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Tuesday, 18 August 2020

राज्य और क्रांति- लेनिन


                 

 

अध्याय १

वर्ग समाज और राज्य

१.     राज्य - वर्ग विरोधों की असाध्यता की उपज

 

मार्क्स की शिक्षा के साथ आज वही हो रहा है , जो उत्पीडित वर्गों के मुक्ति-संघर्ष में उनके नेताओं और क्रांतिकारी विचारकों की शिक्षाओं के साथ इतिहास में अकसर हुआ है। उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रांतिकारियों को उनके जीवन भर लगातार यातनाएं दीं, उनकी शिक्षा का अधिक से अधिक बर्बर द्वेष , अधिक से अधिक क्रोधोन्मत्त घृणा तथा झूठ बोलने और बदनाम करने के अधिक से अधिक अंधाधुंध मुहिम द्वारा स्वागत किया। लेकिन उनकी मौत के बाद उनकी क्रांतिकारी शिक्षा को सारहीन करके , उसकी क्रांतिकारी धार को कुंद करके , उसे भ्रष्ट करके उत्पीडित वर्गों को " बहलाने' तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमाओं का रूप देने , यों कहें , उन्हें देवत्व प्रदान करने और उनके नामों को निश्चित गौरव प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं। मार्क्सवाद को इस तरह "संसाधित करने' में बुर्जुग्रा वर्ग और मज़दूर आंदोलन के अवसरवादियों के बीच आज सहमति है। उस शिक्षा के क्रांतिकारी पहलू को , उसकी क्रांतिकारी आत्मा को भुला दिया जाता है , मिटा दिया जाता है , विकृत कर दिया जाता है। उस चीज़ को सामने लाया जाता है , गौरवान्वित किया जाता है , जो बुर्जुमा वर्ग को मान्य है या मान्य प्रतीत होती है। सभी सामाजिक-अंधराष्ट्रवादी अब "मार्क्सवादी" बन गये हैं , हंसिये नहीं ! और कल तक मार्क्सवाद का संहार करने के विशेषज्ञ जर्मन बुर्जुग्रा विद्वान अब अधिकाधिक " राष्ट्रीय जर्मन" मार्क्स की बात करते हैं , जिन्होंने मानो लुटेरू युद्ध चलाने के लिए ही शानदार ढंग से संगठित मजदूर यूनियनों को प्रशिक्षित किया था ! - ऐसी परिस्थितियों में  मार्क्सवाद की अभूतपूर्व व्यापक विकृति को देखते हुए हमारा पहला कर्त्तव्य राज्य के बारे में मार्क्स की असली शिक्षा की 

 

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पुनःस्थापना करना है। इसके लिए खुद मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं से बहुतेरे लंबे उद्धरण देना ज़रूरी है। इसमें संदेह नहीं कि लंबे उद्धरण पाठ्य-सामग्री को बोझिल बना देते हैं और उसकी लोकप्रियता में कुछ भी सहायता नहीं पहुंचाते। लेकिन उनके बिना काम चला लेना बिलकुल संभव नहीं है। राज्य के प्रश्न पर मार्क्स और एंगेल्स की कृतियों से सभी या कम से कम सभी निर्णायक स्थलों को , जहां तक हो सके , पूरे रूप में उद्धत करना ज़रूरी है ताकि वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापकों के संपूर्ण विचारों और उन विचारों के विकास के संबंध से पाठक खुद अपनी स्वतंत्र राय कायम कर सकें , ताकि इस समय हावी काउत्स्कीवाद' द्वारा उनकी तोड़-मरोड़ दस्तावेज़ी तौर से साबित और साफ़-साफ़ प्रदर्शित हो जाये

            हम एंगेल्स की सबसे लोकप्रिय पुस्तक , 'परिवार , निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति' से शुरू करेंगे , जिसका छठा संस्करण स्टुटगार्ट से १८६४ में ही निकल चुका था। उद्धरणों का अनुवाद हमें मूल जर्मन भाषा से करना होगा , क्योंकि इस पुस्तक के रूसी अनुवाद बहुत ज्यादा संख्या में होने के बावजूद अधिकतर या तो अधूरे हैं या बेहद असंतोषजनक हैं। अपने ऐतिहासिक विश्लेषण का निष्कर्ष निकालते हुए एंगेल्स कहते हैं

" राज्य कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो बाहर से लाकर समाज पर लादी गयी हो ; और वह 'किसी नैतिक विचार का मूर्त रूप' या 'विवेक का मूर्त और वास्तविक रूप' है , जैसा कि हेगेल कहते हैं। बल्कि कहना चाहिए कि वह समाज की उपज है , जो विकास की एक निश्चित अवस्था में पैदा होती है , वह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि यह समाज हल होनेवाले अंतर्विरोधों में फंस गया है, वह ऐसे विरोधों से विदीर्ण हो गया है, जिनका समाधान नहीं किया जा सकता और जिन्हें दूर करना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। परंतु ये विरोध , परस्पर विरोधी आर्थिक हितोंवाले ये वर्ग व्यर्थ के संघर्ष में अपने को और पूरे समाज को नष्ट कर डालें , इसलिए एक ऐसी शक्ति , जो मालूम पड़े कि समाज से ऊपर खड़ी है , अावश्यक बन गयी ताकि इस संघर्ष को हल्का किया जा सके , उसे 'व्यवस्था' की सीमानों के भीतर रखा जा सके। यही शक्ति , जो समाज से पैदा होती है , पर जो समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लेती है और उससे अधिकाधिक पृथक होती जाती है, राज्य है" ( छठा जर्मन संस्करण , पृष्ठ १७७-१७८) 

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यहां राज्य की ऐतिहासिक भूमिका और उसके अर्थ के सवाल पर मार्क्सवाद का बुनियादी विचार पूर्ण स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त है। राज्य वर्ग विरोधों की असाध्यता की उपज और अभिव्यक्ति है। राज्य उस समय, उस जग और उस हद तक पैदा होता है , जब , जहां और जिस हद तक वर्ग विरोधों का वस्तुपरक ढंग से समाधान नहीं हो सकता। और उलटकर कहें, तो राज्य की मौजूदगी यह साबित करती है कि वर्ग विरोधों का समाधान असंभव है। 

ठीक इसी सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी सूत्र पर दो मुख्य लाइनों पर चलनेवाली मार्क्सवाद की तोड़-मरोड़ शुरू होती है। 

