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Tuesday, 18 August 2020

अध्याय ३ राज्य और क्रांति

अध्याय

राज्य और क्रांति १८७१ के पेरिस कम्यून का अनुभव।

मार्क्स का विश्लेषण

१.    कम्यूनार्डों के प्रयत्न की वीरता किस बात में थी ?

२.    

यह सुविदित है कि कम्युन से कुछ महीने पहले , १८७० की पतझड़ में मार्क्स ने पेरिस के मजदूरों को चेतावनी दी थी , यह सिद्ध करते हुए कि सरकार को उस समय उलटने का प्रयत्न करना हताशापूर्ण मूर्खता होगी लेकिन १८७१ के मार्च में जब मजदूरों पर एक निर्णयकारी लड़ाई जबर्दस्ती थोप दी गयी और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया , जब विद्रोह ने वास्त 

 

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विकता का रूप ले लिया, तब बुरे लक्षणों के बावजूद मार्क्स ने सर्वहारा क्रांति का दिल खोलकर स्वागत किया। मार्क्स ने मार्क्सवाद' के उस कुख्यात रूसी ग़द्दार प्लेखानोव की तरह पंडिताऊ ढंग से "असामयिक" आंदोलन की निंदा नहीं की, जिन्होंने १९०५ के नवंबर में तो मजदूरों और किसानों के संघर्ष के संबंध में प्रोत्साहन की भावना में लेख लिखे, लेकिन दिसंबर , १९०५ के बाद उदारतावादियों की तरह चिल्लाने लगे : "हथियार नहीं उठाना चाहिए था। 

 

लेकिन मार्क्स का उत्साह उनके शब्दों में केवल "स्वर्ग पर धावा बोलनेवाले "20 कम्यूनार्डों की वीरता के ही बारे में नहीं था। यद्यपि जन क्रांतिकारी आंदोलन अपना लक्ष्य नहीं सिद्ध कर सका था, फिर भी वह उसे अत्यधिक महत्व का ऐतिहासिक अनुभव, विश्व सर्वहारा क्रांति का आगे की ओर निश्चित क़दम मानते थे, ऐसा अमली क़दम, जो सैकड़ों कार्यक्रमों तथा तर्कों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। इस अनुभव का विश्लेषण करना, कार्यनीति के लिए उससे सबक़ निकालना, उसके आधार पर अपने सिद्धांतों की पुनःपरीक्षा करनामार्क्स ने यही अपना कार्यभार निर्धारित किया। 

 

 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में जो एकमात्र "सुधार" करने की आवश्यकता मार्क्स ने समझी थी, उसे उन्होंने पेरिस के कम्यूनार्डों के क्रांतिकारी अनुभव के आधार पर किया था।

 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के दोनों लेखकों द्वारा हस्ताक्षरित उसके नये जर्मन संस्करण की अंतिम भूमिका पर २४ जून, १८७२ की तारीख है। इस भूमिका में उसके लेखक , कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स कहते हैं कि 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के कार्यक्रम की "कुछ तफ़सीलें पुरानी पड़ गयी हैं" वे आगे कहते हैं

"... कम्यून ने एक बात तो खास तौर से साबित कर दी, वह यह कि 'मजदूर वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीन पर क़ब्ज़ा करके उसका उपयोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं कर सकता'..."30 

 

इस उक्ति में जो शब्द इकहरे उद्धरण-चिन्हों के भीतर दिये गये हैं, उन्हें लेखकों ने मार्क्स की पुस्तक 'फ्रांस में गृहयुद्ध' से लिया था। 

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अतः पेरिस कम्यून के एक मुख्य और बुनियादी सबक़ को मार्क्स और एंगेल्स ने इतने ज़बर्दस्त महत्व का समझा कि उन्होंने उसे 'कम्यनिस्ट घोषणापत्र' में एक बुनियादी सुधार के रूप में शामिल कर लिया। _यह बेहद लाक्षणिक बात है कि अवसरवादियों ने ठीक इसी बुनियादी सुधार को तोड़ा-मरोड़ा है और शायद उसका अर्थ 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के अगर सौ में से निनानवे नहीं, तो दस में से नौ पाठकों को तो नहीं ही मालूम है। इस तोड़-मरोड़ की ब्योरेवार चर्चा हम आगे , खास तौर से तोड़-मरोड़ों से संबंधित अध्याय में करेंगे। यहां पर इतना ही उल्लेख कर देना काफ़ी होगा कि हमारे द्वारा उद्धृत मार्क्स के इस प्रसिद्ध कथन की प्रचलित , बाज़ारू "सम" यह है कि मार्क्स ने मानो उसमें सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के मुक़ाबले में धीरे-धीरे विकास के विचार पर जोर दिया हो, इत्यादि। 

-     वास्तव में बात बिलकुल उल्टी है। मार्क्स का विचार है कि मजदूर वर्ग को "राज्य की बनी-बनायी मशीन' को तोड़ देना चाहिए, उसे चकनाचूर कर देना चाहिए , उस पर केवल क़ब्ज़ा करके ही बस नहीं करना चाहिए।

१२ अप्रैल , १८७१ को, याने ठीक कम्यन के ही दिनों में, मार्क्स ने कुरोलमन को लिखा था

"... यदि मेरी 'अठारहवीं ब्रूमेर' के अंतिम अध्याय को खोलो, तो देखोगे कि उसमें मैंने कहा है कि फ्रांसीसी क्रांति का अगला पग पहले की तरह नौकरशाही-फ़ौजी मशीनरी को एक हाथ से दूसरे हाथ में कर देने का नहीं, बल्कि उसे चकनाचूर कर देने का होगा" ( शब्दों पर स्वयं मार्क्स ने जोर दिया है ; मूल शब्द है zerbrechen) "और यही यूरोपीय महाद्वीप में किसी भी सच्ची जन-क्रांति के संपन्न होने की प्रारंभिक शर्त है। पेरिस में हमारे बहादुर पार्टी कामरेड यही कोशिश कर रहे हैं" (Neue Zeit, XX, , १९०१-१६०२, पृ० ७०६ )311 ( कुगेलमन के नाम मार्क्स के पत्रों के रूसी भाषा में कम से कम दो संस्करण निकल चुके हैं, जिनमें से एक संस्करण के संपादन और भूमिका-लेखन का काम मैंने किया था।

" राज्य की नौकरशाही-फ़ौजी मशीनरी को चकनाचूर कर देना" - ये शब्द क्रांति के दौरान राज्य के बारे में सर्वहारा वर्ग के कार्यभारों के संबंध 

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मे मर्क्सवाद के मुख्य बक़ को संक्षेप में व्यक्त करते हैं। और मार्क्सवाद लायी हु काउत्स्कीवादी " व्याख्या" में ठीक इसी सबक़ को केवल रूप से भला दिया गया है, बल्कि स्पष्ट रूप से तोड़-मरोड़ दिया गया है !

जहां तक 'अठारहवीं ब्रूमेर' के संबंध में मार्क्स के हवाले की बात है, उसके उस अंश को हम ऊपर पूरे का पूरा उद्धृत कर चुके हैं।

 मार्क्स के ऊपर उद्धृत तर्कों में दो ख़ास बातों पर ध्यान देना दिलचस्प होगा। हले, वह अपने निष्कर्षों को केवल यूरोपीय महाद्वीप तक ही सीमित रखते हैं। १८७१ में ऐसा करना समझ में आता है , जब इंगलैंड अभी शुद्ध पूंजीवादी देश का आदर्श बना हुआ था, लेकिन बिना सैन्यवादी गुट के और काफ़ी हद तक बिना नौकरशाही के। इसलिए मार्क्स ने इंगलैंड को अलग कर दिया था, जहां "राज्य की बनी-बनायी मशीन" को तोड़ने की प्रारंभिक शर्त के बिना क्रांति , जन-क्रांति तक उस समय संभव प्रतीत होती थी और संभव भी थी।

