अध्याय ६
अवसरवादियों द्वारा मार्क्सवाद का भ्रष्टीकरण
आम तौर पर क्रांति की समस्या की तरह ही सामाजिक क्रांति के साथ राज्य के और राज्य के साथ सामाजिक क्रांति के संबंध की समस्या पर भी दूसरे इंटरनेशनल (१८८६-१९१४) के मुख्य सिद्धांतवेत्ताओं और वृत्तकारों ने बहत ही कम ध्यान दिया है। लेकिन अवसरवाद के धीरे-धीरे बढ़ने की प्रक्रिया की , जिसकी वजह से १६१४ में दूसरे इंटरनेशनल का पतन हुआ , सबसे खास विशेषता यह थी कि जब यह प्रश्न सामने आया भी , तब उससे मुंह चुराने की कोशिश की गयी या उसकी उपेक्षा की गयी।
आम तौर से कहा जा सकता है कि राज्य के साथ सर्वहारा क्रांति के संबंध के प्रश्न से मुंह चुराने के परिणामस्वरूप ही, जिससे अवसरवाद को लाभ और पोषण प्राप्त होता था , मार्क्सवाद की तोड़-मरोड़ हुई और उसे पूर्ण रूप से भ्रष्ट किया गया।
इस शोकजनक प्रक्रिया को बताने के लिए, चाहे संक्षेप में ही क्यों न हो, हम मार्क्सवाद के सबसे प्रमुख सिद्धांतवेत्ताओ, प्लेखानोव और काउत्स्की को लेंगे।
१. अराजकतावादियों के साथ प्लेखानोव का विवाद
प्लेखानोव ने समाजवाद के साथ अराजकतावाद के संबंध पर एक विशेष पुस्तिका लिखी थी, जिसका नाम 'अराजकतावाद तथा समाजवाद' था और जो १८६४ में जर्मन भाषा में छपी थी।
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प्लेखानाव इस विषय पर लिखने में अराजकतावाद के खिलाफ संघर्ष से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण, तात्कालिक और राजनीतिक दृष्टि से सबसे आवश्यक प्रश्न से, याने राज्य के साथ क्रांति के संबंध के प्रश्न से और राज्य के आम प्रश्न से बिलकुल कतरा गये थे ! उनकी पुस्तिका के दो प्रमुख भाग हैं : एक ऐतिहासिक और साहित्यिक है और उसमें स्टर्नर, प्रूदो और दूसरे लोगों के विचारों के इतिहास के संबंध में मूल्यवान सामग्री है। दूसरा भाग कूपमंडूकतापूर्ण है , जिसमें भद्दे ढंग से इस विषय पर वितर्क किया गया है कि अराजकतावादी और लुटेरे में कोई फ़र्क नहीं है।
विषयों की यह दिलचस्प खिचड़ी रूस में क्रांति से पूर्व और क्रांति के दौरान प्लेखानोव की पूरी सरगर्मी की सबसे अधिक लाक्षणिकता है, और वास्तव में १९०५ और १९१७ के बीच उन्होंने अपने को राजनीति में बुर्जुवा वर्ग के पीछे घिसटनेवाले अर्द्धमतवादी और अर्द्धकूपमंडूक के रूप में प्रकट कर दिया।
हम देख चुके हैं कि अराजकतावादियों के साथ अपने विवाद में मार्क्स और एंगेल्स ने राज्य के साथ क्रांति के संबंध के विषय में अपने विचारों को किस तरह अधिकतम पूर्णता के साथ स्पष्ट किया था। १८६१ में मार्क्स की पुस्तक 'गोथा कार्यक्रम की आलोचना' को प्रकाशित करते हुए एंगेल्स ने लिखा था कि " उस समय – ( पहले ) इंटरनेशनल की हेग कांग्रेस के मुश्किल से दो वर्ष बाद ही - हम ( याने एंगेल्स और मार्क्स ) बकुनिन और उनके अराजकतावादी अनुयायियों के विरुद्ध प्रचंड संघर्ष में रत थे।
अराजकतावादियों ने पेरिस कम्यून को "अपना" बताने की, एक तरह से अपने सिद्धांत की सचाई के प्रमाण के रूप में पेश करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने कम्यून के सबक़ों और उन सबक़ों की मार्क्स द्वारा की गयी व्याख्या को बिलकुल नहीं समझा था। क्या राज्य की पुरानी मशीनरी का ध्वंस आवश्यक है ? और उसकी जगह कौन-सी चीज़ ले ? - ऐसे ठोस राजनीतिक प्रश्नों के सिलसिले में अराजतावाद ने कोई ऐसा जवाब नहीं दिया , जो सचाई के कहीं निकट भी पहुंचता हो।
लेकिन राज्य के प्रश्न से पूरी तरह कतराते हुए, कम्यून के पहले और उसके बाद मार्क्सवाद के पूरे विकास को अनदेखा करते हुए "अराजकतावाद तथा समाजबाद" की बात करने का लाज़िमी तौर से मतलब था अवसरवाद
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के दलदल में सरक जाना , क्योंकि अवसरवाद को सबसे अधिक जरूरत इसी बात की है कि अभी-अभी बताये गये दो प्रश्नों को कतई न उठाया जाये। ऐसा होना ही अवसरवाद की जीत है।
२. अवसरवादियों के साथ काउत्स्की का विवाद
इसमें जरा भी संदेह नहीं कि काउत्स्की की जितनी ज्यादा पुस्तकों का अनुवाद रूसी भाषा में हुआ है, उतना और किसी भाषा में नहीं। कुछ जर्मन सामाजिक-जनवादी मजाक में जो यह कहते हैं कि काउत्स्की को लोग जर्मनी से ज्यादा रूस में पढ़ते हैं, वह अकारण नहीं है (प्रसंगवश कहें कि इस मज़ाक में जितना गहरा ऐतिहासिक महत्व छिपा हुआ है, उसका शायद उन लोगों को गुमान भी न होगा, जिन्होंने पहले-पहल यह मजाक किया था : रूस के मजदूरों ने १९०५ में दुनिया के श्रेष्ठतम सामाजिक जनवादी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों की असाधारण रूप से बड़ी और अभूतपूर्व मांग पैदा करके और इन पुस्तकों के अनुवादों और संस्करणों को इतनी बड़ी मात्रा में देश में मंगाकर जितनी कि दूसरे देशों में सुनी भी नहीं गयी, एक प्रकार से एक अधिक उन्नत पडोसी देश के विशाल अनुभव का वृक्ष हमारे सर्वहारा आंदोलन की युवा भूमि में बहुत तेजी से रोप दिया)।
हमारे देश के लोग काउत्स्की को उनके द्वारा मार्क्सवाद के प्रचार के अलावा अवसरवादियों और उनके नेता बर्नस्टीन के साथ उनके विवाद के कारण खास तौर से जानते हैं। लेकिन एक बात लगभग एकदम अज्ञात है, जिसे - अगर हम यह पता लगाना चाहते हैं कि १९१४-१९१५ के महान संकट के समय काउत्स्की किस तरह एक अत्यंत शर्मनाक भ्रमजाल में फस गये थे और सामाजिक-अधराष्ट्रवादियों के बकील बन गये थे, तो हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। वह बात यह है : अवसरवाद के प्रमुख फ्रांसीसी (मिलेरो और जोरेन ) और जर्मन ( बर्नस्टीन ) प्रतिनिधियों के खिलाफ लिखने के थोड़े ही समय पहले काउत्स्की ने बहुत काफी ढुलमुलयकीनी का परिचय दिया था। १९०१-१९०२ में स्टुटगार्ट से निकलनेवाली मार्क्सवादी पत्रिका 'जार्या 20 को, जो क्रांतिकारी-सर्वहारा विचारों की हिमायत करती थी, इस संबंध में काउत्स्की के साथ विवाद में उतरना पड़ा था और
