पांचवा अध्याय
प्रथम साम्राज्यवादी युद्ध के पहले मज़दूर आन्दोलन की नयी उठान के दौर में बोल्शेविक पार्टी।
(1912-1914)
1. 1912-'14 के दौर में क्रान्तिकारी आन्दोल न की उठान।
स्तोलिपिन प्रतिक्रियावाद की जीत थोड़े दिनों तक कायम रही। वह हुकूमत, जो जनता को लाठी और फांसी के सिवा कुछ और न दे सकती थी, कायम न रह सकती थी। दमन इतना आम हो गया कि लोगों में उसका डर न रहा। क्रान्ति की पराजय के बाद, हाल के वर्षों में मजदूरों में जो थकान फैल गयी थी, वह खत्म होने लगी। मजदूरों ने लड़ाई फिर शुरु की। बोल्शेविकों ने पहले से ही कहा था कि क्रान्ति के ज्वार में नयी उठान आयेगी। उनका यह कहना सच साबित हुआ। 1911 में हड़तालियों की तादाद एक लाख से ऊपर थी, जबकि इससे पहले के वर्षों में पचास हजार या साठ हजार से ज्यादा नहीं हुई थी। जनवरी 1912 में होने वाली प्राग पार्टी कांफ्रेंस ने ही मजदूर आन्दोलन के पुनर्जीवन की शुरुआत नोट की थी। लेकिन, क्रान्तिकारी आन्दोलन की असली उठान अप्रैल और मई 1912 में शुरु हुई, जबकि साइबेरिया में लीना की सोने की खानों में मजदूरों पर गोली चलाने के सिलसिले में आम राजनीतिक हड़तालें होने लगीं।
4 अप्रैल 1912 को, साइबेरिया में लीना की सोने की खानों में एक हड़ताल के दौर में हथियारबन्द पुलिस के एक ज़ारशाही अफ़सर के हुकूम से 500 से ऊपर मजदूर मारे गये या घायल हुए। लीना के खान-मजदूरों की एक निहत्थी जमात प्रबन्धकों से बातचीत करने जा रही थी। उस पर गोली चलाने से सारे देश में हलचल पैदा हुई। निरंकुश ज़ारशाही ने यह नया खूनी कांड खान-मजदूरों की एक आर्थिक हड़ताल तोड़ने के लिये और इस तरह लीना की सोने की खानों के मालिकों, अंग्रेज पूंजीपतियों को खुश करने के लिये किया था। अंग्रेज पूंजीपतियों और उनके रूसी साझीदारों को मजदूरों का बहुत ही शर्मनाक शोषण करके लीना की सोने की खानों से भारी मुनाफ़ा - सत्तर लाख रुबल सालाना से ऊपर - मिलता था। वे मजदूरों को बहुत ही कम तनख़ाह देते थे और सड़ा हुआ खाना देते थे जो खाया न जा सकता था। इस उत्पीड़न और अपमान को और ज्यादा न सह पाकर, लीना की सोने की खानों के छः हजार मजदूरों ने हड़ताल कर दी।
पीतरबुर्ग, मास्को और दूसरे औद्योगिक केन्द्रों और प्रदेशों के सर्वहारा वर्ग ने लीना के गोलीकांड का जवाब आम हड़तालों, प्रदर्शनों और सभाओं से दिया।
कारखानों के एक गुट के मजदूरों ने अपने प्रस्ताव में ऐलान किया: "हमको इतना सदमा और ताज्जुब हुआ कि हमें अपने भाव प्रकट करने के लिये पहले शब्द नहीं मिले। हम लोग जो भी विरोध करेंगे, वह हमारे दिलों में जो गुस्सा घुमड़ रहा है, उसकी हल्की छाया भर होगा। न आँसू, न विरोध, संगठित आम लड़ाई के अलावा और कोई चीज़ कारगर नहीं हो सकती।"
ज़ार के मंत्री माकारोव से लीना गोलीकांड के विषय में राज्य दूमा में जब सोशल-डमोक्रैटिक गुट ने सवाल पूछे तो उसने बदतमीज़ी से कहा: "ऐसा ही हुआ है, ऐसा ही होगा! इससे मजदूरों की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी। लीना के मजदूरों के खूनी हत्याकांड के खिलाफ़, राजनीतिक विरोध-हड़तालों में हिस्सा लेने वालों की तादाद तीन लाख से ऊपर पहुंच गयी।
लीना की घटनायें एक तूफ़ान की तरह थीं, जिन्होंने स्तोलिपिन शासन की रची हुई 'शान्ति' के वातावरण को झकझोर दिया।
इस सिलसिले में, 1912 में काॅमरेड स्तालिन ने पीतरबुर्ग के बोल्शेविक अख़बार ज्वेज्दा (नक्षत्र) में लिखा था:
"लीना की हत्याकांड से खामोशी की बर्फ़ पिघल गयी है और जन आन्दोलन की धारा फिर बह चली है। बर्फ टूट चुकी है! ...मौजूदा शासन में जो कुछ बुराई अैर नीचता थी, सताये हुए रूस की जो तमाम तकलीफें़ थीं वे सब एक ही घटना में झलक उठीं - लीना का गोलीकांड। यही सबब है कि यह कांड हड़तालों और प्रदर्शनों के लिये एक सिगनल बन गया।"
विसर्जनवादियों और त्रात्स्की पंथियों ने क्रान्ति को दफ़ना देने की जो तमाम कोशिशें कीं, वे बेकार गयीं। लीना की घटनाओं ने दिखा दिया कि क्रान्ति की शक्तियां जीवित हैं, मजदूर वर्ग ने क्रान्तिकारी शक्ति की भारी निधि इकट्ठा कर ली थी। 1912 में, मई दिवस की हड़तालों में लगभग चार लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया। इन हड़तालों का राजनीतिक रूप काफी स्पष्ट था। वे बोल्शेविकों के क्रान्तिकारी नारों की छाया में हुई थीं: जनवादी-प्रजातंत्र कायम हो काम के आठ घंटे हों, और सभी रियासती जमीन जब्त कर ली जाये। इन मुख्य नारों का उद्देश्य यह था कि न सिर्फ आम मजदूरों को एक किया जाये बल्कि निरंकुश सत्ता पर क्रान्तिकारी धावा करने के लिये किसानों और सैनिकों को भी एक करें।
"तमाम रूस के सर्वहारा वर्ग की विशाल मई दिवस की हड़ताल में और उसके साथ होने वाले सड़कों पर प्रदर्शनों, क्रान्तिकारी ऐलानों और मजदूरों की सभाओं में क्रान्तिकारी भाषणों ने साफ दिखला दिया कि रूस क्रान्ति के उभार की मंजिल में पहुँच गया है।" - लेनिन ने "क्रान्तिकारी उठान" नाम के एक लेख में यह लिखा था। (लेनिन सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 1, पृृष्ठ 537)।