आज, १९१७ में , प्रथम साम्राज्यवादी महायुद्ध के युग में मार्क्स द्वारा बताया गया यह सीमा-बंधन सही नहीं रह गया है। तो इंगलैंड और अमरीका, दोनों - तमाम दुनिया के अंदर आंग्ल-सेक्सन "आज़ादी' के इस अर्थ में सबसे बड़े और अंतिम प्रतिनिधि कि वहां सैन्यवादी गुट और नौकरशाही नहीं थी - उन नौकरशाही-फ़ौजी संस्थानों के अखिल यूरोपीय गंदे , नी दलदल में पूर्णतः डूब गये हैं, जो हर चीज़ को अपने अधीन कर रही हैं और हर चीज़ को अपने पैरों तले रौंद रही हैं। आज इंगलैंड और अमरीका , दोनों में "किसी भी सच्ची जन-क्रांति की प्रारंभिक शर्त " " राज्य की बनी-बनायी मशीन को" (जिसे इन देशों में १९१४ और १६१७ के दौरान "यूरोपीय", अाम साम्राज्यवादी मापदंड के अनुसार पूर्णता तक पहुंचा दिया गया है ) ध्वंस करना, नष्ट कर देना है।

 दूसरे , मार्क्स के इस अत्यंत अर्थपूर्ण कथन पर खास तौर से ध्यान दिया जाना चाहिए कि राज्य की नौकरशाही-फौजी मशीनरी को नष्ट करना "किसी भी सच्ची जन-क्रांति की प्रारंभिक शर्त' है। "जन"-क्रांति की यह अवधारणा मार्क्स के मुंह से अजीब लगती है और हो सकता है कि रूस के प्लेखानोववादी और मेंशेविक, स्त्रुवे के वे चेले , जो अपने को मार्क्सवादी 

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मनवाना चाहते हैं, कह दें कि यह शब्द मार्क्स की "क़लम से ग़लती से निकल गया" इन लोगों ने मार्क्सवाद को ऐसी खोखली उदारतावादी विकृति की स्थिति में पहुंचा दिया है कि उनकी दृष्टि में बुर्जुआ क्रांति और सर्वहारा क्रांति के बीच की प्रतिपक्षता के अलावा और किसी चीज़ का स्तित्व ही नहीं है - और इस प्रतिपक्षता की भी व्याख्या वे बिलकूल निर्जीव ढंग से करते हैं। 

अगर , उदाहरण के लिए, हम बीसवीं शताब्दी की क्रांतियों को लें, तो निस्संदेह हमें मानना पड़ेगा कि पुर्तगाली और तुर्क, दोनों क्रांतियां बुर्जुआ क्रांतियां हैं। लेकिन "जन"-क्रांति उनमें से कोई भी नहीं है, क्योंकि उनमें से किसी में भी आम जनता, जनता की विशाल बहुसंख्या खुद अपनी आर्थिक और राजनीतिक मांगों को लेकर क्रियात्मक ढंग से , स्वतंत्र रूप से किसी भी उल्लेखनीय मात्रा में हिस्सा नहीं लेती। इसके विपरीत रूस की १९०५ - १९०७ की बुर्जुआ क्रांति ने यद्यपि इस तरह की "शानदार" सफलताएं नहीं पेश की थीं, जैसी कि पुर्तगाल और तुर्की की क्रांतियों को कभी-कभी हासिल हुईं, फिर भी वह निस्संदेह "सच्ची जन"-क्रांति थी, क्योंकि जन समूह, जनता की बहुसंख्या, शोषण और उत्पीड़न से कुचले हुए समाज के सबसे "निचले वर्ग" स्वतंत्र रूप से उठ खड़े हुए थे और उन्होंने क्रांति की पूरी गति के ऊपर अपनी मांगों की, नष्ट किये जानेवाले पुराने समाज के स्थान पर नये समाज का अपने तरीके से निर्माण करने के अपने प्रयत्नों की छाप लगा दी थी।

१८७१ में यूरोपीय महाद्वीप का एक भी देश ऐसा नहीं था, जिसकी आबादी में सर्वहारा वर्ग की बहुसंख्या रही हो। "जन"-क्रांति, जो अपने प्रवाह में सचमुच जनता की बहुसंख्या को खींच रही है, ऐसी तभी हो सकती थी , जब वह अपनी धाराओं में सर्वहारा वर्ग और किसानों, दोनों को खींच लेती। उस समय ये दोनों वर्ग ही "जनता" थे। ये दोनों वर्ग एकताबद्ध हैं, क्योंकि "राज्य की नौकरशाही-फ़ौजी मशीनरी" उनका उत्पीड़न करती है, दमन करती है और शोषण करती है। इस मशीनरी को ध्वंस कर देना, उसे तोड़ देना - यही "जनता" के , जनता की बहुसंख्या के , मजदूरों और अधिकांश किसानों के हित में है, यही सबसे ग़रीब किसानों और सर्वहारा वर्ग के स्वतंत्र संघ की "प्रारंभिक शर्त" है

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इस तरह के संघ के बिना जनवाद अस्थिर है और समाजवादी परिवर्तन असंभव है।

 जैसा कि मालूम है, पेरिस कम्यून इसी तरह के संघ की राह पर बढ़ मटा था, यद्यपि बहुत-से अंदरूनी और बाहरी कारणों से वह अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सका। 

अतः "सच्ची जन-क्रांति" की बात करते समय मार्क्स ने टुटपुंजिया वर्ग की लाक्षणिक विशेषताओं को ज़रा भी भूले बिना ( उनके बारे में उन्होंने बहुतेरी और अकसर चर्चा की थी ) १८७१ के यूरोपीय महाद्वीप के अधिकांश देशों के वास्तविक वर्गीय शक्ति-संतुलन का ठीक-ठीक हिसाब लगाया था। दूसरी तरफ़, उन्होंने इस बात की तसदीक की थी कि राज्य की मशीनरी को "ध्वंस करना" मज़दूरों और किसानों, दोनों के हित का तकाज़ा है, कि वह उनको एकताबद्ध करता है, कि वह उनके सामने "परजीवी' को हटाने और उसकी जगह किसी नयी चीज़ की स्थापना करने का साझा कार्यभार प्रस्तुत करता है। 

ठीक कौन-सी चीज़ की स्थापना करने का

 

. राज्य को ध्वस्त मशीनरी का स्थान कौन-सी चीज़ ले ?

 

१८४७ में 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में इस प्रश्न का मार्क्स ने जो उत्तर दिया था, वह अभी एकदम अमूर्त था , बल्कि यह कहना अधिक सटीक होगा कि वह उत्तर ऐसा था, जिसने कार्यभार तो बता दिये , पर उनको पूरा करने के उपाय नहीं बताये। 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में जो उत्तर दिया गया था, वह यह था कि "शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग", "जनवाद के लिए होनेवाली लड़ाई को जीतना" - ये उस मशीनरी का स्थान लेंगे।

 मार्क्स काल्पनिक दुनिया में नहीं रमते थे, वह उम्मीद करते थे कि जन-आंदोलन का अनुभव इस प्रश्न का उत्तर देगा कि शासक वर्ग के रूप में सर्वहारा वर्ग का यह संगठन कौन-से ठोस रूप अख्तियार करेगा और सबसे पूर्ण, सबसे सूसंगत रीति से "जनवाद के लिए होनेवाली लडाई को जीतने" के काम के साथ इस संगठन को ठीक किस प्रकार मिलाया जायेगा। 

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मार्क्स ने कम्यून के अनुभव का, गोकि वह बहुत थोड़ा था, अपनी पुस्तक 'फ्रांस में गृहयुद्ध' में अत्यधिक सावधानी से विश्लेष किया। इस पुस्तक के सबसे महत्वपूर्ण अंश हम नीचे उद्धृत करते हैं :

 मध्य युग में पैदा होकर "केंद्रीकृत राज्य-सत्ता अपनी स्थायी सेना पुलिस , नौकरशाही , पादरी, अदालत , दि सर्वव्यापी अंगों सहित) उन्नीसवीं शताब्दी में विकसित हो गयी। ज्यों-ज्यों पूंजी और श्रम के वर्ग विरोध बढ़े, त्यों-त्यों " राज्य-सत्ता ने अधिकाधिक मात्रा में श्रम के उत्पीडन के लिए सामाजिक सत्ता का स्वरूप, वर्गीय शास की शी का स्वरूप धारण किया। वर्ग संघर्ष की प्रगति की सूचक प्रत्येक क्रांति के बाद राज्य सत्ता का विशुद्ध दमनकारी स्वरूप अधिकाधिक खुलकर सामने आता है।" १८४८-१८४६ की क्रांति के बाद राज्य-सत्ता "श्रम के खिलाफ़ पूंजी की राष्ट्रीय युद्ध-मशीनरी" बन गयी। द्वितीय साम्राज्य ने उसको और भी दृढ़ बनाया। 