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१६०० में पेरिस के अंदर हुई अंतरराष्ट्रीय समाजवादी कोंग्रेस मे अवसरवादियों के संबंध में उनके द्वारा पेश किये गये अनमने, गोल मोल तथा मी ताकारी प्रस्ताव को "लचीला' करार देना पड़ा था। जर्मनी मे काउत्स्की के जो पत्र प्रकाशित हुए थे, उनसे भी बर्नस्टीन के खिलाफ दान में उतारा से पहले उनकी हिचकिचाहट कुछ कम नहीं जाहिर होती।
लेकिन इन सबसे कहीं ज्यादा महत्व की बात यह है कि अवसरवादियो के साथ अपने विवाद में ही प्रश्न को सामने रखने और उस पर विचार करने के अपने ढंग में ठीक राज्य के ही प्रश्न पर हम आज अवसरवाद की तरफ़ उनका बाकायदा झुकाव देखते हैं, जब हम मार्क्सवाद के साथ उनकी सबसे हाल की ग़द्दारी के इतिहास का अध्ययन करते हैं।
अवसरवाद के खिलाफ काउत्स्की की पहली बड़ी पुस्तक बर्नस्टीन और सामाजिक-जनवादियों के कार्यक्रम' को ले लिया जाये। काउत्स्की बर्नस्टीन का ब्योरेवार खंडन करते हैं, लेकिन इस लाक्षणिक बात पर ध्यान दीजिये।
अपनी हेरोस्ट्रेटसी' कुख्यातिवाली पुस्तक 'समाजवाद की पूर्वावश्यकताए' में बर्नस्टीन मार्क्सवाद पर "ब्लांकीवादी" होने का अभियोग लगाते हैं ( तब से क्रांतिकारी मार्क्सवाद के प्रतिनिधियों , बोल्शेविकों के खिलाफ, अवसरवादियों और उदारतावादी बुर्जुग्रा लोगों द्वारा यह अभियोग रुस मे हजारो मर्तबा दोहराया जा चुका है)। इस संबंध में बनस्टीन मार्क्स की पुस्तक 'फ्रांस में गृहयुद्ध' पर खास तौर से ब्योरेवार विचार करते हैं और बिलकुल असफलतापूर्वक - जैसा कि हम देख चुके हैं - यह बताने की कोशिस करते हैं कि कम्यून के सबकों के संबंध में मावर्स के विचार प्रदों के विचारों के समान हैं। मार्क्स के इस निष्कर्ष पर , जिस पर उन्होंने ' कायनिष्ट घोषणा पत्र' की १८७२ की भूमिका में खास जोर दिया था, याने इस पर कि "मजदूर वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीन पर कब्जा करके उसका उपयोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं कर सकता 62, बर्नस्टीन खास तौर से ध्यान देते हैं। _ इस कथन से बर्नस्टीन इतने 'प्रसन्न हुए' कि अपनी पुस्तक में उन्हाने
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* देखें टिप्पणी ३४ । - सं०
राज्य और क्रांति
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उसे तीन बार से कम नहीं दोहराया और उसका मतलब अत्यंत तोड़े-मरोड़े अवसरवादी ढंग से लगाया।
जैसा कि हम देख चुके हैं, मार्क्स का मतलब यह था कि मजदूर वर्ग को राज्य की पूरी मशीनरी को ध्वस्त, नष्ट और छिन्न-भिन्न कर देना चाहिए (एंगेल्स ने Sprengung, अर्थात विस्फोट शब्द का प्रयोग किया था) । लेकिन बर्नस्टीन के कथनानुसार मालूम होता है कि इन शब्दों द्वारा मार्क्स ने मजदुर वर्ग को चेतावनी दी थी कि सत्ता पर क़ब्ज़ा करते समय वह अतिशय क्रांतिकारी जोश में न बह जाये।
मार्क्स के विचार की इससे अधिक भोंडी और घृणित तोड़-मरोड़ की कल्पना नहीं की जा सकती।
फिर काउत्स्की ने बर्नस्टीनवाद63 का ब्योरेवार खंडन किस तरह किया ?
इस सवाल पर अवसरवाद ने मार्क्सवाद को जिस बुरी तरह तोड़ा मरोड़ा है, उसका विश्लेषण उन्होंने नहीं किया। उन्होंने मार्क्स की पुस्तक 'गृहयुद्ध' की एंगेल्स द्वारा लिखी हुई भूमिका में से ऊपर दिये गये उद्धरण का हवाला दिया और कहा कि मार्क्स के कथनानुसार मजदूर वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर खाली क़ब्ज़ा नहीं कर सकता, लेकिन आम तौर से कहा जाये, तो उस पर कब्जा कर सकता है - और बस । काउत्स्की इस बात के बारे में एक शब्द तक नहीं कहते कि जो बात बर्नस्टीन मार्क्स के सिर मढ़ते हैं, वह मार्क्स के असली विचारों के बिलकुल विपरीत है, कि १८५२ से मार्क्स सर्वहारा क्रांति का जो कार्यभार बताते आये थे, वह राज्य की मशीनरी को " चकनाचूर' करना था64।
नतीजा यह हुआ कि सर्वहारा क्रांति के कार्यभारों के संबंध में मार्क्सवाद और अवसरवाद के बीच जो सबसे बुनियादी अंतर है, उसी को काउत्स्की ने गायब कर दिया !
बर्नस्टीन "के खिलाफ़" लिखते समय काउत्स्की ने कहा: " सर्वहारा अधिनायकत्व की समस्या के हल को हम निश्चिंत होकर भविष्य के लिए छोड़ सकते हैं" (पृ० १७२ , जर्मन संस्करण ) ।
यह बर्नस्टीन के खिलाफ़ विर्तक नहीं है, बल्कि वास्तव में उसको छूट देना है , अवसरवाद के सामने घुटने टेकना है, क्योंकि आजकल अवसरवादी
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इससे अधिक और कुछ नहीं चाहते कि सर्वहारा क्रांति के कायंगारों के बारे में तमाम बुनियादी सवालों को "निश्चित होकर भविष्य के लिए छोड़ दिया जाये"। १८५२ से १८६१ तक, याने चालीस वर्ष तक मावर्स और एंगेल्स ने सर्वहारा वर्ग को सिखलाया था कि उसे राज्य की मशीनरी का ध्वंस करना चाहिए। फिर भी १८९६ में, जब इस प्रश्न के संबंध में मार्क्सवाद के प्रति अवसरवादियों की पूरी गद्दारी सामने आयी, तो काउत्स्की ने इस सवाल के स्थान पर कि राज्य की मशीनरी का ध्वंस करना आवश्यक है या नहीं, उसके ध्वंस करने के निश्चित रूपों का सवाल पेश कर दिया और फिर इस "अकाट्य' (और निष्फल) कूपमंडुकी सत्य की शरण लेने की कोशिश की कि ये निश्चित रूप पहले से नहीं जाने जा सकते!!
