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Friday, 14 August 2020

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्षेविक) का इतिहास

सातवां अध्याय

अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति की तैयारी और विजय के दौर में बोल्शेविक पार्टी 

(अप्रैल 1917-1918) 

1. फरवरी क्रान्ति के बाद देश की परिस्थिति। गुप्त जीवन से पार्टी का निकलना और खुला राजनीतिक काम करना। लेनिन का पेत्रोग्राद आना। लेनिन की अप्रैल-थीसिस (सैद्धान्तिक निबंध)। समाजवादी क्रान्ति की ओर आगे बढ़ने की पार्टी नीति। 

घटना-क्रम और अस्थायी सरकार के आचरण से, नित नये सबूत मिलने लगे कि बोल्शेविक नीति सही है। यह बात अधिकाधिक ज़ाहिर होती गयी कि अस्थायी सरकार जनता के पक्ष में नहीं है बल्कि जनता के खिलाफ़ है, शान्ति के पक्ष में नहीं है बल्कि युद्ध के पक्ष में है और वह जनता को शान्ति, ज़मीन या रोटी न तो दे सकती है, न देना चाहती है। बोल्शेविकों ने अपनी नीति समझाने के काम के लिये उपजाऊ ज़मीन पायी। 

जबकि मजदूर और सैनिक ज़ार सरकार का तख़्ता उलट रहे थे और राज्यतंत्र की जड़ ही काट रहे थे, अस्थायी सरकार निश्चित रूप से राज्यतंत्र की रक्षा करना चाहती थी। 2 मार्च 1917 को, उसने गुप्त रूप से गुचकोव और शुल्गिन को ज़ार के पास जाने और उससे मिलने के लिये मुक़र्रर किया। पूंजीपति चाहते थे कि सत्ता निकोलस रोमानोव के भाई माइकेल के हाथ में आ जाये। लेकिन, जब रेल-मजदूरों की एक सभा में गुचकोव ने अपने भाषण का अंत करते हुए कहा: 'सम्राट माइकेल जिन्दाबाद', तो मजदूरों ने मांग की कि गुचकोव को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाये और उसकी खानातलाशी ली जाये। मजदूरों ने गुस्से में कहा: जैसे नागनाथ, वैसे साँपनाथ!

ज़ाहिर था कि मजदूर राज्यतंत्र को बहाल न होने देंगे। 

जबकि मजदूर और किसान, जो क्रांति करते हुये अपना खून बहा रहे थे, आशा करते थे कि युद्ध बंद कर दिया जायेगा ; जबकि वे रोटी और ज़मीन के लिये लड़ रहे थे और आर्थिक अव्यवस्था को खत्म करने के लिये ज़ोरदार उपाय करने की मांग कर रहे थे, अस्थायी सरकार जनता की इन बेहद ज़रूरी मांगों को अनसुनी कर रही थी। इस सरकार में पूंजीपतियों और ज़मींदारों के प्रतिनिधि तो थे ही, उसका कोई इरादा न था कि किसानों को ज़मीन देने की उनकी मांग पूरी की जाये। न वह मेहनतकश जनता को रोटी दे सकती थी; क्योंकि ऐसा करने के लिये उसे गल्ले के बड़े व्यापारियों के हितों में हाथ लगाना पड़ता और हर मुमकिन उपाय से ज़मींदारों और कुलकों से गल्ला लेना पड़ता। और हुकूमत यह करने की हिम्मत न करती थी, क्योंकि वह खुद इन वर्गाें के हितों से बंधी हुई थी। वह जनता को शान्ति नहीं दे सकती थी। अंग्रेज और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों से उसका गठबंधन तो था ही। अस्थाई सरकार की ज़रा भी मंशा न थी कि युद्ध खत्म किया जाये, उल्टा वह क्रांति से फायदा उठा कर साम्राज्यवादी युद्ध में रूस के और सक्रिय रूप से भाग लेने की कोशिश कर रही थी और इस तरह, कुस्तुन्तुनिया, दर्रे दानियाल और गैलीशिया पर कब्ज़ा करने के अपने साम्राज्यवादी मंसूबे पूरे करना चाहती थी। 

यह स्पष्ट था कि अस्थाई सरकार की नीति में जनता का विश्वास अवश्य ही जल्द खत्म हो जायेगा। 

यह बात साफ़ थी कि फरवरी क्रांति के बाद जिस दुहरी सत्ता का जन्म हुआ, वह ज्यादा दिन तक न चल सकती थी। घटना-क्रम की मांग थी कि सत्ता एक ही अधिकारी के हाथ में केंद्रित हो: या तो अस्थाई सरकार के हाथ में, या सोवियतों के हाथ में। 

यह ठीक था कि मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों की समझौतावादी नीति को अब भी आम जनता में समर्थन मिल जाता था। ऐसे काफ़ी मज़दूर थे और इनसे भी ज्यादा सैनिक और किसान थे जो अब भी समझते थे कि 'विधानसभा जल्द ही आयेगी और सब कुछ शान्तिमय ढंग से ठीक कर देगी।' और, ये लोग समझते थे कि युद्ध दूसरे देश जीतने के लिये नहीं, बल्कि ज़रूरत के लिये, राज्य की रक्षा करने के लिये हो रहा है। लेनिन ने ऐसे आदमियों को ईमानदारी से ग़लती करने वाले सुरक्षावादी कहा था। ये लोग अब भी समझते थे कि समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नीति, जो वादों और फुसलाने की नीति थी, सही नीति है। लेकिन, ज़ाहिर था कि वादे करने और फुसलाने से ज़्यादा दिन काम न चल सकता था, जैसा कि घटनाक्रम और अस्थायी सरकार के व्यवहार से आये दिन प्रकट हो रहा था। इससे साबित हो रहा था कि समाजवादी क्रांतिकारियों और मेन्शेविकों की समझौतावादी नीति काम को टालने और सीधे-सादे लोगों को बरगलाने की नीति है। 

अस्थाई सरकार आम जनता के क्रांतिकारी आन्दोलन के खिलाफ़ हमेशा छिपे संघर्ष से ही काम न लेती थी, क्रांति के खिलाफ़ छिपकर साजिशें करने से ही संतुष्ट न थी। वह कभी-कभी जनवादी अधिकारों पर खुला हमला करने की कोशिश करती थी, 'अनुशासन बहाल करने की कोशिश करती थी', खास तौर से सैनिकों में कोशिश करती थी, 'व्यवस्था कायम करने' यानि क्रांति को ऐसी धाराओं में बहाने की कोशिश करती थी जो पूंजीपतियों की ज़रूरतों के माकूल थीं। लेकिन, इस दिशा में उसकी सभी कोशिशें नाकाम हुईं। लोग आतुरता से अपने जनवादी अधिकारों का यानि भाषण, प्रेस, सभा-संगठन बनाने, मीटिंगें और प्रदर्शन करने की आजादी का इस्तेमाल करते थे। मजदूरों और सैनिकों ने कोशिश की कि हाल में जीते हुये जनवादी अधिकारों को पूरा उपयोग करें, जिससे कि वे देश के राजनीतिक जीवन में सक्रिय हिस्सा ले सकें, हालात को समझदारी से पहचान सकें और आगे क्या करना चाहिये इसका फैसला कर सकें। 

फरवरी क्रांति के बाद, बोल्शेविक पार्टी के संगठन, जो ज़ारशाही की बेहद कठिन परिस्थितियों में गै़रकानूनी तौर पर काम करते रहे थे, गुप्त जीवन से बाहर निकले और खुल कर राजनीतिक तथा संगठनात्मक काम आगे बढ़ने लगे। उस समय, बोल्शेविक संगठनों के चालीस या पैंतालीस हजार से ज्यादा सदस्य न थे। लेकिन, ये सब संघर्ष में निखरे हुये पक्के क्रांतिकारी थे। पार्टी-कमिटियां जनवादी केन्द्रियता के उसूल पर फिर से संगठित की गयीं। ऊपर से लेकर नीचे तक, सभी पार्टी संस्थाओं का निर्वाचित होना ज़रूरी हो गया। 

जब पार्टी ने अपना कानूनी जीवन शुरू किया, तो उसके भीतर मतभेद स्पष्ट होकर सामने आये। कामेनेव और मास्को-संगठन के कई मज़दूर, मिसाल के लिये राइकोव, बुबनोव और नोगिन यह अर्द्ध-मेन्शेविक विचार पेश करते थे कि कुछ शर्तों के साथ अस्थायी सरकार और सुरक्षावादियों को नीति का समर्थन किया जाये। स्तालिनजो हाल ही में, निर्वासन से लौटे थे, मोलोतोव और दूसरों ने पार्टी के बहुमत के साथ अस्थाई सरकार में अविश्वास की नीति का समर्थन किया, सुरक्षावाद का विरोध किया और शांति के लिये सक्रिय संघर्ष करने के लिये, साम्राज्यवादी युद्ध के खिलाफ़ संघर्ष करने के लिये बुलावा दिया। पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं ने ढुलमुलपन दिखाया, जो उनके राजनीतिक पिछड़ेपन की निशानी था, बहुत दिन तक जेल में या निर्वासन में रहने का नतीजा था। 

पार्टी के नेता लेनिन का अभाव महसूस हो रहा था। 

3 (16) अप्रैल 1917 को, निर्वासन की लम्बी अवधि के बाद लेनिन रूस लौटे। 

लेनिन का आना पार्टी और क्रांति के लिये अत्यंत महत्व की बात थी। 

लेनिन जब स्विटजरलैंड में थे, तभी उन्होंने क्रांति की पहली ख़बर मिलने पर पार्टी और रूस के मजदूर वर्ग के नाम "सुदूर के पत्र" लिखे थे, जिनमें उन्होंने कहा था: 

"मजदूरों, तुमने ज़ारशाही के खिलाफ़ गृहयुद्ध में सर्वहारा की वीरता, जनता की वीरता के चमत्कार दिखलाये हैं। अब क्रांति की दूसरी मंजिल में अपनी जीत के लिये रास्ता साफ करने के लिये तुम्हें संगठन के चमत्कार, सर्वहारा और तमाम जनता के संगठन के चमत्कार दिखाने चाहिये।" (लेनिन, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 1, पृष्ठ741) 

3 अप्रैल की रात को, लेनिन पेत्रोग्राद आये। फ़िनलैंड रेलवे स्टेशन पर और स्टेशन के चैराहे पर उनका स्वागत करने के लिये हजारों मजदूर, सैनिक और मल्लाह इकट्ठे हुये। लेनिन जब टंेन से उतरे, तब जनता का उत्साह अवर्णनीय था। उसने अपने नेता को कंधों तक ऊंचा उठा लिया और स्टेशन के मुख्य वेटिंगरूम तक ले गयी। वहां पेत्रोग्राद-सोवियत की तरफ से मेन्शेविक चखाइत्जे और स्कोबलेव ने 'स्वागत' भाषण आरंभ कर दिये, जिसमें उन्होंने 'आशा प्रकट की' कि वे और लेनिन एक 'मुश्तर्का जुबान' पा सकेंगे। लेकिन, लेनिन उनकी बात सुनने के लिये रुके नहीं। उनके पास से तेजी से निकलते हुये, वह आम मजदूरों और सैनिकों के पास पहुंच गये। हथियारबंद गाड़ी पर चढ़कर उन्होंने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया, जिसमें उन्होंने समाजवादी क्रांति की विजय के लिये आम जनता को लड़ने के लिये बुलावा दिया। 'समाजवादी क्रांति जिन्दाबाद!' - इन शब्दों के साथ, निर्वासन की लम्बी अवधि के बाद लेनिन ने अपना पहला भाषण खत्म किया। 

रूस में वापस आकर, लेनिन जोरशोर से क्रांतिकारी काम में जुट गये। आने के दूसरे दिन ही, युद्ध और क्रांति के विषय पर बोल्शेविकों की एक मीटिंग में उन्होंने रिपोर्ट दी और उसके बाद मेन्शविकों और बोल्शेविकों की एक मिली-जुली मीटिंग में रिपोर्ट की सैद्धांतिक स्थापनाओं (थीसिस) को दुहराया। 

ये लेनिन की मशहूर अप्रैल थीसिस थी, जिससे पार्टी और सर्वहारा वर्ग को पूंजीवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति की तरफ बढ़ने के लिये स्पष्ट क्रांतिकारी नीति मिली। लेनिन की सैद्धान्तिक स्थापनायें क्रांति के लिये और पार्टी के अगले काम के लिये भारी महत्व रखती थीं। क्रांति देश के जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ थी। ज़ारशाही के खात्मे के बाद, संघर्ष की जो नयी हालत पैदा हुई, उसमें पार्टी के लिये एक नया दृष्टिकोण ज़रूरी था, जिससे कि वह हिम्मत और विश्वास के साथ नयी राह पर आगे बढ़ सके। लेनिन की इन स्थापनाओं ने पार्टी को यही दृष्टिकोण दिया। 

लेनिन की अप्रैल की सैद्धांतिक स्थापनाओं ने पूंजीवादी-जनवादी क्रांति से समजवादी क्रांति की तरफ, क्रांति की पहली मंजिल से दूसरी मंजिल की तरफ़ - समाजवादी क्रांति की मंजिल की तरफ़-बढ़ने के लिये संघर्ष की एक सुन्दर योजना रखी। पार्टी के समूचे इतिहास ने इस महान कार्य के लिये उसे तैयार किया था। 1905 के दिनों में भी, लेनिन ने अपनी पुस्तिका जनवादी क्रांति में सोशल-डेमोक्रेसी की दो कार्यनीतियां में कहा था कि ज़ारशाही का खात्मा होने के बाद सर्वहारा वर्ग समाजवादी क्रांति के लिये बढ़ेगा। इन स्थापनाओं में नई बात यह थी कि समाजवादी क्रांति की तरफ बढ़ने की प्रारंभिक मंजिल के लिये ठोस और सिद्धांत पर आधारित योजना दी गयी थी। 

आर्थिक क्षेत्र में, बीच के दौर के ये कदम उठाने थे: सारी ज़मीन का  राष्टीयकरण और रियासती ज़मीन की ज़ब्ती, सभी बैंकों को मिलाकर एक  राष्टीय बैंक बनाना जो मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियत के नियंत्रण में हो, और चीज़ों की सामाजिक पैदावार और उनके वितरण पर नियंत्रण कायम करना। 

राजनीतिक क्षेत्र में, लेनिन ने प्रस्ताव किया कि पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र से सोवियतों के प्रजातंत्र की तरफ़ बढ़ा जाये। मार्क्स वाद के सिद्धांत और अमल में यह एक आगे बढ़ा हुआ महत्वपूर्ण कदम था। अभी तक मार्क्स वादी सिद्धांतकार यह समझते रहे थे कि समाजवाद की तरफ़ बढ़ने के लिये पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र सबसे अच्छा राजनीतिक रूप है। अब लेनिन ने प्रस्ताव किया कि पूंजीवाद से समाजवाद की तरफ बढ़ने के दौर में पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र की जगह पर सोवियात प्रजातंत्र ले, जो इस दौर के लिये समाज के राजनीतिक संगठन का सबसे उपयुक्त रूप होगा। 

इन स्थापनाओं में कहा गया था: 

"रूस की मौजूदा हालत की अपनी विशेषता यह है कि वह क्रांति की पहली मंजिल से - जबकि मजदूरों में वर्ग-चेतना और संगठन नाकाफ़ी होने से सत्ता पूंजीपतियों के हाथ में सौंप दी गयी - दूसरी मंजिल की तरफ़ बढ़ना है, जबकि सत्ता सर्वहार वर्ग और किसानों के सबसे ग़रीब हिस्से के हाथ में ज़रूर आयेगी"(उप., खण्ड 2, पृष्ठ 18) 

और आगे भी: 

"पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र नहीं - मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियातों से पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र की तरफ लौटना पीछे क़दम उठाना होगा - बल्कि समूचे देश में, ऊपर से नीचे तक, मजदूर, खेत-मजदूर और किसान प्रतिनिधियों की सोवियतों का प्रजातंत्र।" (उप., पृष्ठ 18) 

नयी हुकूमत में, अस्थाई सरकार के राज में, लेनिन ने कहा कि युद्ध का रूप अब भी लुटेरा साम्राज्यवादी बना हुआ है। पार्टी का यह काम था कि आम जनता को समझाये और उसे यह दिखलाये कि जब तक पूंजीपतियों का तख्ता न उल्टा जायेगा तब तक एक सच्ची जनवादी शांति करके, न कि लूट-खसोट की शांति करके, युद्ध खत्म करना असंभव होगा। 

जहां तक अस्थाई सरकार का सवाल था, लेनिन ने यह नारा दिया: 'अस्थाई सरकार को कोई मदद न दो!

इन स्थापनाओं में, लेनिन ने और आगे बताया कि सोवियतों में हमारी पार्टी अब भी अल्पसंख्या में है: सोवियतों पर मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों का गुट हावी है, जो कि सर्वहारा वर्ग पर पूंजीवादी असर फैलाने का साधन है। इसलिये, पार्टी का काम यह है: 

"आम जनता को यह समझाना चाहिये कि क्रान्तिकारी हुकूमत का एक ही मुमकिन रूप है, और वह है - मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतें। इसलिये, हमारा काम है कि जब तक यह हुकूमत पूंजीपतियों के असर के सामने घुटने टेकती जाती है, तब तक उसकी ग़लतियां और उसकी कार्यनीति धीरज के साथबाकायदा और लगातार जनता को समझायें और जनता की अमली ज़रूरतों को खास तौर से ध्यान में रखते हुये समझायें। जब तक हम अल्पसंख्या में हैं, तब तक हम आलोचना करने और ग़लतियों का पर्दाफाश करने का काम करते रहेंगे और साथ ही इस बात का प्रचार करेंगे कि पूरी राज्य-शक्ति मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतों को सौंपना ज़रूरी है...।" (लेनिन, सं.ग्रं., रू.सं., खण्ड 20, पृष्ठ 88) 

इसका मतलब यह था कि लेनिन अस्थाई सरकार के खि़लाफ़ विद्रोह करने का बुलावा न दे रहे थे। उस समय, उसे सोवियतों का विश्वास प्राप्त था। लेनिन उसका तख्ता उलटने की मांग न कर रहे थे, बल्कि वह चाहते थे कि समझाने और भर्ती करने के काम के ज़रिये सोवियतों में बहुमत क़ायम किया जाये, सोवियतों की नीति बदली जाये और सोवियतों के ज़रिये हुकूमत की बनावट और नीति बदली जाये। 

यह ऐसी नीति थी जो अपने तईं क्रान्ति का शान्तिमय विकास देखती थी। 

लेनिन ने यह मांग की कि 'पुरानी वर्दी' उतार फेंकी जाये, यानी पार्टी अब अपने को सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी न कहे। दूसरी इन्टरनेशनल की पार्टियाँ और रूसी मेन्शेविक अपने को सोशल-डेमोक्रेट कहते थे। अवसरवादियों ने, समाजवाद से दगा करने वालों ने इस नाम को ज़लील किया था और उस पर कालिख पोत दी थी। लेनिन ने प्रस्ताव किया कि बोल्शेविकों की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी कहलाये, जो नाम मार्क्स  और एंगेल्स ने अपनी पार्टी को दिया था। यह नाम वैज्ञानिक रूप से सही था, क्योंकि बोल्शेविक पार्टी का अंतिम उद्देश्य कम्युनिज़्म हासिल करना था। मनुष्य जाति पूंजीवाद से सीधी बढ़कर समाजवाद की तरफ ही जा सकती है, यानी पैदावार के साधनों की मिलीजुली मिल्कियत और हरेक के काम के अनुसार उपज के बँटवारे की तरफ ही जा सकती है। लेनिन ने कहा कि हमारी पार्टी इससे और आगे देखती है। यह लालि़मी है कि समाजवाद क्रमशः कम्युनिज़्म की मंजिल में प्रवेश करे, जिसके झंडे पर यह उसूल लिखा हुआ था: 'हरेक से उसकी योग्यता के अनुसार, हरेक को उसकी जरूरत के अनुसार !

