 'पूँजीपति वर्ग से मेरा अभिप्राय उन नागरिकों के समूह से है जो या तो श्रम के उपकरणों या पूँजी के स्वामी होने के कारण अपने साधनों के बल पर काम करते हैं और दूसरों पर बस कुछ ही हद तक निर्भर रहते हैं।' बात या तो भोंडे ढंग से कही गई है या फिर प्रूदों की पूँजीपति वर्ग की धारणा, अर्थात् निम्न पूँजीपति वर्ग की धारणा के, बहुत क़रीब है। इससे कुछ कम उल्लेखनीय सच्चाई यह नहीं है कि 'जनता' की बात करते समय लुई ब्लांक के मन में सही अर्थों में सर्वहारा है, अर्थात् 'नागरिकों का वह समूह जो पूँजी से वचित होने के कारण ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरतों के लिए पूरी तरह दूसरों पर निर्भर है।' 90 लुई ब्लांक ने एक नये सामाजिक वर्ग का जन्म तो देखा मगर पुरानी लोकतांत्रिक धारणाओं के चश्मे से देखा और इसीलिए उस वर्ग को एक पुराना नाम दिया-वह नाम जो लोकतंत्रवादियों की दिली पसंद था। 


मैं उन दिनों के दो और समाजवादी लेखकों की चर्चा करूँगा; इनमें एक तो आज भी अच्छा-खासा जाना जाता है जबकि दूसरा पूरी तरह भुलाया जा चुका है हालाँकि वह चर्चा का पूरा-पूरा अधिकारी है। यहाँ मेरे मन में पियरे लेरो और उनके मित्र ज्याँ रेनो के नाम हैं। ये दोनों सेंत-साइमनवादी विद्यालय के छात्र रहे और बहुत पहले ही उन्होंने उस विद्यालय के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अपना लिया था। खैर, मेरी दिलचस्पी केवल आज के समाज में श्रम की भूमिका और स्थिति पर उनके विचारों में है।


बहुत पहले 1832 में ही, जबकि सेंत-साइमनवादियों के एक विशाल बहुमत ने तब मौजूद समाज में सिर्फ़ मज़दूर वर्ग और निठल्ले स्वामियों के हितों का अंतर्विरोध देखा था और जब वे 'राजनीति' को पिछड़ी जनता का सड़ा-गला पूर्वाग्रह समझते थे, ज्याँ रेनो ने रिव्यू इनसाइक्लोपेदिक के अप्रैल अंक में एक लेख प्रकाशित कराया था। इसका शीर्षक 'सर्वहारों के लिए विशेष प्रतिनिधित्व की आवश्यकता था। इसमें वे ऐसे विचार प्रस्तुत करते हैं जो उस दौर के लिए सचमुच उल्लेखनीय थे।


उन्होंने लिखा : 'मैं कहता हूँ जनता के दो वर्ग हैं जो अपनी स्थिति और अपने हितों, दोनों के एतबार से अलग-अलग हैं : सर्वहारा और पूँजीपति। मैं सर्वहारा उन लोगों को कहता हूँ जो राष्ट्र की सारी संपदा पैदा करते हैं, जिनके पास अपनी मेहनत की दिहाड़ी के अलावा कुछ भी नहीं है, जिनका कामकाज उनके नियंत्रण से बाहर के कारणों पर निर्भर होता है, जो रोज़ अपनी ही मेहनत के फल में से बस ज़रा सा हिस्सा पाते हैं और वह हिस्सा भी प्रतियोगिता के कारण लगातार घट रहा है, जिनके भविष्य का दारोमदार एक ऐसे उद्योग की नाजुक उम्मीदों पर टिका है जिसकी प्रगति अविश्वसनीय और अराजक है, और जिनको अपने बुढ़ापे में एक खैराती हस्पताल में जगह पाने या असमय मर जाने के अलावा और किसी बात


54 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

की आशा नहीं है।' सर्वहारा के इस जीवंत वर्णन में पूंजीपति वर्ग का उतना ही जीवंत वर्णन जोड़ा गया है: 'पूँजीपति वर्ग से मेरी मुराद उन लोगों से है जिनके भाग्य के अधीन और जिनके भाग्य से बंधा हुआ सर्वहारा का भाग्य है, ऐसे लोग जो पूँजी के स्वामी हैं तथा उसी की आय पर जीते हैं, जो उद्योग को अपनी चाकरी में रखते हैं तथा अपने उपभोग संबंधी मनमौजीपन के अनुसार उसमें घटत-बढ़त करते रहते हैं, जो वर्तमान का पूरा-पूरा आनंद लेते हैं और जिनकी भविष्य के बारे में इसके आलवा और कोई इच्छा नहीं कि उनके पास कल जो कुछ था वह बना रहे, और यह कि युग-युग तक वह संविधान जारी रहे जिसने उनको अग्रणी स्थान और सबसे शानदार हिस्सा प्रदान किया है।'


रेनो के बयान के आधार पर शायद यह समझा जा सकता है कि पूँजीपति बुनियादी तौर पर वे लोग थे जो अपनी पूँजी की आय पर जीते थे, कि दूसरे सभी संत-साइमनवादियों की तरह उनके मन में भी सिर्फ़ निठल्ले स्वामी अर्थात् लगानखोर (रंटियर्स) थे। ऐसा मानना गलत होगा। अपने लेख में आगे चलकर वे इस विचार को भी स्पष्ट करते हैं। पता चलता है कि पूँजीपतियों में वे 'ल्यांस के 2,000 कारखानादारों, सेंत एतिएन के 500 कारखानादारों और उद्योगों के सभी सामंती मालिकों को शामिल करते हैं। इससे स्पष्ट है कि उनकी परिभाषा औद्योगिक पूँजी के प्रतिनिधियों को पूरी तरह समेटती है। उन्हें यह बात बखूबी पता है कि पूँजीपति और सर्वहारा वर्गों के बीच मध्यवर्ती सामाजिक स्तर भी हो सकते हैं। पर वे इससे निराश नहीं होते। कहते हैं: 'मुझे कहा जाएगा कि इन दोनों ही वर्गों का अस्तित्व नहीं है क्योंकि उनके बीच कोई पार न हो सकने वाली रुकावट या नष्ट न हो सकने वाली दीवार नहीं है, और यह कि ऐसे पूँजीपति हैं जो काम करते हैं और ऐसे सर्वहारा हैं जो संपत्ति के स्वामी हैं। इसका मैं यह जवाब दूँगा कि इन दो अत्यंत सुस्पष्ट रंगछायाओं के बीच हमेशा मध्यवर्ती रंगछायाएँ होती हैं, और यह कि कोई हमारे उपनिवेशों में काली और गोरी जनता के अस्तित्व से सिर्फ़ इस आधार पर इनकार करने की बात भी नहीं सोचेगा कि उनके बीच भूरे और दोगली नस्लवाले भी हैं।(हब्सियों और गोरों की संकर संतान-संपादक) 


रेनो का विश्वास था कि एक समय ऐसा था जब पूँजीपति वर्ग अपने निजी हितों का प्रतिनिधित्व करने के साथ ही साथ सर्वहारा का प्रतिनिधित्व भी करता था। यह बात पुनर्स्थापना (रेस्टोरेशन) के काल की थी। लेकिन आज जबकि सामंती कुलीन वर्ग के विनाश का काम, जिसके लिए ज़मीन पूँजीपति वर्ग ने तैयार की थी, सर्वहारा द्वारा पूरा किया जा चुका है, इन दोनों वर्गों के हित अलग-अलग हो चुके हैं। उसके चलते सर्वहारा के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व पाना आवश्यक हो गया है।


बातों को इससे अधिक स्पष्टता के साथ रखना कठिन है। लेकिन रेनो भी तो अपने ही दौर की उपज हैं। उनके मन से 1798 की भयानक यादें पूरी तरह


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 55


मिटी नहीं थीं। वे गृहयुद्ध से भयभीत हैं और इसलिए अगर-मगर करते हैं। उनकी राय में पूँजीपति वर्ग के हित सर्वहारा के हितों से अलग तो हैं मगर ये एक-दूसरे से अंतर्विरोधी नहीं हैं। इसलिए क़ानूनों में सुधार लाने के लिए ये दोनों वर्ग मिलकर काम कर सकते हैं। "91


पूँजीपति वर्ग के साथ सर्वहारा के संबंध पर पियरे लेरो की राय भी यही थी।92 उनकी जिस पुस्तक कुबेरतंत्र और धनिकों का शासन का अभी-अभी मैंने एक टिप्पणी में हवाला दिया है (टिप्पणी 92 देखें-संपादक), उसमें वे इस विचार को विस्तार से विकसित करते हैं। लेकिन जितने ही विस्तार में वे जाते हैं, उनके विचारों की अस्पष्टता उतनी ही ज़ाहिर होती और बढ़ती जाती है; यह ऐसी अस्पष्टता है जो रेनो की रचना में कुछ हद तक पहले ही देखी गई थी। इस अस्पष्टता का कारण यह है।


रेनो ने कहा था : 'मैं शहरों के मजदूरों और गाँवों के किसानों को सर्वहारा कहता हूँ। कोई यह मान सकता है कि आज के समाज में संपत्तिधारी सर्वहारा का अस्तित्व स्वीकार करते समय वे ठीक 'गाँवों के किसानों के ही बारे में सोच रहे थे। बहुत सारे ब्यौरे देकर लेरो इस तरह के 'सर्वहारा' की विस्तृत चर्चा करते हैं। पूछते हैं: 'एक हेक्टेयर ज़मीन वाला किसान एक सर्वहारा है या संपत्तिधारी है?" उनकी राय में 'वह एक सर्वहारा है क्योंकि उसकी एक हेक्टेयर जमीन उसे उसी सीमा तक जीविका देती है जिस सीमा तक वह रोज़ाना उस पर भारी शारीरिक श्रम करता है। अगर ज़मीन का स्वामित्व किसान को रोज़ाना भारी मशक्कत के बाद ही जीने की इजाज़त देता है तो उसके भूस्वामी होने का मतलब भला क्या रहा ? श्रम के उपकरणों का विकास जब एक विशेष सीमा तक पहुँच जाता है, तभी वे पर्याप्त उत्पादक साबित होते हैं और अपने स्वामी के जीवननिर्वाह के लिए पर्याप्त किराया लाते हैं। इस सीमा के अंदर एक व्यक्ति सर्वहारा होता है; वह उस सीमा से परे ही संपत्तिधारी होता है। "93


लेरो का सवाल है कि ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े का स्वामी एक संपत्तिधारी है या एक सर्वहारा है। इस सवाल में यह मान्यता निहित है कि एक ही व्यक्ति एक ही साथ सर्वहारा और संपत्तिधारी नहीं हो सकता। मगर इसके फ़ौरन बाद लेरो यह ऐलान फ़रमाते हैं कि जिस आदमी के पास एक हेक्टेयर ज़मीन है, अर्थात् जो एक हेक्टेयर का संपत्तिधारी है, वह एक सर्वहारा है। यहाँ इस मान्यता को चुपके से ताक पर रख दिया गया है कि एक व्यक्ति एक ही साथ संपत्तिधारी और सर्वहारा नहीं हो सकता। क्यों? इसलिए कि उस टुकड़े का स्वामी काम करता है। लेकिन इसके कारण उसे अधिक से अधिक एक कामकाजी संपत्तिधारी माना जा सकता है। एक कामकाजी संपत्तिधारी को सर्वहारा का पर्याय कहना, कुछ भी हो, मनमानीपन है। लेरो क्यों भला इस बात को स्वीकार्य ही नहीं, अपरिहार्य भी मानते हैं? सिर्फ़


56 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


इसलिए कि जमीन के एक छोटे से टुकड़े का स्वामी अकसर बहुत गरीब होता है। पियरे लेने के बजदीक गरीब और सर्वहारा होना एक ही बात है। यही कारण है कि उन्होंने सर्वहारा की श्रेणी में तमाम भिखारियों को भी शामिल किया है जिनकी फ्रांस में संख्या के हिसाब लगाकर 10 लाख बतलाते हैं, जबकि उद्योग व्यापार में लगे लोगों की संख्या उनकी अपनी गणना के अनुसार उपर्युक्त संख्या के आधे से अधिक नहीं है।94 इस तरह उनके हिसाब से फ्रांस की 345 लाख आबादी में सर्वहारा की संख्या 500 लाख थी।95


रेनो के तर्क में 'सर्वहारा संपत्तिधारियों की तुलना भूरों और दोगलों से की गई थी जिनकी उपनिवेशों में स्थिति काली और सफ़ेद नस्लों के बीच में है। लेकिन लेरो ने ऐसा दिखाया कि गोया ये 'भूरे' और 'दोगले फ्रांसीसी सर्वहारा का एक बड़ा भाग थे।


कहने की ज़रूरत नहीं कि अर्थशास्त्र की कसौटी पर लेरो की गणनाएँ ठहर नहीं सकेंगी। लेकिन उनको समझने के लिए हमें यह याद रखना होगा कि वे अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से उतना तर्क नहीं कर रहे जितना नैतिकता के दृष्टिकोण से कर रहे हैं। वे फ्रांस में मौजूद उत्पादक संबंधों का ठीक-ठीक निश्चय करना नहीं, बल्कि यह दिखाना अपना दायित्व समझते थे कि कितने फ्रांसीसी गरीबी में रह रहे थे, और अपनी गरीबी के कारण समाज-सुधार की आवश्यकता की याद दिलाते थे। और इसे जहाँ तक वे अपना दायित्व समझते थे, वहाँ तक सही थे, हालांकि इसके कारण वे तर्कशास्त्र संबंधी बहुत स्पष्ट गलतियाँ करने से नहीं बच सके। उलटे, इसी बात ने उनसे ये गलतियाँ कराई।


इस दृष्टिकोण से देखें तो लेरो की तर्कपद्धति हमें हमारे नरोदनिकों की चिंतन-प्रणाली की बहुत कुछ याद दिलाती है।96 खैर जो भी हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उनकी पुस्तक कुबेरतंत्र में और कुछ दूसरी रचनाओं में- मसलन आगे चलकर माल्थस और अर्थशास्त्री शीर्षक से प्रकाशित उनके लेखों में-उजरती मज़दूर और पूँजीपति के संबंधों का इनफफैतिन और दूसरे रूढ़िग्रस्त सेंत-साइमनवादियों की रचनाओं की अपेक्षा कहीं बहुत गहरा विश्लेषण मिलता है। निश्चित ही यह उनके लिए भारी श्रेय की बात है।


फिर भी समाजवादी विश्लेषण के ये आरंभिक चरण कभी-कभी बहुत ही अप्रत्याशित सैद्धांतिक परिणामों पर ले जाते हैं। फूरिये और उनके शागिर्दो, खासकर तोसेनेल के और पियरे लेरो, देज़ामी और दूसरों के लिए वित्तीय और औद्योगिक 'सामंतवाद' के लिए प्रमुख अपराधी यहूदी थे। फूरिये ने यहूदियों को समान अधिकार दिए जाने का विरोध किया। लेरो ने उनको 'हमारे युग के राजा-महाराजा" कहा। बहुत बाद को चलकर, 1840 की दहाई में, फूरियेवादी तोसेनेल ने यहूदी-विरोधी संघर्ष के लिए जुलाई राजतंत्र और जनता के बीच एक गठजोड़ की पैरवी की। उनका


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 57


ऐलान था: 'ताक़त में बढ़ोत्तरी! परजीवीपन की मौत! यहूदियों के खिलाफ़ जंग! यही नयी क्रांति का सूत्रवाक्य है।'98 ये सैद्धांतिक ग़लतियाँ खुशी की बात है कि फ्रांस में किसी भारी व्यावहारिक नुक़सान का कारण नहीं बनीं। मगर काल्पनिक समाजवाद के कुछ संप्रदाय अंत तक इन गलतियों से उबर नहीं सके। और ज़ाहिर है कि यह बात उनकी ख़ासलखास विशेषताओं के जोड़-घटाने में कोई मामूली घटाव नहीं है।


निष्कर्षस्वरूप मैं इतनी बात और कहूँगा कि फ्रांसीसी समाजवादियों के अर्थशास्त्रीय विचार 1820 और 1830 की दहाइयों में अंग्रेज़ समाजवादी लेखकों द्वारा प्रस्तुत अर्थशास्त्रीय विचारों से, स्पष्टता और सुव्यवस्था के मुआमले में काफ़ी दूर थे, जैसे हागरिकन, थाम्पसन, ग्रे, एडमंड्स, ब्रे और दूसरों के विचारों से। इसका कारण स्पष्ट है: आर्थिक विकास के मुआमले में ब्रिटेन फ्रांस से बहुत आगे था।


सात


आइए, ज़रा पीछे मुड़कर देखें। सेंत-साइमन के रूप में फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद 18वीं सदी के तीसरे जनवर्ग के विचारकों द्वारा सम्पन्न किए गए कार्यों को सीधे-सीधे जारी रखते हुए रंगमंच पर दाखिल होता है। वह कुलीन वर्ग के खिलाफ़ इस जनवर्ग के हितों की पैरवी करता है। लेकिन इसी क्रम में वह दो खास विशेषताएँ दर्शाता है। सबसे पहले तो वह 1799 की घटनाओं के प्रभाव में वर्ग-संघर्ष के विचार का त्याग करता है।९९ दूसरे, यह वंचित लोगों की दशा पर ध्यान देने का आग्रह करता है तथा धार्मिक प्रवचन तक के ढंग से, 'सबसे गरीब और सबसे अधिक संख्या वाले वर्ग' की दशा में चौतरफ़ा सुधार को कर्तव्य का दर्जा देता है। इस कर्तव्य को पूरा करने का बोझ मुख्यतः 'उद्योग के अगुवों' पर है जो सामाजिक जीवन में एक संचालक की भूमिका निभाने के लिए भेजे गए हैं। सेंत-साइमन और सेंत-साइमनवादियों के नज़दीक उद्योग के अगुवों के हित मज़दूर वर्ग के हितों से पूरा-पूरा मेल खाते हैं। 


फूरिये और उनके अनुयायी उदीयमान पूँजीवादी व्यवस्था के रहस्यों में और भी अधिक गहराई तक पैठते हैं। तो भी वे वर्ग संघर्ष को कुछ कम निर्णायक ढंग से अस्वीकार नहीं करते; वे भी 'गरीबों' नहीं बल्कि 'अमीरों' से मुखातिब हैं। दूसरी समाजवादी विचार प्रणालियों के अधिकांश संस्थापकों ने भी काल्पनिक समाजवाद के इन्हीं दो आरंभिक संप्रदायों द्वारा कायम की हुई मिसाल का अनुसरण किया। इन संस्थापकों ने समाजसुधार की जो योजनाएं तैयार की वे सामाजिक सामंजस्य स्थापित करके वर्गों के बीच तालमेल बिठाने के उपायों की एक श्रृंखला ही हैं, और कुछ भी नहीं। इन योजनाओं के प्रस्तुतकर्त्ता यह मानते थे कि उन्हें साकार करने की पहल उच्च वर्गों द्वारा की जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, काल्पनिक समाजवादियों के यहाँ सर्वहारा के स्वकार्य की कोई गुंजाइश नहीं है; वास्तव में उनके यहाँ तो सर्वहारा


58 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


की धारणा भी शुरू-शुरू में उनकी 'कामगार वर्ग' की सामान्य धारणा से पैदा नहीं हुई। यह बात 19वीं सदी की पहली चौथाई में फ्रांस में पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों की अपेक्षाकृत अविकसित अवस्था के ही मुताबिक थी। राजनीति के जिस आविष्कार को हम काल्पनिक समाजवाद की प्रमुख लाक्षणिक विशेषताओं में एक के रूप में जानते हैं, उसका इन्हीं अल्पविकसित सामाजिक संबंधों से कारण और कार्य का गहरा संबंध है। चेतना अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती बल्कि अस्तित्व चेतना का निर्धारण करता है। जब तक सर्वहारा एक स्वतंत्र सामाजिक शक्ति के रूप में सामने नहीं आया था, राजनीतिक संघर्ष सिर्फ शासक वर्ग के विभिन्न भागों के आपसी संघर्ष का सूचक हो सकता था जिनकी 'सबसे गरीब और सबसे अधिक संख्या वाले वर्ग की दशा में जरा सी भी दिलचस्पी नहीं थी। फलस्वरुप राजनीतिक संघर्ष काल्पनिक समाजवादियों की दिलचस्पी की चीज़ नहीं बना जिनकी कोशिश ठीक इसी वर्ग की हालत को बेहतर बनाने में थी। अलावा इसके, राजनीति का मतलब संघर्ष है जबकि काल्पनिक समाजवादी संघर्ष नहीं चाहते थे। उनका उद्देश्य तो समाज के सभी भागों के बीच तालमेल बिठाना था। फलस्वरूप उन्होंने राजनीति को एक गलती करार दिया और अपना ध्यान सामाजिक क्षेत्र पर केंद्रित किया। उनको लगता था कि इस क्षेत्र में अपनाए गए सुधारों का राजनीति से कोई संबंध नहीं है और इसलिए सरकार चाहे जैसी भी हो, समाज सुधारक शांति के साथ जिंदगी बसर कर सकते हैं। अंततः यहाँ यह बात जोड़ देना मुनासिब ही होगा कि इस विचार का विकास 18वीं सदी में प्रचलित एक विश्वास की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ, और यह विश्वास यह था कि शासकों का राजनीतिक कार्यकलाप कारण होता है तथा समाज-व्यवस्था उसका कार्य (परिणाम) होती है।


काल्पनिक समाजवादियों ने राजनीति के प्रति अपनी उदासीनता एक लंबे अरसे तक जारी रखी। हमें पता है कि उनके कभी भोंडे और कभी अनाकर्षक राजनीतिक षड्यंत्रों की व्याख्या इसी उदासीनता से होती है। लेकिन फ्रांस का आर्थिक विकास जब आगे बढ़ा तो उजरती श्रम और औद्योगिक पूँजी का अंतर्विरोध और भी तीखा हुआ और जब यह और भी तीखा हुआ तो उस देश का 'निर्धन वर्ग' ही सर्वहारा बन गया। मैंने रेनो के उस बयान का पहले ही हवाला दिया है कि कुलीन वर्ग के विनाश की शुरुआत पूँजीपति वर्ग ने की और सर्वहारा ने इसे पूरा किया। ये उल्लेखनीय शब्द यह दिखाते हैं कि 1830 की दहाई के आरंभ में ही फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद के कुछ प्रतिनिधि (जो माना कि बहुत थोड़े-से थे) मज़दूर वर्ग के बेपनाह राजनीतिक महत्व को स्वीकार करने लगे थे। यह उभरती चेतना निःसंदेह जुलाई क्रांति (जुलाई 1830-संपादक) के प्रभावों की देन थी। मगर यह जुलाई 1830 और फरवरी 1848 बहुत अधिक विकसित नहीं हुई तो भी लूई फिलिप के राजतंत्र के पतन ने इसे एक जोरदार बढ़ावा जरूर दिया। जिन फूरियेवादियों ने पहले कभी राजनीति


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ /59


को ही एक गलती करार दिया था, अब खुद ही राजनीति में भाग लेने लगे। एक 'जन-प्रतिनिधि' के रूप में निर्वाचित होने के बाद कोसिदेरी 'पर्वत' पार्टी में शामिल हो गए तथा 1849 में उन्हें 13 जुलाई के मशहूर प्रदर्शन में भागीदारी के कारण देश छोड़कर भागना पड़ा।101  1848 से 1850 तक के काल में पृदों, पियरे लेरो, लुई ब्लांक, बुशेल्ज़, वाइदल और कुछ दूसरे लोग भी सांसद रहे। काल्पनिक समाजवाद के सभी अग्रणी प्रतिनिधियों में सिर्फ कावे ही थे जो इस काल में भी टेक्सस में 'इकारिया' नाम से अपनी कम्युनिस्ट बस्ती बसाने में लगे हुए थे। 'राजनीति' कल्पनालोक पर भारी साबित हुई। उसने खुद को उसी काल्पनिक समाजवाद पर लाद दिया जिसने पहले उसे एक गलती करार दिया था। लेकिन काल्पनिक समाजवादी जब राजनीति के मंच पर सक्रिय रहे तब भी वे कल्पनावादी ही रहे। बेहद तीखे वर्ग संघर्ष के दौर में भी ये वर्गों के बीच तालमेल बिठाने के सपने देखते रहे। पुस्तिका Le socialisme devant le vieux monde or le vivant devant les marts में, जिसका हवाला मैं पहले ही दे चुका हूँ, कोसिदेरों ने दिली अफ़सोस जाहिर किया था कि महाक्रांति (1789- संपादक) के दौरान कुलीन वर्ग के विशेषाधिकारों का बलात् उन्मूलन करके पूँजीपति वर्ग ने सर्वहारा के सामने एक गलत मिसाल पेश किया था। 14 अप्रैल 1849 को इन्हीं कोसिदेरों ने राष्ट्रीय सभा (फ्रांसीसी संसद- संपादक) में एक लंबा-चौड़ा भाषण दिया था जिसमें उन्होंने प्रस्ताव किया था कि फैलेंस्तरियों (देखें टिप्पणी 59-संपादक) की स्थापना के लिए सभा फूरियेवादियों को धन आवंटित करे। यह कहने की शायद ही ज़रूरत पड़े कि सभा ने इसके लिए कोई धन नहीं दिया। अंत में मैं 1848 में लुई ब्लांक द्वारा की गई मशहूर गलतियों का ज़िक करूँगा।


फ्रांस में घटनाक्रम के हाथों मजबूर होकर राजनीतिक क्षेत्र में खिंच आने वाले काल्पनिक समाजवादी सही कार्यनीतिक सिद्धांतों का निश्चय करने में सिर्फ इसलिए असमर्थ रहे कि ऐसे सिद्धांतों के लिए काल्पनिक समाजवाद में कोई ठोस सैद्धांतिक आधार था ही नहीं।103 इसी के साथ हम इस सवाल पर पहुँच जाते हैं:  तो फिर वह कौन-सी लाक्षणिक विशेषता है जिसकी किसी विशेष समाजवादी विचार प्रणाली में मौजूदगी उसे एक कल्पनावादी चरित्र प्रदान करती है, इससे मतलब नहीं कि उस प्रणाली के ब्यौरे ध्यान दिए जाने और अनुमोदित किए जाने के योग्य है भी या नहीं? यहाँ यह सवाल और भी प्रासंगिक है क्योंकि इस विषय की पूरी जानकारी न रखनेवाला कोई भी व्यक्ति हो सकता है यह सोच बैठे कि शब्द 'कल्पनावादी' का कोई सटीक सैद्धांतिक अर्थ है ही नहीं तथा किसी योजना या प्रणाली के लिए इसका व्यवहार मात्र उसके अस्वीकार का सूचक है। यह सही है कि 'कल्पनालोक' (यूटोपिया) शब्द फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों की जानकारी में था और जब उनमें से कोई, मसलन फूंरिये, किसी दूसरे समाजवादी संप्रदाय के, मसलन सेंत-साइमनवादी संप्रदाय के कुछ पक्षों के बारे में असंतोष जाहिर करना चाहता तो उसे दूसरी बातों के अलावा


60 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


कल्पनावादी कह देता था। किसी प्रणाली विशेष को कल्पनाबादी करार देने का मतलब निश्चित ही उसे अव्यावहारिक करार देने के बराबर था। लेकिन किसी प्रणाली विशेष की व्यावहारिकता का फ़ैसला किस मानदंड पर किया जाएगा, इसकी एक साफ़ समझ एक भी काल्पनिक समाजवादी को नहीं थी। यही कारण है कि काल्पनिक समाजवादियों की रचनाओं में 'कल्पनालोक' शब्द का महत्व सिर्फ शास्त्रार्थ के लिए था। आज हमें इसे किसी और ढंग से देखते हैं।


आठ


कुलीन वर्ग के विशेषाधिकारों का बलात् उन्मूलन करके सर्वहारा के सामने गलत मिसाल रखने के कारण पूँजीपति वर्ग की निंदा करते समय कौंसिदेरों का खयाल था कि बहुत पहले, 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में ही फ्रांस में समाजसुधार की एक ऐसी योजना पेश कर सकना संभव था जो पद, प्रतिष्ठा और संपत्ति से परे तमाम फ्रांसवासियों को अपनी ओर खींच लेती। मुसीबत कुल यह थी कि ऐसी एक योजना बनानेवाला कोई था ही नहीं। ऐसी योजनाओं का आविष्कार किया जा सकता था, यह निष्कर्ष इस तथ्य से निकलता था कि उनका सामने आना संयोग पर निर्भर था। फूरिये ने तो इस विषय पर एक पूरा प्रबंधग्रंथ तक लिख डाला था जिसमें उन्होंने बतलाया था कि किस तरह उन्होंने संयोग से 'आकर्षण का चलनकलन' (कैलक्यूलस आफ़ अट्रैक्शन) खोज निकाला था। उन्होंने कहा कि न्यूटन की ही तरह उन्होंने अपनी प्रतिभापूर्ण खोज एक सेब के कारण की थी जिसे उन्होंने पेरिस के एक रेस्तरों में खाया था। बाद में उन्होंने यहाँ तक कहा कि 'चार सेब ही मशहूर हुए हैं, इनमें से दो (आदम का सेब और पेरिस का सेब) तो उस मुसीबत के कारण जाने जाते हैं जो उन्होंने पैदा की और दो विज्ञान को समृद्ध बनाने के कारण। फूरिये ने तो आगे बढ़कर यह भी कहा कि ये चार मशहूर सेब मानव-चिंतन के इतिहास में एक विशेष पृष्ठ पर उल्लेख के अधिकारी हैं।104 सेब के प्रति उनका कलाहीन आभार-भाव इस सच्चाई का एक अच्छा दृष्टांत है कि मानव का ज्ञान नियमों के अधीन विकसित होता है, इस बारे में फूरिये को कोई एहसास नहीं था। उन्हें पक्का विश्वास था कि खोजें पूरी तरह 'संयोग' पर निर्भर होती हैं। यह बात तक उनके ख़याल में नहीं आई कि मानव-चिंतन के इतिहास में खुद 'संयोग' का कृत्य एक कारण-कार्य संबंध के सहारे नियमों के अधीन सामने आनेवाले घटनाक्रमों पर निर्भर हो सकता है। काल्पनिक समाजवादियों ने यह बात नहीं मानी कि घटनाओं का क्रम विचारों की है प्रगति का निर्धारण करता है। इतना ही नहीं, उनका विश्वास था कि विचारों का विकास मानवजाति के ऐतिहासिक विकास का केंद्रीय कारण है। यह एक शुद्ध विचारवादी दृष्टिकोण था; इसे उन्होंने 18वीं सदी के उन फ्रांसीसी प्रबोधवादियों से उधार लिया था जो अक्खड़पन के साथ यही कहते थे कि विचार विश्व को संचालित 


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 61


करता है। फ्रांसीसी समाज के आंतरिक इतिहास में वर्ग संघर्ष की भूमिका पर संत-साइमन के गंभीर उद्गारों को पढ़कर कोई यह सोच सकता है कि वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने ऐतिहासिक विचारवाद के दृष्टिकोण को पूरी तरह त्याग दिया था। वास्तव में वे इस दृष्टिकोण से अपने अंतकाल तक मजबूती से चिपके रहे। यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने इतिहास की विचारवादी दृष्टि को उसकी अति तक पहुँचा दिया। वे विचारों के विकास को सामाजिक संबंधों के विकास का अंतिम कारण ही नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने विचारों में भी सबसे महत्वपूर्ण स्थान वैज्ञानिक विचारों को विश्व की वैज्ञानिक प्रणाली' को दिया जिनसे धार्मिक विचारों का जन्म होता है और फिर उनसे मानव की नैतिक धारणाओं का निर्धारण होता है। पहली निगाह में इसे समझना आसान नहीं है कि सेंत-साइमन किस प्रकार अपने अतिवादी ऐतिहासिक विचारवाद का तालमेल अपने इस सुविदित विचार से बिठाते थे कि संपत्ति संबंधी विधान समाज का बुनियादी विधान होता है। लेकिन सच्चाई यह है कि भले ही संत-साइमन का यह विश्वास रहा हो कि संपत्ति के संबंध किसी विशेष समाज व्यवस्था के आधार होते हैं, उन्होंने फिर भी उन्हें मानवीय भावनाओं और विचारों की उपज बतलाया। इस तरह ठीक 18वीं सदी के प्रबोध-दर्शन की तरह उनके नज़दीक भी विश्व का संचालन 'मत' (ओपिनियन) से होता है। यही विचारवादी दृष्टिकोण पूरा का पूरा उनके शिष्यों तक पहुँचा। ठीक यही दृष्टिकोण दूसरे काल्पनिक समाजवादियों के यहाँ मिलता है। हम पहले ही देख चुके हैं कि मानव जीवन के विकासक्रम से मानव-चिंतन के विकासक्रम को जोड़ने में फूरिये किस क़दर असमर्थ थे। उनके सबसे यशस्वी शिष्य कोसिदेरों ने लिखा: 'विचार तथ्यों के जनक होते हैं तथा आज के तथ्य कल के विचारों की संतानें हैं। काँसिदेरों ने खुद से यह नहीं पूछा कि कल के विचार कहाँ से आए। न ही किसी और काल्पनिक समाजवादी ने पूछा। जब भी उनका साबका इस सवाल से पड़ा कि आज के विचार-मसलन सेंत-साइमनवादी या रिवादी संप्रदाय के विचार-कल के तथ्य भला कैसे बनेंगे तब, 18वीं सदी के प्रबोधवादियों की ही तरह, उन्होंने खुद को सत्य की अजेय शक्ति का नाम लेने तक सीमित रखा। इस विचार का समर्थन करने के कारण उनके लिए यह स्वाभाविक ही था कि वर्ग को और इस संघर्ष के अरब-रूप में राजनीति को उन्होंने अस्वीकार किया, क्योंकि सत्य एक बार प्रकट हो जाए तो फिर सामाजिक वर्गों के लिए एकसमान सुलभ होना चाहिए। बात कुछ और भी थी। अधिक अवकाश पाने और कुछ निश्चित सीमा तक शिक्षित होने के कारण उच्च वर्गों के लोग सत्य को अपनाने में अधिक समर्थ है। इससे यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि काल्पनिक समाजवादियों की कार्यनीतियों का उनके ऐतिहासिक विचारवाद से गहरा संबंध था। मैं तो यहाँ और भी कहूँगा कि उनके राजनीतिक षड्यंत्र भी इस विचारवाद से असंबद्ध नहीं थे। फूरिये की मिसाल लीजिए। अगर एक इत्तफ्राक्रिया सेव के कारण इत्तफ़ाक्रिया


62 काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


उन्होंने सत्य की खोज कर ली तो फिर तो कोई भी इत्तफ़ाक्रिया स्थिति उसके प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकती थी। इसलिए तमाम दरवाज़ों पर दस्तक देना और हर नत्थू-खैरे को प्रभावित करने की कोशिश करना एकसमान उपयोगी है, और खास तौर पर उन लोगों को जिनके पास काफ़ी पैसा और काफ़ी शक्ति है। और इसीलिए फुरिये इस दुनिया के शक्तिपुरुषों को प्रभावित करने की जी-तोड़ कोशिश करते रहे, हालांकि जाहिर है उन्हें कोई खास कामयाबी नहीं मिली।


अपने विरोधियों की विचार प्रणालियों को कल्पनावादी बतलाते हुए विचाराधीन काल के समाजवादी पूरे भरोसे के साथ अपनी-अपनी प्रणालियों को वैज्ञानिक 106 कहते थे। वैज्ञानिक होने का मानदंड वे किस चीज़ को मानते थे? इसे कि कोई प्रणाली विशेष 'मानव की प्रकृति के संगत थी या नहीं? लेकिन विशेष सामाजिक संबंधों से स्वतंत्र रूप से मानव प्रकृति को, या यूँ कह लें कि सामान्यतः मनुष्य की प्रकृति को, आधार बनाने का मतलब ऐतिहासिक यथार्थ की धरती छोड़कर एक अमूर्त धारणा को अपना सहारा बनाना है, और यह सड़क सीधे कल्पनालोक तक ले जाती है। ये लेखक अपने विरोधियों पर कल्पनावादी होने का दोष लगाते हुए मानव प्रकृति की जितनी ही दुहाई देते हैं, उतनी ही अधिक स्पष्टता के साथ उनके अपने सिद्धांतों का कल्पनावादी चरित्र सामने आता है।


