छठा अध्याय
साम्राज्यवादी युद्ध में बोल्शेविक पार्टी। रूस में दूसरी क्रान्ति।
(1914-मार्च1917)
1. साम्राज्यवादी युद्ध का आरंभ और उसके कारण।
14 जुलाई (नई शैली, 27 जुलाई) 1914 को, ज़ार सरकार ने आम भर्ती का ऐलान किया। 19 जुलाई (नई शैली, 1 अगस्त) 1914 को, जर्मनी ने रूस के खिलाफ़ लड़ाई का ऐलान किया।
रूस युद्ध में शामिल हो गया।
युद्ध के सचमुच छिड़ने से बहुत पहले, लेनिन और बोल्शेविकों ने देख लिया था कि वह अनिवार्य है। अंतर्राष्टीय समाजवादी कांगे्रसों में, लेनिन ने इस बात के लिये प्रस्ताव रखे थे कि युद्ध होने पर समाजवादियों की एक क्रांतिकारी नीति निश्चित कर ली जाये।
लेनिन ने बताया था कि युद्ध पूंजीवाद का एक अनिवार्य अंग है। दूसरे देशों को लूटना, उपनिवेशों पर कब्जा करना और लूटना-खसोटना और नये बाजारों पर कब्जा करना - ये सभी बातें पूंजीवादी राष्टो के लिये दूसरों को जीतने वाले युद्धों का कारण बन चुकी थीं। पूंजीवादी राष्टो के लिये युद्ध वैसी ही स्वाभाविक और उचित परिस्थिति है जैसी कि मज़दूर वर्ग का शोषण।
युद्ध खास तौर से तब अनिवार्य हो गये जब 19 वीं सदी के आखिर में और 20 वीं सदी के शुरू में पूंजीवाद ने निश्चित रूप से अपने विकास की सबसे ऊंची और आखिरी मंजिल, साम्राज्यवाद में प्रवेश किया। सम्राज्यवादी काल में, ताक़तवर पूंजीवादी संघों (मोनोपलियों) और बैंकों ने पूंजीवादी देशों के जीवन में एक प्रभुत्व की जगह बना ली। महाजनी पूंजी, पूंजीवादी राष्टो की मालिक बन बैठी। इस महाजनी पूंजी के लिये नये बाज़ार, नये उपनिवेशों पर क़ब्जा, बाहर पूंजी भेजने के लिये नये क्षेत्र और कच्चा माल देने वाले नये देश जरूरी थे।
लेकिन 19वीं सदी के आखिर तक, सारी पृथ्वी पूंजीवादी राष्टो में पहले ही बंट चुकी थी। फिर भी, साम्राज्यवादी युग में पूंजीवाद का विकास बहुत ही विषम गति से और छलांगें भर कर होता है: कुछ देश, जो पहले सबसे आगे थे, अब उद्योग-धंधे अपेक्षाकृत धीमी रफ्तार से विकसित करते हैं, दूसरे देश, जो पहले पिछडे़ हुए थे, उनके बराबर आ जाते हैं और तेज छलांगें भरते हुए उनसे आगे बढ़ जाते हैं। साम्राज्यवादी राष्टंों की सापेक्ष आर्थिक और सैनिक शक्ति में परिवर्तन हो रहा था। दुनिया का फिर से बंटवारा करने के लिये कोशिश जारी हुई और फिर से इस बंटवारे के लिये संघर्ष ने साम्राज्यवादी युद्ध अनिवार्य कर दिया। 1914 का युद्ध दुनिया का और प्रभाव-क्षेत्रों का फिर से बंटवारा करने के लिये हुआ था। सभी साम्राज्यवादी राष्टं इसके लिये बहुत दिनों से तैयारी कर रहे थे। युद्ध के लिये सभी देशों के साम्राज्यवादी जिम्मेदार थे।
लेकिन खास तौर से, इस युद्ध के लिये एक तरफ़ तो जर्मनी और औस्ट्रिया ने तैयारी की थी और दूसरी तरफ़ फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन और इन दोनों पर निर्भर रूस ने की थी। ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के त्रिगुट का सहयोग 1907 में क़ायम हुआ। औस्ट्रिया, हंगरी और इटली ने दूसरा साम्राज्यवादी गुट क़ायम किया था। लेकिन 1914 के युद्ध छिड़ने पर, इटली ने यह गुट छोड़ दिया और बाद को त्रिगुट में शामिल हो गया। बल्गारिया और तुर्की ने जर्मनी और आस्टिंया-हंगरी का समर्थन किया।
जर्मनी ने साम्राज्यवादी युद्ध के लिये इस उद्देश्य से तैयारी की थी कि ब्रिटेन और फ्रांस से उनके उपनिवेश और रूस से उक्रैन, पोलैण्ड और बाल्टिक प्रदेश छीन ले। बगदाद रेलवे बना कर, जर्मनी ने निकटपूर्व में ब्रिटेन के प्रभुत्व के लिये खतरा पैदा कर दिया। ब्रिटेन को जर्मन नौसेना की हथियारबन्दी से डर था।
ज़ार सरकार तुर्की का बंटवारा करना चाहती थी और कुस्तुन्तुनियां पर क़ब्जा करने का सपना देखती थी। वह काले सागर से भूमध्य सागर की तरफ़ जाने वाले जलडमरूमध्य (दर्रे दानियाल) पर क़ब्जा जमाने की सोच रही थी। ज़ार सरकार की योजनाओं में आस्टिंया-हंगरी के एक हिस्से - गैलिशिया - पर भी क़ब्जा करना शामिल था।
युद्ध के जरिये, ग्रेट ब्रिटेन चाहता था कि अपने खतरनाक प्रतिद्वंदी जर्मनी को कुचल दे। युद्ध के पहले, जर्मनी का माल दुनिया के बाजार से अंग्रेजी माल को लगातार बाहर करता जा रहा था। इसके सिवा, ब्रिटेन तुर्की के मैसोपोटामिया और फ़िलिस्तीन हड़पना चाहता था और मिश्र में मजबूती से पैर जमाना चाहता था।
फ्रांस के पूंजीपति जर्मनी से सार प्रदेश और अलसास-लारेन छीन लेने की कोशिश में थे। ये दोनों कोयले और लोहे के समृद्ध प्रदेश थे, जिनमें से दूसरे को जर्मनी ने 1870-'71 की लड़ाई में फ्रांस से छीन लिया था। इस तरह, साम्राज्यवादी युद्ध पूंजीवादी राष्टो के दो दलों के बीच के गंभीर विरोधों से पैदा हुआ।
दुनिया का फिर से बंटवारा करने के लिये, इस लूट-मार की लड़ाई का असर सभी साम्राज्यवादी देशों के हितों पर पड़ा। नतीजा यह हुआ कि जापान, संयुक्त राष्टं अमरीका और दूसरे कई देश भी आगे चल कर उसमें शामिल हो गये।
युद्ध विश्वयुद्ध बन गया।
पूंजीपतियों ने साम्राज्यवादी युद्ध की तैयारियों को अपने देशों की जनता से खूब छिपा कर रखा। जब लड़ाई छिड़ गयी, तब हर साम्राज्यवादी हुकूमत ने यह साबित करने की कोशिश की कि उसने अपने पड़ोसियों पर हमला नहीं किया बल्कि उन्होंने ही उस पर किया था। पूंजीपतियों ने युद्ध के सच्चे उद्देश्य और उसके साम्राज्यवादी, राज्य हड़पने वाले रूप को छिपा कर जनता को धोखा दिया। हर साम्राज्यवादी हुकूमत ने ऐलान किया कि वह अपने देश की रक्षा के लिये युद्ध कर रही है।
जनता को धोखा देने में, दूसरी इन्टरनेशनल के अवसरवादियों ने पूंजीपतियों की मदद की। दूसरी इन्टरनेशनल के सोशल-डेमोक्रेटों ने समाजवाद के उद्देश्य से नीचतापूर्ण ग़द्दारी की, सर्वहारा वर्ग के अंतर्राष्टंीय भाईचारे के पक्ष से ग़द्दारी की। युद्ध का विरोध करना तो दरकिनार, वे लड़ाकू देशों के मजदूरों और किसानों को पितृभूमि की रक्षा के नाम पर एक-दूसरे के खिलाफ़ लड़ने के लिये उकसाने में पूंजीपतियों की मदद करते रहे।
रूस मित्र राष्टो के त्रिगुट की तरफ़ से, फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन की तरफ़ से युद्ध में शामिल हुआ। यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी। यह ध्यान रखना चाहिये कि 1914 के पहले रूसी उद्योग-धंधों की सबसे महत्वपूर्ण शाखायें विदेशी पूंजीपतियों के हाथ में थीं। खास तौर से फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन और बेल्जियम, यानी मित्र देशों के हाथ में थीं। रूस के सबसे महत्वपूर्ण धातु के कारखाने फ्रांस के पूंजीपतियों के हाथ में थे। कुल मिलाकर, लगभग तीन-चैथाई ( 72 फ़ीसदी) धातु के उद्योग-धंधे विदेशी पूंजी पर निर्भर थे। यही बात दोन्येत्स प्रदेश के कोयले के उद्योग धंधों के बारे में भी सच थी। अंग्रेजी और फ्रांसीसी पूंजी के पास जो तेल के स्रोत थे, उनसे देश की लगभग आधी तेल की पैदावार होती थी। रूसी उद्योग-धंधों से मुनाफ़ों का काफ़ी हिस्सा विदेशी बैंकों में, मुख्य रूप से अंग्रेजी और फ्रांसीसी बैंकों में चला जाता था। इन सब कारणों से, और इनके सिवा ज़ार ने फ्रांस और ब्रिटेन से जो लाखों और करोड़ों रुपये उधार लिये थे उससे, ज़ारशाही ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवाद से बंधी हुई थी और रूस इन देशों को खिराज देने वाला, अर्द्ध-उपनिवेश बन गया था।
रूसी पूंजीपति अपनी दशा सुधारने के ख़्याल से युद्ध में शामिल हुए थे। वे चाहते थे कि नये बाज़ारों पर क़ब्जा करें, लड़ाई के ठेकों से भारी मुनाफ़ा कमायें और साथ ही युद्ध परिस्थिति से ज़्यादा फ़ायदा उठा कर क्रांतिकारी आन्दोलन को कुचल दें।