अंत में, लेनिन ने अपनी सैद्धान्तिक स्थापनाओं में मांग की कि एक नयी इन्टरनेशनल, तीसरी, कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल बनायी जाये, जो अवसरवाद और अंधराष्टंवाद से मुक्त हो। 

लेनिन की सैद्धान्तिक स्थापनायें देख कर, पूंजीपति, मेन्शेवकि और समाजवादी क्रान्तिकारी झल्लाकर चीख उठे। 

मेन्शेविकों ने मजदूरों के नाम एक ऐलान निकाला, जिसकी शुरुआत इस चेतावनी से होती थी: 'क्रान्ति खतरे में है!' मेन्शेविकों की राय में, खतरा इस बात में था कि बोल्शेविकों ने मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों को सत्ता देने का नारा पेश किया था। 

प्लेखानोव ने अपने अख़बार येदीम्स्त्वो (एकता) में एक लेख लिखा, जिसमें लेनिन के भाषण को 'पागल का प्रलाप' बतलाया। उसने मेन्शेविक चखाइत्जे के इन शब्दों को उद्धृत किया: "अकेला लेनिन क्रान्ति से बाहर रहेगा और हम अपने रास्ते पर बढ़ते ही जायेंगे।

14 अप्रैल को, बोल्शेविकों का पेत्रोग्राद नगर-सम्मेलन हुआ। 

सम्मेलन ने लेनिन की सैद्धान्तिक स्थापनाओं को मंजूर किया और उन्हें अपने काम का आधार बनाया। 

थोड़े ही समय में, पार्टी के स्थानीय संगठनों ने भी लेनिन की स्थापनाओं को मंजूर कर लिया। 

कामेनेव, राइकोव और प्याताकोव जैसे कुछ व्यक्तियों को छोड़कर, समूची पार्टी ने लेनिन की स्थापनाओं को बहुत ही संतोष के साथ स्वीकार किया। 

2. अस्थायी सरकार के संकट की शुरुआत। बोल्शेविक पार्टी की अप्रैल कान्फ्रेन्स। 

जबकि बोल्शेविक क्रान्ति को और आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, तब अस्थायी सरकार जनता के खिलाफ़ काम करती जा रही थी। 18 अप्रैल को अस्थायी सरकार के वैदेशिक मंत्री मिल्यूकोव ने मित्र-देशों को सूचित किया कि "तमाम जनता विश्वयुद्ध को तब तक चालू रखना चाहती है जब तक कि निश्चित विजय न मिल जाये; और अस्थायी सरकार मित्र-देशों के प्रति ली हुई अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निबाहेगी।

इस तरह, अस्थायी सरकार ने ज़ार की संधियों के प्रति अपनी वफ़ादारी की कसम खाई और जनता का उतना खून बहाते जाने का वायदा किया जितना कि साम्राज्यवादियों को 'निश्चित विजय' के लिये दरकार हो। 

19 अप्रैल को, मजदूरों और सैनिकों को इस बयान ("मिल्यूकोव के नोट") का पता लगा। 20 अप्रैल को, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने अस्थायी सरकार की साम्राज्यवादी नीति के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शित करने के लिये कहा। 20-21 अप्रैल (3-4 मई) 1917 को, कम से कम एक लाख मजदूरों और सैनिकों ने "मिल्यूकोव के नोट" पर गुस्से में भर कर, प्रदर्शन में भाग लिया। उनके झंडों पर ये मांगें लिखी हुई थीं: 'गुप्त संधियाँ प्रकाशित करो!' - 'युद्ध मुर्दाबाद' - 'सारी सत्ता सोवियतों को दो!' मजदूर और सैनिक शहर के छोर से केन्द्र की तरफ़ चले, जहाँ अस्थायी सरकार की बैठक हो रही थी। नेव्स्की प्राॅस्पैक्ट और दूसरी जगहों पर पूंजीवादी गुटों से टक्करें हुईं। 

ज्यादा खुले हुए क्रान्ति-विरोधियों, जैसे कि जनरल काॅनिलोव, ने मांग की कि प्रदर्शनकारियों पर गोली चलायी जाये और इसके लिये हुकुम भी दे दिया, लेकिन सैनिकों ने हुकुम मानने से इन्कार कर दिया। 

प्रदर्शन के दौर में, पेत्रोग्राद पार्टी-कमिटी के सदस्यों के एक छोटे से गुट (बग़दात्येव वगै़रह) ने यह नारा दिया कि अस्थायी सरकार को तुरंत खत्म कर दिया जाये। बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने इन 'वाम पंथी' मुहीमबाज़ों के व्यवहार की तीव्र निन्दा की और इस नारे को असामयिक और गलत समझा, जो सोवियतों में बहुमत बनाने की पार्टी की कोशिशों में बाधा डालता था और क्रान्ति के शान्तिमय विकास की पार्टी की नीति के खिलाफ़ पड़ता था। 

20-21 अप्रैल की घटनाओं ने दिखला दिया कि अस्थायी सरकार का संकट शुरु हो गया है। 

मेन्शेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों की समझौतावादी नीति में यह पहली गंभीर फूट पड़ी। 

2 मई 1917 को, आम जनता के दबाव से मिल्यूकोव और गुचकोव अस्थायी सरकार से अलग कर दिये गये। 

पहली संयुक्त अस्थायी सरकार बनायी गयी। पूंजीपतियों के प्रतिनिधियों के अलावा, इसमें मेन्शेविक (स्कोबेलेव और त्सेरेतेली) और समाजवादी क्रान्तिकारी (चरनोव, करैन्स्की वगैरह) भी थे। 

इस तरह, जिन मेन्शेविकों ने 1905 में ऐलान किया था कि सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के प्रतिनिधियों के लिये क्रान्तिकारी अस्थायी सरकार में हिस्सा लेना अनुचित है, उन्होंने अब अपने प्रतिनिधियों के लिये क्रान्ति-विरोधी अस्थायी सरकार में हिस्सा लेना उचित समझा। 

इस तरह, मेन्शेविक और समाजवादी क्रान्तिकारी क्रान्ति-विरोधी पूंजीपतियों के खेमे से जा मिले थे। 

24 अप्रैल 1917 को, बोल्शेविक पार्टी की सातवीं (अप्रैल) कान्फ्रेन्स शुरु हुई। पार्टी के जीवन में पहली बार खुले आम बोल्शेविक कांफ्रेंस हुई। पार्टी के इतिहास में, इस कांफ्रेंस का महत्व पार्टी कांग्रेस के बराबर है। 

अखिल रूसी अप्रैल कांफ्रेंस ने दिखला दिया कि पार्टी प्रबल वेग से बढ़ रही है। कांफ्रेंस में 133 प्रतिनिधि ऐसे आये जो वोट दे सकते थे, और 18 ऐसे थे जो बोल सकते थे मगर वोट न दे सकते थे। ये पार्टी के 80,000 संगठित सदस्यों के प्रतिनिधि थे। 

युद्ध और क्रान्ति के सभी बुनियादी सवालों पर: मौजूदा हालत, युद्ध अस्थायी सरकार, सोवियतें, खेती का मसला, जातियों का सवाल वगैरह पर कांफ्रेंस ने विचार किया और पार्टी नीति निर्धारित की। 

अपनी अप्रैल की स्थापनाओं में लेनिन ने जो सिद्धान्त पहले ही रखे थे, उन्हें अपनी रिपोर्ट में विस्तृत किया। पार्टी का काम था कि क्रान्ति की पहली मंजिल से दूसरी मंजिल की तरफ़ बढ़ना पूरा करे। पहली मंजिल ने "सत्ता पूंजीपतियों को सौंपी थी जबकि दूसरी मंजिल सर्वहारा वर्ग और किसानों के सबसे गरीब हिस्से के हाथ सत्ता सौंपेगी।" (लेनिन)। पार्टी को जिस रास्ते पर चलना था, वह समाजवादी क्रान्ति की तैयारी का रास्ता था। पार्टी का फौरी काम लेनिन ने इस नारे में पेश किया: 'सारी सत्ता सोवियतों को दो!

'सारी सत्ता सोवियतों को दो!' - इस नारे का मतलब था कि दुहरी सत्ता को खत्म करना जरूरी है, यानी अस्थायी सरकार और सोवियतों के बीच सत्ता के बांटवारे को खत्म करना जरूरी है, सोवियतों को सारी सत्ता सौंपना ज़रूरी है और हुकूमत की संस्थाओं से जमींदारों और पूंजीपतियों के प्रतिनिधियों को निकाल बाहर करना जरूरी है। 

कांफ्रेंस ने तय किया कि पार्टी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम अथक रूप से जनता को यह सच्चाई समझाना है कि "अस्थायी सरकार स्वभाव से ही जमींदारों और पूंजीपतियों की शासन-संस्था है", और जनता को यह समझाना भी जरूरी है कि समाजवादी क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों की समझौतावादी नीति कितनी घातक है, जो जनता को झूठे वादों से धोखा दे रहे थे और उन पर साम्राज्यवादी युद्ध और क्रान्ति-विरोध के प्रहार करवा रहे थे। 

कांफ्रेंस में कामेनेव और राइकोव ने लेनिन का विरोध किया। मेन्शेविकों की बात दुहराते हुए, उन्होंने दावा किया कि रूस समाजवादी क्रान्ति के लिये तैयार नहीं है और पूंजीवादी प्रजातंत्र ही रूस में संभव है उन्होंने पार्टी और मजदूर वर्ग से सिफ़ारिश की कि वे अपना काम अस्थायी सरकार पर 'नियंत्रण' कायम रखने तक सीमित रखें। हक़ीक़त में, मेन्शेविकों की तरह वे पूंजीवाद और पूंजीपतियों की सत्ता को बनाये रखना चाहते थे। 

कांफ्रेंस में ज़िनोवियेव ने भी लेनिन का विरोध किया। विरोध इस सवाल पर था कि बोल्शेविक पार्टी ज़िमेरवाल्ड मित्र-मण्डल के साथ रहे, या उससे नाता तोड़ ले और नयी इन्टरनेशनल बनाये। जैसा कि युद्ध-काल ने दिखला दिया था, यह मित्र-मण्डल शान्ति के लिये प्रचार तो करता था लेकिन वास्ताव में युद्ध के पूंजीवादी हिमायतियों से नाता न तोड़ता था। इसलिये लेनिन ने इस मित्र-मण्डल से तुरंत ही अलग हो जाने पर ज़ोर दिया और एक नयी कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल बनाने पर ज़ोर दिया। ज़िनोवियेव ने प्रस्ताव किया कि पार्टी ज़िमेरवाल्ड मित्र-मण्डल में ही रहे। लेनिन ने ज़िनोवियेव के प्रस्ताव की ज़ोरों से निन्दा की और उसकी कार्यनीति को 'घोर अवसरवादी और हानिकर' बतलाया। 

अप्रैल कांफ्रेंस ने खेती और जातियों के मसले पर भी विचार किया। 

खेती के सवाल पर, लेनिन की रिपोर्ट के सिलसिले में कांफ्रेन्स ने रियासती जमीन को जब्त करने के लिये बुलावा देते हुए एक प्रस्ताव मंजूर किया। जब्त की हुई रियासती ज़मीन किसान-कमिटियों के हाथ में हो। प्रस्ताव में ज़मीन के  राष्टीयकरण की भी मांग की गयी। बोल्शेविकों ने किसानों से जमीन के लिये लड़ने को कहा और उन्हें दिखलाया कि बोल्शेविक पार्टी ही एक क्रांतिकारी पार्टी है, एक मात्र पार्टी है जो दरअसल जमींदारों का तख्ता उलटने में किसानों को मदद दे रही थी। 

जातियों के सवाल पर, काॅमरेड स्तालिन की रिपोर्ट बहुत ही महत्वपूर्ण थी। क्रांति के पहले ही जब साम्राज्यवादी युद्ध शुरू होने लगा था, लेनिन और स्तालिन ने जातियों के मसले पर बोल्शेविक पार्टी की नीति के बुनियादी उसूलों को विस्तृत रूप से पेश किया था। लेनिन और स्तालिन का कहना था कि सर्वहारा पार्टी को साम्राज्यवाद के खिलाफ़ पीड़ित जनता के  राष्टीय स्वाधीनता आन्दोलन का समर्थन करना चाहिये। इसलिये, बोल्शेविक पार्टी जातियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का इस हद तक समर्थन करती थी कि जातियां चाहंे तो अगल भी हो जायें और अपने स्वतंत्र राज्य बना लें। काॅमरेड स्तालिन ने केन्द्रीय समिति की तरफ़ से कांफ्रेंस में जो रिपोर्ट पेश की, उसमें इसी मत का समर्थन किया। 

लेनिन और स्तालिन का विरोध प्याताकोव ने किया। युद्ध-काल में ही, बुखारिन के साथ, उसने जातियों के मसले पर अंधराष्टंवादी रुख अपनाया था। प्याताकोव और बुखारिन जातियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का विरोध करते थे। 

जातियों के मसले पर, पार्टी का रुख दृढ़ और सुसंगत था। जातियों की पूर्ण समानता के लिये और हर तरह के जातीय उत्पीड़न और जातीय विषमता को खत्म करने के लिये पार्टी ने संघर्ष किया। इस वजह से, पार्टी पीड़ित जातियों की सहानुभूति और उनका समर्थन हासिल कर सकी। 

जातियों के मसले पर अप्रैल कांफ्रेंस ने जो प्रस्ताव मंजूर किया, उसके शब्द ये थे: "निरंकुश सत्ता और बादशाही से विरासत के तौर पर मिली हुई, जातीय उत्पीड़न की नीति का समर्थन जमींदार, पूंजीपति और निम्न-पूंजीवादी इसलिये करते हैं कि अपने वर्ग के विशेष अधिकारों को बनाये रखें और विभिज्डा जातियों के मजदूरों में फूट डालें। आधुनिक साम्राज्यवाद, जो कमजोर जातियों को गुलाम बनाने के लिये अपनी कोशिशें बढ़ा देता है, एक नया तत्व है जो जातीय उत्पीड़़न को तेज कर देता है। 

"पूंजीवादी समाज में जातीय उत्पीड़न का खात्मा जिस हद तक भी मुमकिन है, वह एक सुसंगत जनवादी प्रजातंत्र की व्यवस्था और ऐसे राज्य के शासन में ही मुमकिन है जो सभी जातियों और भाषाओं के लिये पूर्ण समानता की गारंटी देता हो। 

"रूस में जितनी भी जातियां शामिल हैं, उनके आज़ादी से अलग होने और स्वतंत्र राज्य बनाने के अधिकार को मंजूर करना चाहिये। उनके इस अधिकार को नामंजूर करना या अमल में उसे लागू करने की गारंटी देने के लिये उपाय न करना, दूसरों पर क़ब्जा करने और उन्हें अपने राज में मिलाने की नीति का समर्थन करने के बराबर है। सर्वह ारा वर्ग जातियों के अलग होने के हक को माने, तभी विभिज्डा जातियों के मजदूरों का सम्पूर्ण भाईच ारा पक्का हो सकता है और वास्तविक जनवादी आधार पर जातियां एक-दूसरे के नज़दीक आ सकती हैं।... 

 "जातियों के अलग होने के हक को किसी खास समय किसी जाति के अलग होने की उपयोगिता से न उलझा देना चाहिये। सर्वहारा वर्ग की पार्टी को चाहिये कि इस दूसरे सवाल को हर बार स्वतंत्र रूप से समूचे सामाजिक विकास के हितों को और समाजवाद के लिये मजदूरों के वर्ग संघर्ष के हितों को ध्यान में रखकर हल करे। 

"पार्टी मांग करती है कि बडे़ पैमाने पर प्रादेशिक खुदमुख़्तारी हो, ऊपर से निगरानी का अंत हो, लाजिमी, राजभाषा खत्म की जाये और खुदमुख़्तार और स्वायत्त शासन के इलाकों की सीमायें स्थानीय जनता ही आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों, आबादी की जातीय बनावट वगैरह का ध्यान रखते हुए तय करे। 

"सर्वहारा वर्ग की पार्टी, जिसे 'जातीय-सांस्कृतिक खुदमुख़्तारी' कहा जाता है, उसे दृढ़ता से नामंजूर करती है। इसके मातहत, शिक्षा वग़ैरह का काम राज्य के अधिकार से अलग कर दिया जाता है और किसी तरह की जातीय सभाओं के अधिकार में दे दिया जाता है। जातीय-सांस्कृतिक खुदमुख़्तारी एक ही जगह रहने वाले और एक ही धंधे में काम करने वाले मज़दूरों को उनकी विभिज्डा 'जातीय संस्कृतियों' के अनुसार नकली तौर पर बांट देती है। दूसरे शब्दों में, वह मजदूरों और विभिज्डा जातियों की पूंजीवादी संस्कृति के बंधन मजबूत कर देती है, जबकि सोशल-डेमोक्रैटों का लक्ष्य दुनिया के मजदूरों की अंतर्राष्टीय संस्कृति को विकसित करना है। 

"पार्टी मांग करती है कि विधान में एक ऐसा बुनियादी कानून रखा जाये जो किसी भी जाति को मिले हुए तमाम विशेषाधिकारों को खत्म कर दे और जातीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सभी तरह के आघात बन्द कर दे। 

"मजदूर वर्ग के हितों की मांग है कि रूस की सभी जातियों के मजदूरों के सामान्य सर्वहारा संगठन हों: राजनीतिक, टंेड यूनियन, सहयोग-समितियों की शिक्षा-संस्थायें वगैरह। इस तरह, विभिज्डा जातियों के मजदूरों के सामान्य संगठन होेने से ही सर्वहारा वर्ग अंतर्राष्टीय पूंजी और पूंजीवादी राष्टंवाद के खिलाफ़ सफलतापूर्वक संघर्ष कर सकेगा।" (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के प्रस्ताव, रू.सं., खण्ड 1, पृष्ठ 239-40) 

इस तरह, अप्रैल कांफ्रेंस ने कामेनेव, जिनोवियेव, प्याताकोव, बुखारिन, राईकोव और उनके थोडे़ से अनुयायियों के अवसरवादी, लेनिनवाद-विरोधी दृष्टिकोण का पर्दाफाश किया। 

सभी महत्वपूर्ण सवालों पर एक स्पष्ट रुख अपनाकर और ऐसा रास्ता अपनाकर जिससे समाजवादी क्रांति की विजय हो, कांफ्रेंस ने एकराय होकर लेनिन का समर्थन किया। 

 

3 राजधानी में बोल्शेविक पार्टी की सफलता। अस्थायी सरकार की फ़ौजों का असफल हमला। मज़दूरों और सैनिकों के जुलाई प्रदर्शन का दमन। 

अप्रैल कांफ्रेंस के फै़सलों के आधार पर, आम जनता को अपनी तरफ़ करने के लिये और लड़ाई के लिये उसे शिक्षित और संगठित करने के लिये पार्टी ने बडे़ पैमाने पर काम चलाया। उस दौर में, पार्टी की नीति यह थी कि धीरज से बोल्शेविक नीति समझाकर और मेन्शेविकों तथा समाजवादी क्रांतिकारियों की समझौतावादी नीति का पर्दाफाश करके इन पार्टियों को जनता से अलग कर दिया जाये और सोवियतों में बहुमत कायम किया जाये। 

सोवियतों में काम करने के साथ-साथ, बोल्शेविकों ने टंेड यूनियनों और मिल-कमिटियों में बडे़ पैमाने पर काम जारी रखा। 

खास तौर से, बोल्शेविकों का काम फ़ौज में ज्यदा फैला हुआ था। हर जगह सैनिक संगठन बनने लगे। युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे सैनिकों और मल्लाहों का संगठन करने के लिये, बोल्शेविक अथक रूप से काम करते रहे। सैनिकों को सक्रिय क्रांतिकारी बनाने में, युद्ध के मोर्चे पर बोल्शेविक अख़बार अकोपनाय प्राब्दा (टंेन्च सत्य) ने खास तौर से महत्वपूर्ण पार्ट अदा किया। 

बोल्शेविक आन्दोलन और प्रचार की वजह से, क्रांति के प्रारंभिक महीनों में ही बहुत से शहरों में मज़दूरों ने सोवियतों के, खास तौर से जिला सोवियतों के, नये चुनाव किये, मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों को निकाल बाहर किया और उनके बदले बोल्शेविक पार्टी के अनुयायियों को चुना। 

बोल्शेविकों के काम का सुंदर फल निकला, खास तौर से पेत्रोग्राद में। 

30 मई से 3 जून 1917 तक, मिल-कमिटियों की पेत्रोग्राद कांफ्रेस हुईं। इस कांफ्रेंस में ही तीन-चैथाई प्रतिनिधि बोल्शेविकों के समर्थक थे। लगभग समूचे पेत्रोग्राद का सर्वहारा वर्ग इस बोल्शेविक नारे का समर्थन करता था - 'सारी सत्ता सोवियतों को दो!

