ग्यारहवां अध्याय
खेती के पंचायतीकरण के लिये संघर्ष में बोल्शेविक पार्टी
(1930-1934)
1. 1930-'34 में अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति। पूंजीवादी देशों में आर्थिक संकट। जापान का मंचूरिया हड़पना। जर्मनी में राज्य-सत्ता पर फ़ासिस्ट अधिकार। युद्ध के दो केन्द्र।
सोवियत संघ में देश के समाजवादी औद्योगीकरण में महत्वपूर्ण प्रगित हुई थी और उद्योग-धंधे तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे। उधर पूंजीवादी देशों पर 1929 के अंत में एक अभूतपूर्व पैमाने पर सत्यानाशी विश्व आर्थिक संकट फट पड़ा और अगले तीन वर्षो में बराबर तीव्र होता गया। उद्योग-धंधों का संकट खेती के संकट के साथ मिला हुआ था, जिससे कि पूंजीवादी देशों की हालत और भी खराब हो गयी।
1930-'33 में, आर्थिक संकट के इन तीन वर्षो में, अमरीका की औद्योगीक पैदावार घट कर 65 फ़ीसदी रह गयी; ब्रिटेन की 86 फ़ीसदी, जर्मनी की 66 फ़ीसदी और फ्रंास 77 फ़ीसदी रह गयी। पैदावार की यह फ़ीसदी घटती 1929 की तुलना में थी। लेकिन, इसी बीच सोवियत संघ की औ़द्योगिक पैदावार दुगुनी से ज्यादा हो गयी, और 1929 से 1933 में 201 फ़ीसदी बढ़ गयी। समाजवादी आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था से श्रेष्ठ है, उसका यह एक और सबूत था। इससे पता लगता था कि संसार में समाजवाद का देश ही ऐसा देश है जो आर्थिक संकटों से मुक्त है।
विश्व आर्थिक संकट ने 2 करोड़ 40 लाख बेकारों को भुखमरी, ग़रीबी और तबाही का शिकार बना दिया। खेती के संकट से लाखों किसान मुसीबत में पड़ गये।
विश्व आर्थिक संकट से साम्राज्यवादी देशों का अंतर्विरोध बढ़ गया, विजेता और विजित देशों का विरोध, साम्राज्यवादी रियासतों और उपनिवेशों और पराधीन देशों का विरोध, मज़दूरों और पूंजीपतियों का विरोध, किसानों और ज़मींदारों का विरोध और बढ़ गया।
सोलहवीं पार्टी कांग्रेस में केन्द्रीय समिति की ओर से रिर्पोट देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने बताया कि पूंजीपति आर्थिक संकट से निकलने के लिये एक तरफ तो फ़ासिस्ट तानाशाही क़ायम करेंगे, मज़दूर वर्ग को कुचलने की कोशिश करेंगे, यानी सबसे प्रतिक्रियावादी, घोर अंधराष्ट्रवादी, सबसे साम्राज्यवादी पूंजीपतियों की तानाशाही क़ायम करने की कोशिश करेंगे, और दूसरी तरफ़ अरक्षित देशों की बलि देकर उपनिवेशों और प्रभाव-क्षेत्रों का फिर से बंटवारा करने के लिये युद्ध भड़काने की कोशिश करेंगे।
ठीक यही हुआ भी।
1932 में, जापान ने युद्ध के ख़तरे को बढ़ा दिया। यह देखकर कि आर्थिक संकट की वजह से यूरोप के राज्य और संयुक्त राष्ट्र अमरीका अपने घरेलू मामलों में पूरी तरह उलझे हुए हैं, जापानी साम्राज्यवादियों ने तय किया कि इस मौक़े से लाभ उठायें और अरक्षित चीन पर दबाव डालें, जिससे कि उसे जीत सकें और वहाँ जाकर राज करें। 'स्थानीय घटनायें', जिन्हें जापानी साम्राज्यवादियों ने ही भड़काया था, बेइमानी से उनसे फ़ायदा उठाते हुए, डाकूओं की तरह चीन से युद्ध का ऐलान किये बिना, उन्होंने अपनी फ़ौजें मंचूरिया में भेज दी। जापानी सैनिकों ने तमाम मंचूरिया पर अधिकार कर लिया और इस तरह वहां एक सुविधाजनक फ़ौजी अड्डा बना लिया, जहां से वह उत्तरी चीन को जीत सकें और सोवियत संघ पर हमला कर सकें। अपने हाथ खुले रखने के लिये, जापान लीग आॅफ नेशन्स से निकल आया और बड़ी सरगर्मी से हथियारबन्दी करने लगा।
इससे अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस को सुदूर पूर्व में अपनी जल-सेना को मज़बूत करने की प्रेरणा मिली। स्पष्ट था कि जापान चीन को जीतना चाहता है और उस देश से यूरोप और अमरीका की साम्राज्यवादी ताक़तों को निकालना चाहता है। इसका जवाब उन्होंने अपनी हथियारबन्दी बढ़ाकर दिया।
लेकिन, जापान का एक और उद्देश्य भी था यानी सोवियत सुदूर पूर्व पर क़ब्जा करना। स्वाभाविक था कि सोवियत संघ इस खतरे की तरफ आँखें बन्द न कर सकता था और वह अपने सुदूरपूर्वी राज्य की सुरक्षा को ज़ोरों से दृढ़ करने लगा।
इस तरह, सुदूर पूर्व में जापानी फ़ासिस्ट साम्राज्यवादियों की बदौलत पहला युद्ध केन्द्र बना।
लेकिन, आर्थिक संकट ने सुदूर पूर्व में ही पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को न बढ़ाया; उसने उन्हें यूरोप में भी बढ़ाया। उद्योग-धंधों और खेती के लम्बे संकट ने, भारी बेकारी ने और ग़रीब वर्गों की रोज़ी का दिन पर दिन ठिकाना न रहने से, मज़दूरों और किसानों का असंतोष बढ़ता गया। मज़दूर वर्ग के असंतोष ने क्रान्तिकारी विरोध का रूप लिया। यह बात खास तौर से जर्मनी में हुई, जो आर्थिक रूप से युद्ध से, अंगे्रज और फ्रांसीसी विजेताओं को हर्जाना देने से और आर्थिक संकट से चूर हो गया था। जर्मन मज़दूर वर्ग दुहरी गु़लामी में तड़प रहा था, देशी और विदेशी, अंगे्रज और फ्रांसीसी पूंजीपतियों की ग़ुलामी में। यह असंतोष कितना बढ़ गया था, यह इस बात से साफ़ जाहिर होता था कि सत्ता पर फ़ासिस्ट अधिकार होने से पहले पिछले राइखस्टाग के चुनाव में जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी को 60 लाख वोट मिले थे। जर्मन पूंजीपतियों ने देखा कि जर्मनी में जो पूंजीवादी स्वाधीनता क़ायम है, उससे उनका नुक़सान हो सकता है और मज़दूर वर्ग क्रान्तिकारी आन्दोलन को बढ़ाने के लिये इस स्वाधीनता का उपयोग कर सकता है। इसलिये, उन्होंने फ़ैसला किया कि जर्मनी में पूंजीपतियों की सत्ता बनाये रखने का एक ही तरीका है और वह यह कि पूंजीवादी स्वाधीनता खत्म कर दी जाये, राइखस्टाग को शून्य के बराबर कर दिया जाये, और एक आतंकवादी-राष्ट्रवादी तानाशाही क़ायम की जाये, जो मज़दूर वर्ग का दमन कर सके और उन निम्नपूंजीवादियों को अपना आधार बनाये जो युद्ध में जर्मनी की हार का बदला लेना चाहते थे। और इसलिये, उन्होंने फ़ासिस्ट पार्टी को सत्ता सौंफी। जनता को धोखा देने के लिये, यह पार्टी अपने को राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी कहती थी। पूंजीपति अच्छी तरह जानते थे कि फ़ासिस्ट पार्टी सबसे पहले उन साम्राज्यवादी पूंजीपतियों की प्रतिनिधि है जो सबसे प्रतिक्रियावादी और मज़दूर वर्ग से सबसे ज्यादा शत्रु-भाव रखने वाले हैं। दूसरे, वे जानते थे कि बदला लेने वालों की यह सबसे खुली पार्टी है जो लाखों राष्ट्रवादी रुझान रखने वाले मध्यवित्त लोगों को बरगला सकती है। इस काम में, मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने वालों, जर्मन सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी के नेताओं ने उनकी मदद की और अपनी समझौते की नीति से फ़ासिस्टवाद का रास्ता साफ़ कर दिया।
ऐसी ही परिस्थिति में, जर्मन फ़ासिस्ट 1933 में सत्तारूढ़ हो सके।
17वीं पार्टी कांग्रेस को अपनी रिपोर्ट देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने जर्मनी की घटनाओं का विश्लेषण करते हुए कहा था:
"जर्मनी में फ़ाासिस्टवाद की जीत को मज़दूर वर्ग की कमजोरी का चिन्ह और सोशल-डेमोक्रिटिक पार्टी द्वारा, जिसने फ़ासिस्टवाद का रास्ता साफ़ किया, मज़दूर वर्ग के प्रति विश्वासघात का नतीजा ही न समझना चाहिये। उसे पूंजीपतियों की कमज़ोरी का चिन्ह भी समझना चाहिये, उसे इस बात का चिन्ह भी समझना चाहिये कि पूंजीपति अब पार्लियामेंटशाही और पूंजीवादी जनतंत्र के पुराने तरीकों से राज्य न कर सकते थे, इसलिये उन्हें अपनी घरेलू नीति में राज करने के आतंकवादी तरीक़ों से काम लेना पड़ता है...।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें ,अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 461)।
जर्मन फ़ासिस्टों ने राइखस्टाग में आग लगा कर, निर्दयता से मज़दूर वर्ग का दमन करके, उसके संगठन तोड़ कर और पूंजीवादी-जनवादी स्वाधीनता खत्म करके, अपनी घरेलू नीति का श्रीगणेश किया। उन्होंने लीग आॅफ नेशन्स से हट कर और यूरोप के राज्यों के सीमान्तों को जर्मनी के हित में बलपूर्वक संशोधित करने के लिये सरेआम युद्ध की तैयारी करके, अपनी वैदेशिक नीति का श्रीगणेश किया।
इस तरह, मध्य यूरोप में जर्मन फ़ासिस्टों की बदौलत दूसरा युद्ध-केन्द्र बना।
यह स्वाभाविक था कि सोवियत संघ ऐसी गंभीर घटना की तरफ़ अपनी आँखें बन्द करके न रह सकता था। वह पिच्छम के घटना-क्रम को सावधानी से देखने और पच्छिमी सीमान्तों पर अपनी सुरक्षा को दृढ़ करने लगा।
2. कुलकों को नियंत्रित करने की नीति से, वर्ग रूप में कुलकों को खत्म करने की नीति की तरफ़ आना। पंचायती खेती के आन्दोलन में पार्टी की नीति को तोड़ने-मरोड़ने के खि़लाफ़ संघर्ष। तमाम मोर्चे पर पूंजीवादी तत्वों के खि़लाफ़ हमला। सोलहवीं पार्टी कांग्रेस।
1929 और 1930 में, किसानों का सामूहिक रूप से पंचायती खेतों में आना पार्टी और सरकार के तमाम पिछले काम का नतीजा था। समाजवादी उद्योग-धंधे, जो खेती के लिये टैªक्टर और मशीनें सामूहिक पैमाने पर बनाने लगे थे, बढ़े। 1928 और 1929 में, ग़ल्ला खरीदने के आन्दोलन के दौर में, कुलकों के खि़लाफ ज़ोरदार क़दम उठाये गये। खेती की सहकारी समितियाँ, जिन्होंने धीरे-धीरे किसानों को पंचायती खेती का आदी बनाया, फैलीं। पहले पंचायती खेतों और सहकारी खेतों को अच्छी सफलतायें मिलीं। इन सभी बातों से, दृढ़ पंचायतीकरण के लिये रास्ता साफ़ हुआ जबकि समूचे गाँवों, जिलों और प्रदेशों के किसान पंचायती खेतों में शामिल हुए।
दृढ़ पंचायतीकरण कोई शान्तिमय सिलसिला न था। ऐसा न होता था कि किसानों की बहुतायत पंचायती खेतों में भर्ती होती चली जाती हो। यह कुलकों के खिलाफ़ आम किसान जनता का संघर्ष था। दृढ़ पंचायतीकरण का मतलब था कि जिस गाँव के इलाकों में पंचायती खेत बनता था, वहां की तमाम ज़मीन पंचायती खेत की हो जाती थी। लेकिन, इस ज़मीन का काफी हिस्सा कुलकों के हाथ में होता था। इसलिये, किसान उनकी ज़मीन छीन लेते थे, खेतों से उन्हें भगा देते थे, उनके गाय-बैल और मशीनें ले लेते थे और मांग करते थे कि उन्हें गिरफ़्तार किया जाये और सोवियत अधिकारी उन्हें ज़िले से निकाल दें।
इसलिए, दृढ़ पंचायतीकरण का मतलब था - कुलकों को खत्म करना।
