नवां अध्याय
आर्थिक पुनर्संगठन की शांति मय कार्यवाही की ओर संक्रमण
के दौर में बोल्शेविक पार्टी
(1921-1925)
1. हस्तक्षेप की हार और गृह-युद्ध के ख़ात्मे के बाद सोवियत प्रजातंत्र। पुनर्संगठन के दौर की कठिनाइयां।
युद्ध खत्म करने के बाद, सोवियत प्रजातंत्र ने शांति मय आर्थिक विकास का काम उठाया। युद्ध के घावों को भरना था। देश के चूर हो चूके आर्थिक जीवन को फिर से बनाना था, उसके उद्योग-धंधों, रेलों और खेती को पुनः संगठित करना था।
लेकिन, शांति मय विकास का काम बहुत ही कठिन परिस्थितियों में पूरा करना था। गृह-युद्ध में जीत आसानी से न मिली थी। चार साल तक साम्राज्यवादी युद्ध और तीन साल तक हस्तक्षेप के खिलाफ़ युद्ध से, देश तबाह हो गया था।
1920 में, खेती की कुल पैदावार लड़ाई से पहले की पैदावार की सिर्फ़ आधी रह गयी थी, ज़ारषाही के ग़रीब रूसी गाँवों की पैदावार की आधी रह गयी थी। कम्बख़्ती में आटा गिला करने के लिये, 1920 में, बहुत से सूबों में फ़सल न हुई। खेती घोर संकट में थी।
उद्योग-धंधों की हालत और भी खराब थी। ये पूरी तरह अव्यवस्थित हो गये थे। 1920 में, बड़े पैमाने के उद्योग-धंधों की पैदावार युद्ध से पहले की पैदावार का सातवाँ हिस्सा ही रह गयी थी। ज़्यादातर मिलें और कारखाने बन्द थे। खानों और कोयले की खदानों में पानी भर गया था और वे घसक गयी थीं। सबसे संगीन हालत लोहे और इस्पात के धंधों की थी। 1921 में, कच्चे लोहे की पैदावार सिर्फ़ 1,16,300 टन थी, यानी युद्ध से पहले की पैदावार की 3 फ़िसदी रह गयी थीर्। इंधन की कमी थी। यातायात के साधन छिन्न-भिन्न हो गये थे। देश में धातुओं और कपास के गोदाम लगभग खाली थे। रोटी, चर्बी, गोष्त, जूते, कपड़े, माचिसें, नमक, मिट्टी का तेल और साबुन जैसी आवष्यक चीजों की भारी कमी थी।
जब युद्ध जारी था, तब लोग यह तंगी और अभाव सहते रहे थे और कभी-कभी उसे भूल भी जाते थे। लेकिन जब लड़ाई खत्म हो गयी, तो उन्होंने अचानक अनुभव किया कि यह कमी और अभाव असहनीय है, और वे मांग करने लगे कि उसे तुरंत दूर करना चाहिये।
किसानों में असन्तोष फैल गया। गृह-युद्ध की आँच में मज़दूर वर्ग और किसानों की फ़ौजी और राजनीतिक मैत्री तपी और मज़बूत हुई थी। इस मंत्री का एक निष्चित आधार था। किसानों ने सोवियत सत्ता से ज़मीन पायी थी और ज़मींदारों तथा कुलकों के खिलाफ़ सोवियत सत्ता ने उनकी रक्षा की थी। मज़दूरों को किसानों से फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था के अनुसार, खाने-पीने का सामान मिलता था।
अब यह आधार काफ़ी नहीं था।
सोवियत राज्य को राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतों की वजह से किसानों की तमाम फ़ालतू उपज ले लेने के लिये मज़बूर होना पड़ा था। गृह-युद्ध में इस फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था के बिना युद्ध कालीन कम्युनिज्म के बिना, जीत हासिल करना असम्भव होता। युद्ध और हस्तक्षेप ने इस नीति को आवष्यक बना दिया था। जब तक लड़ाई चालू थी, तब तक किसान फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था मानते रहे थे और दूसरे माल की तंगी की तरफ़ ध्यान न देते थे। लेकिन, जब लड़ाई खत्म हो गयी और ज़मींदारों के लौटने का कोई खतरा न रह गया था किसान अपनी तमाम फ़ालतू उपज देने से, फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था से असंतोष प्रकट करने लगे। वे माँग करने लगे कि उन्हें दूसरा माल काफ़ी तादाद में दिया जाये।
जैसा कि लेनिन ने कहा था, युद्धकालीन कम्युनिज्म की सारी व्यवस्था किसानों के हितों से टकरा रही थी।
असंतोष की भावना मज़दूर वर्ग में भी पैदा हुई। सर्वहारा वर्ग ने गृह-युद्ध का मुख्य भार झेला था। उसने वीरता से और कुर्बानियाँ देकर ग़द्दार और विदेशी फ़ौजों से युद्ध किया था और आर्थिक अव्यवस्था और अकाल की मुसीबतें सही थीं। सबसे अच्छे, सबसे वर्ग-चेतन, कुर्बानी देने वाले और अनुशासन मानने वाले मज़दूरों में समाजवादी उत्साह भरा हुआ था। लेकिन, घोर आर्थिक अव्यवस्था का असर मज़दूर वर्ग पर भी पड़ा । थोड़े से कल-कारखाने, जो अब भी चालू थे, वे रुक-रुक कर जब-तब चलते थे। मज़दूरों को रोटी के लिये अजीब-अजीब काम करने पड़ते थे: वे सिगरेट जलाने की डिबियाँ बनाते थे और कभी गाँवों में अन्न के बदले छोटा-मोटा माल बेचते फिरते थे ('झोले का व्यापार')। सर्वहारा डिक्टेटरशिप का वर्ग-आधार कमज़ोर पड़ रहा था। मज़दूर बिखर रहे थे, गाँवों की तरफ़ भाग रहे थे, मज़दूर न रह कर वर्गहीन हो रहे थे। कुछ मज़दूर भूख और थकान की वजह से असंतोष के चिन्ह प्रकट करने लगे थे।
पार्टी के सामने यह ज़रूरत पैदा हुई कि देश के आर्थिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाले सभी सवालों पर वह एक नयी तरह की नीति निकाले, ऐसी नीति जो नयी हालत के अनुकूल हो।
और, पार्टी ने आर्थिक विकास के सवालों पर ऐसी ही नीति निकालने का काम उठाया।
लेकिन, वर्ग-षत्रु सो न रहा था। उसने खेदजनक आर्थिक हालत और किसानों के असंतोष से अपने हित में फायदा उठाने की कोशिश की। ग़द्दारों और समाजवादी क्रान्तिकारियों के उकसाने से, साइबेरिया, उक्रैन और ताम्बोव प्रदेश (आन्तोनोव की बग़ावत) में कुलक-विद्रोह फूट पडे़। सभी तरह के क्रान्ति-विरोधी - मेंशेविक, समाजवादी क्रान्तिकारी, अराजकतावादी, गद्दार, पूंजीवादी राष्ट्रीवादी - फिर सरगर्मी दिखाने लगे। दुष्मन ने सोवियत सत्ता से लड़ने के लिये नये दांव-पेच निकाले। उसने सोवियत भेष धारण किया। अब उसका नारा - 'सोवियतें मुर्दावाद!' वह दिवालिया नारा न था। उसका अब नया नारा था: 'सोवियतों की जय, लेकिन कम्युनिस्टों के बिना!'
वर्ग-षत्रु के नये दाँव-पेचों की एक जीती-जागती मिसाल क्रोन्स्तात का क्रान्ति-विरोधी विद्रोह था। दसवीं पार्टी कांग्रेस के एक हफ्ते पहले, मार्च 1921 में यह शुरु हुआ। ग़द्दारों ने, समाजवादी क्रान्तिकारियों, मेन्षेविकों और विदेशी राज्यों के प्रतिनिधियों से सहयोग करके विद्रोह की अगुवाई की। पूंजीपतियों और ज़मींदारों की सत्ता और सम्पत्ति बहाल करने के अपने उद्देष्य को छिपाने के लिये, विद्रोहियों ने पहले 'सोवियत' साइन बोर्ड लगाया। उन्होंने नारा लगाया: 'सोवियतें कम्युनिस्टों के बिना!' क्रान्ति-विरोधियों ने एक झूठे सोवियत नारे की आड़ में सोवियतों की सत्ता उलटने के लिये मध्यवित्त जनता के असंतोष से लाभ उठाने की कोशिश की।
क्रोन्स्तात के विद्रोह को दो कारणों से मदद मिली: जहाजियों के दस्तों की बनावट में पतन और क्रोन्स्तात में बोल्शेविक संगठन की कमजोरी। लगभग सभी पुराने जहाजी, जिन्होंने अक्तूबर क्रान्ति में हिस्सा लिया था, मोर्चे पर थे और वीरतापूर्वक लाल फौज की पांति में लड़ रहे थे। नये जहाजियों में ऐसे लोग भर्ती हुए थे जिन्हें क्रान्ति की दीक्षा न मिली थी। ये ठेठ कच्चे किसान थे, जो फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था के खिलाफ़ किसानों का असंतोष प्रकट करते थे। जहाँ तक क्रोन्स्तात के बोल्शेविक संगठन का सवाल था, मोर्चे के लिये कई बार भर्ती की वजह से वह बहुत कमज़ोर पड़ गया था। इस कारण, समाजवादी क्रान्तिकारी, मेंशेविक और ग़द्दार क्रोन्स्तात में पैठ सके और उस पर अधिकार जमा सके।
विद्रोहियों ने उच्चकोटि के क़िलों, जहाजी बेड़े और हथियारों और लड़ाई के सामान की बहुत बड़ी तादाद पर क़ब्जा कर लिया। अंतर्राष्ट्रीय क्रान्ति-विरोधी फूले न समाये। लेकिन, उसकी हँसी-खुषी वक्त से पहले की थी। सोवियत सैनिकों ने जल्द ही विद्रोह दबा दिया। क्रोन्स्तात के विद्रोहियों के खिलाफ़, पार्टी ने अपने सबसे अच्छे बेटों - दसवीं कांग्रेस के प्रतिनिधियों को भेजा, जिनके अगुआ काँमरेड वोरेषिलोव थे। लाल फ़ौज के सैनिक बर्फ़ की पतली तह से होकर क्रोन्स्तात की तरफ़ बढ़े। वह पतली तह कई जगह टूट गयी और बहुत से सैनिक डूब गये। क्रोन्स्तात के प्रायः अजेय क़िलों को धावा करके लेना था। लेकिन, क्रान्ति के प्रति वफ़ादारी, वीरता और सोवियतों के लिये बलिदान करने की तत्परता की उस दिन जीत हुई। लाल सैनिकों के हमले के सामने क्रोन्स्तात के दुर्ग का पतन हुआ। क्रोन्स्तात का विद्रोह दबा दिया गया।
2. ट्रेड यूनियनों पर पार्टी में बहस। 10 वीं पार्टी कांग्रेस। विरोधी
दल की हार। नयी आर्थिक नीति (नेप) की स्वीकृति।
पार्टी की केन्द्रीय समिति ने, उसके लेनिनवादी बहुमत ने साफ-साफ देखा कि अब, जब युद्ध खत्म हो गया है और देश शांति मय आर्थिक विकास की तरफ मुड़ा है, तब युद्ध और नाकेबन्दी की उपज - युद्धकालीन कम्युनिज्म की कठोर व्यवस्था को बनाये रखने का कोई कारण नहीं है।
केन्द्रीय समिति ने अनुभव किया कि फ़ालतू अन्न ले लेने की व्यवस्था की जरूरत खत्म हो चुकी है और उसके बदले में ग़ल्ले के रूप में टैक्स लेने की व्यवस्था करनी चाहिये, जिससे कि किसान अपनी फ़ालतू उपज का ज़्यादा हिस्सा अपनी इच्छा से उपयोग कर सकें। केन्द्रीय समिति ने अनुभव किया कि इस उपाय से खेती फिर से हरी होगी और अनाज और उद्योग-धंधों के विकास के लिये जरूरी औद्योगिक फ़सलों की काश्त बढ़ायी जा सकेगी, बिकाऊ माल का चलन फिर जारी किया जा सकेगा, शहरों को माल भेजने में सुधार होगा और मज़दूरों और किसानों के सहयोग के लिये एक नयी बुनियाद, एक आर्थिक बुनियाद रची जा सकेगी।
केन्द्रीय समिति ने यह भी अनुभव किया कि सबसे पहला काम उद्योग-धंधों को फिर से जगाना है, लेकिन वह समझती थी कि मज़दूर वर्ग और टेªड यूनियनों की सहायता लिये बिना यह काम नहीं हो सकता। उसका विचार था कि मज़दूर इस काम में लगाये जा सकते हैं जब उन्हें दिखलाया जाये कि आर्थिक तोड़-फोड़ जनता की वैसी ही खतरनाक दुष्मन है जैसी कि हस्तक्षेप और नाकेबन्दी थी। केन्द्रीय समिति का विचार था कि पार्टी और ट्रेड यूनियनें इस काम में जरूर सफल हो सकती हैं अगर वे मज़दूर वर्ग पर अपना असर फ़ौजी आज्ञाओं के ज़रिये न डालें, जैसा कि मोर्चे पर होता था जहां कि आज्ञायें सचमुच ज़रूरी थीं, बल्कि समझाने-बुझाने के तरीके से, मज़दूर वर्ग की दिलजमई के तरीके़ से असर डालें।
लेकिन, पार्टी के सभी सदस्य केन्द्रीय समिति की राय के न थे। छोटे-छोटे विरोधी गुट - त्रात्स्की पंथी, 'मज़दूर-विरोधी,' 'वामपंथी कम्युनिस्ट', 'जनवादी-केन्द्रवादी', वग़ैरह - झगड़ रहे थे और शांति मय आर्थिक निर्माण की तरफ बढ़ने में जो कठिनाइयां सामने आ रही थीं, उनसे विचलित हो रहे थे और ढुलमुलपन दिखा रहे थे। पार्टी के अन्दर मेंशेविक, समाजवादी क्रान्तिकारी, बुन्द और बरोत्बा पंथी1 पार्टियों के काफी भूतपूर्व सदस्य थे और रूस के सीमान्त इलाकों से सभी तरह के अर्द्ध-राष्ट्रवादी थे। इनमें से ज्यादातर एक या दूसरे विरोधी गुट के साथ हो जाते थे। ये लोग सच्चे मार्क्सवादी नहीं थे। वे आर्थिक विकास के नियमों से अपरिचित थे और उन्हें लेनिनवादी पार्टी षिक्षा न मिली थी। वे विरोधी-गुटों की उलझन और ढुलमुलपन को और बढ़ाने का ही काम करते थे। उनमें से कुछ का विचार था कि युद्धकालीन कम्युनिज्म की कठोर व्यवस्था को ढीला करना ग़लत होगा, बल्कि इसके विपरीत, 'लगाम जरा और खींचनी चाहिये।' और, दूसरों का ख्याल था कि पार्टी और राज्य को आर्थिक वहाली के काम से अलग रहना चाहिये और उसे पूरी तरह ट्रेड यूनियनों के हाथ में छोड़ देना चाहिये।
यह बात स्पष्ट थी कि पार्टी के अन्दर कुछ गुटों में जब ऐसी उलझन फैली हुई थी, जो बहस के षौकीन थे, तब एक न एक तरह के विरोधी 'नेता' पार्टी को बहस में पड़ने के लिये जरूर मज़बूर करते।
और, हुआ भी यही।