3(16) जून 1917 को, सोवियतों की पहली अखिल रूसी कांग्रेस हुई। सोवियतों में बोल्शेविक अब भी अल्पसंख्या में थे। 700 या 800 मेन्शेविकों, समाजवादी क्रांतिकारियों वगैरह के मुकाबिले में, इस कांगे्रस में उनके 100 से कुछ ऊपर प्रतिनिधि थे। 

सोवियतों की पहली कांग्रेस में, बोल्शेविकों ने पूंजीपतियों से समझौता करने के भयानक नतीजों पर लगातार ज़ोर दिया और युद्ध के साम्राज्यवादी रूप का पर्दाफाश किया। कांगे्रस में लेनिन ने भाषण दिया, जिसमें उन्होंने दिखलाया कि बोल्शेविक नीति क्यों सही है। उन्होंने कहा कि सोवियतों की सरकार ही मेहनतकश जनता को रोटी, किसानों को जमीन दे सकती है, शान्ति हासिल कर सकती है और अराजकता से देश को उबार सकती है। 

उन दिनों, पेत्रोग्राद के मजदूर-जिलों में एक प्रदर्शन का संगठन करने के लिये और सोवियतों की कांगे्रस के सामने मांगे पेश करने के लिये आम जनता में आन्दोलन चलाया जा रहा था। इस चिंता में कि हमारी आज्ञा के बिना मजदूर प्रदर्शन न करें और इस उम्मीद में कि आम जनता के क्रांतिकारी भावों को अपने हित में इस्तेमाल करें, पेत्रोग्राद-सोवियत की कार्यकारिणी समिति ने फ़ैसला किया कि 18 जून (1 जुलाई) को प्रदर्शन कराया जाये। मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों को आशा थी कि यह प्रदर्शन बोल्शेविक-विरोधी नारों के साथ होगा। बोल्शेविक पार्टी इस प्रदर्शन के लिये जोरदार तैयारियां करने लगी। काॅमरेड स्तालिन ने प्राव्दा में लिखा कि "...हमारा यह काम है कि इस बात को पक्का कर दें कि 18 जून को पेत्रोग्राद में होने वाला प्रदर्शन हमारे क्रांतिकारी नारों पर ही हो।

क्रांति के शहीदों की समाधि पर, 18 जून 1917 का प्रदर्शन हुआ। यह प्रदर्शन बोल्शेविक पार्टी की शक्ति का सचमुच प्रदर्शन ही हुआ। उसने आम जनता की बढ़ती हुई क्रांतिकारी भावना और बोल्शेविक पार्टी में उसका बढ़ता हुआ विश्वास ज़ाहिर किया। अस्थायी सरकार में विश्वास प्रकट करने और युद्ध ज़ारी रखने पर जोर देने वाले मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों के नारे बोल्शेविक नारों के समुद्र में डूब गये। चार लाख प्रदर्शनकारी झंडे लिये हुए थे, जिन पर ये नारे लिखे हुये थे: 'युद्ध मुर्दाबाद!', दसों पूंजीवादी मंत्री मुर्दाबाद!', 'सारी सत्ता सोवियतों को दो!

मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों की पूरी हार हुई। देश की राजधानी में अस्थायी सरकार की हार हुई। 

फिर भी, अस्थायी सरकार को सोवियतों की पहली कांग्रेस का समर्थन मिला और उसने साम्राज्यवादी नीति चालू करने का फ़ैसला किया। उसी दिन 18 जून कोअंग्रेज और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों का हुकुम मानते हुए अस्थायी सरकार ने युद्ध के मोर्चे पर सैनिकों को हमला करने के लिये हांक दिया। पंूजीपति समझते थे कि क्रांति को खत्म करने का यही एक रास्ता है। अगर हमला सफल होता तो पूंजीपति उम्मीद करते थे कि सारी सत्ता अपने ही हाथ में ले लेंगे, सोवियतों को मैदान से बाहर निकाल देंगे और बोल्शेविकों को कुचल देंगे। और अगर हमला असफल हुआ, तो सारा दोष बोल्शेविकों के माथे मढ़ा जा सकेगा कि उन्होंने फौज को भीतर से तोड़ दिया है। 

इसमें कोई संदेह नहीं था कि हमला असफल होगा। और, वह असफल हुआ। सिपाही चूर हो चुके थे। हमला क्यों हो रहा है, वे न समझते थे। अपने अफसरों में जो उनके लिये गैर थे, उन्हें विश्वास न था। गोला-बारूद और तोपों की कमी थी। इन सब बातों से, हमले का असफल होना पहले से ही तय था। 

युद्ध के मोर्चे पर हमले और उसके बाद उसकी असफलता की खबर ने राजधानी को उत्तेजित कर दिया। मजदूरों और सैनिकों के गुस्से का पार न था। यह बात स्पष्ट हो गयी कि जब अस्थायी सरकार शांति की नीति का ऐलान कर रही थी, तब वह जनता की आंखों में धूल झोंक रही थी और यह बात भी जाहिर हो गयी कि अस्थायी सरकार साम्राज्यवादी युद्ध चालू रखना चाहती है। यह बात स्पष्ट हो गयी कि सोवियतों की अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति और पेत्रोग्राद-सोवियत अस्थायी सरकार की मुजरिमाना हरकत को रोकना नहीं चाहती, या रोक नहीं सकती और खुद उसके पीछे घिसट रही है। 

पेत्रोग्राद के मजदूरों और सैनिकों का क्रांतिकारी गुस्सा उबल पड़ा। 

3(16) जुलाई को, पेत्रोग्राद के विबोर्ग जिले में अपने-आप प्रदर्शन शुरू हुए। सारे दिन प्रदर्शन जारी रहे। अलग-अलग प्रदर्शन मिलकर एक विशाल आम हथियारबन्द प्रदर्शन बन गये, जिनकी मांग थी कि सत्ता सोवियतों की हो। उस समय बोल्शेविक पार्टी हथियारबन्द कार्यवाही के खिलाफ थी, क्योंकि उसका विचार था कि क्रांतिकारी संकट अभी पका नहीं है, राजधानी में विद्रोह का समर्थन करने के लिये फौज और सूबे अभी तैयार नहीं हैं और वक्त से पहले और अलग-अलग विद्रोह करने से क्रांति के हिरावल को कुचलने में क्रांति विरोधियों को आसानी ही हो सकती है। लेकिन, जब यह ज़ाहिर हो गया कि आम जनता को प्रदर्शन करने से रोकना नामुमकिन है तो पार्टी ने प्रदर्शन में हिस्सा लेने का फैसला किया, जिससे कि उसे शान्तिपूर्ण और संगठित रूप दे सके। बोल्शेविक पार्टी यह करने में कामयाब हुई। लाखों मर्द-औरत पेत्रोग्राद-सोवियत और सोवियतों की अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी के हैड क्वार्टर की तरफ बढे़, जहां उन्होंने मांग की कि सोवियतें सत्ता अपने हाथ में लें, साम्राज्यवादी पंूजीपतियों से नाता तोड़ दें और शान्ति की सक्रिय नीति पर चलें। 

प्रदर्शन के शान्तिमय रूप के बावजूद, उसके खिलाफ़ प्रतिक्रियावादी दस्ते - अफ़सरों और कैडेटों के दस्ते - लाये गये। पेत्रोग्राद की सड़कें मजदूरों और सैनिकों के खून से लाल हो गयीं। मजदूरों का दमन करने के लिये, युद्ध के मोर्चे से फौज के सबसे जाहिल और क्रांति-विरोधी दस्ते बुलाये गये। 

मजदूरों और सैनिकों के प्रदर्शन का दमन करने के बाद, पूंजीपतियों और गद्दार जनरलों के सहयोग से मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों ने बोल्शेविक पार्टी पर हमला किया। प्राव्दा के प्रकाशन की जगह तोड़-फोड़ डाली गयी। प्राव्दा, सोल्दात्स्काया प्राव्दा (सैनिक सत्य) और दूसरे कई बोल्शेविक अख़बार बन्द कर दिये गये। वोईनोव नाम के मजदूर को सिर्फ लिस्तोक प्राव्दी (प्राव्दा बुलेटिन) बेचने पर कैडेटों ने सड़क पर मार डाला। रेड गार्ड दस्तों के हथियार छीनना शुरू हुआ। पेत्रोग्राद छावनी के क्रांतिकारी दस्ते राजधानी से हटा दिये गये और मोर्चे पर भेज दिये गये। युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे गिरफ्तारियां हुईं। 7 जुलाई को, लेनिन को पकड़ने के लिये वारंट जारी हुआ। बोल्शेविक पार्टी के कई प्रमुख सदस्य गिरफ्तार कर लिये गये। त्रूद छापाखाना, जहां बोल्शेविक अख़बार छपते थे, नष्ट कर दिया गया। पेत्रोग्राद की सेशन अदालत के सरकारी वकील (प्रोक्यूरेटर ने ऐलान किया कि लेनिन और दूसरे कई बोल्शेविकों पर 'राजद्रोह' और सशस्त्र विद्रोह के संगठन का जुर्म लगाया जा रहा है। लेनिन के खिलाफ़ जनरल देनीकिन के हेड क्वार्टर में अभियोग रचा गया और उसका आधार जासूसों और उकसावा पैदा करने वाले दलालों की गवाही था। 

इस तरह, संयुक्त अस्थायी सरकार - जिसमें त्सेरेतेली, स्कोबेलेव, करैन्स्की और चर्नोव जैसे मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों के प्रमुख प्रनिनिधि शामिल थे - ठेठ साम्राज्यवाद और क्रांति-विरोध की नीची सतह तक उतर आयी। शान्ति की नीति के बदले, उसने युद्ध चालू रखने की नीति अपनायी। जनता के जनवादी अधिकारों की रक्षा करने के बदले, उसने इन अधिकारों को खत्म करने और हथियारों की ताकत से मज़दूरों और सैनिकों का दमन करने की नीति अपनायी। 

पूंजीपतियों के प्रतिनिधि गुचकोव और मिल्यूकोव जो कुछ करने में हिचकिचाते थे, उसे करैन्स्की और त्सेरेतेली, चर्नोव और स्कोबेलेव जैसे 'समाजवादियों' ने कर दिखाया। 

दुहरी सत्ता खत्म हो गयी। 

वह खत्म हुई पूंजीपतियों के हित में क्योंकि सारी सत्ता अस्थायी सरकार के हाथ में आ गयी और सोवियतें, अपने समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेताओं के साथ, अस्थायी सरकार का पुछल्ला बन गयी थीं। 

क्रांति का शान्तिमय दौर खत्म हो चुका था, क्योंकि अब कार्यक्रम में संगीन शामिल कर ली गयी थी। 

बदली हुई हालत को ध्यान में रखते हुए, बोल्शेविक पार्टी ने अपनी कार्यनीति बदलने का फैसला किया। पार्टी अंडरग्राउंड हो गयी। अपने नेता लेनिन के लिये उसने एक हिफ़ाज़त की जगह छिपने के लिये तय की और इस उद्देश्य से विद्रोह की तैयारी में लग गयी कि पूंजीपतियों की सत्ता को हथियारों की ताकत से खत्म किया जाये और सोवियतों की सत्ता कायम की जाये। 

 

4. बोल्शेविक पार्टी सशस्त्र विद्रोह की तैयारी का रास्ता अपनाती है। छठी पार्टी कांग्रेस। 

बोल्शेविक पार्टी की कांगे्रस पेत्रोग्राद में उस समय हुई जब कि पूंजीवादी और निम्नपूंजीवादी अखबारों में बोल्शेविकों के खिलाफ़ धुआंधार प्रचार हो रहा था। पांचवीं (लन्दन) कांगे्रस के दस बरस बाद और बोल्शेविक की प्राग कांफ्रेंस के पांच साल बाद, यह कांफ्रेंस हो रही थी। कांग्रेस गुप्त रूप से हुई और 26 जुलाई से 3 अगस्त 1917 तक उसका अधिवेशन जारी रहा। अखबारों में इतना ही छपा कि कांग्रेस होगी, कहां होगी, यह गुप्त रखा गया। पहला अधिवेशन विबोर्ग जिले में हुआ, बाद के अधिवेशन नारवा फाटक के पास एक स्कूल में हुए, जहां पर अब संस्कृति-गृह है। पूंजीवादी अखबारों ने मांग की कि प्रतिनिधियों को गिरफ्तार कर लिया जाये। बदहवास जासूस शहर की खाक छानते रहे कि कांग्रेस कहां हो रही है, लेकिन सब बेकार। 

और इस तरह, ज़ारशाही के खात्मे के पांच महीने बाद ही बोल्शेविकों की गुप्त रूप से मिलने के लिये मजबूर होना पड़ा जबकि सर्वहारा पार्टी के नेता लेनिन को छिपने के लिये विवश होना पड़ा और उन्होंने राजलिव स्टेशन के पास एक झोंपड़ी में आसरा ढूंढा। 

अस्थायी सरकार के कुत्ते उन्हें हर तरफ़ खोजने में लगे हुए थे और इसलिये, लेनिन कांग्रेस में शामिल न हो सके। लेकिन, अपने छिपने की जगह से अपने नजदीकी साथी और शिष्य, जो पेत्रोग्राद में थे, स्तालिन, स्वेर्दलोव, मोलोतोव और और्जोनिकित्से के ज़रिये उसके काम का पथ-प्रदर्शन करते रहे। 

कांगे्रस में 157 वोट देने वाले प्रतिनिधि थे, और 128 बोलने वाले, लेकिन वोट न देने वाले प्रतिनिधि थे। उस समय, पार्टी के लगभग 2 लाख 40 हजार सदस्य थे। 3 जुलाई को, यानी इसके पहले कि मजदूर प्रदर्शन भंग किया गया, जबकि बोल्शेविक अभी कानूनी तौर से काम कर रहे थे, पार्टी के 41 प्रकाशन थे, जिनमें 29 रूसी में थे और 12 दूसरी भाषाओं में। 

जुलाई के दिनों में, बोल्शेविकों और मजदूर वर्ग पर जो दमन हुआ, उससे पार्टी का असर कम होना तो दूर, वह और बढ़ा। सूबों से आये हुए प्रतिनिधियों ने बहुत से तथ्य दिये, जिनसे पता चलता था कि झुंड के झुंड मज़दूर और सैनिक मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों से टूटने लगे हैं और नफ़रत से उन्हें 'सामाजिक जेलर' कहने लगे हैं। मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी पार्टियों के मज़दूर और सैनिक गुस्से और नफ़रत से अपनी सदस्यता के कार्ड फाड़ कर फेंक रहे थे और वे बोल्शेविक पार्टी में भर्ती होने के लिये अर्जियां देने लगे थे। 

कांगे्रस में जिन मुख्य बातों पर बहस हुई, वह केन्द्रीय समिति की राजनीतिक रिपोर्ट थी और राजनीतिक परिस्थिति थी। इन दोनों सवालों पर, काॅमरेड स्तालिन ने रिपोर्टें पेश की। उन्होंने बहुत ही स्पष्टता से दिखलाया कि क्रांति दबाने के लिये पूंजीपतियों की तमाम कोशिशों के बावजूद वह बढ़ रही है और विकसित हो रही है। उन्होंने बतलाया कि क्रांति ने फ़ौरी कार्यक्रम के लिये ये काम पेश कर दिये हैं: उपज की पैदावार और बंटवारे पर मज़दूरों का नियंत्रण कायम किया जाये, जमीन किसानों को दी जाये और सत्ता पूंजीपतियों से लेकर मज़दूर वर्ग और गरीब किसानों को दी जाये, उन्होंने कहा कि क्रांति समाजवादी क्रांति का रूप ले रही है। 

देश की राजनीतिक हालत जुलाई के दिनों के बाद बुनियादी तौर से बदल गयी थी। दुहरी सत्ता का खात्मा हो चुका था समाजवादी क्रांतिकारियों और मेन्शेविकों द्वारा संचालित सोवियतों ने पूरी सत्ता लेना नामंजूर कर दिया था और इसलिये, अब सारी सत्ता उनके हाथ से निकल गयी थी। अब सत्ता पूंजीवादी अस्थायी सरकार के हाथ में केंद्रित थी और यह सरकार क्रांति को निष्शस्त्र करती जाती थी, उसके संगठनों को तोड़ती और बोल्शेविक पार्टी का नाश करती जा रही थी। क्रांति के शांतिमय विकास की संभावना खत्म हो चुकी थी। काॅमरेड स्तालिन ने कहा कि सिर्फ एक चीज बाकी रह गयी है और वह यह कि अस्थायी सरकार का तख़्ता उलट कर बल के बूते पर सत्ता छीनो। और ग़रीब किसानों के सहयोग से, सर्वहारा वर्ग ही बल के बूते पर सत्ता छीन सकता है। 

जिन सोवियतों पर मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी अब भी हावी थे, वे पूंजीपतियों के खेमें में पहंुच गयी थीं और उस समय की हालत में उनसे यही उम्मीद की जा सकती थी कि वे अस्थायी सरकार के पुछल्ले का काम करेंगी। काॅमरेड स्तालिन ने कहा कि अब जुलाई के दिनों के बाद 'सारी सत्ता सोवियतों को दो!

- यह नारा वापस लेना था। लेकिन, अस्थायी तौर से इस नारे को वापस लेने का मतलब यह जरा भी न था कि सोवियतों का सत्ता के लिये संघर्ष छोड़ दिया जाये। सवाल क्रांतिकारी संघर्ष की संस्थाओं के रूप में आम सोवियतों का न था, बल्कि सिर्फ़ मौजूदा सोवियतों का था, उन सोवियतों का जिन पर मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी हावी थे। 

कामरेड स्तालिन ने कहा: 

"क्रांति का शान्तिमय दौर खत्म हो चुका है ; एक गैर शान्तिमय दौर, टक्करों और विस्फोटों का दौर शुरू हुआ है।" (रू.सो.डे.ले.पा. की छठी कांगे्रस की शब्दशः रिपोर्ट, रू.सं., पृ. 111) 

पार्टी सशस्त्र विद्रोह की तरफ़ बढ़ रही थी। पार्टी में कुछ ऐसे लोग थे जो पूंजीवादी असर ज़ाहिर करते हुए समाजवादी क्रांति का रास्ता अपनाने का विरोध कर रहे थे। 

त्रात्स्कीपंथी प्रेओब्राजेन्स्की ने प्रस्ताव रखा कि सत्ता हासिल करने के मसौदे में यह कहा जाये कि पच्छिम में सर्वहारा क्रांति होने पर ही देश समाजवाद की तरफ़ संचालित होगा। 

काॅमरेड स्तालिन ने इस त्रात्स्कीपंथी प्रस्ताव का विरोध किया। 

उन्होंने कहा: 

"यह बात संभावना से परे नहीं है कि रूस ही वह देश होगा जो समाजवाद के लिये रास्ता बनायेगा। ... हमें यह घिसा-पिटा विचार छोड़ देना चाहिये कि यूरोप ही हमें रास्ता दिखा सकता है। एक कठमुल्लेपन का मार्क्सवाद होता है और दूसरा रचनात्मक मार्क्सवाद। मैं दूसरे का समर्थक हंू।" (उप., पृष्ठ 233-34) 

बुखारिन का रुख त्रात्स्कीवादी था। उसने कहा कि किसान युद्ध का समर्थन करते हैं, उनकी गुटबंदी पूंजीपतियों से है और वे मजदूर वर्ग का साथ न देंगे। 

बुखारिन को मुंहतोड़ जवाब देते हुए, काॅमरेड स्तालिन ने दिखाया कि किसान तरह-तरह के हैं। धनी किसान हैं जो साम्राज्यवादी पूजीपतियों का समर्थन करते हैं, और गरीब किसान हैं जो मजदूर वर्ग से मित्रता करना चाहते हैं और क्रांति की जीत के लिये लड़ाई में उसका समर्थन करेंगे। 

कांगे्रस ने प्रेओब्राजेन्स्की और बुखारिन के संशोधन रद्द कर दिये और काॅमरेड स्तालिन के पेश किये हुए प्रस्ताव को मंजूर किया। 

कांग्रेस ने बोल्शेविकों के आर्थिक कार्यक्रम पर विचार किया और उसे मंजूर किया। उसकी मुख्य बातें ये थीं: रियासती जमीन की जब्ती और तमाम जमीन का  राष्टीयकरण, बैंकों का  राष्टीयकरण, बडे़ पैमाने के उद्योग-धंधों का  राष्टीयकरण और पैदावार तथा वितरण पर मजदूरों का नियंत्रण। 