ज़ारशाही रूस युद्ध के लिये तैयार न था। रूस के उद्योग-धंधें दूसरे पूंजीवादी देशों के मुकाबिले में बहुत पीछे थे। उद्योग-धंधों में मुख्यतः पुरानी पड़ चुकी मिलें और घिसी-पिटी मशीनों के कारखाने थे। अर्द्ध-भूदास प्रथा पर निर्भर जमीन की मिल्कियत की वजह से और ग़रीब और तबाह किसानों की भारी तादाद की वजह से, रूस की खेती लम्बी चलने वाली लड़ाई के लिये एक पक्का आर्थिक आधार न जुटा सकती थी।
ज़ार के मुख्य स्तम्भ सामन्ती जमींदार थे। बडे़ पूंजीपतियों से मिलकर यमराज सभा वाले बडे़ जमींदार देश और राज्य दूमा पर हावी थे। वे पूरी तरह ज़ार सरकार की घरेलू और विदेशी नीति का समर्थन करते थे। रूस के साम्राज्यवादी पूंजीपतियों ने अपनी उम्मीदें निरंकुश ज़ारशाही से बांध रखी थीं वे समझते थे कि ज़ारशाही ऐसा फौलादी घूंसा है जो निश्चय ही एक तरफ़ तो नये बाज़ार और नये प्रदेश जीतेगा और दूसरी तरफ़ मजदूरों और किसानों के क्रांतिकारी आन्दोलन को कुचल देगा। उदारपंथी पूंजीपतियों की पार्टी-काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी - ने विरोध का दिखावा किया, लेकिन बिना किसी शर्त के उसने ज़ार सरकार की विदेशी नीति का समर्थन किया।
लड़ाई के आरम्भ से ही, निम्नपूंजीवादी पार्टियों ने - समाजवादी क्रांतिकारियों और मेन्शेविकों ने - समाजवाद के झंडे को पर्दे की तरह इस्तेमाल करके युद्ध के साम्राज्यवादी लुटेरे रूप को छिपा कर, जनता को धोखा देने में पूंजीपतियों की मदद की। वे इस बात का प्रचार करते थे कि 'जर्मन बर्बरों' से पूंजीपतियों की 'पितृभूमि' की रक्षा करना, उसे बचाना जरूरी है। वे 'घरेलू शांति' की नीति का समर्थन करते थे और इस तरह युद्ध चलाने में रूसी ज़ार की हुकूमत को सहायता देते थे, ठीक जैसे कि जर्मन सोशल-डेमोक्रेटों ने जर्मन कै़सर की हुकूमत को 'रूसी बर्बरों' के खिलाफ़ लड़ाई चलाने में सहायता दी थी।
एक बोल्शेविक पार्टी ही क्रांतिकारी अंतर्राष्टीयता के महान उद्देश्य के प्रति वफ़ादार रही। वह निरंकुश ज़ारशाही के खिलाफ, जमींदारों और पूंजीपतियों के खिलाफ़, साम्राज्यवादी युद्ध के खिलाफ़ जम कर लड़ने की मार्क्सवादी नीति पर दृढ़ता से चलती रही। युद्ध के आरंभ से ही, बोल्शेविक पार्टी कहती रही थी कि युद्ध इसलिये नहीं छेड़ा गया है कि देश की रक्षा की जाये बल्कि इसलिये कि दूसरे देशों का राज्य हड़प लिया जाये, जमींदारों और पूंजीपतियों के हितों में विदेशी जातियों को लूटा जाये। बोल्शेविक पार्टी का कहना था कि इस युद्ध के खिलाफ़ मज़दूरों को जम कर युद्ध करना चाहिये।
मजदूर वर्ग बोल्शेविक पार्टी का समर्थन करता था।
यह सही है कि युद्ध के शुरू में बुद्धिजीवियों और किसानों के कुलक हिस्सों ने जो पूंजीवादी अंधराष्टंवाद दिखलाया, उसका असर मजदूरों के एक हिस्से पर भी पड़ा। लेकिन, ये ज्यादातर गुंडा 'रूसी जनसंघ' के सदस्य थे और कुछ ऐसे मजदूर थे जो समाजवादी क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों के असर में थे। यह स्वाभाविक था कि वे मजदूर वर्ग की भावना को ज़ाहिर न करते थे, और न कर सकते थे। युद्ध के शुरू के दिनों में, ज़ार सरकार ने जो प्रदर्शन कराये थे, पंूजीपतियों के उन अंधराष्टंवादी प्रदर्शनों में इन्हीं लोगों ने हिस्सा लिया।
2. दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियां अपनी साम्राज्यवादी हुकूमतों का साथ देती हैं। दूसरी इन्टरनेशनल टूट कर अलग-अलग अंधराष्टंवादी पार्टियों में बंट जाती है।
लेनिन ने समय-समय पर दूसरी इन्टरनेशनल के अवसरवाद और उसके नेताओं के ढुलमुलपन के बारे में चेतावनी दी थी। उन्होंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया था कि दूसरी इन्टरनेशनल के नेता युद्ध का विरोध करने की सिर्फ़ बातें करते हैं और अगर लड़ाई हो तो वे अपना रुख बदल देंगे, साम्राज्यवादी पूंजीपतियों से जा मिलेंगे और युद्ध के समर्थक बन जायेंगे। लेनिन ने, यह जो पहले ही कहा था, वह युद्ध की शुरूआत में ही ज़ाहिर हो गया।
1910 में दूसरी इन्टरनेशनल की कोपेनहागन कांग्रेस में यह फै़सला किया गया कि पार्लियामेंट में सोशलिस्टों को युद्ध-कर्जों के खिलाफ़ वोट देना चाहिये। 1912 में बल्कान युद्ध के समय, दूसरी इन्टरनेशनल की बासले विश्व कांग्रेस ने ऐलान किया था कि सभी देशों के मजदूर इसे पाप समझते हैं कि पूंजीपतियों के मुनाफों के लिये एक-दूसरे पर गोली चलायें। यही उन्होंने कहा था, इसी की अपने प्रस्तावों में घोषणा की थी।
लेकिन जब तूफ़ान फट पड़ा जब साम्राज्यवादी युद्ध शुरू हो गया और इन प्रस्तावों की अमल में लाने का वक्त आ गया, तब दूसरी इन्टरनेशनल के नेता ग़द्दार साबित हुए, सर्वहारा वर्ग से दगा करने वाले और पूंजीपतियों के चाकर साबित हुए। वे युद्ध के समर्थक बन गये।
4 अगस्त 1914 को, पार्लियामेंट में जर्मन सोशल-डेमोक्रेटों ने युद्ध कर्जों के पक्ष में वोट दिया। उन्होंने साम्राज्यवादी युद्ध के समर्थन के लिये वोट दिया। इसी तरह, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, बेल्जियम और दूसरे देशों के सोशलिस्टों ने भारी बहुमत से ऐसा ही किया।
दूसरी इन्टरनेशनल की जिन्दगी खत्म हो गयी। दरअसल, वह अलग-अलग एक-दूसरे के खिलाफ़ लड़ने लगे, अंधराष्टंवादी पार्टियों में बंट गये।
सोशलिस्ट पार्टियों के नेताओं ने सर्वहारा वर्ग से गद्दारी की, अंधराष्टंवादी दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने साम्राज्यवादी पूंजीपतियों का समर्थन करना शुरू किया। उन्होंने साम्राज्यवादी हुकूमतों की मदद की कि वे मजदूर वर्ग की आंखों में धूल झोंकें और उसमें राष्टंवाद का ज़हर फैलायें। पितृभूमि की रक्षा का बहाना बना कर, इन सामाजिक ग़द्दारों ने जर्मन मजदूरों को फ्रांसीसी मजदूरों के खिलाफ़ और अंग्रेज और फ्रांसीसी मजदूरों को जर्मन मजदूरों के खिलाफ़ भड़काना शुरू किया। दूसरी इन्टरनेशनल में सिर्फ़ एक नगण्य अल्पसंख्या ऐसे लोगों की थी जो अंतर्राष्टंीयता का दृष्टिकोण अपनाये रहे और हवा के रुख के खिलाफ़ चले। यह सच है कि बहुत विश्वास और निश्चय से उन्होंने ऐसा नहीं किया, फिर भी हवा के खिलाफ़ वे चले जरूर।सिर्फ बोल्शेविक पार्टी ने बिना किसी दुविधा के और तुरंत ही साम्राज्यवादी युद्ध के खिलाफ़ जम कर लड़ने का झंडा ऊंचा किया। 1914 की शरद, में लेनिन ने युद्ध पर जो थीसिस (सैद्धांतिक निबन्ध) लिखी, उसमें उन्होंने बतलाया कि दूसरी इन्टरनेशनल का पतन आकस्मिक नहीं था। अवसरवादियों ने दूसरी इन्टरनेशनल को तबाह कर दिया था, जिन अवसरवादियों के खिलाफ़ क्रांतिकारी मजदूरों के प्रमुख प्रतिनिधि बहुत दिनों से चेतावनी दे रहे थे।
युद्ध से पहले ही, अवसरवाद दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियों में घर कर गया था। अवसरवादियों ने खुल्लमखुल्ला प्रचार किया था कि क्रान्तिकारी संघर्ष छोड़ दिया जाये। उन्होंने इस सिद्धांत का प्रचार किया था कि 'शान्तिमय तरीके से, पूंजीवाद बढ़ कर समाजवाद हो जायेगा।' दूसरी इन्टरनेशनल अवसरवाद का मुकाबिला न करना चाहती थी। वह उससे सुलह करके रहना चाहती थी और उसने उसे जडें़ जमाने का मौक़ा दिया। अवसरवाद के प्रति मेल-मिलाप की नीति पर चलते हुए, दूसरी इन्टरनेशनल खुद अवसरवादी हो गयी।
