दसवाँ अध्याय
देश के समाजवादी औद्योगीकरण के लिये संघर्ष में बोल्शेविक
पार्टी (1926-1929)
1. समाजवादी औद्योगीकरण के दौर में कठिनाइयां और उन्हें दूर करने के लिये संघर्ष। त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के पार्टी-विरोधी गुट का निर्माण। गुट के सोवियत-विरोधी कारनामे। गुट की हार।
चैदहवीं कांग्रेस के बाद, पार्टी ने सोवियत सरकार की आम नीति - वेश के समाजवादी औद्योगीकरण - को अमल में लाने के लिये ज़ोरदार संघर्ष शुरू किया।
पुनर्संगठन के दौर में, सबसे पहला काम खेती को संभालना था, जिससे कि कच्चा माल और अन्न मिल सके और उद्योग-धंधे मौजूदा मिलें और कारखाने पुनर्संगठित और चालू किये जा सकें।
सोवियत सरकार ने यह काम अपेक्षाकृत आसानी से कर लिया।
लेकिन, पुनर्संगठन के इस दौर में तीन मुख्य खामियाँ थीं।
पहली तो यह कि मिलें और कारखाने पुराने थे, जिसमें घिसी-पिटी और बाबा आदम के ज़माने की मशीनें लगी हुई थीं। ये कल-कारखाने कुछ ही दिनों में ठप्प हो सकते थे। काम यह था कि बिल्कुल आधुनिक पैमाने पर इनमें नया साज़-सामान लगाया जाये।
दूसरी यह कि बहाली के दौर में उद्योग-धंधों का आधार बहुत ही संकुचित था। उनमें मशीन बनानेवाले कारखाने बिल्कुल न थे, लेनिक ये देश के लिये एकदम ज़रूरी थे। इस तरह के सैकड़ों कारखाने बनाने थे क्योंकि इनके बिना किसी भी देश को सचमुच उद्योग-धंधों वाला देश न समझा जा सकता था। अब काम यह था कि ऐसे कारखाने बनाये जायें, और बिल्कुल आधुनिक पैमाने पर उनमें साज़-सामान लगाया जाये।
तीसरी यह कि इस दौर में ज्यादातर हल्के उद्योग-धंधें ही चालू रहे थे। इनको सुधारा और चालू किया गया था। लेकिन एक हद तक पहुँच कर, हल्के उद्योग-धंधों के अगले विकास में एक अड़चन पैदा होती थी। अड़चन थी - भारी उद्योग-धंधों की खामी। कहना न होगा कि देश के लिये दूसरी चीजें भी ज़रूरी थीं, जो सिर्फ़ अच्छी तरह विकसित भारी उद्योग-धंधों से ही पूरी हो सकती थीं। अब काम यह था कि भारी उद्योग-धंधों पर ज़ोर दिया जाये।
ये सब नये काम समाजवादी औद्योगीकरण की नीति से पूरे होने थे।
यह ज़रूरी था कि बहुत से नये उद्योग-धंधे बनाये जायें, जो ज़ारशाही रूस में न थे। नयी मशीनें, कल-पुर्जे, मोटर, रसायन, लोहे और इस्पात के कारखाने बनाये जायें, इंजन बनाने और यन्त्र-शक्ति को पैदा करने के काम का संगठन किया जाये और कोयला और धातुओं की खुदाई का काम बढ़ाया जाये। सोवियत संघ में समाजवाद की जीत के लिये, यह बहुत ही ज़रूरी था।
यह ज़रूरी था कि गोला-बारूद का सामान तैयार करने वाले नये उद्योग-धंधे बनाये जायें; तोपें, गोले, हवाई जहाज, टैंक और मशीनगन बनाने के लिये नये कारखाने खड़े किये जायें। पूंजीवादी संसार से घिरे हुए, सोवियत संघ की रक्षा के लिये बहुत ही ज़रूरी था।
आधुनिक खेती की मशीनें बनाने के लिये, ट्रैक्टर के कल-कारखाने खड़े करना ज़रूरी था। खेती को ये मशीनें देना जरूरी था, जिससे कि लाखों छोटे-छोटे अलग-थलग किसान बड़े पैमाने की पंचायती खेती की मंजिल में प्रवेश कर सकें। देहातों में समाजवाद की विजय के लिये, यह एकदम ज़रूरी था।
यह सब औद्योगीकरण की नीति से होनेवाला था, क्योंकि देश के समाजवादी औद्योगीकरण का मतलब ही यह था।
ज़ाहिर है कि इतने बड़े पैमाने के निर्माण-कार्य के लिये, करोड़ों रूबल की पूंजी दरकार होगी। दूसरे देशों से उधार लेने की बात ही बेकार थी, क्योंकि पूंजीवादी देशों ने उधार देने से इन्कार कर दिया था। हमें अपने ही साधनों से, बिना बाहरी सहायता के निर्माण करना था। लेकिन, उस समय हमारा देश गरीब था।
हमारी एक मुख्य कठिनाई यही थी।
आम तौर से, पूंजीवादी देश अपने भारी उद्योग-धंधे विदेश से पाये हुए धन से निर्मित करते हैं। यह धन या तो उपनिवेशों की लूट से मिलता है, या हरायी हुई जातियों से हर्जाना वसूल कर, या दूसरे देशों से उधार लेकर इकट्ठा किया जाता है। सोवियत संघ धन इकट्ठा करने के लिये उसूलन ऐसे नीच उपायों से काम न ले सकता था, जैसे कि उपनिवेशों या हरायी हुई जातियों की लूट। जहाँ तक बाहर से उधार लेने का सम्बन्ध था, सोवियत संघ के लिये वह रास्ता भी बन्द था, क्योंकि पूंजीवादी देश उसे कुछ भी देने से इन्कार कर रहे थे। पैसा देश के भीतर ही इकट्ठा करना था।
और, पैसा इकट्ठा हुआ। सोवियत संघ में धन के ऐसे साधन टटोले गये जैसे किसी भी पूंजीवादी देश में न किये जा सकते थे। सोवियत राज्य ने उन तमाम मिलों, कारखानों और ज़मीनों को ले लिया था जिन्हें अक्तूबर की समाजवादी क्रान्ति ने पूंजीपतियों और ज़मींदारों से छीना था। सोवियत राज्य के हाथ में यातायात के सभी साधन, बैंक और देशी और विदेशी व्यापार था। राज्य की मिलों और कारखानों, यातायात के साधनों, व्यापार और बैंकों से जो मुनाफ़ा होता था, वह कामचोर पूंजीवादी वर्ग की जेब में न जाता था, बल्कि अब उद्योग-धंधों के विस्तार को बढ़ाने के लिये लगाया गया।
सोवियत सरकार ने ज़ार का वह क़र्ज रद्द कर दिया था जिसे भरने में जनता सिर्फ़ सूद के रूप में सोने के करोड़ों रूबल देती थी। ज़मीन पर ज़मींदारों की मिल्कियत खत्म करके, सोवियत सरकार ने किसानों को लगान के रूप में सोने के लगभग 50 करोड़ रूबल के सालाना भुगतान से मुक्त कर दिया था। इस बोझ से मुक्त होकर, किसान इस हालत में थे कि नये और शक्तिशाली उद्योग-धंधे बनाने में राज्य की सहायता करें। किसानों को ट्रैक्टर और खेती की दूसरी मशीनें हासिल करने में गहरी दिलचस्पी थी।
आमदनी के ये सभी साधन सोवियत राज्य के हाथ में थे। भारी उद्योग-धंधों के निर्माण के लिये, उनसे करोड़ों रूबल मिल सकते थे। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की थी कि सीधे-सीधे काम काजी रुख अपनाया जाये, धन की एकदम किफ़ायत के साथ खर्च किया जाये, उद्योग-धंधों को चलाने में धन और शक्ति की बचत हो, पैदावार के खर्च में कमी हो, जिस खर्च से पैदावार न हो उसे बन्द कर दिया जाये, वगै़रह।
और, सोवियत सरकार ने यही रास्ता अपनाया।
सख़्त किफ़ायतसारी की व्यवस्था होने से, भारी औद्योगीक विकास के लिये आवश्यक रक़म हर साल बढ़ती गयी। इसी से, यह मुमकिन हुआ कि ऐसे विराट निर्माण-कार्यों में हाथ लगाया जाये जैसे द्नीपर पन-बिजली का स्टेशन, तुर्किस्तान-साइबेरिया रेलवे, स्तालिनग्राद का ट्रैक्टर का कारखाना, मशीनें बनाने वाले कई कारखाने, आमो (ज़िस) मोटर बनाने का कारखाना, वग़ैरह।
1926-27 में, लगभग 1 अरब रूबल उद्योग-धंधों में लगाये गये थे लेकिन तीन साल बाद, पाँच अरब लगाना संभव हुआ।
औद्योगीकरण बराबर प्रगति करता जा रहा था।
पूंजीवादी देश सोवियत संघ में समाजवादी आर्थिक व्यवस्था की बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति को पूंजीवादी व्यवस्था की हस्ती के लिये एक संकट ही समझते थे। इसलिये, जहां तक उनसे हो सका, साम्राज्यवादियों ने सोवियत संघ पर नया दवाब डालने की कोशिश की, देश में दुविधा और बेचैनी का भाव फैलाने की कोशिश की और सोवियत संघ में औद्योगीकरण को असफल करने या कम से कम उसमें अड़चनें डालने की कोशिश की।