कांग्रेस ने पैदावार पर मजदूरों के नियंत्रण के लिये संघर्ष करने के महत्व पर जोर दिया। इस नियंत्रण को आगे चल कर बडे़ कल-कारखानों के  राष्टीयकरण के दौर में महत्वपूर्ण पार्ट अदा करना था। 

छठी कांग्रेस ने अपने सभी फैसलों में समाजवादी क्रांति की जीत के लिये एक शर्त के रूप में सर्वहारा और गरीब किसानों के सहयोग के लेनिन के सिद्धांत पर खास तौर से जोर दिया। 

कांग्रेस ने इस मेन्शेविक मत की निन्दा की कि टंेड यूनियन तटस्थ रहें। उसने बताया कि रूस के मज़दूर वर्ग के सामने जो युगान्तरकारी कार्य हैं वे तभी पूरे हो सकते हैं जब ट्रेड यूनियन बोल्शेविक पार्टी का राजनीतिक नेतृत्व मानने वाले लड़ाकू वर्ग-संगठन बने रहें। 

कांग्रेस ने नौजवान सभाओं पर, जो उस समय अक्सर अपने-आप बन जाया करती थीं, एक प्रस्ताव मंजूर किया। आगे चल कर पार्टी की कोशिशों के फलस्वरूप, यह तरुण निश्चित रूप से पार्टी के साथ हो गये और उसकी (रिजर्व) शक्ति बन गये। कांगे्रस ने इस बात पर विचार किया कि लेनिन मुकदमें में हाज़िर हों या न हों। कामेनेव, राइकोव, त्रात्स्की वगैरह कांगे्रस से पहले भी कहते थे कि लेनिन को क्रांति-विरोधी अदालत के सामने आना चाहिये। काॅमरेड स्तालिन मुकदमें में लेनिन के हाज़िर होने का बहुत जोरों से विरोध करते थे। छठी कांगे्रस का मत भी यही था, क्योंकि उसका विचार था कि यह मुकदमा न होगा बल्कि जानमारी होगी। कांगे्रस को जरा भी शक न था कि पूंजीपति सिर्फ़ एक चीज चाहते हैं और वह यह कि पूंजीपतियों के सबसे खतरनाक दुश्मन - लेनिन को जान से मार डाला जाये। कांगे्रस ने क्रांतिकारी सर्वहारा के पूंजीपतियों द्वारा पुलिस-दमन का विरोध किया और लेनिन का अभिवादन करते हुए एक संदेश भेजा। 

छठी कांग्रेस ने नयी पार्टी नियमावली मंजूर की। इस नियमावली में कहा गया था कि सभी पार्टी-संगठन जनवादी केन्द्रीयता के उसूल पर बनाये जायेंगे। 

इसका मतलब यह था: 

1) ऊपर से लेकर नीचे तक, पार्टी की सभी संचालक समितियां चुनी जायेंगी

2) पार्टी संस्थायें अपने-अपने पार्टी-संगठनों को समय-समय पर अपनी कार्यवाही की रिपोर्ट देंगी

3) पार्टी में कठोर अनुशासन होगा और अल्पमत बहुमत के मातहत रहेगा

4) ऊंची समितियों के सभी फैसले नीचे की समितियों और सभी पार्टी सदस्यों के लिये कतई मान्य होंगे। 

पार्टी नियमावली में कहा गया था कि दो पार्टी सदस्यों की सिफ़ारिश और स्थानीय संगठन के आम सदस्यों की सभा की मंजूरी पर पार्टी में नये सदस्य स्थानीय पार्टी-संगठनों के ज़रिये भर्ती किये जायेंगे। 

छठी कांगे्रस ने मेजरायोन्त्सी और उसके नेता त्रात्स्की को पार्टी में भर्ती किया। यह एक छोटा सा गुट था, जो पेत्रोग्राद में सन '13 से था और जिसमें त्रात्स्की पंथी मेन्शेविक और कुछ पहले के बोल्शेविक थे जो पार्टी से अलग हो गये थे। युद्ध-काल में मेजरायोन्त्सी एक केन्द्रवादी संगठन था। वे बोल्शेविकों से लड़ते थेे, लेकिन बहुत सी बातों से मेन्शेविकों से असहमत थे और इस तरह उनकी स्थिति बीच की, केन्द्रवादी, ढुलमुलपन की थी। छठी कांगे्रस में मेजरायोन्त्सी ने ऐलान किया कि वे सभी बातों पर बोल्शेविकों से सहमत हैं और उन्होंने पार्टी में दाखिल होने की प्रार्थना की। कांग्रेस ने इस उम्मीद में उनकी प्रार्थना मंजूर की कि समय बीतने पर वे सच्चे बोल्शेविक बन जायेंगे। मेजरायोन्त्सी में से कुछ, जैसे वोलोदास्र्की और ऊरीत्स्की, दरअसल बोल्शेविक बन गये। जहां तक त्रात्स्की और उसके कुछ नजदीकी दोस्तों का सवाल था, ये लोग, जैसा कि आगे चल कर मालूम हुआ, पार्टी के हित में काम करने के लिये नहीं बल्कि उसे भीतर से तोड़ने और नष्ट करने के लिये पार्टी में शामिल हुए थे। 

छठी कांगे्रस के सभी फ़ैसलों का उद्देश्य यह था कि सर्वहारा वर्ग और सबसे ग़रीब किसानों को सशस्त्र विद्रोह के लिये तैयार किया जाये। छठी कांगे्रस ने पार्टी को सशस्त्र विद्रोह के लिये, समाजवादी क्रांति के लिये आगे बढ़ाया। 

कांगे्रस ने एक पार्टी घोषणापत्र निकाला, जिसमें पूंजीपतियों से निर्णायक युद्ध करने के लिये मजदूरों, सैनिकों और किसानों से अपनी शक्ति बटोरने के लिये कहा गया। उसके अंतिम शब्द ये थे: "इसलिये, साथियों, नयी लड़ाइयों के लिये तैयारी करो। दृढ़ता से, मर्दानगी से और शान्ति से, बिना उकसावे में आये हुए अपनी शक्ति बटोरो और अपनी लड़ाकू पांति बनाओ ! मजदूरों और सिपाहियों, पार्टी के झंडे के नीचे इकट्ठे हो ! गांव के सताये हुए लोगों हमारे झंडे के नीचे इकट्ठे हो ! 

5. क्रांति के खिलाफ़ जनरल काॅर्निलोव का षडयंत्र। षडयंत्र का दमन। पेत्रोग्राद और मास्को सोवियतों का बोल्शेविकों से जा मिलना। 

समूची सत्ता हथियाकर, पूंजीपतियों ने अब यह कोशिश शुरू की कि कमजोर पड़ चुकी सोवियतों को कुचल दें और खुली क्रांति-विरोधी डिक्टेटरशिप कायम करें। करोड़पति रियाबुशिन्स्की ने बदतमीज़ी से ऐलान किया कि परिस्थिति से निकलने का एक ही चारा है कि 'अकाल और तबाही का फ़ौलादी पंजा जनता के झूठे दोस्तों - जनवादी सोवियतों और कमिटियों - का गला दबा दे।' युद्ध के मौके़ पर कोर्ट मार्शल करके, सैनिकों से भयानक बदला लिया जाता था और झुंड के झंुड लोगों को मौत की सज़ा दी जाती थी। 3 अगस्त 1917 को, प्रधान सेनापति जनरल काॅर्निलोव ने मांग की कि युद्ध के मोर्चे के पीछे भी मौत की सज़ा चालू की जाये। 

12 अगस्त को, मास्को के बडे़ नाटकघर में अस्थायी सरकार की बुलाई हुई राज्य समिति की बैठक शुरू हुई। उसका उद्देश्य पूंजीपतियों और जमींदारों की शक्ति को बटोरना था। उसमें ज्यादातर जमींदारों के प्रतिनिधि, पूंजीपति, जनरल, अफ़सर और कज़ाक आये थे। सोवियतों के प्रतिनिधि मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी थे। 

राज्य समिति को बुलाने के विरोध में, बोल्शेविकों ने उसकी बैठक के पहले दिन मास्को में आम हड़ताल का बुलावा दिया। हड़ताल में अधिकांश मज़दूर शामिल हुए। उसके साथ ही, और कई शहरों में भी हड़तालें हुई। 

समाजवादी क्रांतिकारी करैन्स्की ने राज्य समिति में डिंग हांकते हुए धमकी दी कि क्रांतिकारी आन्दोलन की हर कोशिश, जिसमें जमींदारों की जमीन पर किसानों द्वारा अनाधिकार क़ब्जा करने की कोशिश की थी, 'लोहे और खून' से दबा दी जायेगी। 

क्रांति-विरोधी जनरल काॅर्निलोव ने सीधे-सीधे मांग की कि 'कमिटी और सोवियतें खत्म कर दी जायें।

बैंक-साहुकार, सौदागार और कारखानेदार कार्निलोव के जनरल हैड क्वार्टर पर इकट्ठे होने लगे और उसे धन और मदद देने का वायदा करने लगे। 

'मित्र-देशों', ब्रिटेन और फ्रांस के प्रतिनिधि भी जनरल काॅर्निलोव के पास आये और मांग की कि क्रांति के खिलाफ कदम उठाने में देर न की जावे। 

क्रांति के खिलाफ़ जनरल काॅर्निलोव का षडयंत्र पक रहा था। 

काॅर्निलोव ने खुल्लमखुल्ला अपनी तैयारी की। लोगों का ध्यान बंटाने के लिये, षडयंत्रकारियों ने यह अफ़वाह फैला दी कि बोल्शेविक विद्रोह की तैयारी कर रहे हैं जो पेत्रोग्राद में 27 अगस्त को - क्रांति के छः महिनों के बाद - होगा। करैन्स्की के नेतृत्व में, अस्थायी सरकार ने खूंखार तरीके़ से बोल्शेविकों पर हमला किया और सर्वहारा पार्टी के खिलाफ़ अपना आतंक और भी फैलाया। इसके साथ ही, जनरल काॅर्निलोव ने फ़ौज इकट्ठी की, जिससे कि उसे पेत्रोग्राद के खिलाफ़ ले जा सके, सोवियतें खत्म करे और एक फ़ौजी डिक्टेटरशिप क़ायम करे। 

अपने इस क्रांति-विरोधी काम के लिये, काॅर्निलोव पहले ही करैन्स्की से समझौता कर चुका था। लेकिन जैसे ही काॅर्निलोव का काम शुरू हुआ, वैसे ही करैन्स्की ने अचानक पैंतरा बदला और अपने दोस्त से अलग हो गया। करैन्स्की को डर लगा कि आम जनता काॅर्निलोवपंथियों के खिलाफ़ उठ खड़ी होगी और उन्हें कुचल देगी, साथ ही वह करैन्स्की की पूंजीवादी सरकार का भी सफ़ाया कर देगी, अगर उसने तुरंत ही अपने को काॅर्निलोव-कांड से अलग न किया। 

25 अगस्त को, काॅर्निलोव ने जनरल क्रिमोव की कमान में तीसरे घुड़सवार दस्ते को पेत्रोग्राद के खिलाफ़ भेजा और ऐलान किया कि वह 'पितृभूमि की रक्षा' करना चाहते हैं। काॅर्निलोव-विद्रोह देख कर, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने मजदूरों और सैनिकों को बुलावा दिया कि वे क्रांति-विरोध का सक्रिय रूप से हथियारबन्द विरोध करें। मजदूर जल्दी-जल्दी हथियारबन्द होने लगे और मुकाबिले की तैयारी में लग गये। उन दिनों, रेड गार्ड दस्ते भारी तादाद में बने। ट्रेड यूनियनों ने अपने सदस्यों को बटोरा। पेत्रोग्राद के क्रांतिकारी फ़ौजी दस्ते लड़ाई के लिये तैयार रखे गये। पेत्रोग्राद के चारों तरफ खाइयां खोद दी गयीं, कंटीले तारों की जाली लगा दी गई और शहर की तरफ आने वाली रेलों की पटरियां उखाड़ डाली गयीं। शहर की रक्षा करने के लिये, कई हजार हथियारबन्द मल्लाह क्रोन्स्तात से आये। पेत्रोग्राद की तरफ़ बढ़ने वाली 'खंूखार पल्टन' के पास प्रतिनिधि भेजे गये। 'खूंखार पल्टन' में काॅकेशस के पहाड़ी लोग थे। जब प्रतिनिधियों ने काॅर्निलोव की कार्यवाही का उद्देश्य उन्हें समझाया, तो उन्होंने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। काॅर्निलोव के दूसरे दस्तों के लिये भी प्रचारक भेजे गये। जहंा भी खतरा था, काॅर्निलोव से लड़ने के लिये क्रांतिकारी समितियां और हैड क्वार्टर बनाये गये। 

उन दिनों, अपनी जान के लिये बुरी तरह डरे हुए समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक नेता, जिनमें करैन्स्की भी था, बोल्शेविकों से जान बचाने की प्रार्थना करने लगे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि राजधानी में बोल्शेविक ही एक समर्थ शक्ति हैं, जो काॅर्निलोव को हरा सकते हैं। 

लेकिन, काॅर्निलोव-विद्रोह को कुचलने के लिये आम जनता को बटोरते हुए बोल्शेविकों ने करैन्स्की हुकूमत के खिलाफ़ अपना संघर्ष बन्द नहीं किया। उन्होंने आम जनता के सामने करैन्स्की सरकार, मेन्शेविकों और समाजवादी क्रंातिकारियों का पर्दाफ़ाश किया और बताया कि दरअसल उनकी समूची नीति काॅर्निलोव के क्रांति-विरोधी षडयंत्र की मदद कर रही है। 

इन उपायों का फल यह हुआ कि काॅर्निलोव-विद्रोह दबा दिया गया। जनरल क्रिमोव ने आत्महत्या कर ली। काॅर्निलोव और उसके साथी षडयंत्रकारी देनिकिन और लुकोम्स्की गिरफ्तार कर लिये गये। (लेकिन, करैन्स्की ने बहुत जल्द ही उन्हें छुड़वा दिया) 

काॅर्निलोव-विद्रोह की हार ने पल भर में दिखला दिया कि क्रांति और क्रांति-विरोध की ताकत कितनी-कितनी है। उसने दिखला दिया कि सारे क्रांति-विरोधी खेमें की, जनरलों और काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी से लेकर पूंजीपतियों के जाल में फंसने वाले मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों तक की मौत नज़दीक आ पहुंची है। यह बात स्पष्ट हो गयी कि लड़ाई के असह बोझ को बनाये रखने की नीति से और लम्बी लड़ाई से पैदा होने वाली आर्थिक अव्यवस्था की वजह से, आम जनता में मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों का असर पूरी तरह कमजोर पड़ चुका है। 

काॅर्निलोव-विद्रोह की हार ने यह भी दिखला दिया कि बोल्शेविक पार्टी क्रांति की निर्णायक शक्ति बन चुकी है और क्रांति-विरोध की कोई भी कोशिश खत्म कर सकती है। हमारी पार्टी अभी शासक पार्टी नहीं थी, लेकिन काॅर्निलोव के दिनों में उसने सच्ची हुकूमत करने वाली ताक़त की तरह काम किया। मज़दूर और सैनिक बिना हिचकिचाहट के उसके निर्देश पालन करते थे। 

अंत में, काॅर्निलोव-विद्रोह की हार ने दिखला दिया कि ऊपर से मुर्दा दिखने वाली सोवियतों में दरअसल क्रांतिकारी प्रतिरोध करने की भारी शक्ति छिपी हुई है। इसमें कोई शक नहीं था कि सोवियतों और उनकी क्रांतिकारी कमिटियों ने ही काॅर्निलोव के दस्तों का रास्ता रोक लिया था और उनकी कमर तोड़ दी थी। 

काॅर्निलोव के खिलाफ़ संघर्ष ने मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की मुरझाती हुई सोवियतों में नयी जान डाल दी। उसने उन्हें समझौते की नीति के असर से मुक्त किया। वह उन्हें क्रांतिकारी संघर्ष की खुली राह पर ले आया और उसने उन्हें, बोल्शेविक पार्टी की तरफ मोड़ दिया। 

सोवियतों में बोल्शेविकों का असर पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। 

देहात के जिलों में भी उनका असर तेजी से बढ़ा। 

काॅर्निलोव-विद्रोह ने आम किसान जनता के सामने यह बात साफ कर दी कि अगर जमींदार और जनरल बोल्शेविकों और सोवियतों को कुचल पाये, तो उसके बाद वे किसानों पर ही हमला करेंगे। इसलिये, ग़रीब किसान बोल्शेविकों के चारों तरफ और नजदीक सिमटने लगे। जहां तक मध्यम किसानों का सम्बन्ध था, उनके ढुलमुलपन ने अप्रैल से अगस्त 1917 तक के दौर में क्रांति के विकास को रोका था। काॅर्निलोव की हार के बाद, वे बोल्शेविक पार्टी की तरफ निश्चित रूप से झुकने लगे और गरीब किसानों से एका करने लगे। आम किसान जनता यह महसूस करने लगी थी कि बोल्शेविक पार्टी उसे युद्ध से मुक्त कर सकती है और यही पार्टी जमींदारों को कुचल सकती है और किसानों को जमीन देने के लिये तैयार है। सितंबर और अक्तूबर 1917 के महीनों में, किसानों द्वारा रियासती जमीन पर अधिकार करने की घटनायें बेहद बढ़ गयीं। बिना पूछे हुए, जमींदारों के खेत जोतना आम हो गया। किसानों ने क्रांति की राह पकड़ ली थी और पुचकारने से या सज़ा देने वाले दस्ते भेजने से अब वे रुक न सकते थे। 

क्रांति का ज्वार उठ रहा था। 

सोवियतों के पुनर्जिवन का दौर आया, उनकी बनावट बदलने, उनके बोल्शेविकरण का दौर आया। कारखानों, मिलों और फ़ौजी दस्तों में नये चुनाव हुए और उन्होंने मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों की जगह सोवियतों में बोल्शेविक पार्टी के प्रतिनिधि भेजे। 31 अगस्त को, काॅर्निलोव पर जीत हासिल करने के दूसरे दिन, पेत्रोग्राद-सोवियत ने बोल्शेविक नीति मंजूर की। पेत्रोग्राद-सोवियत के पुराने मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी सभापति-मण्डल ने, जिसका अग्रणी चखाइत्से था, इस्तीफ़ा दे दिया और इस तरह, बोल्शेविकों के लिये रास्ता साफ़ कर दिया। 5 सितंबर को, मजदूर प्रतिनिधियों की मास्को-सोवियत बोल्शेविकों की तरफ़ आ गयी। 

मास्को-सोवियत के समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक सभापति-मण्डल ने भी इस्तीफा दे दिया और बोल्शेविकों के लिये रास्ता साफ कर दिया। 

इसका मतलब यह था कि सफल विद्रोह के लिये मुख्य शर्तें पूरी हो चुकी थीं। 

'सारी सत्ता सोवियतों को दो !' - यह नारा फिर कार्यक्रम में शामिल हो गया था। 

लेकिन यह पुराना नारा नहीं था, मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी सोवियतों को सत्ता सौंपने का नारा नहीं था। अब यह अस्थायी सरकार के खिलाफ़ सोवियतों के विद्रोह का नारा था, जिसका उद्देश्य था कि सोवियतों के हाथ में देश की सारी सत्ता सौंप दी जाये जो अब बोल्शेविकों के नेतृत्व में थीं। 

समझौतावादी पार्टियां भीतर से टूटने लगीं। 

क्रांतिकारी किसानों के दबाव से, समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी में एक वाम पंथी दल बन गया। इसे 'वाम पंथी' समाजवादी क्रांतिकारी दल कहते थे। ये लोग पूंजीपतियों से समझौता करने की नीति नामंजूर करते थे। 

मेन्शेविकों में भी 'वामपंथियों' का एक गुट, तथाकथित 'अंतर्राष्टीयतावादी' गुट पैदा हो गया, जो बोल्शेविकों की तरफ़ झुकता था। 