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1. उक्रैन के सामाजिक क्रान्तिकारियों का वाम अंग, एक अंध राष्ट्रवादी पार्टी; 1918 तक वह
बरोत्बा नाम का मुख पत्र निकालती थी - अÛ अनुÛ
ट्रेड यूनियनों की भूमिका पर बहस शुरु हुई, हालांकि उस समय पार्टी नीति के लिये ट्रेड यूनियनें मुख्य समस्या न थीं।
बहस त्रात्स्की ने शुरु की और लेनिन के खिलाफ़, केन्द्रीय समिति के लेनिनवादी बहुमत के खिलाफ़ लड़ाई शुरु की। परिस्थिति को और पेचीदा बनाने के ख्याल से, पाँचवीं अखिल रूसी ट्रेड यूनियन कांफ्रेंस के कम्युनिस्ट प्रतिनिधियों की एक बैठक में जो नवम्बर 1920 के आरम्भ में हुई थी, उसने 'लगाम और खींचने' और 'ट्रेड यूनियनों के कान खिंचने' के सन्देह जनक नारे दिये। त्रात्स्की ने मांग कि 'ट्रेड यूनियनों का तुरंत सरकारी-करण' हो। मज़दूर वर्ग के सिलसिले में, वह समझाने-बुझाने के तरीके के खिलाफ था। वह इस पक्ष में था कि ट्रेड यूनियनों में फ़ौजी तरीके लागू किये जायें। वह उनमें जनवाद के प्रसार, ट्रेड यूनियन की संस्थाओं को चुनने के उसूल के खिलाफ़ था।
समझाने-बुझाने के तरीक़ों के बिना, मज़दूर वर्ग के संगठनों की कार्यवाही सोची भी नहीं जा सकती। लेकिन इन तरीकों के बदले, त्रात्स्कीवादी एकदम ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हुकुम चलाने के तरीके इस्तेमाल करने का सुझाव रखते थे। ट्रेड यूनियनों में, जहाँ भी वे प्रमुख जगहों में थे वहाँ, वे इस नीति को लागू करते थे और झगड़े पैदा करते थे ; यूनियनों में फूट और पस्ती पैदा करते थे। अपनी नीति से, त्रात्स्कीवादी आम गैर पार्टी मज़दूरों को पार्टी से भिड़ा रहे थे, मज़दूर वर्ग में फूट डाल रहे थे।
वास्तव में, ट्रेड यूनियनों का महत्व मज़दूर सभाई सवाल से ज्यादा था। जैसा कि रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की केन्द्रीय समिति की विस्तारित बैठक के 17 जनवरी 1925 के प्रस्ताव में आगे कहा गया था, बहस की जड़ यह थी कि "किसानों की तरफ़, जो युद्धकालीन कम्युनिज़्म का विरोध कर रहे थे, कौन सी नीति अपनायी जाये; आम गै़र पार्टी मज़दूरों की तरफ़ कौन सी नीति अपनायी जाये और आम तौर से जब गृह-युद्ध समाप्त हो रहा था, तब आम जनता की तरफ़ पार्टी का रुख क्या हो।" (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के प्रस्ताव, रूÛ संÛ, भाग 1, पृष्ठ 651)।
त्रात्स्की की अगुवाई में, दूसरे पार्टी-विरोधी गुट चले: 'मजदूर-विरोध' (शल्यापनीकोव, मेदवेद्येव कोलोन्तायी, वगै़रह) 'जनवादी-केन्द्रवादी' (साप्रोनोव, द्रोबनिस बोगुस्लाव्सी, आॅसिन्स्की, वÛ स्मिर्नोव, वगैरह), 'वाम पंथी कम्युनिस्ट' (बुखारिन, प्रेयोब्राजन्स्की)।
'मजदूर-विरोधी' ने यह मांग करते हुए नारा दिया कि समूचे अर्थतंत्र का संचालन एक 'अखिल रूसी उत्पादक कांग्रेस' को सौंप दिया जाये। वे चाहते थे कि पार्टी की भूमिका नहीं के बराबर रह जाये। आर्थिक विकास के लिये, वे सर्वहारा डिक्टेटरशिप का महत्व अस्वीकार करते थे। 'मजदूर-विरोध' का दावा था कि ट्रेड यूनियनों के हितों और सोवियत राज्य और कम्युनिस्ट पार्टी के हितों में विरोध है। उनका कहना था कि मज़दूर वर्ग के संगठन का सबसे ऊँचा रूप टेªड यूनियनें हैं, न कि पार्टी। 'मज़दूर-विरोध' बुनियादी तौर से एक अराजकतावादी - सिंडिकलवादी - पार्टी-विरोधी गुट था।
'जनवादी-केन्द्रवादियों' की मांग थी कि गुटों और दलों के लिये पूरी आज़ादी हो। त्रात्स्कीपंथियों की तरह, 'जनवादी-केन्द्रवादी' सोवियतों और ट्रेड यूनियनों में पार्टी के नेतृत्व को कमज़ोर बनाना चाहते थे। लेनिन ने 'जनवादी-केन्द्रवादियों' को 'गुल-गपाड़ा करने में खलीफ़ाओं' का गुट कहा था और उनकी नीति को समाजवादी क्रान्तिकारी-मेंशेविक नीति कहा था।
लेनिन और पार्टी के खिलाफ़ इस लड़ाई में त्रात्स्की का सहायक बुखारिन था। प्रेओब्राजन्स्की, सेरेब्रियाकोव और सोकोल्निकोव के साथ बुखारिन ने एक 'मध्यस्थ' गुट बनाया था। यह गुट त्रात्स्कीवादियों की हिमायत करता था और उनकी रक्षा करता था, जो कि सबसे गन्दे गुटबाज थे। लेनिन ने कहा था कि बुखारिन का व्यवहार 'सैद्धान्तिक पतन की हद' है। बहुत जल्द बुखारिनपंथी लेनिन के विरोध में त्रात्स्कीवादियों से मिल गये।
लेनिन और लेनिनवादियों ने अपना मुख्य प्रहार पार्टी-विरोधी गुटबन्दी की जड़ त्रात्स्कीपंथियों पर किया। उन्होंने त्रात्स्कीवादियों की निन्दा की कि वे ट्रेड यूनियनों और फ़ौजी संस्थाओं का भेद भूल जाते हैं और उन्हें चेतावनी दी कि ट्रेड यूनियनों में फौजी तरीके लागू नहीं किये जा सकते। लेनिन और लेनिनवादियों ने अपनी नीति रखी, जो विरोधी गुटों की नीति की भावना से बिल्कुल उल्टी थी। इस नीति के अनुसार, टेªड यूनियनों को षासन का स्कूल, प्रबन्ध करने का स्कूल, कम्युनिज्म़ का स्कूल बताया गया। इस नीति के अनुसार, ट्रेड यूनियनों की तमाम कार्यवाही का आधार समझाने-बुझाने का तरीका होना चाहिेये। तभी टेªड यूनियनें के आर्थिक अव्यवस्था खत्म करने के लिये तमाम मज़दूरों को उभार सकेंगी और उन्हें समाजवादी निर्माण के काम में लगा सकेंगी।
विरोधी गुटों के खिलाफ़, इस लड़ाई में पार्टी-संगठन लेनिन के चारों तरफ़ सिमट आये। मास्को में खास तौर से तीखा संघर्ष हुआ। यहाँ पर विरोधी दल ने अपनी मुख्य शक्ति लगा दी, जिससे कि राजधानी के पार्टी-संगठन पर उनका दखल हो जाये। लेकिन, मास्को के बोल्षेविकों के ज़ोरदार विरोध ने गुटबंदी की इन तमाम साजिशो को नाकाम कर दिया। उक्रैन के पार्टी-संगठनों में भी तीखा संघर्ष छिड़ गया। उस समय, उक्रैन की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के मंत्री काँमरेड मोलोतोव थे। उनके नेतृत्व में उक्रैन के बोल्शेविकों ने त्रात्स्कीवादियों और श्ल्याप्नीकोव पंथियों को परास्त किया। उक्रैन की कम्युनिस्ट पार्टी लेनिन की पार्टी की वफ़ादार समर्थक रही। बाकू में विरोधियों को परास्त करने का काम काँमरेड और्जोनिकित्से के नेतृत्व में हुआ। मध्य एशिया में पार्टी-विरोधी गुटों के खिलाफ़ काँमरेड कगानोविच ने संघर्ष का नेतृत्व किया।
पार्टी के सभी महत्वपूर्ण स्थानीय संगठनों ने लेनिन की नीति का समर्थन किया।
8 मार्च 1921 को, दसवीं पार्टी कांग्रेस शुरू हुई। पार्टी में 7,32,521 सदस्यों की तरफ से 694 वोट देने वाले प्रतिनिधि आये और 296 प्रतिनिधि राय ज़ाहिर करने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले थे। कांग्रेस ने ट्रेड यूनियनों पर बहस का निचोड़ सामने रखा और भारी बहुमत से लेनिन की नीति का समर्थन किया।
कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए, लेनिन ने कहा कि बहस फ़िजूल का ऐश थी। उन्होंने ऐलान किया कि दुश्मनों ने सोचा था कि पार्टी में अन्दरूनी संघर्ष छिड़ जायेगा और कम्युनिस्ट पार्टी मेंं फूट पड़ जायेगी।
यह महसूस करते हुए कि बोल्शेविक पार्टी और सर्वहारा डिक्टेटरशिप के लिये गुटबाज दलों का रहना कितना ज्यादा खतरनाक है, दसवीं कांग्रेस ने पार्टी एकता पर खास तौर से ध्यान दिया। इस सवाल पर, लेनिन ने रिपोर्ट पेश की। कांग्रेस ने सभी विरोधी गुटों की निन्दा की और घोषित किया कि वे 'दरअसल सर्वहारा क्रान्ति के वर्ग-शत्रुओं की मदद कर रहे थे।'
कांग्रेस ने आज्ञा दी कि सभी गुटबाज दलों को तुरंत भंग किया जाये और सभी पार्टी संगठनों को आज्ञा दी कि वे इस बारे में खुद सतर्क रहें कि कहीं गुटबन्दी शुरू न हो, और जो कांग्रेस का फ़ैसला न माने उसे बिना किसी शर्त के और तुरंत ही पार्टी से निकाल दिया जाये। कांग्रेस ने केन्द्रीय समिति को अधिकार दिया कि अगर उसी के सदस्य अनुशासन तोड़ें या गुटबन्दी फिर चालू करें या गुटबंदी बर्दाश्त करें तो उन्हें सभी तरह का पार्टी-दंड दिया जाये, जिसमें केन्द्रीय समिति से और पार्टी से निकालना भी शामिल था।
ये सभी फै़सले 'पार्टी एकता' पर एक विशेष प्रस्ताव में रखे गये थे, जिसे लेनिन ने पेश किया था और कांग्रेस ने मंजूर किया था।
इस प्रस्ताव ने सभी पार्टी सदस्यों को याद दिलाया था कि पार्टी की पाँति में एकता और दृढ़ता, सर्वहारा की हिरावल में एकमत का होना ऐसे समय पर खास तौर से जरूरी था जब दसवीं कांग्रेस के दौर में कई बातों से देश के मध्यवित्त लोगों में ढुलमुलपन बढ़ गया था।
प्रस्ताव में कहा गया था:
"इसके बावजूद, ट्रेड यूनियनों पर पार्टी की आम बहस से पहले ही गुटबन्दी के कुछ चिन्ह पार्टी में दिखाई देने लगे थे जैसे विभिन्न नीतियाँ लेकर गुट का बनना, एक हद तक अलग रहने और अपने ही गुट का अनुशासन क़ायम करने की कोशिश। तमाम वर्ग-चेतन मज़दूरों को साफ-साफ समझ लेना चाहिये कि किसी भी तरह की गुटबन्दी कितनी हानिकर है और उसके लिये हर्गिज इजाज़त नहीं दी जा सकती। अमल में, गुटबन्दी का लाजिमी नतीजा यह होता है कि सामूहिक काम कमजोर पड़ जाता है और पार्टी के दुश्मन, जो उससे इसलिये चिपके हुए हैं कि वह शासक पार्टी है, बार-बार और ज़ोरदार कोशिश करते हैं कि (पार्टी के अन्दर) फूट को और गहरा करें और क्रान्ति-विरोधी उद्देश्यों के लिये उसे इस्तेमाल करें।"
और भी, इसी प्रस्ताव में कांग्रेस ने कहा था:
"सर्वहारा के दुश्मन पूरी तरह से संगत कम्युनिस्ट लाइन से हर भटकाव का किस तरह फ़ायदा उठाते हैं, यह बहुत अच्छी तरह क्रोन्स्तात के विद्रोह में देखा गया। उस समय, दुनिया के सभी देशों के पूंजीवाद क्रान्ति-विरोधियों और ग़द्दारों ने तुरंत ही अपनी इच्छा प्रकट की थी कि वे सोवियत व्यवस्था के नारे मंजूर करने के लिये तैयार हैं। शर्त यही थी कि इस तरह वे रूस में सर्वहारा डिक्टेटरशिप का तख्ता उलट दें। और उस समय, क्रोन्स्तात में समाजवादी क्रान्तिकारियों और आम तौर से पूंजीवादी क्रान्ति-विरोधियों ने रूस की सोवियत सरकार के खिलाफ़ बग़ावत करने के नारे दिये, जो ऊपर से सोवियत सत्ता के हित में दिखाई देते थे। इन बातों से, पूरी तरह साबित होता है कि ग़द्दार कम्युनिस्टों का भेष धारण करने की कोशिश करते हैं और कर भी लेते हैं और कम्युन्स्टिों से भी ज्यादा 'वामपंथी' बनते है। उनका उद्देश्य सिर्फ़ यह होता है कि रूस में सर्वहारा क्रान्ति के गढ़ को कमज़ोर किया जाये और उसे खत्म किया जाये। क्रोन्स्तात का विद्रोह होने से पहले, पेत्रोग्राद में जो मेन्शेविक पर्चे बांटे गये, उनसे भी ज़ाहिर होता है कि रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के मतभेदों से मेंशेविकों ने किस तरह लाभ उठाया, जिससे कि वे क्रोन्स्तात के विद्रोहियों, समाजवादी क्रान्तिकारियों और ग़द्दारों को बढ़ावा दें और उनकी मदद करें जबकि उनका दावा यह है कि वे विद्रोह का विरोध करते हैं और सेवियत सत्ता के समर्थक हैं, सिर्फ़ थोड़ी हेर-फेर का ही भेद है।"
प्रस्ताव में कहा गया कि पार्टी को अपने प्रचार में विस्तार से बताना चाहिये कि पार्टी एकता के लिये और सर्वहारा के हिरावल के उद्देश्य की एकता के लिये गुटबन्दी कितनी हानिकर और खतरनाक है। सर्वहारा डिक्टेटरशिप की सफलता के लिये पार्टी एकता और सर्वहारा के हिरावल के उद्देश्य की एकता एक बुनियादी शर्त है।
दूसरी तरफ़, कांग्रेस के प्रस्ताव में कहा गया था कि पार्टी अपने प्रचार में यह समझाये कि सोवियत सत्ता के दुश्मनों ने जो नये दाँव-पेच इस्तेमाल किये थे, उनकी विशेषता क्या थी।
प्रस्ताव में कहा गया था:
"इन दुश्मनों ने समझ लिया है कि ग़द्दारों के खुले झंडे के नीचे क्रान्ति-विरोध की सफलता असंभव है। वे भरसक कोशिश कर रहे हैं कि रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दरूनी मतभेदों से फ़ायदा उठायें, और किसी न किसी तरह उन राजनीतिक गुटों के हाथ में, जो ऊपर से सोवियत सत्ता मानने के बिल्कुल नज़दीक हैं, सत्ता देकर क्रान्ति-विरोध को आगे बढ़ाये।" (लेनिन, संÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खंÛ 2, पृÛ 680)।
