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Friday, 14 August 2020

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्षेविक) का इतिहास

 

बारहवाँ अध्याय

सोशलिस्ट समाज के निर्माण को पूरा करने के संघर्ष में

बोल्शेविक पार्टी। नये विधान का प्रचलन।

(1935-1937)

1. 1935-'37 में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति। अस्थायी रूप से आर्थिक संकट का कम होना। नये आर्थिक संकट की शुरुआत। इटली का अबीसीनिया हड़पना। स्पेन में जर्मनी और इटली का हस्तेक्षप। मध्य चीन पर जापानी हमला। दूसरे साम्राज्यवादी युद्ध की शुरुआत।

1929 को उत्तरार्द्ध में पूंजीवादी देशॉ में जो आर्थिक संकट फूट पड़ा था, वह 1933 तक चला। उसके बाद उद्योग-धंधों का पतन बन्द हुआ, संकट के बाद ठहराव का दौर आया और उसके बाद, एक हद तक उद्योग-धंधों में नयी जान आयी, एक हद तक उनकी गति आगे को हुई। लेकिन, यह प्रगति ऐसी न थी जो एक नयी और ऊँची सतह पर औद्योगिक खुषहाली का दौर शुरु  करती। विष्व पूंजीवाद के उद्योग-धंधे 1929 की सतह तक भी न पहंुच पाये। 1937 के मध्य तक, वह उसके 95-96 फ़ीसदी तक ही पहुँच पाये। 1937 के पूर्वार्द्ध में ही, एक नया आर्थिक संकट शुरु  हुआ, जिसका असर सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र अमरीका पर पड़ा। 1937 के आख़ीर तक, अमरीका में बेकारों की तादाद एक करोड़ तक पहुँच गयी थी। ब्रिटेन में भी बेकारी तेज़ी से बढ़ रही थी।

 इस तरह, पूंजीवादी देश अभी पिछले आर्थिक संकट की तबाही से संभल न पाये थे कि उन्होंने अपने सामने नया आर्थिक संकट देखा। नतीजा यह हुआ कि साम्राज्यवादी देशॉ के परस्पर विरोध और वैसे ही पूंजीपतियों और सर्वहारा के अंतर्विरोध और तेज़ हुए। इसके फलस्वरूप, हमलावर रियासतों के घर में आर्थिक संकट से जो क्षति हुई थी, उसे पूर्ण करने के लिये उन्होंने दूसरे अरक्षित देशॉ को हड़पने की तैयारी और ज़ोरषोर से शुरु  कर दी। इस समय तक, दो मषहूर हमलावर रियासतों, जर्मनी और जापान, के साथ एक तीसरी रियासत इटली भी मिल गयी।

1935 में, फासिस्ट इटली ने अबीसीनिया पर हमला किया और उस पर अधिकार कर लिया। 'अंतर्राष्ट्रीय क़ानून' के अनुसार बिना किसी सफ़ाई या सबब के, उसने ऐसा किया। बिना लड़ाई का ऐलान किये, उसने अबीसीनिया पर डाकू की तरह हमला किया, जिसका अब फ़ासिस्टों में चलन हो गया है। यह अबीसीनिया पर ही प्रहार न था, बल्कि ब्रिटेन पर भी था; यूरोप से हिन्दुस्तान और आम तौर से एशिया को आने वाले उसके समुद्री मार्गों पर प्रहार था। ब्रिटेन ने अबीसीनिया में इटली को पैर जमाने से रोकने की विफल कोषिषें कीं। आगे चल कर, इटली लीग आॅफ नेशन्स से अलग हो गया, जिससे कि उसके हाथ खाली रहें और वह जोरों से हथियारबन्दी करने लगा।

इस तरह, यूरोप और एशिया के बीच सबसे छोटे जल-मार्र्गों पर लड़ाई की एक नयी ग़िरह पड़ गयी।

फ़ासिस्ट जर्मनी ने एकतरफ़ा कार्यवाही करके, वार्सायी की शांति-संधि को रद्द कर दिया और यूरोप के मानचित्र का बलपूर्वक संशोधन करने के लिये एक योजना स्वीकार की। जर्मन फ़ासिस्ट इस बात को छिपाते न थे कि वे पास-पड़ौस की रियासतों पर क़ब्जा करना चाहते थे, या कम-से-कम उनके ऐसे इल़ाकों को हड़पना चाहते थे जहां जर्मन रहते थे। इसलिये, उन्होंने पहले आस्ट्रिया को हड़पने की योजना बनायी और उसक़े बाद चैकोस्लोवाकिया पर हमला करने और उसके बाद हो सकता है कि पोलैंड पर हमला करने का विचार किया। पोलैंड में भी एक ऐसा गठा हुआ इलाका है जहाँ जर्मन रहते हैं और जो जर्मनी के सीमान्त पर है। और उसके बाद, ...खैर, उसके बाद "देखा जायेगा"

1936 की गर्मियों में, जर्मनी और इटली ने स्पेन के प्रजातंत्र में फ़ौजी हस्तक्षेप शुरु  किया। स्पेन के फ़ासिस्टों की मदद करने के बहाने, उन्होंने इस बात का मौक़ा ढूंढ लिया कि चोरी से स्पेन की धरती पर, फ्रांस के पृष्ठभाग में अपनी फ़ौजें उतार दें, और स्पेन के समुद्र में - वालीरिक द्वीपों और जिब्राल्टर के भागों में दक्षिण से, अटलांटिक समुद्र में पच्छिम से, विस्के की खाड़ी में उत्तर से - अपने जहाजी बेड़े तैनात कर दें। 1937 के आरम्भ में जर्मन फ़ासिस्टों ने आॅस्ट्रिया पर क़ब्जा कर लिया। और इस तरह, दैन्यूब नदी के मध्य भाग में पैर जमा लिये और दक्षिण यूरोप में ऐड्रियाटिक समुद्र की तरफ़ पसरने लगे।

जर्मन और इटालियन फ़ासिस्टों ने स्पेन में अपना हस्तक्षेप बढ़ाया और साथ ही दुनिया को भरोसा दिलाते रहे कि वे स्पेन के 'कम्युनिस्टों' से लड़ रहे हैं और उसका दूसरा कोई मंसूबा नहीं है। लेकिन यह छिछला और भौंडा बहाना था, जिससे सीधे-सादे लोग बहलाये जा सकें। वास्तव में, वे ब्रिटेन और फ्रांस के समुद्री मार्गो पर पैर जमा कर - जिनके अफ्रीका और एशिया में बड़े-बडे़ उपनिवेष थे - इन देशॉ पर ही प्रहार कर रहे थे।

जहाँ तक आॅस्ट्रिया को हड़पने का सवाल था, कम-से-कम इसे यह न कहा जा सकता था कि यह वार्सायी संधि-पत्र के खिलाफ़ संघर्ष है, कि पहले साम्राज्यवादी युद्ध में खोये हुए प्रदेश  को लौटा कर जर्मनी के 'जातीय' हितों की रक्षा करने का प्रयत्न है। आॅस्ट्रिया न तो युद्ध के पहले और न उसके बाद जर्मनी का हिस्सा रहा था। आॅस्ट्रिया का बलपूर्वक अपहरण, विदेशी  भूमि के साम्राज्यवादी हड़पने की बहुत जीती-जागती मिसाल था। इससे फ़ासिस्ट जर्मनी के मंसूबों के बारे में कोई शक न रहा कि वह पच्छिमी यूरोप के महाद्वीप में प्रभुत्व की जगह बनाना चाहता है।

सबसे बढ़ कर, यह फ्रांस और ब्रिटेन के हितों पर प्रहार था।

इस तरह, यूरोप के दक्षिण में, आॅस्ट्रिया और ऐड्रियाटिक के कटिबंध में, और यूरोप के धूर पच्छिम में, स्पेन और उसके सीमान्त छूने वाले समुद्रों के कटिबंध में युद्ध की नयी गिरहें लगाई जा रही थीं।

1937 में, जापानी फ़ासिस्ट सैन्यवादियों ने पीपिंग पर क़ब्जा कर लिया, मध्य चीन पर हमाला किया और शंघाई ले लिया। कई साल पहले, मंचूरिया पर जापानी हमले की तरह, मध्यचीन पर भी जापानियों ने अपने प्रचलित ढंग से हमला किया। उन्होंने खुद अपनी तरफ़ से उकसाई हुई विभिन्न 'स्थानीय घटनाओं' को बेईमानी से इस्तेमाल करके और सभी 'अंतर्राष्ट्रीय नियमों', संधियों, समझौतों, वगैरह को तोड़कर, डाकुआंे की तरह यह हमला किया। तिन्चिन् और शंघाई पर कब्ज़ा होने से, चीन के विशाल बाज़ार का दरवाज़ा जापान के लिये खुल गया। जब तक तिन्चिन् और शंघाई जापान के हाथ में हैं, तब तक वह कभी भी मध्यचीन से ब्रिटेन और अमरीका को निकाल सकता है जहाँ उनकी भारी पूंजी लगी हुई है।

इसमें सन्देह नहीं कि चीन में जापानी साम्राज्यवादियों का कोई भविष्य नहीं है, और न कभी होगा। कारण यह कि जापानी हमलावरों के खिलाफ़ चीनी जनता और उसकी फ़ौज ने वीरता से युद्ध किया है। चीन में विशाल जातीय नवजागरण हुआ है। उसके पास जनशक्ति और धरती के विराट साधन हैं। और अंत में, चीनी राष्ट्रीय सरकार का निष्चय है कि अंत तक मुक्तियुद्ध किया जाये जब तक कि चीनी भूमि से हमलावर पूरी तरह से निकाल नहीं दिये जाते। इन सब बातों से जरा भी संदेह नहीं रह जाता है कि चीन में जापानी साम्राज्यवादियों का न तो कोई भविष्य है, न होगा।

फ़िर भी, यह सच है कि फ़िलहाल चीन में व्यापार की कुंजी जापान के हाथ में है और चीन के खिलाफ़ उसका युद्ध ब्रिटेन और अमरीका के हितों पर एक बहुत बड़ा प्रहार है।

इस तरह, प्रषान्त महासागर में, चीन के कटि-बन्ध में , युद्ध की एक और गिरह लगी।

इन सभी बातों से ज़ाहिर होता है कि एक दूसरा साम्राज्यवादी युद्ध सचमुच शुरु हो गया है। बिना लड़ाई का ऐलान किये, यह चोरी से शुरु  हुआ है। जातियाँ और रियासतें, प्रायः अनजाने ही दूसरे साम्राज्यवादी युद्ध की लपेट में आ गयीं। तीन हमलावर रियासतों ने - जर्मनी, इटली और जापान के फ़ासिस्ट शासक-दल ने – संसार के विभिन्न हिस्सों में युद्ध शुरु  किया। यह युद्ध जिब्राल्टर से शंघाई तक फैले हुए एक विराट प्रदेश  में चल रहा है। अभी भी, उसमें पचास करोड़ से ऊपर लोग सिमट आये

हैं। आखिरी छानबीन में, यही पता चलता है कि यह युद्ध ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका के पूंजीवादी हितों के खिलाफ़ चालू हैं, क्योंकि इसका उद्देष्य हमलावर देशॉ के हितों में और तथाकथित जनवादी राज्यों के हितों को बलि देकर प्रभाव-क्षेत्रों और संसार का फिर से बँटवारा करना है।

दूसरे साम्राज्यवादी युद्ध की एक अपनी विशेषता यह है कि इसे हमलावर शक्तियां चला रही हैं, और फैला रही हैं; जबकि दूसरी शक्तियां, 'जनवादी' शक्तियां जिसके खिलाफ़ युद्ध चलाया जा रहा है, बनती हैं कि जैसे युद्ध से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है, वे सफाई देती हैं, पीछे हटती हैं, शांति -प्रेम की डींग हाँकती हैं, फ़ासिस्ट हमलावरों को फटकारती हैं, और...थोड़ी-थोड़ी करके हमलावरों को अपनी जगहें सौंपती जाती हैं; साथ ही, यह भी कहती जाती हैं कि हम मुक़ाबिले की तैयारी कर रही हैं।

       साबित यह होगा कि इस युद्ध की एक विचित्र और एकतरफ़ा विशेषता है। लेकिन, इससे यह बात खत्म नहीं होती कि यह बेरोक दूसरों की ज़मीन हड़पने का बर्बर युद्ध है, जो अबीसीनिया, स्पेन और चीन की अरक्षित जनता के हितों की बलि देकर चलाया जा रहा है।

यह कहना ग़लत होगा कि युद्ध की इस एकतरफा विशेषता का कारण 'जनवादी' राज्यों की सैनिक या आर्थिक कमजोरी है। अवष्य ही, 'जनवादी'' राज्य फ़ासिस्ट राज्यों से ज़्यादा ताकतवर हैं। इस बढ़ते हुये विष्व युद्ध की एकतरफ़ा विशेषता इस वजह से है कि फ़ासिस्ट ताक़तों के खिलाफ़ जनवादी राज्यों का कोई संयुक्त मोर्चा नहीं है। तथाकथित जनवादी राज्य फ़ासिस्ट रियासतों की 'ज़्यादतियाँ' ज़रूर पसन्द नहीं करते और उनकी ताक़त बढ़ने से डरते हैं। लेकिन, यूरोप में मज़दूर आन्दोलन से और एशिया में राष्ट्रीय स्वाधीनता के आन्दोलन से वे और भी डरते हैं, और इन 'खतरनाक' आन्दोलनों के लिये फ़ासिस्टवाद को 'बहुत बढ़िया दवा' समझते हैं। इसलिये 'जनवादी' राज्यों का शासक दल, खास तौर से ब्रिटेन का कंजरवेटिव शासक दल, अपने को इसी नीति तक सीमित रखता है कि गुरूर भरे फ़ासिस्ट षासकों से 'ज्यादतियाँ न करने' की प्रार्थना करता रहे और साथ-साथ उन्हें यह भी समझने दे कि वह मज़दूर आन्दोलनों और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की तरफ़ उनकी प्रतिक्रियावादी नीति को 'पूरी तरह समझता है', और कुल मिलाकर उससे हमदर्दी भी रखता है। इस मामले में , ब्रिटेन का शासक दल मोटे तौर से उसी नीति पर चल रहा है जिस नीति पर ज़ारशाही में रूस के उदारपंथी-साम्राट्वादी पूंजीपति   चलते थे।  ये जिस पूंजीपति ज़ार की नीति की 'ज्यादतियों' से तो डरते ही थे, लेकिन जनता से और भी डरते थे और इसीलिये, उन्होंने ज़ार से प्रार्थना करने की नीति अपनाई और फलतः जनता के खिलाफ़ ज़ार से षड़यंत्र करने की नीति अपनाई। और जैसा कि हम जानते हैं, इसके लिये रूस के उदारपंथी-सम्राट्वादी पूंजीपतियों को इस दुमंँुही नीति की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी। यह बात मानी जा सकती है कि इतिहास ब्रिटेन के शासक दल से और फ्रांस और अमरीका में उनके दोस्तों से इसका बदला लेगा।