दृढ़ पंचायतीकरण के आधार पर, यह वर्ग रूप में कुलकों को खत्म करने की नीति थी।
इस समय तक, सोवियत संघ के पास काफ़ी मज़बूत भौतिक आधार हो गया था जिससे कि कुलकों का खात्मा किया जा सके, उनका विरोध तोड़ा जा सके, वर्ग रूप में उन्हें खत्म किया जा सके और कुलक खेती की जगह पंचायती और सरकारी खेती ले सके।
1927 में, कुलक 60 करोड़ पूड से ऊपर अनाज पैदा करते थे, जिसमें से 13 करोड़ पूड बिकाऊ होता था। उसी साल, पंचायती और सरकारी खेतों से 3 करोड़ 50 लाख पूड ही बिकाऊ अनाज निकला। बोल्शेविक पार्टी ने सरकारी और पंचायती खेतों को विकसित करने की दृढ़ नीति का पालन किया, और साथ ही ट्रैक्टरों और खेती की मशीनों से देहात की मदद करने में समाजवादी उद्योग-धंधों ने प्रगति की। इन कारणों से, 1929 में, पंचायती खेत और सरकारी खेत एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके थे। उस साल, पंचायती और सरकारी खेतों ने 40 करोड़ पूड से कम अनाज पैदा न किया, जिसमें से 13 करोड़ पूड से ऊपर अनाज बेचा गया। 1927 में, कुलकों ने जितना अनाज बेचा था, यह राशि उससे ज्यादा थी। 1930 में, पंचायती और सरकारी खेतों को बाज़ार के लिये 40 करोड़ पूड से ऊपर अनाज पैदा करना था, और सचमुच उन्होंने इतना पैदा किया। 1927 में, कुलकों ने जितना बिकाऊ अनाज पैदा किया था, यह राशि उससे कहीं ज्यादा थी।
इस तरह, देश के आर्थिक जीवन में वर्ग-शक्तियों का परस्पर सम्बन्ध बदल गया। कुलकों के फ़ालतू अनाज के बदले, पंचायती और सरकारी खेतों की उपज से काम लेने को जरूरी भौतिक आधार बन गया था। इसलिये, बोल्शेविक पार्टी कुलकों को नियंत्रित करने की नीति से एक नयी नीति, वर्ग रूप में उन्हें खत्म करने की नीति की तरफ़ बढ़ सकी। इस नयी नीति का आधार दृढ़ पंचायतीकरण था।
1929 से पहले, सोवियत सत्ता कुलकों को नियंत्रित करने की नीति पर चलती थी। उसने कुलकों पर भारी टैक्स लगाये थे और उन्हें बाध्य किया था कि निश्चित भाव पर राज्य को अनाज बेचें। लगान पर ज़मीन उठाने के कानून से, उसने एक हद तक उठायी जाने वाली ज़मीन को नियंत्रित कर दिया था। निजी खेतों में किराये पर मज़दूरी के बारे में क़ानून बना कर, उसने कुलक खेतों को सीमित कर दिया था। लेकिन, सोवियत सरकार ने अभी कुलकों को खत्म करने की नीति शुरू न की थी। ज़मीन को उठाने और भाड़े पर मज़दूरी कराने के कानून से, कुलक अपना काम कर सकते थे। उनकी सम्पत्ति जब्त करने के बारे में मनाही का क़ानून होने से, उन्हें इस तरफ़ से एक हद तक गारंटी भी मिली हुई थी। इस नीति का फल यह हुआ कि कुलक वर्ग की बढ़ती रुकी। उस वर्ग के कुछ हिस्से इन रोकों का दबाव न सह कर अपने धंधे से अलग जा पडे़ और तबाह हो गये। लेकिन, इस नीति ने वर्ग रूप में कुलकों की आर्थिक बुनियाद का नाश न किया था और न उनका खात्मा किया था। यह नीति उन्हें नियंत्रित करने की थी, न कि उन्हें खत्म करने की। यह नीति एक समय तक बहुत ज़रूरी थी, यानी तब तक जब तक कि पंचायती और सरकारी खेत कमज़ोर थे और अनाज की पैदावार में कुलकों की जगह न ले सकते थे।
1929 के अंत में, पंचायती और सरकारी खेती की बढ़ती होने के बाद, सोवियत सत्ता इस नीति से तेज़ी से मुड़ कर, कुलकों को खत्म करने की नीति, वर्ग रूप में उनका नाश करने की नीति की तरफ़ बढ़ी। उसने ज़मीन को उठाने और भाड़े पर मज़दूरी कराने के क़ानून रद्द कर दिये, और इस तरह, कुलकों को ज़मीन और भाड़े के मज़दूर दोनों से वंचित कर दिया। कुलकों की सम्पत्ति ज़ब्त करने पर जो पाबन्दी लगी थी, वह उठा दी गयी। किसानों को पंचायती खेतों के लाभ के लिये कुलकों के जानवर, मशीनें और खेत की दूसरी और सम्पत्ति ज़ब्त करने की आज्ञा मिल गयी। कुलकों की सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। उनकी सम्पत्ति वैसे ही ज़ब्त की गयी जेसे 1918 में उद्योग-धंधों के क्षेत्र में पूंजीपतियों की संपत्ति ज़ब्त कर ली गयी थी। अंतर इतना था कि कुलकों के पैदावार के साधन राज्य के हाथ में न आये, बल्कि पंचायती खेती में मिले हुए किसानों के हाथ में गये।
यह एक गंभीर क्रान्ति थी, समाज की पुरानी गुणात्मक दशा से एक नयी गुणात्मक दशा की तरफ़ छलांग थी, जिसके परिणाम अक्तूबर 1917 की क्रान्ति जैसे ही थे।
इस क्रान्ति की अपनी विशेषता यह थी कि वह ऊपर से राज्य की पहलक़दमी से की गयी थी और लाखों किसानों ने नीचे से उसका सीधा समर्थन किया था। ये किसान कुलक-गुलामी से मुक्ति पाने के लिये लड़ रहे थे और पंचायती खेतों में आज़ादी से रहना चाहते थे।
इस क्रान्ति ने एक ही वार में समाजवादी निर्माण की तीन मूल समस्याओं को हल कर दिया:
(क) उसने हमारे गाँवों के सबसे बहुसंख्यक शोषक वर्ग, पूंजीवाद को बहाल करने के मुख्य आधार, कुलक वर्ग को खत्म कर दिया;
(ख) उसने हमारे देश के सबसे बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग, किसान वर्ग को पूंजीवाद को पनपाने वाली व्यक्तिगत खेती की राह से सहकारी पंचायती, समाजवादी खेती की राह पर लगा दिया;
(ग) उसने सोवियत व्यवस्था को खेती में एक समाजवादी आधार दिया। खेती राष्ट्रीय अर्थतंत्र की सबसे बड़ी और बहुत ही आवश्यक, लेकिन सबसे कम विकसित शाखा थी।
उसने पूंजीवाद को बहाल करने के लिये देश के अंतिम मुख्य आधार को खत्म कर दिया और साथ ही समाजवादी आर्थिक व्यवस्था रचने के लिये नयी और निर्णायक परिस्थितियाँ पैदा कर दीं।
वर्ग रूप में कुलकों को खत्म करने की नीति के कारणों की व्याख्या करते हुए और दृढ़ पंचायतीकरण के लिये किसानों के सामूहिक आन्दोलन के नतीजों का सारांश देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने 1929 में लिखा था:
"सभी देशों के पूंजीपति सोवियत संघ में पूंजीवाद को बहाल करने, 'व्यक्तिगत सम्पत्ति के पवित्र सिद्धान्त' को बहाल करने का सपना देख रहे हैं। उनकी अंतिम आशा पर पानी फिर रहा है, और उनका सपना टूट रहा है। वे समझते थे कि पूंजीवाद के लिये ज़मीन में खाद का काम देने के लिये किसान हैं। वे ही किसान अब सामूहिक रूप से 'व्यक्तिगत सम्पत्ति' का प्रशंसित झण्डा छोड़ रहे हैं और पंचायती खेती का रास्ता, समाजवाद का रास्ता अपना रहे हैं। पूंजीवाद को बहाल करने की अंतिम आशा खत्म हो रही है।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 298)।
5 जनवरी 1930 को, सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की केन्द्रीय समिति ने एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया - "पंचायती करण की रफ़्तार और पंचायती खेतों के विकास में मदद देने के लिये सरकारी उपाय"। इस प्रस्ताव में, वर्ग रूप में कुलकों को खत्म करने की नीति रखी गयी थी। इस फ़ैसले में, इस बात का पूरी तरह ध्यान रखा गया था कि सोवियत संघ के विभिन्न ज़िलों में हालत अलग-अगल है और विविध इल़ाके पंचायती करण के लिये अलग-अलग सीमाओं तक तैयार हैं।
पंचायतीकरण की अलग-अलग रफ़्तारें क़ायम की गयीं। इस उद्देश्य के लिये, सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की केन्द्रीय समिति ने सोवियत संघ के इलाकों को तीन भागों में बांट दिया।
पहले भाग में प्रमुख अनाज उपजाने वाले इलाके थे, यानी उत्तरी काॅकेशस (कूबान, दोन् और तेरेक), मध्य वोल्गा और निम्न वोल्गा, जो पंचायतीकरण के लिये सबसे ज्यादा तैयार थे, क्योंकि उनके पास सबसे ज़्यादा ट्रैक्टर थे, सबसे ज़्यादा सरकारी खेत थे और पिछले गल्ला ख़रीदने के आन्दोलनों में कुलकों से लड़ने का उन्हें सबसे ज़्यादा तजुर्बा था। केन्द्रीय समिति ने प्रस्ताव किया कि अनाज पैदा करने वाले प्रदेशों के इस भाग में पंचायतीकरण मुख्य रूप से 1931 के वसन्त तक पूरा हो जाना चाहिये।
दूसरा भाग इन अनाज उपजाने वाले इलाकों का था - उक्रैन, काली मिट्टी का मध्य प्रदेश, साइबेरिया, यूराल, कजाकिस्तान, वग़ैरह। यहाँ पर मुख्य रूप से पंचायतीकरण का काम 1932 के वसंत तक पूरा हो सकता था।
दूसरे प्रदेश, मण्डल, और प्रजातंत्र (मास्को प्रदेश, ट्रांस काॅकेशिया, मध्य एशियायी प्रजातंत्र, वग़ैरह) पंचवर्षीय योजना के अंत तक, यानी 1933 तक पंचायतीकरण का सिलसिला जारी रख सकते थे।
पंचायतीकरण की बढ़ती हुई रफ़्तार ध्यान में रखते हुए, पार्टी की केन्द्रीय समिति ने ज़रूरी समझा कि टैªक्टर, हार्वेस्टर कम्बाइन, टैªक्टर से खिंचनेवाली मशीनें आदि बनाने वाले कारखानों के निर्माण का काम और तेज किया जाये। इसके साथ ही, केन्द्रीय समिति ने माँग की कि:"पंचायती खेती के आन्दोलन की मौजूदा मंजिल में घोड़ों से काम लेने के महत्व को जो कम करके आँकने की प्रवृति है और जिससे घोड़े बेतहाशा बेचे जा रहे थे या निकाले जा रहे थे, उसको दृढ़ता से रोका जाये।"
1929-'30 के लिये, मूल योजना में पंचायती खेतों को जो सरकारी रक़म उधार दी जाने वाली थी, वह दुगुनी (50 करोड़ रूबल) कर दी गयी।
पंचायती खेतों की ज़मीन नापने और उसकी हदबन्दी का खर्च सरकार बर्दाश्त करती।
प्रस्ताव में एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्देश यह था कि मौजूदा मंजिल में पंचायती खेती के आन्दोलन का मुख्य रूप कृषि संघ ही होगा, जिसमें सिर्फ़ पैदावार के मुख्य साधनों का पंचायतीकरण होता है।
केन्द्रीय समिति ने पार्टी-संगठनों को बहुत गंभीर चेतावनी दी कि "वे ऊपर से 'आज्ञा-पत्र' निकाल कर, ज़बर्दस्ती पंचायती खेती के आन्दोलन को बढ़ाने की कोई भी कोशिश न करें। इससे यह खतरा पैदा हो सकता था कि पंचायती खेतों के संगठन में सच्ची समाजवादी होड़ के बदले नकली पंचायतीकरण चालू हो जाये।"(सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) के प्रस्ताव, रूÛसंÛ, भाग 2, पृष्ठ 662)।
इस प्रस्ताव में, केन्द्रीय समिति ने स्पष्ट कर दिया कि पार्टी की नयी नीति को देहातों में कैसे लागू करना चाहिये।
वर्ग रूप में कुलकों को खत्म करने और दृढ़ पंचायतीकरण की नीति से, एक शक्तिशाली पंचायती खेती के आन्दोलन को बढ़ावा मिला। समूचे गाँवों और जिलों के किसान पंचायती खेतों में शामिल हो गये। उन्होंने कुलकों को अपने रास्ते से खदेड़ दिया और कुलक गुलामी से अपने को मुक्त कर लिया।