मई 1927 में, ब्रिटिश कंज़रवेटिव कट्टरपंथियों ने, जिनकी उस समय सरकार थी, आर्कोस (ब्रिटेन-स्थित सोवियत व्यापारी संस्था) पर एक उकसावा पैदा करने वाला हमला संगठित किया। 26 मई 1927 को, अंग्रेजों की कंजरवेटिव सरकार ने सोवियत संघ से कूटनीतिक और व्यापारिक सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।
7 जून 1927 को, एक रूसी ग़द्दार ने जो पोलैण्ड का नागरिक बन गया था, वारसा-स्थित सोवियत राजदूत काँमरेड वोईकोव की हत्या कर डाली।
इसी समय, खुद सोवियत संघ के अन्दर अंग्रेज जासूसों और तोड़-फोड़ करनेवालों ने लेनिनग्राद में एक पार्टी क्लब की बैठक में बम फेंके, जिसेसे तीस आदमी घायल हुए, जिनमें से कुछ के घाव चिंताजनक थे।
1927 की गर्मियों में, लगभग एक ही साथ बर्लिन, पेकिंग, शंघाई और टीन्सटिन के सोवियत दूतावासों और व्यापार प्रतितिधि-मण्डलों पर हमले किये गये।
इससे सोवियत सत्ता के लिये और भी कठिनाइयाँ पैदा हो गईं। लेकिन, सोवियत संघ ने इन धमकियों में आने से इन्कार कर दिया और साम्राज्यवादियों और उनके दलालों की भड़काने वाली कोशिशों को आसानी से काट दिया।
पार्टी और सोवियत राज्य के लिये त्रात्स्कीपंथियों और दूसरे विरोधियों की तोड़-फोड़ की कार्यवाही से भी कम कठिनाइयाँ पैदा न हुईं। काँमरेड स्तालिन ने ठीक ही कहा था कि सोवियत सत्ता के खि़लाफ "चेम्बरलेन से लेकर, त्रात्स्की तक एक संयुक्त मोर्चो सा बनाया जा रहा है।" चैदहवीं पार्टी कांग्रेस के फ़ैसलों के बावजूद और पार्टी के प्रति वफ़ादारी की क़समें खाने के बावजूद, विरोधियों ने अभी हथियार न डाले थे। उल्टे, उन्होंने पार्टी को कमज़ोर बनाने और तोड़ने के लिये और भी ज़ोरशोर से कोशिशें आरम्भ कीं।
1926 की गर्मियों में, त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों ने एक पार्टी-विरोधी गुट बनाने के लिए एका किया। उन्होंने इसे हारे हुए विरोधी दलों के बचे-खुचे लोगों को समेटने के लिये एक केन्द्र बनाया। उन्होंने अपनी गुप्त लेनिनवाद-विरोधी पार्टी बनाने के लिये नींव डाली। इस तरह, उन्होंने गुटबाजी के खिलाफ़ पार्टी कांग्रेसों के फ़ैसलों और पार्टी नियमावली को बुरी तरह तोड़ा। पार्टी की केन्द्रीय समिति ने चेतावनी दी कि अगर यह पार्टी-विरोधी गुट-जो बदनाम मेन्शेविक अगस्त-गुट से मिलता-जुलता है - न तोड़ा गया, तो उसके अनुयायियों के लिये बुरा होगा। लेकिन, गुट के समर्थकों ने अपना हाथ न रोका।
उसी साल की शरद में, पन्द्रहवीं पार्टी कान्फ्रेंस शुरू होने से पहले, उन्होंने इस कोशिश में मास्को, लेनिनग्राद और दूसरे शहरों के कारखानों की पार्टी मीटिंगों पर फिर धावा बोला कि पार्टी एक नयी बहस के लिये मज़बूर किया जाये। जिस नीति को लेकर वे पार्टी सदस्यों में बहस चलाना चाहते थे, वह वही त्रात्स्कीवादी-मेन्शेविक, लेनिनवाद-विरोधी पुरानी नीति का पैबन्द लगाया हुआ रूप था। पार्टी सदस्यों ने विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब दिया और कई जगह तो उन्हें मीटिंगों से बाहर निकाल दिया। केन्द्रीय समिति ने गुट के समर्थकों को फिर चेतावनी दी और कहा कि पार्टी उनकी तोड़-फोड़ की कार्यवाही को और ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती।
तब विरोधियों ने त्रात्स्की, ज़िनोवियेव, कामेनेव और सोकोल्निकोव के दस्तख़तों से एक बयान केन्द्रीय समिति को दिया, जिसमें अपनी गुटबन्दी की निन्दा की और आगे वफ़ादार रहने का वायदा किया। फिर भी, गुट बना ही रहा और उसके समर्थक पार्टी के खिलाफ़ गुपचुप काम करने से बाज़ न आये। वे अपनी लेनिनवाद-विरोधी पार्टी जोड़ते-बटोरते रहे, अपना ग़ैर कानूनी छापाखाना शुरू कर दिया, अपने समर्थकों से सदस्यता की फीस इकट्ठी करने लगे और अपनी नीति का दस्तावेज़ घुमाने लगे।
त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों का यह व्यवहार देखकर, पन्द्रहवीं पार्टी कान्फ्रेंस (नम्बर 1926) और कम्युनिस्ट इन्टरनेशलन की कार्यकारिणी समिति के विस्तृत अधिवेशन (दिसम्बर 1926) ने त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के सवाल पर विचार किया और इसके अनुयायियों को फूट डालनेवाला कहकर, जिनकी नीति ठेठ मेन्शेविज्म थी, उनकी निन्दा की।
लेकिन, इससे भी उनके होश ठिकाने न आये। 1927 में, ठीक उन्हीं दिनों जबकि ब्रिटिश कंजरवेटिवों ने सोवियत संघ से व्यापारिक और कूटनीतिक सम्बन्ध विच्छेद किया था, गुट ने और भी जोश से पार्टी पर हमला किया। उसने एक नया लेनिनवाद-विरोधी मंच बनाया, तथाकथित 'तेरासी का मंच' और पार्टी सदस्यों में यह दस्तावेज घुमाना शुरू किया। और साथ ही, उसने यह माँग की कि केन्द्रीय समिति एक नयी आम पार्टी बहस शुरू करे।
यह दस्तावेज़ विरोधियों में शायद सबसे झूठा और मक्कारी से भरा हुआ था। त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों ने अपने दस्तावेज़ में कहा कि उन्हें पार्टी के फ़ैसले मानने से कोई ऐतराज़ नहीं है और वे सब वफ़ादारी के पक्ष में हैं। लेकिन वास्तव में, वे पार्टी फ़ैसलों को बुरी तरह तोड़ते थे और पार्टी के प्रति और उसकी केन्द्रीय समिति के प्रति वफ़ादारी के विचार का ही मखौल उड़ाते थे।
उन्होंने अपने दस्तावेज़ में कहा था कि पार्टी एकता से उन्हें कोई ऐतराज नहंी है और वे फूट के खिलाफ़ हैं: लेकिन वास्तव में, वे बुरी तरह पार्टी एकता तोड़ते थे, फूट के लिये काम करते थे और अभी भी उनकी अपनी ग़ैरकानूनी लेनिनवाद-विरोधी पार्टी थी, जिसके सभी लक्षण एक सोवियत-विरोधी, क्रान्ति-विरोधी पार्टी के थे।
उन्होंने अपने दस्तावेज़ में कहा था कि वे सब औद्योगीकरण की नीति के पक्ष में है और वे केन्द्रीय समिति पर यह दोष तक लगाते थे कि वह काफ़ी तेजी से औद्योगीकरण नहीं कर रही। लेकिन वास्तव में, सोवियत संघ में समाजवाद की विजय पर पार्टी के प्रस्ताव की नुक्ताचीनी करने के अलावा वे कुछ न करते थे। वे समाजवादी औद्योगीकरण की नीति का मखौल उड़ाते थे। वे माँग करते थे कि कई मिलें और कारखाने विदेशियों को रियायत के रूप मे सौंप दिये जायें। उन्होंने अपनी सबसे बड़ी उम्मीदें सोवियत संघ में विदेशी पूंजीपतियों के लिये रियायतों से बाँध रखी थीं।
उन्होंने अपने दस्तावेज़ में कहा था कि वे सब पंचायती खेती के आन्दोलन के पक्ष में हैं, और वे केन्द्रीय समिति पर इसका दोष तक लगाते थे कि वह पंचायतीकरण में काफ़ी जल्दी नहीं कर रही है। लेकिन वास्तव में, वे किसानों को समाजवादी निर्माण में लगाने की नीति का मखौल उड़ाते थे। वे इस धारणा का प्रचार करते थे कि मज़दूर वर्ग और किसानों के बीच 'न सुलझनेवाले झगड़े' अनिवार्य हैं। उन्होंने अपनी उम्मीदें देहातों के 'सुसंस्कृत पट्टेदारों,' दूसरे शब्दों में कुलकों, पर बाँध रखीं थीं।
विरोधियों के सभी दस्तावेजों में, यह सबसे झूठा था।
उसका उद्देश्य पार्टी को धोखा देना था।
केन्द्रीय समिति ने तुरंत ही आम बहस शुरू करने से इन्कार कर दिया उसने विरोधियों को सूचना दे दी कि आम बहस पार्टी नियमावली के अनुसार हो, यानी पार्टी कांग्रेस के दो महीने पहले ही शुरू हो सकती है।
