दूसरा अध्याय
रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी का निर्माण। पार्टी के भीतर
बोल्शेविक और मेन्शेविक गुटों का जन्म।
(1901-1904)
1. 1901-'04 में रूस में क्रांतिकारी आन्दोलन की उठान।
यूरोप में 19वीं सदी के अंत में औद्योगिक संकट दिखाई दिया। यह संकट जल्द ही रूस भी आ पहंुचा। संकट के दिनों में (1900-'03), क़रीब 3,000 बड़े और छोटे कारख़ाने बंद कर दिये गये और एक लाख से ऊपर मज़दूर बेकार हो गये। जो मज़दूर काम में लगे रहे, उनकी तनख्वाह में भारी कमी हुई। ज़बर्दस्त आर्थिक हड़तालें करके पंूजीपतियों से जो छोटी-मोटी रियायतें पहले मिली थीं, वे भी वापस ले ली गयीं।
औद्योगिक संकट और बेकारी ने मज़दूर आन्दोलन को न तो रोका और न कमज़ोर बनाया। इससे उल्टा मज़दूरों का संघर्ष दिन पर दिन क्रांतिकारी रूप धारण करता गया। आर्थिक हड़तालें करने के बाद, मज़दूर राजनीतिक हड़तालें करने लगे और अंत में वे प्रदर्शन करने लगे। जनवादी अधिकारों के लिये वे राजनीतिक मांगें पेश करने लगे और उन्होंने "निरंकुश ज़ारशाही मुर्दाबाद!" का नारा बुलन्द किया।
1901 में, मई दिवस पर पीतरबुर्ग में ओबूख़ोव के गोला-बारूद के कारख़ाने में हड़ताल हुई, जिसके फलस्वरूप मज़दूरों और फ़ौज के सिपाहियों में ख़ूनी टक्कर हुई। ज़ार के हथियारबन्द सिपाहियों का मुक़ाबिला करने के लिये, अस्त्र-शस्त्र के नाम पर मज़दूरों के पास सिर्फ़ पत्थर और लोहे के टुकड़े थे। मज़दूरों का ज़बर्दस्त विरोध तोड़ दिया गया। इसके बाद, भयानक बदला लिया था। क़रीब आठ सौ मज़दूर गिरफ़्तार किये गये। बहुतों को जेल में डाल दिया गया, या कठिन मेहनत और निर्वासन की सज़ा दी गयी, लेकिन वीरतापूर्ण 'ओबूख़ोव संघर्ष' ने रूस के मज़दूरों पर गहरा असर डाला और उनके अन्दर हमदर्दी की लहर दौड़ गयी।
मार्च 1902 में, बातुम में मज़दूरों की बड़ी हड़तालें हुईं और एक प्रदर्शन हुआ। इसका संगठन बातुम की सोशल-डेमोक्रैटिक कमेटी ने किया था। बातुम के प्रदर्शन से ट्रांस कॅाकेशिया के मज़दूरों और किसानों में हलचल पैदा हुई।
1902 में, दोन-तट के रोस्तोव नगर में भी एक भारी हड़ताल हुई। सबसे पहले रेल मज़दूर काम छोड़कर आये। फिर, बहुत से कारख़ानों के मज़दूर उनके साथ आ मिले। हड़ताल से सभी मज़दूरों में हलचल थी। लगातार कई दिनों तक शहर के बाहर होने वाली सभाओं में तीस-तीस हज़ार मज़दूर तक इकट्ठे हो जाते थे। इन सभाओं में सोशल-डेमोक्रेटिक ऐलान ज़ोर से पढ़े जाते थे और वक्ता मज़दूरों के सामने व्याख्यान देते थे। पुलिस और क़ज़्ज़ाक़ ये सभायें तोड़ने के लिये बेकार थे, जहां हज़ारों लोग इकट्ठे होते थे। जब पुलिस के हाथ से कई मज़दूर मारे गये तो उनकी शव-यात्रा में मेहनतकश जनता का एक भारी जुलूस दूसरे दिन निकला। आसपास के शहरों से फ़ौज बुलाकर ही, ज़ार सरकार हड़ताल दबा सकी। रोस्तोव के मज़दूरों के संघर्ष का नेतृत्व रूÛसोÛडेÛलेÛपाÛ की दोन कमिटी ने किया था।
1903 में जो हड़तालें हुईं, वे और भी बड़े पैमाने की थीं। उस साल दक्खिन में आम राजनीतिक हड़तालें हुईं। हड़तालों की लहर ट्रांस कॅाकेशिया (बाकू, तिफ़लिस, बातुम) और उक्रैन के बड़े शहरों (ओदेसा, कियेव, एकातरिनोस्लाव) में फैल गई।
हड़तालें दिन पर दिन दृढ़ और ज़्यादा सुसंगठित होती गयीं। मज़दूर वर्ग की पहली कार्यवाही के विपरीत, क़रीब-क़रीब हर जगह मज़दूरों के राजनीतिक संघर्ष का नेतृत्व सोशल-डेमोक्रैटिक कमिटियों ने किया था।
रूस का मज़दूर वर्ग ज़ारशाही के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी संघर्ष चलाने के लिये उठ रहा था।
मज़दूर आन्दोलन का असर किसानों पर पड़ा। 1902 के बसंत और गरमी में, उक्रैन में (पोल्तावा और ख़ारकोव प्रान्तों में) और वोल्गा प्रदेश में किसान आन्दोलन शुरू हो गया। किसानों ने ज़मींदारों की कोठियों में आग लगा दी, उनकी ज़मीन छीन ली और ज़ैम्स्की नाचाल्निक1 (देहाती थानेदार) और ज़मींदारों को, जिनसे वे नफ़रत करते थे, उन्होंने मार डाला।
विद्रोही किसानों को दबाने के लिये फ़ौजें भेजी गयीं। किसानों को गोलियां चलाकर मारा गया, सैकड़ों को गिरफ़्तार कर लिया गया और उनके नेताओं और संगठनकत्र्ताओं को जेल में डाल दिया गया। फिर भी, क्रान्तिकारी किसान-आन्दोलन बढ़ता ही रहा।
मज़दूरों और किसानों के क्रान्तिकारी कामों ने दिखला दिया कि रूस में क्रान्ति परिपक्व हो रही है और नज़दीक आ रही है।
मज़दूरों के क्रान्तिकारी संघर्ष के असर से हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्यार्थियों के विरोध-आन्दोलन ने और तेज़ी पकड़ी। विद्यार्थियों के प्रदर्शनों और हड़तालों का बदला लेने के लिये हुकूमत ने विश्वविद्यालयों को बन्द कर दिया। सैकड़ों विद्यार्थियों को जेल में डाल दिया और अंत में बाग़ी विद्यार्थियों को मामूली सिपाहियों की तरह फ़ौज में भेजने की योजना बनायी। इसके जवाब में, 1901-'02 के जाड़ों में सभी विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों ने एक आम हड़ताल संगठित की। इस हड़ताल में क़रीब 30,000 विद्यार्थी शामिल हुए।
मज़दूरों और किसानों के क्रान्तिकारी आन्दोलन और ख़ास तौर से विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ दमन का असर उदारपंथी पंूजीपतियों और उदारपंथी ज़मींदारों पर पड़ा, जो ज़ेम्स्त्वो नाम की संस्थाओं में जमे बैठे थे। ये भी अब हिले-डुले और इन्होंने अपनी आवाज़ अपने विद्यार्थी बेटों को दबाने में ज़ार सरकार की 'ज़्यादतियों' के 'विरोध' में बुलन्द की।
ज़ेम्स्त्वो बोर्ड ज़ेम्स्त्वो उदारपंथियों के गढ़ थे। ये स्थानीय सरकारी संस्थायें थीं, जिनके अधिकार में देहाती जनता से संबंध रखने वाले सिर्फ़ स्थानीय काम ही थे (सड़क, अस्पताल और स्कूल बनाना)। ज़ेम्स्त्वो बोर्डों में उदारपंथी ज़मींदार काफ़ी प्रमुख भाग लेते थे। उदारपंथी पंूजीपतियों से उनका गहरा संबंध था। दरअसल वे क़रीब-क़रीब उनसे घुल-मिल गये थे, क्योंकि वे ख़ुद वे तरीक़े छोड़ रहे थे जिनका आधार भूदास प्रथा के अवशेष थे और अपनी रियासतों में खेती के लिये ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाले पंूजीवादी तरीक़े अपना रहे थे। यह ठीक है कि उदारपंथियों के ये दोनों गुट ज़ार सरकार का समर्थन करते थे, लेकिन वे ज़ारशाही की 'ज़्यादतियों' का विरोध करते थे। उन्हें डर था कि इन 'ज़्यादतियों' से क्रान्तिकारी आन्दोलन और ज़ोर ही पकड़ेगा। अगर एक तरफ़ वे ज़ारशाही की 'ज़्यादतियों' से डरते थे, तो दूसरी तरफ़ वे क्रान्ति से और भी डरते थे। इन 'ज़्यादतियों' का विरोध करने में उदारपंथियों के दो उद्देश्य थे, पहला तो यह कि ज़ार 'होश में आ जाये', और दूसरा यह कि ज़ारशाही के प्रति 'गंभीर असंतोष' का चोग़ा पहनकर जनता का विश्वास हासिल करें और उसे या उसके एक हिस्से को क्रान्ति से तोड़ लें और इस तरह से क्रान्ति को कमज़ोर बनायें।
इसमें कोई शक नहीं कि ज़ेम्स्त्वो उदारपंथी आन्दोलन से ज़ारशाही के अस्तित्व के लिये किसी तरह का भी ख़तरा नहीं था। फिर भी, उससे यह ज़ाहिर हो गया कि ज़ारशाही के 'अडिग' स्तम्भ भी डगमगाने लगे हैं।
1902 में, ज़ेम्स्त्वो उदारपंथी आन्दोलन से पंूजीवादी 'देशोद्धारक' गुट का निर्माण हुआ। रूस में पंूजीपतियों की भावी मुख्य पार्टी - काॅन्स्टीट्यूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी - का यह बीज रूप था।
यह देखकर कि मज़दूरों और किसानों का आन्दोलन एक ज़बरदस्त लहर बन कर देश पर छाया जा रहा है, ज़ार सरकार ने इस क्रान्तिकारी ज्वार को रोकने के लिये भरसक सब कुछ किया। मज़दूरों की हड़तालों और प्रदर्शनों का दमन करने के लिये हथियारबंद ताक़त जल्दी-जल्दी इस्तेमाल की जाने लगी। मज़दूरों और किसानों की कार्यवाही के जवाब में, हुकूमत आम तौर से लाठी और गोली इस्तेमाल करने लगी।
जेलख़ाने और निर्वासन की जगहें ठसाठस भर गयीं। दमन के उपाय और भी सख़्ती से काम में लाने के साथ-साथ, ज़ार सरकार ने कोशिश की कि दूसरे अहिंसावादी ज़्यादा 'लचीले' तरीक़े भी इस्तेमाल करे, जिसमें कि मज़दूरों को क्रान्तिकारी आन्दोलन से हटाया जा सके। हथियारबंद सिपाहियों और पुलिस की देख-रेख में मज़दूरों के दिखावटी संगठन खड़े करने की कोशिश की गयी। इन्हें 'पुलिस समाजवाद' के संगठन या ज़ूबातोव संगठन कहा जाता था
(ज़ूबातोव हथियारबंद पुलिस का कर्नल था और वह पुलिस के निर्देश से चलने वाले इन मज़दूर संगठनों का संस्थापक था)। अपने दलालों के ज़रिये ओखराना ने मज़दूरों में यह विश्वास पैदा करने की कोशिश की कि ज़ार सरकार ख़ुद ही उनकी आर्थिक मंागों को पूरा किये जाने में मदद देने के लिये तैयार है। ज़ूबातोव के दलाल मज़दूरों से कहते: "राजनीति में पड़ने से क्या फ़ायदा, क्रान्ति आने से क्या फ़ायदा? ज़ार ख़ुद ही मज़दूरों की हिमायत कर रहा है!" कई शहरों में ज़ूबातोव संगठन बने। इन्हीं के नमूने पर और उसी उद्देश्य से 1904 में, गेपन नाम के पादरी ने पीतरबुर्ग के रूसी मिल-मज़दूरों का संघ बनाया। लेकिन ज़ारशाही ओखराना की यह कोशिश कि वह मज़दूर आन्दोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ले नाकाम रही। ज़ार सरकार इस तरह के उपायों से बढ़ते हुये मज़दूर आन्दोलन की रोक-थाम करने में असफल रही। मज़दूर वर्ग के उठते हुये क्रान्तिकारी आन्दोलन ने पुलिस के चलाये हुये इन संगठनों को अपने रास्ते से दूर फेंक दिया।