जहां तक अराजकतावादियों का सवाल था, इनका असर तो पहले ही नहीं के बराबर था। अब वे छोटी-छोटी टुकड़ियों में बंट गये, जिनमें से कुछ तो चोरों और जासूसों, समाज के सबसे घटिया लोगों, बदमाशों वगैरह से मिल गये। दूसरे लोग दूसरों का माल हड़पने वाले हो गये। और, वे दूसरों का माल हड़पने में 'विश्वास' करने लगे ! ये किसानों और शहर के मामूली लोगों को लूटते थे और मज़दूर क्लबों की जगह और उनकी जमा-जथा हथिया लेते थे। कुछ दूसरे और थे, जो खुल कर क्रांति-विरोधी खेमे से जा मिले, और पूंजीपतियों के चाकर बन कर अपनी जेबें गरम करने लगे। ये लोग हर किसी तरह के प्रभुत्व के खिलाफ़ थे, खास तौर से मजदूरों और किसानों के क्रांतिकारी प्रभुत्व के खिलाफ़ थे, क्योंकि, वे जानते थे कि क्रांतिकारी हुकूमत उन्हें जनता को लूटने और जन-सम्पत्ति चुराने की छूट न देगी। 

काॅर्निलोव की हार के बाद, मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों ने एक बार और कोशिश की कि क्रांति का उठता हुआ ज्वार दब जाये। इस उद्देश्य से, उन्होंने 12 सितम्बर 1917 को एक अखिल रूसी प्रजातांत्रिक सम्मेलन बुलाया। इसमें सोशलिस्ट 

पार्टियों, समझौतावादी सोवियतों, टंेड यूनियनों, जेम्स्त्वों, व्यापारी और औद्योगिक हल्कों और फौजी दस्तों के प्रतिनिधि आये थे। सम्मेलन ने प्रजातंत्र की एक अस्थायी समिति बनायी, जिसका नाम प्रेद पार्लियामेंट था। समझौतावादियों को उम्मीद थी कि इसकी मदद से वे क्रांति रोक लेंगे और देश को सोवियत क्रांति के रास्ते से हटा कर पूंजीवादी वैधानिक विकास की राह पर, पूंजीवादी पार्लियामेंटगीरी की राह पर ले आयेंगे। लेकिन, यह राजनीति के दिवालियों की नाकाम कोशिश थी जो क्रांति के चक्र को रोकने के लिये की गयी थी। उसका नाकाम होना लाजिमी था, और वह नाकाम होकर रही। मजदूर समझौतावादियों की इन पार्लियामेंट सम्बन्धी कोशिशों का मजाक बनाते थे और प्रेद पार्लियामेंट (पार्लियामेंट से पूर्व) को 'प्रेद बान्निक' (स्नानगृह से पूर्व) कहते थे। 

बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने प्रेद पार्लियमेंट का बायकाट करने का फैसला किया। यह सही है कि प्रेद पार्लियामेंट में कामेनेव और तेओदोरोविच जैसे लोगों का बोल्शेविक गुट उससे अलग न होना चाहता था, लेकिन पार्टी की केन्द्रीय समिति ने उसे इसके लिये मजबूर किया। 

कामेनेव और जिनोवियेव ने इस बात की बहुत जिद की कि प्रेद पार्लियामेंट में हिस्सा लिया जाये। इस तरह, वे कोशिश कर रहे थे कि पार्टी को विद्रोह की तैयारी करने की राह से हटा दिया जाये। अखिल रूसी जनवादी सम्मेलन के बोल्शेविक गुट की बैठक में बोलते हुए, काॅमरेड स्तालिन ने प्रेद पार्लियामेंट में हिस्सा लेने का जोरों से विरोध किया। उन्होंने कहा कि प्रेद पार्लियामेंट 'काॅर्निलोव का गर्भपात है' 

लेनिन और स्तालिन का विचार था कि कुछ दिनों के लिये भी प्रेद पार्लियामेंट में हिस्सा लेना गलत होगा, क्योंकि इससे आम जनता में यह झूठी आशा पैदा हो सकती थी कि प्रेद पार्लियामेण्ट मेहनतकश जनता के लिये सचमुच कुछ कर सकती है। 

इसके साथ ही, बोल्शेविकों ने सोवियतों की दूसरी कांग्रेस बुलाने के लिये जोरदार तैयारियां कीं। उन्हें आशा थी कि इस कांग्रेस में उनका बहुमत होगा। बोल्शेविक सोवियतों के दबाव से, अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति में मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों की चालबाजियों के बावजूद, सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस अक्तूबर 1917 के दूसरे पखवारे में बुलाई गई। 

6. पेत्रोग्राद में अक्तूबर विद्रोह और अस्थायी सरकार की गिरफ्तारी। सोवियतों की दूसरी कांग्रेस और सोवियत सरकार का निर्माण। शान्ति और जमीन पर सोवियतों की दूसरी कांग्रेस के आज्ञा-पत्र। समाजवादी क्रांति की विजय। समाजवादी क्रांति की विजय के कारण। 

बोल्शेविकों ने विद्रोह की जोरदार तैयारियां शुरू कीं। लेनिन ने कहा कि दोनों राजधानियों-मास्को और पेत्रोग्राद-में मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतों में बहुमत हासिल करने के बाद, बोल्शेविक अपने हाथ में राज्य सत्ता ले सकते हैं, और उन्हें लेना चाहिये। तय किए हुए रास्ते पर नज़र डालते हुए, लेनिन ने इस बात पर जोर दिया कि 'जनता का बहुमत हमारे साथ है।' अपने लेखों और केन्द्रीय समिति और बोल्शेविक संगठनों के नाम अपने खतों में, लेनिन ने विद्रोह की एक विस्तृत योजना बनायी और बतलाया कि फौजी दस्ते, जल-सेना और रेड गार्ड दस्तों को किस तरह इस्तेमाल करना चाहिये, विद्रोह की सफलता निश्चित करने के लिये पेत्रोग्राद के किन मुख्य स्थानों पर कब्ज़ा करना चाहिये, इत्यादि। 

7 अक्तूबर को, लेनिन गुप्त रूप से फिनलैंड से पेत्रोग्राद आये। 10 अक्तूबर 1917 को, पार्टी की केन्द्रीय समिति की ऐतिहासिक बैठक हुई जिसमें अगले कुछ दिनों में सशस्त्र विद्रोह आरम्भ करने का फ़ैसला किया गया। पार्टी की केन्द्रीय समिति के ऐतिहासिक प्रस्ताव में, जिसे लेनिन ने लिखा था, कहा गया था: 

"केन्द्रीय समिति यह समझती है कि रूसी क्रांति की अंतर्राष्टीय परिस्थिति (जर्मन जल-सेना में विद्रोह, जो समूचे यूरोप में विश्व समाजवादी क्रांति का चरम प्रदर्शन है; रूस की क्रांति का गला घोंटने के उद्देश्य से साम्राज्यवादियों के बीच शान्ति की धमकी), साथ ही सैनिक परिस्थिति (रूसी पूंजीपतियों और करैन्स्की एण्ड कम्पनी का यह निश्चित फ़ैसला कि पेत्रोग्राद जर्मनों को सौंप दिया जाये) और सोवियतों में सर्वहारा पार्टी का बहुमत हासिल करना, - यह सब और इसके साथ यह कि किसान-विद्रोह हो रहे हैं और आम जनता का विश्वास तेजी से पार्टी पर जम रहा है (मास्को के चुनाव), और अंत में एक दूसरे काॅर्निलोव-कांड के लिये जो खुली तैयारी हो रही है (पेत्रोग्राद से फ़ौज वापस बुलाना, पेत्रोग्राद में कज़ाक भेजना, कज़ाकों द्वारा मिन्स्क का घेरा डालना, वगैरह) - इन सब कारणों से, सशस्त्र विद्रोह फ़ौरी कार्यक्रम में शामिल हो गया है। 

 "इसलिये, यह समझ कर कि सशस्त्र विद्रोह होकर रहेगा और उसके लिये वक्त बिल्कुल आ गया है, केन्द्रीय समिति सभी पार्टी-संगठनों को निर्देश करती है कि वे सभी काम इसी बात को ध्यान में रख कर करें और इसी दृष्टिकोण से सभी अमली सवालों पर (उत्तरी प्रदेश की सोवियतों की कांग्रेस, पेत्रोग्राद से फ़ौजें, हटाना, मास्को और मिन्स्क में हमारी जनता की कार्यवाही वगैरह पर) विचार करें और फ़ैसला करें।" (लेनिन, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 2 पृष्ठ 135) 

केन्द्रीय समिति के दो सदस्य, कामेनेव और जिनोवियेव, इस ऐतिहासिक प्रस्ताव के खिलाफ़ बोले और उन्होंने उसके विरुद्ध वोट दिया। मेन्शेविकों की तरह, वे पूंजीवादी पार्लियामेंटरी प्रजातंत्र का सपना देखते थे और मजदूर वर्ग पर यह कह कर कीचड़ उछालते थे कि समाजवादी क्रांति करने के लिये वह काफ़ी मजबूत नहीं हैं, कि वह सत्ता हाथ में लेने के लिये काफ़ी परिपक्व नहीं हंै। 

हालांकि इस बैठक में त्रात्स्की ने सीधे इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वोट नहीं दिया, फिर भी उसने एक संशोधन रखा जिससे विद्रोह की संभावना नहीं के बराबर हो जाती और विद्रोह निष्फल हो जाता। उसने प्रस्ताव रखा कि सोवियतों की दूसरी कांगे्रस शुरू होने से पहले विद्रोह शुरू न किया जाये। इस प्रस्ताव का मतलब था - विद्रोह में विलंब करना, उसकी तारीख ज़ाहिर कर देना और अस्थायी सरकार को आगाह कर देना। 

बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने विद्रोह का संगठन करने के लिये अपने प्रतिनिधियों को दोल्येत्स प्रदेश, यूराल हैलसिंगफ़ोर्स, क्रोन्स्तात, दक्खिन-पच्छिमी मोर्चा और दूसरी जगहों पर भेजा। पार्टी ने खास तौर से सूबों में विद्रोह का संचालन करने के लिये काॅमरेड वोरोशिलोव, मालोतोव, जेराजिन्स्की आर्जोनिकित्से, किरोव, कगानोविच, कुइवीशेव, फ्रुन्जे, यारोस्लाव्स्की और दूसरे साथियों को मुक़र्रर किया। काॅमरेड ज्दानोव ने यूराल में शाद्रिन्स्क की फ़ौज में काम जारी रखा। केन्द्रीय समिति के प्रतिनिधियों ने सूबों के बोल्शेविक संगठनों के प्रमुख सदस्यों को विद्रोह की योजना बतलायी और पेत्रोग्राद के विद्रोह का समर्थन करने के लिये उन्हें तैयार रहने के लिये बटोरा। 

पार्टी की केन्द्रीय समिति के निर्देश से, पेत्रोग्राद-सोवियत की एक क्रांतिकारी फ़ौजी कमिटी बनायी गयी। यह संस्था विद्रोह का क़ानूनी तौर पर चलने वाला हैड क्वार्टर बन गयी। 

उधर क्रांति-विरोधी भी जल्दी-जल्दी अपनी शक्ति बटोर रहे थे। फ़ौज के अफ़सरों ने एक क्रांति-विरोधी संगठन बनाया, जिसका नाम अफ़सरों की सभा था। हर जगह क्रांति-विरोधियों ने लड़ाकू दस्ते बनाने के लिये हैड क्वार्टर क़ायम किये। अक्तूबर के अंत तक, क्रांति-विरोधियों की कमान में 43 लड़ाकू दस्ते बन गये। सेंट जाॅर्ज के क्रास के मानने वालों के खास दस्ते बनाये गये। 

करैन्स्की की सरकार ने शासन केन्द्र पेत्रोग्राद से मास्को ले जाने के सवाल पर विचार किया। इससे स्पष्ट हो गया कि शहर में विद्रोह रोकने के लिये वह पेत्रोग्राद को जर्मनों के हाथ सौंपने की तैयारी कर रही है। पेत्रोग्राद के मज़दूरों और सैनिकों के विरोध ने अस्थायी सरकार को पेत्रोग्राद में ही रहने पर मज़बूर किया। 

16 अक्तूबर को, पार्टी की केन्द्रीय समिति की एक विस्तृत बैठक हुई। इस बैठक में विद्रोह का संचालन करने के लिये एक पार्टी केन्द्र चुना गया, जिसके अगुआ काॅमरेड स्तालिन थे। यह पार्टी केन्द्र पेत्रोग्राद-सोवियत की क्रांतिकारी फ़ौजी कमिटी का प्रमुख नेतृत्व था और समूचे विद्रोह का अमली संचालन उसके हाथ में था। 

केन्द्रीय समिति की बैठक में, समर्पणवादियों - जिनोवियेव और कामेनेव ने विद्रोह का फिर विरोध किया। यहां मुंह की खाकर, उन्होंने विद्रोह के खिलाफ़ पार्टी के खिलाफ़ खुल्लमखुल्ला अखबारों में लिखा। 18 अक्तूबर को, मेन्शेविक अख़बार नोवाया जीस्न (नवजीवन) ने कामेनेव और जिनोवियेव का बयान छापा, जिसमंे कहा गया था कि बोल्शेविक विद्रोह की तैयारी कर रहे हैं और वे (कामेनेव और जिनोवियेव) समझते हैं कि यह दुस्साहसपूर्ण जुआं खेलना है। इस तरह, कामेनेव और जिनोवियेव ने दुश्मन को केन्द्रीय समिति का विद्रोह सम्बन्धी फ़ैसला बता दिया ; उन्होंने यह प्रकट कर दिया कि कुछ ही दिनों में विद्रोह शुरू करने की योजना बनायी गयी है। यह गद्दारी थी। इस सिलसिले में, लेनिन ने लिखा था: "कामेनेव और जिनोवियेव ने सशस्त्र विद्रोह के बारे में अपनी पार्टी की केन्द्रीय समिति का फै़सला दग़ाबाजी से रोदजियांको और करैन्स्की को बतला दिया है।" लेनिन ने केन्द्रीय समिति के सामने जिनोवियेव और कामेनेव को पार्टी से निकालने का सवाल रखा। 

गद्दारों से चेतावनी पाकर, क्रांति के दुश्मन तुरंत ही इस बात के उपाय करने लगे कि विद्रोह को रोक दें और क्रांति के संचालक दल - बोल्शेविक पार्टी - का नाश कर दें। अस्थायी सरकार ने एक गुप्त बैठक बुलायी, जिसमें बोल्शेविकों का मुकाबिला करने के लिये क्या उपाय किये जायें, इसका फ़ैसला हुआ। 19 अक्तूबर को, अस्थायी सरकार ने युद्ध के मोर्चे से जल्दी-जल्दी फ़ौजें पेत्रोग्राद बुलायीं। सड़कों पर भारी पहरा लगा दिया गया। क्रांति-विरोधी खास तौर से मास्को में भारी फ़ौज इकट्ठी करने में कामयाब हुए। अस्थायी सरकार ने एक योजना बनायी कि सोवियतों की दूसरी कांगे्रस शुरू होने से पहले बोल्शेविक केन्द्रीय समिति के हैड क्वार्टर स्मोल्नी पर हमला किया जाये और उस पर कब्जा कर लिया जाये और बोल्शेविक संचालन-केन्द्र का नाश कर दिया जाये। इसी उद्देश्य से, हुकूमत ने पेत्रोग्राद में वह फौज बुलाई जिसकी वफ़ादारी पर उसे भरोसा था। 

लेकिन, अस्थायी सरकार की जिन्दगी के दिन और घंटे भी गिनती के रह गये थे। समाजवादी क्रांति की विजय-यात्रा को अब कोई भी न रोक सकता था। 

21 अक्तूबर को, बोल्शेविकों ने सभी क्रांतिकारी फ़ौजी दस्तों के पास क्रांतिकारी फ़ौजी समिति के कमीसार भेजे। विद्रोह होने से पहले के बचे हुए दिनों में फौजी दस्तों, मिलों और कारखानों में कार्यवाही की ज़ोरदार तैयारी की गयी। युद्ध-पोत अरोरा और जारियास्वोबोदी के लिये भी निश्चित निर्देश भेजे गये। 

पेत्रोग्राद-सोवियत की एक बैठक में त्रात्स्की ने डींग हांकने की जोम में दुश्मन को वह तारीख बतला दी जबकि बोल्शेविक सशस्त्र विद्रोह शुरू करने वाले थे। करैन्स्की सरकार विद्रोह को असफल न कर दे, इसलिये पार्टी की केन्द्रीय समिति ने फ़ैसला किया कि निश्चित किये हुए समय से पहले ही विद्रोह शुरू कर दिया जाये और आखिरी मंजिल तक ले जया जाये। उसने विद्रोह की तारीख सोवियतों की दूसरी कांगे्रस के शुरू होने से पहले के दिन रखी। 

24 अक्तूबर (6 नवम्बर) को सुबह तड़के, करैन्स्की ने हमला शुरू कर दिया। उसने बोल्शेविक पार्टी के केन्द्रीय पत्र रबोचीपूत (मजदूर पथ) को बन्द करने का हुकुम दिया और सम्पादकीय दफ्तर और बोल्शेविकों के छापेखाने पर हथियारबन्द गाड़ियां भेजीं। लेकिन 10 बजे सबेरे तक, काॅमरेड स्तालिन के निर्देश पर, रेड गार्डों के दस्तों और क्रांतिकारी सैनिकों ने हथियारबन्द गाड़ियों को पीछे ठेल दिया और छापेखाने और रबोचीपूत के सम्पादकीय दफ्तरों पर और ज्यादा पहरा बिठा दिया। लगभग 11 बजे सबेरे रबोचीपूत प्रकाशित हुआ, जिसमें अस्थायी सरकार का तख़्ता उलट देने के लिये आहõान था। उसी समय, विद्रोह के पार्टी केन्द्र के निर्देश से क्रांतिकारी सैनिकों और रेड गार्डों के दस्ते स्मोल्नी की तरफ़ दौड़ाये गये। 

विद्रोह शुरू हो गया। 

24 अक्तूबर की रात को, लेनिन स्मोल्नी आ पहुंचे और उन्होंने खुद विद्रोह के संचालन का भार संभाला। उस रात भर फ़ौज के क्रांतिकारी दस्ते और रेड गार्डों के जत्थे बराबर स्मोल्नी आते रहे। बोल्शेविकों ने शरद प्रासाद घेरने के लिये, जहां अस्थायी सरकार ने अपना अड्डा बनाया था, उन्हें राजधानी के केन्द्र की तरफ़ भेजा। 

 

25 अक्तूबर (7 नवम्बर) को, रेड गार्डों के दस्तों और क्रांतिकारी सैनिकों ने रेलवे स्टेशनों, डाकखानों, तारघरों, मंत्री-गृहों और राज्य बैंक पर कब्जा कर लिया। 

प्रेद पार्लियामेंट भंग कर दी गयी। 

बोल्शेविक केन्द्रीय समिति और पेत्रोग्राद-सोवियत का हैड क्वार्टर, स्मोल्नी क्रांति का हैड क्वार्टर बन गया, जहां से लड़ाई के बारे में सभी हुकूम भेजे जाते थे। 

पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने उन दिनों दिखला दिया कि बोल्शेविक पार्टी की देख-रेख में उन्होंने कैसी महान शिक्षा पाई है। फ़ौज के क्रांतिकारी दस्तों ने, जिन्हें बोल्शेविकों के काम ने विद्रोह के लिये तैयार किया था, नपे-तुले ढंग से लड़ाई की आज्ञाओं का पालन किया और वे रेड गार्डों के दस्तों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लडे़। जल-सेना फ़ौज से पीछे न रही। क्रोन्स्तात बोल्शेविक पार्टी का गढ़ था और बहुत दिन पहले ही अस्थायी सरकार का प्रभुत्व मानने से इन्कार कर चुका था। युद्ध-पोत अरोरा ने अपनी तोपें शरद प्रासाद की तरफ़ मोड़ दीं और 25 अक्तूबर को, उनकी घन गरजन ने एक नया युग आरम्भ किया, महान समाजवादी क्रांति का युग आरम्भ किया। 25 अक्तूबर (7 नवंबर) को, बोल्शेविकों ने "रूस के नागरिकों के नाम" एक घोषणापत्र निकाला। इसमें कहा गया था कि पूंजीवादी अस्थायी सरकार हटा दी गयी है और राज्य सत्ता सोवियतों के हाथ में आ गयी है। 

अस्थायी सरकार ने कैडेटों और लड़ाकू जत्थों की छत्रछाया में शरद प्रासाद में शरण ली थी। 25 अक्तूबर की रात को क्रांतिकारी मजदूरों, सैनिकों और जहाजियों ने शरद प्रासाद पर हल्ला बोल कर क़ब्जा कर लिया और अस्थायी सरकार को गिरफ्तार कर लिया। 