साम्राज्यवादी पूंजीपतियों ने कौशल जानने वाले मजदूरों के ऊपरी स्तर को बाक़ायदा घूस दी थी। इन्हें 'लेबर एरिस्टाॅक्रैसी' (मजदूर नवाब) कहा जाता था। ज्यादा तनखाहें देकर या ऐसे ही दूसरे टुकडे़ फेंक कर, उन्हें घूस दी जाती थी। उपनिवेशों से, पिछडे़ हुए देशों के शोषण से जो मुनाफ़ा आता था, उसका एक हिस्सा इसी के लिये इस्तेमाल किया जाता था। मजदूरों के इस हिस्से ने काफ़ी टंेड यूनियन और सहयोग-सभाओं के नेता पैदा किये थे, म्यूनिसिपल और पार्लियामेंटरी संस्थाओं के सदस्य, सोशल-डेमोक्रैटिक संगठनों के पत्रकार और कार्यकर्ता पैदा किये थे। जब युद्ध छिड़ा, तो इस डर से कि उनकी जगहें न छिन जाये, वे क्रान्ति के दुश्मन बन गये और अपने ही पूंजीपतियों के, अपनी ही साम्राज्यवादी हुकूमतों के बहुत जोशीले समर्थक बन गये।
अवसरवादी अंधराष्टंवादी बन गये।
अंधराष्टंवादी और उनमें शामिल होने वाले रूसी मेन्शेविक और समाजवादी क्रान्तिकारी अपने देश में मजदूरों और पूंजीपतियों में वर्ग-शान्ति बनाये रखने और विदेश के राष्टंों से युद्ध करने का प्रचार करते थे। वे आम जनता से यह छिपाते थे कि दरअसल युद्ध के लिये कौन जिम्मेदार है और कहते थे कि उनके अपने देश के पूंजीपतियों का दोष नहीं है। इस तरह, वे जनता को धोखा देते थे। बहुत से अंधराष्टंवादी अपने देशों की साम्राज्यवादी हुकूमतों के मंत्री बन गये।
मजदूर पक्ष के लिये छिपे हुए अंधराष्टंवादी, तथाकथित केन्द्रवादी कम खतरनाक नहीं थे। काॅटस्की, त्रात्स्की, मारतोव आदि केन्द्रवादी खुले अंधराष्टंवादियों को सही बताते थे और उनका समर्थन करते थे। इस तरह, मजदूरों से दगा करने में वे अंधराष्टंवादियों का साथ देते थे। युद्ध का मुकाबिला करने के बारे में 'वामपंथी' लफ्फ़ाजी करके, वे
209 साम्राज्यवादी युद्ध, रूस में दूसरी क्रान्ति और बोल्षेविक पार्टी
अपनी ग़द्दारी छिपाते थे। इस लफ्फ़ाजी का उद्देश्य मजदूर वर्ग को धोखा देना था। असलियत यह थी कि केन्द्रवादी युद्ध का समर्थन करते थे। उनका यह प्रस्ताव कि युद्ध-कर्जों के खिलाफ वोट न दिया जाये बल्कि जब वोट लिये जा रहे हों तब तटस्थ रहा जाये, युद्ध का समर्थन करना ही था। अंधराष्टंवादियों की तरह, वे यह मांग करते थे कि युद्ध के दौर में वर्ग-संघर्ष छोड़ दिया जाये जिससे कि उनकी अपनी साम्राज्यवादी हुकूमत को लड़ाई चलाने में अड़चन का सामना न करना पडे़। केन्द्रवादी त्रात्स्की युद्ध और समाजवाद के सभी महत्वपूर्ण सवालों पर लेनिन और बोल्शेविकों का विरोध करता था।
युद्ध छिड़ते ही, लेनिन एक नयी इन्टरनेशनल - तीसरी इन्टरनेशनल - बनाने के लिये शक्तियों को बटोरने लगे। नवम्बर 1914 में, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने युद्ध के खिलाफ़ जो घोषणापत्र निकाला था, उसी में उसने बुरी तरह दिवालिया हो चुकी दूसरी इन्टनरनेशनल की जगह तीसरी इन्टरनेशनल बनाने का बुलावा दिया।
फ़रवरी 1915 में, मित्र-देशों के समाजवादियों का सम्मेलन लन्दन में हुआ। लेनिन के निर्देश के अनुसार, इस सम्मेलन में काॅमरेड लितविनोव बोले। उन्होंने मांग की कि समाजवादी (वाण्डेरवेल्डे, सेम्बा और ग्वैसदे) बेल्जियम और फ्रांस की पूंजीवादी हुकूमतों से इस्तीफा दे दें, साम्राज्यवादियों से पूरी तरह नाता तोड़ लें और उनके साथ काम करने से इन्कार कर दें। उन्होंने मांग की कि समाजवादी अपनी साम्राज्यवादी हुकूमतों के खिलाफ, जम कर लड़ाई करें और युद्ध-कर्जों पर वोट देने की निन्दा करें। लेकिन, इस सम्मेलन में लितविनोव के समर्थन में एक भी आवाज न उठी।
सितम्बर 1915 के आरम्भ मे, अंतर्राष्टीयतावादियों का पहला सम्मेलन जिमिरवाल्ड में हुआ। लेनिन ने इस सम्मेलन को युद्ध के खिलाफ़ अंतर्राष्टीय आन्दोलन के विकास में 'पहला कदम' कहा। इस सम्मेलन में, लेनिन ने जिमिरवाल्ड वामपंथी गुट बनाया। लेकिन, जिमिरवाल्ड वामपंथी गुट में लेनिन के नेतृत्व में सिर्फ बोल्शेविक पार्टी ने युद्ध के खिलाफ़ सही और पूरी तरह से संगत रूख अपनाया। जिमिरवाल्ड वामपंथी गुट फ़ोरबोटे(अग्रदूत) नाम की पत्रिका जर्मन में प्रकाशित करता था। लेनिन उसे लेख भेजते थे।
1916 में, अंतर्राष्टीयतावादी स्विटजरलैंड के कियेन्थाल नाम के गांव में दूसरा सम्मेलन बुलाने में सफल हुए। इसे दूसरा जिमिरवाल्ड सम्मेलन कहा जाता है। इस वक्त तक, लगभग हर देश में अंतर्राष्टीयतावादी गुट बन चुके थे और अंधराष्टंवादियों और अंतर्राष्टीयतावादियों का भेद और ज्यादा स्पष्ट हो गया था। लेकिन, सबसे ज्यादा महत्व की बात यह थी कि युद्ध और उसके साथ की मुसीबतों के असर से खुद आम जनता वामपक्ष की तरफ आयी थी। कियेन्थाल सम्मेलन ने जो घोषणापत्र बनाया, वह विभिज्डा विरोधी गुटों के समझौते का परिणाम था। जिमिरवाल्ड घोषणापत्र के मुकाबिले में, यह आगे बढ़ा हुआ कदम था।
जिमिरवाल्ड सम्मेलन की तरह, कियेन्थाल सम्मेलन बोल्शेविक पार्टी के बुनियादी उसूलों को न मानता था, यानी साम्राज्यवादी युद्ध को गृह-युद्ध में बदलना, युद्ध में खुद अपनी साम्राज्यवादी हुकूमत को हराना और तीसरी इन्टरनेशनल बनाना। फिर भी, कियेन्थाल सम्मेलन ने अंतर्राष्टीयतावादी तत्वों को निखारने में मदद की, जिनसे आगे चल कर कम्युनिस्ट तीसरी इन्टरनेशनल बनी।
लेनिन ने वामपंथी सोशल-डेमोक्रेटों में रोजा लुक्जेम्बुर्ग और कार्ल लीबक्नेख्त जैसे असंगत अंतर्राष्टीयतावादियों की ग़लतियों की आलोचना की। साथ ही, लेनिन ने उन्हें सही दृष्टिकोण अपनाने में मदद भी दी।
3. युद्ध, शान्ति और क्रांति के सवालों पर बोल्शेविक पार्टी के सिद्धांत और उसकी कार्यनीति।
बोल्शेविक युद्ध शान्तिवादी नहीं थे, जो शान्ति के लिये आहें भरते और शान्ति का प्रचार ही करके रह जाते जैसा कि ज्यादातर वामपंथी सोशल-डेमोक्रेट किया करते थे। बोल्शेविक इस बात का प्रचार करते थे कि शान्ति के लिये सक्रिय क्रांतिकारी संघर्ष किया जाये और इस हद तक किया जाये कि युद्ध-प्रेमी साम्राज्यवादी पूंजीपतियों के शासन का तख्ता उलट दिया जाये। बोल्शेविकों ने शान्ति पक्ष को सर्वहारा शान्ति के विजय पक्ष से जोड़ा। उनका कहना था कि युद्ध को खत्म करने और न्यायपूर्ण शान्ति, ऐसी शान्ति जिसमें दूसरों का राज्य हड़पना और हर्जाने लेना न हो, हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका साम्राज्यवादी पूजीपतियों के शासन का तख्ता उलटना है।
मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी क्रांति का साथ छोड़ चुके थे और युद्ध के दौर में 'घरेलू शान्ति' कायम रखने का ग़द्दाराना नारा देते थे इनके खिलाफ, बोल्शेविक यह नारा देते थे: 'साम्राज्यवादी युद्ध को गृह-युद्ध में बदल दो।' इस नारों का मतलब था कि मेहनतकश जनता, जिसमें फौजी वर्दी पहने हुए हथियारबन्द मजदूर और किसान शामिल थे, अपने हथियार अपने ही पंूजीपतियों की तरफ मोड़ दें और अगर वह युद्ध का खात्मा करना चाहती थी और न्यायपूर्ण शान्ति हासिल करना चाहती थी तो अपने ही पूंजीपतियों का राज्य खत्म कर दे।
मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी इस नीति पर चल रहे थे कि पूंजीवादी पितृभूमि की रक्षा की जाये। इस नीति के खिलाफ, बोल्शेविकों ने यह नीति रखी कि 'साम्राज्यवादी युद्ध में अपनी ही सरकार को हराओ।' इसका अर्थ यह था कि युद्ध-क़र्जों के खिलाफ़ वोट दो, फ़ौज के अन्दर ग़ैरकानूनी क्रांतिकारी संगठन बनाओ, मोर्चे पर सैनिकों के भाईचारे का समर्थन करो; युद्ध के खिलाफ मजदूरों और किसानों की क्रांतिकारी कार्यवाही का संगठन करो और इस कार्यवाही को अपनी ही साम्राज्यवादी हुकूमत के खिलाफ़ विद्रोह में बदल दो।