अक्तूबर 1927 में, यानी पन्द्रहवीं कांग्रेस से दो महीने पहले, पार्टी की केन्द्रीय समिति ने आम पार्टी बहस का ऐलान किया और लड़ाई शुरू हो गयी। त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के लिये उसका नतीज़ा सचमुच ही शोचनीय हुआ। 7,24,000 पार्टी सदस्यों ने केन्द्रीय समिति की नीति के लिये वोट दिया। चार हजार या एक फ़ीसदी से भी कम ने त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के लिये वोट दिया। पार्टी-विरोधी गुट पूरी तरह पछाड़ दिया गया। पार्टी सदस्यों के भारी बहुमत ने एक राय से गुट की नीति के ठुकरा दिया।
पार्टी की बहुत साफ़-साफ़ ज़ाहिर होनेवाली इच्छा यही थी, जिस पार्टी के फ़ैसले के लिये खुद विरोधियों ने अपील की थी।
लेकिन, गुट के समर्थकों ने इससे भी सबक न सीखा। पार्टी की इच्छा मानने के बदले, उन्होंने उसे विफल करने का फैसला किया। बहस खत्म होने के पहले ही, यह देखकर कि उनकी कैसी बुरी हार होने वाली है, उन्हांेंने पार्टी और सोवियत सरकार के खिलाफ़ संघर्ष के और भी तेज़ रूपों से काम लेने का फ़ैसला किया। उन्होंने तय किया कि मास्को और लेनिनग्राद में खुला विरोध-प्रदर्शन किया जाये। प्रदर्शन के लिये उन्होंने 7 नवम्बर का दिन चुना, अक्तूबर क्रान्ति की वर्षी का दिन चुना, जिस दिन सोवियत संघ की मेहनतकश जनता हर साल देश भर में क्रान्तिकारी प्रर्दशन करती है। इस तरह, त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों ने उसी के बराबर प्रर्दशन करने की योजना बनाई। जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी, गुट के समर्थक सिर्फ़ मुट्ठीभर अपने पिछलगुओं को सड़कों पर ला सके। ये पिछलगुए और उनके संरक्षक आम प्रर्दशन में बह गये और सड़कों में खो गये।
अब इसमें कोई भी शक न रहा कि त्रात्स्कीवादी और ज़िनोवियेव पंथी निश्चित रूप से सोवियत-विरोधी हो गये हैं। आम पार्टी बहस के दौर में, उन्होंने केन्द्रीय समिति के खिलाफ़ पार्टी से अपील की थी। अब इस टुटपुंजिया प्रदर्शन के दौर में, पार्टी और सोवियत राज्य के खिलाफ़ उन्होंने विरोधी वर्गों से अपील करने का रास्ता अपनाया। जब एक बार उन्होंने तय कर लिया था कि बोल्शेविक पार्टी की जड़ काटनी है, तब उन्हें सोवियत राज्य की जड़ काटने की हद तक बढ़ना ही था, क्योंकि सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी और राज्य दोनों अभिन्न हैं। ऐसी हालत में, त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के नेताओं ने अपने को पार्टी से फ़रार कर लिया था, क्योंकि जो आदमी सोवियत-विरोधी कार्यवाही की हद तक उतर चुके थे, वे अब बोल्शेविक पार्टी की पंाति में बर्दाश्त न किये जा सकते थे।
14 नवम्बर 1927 को, केन्द्रीय समिति और केन्द्रीय कन्ट्रोल-कमीशन की संयुक्त बैठक ने त्रात्स्की और ज़िनोवियेव को पार्टी से निकाल दिया।
2. समाजवादी औद्योगीकरण की प्रगति। खेती का पिछड़ना।
पन्द्रहवीं पार्टी कांग्रेस। खेती में पंचायतीकरण की नीति।
त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट की हार।
राजनीतिक दुरंगापन।
1927 के आख़िर तक, इसमें शक न रह गया था कि समाजवादी औद्योगीकरण की नीति को निर्णायक सफलता मिली है। नयी आर्थिक नीति के दौर में, थोड़े ही दिनों में औद्योगीकरण ने काफ़ी प्रगति की थी। उद्योग-धंधों और खेती की कुल उपज (जिसमें लकड़ी और मछलियों के धंधे भी शामिल थे) युद्ध के पूर्व की सतह तक पहुंच गयी थी, और उससे आगे भी बढ़ गयी थी। औद्योगीक उपज देश की कुल उपज का 42 फ़ीसदी भाग बन चुकी थी, जो युद्ध से पहले का अनुपात था।
उद्योग-धंधों का समाजवादी क्षेत्र तेज़ी से बढ़ रहा था और व्यक्तिगत पूंजी का क्षेत्र घट रहा था। समाजवादी क्षेत्र की उपज 1924-'25 में कुल उपज के 81 फ़ीसदी भाग से, 1926-'27 में 86 फ़ीसदी तक पहुँच गयी। इसी बीच, व्यक्तिगत पूंजी के क्षेत्र की उपज 19 फ़ीसदी से घटकर 14 फ़ीसदी तक रह गयी थी।
इसका मतलब यह था कि सोवियत संघ में औद्योगीकरण का समाजवादी रूप उभर आया था, उद्योग-धंधों का विकास पैदावार की समाजवादी व्यवस्था की जीत की तरफ़ हो रहा था; और उद्योग-धंधों के बारे में यह सवाल कि 'जीत किसकी होगी?' समाजवाद के पक्ष में हल हो चुका था।
व्यापार-क्षेत्र में, व्यक्तिगत सौदागर को भी कम तेज़ी से नहीं हटाया गया। खुदरा बाज़ार में उसका हिस्सा 1924-'25 में 42 फ़ीसदी से गिरकर, 1926-'27 में 32 फ़ीसदी तक आ गया था। थोक बाज़ार का ज़िक्र ही क्या, जहां व्यक्तिगत सौदागर का हिस्सा इसी बीच 9 फ़ीसदी से गिरकर 5 फ़ीसदी रह गया था।
बड़े पैमाने के समाजवादी उद्योग-धंधों की बढ़ती इससे भी तेज़ रफ्तार से हुई। 1927 में, पुनर्संगठन के दौर के बाद के पहले साल में, इनकी उपज पहले साल से 18 फ़ीसदी बढ़ गयी। बढ़ती का यह एक रिकार्ड था, जो सबसे आगे बढ़े हुए पूंजीवादी देशों के लिए भारी उद्योग-धंधों की पहुंच से बाहर था।
लेकिन खेती में, ख़ास तौर से ग़ल्ला पैदा करने में, हालत दूसरी थी। हालंाकि कुल मिलाकर खेती युद्ध के पूर्व की सतह से आगे बढ़ गयी थी, लेकिन उसकी सबसे महत्वपूर्ण शाखा - अनाज पैदा करने की शाखा - की कुल उपज युद्ध-पूर्व की 91 फ़ीसदी ही थी, जबकि फ़सल का बाज़ार में बेचा जाने वाला हिस्सा, यानी वह अनाज जो शहरों की खपत के लिये बेचा जाता था, मुश्किल से युद्ध-पूर्व के आंकडों का 37 फ़ीसदी हो पाया था। और भी, सभी लक्षण यह बता रहे थे कि बाज़ार के लिये अनाज की तादाद में और भी कमी होने का ख़तरा है।
इसका मतलब यह था कि बड़े खेत, जो बाज़ार के लिये अन्न पैदा करते थे, उनका टूट कर छोटे खेत बनना और छोटे खेतों का और भी छोटे टुकड़ों में बंटना, यह सिलसिला जो 1918 में शुरू हुआ था, अब भी चालू था। ये छोटे खेत और टुकड़े अमल में आर्थिक व्यवस्था के कुदरती रूप की तरफ़ लौट रहे थे और अनाज़ की नगण्य तादाद ही बाज़ार के लिये भेज सकते थे। 1927 के दौर में, हालंाकि अनाज की फ़सल युद्ध के पूर्व के दौर से कुछ ही कम थीं, लेकिन शहरों को भेजने के लिये बाज़ार में आनेवाला अतिरिक्त अनाज युद्ध-पूर्व के बाज़ार में भेजे जाने वाले फ़ालतू अनाज के एक-तिहाई से कुछ ही ज्यादा था।
इसमें कोई सन्देह न था कि यदि अनाज की खेती की यही दशा रही तो फ़ौज और शहर के लोगों को हमेशा ही अकाल का सामना करना पड़ेगा।
यह अनाज की खेती का संकट था, जिसके बाद पशु-पालन का संकट पैदा होना ज़रूरी था।
इस कठिनाई से बचने का एक ही तरीका था कि बड़े पैमाने की खेती की जायें, जिसमें ट्रैक्टरों और खेती की मशीनों से काम लिया जा सके और बाजार के लिये भेजे जाने योग्य अतिरिक्त अनाज कई गुना बढ़ सके। देश के सामने दो रास्ते: या तो बड़े पैमाने की पूंजीवादी खेती करे, जिससे किसान-जनता तबाह हो जाती, मजदूर और किसानों का सहयोग टूट जाता, कुलक-शक्ति बढ़ जाती और देहातों में समाजवाद का पतन हो जाता; या फिर छोटे-छोटे खेतों को बड़े समाजवादी खेतों, पंचायती खेतों में मिला लिया जाता, जिसे अनाज की खेती को तेजी से बढ़ाने के लिये और बाज़ार के लिये अतिरिक्त अनाज की तादाद में तुंरत वृद्धि करने के लिये टैªक्टर और दूसरी आधुनिक मशीनें काम में लाई जा सकतीं।