प्रस्ताव में आगे कहा गया था कि पार्टी को अपने प्रचार में "पिछली क्रान्तियों के सबक़ भी बताने चाहिये, जिनमें क्रान्ति-विरोधी आम तौर से उन निम्नपूंजीवादी गुटों का समर्थन कर चुके थे जो उग्र क्रान्तिकारी पार्टी के सबसे ज्यादा नज़दीक थे। क्रान्ति-विरोधियों का उद्देश्य होता था कि क्रान्तिकारी डिक्टेटरशिप को कमजोर करें और उसका तख्ता उलट दें, और इस तरह, आगे चलकर क्रान्ति-विरोध की पूरी जीत के लिये, पूंजीपतियों और जमींदारों की जीत के लिये रास्ता साफ कर दें।"
'पार्टी एकता' पर प्रस्ताव से मिलता-जुलता प्रस्ताव "हमारी पार्टी में सिंडिकलपंथी और अराजकतावदी भटकाव" पर था। इसे भी लेनिन ने पेश किया था और कांग्रेस ने उसे स्वीकार किया था। इस प्रस्ताव में, दसवीं कांग्रेस ने तथाकथित 'मजदूर-विरोध' की निन्दा की। कांग्रेस ने कहा कि अराजकतावादी-सिंडिकलपंथी भटकाव के विचारों का प्रचार कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता के साथ नहीं चल सकता और पार्टी का आह्वान किया कि इस भटकाव का जोरों से विरोध करे।
दसवीं कांग्रेस ने फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था की जगह ग़ल्ले के रूप में टैक्स लेने के बारे में नयी आर्थिक नीति (नेप) के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण फ़ैसला लिया।
युद्धकालीन कम्युनिज्म़ से नेप की तरफ़ यह मोड़, लेनिन की नीति की बुद्धिमानी और दूरदर्शिता की बहुत अच्छी मिसाल है।
कांग्रेस के प्रस्ताव में, फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था के बदले ग़ल्ले के रूप में टैक्स लेने का सवाल लिया गया। फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था के अनुसार जितना टैक्स बांधा गया था, ग़ल्ले के रूप में टैक्स उससे कम रखा गया। टैक्स की पूरी तादाद बसन्त की बुवाई के पहले हर साल बता देनी होगी। टैक्स कब देना होगा, इसकी तारीखें बहुत ही स्पष्ट रूप से बतानी होंगी। टैक्स के अलावा जितनी भी उपज हो, उसका उपयोग पूरी तरह किसान के हाथ में था। वह अपनी इच्छा से इस फ़ालतू उपज को बेच सकता था। अपने भाषण में, लेनिन ने कहा कि व्यापार करने की आज़ादी से देश में एक हद तक पहले पूंजीवाद उभरेगा। यह जरूरी होगा कि व्यक्तिगत व्यापार की आज्ञा दी जाये और व्यक्तिगत कारखानेदारों को छोटे धंधे करने दिये जायें। लेकिन, इस तरह से डर की कोई बात न थी। लेनिन का विचार था कि व्यापार में थोड़ी आज़ादी मिलने से किसान को आर्थिक पहलक़दमी का मौका मिलेगा, उसे पैदावार बढ़ाने की प्रेरणा मिलेगी और खेती में तेजी से उन्नति होगी। इस आधार पर जो उद्योग-धंधे राज्य के अधिकार में थे, वे बहाल किये जा सकेंगे और व्यक्तिगत पूंजी की जगह लेंगे। शक्ति और साधन इकट्ठा करने पर, समाजवाद की आर्थिक बुनियाद के रूप में, शक्तिशाली उद्योग-धंधे निर्मित हो सकेंगे और तब देहात में पूंजीवाद के अवशेष खत्म करने के लिये जमकर हमला किया जा सकेगा।
युद्धकालीन कम्युनिज्म शहर और देहात के पूंजीवादी तत्वों के क़िले को हल्ला बोलकर, सामने से धाबा करके लेने की कोशिश था। इस हमले में, पार्टी बहुत आगे निकल आयी थी और खतरा यह था कि आधार से उसका सम्बन्ध न टूट जाये। अब लेनिन ने प्रस्ताव किया कि थोड़ा पीछे हटा जाये, थोड़ी देर के लिये आधार के नज़दीक लौटा जाये, क़िले पर हल्ला बोलने के बदले घेरा डालने का धीमा तरीका अपनाया जाये, जिससे कि ताक़त बटोरी जा सके और फिर हमला किया जा सके।
त्रात्स्कीपंथियों और दूसरे अवसरवादियों का कहना था कि नेप पीछे हटने के सिवा और कुछ नहीं है। यह व्याख्या उनके मतलब की थी, क्योंकि उनकी लाइन पूंजीवाद को फिर बहाल करने की थी। नेप की यह व्याख्या बहुत ही हानिकर और लेनिनवाद-विरोधी थी। वास्तव में, नेप एक ही साल तक चालू रही थी कि लेनिन ने ग्यारहवीं पार्टी कांग्रेस में कहा था कि पिछे हटना खत्म हो गया है, और उन्होंने यह नारा दिया: "व्यक्तिगत पूंजी पर हमले की तैयारी!" (लेनिन ग्रंथवाली, रूÛसंÛ, खंÛ 27, पृÛ 213)।
विरोध करने वाले अधकचरे मार्क्सवादी थे और बोल्शेविक नीति के सवालों के बारे में महाअज्ञानी थे। वे न नेप का मतलब समझते थे, न नेप की शुरूआत में जो पीछे हटना शुरू हुआ था उसकी विशेषता समझते थे। नेप क्या थी, इसे हम ऊपर बतला चुके हैं। जहाँ तक पीछे हटने का सवाल है, पीछे हटना बहुत तरह का होता है। ऐसा समय आता है कि पार्टी या फौज़ को इसलिये पीछे हटाना होता है कि उसकी पराजय हुई है। ऐसी हालत में फ़ौज या पार्टी इसलिये पीछे हटती है कि नयी लड़ाइयों के लिये अपने को और अपनी पांति को बनाये रहे। जब नेप की शुरूआत हुई, तो लेनिन ने इस तरह से पीछे हटने का प्रस्ताव न किया था। कारण यह कि पराजित होना या मुसीबत में पड़ना तो दूर, पार्टी ने खुद गृह-युद्ध में हस्तक्षेपकारियों और ग़द्दारों को हराया था। लेकिन, ऐसा अवसर भी आता है जब कोई विजयी पार्टी या फ़ौज अपने पीछे आधार बनाये बिना प्रगति करती हुई बहुत आगे बढ़ जाती है। इससे भारी खतरा पैदा होता है। अपने आधार से नाता न टूट जाये, इसलिये अनुभवी पार्टी या फ़ौज ऐसी हालत में थोड़ा पीछे हटना, अपने आधार के थोड़ा नज़दीक लौटना और उससे ज्यादा सम्पर्क कायम करना जरूरी समझती है, जिससे कि वह तमाम आवश्यक चीजें पा सके और तब ज्यादा विश्वास और ज्यादा सफलता की गारंटी के साथ अपना आक्रमण जारी कर सके। लेनिन ने नयी आर्थिक नीति से अस्थायी रूप से इसी तरह पीछे हटना शुरू किया था। कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की चैथी कांग्रेस के सामने नेप शुरू करने के कारणों पर रिपोर्ट देते हुए लेनिन ने साफ़-साफ कहा था, "अपने आर्थिक हमले में हम बहुत आगे बढ़ आये थे, हमने अपने लिये पर्याप्त आधार न बनाया था" और इसलिये, अपनी पृष्ठभूमि मज़बूत करने के लिये अस्थायी रूप से पीछे लौटना ज़रूरी था।
विरोधियों की मुसीबत यह थी कि अपने अज्ञान की वजह से नेप के अनुसार पीछे हटने की इस विशेषता को वे न समझते थे, और जब तक जिन्दा रहे तब तक न समझ पाये।
नयी आर्थिक नीति पर, दसवीं कांग्रेस के फ़ैसलों ने समाजवाद के निर्माण के लिये मजदूर वर्ग और किसानों के टिकाऊ आर्थिक सहयोग को पक्का कर दिया।
कांग्रेस के एक दूसरे फ़ैसले से भी यह प्रमुख उद्देश्य पूरा होता था। यह फ़ैसला जातियों के सवाल पर था। काँमरेड स्तालिन ने जातियों के मसले पर रिपोर्ट पेश की। उन्होंने कहा कि हम लोगों ने जातीय उत्पीड़न खत्म कर दिया है, लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है। काम यह है कि पुराने जमाने की निकम्मी विरासत को दूर किया जाये, पहले के पीड़ित लोगों के आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पिछड़ेपन को दूर किया जाये। उन्हें इस तरह मदद देनी थी कि वे मध्य रूस के बराबर आ जाये।
काँमरेड स्तालिन ने और आगे जातियों के सवाल पर दो पार्टी-विरोधी भटकावों का ज़िक्र किया। एक तो प्रमुख जाति (बृहत् रूसी) का अंधराष्ट्रवाद था और दूसरा स्थानीय राष्ट्रवाद था। कांग्रेस ने दोनों भटकावों को कम्युनिज्म और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के लिये हानिकर और खतरनाक बता कर, उनकी निन्दा की। इसके साथ ही, उसने अपना मुख्य प्रहार बड़े खतरे, मुख्य जाति के अंधराष्ट्रवाद पर किया, यानी गै़ररूसी जातियों की तरफ़ ज़ारशाही में बृहत् रूसी अंधराष्ट्रवादियों ने जैसा रूख दिखाया था, दूसरी जातियों की तरफ़ उसके अवशेषों और बचे-खुचे प्रभाव पर मुख्य प्रहार किया।
3. नेप के प्रथम फल। ग्यारहवीं पार्टी कांग्रेस। सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ का निर्माण। लेनिन की बीमारी। लेनिन की सहकार योजना। बारहवीं पार्टी कांग्रेस।
पार्टी के ढुलमुल लोगों ने नयी आर्थिक नीति का विरोध किया। विरोध दो तरफ से होता था। पहले तो 'वामपंथी' हल्ला-गुल्ला करने वाले थे; लोमीनात्से, शात्स्किन, आदि जैसे राजनीतिक अजूबे भी थे, जो इस बात के 'सबूत' पेश करते थे कि नेप का मतलब है - अक्तूबर क्रान्ति से मिले हुए लाभ छोड़ देना, पूंजीवाद की तरफ़ लौट चलना और सोवियत सत्ता का पतन। अपनी राजनीतिक निरक्षरता और आर्थिक विकास के नियमों के अज्ञान की वजह से, ये लोग पार्टी की नीति न समझते थे। वे एकदम बदहवास हो गये और पस्ती और निराशा फैलाने लगे। दूसरे, ठेठ घुटने टेकने वाले लोग थे - त्रात्स्की, रादेक, ज़िनोवियेव, सकोल्निकोव, कामेनेव, श्लियापनीकोव, बुखारिन, राइकोव, वग़ैरह जैसे लोग, जिन्हें विश्वास न था कि हमारे देश का समाजवादी विकास हो सकता है। ये लोग पूंजीवाद को 'सर्वशक्तिमान' समझ कर, उसके सामने घुटने टेकते थे और सोवियत देश में पूंजीवाद की स्थिति मज़बूत करने के प्रयत्न में व्यक्तिगत पूंजी के लिये लम्बी-चैड़ी रियायतें मांगते थे। ये रियायतें देशी और विदेशी दोनों तरह की व्यक्तिगत पूंजी के लिये थी। वे मांग करते थे कि आर्थिक क्षेत्र में सोवियत सत्ता की कई अहम जगहें व्यक्तिगत पूंजीपतियों को दे दी जायें और ये पूंजीपति या तो रियायत पाने वाले, या मिलीजुली ज्वाइंट स्टाॅक कम्पनियों में राज्य के साझीदार की तरह काम करें।
दोनों ही दल मार्क्सवाद और लेनिनवाद के लिये ग़ैर थे।
पार्टी ने दोनों ही का पर्दाफ़ाश किया और उन्हें अकेला कर दिया। पार्टी ने बदहवासी फैलाने वालों और घुटना टेकने वालों की कड़ी आलोचना की।
पार्टी-नीति के इस विरोध ने एक बार फिर इस बात की याद दिलायी कि पार्टी से ढुलमुल लोगों को निकालना जरूरी है। इसलिये 1921 में केन्द्रीय समिति ने पार्टी की शुद्धि का संगठन किया, जिससे पार्टी को काफी मज़बूत करने में मदद मिली। शुद्धि का काम खुली सभाओं में, गै़रपार्टी जनता के सामने और उसके सहयोग से किया गया था। लेनिन ने सलाह दी कि पार्टी से पूरी तरह "बदमाशों, नौकरशाहों, बेईमान या ढुलमुल कम्युनिस्टों को और मेन्शेविकों को, जिन्होंने नया चेहरा लगा लिया है लेकिन जिनका दिल मेन्शेविक ही है" बाहर निकाल दिया जाये। (लेनिन, संÛग्रंÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खण्ड 2, पृÛ 746)।
कुल मिलाकर, 1,70,000 आदमियों या पूरे सदस्यों के लगभग 25 फ़ीसदी लोग शुद्धि के फलस्वरूप पार्टी से निकाल दिये गये।
शुद्धि से पार्टी बहुत मज़बूत हुई, उसकी सामाजिक बनावट सुधरी, आम जनता का विश्वास उसमें और बढ़ा और उसका मान-सम्मान ज्यादा हो गया। पार्टी के अन्दर भीतरी दृढ़ता आयी और अनुशासन सुधरा।
नयी आर्थिक नीति सही है, यह पहले ही साल में साबित हो गया था। उसकी मंजूरी से एक नये आधार पर मज़दूरों और किसानों का सहयोग मज़बूत करने में बहुत मदद मिली। सर्वहारा डिक्टेटशिप की शक्ति और बल बढ़ा। कुलक-डकैती पूरी तरह खत्म कर दी गयी। फ़ालतू अन्न लेने की व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी, इसलिये मध्यम किसानों ने कुलक जत्थों से लड़ने में सोवियत सरकार की मदद की। आर्थिक क्षेत्र में, सभी अहम जगहें - बड़े पैमाने के उद्योग-धंधे, यातायात के साधन, बैंक, जमीन, देशी और विदेशी व्यापार, सोवियत सरकार के हाथ में रहे। आर्थिक क्षेत्र में, पहले से अच्छी हालत की तरफ़ पार्टी ने मोड़ लिया। खेती जल्द ही उन्नति करने लगी। उद्योग-धंधों और रेलों को अपनी पहली सफलतायें मिलीं। आर्थिक पुनर्जागरण शुरू हुआ, जिसकी गति बहुत धीमी लेकिन बहुत निश्चित थी। मज़दूरों और किसानों ने महसूस किया और देखा कि पार्टी सही रास्ते पर है।