मानव प्रकृति पर अपनी धारणा को वैज्ञानिक कर्म का मानदंड स्वीकार करने के कारण काल्पनिक समाजवादी स्वाभाविक रूप से यह मानते थे कि एक परिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का निर्माण संभव है: यह परिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था वही थी जो मानव प्रकृति के बारे में किसी सुधारक विशेष की धारणा से पूरा-पूरा मेल खाती थी। काल्पनिक समाजवादियों के बीच, मिसाल के लिए भविष्य के समाज में वस्तुओं के वितरण के सिद्धांत को लेकर चलनेवाली गर्मागर्म बहसों का एक कारण यह भी था। वे इस बात को भूल गए कि समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ वितरण की पद्धति भी निश्चित रूप से बदल जाएगी।


इस तरह कल्पनावादी वह है जो किसी अमूर्त सिद्धांत के आधार पर एक परिपूर्ण समाज व्यवस्था गढ़ने के प्रयास करता है। विचाराधीन युग के सारे समाजवादी इसी श्रेणी में आते हैं। इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं कि उनके प्रति किसी भी तरह की दुर्भावना पाले बिना हम आज उन्हें कल्पनाबादी कहते हैं। विज्ञान के दृष्टिकोण से कल्पनावाद समाजवादी चिंतन के विकास का एक चरण मात्र है। इस चरण का अंत तभी जाकर हुआ जब सभ्य संसार के उन्नत समाज आर्थिक विकास के एक निश्चित स्तर तक पहुँचे। चेतना सामाजिक अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती; सामाजिक अस्तित्व चेतना का निर्धारण करता है।


हमने देखा कि यह परम सत्य काल्पनिक समाजवादियों की पकड़ से बाहर रहा। उनको पूरा विश्वास था कि सामाजिक अस्तित्व 'विचार' से निर्धारित होता


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 63


है। इस बात को ध्यान में रखकर ही हम यह समझने में समर्थ होंगे कि, मिसाल के लिए, सेंत-साइमन अपने 'धर्म' तक कैसे पहुँचे।


वे कहते हैं कि धार्मिक विचारों का जन्म विश्व की वैज्ञानिक प्रणाली से होता है। मतलब यह कि यह प्रणाली बदल जाए तो फिर धार्मिक विचार भी बदल जाएँगे। लेकिन यह प्रणाली मध्य युग में जो कुछ थी उसके मुक़ाबले बहुत अधिक बदल चुकी है, इसलिए समय आ गया है कि नए धार्मिक विचारों का उदय हो। इसी बात को मन में लिये सेंत-साइमन ने 'नयी ईसाइयत' का आविष्कार किया। यह आसानी से दिखाया जा सकता है कि वे खुद एक पक्के नास्तिक थे। इसलिए सवाल पैदा होता है उन्होंने फिर एक नये धर्म का सृजन क्यों किया? इस उलझन भरे प्रश्न का उत्तर यह है कि सेंत-साइमन धर्म को उसकी उपयोगिता की निगाह से देखते थे। धार्मिक विचार नैतिक धारणाओं को निर्धारित करते हैं और इसलिए जो भी अपने समकालीनों के नैतिक आचरण को प्रभावित करना चाहता है उसे धर्म का सहारा लेना ही होगा। यही सेंत-साइमन ने किया। अगर मेरी व्याख्या पाठक को अविश्वसनीय लगती है तो मैं उसे याद दिलाना चाहूँगा कि सेंत-साइमन इस प्रश्न पर भी 18वीं सदी की दृष्टि से विचार करते थे। मतलब कि वे यह मानते थे कि धर्मों का गठन बुद्धिमान 'विधि-निर्माताओं द्वारा समाज कल्याण के लिए किया जाता है।107


संभवतः इसी तरह के खयाल काबे की रचना Levrai Christianism suivant Jesus Christ' 108 के पीछे कार्यरत थे। 'सच्ची ईसाइयत' का आविष्कार करते समय काबे की इच्छा पुराने ज़मानों के बुद्धिमान विधि-निर्माताओं का अनुकरण करने की थी, यानी कि उनके उस रूप की जो 18वीं सदी के दार्शनिकों की कल्पना में रची-बसी थी।


यह सब कहते हुए मैं यह दावा नहीं करना चाहता कि यहाँ जिन समाजवादी लेखकों में हमारी दिलचस्पी है वे सभी धर्म पर 18वीं सदी के दृष्टिकोण से सहमत थे। यह एक अवांछित अतिशयोक्ति होगा। धर्म के प्रति उन सबके रवैये सेंत-साइमन या काबे जैसे नहीं थे। पहली बात तो यह है कि 18वीं सदी के दार्शनिक विचारों के ख़िलाफ़ जो रोमानी प्रतिक्रिया फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों में व्यापक रूप से प्रचलित थी, उसका प्रभाव भी 1830 और 1840 की दहाइयों के समाजवादियों पर, अर्थात् 'दूसरी पीढ़ी' के समाजवादियों पर पड़ा और इसने उन पर प्रबोध के दर्शन से विरासत में मिले धर्म-विरोधी विचारों के प्रभाव को सार्थक रूप से कम किया। सेंत-साइमन के अपने शिष्यों ने अपने गुरु द्वारा आविष्कृत नये धर्म के आकर्षण को अपने दिमाग़ नहीं, दिल से महसूस किया। नतीजा यह हुआ कि उनकी सभाएँ कभी-कभी वास्तविक धार्मिक भावातिरेक की भावना से संचालित की जाती थीं। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जब समाजवाद का उन दिनों के फ्रांसीसी प्रबुद्ध वर्ग पर भारी प्रभाव


64 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


पड़ा तब उसने ऐसे लोगों तक को आकर्षित किया जो कभी भी और किसी भी रूप में 18वीं सदी के दर्शन के प्रभाव में नहीं रहे। उनमें सबसे उल्लेखनीय नाम संभवतः ज्याँ लामेनाई का था।109 यह कोई संयोग नहीं था कि जार्ज साँ (George Sand) ने अपनी रचना Historie de mavie में बेहद जीवंत और मनमोहक रंगों में लामेनाई की तस्वीर खींची है। वे सचमुच एक बहुत उल्लेखनीय व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन यहूदी पुरोहितों की धार्मिक संभाषण की शक्तिशाली कला, एक क्रांतिकारी की प्रकृति और बदहाली की शिकार जनता के प्रति दिली हमदर्दी का समन्वय दिखाई देता है। उनकी रचना Paroles d'un croyant (1834) पढ़ने के बाद शातियोब्रायाँ ने कहा था 'यह पादरी अपनी घंटामीनार में एक क्रांतिकारी क्लब बनाना चाहता है।' ऐन मुमकिन है। लेकिन एक 'क्रांतिकारी क्लब' बनाने की कोशिश करते समय भी लामेनाई एक कैथलिक पादरी ही रहे। चर्च से संबंध तोड़ने के बाद भी उनके धार्मिक विचारों ने पुरानी धर्मशास्त्रीय प्रथाओं का लबादा नहीं उतारा और ठीक इसी कारण उनके धार्मिक विचारों और भावनाओं को उन दिनों के फ्रांसीसी समाजवाद वाला नहीं माना जा सकता। यही बात फिलिप ब्यूशेत्ज़110 के बारे में कही जा सकती है जो जवानी में थोड़े समय तक समाजवाद के मोहपाश में बँधे रहने के बाद जल्द ही कैथलिकवाद की ओर वापस आ गए।


फ्रांस में 'दूसरी पीढ़ी' के काल्पनिक समाजवादियों की 'धार्मिक तलाशों' की विशेषताएँ सिर्फ वैसे धर्म दिखाते हैं जैसे संत-साइमनवादियों के (और मैं दोहरा दूँ : न कि सेंत-साइमन के), पियरे लेरो आदि के थे। ये धर्म 18वीं सदी के प्रबोध के दर्शन के खिलाफ़ सामने आने वाली रोमानी प्रतिक्रिया से किस हद तक संबंधित थे इसे हम, प्रसंगवश, इस तथ्य से समझ सकते हैं कि अनेक सेंत-साइमनवादी उत्साह के साथ जोसेफ दे मैस्त्रे और उसी प्रवृत्ति के दूसरे लेखकों की रचनाओं को पढ़ते थे। यह महत्त्वपूर्ण स्थिति दिखाती है कि रोमानी प्रतिक्रिया ने फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद को ऐसे समय में प्रभावित किया जबकि खुद उसमें और स्वतंत्रता की किसी प्रकार की अभिलाषा में एक सिरे से कोई साझी बात थी ही नहीं। फलस्वरूप उन दिनों के समाजवादियों की 'धार्मिक तलाशों' की तुलना उनके हाथों वर्ग संघर्ष के अस्वीकार से तथा उनके किसी भी कीमत पर सामाजिक शांति सुनिश्चित करने के प्रयासों से की जा सकती है। ये तमाम बातें- एक धर्म की 'तलाश', वर्ग संघर्ष से चिढ़ तथा शांति से प्रेम जिसे उन्होंने एक कठमुल्लावाद बनाकर रख दिया - और कुछ नहीं बल्कि '1793 के महासंकट' के बाद पैदा होने वाली निराशा और ऊब का नतीजा थीं। काल्पनिक समाजवादियों की निगाहों में क्रांतिकारी संघर्ष का भयानक वर्ष उनके इस विश्वास के पक्ष में सबसे विश्वसनीय प्रमाण था कि सामान्यतः वर्ग-संघर्ष एक सिरे से व्यर्थ होता है। कुछ ने तो बल्कि यह भी कहा कि वर्ग संघर्ष की व्यर्थता 1793 के उदाहरण से सबसे अच्छी तरह साबित होती है।111 18वीं सदी के क्रांतिकारियों


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 65


से कोई हमदर्दी न होने के कारण उन्होंने जो कुछ क्रांति के दुश्मनों ने कहा और लिखा था उस पर सावधानी से विचार करना शुरू कर दिया था। वैसे तो प्रतिक्रिया के सिद्धांतकार उनको अपना पक्षधर बनाने में सफल नहीं हुए, वैसे तो उन्होंने 18वीं सदी के सैद्धांतिक कार्य को एक हद तक जारी रखा तथा अंशतः अपना एक अलग और एक अर्थ में नया रास्ता अपनाया, फिर भी प्रतिक्रिया ने उनके विचारों पर स्पष्ट छाप छोड़ी। अगर इस बात को ध्यान में न रखा जाए तो फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद के कुछ अहम पहलू समझ से परे ही रहेंगे। इनमें ही 1830 और 1840 की दहाई वाले रूपों में इस समाजवाद की 'धार्मिक तलाशें भी शामिल हैं।


नौ


अब समय है फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद की उस प्रवृत्ति के बारे में, थोड़े से शब्दों में सही, कुछ कहने का, जिसे मैंने पहले सामान्य नियम का अपवाद कहा है। पहली बात यह है कि सामान्य नियम के विपरीत यह प्रवृत्ति क्रांतिकारी भावना से भरी हुई थी। दूसरे, इसने राजनीति को खारिज नहीं किया। तीसरे, यह धार्मिक तलाशों' से कोसों दूर थी। इस प्रवृत्ति के सबसे उल्लेखनीय प्रतिनिधि आगस्त ब्लांकी थे112 जिन्होंने नारा दिया था: न तो ईश्वर, न मालिक!113 अपने दौर की आत्मा की इस क़दर उलट यह प्रवृत्ति भला आई कहाँ से ?


इसके मूल को समझने के लिए हमें यह याद करना होगा कि आरंभ में इसे बैब्यूफ़वाद कहा जाता था। जो लोग इस प्रवृत्ति से जुड़े थे, खुद को 18वीं सदी के अंतिम वर्षों के प्रसिद्ध साम्यवादी क्रांतिकारी बेब्यूफ़114 के अनुयायी मानते थे। 1880 के दशक के पूर्वार्ध में फ्रांसीसी बैब्यूफ़वादियों में सबसे प्रभावशाली व्यक्ति वह था जिसने 'बराबरवालों के षड्यंत्र' (कॉस्पिरेसी आफ़ इक्वल्स) में भाग लिया था। 115 यह व्यक्ति माइकैलेंजेलो का वंशज था, उसका नाम फ़िलिप्पो ब्यूनारोती था और उसने इस षड्यंत्र का एक इतिहास लिखा था।116 यह बात आम जानकारी का हिस्सा है कि वैब्यूफ़ तथा 'बराबरवालों का षड्यंत्र के दूसरे भागीदार घोर क्रांतिकारी थे। उन्होंने अपने घोषणापत्र में लिखा था: 'हम सच्ची समानता की मांग करते हैं या फिर मौत की। और हम इसे लेकर रहेंगे। इससे मतलब नहीं कि किस क्रीमत पर। बला टूटे उनके सरों पर जो हमारे और इसके बीच आकर खड़े हो जाते हैं,' वगैरह-वगैरह। 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवादियों की भाषा और इस भाषा में कहीं कोई समानता ही नहीं। और जो अपेक्षाकृत बहुत थोड़े से फ्रांसीसी समाजवादी बेब्यूफ और उनके साथियों के वचन के प्रति सच्चे रहे, वे किसी भी तरह सामाजिक शांति के चाहनेवाले नहीं थे। आगस्त ब्लांकी ने अपने दौर के फ्रांसीसी समाजवादियों के इस रुझान की अपमानजनक निंदा की; रहे वे लोग तो वे भी इस पक्के पानी


66 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

के अनथक क्रांतिकारी षड्यंत्रकारी को भय की दृष्टि से देखते थे।117 


 इस तरह हम देखते हैं कि यहाँ हम जिस प्रवृत्ति की विवेचना कर रहे हैं, यह कहाँ से आई। यह सीधे-सीधे 18वीं सदी की क्रांतिकारी आकांक्षाओं की निरंतरता में थी। चूँकि भारी क्रांतिकारी तूफ़ान ने फ्रांस की जनता को निढाल कर दिया था और प्रबुद्ध वर्ग के एक बड़े भाग को वर्ग संघर्ष के प्रति एक नकारात्मक रुख से मार दिया था, इसलिए यह प्रवृत्ति कुछ ज़ोर नहीं पकड़ सकी। यह फ्रांसीसी समाजवादी चिंतन की विशाल धारा में मात्र एक छोटे से हिलकोरे जैसी थी।118 यही कारण है कि इसे मैंने सामान्य नियम का अपवाद कहा है।


पाठक इस बात को समझ सकते हैं कि फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों के थोड़े से प्रतिनिधि जो 1793 के महासंकट' से पैदा होनेवाले भय से अप्रभावित रहे, ये 18वीं सदी की वैचारिक संपदा को अस्वीकार करते, इसका कहीं कोई विशेष कारण नहीं था। फलस्वरूप धर्म के प्रति उनका रुख ठीक वही था जो प्रबोध के फ्रांसीसी दर्शन के सबसे प्रमुख प्रवक्ताओं को दूसरों से अलग ठहराता था। यही स्रोत है आगस्त ब्लांकी की इस चुनौती का 'न तो ईश्वर, न मालिक!' यही बात उनकी राजनीति को समझ के बारे में कही जाएगी; यहाँ भी उन्होंने 18वीं सदी वालों का अनुकरण किया और इन लोगों ने राजनीति की ओर से मुँह नहीं मोड़ा; उलटे, उन्होंने राजनीतिक कार्यकलाप को ज़रूरत से ज्यादा महत्त्व दिया। उन्होंने बड़ी सादगी से यह मान लिया कि 'विधि-निर्माता' अपने आदर्श के मुताबिक तमाम सामाजिक संबंधों का, बल्कि नागरिकों की आदतों, रुचियों और आकांक्षाओं तक का पुनर्निर्माण कर सकता है। यह बात स्वतः स्पष्ट है कि विचाराधीन काल के बेब्यूफ़वादी और ब्लांकीवादी, जिन्होंने 'विधि-निर्माता' की अधिकतर ऐसी ही धारणा अपना रखी थी, राजनीतिक उदासीनता की ओर प्रवृत्त बिलकुल नहीं थे। बात ठीक उल्टी है लाज़िम था कि अपने साम्यवादी आदशों को साकार करने के लिए वे खुद को ऐसे ही 'विधि-निर्माताओं' की स्थिति में लाने की कोशिश करें। गुप्त संगठनों और योजनाओं के सहारे वे इसी स्थिति को पाने की उम्मीद करते थे। इस तरह उनकी कार्यनीतियाँ, जो 'विधि-निर्माता' की भूमिका के बारे में उनकी धारणा की तार्किक उपज थीं, उन दिनों के काल्पनिक समाजवादियों की कार्यनीतियों की ठीक उलटी थीं। लेकिन उनकी कार्यनीतियों को एक ठोस आधार देने के लिए यही काफ़ी नहीं था। सेंत-साइमन या फूरिये, काबे या पियरे लेरो के समाजवाद की तुलना में बेब्यूफ़वादियों और ब्लांकीवादियों का साम्यवाद कुछ कम काल्पनिक नहीं था। हाँ, उनका कल्पनावाद एक अलग ही क़िस्म का ज़रूर था। 'विधि-निर्माता की, अर्थात् राजनीति की शक्ति में जो विश्वास उन्होंने 18वीं सदी से ग्रहण किया था, ठीक उसी ने उन्हें कल्पनावादी बनाया। इस सिलसिले में उस दौर का क्रांतिकारी साम्यवाद समाजवाद से बहुत पीछे था जो वर्गों में सुलह के सपने तो देखता था और जिसने राजनीति का निषेध करके एक भयानक सैद्धांतिक


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 67


ग़लती की, पर फिर भी जिसने सामाजिक क्षेत्र संबंधी अध्ययनों से सिद्धांत को समृद्ध बनाया। नतीजा यह निकला कि कुछ काल्पनिक समाजवादियों ने, जो संख्या में सबसे अधिक थे, 'सामाजिक' सिद्धांत पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया जबकि सामान्य नियम के अपवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले दूसरे लोगों ने राजनीतिक कार्रवाई पर ध्यान लगाया। यकतरफ़ापन का पाप दोनों ने किया। ऐसे यकतरफ़ापन का खात्मा भविष्य में चलकर ही संभव था। इसके लिए सिद्धांत के क्षेत्र में एक पूरी क्रांति दरकार थी। समाजवाद ने जब इतिहास की विचारवादी धारणा का त्याग किया और भौतिकवादी धारणा को अपनाया तभी जाकर उसमें कल्पनालोक से दामन छुड़ाने की संभावना पैदा हुई। लेकिन समाजवाद का कल्पना से विज्ञान में संक्रमण यथार्थ जगत् में कैसे संभव हुआ, इसकी कहानी दर्ज करना प्रस्तुत लेख के दायरे से बाहर है। 119


टिप्पणियाँ


1. अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी साहित्य में 'समाजवाद' शब्द का प्रयोग सबसे पहले 19वीं सदी की चौथी दहाई में नज़र आता है। इनसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका (खंड 22, पृ. 205) में लेख 'सोशलिज्म' का लेखक कहता है कि इस शब्द को जन्म 'द एसोसिएशन आफ आल क्लासेज आफ आल नेशंस ने दिया जिसका गठन इंग्लैंड में 1835 में किया गया था पियरे लेरो का कथन है कि पहली बार इसका प्रयोग उन्होंने 1854 में एक लेख में किया था। जिसका शीर्षक दत इनदिविजुअल एन यू सोशलिज्म' (व्यक्तिवाद और समाजवाद) था। फिर भी यह बात कही जानी चाहिए कि उपर्युक्त लेख में लेरो ने इस शब्द का प्रयोग संगठन के विचार की अत्योक्ति के अर्थ में किया था। कुछ समय बाद इसका प्रयोग निचले वर्गों के कल्याण में वृद्धि के लिए और सामाजिक शांति सुनिश्चित करने के लिए समाजव्यवस्था के पुनर्निर्माण के किसी भी प्रयास के बारे में किया जाने लगा था। इस शब्द के अत्यंत अस्पष्ट अर्थ को देखते हुए प्रायः इसका प्रयोग शब्द साम्यवाद (कम्युनिज्म) के विरोध में किया गया है; यहाँ साम्यवाद से अभिप्राय उत्पादन के साधनों को, और कहीं-कहीं तो उपभोग की वस्तुओं को भी सामाजिक संपत्ति में रूपांतरित करके सामाजिक समानता की स्थापना के कहीं बहुत अधिक सुनिश्चित उद्देश्य से है। आजकल 'समाजवाद शब्द 'साम्यवाद' शब्द को लगभग पूरी तरह विस्थापित कर चुका है, लेकिन फ्रायदा यह हुआ है कि इसकी पहलेवाली अस्पष्टता समाप्त हो चुकी है। इसका मौजूदा अर्थ शब्द 'साम्यवाद' के अर्थ से काफी कुछ मेल खाता है।


2. कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिख एंगेल्स, पवित्र परिवार संपादक।


3. उपर्युक्त संपादक।


4. रिये का जन्म सानश्योन में 7 अप्रैल 1772 को हुआ था। 10 अक्तूबर 1837 को पेरिस में उनका निधन हुआ।


5. पुस्तक के मुखपृष्ठ पर 'लाइपजिम' छपा है।


6. फूरिये, उपर्युक्त, पृ. 51


7. यहाँ फूरिये का इशारा 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद 1793 में जैकोविनों की तानाशाही की स्थापना से है- संपादक। पूर्वोक्त पृ. 81


68 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


9. फ्रांसीसी भाषा में फूरिये को संकलित रचनाएँ (1841), जिल्द दो का पृ. 319 देखें। 

10. उपर्युक्त, जिल्द चार, पृ. 254 देखें फ़रिये हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि एक प्रति सिंह पर तयारी करते हुए कोई व्यक्ति पेरिस में नाश्ता,  ल्योन्स में दोपहर का भोजन और मार्सेइलीज में रात का भोजन कर सकता है। जरूरत बस यह है कि जब ये नेक पशु थक जाएँ तो उन्हें बदल दिया जाए।


11. उपर्युक्त पृ. 255 देखें।


12. यह पुस्तक 1808 में प्रकाशित हुई थी अर्थात् नेपोलियन प्रथम के शासनकाल में जो, जैसाकि सभी जानते हैं, 'आंदोलनकारियों के प्रति नरमी नहीं दिखाता था।


13. यह पुस्तक 1835 में प्रकाशित हुई थी और स्पष्ट है कि यह टिप्पणी (उसी वर्ष 28 जुलाई के रोज़) तुई फिलिप को मारने के लिए फ्रिएशी की कोशिश को नज़र में रखकर लिखी गई थी। 

14. इस पृष्ठ पर पृष्ठ संख्या नहीं पड़ी है, पर इसके बाद वाले पृष्ठ पर M-616 की संख्या पड़ी है। 

15. हम पहले ही देख चुके हैं कि इससे फूरिये की मुराद सभ्य समाजों के सामाजिक ढाँचे से है।


16. उपर्युक्त पुस्तक, पृ. 388 ।


17. उपर्युक्त, पृ. 8 । 

18. पेरिस में 17 अक्तूबर 1760 को जन्म वहीं 19 मई 1825 को निधन |


19. फ्रांसीसी भाषा में संत-साइमन की चुनी हुई रचनाओं (सेल्स 1859) की पहली जिल्द का पृ. 20 और 21 देखें। 


20. उपर्युक्त, पृ. 31


21. उपर्युक्त पृ. 27


22. जहाँ फूरिये दार्शनिकों के खिलाफ गरजते-बरसते हैं, वहीं सेंत-साइमन 'विधि-विशेषज्ञों' के ख़िलाफ़ झाग उगलते हैं। उनको राय थी कि इन्हीं के 'तत्त्वमीमांसी सिद्धांत' फ्रांसीसी क्रांति के असफल परिणामों को स्पष्ट करते हैं। Dusysteme industriel par Henri Saint-Simon (पेरिस, 1821, भूमिका, पृ. 1-8) देखें जिसके साथ यह उक्ति दर्ज है: प्रभु ने कहा एक-दूसरे से प्रेम और एक दूसरे की सहायता करो 'विधि विशेषज्ञों' या तत्वमीमांसी सिद्धांत के प्रतिनिधि के बारे में संत-साइमन की धारणा वैसी ही है जैसी 'दार्शनिक' या 'संदिग्ध विज्ञानों के प्रतिनिधि के बारे में (जैसी कि हमें उनकी पुस्तक से पता चलता है) फूरिये की धारणा है। हमारी राय में आज शब्द क्रांतिकारी प्रबुद्ध वर्ग इसी धारणा का परिचायक है।


23. इन शब्दों पर जोर स्वयं संत-साइमन का है। उपयुक्त पुस्तक में उनका परमार्थियों से संबोधन,' पू. 297, 298 और 302 देखें। जो लोग संत-साइमन के विचारों के विकास में दिलचस्पी रखते हैं उनके लाभार्थ में यह बात कहना चाहूँगा कि इसी पुस्तक में le noveau Christianisme और le Christianisme definitiy जैसी अभिव्यक्तियों मिलती है, और इसमें ही वे कभी-कभी ईसा को साथी संतों की शैली में अपनी बात कहते हुए नैतिक और राजनीतिक धर्मद्रोहियों को अपनी और बुलाते हुए (पृ. 310) नज़र आते हैं। धर्म को अपना आधार बनाने के संत-साइमन के प्रयासों को कैसे समझे, इसे हम आगे देखेंगे।


24. साम्यवादी जिस समानता के लिए प्रयासरत है, उसे साइमन में यही नाम दिया है। उनका दावा था कि ऐसी समानता सिर्फ पूरब के निरंकुशतंत्रों में समय है।


25.औधोगिक व्यवस्था, पृ. 205-07 


26 जन्म 1808 में निधन 1893 में


27. जोर हमारा


28. उपर्युक्त पृ. 2 और 52


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 69

29. उपर्युक्त, पृ. 16; ज़ोर कॉसिदेरों का। 30. उपर्युक्त, पृ. 63; ज़ोर कोसिदेरों का।


31. उपर्युक्त, पृ. 147


32. में यहाँ याद दिला दूँ कि कीसिदेरों की पुस्तिका 1836 में प्रकाशित हुई थी, अर्थात् लुई फिलिप के शासन के सबसे तूफ़ानी काल में।


33. ये कहते हैं (उपर्युक्त, पृ. 24) के वे लोग हरेक उत्तम भावना के साथ एक पुलिसवाले को बिठा देने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। यह बात सही अर्थों में और नाटकीय सीमा तक मुनासिब


34. उपर्युक्त, पृ. 57. जोर कॉसिदेरों का।


35. उपर्युक्त, पृ. 91 देखें उनकी रचना Priniciples du socialisme, manifeste de la democratic an XIX siecle ( समाजवाद के सिद्धांत 19वीं सदी में लोकतंत्र का घोषणा-पत्र), दूसरा संस्करण, पेरिस, 1847 देखें इस रचना में, जो उन दिनों लिखी गई थी जब राजनीति को खारिज करने की तरफ कोसिदेरों का रुझान कम हो गया था, क्रांतिकारी पक्ष को अन्यथा प्रतिक्रियावादी लोकतंत्र कहा गया है (पृ. 15) क्योंकि सिर्फ़ शांतिपूर्ण लोकतंत्र ही प्रगतिशील होता है। कॉसिदेरेंत ने तमाम क्रांतिकारियों में अपनी कठोरतम निंदा का पात्र राजनीतिक साम्यवादियों' को बनाया है (पृ. 46) जो "एक महान भौतिक क्रांति का रास्ता दृढ़ता के साथ स्वीकार करते हैं। इन कम्युनिस्टों के बारे में आगे चलकर कुछ कहूँगा।


36. फूरिये के एक और शिष्य थे ए पैगे जो पहले संत-साइमनवादी रह चुके थे। कहते हैं कि उनके सहकर्मियों ने 'सामाजिक प्रश्नों जैसी अधिक उपजाऊ जमीन में अपनी बुद्धि खपाने के लिए राजनीति के क्षेत्र को त्याग दिया था। (Introduction etude de la science sociate समाजविज्ञान का अध्ययन एक परिचय, पेरिस, 1838 देखें।) यहाँ राजनीति को दोटूक ढंग से सामाजिक प्रश्नों के क्षेत्र में होनेवाली गतिविधियों के मुक़ाबल रखा गया है। राजनीति के मुकाबले सामाजिक प्रश्नों को यूं रखना काल्पनिक समाजवादियों के एक भारी बहुमत की साझी विशेषता है। आगे हम देखेंगे कि इस सामान्य नियम के अपवादों की व्याख्या किस बात से होती है। लेकिन काल्पनिक समाजवादियों की लाक्षणिक विशेषता अपवाद नहीं, ठीक यही नियम है। राजनीति के मुकाबले सामाजिक प्रश्नों को यूं रखने का चलन, जो पश्चिम से उधार लिया गया है, माक्र्सवाद की विजय से पहले तक रूसी साहित्य में भी हावी रहा है।


37. इसी पत्रिका की दूसरी जिल्द में इनप्रतिन का लेख पृ. 479 देखें। 38. दिसंबर 1828 में इनफ्रेंतिन, बाजेयर और दूसरे सेंत-साइमनवादियों ने पेरिस में सार्वजनिक व्याख्यानों की एक श्रृंखला आयोजित की थी जिन्हें 'तारानी मार्ग के व्याख्यान' कहा जाता था। संत-साइमनवादी संप्रदाय के नेताओं का एक तंग का ही प्रत्येक व्याख्यान की विषयवस्तु पर बहस करता था। संत-साइमनयादी सिद्धांत परिचय का पहला संस्करण पेरिस से 1830 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 17 दिसंबर 1828 से 12 अगस्त 1829 के बीच दिए गए व्याख्यान शामिल थे।


39. संत-साइमनवादी संप्रदाय ने 1829 के अंतिम दिनों में एक धार्मिक संप्रदाय का रूप ले लिया तथा बाजेयर और इनप्रतिन इसके 'फ्रादर' घोषित किए गए। 1830 के अंत तक संत-साइमन के विचारों के सबसे पक्के समर्थक एक परिवार की तरह एक अलग इमारत में रहने लगे थे। आगे चलकर इनफ्रेंतिन और बाज़ेयर अलग-अलग हो गए और सेंत-साइमनवादी संप्रदाय का अंत हो गया।


40. संत-साइमन और इनफ्रेंतिन की रचनाएँ (फ्रांसीसी संस्करण), जिल्द चार, पेरिस, 1865. पृ. 58-59


देखें। 41. जोर लाशे का


70 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


42. उपर्युक्त, पृ. 70, 71 और 721


45. उपर्युक्त पृ. 581


44. जन्म पेरिस में 1797 में यहीं 1871 में निधन।


45. उनका से ग्लोब के नाम खुला पत्र देखें। (यह पत्रिका -साइमनवादियों का मुखपत्री जी 1824 में शुरू की गई और 1832 में बंद हो गई-संपादक ) 40. जन्म 29 अक्टूबर 1811 के रोत; 6 दिसंबर 1882 को निधन


47. श्रम का संगठन (फ्रांसीसी मूल), चौथा संस्करण, पेरिस, 1845 प्रस्तावना, पू. पाँच और 31-32 देखें इस पुस्तक का पहला संस्करण 1849 में प्रकाशित हुआ था। 48. जन्म 15 जनवरी 1809 के रोड, 19 जनवरी 1865 को नियन


49. ढों के पत्र हाथ में न होने के कारण में यह उद्धरण Abrege des oewares de Proudhon मे दे रहा हूँ जिसमें पृ. 414-15 पर यह पत्र छपा है हालांकि, बदनसीबी से पूरा नहीं उस है।


50. अराजकबाद राज्य को एक व्यर्थ की ऊपर से आरोपित कोई वस्तु माननेवाला सिद्धांत। जहाँ मार्क्सवाद के अनुसार ऐतिहासिक विकास के एक लंबे क्रम में ऐसी परिस्थितियों पैदा होगी कि राज्य की उपयोगिता न रहे और धीरे-धीरे उसका क्षय हो जाए, वहीं अराजकवादियों के अनुसार थोड़े से व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की कार्रवाई करके राज्य का नाश कर सकते हैं। यहाँ दों, बाकुनिन आदि जो नाम लिखे गए हैं उनके अलावा अग्रजकवादियों में एक प्रमुख नाम वास्त का भी है। कुछ अवसरों पर गाँधी के विचार भी, मुख्यतः तालस्वाय के प्रभाववश, ऐसे रहे हैं कि वे बहुत से पाठकों को अराजकवादी महसूस होते हैं संपादक।


51. संयवाद (सिंडिकलिज़म): 19वीं सदी के अंतिम और 200वीं सदी के आरंभिक दशकों में पश्चिमी यूरोप के मजदूर आंदोलन की एक निम्न-पूँजीवादी प्रवृत्ति अराजकवाद से कुछ हद तक मेल खाती यह प्रवृत्ति मज़दूर वर्ग के लिए राजनीतिक संघर्ष की कोई आवश्यकता नहीं समझती थी। संचवादियों का विचार यह था कि मात्र एक आम हड़ताल करके ट्रेड यूनियनें उत्पादन के सभी साधनों को अपने हाथ में ले सकती हैं तथा इस तरह पूंजीवाद का विनाश कर सकती हैं। संघवादियों के विचार में मज़दूर वर्ग के लिए न तो किसी राजनीतिक संगठन (पार्टी) की आवश्यकता है, न किसी वैचारिक और सांगठनिक प्रशिक्षण की, और न ही किसी क्रांति की संपादक


52. फ्रांसीसी गणराज्य (1848) के आरंभिक दिनों में राजकीय झंडे का सवाल भी उठाया गया। मजदूर तो लाल झंडे के पक्ष में थे मगर पूँजीपति वर्ग तिरंगे के पक्ष में या जो फ्रांसीसी क्रांति का और नेपोलियन के साम्राज्य का झंडा रह चुका था। आखिर मजदूरों के प्रतिनिधियों को मन मारकर


तिरंगे को ही फ्रांसीसी गणराज्य के परचम के रूप में स्वीकार करना पड़ा-संपादक। 53. ए देस्यार्टिन्स, पी जे प्रूदों, जिल्द एक, 1896, पृ 90 की टिप्पणी देखें।


54. उपर्युक्त, पृ. 99 से उद्धृत


55. जनता की आवाज़ शीर्षक वाला यह दैनिक पत्र प्रूटों द्वारा अक्तूबर 1849 से 14 मई 1850 तक पेरिस से प्रकाशित किया जाता रहा।


56. पी जे प्रूदों, साइने लेहरे डंड साइन लेबेन (पी जे प्रूदों उनका कृतित्व और उनका जीवन), जिल्द तीन, येना, 1896 में पृ. 100 पर कार्ल डोहूल द्वारा उद्धृत।


57.वोयेज एन इकारी, पेरिस, 1845, पृ. 565 देखें। ज़ोर लेखक का अपना है। काबे का जन्म 2 जनवरी 1788 को हुआ था और ये 8 नवंबर 1856 को दिवंगत हुए। उनकी इस पुस्तक का पहला संस्करण मार्च 1942 में प्रकाशित हुआ था। (यहाँ प्लेखानोव गलती पर हैं। कावे की पुस्तक का पहला संस्करण पेरिस से 1840 में ही प्रकाशित हुआ था तब इसका शीर्षक Voyage et aventures delord William Corisdall en Icarie था। 1842 में वास्तव में इसी पुस्तक का दूसरा संस्करण


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 71

Paavegeen Icaric, Roman Philosophique et sociale के शीर्षक से प्रकाशित हुआ-संपादक ) 

58. हम धार्मिक है, अर्थात् शांतिप्रेमी हैं और सभी व्यक्तियों, सभी वर्गों, सभी पक्षों से प्रेम करते हूँ...हम समझते हैं कि हिंसा हमेशा घृणित, हमेशा अनीश्वरीय होती है। यह बात शार्ल लेमोनिये ने संत-साइमनवादियों का आह्वान करते हुए 7 जुलाई 1832 को कही थी। उन्होंने आगे यह भी ऐलान किया कि सेत-साइमनवादी सभी पक्षों से प्रेम करते हैं लेकिन उनमें से किसी से नाता नहीं जोड़ते। फिर उन्होंने अपना खुद का कार्यक्रम प्रतिपादित किया जो उनकी राय में सभी राजनीतिक मतों वाले व्यक्तियों को एकजुट करने में समर्थ था (1) पेरिस से मार्सेइलीज़ तक एक रेल लाइन का फ़ौरन निर्माण, (५) पेरिस में जल आपूर्ति और गंदे पानी की निकासी की व्यवस्था में सुधार, (3) लोने से बास्तील तक एक सड़क का निर्माण, आदि।


59. फैलेस्तरियों उन प्रासादों को दिया गया नाम था जिनकी योजना फूरिये ने बनाई थी। उनकी योजना के अनुसार एक आदर्श समाजवादी व्यवस्था में उत्पादक संघों और उपभोक्ता संघों के सदस्य इन्हीं प्रासादों में रहेंगे और मिलकर काम करेंगे-संपादक। 