स्पष्ट है कि बोल्शेविक पार्टी और सोवियत राज्य दूसरी राह पर ही, खेती को बढ़ाने की पंचायती राह पर ही चल सकते थे।
इस मामले में, पार्टी का निर्देश लेनिन की यह सीख करती थी, जो उन्होंने छोटे पैमाने की खेती से बड़े पैमाने की सहकारी,पंचायती खेती की तरफ़ बढ़ने की ज़रूरत के बारे में दी थी:
(क) "छोटे खेतों के लिये ग़रीबी से बचने का कोई भी रास्ता नहीं है।" (लेनिन ग्रंथावली , रूÛसंÛ खंÛ 24, पृष्ठ 540)।
(ख) "अगर हम स्वाधीन भूमि पर स्वाधीन नागरिकों की तरह भी पुराने ढंग से अपने छोटे खेतों पर किसानी करते रहें, तो भी तबाही लाज़िमी होगी।" (लेनिन ग्रंथावली, रूÛसंÛ, खंÛ 20, पृÛ 417)।
(ग) "अगर किसानों की खेती को आगे बढ़ाना है, तो हमें दूसरी मंज़िल की तरफ़ उसकी बढ़ती को भी पक्का कर लेना चाहिये। लाज़िमी तौर से, यह दूसरी मंज़िल ऐसी होगी जिसमें छोटे, अलग-थलग खेत, सबसे कम लाभदायी और सबसे पिछ़डे हुए खेत धीरे-धीरे घुलमिल कर बड़े पैमाने के पंचायती खेत बन जायेंगे।" (लेनिन ग्रंथावली , रूÛसंÛ, खंÛ 26, पृÛ 299)।
(घ) "अगर हम अमल में किसानों को समझा सकें कि जमींन को मिलजुलकर पंचायती, सहकारी संघ के तरीके से जोतने-बोने में क्या फ़ायदा है अगर हम सहकारी या संघ की खेती के ज़रिये किसानों की मदद कर सकें, तो मज़दूर वर्ग, जिसके हाथ में राज्य-सत्ता है, सचमुच किसानों को समझा सकेगा कि उसकी नीति सही है और लाखों किसानों का सच्चा और पक्का समर्थन पा सकेगा।" (लेनिन, संÛग्रंÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खंÛ 2, पृÛ 539)।
पन्द्रहवीं पार्टी कांग्रेस से पहले हालत यही थी।
2 दिसम्बर 1927 को, पन्द्रहवीं पार्टी कांग्रेस शुरू हुई। इसमें 8,87,233 पार्टी सदस्यों और 3,48,957,उम्मीदवार सदस्यों की तरफ़ से, 898 प्रतिनिधि वोट देनेवाले और 771 प्रतिनिधि बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले शामिल हुए।
केन्द्रीय समिति की तरफ़ से अपनी रिर्पोट में, काँमरेड स्तालिन ने औद्योगीकरण की सफलताओं और समाजवादी उद्योग-धंधों के तेज़ी से बढ़ने का हवाला दिया और पार्टी के सामने यह काम रखा:
"शहरों और देहातों की सभी आर्थिक शाखाओं में अपनी समाजवादी अहम स्थिति को दृढ़ करना और राष्ट्रीय अर्थतंत्र से पूंजीवादी तत्वों को निकालने के रास्ते पर चलना।"
उद्योग-धंधों से खेती की तुलना करते हुए और खेती के, खास तौर से अनाज की पैदावार के पिछड़ेपन का ज़िक्र करते हुए, काँमरेड स्तालिन ने ज़ोर दिया कि खेती की इस दुर्दशा से तमाम राष्ट्रीय अर्थतंत्र खतरे में पड़ रहा था। खेती की यह दशा इसलिए थी कि खेत अलग-थलग थे और उनमें आधुनिक मशीनें इस्तेमाल न की जा सकती थीं।
काँमरेड स्तालिन ने पूछा: "इससे निकलने का रास्ता क्या है?" उन्होंने कहा: "निकलने का रास्ता यही है कि बिखरे हुए, छोटे खेतों को बड़े संयुक्त खेत बनाया जाये, जिनका आधार मिली-जुली खेती हो; नये और ज्यादा ऊँचे कौशल के आधार पर जमीन की पंचायती खेती शुरू की जाये। निकलने का रास्ता यही है कि छोटे-छोटे और टुकड़ों जैसे खेतों को धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से, दबाव से नहीं, लेकिन मिसाल से और समझा-बुझाकर, बड़े खेतों में मिलाया जाये। इनका आधार खेती की मशीनों और ट्रैक्टरों से और घनी खेती करने के वैज्ञानिक तरीकों से मिली-जुली सहकारी, पंचायती खेती हो। निकलने का और कोई रास्ता नहीं है।"
पन्द्रहवीं कांग्रेस ने खेती के पंचायतीकरण को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने का बुलावा देते हुए प्रस्ताव पास किया। कांग्रेस ने पंचायती खेतों और सरकारी खेतों का विस्तार करने और उन्हें मज़बूत करने की एक योजना स्वीकार की। खेती के पंचायतीकरण के संघर्ष में किन तरीकों से काम लिया जायेगा, इसके बारे में कांग्रेस ने स्पष्ट निर्देश किये।
इसके साथ ही, कांग्रेस ने यह भी निर्देश किया:
"कुलक-विरोधी हमले को आगे बढ़ाया जाये और कई ऐसे नये उपाय किये जायें जिनसे देहातों में पूंजीवाद के विकास पर रोक लगे और छोटी किसानी करनेवालों को समाजवाद की तरफ़ बढ़ाया जा सके।" (सोÛसंÛकÛपाÛ(बो) के प्रस्ताव, रूÛसंÛ, खंÛ 2, पृÛ 260)।
अंत में, यह देखते हुए कि आर्थिक नियोजन की जड़ जम चुकी है और इस उद्देश्य से कि सारे आर्थिक मोर्चे पर पूंजीवादी तत्वों के खिलाफ समाजवाद का बाक़ायदा हमला संगठित करना है, कांग्रेस ने उपयुक्त संस्थाओं को आज्ञा दी कि राष्ट्रीय अर्थतंत्र के विकास के लिये पहली पंचवर्षीय योजना बनायी जाये।
समाजवादी निर्माण की समस्याओं पर फ़ैसले लेने के बाद, कांग्रेस ने त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट को खत्म करने के सवाल पर बहस करनी शुरू की।
कांग्रेस इस नतीजे पर पहुंची कि "विचारधारा में, विरोधी लेनिनवाद से नाता तोड़ चुके हैं। वे पतित होकर एक मेन्शेविक गुट बन गये हैं। उन्होंने देशीय और अंतर्राष्ट्रीय पूंजीपतियों की शक्ति के सामने घुटने टेकने का रास्ता अपना लिया है और वे वस्तुगत रूप से सर्वहारा डिक्टेटरशिप की व्यवस्था के खिलाफ़ क्रान्ति-विरोध का हथियार बन चुके हैं।" (सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) के प्रस्ताव, रूÛसंÛ, खंÛ 2, पृÛ 232)।
कांग्रेस ने देखा कि पार्टी और विरोधी दल के भेद कार्यक्रम के भेद बन गये हैं और त्रात्स्की के विरोधी दल ने सोवियत सत्ता के खिलाफ़ संघर्ष का रास्ता अपनाया है। इसलिये, कांग्रेस ने घोषित किया कि त्रात्स्की के विरोधी दल का साथ देना और उसके मत का प्रचार करना बोल्शेविक पार्टी की सदस्यता के साथ नहीं चल सकता।
कांग्रेस ने केन्द्रीय समिति और केन्द्रीय कंट्रोल-कमीशन की संयुक्त बैठक द्वारा, त्रात्स्की और ज़िनोवियेव को पार्टी से निकालने के बारे में प्रस्ताव को अनुमोदन किया। कांगे्रस ने फ़ैसला किया कि त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के सभी सक्रिय सदस्यों को निकाल दिया जाये, जैसे कि रादेक, प्रेयोब्रजेन्स्की, रकोव्स्की, प्याताकोव, सेरेब्रियाकोव, ईÛ स्मिरनोव, कामेनेव, सारकिस, साफ़ारोव, लिफ़शित्स, म्दीवानी, स्मिल्गा और पूरा 'जनवादी केन्द्रवादी गुट' (साप्रोनोव, वÛ स्मिरनोव बोगुस्लाव्स्की, द्रोबनिस इत्यादि)।
सैद्धान्तिक रूप से हार कर और संगठनात्मक रूप से खदेड़े जाकर, त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के अनुयायियों ने जनता में अपना बचा-खुचा असर भी खो दिया।
पंन्द्रहवीं पार्टी कांग्रेस के तुरंत बाद ही, निकाले हुऐ लेनिनवाद-विरोधी लोग बयान दाखिल करने लगे, जिनमें उन्होंने त्रात्स्कीवाद को तिलांजलि देने की बात कही और पार्टी में फिर से लिये जाने की प्रार्थना की। यह सही है कि उस समय पार्टी अभी यह न जान सकी थी कि त्रात्स्की, रकोव्स्की, रादेक, क्रिस्तिान्स्की, सोकोल्निकोव, इत्यादि बहुत दिनों से जनता के दुश्मन हैं, विदेशी जासूस-विभागों के भर्ती किये हुए दलाल हैं, और कामेनेव, जिनोवियेव, प्यापाकोव, वगैरह अभी भी पूंजीवादी देशों के सोवियत-शत्रुओं से सम्बन्ध स्थापित कर रहे हैं, जिससे कि सोवियत जनता के खिलाफ़ वे उनसे 'सहयोग' कायम कर सकें। लेकिन, अनुभव ने पार्टी को सिखा दिया था कि इन लोगों से, जिन्होंने लेनिन और लेनिनवादी पार्टी पर बहुत ही नाजुक मौक़ों पर हमला किया था, हर तरह की बदमाशी की उम्मीद की जा सकती है। इसलिये पार्टी में फिर से दाखिल होने के लिये, उन्होंने अपनी अर्जियों में जो बयान दिये थे, पार्टी उन्हें सन्देह की निगाह से देखती थी। उनकी सच्चाई की पहली कसौटी के रूप में, पार्टी में उनको फिर से दाखिल करने के लिये ये शर्ते रखी गयीं:
(क) वे खुल्लमखुल्ला त्रात्स्कीवाद को बोल्शेविक-विरोधी और सोवियत-विरोधी विचारधारा कहकर उसकी निन्दा करें।
(ख) वे खुल्ल्मखुल्ला पार्टी नीति को एकमात्र सही नीति स्वीकार करें
(ग) वे बिना किसी शर्त के पार्टी और उसकी संस्थाओं के फैसलों को मानें।
(घ) वे कुछ समय परीक्षा का बितायें, जिसमें पार्टी उन्हें परखेगी। यह समय खत्म होने पर, परीक्षा-फल के अनुसार, पार्टी हरेक प्रार्थी की भर्ती के सवाल पर अलग-अलग विचार करेगी।
पार्टी का विचार था कि निकाले हुए लोग खुल्लमखुल्ला इन बातों को स्वीकार करेंगे तो इससे पार्टी का भला ही होगा। इससे त्रात्स्कीवादियों, ज़िनोवियेवपंथियों की पांति की एकता टूट जायेगी, उनकी हिम्मत पस्त होगी, सबको मालूम होगा कि पार्टी सही है और समर्थ है और अगर प्रार्थी ईमानदार हुए तो पार्टी अपने भूतपूर्व कार्यकत्र्ताओं को अपनी पांति में ले लेगी। अगर वे ईमानदार न हुए, तो जनता के सामने उनका पर्दाफ़ाश किया जायेगा। सबको मालूम हो जायेगा कि ये कुछ भटके हुए लोग नहीं हैं, बल्कि सिद्धान्तहीन, पैसा-कमाऊ लोग हैं, मजदूर वर्ग को धोखा देने वाले हैं और कभी न सुधरनेवाले दग़ेबाज हैं।
अधिकंाश निकाले हुओं ने भर्ती होने की शर्तें मान ली और अख़बारों में इसी आशय के खुले बयान दिये।
उनसे दया का व्यवहार करने के लिये, और फिर पार्टी तथा मज़दूर वर्ग के कार्यकत्र्ता बनने का अवसर उन्हें न देने में अनिच्छुक होकर, पार्टी ने उन्हें फिर अपनी पांति में ले लिया।
लेकिन, वक्त ने दिखा दिया कि कुछ अपवाद छोड़कर त्रात्स्वीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के 'सरदारों' ने जो ग़लतियाँ मानी थीं, वे आदि से अंत तक झूठी और धूर्ततापूर्ण थीं।
आगे चलकर, मालूम हुआ कि अपनी अर्जियाँ देने के पहले ही ये सज्जन किसी रानजीतिक प्रवृति के नुमायन्दे न रह गये थे, जो जनता के सामने अपने मत का समर्थन करने के लिये तैयार रहते। वे पैसा-कमाऊ लोगों का सिद्धान्तहीन गुट बन चुके थे, जो सरेआम अपने ही विचारों के अवशेषों को पैरों तले रौंदने को तैयार थे, सरेआम पार्टी के मत के तारीफ करने के लिये तैयार थे, जो मत उनके लिये गैर था। वे गिरगिट की तरह हर रंग बदलने के लिये तैयार थे, बशर्ते कि वह पार्टी और मज़दूर वर्ग की पांति में बने रह सकें और उन्हें मज़दूर वर्ग तथा उसकी पार्टी का अहित करने का मौका मिल सके।
त्रात्स्वीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के 'सरदार' राजनीतिक धोखेबाज, राजनीतिक दग़ेबाज साबित हुए।
राजनीतिक दग़ेबाज आम तौर से धोख़ेबाज़ी से शुरू करते हैं और जनता को, मज़दूर वर्ग को और मज़दूर वर्ग की पार्टी को धोखा देकर अपने नीच उद्देश्य हासिल करने की कोशिश करते हैं। लेकिन, राजनीतिक धोखेबाजों को धोखे की टट्टी भर न समझना चाहिये। राजनीतिक धोखेबाज राजनीतिक कमाऊ-खाऊ लोगों का सिद्धान्तहीन गिरोह होते हैं। जनता का विश्वास कभी का गँवाकर, वे धोखा देकर, गिरगिटों की तरह रंग बदल कर, प्रपंच करके, किसी भी उपाय से, बशर्ते कि उनकी राजनीतिक हस्ती बनी रहे, फिर जनता का विश्वास हासिल करने की कोशिश करते हैं। राजनीतिक दग़ेबाज राजनीतिक कमाऊ-खाऊ लोगों का सिद्धान्तहीन गिरोह होते हैं, जो कहीं भी, जरायमपेशा लोगांे में भी, समाज के सबसे पतित लोगों में भी, जनता के कट्टर शत्रुओं में भी, अपने सहायक ढूंढने के लिये तैयार रहते हैं; बशर्ते कि किसी 'शुभ' घड़ी में वे फिर राजनीतिक मंच पर आ कूदें और जनता के 'शासक' बनकर उसकी पीठ पर लद जायें।
त्रात्स्वीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट के 'सरदार' इसी तरह के राजनीतिक दग़ेबाज थे।
3. कुलक-विरोधी हमला। पार्टी-विरोधी बुखारिन-राइकोव गुट। पहली पंचवर्षीय योजना की स्वीकृति। समाजवादी होड़। आम पंचायती खेती के आन्दोलन की शुरूआत।
एक तरफ तो त्रात्स्वीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों ने पार्टी-नीति के खिलाफ़, समाजवाद के निर्माण के खिलाफ़ और पंचायतीकरण के खिलाफ़ आन्देलन किया। दूसरी तरफ़, बुख़ारिनपंथियों ने प्रचार किया कि पंचायती खेतों से कुछ न बनेगा, कुलकों को अलग छोड़ देना चाहिये क्योंकि खुद 'बढ़ते हुए' वे समाजवाद में आ जायेंगे और पूंजीपतियों का धनी होना समाजवाद के लिये कोई ख़तरा न होगा। इन सब बातों का देश के पूंजीवादी लोगों ने, और सबसे ज्यादा कुलकों ने स्वागत किया। अख़बारों की टीका-टिप्पणी से, कुलक समझ गये कि वे अकेले नहीं हैं, उनके हिमायती और वकील त्रात्स्की, जिनोवियेव, कामेनेव, बुखारिन, राइकोव, वगै़रह के रूप में मौजूद हैं। यह स्वाभाविक ही था कि सोवियत सरकार की नीति के खिलाफ़ कुलकों की विरोध भावना और दृढ़ हो जाये। और सचमुच, कुलकों का विरोध अधिकाधिक दृढ़ होता गया। उनके पास अतिरिक्त अन्न के काफ़ी गोदाम थे, लेकिन उन्होंने सामुहिक रूप से इन्हें सोवियत सरकार को बेचने से इन्कार कर दिया। पंचायती खेतों के किसानों, पार्टी के कार्यकत्र्ताओं और देहातों के सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ़ उन्होंने आंतक शुरू किया और पंचायती खेत और सरकारी खलिहान जला दिये।
पार्टी ने महसूस किया कि जब तक कुलक-विरोध न तोड़ा जायेगा, जब तक तमाम किसानों के देखते हुए वे खुली लड़ाई में हराये न जायेंगे, तब तक मज़दूर वर्ग और लाल फ़ौज को अन्न की कमी बनी रहेगी और पंचायतीकरण का आन्दोलन किसानों में सामूहिक रूप न ले सकेगा।
पन्द्रहवीं पार्टी कांग्रेस के निर्देशों का पालन करते हुए, पार्टी ने जमकर कुलक-विरोधी मुहीम शुरू की। उसने इस नारे को अमली रूप दिया: मज़बूती से ग़रीब किसानों का सहारा लो, मध्यम किसानों से सहयोग मज़बूत करो और कुलकों से जम कर लड़ो। अतिरिक्त अन्न निश्चित भाव से राज्य को बेचने से कुलकों ने जब इन्कार किया, तो पार्टी और सरकार ने कुलकों के खिलाफ़ कई संकटकालीन उपाय करके इसका जवाब दिया। दण्ड-विधान की 107 वीं धारा लागू की गयी, जिससे अदालतें सरकार को निश्चित मूल्य पर अनाज न बेचने पर कुलकों और मुनाफ़ाखोरों का अतिरिक्त अन्न जब्त कर सकती थी। ग़रीब किसानों को कई विशेषाधिकार दिये गये, जिनके अनुसार जब्त किये हुए कुलकों के अनाज का चैथाई हिस्सा उनके काम के लिये दे दिया जाता।
इन संकटकालीन उपायों का फल निकला: गरीब और मध्यम किसान कुलक-विरोधी लड़ाई में जुट गये। कुलक अकेले पड़ गये। मुनाफ़ाखोरों और कुलकों का विरोध तोड़ दिया गया। 1928 के अंत तक ही सोवियत राज्य के पास खरचने के लिये काफ़ी ग़ल्ला इकट्ठा हो गया और पंचायती खेती का आन्दोलन और भी निश्चित डगें भरता हुआ आगे बढ़ चला।