"साम्राज्य का सीधा वैपरीत्य कम्यून था।" "कम्यून ऐसे जनतंत्र का ठोस रूप था, जो वर्ग शासन के राजतांत्रिक रूप को ही नहीं , वरन स्वयं वर्ग शासन को खत्म कर सके ..."32 

सर्वहारा , समाजवादी जनतंत्र का यह "ठोस" रूप क्या था ? उसने किस प्रकार के राज्य की सर्जना शुरू की

कम्यून के पहले ही फ़रमान ने स्थायी सेना का अंत कर दिया और उसकी जगह सशस्त्र जनता को प्रतिष्ठित किया।

अब यह मांग अपने को समाजवादी कहनेवाली प्रत्येक पार्टी के कार्यक्रम में हती है। लेकिन उनके कार्यक्रमों का वास्तव में क्या मूल्य है, यह हमारे समाजवादी-क्रांतिकारियों और मेंशेविकों की हरकतों से स्पष्ट हो जाता है, जिन्होंने २७ फ़रवरी की क्रांति के ठीक बाद इस मांग को पूरा करने से सचमुच इनकार कर दिया था

"... कम्यून नगर-सभासदों को लेकर गठित हया था, जो नगर के विभिन्न वार्डों से सर्वमताधिकार द्वारा निर्वाचित हुए थे, जो उत्तरदायी थे और किसी भी समय हटाये जा सकते थे। कम्यून के अधिकांश सदस्य स्वभावतः मजदूर अथवा मजदूर वर्ग के जाने-माने प्रतिनिधि थे... 

"पुलिस को केंद्रीय सरकार का अभिकर्ता बनाये रखने के बदले उसका समस्त राजनीतिक चरित्र फ़ौरन ख़त्म कर दिया गया और उसे कम्यून का 

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उत्तरदायी और किसी भी समय मंसूख किया जा सकनेवाला अभिकर्ता बना दिया गया। यही प्रशासन की सभी अन्य शाखाओं के अधिकारियों के साथ किया गया। कम्यन के सदस्यों से लेकर नीचे के लोगों तक जन-सेवा कार्य के लिए वही मजदूरी निर्धारित की गयी , जो मजदूरों को मिलती थी। राज्य के ऊंचे प्रोहदेदारों के साथ उनके निहित स्वार्थ और प्रतिनिधित्व संबंधी भत्तों का भी अंत हो गया ... पुरानी सरकार की भौतिक शक्ति के मुख्य अवयव स्थायी सेना और पुलिस से छुटकारा पाने के बाद कम्यून दमन की आध्यात्मिक शक्ति , याने पादरी शक्ति को मिटा देने का इच्छुक था . . . न्याय-विभाग के पदाधिकारी उस झूठी स्वतंत्रता से मुक्त किये गये ... वे निर्वाचित तथा उत्तरदायी बनाये गये , जिन्हें किसी भी समय हटाया जा सकता था।

इस प्रकार राज्य की ध्वस्त मशीनरी के स्थान पर कम्यून ने मानो "केवल" अधिक पूर्ण जनवाद' की स्थापना कर दी थी : स्थायी फ़ौज का अंत, तमाम अधिकारियों की पूर्ण निर्वाचनीयता और पदच्युति। लेकिन वास्तव में यह "केवल" कुछ संस्थाओं के स्थान पर बुनियादी तौर से भिन्न प्रकार की संस्थाओं की बृहत ढंग से स्थापना का द्योतक है। या "मात्रा के गुण में रूपांतरण' का ही उदाहरण है : आम तौर से जिस हद तक कल्पना की जा सकती है, उस हद तक पूरा और सुसंगत ढंग से लागू किया गया जनवाद बुर्जुआ जनवाद से सर्वहारा जनवाद में बदल जाता है, वह राज्य ( = एक निश्चित वर्ग के लिए एक विशेष दमनकारी शक्ति ) से एक ऐसी चीज़ में बदल जाता है, जो वास्तव में राज्य नहीं रह जाती।

 बुर्जुश्रा वर्ग को दबाना और उसके प्रतिरोध को कुचलना अब भी ज़रूरी है। कम्यून के लिए तो यह खास तौर से ज़रूरी था और उसकी हार का एक कारण यह भी था कि इस कार्य को उसने काफ़ी दृढ़ता के साथ नहीं किया था। लेकिन यहां दमन का निकाय अब जनता की बहुसंख्या है, अल्पसंख्या नहीं, जैसा गुलामी, भूदास-प्रथा और उजरती गुलामी के अंतर्गत सदा होता था। फिर चूंकि अपने उत्पीड़कों को जनता की बहुसंख्या स्वयं दबाती है, इसलिए दमन की "विशेष शक्ति" की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती ! इस अर्थ में राज्य धीरे-धीरे विलुप्त होने लगता है। विशेषाधिकारप्राप्त अल्पसंख्या (विशेषाधिकारप्राप्त नौकरशाही , स्थायी सेना के सेनानायकों) की विशेष संस्थानों के बजाय ये सब काम बहुसंख्या 

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स्वयं सीधे कर सकती है और समग्र रूप में जनता स्वयं राज्य-सत्ता के जितने अधिक कामों को पूरा करती है , त्यों-त्यों इस सत्ता के अस्तित्व की ज़रूरत कम होती जाती है। 

इस संबंध में कम्यून द्वारा उठाये गये निम्नलिखित क़दम खास तौर से उल्लेखनीय हैं , जिन पर मार्क्स ने ज़ोर दिया था: प्रतिनिधित्व के तमाम भत्तों और अफ़सरों के रुपये-पैसे संबंधी तमाम विशेषाधिकारों का अंत , " मजदूरों की मजदूरी" की सतह तक राज्य के सभी नौकरों की तनखा का घटाव बुर्जुवा जनवाद से सर्वहारा जनवाद में , उत्पीड़कों के जनवाद से उत्पीडित वर्गों के जनवाद में , एक निश्चित वर्ग के लिए एक "विशेष" दमनकारी "शक्ति" के रूप में राज्य से उत्पीड़कों को दबाने के लिए जनता की बहुसंख्या की, मजदूरों और किसानों की आम शक्ति में परिवर्तन को जितनी स्पष्टता के साथ यह चीज़ ज़ाहिर करती है, उतनी और कोई चीज़ नहीं करती। और मार्क्स के सबक़ों की इस सबसे ज्वलंत, कहें कि राज्य संबंधी सबसे महत्वपूर्ण मद को सबसे ज्यादा भुला दिया गया है ! प्रचलित टीकाओ में, जिनकी संख्या अनगिनत है , इसका ज़िक्र तक नहीं है। उसके संबंध में चुप रहना "प्रचलित" बात है, जैसे कि वह कोई पुराने फ़ैशन का "भोलापन" हो, उसी प्रकार, जिस प्रकार ईसाइयत के राज्य-धर्म का दर्जा प्राप्त कर लेने पर ईसाई लोग जनवादी-क्रांतिकारी भावनावाले आदिम ईसाई धर्म के "भोलेपन' को " भूल गये थे"

 राज्य के ऊंचे से ऊंचे अफ़सरों के वेतन को कम कर देने की मांग "केवल" भोले-भाले, आदिम जनवाद की मांग लगती है। आधुनिक अवसरवाद के एक "संस्थापक", भूतपूर्व सामाजिक-जनवादी एडुअर्ड बर्नस्टीन "आदिम" जनवाद के संबंध में बुर्जुआ लोगों के छिछले मज़ाक़ों को दोहराने की कलाबाज़ी एक से अधिक बार कर चुके हैं। तमाम अवसरवादियों और वर्तमान काउत्स्कीवादियों की तरह वह भी इस चीज़ को समझने में पूर्ण रूप से असफल रहे कि एक तो किसी किसी मात्रा में "आदिम जनवाद की तरफ़ "वापसी" के बिना पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण असंभव है ( इसलिए कि किस तरह जनता की बहुसंख्या और फिर बिना किसी अपवाद के पूरी जनता द्वारा राजकाज के संपादन की ओर बढ़ा जा सकता है ? ), दूसरे , पूंजीवाद और पूंजीवादी संस्कृति पर आधारित 

