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Friday, 14 August 2020

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्षेविक) का इतिहास

आठवाँ अध्याय

विदेशी  फ़ौजी हस्तक्षेप और गृह-युद्ध के दौर में बोल्शेविक पार्टी।

(1918-1920)

1. विदेशी  फ़ौजी हस्तक्षेप की शुरुआत। गृह-युद्ध का पहला दौर।

ऐसे समय जब कि पच्छिम में युद्ध अब भी पूरी तरह चालू था, ब्रेस्ट लिटोवस्क की शांति  कायम होने से और सोवियत सत्ता द्वारा एक के बाद एक कई क्रान्तिकारी आर्थिक कदम उठाने पर सोवियत राज्य के दृढ़ होने से पच्छिमी साम्राज्यवादियों में, खास तौर से मित्र-देशॉ के साम्राज्यवादियों में, भारी खलबली मच गयी। 

मित्र-देशॉ के साम्राज्यवादियों को डर था कि जर्मनी और रूस के बीच शांति होने से युद्ध में जर्मनी की हालत सुधर सकती है और उसी हिसाब से उनकी अपनी फौजों की हालत बिगड़ सकती है। इसके अलावा, उन्हें डर था कि रूस और जर्मनी में शांति  कायम होने से सभी देशॉ में और सभी मोर्चों पर शांति  की इच्छा ज़ोर पकड़ सकती है और इस तरह, युद्ध चलाने में बाधा पड़ सकती है और साम्राज्यवादियों का उद्देष्य खटाई में पड़ सकता है। अंत में, एक विशाल देश की धरती पर वे सोवियतों की सत्ता की मौजदूगी से डरते थे। सोवियत सत्ता ने पूंजीपतियों का तख्ता उलटने के बाद घर में जो सफलतायें पायी थीं, उनका रंग पच्छिम के मज़दूरों और सैनिकों पर चढ़ सकता था। हो सकता था कि लम्बी खिंचने वाली लड़ाई से खूब असन्तुष्ट होकर, मज़दूर और सैनिक रूसियों की लीक पर चल पड़ें और अपनी संगीनें अपने ऊपर जुल्म ढाने वालों और अपने मालिकों के खिलाफ़ ही मोड़ दें। इसलिये, मित्र-देशॉ की हुकूमतों ने सोवियत सरकार का तख्ता उलटने के लिये और पूंजीवादी हुकूमत कायम करने के लिये रूस में हथियारबन्द दखलन्दाजी करने का फैसला किया। वे चाहते थे कि उनकी कायम की हुई पूंजीवादी हुकूमत देश में पूंजीवादी व्यवस्था बहाल कर दे, जर्मनों के साथ शांति -सन्धि रद्द कर दे और जर्मनी और आस्ट्रिया के खिलाफ़ फिर से फौजी मोर्चा कायम कर दे।

मित्र-देशॉ के साम्राज्यवादी इस धुर्त काम में इस कारण और भी जुट गये कि उनकी समझ में सोवियत षासन डावाँडोल था। उन्हें जरा भी सन्देह न था कि सोवियत सरकार के दुश्मनो की थोड़ी सी मदद से ही उसका जल्द ही खात्मा होना अनिवार्य हो जायेगा।

सोवियत सत्ता की सफलताओं और उसके मज़बूत होने से सत्ता खोने वाले वर्ग - ज़मींदार और पूँजीपति - और भी बौखला उठे। हारी हुई पार्टियाँ काँन्सटीट्षनल डेमोक्रेट, मेंशेविक, समाजवादी क्रान्तिकारी, अराजकतावादी और सभी तरह के राष्ट्रवादी सोवियत सत्ता की सफलताओं और उसकी मज़बूती से परेषान थे। यही हाल ग़द्दार जनरलों, कज़ाक अफ़सरों वगैरह का था।

विजयी अक्तूबर क्रान्ति की शुरुआत के दिनों से ही, यह सब विरोधी लोग गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने लगे थे कि रूस में सोवियत सत्ता की जड़ जम ही नहीं सकती, उसका नाश निष्चित है और एक या दो ह़फ्तों में या एक महीनें में या ज्यादा से ज्यादा दो या तीन महीनों में सोवियत सत्ता खत्म हो जायेगी। लेकिन दुश्मनो के कोसने के बावजूद, जब सोवियत सत्ता बनी ही रही और मजबूत भी होती गयी तो रूस में उसके दुश्मनो को मजबूरन मानना पड़ा कि उन्होंने जिनता सोचा था उससे वह ज्यादा मजबूत निकली और उसके खात्मे के लिये क्रान्ति-विरोधी शक्तियों को बहुत कोशिश करनी पड़ेगी और भारी संघर्ष करना पड़ेगा। इसलिये, उन्होंने बडे़ पैमाने पर क्रान्ति-विरोधी बग़ावत का काम शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने क्रांति-विरोधी शक्तियों को बटोरने, फौजी कार्यकर्ताओं को इकट्ठा करने और खास तौर से कज़ाक और कुलक जिलों में विद्रोह संगठित करने का फ़ैसला किया।

इस तरह 1918 के पूर्वार्द्ध में ही, ऐसे दो निष्चित दल बन गये जो सोवियत सत्ता को खत्म करने की मुहीम शुरु  करने के लिये तैयार थे। इनमें एक तो थे मित्र-देशॉ के विदेशी  साम्राज्यवादी, और दूसरे थे घर के क्रान्ति-विरोधी।

इनमें से किसी दल के पास भी अकेले सोवियत सत्ता को खत्म करने के लिये ज़रूरी साधन न थे। रूस में, क्रान्ति-विरोधियों के पास कुछ फ़ौजी कार्यकर्ता और लड़ने के लिये कुछ आदमी थे। ये लोग ज्यादातर कज़ाकों के उच्च वर्गों और कुलकों में से थे। सोवियत सत्ता के खिलाफ़ बग़ावत शुरु  करने के लिये यह काफी थे। लेकिन, इनके पास न तो पैसा था, न हथियार ही। दूसरी तरफ, विदेशी  साम्राज्यवादियों के पास पैसा भी था और हथियार भी, लेकिन वे हस्तक्षेप करने के लिये काफ़ी तादाद में अपनी फ़ौज को दूसरे मोर्चो से 'छुट्टी' न दे सकते थे। वे ऐसा इसी वजह से न कर सकते थे कि जर्मनी और आस्ट्रिया से युद्ध के लिये उन्हें इन फौजों की जरूरत थी, बल्कि इसलिये भी कि सोवियत सत्ता के खिलाफ़ युद्ध में षायद ये फ़ौजें पूरी तरह भरोसे की साबित न हों।

सोवियत सत्ता के खिलाफ़ संघर्ष की परिस्थितियों ने यह आवष्यक कर दिया कि दोनों सोवियत-विरोधी दल, विदेशी  और घरेलू, एका कायम करें। 1918 के पूर्वार्द्ध में, यह एका क़ायम कर लिया गया।

सोवियत सत्ता के खिलाफ़ इस तरह घर में उसके दुश्मनो की क्रान्ति-विरोधी बग़ावतों  का समर्थन पाकर, विदेशी  फ़ौजी हस्तक्षेप शुरु  हुआ।

रूस में अवकाष का दौर खत्म हुआ गृह-युद्ध का दौर शुरु  हुआ। यह गृह-युद्ध सोवियत सत्ता के देशी और विदेशी  दुश्मनो के खिलाफ़ रूस की जातियों के मजदूरों और किसानों का युद्ध था।

युद्ध का ऐलान किये बिना ही ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और अमरीका के साम्राज्यवादियों ने फ़ौजी हस्तक्षेप शुरु  किया, हालांकि यह हस्तक्षेप युद्ध था, रूस के खिलाफ़ युद्ध था और साथ ही सबसे घटिया क़िस्म का युद्ध था। ये 'सभ्य' डाकू चुपके से और चोरी से रूसी समुद्र तट पर आ पहुंचे और रूस की धरती पर अपनी फ़ौजें उतार दीं।

अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने उत्तर में फ़ौजंे उतारी, आरखांगेल्स्क और मूरमान्स्क पर क़ब्जा कर लिया, स्थानीय गद्दारों की बग़ावत की मदद की, सोवियतों को खत्म किया और ग़द्दारों की 'उत्तरी रूस की हुकूमत' क़ायम की।

जापानियों ने व्लादीवस्तोक में फ़ौजें उतारीं, समुद्र तट के सूबे पर क़ब्जा कर लिया, सोवियतों को तितर-बितर कर दिया और गद्दार बाग़ियों की मदद की, जिन्होंने आगे चल कर पूंजीवादी व्यवस्था बहाल की।

उत्तरी काॅकेषस में, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की मदद से जनरल काॅर्निलोव, एलैक्सियेव और देनीकिन ने एक ग़द्दार 'स्वयंसेवक सेना' बनायी, कज़ाकों के उच्च वर्गों की बग़ावत करायी और सोवियतों के खिलाफ़ कार्यवाही शुरु  की।

 

दोन नदी के किनारे, जनरल क्रासनोव और मामोन्तोव ने जर्मन साम्राज्यावादियों की गुप्त मदद से (जर्मन खुल कर उन्हें मदद देने से हिचकिचाते थे, क्योंकि जर्मनी और रूस के बीच शांति -संधि हो चुकी थी) दोन प्रदेश के कज़ाकों की बग़ावत कराई, दोन प्रदेश पर क़ब्जा कर लिया और सोवियतों के खिलाफ़ कार्यवाही शुरु  की।

मध्य बोल्गा प्रदेश  और साईबेरिया में, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने चेकोस्लोवाक दस्तों से विद्रोह कराया। इन दस्तों में युद्ध-बन्दी थे। इन्हें सोवियत सरकार से साईबेरिया और सुदूरपूर्व होते हुये घर लौटने की अनुमति मिल गयी थी। लेकिन, रास्ते में समाजवादी क्रांतिकारियों और अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों ने इन्हें सोवियत सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह करने के लिये इस्तेमाल किया। इन दस्तों का विद्रोह बोल्गा प्रदेश  और साईबेरिया में कुलकों के विद्रोह के लिये और वोतकिंस्क और इजेव्सक कारखानों के मज़दूरों के लिये, जो अब भी समाजवादी क्रान्तिकारियों के असर में थे, बग़ावत की रणभेरी बन गया। बोल्गा प्रदेश  में, समारा में, एक ग़द्दार समाजवादी क्रान्तिकारी हुकूमत और साईबेरिया में, ओम्स्क में, एक ग़द्दार हुकूमत क़ायम की गयी।