मजदूरों की क्रान्तिकारी भावना से घबड़ा कर विसर्जनवादियों ने हड़ताल-आन्दोलन का विरोध किया। उन्होंने उसे 'हड़तालों का बुखार' कहा। विसर्जनवादी और उनका साथी त्रात्सकी सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्ष की जगह 'अर्जी देने का आन्दोलन' चलाना चाहते थे। उन्होंने मजदूरों को बुलावा दिया कि वे एक अर्जी पर, एक काग़ज के टुकड़े पर, दस्तख़त करें और उसमें 'अधिकार' बख्शने की प्रार्थना करें (सभा करने के अधिकार पर से रोक हटायी जाये, हड़ताल करने के अधिकार पर से रोक हटाई जाये, इत्यादि)। उसके बाद, यह अर्जी राज्य दूमा को भेजी जाती। विसर्जनवादी ऐसे समय में 1,300 दस्तख़त इकट्ठे कर पाये, जबकि लाखों मजदूर बोल्शेविकों के क्रान्तिकारी नारों का समर्थन कर रहे थे।
मजदूर वर्ग ने बोल्शेविकों की दिखाई हुई राह को पसन्द किया। उस समय देश की आर्थिक हालत यह थी।
1910 में, औद्योगिक ठहराव के बाद, पुनर्जीवन आ चुका था, मुख्य उद्योग-धंधों में पैदावार बढ़ी थी। 1910 में, कच्चे लोहे की पैदावार 18 करोड 60 लाख पूड थी; 1912 में, 25 करोड़ 60 लाख पूड थी और 1913 में, वह 28 करोड़ 30 लाख पूड तक पहुँच गयी। कोयले की पैदावार 1910 में 1 अरब 52 करोड़ 20 लाख पूड से बढ़कर 1913 में 2 अरब 21 करोड़ 40 लाख पूड तक पहुँच गयी।
पूंजीवादी उद्योग-धंधों के प्रसार के साथ, सर्वहारा वर्ग की तेज़ी से बढ़ती हुई। उद्योग-धंधों के विकास की एक अपनी विशेषता यह थी कि विशाल और भारी भरकम कारखानों में पैदावार और भी केन्द्रित हो गयी। 1901 में, बड़े कारखानों में, जिनमें 500 या उससे ऊपर मजदूर काम करते थे, कुल मजदूरों के 46.7 फ़ीसदी लोग काम करते थे, लेकिन 1910 में यह तादाद बढ़ कर 54 फीसदी हो गयी, यानी कुछ मजदूरों में आधे से ज्यादा बड़े कारखानों में काम करते थे। उद्योग-धंधों में इस तरह का केन्द्रीयकरण अभूतपूर्व था। संयुक्त राष्टं अमरीका जैसे आगे बढ़े हुए देश में भी कुल मजदूरों की सिर्फ़ एक-तिहाई तादाद उस समय बड़े कारखानों में काम करती थी।
सर्वहारा वर्ग की बढ़ती और उसका बड़े कारखानों में केन्द्रित होना और उसके साथ ही बोल्शेविक पार्टी जैसी क्रान्तिकारी पार्टी का होना रूस के मजदूर वर्ग को देश के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी शक्ति बना रहा था। कारखानों में मजदूरों का जो भयानक रूप से शोषण होता था और उसके साथ ज़ार के पिटठुओं ने जो असहनीय पुलिस राज कायम कर रखा था, उससे हर बड़ी हड़ताल राजनीतिक रूप ले लेती थी। इसके सिवा, आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के घुलमिल जाने से आम हड़तालों में जबर्दस्त क्रान्तिकारी शक्ति पैदा हो जाती थी।
क्रान्तिकारी मजदूर आन्दोलन की अगली सफ़ों में पीतरबुर्ग का वीर सर्वहारा वर्ग चलता था। पीतरबुर्ग के बाद बाल्टिक प्रदेश, मास्को और मास्को प्रान्त, बोल्गा प्रदेश और दक्खिनी रूस थे। 1913 में, आन्दोलन पच्छिमी प्रदेश, पोलैंड और काकेशस में फैल गया। कुल मिलाकर सरकारी आकड़ों के अनुसार, 7 लाख 25 हजार मजदूरों ने, और ज्यादा सही आंकड़ों के अनुसार 10 लाख मजदूरों ने, 1912 की हड़तालों में हिस्सा लिया। 1913 की हड़तालों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 8 लाख 61 हजार मजदूरों ने, और ज्यादा सही आँकड़ों के अनुसार 12 लाख 72 हजार मजदूरों ने, हिस्सा लिया। 1914 के पूर्वार्द्ध में ही, हड़ताली मजदूरों की संख्या 15 लाख तक पहुँच चुकी थी।
1912-'14 की क्रान्तिकारी उठान में, हड़ताल-आन्दोलन के प्रवाह ने देश में ऐसी हालत पैदा कर दी जो 1905 की क्रान्ति के शुरु होने से पहले की हालत से मिलती-जुलती थी।
सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी आम हड़तालों का महत्व तमाम जनता के लिये था। ये हड़तालें निरंकुश सत्ता के खिलाफ़ थीं और उनके प्रति बहुसंख्यक मेहनतकश जनता ने हमदर्दी दिखाई। कारखानेदारों ने तालेबन्दी से मजदूरों को बाहर रखकर इसका जवाब दिया। 1913 में, मास्को प्रान्त में पूंजीपतियों ने 50,000 सूती मजदूरों को सड़कों पर निकाल दिया। मार्च 1914 में, पीतरबुर्ग में अकेले एक दिन में 70,000 मजदूर निकाले गये। दूसरे कारखानों और उद्योग-धधों के मजदूरों ने आम चन्दे करके और कभी-कभी हमदर्दी में हड़तालें करके तालेबन्दी से निकाले हुए साथियों और हड़तालियों की मदद की।
उठते हुए मजदूर आन्दोलन ने और आम हड़तालों ने किसानों को भी उभारा और उन्हें संघर्ष में खींच लिया। किसान फिर जमींदारों के खिलाफ़ बग़ावत करने लगे। उन्होंने जमींदारों की गढ़ियों और कुलक-खेतियों का नाश किया। 1910-'14 के सालों में किसानों का असन्तोष 13,000 बार से भी अधिक बार फूट पड़ा।