स्पष्ट है कि सोवियत संघ अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में इस तरह की तब्दीली की तरफ से आँखें बन्द न कर सकता था और न इन अषुभ घटनाओं को भुला सकता था। कोई भी युद्ध, कितना ही छोटा क्यों न हो, हमलावरों के छेड़ने पर वह शांति -पे्रमी देशॉ के लिये खतरा बन जाता है। दूसरा साम्राज्यवादी युद्ध जो ऐसे 'अजाने' ढंग से, राष्ट्रों पर चोरी से छा गया है और जिसने पचास करोड़ से ऊपर जनता को समेट लिया है, निस्संदेह सभी राष्ट्रों के लिये और सबसे पहले सोवियत संघ के लिये बहुत बड़ा खतरा है। यह बात जर्मनी, इटली और जापान द्वारा 'कम्युनिस्ट-विरोधी गुट' बनाने से बहुत अच्छी तरह प्रकट होती है। इसलिये शांति  की नीति पर चलते हुए, हमारे देश ने अपने सीमान्तों की सुरक्षा को और भी मज़बूत करना और लाल फौज और जल-सेना की लड़ाकू योग्यता को और बढ़ाना शुरु  किया। 1934 के खत्म होते-होते, सोवियत संघ लीग आॅफ नेशन्स में षामिल हुआ। उसने यह जानते हुए ऐसा किया कि अपनी कमज़ोरी के बावजूद लीग हमलावरों का पर्दाफाश करने की जगह का काम दे सकती है। और कितना ही कमज़ोर सही, वह शांति  का एक साधन बन सकती है, जो युद्ध छिड़ने को रोक सके। सोवियत संघ का विचार था कि ऐसे समय में लीग आॅफ नेशन्स जैसे कमज़ोर अंतर्राष्ट्रीय संगठन को भी भुलाना न चाहिए। मई, 1935 में, फ्रांस और सोवियत संघ ने हमलावरों के संभावित आक्रमण के खिलाफ़ परस्पर सहयोग की संधि की। उसके साथ ही, सोवियत संघ और चैकोस्लोवाकिया में वैसी ही संधि की गयी। मार्च 1936 में , सोवियत संघ ने मंगोलिया के जन-प्रजातंत्र से परस्पर सहयोग की संधि की; और अगस्त 1937 में चीन के प्रजातन्त्र के साथ एक-दूसरे पर हमला न करने की संधि की।

 

2. सोवियत संघ में उद्योग-धंधों और खेती की और अधिक प्रगति। दूसरी पंचवर्षीय योजना का समय से पहले पूरी होना। खेती के पुनर्संगठन और पंचायतीकरण का पूरा होना। कार्यकर्ताओं का महत्व। स्ताखानोव आन्दोलन। खुषहाली का ऊँचा होता हुआ स्तर। ऊंचा होता हुआ सांस्कृतिक स्तर। सोवियत क्रान्ति की शक्ति।

1930-33 के आर्थिक संकट के तीन साल बाद, पूंजीवादी देशों में तो नया आर्थिक संकट पैदा हुआ, लेकिन इस समूचे दौर में सोवियत संघ के उद्योग-धंधे बराबर प्रगति करते रहे। 1937 के मध्य से, पहले विश्व पूंजीवाद में उद्योग-धंधे कुल मिलाकर मुश्किल से 1929 की पैदाबर की सतह के 95-96 फ़ीसदी हो पाये थे, और तभी 1936 के उत्तरार्द्ध में, वे एक नये संकट की गिरफ्त में आ गये। लेकिन, सोवियत संघ के उद्योग-धंधे अपनी लगातार संपूर्ण प्रगति से 1937 के आखिर तक, 1929 की उपज के 428 फ़ीसदी या युद्ध-पूर्व की पैदावार के 700 फ़ीसदी तक पहुँच गये थे।

ये सफ़लतायें पुनर्संगठन की उस नीति का सीधा नतीजा थीं जिस पर पार्टी और सरकार इतना जम कर चली थीं।

इन सफलताओं का परिणाम यह हुआ कि दूसरी पंचवर्षीय योजना समय से पहले ही पूरी हो गयी। चार साल तीन महीने में 1 अपै्रल 1937 तक, वह पूरी हो गयी थी। समाजवाद के लिये, यह बहुत ही महत्वपूर्ण विजय थी।

खेती की प्रगति का भी बहुत कुछ यही हाल था। सभी फ़सलों की कुल भूमि 1913 (युद्ध-पूर्व) में 10 करोड़ पचास लाख हेक्टेयर थी; 1937 में यह भूमि बढ़ कर 13 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर हो गयी। 1913 में, अनाज की फ़सल 4 अरब 80 करोड़ पूड थी; 1937 में यह फ़सल बढ़ कर 6 अरब 80 करोड़ पूड हो गयी। इसी बीच, कपास की फ़सल 4 करोड़ 40 लाख पूड से बढ़ कर 15 करोड़ 40 लाख पूड हुई; सन की फ़सल (रेषे) 1 करोड़ 90 लाख पूड से, 3 करोड़ 10 लाख पूड हुई; चुकन्दर की फ़सल 65 करोड़ 40 लाख पूड से बढ़ कर, 1 अरब 31 करोड़ 10 लाख पूड हुई; और तिलहन की फ़सल 12 करोड़ 90 लाख से बढ़कर 30 करोड़ 60 लाख पूड हुई।

यहाँ पर यह कह देना चाहिये कि 1937 में अकेले पंचायती खेतों ने (सरकारी खेत छोड़ कर) बाजार के लिये 1 अरब 70 करोड़ पूड गल्ला पैदा किया। 1913 में, ज़मींदारों, कुलकों और किसानों ने मिलकर जितना ग़ल्ला बाज़ार भेजा था, उससे यह राशि कम से कम 40 करोड़ पूड ज्यादा थी।

खेती की सिर्फ एक शाखा - पशु -प्रजनन - अब भी युद्ध-पूर्व की सतह से पीछे थी और ज़्यादा धीमी रफ्तार से प्रगति कर रही थी।

जहाँ तक खेती में पंचायतीकरण का सवाल था, उसे पूरा हुआ समझा जा सकता था। 1937 तक जिन किसान परिवारों ने पंचायती खेतों में भाग लिया था, उनकी संख्या 1 करोड़ 85 लाख, या कुल किसान परिवारों कि 93 फ़ीसदी थी। उधर पंचायती खेतों का अनाज की फ़सल का इलाका किसानों की कुल अनाज की फ़सल के इलाके का 99 फ़ीसदी था।

खेती के पुनर्संगठन और खेती के लिये ट्रैक्टरों और मषीनों को बड़ी तादाद में देने का क्या फल हुआ, यह अब स्पष्ट हो गया।

उद्योग-धंधो और खेती का पुनर्संगठन पूरा होने से, राष्ट्रीय अर्थतंत्र के पास अब पहले दर्जे के कौशल की बहुतायत हो गयी। उद्योग-धंधों, खेती, यातायात व्यवस्था और फ़ौज को आधुनिकतम कौशल का भारी सामान मिला था - उन्हें मशीनें और कलपुर्जे, ट्रैक्टर और खेती की मशीनें, इंजन और जहाज, तोपें और टैंक, हवाई जहाज और युद्ध-पोत मिले थे। कौशल सीखे हुए लाखों आदमियों की ज़रूरत थी, जो इस तमाम कौशल का उपयोग कर सकें और उससे ज्यादा से ज्यादा फ़ायदा पहुंचा सकें। इसके बिना, कौशल को जानने-बूझने वाले काफ़ी आदमियों के बिना, यह खतरा था कि यह सब कौशल मुर्दा और बेकार लोहा-लक्कड़ सा ही रह जाये। यह भारी खतरा था और इस वजह से पैदा हुआ था कि कौशल सीखे हुए आदमियों, कौशल का पूरी तरह उपयोग कर सकने और इससे फ़ायदा उठा सकने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या वैसे ही न बढ़ रही थी जैसे कि कौशल, बल्कि उससे बहुत पीछे घिसट रही थी। परिस्थिति इस कारण और भी उलझ गयी थी कि हमारे काफ़ी औद्योगिक प्रबंधक इस खतरे को महसूस न करते थे, और समझते थे कि कौशल से 'सब कुछ अपने-आप हो जायेगा!' पहले उन्होंने कौशल के महत्व को कम करके आंका था और उसे नफ़रत की निगाह से देखा था, अब वे उसका मूल्य बहुत बढ़ा कर आंकने लगे और उसे जादू समझने लगे। वे यह न समझते थे कि कौशल को जानने-बुझने वाले आदमियों के बिना कौशल मुर्दा है। वे यह न समझते थे कि कौशल से पैदावार खूब बढ़ाई जाये, इसके लिये कौशल को जानने-बूझने वाले आदमियों की ज़रूरत थी।

इस तरह, कौशल को जानने-बूझने वाले कार्यकर्ताओं की समस्या सबसे ज्यदा महत्वपूर्ण हो गयी।

यह जरूरी था कि जिन प्रबंधकों ने कौशल के लिये बहुत ज्यादा जोश दिखलाया था और इसके फलस्वरूप ट्रेनिंग पाये हुए आदमियों के महत्व को, कार्यकर्ताओं के महत्व को कम करके आंका था, उनका ध्यान कौशल का अध्ययन करने और उसमें उस्तादी हासिल करने की तरफ खींचा जाये, उनका ध्यान इस ज़रूरत की तरफ़ खींचा जाये कि कौशल का उपयोग कर सकने वाले और उससे भरसक लाभ उठा सकने वाले बहुत से कार्यकर्ताओं को शिक्षित करने के लिये कुछ भी न उठा रखा जाये।

पहले, जब पुनर्संगठन का दौर शुरू हो रहा था, जब देश में कौशल की कमी थी, तब पार्टी ने नारा दिया था: "पुनर्संगठन के दौर में सारा दारोमदार कौशल पर है;" अब जबकि कौशल की बहुतायत थी, जबकि पुनर्संगठन का काम मुख्यतः पूरा हो चुका था और कार्यकर्ताओं की भारी कमी महसूस हो रही थी, तब पार्टी के लिये नया नारा देना लाज़िमी हो गया, ऐसा नारा जो इतना कौशल पर नहीं बल्कि आदमियों पर, कौशल का भरसक उपयोग कर सकने वाले कार्यकर्ताओं पर ध्यान केन्द्रित करे।

इस दृष्टि से, मई 1935 में, काँमरेड स्तालिन ने लाल सेना के विद्यालय के स्नातकों के सामने जो भाषण दिया उसका भारी महत्व था।

काँमरेड स्तालिन ने कहा:

"पहले हम कहा करते थे कि 'सब कुछ कौशल पर निर्भर है'। इस नारे से, कौशल की कमी को खत्म करने और कार्यवाही के हर क्षेत्र में प्रथम श्रेणी के कौशल से अपनी जनता को लैस करने के लिये एक विशाल कौशल का आधार रचने में हमें मदद मिली। यह बहुत अच्छा है। लेकिन इतना काफी नहीं है, काफी हद तक यह काफी नहीं है। कौशल को चालू करने के लिये और उससे अधिकतम फायदा उठाने के लिये, हमें ऐसे आदमी चाहिये जो कौशल पर हावी हो चुके हों, हमें ऐसे कार्यकर्ता चाहिये, जो उस पर हावी हो सकते हों और इस कौशल को उसके तमाम नियम-क़ायदों के अनुसार इस्तेमाल कर सकते हों। ऐसे आदमियों के बिना, जो कौशल पर हावी हो चुके हों, कौशल मुर्दा है। ऐसे लोगों के हाथ में, जो कौशल पर हावी हो चुके हों, कौशल चमत्कार कर सकता है और उसे करना चाहिये। अगर हमारी प्रथम श्रेणी की मिलों और कारखानों में, हमारे सरकारी और पंचायती खेतों में, हमारी यातायात-व्यवस्था में और लाल फ़ौज में हमारे पास ऐसे काफी कार्यकर्ता होते जो इस कौशल से काम ले सकते, तो हमारा देश आज से तिगुनी और चैगुनी ज्यादा सफलता पा सकता। यही सबब है कि अब आदमियों पर, कार्यकर्ताओं पर, उन मज़दूरों पर जो कौशल पर हावी हो चुके हों, जोर देना चाहिये। पुराना नारा 'सब कुछ कौशल पर निर्भर है', एक बीते हुए और का प्रतिबिम्ब है, ऐसे दौर का जिसमें हमारे पास कौशल की कमी थी। लेकिन उस नारे की जगह, अब नया नारा, यह नारा कि 'सब कुछ कार्यकर्ताओं पर निर्भर है' देना चाहिये। मुख्य चीज अब यही है। ...

"वक्त आ गया है कि हम समझें कि दुनिया के पास जो सबसे मूल्यवान पूंजी है, उसमें सबसे मूल्यवान और सबसे निर्णायक पूंजी आदमी है, कार्यकर्ता हैं। यह समझना चाहिये कि हमारी आज की हालत में 'सब कुछ कार्यकर्ताओं पर निर्भर है'। अगर उद्योग-धंधों में, खेती, यातायात और सेना में हमारे पास अच्छे और बहुत से कार्यकर्ता हों तो हमारा देश अजेय हो जायेगा। अगर हमारे पास ऐसे कार्यकर्ता न होंगे, तो हम दोनों पैरों से लंगडे़ रहेंगे।" (तुलना कीजिये, स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें अंÛ संÛ, मास्को, 1947, पृÛ 523-24, - सम्पादक, अंग्रेजी संस्करण)।

इस तरह, अब मुख्य काम यह था कि कौशल जानने वाले कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देने का काम बढ़ाया जाये और श्रम की उत्पादकता बराबर बढ़ाते रहने के लिये नये कौशल पर जल्द हावी हों।

ऐसे कार्यकर्ताओं की बढ़ती की सबसे जीती-जागती मिसाल, हमारी जनता द्वारा नये कौशल पर हावी होने और श्रम की उत्पादकता के बराबर बढ़ते रहने की ठोस जीती-जागती मिसाल स्ताखानोव आन्दोलन था। इस आन्दोलन का जन्म दोन्येत्स प्रदेश के कोयले के धंधों में हुआ, और वहां वह बढ़ा। वहां से वह उद्योग-धंधों की दूसरी शाखाओं, रेलों और उसके बाद, खेती में फैला। इसका नाम स्ताखानोव आन्दोलन उसके जन्मदाता अलैक्सी स्ताखानोव के कारण पड़ा। वह केन्द्रीय इर्मीनो  कोयले की खान (दोन्येन्स प्रदेश) में कोयला निकालने का काम करता था। स्ताखानोव से पहले, निकिताईजोतोव ने कोयला निकालने के सभी पूर्व रिकार्ड तोड़ दिये थे। 31 अगस्त 1935 को, स्ताखानोव ने एक ही पाली में 102 टन कोयला काटा और इस तरह, खुदाई के उस समय के मानदण्ड से चैदह गुना ज्यदा कोयला निकाला। इससे उपज का स्तर ऊंचा करने के लिये, श्रम की उत्पादकता में नयी प्रगति करने के लिये, मज़दूरों और पंचायती किसानों के एक सामूहिक आन्दोलन की शुरूआत हुई। मोटर के धंधों में बुसीगिन, जूतों के धंधों में स्मेतानिन, रेलों के किवोनोस, लकड़ी के धंधों में मुसिन्स्की, सूती उद्योग-धंधों में एव्दोकिया विनोग्रादोवा और मारिया विनोग्रादोवा, खेती में मारिया देमचैंको, मरीना ग्नातेंको, Û अंजेलिना, पोलागुतिन, कोलेसोव, कोवार्दाक और बोरिन - स्ताखानोव आन्दोलन के ये पहले अग्रदूत थे।

