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Saturday, 22 August 2020

अध्याय ५, राज्य और क्रांति - लेनिन

अध्याय

राज्य के विलोप के आर्थिक आधा

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इस प्रश्न की सबसे पूर्ण व्याख्या  ने अपनी पुस्तक 'गोथा कार्य क्रम की अालोचना' में की है ( ब्राके के नाम , १८७ का पत्र , जो कहीं १८९१ में जाकर पहली बार Neue Zeit, IX, , में छपा था 

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और एक विशेष रूसी संस्करण के रूप में प्रकाशित हुआ है ) इस अनूठी कृति के खंडनात्मक भाग ने - जिसमें लासालवाद की आलोचना है - एक तरह से , उसके मंडनात्मक भाग को, याने कम्युनिज़्म के विकास और राज्य के विलोप के संबंध के विश्लेषण को दबा दिया है। 

. मार्क्स ने प्रश्न को किस तरह पेश किया था

ब्राके के नाम मई , १८७५ के मार्क्स के पत्र की तुलना यदि कोई बिलकुल ऊपरी दष्टि से बेबेल के ना २८ मार्च , १८७५ के एंगेल्स के उस पत्र से करे , जिस पर हम ऊपर विचार कर चुके हैं, तो उसे लग सकता है कि मार्क्स एंगेल्स की अपेक्षा कहीं अधिक "राज्य के पक्ष में" थे और राज्य के प्रश्न पर मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में बहुत काफ़ी फ़र्क था।

 एंगेल्स ने बेबेल को सुझाया था कि राज्य विषयक सारी बात ही उड़ा दी जाये, कार्यक्रम में से राज्य शब्द को बिलकूल निकाल दिया जाये और उसके स्थान पर "समुदाय" शब्द का प्रयोग किया जाये। एंगेल्स ने यहां तक कह दिया था कि कम्यून शब्द के सही अर्थ में राज्य रह ही नहीं गया था। लेकिन मार्क्स ने फिर भी "कम्युनिस्ट समाज के भावी राज्य' की बात कही थी, याने गोया कि कम्युनिस्ट समाज में भी एक राज्य की आवश्यकता मानते हों।

 लेकिन इस तरह का विचार बुनियादी तौर से ग़लत होगा। नजदीक से देखा जाये, तो मालूम होगा कि राज्य और उसके विलोप के संबंध में मार्क्स  और एंगेल्स के विचारों में पूर्ण साम्य था और मार्क्स के ऊपर उद्धत वाक्य में केवल विलुप्त होते राज्य की ही बात कही गयी है।

 स्पष्ट है कि भविष्य में ठीक किस क्षण राज्य " विलुप्त हो जायेगा", यह बताने का कोई प्रश्न ही नहीं हो सकता- इसलिए और भी कि यह प्रक्रिया स्पष्ट ही बहुत लंबी होगी। मार्क्स  और एंगेल्स के विचारों में जो ऊपरी अंतर दिखलायी देता है, उसका कारण यह है कि उन्होंने भिन्न भिन्न विषयों पर लिखा था और भिन्न-भिन्न लक्ष्य सामने रखे थे। एंगेल्स ने बेबेल को साफ़-साफ़ , तीक्ष्णता से और मोटी रूपरेखा में उन पूर्वाग्रहो 

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की मूर्खता दिखाने का कार्यभार अपने सामने रखा था, जो राज्य के बारे में प्रचलित थे (जिनका लासाल भी कुछ कम शिकार नहीं थे ) मार्क्स ने इस प्रश्न पर सिर्फ सरसरी तौर से ही विचार किया था, क्योंकि उनकी दिलचस्पी दूसरे विषय में, याने कम्युनिस्ट समाज के विकास में थी।

 आधुनिक पूंजीवाद पर विकास के सिद्धांत को - उसके सबसे सुसंगत, पूर्ण, विचारनिष्ठ और भरपूर ढंग सेलागू करना ही मार्क्स का पूरा सिद्धांत है। स्वभावत: मार्क्स के सामने इस सिद्धांत को पूंजीवाद के आने वाले पतन और भावी कम्युनिज्म के भावी विकास, दोनों पर लागू करने का सवाल था।

 भावी कम्युनिज्म के भावी विकास के प्रश्न की विवेचना किन तथ्यों के आधार पर की जा सकती है

इस तथ्य के आधार पर कि उसका जन्म पूंजीवाद से होता है, कि ऐतिहासिक दृष्टि से वह पूंजीवाद के अंद से विकसित होता है, कि उसकी उत्पत्ति उस सामाजिक शक्ति की क्रिया के परिणामस्वरूप होती है, जिसको पूंजीवाद ने पैदा किया है। मार्क्स ने किसी प्रकार की काल्पनिक दुनिया की तस्वीर खींचने की, या एक अज्ञेय वस्तु के संबंध में व्यर्थ की हवाई उड़ान भरने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। कम्युनिज्म के प्रश्न को मार्क्स बिलकुल उसी ढंग से पेश करते हैं, जैसे कोई प्रकृतिविज्ञानी, समझ लीजिये, किसी नयी जैवप्रकृति के विकास पर विचार करेगा, यदि वह जानता हो कि वह इस प्रकार पैदा हुई और इस निश्चित दिशा में परिवर्तित हो रही है।

 सबसे पहले मार्क्स राज्य और समाज के पारस्परिक संबंध के विषय में गोथा कार्यक्रम से उत्पन्न होनेवाले भ्रम को दूर करते हैं। वह लिखते हैं

वर्तमान समाज पूंजीवादी समाज है, जो सभी सभ्य देशों में मध्य युगीन मिलावट से कमोबेश मुक्त, प्रत्येक देश के विशेष ऐतिहासिक विकास से कमोबेश रूपांतरित, कमोबेश विकसित रूप में विद्यमान है। इसके विपरीत 'वर्तमान राज्य' देश के सीमांत के साथ बदल जाता है। प्रशियाई जर्मन साम्राज्य में यह स्विट्जरलैंड से भिन्न है, इंगलैंड में यह संयुक्त राज्य अमरीका से भिन्न है। वर्तमान राज्य' इसलिए एक कोरी कल्पना है। 

"तथापि विभिन्न सभ्य देशों के विभिन्न राज्यों में उनके रूप की बहुमखी विविधता के बावजूद यह समानता है कि वे सभी आधुनिक बुर्जुवा  

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समाज आधारित हैं। बस किसी का किसी से कम या ज्यादा पुजीवादी विकास हुआ है। इसलिए उन में कुछ तात्विक लक्षणों की भी समानता है। इस मानी में भविष्य के विपरीत, जिसमें राज्य का वर्तमान मुलाधार, बुर्जवा समाज मृत हो चुका होगा , ' वर्तमान राज्य की बात करना संभव है। 

" तब सवाल पैदा होता है : कम्युनिस्ट समाज में राज्य का क्या रूपांतरण होगा? दूसरे शब्दों में वहां ऐसे कौन-से सामाजि काम शेष रहगे, जो राज्य के वर्तमान कामों के सदृश होंगे? इस प्रश्न का उत्तर केवल वैज्ञानिक ढंग से ही दिया जा सकता है; और 'जनता' शब्द का राज्य' शब्द के साथ लाख मेल बैठाकर भी समस्या के बा भर भी पा नहीं पहुंचा जा सकता।"54 

इस तरह से " जन-राज्य' की तमाम बकवास की खिल्ली उडाकर मार्क्स प्रश्न को ठीक से प्रस्तुत कर देते हैं और हमें जैसे एक प्रकार से चेतावनी देते हैं कि वैज्ञानिक उत्तर देने के लिए केवल अच्छी तरह से स्थापित वैज्ञानि तथ्यों का ही सहारा लिया जाना चाहिए।

 पहला तथ्य , जिसे विकास के पूरे सिद्धात ने , संपूर्ण विज्ञान ने अधि कतम अचुक ढंग से स्थापित कर दिया है-और जिसे कल्पनावादी भूल गये , जिसे समाजवादी क्रांति से भय खाने वाले वर्तमान अवसरवादियों ने भुला रखा है - यह है कि ऐतिहासिक रूप से पूंजीवाद से कम्युनिज्म में संक्रमण की एक विशेष मंजिल या एक विशेष अवस्था अवश्य होगी। 

. पूंजीवाद से कम्युनिज्म में संक्रमण

 

"पूंजीवादी घोर कम्युनिष्ट समाज के बीच एक के दूसरे में कातिकारी रूपातरण का काल है। इमका समवतों एक राजनीतिक संक्रमण काल भी है , जिसमें राज्य सर्वहारा के क्रांतिकारी अधिनायकत्व के सिवा और कुछ नहीं हो सकता ..."  