एक तरफ़ तो वे बुर्जुआ और ख़ास तौर से टुटपुंजिया विचारधारा निरूपक , जो निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्यों के दबाव से यह मानने को मजबूर हैं कि राज्य वहीं होता है , जहां वर्ग विरोध और वर्ग संघर्ष होते हैं , मार्क्स को इस तरह " सुधारते' हैं कि राज्य वर्गों के समन्वय का निकाय बनकर सामने आता है। मार्क्स के अनुसार अगर वर्गों का समन्वय संभव होता , तो राज्य पैदा नहीं हो सकता था , क़ायम नहीं रह सकता था। टुटपुंजिया और दकियानूस प्रोफ़ेसरों और वृत्तकारों के यहां - हर कहीं और अकसर मार्क्स के अनुग्रहपूर्ण हवालों पर ! – ऐसा होता है कि राज्य वर्गों का समन्वय करता ही है। मार्क्स के अनुसार राज्य वर्ग प्रभुत्व का निकाय है , एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पीड़न का निकाय है , ऐसी "व्यवस्था" की सर्जना है , जो वर्गीय टकरावों को मद्धिम करके इस उत्पीड़न को कानूनी और मज़बूत बनाती है। टुटपुंजिया राजनीतिज्ञों की राय में व्यवस्था वर्गों का समन्वय ही है, कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का उत्पीड़न ; टकरावों को मद्धिम करने का अर्थ है समन्वय करना , कि उत्पीडित वर्गों को उत्पीड़कों की तख्ता-उलटाई के लिए लड़ने के निश्चित साधनों और ढंगों से वंचित करना। - उदाहरण के लि, जब १९१७ की क्रांति में राज्य के महत्व और भूमिका का प्रश्न अपनी पूरी व्यापकता में उठा , व्यावहारिक रूप में, अविलंब कार्रवाई और उस पर भी जनव्यापी पैमाने की कार्रवाई के प्रश्न के रूप में उठा , तो तमाम समाजवादी-क्रांतिकारी और मेंशेविक फ़ौरन और पूर्ण रूप से "राज्य द्वारा" वर्गों के "समन्वय' के टुटपुंजिया सिद्धांत 

 

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की ओर लुढ़क गये। इन दोनों पार्टियों के राजनीतिज्ञों के अनगिनत प्रस्ताव और लेख "समन्वय' के इस कूपमंडूकी और दकियानूसी सिद्धांत से पूरी तरह सराबोर हैं। टुटपुंजिया जनवादी यह समझने में कभी समर्थ नहीं होंगे कि राज्य एक निश्चित वर्ग के शासन का निकाय है, जिसका समन्वय अपने प्रतिकारी के साथ ( अपने विरोधी वर्ग के साथ ) नहीं हो सकता। राज्य के प्रति रुख इस बात की एक सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि हमारे समाजवादी-क्रांतिकारी और मेंशेविक समाजवादी बिलकुल नहीं (जिस बात को हम बोल्शेविक हमेशा सिद्ध करते थे ) , बल्कि लगभग समाजवादी लफ़्फ़ाज़ीवाले टुटपुंजिया जनवादी हैं।

 दूसरी तरफ़, मार्क्सवाद की "काउत्स्कीवादी" विकृति कहीं ज़्यादा बारीक है। "सैद्धांतिक रूप से" तो इसे अस्वीकार किया जाता है कि राज्य वर्गीय प्रभुत्व का निकाय है और इस बात को कि वर्ग विरोध असाध्य हैं। लेकिन इस बात को या तो नज़रअंदाज़ किया जाता है , या छिपाया जाता है कि अगर राज्य वर्ग विरोधों की असाध्यता की उपज है, अगर वह एक ऐसी शक्ति है , जो समाज से ऊपर खड़ी है और " उससे अधिकाधिक पृथक होती जाती है", तो यह साफ़ है कि उत्पीडित वर्ग की आज़ादी केवल बलात क्रांति के बिना , बल्कि राज्य-सत्ता की इस मशीनरी के उन्मूलन के बिना भी असंभव है , जो शासक वर्ग द्वारा सृजित हुई है और जिसमें यह "पृथकता" मूर्त्तिमान है। जैसा कि हम आगे देखेंगे , मार्क्स ने क्रांति के कार्यभारों के ठोस ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर बिलकुल निश्चित रूप से यह सिद्धांततः स्वतःस्पष्ट निष्कर्ष निकाला था। और जैसा कि हम आगे चलकर विस्तारपूर्वक दिखायेंगे, ठीक इसी निष्कर्ष को काउत्स्की ने . . . "भुला दिया" और तोड़ा-मरोड़ा। 

 

. हथियारबंद लोगों के विशेष दल , जेल , आदि

 

एंगेल्स आगे  कहते हैं

"पुराने गोत्र ( कबायली या बिरादरी ) संगठन ' से भिन्न राज्य पहले तो अपनी प्रजा का प्रदेशानुसार विभाजन कर देता है ..." 

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ऐसा बंटवारा हमें "स्वाभाविक' लगता है , लेकिन वह पुराने क़बायली का गोत्र संगठन के साथ दीर्घ काल तक संघर्षरत रहा।     

     "..... दुसरा विभेदक लक्षण यह है कि एक सार्वजनिक सत्ता की स्थापना की जाती है, जिसका एक सशस्त्र शक्ति के रूप में अपने को स्वयं संगठित करनेवाली जनता से सीधे-सीधे मेल नहीं रह जाता। यह विशिष्ट सार्वजनिक सत्ता इसलिए आवश्यक हो जाती है कि समाज के वर्गों में बंट जाने के बाद आबादी का स्वतःकार्यकारी सशस्त्र संगठन असंभव हो जाता है ... यह सार्वजनिक सत्ता हर राज्य में होती है। उसमें केवल हथियारबंद लो ही नहीं, बल्कि जेलखाने तथा विभिन्न प्रकार की दमनकारी संस्थाएं, आदि भौतिक साधन भी शामिल होते हैं , जिनका गोत्र ( कबायली) समाज में निशान तक था ...' 

एंगेल्स उस " शक्ति" की अवधारणा का स्पष्टीकरण करते हैं , जिसे राज्य कहा जाता है, उस शक्ति की, जो समाज से पैदा हुई, लेकिन जो समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लेती है और उससे अधिकाधिक पृथक होती जाती है। यह शक्ति मुख्यतया किस चीज़ में निहित होती है ? वह जेल , वगैरह को अपने पास रखनेवाले हथियारबंद लोगों के विशेष दलों में निहित होती है। 

 हम हथियारबंद लोगों के विशेष दलों की बात औचित्य के साथ कह सकते हैं, क्योंकि सभी राज्यों के लिए लाक्षणिक सार्वजनिक सत्ता का हथियारबंद आबादी से और "उसके स्वतःकार्यकारी सशस्त्र संगठन" से  "सीधे-सीधे मेल नहीं रह जाता"

सभी महान क्रांतिकारी विचारकों की तरह एंगेल्स वर्ग-चेतन मज़दूरों का ध्यान ठीक उसी चीज़ की तरफ आकर्षित करने की कोशिश करते हैं, जिसे हावी कूपमंडूक लोग सबसे कम ध्यान देने योग्य समझते हैं, जिसे वे सबसे अधिक स्वाभाविक और केवल जमे हुए ही नहीं, बल्कि कह सकते हैं कि जड़ीभूत पूर्वाग्रहों द्वारा प्रतिष्ठापित मानते हैं। स्थायी फ़ौज और पुलिस राज्य-सत्ता की शक्ति के मुख्य स्त्र हैं, लेकिन क्या अन्यथा हो भी सकता है ?

