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Thursday, 13 August 2020

पहला अध्याय-सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास

पहला अध्याय

रूस में सोशल-डमोक्रेटिक लेबर पार्टी के निर्माण के लिये संघर्ष

(1883-1901)

1. भूदास प्रथा का ख़ात्मा और रूस में औद्योगिक पूंजीवाद का विकास। आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का उत्थान। मज़दूर आन्दोलन के पहले क़दम।

दूसरे देशों के मुकाबिले, ज़ारशाही रूस पूंजीवादी विकास की राह पर देर से आगे बढ़ा। 1860 के पहले, रूस में बहुत कम मिलें और कारखाने थे। आर्थिक व्यवस्था का मुख्य रूप भूदास प्रथा पर निर्भर रियायतें थीं। भूदास प्रथा के रहते हुए उद्योग-धंधों का सच्चा विकास न हो सकता था। खेती में भूदासों की बेगार से पैदावार कम होती थी। आर्थिक विकास के समूचे क्रम ने यह लाज़िमी कर दिया था कि भूदास प्रथा का खात्मा किया जाये। 1861 में क्रिमिया की लड़ाई में हारने से कमजोर होकर और ज़मींदारों के खिलाफ़ किसानों के विद्रोह से डर कर ज़ारशाही सरकार को मजबूर होकर भूदास प्रथा का खात्मा करना पड़ा।

लेकिन, भूदास प्रथा का खात्मा हो जाने के बाद भी ज़मींदार किसानों को सताते रहे। उनकी 'मुक्ती' के सिलसिले में उन्होंने किसानों को लूटा। जिस ज़मीन को किसान पहले जोतते-बोते थे, उसके काफ़ी हिस्सों को उन्होंने घेर लिया या छांट लिया। ज़मीन के इन छांटे हुए हिस्सों को किसान अतिरेजकी (छांटी हुई ज़मीन) कहते थे। किसानों को मजबूर किया गया कि अपनी मुक्ति के लिये क़रीब दो अरब रूबल ज़मींदारों को मुक्ति-धन के रूप में दें।

जब भूदास प्रथा का खात्मा हो गया, तब किसानों को मजबूर किया गया कि बहुत ही कड़ी शर्तों पर वे ज़मींदारों से लगान पर जमीनें लें। नक़दी लगान देने के अलावा, किसानों को अक्सर ज़मींदार मजबूर करते थे कि अपने ही घोड़ों और हल-माची से उनकी ज़मीन का एक निश्चित हिस्सा वे बिना पैसे लिये जोतें-बोयें।

इसे अत्राबोत्की या बार्शचीना (लगान के बदले मेहनत, बेगार) कहते थे। ज्यादातर किसानों को मजबूर होना पड़ता था कि वे ज़मींदारों को गल्ले की शकल में लगान दें, जो उनकी फ़सल का आधा होता था। इसे इस्पोलू (अधियारी) कहते थे।

इस तरह, हालत करीब-करीब वैसी ही रही जैसी कि भूदास प्रथा में थी। फ़र्क यही था कि किसान निजी तौर पर अब आजाद था और जानवर की तरह उसकी खरीद-फ़रोख न हो सकती थी।

ज़मींदारों ने पिछडे़ हुए किसान कुनबों को शोषण के विभिन्न्ा तरीकों (लगान, जुर्माना) से बेदम कर दिया था। ज़मींदारों के सताने की वजह से, ज्यादातर किसान अपनी खेती में तरक्क़ी न कर सकते थे। इसीलिये, क्रान्ति से पहले के रूस में खेती बहुत ज्यादा पिछड़ी हुई थी, जिससे अक्सर फ़सल न होती थी और अकाल पड़ते थे।

भूदास प्रथा के अवशेषों से, भारी टैक्स और जमींदारों को मुक्ति-धन देने से, जो कभी-कभी किसान कुनबे की आय से भी ज्यादा होता था, किसान तबाह हो गये। वे दर-दर के भिखारी बन गये और रोजी की तलाश में उन्हें मजबूरन अपने गांव छोड़ने पडे़। वे मिलों और कारखानों में काम करने चले गये। कारखानेदारों को यह सस्ते में श्रम-शक्ति खरीदने का ज़रिया मिल गया।

मजदूरों और किसानों के सिर पर मुंशी,, दारोगा, चैकीदार, जमादार वगैरह की एक फ़ौज की फ़ौज थी जो शोषित और मेहनत करनेवाली जनता से ज़ार, पूंजीपतियों और ज़मींदारों की रक्षा करती थी। 1903 तक शारीरिक दण्ड देने की प्रथा चालू थी। हालांकि भूदास प्रथा का खात्मा कर दिया गया था, फिर भी छोटे से छोटे क़सूर के लिये और टैक्स न देने पर किसानों को पीटा जाता था। पुलिस और कज़ाक मजदूरों को मारते थे, खास तौर से हड़ताल में, जबकि मजदूर कारखानेदारों द्वारा जिन्दगी असह्य बना दिये जाने पर काम बन्द कर देते थे। ज़ारशाही में मजदूरों और किसानों के कोई भी राजनीतिक अधिकार नहीं थे। निरंकुश ज़ारशाही जनता की सबसे बड़ी शत्रु थी।

ज़ारशाही रूस जातियों के लिये जेलखाना था। बहुसंख्यक गैर रूसी जातियों को कोई भी अधिकार न दिये गये थे और उन्हें हर तरह से लगातार अपमानित किया और नीचा दिखाया जाता था। ज़ारशाही सरकार ने रूसी जनता को सिखलाया था कि वह जातीय इलाक़ों के रहनेवालों को नफ़रत की नज़र से देखे, उन्हें घटिया नस्ल का समझे। सरकारी तौर पर वह उन्हें इनोरोत्सी (विदेशी) कहती खिलाफ घृणा और नफ़रत फैलाती थी। ज़ारशाही सरकार जानबूझ कर जातीय द्वेष की आग लगाती थी, एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ़ उकसाती थी, यहूदियों के कत्लेआम कराती थी और ट्रांस काॅकेशिया में तातारों और आरमीनियनों को एक-दूसरे का कत्लेआम करने के लिये भड़काती थी।

जातीय इलाक़ों में सभी नहीं, तो करीब-करीब सभी, सरकारी जगहों पर रूसी अफसर होते थे। सरकारी संस्थाओं और कचहरियों में सभी काम रूसी भाषा में होता था। गै़र रूसी जातियों की भाषाओं में अखबार और किताबें छापने या स्कूलों में वहां की भाषा में पढ़ाने की मनाही थी। ज़ारशाही सरकार कोशिश करती थी कि जातीय संस्कृति की हर चिंगारी बुझा दी जाये। वह गैर रूसी जातियों को ज़बर्दस्ती "रूसी बनाने" की नीति पर चलती थी। गै़र रूसी जातियों के लिये ज़ारशाही उन्हें सतानेवाला जल्लाद थी।

भूदास प्रथा के खात्मे के बाद, रूस में औद्योगिक पूंजीवाद का विकास काफ़ी तेजी के साथ हुआ हालांकि भूदास प्रथा के अवशेषों से उसमें अब भी अड़चनें पड़ती थीं। 1865 से 1890 तक, 25 वर्षों में, बड़ी मिलों और कारखानों में और रेलों पर काम करनेवाले मजदूरों की तादाद 7,06,000 से बढ़ कर 14,33,000 हो गई, यानी दूनी से ज्यादा हो गयी।

1890 के बाद, बडे़ पैमाने के पूंजीवादी उद्योग-धंधे और भी तेजी के साथ विकसित होने लगे। दस साल के बाद, रूस के पचास यूरोपीय सूबों में ही बड़ी मिलों और कारखानों में, खानों और रेलों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या 22,07,000 और समूचे रूस में उनकी संख्या 27,92,000 हो गई थी।

यह एक आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग था। यह वर्ग भूदास प्रथा के जमाने में कारखानों में काम करनेवाले मजदूरों से और छोटी-मोटी दस्तकारी और दूसरी तरह के धंधों में काम करनेवाले मजदूरों से बुनियादी तौर पर भिन्न्ा था। वह इसलिये भिन्न्ा था कि बड़े पूंजीवादी धंधों में काम करनेवाले मजदूरों के अन्दर एकता की भावना थी और इसलिये भी कि उसके अन्दर लड़ाकू क्रान्तिकारी   गुण थे। 

 1890 के बाद उद्य़ोग-धंधों में जो बढ़ती दिखाई दी, उसका खास सबब बडे़ पैमाने पर रेलों का बनना था। दस सालों में (1890 से 1900 तक) 2,100 वस्र्त नई रेलें बिछाई गयीं। रेलों की वजह से धातु की भारी मांग हुई (रेलों के लिये, इंजिनों और गाड़ियों के लिये) और ज्यादा तादाद में ईंधन, कोयला और तेल के लिये भी मांग बराबर बढ़ती गयी। इस वजह से धातुओं और ईंधन के उद्योगों का विकास हुआ।

सभी पूंजीवादी देशों की तरह, क्रांति से पहले के रूस में उद्योग-धंधों में बढ़ती के बाद औद्योगिक संकट और ठहराव का जमाना आता था, जिसका गहरा असर मज़दूरों पर पड़ता था और वे लाखों की तादाद में बेकारी और गरीबी के शिकार होते थे।

हालांकि भूदास प्रथा के खात्मे के बाद रूस में पूंजीवाद का विकास काफ़ी तेजी से हुआ, फिर भी आर्थिक विकास में रूस दूसरे पूंजीवादी देशों से काफ़ी पीछे था। जनता का बहुसंख्यक हिस्सा अब भी खेती में लगा हुआ था। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक रूस में पूंजीवाद का विकास में लेनिन ने 1897 की आम जनगणना से महत्वपूर्ण आंकडे दिये थे। इन आंकड़ों से मालूम होता था कि सम्पूर्ण जनता का क़रीब 5/6 भाग खेती में लगा हुआ है और सिर्फ करीब 1/6 हिस्सा बडे़ और छोटे उद्योग-धंधों, व्यापार, रेलों और जल-मार्गों, मकान बनाने के कामों और लकड़ी वगैरह के काम में लगा हुआ है।

इससे मालूम होता है कि हालांकि रूस में पूंजीवाद का विकास हो रहा था, वह अब भी एक खेतिहर, आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ देश एक निम्न पूंजीवादी देश था। यानि, वह एक ऐसा देश था जिसमें छोटी मिल्कियत पर आधारित कम पैदावार वाली निजी खेती की अब भी बहुतायत थी।

पूंजीवाद शहरों में ही नहीं बल्कि देहात में भी विकसित हो रहा था। क्रान्ति से पहले के रूस के सबसे बडे़ वर्ग, किसानों में, भीतर से टूटने, छिन्न्ा-भिन्न्ा होने का एक सिलसिला जारी था। ज्यादा खाते-पीते किसानों से धनी किसानों का एक ऊपरी स्तर पैदा हो रहा था। ये देहात के पूंजीपति थे। दूसरी तरफ़ बहुत से किसान तबाह हो रहे थे और ग़रीब किसानों, देहाती सर्वहारा और अर्द्ध सर्वहारा की तादाद बढ़ रही थी। जहां तक मध्यम किसानों का सवाल था, उनकी संख्या साल दर साल घटती  जाती थी।