बोल्शेविकों का कहना था कि साम्राज्यवादी युद्ध में ज़ार सरकार की फ़ौजी हार जनता के लिये कम संकट की बात होगी। कारण यह कि इससे ज़ारशाही के खिलाफ़ जनता की विजय हासिल करने में आसानी होगी और पूंजीवादी गुलामी और साम्राज्यवादी युद्ध से मुक्ति के लिये मजदूर वर्ग का संघर्ष सफ़ल हो सकेगा। लेनिन का कहना था कि अपनी ही साम्राज्यवादी हुकूमत को हराने की मजदूर वर्ग की नीति पर रूसी क्रांतिकारियों को ही नहीं चलना चाहिये, बल्कि युद्ध करने वाले सभी देशों के मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टियों को इसी नीति पर चलना चाहिये।
बोल्शेविक हर किसी तरह के युद्ध का विरोध न करते थे। वे सिर्फ़ दूसरे देशों को जीतने के लिये किये गये युद्धों का, साम्राज्यवादी युद्धों का विरोध करते थे। बोल्शेविकों का कहना था कि युद्ध दो तरह के होते हैं:
क) न्यायपूर्ण युद्ध, ऐसे युद्ध जो दूसरे देशों को जीतने के लिये नहीं बल्कि स्वाधीनता के युद्ध हैं, जो विदेशी हमले से या गुलाम बनाने की कोशिश से जनता की रक्षा करने के लिये या पूंजीवादी गुलामी से जनता को मुक्त करने के लिये या अंत में साम्राज्यवादी जुंए से उपनिवेशों और पराधीन देशों को आज़ाद करने के लिये होते हैं; और,
(ख) अन्यायपूर्ण युद्ध, दूसरे देशों को जीतने के लिये युद्ध, जो दूसरे देशों और दूसरी जातियों को जीतने और उन्हें गुलाम बनाने के लिये किये जाते हैं।
बोल्शेविक पहली तरह के युद्धों का समर्थन करते थे। जहां तक दूसरी तरह के युद्धों का सवाल था, बोल्शेविकों का कहना था कि उनके खिलाफ़ जम कर संघर्ष करना चाहिये, इस हद तक कि क्रांति हो जाये और अपनी ही साम्राज्यवादी हुकूमत का तख्ता उलट दिया जाये।
दुनिया के मजदूर वर्ग के लिये युद्ध के दौर में लेनिन का सिद्धांत सम्बन्धी काम बहुत महत्वपूर्ण था। 1916 के बसन्त में, लेनिन ने साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की सबसे ऊंची मंजिल नाम की पुस्तक लिखी। इस किताब में, उन्होंने दिखलाया कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की सबसे ऊंची मंजिल है, ऐसी मंजिल जब वह 'प्रगतिशील' पूंजीवाद से जांगरचोर पूंजीवाद, पतनशील पूंजीवाद मे बदल चुका होता है, और यह कि साम्राज्यवाद गतिरुद्ध पूंजीवाद है। अवश्य ही इसका यह मतलब न था कि पूंजीवाद अपने-आप ही मजदूरों की क्रांति के बिना खत्म हो जायेगा, कि वह अपने डंठल पर खुद ही सड़ जायेगा। लेनिन हमेशा यही सिखाते थे कि मजदूर वर्ग की क्रांति के बिना पूंजीवाद का खात्मा नहीं हो सकता। इसलिये, साम्राज्यवाद की यह व्याख्या करते हुए कि वह गतिरुद्ध पूंजीवाद है, लेनिन ने साथ ही यह भी दिखाया कि "साम्राज्यवाद सर्वहारा की सामाजिक क्रांति का पूर्वकाल है"।
लेनिन ने दिखाया कि साम्राज्यवाद के युग में पूंजीवादी जुंआ और भी भारी होता जाता है। साम्राज्यवाद के दौर में, मजदूरों का विद्रोह पूंजीवाद की बुनियादों के खिलाफ़ ही बढ़ता जाता है। पूंजीवादी देशों में क्रांतिकारी विस्फोट के तत्व इकट्ठे होते जाते हैं।
लेनिन ने दिखाया कि साम्राज्यवाद के युग में उपनिवेशों और पराधीन देशों में क्रांतिकारी संकट और तेज हो जाता है, साम्राज्यवाद के खिलाफ़ विद्रोह के तत्व, साम्राज्यवाद के खिलाफ़ मुक्ति-संग्राम के तत्व इकट्ठे हो जाते हैं।
लेनिन ने दिखाया कि साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद के विकास की विषमता और उसकी असंगतियां खास तौर से तेज हो गयी हैं। बाज़ारों के लिये और बाहर पूंजी भेजने के क्षेत्रों के लिये संघर्ष से, उपनिवेशों के लिये, कच्चे माल के स्रोत के लिये संघर्ष से समय-समय पर दुनिया का फिर से बंटवारा करने के लिये साम्राज्यवादी युद्ध लाजिमी हो जाते हैं।
लेनिन ने दिखाया कि पूंजीवाद के विकास की विषमता ही साम्राज्यवादी युद्धों का कारण है। ये साम्राज्यवादी युद्ध साम्राज्यवाद की जड़ कमजोर कर देते हैं और यह संभव बनाते हैं कि साम्राज्यवाद जहां सबसे कमज़ोर हो, वहां उसका मोर्चा तोड़ दिया जाये।
इस सब से, लेनिन ने नतीजा निकाला था कि मजदूरों के लिये यह बिल्कुल संभव है कि वे साम्राज्यवादी मोर्चे को एक या कई जगह तोड़ दें, कि समाजवाद की जीत पहले कई देशों में या अकेले एक देश में भी संभव है, कि सभी देशों में एक ही साथ समाजवाद की जीत पंूजीवादी विकास की विषमता की वजह से असंभव है और समाजवाद पहले एक देश में या कई देशों में विजयी होगा जबकि दूसरे देश कुछ दिन तक और पूंजीवादी बने रहेंगे।
यह परिणाम, जो एक प्रतिभा की देन थी, साम्राज्यवादी युद्ध के दौर में लेनिन के लिखे हुए दो लेखों में इस तरह प्रकट किया गया था:
(1) "विषम आर्थिक और राजनीतिक विकास पूंजीवाद का अटूट नियम है। इसीलिये, समाजवाद की विजय कई पूंजीवादी देशों या अकेले एक पूंजीवादी देश में भी संभव है। उस देश का विजयी मजदूर वर्ग पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्त करके और अपनी समाजवादी पैदावार संगठित करके बाकी दुनिया, पूंजंीवादी दुनिया के खिलाफ़ खड़ा होगा और अपने पक्ष की तरफ़ दूसरे देशों के पीड़ित वर्गों को खींचेगा ...।" (अगस्त 1915 में लिखे हुए लेख "संयुक्त राष्टं यूरोप का नारा", लेनिन, संÛग्रंÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खण्ड 1, पृष्ठ 619)
(2) "पूंजीवाद का विकास विभिन्न देशों में बहुत ही विषम गति से होता है। बिकाऊ माल की पैदावार की व्यवस्था में, इसके अलावा दूसरी चीज नहीं हो सकती। इससे यह अकाटय नतीजा निकलता है कि सभी देशों में समाजवाद की एक ही साथ विजय नहीं हो सकती। उसकी विजय पहले एक या कई देशों में होगी, जबकि दूसरे देश कुछ समय के लिये पूंजीवादी या उससे भी पहले की व्यवस्था में रहेंगे। इससे टक्कर ही न पैदा होगी बल्कि दूसरे देशों के पूंजीपति सीधे-सीधे कोशिश करेंगे कि समाजवादी राज्य के विजयी मजदूरों को कुचल दें। ऐसी हालत में, हमारी तरफ से युद्ध वैध और न्यायपूर्ण होगा। यह युद्ध समाजवाद के लिये होगा, दूसरी जातियों को पूंजीपतियों से मुक्त करने के लिये होगा।" (1916 की शरद में लिखे हुए 'सर्वहारा क्रांति का युद्ध-कार्यक्रम" नाम के लेख से, लेनिन, सं.ग्र., रू.सं., खं. 19 पृष्ठ 325)।
समाजवादी क्रांति का यह एक नया और पूर्ण सिद्धांत था। यह सिद्धांत इस संभावना को पुष्ट करता था कि अलग-अलग देशों में समाजवाद की विजय हो सकती है और वह इस विजय और उनकी संभावनाओं के लिये आवश्यक परिस्थितियां बतलाता था। इस सिद्धांत की नींव लेनिन ने 1905 में ही जनवादी क्रांति में सोशल-डेमोक्रेसी की दो कार्यनीतियां में रख दी थी।
यह सिद्धांत साम्राज्यवाद से पूर्व के पूंजीवाद के दौर में मार्क्सवादियों में प्रचलित मत से मूलतः भिज्डा था। उस समय, मार्क्सवादियों का कहना था कि अलग एक देश में समाजवाद की विजय होना असंभव है और वह एक ही साथ सभी सभ्य देशों में होगी। अपनी अपूर्व पुस्तक साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की सबसे ऊंची मंजिल में साम्राज्यवादी पूंजीवाद के सिलसिले में दिए हुए तथ्यों के आधार पर लेनिन ने इस मत को पुराना पड़ चुका दिखा कर हटा दिया, उसकी जगह उन्होंने एक नया सिद्धांत रखा जिससे यह नतीजा निकलता था कि सभी देशों में समाजवाद की एक साथ ही विजय असंभव थी जबकि अकेले एक पूंजीवादी देश में समाजवाद की विजय संभव थी।
समाजवादी क्रांति के बारे में लेनिन के सिद्धांत का अमूल्य महत्व इसी बात में नहीं है कि उसने मार्क्सवाद को एक नये सिद्धांत से समृद्ध किया है और मार्क्सवाद को आगे बढ़ाया है बल्कि इस बात में भी है कि उसने अलग-अलग देशों के मजदूरों के लिये एक क्रांतिकारी रास्ता दिखलाया है, कि उसने खुद उन्हीं के राष्टीय पूंजीपतियों पर हमला करने के लिये उनकी पहल़कदमी को छूट दे दी है, कि वह युद्ध की हालत से फ़ायदा उठा कर उन्हें इस हमले का संगठन करना सिखलाती है और सर्वहारा क्रांति की विजय में उनके विश्वास को दृढ़ करती है।
