तीसरा अध्याय
रूस-जापान युद्ध और पहली रूसी क्रान्ति के समय बोल्शेविक और मेन्शेविक
(1904-1907)
1. रूस-जापान युद्ध। रूस में क्रान्तिकारी आन्दोलन की और प्रगति। पीतरबुर्ग में हड़तालें। 9 जनवरी, 1905 को शरद प्रासाद के सामने मजदूरों का प्रदर्शन। प्रदर्शन पर गोलियों की बौछार। क्रान्ति का आरम्भ।
19वीं सदी के आख़ीर में, साम्राज्यवादी राज्यों में प्रशान्त महासागर पर अधिकार पाने के लिये और चीन का बंटवारा करने के लिये तेज़ लड़ाई शुरु की। ज़ारशाही रूस ने इस लड़ाई में हिस्सा लिया। 1900 में जापानी, जर्मन, ब्रिटिश और फ्रांसीसी फ़ौजों के साथ ज़ारशाही फा़ैज ने अभूतपूर्व बर्बरता के साथ विदेशी साम्राज्यवादियों के खिलाफ़ चीनी जनता के विद्रोह का दमन किया। इसके पहले भी, ज़ार सरकार ने चीन को मजबूर किया था कि वह लियाओ तुंग प्रायद्वीप और पोर्ट आर्थर का किला रूस के हवाले कर दे। रूस ने चीन की धरती पर रेलें बनाने का अधिकार हासिल कर लिया। उत्तरी मंचूरिया में चाइनीज़-ईस्टर्न रेलवे नाम की रेल बनायी गयी और उसकी रक्षा करने के लिये वहां पर रूसी फौजें रखी गयीं। उत्तरी मंचूरिया पर ज़ारशाही रूस का फ़ौजी कब्ज़ा हो गया। ज़ारशाही कोरिया की तरफ बढ़ रही थी। रूसी पूंजीपति मंचूरिया में 'पीला रूस' बनाने के लिये योजनायें गढ़ रहे थे।
सुदूर पूर्व में राज्य विस्तार करने से, ज़ारशाही की मुठभेड़ एक दूसरे डाकू से हुई। जापान बहुत तेज़ी से एक साम्राज्यवादी देश बन गया था। एशिया के महाद्वीप में, वह राज्य-विस्तार करने पर तुला हुआ था और सबसे पहले चीन में राज्य-विस्तार करना चाहता था। ज़ारशाही रूस की तरह, जापान भी कोरिया और मंचूरिया पर कब्ज़ा करने की घात लगाया था। उस समय भी, जापान ख्वाब देख रहा था कि साखालिन और रूस के सुदूर पूर्वी हिस्सों पर कब्ज़ा जमा ले। ब्रिटेन सुदूरपूर्व में ज़ारशाही रूस की बढ़ती हुई शक्ति से डरता था। वह छिपे तौर से जापान का साथ दे रहा था। रूस और जापान के बीच में लड़ाई की तैयारी हो रही थी। बड़े पूंजीपतियों ने ज़ार सरकार को इस लड़ाई में ठेल दिया। ये पूंजीपति नये बाज़ार ढूंढ़ रहे थे। ज़मींदार वर्ग के ज्यादा प्रतिक्रियावादी हिस्सों ने भी ज़ार सरकार को इस लड़ाई में ठेला।
इस बात का इंतजार किये बिना कि ज़ार सरकार लड़ाई का ऐलान करे, जापान ने खुद ही युद्ध छेड़ दिया। रूस में उसका जासूसी काम अच्छा था और उसे पहले से मालूम था कि उसका दुश्मन लड़ाई के लिये तैयार न होगा। जनवरी 1904 में, लड़ाई का ऐलान किये बिना, जापान ने पोर्ट आर्थर के रूसी किले पर अचानक हमला कर दिया और बन्दरगाह में पड़े हुए रूसी बेड़े को भारी हानि पहुँचायी।
इस तरह रूस-जापान युद्ध शुरु हुआ।