इनके बाद, दूसरे आगे बढ़ने वाले कार्यकर्ता आये। उनकी पलटनें की पलटनें आगे आयीं, जिन्होंने पहले के अग्रदूतों के श्रम की उत्पादकता को पीछे छोड़ दिया। नवम्बर 1935 में, क्रेमलिन में स्ताखानोववादियों की पहली अखिल संघिय कान्फ्रेन्स हुई। उसमें काँमरेड स्तालिन ने भाषण दिया। इनसे स्ताखानोव आन्दोलन को जबर्दस्त प्रोत्साहन मिला।

काँमरेड स्तालिन ने अपने भाषण में कहा:

"स्ताखानोव आन्दोलन... समाजवादी होड़ की नयी लहर की अभिव्यक्ति है, समाजवादी होड़ की नयी और उंची मंजिल की अभिव्यक्ति है। ... पिछले दिनों, लगभग तीन साल पहले समाजवादी होड़ की पहली मंजिल के दौर में यह ज़रूरी नहीं था कि समाजवादी होड़ का सम्बन्ध आधुनिक कौशल से हो। दरअसल, उस समय आधुनिक कौशल जैसी चीज हमारे पास मुश्किल से थी। इसके विपरीत, समाजवादी होड़ की वर्तमान मंजिल, स्ताखानोव आन्दोलन, का सम्बन्ध आवश्यक रूप से आधुनिक कौशल से है। नये और उच्चतर कौशल के बिना, स्ताखानोव आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे पास कामरेड स्ताखानोव, बुसीगिन, स्मेतानिन, क्रिवोनोस, प्रोनिन, दोनों विनोग्रादोवा और दूसरे बहुत से लोग हैं। ऐसे नये आदमी, मेहनत करने वाले स्त्री और पुरुष जिन्होंने अपने धंधों के कौशल में उस्तादी हासिल की है, उससे काम लिया है और आगे बढ़ गये हैं। तीन साल पहले, ऐसे आदमी थे ही नहीं या मुश्किल से थे।... स्ताखानोव आन्दोलन का महत्व इस बात में है कि यह ऐसा आन्दोलन है जो कौशल के पुराने मान-दंड तोड़ रहा है, क्योंकि वे नाकाफ़ी हैं। कई जगह तो वह सबसे आगे बढ़े हुए पूंजीवादी देशों की श्रम की उत्पादकता से भी आगे बढ़ रहा है। इस तरह, यह आन्दोलन इस बात की अमली संभावना पैदा कर रहा है कि हमारे देश में समाजवाद को और दृढ़ किया जाये, यह संभावना पैदा कर रहा है कि हम अपने देश को दुनिया में सबसे समृद्ध देश बना सकें।" (उपÛ, पृष्ठ 526-27)

स्ताखानोववादियों के काम करने के तरीके बताते हुए और देश के भविष्य के लिये स्ताखानोव आन्दोलन का भारी महत्व प्रकट करते हुए, काँमरेड स्तालिन ने आगे कहा:

"हमारे साथियों, स्ताखानोववादियों को और नजदीक से देखिये। ये किस तरह के लोग हैं? ये लोग ज्यादातर नौजवान, या अधेड़ उम्र के मज़दूर स्त्री और पुरुष हैं, ऐसे लोग हैं जिनके पास संस्कृति और कौशल का ज्ञान है, जो अपने काम में अचूक और नपे-तुले कार्य की मिसालें देते हैं, जो काम में समय का महत्व समझते हैं और जिन्होंने मिनटों का ही नहीं सैकिंडों का भी हिसाब रखना सीखा है। इनमें से अधिकांश ने कौशल का अल्पतम1 कोर्स पूरा किया है और अपनी कौशल की शिक्षा जारी किये हुए हैं। इनमें कुछ इंजिनियरों, टैक्नीशियनों और प्रबंधकों की तरह, पुरातन से प्रेम और ठहराव नहीं है। ये कौशल के पुराने पड़ चुके मान-दंडों को चर करते हुए और नये और उच्चतर मान-दंड रचते हुए, हिम्मत से आगे बढ़ते जा रहे हैं। हमारे उद्योग-धंधों के नेताओं ने जो आर्थिक योजनायें बनायी हैं और योग्यता का जो हिसाब लगाया है, उनमें ये संशोधन करते जाते हैं। अक्सर इंजिनियर और टैक्नीशियन जो कहते हैं: उसे ये सुधार देते हैं और उसमें नयी चीज जोड़ देते हैं, उन्हें ये अक्सर शिक्षा देते हैं और आगे बढ़ने की पे्ररणा देते हैं। कारण यह कि ये ऐसे लोग हैं जो अपने धंधों के कौशल पर पूरी तरह हावी हो चुके हैं और कौशल से जो अधिकतम फ़ायदा उठाया जा सकता है, उसे उठाते हैं स्ताखानोववादियों की संख्या अभी कम है, लेकिन इसमें किसे संदेह हो सकता है कि कल उनकी संख्या दस गुनी बढ़ जायेगी? क्या यह स्पष्ट नहीं है कि स्ताखानोववादी उद्योग-धंधों में नये परिवर्तन करने वाले हैं, स्ताखानोव आन्दोलन हमारे उद्योग-धंधों के भविष्य का दर्पण है, उसमें मज़दूर वर्ग के सांस्कृतिक और कौशल सम्बन्धी स्तर के ऊंचे उठने के बीज हैं, वह हमारे सामने ऐसा रास्ता खोलता है जिस रास्ते से ही श्रम की उत्पादकता के वे ऊंचे आंकडे़ हासिल हो सकते हैं जो समाजवाद से कम्युनिज्म की तरफ़ बढ़ने के लिये अनिवार्य हैं, और जो मानसिक श्रम और शरीरिक श्रम का भेद मिटाने के लिये अनिवार्य है?" (उपÛ, पृष्ठ 529)

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1. कौशल का अल्पतम - समाजवादी उद्योग-धंधों में मज़दूरों के लिये आवश्यक कौशल संबंधी

ज्ञान का अल्पतम स्तर - अंÛ अनुÛ

 

स्ताखानोव आन्दोलन के फैलने से और समय से पहले दूसरी पंचवर्षीय योजना पूरी हो जाने से, ऐसी परिस्थितियां पैदा हुईं जिनमें श्रमिक जनता की खुशहाली और संस्कृति का स्तर एक नये सिरे से ऊंचा उठ सके।

दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौर में, मजदूरों और दफ्तर के कर्मचारियों की वास्तविक तनख्वाह दुगुनी से ज्यादा बढ़ चुकी थी। 1933 में, कुल तनख्वाह 34 अरब रूबल दी जाती थी। 1937 में, यह तनख्वाह बढ़ कर 81 अरब रूबल हो गयी। राज्य का सामाजिक बीमा-फण्ड 4 अरब 60 करोड़ रूबल से, 5 अरब 60 करोड़ रूबल तक बढ़ा। अकेले 1937 में, मज़दूरों और कर्मचारियों के राज्य द्वारा होने वाले बीमें पर, जीवन की परिस्थितियां सुधारने और सांस्कृतिक जरूरतें पूरी करने पर, स्वास्थ्य-गृहों, विश्राम-गृहों, सेनेटोरियमों और औषधि-व्यवस्था पर, लगभग 10 अरब रूबल खर्च किये गये थे।

देहात में, पंचायती खेती की व्यवस्था निश्चित रूप से दृढ़ की जा चुकी थी। इस काम में, कृषि-संघों की नियमावली से बड़ी सहायता मिली। यह नियमावली फ़रवरी 1935 में होने वाली पंचायती खेतों के आगे बढे़ हुए कार्यकर्ताओं की दूसरी कांग्रेस में स्वीकार की गयी थी। पंचायती खेत जो जमीन जोतते-बोते थे, वह उन्हें हमेशा बनाये रखने के लिये दी गयी थी, इससे भी पंचायती खेती को दृढ़ करने में बड़ी सहायता मिली। पंचायती खेती की व्यवस्था के मज़बूत होने से, ग्रामीण जनता की ग़रीबी और रोटी-रोजी के अनिश्चित होने का खात्मा हो गया। पहले, लगभग तीन साल पहले, पंचायती किसानों को हर काम के दिन के लिये एक या दो किलोग्राम अनाज मिलता था। अनाज पैदा करने वाले इलाकों में, अब अधिकांश पंचायती किसानों को पांच से बारह किलोग्राम तक अनाज मिलता था और बहुतों को काम के फ़ी दिन के लिये बीस किलोग्राम तक अनाज मिलता था, जिसमें दूसरी तरह की उपज और पैसे की आमदनी की गिनती न थी। अब अनाज पैदा करने वाले इलाकों में, ऐसे लाखों पंचायती किसान परिवार थे जिनकी सालाना आमदनी 500 से 1500 पूड अनाज तक थी; और चुकन्दर, कपास, सन, पशु-प्रजनन, अंगुर, साइट्रस, साग और फल पैदा करने वाले इलाकों में जिनकी सालाना आमदनी लाखों रूबल थी। पंचायती खेत समृद्ध हो गये थे। पंचायती किसान परिवारों का मुख्य ध्यान अनाज की नयी खत्तियां और नये गोदाम बनाने की तरफ़ ही मुख्य रूप से था, क्योंकि पुराने गोदाम बहुत थोड़ी सी सालाना आमदनी के लिये बनाये गये थे और उनसे परिवार की दस फी़सदी जरूरतें भी पूरी न होती थीं।

1936 में, लोगों की खुशहाली के बढ़ते हुए स्तर के विचार से, सरकार ने गर्भपात बन्द करने का कानून पास किया। इसके साथ ही, जच्चाखाने, शिशुगृह, दूध पिलाने के केन्द्र और किण्डरगार्टन बनाने के लिये विस्तृत कार्यक्रम मंजूर किया। 1936 में, इन सबके लिये 2,17,40,00,000 रूबल नियत किये गये; जबकि 1935 में इनके लिये 87 करोड़ 50 लाख रूबल नियत किये गये थे। बडे़ परिवारों को काफ़ी भत्ता देने के लिये, एक कानून बनाया गया। इस कानून के मातहत, 1933 में 1 अरब रूबल से ऊपर भत्ता दिया गया।

सार्वजनिक अनिवार्य शिक्षा लागू करने से और नये स्कूल बनाने से, जनता की सांस्कृतिक प्रगति तेजी से हुई। सारे देश में, भारी संख्या में स्कूल बनाये गये। प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में 1914 में 80 लाख विद्यार्थी थे; 1936-37 में उनकी तादाद 2 करोड़ 80 लाख हो गयी। इसी बीच, कृषि विद्यालयों के विद्यार्थियों की संख्या 1,12,000 से 5,42,000 तक बढ़ गयी।

सचमुच ही यह सांस्कृतिक क्रांति थी। आम जनता की खुशहाली और संस्कृति की सतह ऊंची होने से, सोवियत क्रांति की शक्ति, उसके बल और अजेयता का पता लगता था। पुराने जमाने में, क्रांतियां इसलिये नाकाम हुई थीं कि जनता को आजादी देने पर भी वे उसकी भौतिक और सांस्कृतिक हालत में कोई गहरा सुधार न कर सकी थीं। उनकी मुख्य कमजोरी यही थी। सभी क्रांतियों से हमारी क्रांति इसी बात में भिन्न्ा थी कि उसने जनता को ज़ारशाही और पूंजीवाद से मुक्त ही नहीं किया, बल्कि जनता की खुशहाली और सांस्कृतिक हालत में बुनियादी सुधार किया। उसकी शक्ति और अजेयता इसी बात में है।

स्ताखानोववादियों की पहली अखिल संघीय कान्फ्रेंस में, काँमरेड स्तालिन ने कहा थ:

"दुनिया में हमारी सर्वहारा क्रांति ही ऐसी क्रांति है जिसे जनता को न सिर्फ़ राजनीतिक परिणाम, बल्कि भौतिक परिणाम भी दिखाने का मौका मिला है। तमाम मजदूरों की क्रांतियों में, हम एक ही ऐसी क्रांति जानते हैं जो सत्ता ले सकी थी। वह थी - पैरिस कम्यून। लेकिन, वह ज्यादा दिन न चली। यह सही है कि उसने पूंजीवाद की बेडियां चूर करने की कोशिश की; लेकिन उन्हें चूर कर डालने का उसे काफ़ी समय न मिला और जनता को क्रंाति के लाभदायी भौतिक परिणाम दिखाने का और भी कम समय मिला था। हमारी क्रांति ही ऐसी क्रांति है कि जिसने पूंजीवाद की बेड़ियां ही नहीं तोड़ीं और जनता के लिये आजादी ही नहीं लायी, बल्कि वह जनता की खुशहाल जिन्दगी के लिये भौतिक परिस्थितियां निर्मित करने में भी सफल हुई है। हमारी क्रांति की शक्ति और अजेयता इसी बात में है।"(उपÛ, पृष्ठ 532)

 

3. सोवियतों की आठवीं कांग्रेस। सोवियत संघ के नये विधान की स्वीकृति।

फ़रवरी 1935 में, सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ की सोवियतों की सातवीं कांगे्रस ने एक प्रस्ताव पास किया कि सोवियत संघ का 1924 में स्वीकृत किया हुआ विधान बदल दिया जाये। सोवियत संघ के जीवन में जो विराट परिवर्तन हुए थे, उनसे विधान बदलना जरूरी था; क्योंकि सोवियत संघ का पहला विधान 1924 में मंजूर किया गया था। इस दौर में, देश की वर्ग-शक्तियों का परस्पर सम्बन्ध बिल्कुल बदल गया था। नये समावादी उद्योग-धंधे निर्मित हुए थे। कुलकों का विध्वंस हो चुका था। पंचायती खेती की जीत हुई थी। सोवियत समाज के आधार के रूप में, राष्ट्रीय अर्थतंत्र की हर शाखा में पैदावार के साधनों की समाजवादी मिल्कियत क़ायम की गयी थी। समाजवाद की जीत से, मुमकिन हुआ कि चुनाव की व्यवथा को और भी जनवादी बनाया जाये और गुप्त मतदान के साथ सार्वजनिक, समान और प्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रथा चालू की जाये!