मार्क्स ने आधुनिक पूंजीवादी समाज में सर्वहारा वर्ग की भूमिका के विश्लेषण के आधार पर, इस समाज के विकास से सम्बन्धित तथ्यों के धार पर, और सर्वहारा वर्ग तथा बुजवा र्ग के परस्पर विरोधी हितों में मेल हो सकने के आधार पर यह नतीजा निकाला था। 

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प्रश्न को पहले इस भांति प्रस्तुत किया गया था : अपने को मुक्त करने के लिए सर्वहारा वर्ग को बुर्जुवा वर्ग का तख्ता उलट देना चाहिए, राजनीति सत्ता जीतनी चाहिए और अपना क्रांतिकारी अधिनायकत्व कायम करना चाहिए। 

प्रश्न को कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया जाता है : पूंजीवादी समाज से - जो कम्युनिज़म की दिशा में बढ़ रहा है - कम्युनिस्ट समाज में संक्रमण "राजनीतिक संक्रमण काल" के बिना असंभव है और उस काल में राज्य केवल सर्वहारा वर्ग का क्रांतिकारी अधिनायकत्व ही हो सकता है। 

तो जनवाद के साथ इस अधिनायकत्व का क्या संबंध है

हम देख चुके हैं कि 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में "सर्वहारा वर्ग को उठाकर शासक वर्ग के सन पर बैठाने" और " जनवाद के लिए होने वाली लड़ाई को जीतने" के दो विचारों को महज़ एक साथ रख दिया गया है। ऊपर जो कुछ कहा जा चुका है , उसके आधार पर अब अधिक निश्चित रूप से यह निर्धारित करना संभव हो गया है कि पूंजीवाद से कम्युनिज्म में संक्रमण के दौरान जनवाद किस प्रकार बदलता है।

 पूंजीवादी समाज का विकास अगर अधिकतम अनुकूल परिस्थितियों में हो, तो उस समाज के अंतर्गत जनवादी जनतंत्र में हमें कमोबेश पूर्ण जनवाद मिलता है। लेकिन यह जनवाद सदा पूंजीवादी शोषण के संकुचित दायरे में घिरा रहता है और इसलिए , वास्तव में, वह सदा केवल अल्प संख्यक लोगों के लिए, केवल संपत्तिशाली वर्गों के लिए, केवल धनवानों के लिए जनवाद रहता है। पूंजीवादी समाज में स्वतंत्रता सदा लगभग उतनी ही रहती है, जितनी वह प्राचीन यूनानी जनतंत्रों में थी : दासों के स्वामियों के लिए स्वतंत्रता। पूंजीवादी शोषण की परिस्थितियों में याधुनिक उजरती गुलाम अभाव और ग़रीबी से इतने कुचले होते हैं कि उन्हें " तो जनवाद की चिंता" होती है , " राजनीति की चिंता" होती है, कि साधारण, शांतिपूर्ण परिस्थितियों में बादी की बहुसंख्या सामाजिक और राजनीतिक जीवन में हिस्सा लेने से वंचित रहती है।

 इस कथन की सत्यता की पुष्टि संभवतः सबसे स्पष्ट रूप में जर्मनी करता है, ठीक इस वजह से कि उस देश में सांविधानिक वैधता दृढ़तापूर्वक 

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बहुत काफी देर तक, लगभग धी शताब्दी तक (१८७१ से १६१४ तक ) कायम रही थी और इस काल में सामाजिक-जनवाद ने उस " वैधता का फायदा उठाने में" तथा मजदुरों को दुनिया में और कहीं की अपेक्षा गब बड़े अनुपात में एक राजनीतिक पार्टी के अंदर संगठित कर लेने में दूसरे तमाम देशों की अपेक्षा सबसे अधिक सफलता प्राप्त की थी। 

राजनीतिक दष्टि से सजग और क्रियाशील उजरती गुलामो का पूंजीवादी समाज में पाया जानेवाला यह सबसे बड़ा अनुपात कितना है ? 'डेढ करोड उजरती मजदुरों में से सामाजिक-जनवादी पार्टी के दस लाख सदस्य ! डेढ करोड़ में से तीस लाख ट्रेड यूनियनों में संगठित !  

तुच्छ अल्पसंख्या के लिए जनवाद, धनवानों के लिए जनवाद - यही पूंजीवादी समाज का जनवाद है। अगर हम पूंजीवादी जनवाद की मशीनरी की और निकट से जांच करें, तो हम देखते हैं कि हर जगह - मताधिकार की "छोटी- छोटी " - तथाकथित छोटी-छोटी तफ़सीलों ( निवासस्थान संबंधी योग्यता , औरतों को मताधिकारहीनता,दि ) में, प्रतिनिधिमूलक संस्थानों की तकनीक में, सभा करने के अधिकार में वास्तविक अड़चनों में (सार्वजनिक इमारतें "भिखारियों' के लिए नहीं हैं ! ), दैनिक अखबारों के खालिस पूंजीवादी संगठन, आदि में - जनवाद पर असंख्य पाबंदियां पायी जाती हैं। ग़रीबों के लिए ये प्रतिबंध, अपवाद, निषेध, अड़चने तुच्छ दिखती हैं, खास तौर से उसको, जिसने खु तंगी का अनुभव कभी नहीं किया है और जो उत्पीडित वर्गों के सामूहिक जीवन के निकट संपर्क में कभी नहीं रहा है (और अगर सौ में से निनानवे नहीं, तो दस में से नौ बुर्जुआ वृत्तकार और राजनीतिज्ञ इसी श्रेणी के होते हैं) - लेकिन इन सब प्रतिबंधों का कुल परिणाम यही होता है कि ग़रीब लोग राजनीतिक जीवन से, जनवाद में सक्रिय शिरकत से अलग कर दिये जाते हैं , बाहर ढकेल दिये जाते हैं।

 मार्क्स ने जब कम्युन के अनुभव का विश्लेषण करते समय कहा था कि उत्पीड़ितों को हर चंद वर्षों में एक बार यह तय करने की इजाजत दी जाती है कि उत्पीड़क वर्ग के कौन-से विशेष प्रतिनिधि संसद में जाकर उनका प्रतिनिधित्व करें और उनका दमन करें, तब उन्होंने पूंजीवादी जनवाद के इस सार को बहुत अच्छी तरह पहचान लिया था