ज़ार सरकार समझती थी कि लड़ाई से उसकी राजनीतिक स्थिति दृढ़ होगी और क्रान्ति की रोक-थाम होगी। लेकिन, उसने गलत हिसाब लगाया। युद्ध ने ज़ार सरकार के पाये पहले से भी ज़्यादा हिला दिये।
रूसी फ़ौज के पास हथियारों की कमी थी। उसे लड़ाई की शिक्षा अच्छी न मिली थी। उसके सेनापति अयोग्य और बेईमान थे। रूसी फ़ौज हार पर हार खाती गयी।
पूंजीपति, सरकारी हाकिम और जनरल लड़ाई से रकमें काटते रहे। सट्टेबाजी का बाज़ार गर्म था। फ़ौजों को सामान बहुत कम मिलता था। जब फ़ौज के पास गोला-बारूद की कमी थी तब, मानो उसे चिढ़ाने के लिये, गाड़ियों भर देवताओं की मूर्तियाँ और तस्वीरें भेज दी जाती थीं। फा़ैज के सिपाही क्षुब्ध होकर कहते थे: "जापानी हम पर गोले बरसा रहे हैं; हम उन्हें मूर्तियाँ भेंट करेंगे।" स्पेशल गाड़ियाँ घायलों को मैदान से हटाने के बदले ज़ार के सेनापतियों द्वारा लूटी हुई सम्पत्ति से लदी रहती थीं।
जापानियों ने पोर्ट आर्थर को घेर लिया और बाद में उस पर कब्ज़ा कर लिया। ज़ार की फौज को कई बार हराने के बाद, अंत में उन्होंने मुकदन के पास उसे खदेड़ दिया। इस लड़ाई में ज़ार की फ़ौज के तीन लाख आदमियों में से एक लाख बीस हज़ार हताहत हुये, या बन्दी बनाये गये। इसके बाद, सुशीमा के जल डमरूमध्य में पोर्ट आर्थर की मदद के लिये बाल्टिक समुद्र से भेजा हुआ ज़ारशाही बेड़ा पूरी तरह से परास्त किया गया और नष्ट कर दिया गया। सुशीमा की हार घातक थी। ज़ार ने जो 20 युद्ध-पोत भेजे थे, उनमें से 13 डुबा दिये गये या नष्ट कर दिये गये और 4 पर जापानियों का कब़्जा हो गया। युद्ध में ज़ारशाही रूस की पक्की हार हो चुकी थी।
ज़ार सरकार को मजबूरन जापान से अपमानजनक संधि करनी पड़ी। जापान ने कोरिया पर कब्ज़ा कर लिया और रूस से पोर्ट आर्थर और साखालिन का आधा द्वीप ले लिया।
जनता युद्ध न चाहती थी और जानती थी कि देश के लिये वह कितना हानिकर होगा। ज़ारशाही रूस के पिछड़ेपन के लिये, उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी।
बोल्शेविकों और मेन्शेविकों ने युद्ध की तरफ अलग-अलग रुख अपनाया।
मेन्शेविक, जिनमें त्रात्स्की भी था, सुरक्षावाद की तरफ गिर रहे थे। इसका मतलब था - ज़ार, ज़मींदारों और पूंजीपतियों की 'पितृभूमि' की रक्षा की जाये।
दूसरी तरफ, लेनिन और बोल्शेविकों का यह मत था कि इस डाकू-संग्राम में ज़ार सरकार की हार लाभदायी होगी, क्योंकि उससे ज़ारशाही कमजोर होगी और क्रान्ति मजबूत होगी।
ज़ारशाही फ़ौजों की हार ने लोगों की आँखें खोल दीं, और उन्होंने देखा कि ज़ारशाही कितनी सड़ियल है। ज़ारशाही के लिये उनकी नफ़रत दिन पर दिन तेज होती गयी। लेनिन ने लिखा था कि पोर्ट आर्थर का पतन निरंकुश सत्ता के पतन की शुरुआत है।