मजदूर वर्ग को क्रांति के लिए तैयार करने के संबंध में सर्वहारा पार्टी के कर्तव्यों की तरफ़ मार्क्स और काउत्स्की के रुख में जमीन-आसमान का फ़र्क है।
आइये, काउत्स्की की अगली, अधिक परिपक्व रचना को लें। उसे भी बहुत हद तक अवसरवाद की भूलों के खंडन के निमित्त ही अर्पित किया गया था। यह रचना 'सामाजिक क्रांति' नामक उनकी पुस्तिका है। इस पुस्तिका में लेखक ने "सर्वहारा क्रांति" और "सर्वहारा शासन" के प्रश्न को अपना विशेष विषय बनाया है। इसमें उन्होंने बहुत कुछ ऐसा दिया है, जो बेहद उपयोगी है, लेकिन राज्य के प्रश्न को टाल दिया। अपनी पूरी पुस्तिका में लेखक राज्य-सत्ता जीतने की ही बात करते हैं - और कुछ नहीं, याने वह एक ऐसा गुर चुनते हैं, जो अवसरवादियों को उस हद तक छूट देता है, जिस हद तक यह इस संभावना को मान लेता है कि राज्य को मशीनरी को नष्ट किये बिना भी सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है। काउत्स्की ठीक उसी चीज को १९०२ में फिर से जीवित करते हैं, जिस १८७२ में 'कम्युनिष्ट घोषणापत्र' के कार्यक्रम में 65 मार्क्स ने "कालातीत घोषित कर दिया था।
पुस्तिका में एक विशेष पैराग्राफ़ 'सामाजिक क्रांति के रूपों और अस्त्र के बारे में है। उसमें काउत्स्की जनब्यापी राजनीतिक हड़ताल, गृहयुद्ध और " आधुनिक बड़े राज्य की शक्ति के नौकरशाही और फ़ौज जैसे अस्त्रों" की बात
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करते हैं, लेकिन कम्युन ने मजदूरों को जो चीज़ पहले ही सिखा दी थी, उसके बारे में एक शब्द भी नहीं कहते। राज्य के लिए "अंधविश्वासपूर्ण श्रद्धा" के खिलाफ़ एंगेल्स ने जो चेतावनी खास तौर से जर्मनी के समाजवादियों को दी थी, स्पष्ट ही वह अकारण नहीं थी।
काउत्स्की प्रश्न पर इस प्रकार विचार करते हैं: विजयी सर्वहारा वर्ग "जनवादी कार्यक्रम को पूरा करेगा" और फिर वह उस कार्यक्रम की धाराएं निर्धारित करते हैं। लेकिन सर्वहारा जनवाद द्वारा बुर्जुवा जनवाद का स्थान लिये जाने के संबंध में हमें जो नयी तथ्य-सामग्री सन १८७१ से प्राप्त हुई थी, उसके बारे में वह एक शब्द भी मुंह से नहीं निकालते। काउत्स्की प्रश्न को इस प्रकार की " वज़नी" प्रतीत होनेवाली तुच्छ बातों द्वारा टाल देते हैं :
"यह कहने की कोई जरूरत नहीं है कि हम वर्तमान परिस्थितियों के अंदर प्रभुत्व हासिल नहीं कर पायेंगे। खुद क्रांति में ऐसे देरतलब और गहराई तक पहुंचनेवाले संघर्ष की पूर्वकल्पना निहित है, जो इस बीच हमारे वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक ढांचे को बदल डालेगा।"
निस्संदेह "यह कहने की कोई जरूरत नहीं है" उसी तरह, जिस तरह इस सचाई को कहने की कोई जरूरत नहीं है कि घोड़े जई खाते हैं या यह कि वोल्गा कास्पियन सागर में जा मिलती है। अफ़सोस की बात सिर्फ यह है कि "गहराई तक पहुंचने वाले' संघर्ष की खोखली और भारी भरकम शब्दावली को क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के खास हित के प्रश्न से, याने इस प्रश्न से कतराने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया है कि राज्य के संबंध में, जनवाद के संबंध में पहले की गैर सर्वहारा क्रांतियों से भिन्न उसकी क्रांति का "गहराई तक पहुंचनेवाला" रूप किस प्रकार जाहिर होता है।
इस प्रश्न से कतराकर काउत्स्की वास्तव में इस सबसे खास बात के संबंध में अवसरवाद को छूट दे देते हैं, गोकि शब्दों में वह उसके खिलाफ़ भीषण युद्ध की घोषणा करते हैं और "क्रांति के विचार" के महत्व पर जोर देते हैं (इस "विचार' का क्या मूल्य हो सकता है, जब वह मजदूरों के बीच क्रांति के ठोस सबक़ों का प्रचार करने से डरते हैं ?) , या यह कहते
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है कि सबसे पहले क्रांतिकारी विचारवाद" है, या ऐलान करते हैं कि अंग्रेज मजदूर टूटपुंजिया लोगों से अधिक कुछ नहीं हैं।
काउत्स्की लिखते है : "समाजवादी समाज में अधिकतम विभिन्न रूपों के उत्तर- नौकरशाही (?), ट्रेड युनियनी सहकारी और निजी . . . साथ साथ सौदा रह सकते है" "मिसाल के लिए, ऐसे उद्यम भी हैं, जो सौकरशाही (?) संगठ्न के बिना नहीं चल सकते, जैसे कि रेलें। यहां जनवादी संगठन निम्नलिखित रूप ले सकता है: मजदुर अपने प्रतिनिधि चुने, जिनसे एक प्रकार की संसद बने, जो कार्य संबंधी नियम निर्धारित करे और नौकरशाही यन्त्र के इंतजाम की देखभाल करे। दुसरे उद्यमों के इंतजाम को ट्रेड यनियनों को सौंपा जा सकता है और अन्य उद्यम सहकारी बन सकते है" (जेनेवा में १९०३ में प्रकाशित रूसी अनुवाद , पृ० १४८ और ११५)।
यह दलील गलत है और कम्यून के सबकों को उदाहरण की तरह इस्तेमाल करके मार्क्स और एंगेल्स ने पिछली शताब्दी के आठवें दशक में जो कुछ बतलाया था, उसकी तुलना में यह पीछे ले जानेवाला कदम है।
जहां तक "नौकरशाही" संगठन की तथाकथित आवश्यकता की बात है, रेलों और बड़े पैमाने के मशीन-उद्योग के किसी भी दूसरे उद्यम – किसी फैक्टरी , बड़े स्टोर या बड़े पैमाने के पूंजीवादी कृषि-धधे - में कोई भी फ़र्क नहीं है। इन सारे उद्यमों की तकनीक सख्त से सख्त अनुशासन को, दिये गये काम की तामील में हर आदमी द्वारा अधिकतम अचुकता को लाज़िमी बना देती है, वरना पूरा उद्यम ही ठप हो जायेगा, या उसकी मशीनों, या तैयार माल को नुकसान पहुंचेगा। निस्संदेह इन सभी धंधों में मजदूर "अपने प्रतिनिधि चुनेगे, जिनसे एक प्रकार की संसद बनेगी"।
लेकिन असल बात यह है कि यह "एक प्रकार की संसद" बुर्जुआ संसदीय संस्थाओं की तरह की संसद नहीं होगी। असल बात यह है कि यह "एक प्रकार की संसद" केवल " कार्य संबंधी नियम निर्धारित और नौकरशाहो यंत्र के इंतजाम की देखभाल" ही नहीं करेगी, जैसा काउत्स्की सोचते हैं, जिनकी कल्पना बुर्जुवा संसदीय व्यवस्था के दायरे से आगे नहीं जाती। समाजवादी समाज में मजदूरों के प्रतिनिधियों की "एक प्रकार की संसद" निस्संदेह " कार्य संबंधी नियम निर्धारित और यंत्र के इंतजाम की देखभाल