1903 में,रूस में क़रीब एक करोड़ किसान कुनबे थे। गांव के ग़रीबों से नाम की अपनी पुस्तिका में, लेनिन ने हिसाब लगाया था कि इस तादाद में कम से कम 35,00,000 कुनबे ऐसे थे जिनके पास घोडे़ नहीं थे। ये सबसे ग़रीब किसान थे जो आम तौर से अपनी ज़मीन का थोड़ा हिस्सा ही बोते थे, बाक़ी धनी किसानों को उठा देते थे और खुद रोजी के लिये दूसरे उपाय तलाश करने निकल पड़ते थे। इन किसानों की हालत सर्वहारा के सबसे नज़दीक थी। लेनिन ने इन्हें देहाती सर्वहारा या अर्द्ध सर्वहारा कहा था।

दूसरी तरफ़, (उन एक करोड़ किसान कुनबों में से) पन्द्रह लाख धनी किसानों के परिवार ऐसे थे जिन्होंने किसानों की कुल खेती की आधी ज़मीन अपने हाथ मेंकर रखी थी। ये देहाती पूंजीपति गरीब और मध्यम किसानों को पीस कर खुद धनी बन रहे थे। वे खेतिहर मजदूरों की जांगर से फ़ायदा उठा रहे थे और देहाती पूंजीपति वन रहे थे।

रूस का मजदूर वर्ग 1870 में ही, खास तौर से 1880 के बाद, और जागने लगा  था और पूंजीपतियों के खिलाफ़ उसने संघर्ष छेड़ दिया था। ज़ारशाही रूस में मजदूरों की जिन्दगी बड़ी ही कठिन थी। 1880 के करीब, मिलों और कारखानों में काम करने का दिन साढ़े बारह घंटे से कम का न था और सूती धंधों में 14 से 15 घंटे तक का हो जाता था। औरतों और बच्चों की मेहनत का शोषण बडे़ पैमाने पर होता था। बच्चे उतने ही घंटे काम करते थे जितने घंटे बड़े, लेकिन औरतों की तरह तनख़ाह बहुत कम पाते थे। मजदूरी बेहद कम दी जाती थी। ज्यादातर मजदूरों को 7 या 8 रूबल माहवार दिया जाता था। धातु के कारखानों और ढलाई घरों के मजदूरों को, जो सबसे ज्यादा तनख़ाह पाते थे, उन्हें 35 रूबल माहवार से ज्यादा मजदूरी न मिलती थी। मज़दूरों की रक्षा करने के लिये कोई भी क़ायदे-कानून नहीं थे। नतीजा यह होता था कि मजदूर भारी तादाद में घायल होते और मारे जाते थे। मज़दूरों का बीमा न होता था और हर तरह की दवा-दारू के लिये उन्हें पैसे देने होते थे। इनके रहने के घरों की हालत भयानक थी। कारखाने की बैरिकों में छोटी-छोटी 'खोलियों' में दस-दस बारह-बारह मजदूरों को ठूंस दिये जाते थे। मजदूरी देने के मामले में कारखानेदार अक्सर मजदूरों को ठगते थे। कारखाने की दूकानों में भारी कीमतें देकर चीजें खरीदने के लिये मजदूरों को मजबूर किया जाता था। और जुर्माने के जरिये उनकी जेबें कतरी जाती थीं।

मज़दूर एकजुट होने लगे और अपनी असह्य परिस्थितियों में सुधार करने के लिये कारखानेदारों के सामने मिली-जुली मांगे रखने लगे। काम बन्द करके, वे हड़तालें करने लगे। 1870 और '80 में जो शुरू-शुरू की हड़तालें हुईं, आम तौर से उनका कारण बेहद जुर्माना, पगार के मामले में मजदूरों को झांसा देना और ठगना तथा मजदूरी की दरों में कमी करना होता था।

इन शुरू की हड़तालों में, मजदूर निराश होकर कभी-कभी मशीनें तोड़ देते थे, कारखानों की खिड़कियां फ़ोड देते थे और कारखानों की दूकानों और उनके दफ्तरों को बर्बाद कर देते थे।

ज्यादा आगे बढ़े हुए मजदूर यह समझने लगे कि पूंजीपतियों के खिलाफ़ संघर्ष में अगर उन्हें सफल होना है तो उन्हें संगठित होना पडे़गा। मजदूरों के यूनियन बनने लगे।

1875 में, दक्षिण रूस के मजदूरों का यूनियन ओदेसा में बना। मज़दूरों का यह पहला संगठन आठ या नौ महीने चला और उसके बाद ज़ार की हुकूमत ने उसे कुचल डाला।

1878 में, रूसी मजदूरों का उत्तरी, यूनियन सेंट पीटर्सबर्ग (पीतरबुर्ग) में बना। इसके नेता खाल्तूरिन, जो बढ़ई था और अबनोस्र्की, जो फ़िटर था, बने। यूनियन के कार्यक्रम के अनुसार, यूनियन के उद्देश्य और ध्येय वैसे ही थे जैसे पच्छिम की सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टियों के। यूनियन का अंतिम घ्येय यह था कि वह समाजवादी क्रांति करे -"मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को खत्म किया जाये जो एक बहुत ही अन्यायपूर्ण व्यवस्था है।" अबनोस्र्की, जो यूनियन के जन्मदाताओं में से था, कुछ समय तक विदेश रह आया था और वहां पर वह मार्क्स वादी सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टियों से और पहली इण्टरनेशनल की कार्यवाहियों से, जिसका संचालन मार्क्स  करते थे, परिचित हो आया था। इस बात की छाप रूसी  मजदूरों के उत्तरी यूनियन के कार्यक्रम पर पड़ी। यूनियन का फ़ौरी उद्देश्य जनता के लिये राजनीतिक स्वाधीनता और राजनीतिक अधिकार (बोलने, अखबार निकालने, सभा करने वगैरह की आज़ादी) हासिल करना था। फ़ौरी मांगों में काम के दिन के घण्टे कम करने की मांग भी शामिल थी।

यूनियन की सदस्यता 200 तक पहुंच गयी और क़रीब इतने ही उसके हमदर्द थे। वह मजदूरों की हड़तालों में हिस्सा लेने लगा, उनका नेतृत्व करने लगा। ज़ार की हुकूमत ने मजदूरों के इस यूनियन को भी कुचल दिया।

लेकिन, मजदूर आन्दोलन एक जिले से दूसरे जिले तक फैलता हुआ बराबर बढ़ता रहा। 1880 के आसपास, बहुत सी हड़तालें हुईं। पांच साल के दौरान (1881 से '86 तक) में 48 हड़तालें हुईं, जिनमें 80,000 मजदूरों ने हिस्सा लिया।

क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका उस बड़ी हड़ताल की थी जो 1885 में अरेखोवोजुयेवो की मोरोजोव मिल में हुई थी।

इस मिल में क़रीब 8,000 मज़दूर काम करते थे। उनके काम करने की हालत दिन पर दिन गिरती जाती थी। 1882 से 84 तक, पांच बार उनकी मज़दूरी में कटौती हुई। 1884 में, मज़दूरी की दरों में एकबारगी 25 फ़ीसदी कमी की गयी। इसके अलावा, कारखानेदार मोरोज़ोव जुर्माने करके मज़दूरों को सताता था। हड़ताल के बाद जो मुकदमा हुआ, उसमें पता चला कि मज़दूर जो भी कमाते थे उसमें से फ़ी रूबल 30 से 50 कोपक तक जुर्माने की शक्ल में कारखानेदार की जेब में चला जाता था। मज़दूर यह डकैती और न सह सके। जनवरी 1885 में, उन्होंने हड़ताल कर दी। हड़ताल का संगठन पहले से ही किया गया था। राजनीतिक तौर से आगे बढे़ हुए मज़दूर प्योत्र मोयरूसेयंको ने उसका नेतृत्व किया। वह रूसी मजदूरों के उत्तरी यूनियन का सदस्य रह चुका था और उसे थोड़ा बहुत क्रांतिकारी अनुभव हासिल था। हड़ताल शुरू होने से पहले मोयरूसेयंको और दूसरे बुनकरों ने जो ज्यादा वर्ग-चेतन थे, मिल-मालिक के सामने पेश करने के लिये कुछ मांगें तैयार कीं। मज़दूरों की एक गुप्त सभा में इन का अनुमोदन किया गया। खास मांग बेहिसाब जुर्मानों को खत्म करने की थी।

हथियारबन्द शक्ति से इस हड़ताल को दबाया गया। 600 से ऊपर मज़दूर पकड़ लिये गये और बीसों को मुकदमा चलाने के लिये बन्द कर रखा गया।

इसी तरह की हड़तालें 1885 में इवानोवो-वज़नेसेंस्क में हुईं।

मज़दूर आन्दोलन की बढ़ती से डर कर, अगले साल ज़ार सरकार को मजबूरन जुर्मानों के बारे में एक कानून बनाना पड़ा। कानून यह था कि जुर्माने से जो पैसा मिले वह कारखानेदारों की जेबों में न जाये बल्कि खुद मज़दूरों की ज़रूरतों में लगाया जाये।

मोरोज़ोव मिल और दूसरी जगह की हड़तालों ने मज़दूरों को सिखा दिया कि संगठित होकर संघर्ष करने से बहुत कुछ हासिल हो सकता है। मज़दूर आन्दोलन ऐसे योग्य नेता और संगठनकर्ता पैदा करने लगा जो दृढ़ता के साथ मज़दूर वर्ग के हितों का समर्थन करते थे।

इसके साथ ही मज़दूर आन्दोलन की बढ़ती के आधार पर और पच्छिमी यूरोप के मज़दूर आन्दोलन के असर से, रूस में पहले मार्क्स वादी संगठन बनने लगे।

 

2.     रूस में नरोद्वाद (लोकवाद) और मार्क्सवाद। प्लेखानोव और उसका 'मजदूर उद्धारक' गुट। लोकवाद के खिलाफ़ प्लेखानोव का संघर्ष। रूस में मार्क्सवाद का फैलना।

मार्क्सवादी गुटों के जन्म लेने से पहले रूस में क्रांतिकारी काम लोकवादी किया करते थे। ये लोग मार्क्सवाद के विरोधी थे। पहला रूसी माक्र्सवादी गुट 1883 में बना। यह 'मजदूर उद्धारक' गुट था, जिसे  .. प्लेखानोव ने रूस के बाहर जिनेवा में बनाया था। क्रांतिकारी काम की वजह से, ज़ार सरकार के दमन से बचने के लिये वहां उसे मजबूरन जाना पड़ा था।

पहले प्लोखानोव खुद भी लोकवादी था। लेकिन विदेश में माक्र्सवाद का अध्ययन करने के बाद, उसने लोकवाद से नाता तोड़ लिया और माक्र्सवाद का श्रेष्ठ प्रचारक बन गया।