अंग्रेज-फ्रांसीसी-जापानी-अमरीकी गुट के हस्तक्षेप में जर्मनी ने कोई हिस्सा न लिया और न वह ले सकता था, और किसी वजह से नहीं तो इसी वजह से कि वह इस गुट से युद्ध कर रहा था। लेकिन, इसके बावजूद और रूस और जर्मनी के बीच शांति -संधि होने पर भी, किसी भी बोल्शेविक को इसमें संदेह न था कि कै़सर विलियम की सरकार सोवियत रूस की वैसी ही कट्टर दुष्मन है जैसे कि अंग्रेज-फ्रांसीसी-जापानी-अमरीकी हमलावर थे। और वास्तव में, जर्मन साम्राज्यवादियों ने सोवियत रूस को अकेले करने, उसे कमजोर बनाने और उसका नाष करने की भरसक कोशिश की। उन्होंने उससे उक्रैन छीन लिया ; यह तो सही है कि उन्होंने ग़द्दार उक्रैनी रादा1 से 'संधि' के अनुसार ही ऐसा किया। रादा के प्रार्थना करने पर, वे अपनी फ़ौजें ले आये और निर्दयता से उक्रैनी जनता को लूटने और सताने लगे और उक्रैनी जनता को मना कर दिया कि सोवियत रूस से किसी भी तरह का सम्बन्ध न रखे। उन्होंने सोवियत रूस से ट्रांस काॅकेषिया को अलग कर दिया। जाॅर्जिया और अजरबेजन के राष्ट्रवादियों की प्रार्थना पर वहाँ जर्मन और तुर्की फौजें भेजी और तिफ़लिस और बाकू में वे शासक बन बैठे। उन्होंने जनरल क्रासनोव को, जिसने दोन प्रदेश  में सोवियत सत्ता के खिलाफ़ बग़ावत करायी थी, ढेर के ढेर हथियार और खाने-पीने का सामान दिया; हालांकि यह सच है कि यह सब उन्होंने खुलेआम नहीं किया।

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1. राष्ट्रवादी क्रांति-विरोधी उक्रैनी पूंजीपतियों की सरकार, जिसने क्रांति का गला घोंट देने के

लिये आस्ट्रिया-जर्मनी के साम्राज्यवादियों की फौजों को उक्रैन में बुलाया था - अंÛ अनुÛ

 

इस तरह, सोवियत रूस अपने अन्न, कच्चे माल और्र इंधन के मुख्य स्रोतों से काट दिया गया।

उन दिनों सोवियत रूस की हालत बहुत कठिन थी। गोश्त और रोटी की कमी थी। मज़दूर भूखे रहते थे। मास्को और पेत्रोग्राद में, उन्हें हर दूसरे दिन 1/8 पौंड रोटी का राशन दिया जाता था और कभी-कभी ऐसा भी होता था कि रोटी दी ही न जाती थी। कारखाने बन्द थे या करीब-करीब बन्द थे, क्योंकि कच्चे माल और्र इंधन का टोटा था। लेकिन, मज़दूर वर्ग ने हिम्मत न हारी। और, न बोल्शेविक पार्टी ने हिम्मत हारी। उस समय की बेहिसाब कठिनाइयों को खत्म करने के लिये जो जिन्दगी और मौत की लड़ाई चली, उसने दिखा दिया कि मज़दूर वर्ग के अन्दर कितनी अथाह शक्ति छिपी हुई है और बोल्शेविक पार्टी का मान कितना ज़बर्दस्त है।

पार्टी ने ऐलान किया कि देश एक हथियारबन्द खेमा है। पार्टी ने देश के आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन को युद्ध-काल के अनुरूप ढाला। सोवियत सरकार ने घोषणा की कि 'समाजवादी पितृभूमि खतरे में है', और उसकी रक्षा में उठ खड़े होने के लिये जनता का आह्वान किया। लेनिन ने नारा दिया: 'सब कुछ मोर्चे के लिये !', और लाखों मज़दूर और किसान लाल फ़ौज में भर्ती हुए और मोर्चे के लिये चल पड़े। पार्टी और नौजवान कम्युनिस्ट सभा के आधे सदस्य मोर्चे पर गये। पार्टी ने पितृभूमि के लिये युद्ध के लिये जनता को जगाया। यह युद्ध विदेशी हमलवारों और क्रान्ति से पछाड़े हुए शोषक वर्गों की बग़ावत के खिलाफ़ था। लेनिन द्वारा संगठित मजदूर-किसान रक्षा-समिति ने मोर्चे पर कुमक, रसद, कपड़े और हथियार भेजने के काम का संचालन किया। अनिवार्य सैनिक सेवा के बदले स्वयंसेवकों की भर्ती शुरू होने से, लाल फौज में लाखों नये जवान आये और बहुत जल्द उसकी तादाद दस लाख जवानों से ऊपर हो गयी।

हालांकि देश की हालत नाजुक थी और तरुण लाल फौज अभी मजबूत न थी, फिर भी सुरक्षा के लिये जो कदम उठाये गये, उनका पहला फल तुरंत मिला। जनरल क्रासनोव समझता था कि ज़ारित्सिन पर उसका कब्जा हो ही जायेगा, लेकिन वहाँ से उसे पीछे हटना पड़ा और उसे दोन नहीं के पार खदेड़ दिया गया। जनरल देनीकिन की कार्यवाही उत्तरी कॅाकेशस के छोटे इलाके में सीमित हो गई। और, जनरल काॅर्निलोव लाल फ़ौज के खिलाफ़ लड़ते हुए मारा गया। चेकोस्लोवाक और ग़द्दार समाजवादी क्रान्तिकारी दस्ते कज़ान, सिम्बिस्र्क और समारा से निकाल दिये गये और यूराल की तरफ़ खदेड़ दिये गये। यारोस्लावल में ग़द्दार सेविंकोव की अगुवाई में बग़ावत हुई थी, मास्को में अंग्रेजी मिशन के प्रधान-लाॅकहार्ट - ने उसका संगठन किया था। यह विद्रोह दबा दिया गया और खुद लाॅकहार्ट गिरफ्तार कर लिया गया। समाजवादी क्रान्तिकारियों ने काँमरेड उरित्स्की और वोलोदास्की की हत्या की थी और लेनिन के जीवन पर भी नीचतापूर्ण हमला किया था। बोल्शेविकों के खिलाफ़ उनके ग़द्दाराना ( श्वेत, ह्वाइट ) आतंक का बदला लेने के लिये, उन पर लाल आतंक ढाया गया, और मध्य रूस के हर महत्वपूर्ण शहर से वे पूरी तरह खदेड़ दिये गये।

तरुण लाल फौज परिपक्व हुई और युद्ध में तपकर निखरी। लाल फौज को दृढ़ करने और उसे राजनीतिक शिक्षा देने में और उसके अनुशासन तथा लड़ाकू योग्यता को बढ़ाने में कम्युनिस्ट कमीसारों का काम निर्णायक महत्व का था।

लेकिन, बोल्शेविक पार्टी जानती थी कि यह लाल फौज की आरंभिक सफलतायें ही हैं, निर्णायक सफलतायें नहीं हैं। उसे मालूम था कि नयी और ज्यादा गंभीर लड़ाइयां आगे होने को हैं, और देश शत्रु से काफ़ी दिनों तक और जमकर लड़ने के बाद ही खोये हुए अन्न, कच्चे माल और ईंधन के प्रदेश फिर से हासिल कर सकता है। इसलिये, बोल्शेविकों ंने लम्बी लड़ाई चलाने के लिये जोरदार तैयारियाँ की और फ़ैसला किया कि सारे देश को मोर्चे की सेवा में लगा दिया जाये। सोवियत सरकार ने युद्धकालीन कम्युनिज्म लागू किया। बड़े पैमाने के उद्योग-धंधों के अलावा, उसने मध्यम और छोटे उद्योग-धंधे अपने अधिकार में कर लिये, जिससे कि फौज और खेतिहर जनता को देने के लिये रसद इकट्टी की जा सके। उसने ग़ल्ले के व्यापार पर इजारेदारी लागू की, गल्ले में व्यक्तिगत व्यापार बन्द कर दिया और फ़ालतू अनाज ज़ब्त करने की व्यवस्था क़ायम की। इस व्यवस्था के अनुसार, किसानों के पास जो कुछ फ़ालतू उपज होती, उसकी रजिस्ट्री होती थी और निश्चित भाव पर राज्य उसे खरीद लेता था जिससे कि फ़ौज और मजदूरों को सामान भेजने के लिये गल्ला इकट्ठा किया जा सके। अंत में, उसने सभी वर्गों के लिये अनिवार्य श्रम सेवा लागू की। पूंजीपतियों के लिये शारीरिक श्रम लाजिमी करके और इस तरह मोर्चे के ज्यादा जरूरी कामों के लिये मजदूरों को छुट्टी देकर, पार्टी इस उसूल को अमल में ला रही थी: 'जो काम न करेगा, वह खायेगा भी नहीं।'

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये जो अभूतपूर्ण कठिन परिस्थितियां थीं, उन्हीं से ये सब कदम उठाना ज़रूरी हुआ। ये सब कदम अस्थायी थे, और कुल मिलाकर इनको युद्ध कालिन कम्युनिज़्म कहा जाता था। देश ने अपने को लम्बे और कठिन गृह-युद्ध के लिये, सोवियत सत्ता के देशी और विदेशी शत्रुओं के खिलाफ़ युद्ध के लिये तैयार किया। 1918 के अंत तक, देश को फौज की ताकत तिगुनी बढ़ानी पड़ी और इस फौज के लिये रसद इकट्ठी करनी पड़ी।

लेनिन ने उस समय कहा था:

"हमने फ़ैसला किया था कि वसन्त तक दस लाख फ़ौज हो जायें। अब हमें तीस लाख फ़ौज चाहिये। यह फ़ौज हमें मिल सकती है और यह फौज हम तैयार कर लेंगे। "

2. युद्ध में जर्मनी की हार। जर्मनी में क्रान्ति। तीसरी इन्टरनेशनल की स्थापना। आठवीं पार्टी कांग्रेस।

सोवियत देश जब विदेशी हस्तक्षेप की ताकतों के खिलाफ़ नयी लड़ाईयों की तैयारी कर रहा था, तब पच्छिम में युद्ध करने वाले देशों के अन्दर, मोर्चे पर और पीछे भी, निर्णायक घटनायें घट रही थीं। युद्ध और अन्न-संकट से, जर्मनी और आॅस्ट्रिया का दम घुट रहा था। ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका तो माल के नये स्रोतों का उपयोग कर रहे थे, लेकिन जर्मनी और आॅस्ट्रिया अपनी थोड़ी सी बची-खुची आखिरी पूंजी खर्च किये डाल रहे थे। हालत यह थी कि जर्मनी और आॅस्ट्रिया एकदम पस्ती की मंजिल तक पहुँच कर अब हारे और तब हारे हो रहे थे।