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"आदिम जनवाद" और आदिम काल का या पूंजीवाद से पहले का अादिम बाद एक ही चीज़ नहीं हैं। पूंजीवादी संस्कृति ने बड़े पैमाने के उत्पादन, फैक्टरियों, रेलवे, डाक , टेलीफ़ोनों, आदि की सृष्टि कर दी है और इस आधार पर पुरानी "राज्य-सत्ता' के अधिकांश काम इतने सरल हो गये हैं उन्हें पंजीयन करने, दर्ज करने और जांच करने की इतनी सीधी सादी कार्रवाइयों में उतारा जा सकता है कि उन्हें हर साक्षर आदमी काफ़ी आसानी से कर सकेगा, साधारण " मजदूरों की मज़दूरी" पर काफ़ी आसानी से किया जा सकेगा और उनसे संबंधित तमाम विशेषाधिकारों का , तमाम " अफ़सरी शान-शौक़त" का अंत किया जा सकेगा ( और किया जाना चाहिए ) 

बिना किसी अपवाद के सभी अधिकारियों की निर्वाचनीयता, किसी भी समय पदच्युति, "मजदूरों की मजदूरी" की सतह पर उनकी तनखानों का घटावये सरल और "स्वतःस्पष्ट' जनवादी कार्रवाइयां मजदूरों और अधिकांश किसानों के हितों में पूर्ण एकता उत्पन्न करने के साथ ही पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण के लिए पुल का भी काम करती हैं। ये कार्रवाइयां राज्य के पुनर्निर्माण से, समाज के शुद्ध राजनीतिक पुनर्निर्माण से संबंधित हैं , लेकिन वे अपनी पूरी सार्थकता और अहमियत बेशक महज़ "संपत्ति अपहरण करनेवालों की संपत्ति के अपहरण" की तामील या तैयारी के सिलसिले में ही, अर्थात उत्पादन के साधनों पर पूंजीपतियों के निजी स्वामित्व को समाज के स्वामित्व में बदलने के साथ ही प्राप्त करती हैं। 

मार्क्स ने लिखा था कि "कम्यून ने राजकीय व्यय के दो बड़े ज़रियों, स्थायी सेना और नौकरशाही को खत्म करके बुर्जुश्रा क्रांति के नारे - सस्ती सरकार ! - को चरितार्थ कर दिया। 

टुटपुंजिया वर्ग के दूसरे हिस्सों के लोगों की तरह किसानों में भी कुछ इने-गिने लोग ही "चोटी तक पहुंच पाते हैं", बुर्जुआ अर्थ में "दुनिया में तरक्की कर पाते हैं", याने संपन्न व्यक्ति , बुर्जुआ या सुरक्षित और विशेषाधिकारी पदासीन अफ़सर बन पाते हैं। हर पूंजीवादी देश में, जहां किसान समुदाय है ( और अधिकांश पूंजीवादी देश ऐसे ही हैं ), उनकी बहुत बड़ी बहुसंख्या सरकार द्वारा उत्पीड़ित है और उसका तख्ता उलट 

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देने के लिए लालायित है, " सस्ते" शासन के लिए लालायित है। इस काम की तामी केवल सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और उसकी तामील करने के साथ ही वह राज्य के समाजवादी पुनर्निर्माण की तरफ़ भी क़द ढ़ाता है। 

. संसदीय व्यवस्था का उन्मूलन

मार्क्स ने लिखा था : "कम्यून संसदीय नहीं, बल्कि एक कार्यशील संगठन था , जो कार्यकारी और विधिकारी, दोनों कार्य साथ-साथ करता था ...

"... तीन या : साल में एक बार यह तय करने के बजाय कि शासक वर्ग का कौन सदस्य संसद में जनता का प्रतिनिधित्व तथा दमन करेगा (ver-und zertreten), सर्वमताधिकार को अब कम्युनों में संगठित जनता के उसी प्रकार काम में आना था, जिस प्रकार अपने व्यवसाय के लिए मजदूर, मैनेजर तथा मुनीम तलाश करनेवाले हर एक मालिक के लिए व्यक्तिगत मताधिकार काम में प्राता है।"* 

KIN 

सामाजिक-अंधराष्ट्रवाद और अवसरवाद के बोलबाले की बदौलत १८७१ में की गयी संसदीय व्यवस्था की यह उल्लेखनीय आलोचना भी आज मार्क्सवाद के "विस्मृत शब्दों" में शामिल है। पेशेवर मंत्रियों और संसदबाज़ों ने , सर्वहारा वर्ग के ग़द्दारों और आज के "कारोबारी" समाज वादियों ने संसदीय व्यवस्था की आलोचना का सारा कार्य अराजकतावादियों के लिए छोड़ दिया है, और इस अद्भुत बुद्धिमत्तापूर्ण आधार पर उन्होंने संसदीय व्यवस्था की हर प्रकार की आलोचना को "अराजकतावाद" घोषित किया है!! कोई आश्चर्य नहीं कि शीडेमान, डेविड, लेजियन, सेम्बा, रेनोदिल, हेंडेरसन, वानडरवेल्डे, स्टानिंग, ब्रांटिंग, बिसोलाती जैसे "समाजवादियों' से क्षुब्ध होकर उन्नत संसदीय व्यवस्थावाले देशों का सर्वहारा वर्ग अराजकतावाद-संघाधिपत्यवाद के प्रति अधिकाधिक सहानुभूति दिखलाने लगा है, हालांकि वह अवसरवाद का सगा भाई ही है।

 लेकिन मार्क्स के लिए क्रांतिकारी द्वंद्ववाद कभी खोखली फैशनेबुल लफ़्फ़ाज़ी , झुनझुना नहीं रहा , जैसा कि प्लेखानोव , काउत्स्की तथा दूसरों 

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* लेनिन ने मार्क्स की कृति 'फ्रांस में गृहयुद्ध' के जर्मन संस्करण से उपरोक्त अंश उद्धृत किया है। - सं० 

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ने उसे बना दिया है। मार्क्स जानते थे कि बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था के "सुअरबाड़े' तक का इस्तेमाल करने की, खास तौ से जब परिस्थिति प्रत्यक्ष ही क्रांतिकारी हो, असमर्थता के कारण अराजकतावाद के साथ किस तरह निर्ममता से संबंध-विच्छेद' कर लेना चाहिए। लेकिन साथ ही वह यह भी जानते थे कि संसदीय व्यवस्था की सच्ची क्रांतिकारी-सर्वहारा आलोचना किस तरह की जाती है। 

केवल संसदीय-सांविधानिक राजतंत्रों में ही नहीं, बल्कि अधिक से अधिक जनवादी जनतंत्रों में भी बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था का सच्चा सार कुछ वर्षों पर एक बार यह फैसला करना ही है कि शासक वर्ग का कौन सदस्य संसद में जनता का दमन और उत्पीड़न करेगा। 

लेकिन अगर हमें राज्य के प्रश्न को लेना है , अगर इस क्षेत्र में सर्वहारा वर्ग के कार्यभारों की दृष्टि से संसदीय व्यवस्था पर राज्य की एक संस्था के रूप में विचार करना है, तो संसदीय व्यवस्था से निस्तार का रास्ता क्या है ? किस तरह उसके बिना काम चलाया जा सकता है ?