'मज़दूर उद्वारक' गुट ने रूस में माक्र्सवाद फैलाने में बहुत कुछ किया। इस गुट के लोगों ने माक्र्स और एंगेल्स की पुस्तकों का रूसी में अनुवाद किया। इन किताबों में कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, मजूरी और पूंजी, समाजवाद-काल्पनिक और वैज्ञानिक आदि थीं। उन्होंने इन किताबों को बाहर छपवाया और गुप्त रूप से रूस में बंटवाया। प्लेखानोव, जासूलिच, ऐक्सेलरोद और इस गुट के दूसरे लोगों ने माक्र्स और एंगेल्स के सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए, वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों की व्याख्या करते हुए, कई पुस्तकें भी लिखीं।

सर्वहारा वर्ग के महान् शिक्षक माक्र्स और एंगेल्स ने सबसे पहले बतलाया था कि काल्पनिक समाजवादियों के मत के खिलाफ समाजवाद सपना देखनेवालों (कल्पनावादियों) का स्वप्न नहीं है, बल्कि आधुनिक पूंजीवादी समाज के विकास का लाजिमी नतीजा है। उन्होंने दिखलाया था कि पूंजीवादी व्यवस्था वैसे ही खत्म होगी जैसे भूदास प्रथा खत्म हुई थी और यह कि सर्वहारा वर्ग के रूप में पूंजीवाद अपनी कब्र खोदने वाले पैदा कर रहा था। उन्होंने दिखाया था कि सर्वहारा का वर्ग-संघर्ष ही, पूंजीपतियों पर सर्वहारा की विजय ही, मनुष्य मात्र को पूंजीवाद और शोषण से मुक्त करेगी।

माक्र्स और एंगेल्स ने सर्वहारा वर्ग को सिखलाया था कि वह अपनी ताकत पहचाने, अपने वर्ग-हित पहचाने और पूंजीपतियों के खिलाफ़ जमकर संघर्ष करने के लिये एक हो। माक्र्स और एंगेल्स ने पूंजीवादी समाज के विकास के नियमों का पता लगाया और वैज्ञानिक ढंग से साबित किया कि पूंजीवादी समाज के विकास से और उसके अन्दर चलनेवाले वर्ग-संघर्ष से लाजिमी तौर पर पूंजीवाद का नाश गा, सर्वहारा की विजय होगी, सर्वहारा वर्ग की डिक्टेटरशिप कायम होगी। माक्र्स और एंगेल्स ने सिखलाया था कि शान्तिपूर्ण ढंग से पूंजी की ताकत से छुटकारा पाना और पूंजीवादी सम्पत्ति को जन-संपत्ति बनाना असंभव है। उन्होंने सिखलाया था कि मजदूर वर्ग यह काम पूंजीपतियों के खिलाफ़ क्रंातिकारी हिंसा के जरिये, सर्वहारा क्रान्ति के  जरिये ही कर सकता है, अपनी राजनीतिक हुकूमत - सर्वहारा वर्ग की डिक्टेटरशिप - कायम करके ही कर सकता है, जो शोषकों के विरोध को कुचल दे और एक नये, वर्गहीन कम्युनिस्ट समाज का निर्माण करे।

माक्र्स और एंगेल्स ने सिखाया था कि पूंजीवादी समाज में औ़द्योगिक सर्वहारा वर्ग सबसे क्रान्तिकारी और इसलिये सबसे आगे बढ़ा हुआ वर्ग है और सर्वहारा जैसा वर्ग ही पूंजीवाद से असंतुष्ट तमाम ताकतों को अपने चारों तरफ बटोर सकता है और पूंजीवाद पर हल्ला बोलने के लिये उनका नेतृत्व कर सकता है। लेकिन, पुरानी दुनिया को पछाड़ने और नये वर्गहीन समाज का निर्माण करने के लिये यह जरूरी है कि सर्वहारा की अपनी मजदूर वर्ग की पार्टी हो, जिसे माक्र्स और एंगेल्स कम्युनिस्ट पार्टी कहते थे।

रूस के पहले माक्र्सवादी गुट, प्लेखानोव के 'मजदूर उद्धारक' गुट ने माक्र्स और एंगेल्स के मत का प्रचार करने का काम उठाया था।

 'मजदूर उद्धारक' गुट ने विदेश के रूसी अखबारों में माक्र्सवाद का झंडा उस समय ऊंचा किया जब कि रूस में कोई सोशल-डेमोक्रेटिक (सामाजिक-जनवादी) आन्दोलन जन्म नहीं ले पाया था। पहले जरूरी था कि इस तरह के आन्दोलन के लिये सिद्धांतों और विचारधारा की जमीन तैयार की जाये। माक्र्सवाद और सोशल-डेमाक्रेटिक आन्दोलन के फैलने में विचारधारा सम्बन्धी खास अड़चन लोकवादी मत था, जो उस समय आगे बढे़ हुए मजदूरों और क्रान्तिकारी रुझान रखनेवाले बुद्धिजीवियों में फैला हुआ था।

रूस में जब पूंजीवाद का विकास हुआ तो मजदूर वर्ग एक ताकतवर और आगे बढ़ी हुई शक्ति बना, जो इस योग्य था कि संगठित होकर क्रान्तिकारी लड़ाई लड़ सके। लेकिन, लोकवादी मजदूर वर्ग के नेतृत्व की भूमिका न समझते थे। रूसी लोकवादी ग़लती से समझते थे कि मुख्य क्रान्तिकारी ताकत मजदूर वर्ग नहीं बल्कि किसान हैं और ज़ार और जमींदारों का शासन किसानों के विद्रोह से खत्म किया जा सकता है। लोकवादी मजदूर वर्ग से परिचित नहीं थे और यह महसूस नहीं करते थे कि मजदूर वर्ग से मैत्री किये बिना और उसके मार्ग-दर्शन के बिना अकेले किसान ज़ारशाही और जमींदारों को परास्त नहीं कर सकते। लोकवादी नहीं समझते थे कि मजदूर वर्ग समाज का सबसे क्रान्तिकारी और सबसे आगे बढ़ा हुआ वर्ग है।

लोकवादियों ने पहले कोशिश की कि ज़ार सरकार के खिलाफ़ संघर्ष करने के लिये किसानों को उभारें। इस उद्देश्य से नौजवान क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों ने किसानों की पोशाक पहनी और देहातों की तरफ गये-'जनता की ओर', जैसा कि कहा जाता था। इसीलिये उनका नाम नरोद, जनता से 'नरोद्निक' पड़ा। लेकिन किसानों में उन्हें समर्थन करनेवाले नहीं मिले, क्योंकि किसानों की भी सही जानकारी या समझ उनमें नहीं थी। उनमें से अधिकांश को पुलिस ने पकड़ लिया। इस पर, लोकवादियों ने तय किया कि निरंकुश ज़ारशाही के खिलाफ़ वे अकेले, जनता के बिना ही लड़ेंगे। इससे और भी भारी ग़लतियां हुईं।

'नरोद्नाया वोल्या' ('जनता की इच्छा') नाम की एक गुप्त लोकवादी संस्था ज़ार की हत्या का षड़यंत्र करने लगी। पहली मार्च, 1881 को 'नरोद्नाया वोल्या' के सदस्य ज़ार अलेक्जेण्डर द्वितीय को बम से मारने में सफल हुए। लेकिन, इससे जनता का कुछ भी भला नहीं हुआ। इक्का-दुक्का आदमियों की हत्या से निरंकुश ज़ारशाही का खात्मा न हो सकता था, न जमींदार वर्ग निर्मूल किया जा सकता था। मारे हुए ज़ार के बदले, दूसरा जार अलेक्जेण्डर तृतीय आ गया, जिसकी हुकूमत में मजदूरों और किसानों की हालत और बदतर हो गयी।

लोकवादियों ने ज़ारशाही का मुकाबिला करने के लिये इक्का-दुक्का व्यक्तियों की हत्या करने का व्यक्तिगत आतंकवाद का जो रास्ता अपनाया था, वह गलत था और क्रान्ति के लिये हानिकर था। व्यक्तिगत आतंकवाद की नीति इस गलत लोकवादी सिद्धांत पर टिकी हुई थी कि कुछ लोग सक्रीय 'वीर' होते हैं और बाकी जनता निष्क्रिय 'भेड़ियाधसान' होती है, जो 'वीरों' से आशा करती है कि वे बड़े- बड़े  काम करें। इस गलत सिद्धांत का दावा था कि कुछ बड़े आदमी ही इतिहास बनाते हैं जबकि आम जनता, आवाम, वर्ग, 'भेडियाधसान' - जैसा कि लोकवादी लेखक उसे नफ़रत से कहते थे - इस बात के अयोग्य है कि सचेत और संगठित होकर काम कर सके। लोग अन्धे होकर 'वीरों' के पीछे ही चल सकते हैं। इस वजह से, लोकवादियों ने किसानों में और मजदूर वर्ग में आम क्रान्तिकारी काम करना छोड़ दिया और व्यक्तिगत आतंकवाद का रास्ता अपनाया। उस समय के एक बहुत ही प्रसिद्ध क्रान्तिकारी खाल्तूरिन को उन्होंने मना लिया कि वह क्रान्तिकारी मज़दूरों के यूनियन का संगठन करना छोड़ दे और सारा समय आतंकवाद में लगाये।

शोषक वर्ग के इक्का-दुक्का प्रतिनिधियों की इन हत्याओं से, ऐसी हत्याओं से जिनसे क्रान्ति को कोई फायदा न होता था, लोकवादियों ने मेहनतकश जनता का ध्यान उस समूचे वर्ग के खिलाफ़ संघर्ष से हटाया। मजदूर वर्ग और किसानों की क्रान्तिकारी पहल और कार्यवाही के विकास में उन्होंने अड़चन डाली।

लोकवादियों ने क्रान्ति में अपनी प्रमुख भूमिका पहचानने से मजदूर वर्ग को रोका और मजदूर वर्ग की स्वतंत्र पार्टी बनने में बिलंब पैदा किया।

हालांकि ज़ार सरकार ने लोकवादियों का गुप्त संगठन कुचल दिया था, लेकिन लोकवादी विचार क्रान्तिकारी रुझान के बुद्धिजीवियों में बहुत दिनों तक कायम रहे। बचे हुए लोकवादियों ने रूस में माक्र्सवाद के प्रसार का डट कर विरोध किया और मजदूर वर्ग के संगठन में बाधा डाली।

इसलिये, रूस में लोकवाद का मुकाबिला करके ही माक्र्सवाद बढ़ सकता था और शक्तिशाली बन सकता था।

'मजदूर उद्धारक' गुट ने लोकवादियों के गलत विचारों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी। उसने दिखाया कि उनके विचार और संघर्ष के तरीके मजदूर आन्दोलन के लिये कितने ज्यादा अहितकर हैं।

लोकवादियों के खिलाफ़ अपनी रचनाओं में, प्लेखानोव ने दिखाया कि उनके विचार और वैज्ञानिक समाजवाद में कोई भी समानता नहीं है, हालांकि वे अपने को समाजवादी कहते थे।

सबसे पहले प्लेखानोव ने लोकवादियों के गलत विचारों की माक्र्सवादी आलोचना की। लोकवादी धारणाओं पर अचूक हमला करते हुए, प्लेखानोव ने साथ-साथ माक्र्सवादी विचारों का सुन्दर प्रतिपादन भी किया।

लोकवादियों की मुख्य भूलें क्या थीं, जिन पर प्लेखानोव ने ऐसा घातक हमला किया?