 उन्नीसवीं सदी के अंत के यूरोपियनों की विशाल बहुसंख्या के दृष्टिकोण से , जिनको एंगेल्स ने संबोधित किया था और जो तो किसी बड़ी क्रांति से गुज़रे थे , उसे निकट से देख ही पाये थे , अन्यथा नहीं हो सकता। 

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 "आबादी का स्वतःकार्यकारी सशस्त्र संगठन' क्या है , वे यह समझ नहीं सकते। समाज से ऊपर खड़े किये गये और उससे पृथक हो जानेवाले हथियारबंद लोगों के इन विशेष दलों की ( पुलिस , स्थायी फ़ौज की ) ज़रूरत क्यों पड़ी , इस प्रश्न का उत्तर पश्चिम यूरोपीय और रूसी दकियानुस स्पेन्सर या मिखाइलोव्स्की के फ़िक़रे उधार लेकर सामाजिक जीवन के जटिलीकरण, क्रियाओं के विभेदीकरण, आदि , प्रादि के हवालों द्वारा देते हैं।

इस तरह का हवाला "वैज्ञानिक" लगता है और सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी बात पर, असाध्य शत्रुतापूर्ण वर्गों में समाज के विभाजन पर पर्दा डालकर संकुचित विचारवाले आदमी को भली भांति प्रसुप्त कर देता है।

अगर यह विभाजन होता , तो "आबादी का स्वतःकार्यकारी सशस्त्र संगठन" अपनी जटिलता, अपनी ऊंची तकनीक, आदि के कारण लाठी इस्तेमाल करनेवाले बंदरों के झुंड', या आदिम लोगों, या क़बायली समाज में एकजुट लोगों के आदिम संगठन से भिन्न होता, लेकिन इस प्रकार का संगठन संभव होता। 

वह असंभव इसलिए है कि सभ्य समाज शत्रुतापूर्ण, बल्कि असाध्य शत्रुतापूर्ण वर्गों में बंट गया है, जिनकी "स्वतःकार्यकारी" हथियारबंदी से उनके बीच सशस्त्र संघर्ष छिड़ जायेगा। राज्य का उदय होता है, एक विशेष शक्ति , हथियारबंद लोगों के विशेष दल सृजित होते हैं , और प्रत्येक क्रांति राज्य की मशीनरी को नष्ट करते हुए हमें वर्ग संघर्ष को उसके नग्न रूप में दिखला देती है , यह प्रत्यक्ष रूप में दिखला देती है कि प्रभुत्वशील वर्ग किस प्रकार अपनी सेवा करनेवाले हथियारबंद लोगों के विशेष दलों को फिर से कायम करने की कोशिश करता है, किस प्रकार उत्पीडित वर्ग इसी तरह का नया संगठन बनाने की कोशिश करता है , जो शोषकों की नहीं, बल्कि शोषितों की सेवा कर सके।

ऊपर के तर्क में एंगेल्स ने सैद्धांतिक रूप से बिलकुल वही प्रश्न उठाया है , जो प्रत्येक महान क्रांति हमारे सामने व्यावहारिक रूप से , प्रत्यक्षतः और , इससे भी बढ़कर , जनव्यापी कार्रवाई के पैमाने पर प्रस्तुत करती है , याने हथियारबंद लोगों के "विशेष' दलों और "आबादी के स्वतःकार्य कारी सशस्त्र संगठन" के आपसी संबंध का प्रश्न। हम देखेंगे कि यूरोपीय 

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और रूसी क्रांतियों के अनुभव द्वारा किस प्रकार यह प्रश्न ठोस रूप से चित्रित होता है। 

 

लेकिन आइये , एंगेल्स की व्याख्या पर लौटें। 

 

वह बताते हैं कि कभी-कभी, जैसे कहीं-कहीं उत्तरी अमरीका में , वह सार्वजनिक सत्ता कमजोर होती है ( यहां पूंजीवादी समाज के दुर्लभ अपवाद और उत्तरी अमरीका के प्राक-साम्राज्यवादी दौर में उसके उन हिस्सों का जिक्र है, जिनमें स्वतंत्र प्रवासियों की प्रधानता थी), लेकिन ग्राम तौर से वह मजबूत होती जाती है

"... . परंतु जैसे-जैसे राज्य के अंदर वर्ग विरोध उग्र होते जाते हैं और जैसे-जैसे पड़ोस के राज्य विशाल होते जाते हैं और उनकी प्राबादी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे यह सार्वजनिक सत्ता भी मज़बूत होती जाती है। इसके लिए हमारे वर्तमान काल के यूरोप पर एक नज़र डाल लेना काफ़ी है, जहां वर्ग संघर्ष तथा देश-विजय की होड़ ने इस सार्वजनिक सत्ता को ऐसा विराट रूप दे डाला है कि वह पूरे समाज को और स्वयं राज्य को भी निगल जाना चाहती है ..." 

यह देर से देर पिछली शताब्दी की अंतिम दशाब्दी के शुरू में लिखा गया था। एंगेल्स की अंतिम भूमिका की तारीख १६ जून , १८६१ है। तब फ्रांस में साम्राज्यवाद की तरफ़ मुड़ने की - ट्रस्टों के पूर्ण प्रभुत्व के अर्थ में भी , बड़े बैंकों की सर्वशक्तिमत्ता के अर्थ में भी और प्रकांड औपनिवेशिक नीति , दि के अर्थ में भी - अभी-अभी शुरूअात हुई थी और उत्तरी अमरीका तथा जर्मनी में और भी कमजोर ढंग से हुई थी। तब से " देश विजय की होड़" लंबे डग भरती आगे बढ़ी है, इसलिए और भी कि बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के प्रारंभ तक भूमंडल इन " देश-विजय की होड़ करनेवालों", याने महान लुटेरी ताक़तों के बीच अंतिम रूप से बंट चुका था। तब से सैनिक और नौसैनिक हथियारबंदी हैरतनाक ढंग से बढ़ गयी है और दुनिया पर इंगलैंड या जर्मनी के प्रभुत्व के लिए, लूट के बंटवारे के लिए लड़े जानेवाले १९१४-१९१७ के खसोट युद्ध ने अपहारी राज्य-सत्ता द्वारा समाज की सारी शक्तियों के "निगले जाने को" विनाश के चरम बिंदु के निकट पहुंचा दिया है। 