इसके साथ ही, जर्मनी और आॅस्ट्रिया की जनता इस घातक और खत्म न होने वाली लड़ाई के खिलाफ़ और उसे पस्ती और भुखमरी की दशा में डालने वाली अपनी साम्राज्यवादी हुकूमतों के खिलाफ़ गुस्से से उबल रही थी। अक्तूबर क्रान्ति के इन्कलाबी असर का भी ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा ब्रेस्ट-लिटोवस्क की शान्ति होने से पहले ही, सोवियत रूस युद्ध के दरअसल खत्म होने और उसके साथ संधि करने से पहले ही, सोवियत सैनिकों का आॅस्ट्रिया और जर्मनी के सैनिकों से भाईचारे के व्यवहार का भी ऐसा ही असर पड़ा। रूस की जनता ने अपनी साम्राज्यवादी हुकूमत का तख़्ता पलट कर घृणित युद्ध  का खात्मा कर दिया था। आॅस्ट्रिया और जर्मनी के मज़दूरों के लिये यह बात एक अच्छा सबक बन गयी। जो जर्मन सैनिक पूर्वी मोर्चे पर भेजे गये थे और जो ब्रेस्ट-लिटोवस्क की शान्ति के बाद पच्छिमी मोर्चे पर भेजे गये थे, वे उस मोर्चे पर सोवियत सैनिकों के साथ अपने भाईचारे की बात कहते थे और बतलाते थे कि सोवियत सैनिकों ने युद्ध से कैसे छुटकारा पाया। इससे जर्मन फ़ौज का युद्ध करने के लिये मनोबल कमजोर हुए बिना न रहा। इन्ही कारणों से, आॅस्ट्रिया की फौज पहले से ही टूटने लगी थी।

इन सभी कारणों से, जर्मन सैनिकों के अन्दर शान्ति की इच्छा और तीव्र हुई। उनमें पहले जैसी लड़ने की योग्यता न रही और वे मित्र-देशों की फ़ौजों के हमले के सामने पीछे हटने लगे। नवम्बर 1918 में, जर्मनी में क्रान्ति फूट पड़ी और विलियम और उसकी हुकूमत का तख़्ता उलट दिया गया।

जर्मनी को मजबूरन हार माननी और शान्ति के लिये प्रार्थना करनी पड़ी।

इस तरह, पलक मारते ही जर्मनी पहले दर्जे की शक्ति से दूसरे दर्जे की शक्ति बन गया।

जहां तक सोवियत राज्य की स्थिति का सवाल था, इस घटना से कुछ नुकसान हुआ; क्योंकि सोवियत सत्ता के खि़लाफ जिन मित्र-देशों ने हथियारबन्द हस्तक्षेप शुरू किया था, वे यूरोप और एशिया में मुख्य शक्ति बन गये। अब वे सोवियत देश में और सक्रिय रूप से हस्तेक्षप कर सकते थे, उसकी नाकेबन्दी कर सकते थे और सोवियत राज्य के गले में अपना फन्दा और मज़बूत कर सकते थे। वास्तव में हुआ भी यही, जैसा कि हम आगे देखेंगे। दूसरी तरफ़, इस घटना से लाभ भी था, जो हानि से बढ़ कर था और जिसने बुनियादी तौर से सोवियत रूस की स्थिति को सुधारा। सबसे पहले तो सोवियत सरकार अब ब्रेस्ट-लिटोवस्क की डाकूओं वाली शान्ति खत्म कर सकती थी, हर्जाना देना बन्द कर सकती थी और जर्मन साम्राज्यवाद के जुएं से ऐस्टोनिया, लैटविया, बेलोरूसिया, लिथुआनिया, उक्रैन और ट्रांस काॅकेशिया को मुक्त करने के लिये खुला फौजी और राजनीतिक संघर्ष आरंभ कर सकती थी। दूसरे, और मुख्यतः यूरोप के बीच में - जर्मनी में - एक प्रजातंत्री व्यवस्था और मज़दूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतों का होना यूरोप के देशों पर क्रान्ति का रंग चढ़ाये बिना न रह सकता था। दरअसल उसने क्रान्ति का रंग चढ़ाया। और इससे रूस में सोवियत सत्ता की स्थिति और मज़बूत हुए बिना न रह सकती थी। यह सही है कि जर्मन क्रान्ति समाजवादी न होकर पूंजीवादी क्रान्ति थी। सोवियतें पूंजीवादी पार्लियामेंट की ताबेदार संस्थायें थीं, क्योंकि उनमें सोशल-डेमोक्रेटों का प्रभुत्व था, जो रूसी मेन्शेविकों की तरह समझौतावादी थे। वास्तव में, जर्मन क्रान्ति की यही कमज़ोरी थी। यह क्रान्ति कितनी कमज़ोर थी, यह मसलन इसी बात से ज़ाहिर होता है कि उसने जर्मन गद्दारों को रोजा लुक्जेगबुर्ग और कार्ल लीबनेवख्त जैसे प्रमुख क्रान्तिकारियों को बिना चीं-चपड़ किये कत्ल कर डालने दिया। फिर भी, वह क्रान्ति ही थी। विलियम का तख्ता उलट दिया गया था और मज़दूरों ने अपनी बेड़ियाँ फेंक दी थी। यह बात खुद ही पच्छिम में क्रान्ति का ज्वार उभारने वाली, यूरोप के देशों में क्रान्ति की उठान को बुलावा देने वाली थी।

यूरोप में क्रांन्ति का ज्वार उठने लगा। आॅस्ट्रिया में क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू हुआ और हंगरी में सोवियत प्रजातंत्र क़ायम हुआ। क्रान्ति के उठते हुए ज्वार के साथ, कम्युनिस्ट पार्टियां ऊपर आयीं।

कम्युनिस्ट पार्टियों की एकता के लिये, एक तीसरी, कम्युनिस्ट इन्टर नेशनल बनाने के लिये अब एक वास्ताविक आधार मौजूद था।

 

मार्च 1919 में, लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों की पहलक़दमी पर, मास्को में विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की पहली कांग्रेस हुई और उसने कम्युनिस्ट इन्टरनेशलन की स्थापना की । हालंाकि नाकेबन्दी और साम्राज्यवादी दमन की वजह से बहुत से प्रतिनिधि मास्को न आ सके थे, फिर भी इस पहली कांग्रेस में यूरोप और अमरीका के सबसे महत्वपूर्ण देशों का प्रतिनिधित्व हुआ था। कांग्रेस के काम का पथ-प्रदर्शन लेनिन ने किया।

पूंजीवादी जनतंत्र और सर्वहारा डिक्टेटरशिप के विषय पर, लेनिन ने रिपोर्ट पेश की। उन्होंने सोवियत व्यवस्था का महत्व प्रकट किया और दिखलाया कि मेहनतकश जनता के लिये वह वास्तविक जनतंत्र है। कांग्रेस ने सभी देशों के मज़दूरों के नाम एक घोषणापत्र मंजूर किया। इसमें उन्हें बुलावा दिया गया कि तमाम दुनिया में सर्वहारा डिक्टेटरशिप और सोवियतों की विजय के लिये जमकर संघर्ष करें।

 कांग्रेस ने तीसरी कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की कार्यकारिणी समिति स्थापित की।

इस तरह, एक नयी तरह का अंतर्राष्ट्रीय क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन, कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल, मार्क्सवादी-लेनिनवादी इन्टरनेशलन क़ायम हुआ।

मार्च 1919 में, हमारी पार्टी की आठवीं कांग्रेस हुई। विरोधी तत्वों से संघर्ष के दौर में यह कांग्रेस हुई। एक तरफ, सोवियत सत्ता के ख़िलाफ मित्र-देशों का प्रतिक्रियावादी गुट और मज़बूत हो गया था और दूसरी तरफ़, यूरोप में, खास तौर से हारे हुये देशों में, क्रांति के उठते हुये ज्वार ने सोवियत देश की स्थिति को काफ़ी सुधार दिया था।

कांगे्रस में पार्टी के 3,13,766 सदस्यों की तरफ से 301 वोट देने वाले और 102 बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले प्रतिनिधि आये। अपने प्रारंभिक भाषण में, लेनिन ने स्वेर्दलोव के प्रति श्रद्धांजलि भेंट की जो बोल्शेविक पार्टी के बहुत ही ऊँचे, प्रतिभाशाली संगठनकर्ता थे और कांग्रेस के शुरू होने से पहले ही जिनका देहान्त हो गया था।

कांग्रेस ने एक नया पार्टी कार्यक्रम मंजूर किया। इस कार्यक्रम में पूंजीवाद और उसके सबसे ऊँचे रूप - साम्राज्यवाद - का वर्णन दिया हुआ है। इसमें राज्य व्यवस्था के दो रूपों की तुलना की गयी है - एक तो पूंजीवादी जनवादी व्यवस्था और दूसरी सोवियत-व्यवस्था। इसमें समाजवाद के लिये संघर्ष में पार्टी के निश्चित काम विस्तार से बताये गये हैं: पूंजीपतियों की सम्पत्ति ज़ब्त करने का काम पूरा करना; एक ही समाजवादी योजना के अनुसार देश के आर्थिक जीवन का शासन, राष्ट्रीय अर्थतंत्र के संगठन में ट्रेड यूनियनों का हिस्सा लेना; समाजवादी श्रम का अनुशासन; सोवियत संस्थाओं के नियंत्रण में आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवादी विशेषज्ञों का उपयोग; समाजवादी निर्माण में मध्यम किसानों को धीरे-धीरे और बाक़ायदा लाना।

कांग्रेस ने लेनिन का यह प्रस्ताव मंजूर किया कि कार्यक्रम में पूंजीवाद के सबसे ऊँचे रूप - साम्राज्यवाद - की व्याख्या शामिल करने के साथ-साथ औद्योगिक पूंजीवाद और साधारण बिकाऊ माल की पैदावार का वर्णन, जो दूसरी पार्टी कांग्रेस में स्वीकृत पुराने कार्यक्रम में था, भी शामिल कर लिया जाये। लेनिन इस बात को जरूरी समझते थे कि कार्यक्रम में हमारी आर्थिक व्यवस्था की पेचीदगी का ध्यान रखा जाये और देश में प्रचलित विभिन्न आर्थिक रूपों पर ग़ौर किया जाये, जिनमें मध्यम किसानों के रूप में, छोटे पैमाने की बिकाऊ माल की पैदावार शामिल थी। इसलिए कार्यक्रम पर बहस के दौर में, लेनिन ने बुखारिन के बोल्शेविक-विरोधी मत का जोरों से खंडन किया। बुखारिन ने प्रस्ताव किया था कि पूंजीवाद, छोटे पैमाने की बिकाऊ माल की पैदावार और मध्यम किसानों के अर्थतंत्र से सम्बन्ध रखने वाले हिस्से कार्यक्रम से निकाल दिये जायें। बुखारिन का मत मेन्शेविक त्रात्स्कीवादी दृष्टिकोण से सोवियत राज्य के विकास में मध्यम किसानों की भूमिका को अस्वीकार करता था। इसके सिवा, बुखारिन इस बात को नजरन्दाज करता था कि किसानों में छोटे पैमाने की बिकाऊ माल की पैदावार कुलक तत्व पैदा करती और पालती-पोसती थी।

जातियों के मसले पर भी, लेनिन ने बुखारिन और प्याताकोव के बोल्शेविक-विरोधी मत का खंडन किया। ये लोग कार्यक्रम में जातियों के आत्मनिर्णय के अधिकार के बारे में धारा शामिल करने के खिलाफ़ बोले। वे जातियों की समानता के खिलाफ थे। उनका दावा था कि जातीय समानता का नारा सर्वहारा क्रान्ति की विजय और विभिन्न जातियों के मजदूरों की एकता में बाधा देगा। लेनिन ने बुखारिन और प्याताकोव के इस निनान्त हानिकर, साम्राज्यवादी और अंधराष्ट्रवादी मत को निर्मूल कर दिया।