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लेकिन इस पूंजीवादी जनवाद से - जो अनिवार्य रूप से संकुचित होता है , जो ग़रीबों को चोरी-चोरी अलग कर देता है और इसीलिए जिसमें पाखंड और झूठ कूट-कूटकर भरा होता है – " अधिकाधिक जनवाद' की ओर गे विकास सरलता से, शांतिपूर्वक और सीधे नहीं होता , जिस तरह कि उदारतावादी प्रोफ़ेसर और टुटपुंजिया अवसरवादी स्थिति प्रस्तुत किया करते हैं। नहीं, गे, याने कम्युनिज्म की विकास सर्वहारा अधिनायकत्व से गुजरते हुए होता है और इसके अलावा और किसी ढंग से नहीं हो सकता, क्योंकि पूंजीवादी शोषकों के प्रतिरोध को और किसी के जरिए या और किसी ढंग से नहीं तोड़ा जा सकता। 

लेकिन सर्वहारा अधिनायकत्व का, याने उत्पीड़कों को कुचलने के लिए उत्पीडितों के हरावल को शासक वर्ग के रूप में संगठित करने का परिणाम केवल जनवाद का विस्तार नहीं हो सकता। जनवाद के ज़बर्दस्त विस्तार के साथ ही साथ, जो पहली बार धन-कुबेरों का जनवाद होकर ग़रीबों का जनवाद, जनता का जनवाद बनता है, सर्वहारा अधिनायकत्व उत्पीड़कों, शोषकों और पूंजीपतियों की स्वतंत्रता पर बहुत-से बंधन भी लगाता है। मानवजाति को उजरती गुलामी से मुक्त करने के लिए हमें उन्हें कुचल देना चाहिए, उनके प्रतिरोध को बलपूर्वक तोड़ देना चाहिए। यह स्पष्ट है कि जहां ज़ोर-ज़बर्दस्ती है, बल प्रयोग है, वहां स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जनवाद नहीं हो सकता। 

 एंगेल्स ने इस बात को बेबेल के नाम अपने पत्र में बहुत ही बढ़िया ढंग से व्यक्त किया था , जब उन्होंने, जैसा कि पाठकों को याद होगा, कहा था कि "सर्वहारा अभी भी जब तक राज्य का उपयोग करता है, स्वतंत्रता के हितों में नहीं करता, वरन अपने शत्रुओं को दबाने के लिए करता है, और जैसे ही स्वतंत्रता की बात करना संभव हो जाता है, वैसे ही स्वयं राज्य का अस्तित्व भी जाता रहता है" 

जनता की विशाल बहसंख्या के लिए जनवाद और जनता के शोषकों और उत्पीड़कों का बलपूर्वक दमन , याने जनवाद से उनको बाहर रखना - यही वह परिवर्तन है , जो जनवाद के अंतर्गत पूंजीवाद से कम्युनिज्म में संक्रमण के दौरान होता है 

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केवल कम्युनिस्ट समाज में ही, जब पूंजीपतियों के विरोध को पूर्ण रूप से कुचल दिया गया हो, जब पूंजीपति समाप्त हो चुके हों, जब कोई वर्ग रह गये हों ( याने जब उत्पादन के सामाजिक साधनों के प्रति रवैये में समाज के सदस्यों के बीच कोई अंतर रह गये हों), केवल तभी " स्वतंत्रता की बात करना संभव हो जाता है और राज्य का अस्तित्व भी जाता रहता है' केवल तभी वास्तव में पूर्ण जनवाद, अपवाद रहित जनवाद संभव हो सकता है और उसकी स्थापना की जा सकती है। और केवल तभी जनवाद इस सीधे-सीधे तथ्य की बदौलत धीरे-धीरे विलुप्त होने लगता है कि पूंजीवादी गुलामी से, पूंजीवादी शोषण की असंख्य विभीषिकाओं, बर्बरताओं , मर्खतानों और गंदगियों से मुक्त होकर लोग धीरे-धीरे सामाजिक आदान-प्रदान के उन साधारण नियमों को मानने के आदी हो जाते हैं, जो सदियों से मालूम हैं और जो हज़ारों वर्षों से तमाम पुस्तकों में सूत्र-रूप में दोहराये गये हैं। लोग उन्हें बिना किसी बल प्रयो के, बिना किसी जोर-ज़र्बदस्ती और दबाव के, बिना राज्य नामक ज़ोर ज़बर्दस्ती की विशेष मशीनरी के मानने के आदी हो जाते हैं।

 "राज्य धीरे-धीरे विलुप्त हो जाता है" - ये शब्द बहुत सफलतापूर्वक चुने गये हैं, क्योंकि वे उसकी क्रमिक तथा स्वतःस्फूर्त, दोनों प्रक्रियाओं को प्रकट करते हैं। ऐसा केवल आदत से ही होगा और निस्संदेह होगा, क्योंकि हम अपने इर्द-गिर्द लाखों बार देखते हैं कि जब कोई शोषण नहीं होता, जब कोई ऐसी चीज़ नहीं होती, जिससे क्रोध आये, जो विरोध और विद्रोह जाग्रत करे, या जिसकी वजह से दमन की आवश्यकता पड़े, तो लोग कितनी सानी से सामाजिक आदान-प्रदान के अपने लिए आवश्यक नियमों का पालन करने के आदी हो जाते हैं। 

अतः पूंजीवादी समाज में हमारे पास कटा-छंटा, निकृष्ट और झूठा जनवाद होता है, केवल धनवानों के लिए, अल्पसंख्यक लोगों के लिए जनवाद होता है। अल्पसंख्यक के, शोषकों के वश्यक दमन के साथ साथ सर्वहारा अधिनायकत्व ही , कम्युनिज्म में संक्रमण काल ही जनता के लिए, बहुसंख्या के लिए पहली बार जनवाद की सृष्टि करेगा। वास्तविक रूप से पूर्ण जनवाद की स्थापना केवल कम्युनिज्म ही कर सकता है, और यह जनवाद जितना ही पूर्ण होगा, उतनी ही तेज़ी से वह अनावश्यक बन जायेगा अपने आप विलुप्त होता जायेगा 

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दुसरे शब्दो मे  पूंजीबाद के अंतर्गत राज्य अपने असली माने में राज्य होता है याने एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग को, और वह भी अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यक लोगो को, दबाने की विशेष मशीनरी होता है। स्वाभाविक ही है शोषक अल्पसंख्या द्वारा शोषित बहुसंख्या को व्यवस्थित ढंग से दबाने जैसे काम की सफलता के लिए दमन के काम में सबसे ज्यादा खुंखारी और  बर्बर्ता  की जरूरत होती है, खून के समुद्रों की जरूरत होती है, जिनसे होकर मानवजाति गुलामी , 'भूदासता और  उजरती श्रम की अवस्थाओ  में अपनी  राह चलती जा रही है। 

आगे चलें, पूंजीवाद से कम्युनिज्म में संक्रमण काल में अभी दमन जरूरी होता है, लेकिन वह शोसितों की बहुसंख्या द्वारा शोषक अल्पसंख्या का दमन होता है। एक विशेष उपकरण की, दमन की एक विशेष मशीनरी की, "राज्य" की जरूरत अभी बनी रहती है, लेकिन अब वह संक्रमणकाली राज्य होता है, वह सही माने में राज्य नहीं रह जाता, क्योंकि कल के उजरती गुलामों की बहुसंख्या द्वारा शोषकों की अल्पसंख्या के मन का काम अपेक्षाकृत इतना सरल, सान और स्वाभाविक है कि उसमें गुलामों , भूदासों या उजरती मजदूरों के विद्रोहों के दमन की तुलना में बहुत कम खून बहेगा और उसके लिए मानवजाति को बहुत कम कीमत चुकानी पड़ेगी। और बादी की तनी विशाल बहुसंख्या तक जनवाद के विस्तार से यह बात मेल खाती है कि दमन के लिए एक विशेष मशीनरी की वश्यकता गायब होने लगेगी। यह स्वाभाविक है कि शोषक लोग एक बहुत जटिल मशीनरी के बिना जनता को दबाने का काम करने में असमर्थ हैं, लेकिन जनता शोषकों को बहुत ही सरल "मशीनरी" से ही, लगभग बिना किसी " मशीनरी" के, बिना किसी विशेष उपकरण के, हथियारबंद जनसमुह के महज संगठन (जैसे कि , गे आनेवाली बात को यहीं कह दें, मजदूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की सोवियतों) द्वारा दबा सकती है।