पंचायतीकरण की इस अपूर्व प्रगति के साथ-साथ, पार्टी के कार्यकत्र्ताओं के कुछ दोष, पंचायती खेती के विकास में पार्टी की नीति को तोड़ने-मरोड़ने की बातें जल्द ही सामने आयीं। हालाँकि केन्द्रीय समिति ने पार्टी के कार्यकत्र्ताओं को सावधान कर दिया था कि पंचायतीकरण की सफलता से होश न खो बैठें, फिर भी उनमें से बहुत से नक़ली तौर पर पंचायतीकरण की रफ़्तार तेज़ करने लगे और उन्होंने देश-काल की परिस्थितियों का ध्यान न रखा और इस बात का विचार न किया कि किस हद तक किसान पंचायती खेतों में शामिल होने के लिये तैयार हैं।
पता लगा कि स्वेच्छा से पंचायती खेत बनाने का उसूल तोड़ा जा रहा है और कई ज़िलों में किसानों को यह धमकी देकर कि उनकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जायेगी, उनके अधिकार छीन लिये जायेंगे वगैरह, जबर्दस्ती पंचायती खेतों में भर्ती किया जा रहा है।
कई जिलों में, पंचायतीकरण के बारे में पार्टी की नीति के बुनियादी उसूलों को धीरज के साथ समझाने और तैयारी का काम करने के बदले, ऊपर से नौकरशाही तरीक़े पर हुकुमनामे भेजे जा रहे थे, पंचायती खेत बनाने के बारे में अतिरंजित और झूठे आँकड़े दिये जा रहे थे और पंचायतीकरण की औसत दर को नक़ली तौर से बढ़ा कर दिखाया जा रहा था।
हालाँकि केन्द्रीय समिति ने स्पष्ट कर दिया था कि पंचायती खेती के आन्दोलन का मुख्य रूप कृषि संघ होना चाहिये, जिसमें सिर्फ़ पैदावार के मुख्य साधनों का पंचायतीकरण होगा, फिर भी कई जगह कृषि संघ को लांघने और सीधे कम्यून में पहुंच जाने की महत्वपूर्ण कोशिशें की गयीं। मकान, दुध देनेवाली गायें, छोटे जानवर, मुर्गियाँ, वगै़रह, जो बाज़ार के काम न आयीं थीं, उन सबका पंचायतीकरण हो गया था।
पंचायतीकरण की प्राथमिक सफलता से बदहवास होकर, कई प्रदेशों के अधिकारियों ने पंचायतीकरण की रफ़्तार और मियाद के बारे में केन्द्रीय समिति की स्पष्ट आज्ञाओं का उल्लंघन किया। भारी आँकडे़ देने के उत्साह में, मास्को प्रदेश के नेतृत्व ने अपने मातहतों को राह दिखा दी कि 1930 के वसन्त तक पंचायतीकरण पूरा कर डालें, हालाँकि इसके लिये उनके पास तीन साल से कम समय नहीं था (1932 के अंत तक)। ट्रांस काॅकेशिया और मध्य एशिया में इससे भी ज़्यादा भौंडे रूप में केन्द्रीय समिति के निर्देश तोड़े गये।
अपने ही उकसावा पैदा करने वाले उद्देश्यों के लिये, नीति के इस तोड़ने-मरोड़ने से फ़ायदा उठा कर, कुलक और उनके गुर्गे खुद ही सुझाते थे कि कृषि संघों के बदले कम्यून बना लिये जायें और तुरंत ही मकान, छोटे-मोटे जानवर और मुर्गी-बत्तखें भी पंचायती बना ली जायें। इसके अलावा, कुलक किसानों को सिखाते थे कि पंचायती खेतों में शामिल होने से पहले अपने जानवर मार डालो क्योंकि 'आखिर तो वे हाथ से निकल ही जायेंगे।'
वर्ग-शत्रु ने हिसाब लगाया था कि पंचायतीकरण के सिलसिले में स्थानीय संगठनों ने जो ग़लतियाँ की हैं और पार्टी की नीति को तोड़ा-मरोड़ा है, उससे किसान भड़क जायेंगे और सोवियत सत्ता से बग़ाकत कर बैठेंगे।
पार्टी-संगठनों की ग़लतियों के फलस्वरूप और वर्ग-शत्रु की सीधी भड़काने वाली कार्यवाही के कारण, पंचायतीकरण की आम निश्चित सफलताओं के बावजूद, फरवरी 1930 के दूसरे पखवारे में कई ज़िलों के किसानों में गंभीर असंतोष के ख़तरनाक चिन्ह दिखाई दिये। जहाँ-तहाँ कुलक और उनके गुर्गे सीधी सोवियत-विरोधी कार्यवाही कराने के लिये किसानों को भड़काने में सफल भी हुए।
पार्टी की नीति के तोड़ने-मरोड़ने से पंचायतीकरण ख़तरे में पड़ सकता है, इसके कई भयंकर चिन्ह देखकर पार्टी की केन्द्रीय समिति ने तुरंत ही हालत सुधारने, जितनी जल्द हो सके ग़लतियाँ सुधारने का काम पार्टी के कार्यकत्र्ताओं के सामने रखने का क़दम उठाया। 2 मार्च 1930 को, केन्द्रीय समिति के फ़ैसले से, काँमरेड स्तालिन का लेख - "सफलता से उन्मत" - छपा। यह लेख उन सबके लिये चेतावनी था जिन्होंने पंचायतीकरण की सफलता से बदहवास होकर भारी ग़लतियाँ की थीं और पार्टी की नीति से अलग हट गये थे, जो पंचायती खेतों में शामिल होने के लिये किसानों से ज़ोर-ज़बर्दस्ती करने की कोशिश कर रहे थे। लेख में, सबसे ज़्यादा ज़ोर इस बात पर दिया गया कि पंचायती खेतों का निर्माण स्वेच्छा से होना चाहिये और जब पंचायतीकरण की रफ़्तार और तरीके़ निश्चित किये जायें, तब सोवियत संघ के विभिन्न ज़िलों की अलग-अगल हालतों का ध्यान रखना ज़रूरी है। काँमरेड स्तालिन ने इस बात को दुहराया कि पंचायती खेती के आन्दोलन का मुख्य रूप कृषि संघ है, जिसमें सिर्फ़ पैदावार के मुख्य साधन, मुख्यतः वे जो अनाज पैदा करने में काम आते हैं, पंचायती बनाये जायें, लेकिन घरेलू ज़मीन, मकान, दूध देने वाले मवेशी, छोटे-मोटे जानवर, मुर्गी-बत्तखें, वग़ैरह पंचायती न बनायी जायेंगी।
काँमरेड स्तालिन का लेख बहुत ही राजनीतिक महत्व का था। उसने पार्टी-संगठनों को अपनी ग़लतियाँ सुधारने में मदद दी और सोवियत सत्ता के दुश्मनों पर भारी वार किया जो उम्मीद कर रहे थे कि सोवियत सत्ता से किसानों को भिड़ा देने के लिये पार्टी की नीति के तोड़ने-मोड़ने के लिये फ़ायदा उठायेंगे। आम किसान जनता ने देख लिया कि स्थानीय अधिकारियों ने पार्टी की नीति को जिस मूर्खतापूर्ण 'वामपंथी' तरीके़ से तोड़ा-मरोड़ा था, उससे बोल्शेविक पार्टी की नीति का कोई सम्बन्ध नहीं है। लेख से किसानों का चित्त शान्त हुआ।
पार्टी की नीति के तोड़ने-मरोड़ने और ग़लतियों को सुधारने के लिये काँमरेड स्तालिन के लेख ने जो काम शुरू किया था, उसे पूरा करने के लिये सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की केन्द्रीय समिति ने उन पर दूसरा वार करने का फ़ैसला किया। 24 मार्च 1930 को, उसने "पंचायती खेती-आन्दोलन में पार्टी की नीति का तोड़ना-मरोड़ना खत्म करने के उपाय" नाम का प्रस्ताव पास किया।
प्रस्ताव ने, जो ग़लतियाँ हुई थीं, उनकी विस्तार से छानबीन की और दिखलाया कि वह पार्टी की लेनिनवादी-स्तालिनवादी नीति से हटने का नतीजा है, पार्टी के निर्देशों को खुलकर तोड़ने का नतीजा है।
केन्द्रीय समिति ने बताया कि यह 'वामपंथी' तोड़-मरोड़ सीधे वर्ग-शत्रु की सहायता करती है।
केन्द्रीय समिति ने निर्देश दिये कि "जो लोग पार्टी की नीति की तोड़-मरोड़ का सच्चाई से मुकाबिला करने के लिये तैयार नहीं हैं, या मुक़ाबिला नहीं कर सकते, वे अपनी जगह से हटा दिये जायें, और उनकी जगह दूसरे आदमी रखे जायें"। (सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) के प्रस्ताव , भाग 2, पृÛ663)।
केन्द्रीय समिति ने कुछ मण्डल और प्रादेशिक पार्टी-संगठनों के नेतृत्व बदल दिये (मास्को प्रदेश, ट्रांस काॅकेशिया), जिन्होंने राजनीतिक ग़लतियाँ की थीं और उन्हें सुधारने में अपने को असमर्थ साबित किया था।
3 अप्रैल 1930 को, काँमरेड स्तालिन का लेख - "पंचायती खेती में काम करने वाले साथियों को उत्तर" - प्रकाशित हुआ। इसमें किसान समस्या पर ग़लतियों का मूल कारण बतलाया गया और पंचायती खेती-आन्दोलन में जो बड़ी भूलें हुई थीं, उनकी जड़ बतलाई गई। मूल कारण ये थे - मध्यम किसान की तरफ़ ग़लत रवैया; इस लेनिनवादी उसूल को तोड़ना कि पंचायती खेतों का निर्माण स्वेच्छा से ही होना चाहिये, इस लेनिनवादी उसूल को तोड़ना कि सोवियत संघ के विभिन्न जिलों के अलग-अगल हालात का ध्यान रखना चाहिये और कृषि संघ की मंजिल लांघ कर सीधे कम्यून में पहंुच जाने की कोशिशें।
इन उपायों का फल यह हुआ कि कई जिलों में स्थानीय पार्टी के कार्यकत्र्ताओं ने पार्टी की नीति को जो तोड़ा-मरोड़ा था, पार्टी ने उसका सुधार कर दिया।
ऐसे पार्टी के कार्यकत्र्ता जो सफलता से बदहवास होकर पार्टी की नीति से जल्दी-जल्दी दूर चले जा रहे थे, काफ़ी थे। इन्हें तुरंत सुधारने के लिये धारा के खिलाफ़ चलने में केन्द्रीय समिति ने अपने को समर्थ दिखाया और उसे बहुत ही दृढ़ता से काम लेना पड़ा।
पंचायती खेती-आन्दोलन में, पार्टी की नीति की तोड़-मरोड़ को सुधारने में पार्टी सफल हुई।
इससे पंचायती खेती के आन्दोलन की सफलता को मज़बूत करना मुमकिन हुआ।
इससे पंचायती खेती के आन्दोलन की नयी और शक्तिशाली प्रगति करना भी संभव हुआ।
वर्गरूप में कुलकों को खत्म करने की पार्टी की नीति अपनाने से पहले, मुख्यतः शहरों में औद्योगीक मोर्चे पर पूंजीवादी तत्व खत्म करने के लिये उनके खिलाफ़ ज़ोरदार मुहीम शुरू की गयी थी। अभी तक देहात और खेती, शहरों और उद्योग-धंधों के पीछे घिसट रहे थे। इसलिये, वह मुहीम चैमुखा, आम और सम्पूर्ण रूप धारण न कर सकी थी। लेकिन, अब देहात का पिछड़ापन बीते ज़माने की बात हो रहा था, अब कुलक वर्ग को खत्म करने के लिये किसान-संघर्ष ने स्पष्ट रूप ले लिया था और पार्टी ने कुलक वर्ग को ख़त्म करने की नीति अपनायी थी। इसलिये, पूंजीवादी तत्वों के खिलाफ़ हमले ने आम रूप धारण कर लिया; आंशिक हमला समूचे मोर्चे पर हमला बन गया। जिस समय सोलहवीं पार्टी कांग्रेस बुलायी गयी, उस समय पूंजीवादी तत्वों के खिलाफ़ हमला समूचे मोर्चे पर चालू था।
सोलहवीं पार्टी कांग्रेस 26 जून, 1930 को शुरू हुई। इसमें 12,60,8794 पार्टी सदस्यों और 7,11,609 उम्मीदवार सदस्यों की तरफ से, 1,268 वोट देने वाले प्रतिनिधि और 891 बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले प्रतिनिधि आये।
पार्टी के इतिहास में, सोलहवीं पार्टी कांग्रेस "पूरे मोर्चे पर समाजवाद के भारी हमले की कांग्रेस, वर्ग रूप में कुलकों को खत्म करने की और दृढ़ पंचायतीकरण को अमल में लाने की कांग्रेस" (स्तालिन) कहलाती है।
केन्द्रीय समिति की राजनीतिक रिपोर्ट पेश करते हुए, काँमरेड स्तालिन ने बताया कि समाजवादी मुहीम बढ़ाते हुए बोल्शेविक पार्टी ने कौन सी महान् सफलतायें हासिल की हैं।
अब तक समाजवादी औद्योगीकरण इतना बढ़ चुका था कि देश की कुछ पैदावार में उद्योग-धंधों का हिस्सा खेती से बढ़ गया था। 1929-'30 के आर्थिक साल में, देश की समूची पैदावार पर 53 फ़ीसदी हिस्सा उद्योग-धंधों की उपज बन गया था, जबकि खेती का हिस्सा 87 फ़ीसदी के लगभग था।
1926-'27 के आर्थिक साल में, 15वीं पार्टी कांग्रेस के समय, उद्योग-धंधों की पूरी उपज युद्ध के पूर्व की पैदावार की सिर्फ़ 102.5 फ़ीसदी थी। 1929-'30 के साल में, सोहलवीं कांग्रेस के समय, यह उपज लगभग 180 फ़ीसदी तक पहुंच गयी थी।