काँमरेड स्तालिन के सभापतित्व में, विधान का मसौदा तैयार करने के लिये एक विधान-कमीशन बनाया गया था और उसने सोवियत संघ के नये विधान का मसौदा तैयार किया। मसौदा सारे देश के सामने बहस के लिये रखा गया; और यह बहस साढ़े पांच महीने चलती रही। उसके बाद, वह सोवियतों की असाधारण आठवीं कांगे्रस के सामने पेश किया गया।

सोवियतों की आठवीं कांग्रेस सोवियत संघ के नये विधान का मसौदा मंजूर या नामंजूर करने के लिये खास तौर से बुलायी गयी थी। यह कांगे्रस नवम्बर 1936 में हुई।

कांग्रेस के सामने नयेविधान के मसौदे पर रिपोर्ट देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने बताया कि सोवियत संघ में 1924 का विधान मंजूर होने के बाद कौन सी मुख्य तब्दीलियां हुई हैं।

1924 का विधान नेप के शुरू के दिनों में बना था। उस समय तक, सोवियत सरकार समाजवाद के विकास के साथ-साथ पूंजीवाद के विकास की भी अनुमति देती थी। सोवियत सरकार ने योजना बनायी थी कि दोनों व्यवस्थाओं-पूंजीवादी व्यवस्था और समाजवादी व्यवस्था - के बीच होड़ चलने के दौर में आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवाद पर समाजवाद की विजय संगठित और निश्चित की जायेगी। 'कौन जीतेगा?' – इस सवाल का अभी फ़ैसला न हुआ था। उस समय के उद्योग-धंधे कौशल के पुराने और नाकाफ़ी सामान से लैस थे। वे अभी युद्ध-पूर्व की सतह तक ही न पहुंच पाये थे। खेती की हालत इससे भी गयी-बीती थी। किसानों के निजी खेत एक अपार सागर थे और सरकारी तथा पंचायती खेत उसके छोटे-छोटे टापू। उस समय, सवाल कुलकों को खत्म करने का नहीं, सिर्फ़ उन्हें नियंत्रित करने का था। समाजवादी नाके पर, देश का सिर्फ 50 फ़ीसदी व्यापार होता था।

1936 में, सोवियत संघ की तस्वीर बिल्कुल ही दूसरी थी। उस समय तक, देश का आर्थिक जीवन पूरी तरह बदल गया था और आर्थिक जीवन के सभी क्षेत्रों में समाजवादी व्यवस्था की जीत हुई थी। अब शक्तिशाली समाजवादी उद्योग-धंधे थे, जिन्होंने युद्ध-पूर्व की उपज से सात गुनी पैदावार बढ़ा ली थी और व्यक्तिगत उद्योग-धंधों को पूरी तरह निकाल बाहर किया था। खेती में, पंचायती और सहकारी खेतों के रूप में, अप-टू-डेट मशीनों से लैस और दुनिया में सबसे बडे़ पैमाने पर चलने वाली यंत्र-सज्जित समाजवादी खेती की जीत हुई थी। 1936 तक, कुलक वर्ग रूप में पूरी तरह खत्म किये जा चुके थे और निजी खेती करने वाले किसान देश के आर्थिक जीवन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा न करते थे। व्यापार पूरी तरह राज्य और सहकारी समितियों के हाथ में था। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण सदा के लिये खत्म किया जा चुका था। आर्थिक जीवन की सभी शाखाओं में, नयी समाजवादी व्यवस्था की अडिग बुनियाद के तौर पर पैदावार के साधनों की सार्वजनिक, समाजवादी मिल्कियत  मजबूती से क़ायम हो चुकी थी। नये सोशलिस्ट समाज से ग़रीबी, बेकारी, संकट और मुफ़लिसी हमेशा के लिये बिदा हो चुके थे। सोवियत समाज के सभी सदस्यों की खुशहाल और सांस्कृतिक जिन्दगी के लिये परिस्थितियां रची जा चुकी थीं।

कामरेड स्तालिन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सोवियत संघ में वैसे ही आबादी की वर्ग-बनावट भी बदल गयी है। गृह-युद्ध के दौर में भी, जमींदार वर्ग और पुराने बडे़ साम्राज्यवादी पूंजीपतियों का खात्मा हो चुका था। समाजवादी निर्माण के वर्षों में, सभी शोषक तत्व - पूंजीपति, सौदागर, कुलक और मुनाफेखोर - मिटा दिये गये थे। मिटाये हुए शोषक वर्गों के सिर्फ़ नगण्य अवशेष रह गये थे, और उन्हें पूरी तरह से मिटाना बहुत ही निकट भविष्य की बात थी।

समाजवादी रचना के दौर में, सोवियत संघ की श्रमिक जनता में - मजदूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों में - गहरी तब्दीली हुई थी।

मज़दूर वर्ग अब शोषित वर्ग न था, जैसा कि पूंजीवाद में पैदावार के साधनों से हीन वह होता है। उसने पूंजीवाद को निर्मूल कर दिया था, पूंजीपतियों से पैदावार के साधन ले लिये थे और उन्हें जन-सम्पत्ति बना दिया था। वह 'सर्वहारा' शब्द के पुराने और सही अर्थ में सर्वहारा न रह गया था। सोवियत संघ के सर्वहारा वर्ग के पास राज्य-सत्ता थी, और वह बिल्कुल नये वर्ग में तब्दील हो गया था। वह ऐसा मज़दूर वर्ग हो गया था शोषण से मुक्त था, ऐसा मज़दूर वर्ग जिसने पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था मिटा दी थी और पैदावार के साधनों की समाजवादी मिल्कियत क़ायम की थी। इसलिये, यह ऐसा मज़दूर वर्ग था जैसा मनुष्य जाति के इतिहास ने पहले कभी भी न देखा था।

सोवियत संघ के किसानों की हालत में भी कम गहरे परिवर्तन न हुए थे। पुराने जमाने में, दो करोड़ से ऊपर निजी खेती करने वाले छोटे और मध्यम किसान परिवार अलग-अलग बाबा आदम के जमाने के औजारों से अपने छोटे-छोटे खेत जोतते-बोते रहे थे। जमींदार, कुलक, सौदागर, मुनाफेखोर, सूदखोर, वगैरह उनका शोषण करते थे। अब सोवियत संघ में बिल्कुल नयी तरह के किसान बन चुके थे। किसानों का शोषण करने के लिये अब जमींदार, कुलक, सौदागर और सूदखोर न थे। किसान परिवारों की भारी बहुसंख्या पंचायती खेतों में शामिल हो चुकी थी। इन पंचायती खेतों का आधार पैदावार के साधनों की निजी मिल्कियत न थी, बल्कि पंचायती मिल्कियत थी; ऐसी पंचायती मिल्कियत जो पंचायती मेहनत से पैदा हुई थी। ये नयी तरह के किसान थे, ऐसे किसान जो शोषण से मुक्त थे। ये ऐसे किसान थे जैसे मनुष्य जाति के इतिहास ने पहले कभी भी न देखे थे।

सोवियत संघ के बुद्धिजीवियों में भी तब्दीली हुई थी। अधिकांश में, ये बिल्कुल नये बुद्धिजीवी बन गये थे। बुद्धिजीवी वर्ग के अधिकांश सदस्य मज़दूरों और किसानों की पांति से आये थे। यह वर्ग पुराने बुद्धिजीवियों की तरह पूंजीवाद की सेवा न करता था; वह समाजवाद की सेवा करता था। वह सोशलिस्ट समाज का बराबरी के दर्जे वाला सदस्य था। मज़दूरों और किसानों के साथ, वह नये सोशलिस्ट समाज का निर्माण कर रहा था। यह नयी तरह का बुद्धिजीवी वर्ग था, जो जनता की सेवा करता था और सभी तरह के शोषण से मुक्त था। यह ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग था जैसा मनुष्य जाति के इतिहास ने पहले कभी भी न देखा था।

इस तरह, सोवियत संघ की श्रमिक जनता में पुराने वर्ग-विभाजन की रेखायें मिट रही थीं, वर्गों का पुराना अकेलापन मिट रहा था। मज़दूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों के आर्थिक और राजनीतिक अंतर्विरोध मुरझा रहे थे और मिट रहे थे। समाज की नैतिक और राजनीतिक एकता की बुनियाद रखी जा चुकी थी।

सोवियत संघ के जीवन में ये गम्भीर परिवर्तन, सोवियत संघ में समाजवाद की ये निर्णायक सफलतायें नये विधान में प्रतिबिम्बित हुई।

       नये विधान के अनुसार, सोवियत समाज में दो मित्र वर्ग हैं - मज़दूर और किसान। इन दोनों का वर्ग-विभेद अभी बना हुआ है। सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ मजदूरों और किसानों का समाजवादी राज्य है।

श्रमिक जनता के प्रतिनिधियों की सोवियतें सोवियत संघ की राजनीतिक बुनियाद हैं। जमींदारों और पूंजीपतियों की सत्ता खत्म करने और सर्वहारा डिक्टेटरशिप हासिल करने के फलस्वरूप, ये सोवियतें विकसित और मज़बूत हुई हैं।

सोवियत संघ में, सभी सत्ता श्रमिक जनता के प्रतिनिधियों की सोवियतों के रूप में शहर और देहात की श्रमिक जनता के हाथ में है।

सोवियत संघ में, राज्य-शक्ति का सबसे ऊंचा संगठन सोवियत संघ की सर्वोच्च (सुप्रिम) सोवियत है।

सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत में, समान अधिकार वाले दो सदन हैं – संघ की सोवियत और जातियों की सोवियत। गुप्त मतदान से सार्वजनिक, समान और प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर, चार साल के लिये सोवियत संघ के नागरिकों द्वारा सर्वोच्च सोवियत चुनी जाती है।

श्रमिक जनता के प्रतिनिधियों की सभी सोवियतों की तरह, सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव सार्वजनिक हैं। इसका मतलब यह है कि सोवियत संघ के सभी नागरिक जो 18 साल के हो चुके हों, नस्ल, जाति, धर्म, शिक्षा का स्तर, निवास-स्थान, सामाजिक उद्गम, सम्पत्ति की स्थिति, या पिछली कार्यवाही का विचार किये बिना, प्रतिनिधियों के चुनाव में वोट दे सकते हैं और स्वयं चुने जा सकते हैं। जो आदमी पागल हैं, या जिन्हें अदालतों ने ऐसी सजाएं दी हैं जिनमें निर्वाचन के अधिकार खोना शामिल हैं, इस नियम के अपवाद हैं।

प्रतिनिधियों का निर्वाचन समान रूप से होता है। इसका मतलब यह है कि हर नागरिक का एक वोट है और सभी नागरिक बराबरी की हैसियत से चुनाव में हिस्सा लेते हैं।

प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष होता है। इसका मतलब यह है कि श्रमिक जनता के प्रतिनिधियों की देहाती और शहरी सोवियतों से लेकर सोवियतसंघ की सर्वोच्च सोवियत तक और उसे मिला कर श्रमिक जनता के प्रतिनिधियों की सभी सोवियतें नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष वोट से चुनी जाती हैं।

सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत दोनों सदनों की मिलीजुली बैठक में अपना सभापति-मंडल और सोवियत संघ के जन-कमीसारों की समिति चुनती है।

सोवियत संघ की आर्थिक बुनियाद अर्थतंत्र की समाजवादी व्यवस्था और पैदावार के साधनों की समाजवादी मिल्कियत है। सोवियत संघ में, यह समाजवादी उसूल चरितार्थ होता है - "हर एक से उसकी योग्यता के अनुसार, हर एक को उसके काम के अनुसार।"

सोवियत संघ के सभी नागरिकों को काम करने के अधिकार की गारण्टी है; आराम करने और अवकाश भोगने के अधिकार, शिक्षा पाने के अधिकार, बुढ़ापे में और बीमारी, या अपाहिज होने पर परवरिश के अधिकार की गारंटी है।

जीवन के सभी क्षेत्रों में, स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिये गये हैं।

सोवियत संघ के नागरिकों की समानता, उनकी जाति या नस्ल का भेद किये बिना, एक अटूट विधान है।

सभी नागरिकों के लिये, अंतःकरण की स्वाधीनता और धर्म-विरोधी प्रचार की स्वाधीनता स्वीकृत है।

सोशलिस्ट समाज को मजबूत करने के लिये, भाषण, प्रकाशन और सभा-संगठन की आज़ादी की गारण्टी विधान करता है; सार्वजनिक संगठनों में एक होने के अधिकार, व्यक्ति की सुरक्षा, निवास और पत्र-व्यवहार के गुप्त रहने की सुरक्षा; श्रमिक जनता के हितों की रक्षा करने के लिये, या अपनी वैज्ञानिक कार्यवाही के लिये, या राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिये अपने संघर्ष के कारण सताये हुए विदेशी नागरिकों के शरण पाने के अधिकार की गारंटी करता है।

नये विधान ने सोवियत संघ के सभी नागरिकों के लिये गम्भीर कर्तव्य भी निश्चित किये हैं: कानून पालना, श्रम-अनुशासन पर चलना, ईमानदारी से सार्वजनिक कर्तव्य-पालन करना, सोशलिस्ट समाज के नियमों का आदर करना, सार्वजनिक, समाजवादी सम्पत्ति की रक्षा करना और उसे मज़बूत करना, और समाजवादी पितृभूमि की रक्षा करना।

"पितृभूमि की रक्षा करना, सोवियत संघ के हर नागरिक का पवित्र कर्तव्य है।"

विभिन्न्ा सभाओं में नागरिकों के इकट्ठे होने के अधिकार की चर्चा करते हुए, विधान के एक नियम में कहा गया है:

" मज़दूर वर्ग की पांति में से, और श्रमिक जनता के दूसरे हिस्सों से, सबसे सक्रिय और राजनीतिक रूप से सचेत नागरिक सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) में एकजुट होते हैं। यह पार्टी समाजवादी व्यवस्था को मज़बूत करने और विकसित करने के लिये मज़दूर वर्ग के संघर्ष में उसकी हिरावल है और श्रमिक जनता के सभी सार्वजनिक और सरकारी संगठनों की मेरुदंड है।"

सोवियतों की आठवीं कांग्रेस ने एकमत से सोवियत संघ के नये विधान के मसौदे का अनुमोदन किया और उसे स्वीकृत किया।

इस तरह, सोवियत देश ने एक नया विधान पाया, ऐसा विधान जिसमें समाजवाद और मज़दूरों तथा किसानों के जनतंत्र की विजय निहित थी।

इस तरह, विधान ने इस युगान्तरकारी तथ्य को वैधानिक रूप दिया कि सोवियत संघ ने विकास की नयी मंजिल में प्रवेश किया है, ऐसी मंजिल जिसमें सोशलिस्ट समाज की रचना पूरी हो चुकी है और कम्युनिस्ट समाज की तरफ़ क्रमशः बढ़ने का काम शुरू हो गया है, जहां सामाजिक जीवन का पथ-दर्शक सिद्धांत यह कम्युनिस्ट उसूल होगा: "हर एक से उसकी योग्यता के अनुसार, हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुसार।"

4. जासूसों, तोड़-फोड़ करने वालों और देश के गद्दारों के बुखारिन-त्रात्स्की गिरोह के अवशेषों का खात्मा। सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव की तैयारियां। पार्टी के भीतर व्यापक जनवाद - पार्टी का रास्ता। सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव।