मध्यम किसानों की तरफ कौन सी नीति वर्ती जाये, इस विषय को आठवीं कांग्रेस में महत्वपूर्ण जगह दी गयी। भूमि सम्बन्धी आज्ञा-पत्र से मध्यम किसानों की संख्या बराबर बढ़ती गयी थी और किसानों में अब उनकी बहुतायत थी। वे लोग पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच ढुलमुल रहते थे। इनका रूख और व्यवहार क्या है, यह गृह-युद्ध और समाजवादी निर्माण के भाग्य का फैसला करने के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण था। गृह-युद्ध का नतीजा इस पर निर्भर था कि मध्यम किसान किस तरफ़ झुकते हैं, कौन सा वर्ग उनकी वफ़ादारी हासिल करता है - सर्वहारा वर्ग या पूंजीपति। 1918 की गर्मियों में, बोल्गा प्रदेश में चेकोस्लोवाक, गद्दार, कुलक, समाजवादी क्रान्तिकारी और मेन्शेविक सोवियत सत्ता को इसलिये हरा सके थे कि उनके समर्थन में मध्यम किसानों की एक बड़ी तादाद थी। मध्य रूस में कुलकों ने जो बग़ावत की थी, उस पर भी यही बात लागू होती थी। लेकिन 1918 की शरद् में, आम मध्यम किसान सोवियत सत्ता की तरफ़ झुकने लगे। किसानों ने देखा कि गद्दारों की जीत के बाद जमींदारों की सत्ता बहाल होती है, किसानों की ज़मीन छीन ली जाती है और वे लूटे जाते हैं, बेतों से पीटे जाते हैं और उन्हें यातनायें दी जाती हैं। ग़रीब किसानों की समितियों ने कुलकों को कुचल दिया था, उनकी कार्यवाही ने भी किसानों का रुख बदलने में मदद दी। इसलिये नवम्बर 1918 में, लेनिन ने यह नारा दिया:

"एक क्षण के लिये भी कुलकों के खिलाफ़ संघर्ष बन्द किये बिना और साथ ही मज़बूती से ग़रीब किसानों पर ही भरोसा करते हुए, मध्यम किसानों से समझौता करना सीखो।" (लेनिन ग्रंथावली रूÛसंÛ, खण्ड 23, पृÛ 294)

यह सही है कि मध्यम किसानों का ढुलमुलपन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। लेकिन वे सोवियत सरकार के और नज़दीक आये और ज्यादा दृढ़ता से उसका समर्थन करने लगे। आठवीं पार्टी कांग्रेस ने मध्यम किसानों के प्रति जो नीति निर्धारित की थी, उससे इस काम में बहुत हद तक आसानी हुई।

मध्यम किसानों की तरफ़ पार्टी की नीति में आठवीं कांग्रेस एक मोड़ थी। लेनिन की रिपोर्ट और कांग्रेस के फ़ैसलों ने इस सवाल पर पार्टी की एक नयी नीति निर्धारित की। कांग्रेस ने मांग की कि पार्टी-संगठन और सभी कम्युनिस्ट मध्यम किसानों और कुलकों के बीच सख्ती से फ़र्क करें और उनको एक-दूसरे से अलग समझें और इस बात की कोशिश करें कि मध्यम किसानों की जरूरतों की तरफ़ खूब ध्यान देकर उनको मज़दूर वर्ग के पक्ष में लायें। मध्यम किसानों के पिछड़ेपन को समझा-बुझा कर दूर करना था, न कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती और दबाव से। इसलिए, कांग्रेस ने निर्देश किया कि देहातों में समाजवादी क़दम उठाने के लिये (कम्यून और कृषि-संघ बनाने के लिये) दबाव से काम न लिया जाये। जहां भी मध्यम किसानों के महत्वपूर्ण हितों का सवाल हो, वहां उनसे व्यवहारिक समझौता किया जाये और समाजवादी तब्दीली करने के तरीकों के बारे में उन्हें रियायतें दी जायें। कांग्रेस ने मध्यम किसानों से स्थायी सहयोग की नीति निर्धारित की, इस सहयोग में प्रमुख भूमिका सर्वहारा वर्ग की ही थी।

आठर्वी कांग्रेस में मध्यम किसानों के प्रति लेनिन ने जिस नयी नीति का ऐलान किया, उस पर चलने के लिये ज़रूरी था कि सर्वहारा ग़रीब किसानों पर भरोसा करें, मध्यम किसानों के साथ स्थायी सहयोग बनाये रखें और कुलकों से संघर्ष करें। आंठवीं कांग्रेस से पहले पार्टी की नीति आम तौर से मध्यम किसान को तटस्थ बना देने की थी। इसका मतलब यह था कि पार्टी इस बात की कोशिश करती थी कि पार्टी मध्यम किसान, कुलकों और आम तौर से पूंजीपतियों का पक्ष न करे। लेकिन, अब इतना करना ही काफ़ी न था। ग़द्दारों और विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ़ संघर्ष करने के लिये और समाजवाद के सफल निर्माण के लिये, आठवीं कांग्रेस मध्यम किसानों को तटस्थ करने की नीति से आगे बढ़ कर उनसे स्थायी सहयोग की नीति पर आयी।

मध्यम किसान कृषक जनता का बहुसंख्यक हिस्सा थे। इनकी तरफ़ कांग्रेस ने जो नीति अपनायी, उसने गृह-युद्ध में विदेशी हस्तक्षेप और उसके ग़द्दार पिट्ठुओं के खिलाफ़ सफलता निश्चित करने में निर्णायक भूमिका अदा की। 1919 की शरद् में, जब किसानों को सोवियत सत्ता और देनीकिन, इन दो में से एक को चुनना था, तब उन्होंने सोवियतों का समर्थन किया और सर्वहारा डिक्टेटरशिप अपने सबसे खतरनाक दुश्मन को परास्त कर सकी।

कांग्रेस की बहस में लाल फ़ौज के निर्माण से सम्बन्धित समस्याओं ने ख़ास जगह पायी। इस सिलसिले में, तथाकथित 'फौजी विरोध' सामने आया। इस 'फौजी विरोध' में अब तक कुचले जा चुके 'वामपंथी कम्युनिस्टों' के गुट के काफ़ी भूतपूर्व सदस्य थे। लेकिन, उसमें पार्टी के कुछ ऐसे कार्यकर्ता भी थे जो कभी किसी विरोधी दल में शामिल न हुए थे लेकिन जो त्रात्स्की द्वारा फ़ौजी मामलों के संचालन के तरीक़ों से असुंतष्ट थे। फ़ौज से आये हुए प्रतिनिधियों की बहुतायत स्पष्ट ही त्रात्स्की के विरोध में थी। वे इस बात से नाराज़ थे कि त्रात्स्की पुरानी ज़ारशाही सेना के फ़ौजी विशेषज्ञों का ही आदर करता है, जिनमें से कुछ गृह-युद्ध में हमारे साथ सीधे-सीधे दग़ा कर रहे थे। और फ़ौज के पुराने बोल्शेविक कार्यकर्ताओं की तरफ़ त्रात्स्की का भाव शत्रु जैसा और घमंड से भरा हुआ था। कांग्रेस में त्रात्स्की के 'अमल' की मिसालें दी गयीं। मिसाल के लिये, उसने कोशिश की थी कि मोर्चे पर काम करने वाले फ़ौज के कुछ प्रमुख कम्युनिस्टों को गोली मार दी जाये ; सिर्फ़ इसलिये कि उन्होंने उसे नाराज़ कर दिया था। यह सीधे दुश्मन के हाथों में खेलना था। केन्द्रीय समिति के हस्तक्षेप से ही और फ़ौजियों के विरोध से ही इन साथियों की जानें बचाई जा सकीं।

लेकिन, त्रात्स्की द्वारा पार्टी की सैनिक नीति को तोड़ने-मरोड़ने के खिलाफ़ लड़ते हुए, फौज बनाने के बारे में कई बातों पर 'फ़ौजी विरोध' का मत ग़लत था। लेनिन और स्तालिन ने 'फ़ौजी विरोध' का जोरों से खंडन किया, क्योंकि वह गुरिल्ला भावना के अवशेषों का समर्थन करता था, बाक़ायदा लाल फ़ौज के निर्माण का विरोध करता था, पुरानी फ़ौज के सैनिक विशेषज्ञों के उपयोग का विरोध करता था और फ़ौलादी अनुशासन, जिसके बिना कोई फ़ौज सच्ची फ़ौज नहीं हो सकती, कायम करने का विरोध करता था। काँमरेड स्तालिन ने 'फ़ौजी विरोध' का खंडन किया और बाक़ायदा फ़ौज बनाने की मांग की, जिसमें कठोर अनुशासन की भावना हो।

काँमरेड स्तालिन ने कहा:

"या तो हम मज़दूरों और किसानों की - मुख्यतः किसानों की - एक सच्ची

फ़ौज, कठोर अनुशासन मानने वाली फ़ौज बनाते हैं और प्रजातंत्र की रक्षा करते

हैं, या खत्म होते हैं।"

'फ़ौजी विरोध' के पेश किये हुए कई प्रस्तावों को रद्द करते हुए, कांग्रेस ने त्रात्स्की पर यह मांग करते हुए प्रहार किया कि केन्द्रीय फ़ौजी संस्थाओं का काम सुधारा जाये और फ़ौज में कम्युनिस्टों की भूमिका उन्नत की जाये।

कांग्रेस में एक फ़ौजी कमीशन बनाया गया। उसकी कोशिशों की वजह से फ़ौजी सवाल पर कांग्रेस ने एक राय होकर फ़ैसला मंजूर किया।

इस फ़ैसले का नतीजा यह हुआ कि लाल फ़ौज मज़बूत हुई और पार्टी के और

भी नज़दीक आयी।

कांग्रेस ने पार्टी और सोवियतों के मामलों पर और सोवियतों में पार्टी की पथ-निर्देशक भूमिका पर आगे विचार किया। इस पिछले सवाल पर बहस करते हुए, कांग्रेस ने अवसरवादी साप्रोनोव-आॅसिन्स्की गुट के मत का खंडन किया जिसका कहना था कि पार्टी सोवियतों के काम का पथ-दर्शन न करे।

अंत में, पार्टी के अन्दर नये सदस्यों की ज़बर्दस्त भर्ती की वजह से पार्टी ने कुछ उपाय निश्चित किये जिससे कि पार्टी की सामाजिक बनावट सुधारी जाये। कांग्रेस ने फ़ैसला किया कि पार्टी सदस्यों की फिर से रजिस्ट्री की जाये।

इससे, पार्टी की पांति में पहली बार शुद्धि का काम शुरू हुआ।

3. हस्तक्षेप का विस्तार। सोवियत देश की नाकेबन्दी। कोल्चक की मुहीम और उसकी हार। देनीकिन की मुहीम और उसकी हार। तीन महीने का अवकाश। नवीं पार्टी कांग्रेस।