मार्च 1922 में, पार्टी की ग्यारहवीं कांग्रेस हुई। इसमें 5,32,000 पार्टी सदस्यों की तरफ़ से 522 वोटें देने वाले प्रतिनिधि आये। पार्टी सदस्यों की तादाद पिछली कांग्रेस से कम थी। 165 प्रतिनिधि बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले थे। पार्टी सदस्यों में कमी का सबब पार्टी की शुद्धि थी, जो तब तक शुरू हो चुकी थी।
इस कांग्रेस में, नयी आर्थिक नीति के पहले साल के नतीजों का पार्टी ने लेखा-जोखा लिया। इन नतीजों के आधार पर, लेनिन कांग्रेस में ऐलान कर सके:
"एक साल तक हम पीछे हटते आये हैं। पार्टी के नाम पर, अब हमें रुकना चाहिये। पीछे हटने का उद्देश्य पूरा हो चुका है। वह दौर खत्म हो गया है, या खत्म होने को है। अब हमारा उद्देश्य दूसरा है - अपनी शक्तियों को फिर से संगठित करना।" (उपÛ, पृष्ठ 782-83)।
लेनिन ने कहा कि नेप पूंजीवाद और समाजवाद के बीच जिन्दगी और मौत की लड़ाई थी। सवाल यह था 'कौन जीते?' हम जीतें, इसके लिये ज़रूरी था कि देहात और शहर के बीच माल की अदला-बदली को भरसक बढ़ाकर मज़दूर वर्ग और किसानों के सम्बन्ध को समाजवादी उद्योग-धंधों और किसानों की खेती के सम्बन्ध को सुरक्षित कर लिया जाये। इस उद्देश्य के लिये, प्रबंध करने की कला और सफल व्यापार करने की कला सीखना ज़रूरी था।
उस समय, पार्टी के सामने जो समस्याएँ थीं उनकी मुख्य कड़ी व्यापार थी। जब तक यह समस्या न हल होती, तब तक शहर और देहात के बीच माल के विनिमय को बढ़ाना असंभव होता, मज़दूरों और किसानों के आर्थिक सहयोग को दृढ़ करना, खेती को बढ़ाना या अव्यवस्था की हालत से उद्योग-धंधों को निकालना असंभव होता।
उस समय, सोवियत व्यापार अभी बहुत अविकसित था। व्यापार करने की व्यवस्था बहुत ही अपर्याप्त थी। कम्युनिस्टों ने अभी व्यापार की कला सीखी न थी। उन्होंने अपने दुश्मन - नेपमैंन1 - को जाँचा न था, और न यह सीखा था कि कैसे उसका मुक़ाबिला करना चाहिये। व्यक्तिगत व्यापारियों या नेपमैंनों ने सोवियत व्यापार की अविकसित दषा से फ़ायदा उठाया था, जिससे कि वे सूती कपड़ों या दूसरे माल के व्यापार में, जिसकी आम माँग हो, अपना सिक्का जमा लें। राज्य के व्यापार और सहकारी व्यापार का संगठन सबसे अधिक महत्व का हो गया था।
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1. नयी आर्थिक नीति (नेप) के शुरू के दिनों में व्यक्तिगत कारखानेदार, व्यापारी, या
मुनाफ़ाखोर - अंÛ अनुÛ।
ग्यारहवीं कांग्रेस के बाद, आर्थिक क्षेत्र में दूने ज़ोर के साथ काम शुरू हुआ। हाल में फ़सल न होने के असर को सफलता से दूर किया गया। किसानों की खेती में जल्द सुधार हुआ। रेलें पहले से अच्छा काम करने लगीं। अधिकाधिक कल-कारखाने चालू हुए।
अक्तूबर 1922 में, सोवियत प्रजातंत्र ने एक महान् विजय का समारोह मनाया। सोवियत देश के अंतिम भाग को, जो अभी तक हमलावरों के हाथ में था, व्लादीवस्तोक को लाल फ़ौज और सुदूरपूर्व के छापेमारों ने जापानियों के हाथ से छीन लिया।
सोवियत प्रजातंत्र की समूची धरती हस्तक्षेपकारियों से पाक कर दी गयी। समाजवादी निर्माण और देश की सुरक्षा की ज़रूरतों की माँग थी कि सोवियत जनता के संघ को और मज़बूत बनाया जाये। इसलिये, अब आवश्यकता पैदा हुई कि एक ही संघ-राज्य में सोवियत प्रजातंत्रों को और निकटता से गूँथा जाये। समाजवाद के निर्माण के लिये, जनता की सभी शक्तियों को मिलाना था। देश को अजेय बनाना था। ऐसी परिस्थिति तैयार करनी थी जिससे कि हमारे देश में हर जाति का चैमुखी विकास हो सके। इसके लिये ज़रूरी था कि सभी सोवियत जातियां एक ही संघ में एक-दूसरे के और निकट लाई जायें।
दिसम्बर 1922 में, सोवियतों की पहली अखिल संघीय कांग्रेस हुई। इसमें, लेनिन और स्तालिन के प्रस्ताव पर, सोवियत जातियों का एक स्वेच्छित राज्य संघ – सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ (सोÛसÛप्रÛसंÛ) बनाया गया। पहले सोÛसÛप्रÛसंÛ में रूसी सोवियत संघीय समाजवादी प्रजातंत्र (रूÛसोÛसंÛसÛप्रÛ), ट्रांस काॅकेशिया का सोवियत संघीय समाजवादी प्रजातंत्र (ट्रांÛसोÛसंÛसÛप्रÛ), उक्रैन का सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र (उÛसोÛसÛप्रÛ) और बेलोरूसिया का सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र (बेÛसोÛसÛप्रÛ) शामिल थे। कुछ दिन बाद, मध्य एशिया में तीन स्वतंत्र संघीय सोवियत प्रजातंत्र - उज़बेक, तुर्कमान और ताजिक प्रजातंत्र - बने। ये सभी प्रजातंत्र सोवियत राज्यों के एक ही संघ - सोÛसÛप्रÛसंÛ - में स्वेच्छा और समानता के आधार पर संयुक्त हुए हैं। इनमें से हरेक को यह अधिकार है कि वह आज़ादी से सोवियत संघ से अलग हो सकता है।
सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ के बनने का मतलब था सोवियत सत्ता का मज़बूत होना और जातियों के मसले पर बोल्शेविक पार्टी की लेनिनवादी-स्तालिनवादी नीति की महान् विजय।
नवम्बर 1922 में, मास्को-सोवियत के एक विस्तृत अधिवेशन में लेनिन ने एक भाषण दिया, जिसमें सोवियत शासन के पाँच वर्षों का लेखा-जोखा लिया और यह दृढ़ विश्वास प्रकट किया कि "नयी आर्थिक नीति का रूस, समाजवादी रूस बनेगा।" देश के लिये, उनका यह अंतिम भाषण था। उसी शरद् में, पार्टी पर भारी विपत्ति पड़ी: लेनिन बुरी तरह बीमार पड़ गये। समूची पार्टी और तमाम मेहनतकश जनता के लिये, उनकी बीमारी एक बहुत गहरा और व्यक्तिगत शोक थी। अपने प्रिय लेनिन के जीवन की चिंता से सभी लोग विचलित थे। लेकिन, बिमारी में भी लेनिन ने काम करना बन्द न किया। जब वह बहुत बिमार थे तब भी उन्होंने कई बहुत ही महत्वपूर्ण लेख लिखे। इन अंतिम रचनाओं में, अब तक के किये हुए काम का सिंहावलोकन किया और अपने देश में समाजवादी निर्माण के उद्देश्य के लिये किसानों का सहयोग प्राप्त करके समाजवाद के निर्माण के लिये एक योजना की रूपरेखा बनाई। इस रूपरेखा में उनकी सहकार योजना थी, जिससे कि समाजवाद के निर्माण में किसानों का सहयोग प्राप्त किया जा सके।
लेनिन की राय में, सहकारी समितियाँ आम तौर से और खेती की सहकारी समितियाँ खास तौर से अगली मंजिल की तरफ बढ़ने का एक साधन है। यह साधन छोटे व्यक्तिगत खेतों से लेकर पैदावार के बड़े पैमाने के संघों तक, या पंचायती खेतों तक लाखों किसानों की पहुँच और समझ के भीतर था। लेनिन ने बताया कि हमारे देश में खेती के विकास में जिस नीति पर चलना था, वह यह थी कि सहकारी समितियांें के ज़रिये समाजवाद के निर्माण में किसानों को खींचा जाये, पहले बेचने में और फिर खेती की उपज पैदा करने में, धीरे-धीरे खेती में पंचायती उसूल लागू किया जाये। लेनिन ने कहा था कि सर्वहारा डिक्टेटरशिप और मजदूर-किसान सहयोग होने पर, किसानों का सर्वहारा नेतृत्व पक्का होने पर और समाजवादी उद्योग-धंधे होने पर लाखों किसानों को समेटने वाली एक सुसंगठित उत्पादक सहकारी व्यवस्था एक मात्र साधन है, जिससे हमारे देश में पूरी तरह समाजवादी समाज का निर्माण हो सकता है।
अप्रैल 1923 में, पार्टी ने बारहवीं कांग्रेस की। बोल्षेविकों ने जबसे सत्ता संभाली, तबसे यह पहली कांग्रेस थी जिसमें लेनिन न आ सके थे। कांग्रेस में, 386,000 पार्टी सदस्यों की तरफ से 408 वोट देने वाले प्रतिनिधि आये थे। यह तादाद पहली कांग्रेस से कम थी। कमी का सबब यह था कि इस बीच पार्टी की शुद्धि चलती रही थी और उसके फलस्वरूप पार्टी सदस्यों की काफ़ी प्रतिषत संख्या निकाल दी गयी थी। 417 प्रतिनिधि बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले थे।
बारहवीं पार्टी कांग्रेस ने अपने फैसलों में उन सिफ़रिषों को रखा, जिन्हें लेनिन ने हाल के लेखों और खतों में पेश किया था।
कांग्रेस ने उन लोगों को कड़ी फटकार बताई जो नेप का मतलब समाजवादी उद्देष्य से पीछे हटना, पूंजीवाद के सामने आत्मसमर्पण करना समझते थे और जो पूंजीवादी गुलामी की तरफ़ लौट चलने का समर्थन करते थे। कांग्रेस में, इस तरह के प्रस्ताव त्रात्स्की के अनुयायियों, रादेक और क्रासेन ने रखे। उन्होंने सुझाव रखा कि हम अपने को विदेशी पूंजीपतियों की दया पर छोड़ दें, उन्हें रियायतें देकर, सोवियत राज्य के जीवन के लिये आवष्यक धंधे उन्हें सौंप कर, उनके सामने घुटने टेक दें। उनका प्रस्ताव था कि अक्तूबर क्रान्ति ने ज़ार सरकार के जो क़र्ज रद्द कर दिये थे, उन्हें भरा जाये। पार्टी ने इन समर्पणवादी प्रस्तावों को ग़द्दारी कह कर, उनकी निन्दा की। उसने रियायतें देने की नीति को ठुकराया नहीं, लेकिन उसे ऐसे धंधों के लिये ही ठीक समझा और उतनी ही हद तक ठीक समझा जिस हद तक सोवियत राज्य को फ़ायदा हो।
कांग्रेस से पहले ही, बुखारिन और सोकोल्निकोव ने प्रस्ताव किया था कि विदेशी व्यापार पर राज्य का इज़ारा खत्म कर दिया जाये। यह प्रस्ताव इस विचार पर निर्भर था कि नेप के माने पूंजीवाद के आगे घुटने टेकना है। लेनिन ने बुखारिन को मुनाफ़ेखोरों, नेपमैनों और कुलकांे का हिमायती कहा था। 12 वीं कांग्रेस ने विदेशी व्यापार के इज़ारे को कमज़ोर करने की कोशिशो को दृढ़ता से ठुकरा दिया।
कांग्रसे ने पार्टी पर किसानों के प्रति त्रात्स्की की ऐसी नीति लादने की कोशिश को भी ठुकरा दिया जो घातक होती। कांग्रेस ने कहा कि देश में छोटे पैमाने की खेती की बहुतायत एक सच्चाई है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। उसने जोर देकर कहा कि उद्योग-धंधों का विकास, जिसमें बड़े उद्योग-धंधों का विकास भी षामिल है, किसान जनता के हितों के खिलाफ़ हरगिज न चलना चाहिये। उसका आधार मज़दूरों से निकट सम्बन्ध होना चाहिये, यह विकास तमाम मेहनतकष जनता के हित में होना चाहिये। ये फैसले त्रात्स्की को जवाब थे, जिसने प्रस्ताव किया था कि उद्योग-धंधों का निर्माण किसानों का षोषण करके हो, और जो दरअसल मज़दूर-किसानों के सहयोग की नीति न मानता था।
साथ ही, त्रात्स्की ने यह भी प्रस्ताव रखा कि बड़े कारखाने, जैसे पुतिलोव, ब्रियान्स, वगै़रह जो कि देश की रक्षा के लिये महत्वपूर्ण थे, बन्द कर दिये जायें। बहाना यह था कि उनसे मुनाफा नहीं होता। कांग्रेस ने त्रात्स्की के इन प्रस्तावों को गुस्से के साथ ठुकरा दिया।
लेनिन के प्रस्ताव पर, जो कांग्रेस को लिखित रूप में भेजा गया था बारहवीं कांग्रेस ने पार्टी के केन्द्रीय कन्ट्रोल कमीषन और मजदूर-किसान निरीक्षण-समिति को एक ही संस्था में मिला दिया। इस संयुक्त संस्था को ये महत्वपूर्ण कार्य सौंपे गये थे - पार्टी-एकता की रक्षा करना, पार्टी और नागरिक अनुषासन को मज़बूत करना और सोवियत राज्य के यंत्र को हर तरह से उन्नत करना।
कांग्रेस के कार्यक्रम में एक महत्वपूर्ण बात जातियों का सवाल थी, जिस पर काँमरेड स्तालिन ने रिपोर्ट पेष की। काँमरेड स्तालिन ने जातियों के सवाल पर हमारी नीति के अंतर्राष्ट्रीय महत्व पर जोर दिया। पूरब और पच्छिम के सताये हुए लोगों के लिये सोवियत संघ जातीय प्रष्न के समाधान और जातीय उत्पीड़न के खात्मे का आदर्ष था। उन्होंने बताया कि सोवियत संघ की जातियों में आर्थिक और सांस्कृतिक असमानता को खत्म करने के लिये ज़ोरदार क़दम उठाना आवष्कता है। उन्होंने पार्टी को बुलावा दिया कि जातियों के सवाल पर होने वाले भटकावों के खिलाफ – वृहद् रूसी अंधराष्ट्रवाद और स्थानीय पूंजीवादी राष्ट्रवाद - के खिलाफ़ जम कर लड़े।