पहले तो लोकवादियों का दावा था कि रूस में पूंजीवाद एक 'आकस्मिक' वस्तु है, वह विकसित न होगा और इसलिये सर्वहारा वर्ग भी न बढे़गा, न विकसित होगा।

दूसरे, लोकवादी मजदूर वर्ग को क्रान्ति का प्रमुख वर्ग न मानते थे। वे सर्वहारा वर्ग के बिना समाजवाद हासिल करने का सपना देखते थे। वे समझते थे कि प्रमुख क्रान्तिकारी शक्ति किसान हैं - जिनका नेतृत्व बुद्धिजीवी करेंगे - और किसानों के कम्यून हैं जिन्हें वे समाजवाद का बीज और बुनियाद समझते थे।

तीसरे, मानव इतिहास के समूचे क्रम के बारे में लोकवादी विचार गलत और हानिकर थे। वे समाज के आर्थिक और राजनीतिक विकास के नियमों को न जानते थे, न समझते थे। इस मामले में वे बिल्कुल पिछडे़ हुए थे। उनके हिसाब से इतिहास का निर्माण वर्गों के द्वारा न होता था और वर्गों के संघर्ष द्वारा न होता था, बल्कि महापुरुषों द्वारा, 'वीरों' द्वारा होता था, जिनके पीछे आम जनता, 'भेड़ियाधसान', अवाम, वर्ग आंख मंूद कर चलते थे।

लोकवादियों का विरोध और खंडन करते हुए, प्लेखानोव ने कई माक्र्सवादी पुस्तकें रचीं जिन्हें पढ़ कर रूस के माक्र्सवादी बढे़े और शिक्षित हुए। समाजवाद और राजनीतिक संघर्ष, हमारे मतभेद, इतिहास के प्रति एक सत्तावादी दृष्टिकोण का विकास जैसी उसकी पुस्तकों ने रूस में माक्र्सवाद की जीत के लिये रास्ता साफ किया। प्लेखानोव ने अपनी रचनाओं में माक्र्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। 1895 में प्रकाशित इतिहास के प्रति एक सत्तावादी दृष्टिकोण का विकास नाम की पुस्तक खास तौर से महत्वपूर्ण थी। लेनिन का कहना था कि इस पुस्तक को पढ़कर "रूसी माक्र्सवादियों की पूरी एक पीढ़ी तैयार हुई है।" (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड14, पृ. 347)।

 

लोकवादियों के खिलाफ़ अपनी रचनाओं में, प्लेखानोव ने दिखलाया कि लोकवादी जिस तरह से सवाल करते थे कि 'रूस में पूंजीवाद का विकास हो या न हो'- यह सवाल करने का ढंग ही गलत था। प्लेखानोव ने कहा कि दरअसल रूस पूंजीवादी विकास के रास्ते पर पहले ही चल पड़ा था। उसने तथ्य देकर यह साबित किया और बताया कि ऐसी कोई ताकत नहीं है जो उसे इस रास्ते से हटा सके।

 

क्रांतिकारियों का यह काम न था कि रूस में पूंजीवाद के विकास को रोकें, यह तो वे किसी तरह भी न कर सकते थे। उनका काम यह था कि पूंजीवाद के विकास ने जिस ताकतवर क्रान्तिकारी शक्ति को, यानी मजदूर वर्ग को जन्म दिया था, उसका समर्थन प्राप्त करें, उसकी वर्ग-चेतना को विकसित करें, उसे संगठित करें और उसकी अपनी मज़दूर वर्ग की पार्टी बनाने में मदद करें।

प्लेखानोव ने लोकवादियों की दूसरी मुख्य ग़लती का भी खण्डन किया कि क्रान्तिकारी संघर्ष में सर्वहारा वर्ग हिरावल की भूमिका अदा नहीं करेगा। लोकवादी रूस में सर्वहारा के उत्थान को 'ऐतिहासिक दुर्घटना' जैसी चीज समझते थे और 'सर्वहारावाद के नासूर' की बातें किया करते थे। माक्र्सवाद के सिद्धांतों का समर्थन करते हुए, प्लेखानोव ने दिखाया कि वे रूस पर पूरी तरह लागू हो  सकते हैं और तादाद में किसानों के बहुत  ज्यादा होने पर भी और सर्वहारा वर्ग के संख्या में निस्बतन कम होने पर भी, क्रान्तिकारियों को अपनी मुख्य आशाएं सर्वहारा वर्ग और उसकी बढ़ती पर ही आधारित करनी चाहिये।

सर्वहारा वर्ग पर ही क्यों?

इसलिये कि हालांकि सर्वहारा वर्ग अभी तादाद में कम था, लेकिन वह मेहनतकश वर्ग था जिसका सम्बन्ध आर्थिक व्यवस्था के सबसे आगे बढे़ हुए रूप से बडे़ पैमाने की पैदावार से था और इस वजह से जिसका भविष्य महान् था।

इसलिये कि वर्ग रूप में सर्वहारा साल दर साल बढ़ रहा था, राजनीतिक रूप से विकसित हो रहा था। बडे़ पैमाने की पैदावार में मजदूरी की हालत की वजह से, वह आसानी से संगठित किया जा सकता था। अपनी सर्वहारा स्थिति की वजह से, वह सबसे क्रान्तिकारी वर्ग था क्योंकि क्रान्ति में सिवाय अपनी जंजीरों के उसके पास खोने के लिये और कुछ न था।

किसानों की हालत इससे भिन्न्ा थी।

किसान (यहां पर व्यक्तिगत खेती करने वाले किसानों से मतलब है, जो अपने लिये अलग-अलग काम करते थे - सम्पादक) तादाद में ज्यादा होने पर भी मेहनतकश वर्ग थे, जो आर्थिक व्यवस्था के सबसे पिछड़े हुए रूप, छोटे पैमाने की पैदावार से सम्बन्धित थे, जिसकी वजह से उनके सामने न तो महान् भविष्य था और न हो सकता था।

वर्ग रूप में बढ़ना तो दरकिनार, किसान अधिकाधिक पूंजीपतियों (धनी किसानों) और ग़रीब किसानों (सर्वहारा और अर्द्ध सर्वहारा) में बंट रहे थे। इसके सिवा, बिखरे होने की वजह से, सर्वहारा के मुकाबिले में वे कम आसानी से संगठित किये जा सकते थे और छोटे मालिक होने की वजह से, सर्वहारा के मुकाबिले में वे कम तत्परता से क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल होते थे।

लोकवादियों का दावा था कि रूस में समाजवाद सर्वहारा डिक्टेटरशिप से न आयेगा बल्कि किसानों के कम्यून से आयेगा, जिसे वे समाजवाद का बीज और बुनियाद समझते थे। लेकिन, कम्यून समाजवाद का बीज और बुनियाद न था और न हो सकता था क्योंकि उस पर धनी किसान हावी थे। ये धनी किसान वह जोंक थे जो गरीब किसानों, खेत मजदूरों और आर्थिक रूप से कमजोर मध्यम किसानों का शोषण करते थे। जमीन पर सामूहिक मिल्कियत का दिखावा होने से और हर किसान कुनबे में खानेवालों की तादाद के हिसाब से समय-समय पर जमीन का बंटवारा होने से हालत में कोई फर्क न पड़ता था। कम्यून के वे सदस्य जिनके पास मवेशी थे, हल-माची और बीज थे, यानी खाते-पीते मध्यम और धनी किसान जमीन जोत-बो सकते थे। जिनके पास घोडे़ नहीं थे, ऐसे ग़रीब किसान और आमतौर से छोटे किसान मजबूरन अपनी जमीन धनी किसानों के हवाले करते थे और खेत मज़दूरों के तौर पर कुलीगीरी करते थे। हकीकत यह थी कि किसानों का कम्यून धनी किसानों के प्रभुत्व को छिपाने के लिये बहुत बढ़िया साधन था। सामूहिक जिम्मेदारी के आधार पर किसानों से टैक्स वसूल करने के लिये ज़ार सरकार के हाथ में कम्यून बिना पैसे-टके का साधन था। यही सबब था कि ज़ारशाही ने किसानों के कम्यून को बरकरार रहने दिया था। इस तरह के कम्यून को समाजवाद का बीज या बुनियाद समझना बेहुदा बात थी।

 

प्लेखानोव ने लोकवादियों की तीसरी मुख्य गलती का भी खण्डन किया, जिसके अनुसार महापुरुष, 'वीर' और उनके विचार समाज के विकास में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं और जनता, 'भेडियाधसान', अवाम, वर्गों की भूमिका महत्वहीन होती है। प्लेखानोव ने लोकवादियों पर भाववाद का जुर्म लगाया और दिखाया कि सच्चाई भाववाद में नहीं है, बल्कि माक्र्स और एंगेल्स के भौतिकवाद में है।

प्लेखानोव ने माक्र्सवादी भौतिकवाद के मत का समर्थन किया और उसकी व्याख्या की। माक्र्सवादी भौतिकवाद के अनुकूल, उसने दिखाया कि कुल मिलाकर समाज का विकास महापुरुषों की इच्छाओं और विचारों से नहीं, बल्कि समाज के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियों के विकास और समाज के अस्तित्व के लिये जो भौतिक मूल्य जरूरी हैं उनकी पैदावार के तरीकों में तब्दीली से निश्चित होता है। समाज का विकास भौतिक मूल्यों की पैदावार में वर्गों के आपसी सम्बन्धों में तब्दीली और भौतिक मूल्यों की पैदावार, उन्हें बांटने में स्थान तथा सुविधा के लिये वर्गों के संघर्ष से निश्चित होता है। इंसानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति विचारों से निश्चित नहीं होती, बल्कि उनके विचार उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति से निश्चित होते हैं। महापुरुषों के विचार और उनकी इच्छायें समाज के आर्थिक विकास के खिलाफ जायें, प्रमुख वर्ग की जरूरतों के खिलाफ जायें तो महापुरुष नगण्य हो सकते हैं। इसके विपरीत, महापुरुष दरअसल महान् पुरुष बन सकते हैं अगर उनके विचार और इच्छायें समाज के आर्थिक विकास की जरूरतों को, प्रमुख वर्ग की जरूरतों को ठीक-ठीक जाहिर करें।