पेत्रोग्राद में सशस्त्र विद्रोह की विजय हुई। 

सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस 25 अक्तूबर (7 नवंबर) 1917 की शाम को 10 बजकर 45 मिनिट पर स्मोल्नी में शुरू हुई, जबकि पेत्रोग्राद का विद्रोह विजय-गौरव से दमक रहा था और राजधानी में सत्ता सचमुच पेत्रोग्राद-सोवियत के हाथ में आ गयी थी। 

कांगे्रस में बोल्शेविकों को भारी बहुमत मिला। मेन्शेविकों, बुन्दवादियों और दक्षिणपंथी समाजवादी क्रांतिकारियों ने देखा कि अब उनके दिन बीत चुके हैं, इसीलिये वे कांगे्रस से बाहर चले गये और उन्होंने ऐलान किया कि वे कांग्रेस के काम में हिस्सा लेने से इन्कार करते हैं। सोवियतों की कांग्रेस में उनका एक बयान पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने अक्तूबर क्रांति को एक 'फौजी षडयंत्र' बतलाया था। कांग्रेस ने मेन्शेविकों और सामजवादी क्रांतिकारियों की निंदा की और उनके चले जाने पर अफसोस करना तो दूर, उसका स्वागत किया। कांग्रेस ने ऐलान किया कि ग़द्दारों के चले जाने से अब वह मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सच्ची क्रांतिकारी कांग्रेस हो गयी है। 

कांगे्रस ने ऐलान किया कि सारी सत्ता सोवियतों के हाथ में आ गयी है। सोवियतों की दूसरी कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया: 

"मजदूरों, सैनिकों और किसानों के भारी बहुमत का समर्थन पाकर और पेत्रोग्राद में होने वाले मजदूरों और सैनिकों के सफल विद्रोह का समर्थन पाकर कांग्रेस अपने हाथ में सत्ता लेती है।" 

 

 

26 अक्तूबर (8 नवम्बर) 1917 की रात को, सोवियतों की दूसरी कांग्रेस ने शान्तिसम्बन्धी आज्ञा-पत्र स्वीकार किया। कांग्रेस ने युद्ध करने वाले देशों को बुलावा दिया कि कम से कम तीन महीने के लिये सुलह कर लें, जिससे शान्ति की बातचीत की जा सके। कांग्रेस ने एक तरफ़ तो युद्ध करने वाले देशों की जनता और वहां की सरकारों से अपनी बात कही, दूसरी तरफ़ उसने "संसार की तीन सबसे आगे बढ़ी हुई जातियों और मौजूदा युद्ध में हिस्सा लेने वाले सबसे बडे़ राज्यों यानी ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के वर्ग-चेतन मज़दूरों से" अपील की। उसने इन मजदूरों से कहा कि वे "शान्ति के उद्देश्य को सफलता की मंजिल तक ले जाने में और साथ ही सभी तरह की गुलामी और शोषण से मेहनतकश और शोषित जनता की मुक्ति के उद्देश्य को सफलता की मंजिल तक ले जाने में" मदद करें। 

उसी रात को, सोवियतों की दूसरी कांग्रेस ने भूमिसम्बन्धी आज्ञ़ा-पत्र स्वीकार किया जिसमें कहा गया था: "भूमि पर जमींदारों की मिल्कियत बिना मुआविजे के तुरंत खत्म की जाती है।" खेती के इस कानून का आधार किसानों का एक निर्देश-पत्र (नकाज़, मैंडेट) था, जो अलग-अलग जगहों के किसानों के 242 मैंडेटों को मिला कर बनाया गया था। इसके अनुसार, ज़मीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत हमेशा के लिये खत्म कर दी गयी और उसके बदले सार्वजनिक या राज्य की मिल्कियत हुई। जमींदारों, ज़ार के परिवार और मठों की जमीन बिना पैसा दिये हुए सभी मेहनतकशों को इस्तेमाल के लिये देने का हुकुम हुआ। 

इस आज्ञा-पत्र से, किसानों ने अक्तूबर समाजवादी क्रांति से 15 करोड़ देसियातिन (40 करोड़ एकड़ से ऊपर) जमीन पायी जो पहले जमींदारों, पूंजीपतियों, ज़ार के परिवार, मठों और गिरजाघरों के पास थी। 

इसके अलावा, किसानों को उस लगान से मुक्त कर दिया गया जो वे जमींदारों को देते थे और जो सालाना 50 करोड़ स्वर्ण रूबल होता था। 

खनिज पदार्थों के तमाम साधन (तेल, कोयला, धातुएं, वगैरह) जंगल और जलाशय जनता की सम्पत्ति हो गये। 

अंत में सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस ने पहली सोवियत सरकार बनायी - जन कमीसारों की समिति बनायी जिसमें सभी बोल्शेविक थे। जन कमीसारों की पहली समिति के पहले सभापति लेनिन चुने गये। 

इससे सोवियतों की दूसरी ऐतिहासिक कांग्रेस का काम खत्म हुआ। 

कांग्रेस के प्रतिनिधि इधर-उधर बिखर गये, जिससे कि पेत्रोग्राद में सोवियतों की जीत की ख़बर फैला दें और सोवियतों की सत्ता सारे देश में फैलाने का काम निश्चित करें। 

हर जगह सोवियतों के हाथ तुरंत ही सत्ता नहीं आ गयी। जब पेत्रोग्राद में सोवियत सरकार बन चुकी थी, तब मास्को में कई दिन तक डट कर और घनघोर लड़ाई होती रही। सत्ता मास्को-सोवियत के हाथ में न जाये, इसके लिये क्रांति-विरोधी मेन्शेविक और समाजवादी क्रंतिकारी पार्टियों ने गद्दारों और कैडेटों से मिलकर मजदूरों और सैनिकों के खिलाफ़ हथियारबन्द लड़ाई शुरू कर दी। बागियों को हराने और मास्को में सोवियतों की सत्ता कायम करने में कई दिन लग गये। 

खुद पेत्रोग्राद में और उसके कई जिलों में क्रांति की जीत के शुरू के दिनों में ही सोवियत सत्ता को खत्म करने की क्रांति-विरोधी कोशिशें की गयीं। 10 नवम्बर 1917 को, करैन्स्की ने, जो विद्रोह के समय पेत्रोग्राद से उत्तरी मोर्चे को भाग गया था, कई क़जाक दस्ते इकट्ठे किये और जनरल क्रासनोव की कमान में उन्हें पेत्रोग्राद के खिलाफ भेजा। 11 नवम्बर 1917 को, एक क्रांति-विरोधी संगठन ने पेत्रोग्राद में कैडेटों से बगावत करायी। इस संगठन के नेता समाजवादी क्रांतिकारी थे, और उसका नाम रखा था - "पितृभूमि और क्रांति के उद्धार की कमिटी"। लेकिन, बिना ज्यादा कठिनाई के बग़ावत दबा दी गयी। एक ही दिन में, 11 नवम्बर की शाम तक, जहाजियों और रेड गार्डों के दस्तों ने कैडेट-विद्रोह दबा दिया और 13 नवम्बर को जनरल क्रासनोव पुलकोवो पहाड़ियों के पास हरा दिया गया। लेनिन ने व्यक्तिगत रूप से सोवियत-विरोधी बग़ावत दबाने का संचालन किया, जैसे उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अक्तूबर विद्रोह का संचालन किया था। उनकी अटूट दृढ़ता और विजय में उनके शान्त विश्वास ने जनता को प्रेरित और संगठित किया। दुश्मन कुचल दिया गया। क्रासनोव गिरफ़्तार कर लिया गया और उसने 'वचन दिया' कि सोवियत सत्ता के खिलाफ़ लड़ाई बन्द कर देगा। और, 'वचन देने पर' वह छोड़ दिया गया। लेकिन जैसा कि आगे मालूम हुआ, जनरल ने अपना वचन तोड़ दिया। जहां तक करैन्स्की का सम्बन्ध था, वह औरत का भेष बनाकर 'किसी अज्ञात दिशा में गायब' हो गया। 

फ़ौज के जनरल हैड क्वार्टर पर, मोगिलेव में प्रधान सेनापति जनरल दुखोनिन ने भी बग़ावत करने की कोशिश की। जब सोवियत सरकार ने उसे हुकुम दिया कि जर्मन कमान से सुलह करने के लिये तुरंत बातचीत चलाओ, तो उसने इन्कार कर दिया। इस पर, सोवियत सरकार के हुकुम से उसे हटा दिया गया। क्रांति-विरोधी जनरल हैड क्वार्टर तोड़ दिया गया और खुद दुखोनिन को उसके खिलाफ़ विद्रोह करने वाले सैनिकों ने मार डाला। 

पार्टी के भीतर कुछ नामी-गिरामी अवसरवादियों - कामेनेव, जिनोवियेव, राइकोव, श्लियापनीकोव, वगै़रह - ने भी सोवियत सत्ता के खिलाफ़ धावा बोला। उन्होंने मांग की कि एक 'संयुक्त समाजवादी सरकार' बनायी जाये, जिसमें मेन्शेविक और समाजवादी क्रांतिकारी भी शामिल किये जायें जिन्हें अक्तूबर क्रांति ने अभी-अभी परास्त किया था। 15 नवम्बर 1917 को, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें इन क्रांति-विरोधी पार्टियों के साथ समझौता करना नामंजूर कर दिया गया और कामेनेव तथा जिनोवियेव को क्रांति का हड़ताल-तोड़क कहा गया। 17 नवम्बर को, पार्टी की नीति से असहमत होते हुए कामेनेव, जिनोवियेव, राइकोव और मिल्यूतिन ने ऐलान किया कि वे केन्द्रीय समिति से इस्तीफ़ा देते हैं। उसी दिन, 17 नवम्बर को, नोबिन ने अपनी तरफ़ से और जन कमीसार समिति के सदस्यों - राइकोव, वी. मिल्यूतिन, तियोदोरोविच, . शिलायापनीकोव, डी. रियाजानोव, यूरेनेव और लारिन - की तरफ़ से ऐलान किया कि वे पार्टी की केन्द्रीय समिति की नीति से असहमत हैं और जन कमीसार समिति से इस्तीफ़ा देते हैं। इन मुट्ठी भर ग़द्दारों के भाग खडे़ होने से, अक्तूबर क्रांति के दुश्मनों के यहां खुशियां मनायी जाने लगीं। पूंजीपति और उनके पिट्ठू खुशी से फूलकर कहने लगे कि बोल्शेविज़्म खत्म हो गया और बोल्शेविक पार्टी जल्द ही समाप्त होने वाली है। लेकिन इन मुट्ठी भर गद्द़ारों की वजह से, पार्टी एक क्षण के लिये भी विचलित न हुई। पार्टी की केंद्रीय समिति ने घृणा के साथ उन्हें क्रांति से भाग खडे़ होने वाला और पूंजीपतियों का साझीदार कह कर उनकी निन्दा की और अपने आगे के काम में लग गयी। 

जहां तक 'वामपंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों का सवाल था, वे किसान जनता पर अपना असर बनाये रखना चाहते थे। किसानों की हमदर्दी निश्चित रूप से बोल्शेविकों के साथ थी। इसलिये, 'वामपंथी' समाजवादी क्रान्तिकारियों ने फै़सला किया कि बोल्शेविकों से झगड़ा न करें और फ़िलहाल उनके साथ संयुक्त मोर्चा बनाये रहें। नवम्बर 1917 में, किसान सोवियतों की कांग्रेस हुई। उसने अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति से हासिल हुए सभी लाभ स्वीकार किये और सोवियत सरकार के आज्ञा-पत्रों का समर्थन किया। 'वामपंथी' समाजवादी क्रान्तिकारियों के साथ एक समझौता हुआ और उनमें से कई को जन कमीसार समिति में जगहें दी गयीं (कोलेग़ायेव, स्पिरिदोनोव, प्रोश्यान और स्टाइनबर्ग)। लेकिन, यह समझौता बे्रस्ट-लिटोवस्क की संधि होने और ग़रीब किसानों की कमिटियाँ बनने तक ही क़ायम रहा। उसके बाद किसानों में गहरी दरार पड़ी। 'वामपंथी' समाजवादी क्रान्तिकारी अधिकाधिक कुलक हित ज़ाहिर करने लगे। उन्होंने बोल्शेविकों के खि़लाफ बग़ावत की और सोवियत सत्ता ने उन्हें परास्त कर दिया। 

अक्तूबर 1917 से फरवरी 1918 तक, देश के विशाल प्रदेशों में सोवियत क्रान्ति इतनी तेजी से फैली कि लेनिन ने उसे सोवियत सत्ता की 'विजय-यात्रा' कहा। 

महान अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति विजयी हुई। 

रूस में समाजवादी क्रान्ति की इस अपेक्षाकृत आसान विजय के कई कारण थे। नीचे लिखे हुए मुख्य कारण ध्यान देने योग्य हैं: 

(1) अक्तूबर क्रान्ति का दुश्मन अपेक्षाकृत ऐसा कमज़ोर, ऐसा असंगठित और राजनीतिक रूप से ऐसा अनुभवहीन था जैसे कि रूसी पूंजीपति। रूसी पूंजीपति आर्थिक रूप से अब भी कमज़ोर थे और पूरी तरह सरकारी ठेकों पर निर्भर थे। उनमें राजनीतिक आत्मनिर्भरता और पहलक़दमी इतनी न थी कि परिस्थिति से निकलने का रास्ता ढूँढ सकें। मसलन, बडे़ पैमाने पर राजनीतिक गुटबन्दी और राजनीतिक दग़ाबाजी में उन्हें फ्रांसीसी पंूजीपतियों का सा तजुर्बा न था, न अंग्रेज पंूजीपतियों की तरह, उन्होंने विशद रूप से सोचे हुए चतुर समझौते करने की शिक्षा पायी थी। हाल ही में, उन्होंने ज़ार से समझौता करने की कोशिश की थी। फ़रवरी क्रान्ति ने ज़ार का तख़्ता उलट दिया था और सत्ता खुद पंूजीपतियों के हाथ में आ गयी थी लेकिन बुनियादी तौर से घृणित ज़ार की नीति पर ही चलने के सिवा उन्हें और कुछ न सूझ पड़ा। ज़ार की तरह, उन्होंने 'विजय तक युद्ध करने' का समर्थन किया, हालाँकि युद्ध चलाना देश की शक्ति से परे था और जनता तथा फ़ौज दोनों युद्ध से बुरी तरह चूर हो चुके थे। ज़ार की तरह, कुल मिलाकर वे भी बड़ी रियासती ज़मीन बनाये रखने के पक्ष में थे, हालाँकि ज़मीन की कमी और ज़मीदारों के जुएं के बोझ से किसान मर रहे थे। जहाँ तक उनकी मज़दूर नीति का सम्बन्ध था, वे मज़दूर वर्ग से नफ़रत करने में ज़ार के भी कान काट चुके थे। उन्होंने क़ारखानेदार के जुंए को बनाये रखने और मज़बूत करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्होंने बड़े पैमाने पर तालेबन्दी करके उसे असहनीय बना दिया। 

कोई ताज्जुब नहीं कि जनता ने ज़ार की नीति और पूंजीपतियों की नीति में कोई बुनियादी भेद नहीं देखा, और जो घृणा उसके दिल में ज़ार के लिये थी वही पंूजीपतियों की अस्थायी सरकार के लिये हो गयी। 

जब तक समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक पार्टियों का थोड़ा बहुत असर जनता पर था, तब तक पूंजीपति उन्हें पर्दे की तरह इस्तेमाल कर सकते थे और अपनी सत्ता बनाये रख सकते थे। लेकिन, जब मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों ने ज़ाहिर कर दिया कि वे साम्राज्यवादी पूंजीपतियों के दलाल हैं और इस तरह जनता में उन्होंने अपना असर खो दिया, तब पूंजीपतियों और उनकी अस्थायी सरकार का कोई मददगार न रहा। 

(2) अक्तूबर क्रांति का नेतृत्व रूस के मजदूर वर्ग जैसे क्रांतिकारी वर्ग ने किया। यह ऐसा वर्ग था जो संघर्ष की आंच में तप चुका था, जो थोड़ी ही अवधि में दो क्रांतियों से गुजर चुका था और जो तीसरी क्रांति के शुरू होने से पहले शान्ति, जमीन, स्वाधीनता और समाजवाद के लिये संघर्ष में जनता का नायक माना जा चुका था। अगर क्रांति का नेता रूस के मजदूर वर्ग जैसा न होता, ऐसा नेता जिसने जनता का विश्वास पा लिया था, तो मज़दूरों और किसानों की मैत्री न होती और इस तरह की मैत्री के बिना अक्तूबर क्रांति की विजय असंभव होती। 

(3) रूस के मजदूर वर्ग को क्रांति में ग़रीब किसानों जैसा समर्थ साथी मिला, जो किसान जनता का भारी बहुसंख्यक भाग था। जहां तक आम मेहनतकश किसानों का सवाल था, क्रांति के आठ महीनों का तजुर्बा बेकार नहीं गया। इस तजुर्बे की तुलना 'साधारण' विकास के बीसियों सालों के तजुर्बे से निस्संदेह की जा सकती है। इन दिनों, उन्हें मौक़ा मिला कि वे अमल में रूस की तमाम पार्टियों को परख लें और अपनी दिलजमई कर लें कि न तो काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैट और न समाजवादी क्रांतिकारी या मेन्शेविक ही जमींदारों से कोई गंभीर झगड़ा मोल लेंगे, या किसानों के हित के लिये अपना बलिदान करेंगे, कि रूस में एक ही पार्टी है - बोल्शेविक पार्टी - जिसका जमींदारों से कोई सम्बन्ध नहीं है और जो उन्हें किसानों की जरूरतें पूरी करने के लिये कुचलने को तैयार है। सर्वहारा और ग़रीब किसानों की मैत्री का यह दृढ़ आधार था। मजदूर वर्ग़ और ग़रीब किसानों की इस मैत्री के क़ायम होने से,मध्यम किसानों की गति निश्चित हो गयी। ये मध्यम किसान बहुत दिन तक ढुलमुल रहे थे और अक्तूबर विद्रोह के शुरू होने से पहले ही पूरी तरह क्रांति की तरफ़ आये थे और उन्होंने गरीब किसानों से नाता जोड़ा था। कहना न होगा कि इस मैत्री के बिना अक्तूबर क्रांति विजयी न होती।

(4) मजदूर वर्ग का नेतृत्व राजनीतिक संघर्षो में तपी और परखी हुई बोल्शेविक पार्टी जैसी पार्टी ने किया था। बोल्शेविक पार्टी इतनी साहसी पार्टी थी कि निर्णायक हमले में जनता का नेतृत्व कर सके। वह इतनी सावधान थी कि मंजिल की तरफ़ जाने के रास्ते में ढंकी-मुंदी खाई-खन्दकों से बच कर निकल सके। ऐसी ही पार्टी विभिन्न्ा क्रांतिकारी आन्दोलनों को चतुराई से एक ही सामान्य क्रांतिकारी धारा में मिला सकती थी। शान्ति के लिये आम जनवादी आन्दोलन, रियासती ज़मीन छीनने के लिये किसानों का जनवादी आन्दोलन, जातीय स्वाधीनता और जातीय समानता के लिये पीड़ित जातियों का आन्दोलन, और पूंजीपतियों का तख्ता उलटने के लिये और सर्वहारा डिक्टेटरशिप क़ायम करने के लिये सर्वहारा वर्ग का समाजवादी आन्दोलन - इन सबको ऐसी ही पार्टी एक सामान्य क्रांतिकारी धारा में मिला सकती थी।

इसमें सन्देह नहीं कि इन विभिन्न्ा क्रांतिकारी धाराओं के एक ही सामान्य शक्तिशाली क्रांतिकारी धारा में मिलने ने रूस में पूंजीवाद की तक़दीर का फैसला कर दिया।

(5) अक्तूबर क्रांति ऐसे समय आरम्भ हुई जबकि साम्राज्यवादी युद्ध भी जोरों पर था, जबकि प्रमुख पूंजीवादी राज्य दो विरोधी खेमों में बंटे हुए थे और जब परस्पर युद्ध में फंसे रहने और एक-दूसरे की जडे़ं काटने में लगे रहने से, वे 'रूसी मामलों' में सफलता से दखल न दे सकते थे और सक्रिय रूप से अक्तूबर क्रांति का विरोध न कर सकते थे।