राष्ट्रवादी गुमराहों और उनकी प्रमुख जाति की नीति का, जिसे वे अल्पसंख्यक जातियों की तरफ बरतते थे, कांगे्रस में पर्दाफाश किया गया। उस समय, जाॅर्जिया के राष्ट्रवादी गुमराह मिदवानी वगै़रह पार्टी का विरोध कर रहे थे। वे ट्रांस काॅकेषिया का संघ बनाने के खिलाफ़ थे और ट्रांस काॅकेषिया की जातियों में भाईचारा बढ़ाने के खिलाफ़ थे। ये गुमराह जॅार्जिया की दूसरी जातियों की तरफ़ प्रमुख जाति के सीधे अंधराष्ट्रवादियों की तरह व्यवहार कर रहे थे। वे तिफ़लिस से गै़रजाॅर्जियन लोगों को, विषेषकर आर्मीनियनों को, सामूहिक रूप से निकाल रहे थे। उन्होंने क़ानून बना दिया था कि जाॅर्जियन औरतें गैरजाॅर्जियन लोगों से ब्याह करेंगी तो अपनी नागरिकता खो देंगी। त्रात्स्की, रादेक, बुखारिन, स्क्रिपनिक और रकोव्स्की जाॅर्जिया के राष्ट्रवादी गुमराहों का समर्थन करते थे।
कांग्रेस के थोड़े ही दिन बाद, जातीय प्रजातंत्रों से पार्टी-कार्यकर्ताओं की एक विषेष कांफ्रंेंस जातीय प्रष्न पर विचार करने के लिये बुलाई गयी। यहां सुल्तान गालियेव, वग़ैरह, तातार पूंजीवादी राष्ट्रवादियों के एक गुट, और फ़ैजुल्ला खोजायेव वग़ैरह, उज़बेक राष्ट्रवादी गुमराहों के एक गुट, का पर्दाफाश किया गया।
बारहवीं पार्टी कांग्रेस ने पिछले दो साल में नयी आर्थिक नीति के परिणामों की जाँच-पड़ताल की। ये परिणाम हौसला बढ़ाने वाले थे, और उनसे अंतिम विजय में विश्वास पैदा होता था।
काँमरेड स्तालिन ने कांग्रेस में कहा था:
"हमारी पार्टी की एकता और दृढ़ता क़ायम रही है। हमारी पार्टी एक महत्वपूर्ण मोड़ में खरी उतरी है, और जीत के झंडे फहराती हुई आगे बढ़ रही है।"
4.आर्थिक पुनर्संगठन की कठिनाईयों के खिलाफ़ संघर्ष।
त्रात्स्कीवादियों का अपनी कार्यवाही बढ़ाने के लिये
लेनिन की बीमारी से फ़ायदा उठाना। नयी पार्टी-बहस।
त्रात्स्कीपंथियों की हार। लेनिन की मृत्यु। लेनिन-भर्ती।
तेरहवीं पार्टी कांगे्रस।
राष्ट्रीय अर्थतंत्र को बहाल करने के संघर्ष ने पहले ही वर्षों में पर्याप्त फल दिये। 1924 तक, सभी क्षेत्रों में प्रगति दिखाई दी। 1921 के बाद, खेती का इलाका काफी बढ़ गया था। किसानों की खेती बराबर उन्नत हो रही थी। समाजवादी उद्योग-धंधे बढ़ रहे थे, और उनका प्रसार हो रहा था। मज़दूर वर्ग संख्या में बहुत बढ़ गया था। तनख्वाहें बढ़ गयी थीं। 1920 और 1921 के मुकाबिले में, मज़दूरों और किसानों के लिये जीवन आसान और सुन्दर हो गया था।
लेकिन, आर्थिक अव्यवस्था का असर अब भी महसूस होता था। उ़द्योग-धंधे युद्ध के पहले की सतह से अब भी नीचे थे, और उनका विकास देश की मांग के बहुत पीछे था। 1923 के अंत में, करीब दस लाख बेकार थे। राष्ट्रीय अर्थतंत्र इतने धीरे विकसित हो रहा था कि बेकारों को खपा न सकता था। व्यापार का विकास तैयार माल की बहुत बढ़ी-चढ़ी कीमतों से रुक रहा था। ये कीमतें नेपमैन और हमारे व्यापारी संगठनों के नेपमैन तत्व देश पर लाद रहे थे। इस वजह से, सोवियत रूबल बूरी तरह झकोले खाने लगा और उसका मूल्य गिरने लगा। इन कारणों से, मज़दूरों और किसानों की दशा सुधारने में बाधा पड़ती थी।
1923 की शरद् में, हमारे औद्योगिक और व्यापारी संगठनों द्वारा सोवियत की भाव सम्बन्धी नीति के उल्लंघन से आर्थिक कठिनाइयां कुछ बढ़ गयीं। तैयार माल की क़ीमत और खेतों की उपज की कीमत में बहुत बड़ा अंतर था। गल्ले की कीमत कम थी और तैयार माल की कीमत बेहद ऊंची थी। उद्योग-धंधों पर बहुत ज्यादा ऊपरी खर्च का भार था, जिससे माल की कीमत बढ़ जाती थी। किसानों को अपने गल्ले के लिये जो पैसा मिलता था, उसका मूल्य त़ेजी से गिरता गया। उधर त्रात्स्कीवादी प्याताकोव उस समय राष्ट्रीय अर्थतंत्र की प्रधान समिति में था। उसने प्रबंधकों और संचालकों को यह मुजरिमाना हुकुम दिया कि तैयार माल के बेचने से जितना मुनाफा खींच सकें, खींचे और जहां तक भाव ऊंचा कर सकें, करें। ऊपर से, उद्देश्य यह लगता था कि उद्योग-धंधों का विकास हो। लेकिन, इससे हालत और बदतर हुई। वास्तव में, इस नेपमैन की नीति से उद्योग-धंधों की बुनियाद संकुचित और कमज़ोर ही हो सकती थी। किसानों के लिये तैयार माल खरीदने में कोई लाभ न था, और उन्होंने उसे खरीदना बन्द कर दिया। नतीजा यह हुआ कि उद्योग-धंधों के लिये विक्रय-संकट पैदा हो गया। तनख्वाहें देने में कठिनाइयां पैदा हुई। इससे, मज़दूरों में असन्तोष भड़क उठा। ज्यादा पिछडे़ हुए मज़दूरों ने कुछ कारखानों में काम बन्द कर दिया।
पार्टी की केन्द्रीय समिति ने इन कठिनाइयों और असंगतियों को दूर करने के लिये क़दम उठाये। विक्रय-संकट दूर करने का उपाय किया गया। रोजाना खर्च में आने वाले माल का भाव कम कर दिया गया। फ़ैसला किया गया कि मुद्रा सम्बंधी सुधार किया जाये और एक पक्की और टिकाऊ मुद्रा की इकाई - चेरबोनेत्स - मंजूर की जाये। साधारण रूप से, तनख्वाहों का दिया जाना जारी हो गया। राज्य और सरकारी समितियों के ज़रिये व्यापार को बढ़ाने और व्यक्तिगत व्यापारियों और मुनाफाखोरों को हटाने के लिये उपायों की रूपरेखा बनाई गयी।
अब जरूरत इस बात की थी कि हर कोई इस मिली-जूली कोशिश में लग जाये, आस्तीने चढ़ा ले और जोश के साथ काम में लग जाये। जितने भी लोग पार्टी के प्रति वफ़ादार थे, उन्होंने ऐसा ही सोचा और किया। लेकिन, त्रात्स्कीवादियों की बात दूसरी थी। लेनिन भारी बीमारी की वजह से काम न कर सकते थे। उनकी अनुपस्थिति से उन्होंने पार्टी और उसके नेतृत्व पर नया हमला करने के लिये लाभ उठाया। उन्होंने तय किया कि पार्टी को तोड़ने और उसके नेतृत्व को पछाड़ने के लिये यह उपयुक्त घड़ी है। पार्टी के खिलाफ़ उन्हें जो भी हथियार मिला, उन्होंने चलाया ः जर्मनी और बलगारिया में 1923 की शरद् में क्रांति की पराजय, घर में आर्थिक कठिनाइयां और लेनिन की बीमारी। सोवियत राज्य की इस कठिन घड़ी में जब पार्टी के नेता रोग-शैया पर थे, त्रात्स्की ने बोल्शेविक पार्टी पर अपना हमला शुरू किया। पार्टी के भीतर जितने भी लेनिनवाद-विरोधी थे, उन सबको बटोरा और पार्टी, उसके नेतृत्व और उसकी नीति के खिलाफ़ एक विरोधी दल भी जोड़-तोड़ कर बना डाला। इस दल की नीति 46 विरोधियों की घोषणा कहलाती थी। लेनिनवादी पार्टी से लड़ने के लिये सभी विरोधी गुट - त्रास्कीपंथी, जनवादी केन्द्रवादी, 'वामपंथी कम्युनिस्ट', और 'मज़दूर-विरोधी' गुटों के बचे-खूचे लोग-मिल गये। अपनी घोषणा में, उन्होंने भविष्यवाणी की कि घोर आर्थिक संकट आनेवाला है और सोवियत सत्ता खतम हो जायेगी। उन्होंने मांग की कि इस परिस्थिति से बचने का एक ही तरीका है कि दल और गुट बनाने की आज़ादी दी जाये।
यह फिर से दलबन्दी बहाल करने के लिये संघर्ष था, जिस पर दसवीं पार्टी कांग्रेस ने लेनिन के प्रस्ताव पर रोक लगा दी थी।
त्रात्स्कीवादियों ने खेती या उद्योग-धंधों के सुधार के लिये, बिकाऊ माल के चलन के सुधार के लिये, या मेहनतकश जनता की हालत सुधारने के लिये एक भी निश्चित प्रस्ताव न किया। इससे उन्हें दिलचस्पी तक न थी। उन्हें सिर्फ़ एक बात से दिलचस्पी थी कि लेनिन की ग़ैरहाजिरी से फ़ायदा उठाकर पार्टी में फिर से गुटबन्दी बहाल की आये, उसकी जडें खोदी जायें और उसकी केन्द्रीय समिति को कमज़ोर बनाया जाये।
46 लोगों की घोषणा के बाद, त्रात्स्की ने एक ख़त छापा जिसमें उसने पार्टी कार्यकर्ताओं को गलियां दीं और पार्टी के खिलाफ़ नये कीचड़ उछालनेवाले आरोप लगाये। इस ख़त में, त्रात्स्की ने फिर भी वही मेन्शेविक राग अलापे जो पार्टी उससे बहुत पहले सुन चुकी थी।
सबसे पहले त्रात्स्कीवादियों ने पार्टी मशीन पर हमला किया। वे जानते थे कि एक मज़बूत ढांचे के बिना पार्टी जीवित नहीं रह सकती, और न काम कर सकती है। विरोधियों ने कोशिश की कि पार्टी के ढांचे को कमज़ोर कर दें और तोड़ दें, पार्टी सदस्यों को उससे भिड़ा दें और नये सदस्यों को पार्टी के पुराने महारथियों से लड़ा दें। इस ख़त में, त्रात्स्की ने विद्यार्थियों को उभारा, नौजवान पार्टी सदस्यों को उभारा, जो अभी तक त्रात्स्कीवाद के खिलाफ़ पार्टी की लड़ाई के इतिहास से परिचित न थे। विद्यार्थियों का समर्थन पाने के लिये, त्रात्स्की ने उनकी तारीफ़ करते हुए उन्हें पार्टी का पक्का 'तापमान यंत्र' बतलाया और साथ ही यह भी कहा कि पुराने लेनिनवादी नेताओं का पतन हो चुका है। दूसरी इन्टरनेशनल के नेताओं के पतन का हवाला देते हुए, उसने यह गन्दा इशारा किया कि पुराने बोल्शेविक नेता भी उसी रास्ते जा रहे हैं। पार्टी के पतन के बारे में यह शोरगुल मचा कर, त्रात्स्की ने खुद अपने पतन और अपनी पार्टी-विरोधी साजिशों पर पर्दा डालना चाहा।
त्रात्स्कीवादियों ने दोनों ही विरोधी दस्तावेज घुमाये: 46 विरोधियों की घोषणा, और त्रात्स्की का ख़त। उन्होंने इन लेखों को जिलों में और पार्टी केन्द्रों में घुमाया और पार्टी सदस्यों के सामने बहस के लिये रखा।
उन्होंने बहस के लिये पार्टी को चुनौती दी।
इस तरह, त्रात्स्कीवादियों ने पार्टी को एक आम बहस में पड़ने के लिये मज़बूर किया, ठीक जैसे कि सदवीं पार्टी कांग्रेस से पहले ट्रेड यूनियनों के सवाल पर बहस के सिलसिले में किया था।
हालांकि पार्टी देश के आर्थिक जीवन की कहीं अधिक महत्वपूर्ण समस्याओं में लगी हुई थी, लेकिन उसने चुनौती स्वीकार कर ली और बहस शुरू कर दी।
सारी पार्टी बहस में लग गयी। संघर्ष ने बहुत ही कटु रूप धारण किया। सबसे तीख़ा संघर्ष मास्को में था, क्योंकि त्रात्स्कीवादियों की सबसे ज्यादा कोशिश यही थी कि राजधानी के पार्टी-संगठन पर क़ब्जा कर लें। लेकिन, इससे उन्हीं के मुंह पर कालिख पुत गयी। मास्को में, और सोवियत संघ के दूसरे हिस्सो में भी उन्हें बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। सिर्फ़ विश्वविद्यालयों और दफ्तरों के कुछ केन्द्रों ने ही त्रात्स्कीवादियों को कुछ वोट दिये।
जनवरी 1924 में, पार्टी ने अपनी तेरहवीं कान्फ्रेन्स की। कान्फ्रेन्स ने बहस के नतीजों का सार रूप देते हुए, काँमरेड स्तालिन की रिपोर्ट सुनी। कान्फ्रेन्स ने त्रात्स्कीवादी-विरोध की निन्दा की और उसे मार्क्सवाद से निम्नपूंजीवादी भटकाव बतलाया। कान्फ्रेन्स के फ़ैसलों को आगे चलकर, तेरहवीं पार्टी कांग्रेस ने और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की पांचवीं कांग्रेस ने अनुमोदीत किया। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट सर्वहारा ने त्रात्स्कीवाद के खिलाफ़ संघर्ष में बोल्शेविक पार्टी का समर्थन किया।
लेकिन, त्रात्स्कीवादी अपनी तोड़-फोड़ की हरकतों से बाज़ न आये। 1924 की शरद् में, त्रात्स्की ने "अक्तूबर की शिक्षा" नाम का एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें उसने त्रात्स्कीवाद को लेनिनवाद की जगह देने की कोशिश की। हमारी पार्टी और उसके नेता लेनिन पर कीचड़ उछालने के सिवा यह और कुछ न था। कम्युनिज्म और सोवियत सत्ता के तमाम दुश्मनों ने इस कीचड़-उछाल पर्चे को हाथों-हाथ लिया। बोल्शेविज्म के वीर इतिहास के इस तरह बेहयाई से तोड़ने-मरोड़ने पर, पार्टी को बेहद गुस्सा आया। काँमरेड स्तालिन ने त्रात्स्कीवाद को लेनिनवाद की जगह रखने की इस कोशिश की तीव्र निन्दा की। उन्होंने कहा कि "यह पार्टी का कर्तव्य है कि एक सैद्धांतिक रुझान के रूप में त्रात्स्कीवाद को दफ़ना दे।"
विचारधारा के रूप में, त्रात्स्कीवाद की हार और लेनिनवाद के समर्थन में काँमरेड स्तालिन की सैद्धांतिक रचना लेनिनवाद के मूलसिद्धांत जो 1924 में प्रकाशित हुई, एक प्रभावशाली देन थी। यह पुस्तक लेनिनवाद की उत्कृष्ट व्याख्या और सिद्धांत में उसका ज़बर्दस्त समर्थन है। यह रचना दुनियाभर के बोल्शेविकों के हाथ में मार्क्सवादी सिद्धांत का कारगर हथियार थी और आज भी है।