उसी साल, कोयले की खानों वाले दोन्येत्स प्रदेश के शाख्ती जिले में तोड़-फोड़ करने वालों के एक बड़े संगठन का पता लगा। इसमें पूंजीवादी विशेषज्ञ थे। शाख्ती जिले के तोड़-फोड़ करने वाले खानों के भूतपूर्व मालिकों - रूसी और विदेशी पूंजीपतियों - से संाठ-गांठ किये थे, और कई विदेशी सैनिक जासूस-विभागों से उनका सम्बंध था। उनका उद्देश्य था कि समाजवादी उद्योग-धंधों के विकास को अव्यवस्थित कर दिया जाये और सोवियत संघ में पूंजीवाद को बहाल करने में सहायता दी जाये। तोड़-फोड़ करने वालों ने कोयले की पैदावार कम करने के लिये जानबूझ कर खानों की बदइंतज़ामी की थी, मशीने और हवा देने वाले यंत्रों को खराब किया था; खानों, कारखानों और बिजली घरों में आग लगा दी थी। तोड़-फोड़ करने वालों ने जानबूझ कर मज़दूरों की हालत सुधारने में बाधा डाली थी और सोवियत के श्रम-रक्षा कानूनों को तोड़ा था।
तोड़-फोड़ करने वालों पर मुकदमा चला, और उन्हें अपने किये की सज़ा मिली।
पार्टी की केन्द्रीय समिति ने सभी पार्टी-संगठनों को निर्देश किया कि शाख़्ती मुक़दमे से आवश्यक नतीजे निकाले। काँमरेड स्तालिन ने कहा कि बोल्शेविक प्रबंधकों को खुद पैदावार के कौशल में विशेषज्ञ बनना चाहिये, जिससे कि पुराने पूंजीवादी विशेषज्ञों में से तोड़-फोड़ करनेवालों के झाँसे में वे न आयें, और मज़दूर वर्ग की पांति से आनेवाले कौशल के नये जानकारों की शिक्षा के काम को बढाना चाहिये।
केन्द्रीय समिति के एक फैसले के अनुसार, टेक्नीकल कालेजों में नौजवान विशेषज्ञों की शिक्षा का काम सुधारा गया। हजारों पार्टी सदस्य नौजवान कम्युनिस्ट सभा के सदस्य और मज़दूर वर्ग के पक्ष के प्रति वफ़ादार गैर पार्टी लोग शिक्षा के लिये बटोरे गये।
कुलकों के खिलाफ़ पार्टी का हमला शुरू होने से पहले और जब पार्टी त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट को खत्म करने में लगी हुई थी, बुखारिन-राइकोव गुट बहुत कुछ चुप पड़ा हुआ था। खुल कर त्रात्स्कीवादियों की मदद करने की हिम्मत न कर सकता था, बल्कि अपने को पार्टी-विरोधी शक्तियों का रिज़र्व बनाये हुए था और कभी-कभी त्रात्स्कीवादियों के खिलाफ़ पार्टी के साथ भी क़दम उठाता था। लेकिन, जब पार्टी ने कुलक-विरोधी मुहीम शुरू की और कुलकों के खिलाफ़ संकटकालीन उपाय किये, तो बुखारिन-राइकोव गुट ने अपनी नक़ाब उतार फेंकी और पार्टी की नीति पर सरेआम हमला करने लगा। बुखारिन-राइकोव गुट की कुलक आत्मा उस पर हावी हो गयी, और वे लोग खुल कर कुलकों की हिमायत करने लगे। उन्होंने मांग की कि संकटकालीन उपाय खत्म कर दिये जायें। उन्होंने सीधे-सादे लोगों को इस तर्क से डराया कि खेती का 'पतन' होने लगेगा और यह दावा तक करने लगे कि यह सिलसिला शुरू भी हो गया है। कृषि-संगठन के बेहतर रूपों, पंचायती खेतों और सरकारी खेतों की बढ़ती की तरफ आंखें बन्द करके और कुलक खेती को घटते देखकर, उन्होंने इस घटती को खेती की ही घटती कहना शुरू कर दिया। अपने दावे को सिद्धान्त का सहारा देने के लिये, उन्होंने बेसिरपैर का 'वर्ग-संघर्ष के मद्धिम पड़ने का सिद्धान्त' भी गढ़ डाला। इस सिद्धान्त के आधार पर, उनका कहना था कि पूंजीवादी तत्वों के खिलाफ़ समाजवाद की हर विजय से वर्ग-संघर्ष मद्धिम पड़ता जायेगा, जल्द ही वर्ग-संघर्ष बिल्कुल ठंडा पड़ जायेगा और वर्ग-शत्रु अपनी तमाम जगहें बिना लड़े ही छोड़ देगा, और इसलिए कुलक-विरोधी मुहीम की ज़रूरत न थी। इस तरह, उन्होंने अपने नंगे-बूचे पूंजीवादी सिद्धान्त को फिर सजाने की कोशिश की कि कुलक शान्तिमय उपायों से आगे बढ़ते हुए समाजवाद में पहुँच जायेंगे। लेनिनवाद की इस सुपरिचित सैद्धान्तिक स्थापना को वे कुचलते गये कि जैसे-जैसे समाजवाद की प्रगति से वर्ग-शत्रु के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकेगी, वैसे-वैसे वर्ग-शत्रु का विरोध और तीव्र रूप धारण करता जायेगा और वर्ग-संघर्ष तभी 'ठडा' पड़ेगा जब वर्ग-शत्रु का नाश कर दिया जायेगा।
यह देखना आसान है कि बुखारिन-राइकोव गुट के रूप में पार्टी के सामने एक दक्षिणपंथी अवसरवादियों का गुट था। यह गुट त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट से सिर्फ़ देखने में ही भिन्न था, सिर्फ़ इस बात में भिन्न था कि त्रात्स्कीवादी और ज़िनोवियेवपंथी समर्पणवादियों को 'स्थायी क्रान्ति के बारे में' वामपंथी क्रान्तिकारी लफ्फाजी से अपनी असलियत छिपाने का थोड़ा अवसर मिला था, जबकि बुखारिन-राइकोव गुट जो कुलक-विरोधी मुहीम के लिये पार्टी पर हमला करता था, अपना समर्पणवादी रूप छिपा न सकता था और उसे हमारे देश की प्रतिक्रियावादी शक्तियों, खास तौर से कुलकों की हिमायत खुल कर, बिना नक़ाब या पर्दे के करनी पड़ती थी।
पार्टी समझ गयी कि बुखारिन-राइकोव गुट पार्टी-विरोधी संयुक्त कार्यवाही के लिये त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवंपथियों के गुट के बचे-खुचे लोगों से ज़रूर आगे-पीछे मिल जायेगा।
अपनी राजनीतिक विज्ञप्तियों के साथ-साथ, बुखारिन-राइकोव गुट अपने अनुयायियों को बटोरने और संगठित करने का 'काम करता रहा'। बुखारिन के ज़रिये, उन्होंने नये पूंजीवादी लोगों को इकट्ठा किया, जैसे कि स्लेपकोव, मेरित्स्की, आइखिनवाल्ड, गोल्डनबर्ग; तोम्स्की के ज़रिये, मज़दूर सभाओं के ऊँचे नौकरशाहों को इकट्ठा किया (मेल्नीचान्स्की, दोगादोव, वगैरह); राइकोव के ज़रिये, ऊँचे पस्त सोवियत कर्मचारियों को इकट्ठा किया (अÛ स्मिर्नोव, आइसमोन्त, वÛ श्मित, वग़ैरह)। इस गुट की तरफ़ वे लोग आसानी से खिंच आये जिनका राजनीतिक रूप से पतन हो गया था और जो अपनी समर्पणवादी भावना को छिपाते न थे।
लगभग इसी समय, बुखारिन-राइकोव गुट को मास्को पार्टी-संगठन के ऊँचे कार्यकत्र्ताओं का समर्थन मिल गया था (उगलानोव, कोतोव, ऊखानोव, रियूतिन, यागोदा पलोन्स्की, वगैरह)। दक्षिणपंथियों का एक हिस्सा आड़ में रहा और उसने पार्टी नीति पर खुला हमला न किया। मास्को के पार्टी-प्रेस और पार्टी मीटिंगों में, कहा जाता था कि कुलकों के साथ रियायतें तो करनी ही चाहिये, कुलकों पर भारी टैक्स लगाना उचित नहीं है, औद्योगीकरण जनता के लिये बोझ बन रहा है और भारी उद्योग-धंधों का निर्माण असामयिक है। उगलानोव ने द्नीपर पन-बिजली योजना का विरोध किया और मांग की कि भारी उद्योग-धंधों से पैसा हटा कर हल्के उद्योग-धंधों में लगाया जाये। उगलानोव और दूसरे दक्षिणपंथी समर्पणवादियों का कहना था कि मास्को हल्के उद्योग-धंधों का षहर रहा है और रहेगा, और मास्को में इंजीनियरिंग के कारख़ाने बनाना ज़रूरी नहीं हैं।
मास्को पार्टी-संगठन ने उगलानोव और उसके अनुयायियों का पर्दाफाश किया, उन्हें अंतिम चेतावनी दी और पार्टी की केन्द्रीय समिति के चारों और पहले से भी ज़्यादा निकट ख्ंिाच आया। 1928 में, सोÛसंÛकÛपाÛ (बोÛ) की मास्को-कमिटी की प्लेनरी बैठक में, काँमरेड स्तालिन ने कहा कि दो मोर्चों पर लड़ाई चलानी चाहिये और मुख्य वार दक्षिणपंथी भटकाव पर होना चाहिये काँमरेड स्तालिन ने कहा कि पार्टी के अन्दर दक्षिणपंथी कुलकों के दलाल हैं।
काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"हमारी पार्टी में दक्षिणपंथी भटकाव की जीत से पूंजीवाद की शक्तियों को छूट मिलेगी, सर्वहारा की क्रान्तिकारी जगहें कमज़ोर पड़ जायेंगी और हमारे देश में पूंजीवाद को बहाल करने का अवसर बढ़ जायेगा।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृÛ 233)।
1929 के आरंभ में, पता लगा कि दक्षिणपंथी समर्पणवादियों की आज्ञा से बुख़ारिन ने कामेनेव के ज़रिये त्रात्स्कीवादियों से साठगाँठ की है और पार्टी के खिलाफ़ संयुक्त लड़ाई चलाने के लिये उनसे समझौते की बातचीत कर रहा है। केन्द्रीय समिति ने दक्षिणपंथी समर्पणवादियों की मुज़रिमाना हरकतों का पर्दाफ़ाश किया और उन्हें चेतावनी दी कि बुखारिन, राइकोव, तोम्स्की, वग़ैरह के लिये इसका शोचनीय परिणाम हो सकता है। लेकिन, दक्षिणपंथी समर्पणवादी चेतावनी सुनने के लिये तैयार न थे। केन्द्रीय समिति की एक बैठक में, एक घोषणा के रूप में उन्होंने नयी पार्टी-विरोधी नीति रखी, जिसका केन्द्रीय समिति ने खण्डन किया। उसने उन्हें फिर चेतावनी दी और याद दिलाया कि त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों के गुट का हस्र क्या हुआ। इसके बावजूद, बुखारिन-राइकोव गुट अपनी पार्टी-विरोधी कार्यवाही में लगा ही रहा। राइकोव, तोम्स्की और बुखारिन ने केन्द्रीय समिति को अपने इस्तीफे़ दे दिये। उन्हें उम्मीद थी कि वे इस तरह पार्टी को डरा देंगे। केन्द्रीय समिति ने इस्तीफ़े देने की इस तोड़-फोड़ वाली नीति की निन्दा की। अंत में, नवम्बर 1929 में, केन्द्रीय समिति के प्लेनम ने घोषित किया कि दक्षिणपंथी अवसरवादियों के मत के प्रचार के साथ पार्टी सदस्यता नहीं चल सकती। उसने फै़सला किया कि दक्षिणपंथी समर्पणवादियों को उकसाने वाले और उनके नेता बुखारिन को केन्द्रीय समिति की पोलिटिकल ब्यूरो से निकाल दिया जाये और उसने राइकोव, तोम्स्की और दक्षिणपंथी विरोधी दल के दूसरे सदस्यों को गंभीर चेतावनी दी।
यह देखकर कि मामला बिगड़ रहा है, दक्षिणपंथी समर्पणवादियों के सरदारों ने एक बयान दिया, जिसमें उन्होंने अपनी भूलें स्वीकार कीं और पार्टी की राजनीतिक नीति को सही माना। दक्षिणपंथी समर्पणवादियों ने तय किया कि कुछ समय के लिये पीछे हटें, जिससे अपनी पांति को टूटकर बिखरने से बचाया जा सके।
दक्षिणपंथी समर्पणवादियों के खिलाफ़ पार्टी की लड़ाई की पहली मंजिल यहां समाप्त हुई।
पार्टी के भीतर के नये मतभेद सोवियत संघ के बाहरी दुश्मनो का ध्यान खींचे बिना न रहे। यह समझ कर कि पार्टी के अन्दर 'नये मतभेद' उसकी कमज़ोरी का चिन्ह हैं, उन्होंने सोवियत संघ को फिर युद्ध में उलझाने की कोशिश की और औद्योगीकरण का काम पूरी तरह चालू हो जाने से पहले ही उसे रोकने की कोशिश की। 1929 की गर्मियों में, साम्राज्यवादियों ने चीन और सोवियत संघ के बीच झगड़ा पैदा करा दिया और चीनी पूर्वी रेलवे पर (जो सोवियत संघ की थी) कब्जा करने के लिये चीन के फ़ौजी सरदारों को भड़काया और हमारे सुदूर पूर्वी सीमान्त पर चीनी ग़द्दारों की फ़ौजों को हमला करने के लिये उकसाया। लेकिन, चीन के फ़ौजी सरदारों का यह हमला तुरंत ही कुचल दिया गया। लाल फ़ौज से खदेड़े जाकर, फौजी सरदार पीछे हटे और संघर्ष का अंत मंचूरिया के अधिकारियों के साथ शांति –संधि पर दस्तख़त करने में हुआ।
सभी अड़चनों के सामने, बाहरी षत्रुओं की साज़िषों और पार्टी के भीतर 'मतभेदों' के बावजूद, सोवियत संघ की शांति की नीति फिर विजयी हुई।
इसके बाद षीघ्र ही, ब्रिटेन से सोवियत संघ के व्यापारिक और कूटनीतिक सम्बन्ध फिर क़ायम हो गये, जिन्हें अंग्रेज कंजरवेटिवों ने तोड़ दिया था।
देशी और विदेशी दुश्मनो दुश्मनो के हमलों को सफलता से विफ़ल करते हुए, पार्टी भारी उद्योग-धंधों को विकसित करने में, समाजवादी प्रतियोगिता संगठित करने में, सरकारी और पंचायती खेतों के निर्माण में और अंत में राष्ट्रीय अर्थतंत्र के विकास के लिये पहली पंचवर्षीय योजना को मंजूर करने और उसे अमल में लाने ज़मीन तैयार करने में ज़ोरशोर से लगी हुई थी।
अप्रैल 1929 में, पार्टी की सोलहवीं कान्फ्रेंस हुई, जिसमें विचार करने के लिये मुख्य एजेण्डा पहली पंचवर्षीय योजना थी। कान्फ्रेंस ने पहली पंचवर्षीय योजना के दक्षिणपंथी अवसरवादियों द्वारा समर्थित 'अल्पतम' रूप को ठुकरा दिया और 'महत्तम' रूप को मंजूर किया, जिसे हर हालत में मान्य समझा गया।
इस तरह, पार्टी ने समाजवाद के निर्माण के लिये प्रसिद्ध पहली पंचवर्षीय योजना स्वीकार की।
पंचवर्षीय योजना ने तय किया कि 1928-'33 की अवधि में 64 अरब 60 करोड़ रूबल पूंजी राष्ट्रीय अर्थतंत्र में लगायी जाये। इस धन में से, 19 अरब 50 करोड़ रूबल उद्योग-धंधों और बिजली के विकास में लगाने थे, 10 अरब रूबल यातायात के साधनों के विकास में, और 23 अरब 20 करोड़ रूबल खेती के विकास में लगाने थे।
सेवियत संघ के उद्योग-धंधों और खेती को आधुनिक कौषल से लैस करने के लिये, यह एक भगीरथ योजना थी।
काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"पंचवर्षीय योजना का बुनियादी काम यह है कि हमारे देश में ऐसे उद्योग-धंधों का निर्माण करे जो समाजवाद के आधार पर न सिर्फ़ तमाम उद्योग-धंधों को ही फिर से सुसज्जित और संगठित करें, बल्कि यातायात और खेती को भी सुसज्जित और पुनर्संगठित करें।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947 पृष्ठ 317)।
इस योजना की विशालता से बोल्शेविक चकित या विचलित न हुए। औद्योगीकरण और पंचायतीकरण की तमाम प्रगति ने उसके लिये रास्त तैयार किया था, और उससे पहले श्रम सम्बंधी उत्साह की एक लहर आयी थी, जिसने मज़दूरों और किसानों को अपने में समेट लिया था और जो समाजवादी होड़ के रूप में प्रकट हुई थी।
सोलहवीं पार्टी कान्फ्रेंस ने तमाम श्रमिक जनता के नाम एक अपील मंजूर की, जिसमें समाजवादी होड़ को और बढ़ाने के लिये बुलावा दिया गया।
समाजवादी होड़ ने आदर्ष मेहनत और श्रम की तरफ़ एक नये रुख़ की बहुत सी मिसालें पैदा कीं। बहुत से कारख़ानों, पंचायती खेतों और सरकारी खेतों में मज़दूरों और पंचायती किसानों ने अपनी प्रतियोजनायें बनायीं, जिनमें सरकारी योजनाओं में दी हुई पैदावार से ज्यादा पैदावार का लक्ष्य रखा गया। उन्होंने मेहनत में वीरता दिखाई। पार्टी और सरकार ने समाजवादी विकास के लिये जो योजनायें बनायी थीं उनको उन्होंने पूरा ही न किया, बल्कि उनसे आगे भी बढ़ गये। श्रम की तरफ़ रुख बदल गया था। पूंजीवाद में मेहनत बेगार और कै़द की तरह थी। उसके बदले, अब मेहनत करना "सम्मान की बात थी, गौरव की बात थी, षूरता और वीरता की बात थी"। (स्तालिन)।