 हमें बार-बार दोहराना चाहिए : कम्यून के अध्ययन पर आधारित मार्क्स की सीखों को इतनी पूरी तरह भुला दिया गया है कि संसदीय व्यवस्था की अराजकतावादी या प्रतिक्रियावादी आलोचना को छोड़कर और कोई भी आलोचना आज के "सामाजिक-जनवादी" ( पढ़िये : समाजवाद के आधुनिक ग़द्दार) की समझ में बिलकुल नहीं पाती।

संसदीय व्यवस्था से निस्तार का रास्ता बेशक प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं और चनाव के सिद्धांत को ख़त्म कर देना नहीं, बल्कि प्रतिनिधिमूलक संस्थानों को गपबाजी के अड्डों से बदलकर "कार्यशील" संस्थाएं बना देना है। "कम्यन संसदीय नहीं, बल्कि एक कार्यशील संगठन था, जो कार्यकारी और विधिकारी , दोनों कार्य साथ-साथ करता था।

" संसदीय नहीं , बल्कि कार्यशील संगठन" - आज के संसदबाज़ों और सामाजिक-जनवाद के संसदीय "पालतू कुत्तों" के मुंह पर यह भरपूर तमाचा है! अमरीका से स्विट्ज़रलैंड तक , फ्रांस से इंगलैंड, नार्वे, आदि तक चाहे  किसी संसदीय देश को ले लीजिये - इन देशों में "राज्य" के असली काम की तामील पर्दे की ओट में की जाती है और उसे महकमे, - फौजी सदर-मुक़ाम करते हैं। संसद को "आम जनता" को 

 

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बेवकूफ़ बनाने के विशेष उद्देश्य से बकवास करने के लिए छोड़ दिया जाता है। यह बात इतनी सच्ची है कि रूसी जनतंत्र तक में , जो एक बर्जग्रा जनवादी जनतंत्र है, संसदीय व्यवस्था की ये सारी बुराइयां असली संस के बनने से पहले ही फ़ौरन ज़ाहिर हो गयीं। सड़ी हुई कूपमंडूकता के स्कोबेलेव और त्सेरेतेली , चेर्नोव और अवक्सेन्त्येव , अादि जैसे सूरमा सोवियतों तक को अत्यंत घृणित बुर्जुवा संसदीयता के ढंग से गंदा करने में सफल हो गये हैं , उन्हें महज़ गपबाजी के अड्डों में बदल दिया गया है। सोवियतों के अंदर श्रीमान "समाजवादी" मंत्रिगण गांवों के भोले-भाले लोगों को लफ्फाज़ी और प्रस्तावों से ठग रहे हैं। सरकार के अंदर निरंतर जोड़-तोड़ चल रही है, जिससे कि एक ओर तो अधिक से अधिक समाजवादी-क्रांतिकारियों और मेंशेविकों को बारी-बारी से इज़्ज़त और ग्रामदनी की नौकरियों की " दावत' में हिस्सेदार बनाया जा सके और दूसरी ओर , जनता का " ध्यान भी बंटा रहे" और तब तक "राज्य" का असली "काम" सरकारी दफ्तर और फ़ौजी सदर-मुक़ाम "चलाते" है 

 सत्तारूढ़ "समाजवादी-क्रांतिकारी' पार्टी के मुखपत्र 'देलो नरोदा'33 ने अभी हाल में अपने एक संपादकीय लेख में ऐसे "भले समाज" के लोगों के लिए, जिसमें "सभी" राजनीतिक अनाचार में जुटे हुए हैं , उपयुक्त अप्रतिम स्पष्टता के साथ यह स्वीकार किया था कि उन मंत्रालयों में भी, जिनके अध्यक्ष "समाजवादी" ( खुदा बचाये ! ) हैं, सारी नौकरशाही मशीनरी वास्तव में पहले ही जैसी बनी हुई है, पुराने ही ढर्रे पर चल रही है और क्रांतिकारी कार्रवाइयों का "स्वतंत्रतापूर्वक" अंतर्वस कर रही है ! इस स्वीकारोक्ति के बिना भी क्या सरकार में समाजवादी क्रांतिकारियों और मेंशेविकों की शिरकत का तथ्यगत इतिहास ही यह साबित नहीं कर देता ? इसमें एकमात्र लाक्षणिक बात यह है कि कैडेट मंत्रियों की संगत में चेर्नोव, रुसानोव, ज़न्जीनोव और 'देलो नरोदा' के दूसरे संपादकों ने शर्म-लिहाज़ की तमाम भावना को इस तरह बेच खाया है कि खलेग्राम इस बात का ऐलान करने में उन्हें किसी प्रकार की झिझक नहीं होती कि " उनके" मंत्रालयों में सब कुछ पुराने ही ढर्रे पर चल रहा है , जैसे कि यह कोई छोटी-सी बात हो !! गांव के सीधे-सादे लोगों का 

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आखों में धूल झोंकने के लि क्रांतिकारी-जनवादी शब्दावली और पूंजीपतियों  का "दिल खुश"  करने के लिये नौकरशाही और लालफीताशाही – "इमान्दार" संयुक्त मंत्रिमंडल का यही सारतत्व है। 

बुर्जुआ समाज की ज़रखरीद तथा गलित संसदीय व्यवस्था की जगह कम्युन ऐसी संस्थाएं क़ायम करता है, जिनके अंदर राय देने और बहस की स्वतंत्रता पतित होकर प्रवंचना नहीं बनती , क्योंकि संसद-सदस्यों को खुद काम करना पड़ता है , अपने बनाये हुए क़ानूनों को खुद ही लागू करना पड़ता है, उनके परिणामों की जीवन की कसौटी पर स्वयं परीक्षा करनी पडती है और अपने मतदाताओं के प्रति उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार होना ड़ता है। प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं बरक़रार रहती हैं, लेकिन विशेष व्यवस्था के रूप में , क़ानून बनाने और कानून लागू करने के कामों के बीच विभाजन के रूप में , सदस्यों की विशेषाधिकारपूर्ण स्थिति के रूप में संसदीय व्यवस्था यहां नहीं होती। प्रतिनिधिमूलक संस्थानों के बिना जनवाद की , सर्वहारा जनवाद की भी कल्पना हम नहीं कर सकते , लेकिन संसदीय व्यवस्था के बिना जनवाद की कल्पना हम कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए , अगर बुर्जुआ समाज की आलोचना हमारे लिए कोरा शब्दजाल नहीं है, अगर बुर्जुवा वर्ग के प्रभुत्व के उलटने की हमारी इच्छा गंभीर और सच्ची है , कि मेंशेविकों और समाजवादी-क्रांतिकारियों की तरह , शीडेमान , लेजियन , सेम्बा और वानडरवेल्डे जैसे लोगों की तरह मजदुरों के वोट पकड़ने के लिए "चुना' का नारा भर।     यह बात बहुत शिक्षाप्रद है कि मार्क्स जब उन पदाधिकारियों के कामों के बारे में बात करते हैं , जो कम्युन और सर्वहारा जनवाद के लिए ज़रूरी है, तो वह उनकी तुलना "हर एक मालिक" के कर्मचारियों के साथ, याने " मजदूरों, मैनेजरों और मनीमों मेत" साधारण पूजीवादी उद्योग के सा करते हैं। 

 

मार्क्स में इस अर्थ में लेशमात्र कल्पनावाद नहीं है कि उन्होंने किसी 4 समाज की मनगढंत या कपोल-कल्पना की हो। नहीं, उन्होंने पूराने समाज से नय समाज के जन्म का, पहले से दूसरे में संक्रमण के रूपों की  प्राक्रितिक-एतिहासिक क्रिया के रूप में अध्ययन किया। उन्होंने सर्वहारा वर्ग " जन-आंदोलन के असली तजुर्बे की जांच-पड़ताल की और उससे व्यावहा 

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रिक सबक़ निकालने की कोशिश की। उन्होंने कम्यून से "सीखा", उसी तरह जिस तरह दुनिया के तमाम महान क्रांतिकारी विचारकों ने उत्पीडित वर्गों के महान आंदोलन से निस्संकोच सीखा और कभी उन्हें पंडिताऊ " उपदेश' नहीं दिये (जैसे प्लेखानोव का यह उपदेश कि "हथियार नहीं उठाना चाहिए था", या त्से रेतेली का उपदेश कि "प्रत्येक वर्ग को अपनी सीमाओं के भीतर ही रहना चाहिए") 

नौकरशाही को सब जगह और पूर्ण रूप से फ़ौरन ख़त्म कर देने का तो कोई सवाल ही नहीं हो सकता। वह हवाई बात है। लेकिन पुरानी नौकरशाही मशीनरी को फ़ौरन ध्वस्त करके तुरंत ही ऐसी नयी मशीनरी के निर्माण में लग जाना, जो धीरे-धीरे तमाम नौकरशाही का अंत करने में मदद देयह हवाई बात नहीं है, यह कम्यून का अनुभव है, यह क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का सीधा और तात्कालिक कार्यभार है।