60. संत-साइमन और इनफ़तिन की रचनाएँ (फ्रांसीसी संस्करण), जिल्द आठ, पेरिस, 1866, पृ. 168 देखें। उपर्युक्त पत्र इसी जिल्द के पृ. 165-66 पर छपा है। बेरी की डवेज़ को 6 नवंबर (1852) को गिरफ्तार किया गया था और यह पत्र 9 नवंबर (1832) को लिखा गया था। इससे पता चलता है कि इनफ़तिन स्त्रियों को 'राजनीति में खींचने के लिए बेचैन थे। लेकिन जो कुछ कहा गया है उसके बाद यह कहने की शायद ही ज़रूरत पड़े कि यहाँ शब्द 'राजनीति' का एक बहुत ही अजीब-गरीब अर्थ था।


61. जारशाही रूस, आस्ट्रिया और प्रशा के राजतंत्रों द्वारा 1815 में कायम किया गया प्रतिक्रियावादी गठबंधन 'पवित्र गठबंधन' (होली एलायंस) कहलाता था। इसका उद्देश्य यूरोप के विभिन्न देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों को कुचलना और वहाँ राजतांत्रिक व्यवस्था बनाए रखना था। 


62. संत-साइमन और इनफ़तिन की रचनाएँ, पूर्वोक्त, जिल्द दस, पृ. 118-191


63. लेकिन ओलिंदे रोद्रिग्बे जैसे प्रमुख सेंत-साइमनवादी तक की इस पत्र पर अनुकूल प्रतिक्रिया रही।


[एस शालेत, सेंत-साइमनवाद का इतिहास (फ्रांसीसी), पृ. 315 की टिप्पणी देखें]


64. इस विषय पर संत-साइमन और इनफ़तिन की रचनाएँ, जिल्द दस, पृ. 200, 205 देखें। 


65. उन्होंने अपना अराजकता का सिद्धांत सेंत-साइमन के इस विचार से प्राप्त किया कि सामाजिक जीवन में शासन की भूमिका ऐतिहासिक विकास के क्रम में घटती जाती है और कालांतर में शेष नहीं बचेगी। 


66. ए. देस्यार्दिन्स, पी जे प्रूदों, जिल्द एक, पृ. 1901


67. यहाँ इशारा 2 दिसंबर 1851 के रोज़ नेपोलियन बोनापार्त के भतीजे लुई बेनापात द्वारा किए गए। प्रतिक्रांतिकारी तख्तापलट की ओर है। इसी लुई ने फिर नेपोलियन तृतीय के नाम से खुद को फ्रांस का बादशाह घोषित किया। लुई बोनापार्त की अठारहवीं यूमेयर में मार्क्स ने इस तख्तापलट का एक विस्तृत वर्गीय विश्लेषण प्रस्तुत किया- संपादक। 


68 पदों की उपर्युक्त पुस्तक के पाँचवें संस्करण का पृ. 99 देखें।


69.देखें Opinions litteraires, Philosophiques et industrielles, पेरिस, 1825, पृ. 144-45; संत-साइमन की रचनाएँ... पेरिस, 1832, पृ. 18 भी देखें। 


70. मिसाल के लिए कोसिदेरों की रचना समाजवाद के सिद्धांत (फ्रांसीसी), पृ. 20-21 देखें।


71. रचनाएँ पूर्वोक्त पृ. 59


72. यह रचना Organisateur में 1819 में प्रकाशित हुई थी और इसके कारण सेंत-साइमन पर मुकदमा भी चला प्रसंगवश इस साहित्यिक मुकद्दमे का अंत अभियुक्त की जीत पर हुआ और ज्यूरी ने


72 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


उन्हें दोषी नहीं पाया।


73. उत्पादक (फ्रांसीसी), जिल्द एक, पृ. 245 ।


74. ज़ोर हमारा।


75. उत्पादक, पूर्वोक्त, पृ. 245


76. उपर्युक्त, पृ. 558|


77. एक बहुत प्रमुख संत-साइमनवादी आइज़क पेरेइरे थे जो बाद में एक प्रसिद्ध वित्तपति बने। 1831 में राजनीति अर्थशास्त्र पर दिए गए व्याख्यानों में से एक में उन्होंने समकालीन समाज में धन के वितरण के सवाल की छानबीन करने का वादा करते हुए स्पष्ट कहा था 'हम इस जगत्-व्यवस्था की नैतिकता की छानबीन करेंगे। संत-साइमनवादी धर्म उद्योग और चित्त के लिए इसके सबक़ (फ्रांसीसी), पेरिस, 1832, पृ. 3 देखें। यह मत सोचें कि यहाँ 'नैतिकता' शब्द का आलंकारिक प्रयोग किया गया है। अपने व्याख्यानों के संकलन की भूमिका में पेरेइरे कहते हैं 'पहले तो व्याख्यानों में हम मूल्य की उस धारणा का खंडन करेंगे जिसकी आज के अर्थशास्त्री शिक्षा देते हैं; हमने इसके खिलाफ़ लड़ाई इसलिए की कि वह आज के समाज में मौजूद संघर्ष की, शत्रुता की अभिव्यक्ति है।' यह पूँजीवादी उत्पादन-संबंधों का विश्लेषण करने की बजाय पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों को नैतिकता की घुट्टी पिलाना है, और कुछ भी नहीं।


78. उपर्युक्त, पृ. 14 ।


79. प्रकाशित पांडुलिपियों (फ्रांसीसी), जिल्द 2, पृ. 23 बोर्गिन कृत फूरिये, पेरिस, 1905, पृ. 207 से उद्धृत।


80. शार्ल फ़रिये की संपूर्ण रचनाएँ (फ्रांसीसी), जिल्द तीन, पेरिस, 1841, पृ. 163-701 


81. उपर्युक्त, जिल्द चार, पृ. 193 ।


82. उपर्युक्त, जिल्द चार, पृ. 191-92 ।


83. प्रकाशित पांडुलिपियाँ, पूर्वोक्त, जिल्द तीन, पृ. 4 योगिन कृत फूरिये, पृ. 231 से उद्धृत 


84. ले सोशलिज्मे देव ते बियो मंदि, ओ ले वियों देखा लेस मोस, पेरिस, 1849, पृ. 13; समाजवाद के सिद्धांत (फ्रांसीसी), पूर्वोक्त, पृ. 6 से तुलना करें। 


85. समाजवाद के सिद्धांत (फ्रांसीसी), पृ. 22-23, 9-11।


86. फ्रांस के रेल कारोबार में इनफ़तिन ने खुद भाग लिया और लगता है इसे सुधारने में उन्होंने सहायता दी। 1846 के अंतिम दिनों में उन्होंने स्वेज नहर अध्ययन समिति का गठन किया, लेकिन यह उद्यम जब सफलता की ओर बढ़ रहा था, फ़र्दिनांद दे लेसेप्स ने इसे उनके हाथों से ले लिया। इस बारे में शालेंती, संत-साइमनवाद का इतिहास (फ्रांसीसी), पूर्वोक्त, पृ. 372, 398, 399 आदि देखे।


87. कॉसिदेरों की बेहद दिलचस्प पुस्तिका Deraison et dangers de I'engovement pour les chemins en fer, पेरिस, 1838 देखें फैलेंस्तरिया में उत्पाद का विभाजन इस तरह होना था : श्रम को 5/12, पूँजी को 4/ 12 और प्रतिभा को 3/12 भाग इस तरह तमाम बातों के बावजूद फरियादी इस अर्थ में सेंत-साइमनवादियों जैसे ही थे कि अपनी समाज निर्माण की योजना में उन्होंने भी पूँजी द्वारा श्रम के शोषण की गुंजाइश रखी। उन दिनों तमाम धाराओं के साम्यवादियों ने यह बात कही भी थी।


88. शालेती, पूर्वोक्त, पृ. 368।


89. यहाँ प्लेखानोव का इशारा रूस के क़ानूनी मार्क्सवादियों के प्रमुख सिद्धांतकार प्योत्र बर्नहार्दोविज स्त्रुवे  के एक कथन की ओर है। रूस में पूँजीवाद के विकास का विरोध कर रहे नरोदनिकों के खिलाफ़ अपनी पुस्तक रूस के आर्थिक विकास पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ (रूसी, सेंत पीतसंवर्ग,


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 73


1894) में स्त्रुवे  ने लिखा 'आइए हम अपने संस्कृति के अभाव को स्वीकार करें और प्रशिक्षण पाने के लिए पूँजीवाद की ओर चलें। 

90. श्रम का संगठन (फ्रांसीसी), दूसरा संस्करण, पृ. 10, 11, 50, 56 और 64 देखें।


91. दशक 1830-1840 का इतिहास (फ्रांसीसी), जिल्द एक, चौथा संस्करण, पृ. 8 की टिप्पणी देखें।


92. पियरे लेरो की रचना कुबेरतंत्र (फ्रांसीसी), बोसक, 1848, अध्याय 34 (सर्वहारा और पूँजीपति) में रेनो के उल्लेखनीय लेख के कुछ अंश पुनर्प्रकाशित किए गए हैं। लगता है लेरो की कृतियाँ (फ्रांसीसी), के असमाप्त संस्करण, पेरिस, 1850 की पहली जिल्द में पृ. 346-64 पर यह लेख पूरा का पूरा प्रकाशित किया गया था।


93. लेरो को बखूबी पता है कि उद्योगवाद पर उनके विचार संत-साइमन के विचारों से दुनियादी तौर पर भिन्न थे। वे अपने भूतपूर्व गुरु से शास्त्रार्थ तक करते हैं। 


94. उनकी पुस्तक के दूसरे संस्करण का पृ. 23-24 देखें, पहला संस्करण 1843 में प्रकाशित हुआ था।


95. उपर्युक्त, पृ. 97 और 167 ।


96. उपर्युक्त, पृ. 25


97. मेरा ख़याल है कि मिसाल के लिए, श्री पेशेखोनोव उस तर्कपद्धति को पूरी तरह स्वीकार करते। 

98. लेखों का संग्रह माल्थस और अर्थशास्त्री (फ्रांसीसी), जिल्द एक देखें। 99. उपर्युक्त, जिल्द एक, दूसरा संस्करण, पेरिस 1847, पृ. 286-90 देखें।


100. वर्ग संघर्ष के विचार का संत-साइमन द्वारा अस्वीकार ठीक-ठीक कहें तो कातिकारी कार्यकलाप का अस्वीकार था। जो लोग पुरानी व्यवस्था के अवशेषों के रक्षक थे उनके खिलाफ तीसरे जनवर्ग के शांतिपूर्ण संघर्ष की बात उन्होंने अस्वीकार नहीं की, बल्कि इसकी पैरवी ही की। सिर्फ मजदूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष का विचार ही उनकी तीखी और दोटूक निंदा का पात्र बनता। संत-साइमन अपने शिष्यों के मुकाबले राजनीति की ओर से कम उदासीन थे।


101. यह एक ऐसी गलती थी जो सिर्फ काल्पनिक समाजवादियों के यहाँ ही नहीं पाई जाती। राजनीतिक अर्थशास्त्र की विशेषताएँ (प्रारंभिक विवेचना) (फ्रांसीसी) में जे बी से कहते हैं: 'संपदा बुनियादी तौर पर राजनीतिक संगठन पर निर्भर नहीं होती। एक सुसंचालित राज्य किसी भी प्रकार के शासन में फूल-फल सकता है। ऐसे राष्ट्रों की मिसाले भी पता हैं जो निरंकुश राजाओं के शासन में समृद्ध बने, और ऐसे राष्ट्रों की भी जो जनता की सरकारों के अंतर्गत तबाह हो गए वगैरह-वगैरह। हम सब जानते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में जे बी से फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग के एक मिसाली प्रतिनिधि थे। 


102. निम्न-पूँजीपति वर्ग की 'पर्वत' (माउंटेन) पार्टी ने इटली की क्रांति को कुचलने के लिए फ्रांसीसी फ्रीजों को भेजे जाने के खिलाफ़ 18 जून 1849 को एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन का आयोजन किया। फौजियों ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया। 'पर्वत' पार्टी के अनेक नेता गिरफ्तार कर लिये गए, अनेक को निर्वासित कर दिया गया था फिर फ्रांस छोड़ने पर मजबूर किया गया। 


103.संत-साइमन और फूरिये के काल की तुलना में उन दिनों प्रबुद्ध वर्ग के प्रति उनका रवैया कुछ अधिक ही उदार था। लेकिन आम तौर पर क्रांतिकारी कार्यकलाप की निंदा दे करते ही रहे। 


104 में यहाँ यहूदियों के खिलाफ़ जनता और राजतंत्र के बीच गठजोड़ के बारे में तोसेनेल द्वारा प्रस्तावित योजना की याद दिलाना चाहूँगा


105. मेरा यह लेख देखें जिसमें वैज्ञानिक समाजवाद की संभावना पर बर्नस्टाइन की रिपोर्ट के ख़िलाफ़ आपत्ति की गई थी एंगेल्स की पुस्तिका समाजवाद काल्पनिक और वैज्ञानिक के तीसरे रूसी संस्करण में एंगेल्स की अपनी भूमिका के साथ एक भूमिका प्लेखानोव की भी थी। यह संस्करण


74 / काल्पनिक समाजवाद की धाराए


जेनेवा से 1902 में प्रकाशित हुआ था। यह मूलतः एडुआर्ड बर्नस्टाइन के लेख 'क्या वैज्ञानिक समाजवाद संभव है?" का जवाब था-संपादक )


106. Le socialisme devant le vieux monde, पृ. 29 ।


107. मिसाल के लिए, हमें पता है कि रियेवादी पत्रिका Ln Phalange को समाज-विज्ञान का मुखपत्र कहा जाता था। (यह पत्रिका 1832 से 1849 तक प्रकाशित होती रही और रिवेवादियों का मुखपत्र थी। पूरा शीर्षक Lo Phalarge Revue de la science sociale, politique, industrie sciences, arts and litterature था-संपादक) 


108. उन्होंने युपूई द्वारा 1798 में प्रकाशित एक पुस्तक Abrege de 1' origine de tous les cultes का जोरदार अनुमोदन किया जिसमें धर्म के बारे में ऐसा ही दृष्टिकोण व्यक्त किया गया था। 


109. इसका पहला संस्करण 1846 में प्रकाशित हुआ और कहते हैं कि मज़दूरों के बीच इसे भारी सफलता मिली।


110. जन्म 19 जून 1782 के रोज़: 28 फ़रवरी 1854 को देहावसान (यहाँ प्लेखानोद गलती पर हैं,


वे जिस लेखक की बात कर रहे हैं उसका नाम फेलिसिते-रोवेयर लामेनाइ था-संपादक)।


111. जन्म 1796 और देहावसान 1865 में ।


112. उनके मुक़ाबले सचेत पूँजीवादी विचारकों, जैसे गीज़ो, थियेरी, मिग्ने और बहुत से दूसरे लोगों ने, जो निश्चित ही 1793 के राजनयिकों की जरा भी सराहना नहीं करते थे, तब तक वर्ग संघर्ष के पक्के और सचेत पैरोकार रहे जब तक वर्ग-संघर्ष कुलीनों के खिलाफ़ पूँजीपति वर्ग का संघर्ष रहा। उन्होंने सामाजिक शांति का उपदेश 1848 के बाद ही देना शुरू किया जब सर्वहारा की कार्रवाई शुरू हुई। मैंने अन्यत्र इसकी विस्तृत विवेचना की है। मैंने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र का जो अनुवाद किया था उसके दूसरे संस्करण में मेरी भूमिका देखें। 


113. जन्म 1805 में, देहावसान 1880 में।


114. दुनिया की पहली मज़दूरवर्गीय क्रांति (18 मार्च 28 मई 1871) में, जिसे पेरिस कम्यून के नाम से जाना जाता है, फ्रांसीसी क्रांतिकारी ब्लांकी की भी एक भूमिका रही। ब्लांकी अपने समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर शीर्षक से ठीक नीचे यहाँ दिए गए नारे का उपयोग करते थे संपादक। 


115. वैव्यूफ का जन्म 1764 में हुआ। उन्हें मृत्युदंड दिया गया और 24 फ़रवरी 1797 को फाँसी पाकर उनकी मृत्यु हुई मृत्युदंड दिए जाने से कुछ ही घंटों पहले उन्होंने आत्महत्या की एक असफल कोशिश की थी (अगले लेख में वैब्यूफ के बारे में कुछ जानकारी और मिलेगी-संपादक ) 


116. बराबरवालों का षड्यंत्र 1795-96 के दौरान फ्रांस का एक काल्पनिक साम्यवादी आंदोलन था। इसका संचालन 'बराबरवालों के एक गुप्त दल ने किया जिसके मार्गदर्शक बैव्यूफ थे। क्रांति की तैयारी करना, क्रांति संपन्न करना तथा समाज के साम्यवादी पुनर्गठन के जरिये व्यक्तियों के बीच पूर्ण समानता स्थापित करना इस दल का उद्देश्य था। इस दल के साम्यवाद की कुछ मोटा-मोटी समतावादी विशेषताएँ थीं। जल्द ही इस दल का भेद खुल गया और आगस्तिन डार्थ (1769-1797) को मृत्युदंड दिया गया जबकि बाकी सदस्यों को देशनिकाला दे दिया गया-संपादक 

117.  ब्यूनारोती की यह पुस्तक 1898 में प्रकाशित हुई थी। इसका शीर्षक Conspiration Pour l'egalite dite de Babeuf … था। 


118. ब्लांकी राजनीतिक साम्यवाद की इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि थे जिसे कोसिदेरी सबसे घातक मानते थे।


119.  मैं ज़ोर देकर कहूँगा कि 18वीं सदी के अंत के क्रांतिकारी तूफान ने ही वर्ग संघर्ष के प्रति एक नकारात्मक रुख को जन्म दिया। कभी-कभार क्रांतिकारी कार्यकलाप के प्रति एक रुझान इस से नहीं था। आगे चलकर जी दो व्यक्ति से साइमनवाद के सर्वोच्च 'फ़ादर' बने उनमें


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 75


एक, अर्थात् बाज़ेयर, कभी कार्बोनेरी में शामिल थे। दूसरे बहुत से भावी समाजवादी भी कार्बोनेरी में शामिल थे। लेकिन कार्बोने की आकांक्षाएं शुद्ध 'राजनीतिक थी। मतलब यह कि उनका संपत्ति के संबंधों से कोई सरोकार नहीं रहा और इसलिए उनसे इस बात का कोई खतरा नहीं था कि वे 'अमीरों के गरीबों की लड़ाई का आह्वान करेंगे। समाजवाद मे संपत्ति के संबंधों से अवश्य सरोकार रखा और फलस्वरूप लोगों को उस लड़ाई की याद दिलाता रहा। यही कारण है कि बाजेयर, ब्यूशेतज  और दूसरे भूतपूर्व षड्यंत्रकारियों ने जैसे ही वे समाजवादी बने, तुरत-फुरत खुद को सामाजिक शांति के समर्थक घोषित किया। एक बार फिर कह दिया जाए: जो भी व्यक्ति फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों के मन पर '1793 के महासंकट' के प्रभाव को भूल जाता है, फ्रांस में काल्पनिक समाजवाद के इतिहास को नहीं समझ सकेगा।




76 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

19वीं सदी

 

का 


काल्पनिक


समाजवाद



19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी यूरोप का साहित्य, जैसा कि हमेशा और हर जगह होता है, सामाजिक जीवन की एक अभिव्यक्ति था। चूँकि उस युग के सामाजिक जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका उन घटनाओं ने निभानी शुरू कर दी थीं जिनके योग ने सामाजिक सिद्धांतों के क्षेत्र में तथाकथित सामाजिक प्रश्न को जन्म दिया, इसलिए काल्पनिक समाजवादियों की शिक्षा की एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करके उस दौर के साहित्य की समीक्षा का आरंभ करना उपयुक्त ही दिखाई देता है। साहित्य शब्द के संकीर्ण अर्थ में उसके इतिहास की सीमाओं से बाहर जाकर इस तरह का निरूपण करना सही अर्थों में साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने में सहायक ही होगा। लेकिन स्थान के अभाव के कारण मुझे अपने आपको 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवाद की सबसे महत्त्वपूर्ण धाराओं का संकेत देने तथा उनके विकास का निर्धारण करने वाले प्रमुख प्रभावों को स्पष्ट करने तक ही सीमित रखना होगा।


जैसा कि एंगेल्स ने ड्यूहरिंग के साथ अपने शास्त्रार्थ में कहा था, 19वीं सदी का समाजवाद पहली निगाह में उन्हीं निष्कर्षो का और आगे विकास दिखाई देता है जो 18वीं सदी के प्रबोध (इनलाइटेनमेंट) के दर्शन ने निकाले थे। एक मिसाल के तौर पर मैं इस बात का ज़िक्र करना चाहूँगा कि उस दौर के समाजवादी सिद्धांतकार तत्परता के साथ प्राकृतिक नियम1 का हवाला दिया करते थे जिसको प्रबोध काल के फ्रांसीसी दार्शनिकों के तर्कों में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। अलावा इसके, इसमें भी रत्ती बराबर शक नहीं कि आम तौर पर प्रबोध काल के दार्शनिकों ने तथा खास तौर पर फ्रांस में ला मेत्री, होलबाख, दिदेरो और हेल्थेतियस और इंग्लैंड में हार्टली और प्रिस्टली जैसे भौतिकवादियों ने मानव के बारे में जो विचार सामने रखे थे, समाजवादियों ने उन विचारों को पूरा का पूरा अपना लिया था। मसलन विलियम गाडविन (1756-1836) ने तो बहुत पहले ही भौतिकवादियों की इस प्रस्थापना को अपना आधार बनाया था कि हर व्यक्ति के गुणों और अवगुणों का निर्धारण वे परिस्थितियाँ होती हैं जिनका योग उसके जीवन का इतिहास होता है।2 इससे गाडविन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर उसकी परिस्थितियों के योग को एक सही चरित्र


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 79


प्रदान किया जाए तो दुनिया से दुगुणों का पूरी तरह उन्मूलन किया जा सकता है। इसके बाद (उनकी राय में - संपादक) उनके लिए बस ठीक-ठीक यह तय करने का काम बचा कि परिस्थितियों के इस योग को कौन से कदम वांछित चरित्र देने में समर्थ थे। उन्होंने इस प्रश्न  की छानवीन अपनी प्रमुख रचना इन्क्वायरी कनसर्निंग पॉलिटिकल जस्टिस एंड इट्स इनस्लूएंस आन जनरल वर्क्यू एंड हेपिनेस में की जो 1793 में प्रकाशत हुई थी। इस अध्ययन के निष्कर्ष बहुत कुछ उस चीज़ से मिलते-जुलते थे जिसे आज अराजवादी साम्यवाद कहा जाता है। 19वीं सदी के बहुत से समाजवादी इस बारे में उनसे गहरे मतभेद रखते थे। लेकिन वे गाडविन से इस बात में मिलते-जुलते अवश्य है कि उन्होंने भी अपना प्रस्थानबिंदु मानव-चरित्र के निर्माण के बारे में भौतिकवादियों की ही शिक्षा को बनाया जिसे उन्होंने आत्मसात् कर लिया था।


19वीं सदी की समाजवादी विचारधारा जिन सैद्धांतिक प्रभावों के अंतर्गत विकसित हुई, उनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यही था। व्यावहारिक प्रभावों में सबसे निर्णायक प्रभाव में 18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति तथा वह राजनीतिक क्रांति जिसे महान फ्रांसीसी क्रांति कहा जाता है- खासकर उसका आतंकवादी काल। कहने की जरूरत नहीं कि औद्योगिक क्रांति के प्रभाव को सबसे गहराई से ब्रिटेन में महसूस किया गया और महाक्रांति के प्रभाव को फ्रांस में।


(अ) ब्रिटिश काल्पनिक समाजवाद


एक


मैं ब्रिटेन को पहला स्थान बस इसलिए दे रहा हूँ कि दूसरे देशों के मुकाबले यही देश उस औद्योगिक क्रांति से सबसे पहले गुजरा जिसने भविष्य के सभ्य समाजों के आंतरिक इतिहास को एक लंबे समय तक निर्धारित किया। इस क्रांति की विशेषता थी मशीनी उत्पादन का तीव्र विकास जिसने उत्पादन के संबंधों को इस अर्थ में प्रभावित किया कि स्वतंत्र उत्पादकों की जगह किराये के मजदूरों ने ले ली; ये मजदूर पूँजीपतियों के कमान में और उन्हीं के लाभ के लिए कमोवेश बड़े पैमाने के उद्यमों में लगे थे। उत्पादन के संबंधों में आए इस परिवन ने ब्रिटेन की कामकाजी जनता पर बहुत ही तीखी और लम्बे समय तक मुसीबतें ढाई। तथाकथित बाड़ों (इनक्लोजर्स) ने जो छोटे से बड़े पैमाने की कृषि में संक्रमण से जुड़े हुए थे, इन हानिकारक परिणामों को और भी तीखा बनाया। पाठक इस बात को समझ सकता है कि बड़े भूस्वामियों द्वारा उन जमीनों पर कब्जा करना जो पहले ग्राम समुदायों की संपत्ति थीं तथा छोटे खेतों की बड़े खेतों में 'चकबंदी' (कंसालिडेशन), इन 'वाड़ों के मुख्य तत्व थे तथा इनबाड़ी के कारण देखती आबादी का एक अच्छा-खासा भाग लाज़मी तौर पर


80/काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

औद्योगिक केंद्रों की तरफ़ चला गया। यह बात भी आसानी से समझी जा सकती है कि अपने पुराने घरों से निकाल दिए गए इन ग्रामीणों ने श्रम बाज़ार में 'हाथों' की आपूर्ति में बढ़ोत्तरी की और इस तरह मज़दूरियों में कमी आई। 'औद्योगिक क्रांति' के फ़ौरन बाद के काल में कंगाली ने ब्रिटेन में जितना भयानक रूप ग्रहण किया था, उतना पहले कभी नहीं किया था। 1784 में निर्धन कर (पुअर टैक्स) कोई 5 शिलिंग प्रति व्यक्ति था और 1818 तक यह बढ़कर 13 शिलिंग 3 पेंस हो चुका था। बदहाली से लाचार होकर ब्रिटेन के कामगार व्यक्ति एक स्थायी उथल-पुथल की अवस्था में पहुँच गए। खेत मज़दूरों ने फ़ार्मों को जला दिया; औद्योगिक मज़दूरों ने कारखानों की मशीनों को तोड़-फोड़ डाला। ज़ालिमों के खिलाफ़ मज़लूमों के विरोध ने शुरू-शुरू में ऐसे ही रूप धारण किए जो अभी भी सहजवृत्ति की उपज थे। इस दौर के आरंभ में मज़दूर वर्ग का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा ही बौद्धिक विकास की उस अवस्था तक पहुँच सका था कि एक बेहतर भविष्य के लिए सचेतन संघर्ष आरंभ कर सके। यही हिस्सा मूलगामी राजनीतिक सिद्धांतों की ओर आकर्षित हुआ और यह फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का हमदर्द था। लंदन करेस्पांडिंग सोसायटी का गठन 1792 में ही हो चुका था; इसमें बहुत से मज़दूर, दस्तकार और छोटे व्यापारी शामिल थे। फ्रांसीसी क्रांतिकारियों की तर्ज पर चलते हुए इस सोसायटी के सदस्य एक दूसरे को नागरिक कहकर मुखातिब करते थे और उन्होंने बहुत ही क्रांतिकारी भावनाओं का प्रदर्शन किया, खासकर लुई 16वें का सिर काटे जाने के बाद अपने समय के उन्नत विचारों से प्रेरणा पाने वाले जनवादी तत्त्वों की संख्याशक्ति चाहे जितनी कम रही हो, उनकी हमलावर मनोस्थिति ने शासक हलकों को भारी चिंता में डाल दिया जो फ्रांस की उन दिनों की घटनाओं को कँपकँपाते हुए देख रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने अपने घरेलू 'जैकोबिनों के खिलाफ़ दमन के बहुत सारे क़दम उठाए जिनका लब्बे-लुवाब भाषण देने, ट्रेड यूनियनों का गठन करने और सभा करने के अधिकारों पर पाबंदियाँ लगाना था। साथ ही उच्च वर्गों के विचारधारात्मक प्रतिनिधियों ने अपने आपको पुलिस के व्यवस्था बनाए रखने के प्रयासों को बल पहुँचाने और आध्यात्मिक अस्त्र' का प्रयोग क्रांतिकारियों के खिलाफ़ करने पर मजबूर पाया। जनसंख्या के नियम की माल्थस द्वारा की गई छानबीन' इसी बौद्धिक प्रतिक्रिया के साहित्यिक स्मारकों में एक थी; 'राजनीतिक न्याय के बारे में गाडविन की उपर्युक्त रचना ने ही इसके लिए माल्थस को उत्तेजित किया। गाडविन ने इंसान की तमाम बदहालियों के लिए सरकारों और सामाजिक संस्थाओं के कार्यकलाप को ज़िम्मेदार ठहराया था जबकि माल्थस ने यह दिखाने की कोशिश की कि उनका जन्म सरकारों या संस्थाओं के कार्यकलाप से नहीं बल्कि प्रकृति के एक असाध्य नियम से होता है जिसके अनुसार जनसंख्या हमेशा जीवन-निर्वाह के साधनों के मुक़ाबले अधिक तेज़ी से बढ़ती है। 


वैसे तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति ने मजदूर वर्ग की दशा को बुरी तरह बिगाड़ा, मगर उसका मतलब देश की उत्पादक शक्तियों में एक बेपनाह बढ़ोत्तरी


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 81


भी था। यह बात तमाम शोधकर्ताओं के सामने दिन के उजाले की तरह स्पष्ट थी। इसके कारण उनमें से बहुतों को यह ऐलान करने का मौका मिला कि मजदूर वर्ग की तकलीफें बस अस्थायी थीं, वरना आम तौर पर सभी काम शानदार ढंग से चल रहे थे। लेकिन इस आशावादी दृष्टिकोण में सभी लोग साझीदार नहीं थे। ऐसे लोग भी थे जो गुफावासी महात्माओं की तरह शांत रहकर दूसरों को कष्ट उठाते नहीं देख सकते। ब्रिटेन में पिछली सदी के पूर्वार्द्ध का समाजवादी साहित्य इन्हीं लोगों में सबसे साहसी और सोच-विचार करने वालों की देन था।5


'सभ्यता' ने कामकाजी जनता की दशा की किस प्रकार प्रभावित किया था, इस प्रश्न पर अपनी पड़ताल के परिणाम डॉ. चार्ल्स हाल (1745-1825) ने 1805 में प्रकाशित कराए: 'सभ्यता' से उनकी मुराद ठीक-ठीक कहें तो सभ्य देशों में उत्पादक शक्तियों के विकास से थी।6 इसमें हाल ने यह साबित किया कि 'सभ्यता' के कारण जनता गरीब से गरीबतर होती जा रही है। कहते हैं: 'इस तरह कुछेक की दौलत या ताक़त में बढ़ोत्तरी दूसरों की गरीबी और गुलामी में बढ़ोत्तरी का कारण है।'7 


सिद्धांतों के इतिहास के लिए यह प्रस्थापना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाती है कि चार्ल्स हाल के रूप में ब्रिटिश समाजवाद ने 'अमीर और गरीब वर्गों के हितों के विरोध की कितने साफ तौर पर समझा था। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 'गरीब' वर्ग से हाल की मुराद उन लोगों के वर्ग से थी जी अपनी 'मेहनत' बेचकर जिंदगी बसर करता है, अर्थात् सर्वहारा से, जबकि 'अमीर' से उनका तात्पर्य पूँजीपतियों और भूस्वामियों से था जिनकी समृद्धि का आधार गरीबों का आर्थिक शोषण था।


चूँकि 'अमीरों' की जिंदगी 'गरीबों' के आर्थिक शोषण पर बसर होती है, इन दो वर्गों के हित एक दूसरे के ठीक उल्टे हैं। हाल की पुस्तक में एक परिच्छेद (पंद्रह) ऐसा भी है जिसका शीर्षक 'अमीरों और गरीबों के भिन्न-भिन्न हितों के बारे में है। हमारे लेखक के तर्कों का निचोड़ इस प्रकार है।


हरेक अमीर व्यक्ति को श्रम का खरीदार और हरेक गरीब व्यक्ति को बेचनेवाला समझना चाहिए। अमीर व्यक्ति का हित इसमें है कि गरीब व्यक्ति का जो श्रम उसने खरीदा है उससे जितना भी संभव हो, फायदा उठाए, और उसका जितना कम मुमकिन हो, दाम दे। दूसरे शब्दों में, मज़दूर श्रम पैदा किया है, अमीर उसका बड़े-से-बड़ा संभव भाग पाना चाहता है। दूसरी तरफ मज़दूर भी अपनी पैदावार का बड़े-से-बड़ा संभव भाग पाने की कोशिश करता है। सो फिर आपस में ठन जाती है। लेकिन यह बराबरी का संघर्ष नहीं होता। जीवन-निर्वाह के साधनों से वंचित मज़दूर आम तौर पर समर्पण के लिए मजबूर हो जाते हैं, जिस तरह रसद से वंचित एक फौजी दस्ता दुश्मन के आगे समर्पण कर देता है। अलावा इसके, हड़ताले अकसर फौजी ताकत के बल पर कुचल दी जाती हैं जबकि कुछ ही राज्य ऐसे हैं जिनमें कानून मालिकान को मज़दूरी गिराने के मकसद से अपना संघ बनाने से मना करता है।


82/ काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


हाल ने खेत मजदूर की स्थिति की तुलना किसान के बैल या घोड़े से की है। फर्क अगर हो भी तो मज़दूर के हक़ में नहीं होता। इसलिए कि मज़दूर मर जाए तो मालिक का कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन घोड़े या बैल के मरने पर उसका नुकसान होता है।8 मज़दूरों के साथ अपने संघर्ष में मालिकान अपने हितों की रक्षा के लिए भारी संकल्प का परिचय देते हैं। इसके विपरीत मज़दूर मालिकान के खिलाफ़ अपने संघर्ष में उतने दृढ़ नहीं रह पाते; गरीबी उनको प्रतिरोध की आर्थिक और नैतिक शक्तियों से वंचित कर देती है।9 इसके अलावा, कानून मालिकों की तरफ़दारी करता है और संपत्ति के अधिकारों के हनन की तमाम कोशिशों पर सख्त सजाएँ देता है।10 इसे देखते हुए सवाल पैदा होता है: वार्षिक राष्ट्रीय आय का वह भाग कितना बड़ा है जो कुल मिलाकर मजदूर वर्ग को जाता है? हाल में हिसाब लगाया कि यह वर्ग अपने श्रम की पैदावार के मूल्य का बस आठवाँ भाग पाता है; आठ भागों में से बाक़ी सात भाग 'मालिकान को जाते हैं।11


इस निष्कर्ष को निश्चित ही सही नहीं कहा जा सकता। हाल ने राष्ट्रीय आय में मज़दूरों के भाग को कम दिखाते हुए पेश किया है। लेकिन पाठक इस बात को समझ सकता है कि यहाँ अपने लेखक की गलती पर उँगली रखने की कोई जरूरत नहीं है। बजाय इसके, हमें यह देखना चाहिए कि हिसाब की इस गलती के बावजूद उन्होंने पूँजी के हाथों उजरती मज़दूरों के शोषण के आर्थिक सारतत्त्व को बखूबी समझ लिया था।


फिर बुभूक्षितम् किम् करोति न पापम्! हाल मानते थे कि 'जिस चीज़ को मूल पतन या कुचाल कहा जाता है वह पूरा का पूरा, या लगभग पूरा का पूरा, सभ्यता की प्रणाली का और खासकर उसकी सुस्पष्ट विशेषता का अर्थात् संपत्ति की भारी असमानता का परिणाम है।'12 सभ्यता गरीबों को भौतिक वस्तुओं से वंचित रखकर पतित बनाती है लेकिन उनके 'मालिकान' वे तमाम बुराइयाँ अपना लेते हैं जो अमीरों में आम होती हैं। सबसे बढ़कर तो वे तमाम बुराइयों में बदतरीन बुराई को, अपने साथ के प्राणियों को कुचलने की चाहत को अपनाते हैं। यही कारण है कि संपत्ति की असमानता का उन्मूलन कर दिया जाए तो सामाजिक नैतिकता का बहुत बहुत बहुत उत्थान होगा। लेकिन क्या उसका उन्मूलन किया जा सकता है? हाल का खयाल था: हाँ। वे इतिहास से तीन दृष्टांत देते हैं जिनमें संपत्ति की समानता स्थापित की गई थी: एक तो यहूदियों में, एक स्पार्टा में, और तीसरे पैरागुए में जेसुइटों की सरकार के तहत। इन तमाम मिसालों में, जहाँ तक हमें पता है, यह कोशिश एक बड़ी हद तक कामयाब रही।13