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करेगी", लेकिन यह यंत्र "नौकरशाही" नहीं होगा। राजनीतिक सत्ता जीतने के बाद मजदूर पुराने नौकरशाही यंत्र का ध्वस्त कर देंगे, उसे समुल नष्ट कर देगे, उसकी जड़ तक बाकी नहीं रहने देंगे और उसकी जगह एक नये यंत्र की स्थापना करेंगे, जिसमें वे ही मजदूर और कर्मचारी होंगे, जिनके नौकरशाह बन जाने के खतरे के खिलाफ़ फौरन वे कार्रवाइयां की जायेगी, जिन्हें मार्क्स और एंगेल्स ने तफसील के साथ बताया था: १) उनका न केवल चुनाव होगा, बल्कि उन्हें किसी भी समय हटाया भी जा सकेगा ; २) उन्हें मजदूर से ज्यादा वेतन नहीं मिलेगा; ३) ऐसी व्यवस्था फ़ौरन लागू कर दी जायेगी ताकि सब नियंत्रण और देखरेख का कार्य करें, ताकि थोड़े समय के लिए सब " नौकरशाह" बन जाये और ताकि इसलिए कोई भी " नौकरशाह" न बन सके।
काउत्स्की ने मार्क्स के इन शब्दों पर जरा भी विचार नहीं किया है कि "कम्यून संसदीय नहीं, बल्कि एक कार्यशील संगठन थी, जो कार्यकारी और विधिकारी, दोनों कार्य साथ-साथ करता था।
काउत्स्की ने बुर्जुवा संसदीय व्यवस्था और सर्वहारा जनबाद के फ़र्क को बिलकुल नहीं समझा है। बुर्जवा संसदीय व्यवस्था में जनवाद (जो जनता के लिए नहीं है ) और नौकरशाही ( जो जनता के खिलाफ़ है ) साथ-साथ होते हैं। सर्वहारा जनवाद नौकरशाही को समुल नष्ट करने के लिए फ़ौरन कदम उठायेगा और वह इन कार्रवाइयों को अंत तक, नौकर शाही के पूर्ण रूप से खात्मे तक, जनता के लिए पूर्ण जनवाद की स्थापना तक, ले जाने में समर्थ होगा।
यहाँ काउत्स्की राज्य के संबंध में वही पुरानी "अंधविश्वासपूर्ण श्रद्धा" और नौकरशाही के संबंध में "अधविश्वास" जाहिर करते हैं।
अब हम अवसरवादियों के खिलाफ काउत्स्की की अंतिम और सबसे अच्छी पुस्तिका 'सत्ता के मार्ग पर' को लेगे (जो, मेरा खयाल है, रूसी में अनुदित नहीं हुई है, क्योंकि वह ऐसे समय में, १९०६ में, प्रकाशित हुई थी, जब यहा पर घोर प्रतिक्रियावाद का साम्राज्य था)। यह पुस्तिका आगे की ओर बड़ा कदम है, क्योकि उसमें १८९६ में बर्नस्टीन के खिलाफ़ लिखी गयी पुस्तिका की तरह आम क्रांतिकारी कार्यक्रम की बात नहीं की गयी है और न वह १६०२ की पुस्तिका सामाजिक क्राति' की तरह बिना
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इस चीज़ का ख़याल किये हुए कि सामाजिक क्रांति कब होती है कामों की बात करती है। इसमें उन ठोस परिस्थितियों की बात की। है , जो हमें इस बात को मानने के लिए बाध्य कर देती हैं कि "क्रांतिकार युग" आ रहा है।
वर्ग विरोधों के आम तौर से तेज़ होने की तरफ़ और साम्राज्यवाद की तरफ़ , जिसकी इस संबंध में विशेष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेखक निश्चित रूप से संकेत करते हैं। वह कहते हैं कि पश्चिमी यूरोप में " १७८६-१८७१ के क्रांतिकारी युग' के बाद १९०५ में उसी तरह के युग का श्रीगणेश पूर्व में हो रहा है। विश्वयुद्ध भयावह तेजी के साथ पास पा रहा है। "सर्वहारा वर्ग अब अपरिपक्व क्रांति की बातें नहीं कर सकता।" " हमने क्रांतिकारी युग में क़दम रख दिया है।" "क्रांतिकारी युग शुरू हो रहा है।"
ये घोषणाएं पूरी तरह स्पष्ट हैं। काउत्स्की की इस पुस्तिका को यह तुलना करने के माप का काम देना है कि साम्राज्यवादी युद्ध से पहले जर्मनी के सामाजिक-जनवाद के क्या होने की आशा की जाती थी और युद्ध छिड़ जाने के बाद वह – काउत्स्की समेत - पतन के कितने गहरे गढ़े में जा गिरा। जिस पुस्तिका पर हम विचार कर रहे हैं, उसमें काउत्स्की ने लिखा था : "वर्तमान स्थिति में यह ख़तरा है कि हम ( याने जर्मन सामाजिक-जनवाद ) आसानी से उससे भी ज्यादा नरम लगने लगें, जितने हम वास्तव में हैं"। साबित यह हुआ कि वास्तव में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी उससे भी कहीं ज़्यादा नरम और अवसरवादी थी, जितनी वह लगती थी!
इसलिए यह बात अधिक लाक्षणिक है कि यद्यपि काउत्स्की ने इस बात की निश्चित रूप से घोषणा कर दी थी कि क्रांतिकारी युग शुरू हो चुका है, वह अपनी इस पुस्तिका में भी, जो स्वयं उनके शब्दों में "राजनीतिक क्रांति' के ही विश्लेषण को अर्पित है, राज्य के प्रश्न से फिर बिलकुल कतरा गये।
प्रश्न से इस तरह कतराने, छोड़ देने और टाल जाने का मिल-जुलकर कुल परिणाम अवसरवाद के सामने वह पूर्ण आत्मसमर्पण हुआ , जिसके बार में हमें आगे विचार करना होगा।
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जर्मन सामाजिक-जनवादियों ने काउत्स्की के रूप में मानो ऐलान किया था : मैं क्रांतिकारी विचारों पर अडिग हूं (१८६६)। मैं सर्वहारा वर्ग की सामाजिक क्रांति की अनिवार्यता को खास तौर से मानता हूं (१९०२) । मैं मानता हूं कि एक नया क्रांतिकारी युग पा रहा है (१६०६)। फिर भी चूंकि राज्य के संबंध में सर्वहारा क्रांति के कार्यभारों का प्रश्न उठाया जा रहा है, इसलिए मैं उस बात के , जिसे मार्क्स ने १८५२ में ही कह दिया था , विरुद्ध जाते हुए पीछे हट रहा हूं (१९१२ )।
पान्नेकोएक के साथ काउत्स्की के विवाद में प्रश्न को बिलकुल इसी रूप में दो-टूक रखा गया था।
३ . पान्नेकोएक के साथ काउत्स्की का विवाद
काउत्स्की का विरोध करके पान्नेकोएक उस "वामपक्षी आमूलवादी" धारा के एक प्रतिनिधि के रूप में सामने आये, जिसकी पांतों में रोज़ा लुक्ज़मबुर्ग, कार्ल रादेक, वगैरह भी थे। ये लोग जो क्रांतिकारी कार्यनीति का समर्थन करते थे, इस विश्वास में एकमत थे कि काउत्स्की "मध्यमार्गी" स्थिति की ओर जा रहे थे, जो गैर उसूली ढंग से मार्क्सवाद और अवसरवाद के बीच ढुलमुल थी। युद्ध ने इस विचार की सत्यता को पूर्ण रूप में प्रमाणित कर दिया, जब यह "मध्यमार्गी' धारा (जिसे ग़लती से मार्क्सवादी कहा जाता था) या "काउत्स्कीवाद'' अपने पूरे घृणित रूप में सामने आ गया।
राज्य के प्रश्न पर सरसरी नज़र डालनेवाले अपने लेख 'जन-संघर्ष और क्रांति' में (Neue Zeit, १९१२, XXX, २) पान्नेकोएक ने काउत्स्की की स्थिति को "निष्क्रिय आमूलवाद' की स्थिति, "आलस्यपूर्ण प्रतीक्षा का सिद्धांत'' बताया था। पान्नेकोएक ने कहा था कि "काउत्स्की क्रांति की प्रक्रिया को देखना नहीं चाहते" (पृ० ६१६) । प्रश्न को इस रूप में रखते हुए पान्नेकोएक ने उस विषय को लिया था, जिसमें हमें दिलचस्पी है, याने राज्य के संबंध में सर्वहारा क्रांति के कार्यभार।
उन्होंने लिखा : " सर्वहारा वर्ग का संघर्ष बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ़ महज राज्य-सत्ता के लिए संघर्ष नहीं है, बल्कि राज्य-सत्ता के खिलाफ संघर्ष है . . .