 पूंजीवाद "राज्य' के प्रशासन के कामों को सरल बना देता है, वह इस बात को संभव कर देता है कि "हुक्म चलाने' के तमाम तरीक़ों को ख़त्म कर दिया जाये और सारे काम को सर्वहारा वर्ग के ( शासक वर्ग के रूप में) ऐसे संगठन तक सीमित कर दिया जाये , जो " मजदूरों, मैनेजरों और मुनीमों' को पूरे समाज की तरफ़ से मज़दूरी पर रखे। 

हम कल्पनावादी नहीं हैं। हम तमाम प्रशासन को, तमाम मातहती को फ़ौरन ख़त्म कर देने के "सपने' नहीं देखते। सर्वहारा अधिनायकत्व के कार्यभार के बारे में समझ की कमी पर आधारित ये अराजकतावादी सपने मार्क्सवाद के साथ ज़रा भी मेल नहीं खाते और वास्तव में समाजवादी क्रांति को तब तक के लिए टालने का काम करते हैं, जब तक मनुष्य का स्वभाव नहीं बदल जाता। नहीं , हम ऐसे लोगों के साथ ही समाजवादी क्रांति चाहते हैं , जैसे वे इस समय हैं, जो मातहती, नियंत्रण और "मैनेजरों और मुनीमों" के बिना काम नहीं चला सकते।

 लेकिन मातहती होनी चाहिए तमाम शोषितों, तमाम मेहनतकशों के सबसे आगे बढ़े हुए हथियारबंद दस्ते की, याने सर्वहारा वर्ग की मातहती। राज्याधिकारियों की खास "हुक्मरानी' की जगह "मैनेजरों और मुनीमों" की सीधी-सीधी कारगुजारी, ऐसी कारगुज़ारी, जिसे अब प्रत्येक शहरी पूरी तरह चला सकता है और जिसे " मजदूरों की मजदूरी" बराबर वेतन पर 

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अच्छी तरह चलाया जा सकता है - फ़ौरन , कल नहीं , आज ही शरू की जा सकती है और की जानी चाहिए। 

पूंजीवाद ने जो कुछ पहले ही बना दिया है , उसके धार पर , और मज्दूरो  की हैसियत से अपने अनुभव पर भरोसा करते हुए , हथियारबंद मजदूरों की राज्य-सत्ता द्वारा समर्थित सख़्त, फ़ौलादी अनुशासन कायम करते हुए हम मज़दूर खुद बड़े पैमाने के उत्पादन का संगठन करेंगे , राज्य के अधिकारियों की भूमिका घटाकर सिर्फ इतनी कर देंगे कि वे उत्तरदायी , पदच्यत और सामान्य वेतन पानेवाले " मैनेजरों और मुनीमों" की तरह हमारी आज्ञाओं का ( निस्संदेह हर प्रकार , रूप और दर्जे के तकनीक विशेषज्ञों समेत ) पालन करें। यही है हमारा सर्वहारा कार्यभार , सर्वहारा क्रांति को पूरा करते समय हम शुरूआत इसी से कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए। बड़े पैमाने के उत्पादन के आधार पर इस तरह की शुरूआत स्वयं ही संपूर्ण नौकरशाही के क्रमशः "विलोप" और ऐसी नयी व्यवस्था की सृष्टि की ओर ले जायेगी - असली व्यवस्था , उजरती गुलामी से भिन्न व्यवस्था - ऐसी व्यवस्था , जिसके अंदर नियंत्रण और हिसाब-किताब रखने के सरल से सरलतर होते जानेवाले कामों को हर कोई बारी-बारी से करेगा , फिर वे आदत बन जायेंगे और अंत में आबादी के विशेष भाग के विशेष कामों के रूप में उनका खातमा हो जायेगा।

पिछली शताब्दी के आठवें दशक के एक हाज़िरजवाब जर्मन सामाजिक जनवादी ने डाक व्यवस्था को समाजवादी अर्थव्यवस्था का आदर्श कहा था। यह बिलकुल सच है। आज डाक व्यवस्था राजकीय-पूंजीवादी इजारेदारी के नमूने पर संगठित कारोबार है। साम्राज्यवाद तमाम ट्रस्टों को धीरे-धीरे इसी तरह के संगठनों में बदलता जा रहा है, जिनमें काम के बोझ से लदे और भूखे "आम" मेहनतकशों के ऊपर वही बुर्जुआ नौकरशाही होती है। लेकिन उनमें सामाजिक अर्थव्यवस्था का यंत्र तैयार रखा हुआ है। हम पूंजीपतियों का तख्ता उलट दें, इन शोषकों के विरोध को हथियारबंद मज़दूरों के फ़ौलादी हाथों से कुचल दें, आधुनिक राज्य की नौकरशाही मशीनरी का ध्वंस कर दें - और हमें उच्च तकनीकी साज-सज्जा से लैस यंत्र मिल जायेगा, जो "परजीवी' से मुक्त होगा, जिसको संगठित मजदूर स्वयं इस्तेमाल कर सकेंगे , तकनीकी विशेषज्ञों , मैनेजरों तथा मुनीमों को 

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काम पर लगायेंगे और उन सबको आम तौर पर "राज्य के" तमाम पदाधिकारियों की तरह साधारण मजदूरों की मजदूरी देंगे। यह एक ठोस और व्यावहारिक कार्यभार है, जिसे तमाम ट्रस्टों के संबंध में तुरंत ही पूरा किया जा सकता है। यह ऐसा कार्यभार है, जो श्रमजीवियों को शोषण से छुटकारा दिला देगा और उस अनुभव का ध्यान रखेगा , जिसे कम्यून ने ( खास तौर से राज्य के निर्माण के क्षेत्र में ) पहले ही अमल में लाना शुरू कर दिया था।

 हमारा तात्कालिक उद्देश्य राष्ट्र की संपूर्ण अर्थव्यवस्था को डाक व्यवस्था के नमूने पर संगठित करना है, जिससे तकनीकी विशेषज्ञों , मैनेजरों तथा मुनीमों को सब अफ़सरों की तरह " मजदूरों की मजदूरी" से ज्यादा तनखा मिले और वे सभी सशस्त्र सर्वहारा वर्ग के नियंत्रण और नेतृत्व में रहें। हमें ऐसे ही आर्थिक आधार पर संगठित ऐसे ही राज्य की ज़रूरत है। संसदीय व्यवस्था का उन्मूलन करने और प्रतिनिधि मूलक संस्थाओं को कायम रखने से यही होगा। यही मेहनतकश वर्गों को बुर्जुवा वर्ग द्वारा इन संस्थाओं के भ्रष्टीकरण से मुक्त करेगा। 

 

. राष्ट्रीय एकता का संगठन

 

"... राष्ट्रीय संगठन के एक प्राथमिक खाके में, जिसे विशद बनाने का कम्यून को समय नहीं मिल सका , कम्यून ने स्पष्ट रूप से कहा है कि छोटे से छोटे गांव का भी राजनीतिक ढांचा कम्यन होगा ..." कम्यूनों को ही पेरिस में " राष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल' को चुनना था।

"... वे थोड़ी-सी , किंतु महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां, जो अब भी केंद्रीय सरकार के हाथ में रह जायेंगी , समाप्त नहीं की जायेंगी , जैसा कि जान बूझकर ग़लत धारणा फैलायी गयी है, बल्कि उन्हें कम्यन के अभिकर्ताओं द्वारा - कठोरतम रूप में उत्तरदायी अभिकर्ताओं द्वारा - संपन्न कराया जायेगा। कम्यून के शासन में राष्ट्र की एकता भंग नहीं होती , बल्कि इसके विपरीत कम्यन के संविधान द्वारा वह संगठित की जाती और उस राज्य-सत्ता के विनाश द्वारा , जो अपने को स्वयं राष्ट्र से स्वाधीन और श्रेष्ठ समझती हुई राष्ट्रीय एकता का मूर्तिमान रूप होने का दावा करती है, किंतु जा वास्तव में उसके शरीर पर परजीवी अपवृद्धि के अलावा और कुछ नहीं 