त्रात्स्कीवाद के खिलाफ़ संघर्षों में, काँमरेड स्तालिन ने पार्टी को उसकी केन्द्रीय समिति के चारों तरफ़ समेटा और हमारे देश में समाजवाद की विजय के लिये संघर्ष करने में उसे बटोरा। काँमरेड स्तालिन ने साबित किया कि अगर समाजवाद की तरफ़ सफलतापूर्वक प्रगति निश्चिित करनी है, तो त्रात्स्कीवाद का एक सिद्धांत के रूप में विनाश जरूरी है।
त्रात्स्कीवाद के खिलाफ़ संघर्ष के इस दौर का सिंहावलोकन करते हुए, काँमरेड स्तालिन ने कहा:
"जब तक त्रात्स्कीवाद पछाड़ा नहीं जाता, तब तक नेप की परिस्थितियों में विजय पाना असंभव होगा; आज के रूस को समाजवादी रूस में बदलना असंभव होगा।"
लेकिन पार्टी की लेनिनवादी नीति को जो सफलतायें मिलीं, उन पर पार्टी और मज़दूर वर्ग के लिये एक महान् दुखद घटना की काली छाया पड़ी। 21 जनवरी 1924 को मास्को के पास गोर्की नाम के गांव में, बोल्शेविक पार्टी के निर्माता, हमारे नेता और शिक्षक लेनिन का देहान्त हो गया। तमाम दुनिया के मज़दूर वर्ग ने लेनिन की मृत्यु को एक बहुत ही दुखदायी घटना के रूप में लिया। लेनिन की शव-यात्रा के दिन अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा ने पांच मिनट तक काम बन्द रखने का ऐलान किया। रेलें, मिलें, और कारखाने बन्द हो गये। जब लेनिन को समाधि-स्थान की तरफ़ ले जाया गया, तब तमाम दुनिया की श्रमिक जनता ने अपने सबसे अच्छे मित्र और रक्षक, अपने शिक्षक और पिता लेनिन को अपने असहनीय दुःख की श्रद्धंाजलि अर्पित की।
लेनिन की मृत्यु पर, सोवियत संघ का मज़दूर वर्ग और भी मज़बूती से लेनिनवादी पार्टी के चारों तरफ़ सिमट आया। उन शोक के दिनों में, हर वर्ग-वेतन मज़दूर ने कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ, लेनिन के निर्देशों को अमल में लाने वाली पार्टी की तरफ अपना रुख स्पष्ट किया। पार्टी की केन्द्रीय समिति के पास मज़दूरों की हजारों-हजार अर्जियां पार्टी में भर्ती होने के लिये आयीं। केन्द्रीय समिति ने आगे बढे़ हुए मज़दूरों के इस आन्दोलन का स्वागत किया, और लेनिन-भर्ती की घोषणा की - पार्टी की पांति में आगे बढे़ हुए मज़दूरों की भर्ती की घोषणा की। हजारों-हजार मज़दूर पार्टी के अन्दर आये। ये ऐसे लोग थे जो पार्टी के उद्देश्य के लिये, लेनिन के उद्देश्य के लिये अपनी जान देने को तैयार थे। थोडे़ ही दिनों में, 2,40,000 से ऊपर मज़दूर बोल्शेविक पार्टी की पांति में शामिल हो गये। मज़दूर वर्ग के ये प्रमुख हिस्से थे; सबसे वर्ग-चेतन और क्रांतिकारी, सबसे ज्यादा साहसी और अनुशासन मानने वाले थे। यही लेनिन-भर्ती थी।
लेनिन की मृत्यु से जो प्रतिक्रिया हुई, उसने दिखा दिया कि आम जनता से हमारी पार्टी का सम्बन्ध कितना निकट है और मज़दूरों के दिल में लेनिनवादी पार्टी कितना ऊंचा स्थान रखती है।
लेनिन के लिये शोक के दिनों में, काँमरेड स्तालिन ने सोवियत संघ की सोवियतों की दूसरी कांग्रेस में पार्टी के नाम पर एक गंभीर प्रतिज्ञा की। उन्होंने कहा:
"हम कम्युनिस्ट एक खास सांचे में ढले हुए लोग हैं। हमारा निर्माण कुछ विशेष तत्वों से हुआ है। हम वह हैं जो महान् सर्वहारा रण-विशारद की फ़ौज, काँमरेड लेनिन की फ़ौज हैं। मनुष्य के लिये इस फ़ौज का सैनिक होने से ज्यादा गौरव की बात दूसरी नहीं है। जिस पार्टी के जन्मदाता और नेता काँमरेड लेनिन हैं, उसके सदस्य बनने से ज्यादा गौरव की बात और दूसरी नहीं है। ...
"हमसे विदा होते हुए, काँमरेड लेनिन ने आज्ञा दी थी कि हम पार्टी सदस्य के महान् नाम को ऊंचा रखें और उसकी पवित्रता की रक्षा करें। काँमरेड लेनिन, हम आपसे प्रतिज्ञा करते हैं कि हम आपकी इस आज्ञा को सम्मान सहित पूरी करेंगे!...
"हमसे विदा होते हुये, कामरेड लेनिन ने आज्ञा दी थी कि आंख की पुतली की तरह हम अपनी पार्टी की एकता की रक्षा करें। कामरेड लेनिन, हम आपसे प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस आज्ञा को भी सम्मान सहित पूरी करेंगे!...
"हमसे विदा होते हुए, काँमरेड लेनिन ने आज्ञा दी थी कि हम सर्वहारा डिक्टेटरशिप को दृढ़ करें और उसकी रक्षा करें। काँमरेड लेनिन, हम आपसे प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस आज्ञा को भी सम्मान सहित पूरी करने में कुछ उठा न रखेंगे!...
"हमसे विदा होते हुये, कामरेड लेनिन ने आज्ञा दी थी कि हम अपनी पूरी शक्ति से मज़दूरों और किसानों के सहयोग को दृढ़ करें। कामरेड लेनिन, हम आपसे प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस आज्ञा को भी सम्मान सहित पूरी करेंगे!...
"काँमरेड लेनिन ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया था कि अपने देश की जातियों के स्वेच्छा से बने हुए संघ को बनाये रखना ज़रूरी है, प्रजातंत्र संघ के ढांचे के अन्दर जातियों के भाईचारे के सहयोग को बनाये रखना ज़रूरी है। हमसे विदा होते हुए, काँमरेड लेनिन ने आज्ञा दी थी कि हम प्रजातंत्रों के संघ को दृढ़ करें और उसका प्रसार करें। काँमरेड लेनिन, हम आपसे प्रतिज्ञा करते हैं कि हम इस आज्ञा को भी सम्मान सहित पूरी करेंगे!...
"कई बार लेनिन ने हमें बताया था कि लाल फ़ौज को मज़बूत करना और उसकी हालत सुधारना हमारी पार्टी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कर्तव्य है।... साथियों, आओ, हम प्रतिज्ञा करें कि हम अपनी लाल फ़ौज और लाल जल-सेना को मज़बूत बनाने में कुछ भी न उठा रखेंगे!...
"हमसे विदा होते हुए, काँमरेड लेनिन ने आज्ञा दी थी कि हम कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के उसूलों के प्रति वफ़ादार रहें काँमरेड लेनिन, हम आपसे प्रतिज्ञा 330 सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास करते हैं कि तमाम दुनिया के मेहनतकशों के संघ, कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल, को मज़बूत करने और उसका विस्तार करने में हम अपने प्राणों की बाज़ी लगा देंगे!"
बोल्शेविक पार्टी ने यह प्रतिज्ञा अपने नेता लेनिन के प्रति की थी, जिनकी स्मृति युगों-युगों तक जीवित रहेगी।
मई 1924 में, पार्टी की तेरहवीं कांग्रेस हुई। इसमें 7,35,881 पार्टी सदस्यों की तरफ़ से, 748 वोट देनेवाले प्रतिनिधि आये थे। पिछली कांगे्रस की तुलना में, इस स्पष्ट बढ़ती का कारण लेनिन-भर्ती में ढाई लाख नये सदस्यों का पार्टी में आना था। 416 प्रतिनिधि बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले थे।
कांगे्रस ने एक राय होकर त्रात्स्कीवादी विरोध नीति का खण्डन किया और उसे मार्क्सवाद से निम्नपूंजीवादी भटकाव, लेनिनवाद का संशोधन बतलाया। कांग्रेस ने 'पार्टी मामलों' और 'बहस के नतीजों' पर 13वीं पार्टी कान्फ्रेन्स के प्रस्तावों का अनुमोदन किया।
देहात और शहर का सम्बन्ध मज़बूत करने के लिये, कांगे्रस ने निर्देश किया कि उद्योग-धंधों को, सबसे पहले हल्के उद्योग-धंधों को और फैलाया जाये और लोहे और इस्पात के धंधों को तुरंत बढ़ाने की ज़रूरत पर विशेष ज़ोर दिया जाये।
कांग्रेस ने घरेलू व्यापार के जन-कमीसार-मण्डल के बनने का अनुमोदन किया। उसने व्यापारी संस्थाओं के सामने यह काम रखा कि वे बाज़ार का नियंत्रण अपने हाथ में लें और व्यापार के क्षेत्र से व्यक्तिगत पूंजी को बाहर निकालें।
कांग्रेस ने किसानों को सस्ती दर पर राज्य की तरफ़ से और ज्यादा कर्ज़ देने का निर्देश किया, जिससे कि देहातों से सूदखोरों को निकाला जा सके।
कांगे्रस ने किसानों के अन्दर सहकारी आन्दोलन के ज्यादा से ज्यादा विकास के लिये आह्वान किया, और इस आन्दोलन को ही गांवों के अन्दर मुख्य काम बताया।
अंत में, कांग्रेस ने लेनिन-भर्ती के गंभीर महत्व पर ज़ोर दिया, और इस आवश्यकता की तरफ़ पार्टी का ध्यान खींचा कि नौजवान पार्टी सदस्यों-और सबसे अधिक लेनिन-भर्ती में आये हुए लोगों-को लेनिनवाद के सिद्धांतों की शिक्षा देने के लिये और ज्यादा कोशिश की जाये।
5. पुनर्संगठन के दौर के खात्में की तरफ़ सोवियत संघ।
समाजवादी निर्माण और हमारे देश में समाजवाद की
विजय का सवाल। जिनोवियेव-कामेनेव का 'नया विरोध'।
चैदहवीं पार्टी कांगे्रस। देश के समाजवादी औद्योगीकरण
की नीति।
नयी आर्थिक नीति के अनुसार मेहनत से काम करते हुए, बोल्शेविक पार्टी और मज़दूर वर्ग को चार साल से ऊपर हो गये थे। आर्थिक पुनर्संगठन का वीरतापूर्ण काम अब खत्म होने को था। सोवियत संघ की आर्थिक और राजनीतिक शक्ति बराबर बढ़ रही थी।
इस समय तक, अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में तब्दीली हो चुकी थी। साम्राज्यवादी युद्ध के बाद, पूंजीवाद आम जनता के पहले क्रांतिकारी हमले को सह चुका था। जर्मनी, इटली, बलगारिया, पोलैण्ड, और दूसरे कई देशों में क्रांतिकारी आन्दोलन दबा दिया गया था। इस काम में पूंजीपतियों को समझौतावादी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियों के नेताओं से मदद मिली थी। कुछ समय के लिये, क्रांति का ज्वार मन्द पड़ रहा था। पच्छिमी यूरोप में, कुछ समय के लिये अंाशिक रूप से पूंजीवाद संभल गया था; आंशिक रूप से पूंजीवाद की स्थिति मज़बूत हुई थी। लेकिन, पूंजीवाद के संभलने से पूंजीवादी समाज का विघटन करने वाली बुनियादी असंगतियां दूर न हुई। इसके विपरीत, आंशिक रूप से पूंजीवाद के संभलने से मज़दूरों और किसानों का विरोध, साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक जातियों का विरोध, विभिन्न्ा देशों के साम्राज्यवादी गुटों का विरोध और बढ़ गया। पूंजीवाद के संभलने से अंतर्विरोधों के नये विस्फोट के लिये, पूंजीवादी देशों में नये संकटों के लिये बारूद बिछायी जा रही थी।
पूंजीवाद के संभलने के साथ-साथ, सोवियत संघ की हालत भी संभल रही थी। लेकिन, संभलने के इन दो कामों का रूप बुनियादी तौर से भिन्न्ा था। पूंजीवादी संभलने से, पूंजीवाद के एक नये संकट की अगवानी की सूचना मिलती थी। सोवियत संघ के संभलने का मतलब था-सोवियत देश की आर्थिक और राजनीतिक शक्ति की और बढ़ती। पच्छिम में क्रांति की पराजय के बावजूद, अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सोवियत संघ की स्थिति और मज़बूत होती गयी, हालांकि यह सही है कि उसकी रफ़्तार और धीमी हो गयी।
1922 में, जिनोआ, इटली में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में सोवियत संघ बुलाया गया। पूंजीवादी देशों में क्रांति की पराजय से शेर होकर, साम्राज्यवादी हुकूमतों ने जिनोआ-सम्मेलन में सोवियत संघ पर नया दबाव, इस बार कूटनीतिक रूप में, डालने की कोशिश की। साम्राज्यवादियों ने सोवियत प्रजातंत्र के सामने बदतमीज़ी भरी मांगें पेश कीं। उन्होंने मांग की कि अक्तूबर क्रांति से जिन कल-कारखानों का राष्ट्रीयकरण हो गया था, वे विदेशी पूंजीपतियों को लौटा दिये जायें। उन्होंने मांग की कि ज़ार सरकार को दिया हुआ ऋण भरा जाये। इसके बदले, साम्राज्यवादी रियासतों ने वायदा किया कि वे सोवियत राज्य को छोटी-मोटी रकमें उधार दे देंगे।
सोवियत संघ ने ये मांगें ठुकरा दीं।
जिनोआ-सम्मेलन निष्फल रहा।
अंग्रेजों के विदेश-मंत्री लाॅर्ड कर्जन ने 1923 में नये हस्तक्षेप की धमकी देते हुए चेतावनी (अल्टीमेटम) दी। उसे भी माकूल मंुहतोड़ जवाब दिया गया।
सोवियत राज्य की शक्ति का परिचय पाकर और उसके टिकाऊपन के बारे में विश्वास जमने पर, एक के बाद एक पूंजीवादी रियासतों ने हमारे देश के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध क़ायम करना शुरू किया। 1924 में, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, और इटली के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल हुये।
ज़हिर था कि सोवियत संघ को सांस लेने के लिये लम्बा अवकाश शांति की अवधि मिली थी।