2. मार्क्सवादी पार्टी बनाने के लिये लेनिन की योजना। 'अर्थवादियों' का अवसरवाद। लेनिन की योजना के लिये 'इस्क्रा' का संघर्ष। लेनिन की पुस्तक 'क्या करें'- मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धान्तिक आधार।
बावजूद इस बात के कि रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी की पहली कांग्रेस 1898 में हो चुकी थी और उसने पार्टी बनने का ऐलान कर दिया था, अभी कोई सचमुच की पार्टी न बनी थी। न कोई पार्टी-कार्यक्रम था और न पार्टी के नियम थे। पहली कांग्रेस में जो पार्टी की केन्द्रीय समिति चुनी गई थी, वह गिरफ्तार कर ली गयी थी और किसी ने उसकी जगह न ली थी, क्योंकि जगह लेने वाला कोई था ही नहीं, इससे भी ख़राब यह था कि पहली कांग्रेस के बाद पार्टी में विचारधारा की उलझन और संगठन की एकता की कमी और भी बढ़ गयी।
1884-'94 के साल, लोकवाद पर विजय के साल थे और सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी बनाने के लिये सैद्धांतिक तैयारी के साल थे। 1894-' 98 के सालों में कोशिश की गयी, भले ही यह नाकाम कोशिश थी, कि अलग-थलग मार्क्सवादी संगठनों को सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी में मिलाकर एक किया जाये। 1898 के बाद ही जो वक़्त आया, वह ऐसा था जिसमें पार्टी के भीतर विचारधारा और-संगठन संबंधी उलझने और बढ़ गयीं। लोकवाद पर मार्क्सवादियों ने जो जीत हासिल की और मज़दूर वर्ग ने जो क्रान्तिकारी काम किये, जिनसे साबित हुआ कि मार्क्सवादी सही थे, इनसे मार्क्सवाद के लिये क्रान्तिकारी नौजवानों में हमदर्दी पैदा हुई। मार्क्सवाद एक फ़ैशन हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि झुन्ड के झुन्ड क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी मार्क्सवादी संगठनों में आ पहुचे। ये सिद्धान्त में कमज़ोर थे और राजनीतिक संगठन में अनुभवहीन थे। इनके दिमाग़ में मार्क्सवाद की एक अस्पष्ट और ज़्यादातर ग़लत धारणा थी, जिसे उन्होंने 'क़ानूनी मार्क्सवादियों' की अवसरवादी रचनाओं से पाया था। अख़बारों में इस तरह की रचनायें भरी होती थीं। नतीजा यह कि मार्क्सवादी संगठनों का सैद्धान्तिक और राजनीतिक स्तर और नीचा हुआ। इनके अन्दर 'कानूनी मार्क्सवाद' की अवसरवादी प्रवृत्तियां घर कर गयीं। उनमें सैद्धान्तिक उलझन, राजनीतिक ढुलमुलपन और संगठन की अराजकता बढ़ गयी।
मज़दूर आन्दोलन के उठते हुये ज्वार और क्रान्ति के स्पष्टतः नज़दीक आने की यह मांग थी कि मज़दूर वर्ग की एक संयुक्त और सुकेन्द्रित पार्टी हो, जो क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व कर सके। लेकिन स्थानीय पार्टी-संगठन, स्थानीय कमिटियां, स्थानीय गुट और मंडल ऐसी बुरी हालत में थे और उनकी संगठन संबंधी फूट और सैद्धान्तिक झगड़े ऐसे गंभीर थे कि इस तरह के पार्टी का निर्माण करना बहुत बड़ी कठिनाई का काम था।
कठिनाई इसी में नहीं थी कि ज़ार सरकार के बर्बर दमन का सामना करते हुये पार्टी बनानी थी। ज़ार सरकार जब-तब संगठनों के सबसे अच्छे कार्यकर्ता छीन लेती थी और उन्हें निर्वासन, जेल और कठिन मेहनत की सज़ायें देती थी। कठिनाई इस बात में भी थी कि स्थानीय कमिटियों और उनके सदस्यों की एक बड़ी तादाद अपनी स्थानीय, छोटी-मोटी अमली कार्यवाही छोड़ कर और किसी चीज़ से सरोकार न रखती थी। पार्टी के अन्दर संगठन और विचारधारा की एकता न होने से कितना नुक़सान हो रहा है, इसका अनुभव न करती थी। पार्टी के भीतर जो फूट और सैद्धान्तिक उलझन फैली हुई थी, वह उसकी आदी हो गयी थी। वह समझती थी कि बिना एक संयुक्त केन्द्रित पार्टी के भी मज़े में काम चला सकती है।
अगर केन्द्रित पार्टी बनानी थी तो यह पिछड़ापन, आलस और स्थानीय संगठनों का यह संकीर्ण दृष्टिकोण ख़त्म करना था।
लेकिन, बात इतनी ही नहीं थी। पार्टी के अन्दर ऐसे लोगों का एक काफ़ी बड़ा दल था जिनके अपने अख़बार थे - रूस में रबोचाया मिस्ल (श्रमिक विचार) और विदेश में रबोचेयेदेलो (श्रमिक ध्येय)। ये सैद्धान्तिक आधार पर संगठन की एकता के अभाव और पार्टी के अन्दर सैद्धान्तिक उलझन को सही ठहराने की कोशिश करते थे। वे अक्सर इस हालत की तारीफ़ भी करते थे। उनका दावा था कि मज़दूर वर्ग की संयुक्त और केन्द्रित राजनीतिक पार्टी बनाने की योजना ग़ैर-ज़रूरी और नक़ली थी।
ये थे 'अर्थवादी' और उनके अनुयायी।
सर्वहारा वर्ग की संयुक्त राजनीतिक पार्टी बने, इसके पहले 'अर्थवादियों' को हराना ज़रूरी था।
लेनिन ने यह काम और मज़दूर वर्ग की पार्टी के निर्माण का काम उठाया।
मज़दूर वर्ग की संयुक्त पार्टी बनाने का काम कैसे शुरू किया जाये, यह एक ऐसा सवाल था जिस पर अलग-अलग मत थे। कुछ लोगों का विचार था कि पार्टी की दूसरी कांग्रेस बुलाकर पार्टी-निर्माण का काम शुरू किया जाये। यह कांग्रेस स्थानीय संगठनों को एक करेगी और पार्टी बनायेगी। लेनिन इसका विरोध करते थे। उनका कहना था कि कांग्रेस बुलाने से पहले पार्टी के उद्देश्य और ध्येय साफ़ कर देना ज़रूरी है, यह मालूम करना ज़रूरी है कि किस तरह की पार्टी दरकार है, 'अर्थवादियों' से सैद्धान्तिक भेद करना ज़रूरी है, ईमानदारी से साफ़-साफ़ पार्टी से यह कहना ज़रूरी है कि पार्टी के ध्येय और उद्देश्यों के बारे में दो अलग मत मौज़ूद हैं - 'अर्थवादियों' का मत और क्रान्तिकारी सोशल-डेमोक्रैटों का मत - अख़बारों में क्रान्तिकारी सोशल - डेमोक्रैसी के विचारों के पक्ष में व्यापक आन्दोलन करना ज़रूरी है - जैसे कि 'अर्थवादी' अपने अख़बारों में अपने विचारों के पक्ष में आन्दोलन चला रहे थे - और इन दो धाराओं में से एक को जानबूझ कर चुनने के लिये स्थानीय संगठनों को मौक़ा देना ज़रूरी है। यह शुरू का लाज़िमी काम पूरा होने पर ही पार्टी कांग्रेस बुलाई जा सकती थी।
लेनिन ने साफ़-साफ़ कहा:
"इसके पहले कि हम मिलें और इसलिये मिलें कि, हमें मतभेद की स्पष्ट और निश्चित रेखायें खींच लेनी चाहिये।" (लेनिन, संक्षिप्त ग्रंथावली, अंग्रेज़ी संस्करण, मास्को, 1947, खन्ड 1, पृष्ठ 162)
इसी के अनुसार, लेनिन का कहना था कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी बनाने का काम अखिल रूसी पैमाने पर एक लड़ाकू राजनीतिक अख़बार स्थापित करके शुरू करना चाहिये। यह अख़बार क्रान्तिकारी सोशल-डेमोक्रेसी के विचारों के पक्ष में प्रचार और आन्दोलन करे। इस तरह के अख़बार की स्थापना पार्टी के निर्माण में पहला क़दम होगी।
अपने प्रसिद्ध लेख "शुरूआत कहां हो?" में, लेनिन ने पार्टी के निर्माण के लिये एक ठोस योजना की रूपरेखा पेश की थी। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक क्या करें? में, लेनिन ने आगे चलकर इसी योजना को विस्तृत रूप दिया।
लेनिन ने इस लेख में कहा था:
"हमारी राय में हमारी कार्यवाही की शुरूआत अखिल रूसी पैमाने पर एक राजनीतिक अख़बार की स्थापना से होनी चाहिये। जिस तरह का संगठन हम चाहते हैं (यानि पार्टी का निर्माण-सम्पादक), उसके लिये यह पहला अमली क़दम होगा। यही मुख्य सूत्र होगा जिसके सहारे हम संगठन को अटल रूप से विकसित कर सकेंगे, उसमें गंभीरता पैदा कर सकेंगे और उसका प्रसार कर सकेंगे।... इसके बिना हम बाक़ायदा वह व्यापक प्रचार और आन्दोलन नहीं कर सकते, जो हमेशा सैद्धान्तिक रहे और जो आम तौर से सोशल-डेमोक्रैटों का मुख्य और हर समय का काम है। आजकल जबकि राजनीति से, समाजवाद के सवालों से जनता के भारी हिस्सों में दिलचस्पी पैदा हो गयी है, इस तरह का प्रचार और आन्दोलन ख़ास तौर से ज़रूरी काम है।" लेनिन, संक्षिप्त ग्रंथावली, रूसी संस्करण, खन्ड 4, पृष्ठ 110)
लेनिन का विचार था कि इस तरह के अख़बार से सैद्धान्तिक रूप में ही पार्टी एक न होगी बल्कि उसके भीतर स्थानीय संस्थायें भी संगठन की दृष्टि से एक होंगी। अख़बार के लिये जो एजेन्टों और संवाददाताओं का जाल बिछ जायेगा, उससे एक ऐसा ढांचा खड़ा होगा जिसके चारों तरफ़ संगठन की दृष्टि से पार्टी का निर्माण हो सकेगा। ये एजेन्ट और संवाददाता स्थानीय संगठनों के प्रतिनिधि होंगे। लेनिन का कहना था "अख़बार एक सामूहिक प्रचारक और एक सामूहिक आन्दोलनकर्ता ही नहीं है, बल्कि एक सामूहिक संगठनकर्ता भी है।"
लेनिन ने उसी लेख में लिखा था:
"एजेन्टों का यह जाल उस संगठन का ही ढांचा बन जायेगा जिसकी हमें ज़रूरत है, यानि ऐसा ढांचा जो इतना बड़ा हो कि सारे देश में फैला हो, इतना व्यापक और चैमुखी हो कि मेहनत का बंटवारा सख़्ती के साथ और विस्तार के साथ हो सके। यह ढांचा काफ़ी परखा हुआ और तपाया हुआ हो कि सभी हालतों में, सभी 'मोड़ों' पर और हर तरह की आकस्मिक परिस्थिति में अटल होकर अपना काम चलाता रहे। वह इतना लचीला हो कि बहुत ज़्यादा ताकतवर दुश्मन से खुली लड़ाई लड़ने से बचे जबकि दुश्मन ने अपनी सारी ताकत एक जगह बटोर ली हो और फिर भी, इस दुश्मन के भोंड़ेपन का फायदा उठा सके और जहां भी और जिस समय भी उसे सबसे कम उम्मीद हो, हमला कर सके।" (उपर्युक्त, पृष्ठ 112)
इस्क्रा ऐसा ही अख़बार बनने वाला था।
और सचमुच, कुल रूसी पैमाने पर इस्क्रा ऐसा ही राजनीतिक अख़बार बना कि जिसने पार्टी को विचारधारा और संगठन में मज़बूत करने के लिये रास्ता तैयार किया।