लोकवादियों के इस दावे के जवाब में कि जनता भेड़ियाधसान छोड़कर और कुछ नहीं है और इतिहास का निर्माण करना और भेड़ियाधसान को जनता बनाना वीरों का काम है, माक्र्सवादियों ने कहा कि इतिहास का निर्माण वीर नहीं करते बल्कि वीरों का निर्माण इतिहास करता है। इसलिये, वीर लोग जनता को नहीं बनाते बल्कि जनता वीरों को उत्पन्न्ा करती है और इतिहास को आगे बढ़ाती है। वीर, महापुरुष समाज के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका वहीं तक अदा कर सकते हैं जहां तक वे समाज के विकास की परिस्थितियांे को और उन्हें भले के लिये बदलने के तरीकों को ठीक-ठीक समझ सकते हैं। वीर, महापुरुष हास्यास्पद बन सकते हैं और, बुरी तरह असफल हो सकते हैं अगर वे समाज के विकास की परिस्थितियों को ठीक-ठीक न समझें और इस घमण्ड में कि वे इतिहास के 'निर्माता' हैं, अगर वे समाज की ऐतिहासिक जरूरतों के खिलाफ जायें।

इसी तरह के अभागे वीरों की श्रेणी में लोकवादी थे।

 

प्लेखानोव की रचनाओं ने और लोकवादियों के खिलाफ उसके संघर्ष ने क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों पर उनके असर को पूरी तरह कमजोर कर दिया। लेकिन, विचार धारा की दृष्टि से लोकवाद का ध्वंस अभी पूरा नहीं हुआ था। लोकवाद को माक्र्सवाद का दुश्मन साबित करना और उस पर आखिरी चोट करना लेनिन का ही काम था।

'नरोद्नाया वोल्या' पार्टी के दबाये जाने के तुरंत बाद ही, अधिकांश लोकवादियों ने ज़ार सरकार के खिलाफ़ क्रान्तिकारी संघर्ष बन्द कर दिया और उससे समझौते और मेल-मिलाप की नीति का प्रचार करने लगे। 1880 और '90 में लोकवादी धनी किसानों के हितों के हामी हो गये।

'मजदूर उद्धारक' गुट ने रूसी सोशल-डेमोक्रेटों के लिये कार्यक्रम के दो मसौदे तैयार किये, (पहला 1884 में और दूसरा 1887 में)। रूस में माक्र्सवादी सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी के निर्माण में यह बहुत ही महत्वपूर्ण तैयारी का कदम था।

लेकिन इसके साथ ही, 'मजदूर उद्धारक' गुट ने कुछ बहुत ही संगीन गलतियां भी की थीं। उसके कार्यक्रम के पहले मसौदे में लोकवादी विचारों के अवशेष मौजूद थे। व्यक्तिगत आतंकवाद की कार्यनीति उसने रहने दी थी। इसके अलावा, प्लेखानोव ने इस बात पर ध्यान न दिया था कि क्रान्ति के दौर में सर्वहारा वर्ग किसानों का नेतृत्व कर सकता है और उसे करना चाहिये और किसानों के साथ मिलकर ही सर्वहारा वर्ग ज़ारशाही पर विजयी हो सकता है। इसके सिवा, प्लेखानोव का विचार था कि उदारपंथी पूंजीपति एक ऐसी ताकत हैं जो क्रांति को मदद दे सकते हैं, भले ही यह मदद अस्थिर हो। जहां तक किसानों का सवाल था, अपनी कुछ रचनाओं में उसने उन्हें दरकिनार ही कर दिया था। मिसाल के लिये, उसने कहा था:

"पूंजीपतियों और सर्वहारा के अलावा, हमें अपने देश में ऐसी सामाजिक शक्ति नहीं दिखायी देती जिससे क्रांतिकारी या विरोधी जमातों को मदद मिले।" (प्लेखानोव ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 3, पृष्ठ 119)।

ये ग़लत धारणायें प्लेखानोव के भावी मेन्शेविक विचारों का बीज थीं।

न तो 'मजदूर उद्धारक' गुट और न उस समय के माक्र्सवादी हल्कों का ही मजदूर आन्दोलन से कोई अमली सम्बन्ध क़ायम हो पाया था। यह वह जमाना था जब माक्र्सवाद के सिद्धांत, माक्र्सवाद के विचार और सोशल-डेमोक्रेटिक कार्यक्रम के उसूल प्रकट ही हो रहे थे और रूस में पैर जमा रहे थे। 1884-'94 के दशक में, सोशल-डेमोक्रेटिक आन्दोलन अलग-अलग छोटे गुटों और मंडलों के रूप में ही था। इनका आम मजदूर आन्दोलन से कोई लगाव न था, या बहुत ही कम लगाव था। उस शिशु की तरह जो अभी पैदा न हुआ हो लेकिन मां के गर्भ में बढ़ रहा हो, सोशल-डेमोक्रेटिक आन्दोलन, जैसा कि लेनिन ने लिखा था, "गर्भ रूप में विकसित होने की हालत में था।"

लेनिन का कहना था कि 'मजदूर उद्धारक' गुट ने "सोशल-डेमोक्रेटिक आन्दोलन की सिर्फ़ सैद्धांतिक नींव डाली और मजदूर आन्दोलन की तरफ़ पहले कदम उठाये।"

रूस में माक्र्सवाद और मजदूर आन्दोलन को मिलाने का काम और 'मजदूर उद्धारक' गुट की ग़लतियों के सुधारने का काम लेनिन के कंधों पर पड़ा।

 

3.     लेनिन की क्रान्तिकारी कार्यवाही की शुरुआत। मज़दूर वर्ग

के मुक्ति-संग्राम का सेंट पीटर्सबर्ग (पीतरबुर्ग) संघ।

ब्लादिमीर इलिच उलियानोव (लेनिन) बोलशेविज्म के जन्मदाता, 1870 में सिम्बिस्र्क नाम के शहर में (जो अब उलयानोव्स्क कहलाता है) पैदा हुए थे। 1887 में लेनिन कजान विश्वविद्यालय में दाखिल हुए, लेकिन क्रांतिकारी विद्यार्थी आन्दोलन में हिस्सा लेने के कारण उन्हें तुरंत ही गिरफ्तार किया गया और विश्वविद्यालय सेनिकाल दिया गया। कज़ान में लेनि एक माक्र्सवादी मण्डल में शामिल हुये, जिसे फेदोसेयेव नाम के व्यक्ति ने बनाया था। बाद में लेनिन समारा पहंुचे और जल्द ही उस शहर में पहला माक्र्सवादी मंडल क़ायम हुआ, जिसके केन्द्र लेनिन थे। उन दिनों में भी माक्र्सवाद सम्पूर्ण ज्ञान से लेनिन हरेक को चकित कर देते थे।

1893 के अंत में, लेनिन पीतरबुर्ग चले आये। उस शहर के माक्र्सवादी मण्डलों के सदस्य उनके शुरू के भाषणों से ही बहुत प्रभावित हुए। लेनिन ने माक्र्स का अभूतपूर्व ढंग से गहरा अध्ययन किया था। उनमें उस समय के रूस की आर्थिक और राजनीतिक हालत पर माक्र्सवाद लागू करने की क्षमता थी। मजदूो के ध्येय की जीत में उनका विश्वास अटल और अडिग था। एक संगठनकर्ता के रूप में उनकी प्रतिभा अपूर्व थी। इन सब कारणों से, लेनिन पीतरबुर्ग के माक्र्सवादियों के जाने-माने नेता बन गये।

लेनिन ने मण्डलों में जिन मज़दूरों को शिक्षा दी और जो राजनीतिक रूप से आगे बढ़े हुए थे, उनके दिलों में लेनिन के लिये बेहद प्यार था।

मज़दूरों के मण्डलों में लेनिन के शिक्षा-कार्य को याद करते हुए, बबूश्किन नाम का मजदूर कहता है: "हमारे व्याख्यान बहुत ही दिलचस्प और सजीव होते थे। इन व्याख्यानों से हम सभी लोग बहुत खुश होते थे और अपने व्याख्यानदाता की बु़िद्धमानी पर मुग्ध थे।"

1895 में, लेनिन ने पीतरबुर्ग के सभी माक्र्सवादी मज़दूर-मण्डलों को एक किया। (उस वक्त भी उनकी तादाद बीस के लगभग थी) और, उनसे मिलाकर मज़दूर वर्ग के मुक्ति-संग्राम का संघ बनाया। इस तरह, उन्होंने एक क्रांतिकारी माक्र्सवादी मजदूर पार्टी की नींव डालने का रास्ता तैयार किया।

लेनिन ने मुक्ति-संग्राम संघ के सामने यह काम रखा कि आम मजदूर आन्दोलन के साथ और नज़दीकी सम्बन्ध कायम किया जाये और उसे राजनीतिक नेतृत्व दिया जाये। लेनिन ने यह प्रस्ताव रखा कि प्रचार-मण्डलों में रजनीतिक रूप से आगे बढे़ हुए जो थोडे़ से मजदूर आते थे, उनमें माक्र्सवाद का प्रचार करने से बढ़ कर सामयिक समस्याओं पर आम मजदूरों में राजनीतिक आन्दोलन की तरफ चला जाये। रूस में मजदूर आन्दोलन के विकास के लिये, जन आन्दोलन की तरफ़ यह मोड़ बहुत ही महत्वपूर्ण था।

1890 का ज़माना औद्योगिक बढ़ती का जमाना था। मजदूरों की तादाद बढ़ रही थी। मजदूर आन्दोलन शक्तिशाली बन रहा था। 1895-'99 के सालों में, अधूरे आंकड़ांे के अनुसार, 2,21,000 से ज्यादा मजदूरों ने हड़तालों में हिस्सा लिया। देश के राजनीतिक जीवन में मजदूर आन्दोलन महत्वपूर्ण शक्ति बन रहा था। घटनाक्रम उस मत का समर्थन कर रहा था जिसे माक्र्सवादियों ने लोकवादियों के खिलाफ पेश किया था, यानी यह कि क्रान्तिकारी आन्दोलन में मज़दूर वर्ग प्रमुख भूमिका दा कर रहा था।

लेनिन के निर्देश से मजदूर वर्ग के मुक्ति-संग्राम संघ ने आर्थिक मांगों के लिये मज़दूरों के संघर्ष को - मजदूरी करने की हालतों में सुधार, काम के घन्टों में कमी और मजदूरी बढ़ाने के संघर्ष को ज़ारशाही के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष से जोड़ दिया।