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सर्वहारा की ताकत के अस्त्रों की मदद से राज्य की शक्ति के तमाम अस्त्रों को नष्ट करना और मिटाना ( शब्दण: विसर्जन - Anflosung) सर्वहाग क्रांति का अंतर्य है . . . संघर्ष केवल तब बंद होता है, जब उसके फलम्बम्प राज्य का संगठन पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है। अल्पसंख्यक शासकों के संगठन को नष्ट करके बहुसंख्यकों का संगठन तब अपनी वरिष्ठता सिद्ध कर देता है " ( प० ५४८ )।
जिस रूप में पान्नेकोएक ने अपने विचारों को रखा था , उगमें भारी दोष हैं, लेकिन उसका अर्थ फिर भी स्पष्ट है और काउत्स्की ने जिस प्रकार उसका खंडन किया , यह ध्यान देने योग्य है।
उन्होंने लिखा : "अभी तक सामाजिक-जनवादियों और अराजकतावादियों में यही वैपरीत्य रहा है कि सामाजिक-जनवादी राज्य-सत्ता को जीतना चाहते थे, जबकि अराजकतावादी उसको नष्ट कर देना चाहते थे। पान्नेकोएक दोनों ही बातें चाहते हैं" (पृ० ७२५) ।
यद्यपि पान्नेकोएक की व्याख्या में सुस्पष्टता और ठोसपन न होने का दोष है( उनके लेख के उन दूसरे दोषों की बात जाने दीजिये, जिनका वर्तमान विषय से कोई संबंध नहीं है) फिर भी पान्नेकोएक ने जिस उसूली मसले का उल्लेख किया था, काउत्स्की ने ठीक उसे ही पकड़ा और उसूल के इस बुनियादी मसले पर काउत्स्की ने मार्क्सवादी स्थिति को बिलकुल त्याग दिया और पूरी तरह अवसरवाद के पक्ष में चले गये। सामाजिक जनवादियों और अराजकतावादियों के भेद' की उनकी परिभाषा बिलकुल ग़लत है और उन्होंने मार्क्सवाद को बहुत ही बुरी तरह से तोड़ा-मरोड़ा और भ्रष्ट किया है।
मार्क्सवादियों और अराजकतावादियों के बीच भेद यह है : १) मार्क्सवादी राज्य को पूरी तरह ख़त्म करना अपना लक्ष्य बनाते हैं, लेकिन वे मानते हैं कि वह लक्ष्य समाजवादी क्रांति द्वारा वर्गों का अंत कर दिये जाने के बाद ही, समाजवाद की - जो राज्य के विलोप का कारण बनता है - स्थापना के परिणामस्वरूप ही सिद्ध हो सकता है; अराजकतावादी उन परिस्थितियों को नहीं समझते, जिनमें राज्य को ख़त्म किया जा सकता है और वे राज्य को फ़ौरन ही पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहते हैं। २) मार्क्स
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वादी मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता को जीतने के बाद सर्वहारा वर्ग की राज्य की पुरानी मशीनरी को पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहिए और उसके स्थान पर हथियारबंद मजदूरों के संगठन के रूप में, कम्युन की तरह की एक नयी राजकीय मशीनरी की स्थापना करनी चाहिए। अराजकतावादी राज्य की मशीनरी को नष्ट करने की बात पर तो जोर देते हैं, लेकिन उन्हें इस बात की कतई स्पष्ट कल्पना नहीं है कि उसके स्थान में सर्वहाग वर्ग किस चीज़ की स्थापना करेगा और अपनी क्रांतिकारी सत्ता का वह किस प्रकार इस्तेमाल करेगा; अराजकतावादी तो इस बात से भी इनकार करते हैं कि क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग को राज्य-सत्ता का इस्तेमाल करना चाहिए, याने वे उसके क्रांतिकारी अधिनायकत्व से इनकार करते हैं। (३) मार्क्सवादी मांग करते हैं कि वर्तमान राज्य का इस्तेमाल करके सर्वहारा वर्ग को क्रांति के लिए तैयार करना चाहिए; अराजकतावादी इसे अस्वीकार करते हैं।
इस विवाद में काउत्स्की के खिलाफ़ पान्नेकोएक ही मार्क्सवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं, क्योंकि मार्क्स ने सिखाया था कि सर्वहारा वर्ग राज्य सत्ता महज़ इस अर्थ में जीत नहीं सकता कि पुराने राज्य का यंत्र नये हाथों में पा जाये, बल्कि उसे इस यंत्र का ध्वंस करना चाहिए, उसे तोड़ना चाहिए और उसके स्थान पर एक नये यंत्र की स्थापना करनी चाहिए।
काउत्स्की मार्क्सवाद को तिलांजलि देकर अवसरवादियों के शिविर में चले जाते हैं, क्योंकि राज्य की मशीनरी को नष्ट करने की यह बात, जो अवसरवादियों को बिलकुल ही अमान्य है, उनकी दलीलों से बिलकल ग़ायब हो जाती है और उनमें वह अवसरवादियों के लिए यह गुंजाइश छोड़ देते हैं कि "जीतने" का अर्थ केवल बहुसंख्या प्राप्त कर लेना लगाया जा सके।
मार्क्सवाद को इस प्रकार तोड़-मरोड़कर पेश करने पर पर्दा डालने के लिए काउत्स्की एक पंडिताऊ ढोंग रचते हैं: वह खुद मार्क्स का ही एक " उद्धरण" पेश करते हैं। १८५० में मार्क्स ने लिखा था कि "राजकीय शासन के हाथों में सत्ता का सर्वाधिक निश्चित केंद्रीकरण"66 आवश्यक है। और एक विजेता की तरह काउत्स्की पूछते हैं : क्या पान्नेकोएक " केंद्रीयता" को नष्ट कर देना चाहते हैं?