युद्ध, शांति और क्रांति के सवालों पर, बोल्शेविकों का सिद्धांत और कार्यनीति सम्बन्धी दृष्टिकोण यही है।
इसी दृष्टिकोण के आधार पर बोल्शेविकों ने रूस में अपना अमली काम चलाया। युद्ध के आरंभ में, पुलिस के घोर दमन के बावजूद, दूमा के बोल्शेविक सदस्यों - बादायेव, पेत्रोव्स्की, मोरानोव, समोइलोव और शागोव - ने कई संगठनों में जाकर युद्ध और क्रांति के बारे में बोल्शेविकों की नीति पर भाषण दिये। नवम्बर 1914 में, युद्ध के बारे में नीति पर विचार करने के लिये राज्य दूमा के बोल्शेविक गुट का एक सम्मेलन हुआ। सम्मेलन के तीसरे दिन वहां जितने भी लोग मौजूद थे, गिरफ्तार कर लिये गये। अदालत ने बोल्शेविक सदस्यों को यह सज़ा दी कि उनके नागरिक अधिकार छीन लिये जायें और उन्हें पूर्वी साइबेरिया में निर्वासित किया जाये। ज़ार सरकार ने उन पर 'राज-द्रोह' का आरोप लगाया।
अदालत में दूमा के सदस्यों की कार्यवाही की जो तसवीर सामने आयी, उससे पार्टी का गौरव बढ़ा। बोल्शेविक प्रतिनिधियों ने मर्दानगी का व्यवहार किया और ज़ार की अदालत को उन्होंने ऐसा मंच बना दिया जंहा से उन्होंने दूसरे देशों को हड़पने की ज़ारशाही नीति का पर्दाफ़ाश किया।
कामेनेव का व्यवहार इससे बिल्कुल भिन्न था। इस मुकदमें में वह भी था। खतरे के सामने आते ही, कायरता की वजह से उसने बोल्शेविक पार्टी की नीति को तिलांजलि दे दी। कामेनेव ने अदालत में ऐलान किया कि युद्ध के सवाल पर वह बोल्शेविकों से सहमत नहीं है और यह साबित करने के लिये, उसने प्रार्थना की कि मेन्शेविक जोरदात्स्की को गवाह के तौर पर बुलाया जाये।
लड़ाई की जरूरतें पूरी करने के लिये, युद्ध-उद्योग-समितियां कायम की गयी थीं। बोल्शेविकों ने इनके खिलाफ़ बहुत कारगर तरीके से काम किया। उन्होंने साम्राज्यवादी पूंजीपतियों के असर में मजदूरों को लाने के लिये मेन्शेविकों की कोशिशों का भी बहुत कारगर तरीके़ से विरोध किया। पूंजीपतियों को इस बात से बेहद दिलचस्पी थी कि हर आदमी को यह विश्वास दिलाया जाये कि साम्राज्यवादी युद्ध जनता का युद्ध है। लड़ाई के दौर में, पूंजीपति राज्य के कामों में काफ़ी प्रभाव जमाने में सफल हुए। उन्होने अपना एक देशव्यापी संगठन क़ायम किया, जिसका नाम था - जेम्स्त्वो और शहरों के संघ। पूंजीपतियों के लिये जरूरी था कि मजदूरों को भी अपने नेतृत्व और असर में लायें। ऐसा करने के लिये, उन्होंने एक तरीक़ा सोचा और वह यह कि युद्ध-उद्योग-समितियों के 'मजदूर गुट' बनाये जायें। मेन्शेविक इस विचार पर उछल पडे़। पूंजीपतियों को इस बात में लाभ था कि इन युद्ध-उद्योग-समितियों में मजदूरों के ऐसे प्रतिनिधि हों जो गोले, तोपें, राइफ़लें, कारतूस और दूसरा लड़ाई का सामान बनाने वाले कारखानों में आम मज़दूरों को इस बात के लिये प्रेरित करें कि वे श्रम की उत्पादकता बढ़ायें। पूंजीपतियों का नारा था: 'हर चीज युद्ध के लिये, हर कोई युद्ध के लिये !' वास्तव में, इस नारे का मतलब था: 'युद्ध के ठेकों से और दूसरे देशों की धरती हड़पने से जितना अमीर बन सकते हो, बनो।' मेन्शेविकों ने पूंजीपतियों की इस नीम देशभक्ति वाली योजना में सक्रिय हिस्सा लिया। उन्होंने पूंजीपतियों की इस बात से मदद की कि युद्ध-उद्योग-समितियों के 'मजदूर गुटों' के चुनाव में हिस्सा लिवानें के लिये मज़दूरों में जोरदार आन्दोलन किया। बोल्शेविक इस योजना के खिलाफ़ थे। वे युद्ध-उद्योग-समितियों का बायकाट करने का प्रचार करते थे और वे उनका बायकाट कराने में सफल हुए। लेकिन, एक प्रमुख मेन्शेविक गोज्देव और एक सरकारी दलाल अब्रोसिमोव के नेतृत्व में कुछ मज़दूरों ने युद्ध-उद्योग-समितियों की कार्यवाही में हिस्सा लिया ही। फिर भी सितम्बर 1915 में, युद्ध-उद्योग-समितियों के 'मजदूर गूटों' के अंतिम चुनाव के लिये जब मज़दूरों के प्रतिनिधि इकट्ठे हुए तो हुआ यह कि अधिकांश प्रतिनिधि उसमें हिस्सा लेने के खिलाफ़ हो गये। मजदूर प्रतिनिधियों के बहुमत ने युद्ध-उद्योग-समितियों में हिस्सा लेने के खिलाफ़ एक तीखा प्रस्ताव पास किया और ऐलान किया कि मज़दूरों ने शान्ति के लिये और ज़ारशाही का खात्मा करने के लिये लड़ना अपना ध्येय बना लिया है।
बोल्शेविकों ने फ़ौज और जल-सेना में भी बड़े पैमाने पर काम करना शुरू किया। उन्होंने सिपाहियों और मल्लाहों को समझाया कि युद्ध के भयानक हाहाकार और जनता की मुसीबतों के लिये कौन जिम्मेदार है। उन्होंने समझाया कि साम्राज्यवादी हत्याकाण्ड से बचने के लिये जनता के पास एक ही रास्ता है और वह क्रांति का रास्ता है। बोल्शेविकों ने फ़ौज और जल-सेना मंे, मोर्चे पर और मोर्चे के पीछे अपने केन्द्र बनाये और युद्ध के खिलाफ़ लड़ने के लिये बुलावा देते हुए पर्चे बांटे।
क्रोन्स्तात में बोल्शेविकों ने 'क्रोन्स्तात सैनिक संगठन का केन्द्रीय संघ' बनाया। इसका सम्बन्ध पार्टी की पेत्रोग्राद-कमिटी से था। छावनी में काम करने के लिये, पेत्रोग्राद पार्टी-कमिटी का एक सैनिक-संगठन क़ायम किया गया। अगस्त 1916 में, पेत्रोग्राद ओखराना के मुख्य अफ़सर ने यह रिपोर्ट दी कि "क्रोन्स्तात संघ में बहुत अच्छा संगठन है, संगठन गुप्त है और उसके सदस्य गंभीर और होशियार लोग हैं। इस संघ के प्रतिनिधि समुद्री किनारे पर भी हैं।"
युद्ध के मोर्चे पर पार्टी इस बात का आन्दोलन करती थी कि लड़ने वाली फ़ौजों के सिपाही आपस में भाईचारा पैदा करें। पार्टी इस बात पर ज़ोर देती थी कि दुनिया के पूंजीपति दुश्मन हैं और साम्राज्यवादी युद्ध गृह-युद्ध में बदल कर ही और अपने हथियार अपने ही पूंजीपतियों और उनकी हुकूमत के खिलाफ़ मोड़ कर ही, लड़ाई का खात्मा हो सकता है। फ़ौजी दस्ते हमला करने से अधिकाधिक इन्कार करने लगे। इस तरह की घटनायें 1915 में ही हुईं, और 1916 में तो और भी हुईं।
उत्तरी मोर्चे पर और बल्कान प्रान्तों की फ़ौजों में बोल्शेविकों की कार्यवाही खास तौर से ज्यादा फैली थी। 1917 के आरम्भ में, उत्तरी मोर्चे पर फ़ौज के सेनापति जनरल रूस्की ने हैड क्वार्टर को सूचना दी कि बोल्शेविकों ने उस मोर्चे पर ज़ोरदार क्रान्तिकारी काम चालू कर रखा है।
युद्ध से जनता के जीवन में, दुनिया के मज़दूर वर्ग के जीवन में भारी तब्दीली हुई। राष्टो का भाग्य, जातियों का भाग्य, समाजवादी आन्दोलन का भाग्य दांव पर लगा हुआ था। इसलिये, सभी पार्टियों और रुझानों के लिये जो अपने को समाजवादी कहती थीं, युद्ध एक कसौटी, एक परीक्षा था। क्या ये पार्टियां और रुझान समाजवाद के पक्ष, अंतर्राष्टीयता के पक्ष के प्रति वफ़ादार रहेंगे, या वे मजदूर वर्ग से दग़ा करना, अपना झंडा निकाल कर अपने राष्टीय पूंजीपतियों के पैरों के नीचे डालना पसन्द करेंगे? उस समय सवाल का रूप यही था।
युद्ध ने दिखा दिया कि दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियां परीक्षा में खरी न उतरीं। उन्होंने मजदूर वर्ग से दग़ा की और अपने देशों के साम्राज्यवादी पूंजीपतियों के हाथ अपना झण्डा सौंप दिया।
और ये पार्टियां, जिन्होंने अपने भीतर अवसरवाद को पाला-पोसा था और जिन्हें अवसरवादियों के लिये, राष्टंवादियों के लिये रियायतें करना सिखलाया गया था कोई दूसरा अमल न कर सकती थीं।
युद्ध ने दिखा दिया कि बोल्शेविक पार्टी ही एक पार्टी है जिसने शान के साथ यह परीक्षा पास की है और समाजवाद के पक्ष के प्रति, सर्वहारा अंतर्राष्टीयता के पक्ष के प्रति हमेशा वफ़ादार रही है।