1937 में, बुखारिन-त्रात्स्की गिरोह के राक्षसी कारनामों के बारे में नयी बातों का पता चला। प्याताकोव, रादेक आदि के मुकदमें से, तुखाचेव्स्की, याकिर आदि के मुकदमें से, और अंत में बुखारिन, राइकोव, क्रेस्तिन्स्की, रोजेनगोल्ज, वगैरह के मुकदमें से पता चला कि बुखारिनपंथी और त्रात्स्कीवादी बहुत पहले मिलकर जनता के शत्रुओं का एक मिलाजुला दल बना चुके थे, जो 'दक्षिणपंथियों और त्रात्स्कीवादियों के गुट' के रूप मे काम करता था।

मुकदमों से पता चला कि अक्तूबर समाजवादी क्रांति के प्रारम्भिक दिनों से ही मनुष्य जाति के इन कृमि-कीटों ने त्रात्स्की, जिनोवियेव और कामेनेव जैसे जनता के शत्रुओं के साथ मिल कर, लेनिन, पार्टी और सोवियत राज्य के खिलाफ़ षड़यंत्र  किया था। 1918 के आरम्भ में, ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की शांति न होने देने का नीच प्रयत्न, लेनिन के खिलाफ़ षड़यंत्र और 1918 के बसन्त में लेनिन, स्तालिन और स्वेर्दलोव की गिरफ्तारी और हत्या के लिये 'वामपंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों के साथ षड़यंत्र और 1918 की गर्मियों में लेनिन पर पैशाचिक हमला, जब पिस्तौल की गोली से लेनिन घायल हुए थे, 1918 की गर्मियों में 'वामपंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों का विद्रोह, पार्टी के भीतर लेनिन के नेतृत्व की जड़ काटने और उसे खत्म करने के उद्देश्य से 1921 में पार्टी के मतभेदों को जानबूझ कर बढ़ाना, लेनिन की बीमारी के समय और उनकी मृत्यु के बाद पार्टी-नेतृत्व को खत्म करने की कोशिशें, विदेशी जासूस-विभागों को राज्य के भेद बताना और जासूसी किस्म की सूचनायें भेजना, किरोव की नीच हत्या, तोड़-फोड़, उकसावे के काम और विस्फोट, मेंजिंस्की, कुईविशेव और गोर्की की हत्या - पता लगा कि ये और ऐसे ही राक्षसी काम बीस साल तक पूंजीवादी राज्यों के जासूस-विभागों की आज्ञा से त्रात्स्की, जिनोवियेव, कामेनेव, बुखारिन, राइकोव और उनके गुर्गों ने अपनी देख-रेख में कराये थे, या उनमें हिस्सा लिया था।

मुकदमों से पता चला कि त्रात्स्की-बुखारिन गुट के इन राक्षसों ने अपने मालिकों-विदेशी रियासतों के जासूस-विभागों - की आज्ञा से पार्टी और सोवियत राज्य का नाश करने का बीड़ा उठाया था; देश की सुरक्षा-शक्ति को कमजोर करने, विदेशी सैनिक हस्तक्षेप की सहायता करने, लाल फ़ौज की हार के लिये रास्ता साफ़ करने, सोवियत संघ का विभाजन करने, जापानियों को सोवियत समुद्री इलाका देने, पोलों को सोवियत बेलोरूसिया और जर्मनों को सोवियत उक्रैन देने, मज़दूरों और पंचायती किसानों की सफलतायें मिटाने और सोवियत संघ में पूंजीवादी गुलामी बहाल करने का बीड़ा उठाया था।

ये पिद्दी जैसे गद्दार, जिनकी ताकत चींटी से ज्यादा न थी, यह समझ बैठे थे कि वे देश के मालिक हैं और ख़्वाब देखने लगे थे कि उक्रैन, बेलोरूसिया और समुद्री इलाका बेचना, या दे देना सचमुच उनके हाथ में है।

ये गद्दार कीडे़ भूल गये थे कि सोवियत देश की सच्ची मालिक सोवियत जनता है, और उसने इन राइकोवों, बुखारिनों, जिनोवियेवों और कामेनेवों को राज्य के केवल अस्थायी कर्मचारी ही बनाया है, जिन्हें किसी समय भी वह अपने दफ्तरों से कूडे़ के ढेर की तरह बाहर फेंक सकती है।

फ़ासिस्टों के यह घृणित चाकर भूल गये कि सोवियत जनता के सिर्फ़ उंगली भर उठाने की देर है और इनका कहीं निशान बाक़ी नहीं रहेगा।

               सोवियत अदालत ने बुखारिन-त्रात्स्की गिरोह के राक्षसों को गोली से उड़ा देने की सज़ा दी।

घरेलू मामलों की जन-कमीसार-समिति ने प्राणदंड पूरा किया।

सोवियत जनता ने बुखारिन-त्रात्स्की गिरोह के नाश का अनुमोदन किया और फिर अपने आगे के कामों में लग गयी।

और, अगला काम यह था कि सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव की तैयारी की जाये और उसे संगठित रूप में किया जाये।

पार्टी ने चुनाव की तैयारियों में अपनी सारी शक्ति लगा दी। उसका विचार था कि सोवियत संघ के नये विधान को अमल में लाना देश के राजनीतिक जीवन में एक मोड़ है। इस मोड़ का मतलब था - चुनाव की व्यवस्था को पूरी तरह जनतांत्रिक बनाना, सीमित निर्वाचन की जगह सार्वजनिक निर्वाचन चालू करना, पूरी तरह से समान न होने वाले मताधिकार की जगह समान मताधिकार चालू करना, अप्रत्यक्ष चुनाव के बदले प्रत्यक्ष चुनाव जारी करना, और खुले मतदान के बदले गुप्त मतदान का चलन करना।

नये विधान के चलन के पहले पुजारियों, भूतपूर्व ग़द्दारों, भूतपूर्व कुलकों और सामाजिक रूप से उपयोगी धंधों में न लगे हुए आदमियों के मताधिकारों पर रोक थी। नये विधान ने प्रतिनिधियों का चुनाव सार्वजनिक करके निर्वाचन की सभी पाबन्दियों को खत्म कर दिया, जो इस तरह के नागरिकों पर लगी थीं।

पहले, प्रतिनिधियों का चुनाव असमान होता था, क्योंकि शहरी और देहाती आबादी के चुनाव के आधार अलग-अलग थे। लेकिन, अब निर्वाचन की समानता पर पाबन्दी लगाने की कोई ज़रूरत न रह गयी थी और सभी नागरिकों को चुनाव में समानता के आधार पर हिस्सा लेने का अधिकार दिया गया था।

पहले, सोवियत सत्ता की बीच वाली और ऊंची संस्थाओं के चुनाव अप्रत्यक्ष होते थे। लेकिन अब नये विधान के अनुसार, शहरी और देहाती सोवियतों से लेकर सर्वोच्च सोवियत तक सभी सोवियतों का चुनाव नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होना था।

पहले सोवियतों के प्रतिनिधि खुले मतदान से चुने जाते थे और उम्मीदवारों की सूचियों पर वोट पड़ते थे। लेकिन, अब प्रतिनिधियों के लिये वोट गुप्त मतदान से दिये जाते थे, और सूचियों को नहीं बल्कि हर निर्वाचन-क्षेत्र के लिये अलग-अलग नामजद व्यक्तिगत उम्मीदवारों को दिये जाते थे।

देश के राजनीतिक जीवन में, यह एक निश्चित मोड़ था।

नयी निर्वाचन-प्रथा का यह फल निकलना था, और दरअसल निकला कि जनता की राजनीतिक कार्यवाही और बढ़ी, सोवियत सत्ता की संस्थाओं पर आम जनता का ज्यादा नियंत्रण हुआ और जनता के प्रति सोवियत सत्ता की संस्थाओं की जिम्मेदारी और बढ़ी।

इस मोड़ के लिये पूरी तरह तैयार रहने के लिये, पार्टी को उसकी प्रेरक शक्ति बनना था और अगले चुनाव में उसकी प्रमुख भूमिका पूरी तरह निश्चित करनी थी। लेकिन, यह तभी हो सकता था जब खुद पार्टी-संगठन अपने रोजमर्रा के काम में पूरी तरह जनतांत्रिक हो जायें, जब वे पूरी तरह अपने अन्दरूनी पार्टी-जीवन में जनवादी-केन्द्रीयता के उसूलों पर चलें, जैसा कि पार्टी नियमावली का तक़ाजा था, जब पार्टी की सभी संस्थायें निर्वाचित हों, जब पार्टी में आलोचना और आत्मालोचना पूरी तरह विकसित हो, जब पार्टी के सदस्यों के प्रति पार्टी-संस्थाओं की पूरी-पूरी जिम्मेदारी हो, और जब खुद पार्टी सदस्य पूरी तरह से सक्रिय हों।

फ़रवरी 1937 में, काँमरेड ज्दानोव ने केन्द्रीय समिति की प्लीनम में सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव के लिये पार्टी-संगठनों को तैयार करने के विषय पर एक रिपोर्ट दी। उस रिपोर्ट से पता चला कि कई पार्टी संगठन बाक़ायदा पार्टी-नियमावली तोड़ रहे थे और अपने रोज़मर्रा के काम में जनतांत्रिक केन्द्रीयता के उसूल ठुकराते थे, चुनाव के बदले सदस्यों को कोआप्ट करते थे, अलग-अलग उम्मीदवारों को चुनने के बदले सूचियों को वोट देते थे, गुप्त मतदान के बदले, खुले मतदान से काम लेते थे, वगैरह। ज़ाहिर था कि जिन संगठनों में इस तरह का व्यवहार चल रहा था वे सही तौर पर सर्वोच्च सोवियत के चुनाव में अपना काम पूरा न कर सकते थे। इसलिये, सबसे पहले ज़रूरी था कि पार्टी-संगठनों में ऐसी जनतंत्र-विरोधी हरकतें बन्द की जायें और व्यापक जनवादी तरीके से पार्टी कार्य को संगठित किया जाये।

इसलिये काँमरेड ज्दानोव की रिपोर्ट सुनने के बाद, केन्द्रीय समिति की प्लीनम ने फ़ैसला किया:

"(क) पार्टी नियमावली के अनुसार, पार्टी के अन्दरूनी जनतंत्र के उसूलों के बिना शर्त और पूरी तरह पालन करने के आधार पर पार्टी कार्य पुनर्संगठित किया जाये।

 "(ख) पार्टी-कमिटियों में सदस्य कोआॅप्ट करने का चलन बन्द किया जाये और पार्टी-नियमावली के अनुसार, पार्टी-संगठनों की निर्देशक संस्थाओं के चुनाव का सिद्धांत बहाल किया जाये।

"(ग) पार्टी-संस्थाओं के चुनाव में, सूचियों पर वोट देने की मनाही की जाये; वोट अलग-अलग व्यक्तिगत उम्मीदवारों को दिये जायें और पार्टी के सभी सदस्यों का उम्मीदवारों को चुनौती देने और उनकी आलोचना करने का अनियंत्रित अधिकार सुरक्षित किया जाये।

"(घ) पार्टी-संस्थाओं के चुनाव में गुप्त मतदान का चलन किया जाये।

"(ड.) प्राथमिक पार्टी-संगठनों की पार्टी-कमिटियों से लेकर मण्डल और प्रदेश कमिटियों तक सभी पार्टी-संगठनों की पार्टी-संस्थाओं और जातीय कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समितियों के चुनाव किये जायें। ये चुनाव 20 मई तक पूरे हो जायें।

"(च) पार्टी-संगठनों को आज्ञा दी जाये कि पार्टी-संस्थाओं के काम की मियाद के बारे में पार्टी नियमावली की धारायें सख्ती से मानी जायें, यानी प्राथमिक पार्टी-संगठनों में सालाना चुनाव करना, जिले और शहर के संगठनों में सालाना चुनाव करना और मण्डल, प्रदेश और प्रजातंत्रों के संगठनों में हर अठारहवें महीने चुनाव करना।

"(छ) यह निश्चित करना कि प्राथमिक पार्टी-संगठन इस नियम का सख्ती से पालन करें कि आम फैक्टरी सभाओं में पार्टी-कमिटियां चुनी जायें और प्रतिनिधियों के सम्मेलन उनकी जगह न ले लें।

"(ज) कई प्राथमिक पार्टी-संगठनों के इस चलन का खा त्मा करना कि आम मीटिंगें प्रायः खत्म करके, उनकी जगह विभाग-मीटिंगें और प्रतिनिधि- सम्मेलन किये जायें।"

इस तरह, पार्टी ने आगामी चुनाव की तैयारियां शुरू कीं।

केंद्रीय समिति का यह फ़ैसला भारी राजनीतिक महत्व का था। इसका महत्व इसी बात में न था कि उससे सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव के लिये पार्टी आन्दोलन शुरू हुआ, बल्कि इसमें भी, और सबसे पहले इसी में था कि उसने पार्टी-संगठनों को अपना काम पुनर्संगठित करने में मदद दी, पार्टी के अन्दरूनी  जनतंत्र का उसूल लागू करने में और पूरी तैयारी के साथ सर्वोच्च सोवियत के चुनावों का सामना करने में मदद दी।

पार्टी ने फ़ैसला किया कि कम्युनिस्टों और ग़ैरपार्टी जनता के संयुक्त निर्वाचन-दल को चुनाव आन्दोलन चलाने में अपनी नीति की धुरी बनाया जाये। पार्टी ने चुनाव-क्षेत्रों में गै़रपार्टी जनता के साथ मिलेजुले उम्मीदवार खडे़ करने का फ़ैसला करके एक संयुक्त दल में, ग़ैरपार्टी जनता के सहयोग से, चुनावों में प्रवेश किया। पूंजीवादी देशों के चुनावों के लिये यह बिल्कुल अभूतपूर्व और असम्भव सी चीज थी, लेकिन हमारे देश में कम्युनिस्टों और गै़रपार्टी जनता का संयुक्त दल बिल्कुल स्वाभाविक सी चीज थी, क्योंकि यहां विरोधी वर्ग बिल्कुल न रह गये थे और जनता के सभी हिस्सों की नैतिक और राजनीतिक एकता एक असन्दिग्ध सत्य है।

7 दिसम्बर 1937 को, पार्टी की केन्द्रीय समिति ने निर्वाचकों के नाम एक घोषणापत्र निकाला, जिसमें कहा गया था:

"12 दिसम्बर 1937 को, हमारे समाजवादी विधान के अनुसार, सोवियत संघ की श्रमिक जनता देश की सर्वोच्च सोवियत के प्रतिनिधियों का चुनाव करेगी। बोल्शेविक पार्टी गैरपार्टी मजदूरों, किसानों दफ्त़र के कर्मचारियों और बुद्धिजीवियों के सहयोग से, संयुक्त दल में, चुनावों में प्रवेश करती है। बोल्शेविक पार्टी दीवाल खड़ी करके ग़ैरपार्टी जनता से अपने-आपको दूर नहीं रखती, बल्कि इसके विपरित, गैरपार्टी जनता के साथ सहयोग से, संयुक्त दल में, मजदूर सभाओं और दफ्त़रों के कर्मचारियों के ट्रेड यूनियनों, नौजवान कम्युनिस्ट सभाओं और दूसरे गैरपार्टी-संगठनों और सभाओं के साथ संयुक्त दल में चुनावों में प्रवेश करती है। इसलिये, उम्मीदवार कम्युनिस्टों और ग़ैरपार्टी जनता के मिलेजुले उम्मीदवार होंगे; हर ग़ैरपार्टी प्रतिनिधि कम्युनिस्टों का भी प्रतिनिधि होगा, ठीक जैसे कि हर कम्युनिस्ट प्रतिनिधि गै़रपार्टी जनता का भी प्रतिनिधि होगा।"

केंद्रीय समिति के घोषणापत्र के अंत में, निर्वाचकों से यह अपील की गयी थी: "सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की केन्द्रीय समिति तमाम कम्युनिस्टों और हमदर्दों का आह्वान करती है कि वे गैरपार्टी उम्मीदवारों के लिये वैसे ही एकमत होकर वोट दें जैसे वे कम्युनिस्ट उम्मीदवारों को वोट देते हैं।

"सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की केन्द्रीय समिति तमाम गैरपार्टी निर्वाचकों का आह्वान करती है कि वे कम्युनिस्ट उम्मीदवारों के लिये वैसे ही एकमत होकर वोट दें जैसे कि वे गैरपार्टी उम्मीदवारों के लिये देंगे।

"सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की केन्द्रीय समिति सभी निर्वाचकों का आह्वान करती है कि वे 12 दिसम्बर 1937 को एक साथ निर्वाचन केन्द्रों में संघीय सोवियत और जातियों की सोवियत के प्रतिनिधि चुनने के लिये आयें।

"ऐसा एक भी निर्वाचक न होना चाहिये कि जो सोवियत राज्य की सर्वोच्च संस्था के प्रतिनिधि चुनने के गौरवपूर्ण अधिकार का उपयोग न करे।

"ऐसा एक भी सक्रिय नागरिक न होना चाहिये कि जो इस बात में मदद देना अपना नागरिक कर्तव्य न समझे कि सभी निर्वाचक, बिना किसी अपवाद के, सर्वोच्च सोवियत के चुनावों में हिस्सा लें।

"12 दिसम्बर 1937 का दिन एक महान् त्योहार होना चाहिये, जिसमें लेनिन और स्तालिन के विजयी झण्डे के चारों तरफ़ सोवियत संघ की सभी जातियों की श्रमिक जनता के संघ-बद्ध होने का उत्सव मनाया जाये।"

11 दिसम्बर 1937 को, चुनाव से एक दिन पहले, काँमरेड स्तालिन ने जिस इलाके में वे नामजद हुए थे, वहां के निर्वाचकों के सामने भाषण दिया। इसमें उन्होंने बताया कि जनता जिन सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को चुनेगी और सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत का प्रतिनिधि बनायेगी, वे किस तरह के होने चाहिये। काँमरेड स्तालिन ने कहा:

"निर्वाचकों को यह मांग करनी चाहिये कि उनके प्रतिनिधि अपने काम के योग्य बने रहें; अपने काम में वे राजनीतिक मूढ़मतियों की सतह तक न फिसल जायें, अपनी जगह वे लेनिन की तरह के राजनीतिक कार्यकर्ता बनें रहें, सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के रूप में उनकी रूप-रेखा वैसी ही साफ़-सुथरी और निश्चित हो जैसी लेनिन की थी, वे लड़ाई में वैसे ही निडर हों और जनता के शत्रुओं की तरफ़ वैसे ही निर्मम हों जैसे लेनिन थे, वे सभी तरह की बदहवासी से, बदहवासी जैसी चीज से भी, मुक्त रहें और जब परिस्थिति उलझने लगे और क्षितिज पर कोई खतरा दिखाई दे तो वे हर तरह के भय से वैसे ही मुक्त हों जैसे लेनिन थे; पेचीदा समस्याओं को सुलझाने में, जहां समझ-बूझकर दृष्टिकोण बनाना होता है और पक्ष और विपक्ष की बात अच्छी तरह तौलनी होती है, वे वैसे ही समझ-बूझकर और बुद्धिमानी से काम करें जैसे लेनिन करते थे, वे वैसे ही सच्चे और ईमानदार हों जैसे लेनिन थे, वे अपनी जनता से वैसे ही प्रेम करें जैसे लेनिन करते थे।"

12 दिसम्बर को, सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव भारी उत्साह के साथ समाप्त हुए। ये चुनाव से बढ़ कर कुछ और भी थे। ये एक महान त्योहार थे, जिसमें सोवियत जनता की विजय का उत्सव मनाया गया था, वे सोवियत संघ की जनता की विशाल मैत्री का प्रदर्शन थे।

कुल 9 करोड़ 40 लाख निर्वाचकों में से, 9 करोड़ 10 लाख से ऊपर ने, या 96.8  फ़ीसदी ने वोट डाले। इनमें से 8,98,44,000 या 98.6 फ़ीसदी ने कम्युनिस्टों और गै़रपार्टी जनता के संयुक्त दल के उम्मीदवारों के लिये वोट दिये। सिर्फ़ 6,32,000 या 1 फ़ीसदी से कुछ कम ने कम्युनिस्टों और ग़ैरपार्टी जनता के संयुक्त दल के उम्मीदवारों के खिलाफ़ वोट दिये। संयुक्त दल के सभी उम्मीदवार बिना किसी अपवाद के चुने गये।

इस तरह, 9 करोड़ लोगों ने एक राय होकर अपने वोटों से सोवियत संघ में समाजवाद की जीत को पक्का किया।

कम्युनिस्टों और ग़ैरपार्टी जनता के संयुक्त दल के लिये, यह उल्लेखनीय विजय थी।

यह बोल्शेविक पार्टी की विजय थी।

अक्तूबर क्रांति की 20वीं वार्षिकी पर, अपने ऐतिहासिक भाषण में काँमरेड मालोतोव ने सोवियत जनता की जिस नैतिक और राजनीतिक एकता का हवाला दिया था, यह चुनाव उसका ज्वलंत प्रमाण था।

उपसंहार

बोल्शेविक पार्टी ने जो ऐतिहासिक मार्ग तय किया है, उससे कौन से मुख्य परिणाम निकलते हैं?

सोÛसंÛÛपाÛ (बोÛ) के इतिहास से हमें कौन सी शिक्षा मिलती है?

(1) पार्टी के इतिहास से सबसे पहले हमें यह शिक्षा मिलती है कि सर्वहारा क्रान्ति की विजय, सर्वहारा डिक्टेटरशिप की विजय सर्वहारा की क्रान्तिकारी पार्टी के बिना अंसभव है; ऐसी पार्टी के बिना असंभव है जो अवसरवाद से मुक्त हो, जो समझौतावादियों और समपर्णवादियों का ज़रा भी मुलाहिजा न करती हो और पूंजीपतियों और उनकी राज्य-सत्ता की तरफ़ क्रान्तिकारी रुख अपनाती हो।

पार्टी के इतिहास से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सर्वहारा वर्ग को ऐसी पार्टी के बिना छोड़ देने का मतलब है - उसे क्रान्तिकारी नेतृत्व के बिना छोड़ देना, और उसे क्रान्तिकारी नेतृत्व के बिना छोड़ने का मतलब है - सर्वहारा क्रान्ति के उद्देश्य को चैपट कर देना।

पार्टी के इतिहास से हमें यह शिक्षा मिलती है कि पच्छिमी यूरोप के ढंग की, साधारण सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी - जो घरेलू शान्ति की हालत में बढ़ी हो, अवसरवादियों के पीछे घिसटती हो, 'सामाजिक सुधारों' का सपना देखती हो और सामाजिक क्रान्ति से भय खाती हो - ऐसी पार्टी नहीं हो सकती।

पार्टी का इतिहास हमें यह शिक्षा देता है कि सिर्फ़ नयी तरह की पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी, सामाजिक क्रान्ति की पार्टी, पूंजीपतियों के खिलाफ़ निर्णायक युद्ध के लिये सर्वहारा को तैयार कर सकने वाली और सर्वहारा क्रान्ति की विजय संगठित कर सकने वाली पार्टी ही ऐसी पार्टी हो सकती है।

सोवितय संघ की बोल्शेविक पार्टी ऐसी ही पार्टी है।

काँमरेड स्तालिन कहते हैं:

"क्रान्ति से पूर्व के दिनों में, बहुत कुछ शान्तिमय विकास के दिनों में, जब दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियां मज़दूर आन्दोलन में प्रमुख शक्ति थीं और संघर्ष के पार्लियामेंटरी रूप मुख्य रूप समझे जाते थे, तब पार्टी का वह निर्णायक और भारी महत्व न था, और न हो सकता था, जो आगे चल कर खुले क्रान्तिकारी  संघर्ष की परिस्थितियों में हुआ। दूसरी इन्टरनेशनल पर होने वाले हमलों से  उसकी रक्षा करते हुए, काॅटस्की कहता है कि दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियां शान्ति का साधन हैं न कि युद्ध का, और इसीलिये युद्ध के दिनों में, सर्वहारा की क्रान्तिकारी कार्यवाही के दिनों में कोई महत्वपूर्ण क़दम उठाने में वे असमर्थ थीं। यह बिल्कुल ठीक है। लेकिन, इसका मतलब क्या है ? इसका मतलब यह है कि दूसरी इन्टरनेशल की पार्टियां सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्ष के अयोग्य हैं, वे सर्वहारा वर्ग की लड़ाकू पार्टियां नहीं हैं, जो मज़दूरों को सत्तारूढ़ करने में उनकी अगुआई कर सकें बल्कि चुनाव की मशीनें हैं, जो पार्लियामेंटरी चुनाव और पार्लियामेंटरी संघर्ष के लिये रची गयी हैं। दरअसल, यही सबब है कि जिन दिनों दूसरी इन्टरनेशनल का अवसरवाद ज़ोरों पर था, तब सर्वहारा वर्ग का मुख्य राजनीतिक संगठन पार्टी न थी बल्कि उसका पार्लियामेंटरी गुट था। इसे सभी लोग जानते हंै कि उस समय पार्टी सचमुच पार्लियामेंटरी गुट का पुछल्ला थी, और उसके मातहत थी। कहना न होगा कि ऐसी हालत में और ऐसी पार्टी के हाथ में बागडोर होने पर, सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति के लिये तैयार करने का सवाल ही न उठ सकता था।

"लेकिन, नये दौर के शुरू होते ही परिस्थिति बुनियादी तौर पर बदल गयी। नया दौर खुली वर्ग-टक्करों का दौर है, सर्वहारा की क्रांतिकारी कार्यवाही, सर्वहारा क्रांति का दौर है, ऐसा दौर है जबकि साम्राज्यवाद का तख्ता उलटने के लिये और सर्वहारा के सत्तारूढ़ होने के लिये प्रत्यक्ष शक्ति-संगठन हो रहा है। इस दौर में, सर्वहारा वर्ग के सामने नये काम आते हैं। उसके सामने नयी क्रान्तिकारी नीति पर समूचे पार्टी कार्य को पुनर्संगठित करने के काम आते हैं; सत्ता के लिये क्रान्तिकारी संघर्ष की भावना में मज़दूरों को शिक्षित करने के काम आते हैं; रिजर्व शक्ति तैयार रखने और उसे आगे बढ़ाने के काम आते   हैं; पड़ौसी देशों के मजदूरों से सहयोग कायम करने के काम आते हैं; उपनिवेशों और पराधीन देशों के स्वाधीनता आन्दोलन से मज़बूत सम्बन्ध क़ायम करने वग़ैरह-वग़ैरह के काम आते हैं। यह समझना कि पुरानी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियां, जो पार्लियामेंटशाही की शान्तिमय परिस्थितियों में बढ़ी थीं, ये नये काम कर सकंेंगी, अपने को घोर निराशा के दलदल में डालना है और अनिवार्य रूप से पराजित होना है। अगर ऐसे काम सम्भालने की जिम्मेदारी रहते हुए सर्वहारा वर्ग पुरानी पार्टियों के नेतृत्व में रहे, तो वह पूरी तरह निहत्था ही रहेगा। कहना न होगा कि सर्वहारा वर्ग ऐसी हालत में रहना मंजूर न कर सकता था।

"इसीलिये, एक नयी पार्टी, एक लड़ाकू पार्टी, एक क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत पैदा हुई, जो इतनी साहसी हो कि सत्ता के लिये संघर्ष मेंं मज़दूरों की  अगुवाई कर सके, जो इतनी अनुभवी हो कि क्रान्तिकारी परिस्थिति के पेचीदा हालात में अपना दिशा-ज्ञान बनाये रख सके और जो इतनी लचीली हो कि मंजिल तक पहुँचने की राह में तमाम छिपी हुई विघ्नबाधाओं से बचती हुई चल सके।

"ऐसी पार्टी के बिना, साम्राज्यवाद का तख्ता उलटने और सर्वहारा डिक्टेटरशिप क़ायम करने की बात सोचना भी बेकार है।

 "यह नयी पार्टी लेनिनवाद की पार्टी है।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 80-81)

(2) पार्टी के इतिहास से हमें आगे यह शिक्षा मिलती है कि मज़दूर वर्ग की पार्टी अपनी वर्ग-नेत्री की भूमिका तब तक पूरी नहीं कर सकती, सर्वहारा क्रान्ति की संगठनकत्र्री और नेत्री की भूमिका तब तक पूरी नहीं कर सकती, जब तक कि वह मज़दूर आन्दोलन के आगे बढ़े हुए सिद्धान्त, मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त में माहिर नहीं होती।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत की शक्ति इस बात में है कि किसी भी परिस्थिति में सही दिशा पहचानने में वह पार्टी की मदद करती है, सामयिक घटनाओं के भीतरी सम्बन्ध समझने में, उनकी गति को पहले से देखने में और न सिर्फ़ यही समझने में कि ये घटनायें कैसे और किस दिशा में इस समय आगे बढ़ रही हैं, बल्कि कैसे और किस दिशा में वे भविष्य में भी बढे़ेंगी, मदद देती है।

सिर्फ़ ऐसी पार्टी, जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर हो चुकी हो, विश्वास के साथ आगे बढ़ सकती है और मज़दूर वर्ग को आगे ले जा सकती है।

दूसरी तरफ़ ऐसी पार्टी जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर नहीं है, मजबूरन अंधेरे में रास्ता टटोलती है, अपनी कार्यवाही में विश्वास खो देती है और मज़दूर वर्ग को आगे नहीं ले जा पाती।