फ़ौज के अन्दर भी क्रान्तिकारी विद्रोह हुए। 1912 में, तुर्किस्तान में सशस्त्र विद्रोहों का जन्म हुआ। बाल्टिक समुद्री बेड़े में और सेवास्तोपोल में भी विद्रोह की आग सुलग रही थी।
बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में चलने वाले क्रान्तिकारी हड़ताल-आन्दोलन और प्रदर्शनों ने दिखला दिया कि मजदूर वर्ग आंशिक मांगों के लिये नहीं लड़ रहा, 'सुधारों' के लिये नहीं लड़ रहा बल्कि ज़ारशाही से जनता को आज़ाद करने के लिये लड़ रहा है। देश नयी क्रान्ति की तरफ बढ़ रहा था।
1912 की गर्मियों में, रूस के और नज़दीक आने के लिये लेनिन पैरिस से गैलीशिया (भूतपूर्व आॅस्टिंया) में चले आये। यहाँ उन्होंने केन्द्रीय समिति और प्रमुख पार्टी कार्यकर्ताओं के दो सम्मेलनों का सभापतित्व किया। इनमें से पहला 1912 के अंत में क्रेकाऊ में हुआ और दूसरा 1913 की शरद में क्रैकाऊ के नज़दीक पोरोनीनो नाम के कस्बे में हुआ। इन सम्मेलनों ने मजदूर आन्दोलन के अहम सवालों पर फैसले किये: क्रान्तिकारी आन्दोलन की उठान, हड़तालों के सिलसिले में पार्टी के काम, गैर कानूनी संगठनों को मजबूत करना, दूमा का सोशल-डेमोक्रैटिक गुट, पार्टी प्रेस, मजदूरों का बीमा कराने का आन्दोलन।
2. बोल्शेविक अख़बार 'प्राव्दा'। चौथी राज्य दूमा में बोल्शेविक गुट।
अपने संगठनों को मजबूत करना और आम जनता में अपना असर फैलाने के लिये, बोल्शेविक पार्टी ने जो एक शक्तिशाली हथियार इस्तेमाल किया, वह दैनिक बोल्शेविक अखबार प्राव्दा (सत्य) था। यह पीतरबुर्ग से प्रकाशित होता था। लेनिन के निर्देश के अनुसार, स्टालिन, ओलमिंस्की और पोलेतायेव की पहलकदमी पर इसकी स्थापना की गयी। प्राव्दा आम मजदूर जनता का अखबार था, जिसकी स्थापना क्रान्तिकारी आन्दोलन की नयी उठान के साथ ही हुई थी। उसका पहला अंक 22 अप्रैल (नयी शैली, 5 मई) 1912 को प्रकाशित हुआ। मजदूरों के लिये यह दरअसल उत्सव का दिन था। प्राव्दा के प्रकाशन के सम्मान में यह फैसला किया गया कि आगे से 5 मई को मजदूर-प्रेस-दिवस मनाया जायेगा।
प्राव्दा के प्रकाशन के पहले ही, बोल्शेविकों के पास ज्वेज्दा नाम का साप्ताहिक अखबार था। यह आगे बढ़े हुए मज़दूरों के लिये था। लीना कांड के समय, ज्वेज्दा ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उसने लेनिन और स्टालिन के लिखे हुए कई सतेज राजनीतिक लेख छापे, जिन्होंने संघर्ष के लिये मजदूर वर्ग को बटोरा। लेकिन उठते हुए क्रान्तिकारी ज्वार को देखते हुए, बोल्शेविक पार्टी की जरूरतें साप्ताहिक पत्र से पूरी न होती थीं। ज्यादा से ज्यादा आम मजदूर जनता के लिये एक राजनीतिक दैनिक अखबार जरूरी था। प्राव्दा ऐसा ही अखबार था।
इस दौर में, प्राव्दा की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण थी। आम मजदूर जनता में उसने बोल्शेविज़्म के लिये समर्थन हासिल किया। पुलिस बराबर दमन करती थी, जुर्माने होते थे और जो लेख और ख़त सेन्सर को पसन्द न आते थे, उनके प्रकाशन पर अंक ज़ब्त कर लिये जाते थे। ऐसी हालत में, लाखों आगे बढ़े हुए मजदूरों की मदद से ही प्राव्दा जिन्दा रह सकता था। मजदूरों में भारी चन्दा इकट्ठा होने से ही प्राव्दा बड़े-बड़े जुर्माने अदा कर पाया। अक्सर ऐसा होता था कि प्राव्दा के जब्त किये हुए अंकों की काफी प्रतियाँ पाठकों के हाथों में पहुंच ही जाती थीं। ज्यादा सक्रिय मजदूर रात में ही छापेखाने आते थे और अख़बार के बंडल बाँध ले जाते थे।
ढाई साल की अवधि में, ज़ार सरकार ने प्राव्दा को आठ बार बन्द कर दिया। लेकिन, हर बार मजदूरों की मदद से नये और मिलते-जुलते नामों से वह फिर निकल आया, जैसे जो प्राव्दा (सत्य के लिए), पूत प्राव्दी (सत्य का रास्ता), त्रुदोवाया प्राव्दा (मजदूर सत्य)।
प्राव्दा का दैनिक औसत चालीस हजार कापियों का था, लेकिन मेन्शेविक दैनिक लूच (किरण) की पन्द्रह या सोलह हजार से ज्यादा कापियाँ न निकल पाती थीं।
मज़दूर प्राव्दा को अपना ही अख़बार समझते थे। उन्हें उस पर बहुत भरोसा था और उसकी पुकार का वे तुरंत जवाब देते थे। बीसियों पाठक एक ही प्रति पढ़ते थे और वह प्रति हाथों-हाथ घूमा करती थी। प्राव्दा ने उनकी वर्ग-चेतना का निर्माण किया, उन्हें शिक्षित किया, उन्हें संगठित किया और संघर्ष के लिये उन्हें बुलावा दिया।
प्राव्दा किन चीज़ों के बारे में लिखता था?
हर अंक में मजदूरों के दर्जनों ख़त छपते थे। इनमें वे अपनी जिन्दगी बयान करते थे, पूंजीपति, मैनेजर और फोरमैन जिस बुरी तरह उनका शोषण करते थे और तरह-तरह से उन्हें सताते और बेइज्जत करते थे, उसे वे बयान करते थे। इन पत्रों में पूंजीवादी परिस्थिति की तीखी और ज़ोरदार आलोचना होती थी। प्राव्दा अक्सर बेकार और भूखे मरते हुए मजदूरों की आत्महत्या की रिपोटें छापता था। ये वह मजदूर थे जो फिर काम पाने की आशा छोड़ बैठे थे।