संपत्ति की असमानता का उन्मूलन करने के लिए जो क़दम उठाए जा सकते हैं, उनके सवाल पर चर्चा करते हुए हाल जोर देकर भारी सावधानी बरतने की सिफारिश करते हैं, और सिर्फ सावधानी की भी नहीं। कहते हैं: जरूरी है कि सुधार का काम उन लोगों के हाथों में हो जो निःस्वार्थ और निर्विकार हों। ऐसे लोग मजलूमों में


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 83


नहीं मिलने के; वे तो शायद बहुत अधिक हिंसा का सहारा लेने लगें। हमें बल्कि ज़ालिमों से अपील करनी चाहिए। कारण कि जहाँ मुआमले का संबंध निजी तौर पर हमसे न होकर दूसरों से हो, वहाँ इंसाफ़ के तक़ाज़ों को पूरा करने के लिए शायद ही हम कभी जल्दबाज़ी और हिंसा से काम लेते हों, भले ही हम उन तक़ाज़ों को कितनी से अहमियत देते हों। 'इस कारण', हाल कहते हैं, 'बेहतर यही होगा कि ग़रीबों की शिकायतें दूर करने का सिलसिला खुद अमीरों की तरफ़ से शुरू हो।14 दूसरे शब्दों में, सामाजिक शांति के हित में आवश्यक यही है कि संपत्ति की असमानता उन लोगों के हाथों समाप्त हो जो उससे तमाम फ़ायदे उठाते हैं। यह खूबी सिर्फ़ हाल की नहीं है; इस सवाल पर ऐसा ही विचार उस दौर के समाजवादियों के एक विशाल बहुमत का था, और सिर्फ़ ब्रिटेन नहीं बल्कि यूरोपीय महाद्वीप में भी था। ब्रिटेन के काल्पनिक समाजवादियों ने जिनका नाम सबसे ऊपर आता है, वे राबर्ट ओवेन भी इस सिलसिले में हाल के क़रीब ही थे।15


दो


साल 1800 के आरंभ के समय ओवेन न्यू लेनार्क (स्काटलैंड) की एक बड़ी सूती मिल के मैनेजर थे। इस मिल में काम कर रहे 'गरीब' काफ़ी मेहनत करते और थोड़ा पाते थे, शराबखोरी के आदी थे, अकसर चोरी करते पकड़े जाते थे, तथा आम तौर पर उनके बौद्धिक और नैतिक विकास का स्तर बहुत नीचा था। जब ओवेन इस मिल के मैनेजर बने, उन्होंने अपने मज़दूरों की हालत सुधारने के लिए फ़ौरन क़दम उठाए। उन्होंने काम का दिन घटाकर साढ़े दस घंटे कर दिया,16 और जब कच्चे माल की कमी के कारण मिल कुछ महीनों तक ठप्प पड़ी रही तब भी उन्होंने 'गरीबों' को उठाकर सड़क पर नहीं फेंका जैसा कि अकसर होता था, बल्कि जैसा कि 'व्यवधानों' (ब्रेकडाउंस) और संकटों के दौरान आज भी होता है। बजाय इसके, उन्होंने मज़दूरों को पूरी मज़दूरी देना जारी रखा। साथ ही उन्होंने बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा के प्रति भी भारी चिंता दिखाई। वे ब्रिटेन में किंडरगार्टेन शुरू करनेवाले पहले व्यक्ति थे। इन कोशिशों के नतीजे हर एतबार से शानदार रहे। मजदूरों के नैतिक स्तर में सुस्पष्ट सुधार आया। उनमें अपनी मानवीय गरिमा की भावना जाग उठी। साथ ही कारखाने के मुनाफ़े में अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी हुई। इन तमाम बातों ने मिलकर न्यू लेनार्क को उन तमाम लोगों के लिए बेहद आकर्षक कोई चीज़ बना दिया जो अपनी नेकदिली के चलते भेड़ों की जान बख्शना बुरा नहीं समझते थे, बशर्ते भेड़िये भूखे न रहें। एक परमार्थ पुरुष के रूप में ओवेन को दूर-दूर तक शोहरत मिली। बेहद ऊँचे पदों पर विराजमान लोग भी लपककर न्यू लेनार्क आने और वहाँ 'गरीबों' की बेहतरी देखकर गश खाने लगे। लेकिन नयू लेनार्क में ओवेन ने जो कुछ कर दिखाया था, उससे वे खुद संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने सही ही यह बात कहीं कि उनके मज़दूर भले ही अपेक्षाकृत खुशहाल हों, वे अभी भी उन्हों के गुलाम थे। इस कारण जिस परमार्थ पुरुष ने मज़दूरों के प्रति अपने परोपकारी


84 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

रवैये के सहारे बेहद कट्टर प्रतिक्रियावादियों तक को द्रवित कर दिया था, अब वही धीरे-धीरे एक समाज सुधारक बन गया और अपने 'चरमपंथ' से यूनाइटेड किंगडम के तमाम 'भद्रजन' के हवास उड़ाने लगा। 


हाल की तरह ओवेन भी इस विरोधाभासी स्थिति से हैरान थे कि ब्रिटेन में उत्पादक शक्तियों का विकास ठीक उन्हीं लोगों की गरीबी का कारण बन रहा था जो उन शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। कहते हैं दुनिया आज दौलत से उसे और बढ़ाने के कभी न खत्म होनेवाले साधनों से लबालब भरी है, और फिर भी बदहाली का राज! आज की तारीख में मानव समाज की वास्तविक स्थिति यही है। लोगों को दौलत, ज्ञान और संतुष्टि देने के साधन हैं तो सही मगर फिर भी, जैसा कि उन्होंने कहा, 'दुनिया की एक बड़ी आबादी गरीबी के जहन्नुम में जी रही है; उसे खाने के लाले पड़े हुए हैं। ऐसे हालात तो चलने से रहे; बेहतरी की दिशा में एक तब्दीली जरूरी है। और यह तब्दीली बेहद आसान होगी। दुनिया मौजूदा बुराई को जानती और महसूस करती है; यह प्रस्तावित नयी व्यवस्था पर नज़र डालेगी, उसे मंजूरी देगी, तब्दीली की इच्छा करेगी और तब्दीली आ जाएगी।17


लेकिन दुनिया प्रस्तावित सुधार का अनुमोदन करे, इसे सुनिश्चित करने के लिए पहले उसके सामने यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मनुष्य अपनी प्रकृति से क्या है, उसके इर्द-गिर्द की परिस्थितियों ने उसे क्या बना दिया है तथा बुद्धि के तक़ाज़ों से मेल खाने वाली नयी परिस्थितियों में वह क्या हो सकता है। ओवेन की राय में मनुष्य बुद्धिमान और सुखी बने, इससे पहले उसके मन का पुनर्जन्म आवश्यक है।18 मानव-मन के पुनर्जन्म को बढ़ावा देने के लिए ही ओवेन ने मानव चरित्र के निर्माण के बारे में अपने सुप्रसिद्ध निबंध लिखे थे। 19


गाडविन की तरह ओवेन का भी पक्का विश्वास था कि मनुष्य की इच्छाओं से स्वतंत्र, उसके चरित्र का निर्धारण उसके सामाजिक वातावरण की परिस्थितियाँ करती हैं। मनुष्य को उसके विचारों और आदतों की प्राप्ति उसके वातावरण से होती है और ये ही उसके आचरण के निर्धारक हैं। इसलिए किसी भी देश की जनता को, और ठीक इसी कारण से पूरे संसार की जनता को समुचित उपायों के द्वारा किसी भी तरह का चरित्र प्रदान किया जा सकता है- बदतरीन से लेकर बेहतरीन तक। इसके लिए आवश्यक साधन सरकार के हाथों में हैं। सरकार इस तरह के क़दम उठा सकती है कि जनता गरीबी, अपराध या दंड का नाम तक सुने बिना जीवन गुजार सके, क्योंकि ये चीजें गलत शिक्षा और गलत शासन के परिणामों के अलावा कुछ भी नहीं हैं। चूंकि सरकार का उद्देश्य शासित और शासक, दोनों को सुखी बनाना है, राजनीतिक सत्ता जिन लोगों के हाथों में है उन्हें फ़ौरन समाज व्यवस्था को सुधारने पर लग जाना चाहिए।20


इस सुधार की दिशा में पहला कदम यह बात आम जानकारी में लाना होगा कि मौजूदा पीढ़ी का कोई भी व्यक्ति अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 85

उसके बाद अंतरात्मा की स्वतंत्रता का जनता के आचरण पर गलत प्रभाव डालनेवाली संस्थाओं के उन्मूलन का, निर्धन क़ानून (पुअर ला) की समीक्षा का तथा अंतिम मगर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता की शिक्षा और ज्ञान के लिए आवश्यक क़दम उठाए जाने का ऐलान होना चाहिए। सुशासित होने के लिए हर राज्य को चाहिए कि अपना ध्यान मुख्य रूप से चरित्र निर्माण की ओर मोड़े; सबसे अच्छी तरह शासित राज्य यह होगा जिसके पास शिक्षा की सबसे अच्छी राष्ट्रीय व्यवस्था होगी।21 ओवेन कहते हैं: शिक्षा की व्यवस्था पूरे राज्य में यकरस होनी चाहिए।


ओवेन के बाद की लगभग तमाम साहित्यिक और आंदोलन संबंधी गतिविधियाँ ऊपर दर्ज विचारों को और आगे विकसित करने पर तथा जनमत के सामने जोश-खरोश के साथ उनको पुष्ट करने पर केंद्रित रहीं। इसी कारण, मनुष्य के चरित्र का निर्धारण उसके इर्द-गिर्द की परिस्थितियाँ करती हैं, इस सिद्धांत पर कायम रहते हुए ओवेन ने यह सवाल उठाया कि उनके दौर के ब्रिटिश मज़दूरों को बचपन से ही कितनी अनुकूल परिस्थितियों मिलती हैं। न्यू लेनार्क ने जो कुछ उन्होंने देखा-सुना था उसी के आधार पर सही, ओवेन मज़दूरों के जीवन की परिस्थितियों को बखूबी जानते थे। इसलिए उपरोक्त प्रश्न का वे बस यही उत्तर दे सकते थे कि ये परिस्थितियाँ अत्यंत प्रतिकूल हैं। उनकी राय में पूरे देश में कल-कारखानों के प्रसार ने देशवासियों का चरित्र बिगाड़ा है और इस बिगड़े चरित्र ने उन्हें अभागा बना दिया है। यह नैतिक बुराई बेहद अफ़सोसनाक है तथा कानून हस्तक्षेप करे और दिशा दिखाए तभी इसे दूर किया जा सकता है।22 मगर यह काम भी अनिश्चित काल तक के लिए टाला नहीं जा सकता। अगर मज़दूरों की स्थिति आज पहले के मुक़ाबले खराब है तो यह समय के साथ और बिगड़ेगी। कारखाने की वस्तुओं का निर्यात संभवतः अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। आज के बाद दूसरे राज्यों की प्रतियोगिता के कारण इसमें कमी ही आएगी और फिर इसके कारण मजदूर वर्ग की दशा पर गंभीर और चिंताजनक प्रभाव पड़ेगा।23


ओवेन ने मांग की कि मशीनों का उपयोग करनेवाले प्रतिष्ठानों में काम के दिन को घटाकर साढ़े दस घंटे करने के लिए संसद एक क़ानून बनाए। इस क़ानून में दस साल से कम उम्र के बच्चों के मज़दूरी करने पर, तथा इससे अधिक उम्र के जो बच्चे लिखने या पढ़ने में असमर्थ हैं उनके भी मजदूरी करने पर प्रतिबंध लिगाया जाए। यह कारखाना क़ानून की एक बहुत ही विशिष्ट मांग थी। ओवेन ने यह माँग 'लाखों उपेक्षित गरीबों के नाम पर सामने रखी। आखिरकार 1818 में संसद द्वारा बनाए गए एक कानून ने बहुत ही काट-छाँट के साथ सही, इस माँग को स्वीकार किया।24 लेकिन बदनसीबी से, ओवेन की माँग पर महज़ एक टुकड़ा फेंकनेवाला यह कानून भी रद्दी कागज़ का टुकड़ा बना रहा क्योंकि इसे लागू करने के लिए संसद ने एक सिरे से कोई कदम नहीं उठाया। बाद में मुख्य कारखाना निरीक्षक ने रिपोर्ट दी कि '1833 के क़ानून से पहले किशोरों और बच्चों से पूरी रात, पूरा


86 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएं


दिन या इच्छा करे तो रात-दिन भी काम कराया जाता था।25


 खुद को कारखाना क़ानून की माँग तक सीमित न रखते हुए ओवेन ने निर्धन कानून की समीक्षा कराने की भी कोशिश की। वे बेरोजगारों के लिए विशेष गाँव स्थापित कराना चाहते थे जहाँ वे खेतिहर और औद्योगिक कामों में लग सकें। ओवेन ने इन गाँवों को, जिनसे उन्होंने भारी आशा लगा रखी थी, एकता और आपसी सहयोग के ग्राम कहा।26 उनका खयाल था कि ये गाँव कामगार जनता को मुनासिब शिक्षा देने और उनमें जीवन के प्रति एक बुद्धिसंगत दृष्टिकोण विकसित करने के लिए विशेष उपाय करने के माध्यम होने चाहिए। ये 'गाँव' आसानी से समृद्ध बन सकते हैं, इस विश्वास के साथ वे उनको ऐसी समाजव्यवस्था की राह में पहला कदम समझते थे जिसमें न तो 'गरीब' हो न 'अमीर', न तो 'गुलाम' हों और न 'मालिक' हों। यह कोई संयोग नहीं कि उन्होंने 'गरीबों के राष्ट्रीयकरण' का प्रस्ताव रखा।27 यह उनके लिए आवश्यक भी था क्योंकि अपनी आरंभिक योजना में, जैसा कि उनके निबंधों की चर्चा करते हुए मैंने कहा, उन्होंने यह प्रस्ताव रखा था कि शिक्षा की व्यवस्था पूरे राज्य में यकरस होनी चाहिए।


बहुत पहले, 1817 में ही, ओवेन ने 'एकता और आपसी सहयोग के ग्रामों की स्थापना पर आ सकने वाले खर्च का एक विस्तृत अनुमान लगाया था। आज यह कहने की शायद ही जरूरत हो कि इस उद्यम के लिए आवश्यक धन देने का सरकार का कोई इरादा नहीं था। आगे चलकर 1834 में सरकार ने निर्धन कानून को बदला ज़रूर, मगर उस दिशा में बिलकुल नहीं जिसका सुझाव हमारे सुधारक ने रखा था। 'एकता और आपसी सहयोग के ग्रामों' की बजाय ऐसे कामघरों में बदहाल गरीबों को ठूंस दिया गया जो कैदखानों से भिन्न थे ही नहीं।


समाज-सुधार करने के लिए गवर्नरों को तैयार करने के प्रयास जब असफल हुए तब तक उनकी सदिच्छा में ओवेन की आस्था टूटी नहीं थी। फिर भी उन्होंने खुद को इसके लिए मजबूर पाया कि अपने खुद के साधनों से और समान विचार वाले लोगों की मदद से अपने हार्दिक विचारों को साकार करने का प्रयास शुरू करें। उन्होंने यूनाइटेड किंगडम में और उत्तरी अमरीका में कम्युनिस्ट कालोनियों बसानी शुरू की। एक अकेली बस्ती की तंग सीमाओं के अंदर कम्युनिस्ट आदर्श को व्यवहार में लाने के ये प्रयास असफल साबित हुए और ओवेन को लगभग पूरी तरह तबाह कर गए। इस असफलता के अनेक कारण थे। ऐसे सबसे महत्वपूर्ण कारणों में एक कारण खुद ओवेन ने स्पष्ट किया था। उन्होंने कहा कि ऐसे उद्यमों की सफलता के लिए आवश्यक यह था कि उनके अंगों में कुछ विशेष नैतिक रुझान हो, लेकिन एक ऐसे समय में जब सामाजिक वातावरण ने मानव चरित्र को इतनी बुरी तरह विकृत कर रखा था, ये रुझान आम तो थे ही नहीं। इस तरह यह बात सामने आई कि जनता को समुचित शिक्षा देने के लिए कम्युनिस्ट बस्तियों की आवश्यकता थी और दूसरी तरफ, यही शिक्षा कम्युनिस्ट बस्तियों को सफलता के लिए एक जरूरी आरंभिक शर्त भी थी। यही वह अंतर्विरोध है जिससे


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 87


पिछली सदी के दौरान अनेक, अनेक नेक इरादे टकराकर चूर हो गए, और इस अंतर्विरोध का समाधान कुल मिलाकर पूरे समाज के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही किया जा सकता है- मनुष्य के अस्तित्व की क्रमिक रूप से जन्म ले रही नयी दशाओं से मनुष्य के चरित्र का क्रमिक रूप से तालमेल बिठाने की प्रक्रिया में। मगर काल्पनिक समाजवाद ने ऐतिहासिक विकास की प्रगति का बहुत कम ध्यान रखा। ओवेन तो यह कहने तक के शौक़ीन थे कि नयी समाज-व्यवस्था यकवयक, 'रात में चोर की तरह' भी आ सकती है।


तीन


1817 में एक आम सभा में ओवेन ने श्रोताओं के सामने ये टिप्पणियाँ की: 'दोस्तो, मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि खुशी सचमुच क्या है, अभी तक इसे तुम जानने तक से वंचित रहे हो; इसका एकमात्र कारण गलतियाँ-भारी ग़लतियाँ-हैं जो हर धर्म की उन बुनियादी धारणाओं से एकमेक हो गई हैं जिनकी अभी तक मानव को शिक्षा दी जाती रही है। और नतीजा यह है कि इन्होंने मनुष्य को जीवन में बेहद असंगत और बेहद अभागा बना रखा है। इन व्यवस्थाओं की गलतियों के चलते वह एक कमज़ोर, मूढ पशु बन चुका है: एक गुस्से से चूर कठमुल्ला और कट्टरवादी या फिर एक निकम्मा पाखंडी।28 ऐसे शब्द ब्रिटेन में पहले कभी नहीं सुने गए थे और ये ओवेन के ख़िलाफ़ 'भद्रलोक' को आग-बगूला करने के लिए पर्याप्त थे। वे खुद भी देख रहे थे कि ये ‘भद्र’ लोग उनको धर्मद्रोही ठहराकर ऐंढने लगे हैं। लेकिन इससे उनकी स्पष्टवादिता में या सत्ताधारियों की सदिच्छा को लेकर उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई। 1830 में उन्होंने 'सच्चे धर्म के बारे में दो व्याख्यान दिए। मगर इन व्याख्यानों से 'सच्चे' धार्मिक सिद्धांतों की बुनियादी विशेषताओं की एक धुँधली सी तस्वीर ही सामने आती है। 29 लेकिन ये तमाम बातें अपनी जगह, ये अभी तक मौजूद धर्मों के प्रति ओवेन के गहरे अपमान-भाव के प्रमाण अवश्य हैं। पहले व्याख्यान में उन्होंने इन धर्मों को फूट, आपसी नफ़रत और अपराध का एकमात्र स्रोत घोषित किया जिन्होंने मानव जीवन को अँधेरे में धकेल रखा है। दूसरे व्याख्यान में उन्होंने कहा कि उन्होंने दुनिया को एक लंबा-चौड़ा पागलखाना बना रखा है। फिर उन्होंने यह भी दिखाया कि उनके खिलाफ़ लड़ने के लिए फ़ौरी उपाय करने की कितनी आवश्यकता थी। यह बात यूनाइटेड किंगडम के तमाम 'भद्रलोक' को आगबबूला करने के लिए पर्याप्त क्या, उससे भी अधिक थी। हम देख सकते हैं कि उनमें से कोई भी शख्स धर्मों के खिलाफ़ क़दम उठाने की ताईंद नहीं करेगा, यह बात खुद ओवेन को समझ लेनी चाहिए थी। लेकिन ठीक यही बात थी जिसे वे समझना नहीं चाहते थे।


दूसरे व्याख्यान में ओवेन ने कहा कि जिन लोगों ने सत्य का ज्ञान पा लिया है, उसे अमल में लाने में सरकार की मदद करना उनका नैतिक कर्त्तव्य है। फिर उन्होंने अपने श्रोताओं और पाठकों का आह्वान किया कि धर्मों के खिलाफ़ लड़ने के बारे में बादशाह और संसद के दोनों सदनों को याचिकाएँ भेजें। इस याचिका


88 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के मुसव्विदे में यह बात मान ली गई थी कि बादशाह तो अपनी प्रजा की खुशहाली से अधिक और कुछ नहीं चाहता लेकिन प्रजा की खुशहाली तभी मुमकिन है जबकि सत्य और प्रकृति का एक धर्म मौजूदा अप्राकृतिक धर्म की जगह ले ले जिसकी बदनसीबी से आज भी उन्हें शिक्षा दी जा रही है। आखिरी बात यह धर्म समाज के लिए कोई ख़तरा पैदा किए बिना भी कामयाब हो सकता है; अधिक से अधिक थोड़ी-सी अस्थायी असुविधा होगी। इसलिए बादशाह को अपनी उच्च स्थिति का सहारा लेकर अपने मंत्रियों को प्रेरित करना चाहिए कि वे मानव-चरित्र के निर्माण के सिलसिले में धर्म की भूमिका की छानबीन करें। संसद के दोनों सदनों को दी गई याचिका भी इसी भावना से भरी हुई थी।30 श्रोताओं और पाठकों ने ओवेन की याचिकाओं के मुसव्विदों का अनुमोदन किया। कहने की जरूरत नहीं कि इन याचिकाओं ने ओवेन के ध्येय को रत्ती बराबर भी आगे नहीं बढ़ाया।


किसी विशेष सामाजिक आधार पर विकसित होने वाली धार्मिक धारणाएँ उसी आधार का अनुमोदन करती हैं। जो शख्स धर्म पर हमला करता है, उसके सामाजिक आधार को झकझोरता है। इसलिए सवाल जहाँ धार्मिक आस्थाओं का होता है, व्यवस्था के पहरेदार कभी बरदाश्त का माद्दा नहीं दिखाते। उनमें धर्म के ख़िलाफ़ लड़ने का रुझान तो और भी कम होता है। ओवेन ने इसी बात को अनदेखा किया। मगर उसका मतलब फिर यही निकला कि मानव चरित्र के निर्माण संबंधी अपनी ही शिक्षाओं से जो भी व्यावहारिक निष्कर्ष निकल सकते थे, वे उन्हें निकालने में असमर्थ रहे।


अगर हर व्यक्ति विशेष का चरित्र उसके पालन-पोषण की दशाओं से निर्धारित होता है तो ज़ाहिर है कि हर विशेष सामाजिक वर्ग का चरित्र भी समाज में उसकी स्थिति से निर्धारित होगा। जो भी वर्ग दूसरे वर्गों के शोषण पर जिंदगी बसर करता है, हमेशा सामाजिक अन्याय का समर्थन करने के लिए तैयार मिलेगा, उसके खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए नहीं। समाज से वर्गीय भेदों को समाप्त कर सकने वाले सुधारों की दिशा में कुलीनों और पूंजीपतियों को ओवेन जिस सीमा तक प्रेरित करने की आस लगाए हुए थे, उस सीमा तक बिना जाने ही वे उसी अंतर्विरोध से टकराते रहें जिससे टकराकर 18वीं सदी का भौतिकवादी दर्शन चूर-चूर हो चुका था। उस दर्शन की शिक्षा यह थी कि अपने तमाम विचारों और अपनी आदतों के साथ मनुष्य सामाजिक वातावरण की पैदावार है। पर साथ ही उसने यह दोहराना भी बंद नहीं किया कि अपने तमाम गुणों के साथ सामाजिक वातावरण जनमत की पैदावार है। 'जनमत ही विश्व का संचालन करता है-यही बात भौतिकवादी कहते रहे, और उनके साथ 18वीं सदी में प्रबोध-काल के तमाम दार्शनिक भी कमोबेश प्रबुद्ध निरंकुश शासकों से उनकी दुहाइयों का कारण था, क्योंकि वे 'जनम की शक्ति में पूरा-पूरा विश्वास रखते थे। 'जनमत' में उतना ही पक्का विश्वास राबर्ट ओवेन को भी था। 18वीं सदी के भौतिकवादियों का अनुयायी होने के कारण उन्होंने उनका एक-एक शब्द दोहराया कि 'जनमत ही विश्व का संचालन करता है।31 उन्हीं की


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 89


मिसाल पर चलते हुए उन्होंने 'गवर्नरों' को प्रबुद्ध बनाने की कोशिश की। मज़दूर वर्ग के बारे में स्पष्ट रूप से वे एक लंबे समय तक उन्हीं रायों से संचालित होते रहे जो उन्होंने न्यू लेनार्क में क्रायम की थीं। अपनी पूरी बिसात लगाकर उन्होंने 'कामगार गरीबों की मदद करने की कोशिश की, लेकिन उनकी स्वतंत्र कार्रवाई में उन्हें कोई भरोसा नहीं था। पर उनकी स्वतंत्र कार्रवाई में कोई भरोसा न होने के कारण वे उनके लिए बस एक रास्ते की सिफारिश कर सकते थे : अमीरों से कभी कोई टकराव मोल न लेना बल्कि हमेशा इस तरह का व्यवहार करना कि अमीर लोग कभी समाज सुधार की पहल करने से न डरें। अप्रैल 1819 में उन्होंने अख़बारों में 'मज़दूर वर्गों के नाम एक संबोधन'32 प्रकाशित कराया। अपनी हालत को लेकर मज़दूर वर्ग गुस्से से उबल रहे थे, अफ़सोस के साथ इस बात का ज़िक्र करने के बाद उन्होंने अपनी बात दोहराई कि मनुष्य का चरित्र उसके सामाजिक वातावरण से निर्धारित होता है। इस बात को याद रखते हुए, उनकी राय में, मजदूरों को कभी 'अमीरों' को, 'गरीबों' के प्रति उनके रवैये का दोषी नहीं ठहराना चाहिए। अमीर तो बस एक काम करेंगे अपनी विशेषाधिकारों से संपन्न सामाजिक स्थिति को बनाए रखना। मजदूरों को इस इच्छा का सम्मान करना चाहिए। और तो और, अगर विशेषाधिकारों से संपन्न लोग कुछ और दौलत कमाना चाहें तो मजदूरों को उनका विरोध नहीं करना चाहिए। ज़रूरत इसकी है कि व्यक्ति अतीत से नहीं, भविष्य से सरोकार रखे अर्थात्, दूसरे शब्दों में, सारा ध्यान समाज-सुधार पर केंद्रित करे। पाठक चाहे तो पूछ सकता है वह सुधार भला कौन सा नया तत्त्व लेकर आता जो विशेषाधिकारों को सुरक्षित ही नहीं रखता बल्कि विशेषाधिकारों से संपन्न लोगों को और भी संपन्न बनाता? बात मगर यह है कि ओवेन की राय में आज मानवजाति के हाथों में जो विराटकाय उत्पादक शक्तियाँ मौजूद हैं वे मजदूरों द्वारा दी गई तमाम रिआयतों की भरपाई कर देंगी। शर्त बस यह है कि इन उत्पादक शक्तियों का सुनियोजित उपयोग किया जाए। बाद में आनेवाले विचारक रोडबर्टस की तरह ओवेन ने भी इस बात पर ज़ोर नहीं दिया कि मज़दूरों को उनकी मेहनत की पैदावार पूरी-पूरी मिलें; हाँ, इसमें उनका भाग बहुत छोटा नहीं होना चाहिए। जैसा कि हम देख रहे है, उनका कम्युनिज्म एक हद तक सामाजिक असमानता को झेलने के पक्ष में था; बस यह असमानता समाज के नियंत्रण में होनी चाहिए और समाज की क़ायम की हुई सीमाओं से बाहर नहीं जानी चाहिए। ओवेन को पूरा-पूरा विश्वास था कि अमीर और गरीब, शासक और शासित का वास्तव में हित एक ही था।33 अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे सामाजिक शांति के पक्के पैरोकार बने रहे। 


हरेक वर्ग-संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है। जो भी वर्गों के संघर्ष के खिलाफ़ होता है, स्वाभाविक है कि वह उनकी राजनीतिक कार्रवाइयों को कोई महत्त्व नहीं देता। आश्चर्य नहीं कि ओवेन संसदीय सुधार के विरोधी थे। उनकी समझ थी कि सामान्यतः चुनावी अधिकार तब तक 'वांछित नहीं हैं जब तक जनता को


90/ काल्पनिक समाजवाद की धाराएं

समुचित शिक्षा नहीं मिलती। वे अपने दौर की लोकतांत्रिक और गणराज्यवादी आकांक्षाओं के समर्थक नहीं थे। सोचते थे कि अगर गणराज्यवादी और लोकतंत्रवादी सरकारों को धमकी देना बंद कर दें तो ऐन मुमकिन है कि दुनिया के संचालन में एक लाभदायी परिवर्तन आ जाए।34


ओवेन कभी चार्टिस्ट आंदोलन35 के सदस्य नहीं रहे जो तब मजदूरों के पूरे पूरे राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ रहा था। लेकिन चूंकि उच्च वर्गों ने उनकी समाज-सुधार की योजनाओं को समर्थन देने की ज़रा सी भी इच्छा नहीं दर्शाई, मन मारकर आखिर उन्हें मज़दूर आंदोलन को ही अपनी उम्मीदों का केंद्र बनाना पड़ा। 1830 के दशक के आरंभिक वर्षों में जब इस आंदोलन का जन-आधार फैला, बल्कि यह खतरे की घंटी बन गया, तब ओवेन ने अपने चिर-संचित विचारों को साकार करने के लिए सर्वहारा की बढ़ती शक्ति का उपयोग करने का प्रयास किया। सितंबर 1832 में उन्होंने लंदन में एक 'समतामूलक श्रम-विनिमय बाजार' की स्थापना की, यह नाम उन्हीं का दिया हुआ है। यह लगभग उन्हीं दिनों की बात है जब ट्रेड यूनियनो से उनके घनिष्ठ संबंध स्थापित हुए। लेकिन यहाँ भी उनकी आशाओं के अनुरूप व्यावहारिक परिणाम नहीं निकले।


समतामूलक विनिमय (इक्विटेबिल एक्सचेंज) का अर्थ वस्तुओं के उत्पादन में लगे अधिकतम श्रम के आधार पर उनका विनिमय है। लेकिन अगर कोई खास उपज सामाजिक माँग के अनुरूप नहीं है तो उसे कोई नहीं खरीदेगा और इसलिए उसके उत्पादन में लगा श्रम बेकार जाएगा। वस्तुओं का विनिमय हमेशा उनमें से हरेक में निहित श्रम की मात्रा के अनुपात में हो, या दूसरे शब्दों में मूल्य (वैल्यू) का नियम दामों (प्राइसेज़) के लगातार उतार-चढ़ाव के माध्यम से कार्यरत न हो, इसके लिए उत्पादन का सुनियोजित संगठन अनिवार्य है। उत्पादन का संगठन इस तरह से होना चाहिए कि हरेक उत्पादक का काम चेतन रूप से सुनिश्चित सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के काम आए। जब तक स्थिति ऐसी नहीं होती, दामों के उतार-चढ़ाव से बचा नहीं जा सकता, जिसका मतलब यह हुआ कि 'समतामूलक विनिमय' भी असंभव है। लेकिन जब यह नियोजित उत्पादन कार्यरत होगा, 'समतामूलक विनिमय' की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी। तब वस्तुओं का एक-दूसरे से विनिमय भी नहीं होगा, इसकी बजाय समाज द्वारा तय की गई दरों पर सदस्यों के बीच उनका वितरण किया जाएगा। ये 'समतामूलक विनिमय बाज़ार' इस बात के प्रमाण थे कि आर्थिक प्रश्नों में ओवेन और उनके अनुयायियों की चाहे जितनी भी दिलचस्पी रही हो, उन्होंने अभी भी एक तरफ माल (असंगठित) उत्पादन और दूसरी तरफ कम्युनिस्ट (संगठित) उत्पादन के अंतर को नहीं समझा था।


ट्रेड यूनियनों के साथ खड़े होकर ओवेन ने आशा की थी कि वे पूरे देश में तेजी के साथ सहकारी समितियों की एक श्रृंखला खड़ी करने में उनकी मदद करेंगी और ये सहकारिताएँ नयी समाज व्यवस्था का आधार होंगी। उनकी स्थायी आस्था


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 91


के ही अनुरूप यह सामाजिक क्रांति भी किसी तरह के संघर्ष के बिना संपन्न होनी थी। इसके लिए प्रयासरत ओवेन ने वर्ग-संघर्ष के एक अस्त्र को- और ट्रेड यूनियनें हमेशा ही कमोबेश इसी तरह के अस्त्र होती हैं-शांतिमय समाज-सुधार का एक अस्त्र बनाना चाहा। पर यह योजना एक सिरे से काल्पनिक थी। ओवेन ने जल्द ही महसूस किया कि उनके और ट्रेड यूनियनों के रास्ते अलग-अलग हो रहे थे। जो ट्रेड यूनियनें सहकारिता के विचार से सबसे आगे बढ़कर सहानुभूति रखती थीं, वे ही तब ख़ास जोश-खरोश के साथ एक आम हड़ताल की तैयारी कर रही थीं। यह एक ऐसी चीज़ थी जो सामाजिक शांति को भंग किए बिना कभी भी और कहीं भी संभव नहीं हुई। 37


ओवेन और उनके अनुयायियों को इससे कहीं बहुत अधिक सफलता उपभोक्ता समितियों के क्षेत्र में मिली। खुद ओवेन इन समितियों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे; इन्हें वे 'व्यापारी कंपनियों' से काफ़ी क़रीब समझते थे।


मैंने ओवेन के कार्यकलाप की विस्तृत रूपरेखा इसीलिए दी है कि यह काल्पनिक समाजवाद के मजबूत और कमज़ोर, दोनों पहलुओं की जीती-जागती तस्वीर पेश करता है। इस प्रस्तुति के बाद अब मैं आगे अपनी बात कहते हुए खुद को इनके कामचलाऊ हवालों तक सीमित रख सकूँगा। कुछ शोधकर्ताओं का विचार है कि ओवेन के प्रभाव ने ब्रिटिश मज़दूर आंदोलन

को कोई लाभ नहीं पहुँचाया। यह एक भयानक, अजीबोगरीब और अक्षम्य गलती है। ओवेन ने अपने विचारों के इस अनथक प्रचारक ने मज़दूर वर्ग के चिंतन को जागृत किया, उसके सामने सामाजिक ढाँचे संबंधी सबसे अहम बुनियादी समस्याएँ रखीं, और कम से कम सिद्धांत के स्तर पर उसे उन समस्याओं के सही हल के लिए आवश्यक बहुत कुछ तथ्य प्रदान किए। अगर आम तौर पर उनके व्यावहारिक कार्यकलाप का चरित्र कल्पनावादी था तो यहाँ यह बात भी स्वीकार की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने समकालीनों को कभी-कभी बेहद उपयोगी पाठ भी पढ़ाए। वे सही अर्थों में ब्रिटिश सहकारिता आंदोलन के बड़े अब्बा थे। उनकी कारखाना कानून बनाए जाने की माँग में कहीं कुछ काल्पनिक नहीं था। न ही कारखानों में काम कर रहे बच्चों और किशोरों को प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने की जो आवश्यकता उन्होंने सुझाई, उसमें कहीं कुछ काल्पनिक था। राजनीति की ओर से मुँह फेरकर और वर्ग संघर्ष की निंदा करके बेशक उन्होंने भारी गलती की। फिर भी यह बात ज़िक्र के क़ाबिल है कि जो मज़दूर उनके संदेश की ओर आकर्षित हुए, वे उनकी गलतियों को सुधारने में समर्थ रहे। ओवेन के सहकारिता संबंधी विचारों को, और कुछ हद तक कम्युनिस्ट विचारों को भी, आत्मसात् करके मजदूर साथ ही साथ उस दौर के ब्रिटिश सर्वहारा के राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय भाग लेते रहे। उनमें जो सबसे प्रतिभाशाली थे, जैसे लवेट, हेथरिंगटन, वाटसन और दूसरे कुछ लोग, कम से कम उन्होंने तो यही किया। 38


इन तमाम बातों में यह भी जोड़ देना चाहिए कि निडरता के साथ 'सच्चे धर्म की तथा स्त्री पुरुष के बीच बुद्धिसंगत संबंधों की पैरवी करके ओवेन ने सिर्फ़