और, इसी की उम्मीद भी की जा सकती थी। सिर्फ़ एक नयी तरह की पार्टी, सिर्फ़ एक ऐसी पार्टी जो अवसरवाद के खिलाफ़ बिना समझौते के संघर्ष करने की भावना में पाली-पोसी गई हो, सिर्फ़ ऐसी पार्टी जो अवसरवाद और राष्टंवाद से मुक्त हो, सिर्फ़ ऐसी पार्टी इस महान परीक्षा में खरी निकल सकती थी और मजदूर वर्ग के पक्ष, समाजवाद और अंतर्राष्टीयता के पक्ष के प्रति वफ़ादार रह सकती थी।
और, बोल्शेविक पार्टी ऐसी ही पार्टी थी।
4. ज़ारशाही फ़ौज की हार। आर्थिक विघटन। ज़ारशाही का
संकट।
लड़ाई अब तीन साल तक चल चुकी थी। युद्ध में लाखों आदमी मारे गये थे, या घावों से मर गये थे, या युद्ध की हालत से पैदा होने वाली महामारियों में खप गये थे। पूंजीपति और जमींदार युद्ध से रक़में काट रहे थे। लेकिन, मजदूर और किसान दिन पर दिन बढ़ती हुई तबाही और भुखमरी के शिकार हो रहे थे। युद्ध रूस के आर्थिक जीवन की जडे़ं कमज़ोर कर रहा था। लगभग 1 करोड़ 40 लाख हट्टे-कट्टे आदमी आर्थिक कामों से हटा लिये गये थे और फ़ौज में भर्ती कर लिये गये थे। मिलें और कारखाने ठप्प हो रहे थे। मजदूरों की कमी की वजह से, खेती का इलाक़ा कम हो गया था। आम जनता और मोर्चे के सिपाही भूखे, नंगे पैर और नंगे बदन थे। देश का माल-मसाला युद्ध में स्वाहा होता जा रहा था।
ज़ार की फ़ौज हार पर हार खा रही थी। जर्मन तोपखाना ज़ार की फ़ौजों को गोलों से तोप देता था, जबकि ज़ारशाही सेना के पास तोपों, गोलों और राइ़फलों तक का अभाव था। कभी-कभी तीन सिपाहियों को एक ही राइ़फल से काम चलाना पड़ता था। जब युद्ध चालू था, तभी पता लगा कि ज़ार का युद्ध-मंत्री सुखोमलिनोव ग़द्दार है, जिसका सम्बन्ध जर्मन जासूसों से है और जो लड़ाई का माल भेजने के काम को असंगठित करने और मोर्चे को तोपों और राइफ़लों के बिना छोड़ देने के लिये जर्मन जासूस-विभाग के निर्देश का पालन कर रहा था। ज़ार के कुछ मंत्री और ज़नरल चोरी-चोरी जर्मन फ़ौज की सफलता में मदद देते थे। ज़ारीना के साथ, जिसके जर्मन ताल्लुकात थे, वे जर्मनों को फ़ौजी भेद बतला देते थे। कोई ताज्जुब नहीं कि जार की फ़ौज हारी और उसे पीछे हटना पड़ा। 1916 तक ही, जर्मन पोलैंड और बाल्टिक प्रान्तों का एक हिस्सा अपने क़ब्जे में कर चुके थे।
इन सब बातों से, ज़ार सरकार के खिलाफ़ मजदूरों, किसानों, सिपाहियों और बुद्धिजीवियों में नफ़रत और गुस्सा बढ़ा, युद्ध और ज़ारशाही के खिलाफ़ आम जनता का क्रांतिकारी आन्दोलन बढ़ा, और तेज हुआ। यह क्रान्तिकारी आन्दोलन युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे भी था, केन्द्रीय भाग और सीमान्त प्रदेशों में भी था।
रूस के साम्राज्यवादी पूंजीपतियों में भी असंतोष फैलने लगा। वे इस बात से आग-बबूला हो गये थे कि रासपुतीन जैसे बदमाश, जो स्पष्टतः जर्मनी से अलग संधि करने की कोशिश कर रहे थे, ज़ार के दरबार पर हावी थे। पूंजीपतियों को और भी विश्वास होता गया कि ज़ार सरकार सफलता से युद्ध चलाने के आयोग्य है। उन्हें डर था कि अपनी रक्षा करने के लिये ज़ारशाही जर्मनों से अलग संधि न कर ले। इसलिये, रूसी पूंजीपतियों ने फ़ैसला किया कि महल के अन्दर ही बलात सत्ता हासिल करने का काम किया जाये। इसका उद्देश्य यह था कि ज़ार निकोलस द्वितीय को हटाया जाये और उसके बदले उसके भाई माइकेल रोमानोव को बिठाया जाये जिसका पंूजीपतियों से संबंध था। इस तरह, वे एक ढेले से दो चिड़ियों का शिकार करना चाहते थे। पहले तो वे खुद सत्ता हासिल करना चाहते थे और साम्राज्यवादी युद्ध को आगे चलाने का काम पक्का कर लेना चाहते थे। दूसरे, वे महल के अन्दर सत्ता हथियाकर एक बड़ी लोकप्रिय क्रांति की बाढ़ को रोकना चाहते थे, जिसका ज्वार चढ़ता जा रहा था।
इस काम में, अंगे्रज और फ्रांसीसी हुकूमतें रूसी पूंजीपतियों का पूरी तरह समर्थन करती थीं। ये हूकूमतें देखती थीं कि ज़ार लड़ाई नहीं चला सकता। उन्हें डर था कि वह जर्मनों से अलग संधि करके लड़ाई खत्म न कर दे। अगर ज़ार सरकार अलग संधि पर दस्तख़त करती, तो अंगे्रज और फ्रांसीसी हुकूमतों के हाथ से युद्ध का एक साथी निकल जाता। यह साथी न सिर्फ़ दुश्मन की फ़ौजों को अपने मोर्चो की तरफ़ खींच लाता था बल्कि फ्रांस को लाखों चुने हुये रूसी सिपाही भी देता था। इसलिये, अंग्रेज और फ्रांसीसी हुकूमतों ने रूसी पूंजीपतियों की इन कोशिशों का समर्थन किया कि वे महल में बलात सत्ता हथियायें।
इस तरह, ज़ार अकेला पड़ गया।
उधर मोर्चें पर हार पर हार होती गयी, इधर आर्थिक विघटन और ज्यादा तीखा होता गया। जनवरी और फ़रवरी 1917 में खाद्य सामग्री, कच्चे माल और ईंधन देने की अव्यवस्था हद को पहुंच गयी। पेत्रोग्राद और मास्को को खाद्य सामग्री भेजना
क़रीब-क़रीब खत्म हो गया था। एक के बाद दूसरा कारखाना बन्द होता गया और इस तरह, बेकारी बढ़ गयी। मजदूरों की हालत खास तौर से असह्य थी। अधिकाधिक लोग इस नतीजे पर पहुंचते जाते थे कि इस असहनीय हालत को खत्म करने का एक ही तरीक़ा है कि निरंकुश ज़ारशाही को खत्म किया जाये।
स्पष्ट ही, ज़ारशाही मौत के संकट में पड़ी हुई थी।
पूंजीपतियों ने सोचा कि महल में बलात सत्ता हथिया कर इस संकट को हल करें।
लेकिन, जनता ने उसे अपने ढंग से हल किया।
5. फ़रवरी क्रांति। ज़ारशाही का पतन। मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतों का निर्माण। अस्थाई सरकार का निर्माण। दुहरी सत्ता।
1917 के साल की शुरूआत 9 जनवरी की हड़ताल से हुई। इस हड़ताल के दौर में पेत्रोग्राद, मास्को, बाकू और निज्नीनवगरोद में प्रदर्शन हुए। मास्को में लगभग एक-तिहाई मजदूरों ने 9 जनवरी की हड़ताल में हिस्सा लिया। त्वेस्र्कोयी राज मार्ग पर दो हजार आदमियों के प्रदर्शन को पुलिस सवारों ने तितर-बितर कर दिया। पेत्रोग्राद में, विबोर्ग मार्ग पर एक प्रदर्शन में सैनिक भी शामिल हो गये।
पेत्रोग्राद की पुलिस ने रिपोर्ट दी: "आम हड़ताल का विचार नित नये लोगों के दिल में घर करता जा रहा है और उतना ही लोकप्रिय होता जाता है जितना वह 1905 में था।"
मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों ने कोशिश की कि इस नवजात क्रांतिकारी आन्दोलन को उन्ही राहों में ले जायें जो उदारपंथी पूंजीतियों के लिये ज़रूरी थे। मेन्शेविकों ने प्रस्ताव किया कि राज्य दूमा के आरंभ के दिन 14 फ़रवरी को, वहां मजदूरों का जुलूस बना कर ले जाया जाये। लेकिन, मजदूर जनता बोल्शेविकों के साथ थी और वह दूमा न जाकर प्रदर्शन के लिये निकल पड़ी।
18 फ़रवरी 1917 को पेत्रोग्राद के पुतिलोव कारखाने में हड़ताल शुरू हो गयी। 22 फ़रवरी को, ज्यादातर बडे़ कारखानों के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। 23 फ़रवरी (8 मार्च) को, अंतर्राष्टीय महिला-दिवस पर पेत्रोग्राद बोल्शेविक कमिटी के बुलावे पर, मेहनतकश औरतें भुखमरी, युद्ध और ज़ारशाही के खिलाफ़ प्रदर्शन करने के लिये सड़कों पर, आ गयीं। पेत्रोग्राद के मजदूरों ने नगरव्यापी हड़ताल-आन्दोलन करके मेहनतकश औरतों के प्रदर्शन का समर्थन किया। राजनीतिक हड़ताल ज़ारशाही व्यवस्था के खिलाफ़ एक आम राजनीतिक प्रदर्शन का रूप लेने लगी।
24 फ़रवरी (9 मार्च) को, प्रदर्शन और भी जोरशोर से जारी किया गया। लगभग दो लाख मजदूर हड़ताल पर थे ही।
25 फ़रवरी (10 मार्च) को, समूचा मजदूरों का पेत्रोग्राद क्रांतिकारी आन्दोलन में शामिल हो गया। जिलों की राजनीतिक हड़तालें समूचे शहर की आम राजनीतिक हड़ताल में घुल-मिल गयीं। हर जगह प्रदर्शन और पुलिस से टक्करें हुईं। मजदूरों के जन समूह पर लाल झंडे लहराते थे, जिनके ऊपर लिखा था: 'जार का नाश हो!' 'युद्ध मुर्दाबाद!' 'हमें रोटी दो!'