भारी उद्योग-धंधों - पैदावार के साधनों का निर्माण, मशीनें बनाना – निश्चित रूप से शक्ति में बढ़ते जाते थे।
काँमरेड स्तालिन ने कांग्रेस में हार्दिक हर्षध्वनि के बीच, कहा:
"...हम अपने देश के खेतिहर से औद्योगिक देश बनने की देहरी पर हैं।"
फिर भी, काँमरेड स्तालिन ने बताया कि औद्योगिक विकास की ऊँची रफ्तार का मलतब औद्योगिक विकास की सतह नहीं है। समाजवादी उद्योग-धंधों के विकास की अपूर्व गति के बावजूद, जहाँ तक औद्योगिक विकास की सतह का सवाल था, हम अब भी आगे बढ़े हुये पूंजीवादी देशों से बहुत ही पीछे थे। यह बात बिजली के बारे में थी, हालाँकि सोवियत संघ में बिजली लगाने के काम में अभूतपूर्व प्रगति हुई थीं। यही बात धातुओं के बारे में सही थी। योजना के अनुसार, 1929-'30 के साल में सोवियत संघ में कच्चे लोहे की पैदावार 55 लाख टन होनी थी, लेकिल 1929 में जर्मनी में कच्चे लोहे की पैदावार 1 करोड़ 34 लाख टन थी और फ्रांस में 1 करोड़ 4 लाख 50 हजार टन थी। कम से कम समय में अपना आर्थिक और कौशल सम्बन्धी पिछड़ापन दूर करने के लिये, यह ज़रूरी था कि औद्योगिक विकास की हमारी गति और तेज़ की जाये और उन अवसरवादियों के खिलाफ़ बहुत ही दृढ़ता से संघर्ष किया जाये जो समाजवादी उद्योग-धंधों के विकास की रफ़्तार को घटाने की कोशिश कर रहे थे।
काँमरेड स्तालिन ने कहा:
"...जो लोग हमारे उद्योग-धंधों के विकास की रफ़्तार को घटाने की ज़रूरत की बातें करते हैं, वे समाजवाद के दुश्मन हैं, वर्ग-शत्रुओं के दलाल हैं।" (स्तालिन, लेनिनवाद - की समस्यायें, रूÛसंÛ, पृष्ठ 369)।
जब पहली पंचवर्षीय योजना के पहले साल का कार्यक्रम सफलता से पूरा हो गया और उससे आगे भी लोग बढ़ गये, तब आम जनता में एक नया नारा पैदा हुआ: 'पंचवर्षीय योजना चार वर्षो में पूरी करो।' उद्योग-धंधों की कई शाखायें (तेल, पीट, आम मशीनें बनाने का काम, खेती की मशीनें, बिजली का सामान) अपनी योजनायें इतनी सफलता से पूरी कर रही थीं कि उनकी पंचवर्षीय योजनायें ढाई या तीन साल में पूरी हो सकती थीं। इससे साबित होता था कि 'पंचवर्षीय योजना चार वर्षो में' - यह नारा बिल्कुल सुगम था, और इस तरह जो इसे शक की निगाह से देखते थे उनके अवसरवाद का पर्दाफाश हो गया।
सोलहवीं कांग्रेस ने पार्टी की केन्द्रीय समिति को निर्देश दिया कि वह "इस बात को निश्चित करे कि समाजवादी निर्माण की उत्साही बोल्शेविक रफ़्तार बनी रहे और पंचवर्षीय योजना सचमुच चार साल में पूरी हो जाये।
जिस समय सोलहवीं पार्टी कांग्रेस हुई, उस समय तक सोवियत संघ की खेती के विकास में महत्वपूर्ण तब्दीली हो चुकी थी। आम किसान जनता समाजवाद की तरफ़ मुड़ चुकी थी। 1 मई 1930 तक, मुख्य अनाज उपजाने वाले इलाकों में 40-50 फ़ीसदी किसान परिवार पंचायतीकरण में शामिल हो चुके थे (जबकि वसन्त 1928 तक 2-3 फ़ीसदी तक ही शामिल हुए थे)। पंचायती खेतों की काश्त की ज़मीन 3 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गयी।
केन्द्रीय समिति ने 5 जनवरी 1930 के प्रस्ताव में जो कार्यक्रम बढ़ाकर (3 करोड़ हेक्टेयर) रखा था, वह सीमा से ज़्यादा पूरा हो गया था। दो साल की अवधि में, पंचायती खेती के विकास का पंचवर्षीय कार्यक्रम डेढ़ गुना पूरा हो चुका था।
तीन साल में, पंचायती खेतों ने जो बाज़र में उपज भेजी थी, वह 40 गुनी से ज़्यादा बढ़ चुकी थीं। 1930 में ही, बाज़ार के लिये जितना ग़ल्ला आता था उसका आधे से ज़्यादा पंचायती खेतों से आया था, और इसमें सरकारी खेतों के अनाज की बिल्कुल गिनती न थी।
इसका मतलब यह था कि अबसे खेती के भाग्य का निपटारा किसानों के अलग-थलग खेत न करेंगे बल्कि पंचायती और सरकारी खेत करेंगे। आम किसानों के पंचायती खेतों में शामिल होने से पहले सोवियत सत्ता मुख्यतः समाजवादी उद्योग-धंधों पर निर्भर रहती थी, लेकिन अब वह तेज़ी से बढ़ते हुए खेती के समाजवादी नाके पर, पंचायती और सरकारी खेतों पर भी निर्भर रहने लगी।
जैसा कि 16वीं पार्टी कांग्रेस ने अपने एक प्रस्ताव में कहा था, पंचायती खेतों के किसान 'सोवियत सत्ता के वास्तविक और दृढ़ स्तम्भ' बन गये थे।
3. राष्ट्रीय अर्थतंत्र की सभी शाखाओं के पुनर्संगठन की नीति। कौशल का महत्व। पंचायती खेती के आन्दोलन का और भी प्रसार। मशीन और ट्रैक्टर स्टेशनों के राजनीतिक विभाग। चार साल में पंचवर्षीय योजना पूरी करने के नतीजे। समूचे मोर्चे पर समाजवाद की विजय। सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस।
जब भारी उद्योग-धंधे, और खास तौर से मशीन बनाने वाले धंधे, निर्मित हो गये और मज़बूती से अपने पैरों पर खड़े हो गये, और इसके सिवा यह भी स्पष्ट हो गया कि उनका विकास काफ़ी तेज़ रफ़्तार से हो रहा है, तब पार्टी के सामने दूसरा काम यह आया कि राष्ट्रीय अर्थतंत्र की सभी शाखाओं को आधुनिकतम तरीक़े से अप-टू-डेट लाइन पर पुनर्संगठित करे। ईधन के उद्योग-धंधों, धातुओं के उद्योग-धंधों, हल्के उद्योग-धंधों, अन्न के उद्योग-धंधों, लकड़ी के उद्योग-धंधों, लड़ाई का सामान बनाने वाले उद्योग-धंधों, यातायात की व्यवस्था और खेती को आधुनिक कौशल, आधुनिकतम मशीनों से सुसज्जित करे। खेतों की उपज और तैयार माल की माँग में ज़बर्दस्त बढ़ती को देखते हुए, यह ज़रूरी था कि पैदावार की सभी शाखाओं की उपज को दुगुना और तिगुना बढ़ाया जाये। लेकिन, यह तब तक नहीं हो सकता था जब तक कि मिलें और कारखाने, सरकारी और पंचायती खेत पर्याप्त रूप से अप-टू-डेट सामान से लैस न किये जायें। कारण यह कि उपज की आवश्यक बढ़ती पुराने साज़-सामान से न हो सकती थी।
जब तक राष्ट्रीय अर्थतंत्र की मुख्य शाखाओं को पुनर्संगठित न किया जाये, तब तक देश और उसकी आर्थिक व्यवस्था की नयी और बराबर बढ़ती हुई माँगों को पूरा करना असंभव था।
पुनर्संगठन के बिना, समूचे मोर्चे पर समाजवाद के हमले को पूरा करना असंभव होगा। कारण यह कि शहर और देहात के पूंजीवादी तत्वों से न सिर्फ़ श्रम और सम्पत्ति के नये संगठन द्वारा लड़ना और उन्हें हराना था, बल्कि नये कौशल द्वारा, कौशल की श्रेष्ठता द्वारा भी लड़ना और उन्हें हराना था।
पुनर्संगठन के बिना, आर्थिक रूप से और कौशल में आगे बढ़े हुए पूंजीवादी देशों के बराबर पहुँचना और आगे निकल जाना असंभव होगा। कारण यह कि सोवियत संघ औद्योगिक विकास की रफ़्तार में तो पूंजीवादी देशों से आगे निकल गया था, लेकिन औद्योगिक विकास की सतह में, औद्योगिक उपज की तादाद में वह उनसे अब भी बहुत पीछे था।
हम उनके बराबर पहुँच जायें, इसके लिए ज़रूरी था कि पैदावार की हर शाखा नये कौशल से लैस की जाये और कौशल की सबसे अप-टू-डेट लाइन पर पुनर्सगठित की जाये।
इस तरह, कौशल का सवाल निर्णायक महत्व का सवाल बन गया था।
हमारे मशीनें बनाने वाले उद्योग-धंधों आधुनिक ढंग का सामान दे सकते थे, इसलिये इस काम में मुख्य बाधा आधुनिक मशीनों और कलपुर्जों का अभाव इतनी न थी जितनी कि हमारे प्रबंधकों का कौशल के प्रति ग़लत रवैया, पुनर्संगठन के दौर में कौशल के महत्व को कम करके आँकने और उसे घृणा से देखने की प्रवृति थी। उनकी राय में कौशल की बातें 'विशेषज्ञों' के लिये थीं, वे गौण महत्व की चीजें थीं, जिन्हें 'पूंजीवाद विशेषज्ञों' के हाथ में छोड़ा जा सकता था। उनका विचार था कि कम्युनिस्ट प्रबंधकों को पैदावार के कौशल सम्बन्धी पहलू में दखल न देना चाहिये और उन्हें अधिक महत्वपूर्ण पहलू यानी उद्योग-धंधों के 'आम' प्रबंध की तरफ़ ध्यान देना चाहिये।
इसलिये पैदावार के मामले में, पूंजीवादी 'विशेषज्ञों' को पूरी छूट मिली हुई थी और कम्युनिस्ट प्रबंधकों ने अपने लिये 'आम' संचालक का काम, काग़जों पर दस्तख़त करने का काम रख छोड़ा था।
कहना न होगा कि इस तरह का रवैया होने पर 'आम' संचालन लाज़िमी तौर पर संचालन का मखौल भर रह जाता था, काग़जों पर थोथी दस्तख़तबाजी, काग़जों का निरर्थक उलटफेर भर रह जाता था।
यह स्पष्ट है कि अगर कम्युनिस्ट प्रबंधक कौशल के मामलों की तरफ़ यह घृणा का रवैया बनाये ही रहते तो आगे बढ़े हुए पूंजीवादी देशों से आगे निकलना तो दरकिनार हम उनके बराबर भी न पहुँच पाते। इस तरह का रवैया, खास तौर से पुनर्संगठन के दौर में, हमारे देश को पिछड़ा बना रहने के लिये मज़बूर करता और विकास की हमारी रफ़्तार घटा देता। हक़ीक़त यह थी कि कौशल सम्बन्धी मामलों की तरफ़ यह रवैया कम्युनिस्ट प्रबंधकों के एक हिस्से की इस गुप्त इच्छा के लिये एक नक़ाब, एक पर्दा था कि वे औद्योगिक विकास की रफ़्तार को घटा दें, रोक दें, जिससे कि उनका 'काम आसान रहे' और पैदावार की जिम्मेदारी वे 'विशेषज्ञों' पर डाल सकें।
यह ज़रूरी था कि कम्युनिस्ट प्रबंधकों का ध्यान कौशल सम्बन्धी मामलों की तरफ़ खींचा जाये,. उनके अन्दर कौशल का शौक़ पैदा किया जाये। उन्हें यह बताना ज़रूरी था कि बोल्शेविक प्रबंधकों के लिये आधुनिक कौशल पर हावी होना एकदम ज़रूरी है, वर्ना हम इस खतरे का सामना करेंगे कि अपने देश को पिछड़ेपन और ठहराव की दशा में रहने के लिये मज़बूर करे दें।
जब तक यह समस्या हल न होती थी तब तक आगे प्रगति असंभव थी।
इस सिलसिले में, औद्योगिक प्रबंधकों की पहली कान्फ्रेंस (फरवरी 1931) में काँमरेड स्तालिन का भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण था।
काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"कभी-कभी यह पूछा जाता है कि रफ़्तार को थोड़ा कम कर देना, प्रगति पर थोड़ी रोक लगाना क्या संभव नहीं है। नहीं साथियों, यह संभव नहीं है। रफ़्तार कम न करनी चाहिये! ...रफ़्तार कम करने का मतलब होगा, पीछे रह जाना। और जो पीछे रह जाते हैं, वे मार खाते हैं। लेकिन, हम मार नहीं खाना चाहते। नहीं, मार खाना हमें क़तई मंजूर नहीं।
"पुराने रूस के इतिहास की एक विशेषता यह थी कि पीछे रहने की वजह से, अपने पिछड़ेपन की वजह से उसने बार-बार मार खाई। मंगोल खानों ने उसे पीटा। तुर्क सरदारों ने उसे पीटा। स्वीडन के सामन्तों ने उसे पीटा। पोलैण्ड और लिथुआनिया के ज़मींदारों ने उसे पीटा। ब्रिटेन और फ्रांस के पूंजीपतियों ने उसे पीटा। जापानी जागीरदारों ने उसे पीटा। सबने उसे पीटा - उसके पिछड़ेपन की वजह से।...