जहां तक पार्टी की बनावट और ढांचे का सम्बन्ध था, लेनिन का विचार था कि उसके दो हिस्से होने चाहिये - अ) पार्टी के नियमित प्रमुख कार्यकर्ताओं का एक भीतरी व्यूह हो, जिसमें मुख्यकर पेशेवर क्रान्तिकारी हों, यानि पार्टी के ऐसे कार्यकर्ता जो पार्टी के काम के अलावा और सभी धंधों से आज़ाद हों और जिनके पास कम से कम आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान, राजनीतिक अनुभव हो, संगठन का अभ्यास और ज़ार की पुलिस का मुक़ाबिला करने तथा उससे बचने की कला हो; आ) स्थानीय पार्टी-संगठनों का विशद जाल हो और पार्टी के सदस्यों की एक बड़ी तादाद हो, जिनकी तरफ़ लाखों मेहनतकशों की हमदर्दी हो और वे उनका समर्थन करते हों।
लेनिन का कहना था:
"मेरा दावा है कि 1) कोई भी क्रान्तिकारी आन्दोलन नेताओं के ऐसे टिकाऊ संगठन के बिना, जो लगातार कायम रहे, चल नहीं सकता; 2) संघर्ष में आम जनता जितना ही अपने-आप कूदती है... उतना ही इस संगठन की ज़रूरत बढ़ जाती है और संगठन उतना ही मज़बूत होना चाहिये... । 3) इस तरह के संगठन में मुख्यतः ऐसे लोग होने चाहिये जो क्रान्तिकारी काम में पेशेवर तरीके से लगे हों। 4) स्वेच्छाचारी राज्य में इस तरह के संगठन की सदस्यता को जितना ही हम ऐसे लोगों के लिये सीमित रखेंगे जो पेशेवर तरीके से क्रान्तिकारी काम में लगे हों और जिन्हें पेशे के तौर पर राजनीतिक पुलिस का मुकाबिला करने की कला में शिक्षा हो, उतना ही इस तरह के संगठन को मिटाना मुश्किल होगा; और 5) उतना ही मज़दूर वर्ग और समाज के दूसरे वर्गों के लोगों की तादाद, जो आन्दोलन में शामिल हो सकेंगे और उसमें सक्रिय भाग ले सकेंगे, बड़ी होगी।" (उपर्युक्त, पृष्ठ 456)।
जहां तक बनाई जाने वाली पार्टी के स्वरूप का सम्बन्ध था और मज़दूर वर्ग के सम्बन्ध में उसकी भूमिका और उसके उद्देश्य और ध्येय का सवाल था, लेनिन का कहना था कि पार्टी मज़दूर वर्ग की हिरावल हो, वह मज़दूर आन्दोलन को रास्ता दिखाने वाली ताकत हो जो सर्वहारा के वर्ग-संघर्षों का संचालन करे और उन्हें आपस में मिलाये। पार्टी का अंतिम ध्येय पंूजीवाद का ख़ात्मा और समाजवाद कायम करना था। फौरी ध्येय ज़ारशाही का खात्मा और जनवादी व्यवस्था कायम करना था। चंूकि ज़ारशाही को पहले ख़त्म किये बिना पंूजीवाद को ख़त्म करना नामुमकिन था, इसलिये उस वक़्त पार्टी का मुख्य काम मज़दूर वर्ग और तमाम जनता को ज़ारशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिये उभारना था, उसके ख़िलाफ़ जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलन को विकसित करना था और समाजवाद के रास्ते में उसे पहली और भारी अड़चन समझ कर ख़त्म करना था।
लेनिन ने लिखा था:
"इतिहास ने अब हमारे सामने एक फ़ौरी काम रखा है। किसी भी देश के सर्वहारा के सामने जो फ़ौरी काम हैं, उनमें यह सबसे क्रान्तिकारी है। इस काम के पूरा होने से, यूरोपीय प्रतिक्रियावाद ही नहीं, बल्कि (अब यह कहा जा सकता है कि) एशियायी प्रतिक्रियावाद के सबसे शक्तिशाली गढ़ के विनाश से रूसी सर्वहारा वर्ग अंतर्राष्टंीय क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का हिरावल बन जायेगा।" (उपर्युक्त, पृष्ठ 382)।
और भी आगे:
"हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि आंशिक मांगों के लिये हुकूमत से संघर्ष, आंशिक रियायतों की जीत, दुश्मन से छोटी-मोटी मुठभेड़ ही है। यह बाहर की चैकियों पर छोटी टक्करें हैं, जबकि निपटारे की लड़ाई अभी होने को है। हमारे सामने अपनी भरपूर ताकत से सुसज्जित दुश्मन का किला खड़ा हुआ है। वह हम पर गोला-बारूद बरसा रहा है और हमारे सबसे अच्छे सिपाहियों को भूने डाल रहा है। इस किले पर हमें कब्ज़ा करना है। हम उस पर कब्ज़ा कर लेंगे, बशर्ते कि हम जागते हुये सर्वहारा की सभी ताकतों को रूसी क्रान्तिकारियों की ताकतों के साथ एक ही पार्टी में मिलायें, जो पार्टी रूस में जो कुछ भी जीवित और ईमानदार है, उसे अपनी तरफ़ खींचे। और, तभी रूस के मज़दूर क्रान्तिकारी प्योत्र एलैक्सीयेव की महान भविष्यवाणी पूरी होगी: 'लाखों मेहनतकशों की सशक्त भुजा उठेगी और तानाशाही का किला, जिसकी हिफ़ाज़त सिपाहियों की संगीनें कर रही हैं, चूर-चूर हो जायेगा'।" (उपर्युक्त, पृष्ठ 59)।
निरंकुश ज़ारशाही के रूस में मज़दूर वर्ग की पार्टी बनाने के लिये, लेनिन की योजना इस तरह की थी।
लेनिन की योजना के ख़िलाफ़ जिहाद बोलने में 'अर्थवादियों' ने ज़रा भी देर न लगायी।उनका दावा था कि ज़ारशाही के ख़िलाफ़ आम राजनीतिक संघर्ष चलाने में सभी वर्गों को दिलचस्पी है, लेकिन मुख्यतः पंूजीपतियों को है। और इसलिये, मज़दूर वर्ग को उससे गहरी दिलचस्पी नहीं है क्योंकि मज़दूरों का मुख्य हित ज़्यादा तनख़्वाह, काम करने की बेहतर हालत वग़ैरह के लिये अपने मालिकों के ख़िलाफ़ आर्थिक लड़ाई लड़ने में है। इसलिये, सोशल-डेमोक्रैटों का पहला और मुख्य ध्येय ज़ारशाही के ख़िलाफ़ राजनीतिक संघर्ष न होना चाहिये, ज़ारशाही का खात्मा न होना चाहिये बल्कि "मालिकों और सरकार के ख़िलाफ़ मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष" का संगठन होना चाहिये। सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष से उनका मतलब ज़्यादा अच्छे मिल सम्बन्धी कानून बनवाने से था। 'अर्थवादियों' का कहना था कि इस तरह से "आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देना" मुमकिन होगा।
'अर्थवादियों' की अब यह हिम्मत नहीं थी कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी की आवश्यकता का खुलकर विरोध करें। लेकिन वे समझते थे कि उसे मज़दूर आन्दोलन की निर्देशक शक्ति न होना चाहिये, उसे मज़दूर वर्ग के अपने-आप चलने वाले आन्दोलन का संचालन करना तो दूर, उसमें दख़ल भी न देना चाहिये, बल्कि उसे इस आन्दोलन के पीछे चलना चाहिये, उसका अध्ययन करना चाहिये और उसे सबक लेना चाहिये।
इसके अलावा, 'अर्थवादी' कहते थे कि मज़दूर आन्दोलन के सचेत लोगों की भूमिका, समाजवादी चेतना और समाजवादी सिद्धान्त की संगठन और संचालन सम्बन्धी भूमिका नगण्य है, या करीब-करीब नगण्य है। उनका कहना था कि सोशल-डेमोक्रैटों को मज़दूरों के शऊर को समाजवादी चेतना की सतह तक न उठाना चाहिये, बल्कि उल्टा औसत दर्जे के मज़दूरों, मज़दूर वर्ग के ज़्यादा पिछड़े हुये हिस्सों की सतह तक उन्हें खुद झुकना चाहिये; उनसे अपनी पटरी बैठानी चाहिये। सोशल-डेमोक्रैटों को यह न चाहिये कि मज़दूर वर्ग में समाजवादी चेतना पैदा करें, बल्कि तब तक इंतज़ार करना चाहिये जब तक कि मज़दूर वर्ग का अपने-आप चलने वाला आन्दोलन समाजवादी चेतना की सतह तक खुद ही न पहुँच जाये।
जहां तक पार्टी के संगठन के लिये लेनिन की योजना का सवाल था, 'अर्थवादी' उसे अपने-आप चलने वाले आन्दोलन के ख़िलाफ़ करीब-करीब हिंसा का ही काम समझते थे।
इस्क्रा के काॅलमों में और ख़ास तौर से अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'क्या करें?' में, लेनिन ने 'अर्थवादियों' के इस अवसरवादी दर्शन पर कस कर हमला किया और उसे निर्मूल कर दिया।
(1) लेनिन ने दिखलाया कि ज़ारशाही के ख़िलाफ़ आम राजनीतिक संघर्ष से मज़दूर वर्ग को हटाना और मालिकों और सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष तक उसका काम सीमित रखना, जबकि मालिक और सरकार दोनों बरकरार रहने दिये जायें, इसके माने यह थे कि मज़दूरों को हमेशा के लिये गुलामी करने के लिये छोड़ दिया जाये। मालिकों और सरकार के ख़िलाफ़ मज़दूरों की आर्थिक लड़ाई पूंजिपतियों को अपनी श्रम-शक्ति बेचने में ज़्यादा अच्छी शर्तें पाने के लिये एक ट्रेड यूनियन लड़ाई थी। लेकिन मजदूर पूंजीपतियों को अपनी श्रम-शक्ति बेचने में ज्यादा अच्छी शर्तों के लिये ही न लड़ना चाहते थे, बल्कि उस पूंजीवादी व्यवस्था के खात्में के लिये भी लड़ना चाहते थे जो उन्हें पूंजीपतियों को अपनी श्रम-शक्ति बेचने पर और शोषित होने पर मजबूर करती थी। लेकिन जब तक मज़दूर आन्दोलन के रास्ते को पूंजीवाद के रखवाले कुत्ते ज़ार शासन ने रोक रखा था, तब तक मज़दूर पूंजीवाद के ख़िलाफ़ अपना संघर्ष, समाजवाद के लिये अपना संघर्ष पूरी तरह विकसित नहीं कर सकते थे। इसलिये, पार्टी और मज़दूर वर्ग का यह फ़ौरी काम था कि रास्ते से ज़ारशाही को हटाया जाये और इस तरह समाजवाद के लिये रास्ता साफ़ किया जाये।
(2) लेनिन ने दिखलाया कि मज़दूर आन्दोलन के अपने-आप चलने की तारीफ़ करना, इस बात से इंकार करना कि पार्टी को प्रमुख भूमिका अदा करनी है, सिर्फ़ घटनाओं का हिसाब रखने तक उसकी भूमिका घटा देना, पिछलगुआपन (ख्वोस्तीवाद) का प्रचार करना था, पार्टी को अपने-आप चलने वाले घटना-क्रम की दुम बना देने का प्रचार करना था, उसे आन्दोलन में एक निष्क्रिय ताकत बना देना था जो सिर्फ़ अपने-आप होने वाले घटना-क्रम को देखा भर करे और घटनाओं को अपने तरीके से होने दे। यह सब प्रचार करने का मतलब था - पार्टी के नाश के लिये काम करना, यानि मज़दूर वर्ग को बिना पार्टी के कर देना, यानि मज़दूर वर्ग को निहत्था छोड़ देना। लेकिन ज़ारशाही जैसे दुश्मन के सामने, जो सिर से पैर तक हथियारों से लैस थी, और पूंजीपतियों जैसे दुश्मन के सामने, जो आधुनिक तरीके से संगठित थे और मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ अपना संघर्ष चलाने के लिये खुद अपनी पार्टी बनाये हुये थे, मज़दूर वर्ग को निहत्था छोड़ने का मतलब था - उसके साथ गद्दारी करना।