 अंततः केवल कम्युनिज्म ही राज्य को पूर्ण रूप से अनावश्यक बनाता है , क्योंकि दवाये जाने के लिए कोई नहीं रह जाता। "कोई नहीं" का मतलब वर्ग से है , प्राबादी के एक निश्चित अंग के ख़िलाफ़ व्यवस्थित लड़ाई से है। हम कल्पनावादी नहीं हैं और हम इस संभावना और अनि 

  

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वार्यता से ज़रा भी इनकार नहीं करते कि इक्के-दुक्के लोग ज्यादतिया कर सकते हैं, और इस बात की ज़रूरत से इनकार करते हैं कि इस तरह की ज्यादतियों को रोकना चाहिए। लेकिन पहले तो इस काम के लि दमन की किसी विशेष मशीनरी या विशेष उपकरण की वश्यकता नहीं है। इस काम को हथियारबंद जनता खु करेगी और तनी ही सरलता और तत्परता से करेगी, जितनी सरलता और तत्परता से धुनिक समाज के अंदर भी सभ्य लोगों का एक समूह किन्हीं दो लड़ते हुए व्यक्तियों को छुड़ा देता है या किसी स्त्री के ऊपर क्रमण रोकने के लिए हस्तक्षेप करता है। और दूसरे, हम जानते हैं कि ज़्यादतियों का, जो सामाजिक आदान-प्रदान के नियमों के उल्लंघन में निहित हैं , मू सामाजिक कारण जनता का शोषण, उसकी तंगी और उसकी ग़रीबी है। इस मुख्य कारण के दूर हो जाने पर ज्यादतियों का भी अनिवार्य रूप से "विलोप" शुरू हो जायेगा। हम यह नहीं जानते कि कितनी जल्दी और किस क्रम से, लेकिन हम यह जानते हैं कि वे धीरे-धीरे विलुप्त हो जायेगी। उनके विलुप्त हो जाने के साथ राज्य भी विलुप्त हो जायेगा। 

बिना कल्पनावादी उड़ानें भरे मार्क्स ने उस चीज़ को अधिक पूरी तरह से बताया था, जिसे उस भविष्य के बारे में, याने कम्युनिस्ट समाज की निचली और उच्चतम अवस्थाओं (रूपों , मंज़िलों ) के बीच के फ़र्क के बारे में, इस समय बताया जा सकता है। 

 

. कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था

 

'गोथा कार्यक्रम की लोचना' में मार्क्स लासाल की इस धारणा को व्योरेवार ढंग से ग़लत साबित करते हैं कि समाजवाद के अंतर्गत मजदूर को "श्रम की अक्षुण्ण " या " श्रम द्वारा उत्पन्न संपूर्ण उपज' मिलेगी। मार्क्स बताते हैं कि सारे समाज के संपूर्ण सामाजिक श्रम में से एक संरक्षित निधि, उत्पादन को बढ़ाने के लिए निधि, शीनों के "घिसे या टूट पुर्जी" को बदलने, आदि के लिए निधि अलग करना ज़रूरी है। फिर इसी तरह उपभोग की वस्तुओं में से भी प्रशासन के खर्च के लिए, स्कूलों

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अस्पतालों, बूढे लोगों के घरों, दि , आदि के लिए निधि अलग करना होगा

लासाल के स्पष्ट , गोलमोल और कथन (" मजदूर को श्रम की अक्षण्ण ") के बजाय मार्क्स गभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं कि समाजवादी समाज को अपना कामकाज किस प्रकार चलाना होगा मार्क्स एक ऐसे समाज के जीवन की परिस्थितियों का, जिसमें पूजीबाद नहीं रह जायेगा, ठोस ढंग से विश्लेषण करने की ओर बढ़ते हैं और कहते हैं

" यहां"(मजदूरों की पार्टी के कार्यक्रम का विश्लेषण करते समय ) " हमारा वास्ता उस कम्युनिष्ट समाज से नहीं है, जो अपनी ही बुनियाद पर विकसित हुआ है, बल्कि इसके विपरीत उससे है, जो पूंजीवादी समाज से उदित हो रहा है, इस कारण जो आर्थिक, नैतिक और बौद्धिक, हर मानी में भी भी उस पुराने समाज की छापे लिये हुए है, जिसके गर्भ से वह निकला है ..." 

और इसी कम्युनिस्ट समाज को, जो अभी-अभी पूंजीवाद के गर्भ से निकलकर दुनिया में या है और जो पुराने समाज कीछाप हर मानी में लिये हुए है, मार्क्स कम्युनिस्ट समाज की " प्रथम" या निचली वस्था कहते हैं। 

उत्पादन के साध व्यक्तियों की निजी संपत्ति नहीं रह गये हैं। उत्पादन के साधनों पर संपूर्ण समाज का अधिकार है। समाज का प्रत्येक सदस्य सामाजिक रूप से वश्य मेहनत का एक हिस्सा पूरा रके समाज से यह प्रमाणपत्र पाता है कि सने इतना-इतना काम किया है। और इस प्रमाणपत्र के आधा पर उपभोग की वस्तुओं के सार्वजनिक भडार में से उसे सदनरूप मात्रा में वस्तुएं मिलती हैं। इसलिए श्रम के उतने हिस्से के कटने के बाद, जो सार्वजनिक निधि में जाता है, प्रत्येक मजदू समाज से तना ही पाता है, जितना उसने उसे दिया था। 

देखने में यह "समानता" का साम्राज्य प्रतीत होता है। 

लेकिन लासाल जब प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को नजर में रखकर (जिसे तौर से समाजवाद कहा जाता है, लेकिन मार्क्स ने 

 

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जिसे कम्युनिज्म की प्रथम अवस्था कहा है) कहते हैं कि यह "उचित वितरण" है, कि यह "श्रम द्वारा उत्पन्न समान उपज पर सभी का समान अधिकार" है, तो वह ग़लती करते हैं और मार्क्स उस गलती की व्याख्या कर देते हैं।

 मार्क्स कहते हैं कि "समान अधिकार' निस्संदेह यहां है, लेकिन वह अभी "बुर्जुवा  अधिकार' है, जिसमें प्रत्येक अधिकार की तरह असमानता पूर्वकल्पित है। प्रत्येक अधिकार विभिन्न लोगों पर एक ही माप का लागू किया जाना है, जो वास्तव में एक जैसे नहीं होते, एक दूसरे के बराबर नहीं होते। यही वजह है कि "समान अधिकार" समानता का उल्लंघन और अन्याय है। असल में प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य के बराबर सामाजिक मेहनत करने के बाद सामाजिक पैदावार का ( ऊपर बतायी हुई कटौती के बाद ) समान हिस्सा पाता है। 

 लेकिन सब मनुष्य एक जैसे नहीं हैं : एक ताक़तवर है, दूसरा कमज़ोर है, एक शादीशुदा है, दूसरा नहीं है, एक के ज्यादा बच्चे हैं, दूसरे के कम, इत्यादि। और मार्क्स जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह यह है