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एंगेल्स १८६१ में ही "देश-विजय की होड़" को महान ताक़तों की विदेश नीति के एक सबसे महत्वपूर्ण लक्षण के रूप में इंगित कर सके थे, लेकिन १९१४-१९१७ में , जबकि ठीक इसी होड़ ने कई गुना बढ़कर साम्राज्यवादी युद्ध पैदा कर दिया है , अधम सामाजिक-ग्रंधराष्ट्रवादी " अपने" बुर्जुया वर्ग के खसोटू हितों की रक्षा पर " पितृभूमि की रक्षा", "जनतंत्र और क्रांति की प्रतिरक्षा", आदि के फ़िक़रों से पर्दा डालते हैं

. राज्य - उत्पीडित वर्ग के शोषण का अस्त्र 

समाज से ऊपर खड़ी विशेष सार्वजनिक सत्ता को बनाये रखने के लिए टैक्सों और राजकीय ऋणों की ज़रूरत होती है। 

एंगेल्स लिखते हैं : _ "... सार्वजनिक सत्ता तथा कर लगाने और वसूल करने के अधिकार को अपने हाथ में लेकर राज्याधिकारी अब समाज के निकाय के रूप में समाज के ऊपर हो जाते हैं। गोत्र समाज के अधिकारियों को स्वेच्छया और स्वतंत्र रूप से जो सम्मान दिया जाता था , वह इन अधिकारियों को अगर मिल भी जाता , तो वे उससे संतुष्ट होते ..." अधिकारियों की पवित्रता और अलंध्यता के विशेष कानून बना दिये जाते हैं। "अदना से अदना पुलिस कर्मचारी को" भी क़बीले के प्रतिनिधियों की अपेक्षा अधिक "प्रतिष्ठा" प्राप्त है, लेकिन क़बीले के मुखिया को "बिना किसी दबाव के" समाज का "जो सम्मान मिलता था", उससे किसी सभ्य राज्य की फ़ौजी सत्ता के प्रधान को भी ईर्ष्या हो सकती है। 

यहां राज्य-सत्ता के निकायों के रूप में अधिकारियों की विशेषाधिकारपूर्ण स्थिति का सवाल उठाया गया है। खास बात के रूप में चिन्हित है : क्या चीज़ उन्हें समाज के ऊपर रख देती है ? हम देखेंगे कि यह सैद्धांतिक प्रश्न १८७१ के पेरिस कम्यून द्वारा व्यवहार में किस तरह हल किया गया था  और १९१२ में काउत्स्की द्वारा किस प्रतिक्रियावादी ढंग से उस पर पर्दा डाल दिया गया था। 

"... राज्य चूंकि वर्ग विरोध पर अंकुश रखने के लिए पैदा हुआ था और साथ ही चूंकि वह इन वर्गों के संघर्ष के बीच पैदा हुअा था , इसलिए वह निरपवाद रूप से सबसे अधिक शक्तिशाली , आर्थि क्षेत्र में प्रभुत्वशील 

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वर्ग का राज्य होता है। यह वर्ग राज्य के ज़रिए राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रभत्वशील हो जाता है और इस प्रकार उसे उत्पीडित वर्ग को दबाकर रखने तथा उसका शोषण करने के लिए नया साधन मिल जाता है.."  केवल प्राचीन और सामंती राज्य ही दासों और भूदासों के शोषण के निकाय नहीं थे, बल्कि "अाधुनिक प्रातिनिधिक राज्य पूंजी द्वारा उजरती श्रम के शोष का साधन है। परंतु अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे काल भी आते हैं, जब संघर्षरत वर्गों का शक्ति संतुलन इतना बराबर हो जाता है कि राज्य सत्ता एक दिखावटी पंच के रूप में कुछ समय के लिए , कुछ मात्रा में दोनों र्गों से स्वतंत्र हो जाती है..." सत्रहवीं और अठारहवीं सदियों के निरंकुश राजतंत्र , फ्रांस में प्रथम और द्वितीय साम्राज्यों की बोनापार्तशाही और जर्मनी में बिस्मार्क ऐसे ही थे।

 इसमें हम अपनी तरफ़ से इतना और जोड़ दें कि जनतांत्रिक रूस की केरेन्स्की सरकार भी क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के उत्पीड़न पर उतरकर ऐसी ही बन गयी है , जबकि टुटपुंजिया जनवादियों के नेतृत्व की कृपा से सोवियतें निःशक्त बन चुकी हैं और बुर्जुश्रा वर्ग अभी इतना शक्तिशाली नहीं बना है कि उनको आसानी से भंग कर दे। 

एंगेल्स आगे कहते हैं कि जनवादी जनतंत्र में "धन-दौलत अप्रत्यक्ष रूप से , पर और भी ज्यादा कारगर ढंग से , अपना असर डालती है", याने एक तो "सीधे-सीधे राज्य के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के रूप में" ( अमरीका ) , दूसरे, "सरकार तथा स्टाक एक्सचेंज के बीच गठबंधन के रूप में" ( फ्रांस और अमरीका )

वर्तमान काल में साम्राज्यवाद और बैकों के प्रभुत्व ने किसी भी जनवादी जनतंत्र में धन की सर्वशक्तिमत्ता की रक्षा करने तथा उसे जीवन में लाग करने के इन दोनों तरीकों को असाधारण कला में "विकसित कर दिया है" उदाहरण के लिए , रूस में जनवादी जनतंत्र के पहले ही महीनों में , हा जा सकता है कि संयुक्त सरकार के अंदर बुर्जुवा वर्ग के साथ " समाजवादियों' – समाजवादी-क्रांतिकारियों और मेंशेविकोंके परिणयबंधन के मधुमास में , अगर श्री पालचीन्स्की ने पूंजीपतियों और उनकी लूट पर , उनके द्वारा फ़ौजी ठेकों के जरिए सरकारी खजाने की खसोट पर लगाम लगाने की सारी कार्रवाइयों को तोड़-फोड़ की और अगर बाद में मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे देनेवाले श्री पालचीन्स्की ( जिनकी जगह निस्संदेह बिलकुल वैसे ही दूसरे पालचीन्स्की ने ली) पूंजीपतियों द्वारा ,२०,००० रूबल 

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सालाना वेतन के पद से "पुरस्कृत हुए", तो वह क्या है ? प्रत्यक्ष रिश्वत या अप्रत्यक्ष ? सिंडिकेटों के साथ सरकार का गंठजोड़ या " केवल" मैत्रीपूर्ण संबंध ? चेर्नोव और त्सेरेतेली , अवक्सेन्त्येव और स्कोबेलेव जैसे लोग क्या भूमिका अदा करते हैं ? करोड़पति-ग़बनकारों के वे "प्रत्यक्ष" संगी-साथी हैं या केवल अप्रत्यक्ष