प्राव्दा विभिन्न कारखानों और उद्योग-धंधों के मजदूरों की मांगों और जरूरतों के बारे में लिखता था। वह बतलाता था कि मजदूर अपनी माँगों के लिये किस तरह लड़ रहे हैं। लगभग हर अंक में विभिन्न कारखानों में होने वाली हड़तालों की रिपोर्टें छपती थीं। बड़ी और लंबी चलने वाली हड़तालों में हड़तालियों की मदद करने के लिये, अख़बार दूसरे कारखानों और दूसरे उद्योग-धंधों के मजदूरों में चन्दे इकट्ठे करने में मदद देता था। कभी-कभी हड़ताल-फ़ंड में लाखों रूबल इकट्ठे हो जाते थे। उन दिनों के लिये, जबकि ज्यादातर मजदूरों को हर रोज 70 या 80 कोपैक न मिलता था, तब ये रकमें बहुत भारी थीं। इससे मजदूरों में सर्वहारा भाईचारा और तमाम मजदूरों के हितों की एकता का भाव पुष्ट हुआ।
मजदूर हर राजनीतिक घटना, हर जीत या हार की तरफ प्राव्दा को चिट्ठियां, अभिनन्दन या विरोध-पत्र भेज कर अपने भाव प्रकट करते थे। अपने लेखों में, प्राव्दा सुसंगत बोल्शेविक दृष्टिकोण से मजदूर आन्दोलन के कामों की चर्चा करता था। कानूनी तौर से छपने वाला अख़बार ज़ारशाही का खात्मा करने के लिये खुल्लमखुल्ला बुलावा न दे सकता था। उसे इशारे करने पड़ते थे, जिन्हें वर्ग-चेतन मजदूर बहुत अच्छी तरह समझ लेते थे और जिन्हें वे आम जनता को समझाते थे। मिसाल के लिये, जब प्राव्दा ने 'वर्ष 5 की पूरी और बिना कटी-छंटी मांगों' के बारे में लिखा तो मजदूर समझ गये कि इसका मतलब बोल्शेविकों के क्रान्तिकारी नारे हैं, यानी ज़ारशाही का खात्मा, जनवादी प्रजातंत्र, रियासती जमीन की जब्ती और काम के आठ घण्टे।
चौथी दूमा के चुनाव के पहले, प्राव्दा ने आगे बढ़े हुए मजदूरों को संगठित किया। उसने उन लोगों की गद्दारी का पर्दाफाश किया जो उदारपंथी पूंजीपतियों से समझौते की हिमायत करते थे, जो 'स्तोलिपिन लेबर पार्टी' के हिमायती थे, यानी मेन्शेविक। प्राव्दा ने मजदूरों से कहा कि वे उनको वोट दें जो 'वर्ष 5 की पूरी और बिना कटी-छंटी मांगों' का समर्थन करते थे, यानी बोल्शेविकों को वोट दें। चुनाव का तरीका सीधा न था बल्कि कई मंजिलों से होता था। पहले मजदूरों की सभायें प्रतिनिधि चुनती थीं। इसके बाद, प्रतिनिधि निर्वाचक चुनते थे। ये निर्वाचक की दूमा के लिये मजदूर प्रतिनिधियों के चुनाव में हिस्सा लेते थे। निर्वाचकों के चुनाव के दिन प्राव्दा ने बोल्शेविक उम्मीदवारों की एक सूची छापी और मजदूरों से सिफारिश की कि उस सूची के लिये वोट दें। सूची पहले न छप सकती थी वर्ना सूची में दिये हुए लोगों के गिरफ्तार होने का ख़तरा पैदा हो जाता।
प्राव्दा ने सर्वहारा वर्ग की आम कार्यवाही का संगठन करने में मदद दी। 1914 के वसन्त में, पीतरबुर्ग में एक बड़ी तालेबन्दी के वक्त, जबकि आम हड़ताल का ऐलान करना उचित न होता, प्राव्दा ने मजदूरों से कहा कि संघर्ष के दूसरे तरीके अपनाओ जैसे कि कारखानों में आम सभायें करना और प्रदर्शन करना। यह बात अख़बार में खुल कर न कही जा सकती थी। यह बात वर्ग-चेतन मजदूरों ने समझ ली जब उन्होंने लेनिन का लेख पढ़ा उसका सिरनामा बहुत ही सीधा-सादा था - "मजदूर आन्दोलन के रूप"। उसमें कहा गया था कि उस समय हड़तालों की जगह मजदूर आन्दोलन के और नये रूप अपनाने चािहये, जिसका मतलब था कि सभायें और प्रदर्शन किये जायें।
इस तरह से, बोल्शेविकों की गैरकानूनी क्रान्तिकारी कार्यवाही के साथ प्राव्दा के जरिये आम मजदूरों के संगठन और आन्दोलन के कानूनी रूप मिला दिये गये।
प्राव्दा मजदूरों की जिन्दगी के बारे में, उनकी हड़तालों और प्रदर्शनों के ही बारे में न लिखता था बल्कि बराबर किसानों की जिन्दगी, उन्हें सताने वाले अकाल और सामन्ती जमींदारों के शोषण का भी वर्णन करता था। वह बतलाता था कि किस तरह स्तोलिपिन 'सुधारों' की बदौलत कुलकों ने किसानों से उनकी सबसे अच्छी जमीन छीन ली थी। प्राव्दा ने वर्ग-चेतन मजदूरों का ध्यान गाँव में फैले हुए घोर असंतोष की तरफ खींचा। उसने सर्वहारा वर्ग को सिखलाया कि 1905 की क्रान्ति के उद्देश्य अभी हासिल नहीं हुए और एक नयी क्रान्ति होने वाली है। उसने सिखलाया कि इस दूसरी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग को जनता के सच्चे नेता और पथ-दर्शक का काम करना चाहिये और इस क्रान्ति में उसे क्रान्तिकारी किसानों जैसा ताकतवर साथी मिलेगा।
मेन्शेविक इस कोशिश में लगे थे कि मजदूर क्रान्ति का विचार छोड़ दें, जनता के बारे में सोचना बन्द कर दें, किसानों की भुखमरी के बारे में, यमराज सभा के सामन्ती ज़मींदारों के प्रभुत्व के बारे में सोचना छोड़ दें और केवल 'सभा करने की आजादी' के लिये लड़ें, इसके लिये ज़ार सरकार को 'अर्ज़ियाँ' भेजें। बोल्शेविकों ने मजदूरों को समझाया कि क्रान्ति को छोड़ने के इस मेन्शेविक शास्त्र का प्रचार, किसानों से सहयोग करने की नीति को छोड़ने का प्रचार, पूंजीपतियों के हित में किया जा रहा है। अगर मजदूर किसानों को अपना साथी बना लेंगे तो वे जरूरी ही ज़ारशाही को हरा देंगे। इसलिये, वे मेन्शेविकों जैसे बुरे रहबरों को क्रान्ति का दुश्मन समझ कर बाहर निकाल दें।
अपने "किसान जीवन" स्तम्भ में, प्राव्दा किन चीज़ों के बारे में लिखता था?