लेनिन की देख-रेख में, मजदूर वर्ग के मुक्ति-संग्राम का पीतरबुर्ग संघ रूस में पहली संस्था थी जो समाजवाद को मज़दूर आन्दोलन से जोड़ने लगी। जब किसी कारखाने में हड़ताल होती थी, तब मुक्ति-संग्राम संघ परचे निकाल कर और समाजवादी ऐलान निकाल कर तुरंत उसकी हिमायत करता था। अपने मण्डल के सदस्यों के जरिये, उसे अच्छी तरह पता रहता था कि कारखानों में कहां क्या हो  रहा है। ये परचे कारखानेदारों द्वारा मज़दूरों को सताने का भण्डाफोड़ करते थे। वे बतलाते थे कि मजदूरों को अपने हितों के लिये किस तरह लड़ना चाहिये और वे मजदूरों की मांग पेश करते थे। इन परचों में पूंजीवाद के नासूर के बारे में साफ़ बातें कही जाती थीं। इसमें मजदूरों की गरीबी, 12 से 14 घन्टों तक उनके असहनीय कठिन काम करने के दिन और अधिकारों के एकदम अभाव की चर्चा होती थी। वे उचित मांगें भी पेश करते थे। मजदूर बबूश्किन के सहयोग से, लेनिन ने 1894 के अंत में इस तरह का पहला आन्दोलनकारी पर्चा लिखा और पीतरबुर्ग में सेम्यानिकोव कारखाने के हड़ताली मज़दूरों के नाम अपील निकाली। 1895 की शरद् में, लेनिन ने थाॅर्नटन मिलों के मर्द-औरत हड़तालियों के लिये एक पर्चा लिखा। ये मिलें अंग्रेज मालिकों की थी, जो इनसे लाखों का मुनाफा काट रहे थे। इन मिलों में काम करने का दिन चैदह घन्टों से भी ज्यादा का होता था, जब कि एक बुनकर की तनख्वाह 7 रूबल माहवार के करीब होती थी। मजदूर हड़ताल में जीत गये। थोडे़ ही वक़्त में, मुक्ति-संग्राम संघ ने इस तरह के दर्जनों पर्चे और अपीलें विभिन्न्ा कारखानों के मजदूरों के लिये छापीं। मजदूरों के मन को दृढ़ करने में हर पर्चे ने बहुत काम किया। उन्होंने देखा कि समाजवादी उनकी मदद कर रहे हैं और उनका समर्थन कर रहे हैं।

1896 की गर्मी में, पीतरबुर्ग में, मुक्ति-संग्राम संघ के नेतृत्व में 30,000 सूती मजदूरों की हड़ताल हुई। इनकी मुख्य मांग काम के घन्टे कम करने की थी। इस हड़ताल ने 2 जून 1897 को ज़ार सरकार को एक कानून बनाने के लिये मजबूर किया, जिससे काम करने का दिन साढ़े ग्यारह घंटों का तय हुआ। इससे पहले, काम करने के दिन पर किसी तरह की पाबन्दी न थी।

दिसम्बर 1895 में, जार सरकार ने लेनिन को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन, जेल में भी उन्होंने अपना क्रांतिकारी काम बन्द नहीं किया। सलाह और निर्देश देकर, वह मुक्ति-संग्राम संघ की मदद करते रहे और उसके लिये पुस्तिकायें और पर्चे लिखते रहे। वहां पर उन्होंने हड़तालों पर नामक एक पुस्तिका लिखी और ज़ारशाही के बर्बर स्वेच्छाचार का पर्दाफ़ाश करते हुए, ज़ार सरकार के नाम शीर्षक से एक पर्चा निकाला। यहीं पर लेनिन ने पार्टी के लिये कार्यक्रम का मसौदा तैयार किया (उन्होंने अदृश्य स्याही के तौर पर दूध इस्तेमाल किया और दवाइयों की किताब की पंक्तियों के बीच में लिखा)।

मुक्ति-संग्राम के पीतरबुर्ग संघ ने रूस के दूसरे शहरों और प्रदेशों में मज़दूरों के मण्डलों को ऐसे ही संघों में मिलकर एक होने की भारी प्रेरणा दी। 1894-'95 के लगभग, ट्रांस काॅकेशिया में माक्र्सवादी संगठन बने। 1894 में, मास्को में एक मजदूर यूनियन बना। 1900 के लगभग, साइबेरिया में एक सोशल-डेमोक्रेटिक यूनियन कायम हुआ। लगभग इसी काल में इवानोवो-वज्नेसेंस्क, यारोस्लावल कोस्त्रोया में माक्र्सवादी गुट बने। आगे चलकर, वे एक-दूसरे से मिल गये और उनसे सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी का उत्तरी यूनियन बना। 1895 के बाद, दोन नदी के तट पर रोस्तोव, एकातेरीनोस्लाव, कियेव, निकोलायेव, तूला, समारा, कजान, ओरेखोवोजूयेवो और दूसरे शहरों में सोशल-डेमोक्रेटिक गुट और यूनियन बने।

 

मजदूर वर्ग के मुक्ति-संग्राम के पीतरबुर्ग संघ का महत्व, जैसा कि लेनिन ने कहा था, इस बात में था कि वह एक क्रांतिकारी पार्टी की पहली सच्ची शुरूआत थी जिसे मजदूर आन्दोलन का समर्थन हासिल था। आगे चलकर, रूस में एक माक्र्सवादी सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी बनाने के लिये लेनिन ने पीतरबुर्ग संघ के क्रांतिकारी अनुभव से काम लिया।

लेनिन और उनके नज़दीकी साथियों के पकड़े जाने के बाद, मुक्ति-संग्राम के पीतरबुर्ग संघ का नेतृत्व काफी बदल गया। नये आदमी आ गये, जो अपने को 'नौजवान' और लेनिन और उनके साथियों को 'पुराने लोग' कहते थे। ये लोग एक गलत राजनीतिक नीति पर चल रहे थे। इनका कहना था कि मजदूरों से सिर्फ अपने मालिकों के खिलाफ आर्थिक लड़ाई लड़ने के लिये कहना चाहिये: जहां तक राजनीतिक संघर्ष का सवाल है, वह उदारपंथी पंूजीपतियों का काम है और राजनीतिक संघर्ष का नेतृत्व उन्हीं के लिये छोड़ देना चाहिये।

ये लोग 'अर्थवादी' कहलाये।

रूस के माक्र्सवादी संगठनों की सफों में ये अवसरवादियों और समझौता करने वालों का पहला गुट था।

4.    लोकवाद और 'कानूनी माक्र्सवाद' के खिलाफ़ लेनिन का संघर्ष। मजदूर वर्ग और किसानों की मैत्री के बारे में लेनिन का विचार। रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की पहली कांग्रेस।

हालांकि 1880 के आसपास ही प्लेखानोव ने लोकवादी मत पर मुख्य प्रहार किया था, फिर भी 1890 के लगभग क्रांतिकारी नौजवानों के कुछ हल्कों में लोकवादी विचारों के प्रति अब भी हमदर्दी बनी हुई थी। उनमें से कुछ का यह विचार बना हुआ था कि रूस, विकास के पूंजीवादी रास्ते से बच सकता है और क्रांति में मुख्य भूमिका किसानों की होगी, न कि मज़दूर वर्ग की। जो लोकवादी अब भी बचे रहे थे, वह रूस में माक्र्सवाद के प्रसार को रोकने की भरसक कोशिश कर रहे थे। वे माक्र्सवादियों से और लड़ते थे और हर तरह उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे थे। अगर माक्र्सवाद का आगे प्रसार करना था और सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी बनाने का काम सचमुच करना था, तो विचारधारा के रूप में लोकवाद का पूरी तरह से खण्डन जरूरी था।

यह काम लेनिन ने पूरा किया।

अपनी किताब 'जनता के मित्र' क्या हैं और वे सोशल-डेमोक्रेटों से कैसे लड़ते हैं? (1894) में, लेनिन ने लोकवादियों की असलियत का पूरी तरह पर्दाफाश किया।  उन्होंने दिखाया कि वे 'जनता के' झूठे 'मित्र' हैं, जो दरअसल जनता के खिलाफ काम कर रहे थे।

1890 के लोकवादियों ने तत्व रूप में बहुत पहले ही ज़ार सरकार के खिलाफ़ क्रांतिकारी संघर्ष को छोड़ दिया था। उदारपंथी लोकवादी ज़ार सरकार से मेल करने का प्रचार करते थे। उस समय के लोकवादियों के सिलसिले में लेनिन ने लिखा था: "वे समझते हैं कि वे इस सरकार से अगर काफ़ी बढ़िया ढंग से और काफी नम्रता से अर्ज भर करेंगे तो वह सब कुछ दुरुस्त कर देगी।" (लेनिन - 'जनता के मित्र' क्या हैं और वे सोशल-डेमोक्रेटों से कैसे लड़ते हैं? , अग्रेंजी संस्करण, मास्को, 1946, पृष्ठ 157)

1890 के लोकवादियों ने गरीब किसानों की हालत की तरफ, देहात के वर्ग-संघर्ष की तरफ और धनी किसानों द्वारा ग़रीब किसानों के शोषण की तरफ आंखें बन्द कर रखी थीं। वे धनी किसानों की खेती के गुन गाते थे। हकीकत यह थी कि वे धनी किसानों के हितों के हामी थे।

इसके साथ ही, अपनी पत्रिकाओं में लोकवादियों ने माक्र्सवादियों के खिलाफ़ हल्ला बोल रखा था। वे जानबूझ कर रूसी माक्र्सवादियों के विचारों को तोड़ते-मरोड़ते और गलत पेश करते थे। वे दावा करते थे कि माक्र्सवादी चाहते हैं कि गांवों के लोग तबाह हो जायें और वे "हर किसान को कारखाने की भट्टी में झोंक देना चाहते हैं।" लेनिन ने लोकवादी आलोचना के झूठ का पर्दाफाश किया और दिखाया कि सवाल माक्र्सवादियों के "चाहने" का नहीं है। उन्होंने कहा कि हकीकत यह है कि पूंजीवाद रूस में सचमुच विकसित हो रहा है और लाजिमी तौर पर इस विकास के साथ सर्वहारा वर्ग बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था की कब्र खोदने वाला बनेगा।

लेनिन ने दिखाया कि जनता के सच्चे दोस्त माक्र्सवादी हैं, न कि लोकवादी। उन्होंने दिखाया कि पूंजीपतियों और जमींदारों की गुलामी जो खत्म करना चाहते हैं, ज़ारशाही का नाश जो करना चाहते हैं, वे माक्र्सवादी ही हैं।

अपनी किताब 'जनता के मित्र' क्या हैं? में, लेनिन ने पहली बार मजदूरों और  किसानों के क्रांतिकारी सहयोग का विचार ज़ारशाही, जमींदारों और पूंजीपतियों को परास्त करने के मुख्य साधन के रूप में रखा था।

इस जमाने की अपनी कई रचनाओं में, लेनिन ने राजनीतिक संघर्ष के उन तरीकों की आलोचना की थी जिन्हें मुख्य लोकवादी गुट 'नरोद्नाया वोल्या' इस्तेमाल करता था और जिन्हें बाद में लोकवादियों के वारिसों, सामाजिक क्रांतिकारियों ने इस्तेमाल किया था। लेनिन ने खास तौर से व्यक्तिगत आतंकवाद की आलोचना की थी। लेनिन का विचार था कि क्रांतिकारी आन्दोलन के लिये ये दांव-पेच हानिकर हैं, क्योंकि उनके अनुसार आम जनता के संघर्ष की जगह कुछ अलग-थलग वीरों का संघर्ष ले लेता था। उनसे जनता के क्रांतिकारी आन्दोलन में विश्वास की कमी जाहिर होती थी।

'जनता के मित्र' क्या हैं? पुस्तक में, लेनिन ने रूसी माक्र्सवादियों के लिये मुख्य  कामांे की रूपरेखा पेश की। उनके विचार से रूसी माक्र्सवादियों का पहला कर्तव्य यह था कि बिखरे हुए माक्र्सवादी मण्डलों को एक संयुक्त समाजवादी मजदूर पार्टी में इकट्ठा करें। इसके अलावा, उन्होंने बतलाया कि रूस का मजदूर वर्ग ही, किसानों के सहयोग से, निरंकुश ज़ारशाही का खात्मा करेगा। इसके बाद, रूसी सर्वहारा वर्ग मेहनतकश और शोषित अवाम के सहयोग से, दूसरे देशों के सर्वहारा के साथ, कम्युनिस्ट क्रान्ति की विजय के लिये खुले राजनीतिक संघर्ष का सीधा रास्ता अपनायेगा।