"धन-दौलत" की सार्विक सत्ता जनवादी जनतंत्र में ज्यादा यक़ीनी इसलिए भी होती है कि वह राजनीतिक मशीनरी की अलग-अलग कमियों, पूंजीवाद के निकम्मे राजनीतिक खोल पर निर्भर नहीं होती। जनवादी जनतंत्र पूंजीवाद के लिए श्रेष्ठतम संभव राजनीतिक खोल है और इसलिए ( पालचीन्स्की , चेर्नोव, त्सेरेतेली और मंडली की मदद से ) इस श्रेष्ठतम खोल पर अधिकार करके पूंजी अपनी सत्ता को इतने विश्वसनीय ढंग से , इतने यक़ीनी तौर से जमा लेती है कि बुर्जुग्रा-जनवादी जनतंत्र में व्यक्तियों, संस्थाओं या पार्टियों की कोई भी अदला-बदली उस सत्ता को नहीं हिला सकती। 

हमें यह भी नोट करना चाहिए कि एंगेल्स सार्विक मताधिकार को भी पूर्णतम स्पष्टता के साथ बुर्जुश्रा वर्ग के प्रभुत्व का अस्त्र कहते हैं। जर्मन सामाजिक-जनवाद के लंबे अनुभव को साफ़ तौर से ध्यान में रखते हुए वह कहते हैं कि सार्विक मताधिकार 

" मजदूर वर्ग की परिपक्वता की कसौटी है। वर्तमान राज्य में वह इससे अधिक कुछ नहीं है और कभी हो सकता है।

टुटपुंजिया जनवादी , जैसे कि हमारे समाजवादी-क्रांतिकारी तथा मेंशेविक और उसी तरह उनके सगे भाई , पश्चिम यूरोप के सभी सामाजिक-अंधराष्ट्रवादी और अवसरवादी सार्वि मताधिकार से इसी " अधिक" की आशा करते हैं। वे खुद इस ग़लत विचार को मानते और जनता के दिमाग़ में भरते हैं कि मानो "वर्तमान राज्य में " सार्विक मताधिकार अधिकांश मेहनतकशों की इच्छा को सचमुच प्रगट कर सकता है और जीवन में उसका तामील सुनिश्चित कर सकता है।

यहां हम इस ग़लत विचार को केवल इंगित कर सकते हैं , केवल यह बता सकते हैं कि "आधिकारिक" ( याने अवसरवादी) माजवादी पाटियो 

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के आंदोलन और प्रचार में हर क़दम पर एंगेल्स के बिलकूल स्पष्ट, सटीक ठोस बयान को तोड़ा-मरोड़ा जाता है। उस विचार की सारी झठाइयों पर जिसको एंगेल्स ने यहां पूर्णतः ठुकरा दिया है, ब्योरेवार प्रकाश हमने "वर्तमान" राज्य पर मार्क्स और एंगेल्स के विचारों के और प्रागे विवरण में डाला है। 

एंगेल्स पनी बसे लोकप्रिय रचना में अपने विचारों का सामान्य सार निम्न शब्दों में देते हैं

"अतएव, राज्य अनादि काल से नहीं चला पा रहा है। ऐसे समाज भी हुए हैं, जिन्होंने बिना राज्य के अपना काम चलाया और जिन्हें राज्य और राज्य-सत्ता का कोई ज्ञा था। आर्थिक विकास की एक निश्चित अवस्था में , जो समाज के वर्गों में विभक्त हो जाने के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई थी, इस विभाजन के कारण राज्य अनिवार्य बन गया। अब हम उत्पादन के विकास की ऐसी अवस्था की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, जिसमें इन वर्गों का अस्तित्व केवल अनावश्यक , बल्कि उत्पादन के लिए निश्चित रूप से एक बाधा बन जाता है। वर्गों का उतने ही अवश्यंभावी ढंग से विनाश हो जायेगा , जितने अवश्यंभावी ढंग से उनका जन्म हुआ था। उनके साथ-साथ राज्य भी अनिवार्य रूप से मिट जायेगा। जो समाज उत्पादकों के स्वतंत्र तथा समान सहयोग की बुनियाद पर उत्पादन का संगठन करेगा, वह समाज राज्य की पूरी मशीनरी को उठाकर उस स्थान में रख देगा , जो उस समय उसके लिए सबसे उपयुक्त होगा : याने वह राज्य को हाथ के चर्खे और कांसे की कुल्हाड़ी के साथ-सा प्राचीन वस्तुओं के अजायबघर में रख देगा।

आधुनिक सामाजिक-जनवाद के प्रचार और आदोलन के साहित्य में यह उद्धरण हमें बहुधा नहीं मिलता। लेकिन जब यह उद्धरण मिलता है , तब भी से अधिकतर इस तरह पेश किया जाता है, जैसे देव-प्रतिमा गे शीश नवाया जा रहा हो, अर्थात एंगेल्स के प्रति प्रौपचारिक आदर प्रकट करने के लिए, यह सोचने की कोई कोशिश किये बगैर कि " राज्य का पूरी मशीनरी को प्राचीन वस्तुओं के अजायबघर' में रख देने की बात में कितनी व्यापक तथा गहरी क्रांति की पूर्वकल्पना निहित है। अधिकतर इस बात की भी समझ नहीं दिखाई देती कि एंगेल्स राज्य की मशीनरी किस चीज़ को कहते हैं।  

 

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. राज्य का "विलोप" और बलात क्रांति

 

राज्य के "विलोप" की बाबत एंगेल्स के शब्द इतनी व्यापक ख्याति पा चुके हैं, वे इतनी प्रायिकता से उद्धृत किये जाते हैं और मार्क्सवाद को अवसरवाद का रूप दे देने की एक अाम जालसाजी के सार को इतना उभारकर प्रदर्शित करते हैं कि उन पर ब्योरे से विचार करना आवश्यक है। हम वह सारा तर्क उद्ध करते हैं , जिससे वे लिये जाते हैं :

 