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यह सिर्फ उसी तरह की चाल है, जिस तरह केंद्रीयता के स्थान पर संघवाद के सिलसिले में मार्क्सवाद पौर प्रूदोवाद के विचारों को बनेरहीम ने एक समान बताया था।
काउत्स्की का "उद्धरण" न घर का है, न घाट का। केंद्रीयता राज्य की पुरानी और नयी, दोनों मशीनरियों में संभव है। अगर मजदूर स्वेछ्या अपनी सशस्त्र शक्तियों का एकीकरण कर देते हैं, तो वह केंद्रियता होगी, लेकिन उसका आधार केंद्रीकृत राजकीय मशीनरी , स्थायी फौज , पुलिस पौर नौकरशाही का " पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना " ही होगा। कायन के संबंध में मार्क्स और एंगेल्स के अच्छी तरह विदित तर्कों को छोड़कर जब काउत्स्की ऐसे उद्धरण को निकाल लाते हैं , जिसका विषय से कोई संबंध नहीं है, तो वह सरासर एक जालसाज जैसा काम करते हैं।
काउत्स्की आगे कहते हैं : " . . . पान्नेकोएक शायद पदाधिकारियों के राजकीय कामों को खत्म करना चाहते है ? लेकिन पदाधिकारियों के बिना तो हमारा काम राजकीय प्रशासन की तो बात ही क्या, पार्टी और ट्रेड यूनियनों में भी नहीं चलता। हमारा कार्यक्रम यह मांग नहीं करता कि राज्य के पदाधिकारियों को खत्म कर दो, वह यह मांग करता है कि वे जनता द्वारा चुने जायें ... यहाँ पर हम 'भविष्य के राज्य में प्रशासनिक मशीनरी के रूप पर बहस नहीं कर रहे हैं, बल्कि इस बात पर कि हमारा राजनीतिक संघर्ष राज्य-सत्ता को उस पर हमारे कब्जा करने से पहले ही (शब्दों पर काउत्स्की का जोर ) मिटा (शब्दश: विसर्जित कर -- auf11) देगा या नहीं। किस मंत्रालय और उसके अफसरों को खत्म किया जा सकता है ?" इसके बाद शिक्षा, न्याय, वित्त और यद्ध मंत्रालयों के नाम गिनायें गये हैं। " नहीं, सरकार के खिलाफ़ हमारा राजनीतिक संघर्ष इनमें से एक भी मत्रालय को नहीं हटायेगा . . . मैं फिर कहता हूँ ताकि गलतफहमी न हो: यहां पर हम 'भविष्य के 'राज्य को सामाजिक जनवाद की विजय द्वारा दिये जानेवाले रूप पर नहीं, बल्कि इस बात पर बहस कर रहे हैं, कि हमारा विरोध-पक्ष वर्तमान राज्य को किस तरह बदल देगा" (पू० ७२५)।
यह एक साफ़ चाल है। पान्नेकोएक ने क्रांति ही का सवाल उठाया था। उनके लेख के शीर्षक से और ऊपर दिये गये उद्धरणों से भी यह साफ जाहिर है। उसे छोड़कर "विरोध-पक्ष" का सवाल उठाकर काउत्की क्रांति
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कारी दृष्टिकोण की जगह अवसरवादी दृष्टिकोण रख देते हैं। जो कुछ वह कहते हैं, उसका अर्थ यह है : इस समय हम विरोध-पक्ष हैं, सत्ता पर कब्जा करने के बाद हम क्या होंगे, इसे हम बाद में देखेंगे। क्रांति ग़ायब हो जाती है ! और ठीक यही अवसरवादी चाहते थे।
बात न विरोध-पक्ष की है और न आम राजनीतिक संघर्ष की, बात है क्रांति की। क्रांति इसमें निहित है कि सर्वहारा वर्ग "प्रशासनिक मशीनरी" और राज्य की पूरी मशीनरी को नष्ट कर देगा और उसके स्थान पर एक नयी मशीनरी, सशस्त्र मजदूरों की सत्ता कायम करेगा। काउत्स्की "मंत्रालयों" के प्रति एक "अंधविश्वासपूर्ण श्रद्धा" दिखाते हैं। पर उनकी जगह पर', मिसाल के तौर पर, विशेषज्ञों की समितियों की स्थापना क्यों नहीं की जा सकती, जो मजदूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की प्रभुसत्तापूर्ण और सर्वशक्तिशाली सोवियतों के अधीन काम करें?
बात यह नहीं है कि " मंत्रालय" रहेंगे या "विशेषज्ञों की समितियां" अथवा किसी दूसरी तरह की संस्थाएं क़ायम की जायेंगी। यह बात बिलकुल महत्वहीन है। बात यह है कि राज्य की पुरानी मशीनरी (जोकि हज़ारों सूत्रों से बुर्जुश्रा वर्ग से जुड़ी हुई है और जिसमें बंधे हुए ढर्रे पर चलने की प्रवृत्ति और जड़ता भरी हुई है) क़ायम रहेगी या नष्ट की जायेगी और उसके स्थान पर एक नयी मशीनरी स्थापित की जायेगी। क्रांति को इस बात में नहीं निहित होना चाहिए कि नया वर्ग पुरानी राज्य-मशीनरी की मदद से आज्ञा दे, हुकूमत चलाये, बल्कि इस बात में कि वह वर्ग उस मशीनरी का ध्वंस कर दे और एक नयी मशीनरी की मदद से आज्ञा दे, हुकुमत चलाये। काउत्स्की मार्क्सवाद की इस बुनियादी बात को उड़ा जाते हैं या उसे बिलकुल समझते ही नहीं।
पदाधिकारियों के बारे में उनका सवाल साफ़-साफ़ ज़ाहिर कर देता है कि वह कम्यून के सबकों और मार्क्स की शिक्षाओं को ज़रा भी नहीं समझते।"पदाधिकारियों के बिना तो हमारा काम पार्टी और ट्रेड-यूनियनों में भी नहीं चलता ..."