ज़ार चाहता था कि लड़ाई को क्रान्ति का गला घोंट देने के लिये इस्तेमाल करे। उसने इसका उल्टा ही भर पाया। रूस-जापान युद्ध ने क्रान्ति शुरू करने में और जल्दी की।
ज़ारशाही रूस में पूंजीवाद का जुंआ ज़ारशाही के बोझ से और भारी हो गया था। मजदूर पूंजीवादी शोषण से ही, अमानवीय मेहनत से ही परेशान न होते थे, बल्कि तमाम जनता के साथ सभी तरह के अधिकारों के अभाव से भी पीड़ित थे। इसलिये, राजनीतिक रूप से आगे बढ़े हुए मजदूर ज़ारशाही के खिलाफ़ शहर और देहात के सभी जनवादी लोगों के क्रान्तिकारी आन्दोलनों को चलाने की कोशिश करते थे।
किसान जमीन के अभाव और भूदास प्रथा के अनगिनत अवशेषों की वजह से बड़ी मुसीबत में थे। वे जमींदारों और धनी किसानों की गुलामी के दिन काटते थे। ज़ारशाही रूस में रहने वाली जातियाँ दुहरी मार से कराहती थीं - पहली मार तो खुद उनके जमींदारों और पूंजीपतियों की और दूसरी मार रूस के जमींदारों और पूंजीपतियों की। 1900-'03 के आर्थिक संकट ने मेहनतकश जनता की कठिनाईयाँ बढ़ा दी थीं। युद्ध से वे और बढ़ गयीं। युद्ध में हारने से, ज़ारशाही के खिलाफ़ जनता की नफ़रत और प्रबल हो उठी। लोगों का धैर्य छूटने लगा था।
जैसा कि हम देख सकते हैं, क्रान्ति के लिये काफ़ी से ज्यादा सामान था।
दिसम्बर 1904 में, बाकू में मजदूरों की एक भारी और सुसंगठित हड़ताल हुई। इसका संचालन बोल्शेविकों की बाकू-कमिटी ने किया। हड़ताल में मजदूर जीते। मालिकों और तेल-मजदूरों के बीच एक सामूहिक समझौता हुआ। रूस के मजदूर आन्दोलन के इतिहास में यह समझौता अपने ढंग का पहला था।
बाकू-हड़ताल टंसकाॅकेशिया और रूस के विभिन्न हिस्सों में क्रान्तिकारी उठान की शुरुआत थी।
"बाकू की हड़ताल समूचे रूस में जनवरी और फरवरी की शानदार कार्यवाही का संकेत थी।" (स्टालिन)।
यह हड़ताल बादलों की गड़गड़ाहट की तरह थी, जो इस बात की सूचना देती थी कि एक भारी क्रान्तिकारी तू़फ़ान आने वाला है।
9 जनवरी, (नई शैली, 22 जनवरी) 1905 को, पीतरबुर्ग की घटनाओं के साथ क्रांतिकारी तूफ़ान फूट पड़ा।
3 जनवरी, 1905 को, पीतरबुर्ग के कारखानों में पुतिलोव (अब किरोव) नाम के सबसे बड़े कारखाने में हड़ताल शुरु हो गयी। चार मजदूरों को निकालने की वजह से हड़ताल शुरु हुई थी। वह तेज़ी से बढ़ी और पीतरबुर्ग की दूसरी मिलें और कारखाने उसमें शामिल हो गये। वह आम हड़ताल हो गयी। आन्दोलन शक्तिशाली बनता गया। ज़ार सरकार ने उसकी शुरुआत में ही उसे कुचल देने का फैसला किया।