26 फ़रवरी (11 मार्च ) के सबेरे, राजनीतिक हड़ताल और प्रदर्शन ने विद्रोह का रूप लेना शुरू किया। मज़दूरों ने सादी और हथियारबन्द पुलिस से हथियार छीन लिये और खुद हथियारों से लैस हो गये। फिर भी, पुलिस से हथियारबन्द टक्कर का अंत ज्नामेन्स्काया चैराहे पर एक प्रदर्शन पर गोलियां चलने में हुआ।
पेत्रोग्राद फ़ौजी इलाके़ के सेनापति जनरल खबालोव ने ऐलान किया कि मजदूर 28 फ़रवरी (13 मार्च) को काम पर जरूर वापस जायें, वर्ना वे सब युद्ध के मोर्चे पर भेज दिये जायेंगे। 25 फ़रवरी (10 मार्च) को ज़ार ने जनरल खबालोव को हुकुम दिया: "मैं तुम्हें हुकुम देता हंू कि ज्यादा से ज्यादा कल तक राजधानी की सब गड़बड़ बन्द कर दो!"
लेकिन, क्रांति को 'बन्द कर दो', अब यह सम्भव न था।
26 फ़रवरी (11 मार्च) को, पावलोस्की पलटन की रिजर्व बटालियन की चैथी कम्पनी ने गोली चलाई, लेकिन मज़दूरों पर नहीं बल्कि पुलिस सवारों के जत्थों पर जो मजदूरों से टक्कर ले रहे थे। फ़ौजियों को अपनी तरफ़ करने के लिये बहुत ही जोरदार और जमकर कोशिश की गयी, खास तौर से मजदूर औरतों की तरफ़ से, जिन्होंने सीधे फ़ौजियों से अपील की, उनसे भाईचारा क़ायम किया और उन्हें बुलावा दिया कि घृणित ज़ारशाही का खात्मा करने में जनता का साथ दें।
उस समय हमारी पार्टी की केन्द्रीय समिति की ब्यूरो बोल्शेविक पार्टी के अमली काम का संचालन करती थी। उसका हैड क्वार्टर पेत्रोग्राद में था और उसके अगुआ काॅमरेड मोलोतोव थे। 26 फ़रवरी (11 मार्च) को, केन्द्रीय समिति की ब्यूरो ने एक घोषणापत्र निकाला जिसमें लोगों को बुलावा दिया गया कि ज़ारशाही के खिलाफ़ हथियारबन्द संघर्ष जारी रखें और अस्थायी क्रांतिकारी सरकार बनायें।
27 फ़रवरी (12 मार्च) को, पेत्रोग्राद की फ़ौज ने मजदूरों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया और विद्रोह में जनता का साथ देने लगी। 27 फ़रवरी के सबेरे तक जितने सिपाही विद्रोह में शामिल हुए उनकी तादाद दस हजार से ज्यादा न थी, लेकिन उस दिन की शाम तक ही उनकी तादाद साठ हजार तक पहुच गयी।
जो मजदूर और सिपाही विद्रोह करने के लिये उठ खडे़ हुए थे, उन्होंने ज़ार के मंत्रियों और जनरलों को गिरफ्तार करना और क्रांतिकारियों को जेल से छोड़ना शुरू कर दिया। छूटे हुए राजनीतिक बंदी क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल हो गये।
सड़कों पर पुलिस और ऊंचे कोठों पर मशीनगनें लगाये हथियारबन्द दस्ते गोली चला रहे थे। लेकिन, फ़ौज तेजी से मजदूरों की तरफ़ आ गयी और इस बात ने निरंकुश जारशाही की तक़दीर का फ़ैसला कर दिया।
जब पेत्रोग्राद में क्रांति की विजय का सामाचार दूसरे शहरों और युद्ध के मोर्चे पर पहुंचा, तो मजदूर और सिपाही ज़ार के अफ़सरों को हटाने लगे।
फ़रवरी की पूंजीवादी-जनवादी क्रांति की जीत हुई।
क्रांति की जीत इसलिये हुई कि इसका हिरावल मजदूर वर्ग था फ़ौजी वर्दी पहने हुए और 'शान्ति, रोटी और आजादी' मांगते हुए, लाखों किसानों के आन्दोलन का मजदूर वर्ग ने नेतृत्व किया। सर्वहारा वर्ग के एकदम नेतृत्व ने ही क्रांति की सफलता निश्चित कर दी।
क्रांति के प्रारंभिक दिनों में, लेनिन ने लिखा था:
"क्रांति मज़दूरों ने की थी। मजदूरों ने वीरता दिखलायी; उन्होंने अपना खून बहाया; वे अपने साथ मेहनतकश और ग़रीब जनता को बहा ले गये।" (लेनिन, संÛगं्रÛ, रूÛसंÛ, खण्ड 20, पृष्ठ 23-24)।
पहली क्रांति ने, 1905 की क्रान्ति ने, दूसरी क्रान्ति, 1917 की क्रान्ति की तुरंत कामयाबी के लिये रास्ता साफ़ कर दिया था।
लेनिन ने लिखा था:
"1905-'07 के तीन वर्षों में, रूसी मजदूरों ने जो क्रांतिकारी शक्ति दिखलायी, उसके बिना और जबर्दस्त वर्ग-युद्धों के बिना दूसरी क्रांति संभवतः इतनी तेजी से न हो पाती। तेजी का मतलब यह कि इसकी शुरू की मंजिल कुछ दिनों में ही पूरी हो गयी।" (लेनिन, सं.गं.र., अंग्रेजी संस्करण, मास्को 1947, खण्ड 1, पृष्ठ 735)।
क्रांति के प्रारंभिक दिनों में ही सोवियतें बन गयीं। विजयी क्रांति को मजदूर और फौजी प्रनिनिधियों की सोवियतों के समर्थन का आधार मिला। जिन मजदूरों और सैनिकों ने विद्रोह किया, उन्होंने मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतें बना लीं। 1905 की क्रांति ने दिखा दिया था कि सोवियतें सशस्त्र विद्रोह का साधन थीं, और साथ ही एक नयी क्रांतिकारी सत्ता का बीज थीं। आम मजदूर जनता के मन में सोवियतों की बात जीवित रही और जैसे ही ज़ारशाही का तख्ता उल्टा गया, वैसे ही वह उसे अमल में ले आयी। अंतर इतना था कि 1905 में सिर्फ़ मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतें बनी थीं, जबकि फरवरी 1917 में बोल्शेविकों की पहलकदमी पर मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतें बनीं।
जबकि बोल्शेविक सीधे सड़कों पर जन संघर्षों का नेतृत्व कर रहे थे, समझौतावादी पार्टियां - मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी - सोवियतों में सीटों पर क़ब्जा कर रही थीं और वहां अपना बहुमत बना रही थीं। आंशिक रूप में, उन्हें इस काम में इसलिये भी सफलता मिली कि बोल्शेविक पार्टी के अधिकांश नेता जेल या निर्वासन में थे (लेनिन विदेश में निर्वासित थे और स्तालिन तथा स्वेर्दलोव साईबेरिया में निर्वासित थे) जबकि मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी आज़ादी से पेत्रोग्राद की सड़कों पर सैर करते थे। नतीजा यह हुआ कि पेत्रोग्राद-सोवियत और उसकी कार्यकारिणी समिति के अगुआ समझौतावादी पार्टियों के प्रतिनिधि, मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी थे। मास्को और कई दूसरे शहरों में भी यही बात थी। सिर्फ़ इवानोवोवज्ने़सेंस्क, क्रासनोयास्र्क और दूसरी कई जगहों में शुरू से ही सोवियतों में बोल्शेविकों का बहुमत था।
सशस्त्र जनता - मजदूर और सैनिक - सोवियतों को अपने प्रतिनिधि इस तरह भेजती थी कि जैसे जन सत्ता की संस्था को भेज रही हो। वे समझते थे और विश्वास करते थे कि मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत क्रांतिकारी जनता की सभी मांगे पूरी करेगी और सबसे पहले शान्ति क़ायम की जायेगी।
लेकिन, मजदूरों और सैनिकों के इस निराधार विश्वास ने उन्हें नुकसान पहंुचाया। समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविकों की जरा भी मंशा न थी कि युद्ध खत्म किया जाये, शांति हासिल की जाये। उन्होंने योजना बनायी थी कि क्रांति से फायदा उठाकर युद्ध चालू रखा जाये। जहां तक क्रांति और जनता की क्रांतिकारी मांगों का सवाल था, समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक समझते थे कि क्रांति अब खत्म हो चुकी है। काम अब यह रह गया है कि उस पर मुहर लगा दी जाये और पूंजीपतियों के साथ-साथ 'साधारण' वैधानिक जीवन बिताया जाये। इसलिये, पेत्रोग्राद-सोवियत के समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेताओं ने भरसक कोशिश की कि युद्ध को खत्म करने का सवाल दबा दिया जाये, शान्ति का सवाल दबा दिया जाये और सत्ता पूंजीपतियों को सौंप दी जाये।
27 फ़रवरी (12 मार्च) 1917, चैथी राज्य दूमा के उदारपंथी सदस्यों ने समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेताओं के साथ गुप्त समझौता करके राज्य दूमा की अस्थायी कमिटी बनायी। इस कमिटी का अगुआ दूमा का सभापति रोदजियांको था, जो जमींदार और सम्राटõादी था। और कुछ ही दिन बाद, राज्य दूमा की अस्थायी कमिटी और मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत की कार्यकारिणी समिति के समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेताओं ने बोल्शेविकों से छिपाकर रूस में एक नयी सरकार बनाने के लिये समझौता कर लिया। यह एक पूंजीवादी अस्थायी सरकार थी, जिसका अगुआ प्रिंस ल्वोव था। यह वह आदमी था जिसे फ़रवरी क्रांति से पहले ही ज़ार निकोलस द्वितीय अपनी हुकूमत का प्रधान मंत्री बनाने वाला था। अस्थायी सरकार में काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैटों का प्रधान मिल्यूकोव, अक्तूबर पंथियों का प्रधान गुचकोव और पूंजीवादी वर्ग के दूसरे प्रमुख प्रतिनिधि और 'जनतंत्र' का प्रतिनिधि समाजवादी क्रांतिकारी करैन्स्की - सभी शामिल थे।
और इस तरह, सोवियत की कार्यकारिणी समिति के समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेताओं ने सत्ता पूंजीपतियों को सौंप दी। फिर भी, जब मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों ने यह सब जाना, तो उसके बहुमत ने, बाकायदा बोल्शेविकों के विरोध के बावजूद, समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेताओं के काम को पास कर दिया।
इस तरह, रूस में एक नयी राज्य सत्ता पैदा हुई जिसमें, लेनिन के शब्दों में, 'पंूजीपतियों और पूंजीपति बन जाने वाले जमींदारों' के प्रतिनिधि शामिल थे।
लेकिन पूंजीवादी हुकूमत के साथ-साथ, एक दूसरी सत्ता मौजूद थी - मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत। सोवियत में सैनिक प्रतिनिधि ज्यादातर किसान थे, जो युद्ध के लिये भर्ती किये गये थे। मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत ज़ारशाही के खिलाफ़ मजदूरों और किसानों के सहयोग की संस्था थी और इसके साथ ही उनकी सत्ता की संस्था थी, मजदूर वर्ग और किसानों की डिक्टेटरशिप की संस्था थी।
इसका फल यह हुआ कि दो सत्तायें, दो डिक्टेटरशिप विचित्र ढंग से आपस में गुंथ गयीं: पूंजीपतियों की डिक्टेटरशिप, जिसकी प्रतिनिधि अस्थायी सरकार थी और मजदूरों और किसानों की डिक्टेटरशिप, जिसकी प्रतिनिधि मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत थी।
इसका नतीजा निकला - दुहरी सत्ता।
इसका क्या सबब है कि आरंभ में सोवियतों में बहुमत मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों का था ?