जर्मनी और आॅस्ट्रिया को हराने के बाद, मित्र-देशों ने फ़ैसला किया कि भारी फ़ौजी ताक़त सोवियत देश के खिलाफ़ झोंक दी जाये। जर्मनी की हार और उक्रैन तथा ट्रांस कॅाकेशिया से उसकी फ़ौजों को हटाने के बाद, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने जर्मनी की जगह ली। उन्होंने अपने जहाजी बेड़े काले समुद्र में भेजे और ओदेसा और ट्रांस काॅकेशिया में अपनी फ़ौजंे उतारीं। मित्र-देशों की हस्तक्षेप करने वाली फ़ौज ऐसी निर्दय थी कि अधिकृत इलाकों में उसने झुंड के झुंड मज़दूरों और किसानों को गोली से उड़ा देने में आगा-पीछा न किया। उनके ये पाशविक काम आखिर में इस हद तक बढ़ गये कि तुर्किस्तान पर क़ब्जा करने के बाद पारवर्ती कास्पियन प्रदेश से वे बाकू के 26 प्रमुख बोल्शेविकों को - जिनमें काँमरेड शोम्यान, फियोलेतोव, जापरिज़े, मालीगिन, अज़ीब बेकोव, कोरगानोव शामिल थे - उठा ले गये और समाजवादी क्रान्तिकारियों की मदद से उन्हें निर्दयता से गोली मार दी।

दखलन्दाजों ने शीघ्र ही रूस की नाकेबन्दी का ऐलान किया। बाहरी दुनिया से मिलने वाले तमाम जल-मार्ग और आवागमन के दूसरे रास्ते बन्द कर दिये गये।

सोवियत भूमि लगभग हर तहफ़ से घिर गयी।

साइबेरिया, ओम्स्क, में मित्र-देशों का कठपुतला ऐडमिरल कोल्चक था, जिस पर उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा था। उसे 'रूस का प्रधान शासक' घोषित किया गया और देश की तमाम क्रान्ति-विरोधी शक्तियाँ उसकी कमान में आ गयीं।

इस तरह, पूर्वी मोर्चा मुख्य मोर्चा बन गया।

कोल्चक ने भारी फ़ौज इकट्ठी की और 1919 के बसन्त में लगभग बोल्गा तक आ पहुँचा। सबसे अच्छे बोल्शेविक दस्ते उससे लोहा लेने के लिये भेजे गये। तरूण कम्युनिस्ट सभा वालों और मज़दूरों ने फ़ौजी वर्दी पहनी। अप्रैल 1919 में, कोल्चक की फ़ौज ने लाल फौज से करारी हार खाई और बहुत जल्द समूचे मोर्चे पर उसने पीछे हटना शुरू किया।

पूर्वी मोर्चे पर लाल फ़ौज की प्रगति जब पूरे वेग पर थी, तब त्रात्स्की ने एक संदेहजनक योजना रखी। उसने प्रस्ताव किया कि यूराल तक पहुंचने के पहले ही लाल फ़ौज को रोक लिया जाये, कोल्चक की फ़ौज का पीछा करना बन्द कर दिया जाये और सेना पूर्वी मोर्च से दक्खिनी मोर्चे पर भेज दी जाये। पार्टी की केन्द्रीय समिति ने पूरी तरह अनुभव किया कि यूराल और साइबेरिया कोल्चक के हाथों में नहीं छोड़े जा सकते थे ; क्योंकि वहां पर जापानियों और अंग्रेजों की मदद से वह फिर से शक्ति संचय कर सकता था और अपनी पहली जगह पा सकता था। इसलिये, उसने इस योजना को ठुकरा दिया और आगे बढ़ते रहने के लिये आज्ञा भेजी।

त्रात्स्की इस आज्ञा से असहमत था। उसने अपना इस्तीफा दे दिया, जिसे केन्द्रीय समिति ने नामंजूर कर दिया और साथ ही उसे हुकुम भी दिया कि पूर्वी मोर्चे की कार्यवाही के संचालन में वह हिस्सा लेना तुंरत बन्द कर दे। लाल फ़ौज भी वेग से कोल्चक का पीछा करती रही। उसने उसे कई बार और हराया और यूराल और साइबेरिया को ग़द्दारों से मुक्त किया। युद्ध के मोर्चे के पीछे वहां एक शक्तिशाली गरिल्ला आन्दोलन, ग़द्दारों के पीछे लाल फ़ौज का समर्थन करता था।

1919 की गर्मियों में, उत्तर-पिच्छम में (बाल्टिक प्रदेशों में, पेत्रोग्राद के पड़ोस में), क्रान्ति-विरोधियों के सरदार, जनरल यूदेनिच को साम्राज्यवादियों ने यह काम सौंपा कि पेत्रोग्राद पर हमला करके पूर्वी मोर्चे से लाल फ़ौज का ध्यान बँटाये। भूतपूर्व अफ़सरों के क्रान्ति-विरोधी प्रचार से प्रभावित होकर, पेत्रोग्राद के पड़ोस के दो क़िलों में रहने वाले सैनिकों ने सोवियत सरकार के खिलाफ़ बग़ावत कर दी। इसके साथ ही, मोर्चे के हैड क्वार्टर पर एक क्रान्ति-विरोधी षड़यंत्र का पता लगा। दुश्मन पेत्रोग्राद के लिये ख़तरा पैदा कर रहा था। सोवियत सरकार ने मज़दूरों और जहाजियों की मदद से जो उपाय किये, उनसे ग़द्दार क़िलों से बाहर निकाल दिये गये और यूदेनिच की फ़ौजें हरा दी गयीं और एस्टोनिया में ठेल दी गयीं।

पेत्रोग्राद के पास यूदेनिच की हार से, कोल्चक से निपटना आसान हो गया और 1919 के अंत तक उसकी फ़ौज पूरी तरह हरा दी गयी। कोल्चक खुद पकड़ लिया गया और इर्कूत्स्क में क्रान्तिकारी कमिटी की आज्ञा से उसे गोली मार दी गयी।

इस तरह, कोल्चक का खात्मा हुआ।

उस समय, कोल्चक के बारे में साइबेरिया के लोगों में एक लोक प्रिय गीत गाया

जाता था:

"वर्दी तो ब्रिटेन की है फ्रांस का है तामझाम,

"हुक्का तो जापान का है, कोल्चक का नाम-नाम।

"लत्ते हुए वर्दी के और गुदड़ी हुआ तामझाम,

"ठण्डा हुआ हुक्क़ा, और कोल्चक का मिटा नाम।"

कोल्चक ने दख़लन्दाजों की आशायें पूरी न की थीं। इसलिये, उन्होंने सोवियत प्रजातंत्र पर हमला करने की अपनी योजना बदल दी। ओदेसा में उतारी हुई फ़ौज वापस बुलानी पड़ी, क्योंकि सोवियत प्रजातंत्र की फ़ौज से सम्पर्क होने पर उस पर भी क्रान्तिकारी रंग चढ़ गया और सैनिक अपने साम्राज्यवादी मालिकों के खिलाफ़ बग़ावत करने लगे। मिसाल के लिये, ओदेसा में आन्द्रे मार्ती के नेतृत्व में फ्रांसीसी जहाजियों ने बग़ावत की। इसलिए कोल्चक के हार जाने के बाद, मित्र-देशों ने अपना ध्यान जनरल देनीकिन पर केन्द्रित किया। वह काॅर्निलोव का सहयोगी था और 'स्वयंसेवक सेना' का संगठनकर्ता था। उन दिनों, देनीकिन दक्खिन में कूबान प्रदेश में सोवियत सत्ता के खिलाफ़ कार्यवाही कर रहा था। मित्र-देशों ने उसे लड़ाई का बहुत सा सामान और युद्ध-सज्जादी और उसकी फ़ौज को सोवियत सत्ता के खिलाफ़ उत्तर की ओर भेजा।

दक्खिनी मोर्चा अब मुख्य मोर्चा बन गया।

देनीकिन ने सोवियत सत्ता के खिलाफ़ अपना मुख्य हमला 1919 की गर्मी में शुरू किया। त्रात्स्की ने दक्खिनी मोर्र्चे को तोड़-फोड़ दिया था और हमारी फ़ौजें हार पर हार खा रही थीं। अक्तूबर के मध्य तक, ग़द्दारों ने समूचे उक्रैन पर क़ब्जा कर लिया था, ओरेल पर अधिकार कर लिया था और तुला के नज़दीक पहुँच रहे थे। हमारी फ़ौज के लिये कारतूसें, राइफ़लें और मशीनगनें तूला से आती थी। ग़द्दार मास्को के नज़दीक पहुँच रहे थे। सोवियत प्रजातंत्र की हालत बहुत ही संकटपूर्ण होती जाती थी। पार्टी ने चेतावनी दी और मुकाबिला करने के लिये जनता का आह्वान किया। लेनिन ने नारा दिया: 'देनीकिन के खिलाफ़ लड़ाई में सभी लोग चलें।' बोल्शेविकों से उत्साहित होकर, मज़दूरों और किसानों ने दुश्मन को कुचलने के लिये अपनी सारी शक्ति बटोरी।

केन्द्रीय समिति ने देनीकिन को हराने की तैयारी करने के लिये दक्खिनी मोर्चे पर काँमरेड स्तालिन, वोरोशिलोव, और्जोनिकित्से और बुद्योन्नी को भेजा। काँमरेड स्तालिन के पहुँचने से पहले दक्खिनी मोर्चे के सेनापति ने त्रात्स्की से मिलकर यह योजना बनायी थी कि जारित्सिन से नोवोरोसीस्क की दिशा में दोन के मैदान से होकर देनीकिन पर मुख्य प्रहार किया जाये। इस तरफ़ सड़कें न थी और लाल फ़ौज को ऐसे प्रदेशों से जाना पड़ता जहां कज़ाक रहते थे, जो इस समय अधिकतर ग़द्दारों के असर में थे। काँमरेड स्तालिन ने इस योजना की तीव्र आलोचना की और देनीकिन को हटाने के लिये अपनी योजना केन्द्रीय समिति के सामने रखी। इस योजना के अनुसार, मुख्य प्रहार खारकोव - दोन्येत्स प्रदेश - रोस्तोव के रास्ते किया जाता। इस योजना से देनीकिन के खिलाफ़ हमारी फ़ौजें निस्संदेह तेज़ी से बढ़ सकतीं, क्योंकि वे मज़दूर और किसान इलाकों से होकर आगे बढ़ती जहां उन्हें जनता की पूरी सहानुभूति मिलती। इसके सिवा, इस इलाके में रेलों का घना जाल बिछा होने से हमारी फ़ौजों को तमाम ज़रूरी रसद मिलती जाती। अंत में, इस योजना से कोयला पैदा करने वाला दोन्येत्स प्रदेश आज़ाद किया जा सकता और इस तरह, हमारे देश को ईधन मिल सकता।

पार्टी की केन्द्रीय समिति ने काँमरेड स्तालिन की योजना मंजूर की। अक्तूबर 1919 के उत्तरार्द्ध में, देनीकिन खुँखार विरोध करने के बाद ओरेल और बोरोनेज के पास निर्णायक युद्धों में लाल फ़ौज द्वारा परास्त किया गया। वह तेज़ी से पीछे हटने लगा। हमारी सेना ने उसका पीछा किया और वह दक्खिन की ओर भागा। 1920 के आरम्भ में, समूचा उक्रैन और उत्तरी काॅकेशस ग़द्दारों से साफ़ कर दिया गया।