घरेलू स्थिति भी बदली। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में मज़दूरों और किसानों ने जो आत्मबलिदान किया था, वह सफल हुआ। राष्ट्रीय अर्थतंत्र तेज़ी से विकसित हो रहा है, यह स्पष्ट था। 1924-'25 के आर्थिक वर्ष में, खेती की उपज युद्ध के पहले की सतह के नजदीक पहंुच गयी थी। अब वह युद्ध से पहले की उपज की 87 फ़ीसदी थी। 1925 में सोवियत संघ के बडे़ उद्योग-धंधे युद्ध के पूर्व की औद्योगिक उपज की लगभग तीन-चैथाई पैदा कर रहे थे। 1924-'25 के आर्थिक वर्ष में, सोवियत 38,50,00,000 रूबल बडे़ निर्माण-कार्यों में लगा सका। देश में बिजली लगाने की योजना सफलता से आगे बढ़ रही थी। राष्ट्रीय अर्थतंत्र के मुख्य स्थानों पर समाजवाद अपनी स्थिति मज़बूत कर रहा था। उद्योग-धंधों और व्यापार में, व्यक्तिगत पूंजी के खिलाफ़ संघर्ष में महत्वपूर्ण सफलतायें मिली थीं।
आर्थिक प्रगति के साथ-साथ, मज़दूरों और किसानों की स्थिति में और सुधार हुआ। मज़दूर वर्ग तेज़ी से बढ़ रहा था। तनख्वाह बढ़ गयी थी और उसके साथ, श्रम की उत्पादकता भी बढ़ गयी थी। किसानों का जीवन-स्तर बहुत सुधर गया था। 1924-'25 में, मज़दूर-किसान राज्य छोटे किसानों की मदद के लिये लगभग 29 करोड़ रूबल नियत कर सका। मज़दूरों और किसानों की स्थिति सुधरने से, आम जनता की राजनीतिक कार्यवाही और बढ़ी। सर्वहारा डिक्टेटरशिप अब और मज़बूत हो गयी। बोल्शेविक पार्टी का मान-सम्मान तथा प्रभाव और बढ़ गया।
राष्ट्रीय अर्थतंत्र के पुनर्संगठन का काम पूरा होने को था। लेकिन, सोवियत संघ के लिये, समाजवाद का निर्माण करते हुए, देश के लिये सिर्फ आर्थिक रूप से बहाल होना, युद्ध के पूर्व की सतह तक पहुंचना ही काफी न था युद्ध के पूर्व की सतह एक पिछडे़ हुए देश की सतह थी। उससे आगे प्रगति करनी थी। सोवियत राज्य को सांस लेने के लिये जो लम्बा अवकाश मिला था, उससे अगले विकास की संभावना पक्की होती थी।
लेकिन, इससे एक सवाल जोरों से सामने आया; हमारे विकास, हमारे निर्माण की दिशा क्या होगी, उसका रूप क्या होगा? सोवियत संघ में समाजवाद का भविष्य क्या है? सोवियत संघ में आर्थिक विकास किस ओर होगा; समाजवाद की दिशा में, या और किसी तरफ? हम समाजवादी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करें, और कर भी सकते हैं या नहीं, या हमारी तक़दीर में किसी दूसरी आर्थिक व्यवस्था के लिये, पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था के लिये खाद डालना ही बदा है? क्या सोवियत संघ में समाजवादी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना मुमकिन भी है, और अगर है तो क्या पूंजीवादी देशों में क्रांति के विलम्ब के बावजूद, पूंजीवाद के संभलने के बावजूद, उसका निर्माण हो सकता है? क्या नयी आर्थिक नीति की राह से समाजवादी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना मुमकिन है? यह नीति देश में हर तरह से समाजवाद की शक्तियों को बढ़ा रही थी और मज़बूत हो रही थी, फिर भी उससे एक हद तक पूंजीवाद की बढ़ती होती थी। समाजवादी आर्थिक व्यवस्था का किस तरह निर्माण हो; किस छोर से उसके निर्माण में हाथ लगाया जाये?
पुनर्संगठन के दौर के समाप्त होते-होते, ये तमाम सवाल पार्टी के सामने आये। ये सवाल सिर्फ सिद्धांत के सवाल न थे बल्कि अमली सवाल थे, आये दिन की आर्थिक नीति के सवाल थे।
इन सब सवालों को सीधा और साफ़ जवाब देना ज़रूरी था, जिससे कि हमारे पार्टी सदस्य जो उद्योग-धंधों और खेती के विकास में लगे हुए थे, और आम तौर से जनता भी, इस बात को जान सकें कि किस दिशा में काम करना चाहिये, समाजवाद की तरफ या पूंजीवाद की तरफ?
इन सवालों का साफ़ जवाब न देने पर, हमारा तमाम अमली निर्माण-कार्य दिशाहीन हो जाता, अंधेरे में टटोलने जैसा होता, व्यर्थ की मेहनत होती।
पार्टी ने इन सभी सवालों का निश्चित और साफ़ जवाब दिया।
पार्टी ने कहा, हां हमारे देश में समाजवादी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण हो सकता है और होना चाहिये, क्योंकि समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के निर्माण के लिये, पूरी तरह समाजवादी समाज रचने के लिये, हमारे पास सभी आवश्यक साधन हैं। अक्तूबर 1917 में, अपनी राजनीतिक डिक्टेटरशिप कायम करके मज़दूर वर्ग ने पूंजीवाद को राजनीतिक रूप से परास्त किया था। उसके बाद से, सोवियत सरकार पूंजीवाद की आर्थिक शक्ति चूर करने के लिये हर उपाय करती रही थी और समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के निर्माण के लिये अनुकूल हालत पैदा करने को क़दम उठाती रही थी। उसके उपाय ये थे: जमींदारों और पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्त करना; जमीन, मिलों, कारखानों, रेलों और बैंकों को जन-सम्पत्ति बनाना; नयी आर्थिक नीति मंजूर करना, राज्य के अधिकार में समाजवादी उद्योग-धंधों का निर्माण और लेनिन की सहकार योजना को लागू करना। अब मुख्य काम यह था कि समूचे देश में नयी समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के निर्माण का काम उठाया जाये और इस तरह, आर्थिक रूप से भी पूंजीवाद को चूर कर दिया जाये। हमारा सभी अमली काम, हमारी सभी कार्यवाही इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिये होनी चाहिये। मज़दूर वर्ग यह कर सकता था, और करेगा। इस विराट कार्य की शुरूआत देश के औद्योगिकरण से होनी चाहिये। देश का समाजवादी औद्योगीकरण इसकी मुख्य कड़ी था। उसी से समाजवादी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण शुरू होना चाहिये। न तो पच्छिम में क्रांति का विलम्ब, और न ग़ैरसोवियत देशों में पूंजीवाद का आंशिक रूप से संभलना समाजवाद की तरफ़ हमारी प्रगति को रोक सकता था। नयी आर्थिक नीति से यह काम आसानी से हो सकता था, क्योंकि पार्टी ने यह नीति इसी निश्चित उद्देश्य से लागू की थी कि हमारी आर्थिक व्यवस्था के लिये समाजवादी नींव डालने में आसानी हो।
क्या हमारे देश में समाजवादी निर्माण की विजय संभव है? - इस सवाल का पार्टी ने यही जवाब दिया था।
लेकिन, पार्टी जानती थी कि एक देश में समाजवाद की जीत का मसला यहीं खत्म न होता था। सोवियत संघ में समाजवाद का निर्माण मनुष्य जाति के इतिहास में एक युगान्तरकारी मोड़ होगा, सोवियत संघ के मज़दूर वर्ग और किसानों की विजय होगी, जिससे विश्व इतिहास में एक नया युग शुरू होगा। फिर भी, यह सोवियत संघ की घरेलू बात थी और समाजवाद की जीत के मसले का एक हिस्सा ही थी। समस्या का दूसरा हिस्सा उसका अंतर्राष्ट्रीय पहलू था। इस सैद्धांतिक स्थापना का समर्थन करते हुए कि एक ही देश में समाजवाद की जीत हो सकती है, काँमरेड स्तालिन ने बार-बार कहा था कि सवाल को दोनों पहलुओं से देखना चाहिये एक तो घरेलू और दूसरा अंतर्राष्ट्रीय। जहां तक समस्या के घरेलू पहलू का सवाल था, यानी देश के अंदर वर्ग-संबंधों का सवाल था सोवियत संघ के मज़दूर वर्ग और किसान आर्थिक रूप से अपने पंजीपतियों को पछाड़ने और पूरी तरह समाजवादी समाज का निर्माण करने में समर्थ थे। लेकिन समस्या का अंतर्राष्ट्रीय पहलू भी था, यानी विदेशी सम्बन्धों का क्षेत्र, सोवियत संघ और पूंजीवादी देशों के सम्बन्धों का क्षेत्र भी था। अंतर्राष्ट्रीय पूंजीपति सोवियत व्यवस्था से नफ़रत करते थे, सोवियत संघ में हथियारबन्द हस्तक्षेप फिर शुरू करने का मौका ढंूढ रहे थे, सोवियत संघ में पूंजीवाद को बहाल करने की नयी कोशिशों के लिये मौका ढूंढ रहे थे। और, अभी सोवियत संघ एकमात्र समाजवादी देश था, दूसरे सभी देश पूंजीवादी थे। इसलिये, सोवियत संघ पूंजीवादी संसार से बराबर घिरा हुआ ही था। जिससे पूंजीवादी हस्तक्षेप का ख़तरा पैदा होता था। स्पष्ट है कि जब तक यह पूंजीवादी घेरा रहेगा, तब तक पूंजीवादी हस्तक्षेप का ख़तरा भी रहेगा। क्या सोवियत जनता अपनी ही कोशिशों से इस बाहरी ख़तरे को, सोवियत संघ में पूंजीवादी हस्तक्षेप के ख़तरे को मिटा सकती थी? नहीं, वह इस ख़तरे को नहीं मिटा सकती थी। इसलिये नहीं मिटा सकती थी कि पूंजीवादी हस्तक्षेप का ख़तरा मिटाने के लिये पूंजीवादी घेरे को मिटाना ज़रूरी था। और, पूंजीवादी घेरा तभी मिटाया जा सकता था जब कम से कम कई देशों में सर्वहारा क्रांति की जीत हो। इससे नतीजा निकलता था कि सोवियत संघ में समाजवाद की विजय, जो पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था को मिटाने और समाजवादी आर्थिक व्यवस्था को बनाने में मिली थी, उसे अंतिम विजय न माना जा सकता था। कारण यह कि विदेशी हथियार बन्द हस्तक्षेप का ख़तरा और पूंजीवाद को बहाल करने की कोशिशों का ख़तरा मिटाया न गया था और समाजवादी देश के पास इस ख़तरे के विरूद्ध कोई गारंटी न थी। विदेशी पूंजीवादी हस्तक्षेप के खतरे को मिटाने के लिये पूंजीवादी घेरे को ही मिटाना ज़रूरी होगा।
यह ठीक है कि जब तक सोवियत सरकार सही नीति पर चलेगी, तब सोवियत जनता और उसकी लाल फ़ौज नये विदेशी पूंजीवादी हस्तक्षेप को वैसे ही मार भगायेगी जैसे उसने 1918-'20 में पहले पूंजीवादी हस्तक्षेप को मार भगाया था। लेकिन, इसका यह मतलब न था कि नये पूंजीवादी हस्तक्षेप का ख़तरा मिट जायेगा। पहले हस्तक्षेप की हार से नये हस्तक्षेप का ख़तरा न मिटा था, क्योंकि हस्तक्षेप के ख़तरे की जड़ - पूंजीवादी घेरा - बराबर क़ायम थी। इसलिये, पूंजीवादी घेरे के बने रहने पर नये हस्तक्षेप की हार से भी उसका ख़तरा न मिटेगा।
इससे नतीजा निकलता था कि पूंजीवादी देशों में सर्वहारा क्रांति की विजय से सोवियत संघ की मेहनतकश जनता को गहरी दिलचस्पी थी।
हमारे देश में समाजवाद की जीत के सवाल पर, पार्टी की नीति यही थी।
केन्द्रीय समिति ने मांग की कि आगे होने वाली चैदहवीं पार्टी कान्फ्रेन्स में इस नीति पर बहस हो और इसे पार्टी नीति के तौर पर, एक पार्टी कानून के तौर पर जिसे मानने के लिये सभी पार्टी सदस्य बाध्य हों, स्वीकार किया जाये और उसका अनुमोदन किया जाये।
पार्टी की यह नीति विरोधियों के सिर पर वज्र बन कर गिरी; सबसे पहले इस कारण से कि पार्टी ने उसे एक निश्चित अमली रूप दे दिया था, देश के समाजवादी औ़द्योगीकरण की अमली योजना से उसे जोड़ दिया था और यह मांग की थी कि उसे पार्टी कानून का रूप दिया जाये, चैदहवीं पार्टी कान्फेंस के प्रस्ताव का रूप दिया जाये जिसे मानने के लिये सभी पार्टी सदस्य बाध्य हों।
त्रात्स्कीवादियों ने इस पार्टी नीति का विरोध करने की हिम्मत न की। लेकिन, उन्होंने चुपके-चुपके उसके खिलाफ़ अपना ही 'सिद्धांत' रखा; सिद्धांत यह था कि पूंजीपति शांतिमय ढंग से विकसित होकर समाजवाद की मंजिल में पहंुच जायेंगे। इसे उन्होंने 'अमीर बनो!' का 'नया' नारा देकर और स्पष्ट बना दिया था। बुखारिनपंथियों के अनुसार, समाजवाद की जीत का मतलब था - पूंजीपतियों को पालना-पोसना और अमीर बनाना न कि उनका नाश करना।
जिनोवियेव और कामेनेव यह दावा लेकर आगे आये कि सोवियत संघ में समाजवाद की विजय इसलिये असंभव है कि देश कौशल में, और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है? लेकिन, उन्होंने तुरंत ही पर्दे की ओट हो जाना ज्यादा बुद्धिमानी की बात समझी।
चैदहवीं पार्टी कान्फ्रेन्स (अप्रैल 1925) ने छिपे और खुले अवसरवादियों के इन तमाम समर्पणवादी 'सिद्धांतों' का खंडन किया, सोवियत संघ में समाजवाद की विजय के लिये काम करने की पार्टी की नीति का अनुमोदन किया, और इस पर एक प्रस्ताव भी पास किया।