1904 में, पुतिलोव-हड़ताल के पहले, पुलिस ने गेपन नाम के एक पादरी जासूस से काम लेने की कोशिश की थी। उसके जरिये रूसी मिल-मजदूरों का संघ नाम से मजदूरों का एक संगठन खड़ा करने की कोशिश की गयी थी। इस संगठन की शाखायें पीतरबुर्ग के सभी जिलों में थी। जब हड़ताल शुरु हुई, तो इस संगठन की सभाओं में पादरी गेपन ने एक विश्वासघाती योजना रखी कि सभी मज़दूर 9 जनवरी को इकट्ठा हों और गिरजे के झण्डे और ज़ार की तसवीरें लेकर, शान्तिपूर्ण जुलूस में शरद-प्रासाद की तरफ चलें और अपनी जरूरतें बताते हुए ज़ार के सामने एक अर्जी पेश करें; ज़ार लोगों के सामने आयेगा, उनकी बातें सुनेगा और उनकी माँगें पूरी करेगा। गेपन ने ज़ारशाही ओखराना से वादा किया कि वह मजदूरों पर गोली चलाने के लिये बहाना ढंूढ़कर उसकी मदद करेगा और वह मजदूर आन्दोलन को खून में डुबो सकेगी। लेकिन, पुलिस का यह षड़यंत्र ज़ार सरकार के सिर पर ही फूटा।
मज़दूरों की सभाओं में अर्जी पर विचार किया गया और संशोधन पेश किये गये। इन सभाओं में बिना अपने को खुल्लमखुल्ला जाहिर किये हुए बोल्शेविक बोले। उनके असर से अर्जी में ये माँगें जोड़ दी गयीं, - अखबार निकालने की आजादी हो, भाषण करने की आज़ादी हो, मजदूरों को सभायें बनाने की आजादी हो, रूस की राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिये विधान-सभा बुलायी जाये, कानून के सामने सबको बराबर माना जाये, राज्य से चर्च को अलग किया जाये, युद्ध बंद किया जाये, मजदूरी के आठ घण्टे हों और जमीन किसानों को दी जाये।
इन सभाओं में, बोल्शेविकों ने मजदूरों को समझाया कि ज़ार के सामने अर्जियां भेजने से आजादी न मिलेगी। आज़ादी हथियारों की ताकत से मिलेगी। बोल्शेविकों ने मजदूरों को आगाह किया कि उन पर गोली चलायी जायेगी। लेकिन, वे शरद-प्रासाद की तरफ जुलूस का जाना न रोक सके। मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा अब भी यह समझता था कि ज़ार उनकी मदद करेगा। आन्दोलन ने आम जनता पर पक्का असर कायम कर लिया था।
पीतरबुर्ग के मजदूरों की अर्जी में कहा गया था:
"हम पीतरबुर्ग के मजदूर, हमारी बीवियाँ, हमारे बच्चे और हमारे बूढ़े माँ-बाप तेरे पास आये हैं कि ऐ हमारे बादशाह, तू हमारे साथ इंसाफ कर और हमारी रक्षा कर। हम गरीबी से तबाह हैं, सताये हुए हैं, हम पर असह्य मेहनत का बोझ है। हमारी बेइज़्जती होती है और हमारे साथ इंसानों जैसा सुलूक नहीं होता।... हमने धीरज में यह सब सहा है, लेकिन गरीबी, अधिकारहीनता और अज्ञान के दलदल में हम और गहरे घुसते जाते हैं। निरंकुश सत्ता और अत्याचार हमारा गला घोंट रहे हैं।... हमारा धीरज छूट चला है। वह भयानक घड़ी आ पहुँची है जब हम इन असहनीय तकलीफों को और बर्दाश्त करने के बदले मर जाना बेहतर समझेंगे। …"