"इस प्रकार समान श्रम के निष्पादन और फलस्वरूप सामाजिक उपभोग निधि में समान अंश से एक को वास्तव में दूसरे से अधिक प्राप्त होगा, एक दूसरे की अपेक्षा अधिक धनी होगा, आदि, दि। इन सब दोषों से बचने के लिए अधिकार को समान के बजाय असमान रखना होगा।

इसलिए कम्युनिज्म की प्रथम अवस्था अभी न्याय और समानता नहीं प्रदान कर सकेगी : धन-संपत्ति के संबंध में फ़र्क और अन्यायपूर्ण फ़र्क मौजूद रहेंगे, लेकिन मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव हो जायेगा , क्योंकि उत्पादन के साधनों पर , फैक्टरियों, मशीनों, ज़मीन , आदि पर व्यक्तिगत 1 संपत्ति के रूप में क़ब्जा करना असंभव हो जायेगा। आम "समानता और " न्याय" के बारे में लासाल के टुटपंजिया और उलझे हुए शब्दजाल को छिन्न-विछिन्न करते हुए मार्क्स कम्युनिस्ट समाज के विकास का क्रम दिखाते हैं, जिसे प्रारंभ में मजबूर होकर उत्पादन के साधनों पर अलग अलग व्यक्तियों के कब्जे के " अन्याय' मात्र का ही अंत करना पड़ता है और जो " मेहनत की मात्रा के अनुसार" खपत की चीज़ों के ( आवश्यकता 

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के नुसार नहीं ) बंटवारे में निहित दूसरे अन्याय को फौरन खत्म करने में असमर्थ है।         बाजारू अर्थशास्त्री, जिनमें बुर्जुआ प्रोफेसर और "हमारे " तुगान भी शामिल हैं, बराबर समाजवादियों की भर्त्सना करते हैं कि वे लोगों की असमानता को भूल जाते हैं और इस असमानता का अंत करने के " स्वप्न देखते हैं" इस तरह की भर्त्सना, जैसा कि हम देखते हैं  बुर्जवा विचार धारा-निरूपक ज्जनों की दर्जे की जहालत ही साबित करती है।

मावर्स केवल मनुष्यों की अनिवार्य असमानता का ही अधिकतम अचुक ध्यान रखते हैं, बल्कि वह इस बात का भी ध्या रखते हैं कि केवल उत्पाद के साधनों को संपूर्ण समाज की संपत्ति बना देने से ही (जिसे तौर से "समाजवाद' कहा जाता है ) बंटवारे की बुराइयां और "बुर्जुवा अधिकार' की असमानता दूर नहीं हो जाती, जो उस हद तक निरंतर हावी रहता है, जिस हद तक उपजों का बंटवारा " मेहनत की मात्रा के अनुसार" होता रहता है।

 मार्क्स आगे कहते हैं : "किंतु कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था में इन दोषों का होना अनिवार्य है , क्योंकि यह वह समय है, जब वह पूंजीवादी समाज से दीर्घकालीन प्रसववेदना के बाद भी-अभी उत्पन्न हुआ है। अधिकार कभी भी माज के र्थि ढांचे और उसके द्वारा निर्धारित सांस्कृतिक विकास से ऊंचा नहीं हो सकता।"

 इस प्रकार कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था में (जिसे आम तौर से समाजवाद कहा जाता है) पूर्ण "बुर्जुवा अधिकार" का नहीं, बल्कि उसके केवल एक भाग का, तब तक हो चुकनेवाली आर्थिक क्रांति के अनुपात में ही, अर्थात उत्पादन के साधनों के संबंध में ही, उन्मूलन होता है। "बुर्जुआ अधिकार" उन्हें अलग-अलग व्यक्तियों की निजी संपत्ति मानता है। समाजवाद उन्हें सब की संपत्ति बना देता है। उस हद तक -और केवल उसी हद तक – "बुर्जुआ अधिकार" लुप्त होता है। 

लेकिन जहां तक उसके दूसरे भाग का संबंध है, वह अब भी मौजूद रहता है, वह समाज के सदस्यों के बीच उत्पादित चीज़ों के वितरण और श्रम के विनियोजन में एक नियामक (निर्धारक शक्ति ) की हैसियत में मौजूद रहता है। यह समाजवादी उसूल कि "जो काम नहीं करता , वह  

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खायेगा भी नहीं" अमल में चुका है ; दूसरा समाजवादी उसूल भी कि "श्रम को बराबर मात्रा के लिए उत्पादित चीजों की बराबर मात्रा" अमल में चुका है। लेकिन अभी यह कम्युनिज्म नहीं होता और यह उस "बुर्जुया अधिकार" का, जो असमान व्यक्तियों को मेहनत की असमा ( वास्तव में असमान ) मात्रा के बदले में उत्पादित चीजों की समान मात्रा देता है, अभी खात्मा नहीं करता।

  मार्क्स कहते हैं कि यह एक "दोष" है , लेकिन कम्युनिज़म की प्रथ अवस्था में वह अनिवार्य है, क्योंकि बिना कल्पनावाद में फंसे यह नहीं सोचा जा सकता कि पूंजीवाद का तख्ता उलटने के बाद फ़ौरन ही लोग अधिकार के किसी मानक के बिना समाज के लिए काम करना सीख जायेंगे। और सचमुच पूंजीवाद का खात्मा ऐसे परिवर्तन का आर्थिक पूर्वाधार फ़ौरन ही नहीं पैदा कर देता।

 चूंकि "बुर्जुवा अधिकार' के अलावा अधिकार का और कोई मानक नहीं होता, इसलिए राज्य की अभी ज़रूरत रहती है, जो उत्पादन के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व की रक्षा करने के साथ-साथ श्रम की समानता और उत्पादित वस्तुओं के वितरण की समानता की भी रक्षा करेगा।

राज्य इसलिए विलुप्त हो जाता है कि अब कोई पूंजीपति, कोई वर्ग नहीं रह जाते और फलतः किसी वर्ग को दबाया नहीं जा सकता।

  लेकिन अभी राज्य पूर्ण रूप से विलुप्त नहीं होता, क्योंकि "बुर्जुवा अधिकार" की, जो वास्तविक असमानता को पवित्रता का जामा पहनाता है, रक्षा करने का काम अभी भी बाक़ी रहता है। राज्य के पूर्ण रूप से विलुप्त होने के लिए पूर्ण कम्युनिज्म ज़रूरी है। 

. कम्युनिस्ट समाज की उच्चतम अवस्था

मार्क्स गे कहते हैं :

"कम्युनिस्ट समाज की उच्चतम अवस्था में व्यक्ति की श्रम-विभाजन के प्रति दासत्वपूर्ण अधीनता और उसी के साथ-साथ मानसिक तथा शारीरिक श्रम के अंतर्विरोध का लोप हो जाने के बाद, श्रम के जीव के मात्र 

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एक साधन ही नहीं, प्रत्युत जीवन की सर्वोपरि वश्यकता बन चुकने के बाद, व्यक्ति के सर्वांगीण विका के साथ-साथ त्पादक शक्तियों के भी बढ जाने और सामाजिक संपदा के सभी स्रोतों के अधिक वेग से प्रवहमान होने के बाद - नके बाद ही कहीं जाकर बुर्जुवा अधिकार के संकीर्ण क्षितिज को पूर्णतः लांघा जा सकेगा और समाज अपनी पताका पर अंकित कर सकेगा : 'प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यक 

आवश्याकतानुसार !" 