मिसाल के लिये, 1913 के साल के बारे में हम कुछ ख़त ले सकते हैं।
समारा से एक ख़त आया था, जिसका शीर्षक था - "किसान जीवन का नमूना"। उसमें लिखा था कि बुगुल्मा ज़िले के नोवोखासबुलात गाँव के 45 किसानों पर यह दोष लगाया गया था कि उन्होंने पैमायश करने वाले के काम में दखल दिया। वह पैमायश करने वाले कम्यून से निकलने वाले किसानों के लिये उनके हिस्से में पड़ी हुई कम्यून की ज़मीन की हदें बाँध रहा था। ज्यादातर किसानों को लम्बी क़ैद की सज़ा दी गयी।
प्सकोस सूबे से एक छोटे से ख़त में लिखा था कि "(ज़बाल्ये स्टेशन के पास) प्सित्सा गाँव के किसानों ने देहाती पुलिस का हथियारबन्द विरोध किया। कई आदमी घायल हो गये। लड़ाई एक खेती के झगड़े को लेकर हुई थी। देहाती पुलिस प्सित्सा को भेज दी गई है और वाइस गवर्नर और प्रोक्यूरेटर गाँव की तरफ आ रहे हैं।"
ऊफ़ा सूबे से एक ख़त में लिखा था कि किसानों के हिस्से बड़ी तादाद में बेचे जा रहे थे। अकाल और गाँव के कम्यून से निकलने की आज्ञा देने वाले कानून की वजह से, दिन पर दिन ज़्यादा किसान अपनी ज़मीन से हाथ धो रहे थे। मिसाल के लिये, बोरिसोव्का नाम का खेड़ा लीजिये। यहां पर 27 किसान परिवार हैं और उनके पास कुल मिलाकर 543 देसियातिन खेत हैं। अकाल में, पाँच किसानों ने 31 देसियातिन ज़मीन तुरंत ही बेच डाली। यह ज़मीन फ़ी देसियातिन 25 से 33 रुबल के भाव बिकी, हालांकि उसकी कीमत इससे तीन या चार गुनी थी। इसी गाँव में, सात किसानों ने कुल मिलाकर 177 देसियातिन खेत गिरवी रख दिये थे। छः साल तक 12 फ़ीसदी सालाना के हिसाब से उन्हें फ़ी देसियातिन 18-20 रुबल तक मिलते। जब जनता की गरीबी और ब्याज की भारी दर पर ध्यान देते हैं, तो यह निश्चत कहा जा सकता है कि 177 देसियातिन की आधी ज़मीन जरूर महाजन के पास चली जायेगी क्योंकि यह मुमकिन नहीं है कि आधे क़र्जदार भी इतनी बड़ी रक़म छः साल में दे पायेंगे।
प्राव्दा में प्रकाशित "रूस में बड़े जमींदारों और छोटे किसानों की ज़मीन की मिल्कियत" में, लेनिन ने मजदूरों और किसानों को बड़ी खूबी से दिखा दिया कि जांगरचोर ज़मींदारों के हाथ में कितनी ज्यादा रियासती ज़मीन है। 30,000 बड़े ज़मींदारों के बीच में ही 7 करोड़ देसियातिन ज़मीन घिरी हुई थी। इतनी ही ज़मीन एक करोड़ किसान कुनबों में घिरी थी। औसतन बड़े ज़मींदारों में हरेक के पास 2,300 देसियातिन ज़मीन थी, जबकि कुलकों को मिलाकर किसान परिवारों के पास फ़ी परिवार सात देसियातिन ही थी। इसके अलावा, छोटे किसानों के 50 लाख परिवार, यानि आधे किसान ऐसे थे जिनके पास फी आदमी एक या दो देसियातिन से ज़्यादा न होता था। इन आंकड़ों से साफ़ मालूम होता था कि किसानों की गरीबी और बार-बार पड़ने वाले अकालों की जड़ भूदास प्रथा की अवशेष ये बड़ी-बड़ी रियासतें ही हैं, जिनसे किसान-मजूदर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली क्रान्ति के ज़रिये ही वे छुटकारा पा सकते हैं।
जिन मज़दूरों को देहात से सम्बन्ध था, उनके ज़रिये प्राव्दा गाँवों में पहुँच जाता था और राजनीतिक रूप से आगे बढ़े हुए किसानों को क्रान्तिकारी संघर्ष के लिये उभारता था। जिस समय प्राव्दा की स्थापना हुई, उस समय गै़र कानूनी सोशल-डेमाक्रैटिक संगठन पूरी तरह बोल्शेविकों के नेतृत्व में थे। दूसरी तरफ़, संगठन के कानूनी रूप - जैसे कि दूमा गुट, प्रेस, रोगी-सहायता-समिति, टंेड यूनियन - अभी पूरी तरह मेन्शेविकों के हाथ से न निकाले गये थे। बोल्शेविकों को मजदूर वर्ग के मौजूदा कानूनी संगठनों से विसर्जनवादियों को निकालने के लिये डट कर मोर्चा लेना पड़ा। प्राव्दा की वजह से, इस लड़ाई का अंत जीत में हुआ।
पार्टी सिद्धान्त के लिये, आम मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के लिये संघर्ष में प्राव्दा बीचों-बीच में था। प्राव्दा ने बोल्शेविक पार्टी के गैरकानूनी केन्द्रों के चारों तरफ मौजूदा कानूनी संगठनों को इकट्ठा किया और एक निश्चित उद्देश्य की तरफ मजदूर आन्दोलन का संचालन किया - क्रान्ति की तैयारी के लिये। प्राव्दा के मजदूर संवाददाताओं की तादाद बहुत बड़ी थी। एक साल में ही, उसने मजदूरों के एक हजार से ऊपर ख़त छापे। लेकिन, प्राव्दा मजदूर जनता से सिर्फ ख़तों के ज़रिये सम्पर्क कायम न रखता था। रोज कारखानों से ढेरों मजदूर सम्पादकीय दफ्तर में आते थे। प्राव्दा के सम्पादकीय दफ़्तर में पार्टी के संगठनात्मक कार्य का एक बड़ा हिस्सा केन्द्रित था। यहां पर पार्टी केन्द्रों के प्रतिनिधियों की मीटिंगों का इंतजाम किया जाता था। यहाँ पर मिलों और कारखानों में पार्टी के काम की रिपोर्टंे ली जाती थीं। यहीं से पार्टी की पीतरबुर्ग-कमिटी और केन्द्रीय समिति के निर्देश बाहर भेजे जाते थे।
मजदूर वर्ग की आम क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के लिये ढाई साल तक विसर्जनवादियों के खिलाफ़ डट कर मोर्चा लेने के फलस्वरूप, 1914 की गर्मियों तक बोल्शेविक पार्टी के लिये और प्राव्दा की कार्यनीति के लिये बोल्शेविक रूस के राजनीतिक तौर से सक्रिय मजदूरों में से 80 फीसदी का समर्थन हासिल करने में सफल हुए। यह बात, मिसाल के लिये, इससे साबित हुई कि 1914 में मजदूर प्रेस के लिये कुल 7,000 मजदूर मंडलों ने चन्दा इकट्ठा किया; इनमें से 5,600 मंडलों ने बोलशेविक प्रेस के लिये चन्दा इकट्ठा किया; और सिर्फ़ 1,400 मंडलों ने मेन्शेविकों के लिये। लेकिन दूसरी तरफ, उदारपंथी पूंजीपतियों और पूंजीवादी बुद्धिजीवियों में मेन्शेविकों के बहुत से 'अमीर दोस्त' थे। मेन्शेविक अख़बार चलाने के लिये जितने पैसे की जरूरत होती थी, उसमें आधे से ज्यादा यही लोग दे देते थे।