"सर्वहारा राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लेता है और सबसे पहले उत्पादन साधनों को राजकीय संपत्ति में बदल देता है। परंतु ऐसा करके वह सर्वहारा के रूप में स्वयं अपने आपको समाप्त कर देता है , तमाम वर्ग भेदों और वर्ग विरोधों को मिटा देता है और राज्य के रूप में राज्य का भी अंत कर देता है। अभी तक वर्ग विरोधों पर आधारित समाज को राज्य की वश्यकता होती थी, अर्थात उसे उसकी उत्पादन की बाह्य परिस्थितियों को बनाये रखने के लिए उस विशिष्ट वर्ग के संगठन की आवश्यकता होती थी , जो pro tempore* शोषक वर्ग होता था, और इसलिए खास तौर पर शोषित वर्गों को उस काल की विशिष्ट उत्पादन प्रणाली ( दास प्रथा , भूदास प्रथा , उजरती श्रम ) के अनुरूप उत्पीड़न की परिस्थिति में ज़बर्दस्ती बनाये रखने के लिए आवश्यकता होती थी। राज्य पूरे समाज का अधिकृत प्रतिनिधि था ; दृश्य एवं मूर्त रूप में मानो पूरा समाज संयुक्त रूप से साकार हो जाता था। परंतु यह बात केवल उसी हद तक सच होती थी, जिस हद तक कि राज्य उस वर्ग का राज्य होता था, जो अस्थायी तौर पर पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता था। प्राचीन काल में दासों के स्वामी नागरिकों का राज्य था ; मध्य युग में सामंती प्रभुत्रों का राज्य था और हमारे अपने ज़माने में बुर्जुग्रा वर्ग का राज्य है। जब राज्य अंततोगत्वा पूरे समाज का सच्चा प्रतिनिधि बन जाता है , तब वह अपने आपको अनावश्यक बना देता है। जब ऐसा कोई वर्ग नहीं रह जाता , जिसे पराधीन बनाकर रखने की आवश्यकता हो, जब वर्ग शासन और उत्पादन की वर्तमान अराजकता पर आधारित व्यक्तिगत जीवन संग्राम और उनसे पैदा होनेवाली टक्करें और ज्यादतियां समाप्त हो जाती हैं , तब ऐसी कोई चीज़ नहीं बचती , जिसको दबाकर रखना ज़रूरी 

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* हर अलग काल में। - सं० 

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है और तब एक विशेष मनकारी शक्ति की या राज्य की भी कोई नावश्यकता नहीं रहती। वह हला कार्य , जिसके द्वारा राज्य अपने आपको सचमच पुरे समाज का प्रतिनिधि बना देता है - अर्थात समाज के नाम पर उत्पादन साधनों को अपने अधिकार में ले लेनायह साथ ही राज्य के रूप में उसका आखिरी स्वतंत्र कार्य होता है। एक क्षेत्र के बाद दूसरे क्षेत्र में सामाजिक संबंधों में राज्य का हस्तक्षेप अनावश्यक बनता जाता है और फिर अपने आप समाप्त हो जाता है। व्यक्तियों के शासन का स्थान वस्तुओं का प्रबंध था उत्पादन की प्रक्रियाओं का संचालन ग्रहण कर लेता है। राज्य को 'रद्द नहीं किया जाता', वह अपने आप विलुप्त हो जाता है। ससे हम समझ सकते हैं कि 'स्वतंत्र जन-राज्य' की बात कितना मूल्य रखती है - प्रचारकों द्वारा उसका उपयोग कितना औचित्यपूर्ण है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से वह कितनी अपर्याप्त सिद्ध होती है। और साथ ही हम यह भी देख सकते हैं कि तथाकथित अराजकतावादियों की इस मांग का क्या मूल्य है कि राज्य को आनन-फानन मिटा देना चाहिए" ('ड्यूहरिंग मत-खंडन''श्री युजेन ड्यहरिंग द्वारा विज्ञान में प्रवर्तित क्रांति', पृ० ०१-३०३ , तीसरा जर्मन संस्करण )10  

ग़लत-बयानी के ख़तरे से मुक्त होकर कहा जा सकता है कि एंगेल्स के इन अद्भुत रूप से विचार-समृद्ध तर्कों में से केवल यही आधुनिक समाजवादी पार्टियों के समाजवादी विचारों का अभिन्न अंग बन पाया है कि राज्य को " रद्द करने" की अराजकतावादी शिक्षा से भिन्न मार्क्स के कथनानुसार राज्य "अपने आप विलुप्त हो जाता है" मार्क्सवाद को इस प्रकार तराशना उसे अवसरवाद बना देना है, क्योंकि इस तरह की " व्याख्या" में मंद , एकरस , क्रमिक परिवर्तन का , छलांगों और तूफ़ानों के अभाव का , क्रांति के अभाव का धुंधला भाव मात्र रह जाता है। राज्य के "विलो'' की प्रचलित , व्यापक और - अगर कह सकें तो - जनव्यापी कल्पना के मानी यदि क्रांति से इनकार नहीं , तो उस पर पर्दापोशी ज़रूर है।

  इस तरह की "व्याख्या" मार्क्सवाद की सबसे भोंडी विकृति है, जिससे केवल बुर्जुग्रा वर्ग को ही फ़ायदा होता है। सैद्धांतिक दृष्टि से वह उन सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिस्थितियों और विचारों की उपेक्षा पर आधारित है , जो "निष्कर्ष निकालनेवाले" एंगेल्स के उन्हीं तर्कों में इंगित किये गये हैं , जिनको हमने ऊपर पूरे का पूरा उद्धृत किया है।   

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पहले , एंगेल्स इन तर्कों के शुरू में ही कहते हैं कि राज्य-सत्ता पर अधिकार करके सर्वहारा वर्ग " राज्य के रूप में राज्य का अंत कर देता है" इसका अर्थ क्या है, इसकी बाबत सोचना "अप्रचलित" है। ग्राम तौर से उसे या तो बिलकुल नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है या एंगेल्स की " हेगेली कमज़ोरी' जैसी कोई चीज़ समझ ली जाती है। वास्तव में ये शब्द संक्षेप में एक महानतम सर्वहारा क्रांति के , १८७१ के पेरिस कम्यून के अनुभव की अभिव्यक्ति करते हैं, जिसके बारे में हम यथास्थान विस्तार से विचार करेंगे। वास्तव में एंगेल्स यहां सर्वहारा क्रांति द्वारा बुर्जुआ राज्य के "अंत" की बात कहते हैं, जबकि राज्य के विलोप संबंधी शब्दों का वास्ता समाजवादी क्रांति के बाद सर्वहारा राज्यत्व के अवशेषों से है। एंगेल्स के अनुसार बुर्जुवा राज्य का विलोप नहीं होता , बल्कि क्रांति में सर्वहारा वर्ग द्वारा उसका "अंत कर दिया जाता है" इस क्रांति के बाद सर्वहारा राज्य या अर्द्धराज्य का विलोप हो जाता है।