"आगे बढ़े हुए देशों से हम पचास या सौ साल पीछे हैं। यह फ़ासला हमें दस साल में तय करना है। या तो हम उसे तय करते हैं, या वे हमे कुचल डालेंगे।
"ज्यादा से ज्यादा दस साल में, हम आगे बढ़े हुए पूंजीवादी देशों से जितना पीछे हैं उतना, फ़ासला हमें तय करना है। हमारे पास ऐसा करने के लिये सभी 'वस्तुगत' अवसर मौजूद हैं। एक ही चीज़ की क़मी है - इन अवसरों से ठीक फ़ायदा उठाने की योग्यता। और यह हम निर्भर है। सिर्फ़ हम पर। वक्त आ गया है कि हम इन अवसरों से काम लेना सीखें। वक़्त आ गया है कि पैदावार में दखल न देने की सड़ी हुई नीति को हम खत्म करें। वक्त आ गया है कि हम एक नयी नीति, एक समयानुकूल नीति, हर चीज़ में दख़ल देने की नीति अपनायें। अगर तुम कारखाने के मैनेजर हो तो कारखाने के सभी मामलों में दख़ल दो। हर चीज देखो-भालो, कोई चीज़ भी आँख से ओझल न होने दो; सीखो और फिर सीखो। बोल्शेविकों को चाहिये कि कौशल पर हावी हों। वक़्त आ गया है कि बोल्शेविक ही खुद विशेषज्ञ बनें। पुनर्संगठन के दौर में हर चीज का फै़सला कौशल पर निर्भर है।" (स्तालिन लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 355-58)।
काँमरेड स्तालिन के भाषण का ऐतिहासिक महत्व इस बात में है कि उसने कौशल की तरफ़ कम्युनिस्ट प्रबंधकों के नफ़रत के रवैये को खत्म कर दिया, उसने उन्हें कौशल के सवाल से आँखें चार करने पर मज़बूर किया, उसने खुद बोल्शेविकों द्वारा कौशल पर हावी होने के संघर्ष का नया दौर शुरू किया, और इस तरह आर्थिक पुनर्संगठन के काम को आगे बढ़ाने में मदद दी।
इसके बाद से, कौशल का ज्ञान पूंजीवादी 'विशेषज्ञों' का इजारा न रह गया और खुद बोल्शेविक प्रबंधकों के लिये बहुत ही महत्व की बात हो गया। और, 'विशेषज्ञ' शब्द लोगों को नीचा दिखाने के लिये नहीं रहा बल्कि खुद उन बोल्शेविकों का गौरववाचक सम्बोधन हो गया जो कौशल पर हावी हो गये थे।
इसके बाद, हज़ारों लाल विशेषज्ञों की पलटनें की पलटनें तैयार होनी थीं, और र्हुइं, जो कौशल पर हावी हो चुकी थीं और जो उद्योग-धंधों का संचालन कर सकती थीं।
ये कौशल जानने वाले, नये सोवियत बुद्धिजीवी थे, मज़दूर वर्ग और किसानों के बुद्धिजीवी थे। हमारे उद्योग-धंधों के प्रबंध में अब वे मुख्य शक्ति हैं।
इन सबसे आर्थिक पुनर्संगठन का काम आगे बढ़ता था, और वह आगे बढ़ा।
पुनर्संगठन का काम उद्योग-धंधों और यातायात तक समिति न रहा। वह खेती में और भी तेज़ी से बढ़ा। इसका कारण ढूंढ़ने दूर न जाना पड़ेगा। दूसरी शाखाओं के मुक़ाबिले में, खेती में मशीनें कम चलीं थीं और यहाँ पर आधुनिक मशीनों की ज़रूरत दूसरी जगहों से ज़्यादा महसूस होती थी। अब यह एकदम ज़रूरी था कि आधुनिक खेती की मशीनों को ज़्यादा-से-ज़्यादा भेजा जाये क्योंकि पंचायती खेती की संख्या माह-दर-माह और हफ़्ते-दर-हफ़्ते बढ़ रही थी, और उसके साथ हजारों ही ट्रैक्टरों और खेती की दूसरी मशीनों की माँग बढ़ रही थी।
1931 के साल में, पंचायती खेती के आन्दोलन की और भी प्रगति देखी गयी। अनाज उपजाने वाले मुख्य जिलों में, 80 फ़ीसदी से ऊपर किसानों के निजी खेत मिलकर पंचायती खेत बन चुके थे। यहाँ पर मुख्य रूप से अभी भी पंचायतीकरण पूरा हो चुका था। कम महत्व के अनाज पैदा करने वाले जिलों में और उन जिलों में जो औद्योगिक फ़सलें पैदा करते थे, 50 फ़ीसदी से ऊपर निजी खेती करने वाले किसान पंचायती खेतों में शामिल हो चुके थे। अब तक दो लाख पंचायती खेत थे और चार हजार सरकारी खेत थे, जो देश की कुल काश्त का दो-तिहाई भाग जोतते-बोते थे; नीजि खेती करने वाले किसान सिर्फ़ एक-तिहाई भाग जोतते-बोते थे।
देहात में समाजवाद के लिये यह बहुत बड़ी विजय थी।
लेनिक, पंचायती खेती के आन्दोलन की प्रगति अभी गहराई के मुक़ाबिले में चैड़ाई में ही ज्यादा नापी जा सकती थी। पंचायती खेत तादाद में बढ़ रहे थे और एक ज़िले से दूसरे ज़िले में फैल रहे थे, लेकिन पंचायती खेतों के काम में या उनके कार्यकत्र्ताओं के कौशल में उतनी ही उन्नति न हुई थी। इसका सबब यह था कि पंचायती खेतों के प्रमुख कार्यकत्र्ताओं और शिक्षित आदमियों की बढ़ती खुद पंचायती खेतों की तादाद की बढ़ती का साथ न दे पा रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि नये पंचायती खेतों का काम हमेशा संतोषजनक न होता था, और खुद पंचायती खेत अभी कमज़ोर थे। देहात में पंचायती खेतों के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक शिक्षित आदमी (हिसाव रखने वाले, स्टोर मैनेजर, मंत्री, वगै़रह) कम थे, और किसान बड़े पैमाने के प्रबंध करने में अनुभवहीन थे। इन कारणों से भी, पंचायती खेतों की प्रगति रुकती थी। पंचायती खेतों के किसान कल तक निजी खेती करने वाले किसान थे। उन्हें छोटे खेतों में किसानी का तजुर्बा था, लेकिन बड़े, पंचायती खेतों का प्रबंध करने का कोई तजुर्बा न था। यह तजुर्बा एक दिन में हासिल न हो सकता था।
इसलिये, पंचायती खेती के काम की शुरू की मंजिलों में गंभीर दोष पाये गये। यह देखा गया कि पंचायती खेतों में काम का संगठन अब भी बुरा है। श्रम सम्बन्धी अनुशासन ढीला है। बहुत से पंचायती खेतों में आमदनी का बँटवारा काम के दिनों के हिसाब से नहीं होता, बल्कि कुनबे में खाने वालों की तादाद के हिसाब से होता था। अक्सर ऐसा होता था कि ईमानदारी से सख्त मेहनत करने वाले पंचायती किसानों के मुक़ाबिले में ढील डालने वाले ज्यादा हिस्सा पाते थे। पंचायती खेतों के प्रबंध के इन दोषों से, उनके सदस्यों की पहल-क़दमी घटती थी। बहुत बार ऐसा होता था कि ऐन मौसिम के दिनों में भी पंचायती खेतों के सदस्य काम से ग़ैरहाजिर हो जाते थे और फ़सल का एक हिस्सा ठंड में बर्फ़ गिरने तक भी बिना काटे पड़ा रहने देते थे, और कटाई का काम इतनी लापरवाही से होता था कि बहुत सा ग़ल्ला बरबाद हो जाता था। मशीनों, घोड़ों और आम तौर से काम के बारे में व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी न होने से, पंचायती खेत कमज़ोर हो जाते थे और उनकी आमदनी कम हो जाती थी।
हालत खास तौर पर तब खराब होती थी जब कुलक या उनके गुर्गे पंचायती खेतों में घुस आते थे और वहाँ विश्वास की जगहें पा जाते थे। यह बात अनूठी न थी कि कुलक उन ज़िलों में चले जायें जहाँ लोग उन्हें जानते न थे, और वहाँ पंचायती खेतों में तोड़-फोड़ करने और शरारत करने के निश्चित इरादे से उनमें घुस जायें। कभी-कभी पार्टी कार्यकत्र्ताओं और सोवियत कर्मचारियों की चैकसी के अभाव में, कुलक अपने ही जिलों के पंचायती खेतों में पैठ जाते थे। पंचायती खेतों में भूतपूर्व कुलकों का घुसना इसलिये आसान हो गया कि उन्होंने अपने दाँव-पेच बुनियादी तौर से बदल दिये थे। पहले वे पंचायती खेतों से खुलकर लड़े थे, उन्होंने पंचायती खेतों के प्रमुख कार्यकत्र्ताओं और सबसे आगे बढ़े हुए पंचायती किसानों पर निर्दयता से जुत्म किये थे, नीचता से उनकी हत्या की थी, उनके घर और खलिहान जला दिये थे। उन्होंने सोचा था कि इन तरीकों से वे आम किसानों को डरा देंगे और उन्हें पंचायती खेतों में शामिल होने से रोक लेंगे। पंचायती खेतों के खिलाफ़ उनकी यह खुली लड़ाई असफल हो गयी थी, इसलिये उन्होंने अपने दाँव-पेच बदल दिये थे। उन्होंने अपनी भरी हुई बंदूकंे अगल रख दी थीं और ऐसे सीधे-सादे, भोले-भाले बन गये जो चींटी पर भी पाँव न रखें। वे सोवियतों के वफ़ादार समर्थक बनने का बहाना करने लगे। एक बार पंचायती खेतों में घुस आने पर, वे चोरी-चोरी तोड़-फोड़ करते रहते थे। वे कोशिश करते थे कि पंचायती खेतों को भीतर से तोड़ें, श्रम सम्बन्धी अनुसाशन कमज़ोर करें और फ़सल का हिसाब-किताब गड़बड़ करें, और जो काम किया जाये, उसका हिसाब बिगाड़ दें। उनकी नीच योजना का यह एक अंग था कि पंचायती खेतों के घोड़ों में गलतोड़, खाज और दूसरी छूत की बीमारियां लगाकर उन्हें मार डालें, या उनकी देखभाल न करके या ऐसे ही दूसरे उपायों से उन्हें अपाहिज़ कर दें। इन कामों में, वे अक्सर सफल भी होते थे। उन्होंने ट्रैक्टरों और खेतों की मशीनों को नुकसान पहुँचाया।
कुलक अक्सर पंचायती खेतों के किसानों को इसलिये धोखा दे लेते थे और बिना सजा पाये तोड़-फोड़ कर जाते थे कि पंचायती खेत अब भी कमज़ोर थे और उनके कर्मचारी अभी अनुभवहीन थे।
कुलकों की तोड़-फोड़ खत्म करने के लिये और पंचायती खेतों को जल्द मज़बूत करने के लिये, उन्हें आदमी, सलाह और नेतृत्व के रूप में तुरंत ही कारगर मदद देनी ज़रूरी थी।
यह मदद बोल्शेविक पार्टी से मिलने वाली थी।
पार्टी के केन्द्रीय समिति ने जनवरी 1933 में, पंचायती खेतों के लिये काम करने वाले मशीन और ट्रैक्टर स्टेशनों में राजनीतिक विभाग संगठित करने का फ़ौसला किया। लगभग 17,000 पार्टी कार्यकत्र्ता इन राजनीतिक विभागों में काम करने के लिये और पंचायती खेतों की सहायता करने के लिये देहात भेजे गये।
यह सहायता बहुत ही कारगर हुई।
दो वर्षों (1933 और 1934) में, मशीन और ट्रैक्टर स्टेशनों के राजनीतिक विभागों ने पंचायती किसानों का एक सक्रिय दल बनाने में, पंचायती खेतों के काम के दोष दूर करने में, उन्हें मज़बूत करने में और कुलक शत्रुओं और तोड़-फोड़ करने वालों से उन्हें मुक्त करने में बहुत सा काम किया।
राजनीतिक विभागों ने अपना काम सम्मान सहित पूरा किया। उन्होंने संगठन और योग्यता, दोनों ही तरह से पंचायती खेतों को मज़बूत किया, उनके लिये कुशल कार्यकत्र्ता तैयार किये, उनका प्रबंध सुधारा और पंचायती खेतों के सदस्यों की राजनीतिक सतह ऊंची की।
पंचायती खेतों को मज़बूत करने में, पंचायती किसानों को प्रेरणा देने में, पंचायती खेतों के अग्रिम कार्यकत्र्ताओं की पहली अखिल संघीय कांग्रेस (फ़रवरी 1933), और इस कांगे्रस में काँमरेड स्तालिन के भाषण का बहुत महत्व था।
देहात की पुरानी, पंचायती खेतों से पहले की व्यवस्था की नयी, पंचायती खेतों की व्यवथा से तुलना करते हुए, काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"पुरानी व्यवस्था में, हर किसान अलग-थलग काम करता था, अपने बाप-दादों के पुराने तरीकों पर ही चलता था और मेहनत के पुराने पड़ चुके औज़ार इस्तेमाल करता था। वह ज़मींदारों और पूंजीपतियों के लिये, कुलकों और मुनाफ़ाखारों के लिये काम करता था और दूसरों को अमीर बनाते हुए, ग़रीबी में दिन काटता था। नयी, पंचायती खेती की व्यवस्था में, किसान मिलजुल कर, परस्पर सहयोग से काम करते हैं, आधुनिक औज़ारों - ट्रैक्टरों और खेती की मशीनों - की मदद से काम करते हैं। वे अपने लिये और पंचायती खेतों के लिये काम करते हैं। वे पूंजीपतियों और ज़मींदारों के बिना, कुलकों और मुनाफ़ाखोरों के बिना रहते हैंै। वे अपनी खुशहाली और संस्कृति का स्तर दिन प्रतिदिन ऊँचा करने के उद्देश्य से काम करते हैं।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 443)।
काँमरेड स्तालिन ने अपने भाषण में बतलाया कि पंचायती खेती का रास्ता अपनाने से किसानों ने क्या पाया है। बोल्शेविक पार्टी ने लाखों ग़रीब किसानों की मदद की थी कि वे पंचायती खेतों में शामिल हों और कुलक-दासता से बच सकें। पंचायती खेतों में शामिल होकर और काम के लिये सबसे बढ़िया ज़मीनें और पैदावार के सबसे अच्छे साधन इस्तेमाल करके, वे लाखों ग़रीब किसान जो पहले ग़रीबी में दिन काटते थे, अब पंचायती किसान बनकर मध्यम किसानों की सतह तक उठ आये थे, और अब उन्हें रोटी-रोज़ी की चिन्ता न रह गयी थी।