दक्खिनी मोर्चे पर निर्णायक युद्धों के समय, साम्राज्यवादियों ने यूदेनिच के दस्ते फिर से पेत्रोग्राद पर झोंक दिये। इस तरह, उन्हें आशा थी कि वे दक्खिन से हमारी सेना लौटा लेंगे और देनीकिन की फ़ौज की हालत सुधर जायेंगी। ग़द्दार पेत्रोग्राद के दरवाजे़ तक पहुँच गये। क्रान्ति के इस प्रधान नगर के मज़दूर उसकी रक्षा के लिये एक अटूट दीवार बन कर उठ खडे़ हुए। हमेशा की तरह, कम्युनिस्ट अगली पांति में थे। घनघोर युद्ध के बाद, ग़द्दार हरा दिये गये और फिर हमारी सीमाओं के उस पार एस्टोनिया में खदेड़ दिये गये।

       इस तरह, देनीकिन का, खात्मा हुआ।

कोल्चक और देनीकिन की हार के बाद, थोड़ा सा अवकाश मिला।

जब साम्राज्यवादियों ने देखा कि ग़द्दार फ़ौजें हरा दी गयी हैं, हस्तक्षेप असफल हुआ है, सारे देश में सोवियत सत्ता अपनी स्थिति दृढ़ कर रही है और उधर पच्छिमी यूरोप में सोवियत प्रजातंत्र में हस्तक्षेप के खिलाफ़ मज़दूरों का क्रोध बढ़ता जाता है, तब सोवियत राज्य की तरफ़ वे अपना रुख बदलने लगे। जनवरी 1920 में, ब्रिटने, फ्रांस और इटली ने सोवियत रूस की नाकेबन्दी खत्म करने का फैसला किया।

हस्तक्षेप की दीवार में यह एक महत्वपूर्ण दरार थी।

अवश्य ही, इसका मतलब यह न था कि सोवियत राज्य अब हस्तक्षेप और गृह-यु़द्ध से निपट चुका था। साम्राज्यवादी पोलैंड की ओर से हमले का ख़तरा अब भी था। हस्तक्षेप की ताकतें अभी पूरी तरह सुदूर पूर्व, ट्रांस काॅकेशिया और क्रीमिया से बाहर न की गयीं थीं। लेकिन, सोवियत रूस को कुछ समय के लिये सांस लेने का अवसर मिला था और अब वह आर्थिक विकास में और ज्यादा शक्ति लगा सकता था। पार्टी अब अपना ध्यान आर्थिक समस्याओं की ओर लगा सकती थी।

गृह-युद्ध के समय, बहुत से कुशल मज़दूर मिलों और कारख़ानों के बन्द होने से उद्योग-धंधे छोड़ चुके थे। पार्टी ने अब ऐसे उपाय किये कि वे अपने-अपने काम से लगने के लिये उद्योग-धंधों में लौट आये। रेलों की हालत गम्भीर थी और कई हजार कम्युनिस्ट उन्हें ठीक करने के काम में लगाये गये। इसे किये बिना, उद्योग-धंधों की मुख्य शाखाओं को बहाल करने का काम गंम्भीरता से शुरू न किया जा सकता था। खाद्य सामग्री भेजने का काम विस्तृत किया गया और सुधारा गया। रूस में बिजली लगाने की योजना के मसौदे तैयार करने की तैयारी शुरू हुई। लगभग 50 लाख लाल फ़ौज के सैनिक हथियारबन्द थे और युद्ध के ख़तरे की वजह से उन्हें फ़ौज से अलग भी न किया जा सकता था। इसलिये, लाल फ़ौज का एक हिस्सा श्रम सेनाओं में बदल दिया गया। और आर्थिक क्षेत्र में उससे काम लिया गया। मज़दूर-किसान-सुरक्षा-समिति बदल कर, श्रम और सुरक्षा-समिति बना दी गयी और उसकी मदद के लिये एक राज्य नियोजन समिति (गोसप्लान) क़ायम की गयी।

इस तरह की परिस्थिति थी, जब नयी पार्टी कांग्रेस शुरू हुई।

मार्च 1920 के अंत में, कांग्रेस आरंभ हुई। उसमें 6,11,978 पार्टी सदस्यों की तरफ़ से 554 वोट देने वाले प्रतिनिधि और 162 मत ज़ाहिर करने मगर वोट न दे सकने वाले प्रतिनिधि शामिल हुए।

कांग्रेस ने यातायात और उद्योग-धंधों के क्षेत्र में देश के सामने फ़ौरी काम रखे। उसने खास तौर से इस बात पर ज़ोर दिया कि आर्थिक जीवन के निर्माण में ट्रेड यूनियानों का हिस्सा लेना आवश्यक है।

उद्योग-धंधों को बहाल करने के लिये और सबसे पहले रेल, ईंधन, लोहे और इस्पात के उद्योग-धंधों को बहाल करने के लिये, कांग्रेस ने एक ही आर्थिक योजना पर विशेष ध्यान दिया। इस योजना की मुख्य बात देश में बिजली लगाने का एक मसौदा था। इसे लेनिन ने 'अगले दस या बीस वर्षों के लिये एक महान कार्यक्रम' के रूप में पेश किया था। रूस में बिजली लगाने के राज्य कमीशन (गोयलरो) ने जो मशहूर योजना बनायी थी और जिसकी शर्तें अब अपेक्षा से ज्यादा पूरी हो चुकी हैं, उसका आधार यही था।

कांग्रेस ने एक पार्टी-विरोधी गुट के मत को ठुकरा दिया, जो अपने को 'जनवादी केन्द्रीयता का गुट' कहता था और एक आदमी के प्रबंध और औद्योगिक संचालकों की बिना बँटी हुई जिम्मेदारी का विरोध करता था। वह इस बात का समर्थन करता था कि बिना किसी नियंत्रण के 'पूरे गुट का प्रबंध' हो, जिसके अनुसार, उद्योग-धंधों के संचालन के लिये कोई भी निजी तौर पर जिम्मेदार न हो। इस पार्टी-विरोधी गुट में मुख्य लोग साप्रोनोव, आॅसिन्स्की और वÛ स्मिर्नोव थे। कांग्रेस में राइकोव और तोम्स्की ने उनका समर्थन किया।

4. सोवियत रूस पर पोलैंड के ज़मींदारों का हमला। जनरल

व्रांग्रेल की मुहीम। पोलिश योजना की असफलता। व्रांगे्रल

की हार। हस्तक्षेप का अंत।

कोल्चक और देनीकिन हार चुके थे। ग़द्दारों को निकाल कर, सोवियत प्रजातंत्र बराबर अपनी धरती वापस ले रहा था। उत्तरी प्रदेश, तुर्किस्तान, साइबेरिया, दोन प्रदेश, उक्रैन वगैरह से दखलन्दाजों को निकाल कर, सोवियत प्रजातंत्र अपने प्रदेश वापस ले रहा था। मित्र-देशों को मज़बूर होकर रूस की नाकेबन्दी उठा लेनी पड़ी थी। इन सब बातों के बावजूद, हस्तक्षेपकारी यह बात मानने के लिये तैयार न थे कि सोवियत सत्ता अजेय साबित हो चुकी है और विजयी हो चुकी है। इसलिए, उन्होंने सोवियत रूस में एक बार फिर हस्तक्षेप करने की कोशिश की। इस बार, उन्होंने पिलसुदस्की और जनरल व्रांग्रेल दोनों को इस्तेमाल करने का विचार किया। पिलसुदस्की एक पूंजीवादी क्रान्ति-विरोधी राष्ट्रवादी था और पोलैंड के राज्य का वास्तविक नेता था। जनरल व्रांग्रेल ने क्रीमिया में देनीकिन की बची-खुची फ़ौज इकट्ठी की और वहाँ से दोन्येत्स प्रदेश और उक्रैन पर धावा करने की तैयारी में था।

पोलैंड के ज़मींदार और व्रांग्रेल, जैसा कि लेनिन ने कहा था, दोनों भुजायें थीं जिनसे अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद सोवियत रूस का गला घोंट देना चाहता था।

पोल-योजना यह थी कि द्नीपर नदी के पच्छिम में सोवियत उक्रैन पर अधिकार कर लें, सेवियत बैलो रूसिया पर कब्जा कर लें, इन प्रदेशों में पोलैंड के अमीरों की सत्ता बहाल करें और पोल राज्य की सीमायें इतनी बढ़ायें कि वे 'एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक', डान्जिंग से ओदेसा तक फैल जायें और व्रांग्रेल की मदद के बदले लाल फ़ौज को कुचलने में और सोवियत रूस में ज़मींदारों और पूंजीपतियों की सत्ता बहाल करने में उसकी सहायता करें।

मित्र-देशों ने इस योजना का समर्थन किया।

सोवियत सरकार ने शान्ति क़ायम रखने और युद्ध से बचने के लिये पोलैंड से बातचीत चलाने की असफल कोशिशें कीं। पिलसुदस्की ने शान्ति की बातचीत करने से इन्कार कर दिया। वह युद्ध चाहता था। उसका विचार था कि कोल्चक और देनीकिन से लड़ कर लाल फ़ौज थक गयी है और पोल सेना का हमला न सह सकेगी।

       सांस लेने के लिये थोड़ा जो अवकाश मिला था, वह खत्म हो गया। अप्रैल 1920 में, पोलों ने सोवियत उक्रैन पर हमला किया और कियेव ले लिया। इसी समय, व्रांग्रेल ने हमला शुरू किया और दोन्येत्स प्रदेश पर धावा करने को हुआ।

इन पर, लाल फ़ौज ने समूचे मोर्चे पर पोलों के खिलाफ़ जवाबी हमला किया। कियेव फिर ले लिया गया और पोलैंड के युद्ध-सामन्त उक्रैन और बैलोरूसिया से बाहर निकाल दिये गये। दक्खिनी मोर्चे पर, लाल फ़ौज की दुर्दम प्रगति ने उन्हें गैलीशिया में ल्वोव के सिंहद्वार तक ठेल दिया। उधर, पच्छिमी मोर्चे की सेना वारसा के निकट पहुँच रही थी। पोल फ़ौजें बुरी तरह हारने को थीं।