उस समय, बोल्शेविक 'प्राव्दा पंथी' कहलाते थे। प्राव्दा ने क्रान्तिकारी मजदूरों की एक पूरी पीढ़ी पाल-पोस कर बड़ी की थी। यह वह पीढ़ी थी जिसने आगे चलकर अक्तूबर की समाजवादी क्रान्ति की। हजारों और लाखों मजदूर प्राव्दा की हिमायत करते थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन की उठान के दिनों (1912-'14) में, एक जन बोल्शेविक पार्टी की पक्की बुनियाद डाल दी गयी। यह ऐसी बुनियाद थी जिसे साम्राज्यवादी युद्ध के दौर में ज़ारशाही का तमाम दमन कुचल न सका।
"1912 का प्राव्दा 1917 में बोल्शेविज़्म की विजय की नींव का पत्थर था।" (स्तालिन)।
पार्टी की दूसरी कानूनी तौर पर चलने वाली केन्द्रीय संस्था चैथी राज्य दूमा का बोल्शेविक गुट था।
1912 में, हुकूमत ने चौथी दूमा के चुनाव का ऐलान किया। हमारी पार्टी ने चुनाव में हिस्सा लेने को बहुत ही महत्वपूर्ण समझा। आम जनता में बोल्शेविक पार्टी के क्रान्तिकारी काम के मुख्य आधार दूमा का सोशल-डेमोक्रैटिक गुट और प्राव्दा थे, जो कुल देश के पैमाने पर कानूनी तौर से काम करते थे।"
बोल्शेविक पार्टी ने दूमा के चुनाव में स्वतंत्र रूप से काम किया और अपने अलग नारे दिये। उसने एक तरफ सरकारी पार्टियों पर हमला किया और साथ ही दूसरी तरफ उदारपंथी पंूजीपतियों (काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैटों) पर हमला किया। चुनाव आन्दोलन में बोल्शेविकों के नारे थे: जनवादी प्रजातंत्र, काम के आठ घंटे और रियासती ज़मीन की ज़ब्ती।
1912 की शरद में, चैथी दूमा के चुनाव हुए। अक्तूबर के शुरु में, पीतरबुर्ग में चुनाव की प्रगति की दिशा से असन्तुष्ट होकर हुकूमत ने कई बड़े कारखानों में मजदूरों के चुनाव-अधिकारों पर बन्दिश लगाने की कोशिश की। इसके जवाब में, काॅमरेड स्टालिन के प्रस्ताव पर हमारी पार्टी की पीतरबुर्ग-कमिटी ने बड़े कारखानों के मज़दूरों से एक दिन की हड़ताल करने को कहा। मुश्किल में पड़कर, हुकूमत को झुकना पड़ा और मजदूर अपनी सभाओं में जिसे चाहते थे उसे चुन सके। मजदूरों के बहुसंख्यक हिस्से ने अपने प्रतिनिधियों और नुमायदों के लिये उस निर्देश-पत्र (मैन्डेट, नकाज़) पर वोट दिया, जिसे कामरेड स्तालिन ने तैयार किया था। "अपने मजदूर प्रतिनिधि के नाम पीतरबुर्ग के मजदूरों के निर्देश-पत्र" ने 1905 के अधूरे कामों को पूरा करने की तरफ ध्यान दिलाया।
निर्देश-पत्र में कहा गया था:
"...हम समझते हैं कि रूस में अब ऐसे जन आन्दोलन छिड़ने वाले हैं जो 1905 से ज्यादा गंभीर होंगे। ... 1905 की तरह, इन आन्दोलनों की पहली पांत में रूसी समाज का सबसे आगे बढ़ा हुआ वर्ग, रूसी सर्वहारा वर्ग होगा। उसका एक ही साथी बेहद सताये हुए किसान हो सकते हैं, जिन्हें रूस के उद्धार से भारी दिलचस्पी है।"
निर्देश-पत्र में कहा गया था कि जनता की अगली कार्यवाहियों को दो मोर्चों पर चलने वाले एक संघर्ष का रूप लेना चाहिये - ज़ारशाही सरकार के खिलाफ़ और उन उदारपंथी पूंजीपतियों के खिलाफ़ जो ज़ारशाही से समझौता करने की कोशिश कर रहे थे।
लेनिन ने निर्देश-पत्र (मैण्डेट) को बहुत महत्व दिया, जिसमें क्रान्तिकारी संघर्ष के लिये मजदूरों का आववान किया गया था। अपने प्रस्तावों में, मजदूरों ने इस आववान का स्वागत किया।
चुनावों में बोल्शेविकों ने एक जीत हासिल की और पीतरबुर्ग के मजदूरों ने दूमा के लिये काॅमरेड बादायेव को चुना।
दूमा के लिये चुनावों में मजदूरों ने आबादी के दूसरे हिस्सों से अलग वोट दिया (इसे मजदूर क्यूरिया कहते थे)। मजदूर क्यूरिया से जो 9 प्रतिनिधि चुने गये थे, उनमें से 6 बोल्शेविक पार्टी के सदस्य थे: बादायेव, पेत्रोव्स्की, मुरानोव, समाइलोव, शागोव और मालिनोव्स्की (यह आखिरी आदमी आगे चल कर उकसावा पैदा करने वाला दलाल सावित हुआ)। बोल्शेविक प्रतिनिधि बड़े औद्योगिक केन्द्रों से चुने गये थे, जिनमें कम से कम 80 फीसदी मजदूर केन्द्रित थे। दूसरी तरफ, कई चुने हुए विसर्जनवादी मजदूर क्यूरिया से मैण्डेट न लाये थे, यानी उन्हें मजदूरों ने नहीं चुना था। नतीजा यह कि दूमा में 6 बोल्शेविकों के मुकाबिले में 7 विसर्जनवादी थे। पहले तो दूमा में बोल्शेविकों और विसर्जनवादियों ने मिला-जुला सोशल-डेमोक्रेटिक गुट बनाया। विसर्जनवादी बोल्शेविकों के क्रान्तिवादी काम में अड़चन डालते थे। उनके खिलाफ़ जबर्दस्त संघर्ष करने के बाद, अक्तूबर 1913 में, पार्टी की केन्द्रीय समिति के निर्देश से, बोल्शेविक प्रतिनिधि मिलेजुले सोशल-डेमोक्रेटिक गुट से अलग हो गये और उन्होंने एक स्वतंत्र बोल्शेविक गुट बनाया।
बोल्शेविक प्रतिनिधि दूमा में क्रान्तिकारी भाषण देते थे, जिनमें वे स्वेच्छाचारी व्यवस्था का पर्दाफाश करते थे और मजदूरों पर दमन और पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का बर्बर शोषण करने के बारे में हुकूमत से सवाल करते थे।
वे दूमा में खेती के सवाल पर भी बोलते थे। सामन्ती जमींदारों के खिलाफ़ लड़ने के लिये, वे किसानों को बुलावा देते थे और काॅन्स्टीटयूनल डेमोक्रैटिक पार्टी का भंडाफोड़ करते थे, जो रियासती जमीन की ज़ब्ती और उसे किसानों को देने के खिलाफ़ थी।
बोल्शेविकों ने राज्य दूमा में काम के 8 घंटे करने के बारे में एक प्रस्ताव रखा। ज़ाहिर है कि इस यमराज सभा वालों की दूमा ने उसे मंजूर न किया, लेकिन प्रचार-आन्दोलन के लिये उसका भारी मूल्य था।