पंचायती खेतों के विकास में यह पहला कदम था, पहली सफलता थी।
काँमरेड स्तालिन ने कहा कि दूसरा क़दम यह है कि पंचायती किसानों को – पहले के ग़रीब किसानों और पहले के मध्यम किसानों, दोनों को ही - और भी ऊँचे स्तर तक उठाया जाये, सभी पंचायती किसानों को खुशहाल और सभी पंचायती खेतों को बोल्शेविक बनाया जाये।
काँमरेड स्तालिन ने कहा:
"पंचायती किसानों को खुशहाल बनाने के लिये सिर्फ़ एक चीज़ करना ज़रूरी है और वह यह कि वे पंचायती खेतों में पूरी ईमानदारी से काम करें, वे ट्रैक्टरों और मशीनों से योग्यतापूर्वक काम लें, काश्त के जानवरों का योग्यता से इस्तेमाल करें, योग्यता से ज़मीन जोतें-बोयें और पंचायती खेतों की सम्पति की देखभाल करें।" (उपर्युक्त पृष्ठ 448)।
लाखों पंचायती किसानों पर काँमरेड स्तालिन के भाषण का गहरा असर पड़ा, और वपह पंचायती खेतों के लिये एक अमली कार्यक्रम बन गया।
1934 के आखिर तक पंचायती खेत सबल और अजेय शक्ति बन गये। सोवियत संघ के तीन-चैथाई किसान परिवार अभी भी उनमें शामिल थे और कुल खेती की 90 फिसदी ज़मीन अब तक उनमें आ चुकी थी।
1934 में ही, सोवियत गाँवों में 2,81,000 ट्रैक्टर और 32,000 हार्वेस्टर कम्बाइन मशीनें काम करती थीं। उस साल, चैत की बुवाई 1933 के मुक़ाबिल में 15-20 दिन पहले पूरी हो गयी, और 1932 के मुक़ाबिले में 30-40 दिन पहले पूरी हो गयी। राज्य को ग़ल्ला देने की योजना 1932 से तीन महीने पहले ही पूरी हो गयी।
इससे ज़ाहिर होता था कि पार्टी से और मज़दूर-किसान राज्य से भारी सहायता मिलने की बदौलत दो साल में पंचायती खेत कितनी मज़बूती से क़ायम हो गये थे।
पंचायती खेती की व्यवस्था की पक्की जीत से और उसके साथ होने वाले खेती के सुधार से, सोवियत सरकार अन्न और दूसरी तमाम उपज का राशन खत्म कर सकी और खाद्य-सामग्री की बेरोक बिक्री चालू कर सकी।
मशीनों और टैªक्टर स्टेशनों के राजनीतिक विभाग जिस काम के लिये अस्थायी रूप से बनाये गये थे वह पूरा हो गया था। इसलिये, केन्द्रीय समिति ने फ़ैसला किया कि अपनी-अपनी जगह ज़िला पार्टी समितियों में मिलाकर, उन्हें साधारण पार्टी संस्थाएँ बना दिया जाये।
खेती और उद्योग-धंधे, दोनों ही में यह सभी सफलतायें इसी वजह से हुई कि पंचवर्षीय योजना क़ामयाबी से पूरी की जा चूकी थीं।
1933 के आरम्भ होने तक, यह स्पष्ट हो गया था कि पहली पंचवर्षीय योजना समय से पहले पूरी हो चुकी है, 4 साल 3 महीने में पूरी हो चुकी है।
सोवियत संघ के मज़दूर वर्ग और किसानों के लिये, यह एक महान् और युगान्तरकारी विजय थी।
जनवरी 1933 में, केन्द्रीय समिति और पार्टी के केन्द्रीय कन्ट्रोल-कमीशन की प्लीनरी बैठक में रिपोर्ट देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने पहली पंचवर्षीय योजना के नतीजों का सिंहावलोकन किया। रिपोर्ट ने यह बात साफ कर दी कि पहली पंचवर्षीय योजना को पूरा करने की अवधि में, पार्टी और सोवियत सरकार ने नीचे लिखे हुए बड़े नतीजे हासिल किय थे:
(क) सोवियत संघ खेतिहर देश से औद्योगिक देश बनाया जा चुका था, क्योंकि औद्योगिक उपज देश की तमाम पैदावार की 70 फ़ीसदी तक पहुँच गयी थी।
(ख) समाजवादी आर्थिक व्यवस्था ने उद्योग-धंधों के क्षेत्र में पूंजीवादी तत्वों को खत्म कर दिया था, और अब वह उद्योग-धंधों में एकमात्र आर्थिक व्यवस्था रह गयी थी।
(ग) समाजवादी आर्थिक व्यवस्था ने 'वर्ग रूप' में कुलकों को खेती के क्षेत्र से बाहर कर दिया था और वह खेती में प्रमुख शक्ति बन गयी थी।
(घ) पंचायती खेती की व्यवस्था ने गाँव में दरिद्रता और अभाव खत्म कर दिया था और लाखों ग़रीब किसान रोजी-रोटी की चिन्ता से मुक्त होने की सतह तक आ गये थे।
(ड.) उद्योग-धंधों में, समाजवादी व्यवस्था ने बेकारी खत्म कर दी थी और कई शाखाओं में आठ घंटे का दिन क़ायम रखते हुए, बाक़ी तमाम धंधों में सात घंटे का दिन और अस्वास्थ्यकर कामों में छः घंटे का दिन चालू कर दिया था।
(च) राष्ट्रीय अर्थतंत्र की सभी शाखाओं में, समाजवाद की जीत ने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म कर दिया था।
पहली पंचवर्षीय योजना की सफलताओं का सार-तत्व यह था कि उन्होंने मज़दूरों और किसानों को शोषण के जुएं से पूरी तरह आज़ाद कर दिया था, और सोवियत संघ में सभी कामकाजी जनता के लिये खुशहाल और सुसंस्कृत जीवन का दरवाजा खोल दिया था।
जनवरी 1934 में, पार्टी ने सत्रहवीं कांग्रेस की। इसमें 18,74,488 पार्टी सदस्यों और 9,35,298 उम्मीदवार सदस्यों की तरफ़ से 1,225 वोट देने वाले प्रतिनिधि और 736 बोलने लेकिन वोट न दे सकने वाले प्रतिनिधि शामिल हुए।
पिछली कांग्रेस से अब तक पार्टी ने जो काम किया था, कांग्रेस ने उसका लेखा-जोखा लिया। आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के सभी अंगों में समाजवाद ने जो निर्णायक सफलतायें पायी थीं, कांग्रेस ने उन्हें नोट किया और यह बात भी दर्ज की कि पार्टी की आम नीति सारे मोर्चे पर विजयी हुई है।
इतिहास में, सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस 'विजेताओं की कांग्रेस' कहलाती है। केन्द्रीय समिति के काम की रिपोर्ट देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने बताया कि जिस दौर का लेखा-जोखा लिया जा रहा है उसमें सोवियत संघ के अन्दर कौन से बुनियादी परिवर्तन हुए हैं:
"इस दौर में, सोवियत संघ मूल रूप से बदला जा चुका है और पिछड़ेपन और मध्य काल की केंचुल उतार कर फेंक चुका है। खेतिहर देश से, अब वह औद्योगिक देश बन गया है। छोटे पैमाने की निजी खेती के देश से, वह पंचायती, मशीनों से होने वाली बड़े पैमाने की खेती का देश बन गया है। एक अपढ़, अज्ञानी और असंस्कृत देश से, वह शिक्षित और सुसंस्कृत देश बन गया है - या कहना चाहिये बन रहा है - जिसमें उच्च, माध्यमिक और प्राथमिक स्कूलों का एक विशाल जाल बिछा हुआ है, जो सोवियत संघ की जातियों की भाषाओं में शिक्षा देते हैं।" (स्तालिन, लेनिनवाद की समस्यायें, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 470)।
इस समय तक, देश के 99 फ़ीसदी उद्योग-धंधे समाजवादी हो चुके थे। समाजवादी खेती - पंचायती और सरकारी खेतों - में, देश की कुल खेती की भूमि का 90 फ़ीसदी हिस्सा आ गया था। जहाँ तक व्यापार का सवाल था, इस क्षेत्र से पूंजीवादी तत्व पूरी तरह निकाले जा चुके थे।
जब नयी आर्थिक नीति शुरू की जा रही थी, तब लेनिन ने कहा था कि हमारे देश में पांच सामाजिक आर्थिक रूपों के तत्व हैं। पहला रूप दादापंथी आर्थिक व्यवस्था का था, जो बहुत करके आर्थिक व्यवस्था का कुदरती रूप था, यानी जिसमें प्रायः कुछ भी व्यापार न होता था। दूसरा रूप छोटे पैमाने के बिकाऊ माल की पैदावार का था। यह रूप अधिकांश खेतों में देखा जाता था, जो अपनी खेती की उपज बेचते थे और कारीगरों के रूप में भी यह व्यवस्था देखी जाती थी। नेप के पहले वर्षों में, अधिकांश आबादी इसी आर्थिक रूप में शामिल थीं। तीसरा रूप व्यक्तिगत पूंजीवाद का था, जो नेप के प्रारंभिक दौर में फिर जागने लगा था। चैथा रूप रियासती पूंजीवाद का था, मुख्यतः रियायतों की शक्ल में, जो काफ़ी हद तक विकसित न हुआ था। पांचवां रूप समाजवाद का था: समाजवादी उद्योग-धंधे जो अभी कमज़ोर थे, सरकारी और पंचायती खेत, जो नेप के आरम्भ में आर्थिक दृष्टि से नगण्य थे, सरकारी व्यापार और सहकार समितियाँ, जो उस समय कमज़ोर थीं।
लेनिन ने कहा था कि इन सभी रूपों में समाजवादी रूप को सबसे आगे आना चाहिये।
नयी आर्थिक नीति यों बनायी गयी थी कि आर्थिक व्यवस्था के समाजवादी रूपों की पूरी जीत हो।
सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस के समय तक, यह उद्देश्य पूरा भी हो चुका था।
काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"हम अब कह सकते हैं कि पहला, तीसरा और चैथा सामाजिक आर्थिक रूप अब नहीं है। दूसरा सामाजिक आर्थिक रूप गौण जगह ठेल दिया गया है, और पाँचवां सामाजिक आर्थिक रूप - समाजवादी रूप - अव सर्वेसर्वा बन गया है, और समूचे राष्ट्रीय अर्थतंत्र में एकमात्र प्रभावशाली शक्ति बन गया है।"
(उपÛ, पृष्ट 472)।
काँमरेड स्तालिन की रिपोर्ट में, सैद्धान्तिक-राजनीतिक नेतृत्व के सवाल को अहम जगह दी गयी थी। उन्होंने पार्टी को चेतावनी दी थी कि हालाँकि उसके दुश्मन, सभी रंग-रूप के अवसरवादी और राष्ट्रवादी भटकाव वाले हराये जा चुके हैं, लेकिन उनकी विचारधारा के अवशेष अब भी कुछ पार्टी सदस्यों के दिमाग़ में बाक़ी हैं, और अक्सर आगे आ जाते हैं। आर्थिक जीवन में और खास तौर से लोगों के दिमाग में, पूंजीवाद के अवशेष एक ऐसी उपजाऊ भूमि है जहाँ हारे हुए लेनिनवाद-विरोधी गुटों की विचारधारा पनपती है। लोगों की जहनियत उनकी आर्थिक हालत के विकास के साथ नहीं बढ़ती चलती। नतीजा यह होता है कि पूंजीवादी विचारों के अवशेष लोगों के दिमाग़ में फिर भी थे, और तब भी रहेंगे जबकि पूंजीवाद आर्थिक जीवन से खत्म भी कर दिया जायेगा। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि चारों तरफ़ की पूंजीवादी दुनिया, जिसके खिलाफ़ हमें अपनी तलवार का पानी बनाये रखना है, इन अवशेषों को जगाने और पालने-पोसने की कोशिश कर रही थी।
काँमरेड स्तालिन ने जातियों के सवाल पर लोगों के दिमाग़ में जो पूंजीवाद के अवशेष थे और जहाँ उनकी जड़ें खास तौर से मज़बूत थीं, उनकी भी चर्चा की। बोल्शेविक पार्टी दो मोर्चो पर लड़ रही थी, वृहत् रूसी अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ़ और स्थानीय राष्ट्रवाद के खि़लाफ, दोनों ही भटकावों से लड़ रही थी। कई प्रजातंत्रों में (उक्रैन, बेलोरूसिया, वगैरह में) पार्टी-संगठनों ने स्थानीय राष्ट्रवाद के खिलाफ़ संघर्ष ढीला कर दिया था और उसे इस हद तक बढ़ जाने दिया था कि वह जन विरोधी शक्तियों से, हस्तक्षेप की शक्तियों से मिल गया था और राज्य के लिये खतरा बन गया था। जातियों के सवाल पर कौन सा भटकाव ज़्यादा खतरनाक है, इस सवाल का जवाब देते हुए, काँमरेड स्तालिन ने कहा था:
"ज्यादा खतरनाक भटकाव वह है जिसके ख़िलाफ़ हमने लड़ना बन्द कर दिया है, और इस तरह उसे राज्य के लिये खतरा बन जाने दिया है।" (उपÛ, पृष्ठ 507)
काँमरेड स्तालिन ने पार्टी का आह्वान किया कि वह सैद्धान्तिक-राजनीतिक काम में और सक्रिय हो, विरोधी वर्गों की विचारधारा और उसके अवशेषों का और लेनिनवाद के विरोधी रुझानों का बाक़ायदे पर्दाफाश करें।
उन्होंने अपनी रिपोर्ट में, आगे बताया कि सही फ़ैसले लेने से ही सफलता पक्की नहीं हो जाती। सफलता पक्की करने के लिये, यह ज़रूरी है कि ठीक आदमी ठीक जगह पर रखे जायें, ऐसे आदमी जो प्रमुख संस्थाओं के फ़ैसलों को अमल में ला सकें और फ़ैसले पूरे करने की निगरानी कर सकें। इन संगठनात्मक उपायों के बिना, यह खतरा था कि फ़ैसले अमली जीवन से जुदा रह कर काग़ज के टुकड़े भर बने रहें। इस बात के समर्थन में, काँमरेड स्तालिन ने लेनिन की इस प्रसिद्ध उक्ति का हवाला दिया कि संगठन के काम में मुख्य बात आदमियों का चुनाव और फ़ैसले पूरे करने की निगरानी है। काँमरेड स्तालिन ने कहा कि जो फ़ैसले लिये जाते हैं और उन्हें अमल में लाने के लिये और उन्हें पूरा करने की निगरानी रखने के लिये जो संगठनात्मक काम किया जाता है, उनके बीच की दरार हमारे अमली काम का मुख्य दोष है।