 हम केवल अब एंगेल्स की उन टीकाओं की शुद्धता का पूरा मूल्यांकन कर सकते हैं, जब उन्होंने "स्वतंत्रता" और "राज्य' शब्दों को मिलाने के प्रयत्नों की मूर्खता का निर्ममतापूर्वक मजाक उड़ाया था। जब तक राज्य मौजूद है, तब तक स्वतंत्रता नहीं हो सकती। जब स्वतंत्रता होगी , तब राज्य नहीं रह जायेगा।

 राज्य के पूर्ण विलोप का र्थिक धार कम्युनिज्म के विकास की ऐसी ऊंची मंज़िल होती है, जहां पहुंचकर मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर्विरोध ग़ायब हो जाता है और परिणामतः धुनिक सामाजिक असमानता का एक मुख्य स्रोत ग़ायब हो जाता है, तिस पर वह स्रोत , जिसे उत्पादन के साधनों को सार्वजनिक संपत्ति बना देने मात्र से, पूंजीपतियों के संपत्तिहरण मात्र से किसी तरह भी फ़ौरन नहीं मिटाया जा सकता।

 इस संपत्तिहरण से उत्पादक शक्तियों का बहुत ज्यादा विकास करने की संभावना उत्पन्न हो जायेगी। और यह देखकर कि पूंजीवाद आज ही इस विकास को किस तरह अकल्पनीय हद तक रोक रहा है, यह देखकर कि तकनीक के वर्तमान स्तर के आधार पर ही कितनी अधिक प्रगति की जा सकती है, हमें पूर्ण विश्वास के साथ यह कहने का अधिकार है कि पूंजीपतियों के संपत्तिहरण का अनिवार्य परिणाम मानवसमाज की उत्पादक शक्तियों का ज़बर्दस्त विकास होगा। लेकिन यह विकास कितनी तेज़ी से होगा, कितनी जल्दी वह श्रम-विभाजन से नाता तोड़ने की , मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर्विरोध दूर करने की, श्रम को "जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता" में बदल देने की सीमा पर पहुंच जायेगा - यह हम जानते ही हैं और जान सकते हैं। 

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सीलिए इस प्रक्रिया की देरतलबी और कम्युनिज्म की उच्च अवस्था के विकास की द्रुत गति पर उसकी निर्भरता पर जोर देते हुए हमें केवल राज्य के विलोप की अनिवार्यता की बात कहने का ही हक है उसके विलोप की अवधि अथवा उसके ठोस रूपों के प्रश्न को हम बिलक खुला छोड़ देंगे, क्योंकि इन सवालों का उत्तर देने के लिए कोई सामग्री नहीं है।

राज्य का पूर्ण रूप से विलोप तब हो सकेगा, जब समाज "प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार" के नियम को अपना लेगा, याने जब लोग सामाजिक आदान-प्रदान के बुनियादी नियमों का पालन करने के इतने आदी हो चुकेंगे और जब उनका श्र इतना उत्पादनशील हो चुकेगा कि वे स्वेच्छया क्षमतानुसार काम करने लगेंगे। "बुर्जुवा अधिकार के संकुचित क्षितिज' को, जो एक व्यक्ति को शाइलाक की हृदयहीनता से यह हिसाब लगाने के लिए मजबूर करता है कि कहीं वह दूसरे से धा घंटा अधिक तो नहीं काम करता, कि कहीं उसे दूसरों से कम तनख्वाह तो नहीं मिलती - इस संकुचित क्षितिज को तब पार किया जायेगा। तब समाज को इस बात की ज़रूरत नहीं रहेगी कि वह हरेक को बांटी जानेवाली उत्पादित चीज़ों की मात्रा का विनियमन करे ; हरेक स्वतंत्रतापूर्वक "वश्यकतानुसार" ले लेगा। 

बुर्जुवा दृष्टिकोण से यह कह देना कि इस तरह की सामाजिक व्यवस्था "केवल एक काल्पनिक चीज़" है, और यह कहकर समाजवादियों का मज़ाक़ उड़ाना आसान है कि वे तो हरेक से वादा करते हैं कि नागरिकों के व्यक्तिगत श्रम के ऊपर किसी तरह के नियंत्रण के बिना उन्हें समाज से चाहे जितने भी चाकलेट, मोटरें, पियानो, आदि पाने का अधिकार होगा। भी अधिकतर बुर्जुवा "विद्वान' इस तरह मज़ाक़ उड़ाकर ही बस करते हैं और ऐसा करके अपना अज्ञान और पूंजीवाद की अपनी स्वार्थपूर्ण वकालत, दोनों प्रदर्शित कर देते हैं। 

ज्ञान - क्योंकि यह चीज़ आज तक कभी किसी समाजवादी के दिमाग में नहीं घुसी कि वह " वादा करे" कि कम्युनिज्म के विकास की उच्चतम अवस्था येगी, लेकिन महान समाजवादियों ने जब उसके आने की भवि ष्यवाणी की, तब वे यह मानकर चलते थे कि समय तो श्रम का

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वर्तमान उत्पादकता रहेगी और आज के कूपमंडूक लोग ही रहेंगे, जो पोम्यालोव्स्की की कहानियों में बूस के विद्यार्थियों 57 की तरह सार्वजनिक संपत्ति के भंडारों को "केवल मजे के लिए" नष्ट कर सकते हैं और असंभव चीज़ों की मांगें रख सकते हैं। 

जब तक कम्युनिज्म की "उच्चतम' अवस्था नहीं ती, तब तक समाजवादियों की मांग है कि समाज और राज्य द्वारा श्रम और उपभोग की मात्रा पर सख्त से सख़्त नियंत्रण हो, लेकिन इस नियंत्रण की शुरूआत होनी चाहिए पूंजीपतियों की संपत्ति को छीनकर, पूंजीपतियों पर मजदूरों का नियंत्रण कायम कर और उसे चलाया जाना चाहिए हथियारबंद मजदूरों के राज्य द्वारा, कि नौकरशाहों के राज्य द्वारा।

 बुर्जुवा विचारकों ( और सर्वश्री त्सेरेतेली, चेर्नोव और उनकी मंडली जैसे उनके पिछलग्गुओ) द्वारा पूंजीवाद की स्वार्थपूर्ण वकालत इसी बात में निहित है कि वे आज की राजनीति से संबंधित बुनियादी और तात्कालिक प्रश्नों, याने पूंजीपतियों के संपत्तिहरण, एक विशाल "सिंडिकेट'' के - संपूर्ण राज्य के - कार्यकर्ताओं और नौकरों में तमाम नागरिकों के परिवर्तन और इस पूरे सिंडिकेट के संपूर्ण काम के वास्तविक रूप से जनवादी राज्य के, अर्थात मजदूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की सोवियतों के राज्य के पूर्ण रूप से अधीनीकरण की जगह दूर भविष्य की बहसें और बातें पेश कर देते हैं।

 वास्तव में , जब कोई विद्वान प्रोफ़ेसर और उनके पीछे कूपमंडूक लोग , और उनके पीछे सर्वश्री त्सेरेतेली और चेर्नोव जैसे लोग तर्कहीन काल्पनिक दुनियात्रों की, बोल्शेविकों के लंबे-चौड़े वादों की, समाजवाद " लागू करने" की संभावना की बात करते हैं , तो उनके दिमाग़ में कम्युनिज्म की उच्चतम अवस्था या मंज़िल रहती है, जिसे "लागू करने' का केवल कभी किसी ने वादा नहीं किया, बल्कि विचार भी नहीं किया, क्योंकि उसे तौर से "लागू" किया ही नहीं जा सकता।

 और यहां से हम समाजवाद और कम्युनिज्म के वैज्ञानिक अंतर के उस प्रश्न पर जाते हैं, जिसका "सामाजिक-जनवादी' नाम की ग़लती बतलाते समय एंगेल्स ने अपने ऊपर उद्धृत अंश में ज़िक्र किया था। कम्युनिज्म की प्रथ या निचली अवस्था और उसकी उच्चतम अवस्था का 