(3) लेनिन ने दिखलाया कि अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन की पूजा करना और चेतना के महत्व को कम और समाजवादी सिद्धान्त के महत्व को तुच्छ बताना, सबसे पहले मज़दूरों का अपमान करना था, जो चेतना की तरफ़ वैसे ही झुकते थे जैसे प्रकाश की तरफ़। इसके अलावा, उसे तुच्छ बताने का मतलब था - पार्टी की नज़र में सिद्धान्त की कीमत कम करना, यानि उस अस्त्र को ही तुच्छ बताना जिसकी मदद से पार्टी वर्तमान को समझ सकती थी और भविष्य को देख सकती थी। और तीसरे, चेतना को तुच्छ बताने का मतलब था - अवसरवाद के दलदल में पूरी तरह अटल रूप से फंस जाना।
लेनिन ने लिखा था:
"क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं चल सकता।... लड़ाकू हिरावल का काम ऐसी ही पार्टी कर सकती है जो सबसे आगे बढ़े हुये सिद्धान्त से अपना रास्ता पहचानती हो।" (लेनिन, संक्षिप्त ग्रंथावली, अंग्रेजी संस्करण, मास्को, 1947, खण्ड1, पृष्ठ 163, 164 )।
(4) लेनिन ने दिखलाया कि 'अर्थवादी' यह कहकर कि अपने-आप चलने वाले मज़दूर आंदोलन से समाजवादी विचारधारा पैदा हो सकती है, मज़दूर वर्ग को धोखा दे रहे थे। कारण यह कि समाजवादी विचारधारा अपने-आप चलने वाले आन्दोलन में नहीं पैदा होती, बल्कि विज्ञान से पैदा होती है। मज़दूर वर्ग में समाजवादी चेतना फैलाने की ज़रूरत से इंकार करके, 'अर्थवादी' पूंजीवादी विचारधारा के लिये रास्ता साफ़ कर रहे थे। वे मज़दूर वर्ग में पूंजीवादी विचारधारा को पहुचाने और फैलाने का काम आसान बना रहे थे। और इसलिये, वे मज़दूर आन्दोलन से समाजवाद को मिलाने के विचार को दफ़ना रहे थे और इस तरह पूंजीपतियों की मदद कर रहे थे।
लेनिन ने कहा था:
"मज़दूर आन्दोलन के अपने-आप चलने, स्वतः स्फूर्त होने की सभी पूजा, 'सचेत लोगों' की भूमिका और सोशल-डेमोक्रैसी की पार्टी की भूमिका को कम करने की सभी कोशिशों का मतलब है - मज़दूरों में पूंजीवादी विचारधारा के असर को मज़बूत करना, और यह सवाल बिल्कुल दरकिनार है कि वह ऐसा करना चाहते हैं या नहीं।" (उपर्युक्त, पृष्ठ 173)।
और आगे:
"हमारे सामने एक ही रास्ता हैः या तो पूंजीवादी विचारधारा या समाजवादी विचारधारा। बीच का रास्ता नहीं है।... इसलिये समाजवादी विचारधारा को किसी तरह कम करके बताना, उससे ज़रा भी हटना पूंजीवादी विचारधारा को मज़बूत करना है।" (उपर्युक्त, पृष्ठ 174, 175)
'अर्थवादियों' की इन तमाम भूलों का सार देते हुये, लेनिन इस नतीजे पर पहुँचे थे कि वे लोग पूंजीवाद से मज़दूरों को मुक्त करने के लिये सामाजिक क्रान्ति की पार्टी न चाहते थे, बल्कि 'सामाजिक सुधार' की पार्टी चाहते थे। 'सामाजिक सुधार' की पार्टी चाहने का मतलब था पूंजीवादी हुकूमत को बने रहने देना। इसलिये, 'अर्थवादी' सुधारवादी थे, जो सर्वहारा वर्ग के बुनियादी हितों के साथ ग़द्दारी कर रहे थे।
(5 ) अंत में, लेनिन ने दिखलाया कि रूस में 'अर्थवाद' आकस्मिक घटना नहीं है; 'अर्थवादी' मज़दूर वर्ग पर पूंजीवादी असर डालने का साधन हैं। पच्छिमी यूरोप की सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियों में भी उनके साथी थे। अवसरवादी बन्र्सटाइन के अनुयायी, 'संसोधनवादी' उनके साथी थे। पच्छिमी यूरोप में सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियों के अन्दर अवसरवादी प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ रही थी। मार्क्स की "आलोचना करने की आज़ादी" के नाम पर, ये लोग मार्क्सवादी सिद्धान्तों में संसोधन करने की मांग करते थे। (इसीलिये 'संसोधनवादी' शब्द बना।) ये लोग मांग करते थे कि क्रान्ति त्याग दी जाये, समाजवाद और सर्वहारा वर्ग की डिक्टेटरशिप को त्याग दिया जाये। लेनिन ने दिखलाया कि रूसी 'अर्थवादी' भी क्रान्तिकारी संघर्ष को छोड़ने की, समाजवाद और सर्वहारा डिक्टेटरशिप त्यागने की वैसी ही नीति पर चल रहे थे।
क्या करें? नाम की पुस्तक में, लेनिन ने इस तरह के सैद्धान्तिक उसूलों का विवेचन किया था।
इस किताब के व्यापक रूप से पढ़े जाने से नतीजा यह हुआ कि रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी की दूसरी कांग्रेस तक, यानि प्रकाशित होने के साल भर के भीतर ही (मार्च 1902 में वह प्रकाशित हुई थी), 'अर्थवाद' के उसूलों की एक कड़वी याद भर रह गयी। पार्टी के ज़्यादातर सदस्य 'अर्थवादी' कहलाना अपमान की बात समझने लगे।
'अर्थवाद' की यह करारी सैद्धान्तिक हार थी; यह अवसरवाद, पिछलगुआपन और अपने-आप चलने वाले आन्दोलन की पूजा की करारी हार थी।
लेकिन, लेनिन की पुस्तक क्या करें? का महत्व यहीं ख़त्म नहीं हो जाता।
इस प्रसिद्ध पुस्तक का महत्व इस बात में है कि इसके अन्दर लेनिन ने:
(1) मार्क्सवादी विचारों के इतिहास में पहली बार, अवसरवाद की सैद्धान्तिक जड़ों को उघार कर रख दिया और यह दिखलाया कि ये जड़ें सबसे अधिक अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन की पूजा करने और मज़दूर आन्दोलन में समाजवादी चेतना कम करने में है;
(2 ) अपने-आप चलने वाले मज़दूर आन्दोलन में सिद्धान्त के, चेतना के और पार्टी के भारी महत्व को दिखाया कि वह क्रान्तिकारी तब्दीली करने वाली और रास्ता दिखाने वाली ताकत है;
(3) इस बुनियादी मार्क्सवादी सूत्र को बहुत सुन्दर ढंग से पुष्ट किया कि मार्क्सवादी पार्टी समाजवाद से मज़दूर आन्दोलन का मेल है;
(4) मार्क्सवादी पार्टी की सैद्धान्तिक बुनियाद की बहुत सुन्दर व्याख्या की।
क्या करें? नाम की पुस्तक में सिद्धान्त के जो विचार रखे गये थे, वे आगे चल कर बोल्शेविक पार्टी की विचारधारा की बुनियाद बने।
सिद्धान्त की ऐसी निधि पास होने पर इस्क्रा पार्टी बनाने के लिये, अपनी ताकत बटोरने के लिये, दूसरी पार्टी कांग्रेस बुलाने के लिये, क्रान्तिकारी सोशल-डेमोक्रैसी के समर्थन और 'अर्थवादियों', संशोधनवादियों और सभी तरह के अवसरवादियों के विरोध की लेनिन की योजना कारगर करने के लिये एक व्यापक आन्दोलन कर सका और हक़ीक़त में ऐसा आन्दोलन उसने किया।
इस्क्रा ने जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात की वह पार्टी-कार्यक्रम का मसौदा तैयार करना था। जैसा कि हम जानते हैं, मज़दूरों की पार्टी का कार्यक्रम मज़दूर वर्ग के संघर्ष के ध्येय और उद्देश्यों का संक्षेप में और वैज्ञानिक ढंग से लिखा हुआ बयान होता है। कार्यक्रम सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन के अंतिम उद्देश्य की व्याख्या भी करता है और इस अंतिम उद्देश्य तक पहुँचने के रास्ते में जिन मांगों के लिये पार्टी लड़ती है, उनकी व्याख्या भी करता है। इसलिये, कार्यक्रम का मसौदा तैयार करना सबसे ज़्यादा महत्व की बात थी।
कार्यक्रम का मसौदा तैयार करते हुए, इस्क्रा के सम्पादक-मण्डल में एक तरफ़ लेनिन और दूसरी तरफ़ प्लेखानोव और मण्डल के दूसरे सदस्यों के बीच गम्भीर मतभेद उठ खड़े हुए। इन मतभेदों और झगड़ों से लेनिन और प्लेखानोव का सम्बन्ध करीब-करीब टूटने को हो आया। लेकिन, उस वक़्त बात यहां तक नहीं बढ़ी। लेनिन इस बात में सफल रहे कि कार्यक्रम के मसौदे में सर्वहारा-डिक्टेटरशिप के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण धारा रहे और क्रान्ति में मज़दूर वर्ग की प्रमुख भूमिका के बारे में साफ़ बयान रहे।
लेनिन ने ही कार्यक्रम का खेती सम्बन्धी हिस्सा लिखा था। उस समय ही, लेनिन ज़मीन के राष्टीयकरण के पक्ष में थे। लेकिन, संघर्ष की पहली मंज़िल में वह इस बात को ज़रूरी समझते थे कि किसानों की अतरेज़्की, यानि किसानों की 'मुक्ति' के समय ज़मींदारों ने उनकी ज़मीन से जो हिस्से छांटे लिये थे, उन्हें वापस करने की मांग रखी जाये। प्लेखानोव ने ज़मीन के राष्टीयकरण की मांग का विरोध किया था।
लेनिन और प्लेखानोव में पार्टी-कार्यक्रम के बारे में जो झगड़े हुए, उन्होंने किसी हद तक बोल्शेविकों और मेन्शेविकों के भावी मतभेदों की रूपरेखा बनाई।
3. रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की दूसरी कांग्रेस। कार्यक्रम और नियमों की स्वीकृति और एक ही पार्टी का निर्माण। कांग्रेस में मतभेद और पार्टी के अन्दर दो प्रवृत्तियों का प्रकट होना: बोल्शेविक और मेन्शेविक।
इस तरह, लेनिन के सिद्धान्तों की जीत से और संगठन सम्बन्धी लेनिन की योजना के लिये इस्क्रा के सफल संघर्ष से वे तमाम मुख्य बातें तैयार हो गयीं, जो कि पार्टी बनाने के लिये, या जैसा कि उस समय कहा जाता था, एक सच्ची पार्टी बनाने के लिये ज़रूरी थीं। रूस के सोशल-डेमोक्रैटिक संगठनों में इस्क्रावादी रूझान प्रमुख हो गया। अब दूसरी पार्टी कांग्रेस बुलाई जा सकती थी।
17 जुलाई (नयी शैली, 30 जुलाई) 1903 को रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की दूसरी कांग्रेस शुरू हुई। वह विदेश में गुप्त रूप से की गयी थी। पहले वह ब्रूसेल्स में हुई। बेल्जियम की पुलिस ने प्रतिनिधियों से देश छोड़ देने की प्रार्थना की। उसके बाद, कांग्रेस ने अपना अधिवेशन लंदन में किया।
26 संगठनों से 43 प्रतिनिधि कांग्रेस में इकट्ठे हुए थे। हर कमिटी को अधिकार था कि दो प्रतिनिधि भेजे, लेकिन कुछ ने एक ही भेजा था। 43 प्रतिनिधियों के आपस में कुल मिलाकर 51 वोट थे।
कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य "एक सच्ची पार्टी बनाना था, जिसका आधार वे सिद्धान्त और संगठन हों जिन्हें इस्क्रा ने पेश किया था और जिनकी उसने विस्तार में व्याख्या की थी।" (लेनिन, सं.ग्रं, अं.सं, मास्को, 1947, खं. 1, पृष्ठ 273)।
कांग्रेस में आये हुए प्रतिनिधि तरह-तरह के थे। खुले हुए 'अर्थवादी' उनमें न थे क्योंकि उनकी हार हो चुकी थी, लेकिन उसके बाद उन्होंने अपने विचारों को ऐसी चतुराई से नया लिवास पहनाया था कि अपने कई प्रतिनिधि कांग्रेस के भीतर भेज देने में वे कामयाब हुए। इसके सिवा, बुन्द के प्रतिनिधि 'अर्थवादियों' से सिर्फ़ ऊपरी तौर पर ही भिन्न थे। वास्तव में, वे 'अर्थवादियों' का समर्थन करते थे।