9 जनवरी, 1905 को सुबह तड़के मजदूर शरद-प्रासाद की तरफ़ चले, जहांँ पर उन दिनों ज़ार रहता था। वे अपने पूरे परिवारों के साथ आये। उनकी बीवियाँ, बच्चे और बूढ़े साथ थे। उनके हाथों में ज़ार की तसवीरें और चर्च के झण्डे थे। जुलूस में चलते हुए, वे धार्मिक गीत गा रहे थे। वे निहत्थे थे। सड़कों पर 1,40,000 आदमी इकट्ठे हुए।
निकोलस द्वितीय ने उनके साथ दुश्मनी का व्यवहार किया। उसने निहत्थे मजदूरों पर गोली चलाने का हुकुम दिया। उस रोज ज़ार की फ़ौज के हाथ से एक हज़ार से ऊपर मज़दूर मारे गये और दो हज़ार से ऊपर घायल हुए। पीतरबुर्ग की सड़कें मजदूरों के खून से लाल हो गयीं।
बोल्शेविक मज़दूरों के साथ गये थे। उनमें बहुत से मारे गये या गिरफ़्तार कर लिये गये। वहाँ मजदूरों के खून से लाल सड़कों पर, बोल्शेविकों ने मज़दूरों को समझाया कि इस हत्या का अपराध किसके सिर पर है और उससे कैसे लड़ना चाहिये। 9 जनवरी का नाम 'खूनी इतवार' पड़ गया। उस रोज मजदूरों को एक खूनी सबक मिला। उस रोज गोलियों ने ज़ार में उनकी श्रद्धा को ही छलनी कर डाला। उन्होंने महसूस किया कि वे लड़कर ही अपने अधिकार हासिल कर सकते हैं। उस दिन की शाम को मजदूर इलाकों में सड़कों पर मोर्चेबन्दी शुरु हो गयी। मजदूरों ने कहा: "ज़ार हमसे निपट चुका है; अब हम उससे निपटेंगे!"
ज़ार के खूनी अपराध का भयानक समाचार चारों तरफ फैल गया। समूचा मजदूर वर्ग, तमाम देश, क्रोध और घृणा से भर गया। कोई ऐसा शहर नहीं था जहाँ ज़ार की इस नीचता के विरोध में लोगों ने हड़ताल न की हो और राजनीतिक माँगें न पेश की हों। "ज़ारशाही मुर्दाबाद!" का नारा लगाते हुए, मजदूर अब सड़कों पर निकल आये। जनवरी में, हड़तालियों की तादाद चार लाख चालीस हज़ार के भारी अंकों तक पहुंच गयी। पिछले दस सालों में जितने मजदूरों ने हड़तालें न की थीं, उतने मजदूरों ने एक महीने में हड़तालें की। मजदूर आन्दोलन अभूतपूर्व ऊँचाई तक पहुँच गया।
रूस में क्रान्ति शुरु हो गयी थी।
2. मजदूरों की राजनीतिक हड़तालें और प्रदर्शन। किसानों में क्रान्तिकारी आन्दोलन की बढ़ती। युद्ध-पोत 'पोतेमकिन' पर बग़ावत।
9 जनवरी के बाद, मजदूरों का क्रान्तिकारी संघर्ष और तेज़ हुआ और उसने राजनीतिक रूप ले लिया। मजदूर आर्थिक हड़तालें और हमदर्दी में हड़तालें करने से आगे बढ़ कर राजनीतिक हड़तालें, प्रदर्शन और कहीं-कहीं पर ज़ारशाही फ़ौज का हथियारबन्द मुकाबिला करने लगे। पीतरबुर्ग, मास्को, वारसा, रीगा और बाकू जैसे बड़े शहरों में जहाँ भारी संख्या में मजदूर केन्द्रित थे, हड़तालें अच्छी तरह से संगठित थीं और खास तौर से जमकर लड़ी गयीं। लड़ाकू सर्वहारा की अगली सफ़ों में धातु के मजदूर चल रहे थे। अपनी हड़तालों से मजदूरों के हिरावल ने कम वर्ग-चेतन हिस्सों को जगाया और संघर्ष के लिये समूचे मज़दूर वर्ग को उभारा। सोशल-डेमोक्रेसी का असर तेज़ी से बढ़ा।