 दूसरे , राज्य "एक विशेष दमनकारी शक्ति' है। यहां एंगेल्स ने यह उत्तम और अत्यंत गंभीर परिभाषा अधिकतम स्पष्टता के साथ प्रस्तुत की है। और इससे यह नतीजा निकलता है कि सर्वहारा वर्ग के लिए बुर्जुश्रा वर्ग की , करोड़ों मेहनतकशों के लिए मुट्ठी भर अमीरों की "विशेष दमनकारी शक्ति" के स्थान पर बुर्जुवा वर्ग के लिए सर्वहारा वर्ग की " विशेष दमनकारी शक्ति" की ( सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की) स्थापना ज़रूरी है। इसी में "राज्य के रूप में राज्य का अंत" निहित है। इसी में समाज के नाम पर उत्पादन के साधनों को अपने अधिकार में ले लेने का "कार्य" निहित है। और यह स्वतःप्रत्यक्ष है कि एक ( बुर्जुग्रा ) "विशेष शक्ति" के स्थान पर दूसरी ( सर्वहारा वर्ग की) " विशेष शक्ति' की ऐसी स्थापना " विलोप' के रूप में किसी तरह संभव नहीं हो सकती है। 

तीसरे , "विलोप" की बाबत , बल्कि और अधिक आकर्षक तथा रंगीन "समाप्ति" की बाबत , एंगेल्स बिलकुल निश्चित और स्पष्ट रूप से "समाज के नाम पर उत्पादन साधनों को अपने अधिकार में ले लेने के बाद याने समाजवादी क्रांति के बाद के युग के संदर्भ में बात करते हैं। हम सभी जानते हैं कि उस समय "राज्य" का राजनीतिक रूप पूर्णतम जनवाद होता 

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है। लेकिन मार्क्सवाद की बेशरमी से तोड़-मरोड़ करनेवाले किसी भी अवसर वादी के दिमाग़ में यह बात नहीं घुसती कि एंगेल्स यहां जनवाद की ही "समाप्ति" तथा " विलोप" की बात कर रहे हैं। पहली नज़र में यह बात बहत विचित्र मालूम होती है। लेकिन यह "अबोधगम्य" उन्हीं लोगों के लि है, जिन्होंने इस चीज़ पर गौर नहीं किया है कि जनवाद भी राज्य ही है और फलतः जब राज्य मिट जायेगा , तो जनवाद भी मिट जायेगा। बुर्जुआ राज्य का केवल क्रांति ही "अंत" कर सकती है। ग्राम राज्य का , याने सबसे पूर्ण जनवाद का , केवल " विलोप" हो सकता है।

चौथे , " राज्य के विलोप" की अपनी प्रसिद्ध प्रस्थापना प्रस्तुत करके एंगेल्स फ़ौरन ही ठोस तरीके से समझाते हैं कि यह प्रस्थापना अवसरवादियों और अराजकतावादियों के खिलाफ़ समान रूप से निर्देशित है। ऐसा करने में एंगेल्स " राज्य के विलोप" की प्रस्थापना के उस निष्कर्ष को सबसे आगे रखते हैं, जो अवसरवादियों के ख़िलाफ़ है। 

यह बात शर्त लगाकर कही जा सकती है कि १०,००० आदमियों में से , जिन्होंने राज्य के "विलोप" के बारे में पढ़ा या सुना है, ,६६० को बिलकूल मालम या याद नहीं है कि इस प्रस्थापना से एंगेल्स ने जो निष्कर्ष निकाले थे, वे केवल अराजकतावादियों के विरुद्ध नहीं निर्देशित थे। बाक़ी दस में से शाय नौ यह नहीं जानते कि "स्वतंत्र जन-राज्य" क्या है और इस नारे पर हमले में अवसरवादियों पर हमला क्योंकर शामिल है। इस तरह इतिहास लिखा जाता है ! इस तरह महान क्रांतिकारी शिक्षा की परोक्ष रूप से जालसाज़ी करके उसे हावी कूपमंडूकता बनाया जाता है। अराजकतावादियों के ख़िलाफ़ निकाले गये निष्कर्ष को हजारों बार दुहराया गया है , भ्रष्ट किया गया है, दिमागों में अधिकतम सादे रूप में लूंसा गया है और उसने पूर्वाग्रह की मजबूती प्राप्त कर ली है। लेकिन अवसरवादियों के खिलाफ़ निकाले गये निष्कर्ष पर पर्दा डाल दिया गया है, उसे "भुला दिया गया है"! _ "स्वतंत्र जन-राज्य" उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में जर्मन सामाजिक-जनवादियों की कार्यक्रम संबंधी मांग और प्रचलित नारा था। इस नारे में जनवाद की अवधारणा के आडंबरपूर्ण दकियानूसी वर्णन के सिवाय कोई राजनीतिक अंतर्य नहीं है। जहां तक उसके द्वारा क़ानूनी तौर पर 

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जनवादी जनतंत्र की ओर इशारा किया जाता था , वहां तक एंगेल्स प्रचारा त्मक दृष्टि से , उसे "सामयिक" "ौचित्य' प्रदान करने को तैयार थे। लेकिन वह अवसरवादी नारा था , क्योंकि वह केवल बुर्जुमा जनवाद के अलंकरण को ही , बल्कि आम तौर से हर प्रकार के राज्य की समाजवादी आलोचना की नासमझी को भी अभिव्यक्त करता था। पूंजीवाद के अंतर्गत सर्वहारा वर्ग के लिए राज्य के सबसे अच्छे रूप के तौर पर हम जनवादी जनतंत्र के पक्ष में हैं, लेकिन हमें यह भूल जाने का हक़ नहीं है कि सर्वाधिक जनवादी बुर्जुआ जनतंत्र में भी उजरती गुलामी जनता की किस्मत में बदी होती है। आगे , हर प्रकार का राज्य उत्पीडित वर्ग के लिए एक " विशेष दमनकारी शक्ति" होता है। इसलिए हर प्रकार का राज्य गैर आजाद और गैर अवामी होता है। पिछली शताब्दी के अाठवें दशक में मार्क्स और एंगेल्स ने अपने पार्टी कामरेडों के सामने यह बात बार-बार स्पष्ट की थी 111

पांचवें , एंगेल्स की इसी पुस्तक में , जिसके राज्य के "विलोप" के तर्क को सभी याद करते हैं, बलात क्रांति के महत्व का तर्क भी है। उसकी भूमिका का एंगेल्स द्वारा किया गया ऐतिहासिक मूल्यांकन बलात क्रांति का सचमुच क़सीदा बन जाता है। यह "कोई नहीं याद करता", अाधुनिक समाजवादी पार्टियों में इस विचार के महत्व के बारे में कुछ कहना या सोचना तक अप्रचलित है, जनता के बीच रोज़मर्रा के आंदोलन और प्रचार में इस विचार की कोई भूमिका नहीं होती। लेकिन फिर भी वह राज्य के " विलोप" से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। 