दूमा का बोल्शेविक गुट पार्टी की केन्द्रीय समिति और लेनिन से जऩदीकी सम्बन्ध कायम रखता था। लेनिन उन्हंें निर्देश भेजा करते थे। जिस समय काॅमरेड स्तालिन पीतरबुर्ग में रहते थे, वह खुद सीधे उनका पथ-दर्शन किया करते थे।
बोल्शेविक प्रतिनिधियों का काम दूमा के अन्दर ही सीमित न था। दूमा के बाहर भी वे बहुत सक्रिय रहते थे। वे मिलों और कारखानों में जाते थे और देश के मजदूर केन्द्रों का दौरा करते थे, जहाँ वे भाषण देते थे, गुप्त सभायें करते थे जिनमें वे पार्टी के फैसले समझाते थे, और नये पार्टी-संगठन बनाते थे। प्रतिनिधि बड़े कौशल से कानूनी काम के साथ गैरकानूनी, अंडरग्राउंड काम करते जाते थे।
3. कानूनी तौर से चलने वाले संगठनों में बोल्शेविकों की जीत। क्रान्तिकारी आन्दोलन की लगातार उठान। साम्राज्यवादी युद्ध से पहले।
इस दौर में, बोल्शेविक पार्टी ने मजदूरों के वर्ग-संघर्ष के सभी रूपों और सभी कार्यवाहियों में नेतृत्व करने की एक मिसाल रखी। उसने गैरकानूनी संगठन बनाये। उसने गैरकानूनी पर्चे निकाले। उसने आम जनता में गुप्त रूप से क्रान्तिकारी काम किया। इसके साथ ही, मजदूर वर्ग के विभिन्न कानूनी संगठनों का नेतृत्व बराबर हासिल करती रही। पार्टी ने कोशिश की कि टेंड यूनियनों को अपनी तरफ कर ले
और जन गृहों, शाम के विश्वविद्यालयों, क्लबों और रोगी-सहायक-समितियों में अपना असर कायम करे। ये कानूनी तौर से चलने वाले संगठन बहुत दिनों से विसर्जनवादियों के अड्डे बने हुए थे। बोल्शेविकों ने जोरदार लड़ाई शुरू की कि कानूनी तौर से चलने वाली संस्थायें पार्टी का गढ़ बन जाये। कानूनी और गैरकानूनी काम को चतुराई से मिलाकर, दोनों सबसे प्रमुख शहरों - पीतरबुर्ग और मास्को - के टेंड यूनियन संगठनों के बहुसंख्यक हिस्सों को बोल्शेविकों ने अपनी तरफ कर लिया। 1913 में, पीतरबुर्ग में धातु-मजदूरों के यूनियन की कार्यकारिणी समिति के चुनाव में खास तौर से शानदार जीत हासिल की गयी। जलसे में जो 3,000 धातु के मजदूर आये थे, उनमें मुश्किल से 150 ने विसर्जनवादियों को वोट दिया।
यही बात चैथी राज्य दूमा के सोशल-डेमोक्रैटिक गुट जैसे महत्वपूर्ण कानूनी संगठन के बारे में कही जा सकती है। हालांकि दूमा में मेन्शेविकों के 7 प्रतिनिधि थे और बोल्शेविकों के 6, फिर भी मेन्शेविक प्रतिनिधि मुख्य रूप से गैर मजदूर जिलों से चुने गये थे और वे मुश्किल से 20 फीसदी मजदूरों का प्रतिनिधित्व करते थे ; जबकि बोल्शेविक प्रतिनिधि देश के मुख्य औद्योगिक केन्द्रों (पीतरबुर्ग, मास्को, इवानोवोवज़्नेसेंस्क, कास्त्रोमा, एकातेरीनोस्लाव और खारकोव) से चुने गये थे और इस तरह, वे देश के 80 फ़ीसदी मजदूरों का प्रतिनिधित्व करते थे। मजदूर 6 बोल्शेविकों (बादायेव, पेत्रोव्स्की, वगैरह) को अपना प्रतिनिधि मानते थे, न कि 7 मेन्शेविकों को।
बोल्शेविक कानूनी तौर से चलने वाले संगठनों को अपनी तरफ कर सकने में इसलिये सफल हुए कि ज़ार सरकार के भयानक जुल्म और विसर्जनवादियों तथा त्रात्स्की पंथियों की गालियों के बावजूद, वे गैरकानूनी पार्टी को कायम रख सके और अपनी पांति में मजबूत अनुशासन बनाये रख सके। उन्होंने दृढ़ता से मजदूर वर्ग के हितों की रक्षा की। आम जनता से उनके नज़दीकी सम्बन्ध थे और वे मजदूर आन्दोलन के दुश्मनों के खिलाफ़ बिना समझौते के लड़ते थे।
इस तरह, कानूनी तौर से चलने वाले संगठनों में बोल्शेविकों की जीत और मेन्शेविकों की हार पूरे मोर्चें पर हुई। दूमा के मंच से आन्दोलन करने में और मजदूरों के अख़बार और कानूनी तौर से चलने वाले दूसरे संगठनों में, मेन्शेविकों को पीछे हटना पड़ा। मजदूर वर्ग में क्रान्तिकारी आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया। मजदूर वर्ग निश्चित रूप से बोल्शेविकों के चारों तरफ सिमट आया और उसने मेन्शेविकों को दूर भगा दिया।
इस सबके बाद, जातियों के मसले पर भी मेन्शेविक पूरी तरह दिवालिये साबित हुए। रूस के सीमान्त प्रदेशों में क्रान्तिकारी आन्दोलन की माँग थी कि जातियों के सवाल पर स्पष्ट कार्यक्रम हो। लेकिन, मेन्शेविकों के पास बुन्द की 'सांस्कृतिक खुदमुख़्तारी' के अलावा, जिससे किसी को संतोष न होता था, और कोई कार्यक्रम न था। सिर्फ़ बोल्शेविकों के पास जातियों के मसले पर एक मार्क्सवादी कार्यक्रम था।, जैसा कि वह कामरेड स्तालिन के लेख "मार्क्सवाद और जातियों का सवाल" और लेनिन के लेखों "जातियों के आत्मनिर्णय का अधिकार" तथा "जातीय प्रश्न पर टीका-टिप्पणी" में पेश किया गया था।
कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसी हारें खाने के बाद मेन्शेविकों का अगस्त गुट टूटने लगा। भानमती का कुनबा वह था ही, वह बोल्शेविकों का धावा न सह सका और बिखरने लगा। वह बोल्शेविज़्म का विरोध करने के लिये बना था; अब बोल्शेविकों की मार से उसकी धज्जियाँ उड़ गयीं। सबसे पहले, उससे व्पेरियोदपंथी (बुग्दानोव, लूनाचास्र्की) निकले उनके बाद लेत निकले और उनके पीछे बाकी सब हो लिये।
बोल्शेविकों के खिलाफ़ संघर्ष में हार खाकर, विसर्जनवादियों ने मदद के लिये दूसरी इन्टरनेशनल से अपील की। दूसरी इन्टरनेशनल उनकी मदद के लिए आ गई। बोल्षेविकों और विसर्जनवादियों के बीच 'समझौता कराने' और 'पार्टी में अमन' क़ायम करने के बहाने, दूसरी इन्टरनेषनल ने मांग की कि बोल्षेविक विसर्जनवादियों की समझौतापरस्त नीति की नुक्ताचीनी बन्द कर दें। लेकिन, बोल्षेविक समझौता करने के लिये तैयार न थे। उन्हांेने अवसरवादी दूसरी इन्टरनेषनल के फ़ैसले मानने से इन्कार कर दिया और किसी भी तरह की रियायत करने को राजी न हुए।