ऐसा लग सकता है कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर होने के लिये बस इतना ही ज़रूरी है कि मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की रचनाओं से अलग-थलग नतीजे और स्थापनायें मेहनत के साथ रट ली जायें, मौके से उनका उद्धरण देना सीख लिया जाये और बाकी के लिये इस उम्मीद का भरोसा किया जाये कि ऐसे रटे हुए परिणाम और स्थापनायें हर किसी परिस्थिति और अवसर के अनुकूल होंगी। लेकिन, मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत की तरफ़ ऐसा रवैया बिल्कुल ग़लत है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत को सूत्रों का संग्रह न समझना चाहिये, कुछ प्रश्नोत्तरों की सूची न समझना चाहिये, कोई धर्म-ग्रंथ न समझना चाहिए, और खुद मार्क्सवादियों को उसका मुल्ला और पंडित न समझना चाहिये। मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत समाज के विकास का विज्ञान है, मज़दूर आन्दोलन का विज्ञान है, सर्वहारा क्रांति का विज्ञान है, कम्युनिस्ट समाज रचने का विज्ञान है। विज्ञान की हैसियत से, वह एक जगह स्थिर नहीं रहता, न रह सकता है बल्कि विकसित होता है और अपने को पूर्ण बनाता है। यह स्पष्ट है कि अपने विकास में वह ज़रूर ही नये अनुभव और नये ज्ञान से समृद्ध होगा और समय बीतने पर उसकी कुछ स्थापनायें और परिणाम ज़रूर ही बदलेंगे, नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुकूल नयी स्थापनायें और परिणाम ज़रूर ही उनकी जगह लेंगे।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर होने का हरगिज़ यह मतलब नहीं है कि उसके तमाम सूत्रों और परिणामों को रट लिया जाये और उसके हर शब्द से चिपके रहा जाये। मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर होने के लिये; हमें सबसे पहले उसके शब्दों और तत्व में भेद करना सीखना चाहिये।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर होने का मतलब है कि उस सिद्धांत के सार-तत्व को पचाना और सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की बदलती हुई परिस्थितियों में, क्रांतिकारी आन्दोलन की अमली समस्यायें हल करने में उसका उपयोग सीखना।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर होने का मतलब है, इस सिद्धांत को क्रांतिकारी आन्दोलन के नये तजुर्बे से भरा-पूरा बनाना, उसे नयी स्थापनाओं और परिणामों से समृद्ध करना। मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत में माहिर होने का मतलब है कि उसकी पुरानी पड़ चुकी स्थापनाओं और परिणामों को सिद्धांत के तत्व के अनुसार बदलने में हिचकिचाये बिना, उनकी जगह नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुकूल स्थापनाओं और परिणामों को रख कर, उसे विकसित करने और बढ़ाने की योग्यता रखना।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत कठमुल्लापन नहीं है, बल्कि काम करने के लिये एक मार्ग-दर्शक है।

दूसरी रूसी क्रांति (फ़रवरी 1917) से पहले, सभी देशों के मार्क्सवादी यह मानते थे कि पार्लियामेण्टरी जनवादी-प्रजातंत्र ही पूंजीवाद से समाजवाद की तरफ़ बढ़ने के दौर में समाज के राजनीतिक संगठन का सबसे उपयुक्त रूप है। यह सही है कि 1870 के आस-पास मार्क्स ने कहा था कि सर्वहारा डिक्टेटरशिप का सबसे उपयुक्त  रूप पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र नहीं है बल्कि पैरिस कम्यून जैसा राजनीतिक संगठन है।

लेकिन दुर्भाग्य से, मार्क्स ने अपनी रचनाओं में इस स्थापना को और विकसित न किया था और वह भूला दी गयी थी। इसके सिवाय, 1891 के एरफ्रुट प्रोग्राम के मसौदे की अपनी आलोचना में, एंगेल्स ने यह अधिकृत बयान दिया था कि "जनवादी प्रजातंत्र ...सर्वहारा डिक्टेटरशिप का अपना निश्चित रूप...है।" इससे कोई संदेह नहीं रह जाता कि जनवादी प्रजातंत्र को ही मार्क्सवादी सर्वहारा डिक्टेटरशिप का राजनीतिक रूप समझते चले आये थे। आगे चलकर, एंगेल्स की यही स्थापना सभी मार्क्सवादियों के लिये, लेनिन के लिये भी, पथ-दर्शक सिद्धांत बन गयी थी। लेकिन, 1905 की रूसी क्रांति ने और खास तौर से फरवरी 1917 की क्रांति ने समाज के राजनीतिक संगठन का एक नया रूप पेश किया - मज़दूर और किसान प्रतिनिधियों की सोवियतें। दोनों रूसी क्रांतियों के तजुर्बे का अध्ययन करके और मार्क्सवाद के सिद्धांत के आधार पर, लेनिन इन नतीजे पर पहुंचे कि सर्वहारा डिक्टेटरशिप के लिये सबसे अच्छा राजनीतिक रूप पार्लियामेंटरी जनवादी प्रजातंत्र नहीं है, बल्कि सोवियतों का प्रजातंत्र है। इस आधार से आगे बढ़ते हुये, अप्रैल 1917 में, पूंजीवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति की तरफ बढ़ने के दौर में, लेनिन ने सर्वहारा डिक्टेटरशिप के सबसे अच्छे राजनीतिक रूप के तौर पर सोवियतों के प्रजातंत्र का नारा दिया। सभी देशों के अवसरवादी पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र से चिपके रहे और लेनिन पर मार्क्सवाद से हटने और जनतंत्र का नाश करने का दोष लगाते रहे। लेकिन अवश्य ही, सच्चे मार्क्सवादी लेनिन ही थे जो मार्क्सवाद के सिद्धांत में माहिर हो चुके थे, न कि वे अवसरवादी। कारण यह कि लेनिन मार्क्सवादी सिद्धांत को नये अनुभव से समृद्ध करके उसे आगे बढ़ा रहे थे, जबकि अवसरवादी उसे पीछे घसीट रहे थे और उसकी एक स्थापना को  कठमुल्लेपन से पकडे़ बैठे थे।

हमारी पार्टी, हमारी क्रांति और मार्क्सवाद का क्या हश्र होता अगर लेनिन मार्क्सवाद की शब्दावली से कच्ची खा जाते और उनमें यह हिम्मत न होती कि एंगेल्स की रची हुई मार्क्सवाद की एक पुरानी स्थापना की जगह सोवियतों के प्रजातंत्र के बारे में नयी स्थापना रखें, ऐसी स्थापना जो नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुकूल थी? पार्टी अंधेरे में भटकती रहती, सोवियतें बिखर जातीं, हमारे यहां सोवियत सत्ता न होती और मार्क्सवादी सिद्धांत को भारी धक्का लगता। सर्वहारा वर्ग हार जाता और उसके दुश्मन जीत जाते।

साम्राज्यवाद से पहले के पूंजीवाद का अध्ययन करके, एंगेल्स और मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचे थे कि समाजवादी क्रांति अकेले एक देश में विजयी नहीं हो सकती, वह एकबारगी धावा बोल कर ही सभी या अधिकांश सभ्य देशों में विजयी हो सकती है। यह बात 19वीं सदी के मध्य की है। यह परिणाम आगे चल कर सभी मार्क्सवादियों के लिये मार्ग-दर्शक सिद्धांत बन गया। लेकिन, 20वीं सदी के शुरू होते-होते, साम्राज्यवाद से पहले का पूंजीवाद बढ़ कर साम्राज्यवादी पूंजीवाद हो गया, उभरता हुआ पूंजीवाद गतिरुद्ध पूंजीवाद में बदल गया। साम्राज्यवादी पूंजीवाद का अध्ययन करके, मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर, लेनिन इस नतीजे पर पहुंचे कि एंगेल्स और मार्क्स का पुराना सूत्र नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुकूल नहीं रह गया है और समाजवादी क्रांति की विजय अकेले एक देश में बिल्कुल सम्भव है। सभी देशों के अवसरवादी एंगेल्स और मार्क्स के पुराने सूत्र से चिपके रहे और लेनिन पर मार्क्सवाद से हटने का दोष मढ़ते रहे। लेकिन, अवश्य ही सच्चे मार्क्सवादी लेनिन ही थे जो मार्क्सवाद के सिद्धांत में माहिर थे, न कि वे अवसरवादी; कारण यह कि लेनिन मार्क्सवादी सिद्धांतों को नये अनुभव से समृद्ध करके उसे आगे बढ़ा रहे थे, जबकि अवसरवादी उसे पीछे घसीट रहे थे और उसको मुर्दा बना रहे थे।

पार्टी, हमारी क्रांति और मार्क्सवाद का क्या हश्र होता अगर लेनिन मार्क्सवाद की शब्दावली से कच्ची खा जाते और उनमें सैद्धांतिक आत्मविश्वास का इतना बल न होता कि मार्क्सवाद के एक पुराने परिणाम को खारिज कर दें और उसकी जगह एक नया परिणाम रखें, जो अकेले एक देश में समाजवाद की विजय की सम्भावना का दावा करता हो, ऐसा परिणाम जो नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुकूल हो? पार्टी अंधेरे में भटकती रहती, सर्वहारा क्रांति नेतृत्व विहीन हो जाती, और मार्क्सवादी सिद्धांत का पतन शुरू हो जाता। सर्वहारा वर्ग हार जाता और उसके दुश्मन जीत जाते।

       अवसरवाद का हमेशा यही मतलब नहीं होता कि मार्क्सवादी सिद्धांत या उसकी किन्हीं स्थापनाओं और परिणामों को सीधे-सीधे नामंजूर किया जाये। अवसरवाद कभी-कभी इस कोशिश में भी प्रकट होता है कि मार्क्सवाद की उन स्थापनाओं से चिपका रहे जो पुरानी पड़ चुकी हैं और उन्हें धर्म-सूत्र की तरह बना दिया जाये, जिससे कि मार्क्सवाद का और आगे को विकास रोक दिया जाये और फलतः सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी आन्दोलन का विकास रोक दिया जाये।

बिना अतिशयोक्ति के भय के, यह कहा जा सकता है कि एंगेल्स की मृत्यु के बाद सिद्धांत में माहिर लेनिन, और लेनिन के बाद, स्तालिन और लेनिन के दूसरे शिष्य ही एकमात्र ऐसे मार्क्सवादी रहे हैं जिन्होंने मार्क्सवादी सिद्धांत को आगे बढ़ाया है और जिन्होंने सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की नयी परिस्थितियों में नये तजुर्बों से उसे समृद्ध किया है।

 

और, ठीक इसी वजह से कि लेनिन और लेनिनवादियों ने मार्क्सवादी सिद्धांत को आगे बढ़ाया है, लेनिनवाद मार्क्सवाद का अगला विकास है। वह सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की नयी परिस्थितियों का मार्क्सवाद है, साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांतियों के युग का मार्क्सवाद है, भूमंडल के छठे भाग में समाजवाद की विजय के युग का मार्क्सवाद है।

अक्तूबर 1917 में, बोल्शेविक पार्टी की जीत न हो पाती यदि उसके प्रमुख सदस्य मार्क्सवाद के सिद्धांत में माहिर न हो चुके होते, यदि उन्होंने काम करने के लिये इस सिद्धांत को मार्ग-दर्शक के रूप में देखना न सीखा होता, यदि उन्होंने सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष के नये तजुर्बे से समृद्ध करके मार्क्सवादी सिद्धांत को आगे बढ़ाना न सीखा होता।

उन जर्मन मार्क्सवादियों की आलोचना करते हुए, जिन्होंने अमरीका में वहां के मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व का भार संभाला था, एंगेल्स ने लिखा था:

"जर्मन यह नहीं समझे कि अमरीकी जनता को गतिशील करने के लिये किस तरह सिद्धांत को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करना चाहिये। अधिकांश में, वे खुद ही सिद्धांत नहीं समझते और उसके साथ शास्त्रीय और कठमुल्लेपन के ढंग से व्यवहार करते हैं, मानो वह कोई रट लेने की चीज हो और उसके बाद वह बिना हाथ-पैर हिलाये सभी ज़रूरतें पूरी कर देगी। उनके लिये वह धर्मशास्त्र है, न कि काम करने के लिये एक मार्गदर्शक।" (जोर्गे के नाम पत्र, 29 नवम्बर 1886)

अप्रैल 1917 में, कामेनेव और कुछ दूसरे पुराने बोल्शेविक सर्वहारा और किसानों की क्रांतिकारी-जनवादी डिक्टेटरशिप के पुराने सूत्र से ऐसे समय चिपके हुए थे जबकि क्रांतिकारी आन्दोलन आगे बढ़ चुका था और उसकी मांग थी कि समाजवादी क्रांति की तरफ़ बढ़ा जाये। कामेनेव और इन पुराने बोल्शेविकों की आलोचना करते हुए, लेनिन ने लिखा था:

"हमारी शिक्षा धर्मशास्त्र नहीं है, बल्कि काम करने के लिये एक मार्ग-दर्शक है। मार्क्स और एंगेल्स हमेशा यही कहते थे। वे ठीक ही 'सूत्रों' को रटने और दुहराने का मजाक उड़ाते थे। ये सूत्र अधिक से अधिक आम कार्यों की रूप-रेखा ही बता सकते हैं। लेकिन, ऐतिहासिक क्रम के हर अलग दौर का ठोस आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में उनमें तब्दीली होना जरूरी है।... इस अकाट्य सत्य को अच्छी तरह महसूस करना ज़रूरी है कि मार्क्सवादी को वास्तविक जीवन ठोस हक़ीक़त पहचाननी चाहिये, और बीते हुए कल के सिद्धांत से चिपके न रह जाना चाहिये।... (लेनिन ग्रंथावली, रूÛसंÛ, खण्ड 20, पृÛ 100-01)

 

(3) पार्टी के इतिहास से हमें आगे यह शिक्षा मिलती है कि मज़दूर वर्ग की पांति में निम्न पूंजीवादी पार्टियां सक्रिय रहती हैं और मज़दूर वर्ग के पिछडे़ हुए हिस्सों को पूंजीपतियों को बाहुपाश में ठेल देती हैं और इस तरह, मज़दूर वर्ग की एकता तोड़ देती हैं; जब तक इस तरह की पार्टियां पछाड़ी नहीं जातीं तब तक सर्वहारा क्रांति की विजय असम्भव होती है।

हमारी पार्टी का इतिहास निम्नपूंजीवादी पार्टियों के खिलाफ़ – समाजवादी क्रांतिकारियों, मेन्शेविकों, अराजकतावादियों और राष्ट्रवादियों के खिलाफ़-संघर्ष का इतिहास और इन पार्टियों को पूरी तरह हराने का इतिहास है। अगर ये पार्टियां पछाड़ी नहीं जातीं। और मज़दूर वर्ग की पांति से निकाली न जातीं तो मज़दूर वर्ग की एकता क़ायम न होती, और अगर मज़दूर वर्ग की एकता क़ायम न होती तो सर्वहारा क्रांति की जीत हासिल करना असंभव होता।

ये पार्टियां जो पहले पूंजीवाद की रक्षा की हिमायत करती थीं और आगे चल कर, अक्तूबर क्रांति के बाद पूंजीवाद को बहाल करने की हिमायत करती थीं, यदि ये पार्टियां पूरी तरह पछाड़ी न जातीं तो सर्वहारा डिक्टेटरशिप को बनाये रखना, विदेशी सैनिक हस्तक्षेप को हराना, और समाजवाद का निर्माण असंभव होता।