निसंदेह, अक्टूबर समाजवादी क्रांति की जीत में इस बात से बहुत  मदद मिली।

 

7. सोवियत सत्ता को मजबूत करने के लिये बोल्शेविक पार्टी का संघर्ष। ब्रेस्ट-लिटोवस्क की शान्ति। सातवीं पार्टी कांग्रेस।

सोवियत सत्ता को मज़बूत करने के लिये पुरानी पूंजीवादी राज्य की मशीन का नाश करना जरूरी था और एक नयी सोवियत राज्य की मशीन उसकी जगह कायम करनी थी। इसके सिवा, समाज में वर्ण-भेद और जातीय उत्पीड़न की व्यवस्था के अवशेष खत्म करने थे, चर्च के विशेषाधिकारों को    खत्म करना था, क्रांति-विरोधी प्रेस और हर तरह के क़ानूनी और गैरकानूनी क्रांति-विरोधी संगठनों को दबाना था और पूंजीवादी विधान सभा भंग करनी थी। ज़मीन के राष्ट्रीयकरण के बाद, बडे़ पैमाने के उद्योग-धंधों का भी राष्ट्रीयकरण होना था। और अंत मंे, युद्ध की हालत खत्म करनी थी, क्योंकि सबसे ज्यादा युद्ध ही सोवियत सत्ता के मज़बूत बनाने के काम को रोक रहा था।

ये सभी क़दम 1917 के अंत से 1918 के मध्य तक थोडे़ ही महीनों  उठाये गये।

समाजवादी क्रांतिकारियों और मेन्शेविकों के इशारे पर पुराने मंत्री-मंडलों के कर्मचारियों ने जो तोड़-फोड़ की, वह कुचल दी गयी और उस पर सोवियत सत्ता हावी हो गयी। मंत्रि-मंडल तोड़ दिये गये और उनकी जगह सोवियत शासनतंत्र और उपयुक्त जन कमीसार समितियों ने ली। राष्ट्रीय अर्थतंत्र की प्रधान समिति क़ायम की गयी, जो देश के उद्योग-धंधों का संचालन करे। अखिल रूसी असाधारण समिति (वेचेका) बनायी गयी, जो क्रांति-विरोध और तोड़-फोड़ का मुकाबिला करे। फे़लिक्स जेरजिन्स्की उसके प्रधान बनाये गये। लाल फ़ौज और जल-सेना के निर्माण के लिये आज्ञा-पत्र निकाला गया। विधान सभा के चुनाव अधिकतर अक्तूबर क्रांति से पहले हुए थे। यह विधान सभा शान्ति, ज़मीन और सोवियतों के सत्ता लेने के बारे में दूसरी सोवियत कांग्रेस के आज्ञा-पत्र मानने से इन्कार करती थी। इसलिये, वह भंग कर दी गयी।

सामन्तवाद, रियासती ज़मीन की व्यवस्था और सामाजिक जीवन के भी क्षेत्रों में असमानता के अवशेष खत्म करने के लिये आज्ञा-पत्र निकाले गये। इनसे रियासती ज़मीन और जाति या धर्म के आधार पर रचे हुए नियंत्रण खत्म किये गये। चर्च राज्य से और स्कूल चर्च से अलग कर दिये गये। स्त्रियों की समानता और तमाम रूसी जातियों की समानता क़ायम की गयी।

सोवियत सरकार ने एक विशेष आज्ञा-पत्र निकाला, जिसका नाम "रूसी जनता के अधिकारों की घोषणा" था ; उसमें कानून के तौर पर यह कहा गया था कि रूस के लोगों को बेरोक विकास करने और पूरी समानता का अधिकार है।

पूंजीपतियों की आर्थिक शक्ति कमज़ोर करने और एक नया सोवियत   राष्ट्रीय अर्थतंत्र बनाने और सबसे पहले नये सोवियत उद्योग-धंधे रचने के लिये बैंकों, रेलों, विदेशी व्यापारी बेड़ा और उद्योग-धंधों की सभी शाखाओं में सभी बडे़ कारखानों - कोयला, धातुएं, तेल, रसायन, मशीनें बनाना, सूती कपड़े, शक्कर, वगैरह – का राष्ट्रीयकरण हो गया। अपने देश को आर्थिक रूप से विदेशी पूंजीपतियों से मुक्त करने के लिये और उनके शोषण से आज़ाद करने के लिये, रूसी ज़ार ने और अस्थायी सरकार ने जो विदेशी ऋण लिया था वह रद्द कर दिया गया। हमारे देश की जनता ने वह कर्ज अदा करने से इन्कार कर दिया जो दूसरों का राज हड़पने वाला युद्ध जारी करने के लिये लिया गया था और जिसने हमारे देश को विदेशी पूंजी का गुलाम बना दिया था।

इन, और ऐसे ही उपायों ने पूंजीपतियों, जमींदारों, प्रतिक्रियावादी अफ़सरों और क्रांति-विरोधी पार्टियों की जड़ ही कमज़ोर कर दी और देश में सोवियत सरकार की स्थिति काफ़ी मज़बूत की।

लेकिन जब तक रूस जर्मनी और आॅस्ट्रिया से युद्ध की दशा मंे   था, तब तक सोवियत सरकार की स्थिति पूरी तरह सुरक्षित न समझी जा सकती थी। सोवियत सत्ता को पूरी तरह मज़बूत करने के लिये, युद्ध खत्म करना ज़रूरी था। इसलिये, पार्टी ने अक्तूबर क्रांति की विजय के क्षण से ही शान्ति के लिये संघर्ष छेड़ दिया था। सोवियत सरकार ने 'सभी युद्ध करने वाली जनता और उसकी सरकारों से तुरंत ही न्यायपूर्ण और जनवादी शांति के लिये बातचीत शुरू करने के लिये' कहा। लेकिन, 'मित्र-देशों' - ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस - ने सोवियत सरकार का प्रस्ताव मानने से इन्कार किया। इस नामंजूरी की वजह से, सोवियत सरकार ने सोवियतों की इच्छा के अनुकूल जर्मनी और आॅस्ट्रिया से बातचीत शुरू करने का फ़ैसला किया। 3 दिसम्बर को, ब्रेस्ट-लिटोवस्क में बातचीत शुरू हुई। 5 दिसम्बर को, सुलह पर दस्तख़त हुए।

सुलह की बातचीत ऐसे वक्त हुई जब देश आर्थिक अव्यवस्था की हालत में था, जब युद्ध की थक़ान हर तरफ़ फैली हुई थी, जब हमारी फ़ौजें मोर्चे की खाईयां छोड़ रही थीं और युद्ध का मोर्चा ढह रहा था। बातचीत के दौर में, साफ़ हो गया कि जर्मन साम्राज्यवादी भूतपूर्व ज़ारशाही साम्राज्य के भारी प्रदेश हड़पना चाहते थे और पोलैंड, उक्रैन और बाल्टिक देशों को जर्मनी के मातहत देश बनाना चाहते थे।

ऐसी हालत में, युद्ध चलाने का मतलब होता - नवजात सोवियत प्रजातंत्र के जीवन को ही दांव पर लगा देना। मज़दूर वर्ग और किसानों के सामने यह आवश्यकता पैदा हुई कि शान्ति की कष्टदायी शर्तें स्वीकार करें, उस समय के सबसे खतरनाक डाकू - जर्मन साम्राज्यवाद - के सामने पीछे हटें, जिससे कि सोवियत सत्ता को मज़बूत करने और एक नयी फ़ौज, लाल फौज़ बनाने के लिये अवकाश मिल सके जो दुश्मन के हमले से देश की रक्षा कर सके। सभी क्रांति-विरोधियों ने, मेन्शेविकों और समाजवादी क्रांतिकारियों से लेकर एकदम खुले गद्दारों तक ने शांन्ति करने के खिलाफ़ धुआंधार आन्दोलन किया। उनकी नीति स्पष्ट थी: वे सुलह की बातचीत भंग करना चाहते थे, जर्मन हमले के लिये उकसावा पैदा करना चाहते थे और इस तरह, उस समय तक कमज़ोर सोवियत सत्ता को खतरे में डालना और मज़दूरों और किसानों ने जो कुछ भी हासिल किया था उसे संकट मंे डालना चाहते थे।

इस भयानक अभिसन्धि मंे, उनके साथी त्रात्स्की और उसका साझीदार बुखारिन थे। रादेक और प्याताकोव के साथ, बुखारिन एक ऐसे गुट का नेता था जो पार्टी-विरोधी था लेकिन अपने को 'वाम पंथी कम्युनिस्ट' कह कर छिपाता था। पार्टी के भीतर त्रात्स्की और 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' के गुट ने युद्ध को जारी रखने की मांग करते हुए लेनिन के खिलाफ़ घोर संघर्ष शुरू किया ये लोग स्पष्ट ही जर्मन साम्राज्यवादियों और देश के क्रांति-विरोधियों के हाथ में खेल रहे थे, क्योंकि वे तरुण सोवियत प्रजातंत्र को, जिसके पास अभी फ़ौज न थी, जर्मन साम्राज्यवाद का आघात सहने के लिये

आगे ठेल रहे थे। दरअसल यह उकसावा पैदा करने वालों की नीति थी, जो चतुराई से अपने को वाम पंथी लफ्फ़ाजी से छिपाये हुए थे।

10 फ़रवरी 1918 को, बे्रस्ट-लिटोवस्क में सन्धि-वार्ता भंग कर दी गयी। हालांकि पार्टी की केन्द्रीय समिति की तरफ़ से लेनिन और स्तालिन ने ज़ोर दिया था कि शान्ति कर ली जाये, लेकिन त्रात्स्की ने, जो बे्रस्ट-लिटोवस्क में सोवियत प्रतिनिधि-मण्डल का सभापति था, दगे़बाजी से बोल्शेविक पार्टी के सीधे निर्देश भंग किये। उसने ऐलान किया कि जर्मनी की प्रस्तावित शर्तों पर सोवियत प्रजातंत्र संधि न करेगा। इसके साथ ही, उसने जर्मनों को सूचना दी कि सोवियत प्रजातंत्र लडे़गा नहीं और अपनी फ़ौज तोड़ता जायेगा।

नीचता की हद हो गयी। जर्मन साम्राज्यवादी सोवियत देश के हितों   के प्रति इस ग़द्दार से और कुछ ज्यादा न चाह सकते थे।

जर्मन हुकूमत ने सुलह तोड़ दी और हमला शुरू कर दिया। जर्मन फ़ौज के हमले के सामने, हमारी पुरानी फ़ौज के अवशेष बिखर गये और तितर-बितर हो गये। जर्मन तेज़ी से आगे बढ़े। विशाल प्रदेश पर उन्होंने क़ब्जा कर लिया और पेत्रोग्राद के लिये खतरा पैदा कर दिया। जर्मन साम्राज्यवाद ने सोवियत देश पर इसलिये हमला किया था कि सोवियत सत्ता को खत्म कर दे और हमारे मुल्क को अपना उपनिवेश बना ले। पुरानी ज़ारशाही फ़ौज के खंडहर जर्मन साम्राज्यवाद के हथियारबन्द झुंडों का मुकाबिला न कर सकते थे और वे उनके प्रहार के सामने बराबर पीछे हटते गये।

लेकिन, जर्मन साम्राज्यवाद की हथियारबन्द दखलन्दाजी देश में एक   विराट क्रांतिकारी उभार का संकेत बन गयी। पार्टी और सोवियत सरकार ने नारा दिया:

'समाजवादी पितृभूमि खतरे में है!' और इसके जवाब में, मजदूर वर्ग जोरशोर से लाल फौज़ की पलटनें बनाने लगा। नयी फ़ौज - क्रांतिकारी जनता की फ़ौज – के तरुण दस्तों ने वीरता से सिर से पैर तक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित जर्मन डाकुओं का मुकाबिला किया। नारवा और प्स्कोव में जर्मन हमलावरों को दृढ़ता से पीछे हटाया गया। पेत्रोग्राद की तरफ़ उनकी प्रगति रोक ली गयी। 23 फ़रवरी का दिन – वह दिन जबकि जर्मन साम्राज्यवाद की फ़ौज को पीछे ठेला गया था - लाल फ़ौज का जन्म दिवस माना जाता है।

18 फरवरी 1918 को, पार्टी की केन्द्रीय समिति ने लेनिन के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया कि तुरंत शांति स्थापित करने के लिये जर्मन हुकूमत को तार भेजा जाये। लेकिन और अच्छी शर्तें हासिल करने के लिये, जर्मन आगे बढ़ते ही गये और 22 फ़रवरी को जाकर जर्मन सरकार ने संधि करने की इच्छा ज़ाहिर की। अब जो शर्तें रखी गयीं, वे पहले से भी कठोर थीं।

केन्द्रीय समिति में लेनिन, स्तालिन और स्वेद्रलोव ने त्रात्स्की,   बुखारिन और दूसरे त्रात्स्की पंथियों के खिलाफ़ जमकर संघर्ष किया और तभी शान्ति स्थापित करने के पक्ष में फ़ैसला किया जा सका। लेनिन ने कहा कि बुखारिन और त्रात्स्की ने "दरअसल जर्मन साम्राज्यवादियों की मदद की है और जर्मनी में क्रांति की बढ़ती और विकास को रोका है।" (लेनिन, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 2, पृ. 287)

23 फ़रवरी को, केन्द्रीय समिति ने फ़ैसला किया कि जर्मन कमान की शर्तें मान ली जायें और शान्ति-संधि पर दस्तख़त कर दिये जायें। सोवियत प्रजातंत्र को त्रात्स्की और बुखारिन की ग़द्दारी के लिये भारी कीमत चुकानी पड़ी। पोलैंड का तो कहना ही क्या, लैटविया और एस्टोनिया भी जर्मनों के हाथ पहंुच गये। उक्रेन सोवियत प्रजातंत्र से अलग कर दिया गया और जर्मन राज्य के मातहत कर लिया गया। सोवियत प्रजातंत्र ने जर्मनों को हर्जाना देना स्वीकार किया।

उधर, लेनिन के खिलाफ़ 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' ने अपना संघर्ष जारी रखा। वे अधिकाधिक गद्दारी के दलदल में फंसते गये। पार्टी की मास्को प्रादेशिक ब्यूरो ने, जिस पर कुछ दिनों के लिये 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' (बुखारिन, आॅसिन्स्की, याकूवलेवा, स्तूकोव और मान्त्सेव) ने क़ब्जा कर लिया था, केन्द्रीय समिति पर अविस्वास का प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव का उद्देश्य था - पार्टी में फूट डालना। ब्यूरो ने ऐलान किया कि उसकी राय में 'बहुत ही निकट भविष्य में पार्टी शायद ही फूट से बच सकेगी।' 'वाम पंथी कम्युनिस्ट' अपने प्रस्ताव में इस हद तक पहुंच गये कि उन्होंने सोवियत-विरोधी रुख अपनाया। उन्होंने कहा: "अंतर्राष्ट्रीय क्रांति के हित में, हम यह ज़रूरी समझते हैं कि सोवियत सत्ता के संभावित खात्मंे से हम सहमत हो जायें जो सत्ता कि अब सिर्फ नाम को रह गयी है।"

लेनिन ने इस फै़सले को 'अजीब और बेहूदा' बताया।

उस समय, त्रात्स्की और 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' के इस पार्टी-विरोधी व्यवहार का ठीक सबब अभी पार्टी के सामने साफ़ न था। लेकिन, अभी हाल में सोवियत-विरोधी 'दक्षिण पंथियों और त्रात्स्की पंथियों के गुट' पर (1938 से शुरू होने वाला) जो मुकदमा चला है, उससे मालूम हुआ है कि बुखारिन और उसके नेतृत्व में काम करने वाला 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' का गुट त्रात्स्की और 'वाम पंथी' समाजवादियों के साथ उस समय गुप्त रूप से सोवियत सरकार के खिलाफ़ षड़यंत्र कर रहा था। अब पता चल गया है कि बुखारिन, त्रात्स्की और उनके साथी षड़यंत्रकारियों ने तय कर लिया था कि ब्रेस्ट-लिटोवस्क की शान्ति भंग कर दी जाये; लेनिन, स्तालिन और स्वेद्रलोव को गिरफ्तार कर लिया जाये, उनकी हत्या कर दी जाये और एक नयी सरकार बनायी जाये जिसमें बुखारिनपंथी, त्रात्स्कीवादी और 'वाम पंथी' समाजवादी क्रांतिकारी हों।

छिपे-छिपे यह क्रांति-विरोधी षड़यंत्र करते हुए, 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' का गुट त्रात्स्की की मदद से खुल कर बोल्शेविक पार्टी पर हमला करता था। उसकी कोशिश थी कि पार्टी में फूट डाल दी जाये और उसकी सफे़ं तोड़ दी जायें। लेकिन, इस कठिन घड़ी में पार्टी लेनिन, स्तालिन और स्वेद्रलोव के चारों ओर सिमट आयी और शान्ति के मसले पर और दूसरे सभी मसलों पर भी उसने केन्द्रीय समिति का समर्थन किया।

'वामपंथी कम्युनिस्ट' गुट अकेला कर दिया गया और हरा दिया गया।

शांति के मसले पर पार्टी अपना अंतिम फै़सला दे दे, इसके लिये सातवीं पार्टी कांग्रेस बुलायी गयी।

6 मार्च 1918 को, कांगे्रस शुरू हुई। पार्टी ने जब से सत्ता हाथ में ली थी, तबसे यह पहली कांगे्रस थी। इसमें 1 लाख 45 हजार पार्टी के सदस्यों की तरफ़ से 46 प्रतिनिधि वोट देने वाले और 58 प्रतिनिधि बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले आये। वास्तव में, उस समय पार्टी की सदस्यता 2 लाख 70 हजार से कम न थी, लेकिन इस असंगति का कारण यह था कि कांगे्रस जल्दी में बुलायी गयी थी, इसलिये बहुत से संगठन अपने प्रतिनिधि वक्त से न भेज सके। और वे संगठन जो जर्मनों के अधिकार किये हुए प्रदेशों में थे, वे प्रतिनिधि भेज ही न पाये।

ब्रेस्ट-लिटोवस्क शान्ति पर कांग्रेस में रिपोर्ट पेश करते हुए, लेनिन ने कहा कि "... अपने भीतर एक वाम पंथी विरोधी दल बनने के सबब से पार्टी जिस गंभीर संकट को महसूस कर रही है, वह रूसी क्रांति के अनुभव में एक बहुत ही गंभीर संकट है।"

(लेनिन, सं.ग्रं. , अं.सं., मास्को, 1947, खं. 2, पृ. 299)

बे्रस्ट-लिटोवस्क शान्ति के विषय पर लेनिन ने जो प्रस्ताव रखा, 30 वोट उसके पक्ष में और 12 विपक्ष में आये; 4 तटस्थ रहे। इस तरह, वह मंजूर हो गया।

प्रस्ताव मंजूर होने के दूसरे दिन, लेनिन ने "कष्टपूर्ण शान्ति" नाम से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था:

"शान्ति की शर्तें बेहद कठिन हैं। फिर भी, इतिहास का हक उसे मिलेगा ही ...। हमें चाहिये कि संगठन करें, संगठन करें और संगठन करें। तमाम परीक्षाओं के बावजूद, भविष्य हमारा है।" (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 22, पृष्ठ 228)

अपने प्रस्ताव में कांगे्रस ने ऐलान किया कि सोवियत प्रजातंत्र पर साम्राज्यवादी राज्यों के और फ़ौजी हमले होना लाज़िमी है। इसलिये, कांगे्रस यह समझती है कि पार्टी का यह बुनियादी काम है कि वह आत्मानुशासन और मज़दूरों तथा किसानों का अनुशासन मज़बूत करने के लिये, कुर्बानी देकर समाजवादी देश की रक्षा करने को आम जनता को तैयार करने के लिये, लाल फ़ौज को संगठित करने के लिये और आम फ़ौजी शिक्षा आरंभ करने के लिये, पार्टी बहुत दृढ़ और शक्तिशाली उपाय करे। बे्रस्ट-लिटोवस्क की शान्ति के बारे में लेनिन की नीति का समर्थन करते हुए, कांगे्रस ने त्रात्स्की और बुखारिन के मत की निन्दा की और कांग्रेस के भीतर ही हारे हुए 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' की फूट डालने वाली कार्यवाही जारी रखने की निन्दा की।