इस तरह, चालीस साल से ऊपर बीते जब लेनिन ने मज़दूर वर्ग को उसके संघर्ष का ठीक-ठीक रास्ता बतलाया था, समाज की प्रमुख क्रांतिकारी शक्ति के रूप में उसकी भूमिका की व्याख्या की थी और मज़दूर वर्ग के सहयोगी के रूप में किसानों की भूमिका बतलाई थी।

लोकवाद के खिलाफ़ लेनिन और उनके अनुयायियों ने जो संघर्ष किया, उससे 1890 के आसपास, विचारधारा के क्षेत्र में लोकवादियों की पूरी हार हुई।

 'कानूनी माक्र्सवाद' के खिलाफ भी लेनिन का संघर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण था। इतिहास में आम तौर से ऐसा होता है कि बडे़ सामाजिक आन्दोलनों के साथ अस्थिर 'सहयात्रि' चिपक आते हैं। 'कानूनी माक्र्सवादी', जैसा कि उनका नाम पड़ गया था, इसी तरह के सहयात्री थे। रूस में चारों तरफ़ बडे़ पैमाने पर माक्र्सवाद फैलने लगा था। और इसलिये, पूंजीवादी बुद्धिजीवी भी माक्र्सवादी पोशाक पहने हुए दिखाई दिये। वे अपने लेख ऐसे अखबारों और पत्रिकाओं में छपवाते थे जो कानूनी थीं, यानी जिनके लिये ज़ार सरकार की अनुमति थी। इसीलिये, वे 'कानूनी माक्र्सवादी' कहलाये।

अपने ढंग से वे भी लोकवाद से लड़ते थे। लेकिन, वे इस लड़ाई और माक्र्सवाद के झण्डे का इस्तेमाल यों करने की कोशिश करते थे कि मज़दूरों के आन्दोलन को पूंजीवादी समाज के हितों के अनुकूल, पूंजीपतियों के हितों के अनुकूल चलायें और उसे उन हितों के मातहत बनायें। उन्होंने माक्र्सवाद का तत्व ही निकाल दिया था, यानी सर्वहारा क्रांति और सर्वहारा वर्ग की डिक्टेटरशिप को निकाल दिया था। पीतर स्त्रूवे नाम का एक प्रमुख 'कानूनी माक्र्सवादी' पूंजीपतियों की तारीफ़ों के पुल बांधता था और पूंजीवाद के खिलाफ़ क्रांतिकारी संघर्ष के बदले, इस बात पर ज़ोर देता था कि "हम इस बात को मानें कि संस्कृति की हममें कमी है और शिक्षा पाने के लिये हम पूंजीवाद के पास जायें।"

लोकवादियों के खिलाफ़ संघर्ष में, लेनिन ने यह उचित समझा कि 'कानूनी माक्र्सवादियों' के साथ अस्थायी समझौता कर लिया जाये ताकि उन्हें लोकवादियों के खिलाफ़ इस्तेमाल किया जा सके। मिसाल के लिये, लोकवादियों के खिलाफ़ मिलजुल कर एक लेख-संग्रह प्रकाशित करने के बारे में यह समझौता किया गया। इसके साथ ही, लेनिन ने अपनी आलोचना में 'कानूनी माक्र्सवादियों' को ज़रा भी नहीं बख्शा और उनके उदारपंथी पूंजीवादी स्वरूप का पर्दाफ़ाश किया।

आगे चलकर, इनमें से बहुत से सहयात्री काॅन्स्टीट्यूशनल डेमोक्रेट (रूसी पूंजीपतियों की प्रमुख पार्टी) और गृह-युद्ध के काल में सौ फ़ीसदी ग़द्दार बन गये।

पीतरबुर्ग, मास्को, कियेव और दूसरी जगहों के मुक्ति-संग्राम संघों के साथ-साथ रूस के पच्छिमी जातीय सीमान्त इलाकों में भी सोशल-डेमोक्रेटिक संगठन बने। 1890 के बाद, पोलैण्ड की राष्ट्रवादी पार्टी से माक्र्सवादी अलग हो गये और उन्होंने पोलैण्ड और लिथुआनिया की सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी बनायी। 1900 से कुछ पहले, लैटविया में सोशल-डेमोक्रेटिक संगठन बने और अक्तूबर 1897 में, रूस के पच्छिमी सूबों में यहूदियों का जनरल सोशल-डेमोक्रेटिक यूनियन बना, जो 'बुन्द' कहलाता था।

1898 में, पीतरबुर्ग, मास्को, कियेव और एकातेरीनोस्लाव के मुक्ति-संग्राम संघों ने बुन्द के साथ मिलकर पहली बार कोशिश की कि वे एक हों और एक सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी बनायें। इस उद्देश्य से, उन्होंने रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी (रू.सो.डे.ले.पा.) की पहली कांगे्रस बुलाई, जो मार्च 1898 में मिन्स्क में हुई।

रू.सो.डे.ले.पा. की पहली कांगे्रस में सिर्फ़ नौ आदमी आये थे। लेनिन मौजूद नहीं थे, क्योंकि उस समय वह साईबेरिया में निर्वासित थे। पार्टी की केन्द्रीय समिति, जो कांगे्रस में चुनी गयी, बहुत जल्द गिरफ़्तार कर ली गयी। कांग्रेस के नाम से जो घोषणापत्र छापा गया था, वह कई तरह से असंतोष जनक था। सर्वहारा वर्ग  द्वारा राजनीतिक शक्ति जीतने के सवाल को उसमें टाल दिया गया था, सर्वहारा वर्ग के एकछत्र नेतृत्व का उसमें ज़िक्र नहीं था। ज़ारशाही और पूंजीपतियों के खिलाफ़ सर्वहारा वर्ग के सहयोगियों के बारे में उसमें कुछ भी नहीं कहा गया था।

अपने फ़ैसलों में और घोषणापत्र में, कांगे्रस ने रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी के बनने का ऐलान किया था।

रू.सो.डे.ले.पा. की पहली कांग्रेस का महत्व इस व्यवहारिक काम में ही निहित था। इसने एक भारी क्रान्तिकारी प्रचारात्मक भूमिका अदा की।

लेकिन, हालांकि पहली कांगे्रस हो चुकी थी, फिर भी हकीक़त में अभी रूस में कोई माक्र्सवादी सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी बनी न थी। अलग-अलग माक्र्सवादी मण्डलों और संगठनों को मिलाने और संगठित करके दृढ़ करने में कांग्रेस कामयाब न हुई थी। स्थानीय संगठनों के काम के लिये अब भी कोई सर्वसम्मत नीति न थी, न अभी पार्टी का कार्यक्रम था, न पार्टी के नियम थे और न एकमात्र नेतृत्व करने वाला केन्द्र था।

इस वजह से और ऐसे ही दूसरे कारणों से स्थानीय संगठनों में विचारधारा सम्बन्धी उलझन बढ़ने लगी और इससे मज़दूर आन्दोलन के अन्दर 'अर्थवाद' नाम की अवसरवादी पवृत्ति के बढ़ने के लिये अनुकूल ज़मीन तैयार हो गयी।

लेनिन और उनके स्थापित किये हुए अखबार इस्क्रा (चिनगारी) को कई साल तक घोर मेहनत करनी पड़ी और तब कहीं जाकर यह उलझन दूर हुई, अवसरवादी ढुलमुलपन खत्म किया गया और रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी के निर्माण के लिये रास्ता साफ हुआ।

5.        'अर्थवाद' के खिलाफ़ लेनिन का संघर्ष। लेनिन के अखबार 'इस्क्रा' का प्रकाशन।

रू.सो.डे.ले.पा. की पहली कांग्रेस में लेनिन मौजूद नहीं थे। उस समय वह लाईबेरिया में शुशेन्स्कोय नाम के गांव में निर्वासित थे। मुक्ति-संग्राम संघ पर मुकदमा चलाने के सिलसिले में, ज़ार सरकार ने एक लम्बे अर्से के लिये उन्हें पीतरबुर्ग की जेल में डाल रखा था और उसके बाद वह निर्वासित किये गये थे।

लेकिन, निर्वासन में भी लेनिन ने अपना क्रान्तिकारी काम जारी रखा। वहां पर  उन्होंने अपनी बहुत ही महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पुस्तक रूस में पूंजीवाद का विकास पूरी की। इस किताब ने  विचारधारा के क्षेत्र मंे लोकवाद को समाप्त करने का काम पूरा किया। वहीं पर, उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका रूसी सोशल-डेमोक्रेटों के कर्तव्य भी लिखी।

हालांकि लेनिन सीधे-सीधे अमली क्रान्तिकारी कार्यवाही में भाग न ले सकते थे, फिर भी जो लोग इस काम में लगे हुए थे, उनसे वह कुछ न कुछ सम्बन्ध बनाये ही हुए थे। निर्वासन से वह उनसे पत्र-व्यवहार रखते थे, उनसे समाचार प्राप्त करते थे और उन्हें सलाह देते थे। इन दिनों लेनिन का ज्यादा ध्यान 'अर्थवादियों' की तरफ़ था। और सभी से वह इस बात को ज्यादा अच्छी तरह समझते थे कि समझौते और अवसरवाद की मुख्य जड़ 'अर्थवाद' है और अगर मजदूर आन्दोलन में ' अर्थवाद' की तूती बोलने लगी तो इससे सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन में कमजोरी पैदा होगी और उससे माक्र्सवाद की हार होगी।

इसलिये, जैसे ही 'अर्थवादी' सामने आये, लेनिन ने उन पर भरपूर हमला बोल दिया।

'अर्थवादियों' का दावा था कि मज़दूरों को सिर्फ आर्थिक संघर्ष करना चाहिये। जहां तक राजनीतिक संघर्ष का सवाल है, वह उदारपंथी पूंजीपतियों के लिये छोड़ देना चाहिये और मज़दूरों को चाहिये कि उनका समर्थन करें। लेनिन की नज़रों में यह मत माक्र्सवाद का त्याग था। इसके मानी थे, मजदूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी की जरूरत से इन्कार करना। यह इस बात की कोशिश थी कि मज़दूर वर्ग को पूंजीपतियों का राजनीतिक पुछल्ला बना दिया जाये।

1899 में, 'अर्थवादियों' के एक गुट ने (प्रोकोपोविच, कुस्कोवा और दूसरों ने जो आगे चल कर कान्स्टीट्यूशनल डेमोक्रेट बन गये थे) एक घोषणापत्र निकाला, जिसमें उन्होंने क्रांतिकारी माक्र्सवाद का विरोध किया। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि सर्वहारा की स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी और मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक मांगों का विचार छोड़ दिया जाये। 'अर्थवादियों' का कहना था कि राजनीतिक संघर्ष चलाना उदारपंथी पूंजीपतियों का काम है। जहां तक मज़दूरों का सम्बन्ध है, उनके लिये मालिकों के खिलाफ़ आर्थिक संघर्ष चलाना ही काफ़ी है।