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राजनीतिक भेद कालांतर में संभवतः बहुत बड़ा होगा , लेकि उस क्षेत्र को इस समय , पूंजीवादी समाज के अंतर्गत स्वीकार करना निरी मुर्खता होगी और उसे संभवतः केवल कुछ अराजकतावादी व्यक्ति ही प्रमुख महत्व की बात कह सकते हैं (अगर अराजकतावादियों में अब भी ऐसे लो हैं. जिन्होंने क्रोपोत्किन, ग्रैव , कोर्नेलीसेन तथा अराजकतावाद के अन्य "सितारों" के सामाजिक-अंधराष्ट्रवादियों में या गे के अनुसारजो अराजकतावादियों के अंदर उन इने-गिने व्यक्तियों में से एक हैं, जिनमें त्माभिमान और ईमानदारी की कुछ भावना बाक़ी है – "अराजकतावादी खंदक़वादियों' में "प्लेखानोवी" रूपांतरण से कुछ नहीं सीखा है )  

लेकिन समाजवाद और कम्युनिज्म का वैज्ञानिक अंतर स्पष्ट है। तौर पर जिसे समाजवाद कहा जाता है , उसे मार्क्स ने कम्युनिस्ट समाज की "प्रथम' या निचली अवस्था कहा था। जिस हद तक उत्पादन के साधन सब की संपत्ति बन जाते हैं , उस हद तक यहां "कम्युनिज्म'शब्द भी लागू हो सकता है, बशर्ते कि हम यह भूलें कि यह पूर्ण कम्युनिज्म नहीं है। मार्क्स की व्याख्या का भारी महत्व इसमें है कि वह यहां भी भौतिकवादी द्वंद्ववाद को , विकास के सिद्धांत को सुसंगत रूप से लागू करते हैं और कम्युनिज्म को एक ऐसी वस्तु के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो पूंजीवाद के अंदर से विकसित होती है। पंडिताऊ ढंग से बनायी गयी, "गढ़ी गयी" परिभाषाओ और शब्दों के बारे में निरर्थक विवाद' ( समाज वाद क्या है ? कम्युनिज्म क्या है ?) में पड़ने के बजाय मार्क्स ने उन चीज़ों का विश्लेषण किया है, जिन्हें हम कम्युनिज़्म की आर्थिक परिपक्वता की मंजिलें कह सकते हैं।

 अपनी प्रथम अवस्था या पहली मंज़िल में कम्युनिज्म आर्थिक दृष्टि से पूर्णतया परिपक्व और पूंजीवादी परंपरात्रों और प्रभावों से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। इसीलिए हमें यह दिलचस्प परिघटना देखने को मिलती है कि कम्युनिज्म अपनी प्रथम अवस्था में "बुर्जुवा अधिकार के संकुचित क्षितिज" को कायम रखता है। निस्संदेह उपभोग की चीज़ों के वितरण के संबंध में बुर्जुवा अधिकार की पूर्वकल्पना अनिवार्य रूप से इस बात में निहित है कि बुर्जुवा राज्य अब भी मौजूद है, क्योंकि अधिकार के मानकों को मनवाने  के उपकरण के बिना अधिकार कोई माने नहीं रखता।

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इसलिए कम्युनिज्म के अंतर्गत केवल पूंजीवादी अधिका, बल्कि बुर्जुवा राज्य भी - बुर्जुवा वर्ग के बिनाकुछ समय तक ना रहता है

इसमें विरोधाभास या हज़ बुद्धि का द्वंद्ववादी खेल दिख सकता है, जिसका अभियोग मार्क्सवाद वे लो अकसर लगाते हैं, जो उसके असाधारण रूप से गंभीर त्वों का अध्ययन करने का ज़रा भी कष्ट नहीं उठाते। 

लेकिन यथार्थ बात यह है कि प्रकृति और समाज, दोनों में नये के अंदर पुराने के बचे हुए अवशेष हमें जीवन में हर क़दम पर दिखलाई देते हैं। मार्क्स ने कम्युनिज्म के अंदर "बुर्जुआ" अधिकार का टुकड़ा मनमाने ढंग से नहीं घुसेड़ा था, बल्कि वह चीज़ ली थी, जिसका पूंजीवाद के गर्भ से निकलते हुए समाज में होना आर्थि और राजनीतिक रूप से अनिवार्य है

 अपनी मुक्ति के लिए पूंजीपतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष में मजदूर वर्ग के लिए जनवाद का प्रकांड महत्व है। लेकिन जनवाद ऐसी सीमा बिलकुल नहीं है, जिससे आगे जाना ही संभव नहीं हो। सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर और पूंजीवाद से कम्युनिज्य की के मार्ग की मंजिलों में से वह केवल एक मंज़िल है। 

जनवाद का अर्थ है समानता। समानता के लि सर्वहारा वर्ग के संघर्ष का और समानता के नारे का भारी महत्व स्पष्ट हो जायेगा, यदि हम वगों के खात्मे के रूप में नारे के अर्थ को सही तौर से समझें। लेकिन जनवाद का अर्थ केवल औपचारिक समानता है और ज्यों ही उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के संबंध में समाज के तमाम सदस्यों की समानता की, अर्थात श्रम की मानता और मज़दूरी की समानता की स्थापना हो जायेगी, त्यों ही अनिवार्य रूप से मानवजाति के सामने औपचारिक समानता से वास्तविक समानता की आगे बढ़ने का, याने "प्रत्येक से उसकी क्षमतानसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार" के नियम को लागू करने का प्रश्न खड़ा होगा। किन मंजिलों से, किन अमली क़दमों द्वारा मानवजाति इस परम लक्ष्य की ओर बढ़ेगी - यह हम तो जानते हैं और जान हो सकते हैं। लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि माजवाद' के संबंध में यह साधारण बर्जुआ धारणा कितनी बेहद' मिथ्या है कि वह एक सर्वथा 

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निर्जीव, मृत और हमेशा के लिए निश्चित चीज़ है, जबकि वास्तविकता यह है कि केवल समाजवाद से ही सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए - पहले आबादी की बहुसंख्या का और फिर संपूर्ण आबादी का - तेज़ , सली और सचमुच जनव्यापी आंदोलन आरंभ होगा।

जनवाद राज्य का एक रूप है, उसके बहुत-से रूपों में से एक इसलिए हर राज्य की तरह वह भी तरफ़ तो लोगों के विरुद्ध संगठित. व्यवस्थित बल प्रयोग का द्योतक है , लेकिन दूसरी तरफ़ , उसका अर्थ माम नागरिकों की समानता की , राज्य के ढांचे के निर्धारण और उसके प्रशास के संबंध में सब के समान अधिकार की औपचारिक स्वीकृति है। फिर यह बात इस तथ्य से संबंधित है कि जनवाद के विकास की एक विशेष मंज़िल में , वह पहले , पूंजीवाद के खिलाफ़ क्रांतिकारी वर्ग को , अर्थात सर्वहारा वर्ग को एकताबद्ध करता है, और उसे इस योग्य बनाता है कि वह राज्य की बुर्जुश्रा मशीनरी को, जनतांत्रिक-बुर्जुआ मशीनरी तक को, उसकी स्थायी फ़ौज, पुलिस और नौकरशाही को कुचल दे, उसके टुकड़े-टुकड़े कर दे, उसे दुनिया से सदा के लिए मिटा दे और उसके स्थान पर राज्य की एक अधिक जनबादी , परंतु मिलिशिया में सारी आबादी की शिरकत की ओर संक्रमण करनेवाले हथियारबंद मजदूरों के रूप में अभी भी राजकीय मशीनरी 