लेकिन, लाल फ़ौज के जनरल हैड क्वार्टर में त्रात्स्की और उसके अनुयायियों के संदेहजनक कामों से सफलता मिलते-मिलते रह गयी। त्रात्स्की और तुखाचेव्स्की के दोष से, पिच्छमी मोर्चें पर वारसा की तरफ़ लाल फ़ौज की प्रगति एकदम असंगठित रूप से हुई। जीते हुए स्थानों को मज़बूत करने के लिये सेना को मौका न दिया गया। अगले दस्ते बहुत ज्यादा आगे भेज दिये गये और रिज़र्व और गोला-बारूद बहुत ज्यादा पीछे छोड़ दिये गये। इसका फल यह हुआ कि अगले दस्तों को गोला-बारूद और रिजर्व न मिला और मोर्चा बेहिसाब फैल गया। इससे मोर्चे में दरार डालना आसान हुआ। नतीज़ा यह हुआ कि जब थोड़ी सी पोल फ़ौज एक जगह पच्छिमी मोर्चा तोड़ कर घुस आयी तो हमारी सेना को गोला-बारूद के बिना पीछे लौटना पड़ा। जहां तक दक्खिनी मोर्चे की सेना का सवाल था, जो ल्वोव के सिंहद्वार तक पहुँच गयी थी और पोलों को बुरी तरह खदेड़ रही थी, उसे त्रात्स्की ने, उस 'क्रान्तिकारी फ़ौजी समिति के सभापति' बदनाम त्रात्स्की ने, ल्वोव पर क़ब्जा करने से मना कर दिया। उसने हुकुम दिया कि घुड़सवार फ़ौज, जो दक्खिनी मोर्चें की मुख्य सेना थी, दूर उत्तर-पूर्व में चली जाये। यह इस बहाने किया गया कि पच्छिमी मोर्चें की सहायता की जाये, हालंकि यह देखना मुश्किल न था कि पच्छिमी मोर्चे की मदद करने का सबसे अच्छा और दरअसल एक ही संभव उपाय ल्वोव पर अधिकार करना था। लेकिन, दक्खिनी मोर्चें से घुड़वार फ़ौज को हटाने, ल्वोव से उसके हटाने का वास्तविक अर्थ यही होता था कि दक्खिनी मोर्चें से भी हमारी सेना पीछे हटे। त्रात्स्की ने यह जो तोड़-फोड़ करने वाला हुकुम जारी किया, उससे दक्खिनी मोर्चें पर हमारी सेना को बिना किसी भी कारण के और समझ में न आने वाले ढंग से पीछे हटना पड़ा, जिससे पोलैंड के ज़मींदारों को खुशी हुई।

इससे सीधे-सीधे पच्छिमी मोर्चें को मदद तो न मिलती थी, लेकिन पोलैंड के ज़मींदारों और मित्र-देशॉ को ज़रूर मदद मिलती थी।

कुछ ही दिनों में, पोलों का आगे बढ़ना रुक गया और हमारी फ़ौजों ने जवाबी हमले की तैयारी की। युद्ध जारी रखने में असमर्थ होने से और लाल जवाबी हमले की संभावना से घबड़ा कर, पोलैंड ने मज़बूरन द्नीपर के पच्छिम में उक्रैन प्रदेश  पर और बैलोरूसिया पर अपना दावा छोड़ दिया और संधि करना ज्यादा अच्छा समझा। 20 अक्तूबर 1920 को, रीगा की संधि पर दस्तख़त किये गये। इस संधि के अनुसार, गैलीषिया और बैलोरूसिया का एक हिस्सा पोलैंड के पास रहा।

पोलैंड से संधि करने के बाद, सोवियत प्रजातंत्र ने व्रांग्रेल को खत्म करने का फ़ैसला किया। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने उसे तोपें, राइफ़लें, हथियार बन्द गाड़ियां, टैंक, हवाई जहाज और बिल्कुल आधुनिक तरह का लड़ाई का सामान दिया था। उसके पास लड़ाकू ग़द्दार पल्टनें थीं, जिनमें ज्यादातर अफ़सर थे। लेकिन, व्रांग्रेल ने कुबान और दोन प्रदेश  में जो सेना उतारी थी उसकी मदद के लिये किसानों और कज़ाकों की क़ाफी संख्या का समर्थन न मिल सका। फिर भी, वह दोन्येत्स प्रदेश  की देहरी तक ही बढ़ता चला आया और उसने कोयला पैदा करने वाले हमारे इलाके के लिये ख़तरा पैदा कर दिया। सोवियत सरकार की स्थिति उस समय इस कारण और उलझ गयी थी कि ल़ाल फौज बहुत ज़्यादा थकी हुई थी। सैनिकों को बहुत ही कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ना पड़ता था। व्रांग्रेल पर हमला करते हुए, उन्हें उसके समर्थक माख़नों के अराजकतावादी गिरोहों को भी कुचलना होता था। हालांकि व्रांग्रेल के पास लड़ाई का सामान ज़्यादा अच्छा था और लाल फ़ौज के पास टैंक नहीं थे, लेकिन फिर भी उसने व्रांग्रेल को क्रीमिया के प्रायद्वीप में खदेड़ दिया और वहां उसे घेर लिया। नवम्बर 1920 में, लाल सेना ने पेरेकोप की क़िलेबन्दी पर अधिकार कर लिया, क्रीमिया में लाल फ़ौज फैल गयी, उसने व्रांग्रेल की फ़ौज को कुचल दिया और प्रायद्वीप से ग़द्दारों और हस्तक्षेपकारियों को निकाल बाहर किया। क्रीमिया सोवियत प्रदेश  हो गया।

पोलैंड की साम्राज्यवादी योजनाओं की असफलताओं और व्रांग्रेल की पराजय से, हस्तक्षेप का दौर खत्म हुआ।

1920 के अंत में, ट्रांस काॅकेषिया की मुक्ति शुरु  हुई। अज़रबैजान पूंजीवादी राष्ट्रवादी मुसावतपंथियों की गुलामी से आज़ाद हुआ, जाॅर्जिया मेंशेविक राष्ट्रवादियों और आर्मीनिया दाषनाकों से मुक्त हुए। अज़रबैजान, अर्मीनिया और जाॅर्जिया में सोवियत सत्ता की विजय हुई।

इसका मतलब यह न था कि सभी हस्तक्षेप बन्द हो गये। सुदूर पूर्व में, जापानियों का हस्तक्षेप 1922 तक जारी रहा। इसके सिवा, हस्तक्षेप की नयी कोषिषें भी की गयीं (अतामान सेम्योनोव और बैरन उंगेर्न ने पूर्व में और फ़िन गद्दारों ने करेलिया में 1921 में हस्तक्षेप करने की कोशिश की)। लेकिन, सोवियत देश के मुख्य षत्रु, हस्तक्षेप करने वाली प्रमुख शक्तियां, 1920 के अंत तक परास्त कर दी गयीं।

सोवियतों के खिलाफ़ विदेशी  दख़लन्दाजों और रूसी ग़द्दारों की लड़ाई का खात्मा सोवियतों की विजय में हुआ।

सोवियत प्रजातंत्र ने अपनी स्वाधीनता और स्वतंत्रता बनाये रखी।

विदेशी  फ़ौजी हस्तक्षेप और गृह-यु़द्ध का यही अंत हुआ।

सोवियत सत्ता के लिये यह एक ऐतिहासिक विजय थी।

5. सोवियत प्रजातंत्र ने अंगे्रज-फ्रांसीसी-जापानी-पोल हस्तक्षेप की मिली-जुली शक्तियों और रूस के पूजीवादी-ज़मींदार-गद्दार क्रान्ति-विरोध की ताक़तों को क्यों और कैसे हराया?

हस्तक्षेप के समय के प्रमुख यूरोपीय और अमरीकी अख़बारों और पत्रिकाओं को हम देखें, तो आसानी से पता चल जायेगा कि ऐसा एक भी प्रमुख फ़ौजी या ग़ैर फ़ौजी लेखक न था, एक भी सैनिक विषेषज्ञ न था जिसे भरोसा हो कि सोवियत सत्ता जीतेगी। इसके विपरीत, सभी प्रमुख लेखकों, सैनिक विषेषज्ञों और सभी देशॉ और जातियों की क्रान्ति के इतिहासकारों ने, सभी तथाकथित विद्वानों ने एक राय से यही घोषणा की थी कि सोवियतों के दिन गिने चुने हैं और उनकी पराजय अनिवार्य है।

हस्तक्षेपकारी शक्तियों की विजय में उनके इस विश्वास का आधार था कि सोवियत रूस के पास कोई संगठित फ़ौज नहीं है और कहना चाहिये कि युद्ध की आँच में तपते हुए उसे लाल फ़ौज बनानी थी, लेकिन हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों के हाथ में बहुत कुछ बनी-बनाई फ़ौज थी।

इसके सिवा, उनके विश्वास का आधार यह था कि लाल फ़ौज में अनुभवी सैनिक नहीं हैं, उनमें से अधिकांष क्रान्ति-विरोध से जा मिले हैं, लेकिन हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों के पास ऐसे अनुभवी आदमी हैं।

और भी, उनके विश्वास का आधार यह था कि रूस का युद्ध-उद्योग पिछड़ा होने से लाल फ़ौज के पास हथियारों और गोला-बारूद की कमी है। उसके पास जो सामान था, वह घटिया क़िस्म का था और उसे विदेश से इसलिये न मिल सकता था कि चारों तरफ़ से नाकेबन्दी करके रूस का यातायात बिल्कुल बन्द कर दिया गया था। दूसरी तरफ़, हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों की फ़ौज के पास ढेरों सामान था और उसे प्रथम श्रेणी के हथियार, गोलाबारूद और लड़ाई का सामान मिलता रहेगा।

अंत में, उनके विश्वास का आधार यह था कि हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों की फ़ौज के पास रूस के सबसे उपजाऊ अन्न पैदा करने वाले प्रदेश  थे, लेकिन लाल फ़ौज के पास ऐसे इलाके नहीं थे और उसे रसद की कमी थी।

और, यह सत्य है कि लाल फ़ौज के सामने ये सब कठिनाइयंा और ख़ामियां थीं।

इस पहलू से, और सिर्फ़ इसी पहलू से, हस्तक्षेपकारी सज्जन बिल्कुल ठीक कह रहे थे।

तब इसका क्या कारण है कि ऐसी भारी ख़ामियों के होते हुए भी लाल फ़ौज हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों को हरा सकी, जिसमें इस तरह की ख़ामियाँ नहीं थीं?

1. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि सोवियत सरकार की नीति, जिसके लिये लाल फ़ौज लड़ रही थी, एक सही नीति थी। वह ऐसी नीति थी जो जनता के हितों के अनुकूल थी और जनता समझती और महसूस करती थी कि वह सही नीति है, उसकी अपनी नीति है और बिना किसी दूराव के वह उसका समर्थन करती थी।

बोल्शेविक जानते थे कि जो फ़ौज ग़लत नीति के लिये लड़ती है, ऐसी नीति के लिये जिसका जनता समर्थन न करती हो, वह जीत नहीं सकती। हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों की फ़ौज ऐसी ही फ़ौज थी। उसके पास सब कुछ था: अनुभवी सेनापति और प्रथम श्रेणी के हथियार, गोला-बारूद, लड़ाई का सामान और रसद। उसके पास सिर्फ एक ही चीज नहीं थी: रूस की जनता की सहानुभूति और उसका समर्थन। रूस की जनता हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दार 'षासकों' की नीति का समर्थन नहीं करती थी और न कर सकती थी, क्योंकि यह नीति जन-विरोधी थी। और इसलिये, हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों की फ़ौज की हार हुई।

2. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि वह अपनी जनता के प्रति पूरी तरह सच्ची और वफ़ादार थी।  इसलिये, जनता उसे प्यार करती थी, उसकी मदद करती थी और उसे अपनी ही फौज समझती थी। लाल फ़ौज जनता की संतान है; जैसे एक सच्चा बेटा अपनी मां के प्रति सच्चा रहता है, वैसे ही लाल फ़ौज अगर जनता के प्रति सच्ची रहे तो जनता उसका समर्थन करेगी और उसकी जीत अवष्य होगी। लेकिन जो फ़ौज जनता के खिलाफ़ जाती है, वह ज़रूर हारेगी।

3. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि सोवियत सरकार युद्ध के मोर्चें की आवष्यकतायें पूरी करने के लिये मोर्चें के पीछे तमाम लोगों को, समूचे देश को बटोर सकी। जिस फ़ौज को मोर्चें के पीछे हर तरह से मजबूत सहारा न मिलेगा, वह ज़रूर हार जायेगी। बोल्शेविक इस बात को जानते थे और इसीलिये युद्ध के मोर्चें को हथियार, गोला-बारूद, लड़ाई का सामान, रसद और कुमुक भेजने के लिये, उन्होंने सारे देश को एक हथियारबन्द खेमा बना दिया।

4. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि: क) लाल फ़ौज के सैनिक युद्ध के उद्देष्य और लक्ष्य जानते थे और मानते थे कि वे न्यायपूर्ण हैं; ख) युद्ध के लक्ष्यों और उद्देष्यों को न्यायपूर्ण मानने से उनका अनुषासन दृढ़ हुआ और लड़ने की योग्यता बढ़ी; ग) इसका नतीजा यह हुआ कि दुष्मन से युद्ध करते हुए, लाल फ़ौज ने अभूतपूर्व आत्म-बलिदान और सामूहिक रूप से अतुल वीरता का परिचय दिया।

5. लाल फ़ौज की जीत इसलिये हुई कि उसकी रीढ़, क्या मोर्चें पर और क्या उसके पीछे, बोल्शेविक पार्टी थी। बोल्शेविक पार्टी अपनी एकता और अनुषासन में अडिग थी। उसके अन्दर तीव्र क्रान्तिकारी भावना थी और सामान्य उद्देष्य के लिये वह कोई भी बलिदान करने के लिये तैयार थी। करोड़ों जनता को संगठित करने और पेचीदा परिस्थितियों में उसका नेतृत्व करने में उसकी योग्यता बेजोड़ थी।

लेनिन ने कहा था:

"पार्टी की जागरूकता और उसके कठोर अनुषासन की वजह से, इसी वजह से कि पार्टी ने अधिकार सहित तमाम सरकारी विभागों और संस्थाओं को संगठित किया, केन्द्रीय समिति ने जो नारे दिये उन्हें एक ही आदमी की तरह दसों, बीसियों, हजारों और अंत में करोड़ों आदमियों ने माना और इस वजह से कि इतनी कुर्बानी की गयी जिस पर विश्वास नहीं होता, वह चमत्कार हो सका जो वास्तव में हुआ। सिर्फ इन्हीं सब कारणों से, मित्र-देशॉ के और दुनिया भर के साम्राज्यवादियों के दुबारा, तिबारा और चार बार लगातार हमले करने पर भी हम जीत सके।" (लेनिन, संÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खंÛ 2, पृÛ 556)

6. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि: क) वह अपनी पाँति से ही एक नयी तरह के सेनापति, फ्रुन्जे, वोरोषिलोव, बुद्योन्नी, आदि जैसे आदमी पैदा कर सकी। ख) उसकी पाँति में जनता के ऐसे प्रतिभाषाली वीर लड़े जैसे कतोव्स्की, चापायेव, लाजो, ष्चोर्स, पार्खोमेंको, और दूसरे बहुत से वीर। ग) लाल फ़ौज की राजनीतिक शिक्षा ऐसे आदमियों के हाथ में थी जैसे लेनिन, स्तालिन, मोलोतोव, कालिनिन, स्वेर्दलोव, कगानोविच, और्जोनिकित्से, किरोव, कुइबीषेव, मिकोयान, ज्दानोव, आन्द्रियेव, पेत्रोव्स्की, यारोस्लाव्स्की, जेरजिन्स्की, ष्चादिन्कोव, मेखलिस, ख्रुश्चेव, ष्वेर्निक ष्किर्यातोव, वगैरह। घ) लाल फ़ौज के पास फ़ौजी कमीसारों जैसे श्रेष्ठ संगठनकर्ता और प्रचारक थे, जो लाल फ़ौज के सैनिकों की एकता मजबूत करते थे, उनमें अनुषासन और फ़ौजी साहस की भावना जगाते थे और जिन्होंने शक्ति के साथ - तेज़ी से और निर्ममता से – कई सेनापतियों की विश्वासघातक कार्यवाही को अंकुर फूटते ही निर्मूल कर दिया, लेकिन पार्टी और ग़ैर पार्टी के उन सेनापतियों के मान-सम्मान का उन्हों ने साहस और दृढ़ता से समर्थन किया जिन्होंने सोवियत सत्ता की तरफ़ अपनी वफ़ादारी साबित की थी और जो दृढ़ता से लाल फ़ौज के दस्तों का नेतृत्व कर सकते थे।

लेनिन ने कहा था: "फ़ौजी कमीसारों के बिना हमारे पास लाल फ़ौज न होती।"

7. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि ग़द्दार फ़ौजों के पीछे, कोल्चक, देनीकिन, क्रासनोव और व्रांग्रेल की पांति के पीछे पार्टी और गै़र पार्टी के उच्चकोटि के बोल्शेविक काम करते थे। उन्होंने हमलावरों के खिलाफ़, गद्दारों के खिलाफ़ मज़दूरों और किसानों को विद्रोह के लिये उभारा। सोवियत सत्ता के दुश्मनो के पृष्ठ भाग को उन्होंने खोखला कर दिया और इस तरह, लाल फौज की प्रगति को उन्होंने आसान बनाया। सभी लोग जानते हैं, उक्रैन, साइबेरिया, सुदूर पूर्व, यूराल बेलोरूसिया और वोल्गा प्रदेश  के छापेमारों ने ग़द्दारों और हमलवारों का पृष्ठभाग कमज़ोर करके लाल फ़ौज की अमूल्य सेवा की।

8. लाल फ़ौज इसलिये जीती कि ग़द्दार क्रान्ति-विरोध और विदेशी  हस्तक्षेप के खिलाफ़ लड़ने में सोवियत प्रजातंत्र अकेला न था। सोवियत सत्ता के संघर्ष और उसकी सफलताओं के साथ तमाम दुनिया के मज़दूरों की सहानुभूति थी और उनका समर्थन प्राप्त था। जब साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और नाकेबन्दी के ज़रिये सोवियत प्रजातंत्र का गला घोंटने की कोशिश कर रहे थे, तब साम्राज्यवादी देशॉ के मज़दूरों ने सोवियतों का पक्ष लिया और उनकी सहायता की। सोवियत प्रजातंत्र का विरोध करने वाले देशॉ के पूंजीपतियों के खिलाफ़ उनके संघर्ष ने अंत में साम्राज्यवादियों को मजबूर किया कि वे हस्तक्षेप बन्द करें। ब्रिटेन, फ्रांस और दूसरे हस्तक्षेपकारी देशों के मज़दूरों ने हड़तालें की, हमलावरों और ग़द्दार सेनापतियों के लिये भेजे जाने वाले लड़ाई के सामान को लादने से इन्कार कर दिया और उन्होंने संघर्ष-कमिटियाँ बनायीं, जिनका काम इस नारे पर चलता था: 'रूस में दखलन्दाजी बन्द करो!'

लेनिन ने कहा था:

"अंतर्राष्ट्रीय पूंजीपतियों ने हमारे खिलाफ़ हाथ उठाया नहीं कि उनके अपने मज़दूर ही उसे जकड़ लेंगें।" (लेनिन ग्रंथावली , ÛसंÛ, खंड 25, पृष्ठ 405)

सारांश

अक्तूबर क्रान्ति से पराजित होकर, ज़मींदारों और पूंजीपतियों ने ग़द्दार सेनापतियों के सहयोग से सोवियत देश पर मिलकर हथियारबन्द हमला करने के लिये और सोवियत सत्ता को उलटने के लिये अपने ही देश के हितों के खिलाफ़ मित्र-देशॉ की सरकारों के साथ षड़यंत्र किया। रूस के सीमान्त प्रदेशॉ में ग़द्दारों की बग़ावत और मित्र-देशॉ के फ़ौजी हस्तक्षेप का यही आधार था। इस हस्तक्षेप और बग़ावत के फलस्वरूप, कच्चा माल और अन्न देने वाले इलाकों से रूस अलग जा पड़ा।

जर्मनी की फ़ौजी हार और यूरोप में दो साम्राज्यवादी गुटों के परस्पर युद्ध के बन्द होने से, मित्र-देश मजबूत हुए और हस्तक्षेप ने जोर पकड़ा। इस वजह से, सोवियत रूस के लिये नयी कठिनाइयाँ पैदा हुईं।

दूसरी तरफ़, जर्मनी में क्रान्ति से और यूरोप के देशॉ में क्रान्तिकारी आन्दोलन के अंकुर फूटने से, सोवियत सत्ता के लिये अनुकूल अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां पैदा हुईं और सोवियत प्रजातंत्र की स्थिति संभली।

बोल्शेविक पार्टी ने पितृभूमि के लिये युद्ध में मज़दूरों और किसानों को उभारा, विदेशी  हमलावरों और पूंजीपति और ज़मींदार गद्दारों के खिलाफ़ युद्ध में उन्हें उभारा। सोवियत प्रजातंत्र और उसकी लाल फ़ौज ने एक के बाद एक मित्र-देशॉ के कठपुतलों - कोल्चक, यूदेनिच, देनीकिन, क्रासनोव और व्रांग्रेल को हराया, मित्र-देशॉ के दूसरे कठपुतले पिल्सुदस्की को उक्रैन और बैलोरूसिया से बाहर खदेड़ा और इस तरह, विदेशी हस्तक्षेप की फ़ौजों को परास्त किया और उन्हें सोवियत देश से बाहर निकाल दिया।

इस तरह, समाजवाद की भूमि पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का पहला हथियारबन्द आक्रमण पूरी तरह असफल हुआ।

हस्तक्षेप के दिनों में, क्रान्ति द्वारा परास्त पार्टियों - समाजवादी क्रान्तिकारियों, मेन्षेविकों, अराजकतावादियों और राष्ट्रवादियों - ने ग़द्दार सेनापतियों और हमलवारों की मदद की। सोवियत प्रजातंत्र के खिलाफ़ उन्होंने क्रान्ति-विरोधी षड़यंत्र किये और सोवियत नेताओं के खिलाफ़ आतंकवाद का सहारा लिया। अक्तूबर क्रान्ति से पहले, मज़दूर वर्ग पर इन पार्टियों का थोड़ा-बहुत असर था। गृह-युद्ध के दौर में, इन्होंने आम जनता को अच्छी तरह दिखा दिया कि वे क्रान्ति-विरोधी पार्टियाँ हैं।

गृह-युद्ध और हस्तक्षेप के दिनों में, ये पार्टियाँ राजनीतिक रूप से मर गयीं और सोवियत रूस में कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह से विजयी हुई।

 

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