92 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


सामाजिक क्षेत्र में ही मजदूरों को चेतना के विकास को प्रभावित नहीं किया।39 


फौरी तौर पर उनका प्रभाव सिर्फ ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड में ही नहीं बल्कि संयुक्त राज्य अमरीका तक में महसूस किया गया।40


चार


कैंब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फाक्सवेल समाजवाद के एक उत्साही विरोधी हैं। कहते हैं कि ब्रिटिश समाजवाद को उसका सबसे सच्चा वैचारिक अस्त्र ओबेन ने नहीं रिकार्डो ने प्रदान किया।41 बात ऐसी नहीं है। यह सच है कि एंगेल्स ने यही कहा था कि समकालीन समाजवादी सिद्धांत जिस हद तक पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की उपज है, उस हद तक वे लगभग सभी रिकाड़ों के मूल्य सिद्धांत पर निर्भर रहे। ऐसा करने का एक अच्छा-खासा कारण भी था। फिर भी इसमें शक नहीं कि जिन ब्रिटिश समाजवादियों की शिक्षाएं रिकाड़ों के मूल्य-सिद्धांत पर आधारित थी, कम से कम उनमें से अनेक समाजवादी ओवेन के ही शिष्य थे तथा उन्होंने पुँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की ओर ठीक इसीलिए रुख किया कि उसके निष्कर्षो का उपयोग करके वे अपने गुरु के बताए रास्ते पर और आगे बढ़ना चाहते थे। जिन लोगों को ओवेनवादी कहना साफ तौर पर गलत होगा, ये बौद्धिक स्तर पर कम्युनिस्ट अराजकवादी गाडविन से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए मिलेंगे। उन्होंने रिकाडों की ओर रुख किया तो सिर्फ इसलिए कि उनकी मदद से वे राजनीतिक अर्थशास्त्र को हो बेनकाब कर सकें कि इसका तो अपने खुद के, और ऊपर से बुनियादी, राजनीतिक सिद्धांतों के साथ अंतर्विरोध है। ओवेन के शिष्यों में में सबसे पहले विलियम थाम्पसन42 का जिक्र करूंगा। अभी-अभी मैंने जिस रचना का हवाला दिया है (टिप्पणी 41 देखें-संपादक), उसकी प्रस्तावना में थाम्पसन पूछते हैं: यह भला कैसे हुआ कि जिस राष्ट्र के पास किसी भी दूसरे राष्ट्र के मुकाबले बहुत अधिक कच्चे माल, मशीन, इमारतें, भोजन सामग्रियों, बुद्धिमान और मेहनती उत्पादक हैं, वही राष्ट्र आज भी अभावों में जी रहा है?43 यह ठीक वही सवाल है जिससे ओवेन 19वीं सदी के लगभग आरंभ से ही जूझते रहे और जिसे उन्होंने अपनी कुछ प्रकाशित रचनाओं में बड़े सटीक ढंग से निरूपित किया था। अलावा इसके, थाम्पसन को इस बात की भी हैरानी है कि मज़दूरों का कोई दोष नहीं होता तो भी उनकी मेहनत के फल क्यों उनसे छीन लिये जाते हैं। ओवेन की लगभग सभी रचनाओं में हमारा इस सवाल से साबका पड़ता है। फिर भी थाम्पसन इस बात को स्वीकार करते हैं कि ठीक ऐसे ही सवाल हैं जो हमें दौलत के वितरण में दिलचस्पी लेने के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए अगर थाम्पसन ने रिकार्डो की ओर रुख किया- जो उन्होंने सचमुच किया और रिकार्डोों से उन्होंने सचमुच बहुत कुछ लिया - तो यह उनके ऊपर ओवेन के पहले से मौजूद प्रभाव का ही परिणाम था। बेशक रिकार्डो राजनीतिक अर्थशास्त्र के मुआमलों में ओवेन से कहीं बहुत अधिक मज़बूत थे। लेकिन थाम्पसन राजनीतिक


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 93

अर्थशास्त्र की समस्याओं की तरफ़ रिकार्डो को बिलकुल भिन्न दिशा से बढ़े। रिकार्डो ने कहा था और दिखाया था कि श्रम वस्तुओं में मूल्य का एकमात्र स्रोत है। लेकिन वे इस सच्चाई के आदी बन चुके थे कि पूँजीवादी समाज ने मज़दूरों को अधीनता और दुख के घेरों में बाँध रखा था। दूसरी ओर थाम्पसन थे कि इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि वस्तुओं के वितरण की व्यवस्था का उनके उत्पादन के बुनियादी नियम से अंतर्विरोध न रहे। दूसरे शब्दों में, उनकी माँग यह थी कि श्रम का पैदा किया हुआ मूल्य मज़दूरों को ही मिलना चाहिए। इस माँग को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने ओवेन के पदचिह्नों का ही सहारा लिया।


रिकार्डो के आर्थिक सिद्धांत का सहारा लेने वाले दूसरे तमाम ब्रिटिश समाजवादियों ने पूँजीवादी समाज की आलोचना करते हुए ठीक यही माँग उठाई। रिकार्डो की प्रमुख रचना 1817 में प्रकाशित हुई थी।44 1821 में ही लाई जान रसेल के नाम खुले पत्र के रूप में एक छोटा सा गुमनाम किताबचा प्रकाशित हुआ था जिसमें पूँजीवादी समाज को बेनक़ाब किया गया था कि यह मज़दूरों के शोषण पर आधारित है।45 इसके बाद दूसरे प्रकाशनों की एक श्रृंखला सामने आई जो अपने-अपने ढंग से उल्लेखनीय थे। उनमें सबके सब राबर्ट ओवेन के अनुयायियों के कारनामे नहीं थे; कुछ तो ऐसे लोगों के क़लम की उपज थे जिनका अराजकवाद की ओर कमोबेश तगड़ा झुकाव था। ओवेन के शिष्यों में मैं थाम्पसन के अलावा जान ग्रे और जान ब्रे को शामिल करूंगा जबकि कमोबेश अराजकवाद की ओर आकर्षित लेखकों में मैं पियर्सी रेवेनस्टोन और टामस हारिस्कन की गिनती करना चाहूँगा। 46


अरसा हुआ कि ये लेखक पूरी तरह भुलाए जा चुके। जब उनको याद किया गया- जिसके आंशिक कारण मार्क्स थे जिन्होंने प्रदों के खिलाफ़ अपने शास्त्रार्थ में उनके हवाले दिए थे47- तब उनकी रचनाओं का हवाला उन स्रोतों के रूप में दिया गया जिनसे मार्क्स ने अतिरिक्त उपज और अतिरिक्त मूल्य के बारे में अपनी शिक्षाएँ उधार लीं। यह सिलसिला तो यहाँ तक बढ़ा कि वेब्स ने मार्क्स को 'हाग्स्किन का यशस्वी शिष्य' तक कह डाला। इस दावे में एक सिरे से कोई सच्चाई नहीं है। फिर भी ब्रिटिश समाजवादियों की रचनाओं में हमें सिर्फ़ पूँजी के हाथों श्रम के शोषण के सिद्धांत नहीं मिलते बल्कि 'अतिरिक्त उपज,' 'अतिरिक्त मूल्य' और 'अपर (ऐडीशनल) मूल्य' जैसी अभिव्यक्तियाँ भी मिलती हैं। लेकिन सवाल शब्दों का नहीं, वैज्ञानिक धारणाओं का है। जहाँ तक वैज्ञानिक धारणाओं का सवाल है, हरेक जानकार और पूर्वाग्रहों से मुक्त व्यक्ति इस बात को स्वीकार करेगा कि, मिसाल के लिए, हाग्स्किन, कुछ अधिक न कहा जाए तो भी, मार्क्स से उतने ही  दूर थे जितने रोडबर्टस से। अब कोई रोडबर्टस का शिष्य नहीं कहता; आशा है कि जल्दी ही अब उन्हें 1820 की दहाई के ब्रिटिश समाजवादियों के शिष्य ठहराने की बातें भी बंद हो जाएँगी।" जो भी हो, अब बहुत हो चुका। हालाँकि मार्क्स हाग्स्किन, थाम्पसन या ग्रे के 'शिष्य' नहीं थे, फिर भी समाजवादी विचारधारा के इतिहास में यह बात


94 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

अभी भी सबसे अधिक अहमियत रखती है कि इन ब्रिटिश समाजवादियों ने राजनीतिक और आर्थिक धारणाओं को इतने स्पष्ट रूप से समझा था जितना उस काल के लिए दुर्लभ था या, जैसा कि खुद मार्क्स ने कहा था, उन्होंने रिकार्डों की तुलना में आगे की दिशा में इतना बड़ा कदम उठाया था जिसकी कुछ कम अहमियत नहीं है। 56 इस बारे में वे फ्रांस और जर्मनी के काल्पनिक समाजवादियों से कोसों आगे थे। अगर हमारे निकोलाई चेर्नीशेव्स्की उनके बारे में परिचित होते तो उन्होंने जान स्टुअर्ट मिल की बजाय शायद उन्हीं की किसी रचना का अनुवाद किया होता।


(ब) फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद


एक


18वीं सदी के उत्तरार्ध में, जबकि इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति जारी थी, फ्रांस में तीसरे जनवर्ग और पुराने निज़ाम के बीच एक जानलेवा संघर्ष चल रहा था। उन दिनों तीसरे जनवर्ग में, एक जानी-पहचानी उक्ति का प्रयोग करें तो, 'विशेषाधिकार वालों को छोड़कर फ्रांस की पूरी जनता शामिल थी। 'विशेषाधिकार वालों के खिलाफ़ यह संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष था। जब तीसरे जनवर्ग ने 'विशेषाधिकार वालों के हाथों से राजनीतिक सत्ता छीन ली तो उसने स्वाभाविक रूप से सत्ता का प्रयोग उन तमाम आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं का उन्मूलन करने के लिए किया जो मिलकर पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के आधार का काम करती थीं। तीसरे जनवर्ग में शामिल पूरी जनता के बेहद भिन्न-भिन्न तत्त्वों में सबकी दिलचस्पी इन संस्थाओं के ख़िलाफ़ लड़ने में थी। फलस्वरूप 18वीं सदी के सभी प्रगतिशील फ्रांसीसी लेखक पुरानी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की निंदा में एकमत थे। पर बात इतनी भी नहीं थी। वे जिस नयी सामाजिक व्यवस्था की कामना करते थे, उसे लेकर भी उनके विचारों में बहुत कम मतभेद थे। ज़ाहिर है कि प्रगतिशीलों के खेमे में मतों की छायाओं का होना अपरिहार्य था। लेकिन मतों की इन तमाम छायाओं के बावजूद यह खैमा उस समाज व्यवस्था की स्थापना के प्रयास में एकमत था जिसे हम आज पूँजीवादी कहते हैं। इस एकमत प्रयास की शक्ति इतनी अधिक थी कि ये लोग भी उसके साथ हो लिये जिनको पूँजीवादी आदर्श से कोई सहानुभूति नहीं थी। एक मिसाल पेश है।


प्रकृतितंत्रवादियों (फिजियोक्रेट्स)51 के खिलाफ़ बहस करते हुए उन दिनों बहुत ही मशहूर एवे दे मेवली ने निजी संपत्ति के और उससे पैदा होने वाली सामाजिक असमानता का खुला विरोध किया। उनके अपने शब्दों में वे 'संपत्ति के समुदाय के प्रसन्नतादायी विचार को त्याग नहीं सके। दूसरे शब्दों में, उन्होंने साम्यवाद का समर्थन किया। लेकिन इस घोर कम्युनिस्ट को विश्वास था कि संपत्ति के समुदाय का विचार उन्हें अव्यावहारिक मालूम होता है, इसे सामने रखना उनका कर्तव्य है। उन्होंने लिखा:


काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 95

"कोई भी मानवीय शक्ति जिन अव्यवस्थाओं को समाप्त करना चाहती है उनसे कहीं बहुत अधिक अव्यवस्थाओं को जन्म दिए बगैर आज समानता की पुनर्स्थापना का प्रयास नहीं कर सकेंगी।52 हालात की धार तब यही थी। सिद्धांत के स्तर पर साम्यवाद के लाभों को स्वीकार करते हुए भी व्यक्ति को इस विचार से संतोष करना पड़ता था कि चलो, पुरानी व्यवस्था विस्थापित तो हुई कम्युनिस्ट नहीं तो पूँजीवादी व्यवस्था से सही।


क्रांति जब पूँजीवादी व्यवस्था के लिए विजय लेकर आई तो फ़ौरन उन बेमेल तत्त्वों के बीच एक संघर्ष शुरू हो गया जो तीसरे जनवर्ग में शामिल थे। उन दिनों जो सामाजिक समूह आज के सर्वहारा का भ्रूण था, 'अमीरों' के ख़िलाफ़ एक जंग छेड़ बैठा जिसे उसने कुलीनों के साथ एक ही श्रेणी में रखा। हालाँकि इस समूह के प्रमुख राजनीतिक प्रतिनिधि, जैसे रोब्सपियरे और सेंत जस्त, साम्यवादी विचारों से कोसों दूर थे, मगर फिर भी उस क्रांतिकारी महानाटक के आखिरी अंक में साम्यवाद 'ग्रैक्चस' बैब्यूफ़ के रूप में इतिहास के रंगमंच पर ज़रूर सामने आया। वैब्यूफ़ और उनके साथियों ने जो 'बराबरवालों का षड्यंत्र' (कांस्पिरेसी आफ़ इक्वल्स) रचा, वह गोया सर्वहारा और पूंजीपति वर्गों के बीच आज तक जारी उस संघर्ष का एक तरह का प्राक्कथन था जो 19वीं सदी के दौरान फ्रांस के आंतरिक इतिहास की सबसे बुनियादी विशेषताओं में एक था। लेकिन नहीं, यह भी सच नहीं है। 'बराबरवालों के षड्यंत्र को उस संघर्ष के प्राक्कथन का प्राक्कथन कहना अधिक सटीक होगा। बेब्यूफ़ और उनके साथियों ने जिस नयी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास किया, उनके तर्कों में उस व्यवस्था के ऐतिहासिक सारतत्त्व की समझ के सिर्फ़ धुंधले से, अस्पष्ट इशारे ही हमें दिखाई देते हैं। वे बस एक ही बात जानते थे और इसी को उन्होंने तरह-तरह से दोहराया 'एक सच्चे समाज में न तो अमीर होने चाहिए न गरीब।' चूँकि क्रांति के पैदा किए हुए समाज में अमीर और ग़रीब, दोनों थे, उस क्रांति को तब तक पूरी हो चुकी नहीं माना जा सकता था जब तक यह समाज एक सच्चे समाज के लिए जगह खाली नहीं कर देती।53 ब्रिटिश काल्पनिक समाजवाद की छानबीन करते हुए जिन लोगों से हमारी मुलाक़ात हो चुकी है, उनके विचारों से वैव्यूफ़वादियों के विचार किस क़दर भिन्न थे, इसे हम नीचे की विवेचना से साफ़-साफ़ समझ सकते हैं।


ब्रिटिश समाजवादियों ने इस तथ्य को बेपनाह ऐतिहासिक महत्त्व का तथ्य बतलाया कि आधुनिक समाज के हाथों में उत्पादन की बहुत अधिक शक्तियाँ मौजूद हैं। उनकी राय में इन उत्पादक शक्तियों की मौजूदगी ने समाज के रूपांतरण की पहली बार व्यावहारिक संभावना पैदा की थी ताकि उसमें न अमीर रहें न गरीब। इसके विपरीत कुछ वैव्यूफ़वादी इस मान्यता से काफ़ी कुछ समझौता किए बैठे थे कि उनके कम्युनिस्ट आदर्श साकार होंगे तो सभी कलाओं का विनाश हो जाएगा, इनमें निश्चित ही तकनीकी कलाएँ भी शामिल होंगी। 'बराबरवालों' का घोषणापत्र


96 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


दो टूक ढंग से कहता है: 'ज़रूरी हो तो तमाम कलाओं को नष्ट कर दो, बशर्ते हमारे पास सच्ची समानता बची रहे। यह बात सच है कि इस घोषणापत्र से, जिसे एस मारेशल ने लिखा था, बहुत से वैव्यूफ़वादी खुश नहीं थे और उन्होंने इसे बाँटने तक में योगदान नहीं दिया। लेकिन खुद ब्यूनारोती हमसे बतलाते हैं कि कम्युनिस्ट क्रांति की योजना का समर्थन करते हुए देवों, दार्थे और लेपेलेतिए के साथ वे भी इस प्रकार के तर्क देते थे: 'अलावा इसके, हमसे यह कहा गया था कि अगर यह बात सही है कि असमानता ने सचमुच में उपयोगी कलाओं की प्रगति की रफ़्तार तेज़ की तो आज ऐसा नहीं होना चाहिए कि और आगे उनकी प्रगति सभी की सच्ची खुशी में कोई इज़ाफ़ा नहीं करेगी। इसका मतलब यह था कि मानवजाति को अब आगे तकनालोजी के विकास की कोई सार्थक आवश्यकता नहीं थी। प्रसंगवश, मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में जब यह लिखा कि आरंभिक सर्वहारा आंदोलनों के साथ जन्म लेनेवाला क्रांतिकारी आंदोलन प्रतिक्रियावादी था क्योंकि वह चौतरफ़ा संन्यासवृत्ति को और आदिम समानता की स्थापना के उपदेश देता था,56 तब उनके मन में शायद वैसे ही तर्क थे जैसे बैब्यूफ़वादी दे रहे थे।


19वीं सदी के फ्रांसीसी समाजवादियों की रचनाओं में यह संन्यासवादी विशेषता नहीं है। उलटे, यहाँ हमें तकनीकी प्रगति के प्रति एक भारी हमदर्दी का दृष्टिकोण नजर आता है।


यह बात शायद कही जाए कि प्रति सिंहों, प्रति-शार्को, प्रति दरियाई घोड़ों और ऐसे ही रहमदिल जानवरों के बारे में, जो जानवर आगे चलकर मनुष्य की सेवा करेंगे और उसके सुख-आराम में वृद्धि करेंगे, उनके बारे में फूरिये ने जो अजीबोगरीब और सच तो सच है, कहा ही जाएगा-हास्यास्पद सपने देखे थे, वे भी बेहद कपोलकल्पित ढंग से सही, भावी तकनीकी प्रगति के महत्त्व और असीम परिमाण की मान्यता से अधिक कुछ भी नहीं थे। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद - और यह बात सिद्धांत के इतिहास के लिए भारी महत्त्व रखती है- अधिकांश दृष्टांतों में फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादी अपने दौर की तकनीकी प्रगति के प्रत्यक्ष सामाजिक और राजनीतिक परिणामों की सच्ची प्रगति को समझने में अपने ब्रिटिश समकक्षों से बहुत पीछे थे।


दो


जैसा कि हमें पता है, ब्रिटिश समाजवादी मानते थे कि उत्पादक शक्तियों के विकास ने दो वर्गों-'अमीर' और 'गरीब' में समाज के विभाजन को और पुख्ता बनाया था। साथ ही उन्होंने इन दोनों वर्गों के विरोध को मालिकों और उजरती मज़दूरों के विरोध के रूप में देखा। मालिकान मज़दूरों के श्रम से पैदा होनेवाले मूल्य का एक बड़ा भाग हड़प कर लेते हैं। यह बात चार्ल्स हाल तक को स्पष्ट थी। लेकिन फ्रांसीसी समाजवादी लेखकों ने इसे रफ़्ता-रफ़्ता ही समझा। साथ ही जिन फ्रांसीसी समाजवादियों ने


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 97


यह महसूस किया कि पूंजी और उजरती मज़दूरी के हितों का अंतर्विरोध समकालीन समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर्विरोध है, उन्होंने कभी इसे इतनी स्पष्टता से नहीं समझा जितनी स्पष्टता हमें थाम्पसन, ग्रे और हारिस्कन की रचनाओं में दिखाई देती है। 


सेंत-साइमन57 ने 18वीं सदी में तीसरे जनवर्ग के विचारधारात्मक प्रतिनिधियों के कार्यों को सीधे-सीधे जारी रखा। उन्होंने मालिकों के हाथों मज़दूरों के शोषण की बात नहीं कहीं, सिर्फ यह कहा कि मालिक और मज़दूर एक ही साथ उस 'निठल्ले' वर्ग के शोषण के शिकार हो रहे हैं जो मुख्यतः कुलीनों और नौकरशाहों पर आधारित था। सेंत-साइमन मालिकों को मज़दूरों के हितों के स्वाभाविक प्रतिनिधि और रक्षक मानते थे। उनके शिष्य उनसे भी आगे निकल गए। 'निठल्ला वर्ग' (आइडिल क्लास) की धारणा का विश्लेषण करते हुए उन्होंने इसमें न सिर्फ़ भूस्वामियों को शामिल किया जो लगान वसूल करके 'कामगार वर्ग' का शोषण करता था, बल्कि पूँजीपतियों को भी शामिल किया। लेकिन यह बात कह दी जाए कि पूँजीपति शब्द से उनकी मुराद सिर्फ उन लोगों से थी जिनकी आय पूँजी पर मिलने वाले ब्याज पर आधारित थी। उनका कहना था कि मालिकों के मुनाफ़े मज़दूरों की मजदूरियों के संगत हैं।58 विचारों की ऐसी ही अस्पष्टता हमें  प्रूदों59 की रचनाओं में दिखाई देती है- और वह भी चौथाई सदी बाद! मार्च 1850 में उन्होंने (प्रूदों ने) लिखा था: 'पूँजीपति और सर्वहारा की एकता आज, पहले की ही तरह भूदास (सर्फ़) की मुक्ति की, पूंजीपति और कुलीन के ख़िलाफ़ मज़दूरों के साथ उद्योगपतियों के प्रतिरक्षात्मक और आक्रामक गठबंधन की सूचक है।' लुई ब्लांक60 ने स्थिति को कुछ और स्पष्ट समझा। उनकी राय में हम जिस सामाजिक विरोध की चर्चा कर रहे हैं उसने पूँजीपति वर्ग और जनता के विरोध का रूप ले लिया है। लेकिन पूँजीपति वर्ग से उनकी मुराद उन नागरिकों के योग से हैं जो या तो श्रम के उपकरणों या पूँजी के स्वामी होने के कारण, ऐसे साधनों से काम लेते हैं जो उनके अपने हैं तथा दूसरों पर बस कुछ ही हद तक निर्भर रहते हैं। यहाँ 'बस' से मतलब क्या है? और हम लुई ब्लांक के इस विचार को कैसे समझें कि जो नागरिक मिलकर पूँजीपति वर्ग बनाते हैं वे अपने खुद के साधनों से काम करते हैं? क्या यहाँ ये सिर्फ़ निम्न दस्तकार-पूँजीपति वर्ग की बात सोच रहे हैं? या हम इसे इस रूप में समझें कि सेंत-साइमनवादियों की तरह लुई ब्लांक भी मालिकों के मुनाफे को उनकी मेहनत का भुगतान मानते थे? इसका कोई जवाब नहीं मिलता। लुई ब्लांक ने जनता की परिभाषा उन 'नागरिकों के योग' के रूप में की 'जो पूँजी न होने के कारण जीवन की प्रमुख आवश्यकताओं के बारे में पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हैं।61 इसमें अपने आपमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। लेकिन व्यक्ति अनेक प्रकार से दूसरों पर निर्भर हो सकता है। इसलिए लुई ब्लॉक की जनता की धारणा किराये के मज़दूर की कहीं बहुत अधिक सटीक धारणा से मेल नहीं खाती जिसे अपने अनुसंधानों में ब्रिटिश समाजवादियों ने प्रयोग किया था। जो भी हो, सामान्यतः, आर्थिक धारणाओं में लुई ब्लांक की शायद ही


98 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

कोई दिलचस्पी थी। इन पर उनसे कहीं बहुत अधिक ध्यान तो ज्याँ रेनो62 और पियरे लेरो63 ने दिया। ये दोनों पहले संत-साइमन के संप्रदाय में हुआ करते थे मगर उनकी शिक्षाओं से जल्द ही असंतुष्ट हो गए थे। रेनो ने जोर देकर कहा कि जनता दो वर्गों पर आधारित है जिनके हित परस्पर विरोधी हैं-सर्वहारा और पूँजीपति वर्ग पर। वे सर्वहाराओं को ऐसे लोग कहते हैं 'जो राष्ट्र की सारी संपत्ति उत्पन्न करते हैं, जिनके पास अपनी मेहनत की दिहाड़ी के अलावा कुछ भी नहीं है। पूँजीपति वर्ग की परिभाषा उन्होंने ऐसे लोगों के रूप में की 'जिनके पास पूँजी है और जो उसकी आय पर जिंदगी बसर करते हैं। इन परिभाषाओं को सही मानकर पियरे लेरो ने तो सर्वहाराओं की गिनती करने तक की कोशिश की। उनका अनुमान था कि फ्रांस में उनकी संख्या तीन करोड़ तक है। यह संख्या बेशक बहुत अधिक थी। आज की तारीख तक में फ्रांस में सर्वहाराओं की संख्या इसके आसपास नहीं है। यह बढ़ी चढ़ी संख्या इसलिए है कि लेरो ने सर्वहारा में न सिर्फ किसानों को बल्कि फ्रांस के भिखारियों तक को शामिल कर लिया जो उनके हिसाब से 40 लाख तक थे। 'सर्वहारा' की अपनी खुद की धारणा के बावजूद सर्वहाराओं में 'गाँवों के किसान वर्ग' को शामिल करके रेनो ने ऐसी ही गलती की। इस सवाल पर रेनो और लेरो के विचार हमारे त्रुदोविकों के विचारों से बहुत मेल खाते हैं।


पाठक यह बात समझ सकता है कि कल्पनावादी काल के फ्रांसीसी समाजवादियों के अर्थशास्त्रीय विचारों में क्यों इतनी स्पष्टता नहीं थी जो ब्रिटिश काल्पनिक समाजवादियों की धारणाओं की विशेषता थी। उत्पादन के पूँजीवादी संबंधों की लाक्षणिक विशेषताएं फ्रांस की अपेक्षा ब्रिटेन में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आ रही थीं।


अर्थशास्त्रीय विषयों पर ब्रिटिश समाजवादियों के यहाँ मौजूद अस्पष्टता भी उन्हें यह विश्वास पालने से नहीं रोक सकी कि सर्वहारा और पूँजीपति- अर्थात् आर्थिक हितों के एतबार से एक-दूसरे के ठीक विरोधी दो वर्ग-पूरी तरह मिलकर समाज-सुधार कर सकते हैं। ब्रिटिश समाजवादियों ने तब मौजूद समाज में वर्ग संघर्ष के अस्तित्व को देखा ज़रूर, मगर उन्होंने इसकी निर्णायक रूप से निंदा की, और उसे अपनी सुधार संबंधी योजनाओं की सिद्धि से जोड़ना तो वे किसी भी सूरत में नहीं चाहते थे। यहां उनके और अधिकांश फ्रांसीसी समाजवादियों के बीच कोई अंतर नहीं था। संत-साइमन और संत-साइमनबादी, फूरिये और फूरियेवादी, काबे, प्रूदों और लुई ब्लॉक के बीच अनेक समस्याओं पर आपस में चाहे जितने मतभेद रहे हों, वे सभी इस बात पर पूरी तरह एकमत थे कि समाज सुधार के लिए संघर्ष की नहीं, वर्गों के बीच मुकम्मल तालमेल को आवश्यकता थी।


आगे चलकर हम देखेंगे कि वर्ग-संघर्ष को सभी फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादियों ने रद्द नहीं किया। हमें फ़िलहाल तो बस यह याद रखना चाहिए कि उनमें से अधिकांश इसके विरोधी थे और इसी विरोध से यह बात भी स्पष्ट होती है कि राजनीति से उनको क्यों कुछ लेना-देना नहीं था।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 99


1835 के आसपास से ही फूरिये के सबसे यशस्वी शिष्य विक्तर कोसिदेरों ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया था कि राजनीति में फ्रांसीसी जनता की रुचि कम हो चुकी है। उन्होंने राजनीतिज्ञों की 'सैद्धांतिक' गलतियों को इसका कारण बताया: हितों में तालमेल बिठाने के उपाय पता लगाने की बजाय राजनीतिज्ञ लोग इस आपसी संघर्ष का समर्थन करने लगे थे, जो उनके शब्दों में, 'उन्हीं के लिए फ़ायदेमंद है जो उसकी तिजारत करते हैं। 67.


फ्रांस के अधिकांश काल्पनिक समाजवादियों की शांतिप्रेमी भावनाएँ पहली निगाह में एक ऐसे देश के लिए अजीबोगरीब लगती हैं जहाँ अभी बहुत समय नहीं हुआ था कि महाक्रांति का तूफ़ान उठा था और जहाँ लगता है कि उन्नत विचारों वाले लोगों को तो क्रांतिकारी परंपरा को खास तौर पर दिल से लगाकर रखना चाहिए था। लेकिन और गहराई से परखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हाल की क्रांति की यादें ही ठीक वह चीज़ थी जो कोसिदेरों जैसे उन्नत विचारकों को ऐसे उपाय तलाश करने पर उकसा रही थी कि वर्ग संघर्ष को समाप्त किया जा सके। उनकी ये शांतिप्रेमी भावनाएँ 1793 के क्रांतिकारी जोश-खरोश की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया थीं। फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों का विशाल बहुमत इस विचार से डरा हुआ था कि हितों का आपसी संघर्ष फिर एक बार उतना ही तीखा हो सकता है जैसा उस न भुलाए जा सकने वाले साल में था। अपनी 1808 में प्रकाशित पहली रचना Theorie des quatre mouvements et des destinels sociales में फूरिये ने क्षोभ के साथ उस '1798 के महासंकट' की बात कही थी जिसने, उनके शब्दों में, सभ्य समाज को बर्बरता की अवस्था तक पहुंचा दिया था। रहे सेंत-साइमन तो फूरिये से पहले ही वे फ्रांसीसी क्रांति को अत्यन्त भयानक विस्फोट तथा सभी लानतों में सबसे बड़ी लानत क़रार दे चुके थे।68 1793 के महासंकट' के प्रति इस रवैये में फूरिये को तो 18वीं सदी के प्रबोध (इनलाइटेनमेंट) के दर्शन तक के प्रति एक नकारात्मक रवैया अपनाने पर मजबूर कर दिया जबकि अपनी खुद की विचारधारा के बुनियादी सिद्धांतों के लिए वे इसी दर्शन के ऋणी थे। उस दर्शन की ताईद तो संत-साइमन ने भी नहीं की, कम से कम उस सीमा तक तो नहीं ही की जहाँ तक वह उन्हें विध्वंसक और 1793 की घटनाओं के लिए जिम्मेदार नजर आता था। संत-साइमन मानते थे कि 19वीं सदी में सामाजिक चिंतन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य उन उपायों का अध्ययन करना है जो 'क्रांति का अंत करने के लिए' आवश्यक हैं।69 1830 और 1840 की दहाइयों में उनके अनुयायियों ने इसी समस्या को हल करने की कोशिश की। फ़र्क सिर्फ इतना था कि ये लोग 18वीं सदी के अंतिम भागों की क्रांति नहीं बल्कि 1830 की क्रांति को लेकर चिंतित थे। समाज सुधार के पक्ष में जो प्रमुख तर्क उन्होंने पेश किए उनमें एक तर्क यह भी था कि यह ('साहचर्य' या 'संगठन') क्रांति को ठप्प कर देगा। उन्होंने क्रांति का हव्वा दिखाकर अपने विरोधियों को धमकाया। 1840 में इनफैतिन ने संत-साइमनवादियों की इसलिए तारीफ़ की


100 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


कि 1830 की दहाई में जब सर्वहारा ने तख़्त के ख़िलाफ़ एक कामयाब बग़ावत के लिए जोर आजमाया था, तभी उन्होंने चीखकर कहा था 'लो, आ गए ये बर्बर!' और फिर गर्व के साथ उन्होंने आगे यह भी कहा कि दस साल बाद भी उन्होंने 'लो, आ गए ये बर्बर!' की वही गुहार लगाना बंद नहीं किया है। 70


तीन


इतिहास के रंगमंच पर सर्वहारा के उदय को इनफैतिन ने 'बर्बरों' की आमद के समान ठहराया, और यही काम फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादियों के बहुमत ने किया।71 यह बात आमतौर पर उनकी पूरी चिंतन-प्रणाली की और ख़ास तौर पर राजनीतिक संघर्ष के प्रति उनके रवैये की एक मिसाली विशेषता है। उन्होंने गर्मजोशी से मज़दूर वर्ग के हितों का बचाव किया; उन्होंने पूँजीवादी समाज के अनेक अंतर्विरोधों को बेरहमी से बेनकाब किया। अपने जीवन के अंतिम दिनों में सेंत-साइमन ने यही शिक्षा दी कि 'सबसे अधिक संख्या वाले और सबसे गरीब वर्ग का नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक सुधार सभी सामाजिक संस्थाओं का उद्देश्य होना चाहिए।' फूरिये ने सात्विक क्रोध के साथ ज़ोर देकर कहा कि सभ्य समाज में मज़दूरों की स्थिति जंगली जानवरों से भी बदतर है। लेकिन मज़दूर वर्ग की दुखद स्थिति का सोग करते हुए और हर तरह से उस वर्ग की मदद की कोशिश करते हुए भी काल्पनिक समाजवादी मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र कार्रवाई में विश्वास नहीं रखते थे, और जब विश्वास किया भी तो उससे डरते रहे। जैसा कि हमने अभी-अभी देखा, इनफ़ैतिन सर्वहारा के प्रकट होने को बर्बर जातियों के हमले के बराबर मानते थे। बहुत पहले, 1802 में ही, 'संपत्तिहीन वर्ग को संबोधित करते हुए संत-साइमन ने कहा था 'आओ देखो कि फ्रांस में जब तुम्हारे कामरेडों का बोलबाला था तो वहाँ क्या हुआ वहाँ उन्होंने अकाल पैदा कर दिया। 73


एक दिलचस्प उलटफेर : 1848 की फ़रवरी क्रांति तक पूँजीवादी विचारक किसी भी तरह वर्गों के राजनीतिक संघर्ष के प्रति दुश्मनी का भाव नहीं रखते थे। 1820 में गीज़ो ने लिखा था कि मध्य वर्ग अगर प्रतिक्रियावादियों के ख़िलाफ़ संघर्ष में अपने हितों की रक्षा करना चाहता है तो उसे राजनीतिक सत्ता जीतनी ही होगी, और उधर ये प्रतिक्रियावादी भी सत्ता पाने और उसे अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे थे। और जब प्रतिक्रियावादियों ने उनको ताना दिया कि वर्ग-संघर्ष का उपदेश देकर वे निकृष्ट भावनाएँ भड़का रहे थे तो गीज़ो ने उनसे कहा कि फ्रांस का पूरा इतिहास वर्गों के युद्ध से 'बना' है और उस इतिहास को सिर्फ इसलिए भुला देना शर्म की बात है कि 'उसके निष्कर्ष' उनके लिए प्रतिकूल साबित हुए हैं।


गीज़ो 'मध्य वर्ग' की, मतलब पूँजीपति वर्ग की, स्वतंत्र कार्रवाई में विश्वास रखते थे और इससे जरा-सा भी भयभीत नहीं थे। यही कारण है कि उन्होंने वर्गों के राजनीतिक संघर्ष की आवश्यकता साबित की। बेशक '1793 के महासंकट' की


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 101


ताईंद उन्होंने भी नहीं की; बात बल्कि कुछ और ही है। लेकिन एक समय तक वे यहीं मानते रहे कि उसके दोहराए जाने का सवाल ही नहीं है। 1848 में उन्होंने अपनी राय बदल दी और अब की बार सामाजिक शांति के पैरोकार बन गए। इस तरह सामाजिक चिंतन के विकास का क्रम सामाजिक जीवन के विकास के क्रम के साथ चलता और बदलता रहा। 