की स्थापना करे।

 यहां "मात्रा गुण में बदल जाती है" : जनवाद की इतनी मात्रा का मतलब होता है बुर्जुआ समाज की सीमाओं का अतिक्रमण ,उसके समाजवादी पुनर्निर्माण का प्रारंभ। यदि राज्य की शासन-व्यवस्था में वास्त में सब लोग हाथ बंटाने लगें, तो पूंजीवाद अपने शिकंजे को क़ायम नहीं रख सकता। फिर पूंजीवाद का विकास वे पूर्वस्थितियां पैदा कर देता है , जिनमें " सब लोग" वास्तव में राज्य के प्रशासन में भाग लेने में समर्थ बन जाते हैं। ऐसी कुछ पूर्वस्थितियां ये हैं : सार्विक साक्षरता, जो कई अधिकतम उन्नत पूंजीवादी देशों में पहले ही हासिल हो चुकी है, फिर पोस्ट-प्रॉफ़िस , रेलों, बड़ी फैक्टरियों, बड़े पैमाने के व्यापार, बैंक के कारोबार, आदि , दि के विशाल और जटिल समाजीकृत यंत्र द्वारा लाखों मजदूरों का "प्रशिक्षित बनाना और अनुशासित बनाना"

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ऐसी आर्थिक पूर्वस्थितियों के हत यह एकदम संभव है कि पूजीपतियो और नौकरशाहों का तख्ता उलटकर उनके स्थान पर फौरन उत्पादन और वितरण के नियंत्रण के काम में, श्रम और उपज के हिसाब-किताब के काम में, सशस्त्र मजदूरों को, समस्त सशस्त्र जनता को लगा दिया जाये। ( नियंत्रण और हिसा-किताब के प्रश्न को वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षित इंजीनियरों, कृषि विशेषज्ञों, दि के प्रश्न के साथ मिलाना नहीं चाहिए। ये सज्ज आज पूजीपतियों की ज्ञा का पालन करते हुए काम कर रहे हैं, कल सशस्त्र मजदूरों की ज्ञा का पालन करते हुए और भी अच्छी रह का करेंगे।

 हिसाब-किता और नियंत्रण - यही मुख्य बात है, जिसकी कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था की " व्यवस्था" के लिए , उसके उचित रूप से काम करने के लिए ज़रूरत है। तमाम नागरिक सशस्त्र मजदूरों से बने राज्य के वैतनिक र्मचारी बन जाते हैं। तमाम नागरिक एक ही राष्ट्रव्यापी राजकीय "सिंडिकेट'' के कर्मचारी और मजदूर बन जाते हैं। सारी बात यह है कि वे सब बराबर काम करें, उचित मात्रा में काम करें और बराबर तनख्वाह पायें। इसके लिए जिस हिसाब-किताब और नियंत्रण की जरूरत होती है, उसे पूंजीवाद ने अत्यधिक आसान बनाकर महज निरीक्षण और इंदराज, णित के चारों नियमों की जानकारी और मुनासिब रसीदों की अदायगी के एकदम सीधे-सादे कामों में बदल दिया है, जिन्हें कोई भी साक्षर व्यक्ति कर सकता है  

जब जनता की बहुसंख्या स्वतंत्र रूप से और सब जगह इस प्रकार का हिसा किताब रखने और पूंजीपतियों (जो अब कर्मचारियों में बदल दिये गये होगे ) और पूंजीवादी तें बनाये रखनेवाले बुद्धिजीवी सज्जनों के ऊपर इस प्रकार का नियंत्रण रखने का काम करने लगेगी, तो वह नियंत्रण 

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* जब राज्य के अधिकांश काम मजदूरों द्वारा हिसाब-किता और नियन्त्रण तक ही सीमि रह जायेंगे, तो वह "राजनीतिक राज्य" नही रह जायेगा और "सार्वजनिक काम अपना राजनीतिक रूप खो देंगे और व्यवस्था सबंधी कामों में बद जायेगे" (देखिये , ऊपर, अध्याय , भा - गेल्स का राजकतावादियों के साथ विवाद ) 

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वास्त में सर्वव्यापक, म और लोकप्रिय हो जायेगा और फिर उससे भागने का कोई मार्ग नहीं रह जायेगा , "कहीं जाने की जगह नहीं" रह जायेगी।

 पूरा माज बराबर श्रमवाला और बराबर तनख्वाहवाला अभिन्न दफ़्तर और अभिन्न फैक्टरी बन जायेगा। 

पर पूंजीपतियों की हार के बाद, शोषकों का तख्ता उलटने के बा जिस "फ़ैक्टरीवाले'' अनुशासन को सर्वहारा वर्ग सारे समाज में फैलायेगा, वह हरगिज़ हमारा दर्श अथवा हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं है। समाज को पूंजीवादी शोषण की गंदगी और कुरूपता से पूर्ण रूप से साफ़ करने के लिए और आगे की प्रगति के लिए वह सिर्फ एक आवश्यक क़दम है। 

जि क्षण समाज के सब सदस्य या कम से कम उसकी ज़बर्दस्त हुसंख्या राज्य का स्वयं संचालन करना सीख लेते हैं , इस काम को स्वयं अपने हाथ में ले लेते हैं , मुट्ठी भर पूंजीपतियों, पूंजीवादी आदतों को बनाये रखने के लिए इच्छुक " सज्जनों" और पूंजीवाद द्वारा बुरी तरह प्राचार भ्रष्ट कर दिये गये मज़दूरों के ऊपर अपना नियंत्रण "कायम कर लेते' हैं , उसी क्षण से हर प्रकार के शासन की ज़रूरत पूर्ण रूप से ख़त्म होनी शुरू हो जाती है। जनवाद जितना ही पूर्ण होता है , उतनी ही जल्दी वह क्षण ता है, जब वह अनावश्यक हो जाता है। सशस्त्र मजदूरों का " राज्य'", जो " शब्द के सही अर्थ में राज्य रहा ही नहीं है", जितना ही अधिक जनवादी होता है , उतनी ही जल्दी राज्य का प्रत्येक रूप विलुप्त होने लगता है। 

कारण यह है कि जब सब लोग प्रशासन करना सीख जायेंगे और वास्तव में स्वतंत्र रूप से सामाजिक उत्पादन का प्रशासन करने लगेंगे, स्वतंत्र रूप से हिसाब-किताब रखने लगेंगे और कामचोरों , " शरीफ़ज़ादों", जालसाज़ों तथा "पूंजीवादी परंपराओ के" अन्य ऐसे ही " रक्षकों" के ऊपर नियंत्रण रखने लगेंगे, तब इस राष्ट्रव्यापी हिसाब-किताब और नियंत्रण से बचना अनिवार्यतः इतना कठिन हो जायेगा, ऐसा विरल अपवाद हो जायेगा और शायद उसके लिए इतनी तेजी से और इतनी सख्त सज़ा दी जायेगी ( क्योंकि सशस्त्र मजदूर व्यावहारिक लोग हैं, भावुक बुद्धिजीवी नहीं है और वे किसी को अपने साथ खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं देगे ) कि 

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मानवीय सहजीवन के साधारण, बुनियादी नियमों का पालन करने की वश्यकता बहुत जल्द एक आदत बन जायेगी। 

तब कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था से प्रागे उसकी उच्चतम अवस्था की ओर बढ़ने का और उसके साथ-साथ राज्य के पूर्ण रूप से विलुप्त हो जाने का द्वार पूरी तरह खुल जायेगा। 

 

विषय सूचि   

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