 

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है। वह एक वास्तविकता बन जाती और पुरानी शासन-सत्ता के वे अंग , जो केवल दमनकारी थे , काटकर अलग कर दिये जाते , पर उसके जायज़ काम एक सी सत्ता के हाथ से छीनकर , जो समाज से भी धिक शक्ति शाली होने का दावा करती है , समाज के उत्तरदायी अभिकर्ताओं के हाथों में सौंप दिये जाते।

मार्क्स के कथनों को वर्तमान सामाजिक-जनवाद के अवसरवादियों ने किस हद तक नहीं समझा है - या शायद यह कहना ज़्यादा सच होगा कि समझने से इनकार किया है - यह बात सबसे अच्छी तरह ग़द्दार बर्नस्टीन की हेरोस्ट्रेटसी4 कुख्यातिवाली पुस्तक 'समाजवाद की पूर्वावश्यकताएं और सामाजिक-जनवाद' के कार्य' से ज़ाहिर है। मार्क्स के ऊपर दिये गये ठीक इसी अंश के संबंध में बर्नस्टीन ने लिखा था कि यह कार्यक्रम "अपने राजनीतिक अंतर्य के लेहाज़ से अपनी तमाम ख़ास विशेषताओं में प्रूदों के संघवाद से अधिकतम साम्य प्रदर्शित करता है ... मार्क्स और 'टुटपुंजिया' प्रूदों" ( उसे व्यंग्यपूर्ण बनाने के लिए "टुटपुंजिया" शब्द को बर्नस्टीन ने उद्धरण-चिह्नों के अंदर लिखा है ) "के बीच मतभेद की अन्य तमाम बातों के बावजूद इन बातों पर उनके सोचने के ढंग अधिक से अधिक संभव समानता रखते हैं।' बर्नस्टीन आगे लिखते हैं कि निस्संदेह नगरपालिकाओं का महत्व बढ़ रहा है, लेकिन "यह चीज़ मुझे संदेहजनक लगती है कि जनवाद का पहला काम आधुनिक राज्यों की ऐसी मंसूखी (Auflosung) और उनके संगठन की ऐसी पूरी उलट-पुलट (Umwandlung) होगा , जैसा मार्क्स और प्रूदों कल्पना करते हैं - राष्ट्रीय सभा का प्रांतों या जिलों की उन सभात्रों के प्रतिनिधियों द्वारा गठन , जो खुद कम्यूनों के प्रतिनिधियों द्वारा गठित होंगी , जिससे राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व की पूरी पुरानी प्रथा ही पूर्ण रूप से गायब हो जायेगी।" ( बर्नस्टीन , 'पूर्वावश्यकताएं', जर्मन संस्करण , १८६६, पृ० १३४ और १३६ ) 

" राज्य-सत्ता के - परजीवी के - उन्मूलन' के बारे में मार्क्स के विचारों को पूदों के संघवाद के साथ उलझाना निहायत बेहूदी बात है ! लेकिन यह कोई आकस्मिक बात नहीं है, क्योंकि अवसरवादी को यह कभी नहीं सूझता कि मार्क्स यहां केंद्रीयतावाद के विपरीत संघवाद की बात हरगिज़ नहीं करते , बल्कि वह राज्य-सता की पुरानी , बुर्जुआ मशीनरी 

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को , जो तमाम बुर्जुया देशों में मौजूद है , ध्वस्त करने की बात कर रहे हैं।

 अवसरवादी के दिमाग़ में केवल वही बात आती है, जिसे वह अपने इर्द-गिर्द, टुटपुंजिया कूपमंडूकता और "सुधारवादी' गतिरोध के वातावरण में देखता है , याने केवल "नगरपालिकाएं" ! सर्वहारा क्रांति के बारे में अवसरवादी सोचना तक भूल गया है।

यह हास्यास्पद है। लेकिन उल्लेखनीय बात तो यह है कि इस संबंध में बर्नस्टीन का किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। बर्नस्टीन की बातों का खंडन बहुतों ने किया है , खास तौर से रूसी साहित्य में प्लेखानोव ने और यूरोपीय साहित्य में काउत्स्की ने। लेकिन इस प्रश्न पर बर्नस्टीन ने मार्क्स की बातों को जिस तरह तोड़ा-मरोड़ा है, उसके बारे में उनमें से किसी ने कुछ भी नहीं कहा है।

 क्रांतिकारी ढंग से सोचना और क्रांति के बारे में विचार करना अवसरवादी इस हद तक भूल गया है कि "संघवाद' को वह मार्क्स के मत्थे मढ़ता है और उन्हें अराजकतावाद के संस्थापक प्रदों के साथ मिला देता है। और शुद्ध मार्क्सवादी होने तथा क्रांतिकारी मार्क्सवाद की शिक्षा की रक्षा करने के इच्छुक काउत्स्की और प्लेखानोव इस बारे में चुप हैं ! मार्क्सवाद और अराजकतावाद के बीच अंतर से संबंधित विचारों के बारे में फैली हुई जबर्दस्त विचार-भ्रष्टता का , जो काउत्स्कीवादियों और अवसरवादियों की खास विशेषता है , एक मूल कारण इसमें है। उस पर हम आगे विचार करेंगे। 

 कम्यन के अनुभव के संबंध में मार्क्स के कथनों में, जिन्हें अभी ऊपर उद्धत किया जा चुका है, संघवाद की छाया तक नहीं है। मार्क्स प्रुदों के सा ठीक उसी प्रश्न पर सहमत थे, जिसे अवसरवादी बर्नस्टीन नहीं देखते। मावर्स ठीक उसी प्रश्न पर प्रुदों से असहमत थे, जिस पर बर्नस्टीन सहमति देखते हैं। 

मावर्स प्रदों से इस बात में सहमत थे कि दोनों राज्य की वर्तमान मशीनरी का " ध्वंस करने" के पक्ष में थे। मार्क्सवाद और अराजकतावाद ( प्रदों और बकुनिन दोनों) के बीच इस समानता को अवसरवादी देखना चाहते हैं और काउत्स्कीवादी , क्योंकि इस प्रश्न पर वे मार्क्सवाद से अलग हो गये हैं। 

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     प्रूदो और बकुनिन दोनों के साथ ठीक संघवाद के ही प्रश्न पर मार्क्स मतभेद था (सर्वहारा अधिनायकत्व की तो बात ही क्या ) अराजकता के टूटपंजिया विचारों से ही उसूली तौर से संघवाद' पैदा होता है। मार्क्स केंद्रीयतावादी थे। अभी-अभी द्धत किये गये उनके कथनों में सदीयतावाद से वह ज़रा भी नहीं डिगते। जिनके दिमाग़ में राज्य के बारे में टूटपंजिया "अंधविश्वास" भरे हैं, केवल उन्हीं लोगों को बुर्जवा राजकीय मशीनरी के खात्मे में केंद्रीयतावाद का खात्मा नज़र सकता है!

 लेकिन अगर सर्वहारा वर्ग और सबसे गरीब किसान राज्य-सत्ता को हाथ में ले लें, अपने को पूर्णतः स्वतंत्र रूप से कम्यूनों में संगठित कर लें और पूंजी पर आक्रमण करने के लिए , पूंजीपतियों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए और रेलों , कारखानों , ज़मीन , अादि पर निजी स्वामित्व को संपूर्ण राष्ट्र के हाथों में , पूरे समाज के हाथों में सौंप देने के लिए सभी कम्यूनों की कार्रवाइयों को एकताबद्ध करें, तो क्या वह केंद्रीयतावाद नहीं होगा? क्या वह सबसे सुसंगत जनवादी केंद्रीयतावाद नहीं होगा? क्या वह सर्वहारा केंद्रीयतावाद नहीं होगा?