और कोई चारा न देख कर, जिनोवियेव और कामेनेव ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट देना ही ठीक समझा। लेकिन, पार्टी जानती थी कि उन्होंने अपने संघर्ष को सिर्फ़ टाला ही है और चैदहवीं पार्टी कांग्रेस में 'पार्टी से जम कर लड़ने' का फैसला किया है। वे लेनिनग्राद में अपने अनुयायी बटोर रहे थे, और उन्होंने तथाकथित 'नव विरोध' बनाया।
दिसम्बर 1925 में, चैदहवीं पार्टी कांग्रेस शुरू हुई।
पार्टी के अंदर हालत गंभीर और उत्तेजनापूर्ण थी। उसके इतिहास में कभी ऐसा न हुआ था कि लेनिनग्राद जैसे महत्वपूर्ण पार्टी केन्द्र के समूचे प्रतिनिधि-मंडल ने अपनी केन्द्रीय समिति के विरोध में खड़े होने की तैयारी की हो।
कांग्रेस में, 6,43,000 पार्टी सदस्यों की तरफ से और 4,45,000 उम्मीदवार सदस्यों की तरफ से, 665 वोट देने वाले और 641 बोलने लेकिन वोट न दे सकने वाले प्रतिनिधि आये थे। पार्टी सदस्यों की तादाद पिछली कांग्रेस से थोड़ी कम थी। कमी का कारण यह था कि आंशिक रूप से शुद्धि हुई थी। विश्वविद्यालयों और दफ़्तरों के पार्टी-संगठनों की शुद्धि हुई थी, जिनमें पार्टी-विरोधी लोग घुस गये थे।
केन्द्रीय समिति की राजनीतिक रिपोर्ट काँमरेड स्तालिन ने पेश की। उन्होंने सोवियत संघ की आर्थिक और राजनीतिक शक्ति की बढ़ती का सजीव चित्र खिंचा। सोवियत आर्थिक व्यवस्था से जो लाभ हुये थे, उनसे उद्योग-धंधे और खेती – दोनों अपेक्षाकृत कम ही समय में पुनर्संगठित हो गये थे और युद्ध के पूर्व की सतह तक पहंुच रहे थे। ये नतीजे अच्छे थे, लेकिन काँमरेड स्तालिन ने प्रस्ताव किया कि यहीं रूक न जाना चाहिये क्योंकि इनसे इस सच्चाई का खंडन न होता था कि हमारा देश अब भी एक पिछड़ा हुआ खेतिहर देश है। देश की कुल उपज का दो-तिहाई हिस्सा खेती से था, और सिर्फ़ एक-तिहाई हिस्सा उद्योग-धंधों से। काँमरेड स्तालिन ने कहा कि पार्टी के सामने अब सीधे यही समस्या है कि अपने देश को औद्योगिक देश बनायें, जो आर्थिक रूप से पूंजीवादी देशों से स्वाधीन हो। यह किया जा सकता था, और ज़रूर किया जाना चाहिये था। अब देश के समाजवादी औद्योगीकरण के लिये, समाजवाद की विजय के लिये संघर्ष करना पार्टी का मुख्य काम था।
काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"हमारी आम नीति का आधार, उसका सार-तत्व यह है - अपने देश को खेतिहर देश से एक ऐसे औद्योगिक देश में परिवर्तित करना, जो अपने लिये आवश्यक मशीनें अपनी ही कोशिश से बना सके।"
देश के औद्योगीकरण से उसकी आर्थिक स्वाधीनता निश्चित होती, अपनी रक्षा करने की शक्ति दृढ़ होती और सोवियत संघ में समाजवाद की विजय के लिये परिस्थिति तैयार होती।
जिनोवियेवपंथियों ने पार्टी की आम नीति का विरोध किया। समाजवादी औद्योगीकरण की स्तालिन-योजना के खिलाफ़, जिनोवियेवपंथी सोकोल्निकोव ने एक पूंजीवादी योजना रखी, जो उन दिनों साम्राज्यवादी डाकुओं में बहुत प्रचलित थी। इस योजना के अनुसार, सोवियत संघ को खेतिहर देश बना रहना था, जो मुख्य रूप से कच्चा माल और अन्न पैदा कर, उन्हें बाहर भेजे और अपने यहां मशीनें मंगाये, जिन्हें न तो वह खुद बनाये और न उसे खुद बनाना चाहिये। 1925 की जैसी हालत थी, उसमें यह योजना उद्योग-धंधों में आगे बढ़े हुये बाहर के देशों द्वारा सोवियत संघ को आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की योजना के बराबर थी। यह योजना पूंजीवादी देशों के साम्राज्यवादी लुटेरों के हित में सोवियत संघ का औद्योगिक पिछड़ापन बनाये रखने के लिये थी।
इस योजना को मानने से, हमारा देश पूंजीवादी संसार का एक अपाहिज, कृषि-प्रधान, खेतिहर पुछल्ला बन जाता। उससे चारों तरफ़ के पूंजीवादी संसार के सामने वह कमज़ोर और अरक्षित रह जाता और अंत में, वह योजना सोवियत संघ में समाजवाद के उद्देश्य के लिये घातक होती।
कांग्रेस ने जिनोवियेवपंथियों की आर्थिक 'योजना' को सोवियत संघ की गुलामी की योजना कह कर उसकी निन्दा की।
'नव विरोध' के दूसरे हमले भी ऐसे ही नाकाम हुए। मिसाल के लिये, जब उन्होंने (लेनिन के विरोध में) यह दावा किया कि हमारे राजकीय उद्योग-धंधे समाजवादी उद्योग-धंधे नहीं हैं, या जब उन्होंने (फिर लेनिन के विरोध में) कहा कि मध्यम किसान समाजवाद के निर्माण के काम में मज़दूर वर्ग के सहयोगी नहीं हो सकते।
कांग्रेस ने 'नव विरोध' के इन हमलों को लेनिनवाद-विरोधी कह कर उनकी निन्दा की।
काँमरेड स्तालिन ने 'नव विरोध' के त्रात्स्कीवादी मेन्शेविक सार-तत्व का भण्डाफोड़ कर दिया। उन्होंने दिखाया कि जिनोवियेव और कामेनेव पार्टी के उन्हीं दुश्मनों का पुराना राग अलाप रहे हैं जिनके खिलाफ़ लेनिन ने डट कर संघर्ष किया था।
स्पष्ट था कि जिनोवियेवपंथी भौंडे तरीके से भेष बदले हुए त्रात्स्कीवादियों के अलावा कुछ नहीं हैं।
काँमरेड स्तालिन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हमारी पार्टी का मुख्य काम समाजवाद के निर्माण में मज़दूर वर्ग और मध्यम किसान के बीच दृढ़ सहयोग बनाये रखना है। उन्होंने उस समय पार्टी के अन्दर किसान समस्या पर प्रचलित दो भटकावों की तरफ़ इशारा किया। ये दोनों भटकाव इस तरह के सहयोग के लिये एक ख़तरा थे। पहला भटकाव वह था जो कुलक ख़तरे को कम करके आंकता था और उसे नाकुछ बताता था। दूसरा भटकाव वह था जो कुलकों से बुरी तरह भयभीत था और मध्यम किसान की भूमिका को कम करके आंकता था। इस सवाल के जवाब में कि कौन सा भटकाव ज्यादा खराब है, काँमरेड स्तालिन ने जवाब दिया: "जितना एक खराब है उतना ही दूसरा। और, अगर ये भटकाव बढ़ने दिये गये तो ये पार्टी को तोड़ सकते हैं और उसका नाश कर सकते हैं। सौभाग्य से, हमारी पार्टी में ऐसी ताकतें हैं जो उसे दोनों भटकावों से मुक्त कर सकती हैं।"
और, सचमुच पार्टी ने दक्षिण और 'वामपंथी' दोनों ही भटकावों की जडें़ काट दीं और उनसे अपने को मुक्त किया।
आर्थिक विकास के सवाल पर बहस का सार-तत्व पेश करते हुए, चैदहवीं पार्टी कांग्रेस ने विरोधियों की घुटना-टेकू योजनायें ठुकरा दीं और अपने प्रस्ताव में, जो अब प्रसिद्ध हो गया है, कहा:
"आर्थिक विकास के क्षेत्र में कांग्रेस का कहना है कि हमारे देश में, सर्वहारा डिक्टेटरशिप के देश में, 'एक पूर्ण समाजवादी समाज के निर्माण के लिये हर ज़रूरी चीज' (लेनिन) मौजूद है। कांगे्रस समझती है कि हमारी पार्टी का मुख्य काम सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण की विजय के लिये संघर्ष करना है।"
चैदहवीं पार्टी कांग्रेस ने नयी पार्टी नियमावली स्वीकार की।
चैदहवीं कांग्रेस के बाद, हमारी पार्टी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) - सोÛसंÛकÛपाÛ (बोÛ) - कहलाती रही है।
हालांकि जिनोवियेवपंथी कांग्रेस में हारे, फिर भी उन्होंने पार्टी के सामने सिर न झुकाया। उन्होंने कांग्रेस के फ़ैसलों के खिलाफ़ लड़ाई शुरू की। कांग्रेस के तुरंत ही बाद, जिनोवियेव ने नौजवान कम्युनिस्ट सभा की लेनिनग्राद की सूबा-कमिटी की एक बैठक बुलाई। इसके प्रमुख दल को जिनोवियेव, जलूत्स्की, बकायेब, येवदोकीमोव, कुकलिन, सफारोव, और दूसरे दगेबाजों ने पार्टी की लेनिनवादी केन्द्रीय समिति की तरफ़ घृणा की भावना में सिखा-पढ़ाकर बड़ा किया था। इस बैठक में, लेनिनग्राद की सूबा-कमिटी ने, नौजवान कम्युनिस्ट सभा के इतिहास में अभूतपूर्ण एक प्रस्ताव पास किया: उसने चैदहवीं पार्टी कांग्रेस के फ़ैसले मानने से इन्कार कर दिया।
लेकिन, लेनिनग्राद की नौजवान कम्युनिस्ट सभा के जिनोवियेवपंथी नेता किसी भी तरह लेनिनग्राद के आम नौजवान कम्युनिस्ट सभा वालों का मनोभाव प्रकट न करते थे। इसलिये, वे आसानी से हरा दिये गये और जल्द ही लेनिनग्राद-संगठन ने नौजवान कम्युनिस्ट सभा में अपना योग्य स्थान पा लिया।
चैदहवीं कांगे्रस की समाप्ती के करीब, कांग्रेस के प्रतिनिधियों का एक दल - काँमरेड मोलोतोव, किरोव, वोरोशिलोव, कालिनिन, आन्द्रियेव, आदि - लेनिनग्राद भेजा गया। उसका काम था कि लेनिनग्राद के पार्टी-संगठन के सदस्यों को समझाये कि कांग्रेस में लेनिनग्राद के प्रतिनिधि-मण्डल ने, जिसने झूठे बहाने करके अपना चुनाव हासिल किया था, कैसा मुजरिमाना, बोल्शेविक-विरोधी रुख अपनाया था। जिन सभाओं में कांग्रेस की रिपोर्ट पेश की गयी, उनमें हंगामें भरे दृश्य देखने को मिले। लेनिनग्राद के पार्टी-संगठन की एक असाधारण कान्फ्रेंस की गयी। लेनिनवाद के पार्टी सदस्यों के भारी बहुमत ने (97 फ़ीसदी से ऊपर ने) चैदहवीं पार्टी कांग्रेस के फ़ैसले का पूरी तरह अनुमोदन किया और पार्टी-विरोधी जिनोवियेवपंथी 'नव विरोध' की निन्दा की। उस समय तक, 'नव विरोध' दल बिना फ़ौज के सिपहसालारों का एक दल रह गया था।
लेनिनग्राद के बोल्शेविक लेनिन-स्तालिन की पार्टी की अगली पांति में ही रहे।
चैदहवीं पार्टी कांगे्रस के परिणामों का सार देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने लिखा था:
"सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की चैदहवीं कांग्रेस का महत्व इस बात में है कि वह 'नव विरोध' की ग़लतियों की जड़ों तक का पर्दाफ़ाश कर सकी, उसने शक-शुबहा करने और रोने-भिनभिनाने को घृणापूर्वक ठुकरा दिया, उसने साफ़-साफ़ और निश्चित रूप से समाजवाद के लिये भावी संघर्ष का रास्ता दिखाया पार्टी के सामने विजय की संभावना स्पष्ट की, और इस तरह सर्वहारा को समाजवाद के निर्माण की विजय में अजेय विश्वास से सुसज्जित कर दिया।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, पृष्ठ 177)
आर्थिक पुनर्संगठन के दौर में बोल्शेविक पार्टी 341
सारांश
आर्थिक पुनर्संगठन के शांतिमय काम की तरफ़ बढ़ने के वर्ष, बोल्शेविक पार्टी के इतिहास में बहुत ही नाज़ुक दौर के वर्ष थे। एक विषम परिस्थिति में, पार्टी युद्ध कालीन कम्युनिज्म की नीति से नयी आर्थिक नीति की तरफ़ एक कठिन मोड़ ले सकी। पार्टी ने एक नयी आर्थिक बुनियाद पर मज़दूरों और किसानों के सहयोग को और दृढ किया। सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ कायम हुआ।
नयी आर्थिक नीति के द्वारा, देश के आर्थिक जीवन को पुनर्संगठित करने में निर्णायक सफलतायें मिलीं। सोवियत संघ आर्थिक पुनर्संगठन के दौर से सफल होकर निकला और उसने एक नये दौर, देश के औद्योगीकरण के दौर में प्रवेश किया।
गृह-युद्ध से शान्तिमय समाजवादी निर्माण की तरफ़ बढ़ने में ख़ास तौर से शुरू की मंजिलों में भारी कठिनाइयां सामने आयीं। समूचे दौर में, बोल्शेविज्म के दुश्मनों ने सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की पांति में पार्टी-विरोधी लोगों ने लेनिनवादी पार्टी के खिलाफ़ घोर संग्राम किया। इन पार्टी-विरोधी लोगों का सरदार त्रात्स्की था। इस संघर्ष में, उसके पिट्ठु कामेनेव, जिनोवियेव और बुखारिन थे। लेनिन की मृत्यु के बाद विरोधियों ने सोचा था कि वे बोल्शेविक पार्टी की पांति में पस्ती फैलायेंगे, पार्टी में फूट डाल देंगे और सोवियत संघ में समाजवाद की विजय की संभावना में अविश्वास फैला देंगे। दरअसल, त्रात्स्कीवादी सोवियत संघ में एक दूसरी पार्टी बनाने की, नये पूंजीपतियों का राजनीतिक संगठन, पूंजीवाद को बहाल करने की पार्टी बनाने की कोशिशें कर रहे थे।
पार्टी लेनिन के झण्डे के नीचे अपनी लेनिनवादी केन्द्रीय समिति के चारों ओर, काँमरेड स्तालिन के चारों ओर सिमट आयी, और उसने त्रात्स्कीपंथियों और लेनिनग्राद के उनके नये दोस्तों - 'नव विरोध' वाले जिनोवियेव, कामेनेव - दोनों को मात दी।
साधन और शक्ति इकट्ठी करके, बोल्शेविक पार्टी देश को उसके इतिहास की एक नयी मंजिल तक, समाजवादी औद्योगीकरण की मंजिल तक लाई।
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