अब पाठक को यह याद दिलाने का समय आ गया है कि उस काल के फ्रांस में समाजवादियों का एक छोटा सा भाग किसी भी तरह न तो राजनीति का विरोधी था और न वर्ग संघर्ष का। इस अल्पमत की चिंतनधारा उस बहुमत की चिंतनधारा से बहुत कुछ अलग थी जिससे अभी तक हमारा सरोकार रहा है। यह अल्पमत सीधे तौर पर वैव्यूफ़ और उनके विचारों से सहमत व्यक्तियों का उत्तराधिकारी था। 'बराबरवालों के षड्यंत्र' के सक्रिय भागीदारों में एक थे फिलिप ब्यूनारोती76 जो मिशेलैंजली के वंशज थे। वे मूलतः तस्कनी के रहनेवाले थे और कनवेंशन77 की एक विज्ञप्ति के चलते फ्रांस के नागरिक बन गए थे। 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवाद में यही ब्यूनोराती वैब्यूफ़वादियों की क्रांतिकारी परंपरा के वाहक बनकर उभरे। उनकी रचना बराबर वस्त्रों के षड्यंत्र का इतिहास,78 जिसका ज़िक्र में ऊपर कर चुका हूँ, ब्रसेल्स से 1828 में प्रकाशित हुई तथा फ्रांसीसी समाजवादियों के क्रांतिकारी अल्पमत के विचारों को रूपरेखा देने में इसकी बेपनाह भूमिका रही। यह अल्पमत अतीत में चले 'बराबरवालों के षड्यंत्र के एक सदस्य के प्रभाव में रहा, बस यही तथ्य यह दिखाने के लिए काफ़ी है कि बहुमत के विपरीत, यह अल्पमत '1793 के महासंकट' के यादों से परेशान नहीं था। इस अल्पमत के सबसे मशहूर प्रतिनिधि थे आगस्त ब्लांकी जो अपने लंबे जीवन के अंत तक एक अपराजेय क्रांतिकारी रहे।


जहाँ सेंत-साइमन ने ऐसे उपायों का आग्रह किया जो क्रांति को समाप्त करें और फ्रांसीसी समाजवादियों का बहुमत इस बारे में उनसे बड़ी हद तक सहमत था, वहीं बैव्यूफवाद के प्रभाव में अल्पमत ने 'बराबरवालों के इस विचार को पूरी तरह अपनाया कि क्रांति अभी पूरी नहीं हुई है क्योंकि जीवन की तमाम अच्छी वस्तुओं पर अमीरों ने क़ब्ज़ा कर लिया है। फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद को इन दो प्रवृत्तियों के बीच बुनियादी अंतर यही है एक प्रवृत्ति का उद्देश्य क्रांति को समाप्त करना था; दूसरी उसे जारी रखना चाहती थी।


जो लोग क्रांति को समाप्त देखना चाहते थे, स्वाभाविक रूप से परस्पर टकरा रहे सामाजिक हितों के बीच समझौते के लिए प्रयासरत थे। कोसिदेश ने लिखा: 'हरेक वर्ग के लिए अपने विशेष हितों को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि वह उसे दूसरे वर्गों के हितों से जोड़ दे। तमाम शांतिप्रेमी काल्पनिक समाजवादियों की सोच इसी तरह की थी। उनके बीच मतभेद सिर्फ़ समाज में वर्गों के हितों के बीच तालमेल बिठाने के उपायों को लेकर थे। समाजवादी प्रणालियों


102 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के शांतिप्रेमी संस्थापकों में लगभग हरेक ने संपत्तिधारी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए अपनी एक विशेष योजना तैयार की। मिसाल के लिए फूरिये की सिफ़ारिश थी कि भविष्य के समाज में श्रम की पैदावार का वितरण इस तरह से हो कि मजदूरों को कुल पैदावार के बारह हिस्सों में पाँच, पूँजीपतियों को चार और प्रतिभा के प्रतिनिधियों को तीन हिस्से मिलें। वितरण की तमाम दूसरी शांतिकामी कल्पनावादी योजनाओं ने भी बिना अपवाद पूँजीपतियों को कोई न कोई रिआयत दी: अगर ऐसा न होता ती संपत्तिधारी वर्ग के हित सुनिश्चित नहीं होते और फलस्वरूप सामाजिक समस्या के एक शांतिपूर्ण हल की सारी उम्मीद जाती रहती। पूँजीपतियों के और आम तौर पर 'अमीरों' के हितों को अनदेखा करने में समर्थ बस ये समाजवादी रहे जो इस परिणाम से भयभीत नहीं थे अर्थात् जो क्रांतिकारी कार्रवाई के पक्ष में थे। ऐसी कार्रवाई की तरफ़दारी 18वीं सदी के अंत में बैब्यूफ़वादियों ने की और 19वीं सदी में उन फ्रांसीसी समाजवादियों ने जो वैब्यूफ़वादियों से प्रभावित थे। चूँकि इस मानसिकता वाले लोगों ने 'अमीरों' के हितों को बनाने की कोई जरूरत नहीं समझी, उन्होंने खुल्लमखुल्ला ऐलान किया कि वे क्रांतिकारी ही नहीं थे बल्कि कम्युनिस्ट भी थे। उन दिनों फ्रांस में 'समाजवाद' की धारणा आम तौर पर साम्यवाद की धारणा से इस आधार पर अलग मानी जाती थी कि अपनी भावी समाज व्यवस्था संबंधी योजनाओं के खाकों में समाजवादियों ने अगर संपत्ति की असमानता की कुछ अकसर काफ़ी सार्थक संभावना छोड़ी तो वहीं साम्यवादियों ने इसे अस्वीकार किया।


जैसाकि हमने अभी-अभी देखा, मन के एक क्रांतिकारी रुझान के चलते फ्रांसीसी सुधारकों के लिए एक साम्यवादी कार्यक्रम अपनाना और भी आसान हो गया। वास्तव में थियोदोर देजामी82 और आगस्त ब्लांकी जैसे क्रांतिकारियों ने साम्यवादी विचार ही अपनाए। लेकिन उन दिनों के सारे साम्यवादी क्रांतिकारी नहीं थे; शांतिप्रेमी साम्यवाद के सबसे उल्लेखनीय प्रतिनिधि एतिएन कावे83 थे। उन्होंने अधिकांश फ्रांसीसी समाजवादियों की शांतिप्रेमी प्रवृत्ति को ही बड़े जीवंत ढंग से यह कहकर उजागर किया कि अगर क्रांति मेरी मुट्ठी में होती तो मैं हरगिज अपनी मुट्ठी नहीं खोलता, भले ही मुझे इसके लिए जलावतन होकर परदेस में मरना पड़ता। प्रबोध के 18वीं सदी के दार्शनिकों की तरह कावे भी बुद्धि की सार्वभीम शक्ति में विश्वास रखते थे। उनकी राय यह थी कि संपत्तिधारी वर्ग भी साम्यवाद के लाभों को समझ और सराह सकते हैं। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी इसको नहीं मानते थे और इसलिए, वर्ग संघर्ष की शिक्षा देते थे।


फिर भी हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि उनकी कार्यनीतियों आज के अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक जनवाद की कार्यनीतियों से मेल खाती हैं जो बेशक वर्ग-संघर्ष या राजनीति को अस्वीकार नहीं करता। वे लोग मुख्यतः षड्यंत्रकारी थे। अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद के इतिहास में आगस्त ब्लांकी जैसा षड्यंत्रकारी कोई और शायद ही मिले। षड्यंत्र की कार्यनीतियाँ जनता की स्वतंत्र कार्रवाई के लिए बहुत कम गुंजाइश छोड़ती हैं।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 103


हालांकि फ्रांस के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी अपने समकालीन शांतिप्रेमी समाजवादियों की अपेक्षा जनता पर अधिक भरोसा करते थे, फिर भी उनकी समाज के भावी रूपांतरण की धारणा में जनता की भूमिका सिर्फ षड्यंत्रकारियों का समर्थन करने तक सीमित है जो मुख्य मुख्य कार्रवाइयाँ खुद पूरी करेंगे। षड्यंत्र की कार्यनीतियाँ हमेशा मज़दूर वर्ग की अपरिपक्वता की एक असंदिग्ध निशानी होती हैं। मज़दूर वर्ग जैसे ही परिपक्वता के एक निश्चित चरण तक पहुँच जाता है, ये कार्यनीतियाँ गुज़रे ज़मानों की बात बन जाती हैं।


चार


सभी रंगों के काल्पनिक समाजवादी मानवजाति की प्रगति में पूरा-पूरा विश्वास रखते थे। हमें पता है युवा मिखाइल साल्तिकोव (सुप्रसिद्ध रूसी व्यंग्यकार सात्तिकोव-शेद्रिन, 1826-1889-संपादक) को सेंत-साइमन के इस विचार से कितना हौसला मिला था कि स्वर्णयुग हमारे पीछे नहीं, हमारे आगे है। 18वीं सदी में प्रबोध के दार्शनिक भी प्रगति में अगाध विश्वास रखते थे। स्वनामधन्य कोंदोरसेत को याद कर लेना ही यहाँ काफ़ी होगा। लेकिन ठीक-ठीक कहें तो प्रगति में विश्वास उस हद तक समाजवाद की बुनियादी विशेषता नहीं है जिस हद तक यह आस्था है कि प्रगति हमें 'मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण' की समाप्ति की ओर ले जाती है। सेंत-साइमनवादियों के भाषणों और लेखों में यही विषय बार-बार हमें दिखाई देता है। उन्होंने कहा : 'अतीत में समाज व्यवस्था हमेशा किसी न किसी सीमा तक मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित रही है; आज सबसे महत्वपूर्ण प्रगति उस शोषण को समाप्त करना होगी, चाहे उसकी कल्पना किसी भी रूप में की जाए। दूसरे सभी संप्रदायों के समाजवादी भी इसी उद्देश्य के लिए प्रयासरत थे। मगर अनेक दृष्टांतों में उनकी सामाजिक संगठन की योजनाएँ इस उद्देश्य से पीछे ही रहीं। जैसा कि हमें पता इन योजनाओं में एक हद तक सामाजिक असमानता की गुंजाइश रखी गई थी जो, अंतिम विश्लेषण में, 'मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण' पर ही आधारित हो सकता था। सिर्फ़ साम्यवादियों ने इस असंगति को पनाह नहीं दी जिसकी व्याख्या एक ओर वर्ग-संघर्ष से बचने के लिए सभी वर्गों के हितों में तालमेल बिठाने के प्रयासों से होती है तो दूसरी ओर इस बारे में समझ की अस्पष्टता से होती है कि ठीक-ठीक क्या चीज़ इस शोषण का आर्थिक सारतत्त्व है। कम्युनिस्ट देज़ामी ने सेंत-साइमनवादियों को अकारण ही नहीं लताड़ा कि उनका 'क्षमताओं का कुलीनतंत्र' (एरिस्टोक्रेसी आफ कैपेसिटीज़) और 'राजनीतिक धर्मशास्त्र' (पोलिटिकल थियोक्रेसी) व्यवहार में समाज में जो स्थिति प्रचलित है, लगभग वैसी ही स्थिति की ओर ले जाएँगे। लेकिन सवाल भावी सामाजिक संगठन की योजनाओं का नहीं है, क्योंकि ऐसी योजनाएँ तो बहरहाल


104 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएं


कभी साकार नहीं होती। अहम बात यह है कि काल्पनिक समाजवादियों ने एक महान विचार को सामाजिक प्रचलन में धकेल दिया और मजदूरों के मन में पैठ जाने के बाद यही विचार 19वीं सदी की सबसे ज़ोरदार सांस्कृतिक शक्ति बन गया। इस विचार का प्रचार-प्रसार काल्पनिक समाजवाद द्वारा की गई संभवतः सबसे बड़ी सेवा है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण समाप्त किए जाने की आवश्यकता को तरह-तरह से साबित करने की कोशिशों के दौरान काल्पनिक समाजवाद सामाजिक नैतिकता पर उस शोषण के प्रभाव को उठाए बिना भला कैसे रह सकता था। ब्रिटिश समाजवादियों ने, और खासकर ओवेन और थाम्पसन ने पहले ही इस विषय का चर्चा किया था कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण शोषक और शोषित, दोनों को पतित करता है। फ्रांसीसी समाजवादियों ने भी अपनी रचनाओं में इस विषय को काफ़ी स्थान दिया। बात समझ में आने वाली है। अगर मनुष्य का चरित्र उसके विकास की दशाओं से निर्धारित होता है और इस विचार को बार-बार सभी काल्पनिक समाजवादियों ने, बिना अपवाद, दोहराया तो ज़ाहिर है कि मनुष्य का चरित्र सुंदर तभी होगा जब उसे सुंदर दशाओं में विकास की इजाज़त दी जाएगी। इन दशाओं को सुंदर बनाने के लिए मौजूदा सामाजिक ढाँचे के दोषों से मुक्त होना होगा। 19वीं सदी के काल्पनिक समाजवादियों ने संन्यासवाद को अस्वीकार कर दिया और किसी न किसी रूप में 'इंद्रिय-सुख' का ऐलान किया। इन कारणों से उन्हें 'कुमार्गी भावनाओं को बेलगाम करने की, मुनष्य की उदात्त आवश्यकताओं पर उसकी निकृष्ट आवश्यकताओं की विजय सुनिश्चित करने की कोशिशें करने का दोषी ठहराया गया। ऐसी गालियाँ सिर्फ़ मूर्ख दे सकते हैं। काल्पनिक समाजवादियों ने कभी मनुष्य के आत्मिक विकास को अनदेखा नहीं किया। उनमें से कुछ ने तो साफ़-साफ़ कहा कि समाज-सुधार ही ऐन वह चीज़ है जो मनुष्य के आत्मिक विकास के हित में है, बल्कि उसकी बुनियादी शर्त है। सेंत-साइमनवादियों की रचनाओं में इस बात के अनेक, आँखें खोलनेवाले दृष्टांत दिखाई देते हैं कि आधुनिक समाज में गरीब व्यक्ति किस तरह नैतिकता से वंचित होते हैं। उन्होंने कहा : 'यह समाज अपराधों की रोकथाम में असमर्थ है; यह उनकी सिर्फ़ सज़ा दे सकता है और इसलिए आज 'जल्लाद' नैतिकता का एकमात्र प्रामाणिक प्रवक्ता है। मजे की बात यह है कि 'जल्लाद' की आवश्यकता का निषेध करते हुए संत-साइमनवादियों ने हर तरह की हिंसा को मानव-नैतिकता में सुधार का साधन मानने से इनकार कर दिया। सभी दूसरे संप्रदायों के समाजवादी इस बारे में भी एकराय थे। यहाँ तक कि साम्यवादी क्रांतिकारियों ने भी हिंसा को सिर्फ़ सामाजिक परिवर्तन के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का साधन माना 'जल्लाद' सामाजिक नैतिकता का 'प्रवक्ता' हो सकता है, इसका उन्होंने भी संत-साइमनवादियों जितने उत्साह से ही खंडन किया। वे भी पूरी तरह इस बात को समझ रहे थे कि अपराधों की रोकथाम दंड से नहीं होती बल्कि इन सामाजिक कारणों को मिटाने


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 105


से होती है जो मनुष्य की इच्छा को बुराई की ओर प्रवृत्त करते हैं। इस अर्थ में घोर क्रांतिकारी भी, अत्यंत अनथक षड्यंत्रकारी भी बुराई का सामना बल से न करो' के पक्के समर्थक थे।


पाँच


शिक्षा के बारे में काल्पनिक समाजवादियों के विचार भी बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। नयी पीढ़ी के पालन-पोषण के बारे में ओवेन के सरोकार और मानव चरित्र के निर्माण के बारे में उनके सिद्धांत के बीच मौजूद गहरे संबंध के बारे में हमें पता ही है। इस सिद्धांत के समर्थक सभी देशों के समाजवादी थे, इसलिए वह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सबने शिक्षा को बेपनाह महत्त्व दिया। फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों में शिक्षा के बारे में सबसे ठोस विचार फूरिये ने व्यक्त किए थे।


मनुष्य पतित पैदा नहीं होता; परिस्थितियाँ उसे पतित बनाती हैं। भ्रूणावस्था में ही शिशु में वे सभी भावनाएं होती हैं जो वयस्क में होती हैं। उनको कुचला नहीं जाना चाहिए बल्कि उपयुक्त दिशा दी जानी चाहिए। फ़रिये कहते हैं अगर ऐसा किया जाए तो ये भावनाएँ उन सभी चीजों की स्रोत बन जाएँगी जो शुभ, महान, उपयोगी और उदात्त हैं। लेकिन मौजूदा समाजव्यवस्था में उनको उपयुक्त दिशा नहीं दी जा सकती। उसके अंतर्विरोध शिक्षाशास्त्री को एक अंधी गली में फंसा देते हैं जिसके फलस्वरूप आज शिक्षा एक खोखला शब्द बनकर रह गई है। गरीबों के बच्चों को उसी तरह से शिक्षित नहीं किया जा सकता जिस तरह अमीरों और सुविधाभोगियों के बच्चों को किया जा सकता है। गरीब का बेटा जीवनवृत्ति का चुनाव जरूरत से मजबूर होकर करता है; वह अपने स्वाभाविक रुझान को परवान नहीं चढ़ा सकता। यह सही है कि अमीर के बेटे के पास अपने रुझान को परवान चढ़ाने के भौतिक साधन होते हैं, मगर विशेषाधिकार संपन्न वर्ग को समाज में जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है उसके भ्रष्टकारी प्रभाव के कारण उसकी आदतें बिगड़कर रह जाती हैं। शिक्षा एक खोखला शब्द तभी नहीं रहेगी जब 'सभ्यता'। फूरिये पूँजीवादी व्यवस्था को यही नाम देते हैं एक बुद्धिसंगत समाज-व्यवस्था के लिए जगह खाली कर दे। आज काम मजदूरों के लिए एक भारी बोझ और एक अभिशाप बनकर रह गया है। बुद्धि के तक़ाज़ों के अनुसार संगठित एक समुदाय में, एक फैलेस्तरी में काम एक आकर्षक वस्तु होगा। वयस्कों के समूह उत्साह के साथ जब कोई काम पूरा कर रहे होंगे तब यह दृश्य ही उभरती पीढ़ी पर एक बहुत लाभकारी प्रभाव डालेगा। अपने एकदम आरंभिक दिनों से ही यह पीढ़ी काम से मुहब्बत करना सीखेगी। यह सब इसलिए और भी आसान होगा क्योंकि बच्चे आम तौर पर काम करना पसंद करते हैं और हमेशा बड़ों के काम की नकल करने के लिए बेचैन रहते हैं। इस रुझान का सही-सही उपयोग सिर्फ फेलॅस्टरी में संभव होगा। वहीं सभी बच्चों के खिलौने साथ ही साथ


106/कल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


श्रम के उपकरण होगे और हर खेल एक उत्पादक कार्य होगा। इस तरह बिना किसी मजबूरी के खेल-खेल में और नकल-नकल में बच्चे की उन सभी प्रकार के कामों की शिक्षा मिल जाएगी जिनके प्रति उसमें एक रुझान पाया जाता है। पर यह नहीं है। श्रम को उसका अर्थ ज्ञान में मिलना चाहिए और युवा पीढ़ी को उस ज्ञान की प्राप्ति समाज के लिए उपयोगी श्रम की प्रक्रिया में होनी चाहिए। इसक अर्थ यह है कि फूरिये की राय में शिक्षा का रूप यह होना चाहिए जिसे आधुनिक शिक्षाशास्त्र में प्रयोगशाला प्रणाली कहा जाता है। और यह शिक्षा यथासंभव घर से बाहर होगी तथा इसमें कुछ भी अनिवार्य नहीं होगा। बच्चे और किशोर खुद ही स्वतंत्र रूप से इसका चुनाव करेंगे कि उन्हें क्या पढ़ना है और उन्हें कौन पढ़ाएगा।


फूरिय की राय में सिर्फ इसी तरह की शिक्षा प्रणाली शिशु की स्वाभाविक योग्यताओं का अधिकतम विकास संभव बनाएगी। उसके शुभ प्रभावों का पूरक यह तथ्य होगा कि मौजूदा सामाजिक अंतर्विरोधों का उन्मूलन मनुष्य की सामाजिक वृत्तियों के विकास की संभावना और बढ़ाएगा। श्रम की उत्पादकता अपनी चरम सीमा तक तभी पहुंचेगी जब मनुष्य अपने अनुकूल सहयोगियों के समाज में अपने पसंदीदा काम में लगने में समर्थ होगा।


पाठक इस बात से सहमत होगा कि शिक्षा संबंधी ये विचार बहुत भारी महत्त्व के हैं। अब एक और बेहद दिलचस्प नुक्ता यह रहा। फूरिये मानते थे कि बच्चे जब तीन या चार साल के हो जाएँ तभी से विभिन्न प्रकार के संयुक्त अभ्यासों की सहायता से उन्हें संतुलित क्रियाओं पर अधिकार पाना सिखाया जाना चाहिए। यह नात जाक्र दालक्रोज के लयदार व्यायाम से मेल खाती है जिसे आजकल हर जगह स्वीकार किया जा रहा है। रिय नाम के इस प्रतिभाशाली फ्रांसीसी कल्पनावादी की प्रणाली में यह 'लयदार या भौतिक सामंजस्य' भावनाओं में संतुलन के लिए आवश्यक दशाओं में एक था।92

छः


फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद ने कला के बारे में भी अपने विचार व्यक्त किए थे। संत-साइमनवादियों ने कला के बारे में बहुत अधिक लिखा है और उन्होंने शायर की नयी सामाजिक सच्चाइयों का ऐलान करनेवाला एक पैगंबर बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन कला के प्रश्नों पर तमाम काल्पनिक समाजवादियों में सबसे गंभीर चिंतन संभवतः पियरे लेरो का है।


लेरो ने लिखा कि, उद्योग से भिन्न जिसका मकसद बाहरी दुनिया को प्रभावित करना होता है, कला मनुष्य के अपने जीवन की अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में, यह स्वयं ही जीवन है, स्वयं की दूसरे मनुष्य के आगे व्यक्त करती है, स्वयं को साकार करती है, स्वयं को स्थायी बनाने के प्रभाव करती है।93 इस विचार से आगे


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 107


बढ़ते हुए लेरो ने कहा कि कला न तो प्रकृति का पुनरुत्पादन है न उसकी नक़ल है। न ही कला कला की नक़ल कर सकती है, अर्थात् एक काल विशेष की कला किसी और काल की कला का पुनरुत्पादन नहीं कर सकती। हरेक विशेष ऐतिहासिक काल की कला बस उसी काल की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है, किसी और काल की आकांक्षाओं की नहीं। 'कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती रहती है, एक ऊँचे पेड़ की तरह जो हर साल अपनी ऊँचाई बढ़ा लेता है, अपनी चोटी को आकाश की तरफ़ उठाता रहता है, और साथ ही धरती में अपनी जड़ों को और गहरे धँसाता रहता है। सुंदर को कला का तत्त्व कहा गया है। लेकिन यह गलत है क्योंकि कलाकार अकसर बेशतर ऐसे विषयों का चित्रण करते हैं जो भद्दे, घिनावने, बल्कि सीधे-सीधे भयानक तक होते हैं। 'कला का दायरा सुंदर के दायरे से कहीं बहुत अधिक लंबा-चौड़ा होता है क्योंकि कला जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है। और जीवन हमेशा सुंदर नहीं होता। लेकिन फिर जीवन को कलात्मक ढंग से व्यक्त करने का मतलब क्या लगाया जाए? लेरो का विश्वास था कि इसका मतलब जीवन को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना है। इस बारे में उनके विचार बिलकुल दोटूक हैं। कहते हैं: 'कला का एकमात्र तत्त्व प्रतीक हैं। लेकिन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति से सामान्यतः उनका अभिप्राय बिंबों में जीवन को व्यक्त करने से था। जब वी जी बेलिस्की (रूसी जनवादी विचारक और भौतिकवादी दार्शनिक, 1811-1848-संपादक) ने कहा कि विचारक अपने विचारों को तकों में और कलाकार बिंबों में व्यक्त करता है तो वे लेरो से पूरी तरह सहमत दिखाई देते हैं। इसी विचार का सूत्र पकड़े हुए 'लाल बालों वाले प्योत्र' इस नतीजे पर पहुँचे कि कलाकार स्वतंत्र (फ्री) तो होता है पर उतना मुक्त (इनडिपेंडेंट) नहीं होता जितना कुछ लोग समझते हैं। 'कला जीवन है, जो खुद को जीवन से संबोधित करती है। कलाकार अपने इर्द-गिर्द के जीवन की अनदेखी करता तो गलती करता है। लेरो के नज़दीक कला के लिए कला का सिद्धांत 'एक विशेष प्रकार का अहं-भाव है। फिर भी उन्हें लगता है कि 'कला के लिए कला का सिद्धांत अपने सामाजिक वातावरण से कलाकार के असंतोष का परिणाम है। फलस्वरूप जो निकम्मी कला पूँजीवादी समाज की निकृष्ट, या लेरो के शब्दों में 'घटिया भौतिकवादी,' प्रवृत्तियों को व्यक्त करती है उसके मुक़ाबले वे 'कला के लिए कला को भी वरीयता देने को तैयार हैं। जो भी हो उस 'रुग्ण' कविता को लेरो ने कहीं बहुत अधिक महत्त्व दिया है जिसने गेटे की वर्थर्स लाइडेन (वर्धर का और फ़ाउस्ट को जन्म दिया है। पुकार-पुकारकर कहते हैं : 'हमें वैसे ही फ़न से भरे, वैसे ही आज़ाद दिलों के दर्शन कराओ, ऐ शायरी, जिनकी तस्वीरें गेटे ने पेश की है! बस इतना करना कि इस आज़ादी को एक मक़सद दे दो और इस तरह इसे शूरवीरता का रूप ले लेने दो...संक्षेप में, हमें अपनी सभी रचनाओं में सबके मुक़द्दर से जुड़े हुए इनसान के मुक़द्दर की मुक्ति के दर्शन कराओ...गेटे और बायरन


108 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के विशाल दानवों से मनुष्यों की रचना करो मगर उन्हें उनके उत्तम चरित्र से वंचित मत करना।99 उनके काल में फ्रांस के साहित्यिक विकास के इतिहास में इन विचारों ने बहुत अहम भूमिका निभाई। हरेक को पता है कि उन्होंने जार्ज (साँ फ्रांसीसी लेखक आरोरे दुदवाँ (1804-1876) का छद्म नाम-संपादक) के साहित्यिक कार्यकलापों पर भारी प्रभाव डाला। आम तौर पर, अगर फ्रांसीसी रोमानवादियों में ऐसे लोग थे (मसलन जार्ज सौ के अलावा विक्तोर ह्यूगो) जिन्होंने 'कला के लिए कला' के सिद्धांत को अस्वीकार किया तो यह मानना बिलकुल मुनासिव ही होगा कि उनके साहित्यिक विचारों को उस दौर के समाजवादी साहित्य की मदद से ही एक रूपरेखा मिली।


(स) जर्मन काल्पनिक समाजवाद


एक


फ्रांस में और ब्रिटेन में सैद्धांतिक स्तर पर फ्रांस के 18वीं सदी के प्रबोध-दर्शन से काल्पनिक समाजवाद का गहरा संबंध था। जर्मन काल्पनिक समाजवाद के बारे में यह बात बस आंशिक रूप से सही है। जर्मन समाजवादियों में कुछ तो ऐसे थे जिनके विचार फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवाद के तात्कालिक प्रभाव के अंतर्गत और इसलिए फ्रांसीसी प्रबोधवादियों के अप्रत्यक्ष प्रभाव के अंतर्गत विकसित हुए। लेकिन उनमें कुछ दूसरे लोग भी थे जिनके विचार फ्रांसीसी नहीं बल्कि जर्मन दर्शन से उपजे। जर्मनी में समाजवादी सिद्धांत के विकास क्रम को किसी भी दूसरे जर्मन दार्शनिक से अधिक लूडविग फ्रायरवाख (18041872) ने प्रभावित किया। जर्मन समाजवाद में एक पूरा संप्रदाय ऐसा है (तथाकथित सच्चा या दार्शनिक समाजवाद) जिसके सैद्धांतिक तामझाम को ईसाइयत का सारतत्व के लेखक के दर्शन का पहले से अध्ययन किए बिना नहीं समझा जा सकता। (यहाँ उद्धृत पुस्तक लुडविग फायरवाख की ही एक प्रमुख रचना है-संपादक। यही कारण है कि मैं हेगेल से फायरबाख तक जर्मन दार्शनिक चिंतन की प्रगति पर लिखे गए एक लेख में ही इस समाजवादी संप्रदाय की चर्चा करूँगा।100 यहाँ में सिर्फ जर्मन समाजवाद की उस धारा का जिक्र करूँगा जिसने खुद को जर्मन दर्शन से अलग रखा तथा जो जर्मनों के मन पर फ्रांसीसी समाजवादी साहित्य के प्रभाव की उपज था।


अगर उन दिनों फ्रांस आर्थिक विकास में ब्रिटेन से बहुत पीछे या तो जर्मनी भी फ्रांस से कोसों पीछे था। प्रशा में तीन-चौथाई से अधिक आबादी देहातों में रहती थी। सभी जर्मन नगरों में दस्तकारी उत्पादन का सबसे प्रमुख रूप थी। आधुनिक औद्योगिक पूँजीवाद की कुछेक प्रांतों में ही, मसलान राइनिश प्रशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई थी। जर्मन जनमैन (दस्तकार संघों का एक अर्धदास जैसा सदस्य–संपादक)


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 109


की क़ानूनी स्थिति को इन थोड़े से शब्दों में रखा जा सकता है: पुलिस की मनमानी कार्रवाई के सामने पूरी तरह असुरक्षित वायलैंड लिखते हैं : 'जो भी सुबह के समय एक बार भी वियना के पुलिस मुख्यालय में गया है, उसे उन सैकड़ों जर्नीमैनों की याद होगी जिनको एक तंग गलियारे में अपनी मार्ग पुस्तिकओं (रोड-बुक्स) के लिए इंतज़ार करते हुए, कंधे से कंधा टकराते घंटों तक खड़े रहना पड़ता था, जबकि हाथ में बरछी या डंडा लिये एक पुलिसिया उन पर नज़र रखता था, जैसे एक मेट गुलामों पर नज़र रखे हुए हो। ऐसा लगता था जैसे पुलिस और इंसाफ़ ने इन गरीब लोगों को मायूसी की गोद में धकेलने के लिए आपस में साज़िश कर रखी हो । यही वे मायूस गरीब लोग थे जिनके साथ हाकिम लोग, वायलैंड के शब्दों में, जानवरों जैसा व्यवहार करते थे, मगर यही लोग 1830 और 1840 की दहाइयों में जर्मनी में फ्रांसीसी समाजवाद के विचारों के प्रमुख प्रचारक थे। यशस्वी कम्युनिस्ट लेखक विल्हेल्म वाइटलिंग 102 (पेशे से दर्ज़ी) इन्हीं लोगों में से निकलकर सामने आए। यहाँ उनके विचारों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। लेकिन उनकी विवेचना करने से पहले मैं प्रतिभासंपन्न ग्यार्ग व्यूखनर103 की एक रचना पर कुछ शब्द कहना चाहूँगा जिनकी भरी जवानी में मौत हो गई।


गैरकानूनी ढंग से प्रकाशित इस रचना का शीर्षक Der hessische landbote (ग्रामीण हेसेन मुखपत्र) है। इसे आफ़ेनबाख के एक गुप्त छापेखाने में जुलाई 1894 में छापा गया था और यह मुख्यतः किसान वर्ग को सम्बोधित था। यह एक उल्लेखनीय तथ्य हैं। न तो अंग्रेज़ और न ही फ्रांसीसी समाजवादी साहित्य में हमें किसान वर्ग के नाम कोई सीधी अपील नज़र आती है। जर्मनी तक में यह रचना अपने ढंग की अकेली रचना रही। वाइटलिंग और उनके सहयोगियों ने मज़दूर वर्ग के लिए या सटीक कहें तो दस्तकारों के लिए लिखा। सिर्फ़ 1870 की दहाई के रूसी समाजवादियों की अपीलें 'मुख्यतः किसानों के नाम थीं। 104


ग्रामीण हेसेन मुखपत्र की विषय-वस्तु भी यूँ कह लीजिए कि नरोदनिक ही है। इसमें (अगर उस शब्दावली का प्रयोग करें जिसका नरोदनिकों ने अकसर सहारा लिया है तो) 'जनता की तात्कालिक आवश्यकताओं की बात की गई है। इसमें व्यूखनर अमीर व्यक्ति के स्वतंत्र और स्वच्छंद जीवन को एक अंतहीन छुट्टी कहते हैं और उसका मुकाबला गरीब व्यक्ति के कड़वे जीवन से करते हैं जिसे वे मशक्कत का अंतहीन काल कहते हैं। फिर वे करों के बोझ की बात करते हैं जो जनता को कुचल रहे हैं, और मौजूदा शासन व्यवस्था की तीखी आलोचना करते हैं। अंतिम बात । वे - जनता को जालिमों के खिलाफ़ उठ खड़े होने की राय देते हैं और इतिहास से इसके उदाहरण मुख्यतः 1789 और 1830 की फ्रांसीसी क्रांतियों के उदाहरण देते हैं जो जन-उभार की विजय की संभावना साबित करते हैं।


उन दिनों किसानों के नाम इस क्रांतिकारी आह्वान की सफलता की कोई


110 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


संभावना नहीं थी। किसानों ने उपर्युक्त पुस्तिका की प्रतियाँ हाकिमों के हवाले कर दो जिनको रात में उनके झोंपड़ों के आसपास बिखरा दिया गया था। इस संस्करण की बाक़ी प्रतियाँ पुलिस ने जब्त कर लीं और व्यूखनर को फ़रार होना पड़ा। लेकिन उन्होंने एक क्रांतिकारी की भाषा में किसान वर्ग से अपनी बात कही, यही तथ्य 1830 की दहाई में जर्मन समाजवादी चिंतन के लिए अजीबोगरीब था। पुस्तिका में ब्यूखनर का ऐलान था 'झोपड़ों में शांति! महलों के खिलाफ़ युद्ध!" यह तो वर्ग संघर्ष का ही आह्वान था। वाइटलिंग ने भी अपने पाठकों के नाम इसी तरह की अपीलें जारी कीं। जो जर्मन समाजवादी लेखक फ़ायरबाख के दर्शन की पाठशाला में पढ़ चुके थे, सिर्फ़ उन्हीं की रचनाओं में शांतिप्रेमी मनोस्थिति सामने आई और कुछ समय तक बनी रही।


लेकिन वर्ग संघर्ष का उपदेश देते हुए भी व्यूखनर ने उस संघर्ष में राजनीति के महत्व को महसूस नहीं किया। उन्होंने एक साविधानिक व्यवस्था के लाभों से कोई उम्मीद नहीं लगाई। हमारे नरोदनिकों की तरह उन्हें भी सता रहा था कि एक संविधान पूँजीपति वर्ग का प्रभुत्व स्थापित करके जनता की स्थिति को और भी बदतर बनाएगा। अगर हमारे संविधानवादी जर्मन सरकारों को उखाड़ने में और एक संयुक्त राजतंत्र या एक गणतंत्र स्थापित करने में सफल हुए, तो इससे फ्रांस की तरह ही यहाँ भी एक वित्तीय कुलीनतंत्र ही पैदा होगा।' बेहतर है कि हालात वैसे ही रहें जैसे हैं।' एक संविधान के प्रति ब्यूखनर का यह दृष्टिकोण उन्हें हमारे नरोदनिकों की श्रेणी में भी ला देता है। एक क्रांतिकारी होने के नाते निश्चित ही वे उस घिनावनी राजनीतिक व्यवस्था के समर्थक नहीं थे जो तब मौजूद थी। उन्होंने एक गणराज्य की तरफ़दारी भी की, मगर ऐसे गणराज्य की नहीं जो वित्तीय कुलीनों का शासन स्थापित करे। वे चाहते थे कि क्रांति सबसे पहले जनता के भौतिक हितों की ज़मानत दे। दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि जर्मन उदारवाद ठीक इसी कारण से नामर्दाना है कि कामकाजी जनता के हितों को अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं का आधार बनाने की न तो उसकी इच्छा थी न ऐसी उसकी सामर्थ्य थी।


ब्यूखनर के नज़दीक आज़ादी का सवाल ताक़त का सवाल है। यह ठीक वही विचार है जिसे वर्षों बाद संविधान के सारतत्त्व पर अपने भाषण में (फर्डिनांड) लासाल) ने बहुत अच्छी तरह विकसित किया।


ब्यूखनर ने डांटस टोड (डांटन की मौत) शीर्षक से एक नाटक भी लिखा था, में इस नाटक का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं बल्कि सिर्फ़ यह कहूंगा कि इसका 'करुण रस' इतिहास की महागतियों के दौरान नियमों से सामंजस्य की अफलदायी और इसलिए पीड़ादायी खोज में निहित है। अपनी मंगेतर के नाम लिखे गए पत्रों में से एक में, जो साफ़ तौर पर उसी काल का है जब वे अपने नाटक पर लगे हुए थे, व्यूखनर ने लिखा था: 'पहले ही कई दिनों से में एक-एक मिनट पर अपना


काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 111

क़लम उठाता हूँ, पर एक भी शब्द नहीं लिख सकता। मैं क्रांति के इतिहास का अध्ययन करता रहा हूँ; मैंने खुद को गोया कि इतिहास के भयानक भाग्यवाद के नीचे कुचले जाते महसूस किया है। मुझे मानव-स्वभाव में अत्यंत घृणित साधारणपन के और मानव-संबंधों में एक ऐसी अजेय शक्ति के दर्शन होते हैं जो सामान्यतः सभी को बख़्शी गई है और विशेष रूप से किसी को भी नहीं। व्यक्ति का व्यक्तित्व लहर के ऊपर का झाग मात्र है, महानता मात्र एक संयोग है, प्रतिभा की शक्ति बस कठपुतलियों का तमाशा है, एक ऐसे लौह-नियम से लड़ने का हास्यास्पद प्रयास है जिसका अधिक से अधिक सिर्फ़ पता लगाया जा सकता है लेकिन जिसे अपने बस में करना असंभव है।' फ्रांस में 18वीं सदी के प्रबोध के दार्शनिकों की ही तरह 19वीं सदी का काल्पनिक समाजवाद भी मानवजाति के ऐतिहासिक विकास में नियमों से अनुरूपता की समस्या को हल नहीं कर सका। मैं तो बल्कि कुछ और भी कहूँगा : उस काल का समाज ठीक इसी कारण से काल्पनिक था कि वह इस प्रश्न को हल करने में असमर्थ रहा। फिर भी इस दिशा में ब्यूखनर के निरंतर प्रयास दर्शाते हैं कि वे काल्पनिक समाजवाद के दृष्टिकोण से संतुष्ट नहीं रहे। जब अलेक्सांद्र हर्ज़ेन अपनी पुस्तक सागर के दूसरे किनारे से लिख रहे थे, तब वे भी ठीक उसी समस्या से जूझ रहे थे जिसने बहुत पहले ब्यूखनर को परेशान कर रखा था।


दो


मैंने कहा कि दस्तकार जर्नीमैन जर्मनी में फ्रांसीसी समाजवादी विचारों के वाहक थे। ऐसा कैसे हुआ, यह भी देखिए। जैसा कि हम जानते हैं, अपना प्रशिक्षण पूरा करने के बाद कई साल तक वे यात्राएँ करते रहते थे। उनकी यात्राएँ अकसर उन्हें जर्मनी से बाहर ले जाती थीं और वे जब अधिक उन्नत देशों में रहते थे तो वहाँ के प्रगतिशील सामाजिक आंदोलनों के संपर्क में आते थे। फ्रांस में उनका परिचय समाजवाद से हुआ और उनको सबसे अधिक हमदर्दी उसके अतिवादी रूप से, अर्थात् साम्यवाद से, थी। उस समय जर्मन समाजवाद के सबसे उल्लेखनीय सिद्धांतकार दर्ज़ी वाइटलिंग थे, जिनका ज़िक्र में पहले ही कर चुका हूँ। उन्होंने भी फ्रांसीसी काल्पनिक समाजवादियों के प्रभाव को महसूस किया और वे भी साम्यवादी बन गए।


काल्पनिक समाजवाद ऐतिहासिक विकास के वस्तुगत मार्ग पर नहीं बल्कि मानव जाति की श्रेष्ठतर भावनाओं पर भरोसा करता था। जैसा कि आजकल के जर्मन लेखक कहते हैं, यह जज़्बात का समाजवाद था। वाइटलिंग इस सामान्य नियम के अपवाद नहीं थे। उन्होंने भी भावनाओं की दुहाई दी और अपने आह्वानों को बाइबिल के हवालों से पुष्ट किया। उनकी पहली रचना Die Menschheit wie sie ist und wie ste sein sollte (मानव जाति जैसी है और जैसी होनी चाहिए), जो 1838 में प्रकाशित हुई थी, गास्पेल के इन शब्दों से आरंभ होती है: लेकिन जब उसने


112 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


(ईसा ने - संपादक) देखा लोगों को तो भर उठा उनके प्रति करुणा से..तब उसने कहा अपने शिष्यों से (कि) फसल तो सच है बहुत अधिक हुई है मगर मज़दूर हैं थोड़े। इसलिए करो दुआ फसलों के मालिक से कि वह भेजे मज़दूर अपनी फ़सलों के लिए।


वाइटलिंग ने इस उद्धरण की व्याख्या इस तरह से की है कि मानवजाति तो यह फ़सल है जो पककर पूर्णता पानेवाली है और उसका फल धरती पर संपत्ति का समुदाय है। वे अपने पाठकों से कहते हैं: 'प्रेम का आदेश बुलाता है तुम्हें उस फ़सल की ओर और काटने के लिए खुशियों की फसल। तो अगर चाहते हो तुम फसल को काटना और खुशियों को पाना तो पालन करो प्रेम के इस आदेश का। 106 


मानव-चरित्र के निर्माण संबंधी शिक्षा, अर्थात् मानव स्वभाव की एक जानी-पहचानी धारणा, ओवेन का प्रस्थानबिंदु थी। फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों ने भी इसी धारणा को अपना आधार बनाया। इसमें बस यहाँ वहाँ उन्होंने अपनी ज़रूरत के मुताबिक संशोधन किए। वाइटलिंग भी कोई अपवाद नहीं थे। फूरिये की मिसाल पर चलते हुए उन्होंने अपनी बात मनुष्य की भावनाओं और आवश्यकताओं के विश्लेषण से आरंभ की तथा उस विश्लेषण के परिणामों के आधार पर अपनी भावी समाज की रूपरेखा तैयार की।107 फिर भी उन्होंने अपनी योजना को कोई निरपेक्ष महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने खुद कहा इस तरह की योजनाएँ इस अर्थ में बहुत अच्छी होती हैं कि वे समाज-सुधार की संभावना और आवश्यकता को साबित करती हैं। "ऐसी कृतियाँ जितनी ही अधिक होंगी, जनता को उसका उतना ही अधिक प्रमाण मिलेगा। लेकिन इस विषय पर सबसे अच्छी रचना तो हमें अपने खून से लिखनी होगी।108 यहाँ हमें इस तथ्य की एक कमोवेश धुंधली चेतना दिखाई देती है कि भावी समाज की प्रकृति का निर्धारण सामाजिक विकास का वस्तुगत मार्ग करेगा जिसकी अभिव्यक्ति, प्रसंगवश, वर्गों के क्रांतिकारी संघर्ष में होती है। वाइटलिंग ने 'अमीरों को संबोधित नहीं किया, उन्होंने तो पद और प्रतिष्ठा का भेद किए बिना पूरी मानवजाति को भी संबोधित नहीं किया। उन्होंने सिर्फ 'बम और कष्टयाले लोगों' को संबोधित किया। उन्होंने फूरिये की जमकर खिचाई की कि वस्तुओं के वितरण की योजना में उन्होंने पूँजी को रिआयतें दी है। वाइटलिंग की राय में ऐसी रिआयतें देने का मतलब मानवता के नये मखमली कुर्ते पर टाट के पैबंद लगाना तथा मौजूदा पीढ़ी और तमाम आइंदा पीढ़ियों का मजाक उड़ाना है।109 उन्होंने कहा कि नये के द्वारा पुराने का हरेक विस्थापन क्रांति  है। नतीजा यह कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी के अलावा कुछ और हो भी नहीं सकते। लेकिन क्रांतिया हमेशा खून में डूबी हुई नहीं होंगी।110 कम्युनिस्ट खून-खराबेवाली क्रांति के मुकाबले एक शांतिपूर्ण क्रांति को वरीयता देते हैं। लेकिन परिवर्तन का रास्ता उनके ऊपर निर्भर नहीं है; यह बल्कि उच्च वर्गों और सरकारों के  आचरण पर निर्भर है। इटलंग ने लिखा: 'आओ,


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 113


हम शांति के कालों में शिक्षा दें; तूफ़ानी कालों में कर्म करें।111 लेकिन इस सूत्रवाक्य से उन्होंने कुछ शर्तें भी जोड़ीं जिनसे पता चलता है कि सर्वहारा की कार्रवाई के चरित्र के बारे में या मज़दूरों को क्या शिक्षा दी जानी चाहिए, इसके बारे में उनके मन में कोई पूरी तरह स्पष्ट धारणा नहीं थी। उनकी राय में मानवता आज इतनी परिपक्व अवश्य हो चुकी है कि उसके गले पर जो खंजर रखा हुआ है उसे हटाने में क्या-क्या चीजें सहायक हैं, इसे समझ सके। वाइटलिंग ने मार्क्स के इस विचार की निंदा की कि साम्यवाद की ओर अपनी ऐतिहासिक प्रगति के दौरान जर्मनी पूँजीवादी शासन के मध्यवर्ती चरण से कतराकर निकल नहीं सकता। उनकी इच्छा थी कि जर्मनी इस चरण से कतराकर निकल जाए, जैसे बाद में चलकर हमारे नरोदनिक यह इच्छा करने लगे थे कि रूस इससे कतराकर निकल जाए। उन्होंने 1848 में इस प्रस्थापना से सहमत होने से इनकार कर दिया कि सामंतवाद के अवशेषों और पूर्ण राजतंत्र के ख़िलाफ़ संघर्ष में सर्वहारा को पूँजीपति वर्ग का समर्थन करना चाहिए। अपने गले पर रखे हुए खंजर को हटाने की इच्छा  करने की बुद्धिमानी हरेक व्यक्ति में मौजूद है, इसका पक्का विचार रखकर वाइटलिंग ने अपना एक सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे अकसर इन शब्दों में व्यक्त किया जाता है : 'जितना बदतर, उतना ही बेहतर।' उनका विश्वास था कि कामकाजी जनता की स्थिति जितनी ही बिगड़ेगी, मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ़ उसके विद्रोह करने की संभावना भी उतनी ही बढ़ेगी। यूरोपीय सर्वहारा के बाद के विकासक्रम ने दिखा दिया कि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं थी। फिर भी एम ए बाकुनिन के तर्कों में इसी सिद्धांत को हर्फ़-ब-हर्फ़ दोहराया गया। सामाजिक पुनर्निर्माण के संघर्ष की कुछेक विशेष परिस्थितियों में जो क़दम बाइटलिंग की राय में आवश्यक साबित होंगे, उनमें एक क़दम वह भी था जो आज बहुत अजीब दिखाई देता है। उनकी राय में (माना कि सशर्त सही, कुछ विशेष दशाओं में ही सही) कम्युनिस्टों के लिए इस बात की सिफ़ारिश ज़रूर की जा सकती है कि वे शहरी आबादी के झुग्गी-झोंपड़ी वाले तत्वों को आकर्षित करें तथा इन तत्त्वों के हीन नैतिक स्तर के अनुरूप 'नयी कार्यनीतियाँ' अपनाएँ। अपनी प्रमुख रचना में इस विचार को उन्होंने बस इशारतन रखा है हालांकि ये इशारे भी अच्छे-खासे स्पष्ट . हैं।112  आगे चलकर उन्होंने इसी बात को और स्पष्ट ढंग से व्यक्त किया तथा 'चोरी करनेवाले सर्वहारा' का एक सिद्धांत तैयार किया। वाइटलिंग के सहयोगियों ने इस सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।113  लेकिन बाद में चलकर एम ए बाकुनिन ने बाइटलिंग से मिलता-जुलता एक सिद्धांत गढ़ा-क्रांतिकारी आंदोलन की ढाल के रूप में 'राहजन' का सिद्धांत। जो लोग ऐसे सिद्धांतों पर कुछ अधिक ही चिढ़ के साथ आश्चर्यचकित हो सकते हैं, उन्हें मैं यह याद दिलाना चाहूँगा कि इस विशाल हृदय और दिलेर सूरमा राहजन के बिंब को रोमानी साहित्य में काफ़ी सम्मानित स्थान प्राप्त रहा है।114  और सिर्फ़ रोमानी साहित्य में ही क्या, शिलर का कार्ल मूर भी


114 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ

तो डाकू था। आम तौर पर काल्पनिक समाजवाद ने फंतासी में बहुत भारी श्रद्धा दिखाई है।


तीन


फ़ायरबाख और मार्क्स ने वाइटलिंग की प्रमुख रचना की बहुत गर्मजोशी से तारीफ़ की थीं। इसमें इस बात के काफ़ी प्रमाण मौजूद हैं कि पूँजीवादी समाज में वर्गों के आपसी संबंधों की वस्तुगत गति को अनेक फ्रांसीसी कल्पनावादियों के मुक़ाबले उन्होंने अधिक स्पष्ट ढंग से समझा था। उनकी रचना Garantiesn (ज़मानत) के जो-आरंभिक - अध्याय वर्गों और वर्गीय शासन के उद्गम की विवेचना करते हैं उनमें पाठक को अनेक दिलचस्प टिप्पणियाँ मिलेंगी। सवाल जहाँ सामाजिक विकास की चालक शक्तियों की धारणा का है, वाइटलिंग बिना शुबहा एक विचारवादी थे। फिर भी ऐसा महसूस होता है गोया वे ऐतिहासिक विचारवाद से अब और आगे संतुष्ट नहीं रहे, और वे मज़े ले-लेकर उन अनुमानों की विवेचना करते हैं जो कभी-कभी उनके मन में आते हैं और जो सामाजिक जीवन के कम से कम कुछ पक्षों की एक और भी ठोस व्याख्या की संभावना का संकेत देते हैं। मुझे विश्वास है उनकी प्रमुख रचना की यही ख़ास विशेषता उन कारणों में एक थी जिनके चलते उनके प्रति मार्क्स का रवैया सहानुभूति और समझदारी का रहा। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद वाइटलिंग की ज़मानत ऐसा कोई संकेत नहीं देती कि उसके लेखक ने अर्थशास्त्रीय सिद्धांत में अपने आपमें कोई भारी दिलचस्पी ली हो। वे भी अपने दौर की ही पैदावार थे, और उनके दौर के जर्मन समाजवादी अर्थशास्त्र का अध्ययन तो नहीं ही कर रहे थे। मार्क्सवाद से पहले के काल की जर्मन कम्युनिस्ट लीग के संस्मरण लिखते हुए एंगेल्स ने लिखा है : 'उन दिनों पूरी लीग में एक भी ऐसा शख़्स रहा हो जिसने राजनीतिक अर्थशास्त्र पर कभी कोई किताब पढ़ी हो, मुझे ऐसा नहीं लगता। लेकिन उससे भला क्या फर्क पड़ता था; फ़िलहाल तो 'समानता', 'भाईचारा' और 'न्याय' ही हरेक सैद्धांतिक बाधा को पार करने में उनके मददगार साबित होते थे।115 ज़ाहिर है ब्रिटिश समाजवादियों से इस बारे में जर्मन कम्युनिस्टों की कोई समानता नहीं थी। फिर भी यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि बहुत पहले, पिछली सदी में 1830 की दहाई में, जर्मनी में एक समाजवादी ऐसा भी था जो अर्थशास्त्रीय प्रश्नों में गहरी दिलचस्पी लेता था और राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी साहित्य पर जिसकी बेहद गहरी पकड़ थी। सच है, वह दूसरों से बिलकुल अलग था। उसका नाम योहान्न कार्ल रोडबर्टस यागेत्जोव था।116


अपने बारे में रोडबर्टस ने कहा कि उनका सिद्धांत मात्र उस प्रस्थापना का सुसंगत विस्तार है जिसे स्मिथ ने विज्ञान में दाखिल किया और जिसको रिकार्डो के संप्रदाय ने और भी ठोस ढंग से पुष्ट किया- यह प्रस्थापना कि उपयोग की सभी


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 115


वस्तुओं को, आर्थिक दृष्टि से, मात्र श्रम की पैदावर मानना चाहिए, जिनकी श्रम से अलग कोई लागत न हो। श्रम उपभोग की वस्तुओं के मूल्य का एकमात्र स्रोत है, उनका यह विचार उनकी 1842 में प्रकाशित पहली पुस्तक में प्रतिपादित किया गया था जिसका शीर्षक Zur Erkenntnis unserer staatswirtschaftiches Zustyande था। इसका शाब्दिक अनुवाद होगा: अपनी राष्ट्रीय आर्थिक दशाओं के ज्ञान में योगदान। लेकिन सही बात यह है कि शब्द के सटीक अर्थ में राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के प्रश्नों से रोडबर्टस का सरोकार नहीं रहा। उन्होंने पूँजीवादी समाज में मजदूर की स्थिति का अध्ययन किया और ऐसे उपाय निकालने की कोशिश की जो इस स्थिति में सुधार लाने में सहायक हों। लिखते हैं: 'राष्ट्रीय उत्पादन में मज़दूर वर्गों के भाग में वृद्धि करना मेरे अनुसंधानों का उद्देश्य होगा, और वह भी एक ऐसे ठोस आधार पर जो बाज़ार के उतार-चढ़ाव के प्रभावों से मुक्त हो। मैं इस वर्ग को उत्पादकता में प्रगति में भाग लेने का अवसर भी देना चाहता हूँ। मैं उस नियम का उन्मूलन करना चाहता हूँ जो हमारी दशा के लिए अन्यथा घातक हो सकता है, अर्थात् यह नियम कि उत्पादकता चाहे जितनी ही बढ़ जाए, बाज़ार की कृपा से मज़दूर हमेशा घटकर मज़दूरी के उस स्तर पर पहुँचते रहेंगे जो जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक स्तर से ऊपर न हो, मजदूरी के उस स्तर पर जो मज़दूरों को हमारे युग की शिक्षा पाने से वंचित रखता है...मज़दूरी के उस स्तर पर जो उनकी मौजूदा कानूनी स्थिति से, हमारी सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं ने दूसरे जनवर्गों के साथ उन्हें औपचारिक समानता का जो दर्जा दिया है उससे, बेहद स्पष्ट अंतर्विरोध से ग्रस्त है। 118


आज की परिस्थितियों में मजदूरियां हमेशा घटकर मज़दूरों के जीवननिर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताओं के स्तर तक पहुँचती रहती हैं। साथ ही, श्रम की उत्पादकता लगातार बढ़ रही है। इसलिए मजदूर वर्ग अपने श्रम से जो माल पैदा करता है उसमें उसका भाग लगातार घटता रहता है। रोडवर्टस कहते हैं: 'मुझे विश्वास है कि उत्पाद के भाग के रूप में देखें तो श्रमिकों की मज़दूरियों में अधिक नहीं तो कम से कम उतने अनुपात में अवश्य कमी आती है जिस अनुपात में श्रम की उत्पादकता बढ़ती है। और अगर यह साबित किया जा सके कि श्रमिकों के श्रम से पैदा राष्ट्रीय उत्पाद के भाग के  रूप में उनकी मज़दूरियाँ लगातार कम हो रही हैं, तो औद्योगिक संकट जैसी डरावनी प्रवृत्तियों पूरी तरह समझ में आने लगती हैं। मज़दूरियों में सापेक्ष कमी के कारण मजदूरों की क्रयशक्ति समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के संगत नहीं रह जाती। यह क्रयशक्ति बढ़ती नहीं है बल्कि घटती ही है, जबकि उत्पादन बढ़ता है और बाज़ार मालों से पट जाते हैं। इससे मालों को बेचने में कठिनाई आती है, कारोबार में मंदी आती है, और आखिर में औद्योगिक संकट आते हैं। रोडबर्टस इस आपत्ति के रोब में नहीं आते कि उच्च वर्गों के हाथों में क्रयशक्ति बनी रहती


116 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


है और वह बाज़ार को प्रभावित करती रहती है। कहते हैं: 'मूल्य एक माल में निहित होता है मगर माँग से ऊपर नहीं जाता। एक मजदूर के हाथों में जो कुछ मूल्यवान होता है, वही दूसरों के हाथों में फ़ालतू अर्थात् न बिकने वाला माल बन जाता है। संचित ढेर का वितरण संभव हो, इसके लिए राष्ट्रीय उत्पादन में एक लंबा ठहराव आना चाहिए, और तभी जाकर राष्ट्रीय उत्पादन के एक बड़े भाग का पुनर्गठन किया जाना चाहिए ताकि एक मज़दूर से जो कुछ ले लिया जाता है वह किसी दूसरे के हाथों में पहुँचकर बाज़ार में क्रयशक्ति में वृद्धि का रूप ले सके 120


राष्ट्रीय उत्पाद में मज़दूर वर्ग के भाग में कमी उसके दरिद्र होने का सूचक है। रोडबर्टस यहाँ एडम स्मिथ से सहमत नहीं हैं जिनका कहना था कि एक व्यक्ति उसी सीमा तक अमीर या गरीब होता है जहाँ तक उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित होती है। अगर यह बात सही होती तो आज का जर्मन धन्नासेठ पुराने ज़मानों के राजाओं से भी अमीर होता 'हमें (किसी व्यक्ति या किसी वर्ग की) दौलत को एक जनगण के सांस्कृतिक विकास की मौजूदा अवस्था से निर्धारित वस्तु-समूह में (उस व्यक्ति या वर्ग के) सापेक्ष भाग के रूप में समझना होगा। 121.


इस तरह सामाजिक समृद्धि में वृद्धि के साथ ही वह वर्ग सापेक्षतः दरिद्र होता जाता है जिसके श्रम ने वह समृद्धि पैदा की है। राष्ट्र का ⅚ भाग संस्कृति के तमाम लाभों से वंचित ही नहीं दिखाई देता उसे कभी-कभी बदहाली की वे भयानक मारें भी झेलनी पड़ती हैं जिसका साया उसके ऊपर लगातार मँडरा रहा है। पिछले ऐतिहासिक युगों में, चलिए हम माने लेते हैं कि, कामगार जनता का वंचित रहना सभ्यता की प्रगति के लिए आवश्यक था। आज उत्पादक शक्तियों की वृद्धि ने इन अभावों को समाप्त करने की पूरी-पूरी संभावना पैदा की है। जैसा कि किर्चमान के नाम अपने पहले पत्र में रोडबर्टस ने सवाल उठाया है: 'क्या इससे भी बढ़कर कोई न्यायोचित माँग हो सकती है...कि पुरानी और नयी दीलत के सर्जकों को भी इस बढ़ोत्तरी से भी कुछ लाभ मिलना चाहिए, कि उनकी आय बढ़नी चाहिए या श्रम का समय कम होना चाहिए या यह कि लगातार बढ़ती संख्या में ये लोग उन सुखी लोगों की श्रेणी में पहुँचने चाहिए जिनको श्रम की फ़सल काटने के बारे में विशेष अधिकार मिले हुए हैं?' इस माँग से बढ़कर न्यायोचित माँग और कोई नहीं, इस बारे का पूरा-पूरा विश्वास होने के कारण रोडबर्टस मज़दूरों की हालत सुधारने के लिए उपायों की एक श्रृंखला पेश करते हैं।


इन सभी उपायों का मूलतत्त्व एक ही है: क़ानून द्वारा मज़दूरियों का निर्धारण। राज्य को चाहिए कि उत्पादन की हर शाखा के लिए मज़दूरियों का स्तर तय करे और फिर राष्ट्रीय श्रम की उत्पादकता में वृद्धि के आधार पर उनमें फेरबदल करे। मज़दूरियों का इस प्रकार निर्धारण तार्किक रूप से हमें एक नये 'मूल्य-मान' (स्केल) आफ़ वैल्यू) के निश्चय की ओर ले जाएगा।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 117


चूँकि राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से उपभोग की सभी वस्तुओं को सिर्फ़ श्रम के उत्पाद मानना चाहिए जिनकी लागत श्रम से अलग और कुछ न हो, इसलिए सिर्फ़ श्रम ही सच्चा 'मूल्य-मान' हो सकता है। आज के समाज में बाज़ार में दामों के उतार-चढ़ाव के कारण मालों का विनिमय हमेशा उनके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा के अनुपात में नहीं होता। यह बुराई राज्य के हस्तक्षेप के द्वारा दूर की जानी चाहिए। राज्य को चाहिए कि 'श्रम-मुद्रा' (लेबर मनी) चलाए; इससे मतलब ऐसे प्रमाणपत्रों से है जो संकेत देते हों कि किस वस्तु के उत्पादन में श्रम की कितनी मात्रा लगी है। संक्षेप में, रोडबर्टस विनिमय की उसी व्यवस्था पर पहुँचते हैं जो ब्रिटेन में 1820 की दहाई में पहले-पहल पैदा हुआ और फिर फ्रांस (प्रूदों) तक पहुँचा। इस पर विस्तार से बात करना व्यर्थ ही होगा।


तो भी यह बात कही जानी चाहिए कि रोडबर्टस के नज़दीक इन सभी उपायों का बस अस्थायी महत्त्व था। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट समाज आगे चलकर, कोई 500 वर्षों में स्थापित होगा और तब मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण एक सिरे से ख़त्म हो जाएगा।


'सामाजिक प्रश्न' के इस हल का प्रस्ताव रखते हुए रोडबर्टस कभी यह दोहराते नहीं थकते थे कि यह हल पूरी तरह शांतिपूर्ण होना चाहिए। वे न 'बैरिकेडों' में विश्वास रखते थे और न ' किरोसिन' में और न ही सर्वहारा की स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाई में उन्हें आशा थी कि सब कुछ ऊपर से होगा, शाही सत्ता द्वारा किया जाएगा जो उनकी राय में 'सामाजिक' बननी चाहिए और जो 'सामाजिक' बन सकती है।


मैंने 1842 में प्रकाशित Zur Erkenntnis से शुरू करके रोडबर्टस की विभिन्न रचनाओं के आधार पर यहाँ उनके विचारों को प्रस्तुत किया है। मगर यह बात ध्यान देने की है कि बहुत पहले, 1830 की दहाई के अंतिम भाग तक वे अपने सभी विचारों को सुगठित ढंग से एक लेख में प्रस्तुत कर चुके थे। इस लेख को उन्होंने Augsburger Allgemeine Zeitung को भेजा था मगर पत्र ने उनका यह लेख स्वीकार नहीं किया था। यह लेख डॉ. रोडबर्टस यागेल्ज़ोव कृत Briefe and Sozialpolitische Aufsyatz में मौजूद है जिसे रुडोल्फ़ मेयर ने बर्लिन से 1882 में प्रकाशित किया था। (दूसरी जिल्द में पृ. 575-86, एक पुरानी पांडुलिपि के अंश, देखें।) यह लेख अनेक अर्थों में दिलचस्प है। लेकिन निम्नलिखित बातें सबसे अधिक ध्यान देने योग्य हैं। एक, उनकी यह धारणा कि मज़दूर वर्ग बर्बरों का ('आत्मा और नैतिकता की दृष्टि से बर्बरों का') वर्ग है। 122 दूसरे, यह भय कि सभ्य समाज की क़तारों में रह रहे बर्बर उसके शासक हो सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे प्राचीनकाल के बर्बर रोम के शासक बन बैठे। सब कुछ तब तक ठीक-ठाक चला जब तक सवाल पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष में राज्य द्वारा आज के बर्बरों के इस्तेमाल का था। लेकिन इन बर्बरों


118 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


के ख़िलाफ़ संघर्ष में राज्य फिर किस पर भरोसा करेगा? क्या ये बर्बर अपने ही ख़िलाफ़ लंबे समय तक लड़ेंगे ? समाज को अपनी आत्मरक्षा के लिए समाज-सुधार करने ही होंगे। 123


रोडबर्टस मज़दूर वर्ग से भयभीत थे। अगर वे इस वर्ग से कुछ कम भयभीत होते तो अपने प्रमुख कल्पनालोक (एक 'सामाजिक' राजतंत्र) और उससे गहराई जुड़े गौण कल्पनालोकों (जैसे 'श्रम-मुद्रा'), दोनों की ओर उनका झुकाव कम होता।


आज के पूँजीवादी अर्थशास्त्री यह दोहराने के शौक़ीन हैं कि मार्क्स ने अपना अर्थशास्त्रीय सिद्धांत ब्रिटिश समाजवादियों से लिया। कोई 20 या 25 साल पहले जब ब्रिटिश समाजवादी साहित्य से शायद ही वे परिचित रहे होंगे, यह 'खोज' उन्होंने की कि अपनी अर्थशास्त्री वाली हैसियत के लिए मार्क्स पूरी तरह रोडबर्टस के ऋणी हैं। यह तर्क भी दूसरे जितना ही बेबुनियाद है। अलावा इसके, रोडबर्टस की रचनाओं का एक बड़ा भाग तब प्रकाशित हुआ जब मार्क्स के अर्थशास्त्रीय विचारों की प्रमुख विशेषताएँ पूरी तरह एक रूप ले चुकी थीं। तो भी रोडबर्टस को जर्मन अर्थशास्त्रियों के बीच सम्मान का स्थान प्राप्त है जिनके प्रति प्रसंगवश कह दिया जाए कि वे घोर अपमान भाव रखते थे।124


टिप्पणियाँ


1. प्राकृतिक नियम के 18वीं सदी में प्रचलित सिद्धांत के अनुसार विधिशास्त्र का जन्म मानव की बुद्धि और धारणा से होता है तथा उसकी भूमिका राजसत्ता से स्वतंत्र होती है-संपादक। 


2. लेसली स्टीफेन का विचार था कि बौद्धिक रुझान के एतबार से किसी भी दूसरे अंग्रेज़ विचारक के मुक़ाबले गाडविन क्रांति पूर्व काल के फ्रांसीसी सिद्धांतकारों से अधिक मेल खाते थे। (हिस्ट्री आफ़ इंग्लिश घाट इन द एटीय सेंचुरी बाई लेसली स्टीफेन, दूसरा संस्करण, लंदन, 188, जिल्द दो, पृ. 264 देखें।) चलिए, हम इसे सही माने लेते हैं। फिर भी गाडविन की सैद्धांतिक मान्यता ठीक वही थी जो, मिसाल के तौर पर, ओबेन, फूरिये तथा यूरोपीय महाद्वीप के दूसरे प्रमुख समाजवादियों की थी। 


3. लंदन करेस्पांडिंग सोयायटी (लंदन पत्राचार समिति) को इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग का पहला राजनीतिक संगठन कहा जा सकता है। इस संगठन के सदस्य एक-दूसरे से पत्रव्यवहार करते रहते थे और इसी कारण इसे यह नाम प्राप्त हुआ। 1792 में गठित इस संगठन के सदस्यों को माँगें सार्वभौम मताधिकार तथा हर साल संसद के चुनाव तक सीमित थीं। इसके अधिकांश सदस्य ब्रिटेन को एक गणराज्य बनाए जाने के पक्ष में थे जोकि उनका मुल्क आज, 211 साल बाद भी नहीं है-संपादक। 


4. यहाँ इशारा माल्थस के इस सिद्धांत की ओर है कि जीवन निर्वाह के साधन जहाँ गणितीय श्रेढी (1, 2, 3, 4, 5.) में बढ़ते हैं वहीं जनसंख्या ज्यामितीय बेड़ी (1, 2, 4, 5, 16...) में बढ़ती है और इस कारण एक अवस्था के बाद जीवन निर्वाह के उपलब्ध साधन जनसंख्या की जरूरते पूरी करने में असमर्थ हो जाते हैं। फिर लाज़मी तौर पर युद्ध, महामारी आदि जैसी विपत्तियों आती हैं जो अतिरिक्त जनसंख्या का सफाया करके असंतुलन को दूर करती हैं। पादरी माल्यास ने इस तथाकथित नियम का प्रतिपादन अपनी रचना ऐन एस्से जान द प्रिंसिपुत आफ़ पापुलेशन में किया


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 119


था जो 1798 में प्रकाशित हुई थी। एंगेल्स ने अपने एक आरंभिक लेख 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना' (1844) में माल्यस के इस सिद्धांत की आलोचना की थी। प्रसंगवश इंग्लैंड की जनगणना के पहले प्रयास का श्रेय विलियम गाडविन को ही दिया जा सकता है जिनकी यहाँ प्लेखानोव ने चर्चा की है-संपादक।


5. 'बाड़ों' ने खेतिहर सुधार के विषय पर एक भरे-पूरे साहित्य को जन्म दिया। यह साहित्य, मसलन टामस स्पेंस, विलियम ओजिल्बी और टामस पेज की रचनाएँ, अपने आपमें बहुत ही उल्लेखनीय हैं तथा इसने ब्रिटेन में समाजवादी साहित्य के विकास को बढ़ावा देने में एक खासी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन मैं यहाँ इस साहित्य की विवेचना नहीं कर सकूँगा और कुछ नहीं तो बस इसी कारण से कि 18वीं सदी से संबंधित होने के कारण कालक्रम की दृष्टि से भी मेरे विषयक्षेत्र से बाहर है।


6. हाल की रचना का शीर्षक इफ़ेक्ट्स आफ़ सिबिलाइज़ेशन आन द पीपुल इन यूरोपियन स्टेट्स था-संपादक।


7. ब्रिटेन की 19वीं सदी के पूर्वार्ध की समाजवादी रचनाएँ आज बहुत दुर्लभ हैं। फलस्वरूप मुझे मजबूर होकर कुछेक के कथन हाल में प्रकाशित जर्मन अनुवादों से उद्धृत करने पड़ रहे हैं। बी ओल्डेनबर्ग ने हाल की पुस्तक का जर्मन अनुवाद डी विकुगेन डेर ज़िविलाइजेशन आफ डी मासेन (जनता) पर सभ्यता के प्रभाव-संपादक) (लाइपज़िंग 1905) शीर्षक से किया है। स्वर्गीय प्रोफ़ेसर जी एडलर ने हाप्टवेर्के डेस सोल्जियलुज्मुस उंड डेर सोल्जियलपोलिटिक के सामान्य शीर्षक से जो पुस्तक-श्रृंखला प्रकाशित की थी, उपर्युक्त रचना उस शृंखला की चौथी पुस्तक है। हाल का उद्धरण ओल्डेनबर्ग के अनुवाद में पृ. 29 पर मिलता है।


8. उपर्युक्त, पृ. 38


9. उपर्युक्त, पृ. 38-991


10. उपर्युक्त, पृ. 47 देखें। यहाँ कह दिया जाए कि ब्रिटिश क़ानून तब हड़ताल की एक संगीन जुर्म मानता था।


11. उपर्युक्त, पृ. 401


12. उपर्युक्त, पृ. 76


13. उपर्युक्त, पृ. 82

14. उपर्युक्त, पृ. 49


15. जन्म 14 मार्च 1771 को न्यूटाउन, नार्थ वेल्स में; 17 नवंबर 1858 को देहावसान।


16. इंग्लैंड में 1840 की दहाई तक भी अनेक कारखानों में मज़दूरों से 14 से 16 घंटे तक और कहीं-कहीं तो इससे भी अधिक समय तक काम लिया जाता था। ब्रिटिश संसद ने 1833 में इस बारे में एक क़ानून अवश्य बनाया मगर वह सिर्फ़ 13 से 18 साल तक के किशोरों के लिए या जिनके लिए 12 घंटों का काम का दिन निश्चित किया गया। काम का दिन घटाकर 10 घंटे करने की माँग चार्टिस्ट आंदोलन की प्रमुख माँगों में एक थी-संपादक।


17. उनका वह पत्र देखें जो 9 अगस्त 1817 के रोज़ लंदन के अनेक समाचारपत्रों में छपा था। द लाइफ़ ऑफ़ राबर्ट ओवेन रिटेन बाई हिमसेल्फ़ (लंदन, 1857) में इसे उनकी आत्मकथा के पूरक रूप में फिर से प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक को आई ए कहा जाता रहा है। मैं आगे अभी कई बार इसके हवाले दूंगा। 


18. उपर्युक्त, पृ. 84 और 86 


19. इस रचना का पूरा शीर्षक ए न्यू व्यू आफ सोसायटी; आर एस्सेज़ आन द प्रिंसिपुल्स आफ़ द फार्मेशन आफ द ह्यूमन कैरेक्टर, एंड एल्पिकेशन ऑफ़ द प्रिंसिपुल टू द प्रेक्टिस है। इसमें चार


120 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


निबंध संकलित हैं जिनमें से दो तो 1812 के अंतिम दिनों में और दो 1813 के आरंभिक दिनों में प्रकाशित हुए थे। 


20. यहाँ और दूसरी जगहों पर भी मैंने एस्सेज़ के दूसरे संस्करण (1816) से उद्धरण दिए हैं। पृ. 19, 90 और 91 देखें।


21. उपर्युक्त, पृ. 1491


22. देखें आब्जर्वेशंस आन द इफ़ेक्ट्स ऑफ़ द मैन्यूफेक्चरिंग सिस्टम, विव हिंट्स फार द इम्प्रूवमेंट आफ़ दोज़ पार्ट्स आफ़ इट व्हिच आर मोस्ट इनजूरियस टू हेल्थ एंड मारल्स डेडिकेटेड गोस्ट रिस्पेक्टफुली टू द ब्रिटिश लेजिस्लेचर (1815), द लाइफ़ ऑफ़ राबर्ट ओवेन, आई ए में पुनर्मुद्रित उपर्युक्त बातें पृ. 38 पर कही गई हैं, पृ. 39 भी देखें।