बर्नस्टीन स्वैच्छिक केंद्रीयतावाद की संभावना की , कम्यूनों के स्वेच्छा से मिलकर एक राष्ट्र बन जाने की , बुर्जुआ शासन और बुर्जुआ राजकीय मशीनरी को नष्ट करने के लिए सर्वहारा कम्यूनों के स्वेच्छा से मिलकर एक हो जाने की कल्पना तक नहीं कर सकते। तमाम कूपमंडूकों की तरह बर्नस्टीन भी केंद्रीयतावाद' की कल्पना केवल एक ऊपर की , केवल नौकरशाही और सेनाशाही के ज़ोर से लादी और क़ायम रखी जानेवाली चीज़ के रूप में ही कर सकते हैं।

मार्क्स ने मानो पहले से ही अपने विचारों के तोड़े-मरोड़े जाने की संभावना देखकर इस बात पर जान-बूझकर जोर दिया था कि यह अभियोग कि कम्यून ने राष्ट्र की एकता को नष्ट करना चाहा था , केंद्रीय सत्ता को मिटा देना चाहा था, सोच-समझकर की गयी जालसाज़ी थी। मार्क्स ने जान-बूझकर ये शब्द इस्तेमाल किये थे : "राष्ट्र की एकता संगठित की जाती" ताकि चेतन , जनवादी, सर्वहारा केंद्रीयतावाद को बुर्जुआ, फ़ौजी, नौकरशाही केंद्रीयतावाद के मुकाबले में रखा जा सके। 

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लेकिन . . . उनसे ज़्यादा बहरे और कोई नहीं होते , जो सुनना नहीं चाहते। और आज के सामाजिक-जनवाद के अवसरवादी ठीक राज्य-सत्ता को नष्ट कर देने की, परजीवी अपवृद्धि को काट देने की ही बात नहीं सुनना चाहते। 

. परजीवी- राज्य - का उन्मूलन

 

इस विषय पर मार्क्स के कथन हम पहले ही उद्धृत कर चुके हैं , अब उनकी अभिपूर्ति आवश्यक है।

 उन्होंने लिखा था : "... इतिहास द्वारा निर्मित बिलकुल ही यी व्यवस्थाओं का प्रायः ऐसा दुर्भाग्य होता है कि लोगों को उन्हें सामाजिक जीवन की पुरानी और यहां तक कि निर्जीव व्यवस्थाओं की, जिनके साथ उनका कुछ सादृश्य होता है, प्रतिमुर्ति समझ लेने का भ्रम हो जाता है। अतः यह नया कम्यून भी , जिसने आधुनिक राज्य-सत्ता को चूर (bricht) कर दिया है, मध्ययुगीन कम्यूनों का प्रतिरूप समझ लिया गया . . . छोटे छोटे राज्यों का संघ ( मातेस्क्यू तथा जिरौंदवादी) ... पुराने अतिकेंद्रीय करण विरोधी संघर्ष का एक अतिरंजित रूप समझा गया ...

"... कम्यून का संविधान समाजरूपी शरीर को उन सब शक्तियों से फिर संपन्न कर देता , जिन पर अभी तक राज्यरूपी परजीवी अपवृद्धि समाज की स्वच्छंद गति को रोकती हुई पलती पा रही थी। इसी एक कार्य से उसने फ्रांस के पुनरुत्थान का शुभारंभ कर दिया होता . . . 

"... कम्यून का संविधान देहात के उत्पादकों को उनके जिलों के केंद्रीय नगरों के बौद्धिक नेतृत्व में लाता और इस प्रकार उन्हें उनके हितों के स्वाभाविक ट्रस्टियों - मज़दूरों- का संरक्षण प्राप्त कराता। कम्यून का अस्तित्व ही सामान्य क्रम में म्युनिसिपल स्वातंत्र्य का व्यंजक था , परंतु अब निरस्त की हुई राज्य-सत्ता पर एक अंकुश के रूप में नहीं।"

"राज्य-सत्ता को", जो "परजीवी अपवृद्धि" थी , " चकनाचूर करना", उसे "काटकर अलग कर देना", उसे " ध्वस्त करना"; "अब निरस्त की हुई राज्य-सत्ता" - ये हैं वे शब्द, जिनका कम्यून के अनुभव का मूल्यांकन और विश्लेषण करते समय राज्य के संबंध में मार्क्स ने प्रयोग किया था। 

 

यह सब आधी शताब्दी से भी कुछ कम पहले लिखा गया था और अब जनता को मार्क्सवाद का ज्ञान उसके अविकृत रूप में कराने के लिए 

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मानो जमीन की खुदाई करनी पड़ती है। पिछली महान क्रांति के - जिसे मार्क्स ने स्वयं देखा थाअध्ययन के निष्कर्ष ठीक उसी समय भुला दिये गये, अगली महान सर्वहारा क्रांतियों का समय आ पहुचा था। 

".. कम्यून की नाना प्रकार की व्याख्याएं की गयी हैं और नाना प्रकार के हितों ने उसका अपने अनुकूल अर्थ निकाला है। यह इस बात का प्रमाण है कि वह एक पूर्णतः विस्तारशील राजनीतिक रूप था, जबकि सरकार के पहले के सभी रूप निश्चित रूप में दमनमूलक थे। उसका असली रहस्य यह था : कम्यून मूलतः मजदूर वर्ग का शासन था, हस्तगतकारी वर्ग के विरुद्ध उत्पादक वर्ग के संघर्ष की उपज था, अंतत: अन्वेषित वह राजनीतिक रूप था , जिसमें श्रम की आर्थिक मुक्ति निष्पन्न की जा सकती थी। 

" इस अंतिम शर्त के बिना कम्यून का संविधान एक असंभव वस्तु होता, एक भुलावा मात्र होता।

कल्पनाबादी उन राजनीतिक रूपों को "अन्वेषित करने में व्यस्त थे, जिनके अंतर्गत समाज का समाजवादी रूपांतरण होना था। अराजकतावादियों ने राजनीतिक रूपों के सवाल को बिलकुल ही छोड़ दिया था। वर्तमान सामाजिक-जनवाद के अवसरवादियों ने संसदीय जनवादी राज्य के बुर्जुआ राजनीतिक रूपों को ही वह अंतिम सीमा मान लिया था, जिसका अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए था ; वे इसी "प्रतिमा' के सामने प्रार्थना में माथा पटकते रहे और उन्होंने इन रूपों को ध्वस्त करने के प्रत्येक प्रयत्न को अराजकतावाद' कहकर उनकी निंदा की। 

 मार्क्स ने समाजवाद और राजनीतिक संघर्ष के संपूर्ण इतिहास से यह नतीजा निकाला था कि राज्य का विलोप होना अवश्यंभावी है, और यह कि उसके विलोप होने का संक्रमणकालीन रूप ( राज्य से राज्येतर में संक्रमण का रूप ) "शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग" होगा। लेकिन मार्क्स इस भविष्य के राजनीतिक रूपों का अन्वेषण करने नहीं निकले। उन्होने अपने को फ्रांसीसी इतिहास की सही-सही आलोचना , विश्लेषण और वह निष्कर्ष निकालने तक ही सीमित रखा, जिस पर १८५१ के साल ने पहुचाया था, याने यह कि स्थिति बुर्जवा राजकीय मशीनरी का ध्वंस करने की तरफ़ प्रगति कर रही है। 

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और जब सर्वहारा का क्रांतिकारी जन-अांदोलन फूट पड़ा , तब बावजदः उस आंदोलन की असफलता के , बावजूद उसके संक्षिप्त जीवन और उसकी स्पष्ट कमजोरी के, मार्क्स ने उन रूपों का , जो उसने अन्वेषित किये थे, अध्ययन शुरू कर दिया। 

कम्यूनसर्वहारा क्रांति द्वारा "अंततः अन्वेषित' रूप है, जिसके अंतर्गत श्रम की आर्थिक मुक्ति का कार्य पूरा किया जा सकता है।

कम्यून - सर्वहारा क्रांति द्वारा बुर्जुआ राजकीय मशीनरी को ध्वस्त करने का पहला प्रयत्न है, वह "अंततः अन्वेषित" वह राजनीतिक रूप है, जो ध्वस्त की गयी मशीनरी का स्थान ले सकता है और उसे लेना चाहिए। 

आगे हम देखेंगे कि भिन्न परिस्थितियों में और भिन्न दशाओं में १९०५ और १९१७ की रूसी क्रांतियों ने भी कम्यून के ध्येय को जारी रखा है और मार्क्स के मेधावी ऐतिहासिक विश्लेषण की पुष्टि की है। 

 

 

विषय सूचि 

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