यह रहा एंगेल्स का तर्क

"... किंतु श्री ड्यूहरिंग की रचनाओं में इसके बारे में एक शब्द भी नहीं मिलता कि यही बल इतिहास में" ( शैतानी ताक़त की भूमिका के अलावा ) "एक और भूमिका , क्रांतिकारी भूमिका भी अदा करता है, कि मार्क्स के शब्दों में प्रत्येक ऐसे पुराने समाज के लिए , जिसके गर्भ में नये समाज का अंकुर बढ़ रहा है , बल प्रयोग बच्चा जनवानेवाली दाई का काम करता है 12 , कि बल वह औज़ार है , जिसकी मदद से सामाजिक गति पुराने , मृत , अश्मीभूत राजनीतिक रूपों को तोड़कर अपने लिए रास्ता बनाती है। 

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श्री ड्यहरिंग तो बहुत आह भरते हुए और कराहते हुए इस संभावना को स्वीकार करते हैं कि शोषण की आर्थिक व्यवस्था को खत्म करने के लिए शायद बल की आवश्यकता होगी - वह उनके लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है. क्योंकि उनके मतानुसार हर प्रकार का बल प्रयोग निश्चित रूप से उस व्यक्ति को नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट कर देता है, जो बल का प्रयोग करता है। प्रत्येक विजयी क्रांति से जो महान नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रेरणा मिली है, उसके बावजूद श्री ड्यूहरिंग का यही मत है। और यह मत जर्मनी में प्रकट किया जा रहा है, जहां एक हिंसापूर्ण टक्कर से - और इसकी निश्चय ही संभावना है कि इस प्रकार की टक्कर जनता के लिए अनिवार्य बन जाये - कम से कम इतना लाभ तो अवश्य होगा कि दासत्व की वह भावना मिट जायेगी , जो तीससाला युद्ध के अपमान के फलस्वरूप राष्ट्र की चेतना में कूट-कूटकर भर गयी है। और वह पादरीतुल्य , निर्जीव , नीरस और नपुंसक चिंतन प्रणाली दावा कर रही है कि इतिहास में अभी तक जो सबसे क्रांतिकारी पार्टी हुई है , उसे इस चिंतन प्रणाली को अपने मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करना चाहिए !" (पृ० १६३ , तीसरा जर्मन संस्करण , भाग , अध्याय का अंत ) 

बलात क्रांति के इस क़सीदे का, जिसकी तरफ़ एंगेल्स १८७८ से १८६४ तक, याने बिलकुल अपने मृत्यु-काल तक, जर्मनी के सामाजिक जनवादियों का ध्यान बराबर दिलाते रहे, राज्य के " विलोप" के सिद्धांत के साथ एक ही शिक्षा में किस तरह एकीकरण संभव है ?  

आम तौर से दोनों का एकीकरण सारसंग्रहवाद की मदद से , अविचारपूर्ण या कुतर्की ढंग से मनमाने ( या सत्ताधारियों की तुष्टि के लिए ) कभी एक और कभी दूसरे तर्क को चुनकर किया जाता है और अधिक नहीं , तो सौ में निनानवे बार ठीक "विलोप" को ही पहला स्थान दिया जाता है। द्वंद्ववाद का स्थान सारसंग्रहवाद ले लेता है - मार्क्सवाद के संबंध में आज के आधिकारिक सामाजिक-जनवादी साहित्य में यही सबसे ज़्यादा आम तथा व्यापक परिघटना है। इस तरह की हेरा-फेरी बेशक कोई नयी चीज़ नहीं है। वह क्लासिकीय यूनानी दर्शन के इतिहास में भी पायी जाती है। मार्क्सवाद' को अवसरवाद बनाने की जालसाज़ी करते हुए सारसंग्रहवाद को द्वंद्ववाद बनाने की जालसाज़ी जनता को धोखा देने के लिए सबसे आसान है ; उससे प्रतीयमान संतोष प्राप्त होता है, जैसे प्रक्रिया के हर पहलू पर

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विकास की तमाम प्रवृत्तियों पर , तमाम विरोधपरक प्रभावों, आदि पर ध्यान दिया जा रहा हो, जबकि वास्तव में वह सामाजिक विकास की प्रक्रिया की कोई भी अखंड और क्रांतिकारी समझ नहीं देती।

 हम ऊपर कह चुके हैं और आगे के विवरण में और विस्तार से बतायेंगे कि बलात क्रांति की अनिवार्यता के बारे में मार्क्स और एंगेल्स की शिक्षा का संबंध बुर्जुश्रा राज्य से है। उसका स्थान सर्वहारा राज्य ( सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व ) "विलोप" के रास्ते नहीं ले सकता , बल्कि आम नियम के अनुसार केवल बलात क्रांति द्वारा ही ले सकता है। उसकी एंगेल्स द्वारा की गयी और मार्क्स की अनेकानेक घोषणाओं से पूर्णतः मेल खानेवाली क़सीदाख़ानी – ( स्मरणीय है 'दर्शन की दरिद्रता' और 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र '14 के अंतिम भाग में बलात क्रांति की अनिवार्यता की सगर्व और खुली घोषणा ; स्मरणीय है १८७५ के गोथा कार्यक्रम15 की आलोचना , जिसमें प्रायः ३० सा बाद मार्क्स ने उस कार्यक्रम के अवसरवाद' की निर्ममतापूर्वक धज्जियां उड़ा दी थीं ) – यह क़सीदाखानी किसी तरह भी "भावावेग" नहीं है, किसी तरह भी वाग्मिता नहीं है , वाद-विवाद की चाल नहीं है। बलात क्रांति की ऐसी और ठीक ऐसी दृष्टि को व्यवस्थित रूप से जनता में पोषित करने की आवश्यकता ही मार्क्स और एंगेल्स की सारी शिक्षा का आधार है। उनकी शिक्षा के साथ इस समय हावी सामाजिक अंधराष्ट्रवादी और काउत्स्कीवादी प्रवृत्तियों की ग़द्दारी दोनों ही द्वारा ऐसे प्रचार और ऐसे आंदोलन की उपेक्षा में विशेष रूप से उभरकर सामने आती है।

 सर्वहारा राज्य का बुर्जुआ राज्य की जगह लेना बलात क्रांति के बिना असंभव है। सर्वहारा राज्य का उन्मूलन , अर्थात प्राम राज्य का ही उन्मूलन , " विलोप" के रास्ते के सिवा अन्यथा असंभव है।

 मार्क्स और एंगेल्स ने प्रत्येक अलग क्रांतिकारी परिस्थिति का अध्ययन करते हुए , हर अलग क्रांति के अनुभव के सबक़ का विश्लेषण करते हु इन दृष्टियों को विस्तृत और ठोस रूप में विकसित किया। आगे हम उनकी शिक्षा के इसी असंदिग्ध रूप से सबसे महत्वपूर्ण अंश पर आयेंगे।

 

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