पार्टी और हुकूमत के फ़ैसलों को पूरा करने की और उनकी अच्छी देखभाल रखने के लिये, सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस ने सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) के आधीन एक पार्टी कन्ट्रोल-कमीशन बनाया और सोवियत संघ की जन-कमिसार समिति के आधीन एक सोवियत कंट्रोल-कमिसन बनाया। इन्होंने मज़दूर-किसान निगरानी और केन्द्रीय कन्ट्रोल-कमीशन की संयुक्त संस्था की जगह ली। बारहवीं पार्टी कांग्रेस ने जिस काम के लिये यह संस्था बनायी थी, वह काम पूरा हो चुका था।
काँमरेड स्तालिन ने नयी मंजिल में पार्टी के संगठनात्मक कामों की रूप-रेखा इस तरह समाने रखी थीं:
(1) हमारा संगठनात्मक काम पार्टी की राजनीतिक नीति की ज़रूरतों के अनुकूल होना चाहिये;
(2) संगठनात्मक नेतृत्व को राजनीतिक नेतृत्व की सतह तक उठाना चाहिये;
(3) संगठनात्मक नेतृत्व को पूरी तरह इस योग्य बनाना चाहिये कि वह पार्टी के राजनीतिक नारों और फ़ैसलों को निश्चित रूप से अमल में ला सकें।
अंत में, काँमरेड स्तालिन ने पार्टी को सावधान किया कि हालाँकि समाजवाद ने भारी सफलताएँ प्राप्त की हैं, ऐसी सफलतायें जिन पर हम सही गर्व कर सकते हैं, लेकिन इससे हमें बदहवास न होना चाहिये, अपना 'सिर न फिर जाने देना चाहिये', सफलता पर पाँव फैलाकर सो न जाना चाहिये।
काँमरेड स्तालिन ने कहा:
"...हमें पार्टी को थपकी देकर सुलाना न चाहिये, बल्कि उसकी चैकसी तेज करनी चाहिये; उसे थपकी देकर सुलाना न चाहिये, बल्कि काम करने के लिये उसे तैयार रखना चाहिये; उसे निहत्थी न करना चाहिये, बल्कि हथियारबन्द करना चाहिये; उसे भंग न करना चाहिये, बल्कि दूसरी पंचवर्षीय योजना पूरी करने के लिये उसे मुस्तैद रखना चाहिये।"(उपÛ, पृष्ठ 517)
राष्ट्रीय अर्थतंत्र के विकास के लिये, दूसरी पंचवर्षीय योजना पर सत्रहवीं कांग्रेस ने काँमरेड मोलोतोव और कुइविशेव की रिपोर्टे सुनीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना का कार्यक्रम पहली पंचवर्षीय योजना से भी बड़ा था। 1937 में, दूसरी पंचवर्षीय योजना पूरी होने तक युद्ध-पूर्व के मुक़ाबिले में, औद्योगिक उपज लगभग आठ गुनी बढ़ानी थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौर में, सभी शाखाओं में लगायी हुई पूंजी 1 खरब 33 अरब रूबल होनी थी, जबकि पहली पंचवर्षीय योजना के दौर में 64 अरब रूबल से कुछ ही अधिक पूंजी लगी थी।,
बडे़ पैमाने के इस नये निर्माण-कार्य का विशाल दायरा यह बात निश्चित करता था कि राष्ट्रीय अर्थतंत्र की सभी शाखायें फिर पूरी तरह कौशल से लैस हो जायें।
दूसरी पंचवर्षीय योजना को मुख्यतः खेती में मशीनें लागू करने का काम पूरा करना था। कुल ट्रैक्टर शक्ति 1932 में 22 लाख 50 हजार हाॅर्स पावर से बढ़कर, 1937 में 80 लाख हाॅर्स पावर से ऊपर पहुँचानी थी। इस योजना में, खेती के वैज्ञानिक तरीक़ों का विस्तार से प्रयोग करने का ख्याल रखा गया था (फ़सलों की सही (अदल-बदल), चुने हुए बीज का प्रयोग, शरद् में जुताई, वग़ैरह)।
यातायात और चिट्ठी-पत्री के साधनों को कौशल से पुनर्संगठित करने के लिये, एक विशाल योजना बनायी गयी।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में, मज़दूरों और किसानों के भौतिक और सांस्कृतिक जीवन-स्तर को और उन्नत करने के लिये एक विस्तृत कार्यक्रम बनाया गया।
सत्रहवीं कांग्रेस ने संगठन की बातों पर बहुत ध्यान दिया, और काँमरेड कगानोविच की रिपोर्ट के सिलसिले में पार्टी और सोवियतों के काम पर फ़ैसले मंजूर किये। अब, जबकि पार्टी की आम नीति विजयी हो चुकी थी और पार्टी की नीति लाखों मज़दूरों और किसानों के तजुर्बे से परखी और कसी जा चुकी थी, तब संगठन का सवाल और भी महत्वपूर्ण हो गया था। दूसरी पंचवर्षीय योजना के नये और पेचीदा काम पूरे करने के लिये, यह ज़रूरी था कि सभी क्षेत्रों में काम का स्तर ऊँचा किया जाये।
संगठनात्मक सवालों पर कांग्रेस के फ़ैसलों में कहा गया था:
"दूसरी पंचवर्षीय योजना के मुख्य काम यह हैं - पूंजीवादी तत्वों को पूरी तरह खत्म करना, आर्थिक जीवन और लोगों के दिमाग़ से पूंजीवाद के अवशेष खत्म करना, आधुनिकतम कौशल के अनुसार सारे राष्ट्रीय अर्थतंत्र को पूरी तरह पुनर्संगठित करना, नये कौशल के सामान और नये धंधों का उपयोग करना सीखना, खेती में मशीनें चालू करना और उसकी पैदावार बढ़ाना। यह काम हमारे सामने बार-बार और जोरों से यह समस्या पेश करते हैं कि सभी क्षेत्रों में काम सुधारा जाये, और सबसे पहले अमली संगठनात्मक नेतृत्व का काम सुधारा जाये।" (सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) के प्रस्ताव, रूÛसंÛ, भाग 2, पृष्ठ 591)।
सत्रहवीं कांग्रेस ने नयी पार्टी नियमावली मंजूर की। यह नियमावली पहले की नियमावली से सबसे पहले इस बात में भिन्न थी कि इसमें एक भूमिका थी। इस भूमिका में, कम्युनिस्ट पार्टी की थोड़े में व्याख्या की गयी है और सर्वहारा संघर्ष में उसकी भूमिका और सर्वहारा डिक्टेटरशिप की व्यवस्था में उसकी जगह की व्याख्या की गयी है। नयी नियमावली में, विस्तार से पार्टी सदस्यों के कत्र्तव्य बताये गये हैं। नये सदस्यों को भर्ती करने के बारे में नियम और कठोर कर दिये गये और हमदर्दों के गुटों के बारे में एक धारा जोड़ दी गयी। इस नयी नियमावली से, पार्टी-संगठन की बनावट की विस्तृत व्याख्या मिलती थी। इसमें पार्टी केन्द्रों, या जैसा कि सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस के बाद उनका नाम पड़ गया है, प्राथमिक संगठनों के बारे में धारायंे फिर से लिखी गयी थीं। पार्टी के अन्दरूनी जनवाद और पार्टी अनुशासन से सम्बन्धित धाराओं को भी फिर से लिखा गया था।
4. बुखारिनपंथियों का राजनीतिक दगेबाजी तक उतरना। त्रात्स्कीपंथी दगे़बाजों का हत्यारों और जासूसों का एक गद्दार गुट बनना। स.म. किरोव की नीच हत्या। बोल्शेविक चैकसी बढ़ाने के लिये पार्टी के उपाय।
हमारे देश में समाजवाद की सफलताओं से, न सिर्फ पार्टी को खुशी हुई, न सिर्फ़ मज़दूरों और पंचायती किसानों को खुशी हुई, बल्कि सोवियत बुद्धिजीवियों को और सोवियत संघ के सभी ईमानदार नागरिकों को भी खुशी हुई।
लेकिन, हराये हुए शोषक वर्गों के बचे-खुचे लोगों को इनसे खुशी न हुई, उल्टे जैसे-जैसे समय बीतता गया वे और भी जलभून कर राख होते गये। पराजित वर्गों के पिट्ठू, बुखारिन और त्रात्स्की के अनुयायियों में से बचे-खुचे टुटपुँजिये आपे से बाहर होते गये।
ये लोग मज़दूरों और पंचायती किसानों की सफलताओं का मूल्य जनता के हितों को ध्यान में रखकर न आँकत थे। जनता हर सफलता का हर्ष से अभिनन्दन करती थी। ये लोग इन सफलताओं का मूल्यांकन उस पतित और सड़े-गले गुट को ध्यान में रखकर करते थे जिसका जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध न रह गया था। हमारे देश में, समाजवाद की सफलताओं का मतलब था - पार्टी नीति की जीत और इन लोगों की नीति का निरा दिवालियापन। इसलिये, ये सज्जन खुली हक़ीकत को मानने और सार्वजनिक उद्देश्य में मिलकर आगे बढ़ने के बदले पार्टी और जनता से अपनी असफलता का, अपने दिवालियेपन का बदला लेने लगे। मज़दूरों और पंचायती किसानों के उद्देश्य के खिलाफ़ वे तोड़-फोड़ और कमीनी हरक़तें करने लगे; खानों को बारूद से उड़ाने, कारखानों में आग लगाने और पंचायती और सरकारी खेतों में तोड़-फोड़ के काम करने लगे। उनका उद्देष्य यह था कि मज़दूरों और पंचायती किसानों की सफलताओं को नाकाम कर दिया जाये और सोवियत सरकार के खिलाफ़ जनता का असंतोष उभारा जाये। यह सब करते हुए, अपने पिद्दी गुट को भंडाफोड़ और सत्यानाष से बचाने के लिये, वे पार्टी के प्रति वफ़ादार होने का स्वांग करते थे, उसके तलुवे चाटते थे, उसकी तारीफ़ें करते थे, उसके सामने नाक रगड़ते थे और हक़ीकत में मज़दूरों और किसानों के खिलाफ़ चोरी से तोड़-फोड़ का काम किये चले जा रहे थे।
सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस में, बुखारिन, राइकोव और तोम्स्की ने पष्चाताप प्रकट करते हुए भाषण दिये, पार्टी की प्रषंसा की और उसकी सफलताओं की तारीफ़ के पुल बांध दिये। लेकिन, कांग्रेस ने देखा कि उनके भाषणों में बेईमानी और दगे़बाजी का स्वर छिपा हुआ है। पार्टी अपने सदस्यों से यह उम्मीद नहीं करती कि उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे और उसकी सफलताओं की प्रषंसा के गीत गायें, बल्कि यह उम्मीद करती है कि वे समाजवादी मोर्चे पर ईमानदारी से काम करें। और, बुखारिनपंथियों ने ऐसा करने का बहुत दिन से कोई ढंग ही न दिखाया था। पार्टी ने देखा कि इन सज्जनों के थोथे व्याख्यान दरअसल कांग्रेस से बाहर उनके समर्थकों के लिये हैं, जिससे कि वे दग़ेबाजी में सब़क सीखें और साथ ही हथियार भी न डालें।
सत्रहवीं कांग्रेस में, जिनोवियेव और कामेनेव ने भी भाषण दिये। उन्होंने ग़लतियों के लिये अपनी बेहद लानत-मलामत की और पार्टी की सफलताओं के लिये उसकी बेहद तारीफ़ की। लेकिन, कांग्रेस से यह छिपा न रहा कि उनकी उबा देने वाली लानत-मलामत और पार्टी की उनके द्वारा खुषामदी तारीफ़ उनकी बेचैन और बेईमान आत्मा को छिपाने के लिये ही थी। फिर भी, पार्टी अभी यह न जानती थी और न उसे यह षक था कि कांग्रेस में अपने मीठे-मीठे भाषण करने वाले यह लोग तभी सÛमÛ किरोव के जीवन के खिलाफ़ एक नीच षड्यंत्र भी रच रहे थे।
1 दिसम्बर 1934 को, सÛमÛ किरोव लेनिनग्राद में, स्मोल्नी में पिस्तौल की गोली से नीचतापूर्वक मारे गये। हत्यारा अपना काम करते हुए ही पकड़ लिया गया। वह एक गुप्त क्रान्ति-विरोधी गुट का सदस्य निकला। इस गुट के लोग लेनिनग्राद में ज़िनोवियेवपंथियों के एक सेावियत-विरोधी गुट के सदस्य थे।
सÛमÛ किरोव को पार्टी और मज़दूर वर्ग प्यार करते थे। उनकी हत्या से, जनता में भारी हलचल हुई। सारे देश में, गुस्से और भारी क्षोभ की लहर फैल गई।
जाँच-पड़ताल से मालूम हुआ कि 1933 और 1934 में लेनिनग्राद में एक गुप्त क्रान्ति-विरोधी आतंकवादी गुट कायम हुआ था। इसमें ज़िनोवियेव-विरोध के भूतपूर्व सदस्य थे, और इनके सिरे पर तथाकथित 'लेनिनग्राद केन्द्र' था। इस गुट का उद्देश्य कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं की हत्या करना था। उन्होंने अपना पहला शिकार सÛमÛ किरोव को चुना। इस क्रान्ति-विरोधी गुट के सदस्यों की गवाही से पता चला कि उनका सम्बन्ध विदेशी पूंजीवादी रियासतों के प्रतिनिधियों से है, और उनसे उन्हें पैसा मिलता है।
सोवियत संघ की प्रधान अदालत के फौजी न्यायालय ने इस संगठन के उन सदस्यों को सबसे बड़ा दण्ड, गोली मारने का दण्ड दिया, जिनका पर्दाफ़ाश हो चुका था।
कुछ दिन बाद ही, 'मास्को केन्द्र' नाम के एक गुप्त क्रान्ति-विरोधी संगठन की हक़ीकत का पता चला। शुरू की ही जाँच-पड़ताल और मुक़दमे से, पता चला कि ज़िनोवियेव, कामेनेव, येवदोकिमोव और इस संगठन के दूसरे नेताओं ने अपने अनुयायियों में आतंकवादी ज़हनियत पैदा करने और पार्टी की केन्द्रीय समिति और सोवियत सरकार के सदस्यों की हत्या का षड्ंयत्र रचने में नीचतापूर्ण भूमिका अदा की है।ये लोग दग़ेबाजी और पाजीपन की इस सतह तक उतर आये थे कि ज़िनोवियेव ने, जोकिरोव की हत्या का एक संगठनकत्र्ता और उकसानेवाला था और जिसने हत्यारे से जल्द ही अपना काम करने को कहा था, किरोव की मृत्यु पर उनकी बहुत तारीफ़ करते हुए एक संवेदनापूर्ण लेख लिखा था और यह माँग की थी कि वह प्रकाशित किया जाये।