पूंजीवाद के अंतर्गत , बुर्जुआ वर्ग के शासन में, हम पदाधिकारियों के बिना काम नहीं चला सकते। पूंजीवाद सर्वहारा वर्ग का उत्पीड़न करता है, श्रमजीवी जनता को गुलाम रखता है। पूंजीवाद के अंतर्गत जनवाद
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जनता की उजरती गुलामी, ग़रीबी और दरिद्रता की तमाम परिस्थितियों द्वारा सीमित, जकड़ा हुआ, कटा-छंटा और विकृत रहता है। यही और केवल यही कारण है कि पूंजीवादी परिस्थितियों द्वारा हमारे राजनीतिक संगठनों और ट्रेड-यूनियनों के पदाधिकारी प्राचार-भ्रष्ट हो जाते हैं (या यह कहना ज़्यादा सही होगा कि वे प्राचार-भ्रष्ट होने की प्रवृत्ति रखते हैं ) और नौकरशाह बनने की, याने ऐसे विशेषाधिकारी बनने की प्रवृत्ति दिखलाने लगते हैं, जो जनता से कटे होते हैं और जनता से ऊपर होते हैं।
यही नौकरशाही का सार है और जब तक पूंजीपतियों का संपत्तिहरण नहीं कर लिया जाता और बुर्जुवा वर्ग का तख्ता नहीं उलट दिया जाता, तब तक सर्वहारा वर्ग के पदाधिकारी भी अवश्यंभावी रूप से किसी न किसी हद तक " नौकरशाह" हो जायेंगे।
काउत्स्की के मतानुसार चूंकि समाजवाद में निर्वाचित पदाधिकारी बाक़ी रहेंगे , इसलिए अफ़सर भी बाक़ी रहेंगे, नौकरशाही भी बाक़ी रहेगी ! ठीक यहीं पर उनकी बात ग़लत है। यह दिखाने के लिए कि समाजवाद में पदाधिकारी "नौकरशाह" और "अफ़सर" नहीं रह जायेंगे, मार्क्स ने ठीक कम्यून का ही उदाहरण दिया था; पदाधिकारियों के चुनाव के उसूल के साथ-साथ ज्यों-ज्यों उन्हें किसी भी समय हटा लिये जाने का उसूल भी लागू होगा, ज्यों-ज्यों उनके वेतन औसत मजदूर के वेतन की सतह पर लाये जायेंगे और ज्यों-ज्यों संसदीय संस्थानों के स्थान में ऐसे "कार्यशील संगठनों की, जो कार्यकारी और विधिकारी, दोनों कार्य साथ-साथ करेंगे", स्थापना होती जायेगी, त्यों-त्यों उनका नौकरशाह बने रहना भी ख़त्म होता जायेगा।
सार रूप में काउत्स्की का पान्नेकोएक के खिलाफ़ पूरा का पूरा तर्क और विशेष रूप से काउत्स्की की यह अद्भुत बात कि हम अपनी पार्टी और ट्रेड-यूनियन के संगठनों का भी काम पदाधिकारियों के बिना नहीं चला सकते, आम तौर से मार्क्सवाद के खिलाफ़ बर्नस्टीन के पुराने " तर्को" की पुनरावृत्ति मात्र ही है। ग़द्दारी से भरी अपनी पुस्तक 'समाजवाद की पूर्वावश्यकताएं' में बर्नस्टीन "आदिम" जनवाद के विचारों का विरोध करते हैं, उस चीज का विरोध करते हैं, जिसे वह " मताग्रही जनवाद' कहते हैं : अनिवार्य आदेश, अवैतनिक पदाधिकारी, शक्तिहीन केंद्रीय
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प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं , आदि। यह साबित करने के लिए कि यह "आदिम" जनवाद कमज़ोर है, बर्नस्टीन ब्रिटिश ट्रेड-यूनियनों के अनुभव की उस व्याख्या का जिक्र करते हैं, जो वेब-दंपत्ति ने की है।६७ वे कहते हैं कि "निरपेक्ष स्वतंत्रता के अंतर्गत'' सत्तर वर्ष के विकास ( पृ० १३७ , जर्मन संस्करण ) ने ट्रेड-यूनियनों को कायल कर दिया कि आदिम जनवाद बेकार है और उसके स्थान पर उन्होंने साधारण जनवाद, याने नौकरशाही के साथ संसदीय पद्धति की स्थापना की।
सच बात यह है कि ट्रेड-यूनियनों का विकास "निरपेक्ष स्वतंत्रता के अंतर्गत' नहीं, बल्कि पूर्ण पूंजीवादी गुलामी के अंतर्गत हुआ था, जिसके अंतर्गत यह मानी हुई बात है कि प्रचलित बुराई, बल प्रयोग, झूठ-फ़रेब, "उच्चतर" प्रशासन के कार्यों से ग़रीब लोगों के अलग रखे जाने, आदि को अनेक रियायतें देने से "बचा नहीं जा सकता"। समाजवाद में "आदिम" जनवाद' को अनिवार्य रूप से काफ़ी हद तक फिर जीवित किया जायेगा, क्योंकि सभ्य समाज के इतिहास में पहली बार आबादी का विशाल जनसमुदाय न केवल मतदान और चुनाव में, बल्कि प्रशासन के रोजमर्रा के कामों में भी स्वतंत्र रूप से भाग लेने के स्तर तक पहुंचेगा। समाजवाद के अंतर्गत सब लोग बारी-बारी से शासन करेंगे और इस बात के जल्दी ही
आदी हो जायेंगे कि कोई भी शासन न करे।
मार्क्स की महान आलोचनात्मक-विश्लेषणात्मक प्रतिभा ने कम्यून द्वारा की गयी व्यावहारिक कार्रवाइयों में उस मोड़ को देख लिया था, जिससे अवसरवादी डरते हैं और जिसे वे नहीं मानना चाहते, क्योंकि वे कायर हैं, क्योंकि वे बुर्जुआ वर्ग से सदा के लिए संबंध-विच्छेद करने में आनाकानी करते हैं, और जिसे अराजकतावादी या तो जल्दबाज़ी की वजह से, या व्यापक सामाजिक परिवर्तनों की परिस्थितियों को न समझने की वजह से देखना नहीं चाहते। "हमें पुरानी राज्य-मशीनरी को नष्ट करने की बात भी नहीं सोचनी चाहिए, फिर भला हम मंत्रालयों और पदाधिकारियों के बिना काम चलाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?' – अवसरवादी, जिसकी रग-रग में कूपमंडूकता घुस गयी है और जो असल में न मे न केवल क्रांति में, क्रांति की सृजनात्मक शक्ति में विश्वास नहीं रखता , बल्कि (हमारे
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मेंशेविको और समाजवादी क्रांतिकारियों की तरह ) उसके डर से मरा जा रहा है, इसी तरह तर्क करता है।
"हमें सिर्फ राज्य की पुरानो मशीनरी को नष्ट करने की ही बात सोचनी चाहिए; पहले को सर्वहारा क्रांतियों के ठोस सबकों का अध्ययन करना और यह विश्लेषण करना कि जो चीज़ नष्ट कर दी गयी है, उसके स्थान में क्या रखा जायेगा और किस प्रकार रखा जायेगा, व्यर्थ है - अराजकतावादी (निस्संदेह अराजकतावादियों में से सर्वश्रेष्ठ, वे नहीं, जो श्री क्रोपोलिन तथा उनकी मंडली के साथ-साथ बुर्जया वर्ग के पीछे-पीछे चलते हैं) इस तरह तर्क करता है। इसलिए अराजकतावादियों को कार्य नीति जन-आंदोलन की प्रत्यक्ष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसके ठोस सवालों को हल करने की निर्मम साहसी क्रांतिकारी कोशिश होने के बजाय निराशा की कार्यनीति बन जाती है।
मार्क्स हमें दोनों तरह की ग़लतियों से बचना सिखाते हैं। वह हमें सिखाते हैं कि राज्य की पुरानी मशीनरी को पूर्ण रूप से नष्ट करने में हमें असीम साह्स दिखाना चाहिए और साथ ही साथ वह हमें सवाल को ठोस रूप में रखना सिखाते हैं: ज्यादा व्यापक जनवाद स्थापित करने और नौकरशाही को जड़ से उखाड़ने के लिए अमुक-अमुक कार्रवाइयां करके कम्यून कुछ ही हफ्तों के अंदर एक नयी, सर्वहारा राज्य-मशीनरी का निर्माण शुरु करने में समर्थ हुया था। कम्यून के वीरों से हमें क्रांतिकारी साहसिकता सीखनी चाहिए, उनकी व्यावहारिक कार्रवाइयों में हमें वस्तुतः तात्कालिक और फौरन संभव कारंवाइयों की रूपरेखा देखनी चाहिए और तव, इस मार्ग पर चलते हुए, हम नौकरशाही को पूर्ण रूप से खत्म कर संकेगे।