तमाम देश में एक विराट पैमाने पर नया औद्योगीकरण निर्माण चल रहा था। द्नीपर की पन-बिजली योजना पूरे ज़ोरों पर थी। क्रामातोस्र्क और गोरलोव्का के लोहे और इस्पात के कारख़ानों को बनाने और लुगान्स्क के मोटर के कारख़ानों को फिर से बनाने का काम दोन्-प्रदेश में शुरु हो गया था। कोयले की नयी खानें और नये ढलाईघर बन गये थे। यूराल में, यूराल मषीन बिल्ंिडग कारखाने ओर बेरेज़िनकी और सोलिकाम्स्क के रसायन के कारखाने बनाये जा रहे थे। मागनितोगोस्र्क की लोहे और इस्पात की मिलों के निर्माण का काम शुरु हो गया था। मास्को और गोर्की में बड़े मोटर के कारख़ाने बनाने का काम अच्छी तरह चालू हो गया था। दोन नदी के तट पर रोस्तोव में विशाल ट्रैक्टर के कारखाने, हारवेस्टर कम्बाइन के कारखाने और खेती की मषीनें बनाने के एक विराट कारखाने के निर्माण का काम भी अच्छी तरह चालू हो गया था। सोवियत संघ को कोयला देने वाली दूसरे नम्बर की कुज्नेत्स्क खानों का भी विस्तार किया जा रहा था। ग्यारह महीनों में ही, स्तालिनग्राद के पास के मैदानों में ट्रैक्टर के विशाल कारखाने खड़े हो गये। द्नीपर पन-बिजली स्टेषन और स्तालिनग्राद के कारखाने बनाने में, मज़दूरों ने श्रम की उत्पादकता के विष्व-रिकार्ड तोड़ दिये।
ऐसे विराट पैमाने पर औद्योगीकरण निर्माण, नये विकास के लिये ऐसा उत्साह, करोड़ों मज़दूरों में ऐसी श्रम सम्बन्धी वीरता इतिहास के लिये अनूठी थी।
यह दरअसल श्रम सम्बन्धी उत्साह की उठान थी, जिसे समाजवादी होड़ ने पैदा किया और बढ़ावा दिया था।
इस बार, किसान मज़दूरों से पीछे न रहे। देहातों में भी यह श्रम सम्बन्धी उत्साह आम किसानों में फैल गया, जो अपने पंचायती खेत संगठित कर रहे थे। आम किसान जनता निष्चित रूप से पंचायती खेती की तरफ़ बढ़ने लगी। इसमें सरकारी खेतों और मषीन-और-ट्रैक्टर स्टेषनों ने भारी पार्ट अदा किया। झुण्ड के झुण्ड किसान सरकारी खेतों और मशीन-और-टैªक्टर स्टेशनों में इसलिये आते थे कि टैªक्टर और खेती की दूसरी मशीनों का चलना देखें, वे उनके चलने की तारीफ़ करते थे और वहीं पर और उसी समय वे फ़ैसला करते थे: 'आओ, हम भी पंचायती खेती में शामिल हों।' किसान अभी तक अलग-थलग और बिखरे हुए थे। हरेक अपने छोटे से, टूकड़ों जैसे खेत पर अकेले काम करता था। उनके पास काम देने वाले औज़ार या ट्रैक्टरों जैसी चीजें थी ही नहीं। नयी धरती को जोतने-बोने के लिये, उनके पास कोई साधन न था। अपने खेतों को उन्नत करने के लिये कोई संभावना न दिखाई देती थी। ग़रीबी से वे तबाह थे, और अकेले पड़ कर किसी तरह अपनी तरक़ीबों से काम लेते थे। आखिर, किसानों को बाहर निकालने का रास्ता मिल गया था, एक सुन्दर जीवन की राह मिल गयी थी। वह राह यह थी कि वे अपने छोटे खेतों को मिलाकर सहकारी योजनायें, पंचायती खेत चलायें। उन्हें ट्रैक्टर मिल गये, जो अब किसी भी 'कठोर भूमि', किसी भी नयी धरती को तोड़ सकते थे। अब उन्हें राज्य से मशीन, धन, जन और सलाह के रूप में मदद मिलती थी। उन्हें अब कुलक-गुलामी से मुक्त होने का अवसर मिला था। सोवियत सरकार ने अभी हाल में कुलकों को हरा दिया था और उन्हें धुल चाटने पर मज़बूर किया था, जिससे लाखों किसानों को खुशी हुई।
इसी आधार पर, पंचायती खेती का सामूहिक आन्दोलन शुरू हुआ जो आगे चलकर, खास तौर से 1929 के खत्म होते-होते, तेज़ी से आगे बढ़ा। उसकी रफ़्तार अभूतपूर्व थी, और हमारे समाजवादी उद्योग-धंधों के लिये भी नयी थी।
1928 में, पंचायती खेतों की काश्त का पूरा इलाका 13,90,000 हेक्तार था; 1929 में वह 42,62,000 हेक्तार हुआ, और 1930 में पंचायती खेतों की ही जोती जानेवाली ज़मीन की योजना में 1,50,00,000 हेक्तार ज़मीन आ चुकी थी।
"महान् परिवर्तन का एक वर्ष" (1929) नाम के अपने लेख में, काँमरेड स्तालिन ने पंचायती खेतों की बढ़ती की रफ़्तार के सिलसिले में कहा था:
"मानना होगा कि विकास का ऐसा प्रबल वेग हमारे अपने समाज की सम्पत्ति बने हुए बडे़ पैमाने के उद्योग-धंधों के लिये भी अभूतपूर्व है, जो आम तौर से विकास की अपनी विशेष गति के लिये प्रसिद्ध है।"
पंचायती खेती के आन्दोलन की प्रगति में यह एक मोड़ थी।
यह पंचायती खेतों के सामूहिक आन्दोलन की शुरूआत थी।
"महान् परिवर्तन का एक वर्ष" नाम के अपने लेख में, काँमरेड स्तालिन ने पूछा:
"मौजूदा पंचायती खेती के आन्दोलन की नयी विशेषता क्या है?"
और उन्होंने जवाब दिया:
"मौजूदा पंचायती खेती के आन्दोलन की नयी और निर्णायक विशेषता यह है कि किसान पंचायती खेतों में अलग-थलग गुटों में शामिल नहीं हो रहे, जैसा कि पहले होता था, बल्कि समूचे गाँवों में, समूचे बोलोस्तों (देहाती मण्डलों), तमाम जिलों और समूचे प्रदेशों तक में एक साथ शामिल हो रहे हैं। इसका मललब क्या है ? इसका मतलब यह है कि मध्यम किसान पंचायती खेती के आन्दोलन में शामिल हो गया है! और, खेती के विकास में बुनियादी तब्दीली का यही आधार है जो सोवियत सत्ता की सबसे महत्वपूर्ण सफलता है।..."
इसका मतलब यह था कि समय आ रहा था, या आ ही गया था, जबकि ठोस पंचायतीकरण के आधार पर एक वर्ग रूप में कुलकों को खत्म कर दिया जाये।
सारांश
1926-'29 के दौर में, देश के समाजवादी औद्योगीकरण के लिये संघर्ष में देशी और विदेशी मोर्चों पर पार्टी ने महान् कठिनाइयों का सामन किया और उन पर विजय प्राप्त की। पार्टी और मज़दूर वर्ग की कोशिशों का अंत समाजवादी औद्योगीकरण की नीति की विजय में हुआ।
मुख्य रूप से, औद्योगीकरण की एक बहुत ही कठिन समस्या, यानी भारी उद्योग-धंधों के निर्माण के लिये धन इकट्ठा करने की समस्या हल की जा चुकी थी। समूचे राष्ट्रीय अर्थतंत्र को फिर से सुसज्जित कर सकने योग्य भारी उद्योग-धंधों की नींव डाल दी गयी।
समाजवादी निर्माण की पहली पंचवर्षीय योजना स्वीकृत हुई। नये कारख़ानों, सरकारी और पंचायती खेतों के निर्माण का काम बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ा।
समाजवाद की ओर इस प्रगति के साथ, देहातों में वर्ग-संघर्ष तीख़ा हुआ, और पार्टी का अन्दरूनी संघर्ष भी तेज़ हुआ। इस संघर्ष के मुख्य नतीजे ये थे: कुलक-विरोध दबा दिया गया, त्रात्स्कीवादी और ज़िनोवियेवपंथी समर्पणवादियों के गुट का भंडाफोड़ हो गया कि वह सोवियत-विरोधी गुट है, दक्षिणपंथी समर्पणवादियों का पर्दाफाश हुआ कि वे कुलकों के दलाल हैं, त्रात्स्कीवादी पार्टी से निकाल दिये गये और यह घोषित किया गया कि त्रात्स्कीवादियों और दक्षिणवपंथी अवसरवादियों के मत सोÛसंÛकÛपाÛ (बो) की सदस्यता के साथ नहीं चल सकते।
बोल्शेवक पार्टी द्वारा सैद्धान्तिक रूप से हराये जाकर और मज़दूर वर्ग में पूरी तरह समर्थन खोकर, त्रात्स्कीवादी एक राजनीतिक रुझान न रह गये। वे एक राजनीतिक धोखेबाजों का सिद्धान्तहीन, कमाऊ-खाऊ गिरोह, राजनीतिक दग़ाबाजों का गिरोह भर रह गये।
भारी उद्योग-धंधों की नींव डालने के बाद, पार्टी ने सोवियत संघ के समाजवादी पुनर्संगठन की पहली पंचवर्षीय योजना को पूरी करने के लिये मज़दूर वर्ग और किसानों को बटोरा । समूचे देश में, करोड़ों श्रमिक जनता के अन्दर समाजवादी होड़ बढ़ी। जिससे श्रम सम्बन्धी उत्साह की एक विशाल लहर पैदा हुई और श्रम सम्बन्धी नये अनुशासन का जन्म हुआ।
इस दौर का अन्त महान् परिवर्तन के वर्ष से हुआ। उस साल की विशेषता यह थी कि उद्योग-धंधों में समाजवाद की भारी जीत हुई, खेती में पहली महत्वपूर्ण सफलतायें मिली, मध्यम किसान पंचायती खेती की तरफ़ झुका और पंचायती खेती के सामूहिक आन्दोलन की शुरूआत हुई।
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