इस तरह, कांग्रेस में इस्क्रा के ही समर्थक न थे बल्कि उसके विरोधी भी थे। 33 प्रतिनिधि, यानि बहुमत, इस्क्रा के समर्थक थे। लेकिन वे सभी लोग जो अपने को इस्क्रावादी समझते थे, सच्चे लेनिनपंथी इस्क्रावादी नहीं थे। प्रतिनिधि कई गुटों में बंट गये। लेनिन के समर्थकों, यानि पक्के इस्क्रावादियों, के 24 वोट थे। 9 इस्क्रावादी मारतोव के अनुयायी थे; ये कच्चे इस्क्रावादी थे। कुछ प्रतिनिधि इस्क्रा और उसके विरोधियों के बीच में ढुलमुलाते रहते थे। इनके 10 वोट थे और इनसे मिलकर 'केन्द्र' बना था: इस्क्रा के खुले विरोधियों के 8 वोट थे (3 'अर्थवादी' और 5 बुन्दवादी)। इस्क्रावादियों की पांती में फूट का मतलब होता कि इस्क्रा के दुश्मनों की बन आती।
इससे देखा जा सकता है कि कांग्रेस में परिस्थिति कितनी उलझी हुई थी। इस्क्रा की जीत पक्की करने के लिये लेनिन ने बहुत बड़ी शक्ति लगायी।
एजेण्डे पर सबसे महत्वपूर्ण बात पार्टी के प्रोग्राम की स्वीकृति थी। प्रोग्राम पर बहस के दौर में कांग्रेस के अवसरवादी लोगों को जिस खास बात पर आपत्ति थी, वह सर्वहारा-डिक्टेटरशिप का सवाल था। प्रोग्राम में कुछ बातें और थीं जिन पर अवसरवादी कांग्रेस के क्रान्तिकारी हिस्से से सहमत नहीं थे। लेकिन, उन्होंने सर्वहारा-डिक्टेटरशिप के सवाल पर मुख्य लड़ाई लड़ने का विचार किया। उनकी दलील यह थी कि विदेश की और कई सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियों के कार्यक्रम में सर्वहारा-डिक्टेटरशिप के बारे में कोई धारा नहीं है और इसलिये रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी के कार्यक्रम से भी उसे दूर रखा जा सकता है।
किसानों के सवाल पर भी अवसरवादी लोग पार्टी-प्रोग्राम में मांग रखने पर आपत्ति कर रहे थे। ये लोग क्रान्ति न चाहते थे। इसलिये, मज़दूर वर्ग के सहयोगी - किसानों - के सवाल पर झेंपते थे और उनकी तरफ़ ग़ैरदोस्ताना भाव रखते थे।
बुन्दवादी और पोलैण्ड के सोशल-डेमोक्रैटों ने जातियों के आत्म-निर्णय के अधिकार पर आपत्ति की। लेनिन ने हमेशा सिखलाया था कि मज़दूर वर्ग को जातीय उत्पीड़न का मुक़ाबिला करना चाहिये। प्रोग्राम में इस मांग को रखने पर आपत्ति करने का यही मतलब था कि सर्वहारा अंतराष्टीय के उसूल को छोड़ दिया जाये और जातीय उत्पीड़न का साझीदार बना जाये।
लेनिन ने इन तमाम आपत्तियों को चुटकी से मसल दिया।
कांग्रेस ने इस्क्रा द्वारा पेश किये हुये प्रोग्राम को स्वीकार किया।
इस प्रोग्राम के दो हिस्से थे - एक तो अधिकतम प्रोग्राम और दूसरा अल्पतम प्रोग्राम। अधिकतम प्रोग्राम में मज़दूर वर्ग की पार्टी के मुख्य ध्येय की चर्चा थी, यानि कि समाजवादी क्रान्ति, पूंजीपतियों की ताकत का ख़ात्मा और सर्वहारा-डिक्टेटरशिप की स्थापना की चर्चा थी। अल्पतम प्रोग्राम में पार्टी के फ़ौरी उद्देश्यों की चर्चा थी, ऐसे उद्देश्यों की जो पंूजीवादी व्यवस्था के ख़ात्में और सर्वहारा-डिक्टेटरशिप के कायम किये जाने से पहले हासिल कि ये जायेंगे, यानि निरंकुश ज़ारशाही के ख़ात्में, जनवादी प्रजातंत्र की स्थापना, 8 घन्टों का दिन चालू करने, गांवों में भूदास प्रथा के सभी अवशेषों को ख़त्म करने और ज़मींदारों द्वारा छीनी हुई सभी भूमि (अतरेज़्की) किसानों को वापस देने की चर्चा थी।
आगे चलकर, अतरेज़्की वापस करने की मांग के बदले बोल्शेविकों ने सभी ज़मींदारियों को छीन लेने की मांग प्रोग्राम में रखी।
दूसरी कांग्रेस ने जो प्रोग्राम स्वीकार किया, वह मज़दूर वर्ग की पार्टी का इंक़लाबी प्रोग्राम था।
सर्वहारा क्रान्ति की जीत के बाद होने वाली, आठवीं पार्टी कांग्रेस तक यह प्रोग्राम चालू रहा। उस समय हमारी पार्टी ने नया कार्यक्रम स्वीकार किया।
प्रोग्राम स्वीकार करने के बाद, दूसरी पार्टी कांग्रेस ने पार्टी-नियमावली के मसौदे पर बहस शुरू की। चूंकि अब कांग्रेस ने एक प्रोग्राम मंज़ूर कर लिया था और पार्टी की सैद्धान्तिक एकता की बुनियाद डाल दी थी, इसलिये उसे पार्टी-नियमावली इस तरह अपनानी थी कि मण्डलों के अधकचरेपन और उनके स्थानीय दृष्टिकोण खात्मा हो जाये, संगठन सम्बन्धी फूट और पार्टी में सख़्त अनुशासन के अभाव का ख़ात्मा हो जाये।
प्रोग्राम को स्वीकार करने का काम निस्बतन आसानी से हो गया था, लेकिन कांग्रेस में पार्टी-नियमों को लेकर भारी झगड़े उठ खड़े हुये। सबसे तीख़े मतभेद नियमावली का पहला पैरा रचने के बारे में थे, जिसमें पार्टी सदस्यता की चर्चा थी। पार्टी सदस्य कौन हो सकता है, पार्टी की बनावट क्या हो, पार्टी के संगठन की शक्ल कैसी हो, वह एक संगठित इकाई हो या उसकी रूपरेखा अनिश्चित हो?-इस तरह के सवाल नियमावली के पहले पैरा के सिलसिले में उठ खड़े हुए। दो तरह के मसौदों में टक्कर थी: लेनिन का मसौदा, जिसका समर्थन प्लेखानोव और पक्के इस्क्रावादी कर रहे थे; और मारतोव का मसौदा, जिसका समर्थन ऐक्सेलरोद, ज़ासूलिच, कच्चे इस्क्रावादी, त्रात्स्की और कांग्रेस में आये हुए सभी खुले अवसरवादी कर रहे थे।
लेनिन के मसौदे के अनुसार, जो पार्टी का प्रोग्राम माने, पैसे से पार्टी की मदद करे और उसके किसी संगठन का सदस्य हो, वही पार्टी सदस्य हो सकता था। मारतोव के मसौदे के अनुसार, प्रोग्राम मानना और पैसे से पार्टी की मदद करना पार्टी सदस्यता के लिये लाज़िमीं शर्तें तो थीं, लेकिन किसी पार्टी-संगठन का सदस्य होना पार्टी सदस्य के लिये शर्त न होनी चाहिये थी। उसका कहना था कि पार्टी सदस्य के लिये ज़रूरी नहीं है कि वह किसी पार्टी-संगठन में हो ही।
लेनिन के अनुसार, पार्टी एक संगठित दस्ता थी। उसके सदस्य पार्टी में हर किसी तरह नाम न लिखा सकते थे। वे पार्टी के किसी संगठन के ज़रिये ही उसमें भर्ती हो सकते थे। इसलिये, उनके लिये पार्टी का अनुशासन मानना ज़रूरी था। दूसरी तरफ़, मारतोव की नज़रों में पार्टी कुछ ऐसी चीज़ थी जो संगठन के विचार से रूपरेखाहीन हो, जिसके सदस्य पार्टी में नाम लिखा लेते हों और इसलिये पार्टी अनुशासन मानने के लिये मजबूर न हों क्योंकि वे किसी पार्टी-संगठन में नहीं हैं।
इस तरह, लेनिन के मसौदे के ख़िलाफ़ मारतोव का मसौदा अस्थिर, गैर सर्वहारा लोगों के लिये पार्टी का दरवाज़ा खुला छोड़ देता था। पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति होने के ऐन पहले पूंजीवादी बुद्धिजीवियों में ऐसे लोग थे जो क्रान्ति से हमदर्दी रखते थे। समय-समय पर वे पार्टी की थोड़ी-बहुत सेवा भी कर देते थे। लेकिन इस तरह के लोग किसी संगठन में शामिल होने, पार्टी का अनुशासन मानने, पार्टी के दिये हुए कामों को पूरा करने और साथ के ख़तरे मोल लेने से आनाकानी करते थे। फिर भी, मारतोव और दूसरे मेन्शेविकों का प्रस्ताव था कि ऐसे लोगों को पार्टी का सदस्य माना जाये और पार्टी के काम पर असर डालने का हक़ और अवसर उन्हें दिया जाये। उन्होंने यह प्रस्ताव किया था कि किसी भी हड़ताली को पार्टी में 'नाम लिखाने' का हक़ दिया जाये, हालांकि ग़ैर समाजवादी, अराजकतावादी और समाजवादी-क्रान्तिकारी भी हड़तालों में हिस्सा लेते थे।
इस तरह, यह हालत पैदा हुई कि एक गठी हुई और लड़ाकू पार्टी के बदले, जिसका एक स्पष्ट कार्यक्रम हो और जिसके लिये कांग्रेस में लेनिन और लेनिनवादी लड़े थे, मारतोवपंथी एक ऐसी पार्टी चाहते थे जिसमें हर तरह के लोग हों, जो शिथिल और रूपरेखाहीन हो, जो और किसी सबव से नहीं तो तरह-तरह के लोगों के होने से ही दृढ़ अनुशासन वाली लड़ाकू पार्टी न बन सके।
पक्के इस्क्रावादियों से कच्चे इस्क्रावादी टूट गये और केन्द्रवादियों से मिल गये। इनके साथ खुले अवसरवादी हो गये। इसलिये, इस बात पर मारतोव के पक्ष में बहुमत हो गया। 22 के ख़िलाफ़ 28 वोट से - 1 आदमी तटस्थ रहा - कांग्रेस ने नियमावली के पहले पैरा पर मारतोव का रचा हुआ प्रस्ताव स्वीकार किया। नियमावली के पहले पैरा पर इस्क्रावादियों की पांती टूटने पर, कांग्रेस के भीतर संघर्ष और भी तेज़ हो गया। कांग्रेस एजेन्डे की आख़िरी बात लेने वाली थी - पार्टी की प्रमुख संस्थाओं का चुनाव: पार्टी के केन्द्रीय पत्र (इस्क्रा) के संपादक-मंडल और केन्द्रीय समिति का चुनाव। लेकिन चुनाव की नौबत आने से पहले ही, कुछ ऐसी घटनायें हुईं जिनसे कांग्रेस के भीतर का शक्ति-संतुलन बदल गया।
पार्टी-नियमावली के सिलसिले में, कांग्रेस को बुन्द का सवाल लेना था। बुन्द पार्टी के भीतर एक खास जगह का दावा करता था। उसकी माँग थी कि उसे रूस के यहूदी मज़दूरों का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाये। इस माँग को मानने का मतलब होता - पार्टी-संगठनों के भीतर कार्यकर्ताओं को जातीयता के आधार पर बाँटना और मजदूरों के सामान्य प्रदेषगत वर्ग-संगठनों का त्याग। कांग्रेस ने बुन्द द्वारा प्रस्तावित जातीय आधार पर संगठन की व्यवस्था को नामंजूर किया। इस पर बुन्दवादी कांग्रेस से उठ कर चले गये। दो 'अर्थवादी' भी कांग्रेस से उठ गये, जब कांग्रेस ने उनकी विदेषी लीग को बाहर की पार्टी का प्रतिनिधि मानने से इन्कार किया।
इन सात अवसरवादियों के चले जाने से, कांग्रेस में शक्ति-संतुलन लेनिनवादियों के पक्ष में हो गया।