23. उपर्युक्त, पृ. 39 देखें। यह बात आसानी से साबित की जा सकती है कि 1815 में ब्रिटेन के निर्यात अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, ओवेन का यह निष्कर्ष गलत था। फिर भी यह बात ध्यान देने की है कि ओवेन के विचारों में बाज़ारों का सिद्धांत तब भी एक भूमिका निभा रहा था और यह भूमिका उस भूमिका से बहुत भिन्न नहीं थी जो हमारे 1880 के दशक के नरोदनिकों की शिक्षाओं में बतलाई गई है।


24. ब्रिटेन में 1819 के क़ानून ने सूती मिलों में 9 साल से कम उम्र के बच्चों के काम करने पर पाबंदी लगाई। दूसरी ओर 9 से 16 वर्ष तक के बच्चों और किशोरों के लिए काम का दिन घटाकर साढ़े तेरह घंटे कर दिया गया संपादक।


25. कार्ल मार्क्स, पूंजी (रूसी संस्करण), ओ एन पोपोवा द्वारा प्रकाशित, जिल्द एक, पृ. 215 देखें। (पूँजी, जिल्द एक, 1974 का अंग्रेजी संस्करण, पृ. 261 देखें।)


26. आब्ज़र्वेशंस... पूर्वोक्त, पृ. 781


27. द लाइफ़... आई ए. पूर्वोक्त, पृ. 60 और आगे।


28. उपर्युक्त, पृ. 115।


29. स्पष्ट है कि यह धर्म प्रकृति संबंधी एक भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित था जिसमें देववाद (डीज़्म) की प्रचलित शब्दावली का जरा-सा पुट था और समाजवादी नैतिकता जिसकी पूरक थी। 


30. ये दोनों व्याख्यान ओवेन की रचना ऐन इंटायर न्यू स्टेट ऑफ़ सोसायटी के पूरक रूप में प्रकाशित किए गए।


31. उपर्युक्त, पृ. 151 ।


32. ब्रिटेन में आज भी लोग 'मजदूर वर्ग' (वर्किंग क्लास) की जगह 'मज़दूर वर्गों' (वर्किंग क्लासेज़) की बात करते हैं।


33. व लाइफ़... आई ए, पूर्वोक्त, पृ. 229-30।


34. उपर्युक्त प्रस्तावना तीन ।


35. चार्टिस्ट आंदोलन 1830 और 1810 की दहाइयों में ब्रिटेन में मजदूरों का, एक व्यापक जन-आधार वाला आंदोलन था। उसने जनता का एक ऐलाननामा (पीपुल्स चार्टर) तैयार किया था और इसी से उसे 'चार्टिस्ट' नाम मिला यह आंदोलन चुनाव कानून में सुधारों और परिवर्तनों की माँग करता या ताकि मज़दूरों की संसद में एक आवाज़ हो; उन दिनों मज़दूर मतदान तक के अधिकार से वचित थे। एक समय ऐसा भी आया जब बड़ी-बड़ी सभाओं और प्रदर्शनों के बल पर इस आंदोलन ने ब्रिटेन को हिलाकर रख दिया और सत्ताधारी उससे भयभीत रहने लगे, उसे कुचलने के उपाय सोचने लगे। मजदूरों आर्थिक और राजनीतिक माँगों के बारे में बार्टिस्टों ने संसद को तीन-तीन याचिकाएं दीं मगर वे तीनों खारिज कर दी गई। 1848 की असफल यूरोपीय क्रांति के बाद जब अस्थायी रूप से पूँजीपति वर्ग का सितारा ऊपर चढ़ा, तब चार्टिस्ट आंदोलन का भी ह्रास आरंभ


काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 121




हो गया और अंततः यह आंदोलन समाप्त ही हो गया। 

36. लंदन के अलावा ऐसा ही एक बाज़ार बरमिंगम में खोला गया था। 

37. प्रस्तुत निबंध में मैं किसी सामाजिक आंदोलन के इतिहास की नहीं बल्कि केवल कुछ विचारों के इतिहास की ही विवेचना करता आया हूँ। लेकिन चलते-चलते में यह कहना चाहूँगा कि ट्रेड यूनियनों के साथ ओवेन के संबंध का काल वही था जब ब्रिटिश मज़दूर वर्ग संघर्ष के व्यावहारिक तरीकों की ओर अपेक्षाकृत अधिक आकर्षित थे। यह बात उन तरीक़ों की बेहद याद दिलाती है जो हमारे आज के 'क्रांतिकारी' संघवादियों को दिली तौर पर पसंद हैं।

(संघवाद के बारे में पिछले लेख के पृ 71 पर टिप्पणी 51 देखें- संपादक) 


38. अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक इंग्लैंड में समाजवाद का इतिहास (जर्मन) में एम बीर ने (पृ. 280) पर और उससे आगे) इन लोगों के बारे में और भी बहुत कुछ कहा है। हेयरिंगटन की वसीयत (पृ. 282-83) खास ध्यान दिए जाने योग्य है। लवेट और हेथरिंगटन चार्टिस्ट आंदोलन के सक्रिय सदस्य थे। लवेट की आत्मकथा भी छपी है जिसका शीर्षक द लाइफ एंड स्ट्रगल्स आफ़ विलियम लवेट, इन हिज़ परसूट आफ ब्रेड, नालेज, एंड फ्रीडम (लंदन, 1876 ) है।


39. ओवेन के 'सच्चे धर्म' को सबसे प्रतिभाशाली मज़दूरों ने किस रूप में समझा था, इसका पता हेथरिंगटन की वसीयत से चलता है 'मनुष्य के लिए उपयोगी एकमात्र धर्म पूरी तरह नैतिकता के व्यवहार में और दया व प्रेम के कार्यों के पसी लेनदेन में पाया जाता है।


40. मारिस हिलक्विट की पुस्तक हिस्टरी आफ़ सोशलिज़्म इन द यूनाइटेड स्टेट्स (न्यूयार्क, 1903). में अध्याय दो देखें जो 'ओवेनवादी काल' के बारे में है। इसके जर्मन और रूसी, दोनों भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध हैं।


41. उनके जर्मन निबंध 'इंग्लैंड में समाजवादी विचारों का इतिहास का पृ. इकहत्तर और आगे देखें। यह निबंध विलियम वाम्पसन की आज काफ़ी कुछ मशहूर हो चुकी रचना इनक्वारी इन टू द प्रिंसिपल्स आफ द डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ वेल्थ मोस्ट कंड्यूसिव टू ह्यूमन हैपिनेस के जर्मन अनुवाद की प्रस्तावना है। इस रचना के जो हवाले में दूँगा, वे ओस्वाल्ड कोलमान द्वारा किए गए जर्मन अनुवाद से होंगे जी बर्लिन से 1903 में छपा था।


42. जन्म 1785 में, 1833 में देहावसान 


43. जर्मन अनुवाद का पृ. 16 देखें।


44. इसका शीर्षक प्रिंसिपुल्स आफ़ पोलिटिकल इकानमी एंड टैक्सेशन है।


45. इसका शीर्षक द सोर्स एंड रेमेडी ऑफ़ द नेशनल डिफिकल्टीज़ : ए लेटर टू लाई जान रसेल है। मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत (जर्मन), जिल्द 3, स्टुटगार्ट, 1910 में पृ. 281-306 पर इसका जिक्र किया है। (मास्को से प्रकाशित अंग्रेज़ी संस्करण, 1975, पृ. 238-57 देखें-संपादक) 

46. वितरण के बारे में थाम्पसन का अध्ययन 1824 में सामने आया; अगले साल उनकी रचना लेबर रिबाडेंड प्रकाशित हुई। उसी साल ग्रे ने ए लेक्चर आन ह्यूमन हैपिनेस और 1831 में सोशल सिस्टम का प्रकाश कराया जान ने की पुस्तक लेबर्स रांग एंड लेबर्स रेमेडी, आर द एज आफ़ माइट एंड द एज ऑफ़ राइट आर्थिक सिद्धांतों के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है। (यह बीड्स से 1839 में प्रकाशित हुई थी।) प्रसंगवश यह इस कारण से उल्लेखनीय है कि इसमें ब्रे में इतिहास की विचारवादी धारणा को त्यागने की प्रवृत्ति का एहसास होता है जो तमाम काल्पनिक समाजवादियों की साझी विशेषता रही है, और लगता है वे इतिहास की भौतिकवादी धारणा की ओर बढ़ रहे. हैं। (पृ. 26 पर उनका यह तर्क देखें कि समाज अपनी इच्छा से अपने विचारों की दिशा को नहीं बदल सकता ।) यह सच है कि इस प्रवृत्ति ने ब्रे को सामाजिक विकास के बुनियादी कारणों का गंभीर विश्लेषण करने के लिए प्रेरित नहीं किया। में यहाँ टी आर एडमंड्स की पुस्तक प्रेक्टिकल


122 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


मारल एंड प्रैक्टिकल इकॉनमी (लंदन, 1828) का भी जिक्र करूँगा एडमंड्स की राय में मज़दूर वर्ग जितने मूल्य का उत्पादन करता है उसका बस एक तिहाई पाता है, बाक़ी दो-तिहाई मालिकान को जाता है। (पृ. 107, 116 और 288 देखें।) ब्रिटेन के बारे में यह बात आज भी सच्चाई के काफी करीब है। कंगाली (पापरिज़्म) के सामाजिक कारणों के बारे में उनके विचार भी ध्यान देने योग्य हैं 1821 में रेवेनस्टोन ने पुस्तिका ए. फ्यू डाउट्स ऐज़ टू द करेक्टनेस ऑफ़ सम ओपिनियन्स जनरली इंटरटेंड आन द सब्जेक्ट्स आफ़ पापुलेशन एंड पोलिटिकल इकानमी हास्किन की रचनाओं में यहाँ हमारे लिए (1) लेबर डिफ्रेडेड अगेस्ट द क्लेम्स आफ़ कैपिटल (लंदन, 1825); (2) पापुलर पोलिटिकल इकानमी, (3) द नेचुरल एंड आर्टिफिशियल राइट ऑफ़ प्रापर्टी कंट्रास्टेड (लंदन, 1832) सबसे महत्वपूर्ण हैं। रेवेनस्टोन और हांस्किन के बारे में मार्क्स की उपर्युक्त रचना (पृ. 30680) देखें (अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत, मास्को, 1975, जिल्द 3, पृ. 257-319 देखें-संपादक)) एली हालवी ने टामस हारिसकन (1787-1869) शीर्षक से हास्किन पर एक पुस्तक (पेरिस, 1903) भी लिखी है।


47. यहाँ मायर्स की रचना दर्शन की निर्धनता की ओर इशारा है जो प्रूदों की पुस्तक निर्धनता का दर्शन का जवाब थी। मार्क्स की रचना 1847 में प्रकाशित हुई थी-संपादक


48. द हिस्ट्री ऑफ़ ट्रेड यूनियनिज्म, लंदन, 1894, पृ. 147


49. हारिस्कन से मार्क्स के वास्तविक संबंध को, मिसाल के लिए, उस रचना में जिसका हवाला में दे चुका हूँ उसकी, अर्थात् अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की, तीसरी जिल्द में हास्किन के विचारों की ध्यान दें, बहुत ही हमददी भरी-आलोचना में देखा जा सकता है। राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ब्रिटिश समाजवादियों से मार्क्स का वही संबंध या जो इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या के क्षेत्र में आगस्त वियेरी, गीज़ो या मिग्ने से था। इन दोनों क्षेत्रों में ये लोग मार्क्स के गुरु नहीं, बस अग्रगामी हैं जिन्होंने आगे चलकर मार्क्स द्वारा खड़े किए गए वैज्ञानिक ढाँचे के लिए कुछ सामग्री और यह सच है कि बहुत मूल्यवान सामग्री तैयार की थी। जहाँ तक मार्क्स के अग्रगामियों का सवाल है, पूँजी द्वारा उजरती श्रम के शोषण के सवाल के वैज्ञानिक समाधान के इतिहास पर विचार करते समय हमें खुद को 19वीं सदी के पूर्वार्थ के ब्रिटिश समाजवादियों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। 17वीं सदी के कुछ अंग्रेज़ लेखक पहले ही इस शोषण के चरित्र और उद्गम की एक ख़ासी साफ़ समझ का परिचय दे चुके थे। मिसाल के लिए गेरार्ड विंस्टैनली की रचना दला आफ़ फ्रीडम इन ए प्लेटफार्म आर टू मैजिस्ट्रेसी रिस्टोर्ड हंबली प्रेजेंटेड टू ओलिवर कामयेल (लंदन, 1651, पृ. 12) देखें। प्रोपोजल्स फ़ार रेज़िंग ए कालेज आफ़ इंडस्ट्री आफ आल यूजफुल ट्रेड्स एंड हस्बैंड्री विद प्राफ़िट फ़ार द रिच, ए लेटीफुल लीविंग फ़ार द पुअर एंड द गुड एजुकेशन फ़ार यूथ (लंदन, 1695, पृ. 21), और अंत में जान बेलर्स की रचना एस्सेज़ अबाउट द पुअर, मेन्यूफ़क्चर्स, ट्रेड, प्लांटेशंस एंड इम्माटेलिटी एटसेट्रा (लंदन, 1699, पृ. 5-6) देखें। मार्क्स ने अपना आर्थिक सिद्धांत उपर्युक्त रचनाओं के लेखकों से उधार लिया था ऐसी महान 'खोज' करने की अभी तक किसी ने ज़हमत नहीं उठाई है जो अजीब बात है।


50. मार्क्स, पूर्वोक्त, पृ. 238 देखें। 


51. प्रकृतितंत्रवाद पूँजीवादी शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक प्रकृति था जिसका जन्म फ्रांस पैरवी की, संरक्षणवाद में 1750 की दहाई में हुआ। मुक्त व्यापार और मुक्त आवागमन के विचार के पहले प्रतिपादक यही लोग थे। इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधियों ने निजी स्वामित्व के अबाध शासन का विरोध किया तथा व्यापार और प्रतियोगिता की स्वतंत्रता की माँग को। इनका विरोध करनेवाले काब्रिएल बोनो दे मैबली (1709-1785) फ्रांसीसी काल्पनिक साम्यवाद के एक प्रतिनिधि थे-संपादक। 


52. एवे दे मैबली की रचना Doutes proposes aux philosophes economistes sur Forrenaturel


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 123

et essential dex societes politiques. 1768 पृ. 15 देखे।


53. बैचूफ के सिद्धांत का विश्लेषण : जनता की श्रद्धांजलि (फ्रांसीसी) देखें जो एफ ब्योनारोती की सुप्रसिद्ध पुस्तक प्रेक्स और बराबरवालों का षड्यंत्र (फ्रांसीसी) के परिशिष्ट रूप में प्रकाशित हुई थी। मेरे पास 1869 का पेरिस संस्करण है जो थोड़ा सा संक्षिप्त है।


54. ग्रैक्चस बक्यूफ उपर्युक्त पु. 70


55. उपर्युक्त, पृ. 48 और 501


56. कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (हिंदी), देखें। 


57. जन्म 17 अक्टूबर 1700 को 19 मई 1825 को देहावसान


58. सेक्योर जल्द एक, पृ. 245 देखें।


59 जन्म 1809 में 1866 में देहावसान


60: जन्म 1811 में 1882 में देहावसान


61. Histoire de disans, 1830-1840 चोदा संस्करण, जिल्ट , पृ. 4 की टिप्पणी


62. जन्म 1806 में, 1863 में देहावसान


63: जन्म 1797 में 1871 में देहावसान


64, कुबेर तंत्र (फांसीसी), बोलक, 1848, पृ. 25 देखें इस पुस्तक का पहला संस्करण 1815 में प्रकाशित हुआ था।


65 रूस की संसद (यू) में निम्न-पूँजीवादी जनवादियों का एक समूह दोविक कहलाता था। इसमें मुख्यतः कुछ ऐसे किसान और बुद्धिजीबी शामिल थे जिनका झुकाय नरोदनिक विचारों की ओर था। ये दाविक तमाम जागीरों और राष्ट्रीय प्रतिबंधों के उन्मूलन की माँग करते थे। उनकी खेतिहर सुधार की माँग भूमि के समतामूलक बंदोबस्त तथा हरजाना देकर निजी भूस्वामियों की भूमि पाने जैसे नरोदैनिक विचारों पर आधारित थी। स्थानीय स्वशासन का लोकतंत्रीकरण बुदोविकों की एक और महत्वपूर्ण मांग था-संपादक। 


66 जन्म 1908 में 1895 में देहावसान


67. फ्रांस में राजनीति का पतन (फ्रांसीसी), पेरिस, 1886, पृ. 161


68 सेत-साइमन की चुनी हुई रचनाएँ (फ्रांसीसी) सेल्स 1859 जिल्द 1. पृ. 20-21

69. जोर हमारा


70. राजनीतिक पत्राचार 1885-1840 (फ्रांसीसी), पेरिस, 1949, पृ. 6


71. सर्वहारा के ऐसे विचारों की गूँज अलेक्सांद्र हर्जुन की कुछ रचनाओं में सुनी जा सकती है।


72. शाल फुरिये की संपूर्ण रचनाएँ (फांसीसी), पेरिस, 1841, जिल्द 4, पृ. 191-921 

73. सेत-साइमन की चुनी हुई रचनाएँ पूर्वोक्त, जिल्द एक, पृ. 271


74. फ्रांस में शासन और वास्तविक संचालन (फांसीसी), पेरिस, 1820, पृ. 297 


75. उपर्युक्त पुस्तक की प्रस्तावना देखें।


76 जन्म पोसा में 1761 में, पेरिस में वर्ष 1837 में देहावसान 

77. फ्रांसीसी क्रांति के दौरान तीसरी राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) की कनवेंशन कहा जाता था। यह सितंबर 1792 में स्थापित हुई और 26 अक्तूबर 1795 तक कायम रही। फ्रांस में जनता के प्रतिनिधित्व की एक उच्चतर संस्था कही जाने वाली इस कनवेंशन ने ही पहले फ्रांसीसी गणराज्य की घोषणा की थी। निर्ममता के साथ सामंतवाद का उन्मूलन तथा हर तरह के प्रतिक्रांतिकारी और समझौतावादी तत्वों का खात्मा कनवेंशन के प्रमुख कार्य थे। वास्तव में कनवेंशन के इन्हीं कदमों के बाद फ्रांस की बुर्जुवा क्रांति इंग्लैंड की बुवा क्रांति के मुकाबले अधिक मूलगामी नज़र आने सी-संपादक।


124 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


78. इस पुस्तक का पूरा शीर्षक Histoire de la conspiration pour egalite, dite de Babeaf. sulivie du proces aaquel elle a donne lieu है--संपादक। 


79. इसके बारे में चेनॉव की फ्रांसीस पुस्तक फ्रांस का गणराज्यवादी पक्ष, पैरिस, 1901, पृ. 80-89, 281-92 देखें। मगर ध्यान रहे कि श्री बेनॉव ने यूवाद और संत-साइमनबाद के प्रति उनकी के रवैये का गलत वर्णन किया है। 


80. जन्म 1805 में, जनवरी 1881 को नन


81. फ्रांस में राजनीति का पतन (फ्रांसीसी), पूर्वोक्त, पृ. 63; ज़ोर कॉसिदेरी का।


82. फ्रांसीसी समाजवाद के इतिहासकारों ने देज़ामी के बारे में बहुत कम बातें कही है हालांकि कुछ मुआमलों में उनके विचार गहराई से ध्यान देने योग्य हैं। मुझे अफसोस है कि स्थान की कमी मुझे उनकी शिक्षाएँ प्रस्तुत करने से रोक रही है। मैं बस इतनी बात कहूँगा किसी और के मुकाबले उनको शिक्षाएँ कहीं अधिक स्पष्ट रूप से यह दिखाती हैं कि फ्रांस के काल्पनिक समाजवादियों के विचारों का, और खासकर उनके बामपंथ अर्थात् साम्यवादियों के विचारों का 18वीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादियों से कितना गहरा संबंध था देजामी ने मुख्यतः हेल्थेतियस को अपना आधार बनाया जिन्हें ये एक दिलेर प्रवर्तनकर्ता और अमर चिंतक मानते थे। देज़ामी की प्रमुख रचना साम्यवाद का कोड (फ्रांसीसी) पेरिस से 1845 में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने 1841 में समाचारपत्र L Humanitaire का प्रकाशन शुरू किया था। दिलचस्प बात यह है कि बाबर भाइयों के साथ अपने शास्त्रार्य में मायर्स ने देज़ामी की विचार प्रवृत्ति को वैज्ञानिक करार दिया था। (यहाँ प्लेखानोव का इशारा नो बाधेर और एडगर बार की ओर है जो 'युवा हेगेलवाद' के प्रमुख प्रतिनिधि थे और उनके खिलाफ मार्क्स और एंगेल्स ने पवित्र परिवार लिखकर मोर्चा लिया था-संपादक) 


83. जन्म 1788 में 1856 में देहावसान


84. इकारियों की यात्रा (फ्रांसीसी), 1855, पृ. 565 देखें शब्दों पर जोर खुद कावे का है। यह पुस्तक पहली बार मार्च 1842 में प्रकाशित हुई थी। काबे की रचनाओं में सबसे मशहूर रचना यही है; इसमें एक काल्पनिक समाजवादी समाज की जीवन शैली का वर्णन किया गया है। (यहाँ यह बात याद रखने की है कि काबे ने अमरीका में अपनी कल्पनाओं की कम्युनिस्ट वस्तियों बसाने की कोशिश की थी मगर नाकाम रहे संपादक ) 


85. जनता की स्वतंत्र कार्रवाई के बारे में ब्यूनारोती के दृष्टिकोण के बारे में पाल रादिवये की रचना Buonarroti et la sects des Egone d' apres les documents inedits (पॅरिस, 1910) में पृ. 282 पर लेखक की दिलचस्प टिप्पणी देखें।


86. 'अंधी परंपरा ने अभी तक जिसे अतीत में रख छोड़ा है, वह स्वर्णयुग हमारे आगे है। यह वाक्य संत-साइमन की दार्शनिक-ऐतिहासिक विचार प्रणाली की एक प्रमुख स्थापना को व्यक्त करता है। उनकी रचना साहित्य दर्शन और उद्योग संबंधी विचार में यही बाक्य आरंभ में ही दर्ज मिलता है। संत-साइमनवादी पत्रिका से प्रोदक्तियोर (उत्पादक) के मुखपृष्ठ पर भी यही बाक्य छपा सेता था। सात्तिकोय-शेंद्रिन ने अपने एक निबंध में इसी वाक्य का जिक्र करते हुए कहा था कि संत-साइमन, कावे और फूरिये आदि के फ्रांस ने ही 'हमारे अंदर मानवता में आस्था की भावना जगाई, यहाँ से हमें यह आस्था प्राप्त हुई कि 'स्वर्ण युग' हमारे पीछे नहीं, बल्कि हमारे आगे हैं. ...संक्षेप में, जो कुछ अच्छा है, जो कुछ इच्छा करने योग्य है और जो कुछ प्रेम से भरपूर है, यह सब यहीं से आया संपादक।


87. संत-साइमन की रचनाओं में इसके बस इशारे ही मिलते हैं, हम पहले ही कह चुके हैं कि कुछ मुआमलों में संत-साइमन के अनुयायी अपने गुरु से बहुत आगे निकल गए थे। 


88. संत-साइमन का सिद्धांत प्रस्तुति (फ्रांसीसी), पेरिस, 1854, पृ. 207 देखें।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ / 135


89. साम्यवाद का कोड, पूर्वोक्त, पृ. 491


90. कभी-कभी इस इंद्रिय-सुख को ही कल्पनावादी ढंग से पेश किया जाता था, मिसाल के लिए स्त्री-पुरुष संबंधों में इनफैतिन की कुछ फंतासियों में लेकिन बुनियादी तौर पर इससे अभिप्राय "यहीं इसी परती पर रहकर स्वर्ग के साम्राज्य की ओर आरोहण करना था ये शब्द हाइने के हैं जिन्होंने थोड़ा आगे चलकर इनका प्रयोग किया था। प्रसंगवश पियरे लेरो की रचना मानवता (फ्रांसीसी), 1845 का संस्करण, जिल्द 1, पृ. 176 और आगे देखें (यहाँ प्लेखानोव का इशारा हाइनरिख हाइने की कविता 'जर्मनी शरद-कथा' की ओर है-संपादक ) 


91. संत-साइमन का सिद्धांत, पूर्वोक्त, पृ. 255


92. शाल फूरिये की संपूर्ण रचनाएँ जिल्द 5, पृ. 1-84 आन रिदम, पृ. 75-80 


93. उनको रचना कलाकारों के बारे में प्रबंध (फ्रांसीसी) देखें जो पहली बार रिव्यू इनसाइक्लोपेडिक के नवंबर-दिसंबर 1831 के अंकों में छपा था तथा उनकी रचनाओं की पहली जिल्द (पेरिस, 1850) में पुनप्रकाशित हुआ था। यहाँ दिया गया उद्धरण पृ. 66 पर मिलता है। 


94. उपर्युक्त, पृ. 671


95. ऐसे ही विचार आगे चलकर एन जी चेनशेरकी और काउंट लेव तालस्ताय ने व्यक्त किए थे।


96. उपर्युक्त, पृ. 65-67


97. हमें पता है कि 1840 की दहाई में प्रमुख रूसी पश्चिमवादी' (वेस्टर्नर्स) पियरे तेरो के प्रति अत्यंत श्रद्धा भाव रखते थे जिसे उन्होंने (ज़ारशाही सेंसर को धता बताने के लिए संपादक) सावधानी बरतते हुए 'लाल वालोंवाले प्योत्र' का छद्मनाम दे रखा था। निश्चित ही उनकी हमदर्दियों सिर्फ़ उनके साहित्यिक विचारों तक सीमित नहीं थी। लेकिन यह बता देने में कोई नुकसान नहीं कि वे सौंदर्यशास्त्र के बुनियादी प्रश्नों को लेकर भी लेरो के विचारों से सहमत थे। (पश्चिमवादी रूस के उन बुद्धिजीवियों को कहा जाता था जो यह समझते थे कि रूस के विकास का रास्ता वही होगा जो पश्चिमी यूरोप का रहा है तथा रूस भी पूँजीवाद की अवस्था से गुज़रेगा। इस तरह पश्चिमवादी बाद के नरोदनिकों के ठीक मुकाबले में खड़े नज़र आते हैं। रूसी सामाजिक चिंतन में पश्चिमवाद की प्रवृत्ति मध्य-19वीं सदी में अपने चरम सीमा पर थी तथा बेलिस्की इसके प्रमुख प्रतिनिधियों में गिने जाते हैं। रूस में प्रचलित भूदास प्रथा की तुलना में पश्चिमवादी पूँजीवादी व्यवस्था के प्रगतिशील चरित्र पर जोर देते थे। भूदास प्रथा के ये कट्टर आलोचक थे तथा इस प्रथा के उन्मूलन के लिए उन्होंने जबरदस्त प्रचार कार्य किया। निकोलाई गोगोल (1809-1852) का अमर उपन्यास मुर्दा रूहें इसी प्रथा की असंगतियों पर एक तीखी चोट की हैसियत रखती है। पश्चिमी यूरोप में प्रचलित राजनीतिक व्यवस्थाएं संभव हो तो फ्रांस जैसी पूंजीवादी संसदीय, अन्यथा ब्रिटेन जैसी संविधानिक राजतांत्रिक व्यवस्था पश्चिमवादियों का राजनीतिक आदर्श यो संपादक)


98. Considerations sur Werther et en general sur la poesie de notre epoque , पहले 1839 में और फिर लेरो की रचनाओं की पहली जिल्द में पृ. 131-51 पर प्रकाशित हुआ था। 'कता के लिए कला के अह-माय संबंधी टिप्पणी पृ. 497 पर मिलती है। 


99) उपर्युक्त पृ. 450


100. यहाँ खानी अपने लेख विचारकवाद से भौतिकवाद तक का हवाला दे रहे हैं जिसे उन्होंने मिर प्रकाशन के लिए 1915 में लिखा और जो 1917 में प्रकाशित हुआ। लेकिन इस लेख में 'सच्चे समाजवादियों का जिक्र नहीं मिलता। समाजवादियों के इस संप्रदाय का एक संक्षिप्त उल्लेख मार्क्स और गेस ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (1848) में किया है-संपादक। 


101. बर्नहार्ड बेकर, जर्मनी में 1888 की क्रांति की प्रतिक्रिया (जर्मन), ब्राउनश्याइग, 1873, पृ. 68 देखें।


102. जन्म 1908 में, 1849 में अमरीका चले गए. 1871 में देहावसान


126 / काल्पनिक समाजवाद की धाराएँ


103. जन्म 1813 में, 1837 में देहावसान; ये आगे चलकर शोहरत पानेवाले लुडविग ब्यूखनर के भाई थे। 104. यहाँ प्लेखानोव का इशारा मूलतः रूसी नरोदनिकों की ओर है-संपादक। 105. संविधानवादी जर्मनी के राजनीतिक एकीकरण के लिए प्रयासरत थे। (उन दिनों जर्मनभाषी जनता


कोई चार दर्जन छोटे-छोटे राज्यों में बंटी हुई थी हालांकि कुछेक राज्यों ने आपस में एक महासंघ बना रखा था। इन जर्मन राज्यों में प्रशा सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली था तथा प्रशा के राजनीतिज्ञ ओटो फ़ान बिस्मार्क (1815-1898) ने ही, जिसका सूत्रवाक्य 'लोहा और खून था, इन तमाम राज्यों का बलात् एकीकरण किया। यही बिस्मार्क 1871 से 1890 तक जर्मन साम्राज्य का चांसलर रहा संपादक )


106. उपर्युक्त पुस्तक के न्यूयार्क संस्करण (1851) का पृ. 7 देखें।


107. दस किसानों से एक 'लुग' (Zug) बनेगा, और वे एक जुग का नेता (Zugfuher) नियुक्त करेंगे; ऐसे दस 'जुगफ्यूहरर' मिलकर एक 'आर्केरमान' (Ackermann) नियुक्त करेंगे: सी आकरमान मिलकर एक 'लादविर्टशाफ्ट्सराठ' नियुक्त करेंगे, वगैरह-वगैरह। (वाइटलिंग, उपर्युक्त पृ. 32 देखें ।) बाइटलिंग के भावी समाज में खेतिहर कामों का संगठन इसी प्रकार का होगा। वे जीवन के दूसरे पक्षों का भी इसी तरह विस्तार से वर्णन करते हैं। मुझे इन सबका उद्धरण देने की कोई तुक दिखाई नहीं देती।


108. उपर्युक्त, पृ. 301


109. उनकी प्रमुख रचना Garanties der Harmonic and Freiheit (सामंजस्य और स्वतंत्रता की ज़मानत) देखें जो 1812 के अंतिम दिनों में प्रकाशित हुई थी। बाइटलिंग की जन्म शताब्दी के अवसर पर 1908 में यह बर्लिन से पुनप्रकाशित हुई जिसमें (फ्रांज़) मेहरिंग द्वारा लिखा गया जीवन परिचय भी था और उन्हीं की जोड़ी हुई टिप्पणियाँ भी थीं। वस्तुओं के वितरण के बारे में फ़रिये की योजना का हवाला इस संस्करण के पृ. 224-25 पर मिलता है।


110. उपर्युक्त, पृ. 226-271


111. उपयुक्त, पृ. 2351


112. उपर्युक्त, पृ. 255-361


113. इस विषय पर तथा इसके बारे में दूसरे कम्युनिस्टों के दृष्टिकोण पर जी एडलर की रचना Die Geschichte der ersten sozialpolitischen Arbeiterbewegung in Deutschland mit beson deren Ryucksicht any die cinwirkenden Theorien, ग्रेसलाव, 1885, पृ. 43-44 देखें में यहाँ यह भी जोड़ दूं कि खुद बाइटलिंग ने जल्द ही अपनी 'नयी कार्यनीतियों की पैरवी करना बंद कर दिया।


114. इस विषय पर बायरन की The Corsair के रूसी अनुबाद में आई इवानोव की भूमिका देखें। एफ्रोन ब्रोकहाउस द्वारा रूसी में प्रकाशित वायरन की संपूर्ण रचनाएँ संत पीतसंवर्ग, 1904, पृ. 274-76 देखें।


115. मार्क्स और एंगेल्स, संकलित रचनाएँ (अंग्रेज़ी), मास्को, 1973 पृ. 178 देखें 


116. जन्म 1805 में; 1875 में देहावसान।


117. जोर रोडवर्टस का।


118. Zur Erkenninis पृ. 28-29 की टिप्पणी। 

119, Zur Beleuchtung dev sozialen Frage, बर्लिन, 1875, पृ. 25 देखें। यह पुस्तक 1850-51 में प्रकाशित फ़ान फिचमान के नाम सामाजिक पत्र (जर्मन) का पुनर्मुद्रण है। इसमें दूसरे और तीसरे पत्र शामिल हैं। मूलतः इसमें तीन पत्र थे। रोडबर्टस की मृत्यु के बाद Das Kapital (पूँजी) बर्लिन, 1884 के शीर्षक से एक चौथा पत्र भी प्रकाशित हुआ।


काल्पनिक समाजवाद की धाराएं / 127


120. Zeitschrift fur die gesammte Staorwissenschafi, 1878 पहला और दूसरा खंड, पृ. 345 देखें रोडबर्टस की पुस्तिका Der normal Arbeitstag (काम का सामान्य दिन) भी इसमें पुनप्रकाशित किया गया है।


121. Zur Erkenninis पृ. 38-391

122. इनफैतिन के पहले दर्ज किए गए विचारों से तुलना करें। 

123. रुडोल्फ मेयर, पूर्वोक्त, जिल्द 2, पृ. 579 देखें। 

124. रोडबर्टस के बारे में मार्क्स की रचना दर्शन की निर्धनता के जर्मन अनुवाद में एंगेल्स की भूमिका देखें। इस पुस्तक का रूसी अनुवाद बी आई जासुलिच ने किया है जिसे मैंने संपादित किया है। (उपर्युक्त पुस्तक के मास्कों से 1975 में प्रकाशित अंग्रेजी संस्करण में पृ. 9-24 देखें-संपादक) साथ ही मार्क्स की रचना अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत, जिल्द 2, पहले भाग का दूसरा परिच्छेद (तहज़ांनी यानी ग्राउंड रेट) देखें (ब्योरीज़ आफ़ सरप्लस वैल्यू, जिल्द 2, मास्को, 1975, पृ. 15-113 देखें-संपादक) रूसी भाषा में स्वर्गीय एन आई सिबेर ने (यूरिदिवेस्की वैस्तनिक में) और मैंने (ओवेस्तयेन्निये जापिस्की में) 1880 की दहाई में रोडवर्टस के विचारों को सबसे पहले प्रस्तुत किया था। (यूरिदिधेस्की वैस्तनिक एक उदारवादी पूँजीवादी मासिक पत्रिका थी जो मास्को से 1867 से 1892 तक प्रकाशित होती रही। ओस्तवेन्निये जापिस्की सेंत पीतर्सवर्ग से 1820. से 1884 तक प्रकाशित होने वाली पत्रिका थी। 1839 और 1846 के बीच यह अर्थ- साहित्यिक और अर्थ राजनीतिक पत्रिका अपने दौर की बेहतरीन प्रगतिशील पत्रिकाओं में गिनी जाती थी। इसके संपादकों में विस्सारियों बेलिस्की और अलेक्सांद्र हर्जुन जैसे दिग्गज भी रह चुके थे। 1563 में इसका संपादन संभालने के बाद मिखाइल सात्तीको शैद्रिन और निकोलाई नेक्रासोब ने इसे एक जनवादी क्रांतिकारी पत्रिका बना दिया-संपादक) मेरे लेख संग्रह बीस वर्ष में (जो बेतीव के छद्मनाम से प्रकाशित हुए थे), पृ. 503-647 पर मेरे रोडवर्टस संबंधी लेख भी शामिल है। इनके अलावा टी कोजूक, Rodbertus sozialokonomische Ansichten (बेना, 1882) स्यागं एडलर, Rodbertus der Begiunder des wissenschafilichen Socialismaes (लाइपज़िंग, 1883); frue, Karl Rodbertus, Darstellung seines Lebens and seiner Lehre (, 1886-87, दो जिल्दों में) बैंक, Rodbertuns (स्टुटगार्ट, 1899), गोनर, Social Philosophy of Rodbertus (लंदन, 1899) भी देखें।












No comments:

Post a Comment