यह बात आकस्मिक न समझनी चाहिये कि सभी निम्नपूंजीवादी पार्टियां, जो जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिये अपने को 'क्रांतिकारी' और 'समाजवादी' पार्टियां कहती थीं - समाजवादी क्रांतिकारी, मेन्शेविक, अराजकतावादी और राष्ट्रवादी - अक्तूबर समाजवादी क्रांति से पहले ही क्रांति-विरोधी हो गयी थीं और आगे चल कर विदेशी पूंजीपतियों के जासूस-विभागों की दलाल बन गयीं, जासूसों, तोड़-फोड़ करने वालों, भड़काने वालों, हत्यारों और देश के ग़द्दारों का गिरोह बन गयी थीं।

लेनिन कहते हैं:

"सामाजिक क्रांति के युग में, सर्वहारा वर्ग की एकता सिर्फ मार्क्सवाद की चरम क्रांतिकारी पार्टी ही क़ायम कर सकती है, और वह तमाम दूसरी पार्टियों के खिलाफ़ निर्मम संघर्ष करके ही इसे क़ायम कर सकती है।" (लेनिन ग्रंथावली, रूÛसंÛ, खंड 26, पृÛ 50)

(4) पार्टी का इतिहास आगे हमें यह शिक्षा देता है कि जब तक मज़दूर वर्ग की  पार्टी अपनी ही पांति के अवसरवादियों के खिलाफ़ बेमुलाहिज़ा संघर्ष नहीं करती, जब तक अपने ही भीतर के समर्पणवादियों को कुचल नहीं देती, तब तक वह अपनी पांति में एकता और अनुशासन क़ायम नहीं रख सकती। वह सर्वहारा क्रांति की नेत्री और संगठनकत्र्री की अपनी भूमिका पूरी नहीं कर सकती और न नये समाजवादी समाज की निर्मात्री की अपनी भूमिका पूरी कर सकती है।

हमारी पार्टी के आन्तरिक जीवन के विकास का इतिहास पार्टी के भीतर अवसरवादी गुटों के खिलाफ़ - 'अर्थवादियों', मेन्शेविकों, त्रात्स्कीवादियों, बुखारिनपंथियों और राष्ट्रवादी भटकाव वालों के खिलाफ़ - संघर्ष का इतिहास है, और इन गुटों की पूरी हार का इतिहास है।

हमारी पार्टी का इतिहास हमें यह सिखाता है कि समर्पणवादियों के ये सभी गुट दरअसल पार्टी के अन्दर मेन्शेविज्म के दलाल थे, मेन्शेविज्म की तलछट और उसके कीडे़ थे, मेन्शेविज्म को जारी रखने वाले थे। मेन्शेविकों की तरह, वे मज़दूर वर्ग और उसकी पार्टी में पूंजीवादी असर फैलाने के साधन थे। इसलिये, पार्टी में इन गुटों को खत्म करने का संघर्ष मेन्शेविज्म को खत्म करने के संघर्ष का ही एक हिस्सा था।

अगर हम 'अर्थवादियों' और मेन्शेविकों को न पछाड़ते, तो हम पार्टी न बना पाते और मज़दूर वर्ग को सर्वहारा क्रांति की मंजिल तक न ले जा पाते।

अगर हम त्रात्स्कीवादियों और बुखारिनपंथियों को न हराते, तो वे परिस्थितियां पैदा न कर पाते जो समाजवाद के निर्माण के लिये अनिवार्य हैं।

यदि हम सभी रंग-रूपों के राष्ट्रवादी भटकाववालों को न हराते, तो हम जनता को अंतर्राष्ट्रीयता की भावना में शिक्षित न कर पाते, हम सोवियत संघ की जातियों की महान् मैत्री के झण्डे की रक्षा न कर पाते और सोवियत समाजवादी प्रजातंत्रों का संघ न रच पाते।

कुछ लोगों को लग सकता है कि बोल्शेविकों ने पार्टी के भीतर अवसरवादियों के खिलाफ़ संघर्ष में ही बहुत समय लगाया और वह उनके महत्व को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आंकते थे। लेकिन, ऐसा सोचना बिल्कुल ही गलत होगा। हमारे भीतर का अवसरवाद किसी स्वस्थ शरीर में नासूर की तरह है, और उसे कभी तरह न देनी चाहिये। पार्टी मज़दूर वर्ग का प्रमुख दस्ता है, उसका सबसे अगला किला है, उसका सेनापति-विभाग है। सन्देहवादी, अवसरवादी, समर्पणवादी और ग़द्दार मज़दूर वर्ग के संचालक-दल में बर्दास्त नहीं किये जा सकते। यदि पूंजीपतियों से जीवन-मरण की लड़ाई लड़ते हुए खुद मज़दूर वर्ग के संचालक-दल में ही, उसके किले में ही, समर्पणवादी और ग़द्दार रहें तो मज़दूर वर्ग पर दुहरी मार, मोर्चे से और पीछे से भी मार होने लगेगी। जा़हिर है कि ऐसे संघर्ष का नतीजा हार ही हो सकता है। किला लेने का सबसे आसान तरीका उस पर भीतर से कब्जा करना है। जीत हासिल करने के लिये मज़दूर वर्ग की पार्टी से, उसके संचालक-दल से, उसके अगले किले से सबसे पहले समर्पणवादियों, भगोड़ों, गुण्डों और गद्दारों को निकाल बाहर करना चाहिये।

यह बात आकस्मिक ही न समझनी चाहिये कि त्रात्स्कीवादी, बुखारिन पंथी और राष्ट्रवादी भटकाव वाले, जो लेनिन और पार्टी के खिलाफ लडे़ थे, उसी मंजिल पर पहंुचे जहां मेन्शेविक और समाजवादी-क्रांतिकारी पार्टियां पहुंची थीं, यानी वे फ़ासिस्ट जासूस-विभागों के दलाल बन गये, तोड़-फोड़ करने वाले, हत्यारे, भड़काने वाले और देश से ग़द्दारी करने वाले बन गये।

लेनिन ने कहा था:

"हमारी पांति में सुधारवादियों, मेंशेविकों के रहते हुए, सर्वहारा क्रांति में जीत हासिल करना असंभव है, उस जीत को बनाये रखना असंभव है। सिद्धांत रूप में, यह बात स्पष्ट है और रूस तथा हंगरी - दोनों के तजुर्बे से उसका ज्वलंत प्रमाण मिला है।... रूस में, अनेक बार ऐसी कठिन परिस्थितियां पैदा हुई हैं जबकि सोवियत व्यवस्था बिल्कुल निश्चित रूप से उलट दी जाती अगर हमारी पार्टी में मेन्शेविक, सुधारवादी, और निम्नपूंजीवादी डेमोक्रैट बने रहते...।" (लेनिन ग्रंथावली, रूÛसंÛ, खंड 25, पृष्ठ 462-63)

काँमरेड स्तालिन कहते हैं:

"हमारी पार्टी अपनी पांति में अपूर्व दृढ़ता और आन्तरिक एकता मुख्यतः इसलिये कायम कर सकी कि वह समय रहते अवसरवादी कोढ़ से अपने को शुद्ध रख सकी, वह अपनी पांति से विसर्जनवादियों, मेन्शेविकों को निकाल सकी। सर्वहारा पार्टियां अपनी पांति से अवसरवादियों और सुधारवादियों, सामाजिक-साम्राज्यवादियों और सामाजिक-अंधराष्ट्रवादियों, सामाजिक-राष्ट्रभक्तों और सामाजिक-शान्तिवादियों को निकालकर विकसित और मज़बूत होती हैं। पार्टी अपनी पांति से अवसरवादी तत्वों को निकालकर मज़बूत होती है।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛ संÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 91)

(5) पार्टी का इतिहास हमें आगे यह शिक्षा देता है कि पार्टी मज़दूर वर्ग की नेत्री की अपनी भूमिका पूरी नहीं कर सकती यदि सफलता से बदहवास होकर उसमें घमंड आ जाये, वह अपने काम में दोष न देखे, अपनी ग़ल्तियां मानने से और समय रहते खुल कर और ईमानदारी से उन्हें सुधारने से डरे।

पार्टी अजेय होती है यदि वह आलोचना और आत्मालोचना से न डरे, यदि वह अपने काम में गलतियों और दोषों को नजरन्दाज न करे, यदि वह पार्टी के काम की ग़लतियों से सबक़ लेकर अपने कार्यकर्ताओं को सिखाये-पढ़ाये, और यदि वह समय रहते अपनी ग़लतियों को सुधारना जाने।

वह पार्टी खत्म हो जाती है जो अपनी ग़लतियों को छिपाती है, जो कठिन समस्याओं को नजरन्दाज करती है, जो सब कुछ ठीक होने का बहाना करके अपनी ग़लतियों पर पर्दा डालती है, जो आलोचना और आत्मालोचना बर्दाश्त नहीं कर सकती, जो आत्मसंतोष और घमंड में फूल जाती है और अपनी सफलताओं पर विश्राम करने लगती है।

लेनिन कहते हैं:

"कोई राजनीतिक पार्टी अपनी ग़लतियों की तरफ़ कैसा रूख़ अपनाती है, यह इस बात को समझने का बहुत ही महत्वपूर्ण और पक्का तरीक़ा है कि वह पार्टी कितनी सच्ची है और अमल में वह अपने वर्ग और मेहनतकश जनता की तरफ़ अपनी जिम्मेदारियां कैसे पूरी करती है। खुलकर ग़लती मानना, उसके कारण निश्चित करना, जिन परिस्थितियों मं ग़लती हुई, उनकी छानबीन करना ओर ग़लती सुधारने के तरीकों पर पूरी तरह विचार करना-एक गंभीर पार्टी की यही निशानी है; इसी तरीके़ से उसे अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये, इसी तरीके़ से उसे अपने वर्ग और उसके बाद जनता को सिखाना-पढ़ाना चाहिये।" (लेनिन, सं0 गं्र0, अं0 सं0, मास्को, 1947, खं0 2, पृष्ठ 599)

और आगेः

"सभी क्रांतिकारी पार्टियां, जो अब तक मिट चुकी हैं, इसीलिये मिटीं कि वे घमण्ड से भर गयीं, वे यह न देख पायीं कि उनकी शक्ति कहा है और अपनी कमजोरियां बताने में डरीं। लेकिन, हम नहीं मिटेंगे, क्यांेकि हम अपनी कमजोरियां बताने से डरते नहीं हैं और उन्हें दूर करना सीखेंगे।" (लेनिन ग्रन्थावली , रूÛसंÛ, खंÛ 27, पृष्ठ 260-61)

(6) अंत में, पार्टी के इतिहास से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब तक आम जनता से उसका व्यापक सम्पर्क नहीं होता, जब वह इस सम्बन्ध को लगातार मज़बूत नहीं करती, जब तक वह आम जनता की आवाज सुनना और उसकी फौरी ज़रूरतों को समझना नहीं जानती, जब तक आम जनता को सिखाने के ही लिये नहीं बल्कि उससे सीखने के लिये भी तैयार नहीं रहती, तब तक मज़दूर वर्ग की पार्टी सच्ची जन-पार्टी नहीं हो सकती, जो लाखों मज़दूरों का और तमाम श्रमिक जनता का नेतृत्व कर सके।

पार्टी अजेय होती है अगर वह लेनिन के शब्दों में, "आम मेहनतकश जनता से नाता जोड़ सके, उससे निकट सम्पर्क बनाये रख सके, और चाहें तो कह लीजिये कि एक हद तक उसमें घुलमिल सके और सबसे पहले सर्वहारा के साथ, लेकिन गैरसर्वहारा मेहनतकश अवाम के साथ भी, यह सम्बन्ध क़ायम रख सके।" (लेनिन, संÛग्रं, अंÛसंÛ, मास्कों 1947, खंÛ 2, पृष्ठ 524)

वह पार्टी मिट जाती है जो अपने को अपने छोटे से पार्टी के खोल में बन्द कर लेती है, जो अपने को आम जनता से दूर कर लेती है, जो ऊपर नौकरशाही जंग चढ़ जाने देती है।

काँमरेड स्तालिन कहते हैं:

"हम इसे नियम के रूप में ग्रहण कर सकते हैं कि जब तक बोल्शेविक आम जनता से सम्बन्ध बनाये रहेंगे, तब तक वे अजेय रहेंगे। और इसके विपरीत, जैसे ही बोल्शेविक आम जनता से नाता तोडें़गे और वे अपनी सारी ताक़त खो देंगे और शून्य के बराबर रह जायेंगे।

प्राचीन यूनानियों की दंतकथाओं में एक प्रसिद्ध वीर ऐण्टीयस था। कथा के अनुसार, वह समुद्र के देवता पोसेईडन और धरती की देवी गीया का पुत्र था। ऐण्टीयस अपनी मां को बहुत प्यार करता था, जिसने उसे जन्म दिया था, उसे दूध पिलाया था और पाला-पोसा था। कोई ऐसा वीर न था जिसे ऐण्टीयस ने परास्त न किया हो। वह अजेय वीर समझा जाता था। उसकी शक्ति किस बात में थी? उसकी शक्ति इस बात में थी कि हर बार जब वह शत्रु से लड़ते हुए मुसीबत में होता था तो वह धरती को छू लेता था, उस माता को जिसने उसे जन्म दिया था और दूध पिलाया था, और इससे उसे नयी शक्ति मिल जाती थी। फिर भी उसके लिये हार का खतरा था - यह खतरा कि किसी न किसी तरह वह धरती से अलग न कर दिया जाये। उसके दुश्मन उसकी यह कमजोरी जानते थे और उसकी ताक में थे। एक दिन ऐसा दुश्मन आ गया कि जिसने इस कमजोरी से फ़ायदा उठाया और एण्टीयस को हरा दिया। यह दुश्मन हरकुलीज था। हरकुलीज ने ऐण्टीयस को कैसे हराया? उसने उसे धरती से उठा लिया, अधर में टांगे रखा, उसे धरती न छूने दी और उसका गला घोंट दिया।

 

"मैं समझता हंू कि बोल्शेविक हमें यूनानी दंतकथाओं के वीर ऐण्टीयस की याद दिलाते हैं। वे भी ऐण्टीयस की तरह इसलिये शक्तिशाली हैं कि वे अपनी माता से, उस जनता से सम्पर्क बनाये रखते हैं जिसने उन्हें जन्म दिया है, दूध पिलाया है और बड़ा किया है। और जब तक वे अपनी माता से, अपनी जनता से सम्पर्क बनाये रहेंगे तब तक अवश्य ही अजेय बने रहेंगे।

"बोल्शेविक नेतृत्व की अजेयता का यही रहस्य है।" (स्तालिन, पार्टी के काम के दोष )।

बोल्शेविक पार्टी ने जो ऐतिहासिक मार्ग तय किया है, उससे हमें यही मुख्य शिक्षा मिलती है।

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