ज़िनोवियेवपंथियों ने अदालत में पश्चाताप करने का स्वाँग किया, लेकिन कठघरे में भी वे अपनी दुरंगी चालों से बाज न जाये। उन्होंने त्रात्स्की से अपना सम्बन्ध छिपाया। उन्होंने यह बात छिपायी कि त्रात्स्कीवादियों के साथ उन्होंने भी अपने को फ़ासिस्ट जासूस-विभागों के हाथ बेच दिया है। उन्होंने अदालत से यह बात छिपायी कि बुखारिनपंथियों से उनका सम्बन्ध है और फ़ासिस्ट गुर्गों का एक संयुक्त त्रात्स्की-बुखारिन गुट बना हुआ है।
जैसा कि आगे पता चला, काँमरेड किरोव की हत्या इस संयुक्त त्रात्स्की-बुखारिन गुट का काम था।
फिर भी, 1935 में, यह साफ हो गया था कि जिनोवियेव गुट एक छिपा हुआ ग़द्दार संगठन है, जिसके सदस्यों के साथ ग़द्दारों जैसा व्यवहार करना बिल्कुल उचित होगा।
एक साल बाद, पता चला कि किरोव की हत्या के सही-सही, वास्तविक और सीधे संगठनकर्ता त्रात्स्की, ज़िनोवियेव, कामेनेव, और उनके साथी-संघाती थे और उन्होंने केन्द्रीय समिति के दूसरे सदस्यों की भी हत्या करने की तैयारी की थी। ज़िनोवियेव, कामेनेव, बकायेव, येवदोकिमोव, पिकेल, इÛनÛ स्मिरनोव, म्राचकोव्स्की, तेस्वगन्यान, राइनगोल्ड, वग़ैरह पर मुक़दमा चला। प्रत्यक्ष सबूत सामने होने पर, उन्हें सरेआम खुली अदालत में मंजूर करना पड़ा कि उन्होंने किरोव की हत्या का ही संगठन न किया था बल्कि पार्टी और हुकूमत के तमाम दूसरे नेताओं की हत्या की भी योजना बना रहे थे। बाद की जाँच-पड़ताल से, यह बात निश्चित हुई कि ये गुण्डे जासूसी के काम और तोड़-फोड़ के काम संगठित करने में लगे हुए थे। मास्को में, 1936 में जो मुक़दमा हुआ, उससे पता चला कि इन लोगों का कैसा भीषण नैतिक और राजनीतिक पतन हुआ है, इनकी घृणित गुण्डागीरी और ग़द्दारी क्या है, जिसे पार्टी के प्रति वफ़ादारी की झूठी क़समें खाकर उन्होंने छिपाया था।
हत्यारों और जासूसों के इस गिरोह का सरगना और खास भड़काने वाला जूडास (विश्वासघाती) त्रात्स्की था। त्रात्स्की के क्रान्ति-विरोधी हुक्मों को अमल में लाने वाले उसके सहायक और दलाल ज़िनोवियेव, कामेनेव और उनके त्रात्स्कीवादी गुर्गे थे। वे इस बात की तैयारी कर रहे थे कि साम्राज्यवादी देश हमला करें तो सोवियत संघ को हरा दिया जाये। जहाँ तक कि मज़दूरों और किसानों के राज्य का सवाल था, वे पराजयवादी हो चुके थे। वे जर्मन और जापानी फ़ासिस्टों के घृणित चाकर और दलाल बन चुके थे।
सÛमÛ किरोव की नीच हत्या के लिये जिन लोगों पर मुक़दमें चले थे, उन से पार्टी-संगठनों को यह मुख्य सबक़ लेना था कि वे अपने राजनीतिक अंधेपन और राजनीतिक लापरवाही को दूर करें, और अपनी चैकसी तथा तमाम पार्टी सदस्यों की चैकसी बढ़ायें।
पार्टी-संगठनों के नाम सÛमÛ किरोव की नीच हत्या के विषय पर, एक गश्ती चिट्ठी में, पार्टी की केन्द्रीय समिति ने कहा था:
" (क) एक ग़लत धारणा बन गयी है कि हम जैसे मज़बूत होते जायेंगे, वैसे ही दुश्मन और भी पालतू और ज्यादा निर्दोष होता जायेगा। इससे जो अवसरवादी आत्मसंतोष की भावना पैदा होती है, हमें उसे खत्म करना चाहिये। यह धारणा बिल्कुल झूठी है। यह दक्षिणपंथी भटकाव का फिर से जागना है। यह भटकाव सभी को यक़ीन दिलाता था कि हमारे दुश्मन धीरे-धीरे समाजवाद की तरफ़ घिसट आयेंगे और अंत में सच्चे समाजवादी बन जायेंगे। बोल्शेविकों को अपनी सफलताओं पर संतोष करके हरगिज न बैठे रहना चाहिये। उन्हें अपनी तैनाती की जगह पर हरगिज न सोना चाहिये। हमें आत्मसंतोष नहीं चाहिये, बल्कि चैकसी सच्ची बोल्शेविक क्रान्तिकारी चैकसी चाहिये। यह याद रखना चाहिये कि दुश्मनों की हालत जितनी ही निराशाजनक होगी उतनी ही आतुरता से वे उग्र क़दम उठायेंगे, क्योंकि इसी को वे सोवित सत्ता के खि़लाफ मौत का वारंट पाने वालों की लड़ाई का एकमात्र चारा समझेंगे। हमें यह याद रखना चाहिये और चैकस रहना चाहिये।
"(ख) हमें इस बात का उचित संगठन करना चाहिये कि पार्टी सदस्यों को पार्टी इतिहास की शिक्षा दी जा सके, हमारी पार्टी के इतिहास में सभी पार्टी-विरोधी गुटों और पार्टी नीति से लड़ने के उनके तरीकों उनके दाँव-पेच और उससे भी ज्यादा पार्टी-विरोधी गुटों से लड़ने में हमारी पार्टी के दाँव-पेच और तरीकों के इतिहास का अध्ययन कराना चाहिये; उन तरीकों और दाँव-पेचों का अध्ययन कराना चाहिये जिनसे कि हमारी पार्टी इन गुटों को परास्त कर सकी और उनका नाश कर सकी। पार्टी सदस्यों को यही न जानना चाहिये कि किस तरह पार्टी ने काॅन्स्टीट्यूशनल डेमोक्रैटों, समाजवादी क्रान्तिकारियों, मेन्शेविकों और अराजकतावादियों का मुक़ाबिला किया और उन्हें परास्त किया, बल्कि यह भी कि उसने कैसे त्रात्स्कीवादियों, 'जनवादी-केन्द्रवादियों', 'मज़दूर-विरोध', ज़िनोवियेवपंथियों, दक्षिणपंथी भटकाव वालों और दक्षिणवामपंथी अजूबों, वगै़रह का मुक़ाबिला किया और उन्हें परास्त किया। यह कभी न भूलना चाहिये कि पार्टी सदस्यों की क्रान्तिकारी चैकसी पक्की करने के लिये हमारी पार्टी के इतिहास की जानकारी और समझ एक बहुत ही महत्वपूर्ण और ज़रूरी साधन है।"
1933 में, पार्टी की पांति से फ़ालतू और ऐरे-गै़रे लोगों को निकालना शुरू हुआ। यह शुद्धि बहुत ही महत्वपूर्ण थी। खास तौर से पार्टी सदस्यों के रिकार्ड को सावधानी से जाँचा गया, और सÛमÛ किरोव की नीच हत्या के बाद, पुराने पार्टी कार्डो के बदले नये कार्ड दिये गये। इसका बहुत ही महत्व था।
पार्टी सदस्यों के रिकार्ड की जाँच के पहले, बहुत से पार्टी-संगठनों में पार्टी कार्डों में बहुत ही लापरवाही और गै़रजिम्मेदारी बर्ती जाती थीं। कई संगठनों में पता चला कि कम्युनिस्टों की रजिस्ट्री करने में अराजकता एकदम असहनीय हो गयी है। इस तरह की हालत से, दुश्मन अपना नीच उद्देश्य साधते थे। पार्टी कार्ड लेकर वह उसे जासूसी, तोड़-फोड़, वग़ैरह के लिये पर्र्दे की तरह काम में लाते थे। पार्टी-संगठनों के बहुत से नेताओं ने नये सदस्य भर्ती करने और पार्टी कार्ड देने का काम छोटी जगहों के लोगों को दे रखा था और कभी-कभी उन पार्टी सदस्यों तक को दे रखा था जिनके विश्वासपात्र होने की परीक्षा भी न हुई थी।
13 मई 1935 को, पार्टी कार्डों की रजिस्ट्री, सुरक्षा और वितरण के बारे में तमाम संगठनों के नाम एक गश्ती चिट्ठी में, केन्द्रीय समिति ने उन्हें निर्देश किया कि सावधानी से पार्टी सदस्यों के रिकार्ड की जाँच करें और 'खुद अपनी पार्टी - अपने घर – में बोल्शेविक व्यवस्था क़ायम करें।'
पार्टी सदस्यों के रिकार्ड की जाँच बहुत ही राजनीतिक महत्व की बात थी। पार्टी सदस्यों के रिकार्ड की जाँच के नतीजों के सिलसिले में, पार्टी की केन्द्रीय समिति की प्लीनरी बैठक ने 25 दिसम्बर 1935 को एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें कहा गया कि यह जाँच सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की पाँति को मज़बूत करने में बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक और संगठनात्मक क़दम है।
पार्टी सदस्यों के रिकार्ड की जाँच और पार्टी कार्डो की तब्दीली के बाद, पार्टी में नये सदस्यों की भर्ती फिर शुरू हुई। इस सिलसिले में, सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की केन्द्रीय समिति ने माँग की कि पार्टी में नये सदस्य दल के दल न भर्ती किये जायें, बल्कि सख्ती के साथ उनकी अलग-अलग भर्ती हो, और भर्ती में इस बात का ध्यान रखा जाये कि वही लोग आयें "जो सचमूच आगे बढे़ हुए हैं और मज़दूर वर्ग के उद्देश्य के प्रति सचमुच वफ़ादार हैं। देश के सबसे अच्छे लोग, मुख्यतः मज़दूरों, किसानों और सक्रिय बुद्धिजीवियों में से भी, जो समाजवाद के लिये संघर्ष के विभिन्न मोर्चों पर परखे और कसे जा चुके हैं।"
पार्टी में नये सदस्यों की भर्ती फिर शुरू करने में केन्द्रीय समिति ने पार्टी-संगठनों को निर्देश दिया कि वे इस बात का ध्यान रखें कि विरोधी लोग सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की पाँति में घुस आने के लिये बराबर कोशिशें करते रहेंगे। इसलिये:
"हर पार्टी संगठन का काम है कि बोल्शेविक चैकसी ज्यादा से ज्यादा बढ़ायें, लेनिनवादी पार्टी का झंडा ऊंचा रखें और विरोधी, गै़र और फ़ालतू लोगों के भीतर घुस आने से पार्टी की पांति की रक्षा करें।" (सोÛसंÛकÛपाÛ(बोÛ) की केन्द्रीय समिति का प्रस्ताव, 29 सितम्बर 1936, प्राव्दा, अंक 270, 1936 में प्रकाशित)।
बोल्शेविक पार्टी ने अपनी पांति को शुद्ध किया और मज़बूत किया, पार्टी के शत्रुओं का नाश किया और निर्ममता से पार्टी नीति की तोड़-मरोड़ का मुकाबिला किया। इस तरह, बोल्शेविक पार्टी अपनी केन्द्रीय समिति के चारों तरफ़ और भी सिमट आयी, जिसके नेतृत्व में पार्टी और सोवितय देश ने एक नयी मंजिल में प्रवेश किया – एक वर्गहीन, सोशलिस्ट समाज के निर्माण को पूरा करने की मंजिल में प्रवेश किया।
सारांश
1930-'34 के दौर में, सत्ता हासिल करने के बाद सर्वहारा क्रान्ति की सबसे कठिन ऐतिहासिक समस्या को बोल्शेविक पार्टी ने हल किया, यानी लाखों निजी खेती करने वाले किसानों को पंचायती खेती की राह पर, समाजवाद की राह पर लाने की समस्या को हल किया।
शोषक वर्गों में सबसे बहुसंख्यक कुलकों के खात्में से और अधिकांश किसानों द्वारा पंचायती खेती का रास्ता अपनाने से, देश में पूंजीवाद की आखिरी जड़ें उखड़ गयीं, खेती में समाजवाद की आखिरी जीत हुई, और देहात में सोवियत सत्ता पूरी तरह मज़बूत हुई।
संगठन सम्बंधी कई कठिनाइयाँ दूर करने के बाद, पंचायती खेत मज़बूती से क़ायम हो गये और खुशहाली की राह पर आगे बढ़ने लगे।
पहली पंचवर्षीय योजना का फल यह हुआ कि प्रथम क्षेणी के समाजवादी उद्योग-धंधों के रूप में और मशीनों से होनेवाली पंचायती खेती के रूप में, हमारे देश में समाजवादी आर्थिक व्यवस्था की अडिग नींव डाली गयी, बेकारी खत्म की गयी, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण खत्म किया गया और हमारी श्रमिक जनता का भौतिक और सांस्कृतिक जीवन-स्तर बराबर ऊँचा करने के लिये परिस्थितियाँ रची गयीं।
ये विराट सफलतायें मज़दूर वर्ग ने, पंचायती किसानों और हमारे देश की आम मेहनतकश जनता ने पार्टी और सरकार की साहसी, क्रान्तिकारी और बुद्धिमान नीति की बदौलत हासिल कीं।
चारों तरफ़ की पूंजीवादी दुनिया सोवियत संघ की ताक़त तोड़ने और कमज़ोर करने की कोशिशें कर रही थीं। वह सोवियत संघ में तोड़-फोड़ करने वालों, हत्यारों और जासूसों के गिरोह संगठित करने में दूने ज़ोरशोर से लग गयी। जर्मनी और जापान में फ़ासिज्म के सत्तारूढ़ होने पर, पूंजीवादी घेरे की यह विरोधी कार्यवाही खास तौर से उभर कर सामने आयी। त्रात्स्कीवादियों और ज़िनोवियेवपंथियों में फ़ासिज्म को वफ़ादार चाकर मिले, जो जासूसी, तोड़-फोड़, आतंक और भड़काने के काम करने के लिये तैयार थे और पूंजीवाद को बहाल करने के लिये, सोवियत संघ की पराजय के लिये काम करने को तैयार थे सोवियत सरकार ने इन पतित लोगों को फ़ौलादी हाथ से दंड दिया और जनता के शत्रुओं और देश के प्रति ग़द्दारों के साथ निर्ममता से व्यवहार किया।
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