इसका क्या सबब है कि विजयी मजदूरों और किसानों ने खुद अपनी तरफ से सत्ता पूंजीपतियों के प्रतिनिधियों को सौंप दी ?
लेनिन ने इसकी व्याख्या करते हुए बतलाया कि लाखों आदमी, जो राजनीति में अनुभवहीन थे, जाग उठे थे और राजनीतिक कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिये ज़ोरों से आगे बढ़ आये थे। ये लोग ज्यादातर छोटे मालिक, किसान, कुछ दिन तक किसानी करने वाले मजदूर थे, ऐसे लोग जो पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच में थे। उस समय, यूरोप के सभी बडे़ देशों में रूस सबसे ज्यादा निम्नपूंजीवादी देश था। और, इस देश में "एक विराट निम्नपूंजीवादी लहर हर चीज पर छा गयी है और उसने न सिर्फ़ तादाद से बल्कि विचारधारा से भी वर्ग-चेतन सर्वहारा को मोह लिया है। उसने मजदूरों के बहुत बडे़ हिस्से को निम्नपूंजीवादी राजनीतिक दृष्टिकोण की छूत लगा दी है और उसके मन में यह दृष्टिकोण बिठा दिया है।" (लेनिन, संÛग्रंÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खण्ड 2, पृष्ठ 29)।
इस शक्तिशाली निम्नपूंजीवादी लहर ने मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी पार्टियों को सबसे आगे ला खड़ा किया।
लेनिन ने बतलाया कि एक दूसरा कारण यह है कि युद्ध के दौर में सर्वहारा की बनावट में तब्दीली हुई और क्रांति के आरंभ में सर्वहारा की वर्ग-चेतना और संगठन नाकाफ़ी थे। युद्ध के दौर में, खुद सर्वहारा के अन्दर भारी तब्दीली हुई थी। नियमित मजदूरों में से लगभग 40 फीसदी फ़ौज में भर्ती कर लिये गये थे। बहुत से छोटे मालिक, दस्तकार और दूकानदार भर्ती से बचने के लिये कारखानों में काम करने लगे थे, लेकिन उनके लिये सर्वहारा की जहनीयत एक ग़ैर चीज़ थी।
मज़दूरों के ये निम्नपूंजीवादी हिस्से ही वह जमीन थे जहां निम्न-पूंजीवादी राजनीतिक, मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी पनपते थे।
यही सबब है कि राजनीति अनुभवहीन लोगों की भारी तादाद इस शक्तिशाली निम्नपूंजीवादी भंवर में सिमट आयी। क्रांति की पहली सफलताओं से मदहोश होकर, उन्होंने अपने को शुरू के महीने में समझौतावादी पार्टियों के असर में पाया और इस सीधे-सादे विश्वास में कि पूंजीवादी सत्ता सोवियतों का काम न रोकेगी, वे पूंजीपतियों को राज्य सत्ता सौंपने के लिये राजी हो गये।
बोल्शेविक पार्टी के सामने अब यह काम था कि धीरज के साथ व्याख्या करके लोगों की आंखें खोले कि अस्थायी सरकार का रूप साम्राज्यवादी है, समाजवादी क्रांतिकारियों और मेन्शेविकों की ग़द्दारी का पर्दाफ़ाश करे और यह दिखलाये कि शान्ति तब तक हासिल नहीं हो सकती जब तक कि अस्थायी सरकार की जगह सोवियतों की सरकार न ले।
और, बोल्शेविक पार्टी अपनी पूरी शक्ति से इस काम में जुट गई।
उसने अपनी कानूनी पत्रिकाओं को छापना फिर से जारी किया। फ़रवरी क्रांति के पंाच दिन बाद, पेत्रोग्राद से प्राब्दा अखबार निकलने लगा और कुछ दिन बाद मास्को से सोत्सियाल देमोक्रात निकलने लगा। पार्टी आम जनता का नेतृत्व संभालने लगी। आम जनता उदारपंथी पूंजीपतियों और मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों में अपना विश्वास खोने लगी थी। पार्टी ने धीरज से सैनिकों और किसानों को समझाया कि मजदूर वर्ग के साथ मिलकर काम करना, क्यों जरूरी है। उसने उन्हें समझाया कि किसानों को तब तक न तो शान्ति मिलेगी, न जमीन, जब तक कि क्रांति को और आगे न बढ़ाया जायेगा और पूंजीवादी अस्थायी सरकार की जगह सोवियतों की सरकार न कायम की जायेगी।
सारांश
साम्राज्यवादी युद्ध पूंजीवादी देशों के विषम विकास से, मुख्य शक्तियों का संतुलन खत्म होने से, युद्ध के ज़रिये दुनिया का फिर से बंटवारा करने और नया संतुलन कायम करने के लिये साम्राज्यवादियों की जरूरत से आरंभ हुआ।
युद्ध इतना विनाशकारी न होता और शायद इतना विशाल भी न बन पाता अगर दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियों ने मजदूर वर्ग के पक्ष से गद्दारी न की होती, अगर उन्होंने दूसरी इन्टरनेशनल की कांगे्रसों के युद्ध-विरोधी फैसलों को तोड़ा न होता, अगर अपनी साम्राज्यवादी हुकूमतों के खिलाफ, जंगबाजों के खिलाफ़, उन्होंने मज़दूर वर्ग को जमाने और काम करने में हिम्मत दिखाई होती।
बोल्शेविक पार्टी ही एक सर्वहारा पार्टी थी जो समाजवाद और अंतर्राष्टीयता के पक्ष के प्रति वफ़ादार रही और जिसने अपनी ही साम्राज्यवादी हुकूमत के खिलाफ़ गृह-युद्ध का संगठन किया। दूसरी इन्टरनेशनल की सभी दूसरी पार्टियां अपने नेताओं के ज़रिये पूंजीपतियों से बंधी हुई थीं, इसलिये उन्होंने अपने ऊपर साम्राज्यवाद को हावी पाया और वे भाग कर साम्राज्यवादियों से जा मीलीं।
युद्ध पूंजीवाद के आम संकट का प्रतिबिम्ब था। इसके साथ ही, उसने इस संकट को और तेज किया और विश्वपूंजीवाद को कमजोर बनाया। दुनिया में सबसे पहले रूस के मजदूरों और बोल्शेविक पार्टी ने सफलता से पूंजीवाद की कमजोरी का फायदा उठाया। उन्होंने साम्राज्यवादी मोर्चे में दरार डाली, ज़ार का तख़्ता उलट दिया और मजदूर तथा सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतें कायम की।
क्रांति की प्रारंभिक सफलताओं से मदहोश होकर और मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों के विश्वास दिलाने पर कि आगे से सब कुछ ठीक होगा ग़ाफिल होकर, निम्नपूंजीवादियों में से अधिकांश, सैनिक और मजदूर भी अस्थायी सरकार में विश्वास करने और उसका समर्थन करने लगे।
बोल्शेविक पार्टी के सामने यह काम था कि प्रारंभिक सफलताओं से मदहोश आम मजदूरों और सैनिकों को समझाये कि क्रांति की पूरी जीत अब भी बहुत दूर है कि जब तक सत्ता पूंजीवादी अस्थायी सरकार के हाथ में है और जब तक सोवियतों में समझौतावादियों - मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों - का बोलबोला है, तब तक जनता को न शान्ति मिलेगी, न जमीन मिलेगी, न रोटी मिलेगी; और पूरी जीत हासिल करने के लिये एक कदम और उठाना होगा और सत्ता सोवियतों को सौंपनी होगी।
No comments:
Post a Comment