जब लेनिन को इस अवसरवादी दस्तावेज की जानकारी हुई, तो उन्होंने राजनीतिक निर्वासन में आसपास रहने वाले माक्र्सवादियों का एक सम्मेलन बुलाया। इनमें से सत्रह लोग आये और उन्होंने लेनिन की अगुवाई में 'अर्थवादियों' के मत का जोरों से खण्डन करते हुए, अपना तीव्र विरोध प्रकाशित किया।

यह विरोध-पत्र लेनिन ने लिखा था। देश के तमाम माक्र्सवादी संगठनों में वह घुमाया गया और रूस में माक्र्सवादी विचारों और माक्र्सवादी पार्टी के विकास में उसने महत्वपूर्ण काम किया।

रूसी 'अर्थवादी' वे ही विचार प्रतिपादित कर रहे थे जिनका प्रचार बाहर की सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टियों में माक्र्सवाद के विरोधी किया करते थे। इनको लोग बन्र्सटाइनपंथी, यानी अवसरवादी बन्र्सटाइन के अनुयायी, कहते थे।

इस तरह 'अर्थवादियों के खिलाफ लेनिन का संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर अवसरवाद के खिलाफ़ संघर्ष भी था।

लेनिन द्वारा संस्थापित ग़ैरकानूनी अख़बार इस्क्रा ने मुख्य तौर से अर्थवाद के खिलाफ़ लड़ाई की और सर्वहारा वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी बनाने के लिये संघर्ष किया।

1900 के आरंभ में, लेनिन और मुक्ति-संग्राम संघ के दूसरे सदस्य साइबेरिया के निर्वासन से रूस लौट आये। लेनिन ने अखिल रूसी पैमाने पर एक बड़ा गै़रकानूनी माक्र्सवादी अखबार स्थापित करने का विचार किया। रूस में जो बहुत से माक्र्सवादी मण्डल और संगठन अभी थे, वे एक दूसरे से जुडे़ हुए न थे। ऐसे वक्त जब, काॅमरेड स्तालिन के शब्दों में, "मण्डलों का अधकचरापन और उनका स्थानीय दृष्टिकोण पार्टी को ऊपर से नीचे तक खोखला बना रहा था, जब पार्टी के अन्दरूनी जीवन की विशेषता विचारधारा की उलझन थी" तब अखिल रूसी पैमाने पर एक ग़ैरकानूनी अखबार चलाना रूस के क्रान्तिकारी माक्र्सवादियों का मुख्य काम था। इस तरह का अखबार ही बिखरे हुए माक्र्सवादी संगठनों को जोड़ सकता था और सच्ची पार्टी के निर्माण के लिये रास्ता साफ़ कर सकता था।

लेकिन, पुलिस के दमन की वजह से इस तरह का अखबार ज़ारशाही रूस में नहीं छप सकता था। महीने भर में या ज्यादा से ज्यादा दो महीने में ज़ार के कुत्ते उसे सूंघ लेते और उसे खत्म कर देते। इसलिये, लेनिन ने तय किया कि अख़बार विदेश से निकाला जाये। वह बहुत ही पतले, लेकिन टिकाऊ कागज पर छापा जाता था और गुप्त रूप से रूस पहुंचा दिया जाता था। रूस में इस्क्रा के कुछ अंक बाकू, किशीनेव और साईबेरिया के गुप्त छापेखानों में फिर से छापे जाते थे।

1900 की शरद् में 'मजदूर उद्धारक' गुट के साथियों के साथ अखिल रूसी पैमाने पर राजनीतिक अखबार निकालने का प्रबन्ध करने के लिये लेनिन विदेश गये। जब वह निर्वासन में थे, तभी उन्होंने इसकी पूरी रूपरेखा बना ली थी। निर्वासन से लौटते हुए, उन्होंने इस विषय पर ऊफा, प्स्कोव, मास्को और पीतरबुर्ग में कई सम्मेलन किये थे। हर जगह उन्होंने गुप्त पत्र-व्यवहार के लिये संकेत-भाषा के बारे में साथियों से प्रबंध कर लिये थे। किस पते पर साहित्य वगैरह भेजा जायेगा, इसका इंतज़ाम कर लिया था और भावी संघर्ष के लिये योजनाओं पर उनसे बातचीत कर ली थी।

ज़ार सरकार ने सूंघ लिया कि लेनिन उसका सबसे खतरनाक दुश्मन है। ज़ार की ओखराना1 के हथियारबन्द दलों के एक अफ़सर, जुबातोव ने एक विश्वस्त रिपोर्ट में यह राय ज़ाहिर की थी कि "आजकल इंक़लाब मंे उलियानोव (लेनिन) से बढ़कर दूसरा कोई नहीं।" और इस वजह से, उसका विचार था कि लेनिन की हत्या करा देना उचित होगा।

विदेश में लेनिन ने 'मजदूर उद्धारक' गुट से, यानी प्लेखानोव, एक्सेलरोद और . ज़ासूलिच से मिलकर इस्क्रा निकालने के बारे में समझौता किया। शुरू से लेकर आखिर तक, प्रकाशन की पूरी योजना लेनिन ने बनायी थी।

दिसम्बर 1900 में इस्क्रा का पहला अंक विदेश में निकला। मुखपृष्ठ पर यह वाक्य लिखा हुआ था:

"इस चिनगारी से आग की लपटें उठेंगी।"

साइबेरिया के निर्वासन में, दिसम्बर क्रांतिकारियों2 के लिये पुश्किन ने अभिनन्दन भेजा था; उसका उन्होंने जो जवाब दिया था, ये शब्द उसी से लिये गये थे। और दरअसल, लेनिन ने जो चिनगारी (इस्क्रा) जलाई, उससे आगे चलकर भारी क्रान्तिकारी लपटें उठीं, जिनमें जमींदारों की ज़ारशाही और पूंजीपतियों की ताक़त जलकर खाक हो गयी।

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1. ज़ारषाही रूस में क्रान्तिकारी आंदोलन का दमन करने के लिये गुप्त राजनीतिक पुलिस

विभाग - अंग्रेजी अनु.

2. अभिजात वर्ग के क्रान्तिकारी जो स्वेच्छाचारी, बादषाही और भूदास प्रथा के विरोधी थे।

दिसम्बर 1825 में उन्होंने असफल विद्रोह किया था - अंग्रेजी अनु.

 

 

सारांश

रूस में माक्र्सवादी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी का निर्माण हो रहा था। यह निर्माण उस संघर्ष के दौर में हो रहा था जो सबसे पहले लोकवाद और उसकी धारणाओं के खिलाफ़ चलाया जा रहा था। ये धारणायें ग़लत थीं और क्रांति के लिये हानिकर थीं।

विचारधारा के क्षेत्र में लोकवादियों के विचारों का खण्डन करके ही यह मुमकिन था कि रूस में माक्र्सवादी मजदूर पार्टी के लिये रास्ता साफ़ किया जाये। 1880 के आसपास प्लेखानोव और उसके 'मजदूर उद्धारक' गुट ने लोकवाद पर निर्णायक प्रहार किया।

लेनिन ने विचारधारा के क्षेत्र में लोकवाद को पूरी तरह हराया और 1890 के लगभग उस पर अंतिम प्रहार किया।

1883 में स्थापित, 'मजदूर उद्धारक' गुट ने रूस में माक्र्सवाद के प्रसार के लिये बहुत कुछ किया। उसने सोशल-डेमोक्रेसी की सैद्धान्तिक बुनियाद डाली और मजदूर आन्दोलन से सम्बन्ध क़ायम करने के लिये पहले क़दम उठाये।

रूस में पूंजीवाद का विकास होने के साथ-साथ, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग की तादाद तेज़ी से बढ़ी। 1885 के लगभग, मजदूर वर्ग ने संगठित संघर्ष का रास्ता, संगठित हड़तालों के रूप में सामूहिक कार्यवाही का रास्ता अपनाया। लेकिन, माक्र्सवादी मण्डल और गुट सिर्फ़ प्रचार करते थे और इस बात की जरूरत को नहीं समझ रहे थे कि मज़दूर वर्ग के आम आन्दोलन की तरफ़ बढ़ना चाहिये। इसलिये, अब भी मजदूर आन्दोलन के साथ उनका कोई अमली सम्बन्ध न था और वे उसका नेतृत्व न करते थे।

1895 में, लेनिन ने मजदूर वर्ग के मुक्ति-संग्राम का जो पीतरबुर्ग संघ क़ायम किया और जिसने मज़दूरों में आम आन्दोलन शुरू किया और आम हड़तालों का नेतृत्व किया, वह एक नयी मंजिल का सूचक था। यह मंजिल मज़दूरों में आम आन्दोलन की तरफ़ बढ़ने और माक्र्सवाद को मजदूर आन्दोलन से मिलाने की मंजिल थी। मजदूर वर्ग के मुक्ति-संग्राम का पीतरबुर्ग संघ रूस में एक क्रांतिकारी सर्वहारा पार्टी का बीज था। उसके बनने के बाद, सभी मुख्य औद्योगिक केन्द्रों में और सीमान्त इलाकों में भी माक्र्सवादी संगठन क़ायम हुए।

1898 में, रू.सो.डे.ले.पा.की पहली कांगे्रेस हुई। इसमें माक्र्सवादी सोशल-डेमोक्रेटिक संगठनों को एक पार्टी में मिलाने की पहली, यद्यपि नाकाम, कोशिश की गयी। लेकिन, इस कांग्रेस ने अभी पार्टी का निर्माण नहीं किया। न तो पार्टी का कार्यक्रम था और न पार्टी के नियम थे। अभी कोई नेतृत्व करने वाला एक ही केंद्र भी न था और अलग-थलग माक्र्सवादी मण्डलों और गुटों में मुश्किल से ही कोई सम्बन्ध था।

विभिन्न्ा माक्र्सवादी संगठनों को एक ही पार्टी में मिलाने और जोड़ने के लिये, लेनिन ने इस्क्रा की स्थापना की योजना पेश की और उसे पूरा किया। क्रान्तिकारी माक्र्सवादियों का अखिल रूसी पैमाने पर यह पहला अखबार था।

उस समय मजदूर वर्ग की एक ही राजनीतिक पार्टी बनाने के मुख्य विरोधी 'अर्थवादी' थे। वे इस तरह की पार्टी की जरूरत से इनकार करते थे। अलग-थलग गुटों के अलगाव और अधकचरे तरीकों को वे शह देते थे। इन्हीं पर लेनिन और उनके द्वारा संगठित इस्क्रा अखबार ने अपने प्रहार किये।

इस्क्रा के पहले अंकों का प्रकाशन (1900-01) एक नये ज़माने की तरफ़ बढ़ने की सूचना थी। इस जमाने में, बिखरे हुए गुटों और मण्डलों से एक ही रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी सचमुच बनी।

 

 

 

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