क़ानूनी तौर से चलने वाले संगठनों में बोल्षेविकों की जीत आकस्मिक न थी, न हो सकती थी। सिर्फ़ बोल्षेविकों के पास सही मार्क्सवादी सिद्धान्त था, स्पष्ट कार्यक्रम था और एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी थी जो युद्ध मंे पक्की और फ़ौलादी बन चुकी थी। लेकिन इसीलिये उनकी जीत आकस्मिक न हो, ऐसा न था। उनकी जीत इसलिये भी हुई कि उसमें क्रान्ति का उठता हुआ ज्वार प्रतिबिम्बित होता था।
मजदूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन बराबर बढ़ता गया और षहर के बाद षहर और प्रदेष के बाद प्रदेष में फैल गया। 1914 में आरम्भ में, मज़दूर हड़तालों का कम होना तो दूर, उन्होंने नया ज़ोर पकड़ा। वे अधिकाधिक डटकर लड़ी जाने लगीं और मज़दूरों की अधिकाधिक तादाद उनमें हिस्सा लेने लगी। 9 जनवरी को 92 लाख 50 हजार मजदूरों ने हड़ताल की, जिनमें अकेले पीतरबुर्ग में 1 लाख 40 हज़ार हड़ताली थे। पहली मई को 5 लाख मज़दूरों ने हड़ताल की, जिसमें पीतरबुर्ग के ढाई लाख मज़दूर थे। मज़दूरों ने हड़तालों में असाधारण मज़बूती दिखलाई। पीतरबुर्ग मेें ओबूखोव कारखाने की एक हड़ताल दो महीने से ऊपर चली और एक दूसरी लैसनर कारखाने में लगभग तीन महीने चली। पीतरबुर्ग के कई कारखानों में मज़दूरों की एक जमात की जमात को ज़हर देने की वजह से 1 लाख 15 हजार मज़दूरों ने हड़ताल की, जिसके साथ प्रदर्षन भी हुए। आन्दोलन फैलता गया। 1914 के पूर्वार्द्ध में, (जुलाई षुरू के दिन मिला कर) कुल 14 लाख 25 हजार मज़दूरों ने हड़तालों में हिस्सा लिया।
मई में, बाकू में तेल-मज़दूरों की हड़ताल हुई। उसने रूस के तमाम मज़दूरों का ध्यान अपने पर केन्द्रित किया। हड़ताल संगठित ढंग से चलाई गयी। 20 जून को, 20 हज़ार मज़दूरों ने बाकू में प्रर्दषन किया। पुलिस ने बाकू के मज़दूरों के खिलाफ़ भारी जुल्मी क़दम उठाये। इसके विरोध में और बाकू मज़दूरों से भाईचारा ज़ाहिर करने के लिये, मास्को मंे हड़ताल हुई और दूसरे जिलों में फैल गयी।
3 जुलाई को, बाकू की हड़ताल के सिलसिले में पीतरबुर्ग के पुतिलोव कारखाने में एक सभा हुई। पुलिस ने मज़दूरों पर गोली चलाई। पीतरबुर्ग के सर्वहारा वर्ग मंे गुस्से की लहर दौड़ गयी। 4 जुलाई को, पीतरबुर्ग पार्टी कमिटी के बुलावे पर वहाँ के 90 हजार मज़दूरों ने विरोध में काम बन्द कर दिया। 7 जुलाई को उनकी तादाद बढ़ कर 1 लाख 30 हजार हो गयी, 8 जुलाई को डेढ़ लाख और 11 जुलाई को 2 लाख तक पहुंच गयी।
सभी कारखानों में असंतोष फैल गया और हर जगह सभायें और प्रदर्षन हुए। मज़दूरों ने सड़कों पर मोर्चेबन्दी भी षुरू कर दी। बाकू और लोत्स में भी मोर्चेबन्दी हुई। कई जगह पुलिस ने मज़दूरों पर गोली चलाई। हुकूमत ने आन्दोलन को दबाने के लिये 'संकटकालीन' क़दम उठाये। राजधानी एक हथियारबन्द खेमा बन गयी। प्राव्दा को बन्द कर दिया गया।
लेकिन, उसी समय मैदान में एक नयी घटना, एक अंतर्राष्टंीय महत्व की घटना हुई। यह साम्राज्यावादी युद्ध था, जिससे सारा घटना-चक्र ही बदल जाने को था। जुलाई के क्रान्तिकारी उभार के दिनों में ही, फ्रांस का राष्टंपति प्वान्कारे पीतरबुर्ग में षीघ्र छिड़ने वाली लड़ाई के बारे में ज़ार से बात करने आया था। कुछ दिन बाद ही, जर्मनी ने रूस के खिलाफ़ लड़ाई का ऐलान कर दिया बोल्षेविक संगठनों को कुचलने और मज़दूर आन्दोलनों को दबाने के लिये, ज़ार सरकार ने लड़ाई से फ़ायदा उठाया। विष्व युद्ध ने क्रान्ति की प्रगति में बाधा डाली और ज़ार सरकार ने क्रान्ति से बचने के लिये इसी युद्ध मंे षरण ढूंढी।
सारांश
क्रान्ति की नयी उठान के दिनों (1912-'14) में, बोल्षेविक पार्टी ने मज़दूर आन्दोलन का नेतृत्व किया और बोल्षेविक नारों पर उसे नयी क्रान्ति की तरफ़ ले गयी। पार्टी ने योग्यता से क़ानूनी काम के साथ ग़ैरकानूनी काम मिलाया। विसर्जनवादियों और उनके दोस्तों - त्रात्स्कीपंथियों और बहिष्कारवादियों - के विरोध को कुचल कर, पार्टी ने क़ानूनी आन्दोलन के सभी रूपों का नेतृत्व हासिल किया और क़ानूनी तौर से चलने वाले संगठनों को अपने क्रान्तिकारी काम का गढ़ बना दिया।
मज़दूर वर्ग के दुष्मनों और मज़दूर आन्दोलन मंे उनके दलालों के खिलाफ़ लड़ाई में, पार्टी ने अपनी पाँति मज़बूत की और मज़ूदर वर्ग से अपने सम्बन्ध बढ़ाई। क्रान्तिकारी प्रचार-आन्दोलन के मंच के तौर पर, दूमा का भरपूर इस्तेमाल करके और आम मज़दूरों के सुन्दर अख़बार प्राव्दा की स्थापना करके, पार्टी ने क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं की एक नई पीढ़ी - प्राव्दा पंथियों को षिक्षित किया। साम्राज्यवादी युद्ध में, मज़दूरों का यह हिस्सा अंतर्राष्टंीयता और सर्वहारा क्रान्ति के झंडे के प्रति वफ़ादार रहा। आगे चल कर अक्तूबर 1917 की क्रान्ति में, वह बोल्षेविक पार्टी की रीढ़ बन गया।
साम्राज्यवादी युद्ध छिड़ने से पहले, पार्टी ने क्रान्तिकारी कार्यवाहियों में मज़दूर वर्ग का नेतृत्व किया। यह अगली सफ़ों की मुठभेड़ थी, जो साम्राज्यवादी युद्ध से रुक गयी लेकिन तीन साल बाद ही वह फिर षुरू हुई और इस बार उसने ज़ारषाही का खात्मा ही कर डाला। बोल्षेविक पार्टी ने सर्वहारा अंतर्राष्टंीयता के झण्डे फहराते हुए साम्राज्यवादी युद्ध के मुष्किल दौर में प्रवेष किया।
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