शुरू से ही लेनिन ने पार्टी की केन्द्रीय संस्थाओं की बनावट पर अपना ध्यान केन्द्रीत किया। उन्होंने इस बात को जरूरी समझा कि केन्द्रीय समिति में पक्के और सुसंगत क्रान्तिकारी हों। मारतोवपंथियों ने कोशिस की कि केन्द्रीय समिति में अस्थिर और अवसरवादी लोगों का बहुमत हो। इस सवाल पर, कांग्रेस के बहुमत ने लेनिन का समर्थन किया। जो केन्द्रीय समिति चुनी गयी, उसमें लेनिन के अनुयायी थे।
लेनिन के प्रस्ताव पर, इस्क्रा के सम्पादक-मण्डल में लेनिन, प्लेखानोव और मारतोव चुने गये। मारतोव ने माँग की थी कि इस्क्रा के सम्पादक-मंडल के पिछले सभी 6 सदस्य चुने जायें, जिनमें से ज्यादातर मारतोव के अनुयायी थे। कांग्रेस के बहुमत ने इस माँग को नामंजूर किया। लेनिन के प्रस्तावित तीन नाम मंजूर किये गये। इस पर, मारतोव ने ऐलान किया कि वह केन्द्रीय पत्र के सम्पादक-मण्डल में शामिल न होगा।
इस तरह, पार्टी की केन्द्रीय संस्थाओं पर अपने वोट से कांग्रेस ने मारतोव के अनुयायियों की हार और लेनिन के अनुयायियों की जीत पक्की कर दी।
उस समय से लेनिन के अनुयायी, जिन्हें कांग्रेस में चुनाव के वक्त ज्यादा वोट मिले, बोल्शेविक कहलाये (बोल्षेन्स्त्वो से, जिसका अर्थ है बहुमत) और लेनिन के विरोधी, जिन्हें कम वोट मिले, मेंशेविक (मेन्षिन्स्त्वो से, जिसका अर्थ है अल्पमत) कहलाये।
दूसरी कांग्रेस के काम को सार रूप में पेश करते हुए, ये नतीजे निकाले जा सकते हैं:
(1) कांग्रेस ने 'अर्थवाद' पर, खुले अवसरवाद पर मार्क्सवाद की जीत पक्की कर दी।
(2) कांग्रेस ने एक कार्यक्रम और नियमावली स्वीकार की, सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी बनायी और इस तरह एक ही पार्टी का ढाँचा खड़ा किया।
(3) कांग्रेस ने संगठन के सवालों पर गंभीर मतभेदों का होना जाहिर किया। इनसे पार्टी दो हिस्सों में बंटी हुई थी - बोल्शेविक और मेंशेविक। बोल्शेविक-क्रान्तिकारी सोशल-डेमोक्रेसी के संगठन सम्बन्धी उसूलों का समर्थन करते थे, जबकि मेन्शेविक संगठन संबंधी शिथिलता और अवसरवाद के दलदल मेें फंसे हुए थे।
(4) कांग्रेस ने दिखाया कि पुराने अवसरवादियों, 'अर्थवादियों की जगह जिन्हें पार्टी पहले ही हरा चुकी थी, नये अवसरवादी, मेंशेविक ले रहे थे।
(5) संगठन के काम में, कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकी। उसने ढुलमुलपन दिखाया और कई बार मेंशेविकों का बहुमत भी हो जाने दिया। हालाँकि आखीर की तरफ़ उसने अपनी हालत सुधार ली, फिर भी वह संगठन के मामलों में मेंशेविकों के अवसरवाद का पर्दाफ़ाश न कर सकी और उन्हें पार्टी के अन्दर अकेला न कर सकी। पार्टी के सामने वह इसे काम की शक्ल में भी न रख सकी।
यह आखिरी बात कांग्रेस के बाद बोल्शेविकों और मेंशेविकों के संघर्ष के कम होने के बदले और भी तेज होने का एक मुख्य कारण बनी।
4. मेंशेविक नेताओं का फूट का काम और दूसरी कांग्रेस के बाद पार्टी के भीतर संघर्ष का तेज होना। मेंशेविकों का अवसरवाद। लेनिन की पुस्तक 'एक कदम आगे तो दो क़दम पीछे।' मार्क्सवादी पार्टी के संगठन के सिद्धान्त।
दूसरी कांग्रेस के बाद, पार्टी के भीतर संघर्ष और तेज हो गया। मेंशेविकों ने भरसक कोशिस की कि दूसरी कांग्रेस में फै़सलों को नाकाम कर दें और पार्टी की केन्द्रीय संस्थाओं पर क़ब्जा कर लें। उनकी माँग थी कि इस्क्रा के सम्पादक-मण्डल और केन्द्रीय समिति में उनके सदस्य इनती तादाद में लिये जायें जिससे कि सम्पादक-मण्डल में उनका बहुमत हो जाये और केन्द्रीय समिति में वे बोल्शेविकों के बराबर हो जायें। यह माँग दूसरी कांग्रेस के फ़ैसलों की बिल्कुल उल्टी थी, इसलिये बोल्शेविकों ने इसे ठुकरा दिया। इसके बाद, मेंशेविकों ने पार्टी से छिपाकर खुद अपने पार्टी-विरोधी गुटबाज दल को संगठित किया जिसके अगुआ मारतोव, त्रात्स्की और ऐक्सेलरोद थे, और जैसा कि मारतोव ने लिखा था: "लेनिनवाद के खिलाफ़ बग़ावत शुरू कर दी।" पार्टी का विरोध करने के लिये उन्होंने जो तरीके़ अपनाये वे जैसा कि लेनिन ने कहा था, ऐसे थे कि "पार्टी का समूचा काम तितर-बितर हो जाये, पार्टी के उद्देष्य की हानि हो और सब जगह और सब कहीं अड़चन पैदा हो जाये।" रूसी सोशल-डेमोक्रैटों की विदेशी लीग मेें वे जम गये। इनमें से 90 फ़ीसदी बाहर गये हुए बुद्धिजीवी थे। रूस में जो काम हो रहा था, उससे वे दूर थे। लीग के अन्दर अपनी जगह से मेंशेविकों ने पार्टी के खिलाफ़, लेनिन और लेनिनवादियों के खिलाफ़ गोलाबारी शुरू की।
मेंशेविकों को प्लेखानोव से काफ़ी मदद मिली। दूसरी कांग्रेस में प्लेखानोव ने लेनिन का साथ दिया था, लेकिन दूसरी कांग्रेस के बाद उसने अपने को मेंशेविकों की फूट की धमकी से डर जाने दिया। उसने किसी भी क़ीमत पर मेंशेविकों के साथ 'सुलह करने' का फ़ैसला किया। उसकी पहली अवसरवादी भूलों के भारी वजन ने प्लेखानोव को खींच कर मेंशेविकों की सतह पर ला दिया। अवसरवादी मेंशेविकों से 'सुलह करने' का समर्थक होने के बाद, वह बहुत जल्द खुद भी मेंशेविक हो गया। प्लेखानोव ने माँग की कि इस्क्रा के वे तमाम भूतपूर्व मेंशेविक सम्पादक, जिन्हें कांग्रेस ने नामंजूर कर दिया था, सम्पादक-मण्डल में शामिल कर लिये जायेें। अवश्य ही, लेनिन इससे सहमत न हो सकते थे। उन्होंने इस्क्रा का सम्पादक-मंण्डल छोड़ दिया, जिससे कि पार्टी की केन्द्रीय समिति में वह जम सकें और वहाँ से अवसरवादियों पर हमला कर सकें। अपने ही बिरते पर और कांग्रेस की मर्जी की अवज्ञा करते हुए, प्लेखानोव ने भूतपूर्व मेंशेविक सम्पादकों को इस्क्रा के सम्पादक-मण्डल में शामिल कर लिया। उस घड़ी से, इस्क्रा के 52 वें अंक के बाद से, मेंशेविकों ने उसे अपना मुखपत्र बना लिया और उसके काॅलमों में अपने अवसरवादी मत का प्रचार करने लगे।तभी से पार्टी में लेनिन के बोल्शेविक इस्क्रा को पूराना इस्क्रा कहा जाता है और मेंशेविक, अवसरवादी इस्क्रा को नया इस्क्रा कहा जाता है।
जब इस्क्रा मेंशेविकों के हाथ में आ गया तो वह लेनिन और बोल्शेविकों के खिलाफ़ लड़ाई करने का हथियार बन गया। वह मैनशेविक अवसरवाद, सबसे पहले संगठन के सवालों पर अवसरवाद का प्रचारक बन गया। 'अर्थवादियों' और बुन्दवादियों से सहयोग करके, मेंशेविकों ने इस्क्रा के काॅलमों में, जैसा कि वे कहते थे, लेनिनवाद के खिलाफ़ आन्दोलन शुरू किया। प्लेखानोव सुलह के समर्थक की जगह कायम न रह सका और जल्द ही वह भी इस आन्दोलन में शामिल हो गया। घटना-क्रम के तर्क की यह माँग थी ही कि ऐसा होता। अवसरवादियों के साथ जो भी सुलह करने के रुख पर जोर देता है, वह जरूर खुद भी अवसरवाद में फंस जाता है। नये इस्क्रा के काॅलमों में, लेख और बयान इस तरह निकलने लगे जैसे कल्पवृक्ष में फल लग रहे हों। और, इन लेखों और बयानों का दावा था कि पार्टी को एक संगठित इकाई न बनना चाहिये, उसकी पांति में आजाद गुटों और व्यक्तियों को आने देना चाहिये और उन पर उसकी संस्थाओं के फ़ैसलों को मानने की मजबूरी न डालनी चाहिये; हर बुद्धिजीवी जो पार्टी से हमदर्दी रखता हो और 'हर हड़ताली' और 'प्रर्दशन में हिस्सा लेने वाला हर कोई' अपने को पार्टी सदस्य कह सकता है"; पार्टी के सभी फ़ैसलों को मानने की माँग "नौकरशाही से भरी हुई और ऊपरी है"; अल्पमत बहुमत के मातहत रहे, इस मांग का मतलब है - पार्टी सदस्यों की इच्छा का 'यांत्रिक दमन'; सभी पार्टी सदस्य, नेता और साधारण सदस्य, दोनों ही बराबर पार्टी अनुशासन मानें, इस माँग का मतलब है - पार्टी के अन्दर 'भूदास प्रथा' कायम करना; 'हमें' पार्टी के अन्दर जिस चीज की जरूरत है वह केन्द्रीयता नहीं है बल्कि अराजकतावादी 'खुदमुख्तारी' है, जो व्यक्तियों और पार्टी-संगठनों को पार्टी फै़सले न मानने की इजाजत दे।
संगठन सम्बन्धी स्वेच्छाचार के लिये यह बेरोक प्रचार था, जो पार्टी सिद्धान्त और पार्टी अनुशासन की जड़ खोदता था; यह बुद्धिजीवियों के व्यक्तिवाद का गुणगान था और अनुशासन की तरफ़ अराजकवादी घृणा को सही ठहराना था।
जाहिर है, मेंशेविक कोशिस कर रहे थे कि पार्टी को दूसरी कांग्रेस की जगह से खींच कर पुराने संगठन सम्बन्धी अलगाव तक ले आया जाये, मण्डलों के पुराने स्थानीय दृष्टिकोण और पुराने अधकचरे तरीकों की तरफ़ ले आया जाये। मेन्शेविकों पर एक जोरदार रद्दा जमाना जरूरी था।
लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक एक कदम आगे तो दो क़दम पीछे में यह रद्दा जमाया। यह किताब मई 1904 में प्रकाशित हुई।
लेनिन ने अपनी इस पुस्तक में संगठन के जो मुख्य सिद्धान्त रखे और जो आगे चलकर बोल्शेविक पार्टी के संगठन की बुनियाद बने, वे ये है:
(1) मार्क्सवादी पार्टी मजदूर वर्ग का एक हिस्सा, उसका एक दस्ता है। लेकिन मजदूर वर्ग के बहुत से दस्ते हैं और इसलिये मजदूर वर्ग का हर हिस्सा उसकी पार्टी नहीं कहला सकता। मजदूर वर्ग के दूसरे दस्तों से पार्टी सबसे पहले इस बात में भिन्न है कि वह मामूली दस्ता नहीं है बल्कि हिरावल दस्ता है, एक वर्ग-चेतन दस्ता है, मज़दूर वर्ग का एक मार्क्सवादी दस्ता है, जो सामाजिक जीवन के ज्ञान से सुसज्जित है, जो सामाजिक विकास के नियमों और वर्ग-संघर्ष के नियमों को जानता-पहचानता है और इस वजह से मज़दूर वर्ग की अगुवाई कर सकता है और उसकी लड़ाई का संचालन कर सकता है। इसलिये, पार्टी और मज़दूर वर्ग को उलझा न देना चाहिये, जैसे कि किसी पूरी चीज और उसके हिस्से को उलझा न देना चाहिये। हम यह माँग नहीं कर सकते कि हर हड़ताली अपने को पार्टी का सदस्य कह सके, क्योंकि जो कोई पार्टी और वर्ग को उलझाता है वह पार्टी की चेतना की सतह को 'हर हड़ताली' की चेतना की सतह तक नीचे ले आता है। वह मजदूर वर्ग के वर्ग-चेतन हिरावल के रूप में पार्टी का नाश करता है। पार्टी का काम यह नहीं है कि वह अपनी सतह 'हर हड़ताली' की सतह तक नीचे ले आये, बल्कि पार्टी की सतह तक आम मजदूरों को ऊपर ले जाये, 'हर हड़ताली' को ऊपर ले जाये।