ब्रेस्ट-लिटोवस्क की शान्ति ने पार्टी को अवकाश दिया, जिसमें वह सोवियत सत्ता को दृढ़ करे और देश के आर्थिक जीवन को संगठित करे। शान्ति से यह मुमकिन हुआ कि दुश्मन की ताक़तों को बिखेरने के लिये, सोवियत आर्थिक व्यवस्था संगठित करने के लिये और लाल फ़ौज बनाने के लिये, साम्राज्यवादी खेमें के परस्पर संघर्षों से (मित्र-देशों से, आॅस्ट्रिया और जर्मनी के युद्ध से जो अभी चल रहा था) फ़ायदा उठाया जाये।

शांति से सर्वहारा वर्ग के लिये यह सम्भव हुआ कि किसानों का समर्थन क़ायम रखे और गृह-युद्ध में गद्दार सेनापतियों को हराने के लिये शक्ति-संचय करे।

अक्तूबर क्रांति के दौर में, लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी को सिखाया कि जब आगे बढ़ने के लिये परिस्थिति अनुकूल हो तब कैसे निडर होकर और दृढ़ता से आगे बढ़ना चाहिये। ब्रेस्ट-लिटोवस्क शान्ति के दौर में, लेनिन ने पार्टी को सिखाया कि जब स्पष्टतः दुश्मन की ताकत अपने से ज्यादा हो तब पूरी शक्ति से नये हमले की तैयारी करने के लिये किस तरह व्यवस्थित ढंग से पीछे हटना चाहिये।

इतिहास ने लेनिन की नीति की सच्चाई को पूरी तरह साबित कर दिया है।

सातवीं कांग्रेस में तय किया गया कि पार्टी का नाम और पार्टी का कार्यक्रम बदल दिया जाये। पार्टी का नाम रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) - रू..पा. (बो.) रखा गया। लेनिन ने प्रस्ताव किया कि हमारी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी कहलाये, क्योंकि यह नाम पार्टी के उद्देश्य यानी कम्युनिज्म प्राप्त करने के बिल्कुल अनुकूल था।

एक नया पार्टी कार्यक्रम तैयार करने के लिये एक विशेष कमीशन बनाया गया, जिसमें लेनिन और स्तालिन थे। लेनिन के कार्यक्रम का मसौदा आधार के रूप में मंजूर किया गया।

इस तरह, सातवीं कांगे्रस ने एक गंभीर ऐतिहासिक महत्व का काम पूरा किया।

उसने पार्टी की पांति में छिपे हुए दुश्मन, 'वाम पंथी कम्युनिस्ट' गुट और त्रात्स्की पंथियों को हराया। वह देश को साम्राज्यवादी युद्ध से अलग करने में कामयाब हुई।

उसने शान्ति और अवकाश हासिल किया। उसने लाल फ़ौज के संगठन के लिये पार्टी को वक्त दिया और उसने पार्टी के सामने यह काम रखा कि राष्ट्रीय अर्थतंत्र में समाजवादी व्यवस्था चालू करे।

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8. समाजवादी निर्माण के प्रारम्भिक क़दम उठाने के लिये लेनिन की योजना। ग़रीब किसानों की समितियां और कुलकों पर नियंत्रण। 'वामपंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों का विद्रोह और उसका दमन। सोवियतों की पांचवी कांग्रेस और रूसी सोवियत समाजवादी प्रजातंत्र संघ के विधान की स्वीकृति।

 

शांति करके अवकाश हासिल करने के बाद, सोवियत सरकार समाजवादी निर्माण के काम में लग गयी। नवम्बर 1917 से फ़रवरी 1918 तक के दौर को लेनिन ने 'राजधानी पर लाल दस्तों के हमले' की मंजिल कहा था। 1918 के पूर्वार्द्ध में सोवियत सत्ता पूंजीपतियों की आर्थिक शक्ति तोड़ने में, अपने हाथों में राष्ट्रीय अर्थतंत्र के मर्मस्थलों (मिलों, कारखानों, बैंकों, रेलों, विदेशी व्यापार, व्यापारी बेड़ा, वगैरह) को केन्द्रित करने में, राज्य सत्ता की पूंजीवादी मशीन चूर करने में और सोवियत सत्ता को खत्म करने के लिये क्रांति-विरोध की पहली कोशिशों को विजयपूर्वक कुचलने में कामयाब हुई।

 

लेकिन, इतना काफ़ी नहीं था। अगर प्रगति करनी थी, तो पुरानी व्यवस्था का नाश करने के बाद नयी को बनाना भी था। इसलिये 1918 के वसन्त में 'शोषकों की संपत्ति ज़ब्त करने के बाद' समाजवादी निर्माण की नयी मंजिल की तरफ़ प्रगति शुरू हुई - अब तक की पायी हुई विजय को संगठन के रूप में दृढ़ करने की तरफ, सोवियत राष्ट्रीय अर्थतंत्र रचने की तरफ़ प्रगति शुरू हुई। लेनिन का कहना था कि समाजवादी आर्थिक व्यवस्था की नींव डालने के लिये अवकाश से ज्यादा से ज्यादा फ़ायदा उठाना चाहिये। बोल्शेविकों को सीखना था कि नये तरीके़ से पैदावार का संगठन और उसका प्रबंध कैसे करें। लेनिन ने लिखा था कि बोल्शेविक पार्टी रूस को विश्वास दिला चुकी है, बोल्शेविक पार्टी रूस को अमीरों से गरीबों के लिये जीत चुकी है। लेनिन ने कहा कि अब बोल्शेविक पार्टी को सीखना चाहिये कि रूस पर शासन कैसे किया जाये।

 

लेनिन का कहना था कि मौजूदा मंजिल में मुख्य काम यह था कि देश जो कुछ पैदा करे उसका हिसाब रखा जाये और सारी उपज के बंटवारे पर नियंत्रण रखा जाये। देश की आर्थिक व्यवस्था में मध्यवित्त लोगों की बहुतायत थी। शहरों और देहातों में लाखों छोटी मिल्कीयत के लोग पूंजीवाद के लिये उपजाऊ ज़मीन थे। ये छोटे मालिक न तो श्रम का अनुशासन मानते थे और न नागरिक अनुशासन मानते थे। वे राज्य की तरफ़ से हिसाब रखने और नियंत्रण करने की व्यवस्था मानने को तैयार न थे। विशेष रूप से खतरनाक बात यह थी कि इस कठिन परिस्थिति में निम्न पूंजीवादियों में सट्टेऔर मुनाफ़ेखोरी की हवा चल पड़ी थी और छोटी पंूजीवाले तथा व्यापारी जनता की जरूरतों से मुनाफ़ा कमाने की कोशिश करते थे।

पार्टी ने काम में ढिलाई के खिलाफ़, उद्योग-धंधों में श्रम-अनुशासन के अभाव के खिलाफ़ जोरदार लड़ाई शुरू की। श्रम की नयी आदतें सीखने में लोगों को देर लगती थी। इसलिये, इस दौर में श्रम-अनुशासन क़ायम करने के लिये संघर्ष मुख्य काम हो गया था।

लेनिन ने बतलाया कि उद्योग-धंधों में समाजवादी होड़ लगाना जरूरी है, काम के हिसाब से मज़दूरी देना ज़रूरी है; हरेक को बराबर तनख्वाह मिले, यह बात खत्म करनी चाहिये। लेनिन ने बताया कि सिखाने और समझाने के अलावा उन लोगों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती के तरीके़ भी इस्तेमाल करने चाहिये जो राज्य से जितना बन सके हथियाना चाहते थे और जो लोग काहिल और मुनाफे़खोर थे। लेनिन का कहना था कि नया अनुशासन - श्रम संबंधी अनुशासन, भाईचारे के सम्बन्धों का अनुशासन, सोवियत अनुशासन - एक ऐसी चीज़ है जिसे लाखों श्रमिक जनता अपने दिन प्रतिदिन के अमली काम में पैदा करेगी, और "यह काम पूरा करने के लिये एक पूरा ऐतिहासिक युग लग जायेगा।" (लेनिन ग्रंथावली , रू.सं., खं. 23, पृष्ठ 44)

 

लेनिन ने समाजवादी निर्माण की इन समस्याओं की चर्चा, पैदावार के नये समाजवादी संबंधों की समस्याओं की चर्चा, अपनी प्रसिद्ध कृति सोवियत सरकार के फ़ौरी काम में की।

 

समाजवादी क्रांतिकारियों और मेन्शेविकों के साथ मिलकर, 'वाम पंथी कम्युनिस्टों' ने इन सवालों पर भी लेनिन से संघर्ष किया। बुखारिन, आॅसिन्स्की वगैरह इस बात का विरोध करते थे कि अनुशासन लागू किया जाये, उद्योग-धंधों में एक आदमी का प्रबंध हो, उद्योग-धंधों में पूंजीवादी विशेषज्ञ काम करें और काम-धंधे के कारगर तरीके लागू किये जायें। वे लेनिन पर यह कहकर कीचड़ उछालते थे कि इस नीति का मतलब पूंजीवादी परिस्थितियों की तरफ़ लौट चलना होगा। इसके साथ ही, 'वाम पंथी कम्युनिस्ट' इस त्रात्स्कीवादी मत का प्रचार करते थे कि रूस में समाजवादी निर्माण और समाजवाद की विजय असंभव है।

 

'वाम पंथी कम्युनिस्टों' की 'वाम पंथी' लफ़्फाजी इस बात को छिपाती थी कि वे कुलकों, काहिलों और मुनाफेखोरों का समर्थन करते हैं जो अनुशासन का विरोध करते थे और राज्य द्वारा आर्थिक जीवन के संचालन के विरोधी थे, हिसाब-किताब रखने और नियंत्रण करने के विरोधी थे। नये सोवियत उद्योग-धंधों के संगठन के उसूल तय करने के बाद, पार्टी ने देहातों की समस्याओं में हाथ लगाया। इस समय देहातों में गरीब किसानों और कुलकों के बीच संघर्ष जोरों पर था। कुलक शक्तिशाली बन रहे थे और जमींदारों से छीनी हुई जमीन पर क़ब्जा कर रहे थे। ग़रीब किसानों को मदद की जरूरत थी। कुलक सर्वहारा राज्य से लड़ते थे और निश्चित भाव पर गल्ला बेचने से इन्कार करते थे। वे चाहते थे कि सोवियत राज्य को भूखा मार कर उसका समाजवादी निर्माण का काम बन्द कर दिया जाये। पार्टी ने क्रांति-विरोधी कुलकों को कुचल देने का काम अपने सामने रखा। औद्योगिक मजदूरों के दस्ते देहातों में इस उद्देश्य से भेजे गये कि कुलकों के खिलाफ़ ग़रीब किसानों के संगठन बनायें और उनके संघर्ष को सफल बनायें और कुलकों से फ़ालतू गल्ले की उपज छुटवायें जो वे रोके हुए थे।

 

लेनिन ने लिखा था:

 

"साथी मजदूरों, याद रखो कि क्रांति नाजुक दौर से गुज़र रही है। याद रखो कि तुम्हीं क्रांति की रक्षा कर सकते हो, दूसरा कोई नहीं कर सकता। हमें चाहिये लाखों चुने हुए, राजनीतिक रूप से आगे बढे़ हुए मजदूर, जो समाजवाद के प्रति वफादार हों, जो घूसखोरी और चोरी के लोभ में फंस ही न सकें और जो कुलकों, मुनाफेखोरों, डाकुओं, घूसखोरों और अव्यवस्था पैदा करने वालों के खिलाफ़ एक फ़ौलादी शक्ति खड़ी कर दें।" (लेनिन ग्रंथावली , रू.सं., 23 पृ. 25)

 

लेनिन ने कहा था: "रोटी की लड़ाई समाजवाद की लड़ाई है।" यह नारा देकर, मजदूर दस्तों को देहात के जिलों में भेजने का काम संगठित किया गया। अन्न के बारे में डिक्टेटरशिप क़ायम करते हुए और निश्चित दरों पर गल्ला खरीदने के लिये जन-खाद्य-कमीसारियत की संस्थाओं को विशेषाधिकार देते हुए, कई आज्ञा-पत्र जारी किये गये।

 

11 जून 1918 को, गरीब किसानों की समितियां बनाने के लिये एक आज्ञा-पत्र निकाला गया। इन समितियों ने कुलकों के खिलाफ़ संघर्ष में, ज़ब्त की हुई ज़मीन को फिर से बांटने और खेती के औज़ार बांटने में, कुलकों से फालतू अनाज इकट्ठा करने में और मज़दूर केन्द्रों और लाल फ़ौज को अन्न भेजने में महत्वपूर्ण पार्ट अदा किया। कुलकों की 5 करोड़ हेक्टर भूमि ग़रीब और मध्यम किसानों के हाथ में आ गयी। कुलकों के पैदावार के साधनों का एक बड़ा भाग ज़ब्त कर लिया गया और ग़रीब किसानों को दे दिया गया। ग़रीब किसानों की समितियों का बनना देहातों में समाजवादी क्रांति के विकास की अगली मंजिल थी। गांवों में ये समितियां सर्वहारा डिक्टेटरशिप का गढ़ थीं। ज्यादातर इन्हीं के ज़रिये किसानों में लाल फ़ौज के लिये भर्ती की गयी। गांव के जिलों में सर्वहारा आन्दोलन और ग़रीब किसानों की समितियांे के संगठन ने देहातों में सोवियत सत्ता को मज़बूत किया। मध्यम किसानों को सोवियत सत्ता की ओर लाने में इनका जबर्दस्त राजनीतिक महत्व था।

 

1918 के अंत में, जब उनका काम खत्म हो गया तब ग़रीब किसानों की समितियां गांव की सोवियतों में मिला दी गयीं। इस तरह, उनका अस्तित्व खत्म हुआ। 4 जुलाई 1918 को शुरू होने वाली सोवियतों की पांचवीं कांग्रेस में, 'वामपंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों ने कुलकों की हिमायत में लेनिन पर बड़ा कड़ा हमला किया। उन्होंने मांग की कि कुलकों के खिलाफ़ लड़ाई बन्द की जाये और देहातों में मजदूरों के अन्न सम्बन्धी दस्ते भेजना खत्म किया जाये। जब 'वाम पंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों ने देखा कि कांग्रेस का बहुमत उनकी नीति का दृढ़ता से विरोध करता है, तो उन्होंने मास्को में बग़ावत शुरू कर दी। उन्होंने त्रयोखस्वयातितेल्स्की मार्ग पर क़ब्जा कर लिया और वहां से क्रैमलिन पर गोलाबारी करने लगे। बोल्शेविकों ने कुछ घंटों में ही इस मुर्खतापूर्ण विद्रोह को दबा दिया। 'वामपंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों ने देश के दूसरे हिस्सों में भी बगावत की कोशिश की, लेकिन हर जगह यह विद्रोह तुरंत दबा दिये गये।

 

सोवियत-विरोधी 'दक्षिणपंथियों और त्रात्स्कीपंथियों के गुट' पर चलने वाले मुकदमें ने अब यह निश्चित कर दिया है कि 'वाम पंथी' समाजवादी क्रान्तिकारियों का विद्रोह बुखारिन और त्रात्स्की की जानकारी और उनकी रज़ामन्दी से हुआ था। सोवियत सत्ता के खिलाफ़ बुखारिनवादियों, त्रात्स्की पंथियों और 'वाम पंथी' समाजवादी क्रांतिकारियों के एक आम क्रांति-विरोधी षड़यंत्र का ही यह एक अंग था।

 

इसी मौके पर, ब्लूमकिन नामक एक 'वाम पंथी' समाजवादी क्रांतिकारी ने, जो आगे चल कर त्रात्स्की का दलाल बना, जर्मनी से युद्ध का उकसावा पैदा करने के लिये, जर्मन दूतावास में मास्को-स्थित जर्मन राजदूत मीरबाख की हत्या कर दी।

लेकिन, सोवियत सरकार ने युद्ध न होने दिया और क्रांति विरोधियों की उकसावा पैदा करने वाली चालें व्यर्थ कर दीं।

सोवियतों की पांचवीं कांगे्रस ने पहला सोवियत विधान, रूसी सोवियत संघीय समाजवादी प्रजातंत्र का विधान स्वीकार किया।

 

सारांश

 

फ़रवरी से अक्तूबर 1917 तक आठ महीनों में, बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूर वर्ग के बहुमत को अपनी तरफ़ करने, सोवियतों में अपना बहुमत स्थापित करने और समाजवादी क्रांति के लिये लाखों किसानों का समर्थन हासिल करने का बहुत ही कठिन काम पूरा किया। उसने निम्नपूंजीवादी पार्टियों (समाजवादी क्रांतिकारियों, मेन्शेविकों और अराजकतावादियों) की नीति का पर्दाफ़ाश करके और पग-पग पर यह दिखला कर कि यह नीति मज़दूर जनता के हितों के खिलाफ़ है, आम जनता को इनके असर से बचाया। बोल्शेविक पार्टी ने युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे अक्तूबर समाजवादी क्रांति के लिये आम जनता को तैयार करने के लिये बडे़ पैमाने पर राजनीतिक काम किया।

 

इस दौर में, पार्टी के इतिहास में निर्णायक महत्व की घटनायें थीं: विदेश में निर्वासन से लेनिन का आना, उनका अप्रैल का सैद्धांतिक निबन्ध (अप्रैल थीसिस), अप्रैल की पार्टी कांफ्रेंस और छठी पार्टी कांगे्रस। पार्टी के फ़ैसले से मज़दूर वर्ग को बल मिला और विजय में उसका विश्वास बढ़ा। इन फ़ैसलों में मज़दूरों को क्रांति की महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान मिले। अप्रैल कांफ्रेंस ने पार्टी के सारे काम की पूंजीवादी-जनवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति की तरफ़ बढ़ने के संघर्ष की ओर लगाया। छठी कांग्रेस ने पूंजीपतियों और उनकी अस्थायी सरकार के खिलाफ, सशस्त्र विद्रोह करने के लिये पार्टी को आगे बढ़ाया।

 

समझौतावादी समाजवादी क्रांतिकारी और मेन्शेविक पार्टियों, अराजकतावादियों और दूसरी ग़ैर कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने विकास का चक्र पूरा कर लिया: अक्तूबर क्रांति से पहले ही वे सब पूंजीवादी पार्टियां बन गयी थीं और वे पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा करने और उसे अटूट बनाये रखने के लिये लड़ीं। बोल्शेविक पार्टी ही एक पार्टी थी जिसने पूंजीपतियों का तख़्ता उलटने के लिये और सोवियतों की सत्ता क़ायम करने के लिये आम जनता के संघर्ष का नेतृत्व किया।

 

इसके साथ ही, पार्टी के भीतर समर्पणवादियों - जिनोवियेव, कामेनेव, राइकोव, बुखारिन, त्रात्स्की और प्याताकोव - की कोशिशों को बोल्शेविकों ने नाकाम कर दिया।

 

ये कोशिशें इसलिये थीं कि पार्टी को समाजवादी क्रांति के रास्ते से हटाया जाये। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में, गरीब किसानों के सहयोग से और फ़ौजियों और जहाज़ियों की मदद से मजदूर वर्ग ने पूंजीपतियों की सत्ता खत्म कर दी, सोवियतों की सत्ता कायम की, एक नयी तरह का राज्य - समाजवादी सोवियत राज्य – कायम किया, ज़मीन पर ज़मींदारों की मिल्कियत खत्म की, किसानों के काम के लिये ज़मीन दे दी, देश की तमाम भूमि का राष्ट्रीयकरण किया, पूंजीपतियों की सम्पत्ति ज़ब्त की, रूस को युद्ध से हटाया और शान्ति हासिल की, यानी बहुत ज़रूरी अवकाश प्राप्त किया और इस तरह, समाजवादी निर्माण के विकास के लिये परिस्थितियां पैदा कीं।

अक्तूबर समाजवादी क्रांति ने पूंजीवाद का नाश किया, पूंजीपतियों से पैदावार के साधन छीन लिये और मिलों, कारखानों, रेलों और बैंकों को तमाम जनता की सम्पत्ति, सार्वजनिक सम्पत्ति बना दिया।

अक्तूबर समाजवादी क्रांति ने सर्वहारा डिक्टेटरशिप कायम की और विशाल देश की हुकूमत का काम मज़दूर वर्ग को सौंप दिया। इस तरह, उसे शासक वर्ग बना दिया।

 

इस तरह, अक्तूबर की समाजवादी क्रांति ने मनुष्य जाति के इतिहास में एक नया युग, सर्वहारा क्रांतियों का युग आरंभ किया।

 

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