इस खातमे की संभावना की गारंटी इस बात में है कि समाजवाद काम के घंटे कम करेगा, जनता को नये जीवन के उन्नत स्तर पर पहुंचा देगा, आवादी की बहुसंख्या के लिए ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देगा, जिनमे बिना अपवाद के हरेक इस योग्य होगा कि "राज्य का कारोबार" करने लगे, और इसका परिणाम आम तौर से हर प्रकार के राज्य का पूर्ण रूप से विलोप होगा।
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काउत्स्की आगे कहते हैं : " . . . जनव्यापी हड़ताल का उद्देश्य राज्य सत्ता को नष्ट करना कभी नहीं हो सकता, उसका केवल यही उद्देश्य हो सकता है कि किसी विशेष सवाल पर सरकार से कुछ सुविधाएं हासिल कर ली जाये या सर्वहारा के लिए शत्रुतापूर्ण सरकार को हटाकर उसकी जगह ऐसी सरकार की स्थापना कर दी जाये, जो सर्वहारा की बात को ज्यादा मानती (entgegenkommende) हो ... लेकिन कभी भी, किसी भी हालत में उसका" (शत्रुतापूर्ण सरकार के ऊपर सर्वहारा वर्ग की विजय का ) "परिणाम राज्य-सत्ता का विनाश नहीं हो सकता, उसके परिणामस्वरूप सिर्फ राज्य-सत्ता के अंदर शक्तियों के संतुलन में थोड़ा-बहत हेर-फेर (Verschiebung) हो सकता है . . . अब तक की तरह ही हमारे राजनीतिक संघर्ष का लक्ष्य यही है कि संसद में बहुमत प्राप्त करके और संसद को सरकार का मालिक बनाकर राज्य-सत्ता जीत
ली जाये ( पृ० ७२६, ७२७, ७३२ )।
यह शुद्धतम और निकृष्टतम अवसरवाद के अलावा और कुछ नहीं है, क्रांति को शब्दों में मानकर व्यवहार में उसे ठुकराना है। एक ऐसी " सरकार ... जो सर्वहारा वर्ग की बात को ज्यादा मानती हो" – काउत्स्की की कल्पना इससे आगे नहीं जाती। १८४७ की तुलना में, जब 'कम्युनिष्ट घोषणापत्र' ने "सर्वहारा को शासक वर्ग के रूप में संगठित करने' की बात का ऐलान किया था, यह कूपमंडूकता की ओर पीछे भागना है।
काउत्स्की को अपनी प्रिय "एकता" शीडेमान , प्लेखानोव और वान डरवेल्डे जैसे लोगों के साथ क़ायम करनी पड़ेगी, जो सब के सब ऐसी सरकार की स्थापना के लिए लड़ने के प्रश्न पर एकमत हैं, "जो सर्वहारा वर्ग की बात को ज्यादा मानती है"।
लेकिन हम समाजवाद के इन गद्दारों से नाता तोड़ लेंगे और राज्य की पुरानी मशीनरी को पूर्ण रूप से नष्ट करने के लिए लड़ेंगे ताकि सशस्त्र सर्वहारा खुद ही सरकार बन जाये। इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है।
काउत्स्की को लेजियन, डेविड, प्लेखानोव, पोवेसोब, त्सेरेतेली और चों व जैसे लोगों की सुखद संगति करनी होगी, जो "राज्य-सत्ता के अंदर शक्तियों के संतुलन में थोड़ा-बहुत हेर-फेर करने" के लिए, "संसद में बहुमत प्राप्त करने और संसद को सरकार का मालिक बनाने के लिए
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संघर्श करने पर राजी हैं, - बहुत ही ऊंचा उद्देश्य है, जो अवसरवादियों को पूर्ण रूप से मान्य है, और जो हर चीज को बुर्जुवा संसदीय जनतंत्र के दायरे के भीतर ही रखता है।
लेकिन हम अवसरवादियों से बिलकुल नाता तोड़ लेंगे और इस लड़ाई में सम्पूर्ण वर्ग चेतन सर्वहारा वर्ग हमारे साथ होगा - " शक्तियों के संतुलन में थोड़ा थोडा बहुत हेर फेर करने" के उद्देश्य से नहीं, बल्कि बुर्जुवा वर्ग का तख्ता उलटने, बुर्जुवा संसदीय व्यवस्था को नष्ट करने के उद्देश्य के लिए, कम्युन की तरह के जनवादी जनतंत्र या मजदूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की सोबियतों के जनतंत्र के लिए, सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी अधिनायकत्व के लिए।
· * *
अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद की दुनिया में काउत्तस्की की से भी अधिक दक्षिणपंथी ऐसी धाराएं हैं, जैसे जमनी का 'समाजवादी मासिक '68 (लेजियन , डेविड , कोल्ब , आदि और स्कैडिनेविया के स्टानिंग और ब्रांटिंग भी उनमें शामिल हैं ); फ्रांस और बेल्जियम में जारेसबादी 69 और वानडरवेल्डे ; इतालवी पार्टी के दक्षिणपंथ के प्रतिनिधि तुराती, वीज, आदि ; इंगलैंड में फ़ेबियन और "स्वतंत्र" ("स्वतंत्र लेबर पार्टी 70 , जो वास्तव में हमेशा उदारतावादियों पर निर्भर रही है, आदि। ये सभी सज्जन, जो अपनी पार्टी के संसद संबंधी काम में और अखबारों के काम में बड़ी और अकसर प्रधान भूमिका अदा करते हैं, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का खुलेआम विरोध करते हैं और बेनकाब अवसरवाद की नीति पर चलते हैं। इन सज्जनों की नजर में सर्वहारा वर्ग का "अधिनायकत्व" जनवाद का "विरोधी" है !! वास्तव में इनमें और टुटपूजिया जनवादियों में कोई खास
फर्क नहीं है।
इस परिस्थिति को ध्यान में रखने के बाद हमारा यह नतीजा निकालना 'उचित है कि दूसरा इंटरनेशनल, उसके आधिकारिक प्रतिनिधियों की विशाल बहुसन्ख्या पूर्ण रूप से अवसरवाद में धंस गयी है। कम्युन के अनुभव को न केवल भूला दिया गया है, बल्कि उसे तोड़ा-मरोड़ा गया है। मजदूरो के दिमाग में यह विचार बैठाने के बजाय कि वह समय करीब आ रहा है, जब उन्हें उठना चाहिए, राज्य की पुरानी मशीनरी का ध्वंस करना
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चाहिए, उसकी जगह राज्य की एक नयी मशीनरी कायम करनी चाहिए और इस तरह अपने राजनीतिक शासन को समाज के समाजवादी पुनर्निर्माण का आधार बनाना चाहिए, उन्होंने मजदूरों को असल में इसका बिलकुल उल्टा ही पाठ पढ़ाया है और "सत्ता पर अधिकार प्राप्त करने की" बात को इस तरह से चित्रित किया है कि अवसरवाद के लिए हजारों सूराखें रह गयी हैं।
जब वे राज्य, जिनके पास साम्राज्यवादी होड़ के कारण विस्तीर्ण फ़ौजी यंत्र हैं , ऐसे फ़ौजी दानवों में बदल गये हैं , जो इस बात का फैसला करने के लिए कि दुनिया में इंगलैंड हुकूमत करेगा या जर्मनी, यह वित्त पूंजी या वह वित्त पूंजी, लाखों आदमियों की हत्या कर रहे हैं, ऐसे समय राज्य के प्रति सर्वहारा क्रांति के रवैये के सवाल को तोड़-मरोड़कर पेश करने और उसे दबाने-छिपाने की कार्रवाइयां एक बहुत बड़ी भूमिका अदा किये बिना नहीं रह सकतीं *।
* आगे पांडुलिपि इस प्रकार है :
अध्याय ७
१९०५ और १९१७ की रूसी क्रांतियों का अनुभव
इस अध्याय के शीर्षक में इंगित विषय इतना विस्तृत है कि उस पर कई किताबें लिखी जा सकती हैं और लिखी जानी चाहिए। इस पुस्तिका में हमें स्वभावतः अनुभव के सबसे महत्वपूर्ण उन सबक़ों तक ही अपने को सीमित रखना पड़ेगा, जिनका राज्य-सत्ता के संबंध में क्रांति के समय सर्वहारा वर्ग के कार्यभारों के साथ प्रत्यक्ष रूप से संबंध है।" (यहां पांडुलिपि ख़त्म हो जाती है।)-सं०
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