लेनिन ने लिखा था:
"हम एक वर्ग की पार्टी हैं, और इसलिये क़रीब-क़रीब समूचे वर्ग को (और युद्ध-काल में, गृह-युद्ध के समय समूचे वर्ग को) हमारी पार्टी के नेतृत्व में काम करना चाहिये, जहाँ तक हो सके उसे हमारी पार्टी से सम्बन्धित रहना चाहिये। लेकिन, यह सोचना मानिलोववाद1 और 'पिछलगुआपन' होगा कि पूंजीवाद के रहते किसी समय समूचा वर्ग या क़रीब-क़रीब समूचा वर्ग अपने हिरावल दस्ते, अपनी सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी की चेतना और कार्यवाही की सतह तक उठ सकेगा। किसी भी समझदार सोशल-डेमोक्रेट को अभी तक इसमें शक नहीं रहा कि पूंजीवाद के रहते हुए ट्रेड यूनियन संगठनों में भी (जो ज्यादा सीधे संगठन हैं और अविकसित लोगों के लिये ज्यादा समझ में आने वाले हैं) समूचा या क़रीब-क़रीब समूचा मज़दूर वर्ग सिमट कर नहीं आ पाता। हिरावल और उसकी तरफ़ खिंचकर आने वाले अवाम के भेद को भूल जाना, हिरावल के इस हमेशा के फ़र्ज को भूल जाना कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को सबसे आगे बढ़े हुए लोगों की सतह तक उठाना है, सिर्फ़ अपने को धोखा देना है, हमें जितने भारी काम करने हैं, उनकी तरफ़ आँखे बन्द करना है और इन कामों को संकुचित करना है।" (लेनिन, सं.गं्र, अं.सं, मास्को, 1947, खण्ड 1, पृष्ठ 294)।
(2) पार्टी मजदूर वर्ग का हिरावल ही नहीं, उसका वर्ग-चेतन दस्ता ही नहीं, बल्कि मज़दूर वर्ग का संगठित दस्ता है, जिसका अपना अनुशासन है और जो उसके अपने सदस्यों पर लागू होता है। इसलिये, पार्टी सदस्यों के लिये जरूरी है कि वे किसी पार्टी-संगठन के सदस्य हों ही। अगर पार्टी वर्ग का संगठित दस्ता न होती, संगठन की व्यवस्था न होती बल्कि सिर्फ़ उन लोगों की एक जमात होती जो अपने को पार्टी सदस्य कहते हैं, लेकिन पार्टी-संगठन में नहीं हैं और इसलिये संगठित नहीं हैं, इसलिए पार्टी के फै़सले मानने के लिये मजबूर नहीं हैं, तो पार्टी की कभी संयुक्त इच्छा न होती, वह अपने सदस्यों की संयुक्त कार्यवाही कभी न चला सकती और इसलिये वह मज़दूर वर्ग के संघर्ष का संचालन ही न कर सकती। पार्टी मज़दूर वर्ग के अमली संघर्ष का नेतृत्व तभी कर सकती है और उसे एक ही उद्देश्य की तरफ़ तभी ले जा सकती है, जब उसके सभी सदस्य एक ही सामान्य दस्ते में संगठित हों, इच्छा की एकता से आपस में संयुक्त हों, काम की एकता और अनुशासन की एकता से एक-दूसरे से जुडे़ हुए हों।
मेन्शेविकों को आपत्ति थी कि ऐसा होने पर बहुत से बुद्धिजीवी-मिसाल के लिये प्रोफ़ेसर लोग, यूनिवर्सिटी और हाईस्कूल के विद्यार्थी, वग़ैरह-पार्टी की सफ़ों से बाहर रहेंगे। कारण यह कि वे पार्टी के किसी भी संगठन में शामिल होना पसन्द न करेंगे, चाहे इसलिये कि वे पार्टी अनुशासन से कतराते हों, या जैसा कि प्लेखानोव ने दूसरी कांग्रेस में कहा था, इसलिये कि वे "किसी स्थानीय संगठन में शामिल होना अपनी शान के खिलाफ़" समझते हों। मेन्शेविकों की यह आपत्ति उलट कर उन्हीं के सिर पड़ी। कारण यह कि पार्टी को ऐसे सदस्यों की जरूरत नहीं है जो पार्टी अनुशासन से कतराते हों और पार्टी-संगठन में शामिल होने से डरते हों। मजदूर अनुसाशन और संगठन से नहीं डरते और अगर उन्होंने पार्टी सदस्य होने का फ़ैसला कर लिया है तो वे खुशी से संगठन में शामिल हो जाते हैं। ये व्यक्तिवादी बुद्धिजीवी ही हैं जो अनुशासन और संगठन से डरते हैं, और वे दरअसल पार्टी की सफ़ों के बाहर रहेंगे। लेकिन यह तो अच्छा ही है, क्योंकि इससे पार्टी अस्थिर लोगों की भरमार से बच सकेगी। जब पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति उठान पर थी, तब यह भरमार खास तौर से जोरों पर थी।
लेनिन ने कहा था:
"जब मैं कहता हूँ कि पार्टी को संगठनों का जोड़ होना चाहिये (और सिर्फ़ गणित का जोड़ नहीं बल्कि संश्लिष्ट जोड़).... तो मैं साफ-साफ और निश्चित शब्दों में अपनी इच्छा, अपनी माँग जाहिर करता हूँ कि वर्ग के हिरावल की तहर पार्टी यथासंभव संगठित हो, पार्टी अपनी सफ़ों में ऐसे लोगों को ले जो कम से कम अल्पतम संगठन मानने के लिये तैयार हों...।" (उप. पृष्ठ 292)।
और आगे:
"मारतोव का प्रस्ताव ऊपर से आम मज़दूरों के हितों का समर्थन करता है, लेकिन वास्तव में वह पूंजीवादी बुद्धिजीवियों के हितों का समर्थन करता है जो सर्वहारा अनुशासन और संगठन से कतराते हैं। कोई इस बात से इन्कार न करेगा कि यह उसका व्यक्तिवाद ही है और अनुशासन और संगठन के लिये उसकी असमर्थता ही है जो मौजूदा पूंजीवादी समाज में आम तौर से एक अलग स्तर के रूप में बुद्धिजीवी की विशेषता जाहिर करती है।" (उप. पृष्ठ 298-99)।
और भी:
"सर्वहारा वर्ग संगठन और अनुशासन से डरता नहीं है...। सर्वहारा वर्ग उन प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसरों और हाईस्कूल के विद्यार्थियों को पार्टी सदस्यता देने के लिये कुछ भी न करेगा जो किसी संगठन में सिर्फ इसीलिये शामिल नहीं होना चाहते कि उन्हें एक संगठन के नियंत्रण में काम करना पड़ेगा...। यह सर्वहारा वर्ग नहीं है, बल्कि हमारी पार्टी में कुछ बुद्धिजीवी हैं जिनमें, संगठन और अनुशासन की भावना में, आत्म-शिक्षण की कमी है।" (उप.,पृष्ठ 322)।
(3) पार्टी सिर्फ़ संगठित दस्ता नहीं है, बल्कि मज़दूर वर्ग के "संगठन के सभी रूपों में सबसे ऊँचा" है और उसका काम मज़दूर वर्ग के दूसरी सभी संगठनों को रास्ता दिखाना है। पार्टी वर्ग के संगठन का सबसे ऊंचा रूप है, वर्ग के सबसे अच्छे लोग उसके अन्दर शामिल होते हैं, उसके पास आगे बढ़ा हुआ सिद्धान्त होता है, उसे वर्ग-संघर्ष के नियमों का ज्ञान होता है और उसे क्रान्तिकारी आन्दोलन का तजुर्बा होता है। इसलिये, मजदूर वर्ग के सभी दूसरे संगठनों को पार्टी रास्ता दिखला सकती है, और उन्हेें रास्ता दिखाना उसका फ़र्ज है। पार्टी की नेतृत्व की भूमिका को कम करने और तुच्छ समझने की मेन्शेविकों की कोशिश का असर यह होगा कि सर्वहारा वर्ग के दूसरे सभी संगठन कमज़ोर होंगे जिन्हें पार्टी रास्ता दिखाती है। उनकी कोशिश का असर यह होगा कि सर्वहारा वर्ग कमजोर और निहत्था बनेगा, क्योंकि "सत्ता के लिये संघर्ष में सर्वहारा के पास संगठन को छोड़ कर दूसरा कोई हथियार नहीं है।" (उप., पृष्ठ 340)।
(4) पार्टी लाखों मज़दूरों से मजदूर वर्ग के हिरावल के सम्बन्ध का सजीव रूप है। पार्टी चाहे जितनी अच्छी हिरावल हो और वह चाहे जितनी अच्छी तरह संगठित हो, गैर पार्टी अवाम से सम्बन्ध क़ायम किये बिना और इस सम्बन्ध को बढ़ाये और मज़बूत किये बिना वह न तो जीवित रह सकती है, न विकसित हो सकती है। ऐसी पार्टी जो अपने को अपने ही घोंघे में बन्द कर लेती है, आम जनता से अलग जा पड़ती है, अपने वर्ग से अपना सम्बन्ध खो देती है या ढीला कर लेती है, वह जरूर आम जनता का विश्वास और समर्थन खो देगी और इसलिये खत्म भी ज़रूर हो जायेगी। पूरी तरह जिन्दा रहने और विकसित होने के लिये, यह जरूरी है कि पार्टी आम जनता से अपना सम्बन्ध बढ़ाये और अपने वर्ग के लाखों आदमियों का विश्वास हासिल करे।
लेनिन ने कहा था:
"सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी होने के लिये जरूरी है कि हम ठीक वर्ग का ही समर्थन हासिल करें।" (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खं. 6, पृ. 208)।
(5) उचित ढंग से काम करने के लिये और बाक़ायदा आम जनता का नेतृत्व करने के लिये, पार्टी को केन्द्रीयता के उसूल पर संगठित होेना चाहिये। उसकी एकसी नियमावली और एकसा पार्टी अनुशासन होना चाहिये। उसकी एक ही प्रमुख संस्था होनी चाहिये - पार्टी कांग्रेस और कांग्रेसों के बीच में पार्टी की केन्द्रीय कमिटी। अल्पमत को बहुमत की आज्ञा माननी चाहिये, विभिन्न संगठनों को केन्द्र की आज्ञा माननी चाहिये और नीचे के संगठनों को ऊपर के संगठनों की आज्ञा माननी चाहिये। ये शर्तें पूरी न होने पर, मजदूर वर्ग की पार्टी सच्ची पार्टी नहीं बन सकती और वर्ग का नेतृत्व करने का अपना काम पूरा नहीं कर सकती।
यह ठीक है कि निरंकुश ज़ारशाही में पार्टी ग़ैरकानूनी थी, इसलिये उन दिनों नीचे से चुनाव के उसूलों पर पार्टी के संगठन न बनाये जा सकते थे। इसलिये, पार्टी को संगठन का काम कड़ाई से, छिप कर करना पड़ता था। लेकिन, लेनिन का विचार था कि पार्टी जीवन का यह अस्थायी लक्षण जारशाही को निर्मूल करते ही खत्म हो जायेगा। तब पार्टी खुल कर और कानूनी बन कर काम कर सकेगी। तब, पार्टी के संगठन, जनवादी चुनाव के उसूल पर, जनवादी केन्द्रीयता के उसूल पर बनाये जा सकेंगे।
लेनिन ने लिखा था:
"पहले हमारी पार्टी बाक़ायदा एक संगठित इकाई नहीं थी, बल्कि अलग-थलग गुटों का जोड़ भर थी। इसलिये, इन गुटों में सैद्धान्तिक असर के अलावा और कोई सम्बन्ध मुमकिन नहीं थे। अब हम एक संगठित पार्टी बन चुके हैं। इसका मतलब यह है कि अधिकारी भाव (आथोरिटी) क़ायम हो गया है, विचारों की शक्ति, अधिकारी भाव की शक्ति में बदल गयी है, पार्टी की नीचे की संस्थायें पार्टी की ऊपर की संस्थाओं के मातहत हैं।"(उप., पृष्ठ 291)
मेन्शेविकों पर संगठन सम्बन्धी ध्वंसवाद और रईसी अराजकतावाद का दोष लगाते हुए, जो उन्हें पार्टी के अधिकारी भाव और उसके अनुशासन को मानने से रोकता था, लेनिन ने लिखा था:
"रूसी ध्वंसवादियों (निहिलिस्टों) में यह रईसी अराजकतावाद खास तौर से देखा जाता है। वे समझते हैं कि पार्टी-संगठन एक भयानक 'कारखाना' है। उनकी नजर में, अंश का पूरी इकाई के मातहत होना और अल्पमत का बहुमत की बात मानना 'भूदास प्रथा' है। ...एक ही केन्द्र की देख-रेख में काम का बँटवारा देख कर, वह कुछ करूण, कुछ हास्यास्पद स्वर में चीत्कार कर उठता है कि लोग 'मशीन के कलपुर्जे' बने जा रहे हैं (सम्पादकों को पत्रिका के लेखक बना देना खास तौर से ऐसी तब्दीली की भयानक मिसाल समझी जाती है)। पार्टी के संगठन सम्बन्धी नियमों का जिक्र होने पर, वह नफ़रत से मुंह बनाता है और घृणा से कहता है कि नियमों के बिना ही काम चल सकता है (यह बात वह 'नियमवादियों' के लिये कहता है)।" (लेनिन, सं.ग्रं., अं.सं.,मास्को, 1947 खं. 1, पृ. 324)।
(6) अपने अमली काम में अगर पार्टी अपनी सफ़ों की एकता क़ायम रखना चाहती है तो उसे समान सर्वहारा अनुशासन लागू करना होगा, जिसकी पाबन्दी सभी पार्टी के सदस्यों के लिये, नेता और साधारण दोनों के लिये, बराबर हो। इसलिये, पार्टी के अन्दर कुछ 'चुने हुए' लोग जिन पर अनुशासन न लागू हो, और 'बाक़ी तमाम लोग' जिन पर अनुशासन लागू होता हो, ऐसा बँटवारा न होना चाहिये। यह शर्त पूरी न की जायेगी तो पार्टी की भीतरी दृढ़ता और उसकी सफ़ों की एकता कायम न रखी जा सकेगी।
लेनिन ने लिखा था:
"कांग्रेस ने जो सम्पादक-मण्डल नियुक्त किया था, उसके खिलाफ़ मारतोव एण्ड कम्पनी की तरफ़ बुद्धिसंगत दलीलों का नितान्त अभाव सबसे अच्छी तरह उन्हीं के इस नारे से जाहिर होता है: 'हम गुलाम नहीं हैं।'... पूंजीवादी बुद्धिजीवी की ज़हनियत, जो अपने को जन-संगठन और जन-अनुशासन से ऊपर 'चुने हुओं' में समझता है, बहुत ही स्पष्टता से यहाँ जाहिर होती है। ... बुद्धिजीवियों के व्यक्तिवाद को दिखाई देता है... कि सभी सर्वहारा संगठन और अनुशासन गुलामी है।" (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 6, पृष्ठ 282)।
और आगे:
"जैसे-जैसे हम एक वास्तविक पार्टी बनाने के काम में आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे वर्ग-चेतन मजदूर को पूंजीवादी बुद्धिजीवी और सर्वहारा फ़ौज के सिपाही के मानसिक गठन का भेद करना सीखना चाहिये। पूंजीवादी बुद्धिवादी अराजकतावादी बातों का तूमार बांध देता है। वर्ग-चेतन मज़दूर को चाहिये कि वह इस बात पर अड़ जाये कि पार्टी सदस्य का फ़र्ज न सिर्फ़ साधारण सदस्य बल्कि 'ऊपर के लोग' भी पूरा करें।" (लेनिन, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खं. 1, पृ. 326)।
मतभेदों की छानबीन का सार देते हुए और मेन्शेविकों की हैसियत को "संगठन के मामलों में अवसरवाद" बतलाते हुए, लेनिन ने कहा था कि मेन्शेविकवाद का एक बहुत ही गंभीर अपराध इस बात में है कि वह मुक्ति के लिये सर्वहारा वर्ग के संघर्ष में एक हथियार के तौर पर पार्टी-संगठन के महत्व को कम करके आँकता है। मेन्शेविकों का कहना था कि क्रान्ति की जीत के लिये सर्वहारा वर्ग के पार्टी-संगठन का बहुत बड़ा महत्व नहीं है। मेन्शेविकों के खिलाफ, लेनिन का मत था कि सर्वहारा वर्ग की सैद्धान्तिक एकता ही जीत के लिये काफ़ी नहीं है। अगर जीत हासिल करनी है तो सैद्धान्ति एकता को सर्वहारा वर्ग के "संगठन की भौतिक एकता" से "दृढ़ करना" होगा। लेनिन का विचार था कि इस शर्त के पूरी होने पर ही सर्वहारा वर्ग अजेय शक्ति बन सकता है।
लेनिन ने लिखा था:
"सत्ता के लिये संघर्ष में, सर्वहारा के पास संगठन छोड़ कर दूसरा हथियार नहीं है। पूंजीवादी संसार में अराजक होड़ के नियम से छिन्न-भिन्न होकर, पूंजी के लिये ज़बर्दस्ती की मेहनत में पीसे जाकर, बार-बार बेहद तबाही, बर्बरता और पतन के 'गढे़' में ढकेले जाकर, सर्वहारा वर्ग अजेय शक्ति तभी बन सकता है और जरूर बनेगा जब मार्क्सवाद के उसूलों के आधार पर उसकी सैद्धान्तिक एकता ऐसे संगठन की भौतिक एकता से दृढ़ हो जायेगी जो लाखों मेहनतकशों को मज़दूर वर्ग की एक फ़ौज बना दे। रूसी ज़ारशाही का चरमराता हुआ शासन और 'अंतर्राष्टंीय पूंजी की खूसट हुकूमत, कोई भी शक्ति इस फ़ौज का मुक़ाबिला न कर सकेगी।" (उप., पृष्ठ 340)।
लेनिन की इस भविष्यवाणी के साथ यह किताब समाप्त होती है। ये थे संगठन के बुनियादी सिद्धान्त, जिन्हें लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक एक क़दम आगे तो दो क़दम पीछे में पेश किया था।
इस किताब का महत्व मुख्यतः इस बात में है कि उसने मण्डल बनाने के सिद्धान्त के खिलाफ़ सफलता से पार्टी सिद्धान्त का समर्थन किया और असंगठनवादियों के खिलाफ़ पार्टी सिद्धान्त को सही साबित किया। संगठन के सवालों पर, उसने मेन्शेविकों के अवसरवाद को कुचल दिया और बोल्शेविक पार्टी की संगठन सम्बन्धी बुनियाद डाली।
लेकिन, इससे उसका महत्व खत्म नहीं होता। उसका ऐतिहासिक महत्व इस बात में है कि लेनिन ने मार्क्सवाद के इतिहास में पहली बार उसमें इस सिद्धान्त की विस्तृत व्याख्या की कि पार्टी सर्वहारा वर्ग का प्रमुख संगठन है, वह सर्वहारा वर्ग का मुख्य हथियार है जिसके बिना सर्वहारा वर्ग की डिक्टेटरशिप के लिये लड़ाई नहीं जीती जा सकती।
लेनिन की किताब एक क़दम आगे तो दो क़दम पीछे पार्टी के कार्यकर्ताओं में घुमायी जाने पर स्थानीय संगठनों में अधिकांष लेनिन की तरफ़ हो गये।
लेकिन जितना ही ये संगठन बोल्शेविकों के नज़दीक खिंच आये, उतना ही मेन्शेविक नेताओं का व्यवहार द्वेषपूर्ण हो गया।
1904 की गर्मियों में, प्लेखानोव की मदद से और क्रासिन और नोस्कोव नाम के दो पस्त हिम्मत बोल्शेविकों की दग़ेबाजी से, मेन्शेविकों ने केन्द्रीय समिति में अपना बहुमत क़ायम कर लिया। जाहिर था कि मेन्शेविक फूट के रास्ते पर चल रहे थे। इस्क्रा और केन्द्रीय समिति के हाथ से निकल जाने पर, बोल्शेविक कठिनाई में पड़ गये। उनके लिए ज़रूरी हो गया कि वे अपना बोल्शेविक पत्र संगठित करें। यह ज़रूरी हो गया कि नयी पार्टी कांग्रेस, तीसरी कांग्रेस का इंतज़ाम किया जाये, जिससे कि नयी केन्द्रीय समिति क़ायम की जाये और मेन्शेविकों से हिसाब-किताब बराबर किया जाये।
और, लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने यही करना शुरू किया। बोल्शेविकों ने तीसरी पार्टी कांग्रेस बुलाने के लिये आन्दोलन करना शुरू किया। अगस्त 1904 में, लेनिन की देख-रेख में 22 बोल्शेविकों का सम्मेलन स्विटजरलैंड में हुआ। सम्मेलन ने 'पार्टी के नाम' एक अपील मंजूर की। तीसरी कांग्रेस बुलाने के लिये संघर्ष में इस अपील ने बोल्शेविकों के लिये कार्यक्रम का काम दिया।
बोल्शेविक कमिटियों (दक्षिणी, काॅकेषस की, और उत्तरी) के तीन प्रादेषिक सम्मेलनों में, बहुमत की तरफ़ से कमिटियों की एक ब्यूरो चुनी गयी जिसने तीसरी पार्टी कांग्रेस के लिये अमली तैयारी का काम संभाला।
4 जनवरी, 1905 को बोल्शेविक अख़बार व्पर्योद (आगे बढ़ो) निकला। इस तरह, पार्टी के अन्दर दो विभिन्न दल पैदा हुए, बोल्शेविक और मेन्शेविक, जिनमें से हरएक की अपनी केन्द्रीय संस्था थी और अपना अखबार था।
सारांश
1901-'04 के दिनों में क्रान्तिकारी मजदूर आन्दोलन की बढ़ती के साथ, रूस में मार्क्सवादी सोशल-डेमोक्रैटिक संगठन बढ़े और मजबूत हुए। सिद्धान्तों के लिये डटकर लड़ने के बाद, लेनिन के इस्क्रा की क्रान्तिकारी नीति विजयी हुई। यह लड़ाई 'अर्थवादियों' के खिलाफ हुई थी। सैद्धान्तिक उलझन और "काम के अधकचरे तरीके" खत्म किये गये।
इस्क्रा ने बिखरे हुए सोशल-डेमोक्रैट मण्डलों और गुटों को एक सूत्र में जोड़ा और दूसरी पार्टी कांग्रेस बुलाने के लिये रास्ता साफ़ किया। 1903 मे होने वाली दूसरी कांग्रेस में रूसी सोशल -डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी बनायी गयी, पार्टी कार्यक्रम और नियमावली मंजूर की गई और पार्टी की केन्द्रीय प्रमुख संस्थायें नियुक्त की गयीं।
दूसरी कांग्रेस में रूसी सोशल -डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी के अन्दर इस्क्रा के रुझान के लिये जो संघर्ष किया गया, उससे दो दल पैदा हुए - बोल्शेविक दल और मेन्शेविक दल।
दूसरी कांग्रेस के बाद, बोल्शेविकों और मेन्शेविकों के बीच मुख्य मतभेद संगठन के सवालों को लेकर था।
मेन्शेविक 'अर्थवादियों' के नज़दीक खिंच आये और पार्टी के अन्दर उनकी जगह ले ली। फ़िलहाल मेन्शेविकों का अवसरवाद संगठन के सवालों पर जाहिर हुआ। मेन्शेविक लेनिन की बतायी हुई लड़ाकू क्रान्तिकारी पार्टी का विरोध करते थे। वे एक ढीली-ढाली, असंगठित, पिछलगुआ पार्टी चाहते थे। उन्होंने पार्टी की सफ़ें तोड़ने के लिये काम किया। प्लेखानोव की मदद से, उन्होंने इस्क्रा और केन्द्रीय समिति पर कब़्जा जमा लिया और इन केन्द्रीय संस्थाओं को वे अपने उद्देष्यों के लिये, पार्टी में फूट डालने के लिये काम में लाये।
यह देखकर कि मेन्शेविक फूट का खतरा पैदा कर रहे हैं, बोल्शेविकों ने फूटपरस्तों को रोकने के लिये उपाय किया। उन्होंने तीसरी कांग्रेस बुलाने की माँग का समर्थन करने के लिये स्थानीय संगठनों को बटोरा और अपना अखबार व्पर्योद निकाला।
इस तरह, पहली, रूसी क्रान्ति होने से पहले, जबकि रूस-जापान युद्ध शुरू हो चुका था, बोल्शेविक और मेन्शेविक दो विभिन्न राजनीतिक दलों की तरह काम कर रहे थे।
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