कई शहरों में मई दिवस के प्रदर्शनों में पुलिस और फ़ौज से टक्करें हुईं। वारसा में प्रदर्शन पर गोली चलायी गयी और कई सौ आदमी हताहत हुए। पोलैण्ड के सोशल-डेमोक्रेटों के आववान पर, मजदूरों ने विरोध में आम हड़ताल करके गोली-काण्ड का जवाब दिया। मई के महीने में हड़तालें और प्रदर्शन बन्द नहीं हुए। उस महीने, समूचे रूस में दो लाख से ऊपर मज़दूरों ने हड़ताल की। बाकू, लोत्स और इवानोवोवज़्नेसेंस्क में आम हड़तालें हुईं। हड़ताली और प्रदर्शनकारी ज़ारशाही फौज से अधिकाधिक टक्करें लेने लगे। कई शहरों में - ओदेसा, वारसा, रीगा, लोत्स वगै़रह में - इस तरह की टक्करें हुईं।
लोत्स में संघर्ष खास तौर से तेज़ हुआ। पोलैण्ड का यह एक बड़ा औद्योगिक केन्द्र था। मजदूरों ने शहर की सड़कों पर बीसों जगह मोर्चेबन्दी की और तीन दिनों तक (22-24 जून, 1905) ज़ारशाही फौज़ से सड़कों पर लड़ते रहे। यहाँ पर हथियारबन्द लड़ाई आम हड़ताल में घुल-मिल गयी। लेनिन के अनुसार, ये लड़ाइयाँ रूस के मजदूरों की पहली हथियारबन्द कार्यवाही थी।
उस साल, गर्मियों की सबसे बड़ी हड़ताल इवानोवोवज़्नेसेंस्क के मजदूरों की थी। यह करीब ढाई महीने, मई के आखीर से अगस्त 1905 के शुरू तक, चली। लगभग सत्तर हज़ार मजदूरों ने, जिनमें स्त्रियाँ भी थीं, हड़ताल में हिस्सा लिया। इसका नेतृत्व बोल्शेविकों की उत्तरी कमिटी ने किया था। करीब हर रोज शहर के बाहर ताल्का नदी के किनारे हज़ारों मजदूर इकट्ठे होते थे। इन सभाओं में वे अपनी जरूरतों पर विचार करते थे। मजदूरों की सभाओं में बोल्शेविक भाषण देते थे। ज़ारशाही अधिकारियों ने फ़ौज को हुकुम दिया कि मजदूरों को तितर-बितर करें और उन पर गोली चलायें। बीसियों मजदूर मारे गये और कई सौ घायल हुए। शहर में संकट की हालत का ऐलान कर दिया गया। लेकिन, मजदूर अडिग रहे और काम पर न लौटे। वे और उनके परिवार भूखों मरने लगे, लेकिन वे घुटने टेकने को तैयार न थे। सिर्फ बेहद कमजोर हो जाने के बाद, आखिर में उन्हें मजबूरन काम पर आना पड़ा। हड़ताल ने मजदूरों को दृढ़ बना दिया। मजदूर वर्ग के साहस, दृढ़ता, धीरज और एकता की यह मिसाल थी। इवानोवोवज़्नेसेंस्क के मजदूरों के लिये यह सच्ची राजनीतिक शिक्षा थी।
हड़ताल के दौर में, इवानोवोवज़्नेंसेंस्क के मज़दूरों ने प्रतिनिधियों की एक समिति बनायी, जो दरअसल रूस में मजदूरों के प्रतिनिधियों की पहली सोवियत थी।
मजदूरों की राजनीतिक हड़तालों से सारा देश आन्दोलित हो उठा। शहरों के पीछे गांव भी उठ खड़े होने लगे। वसन्त में, किसानों में असंतोष फूट पड़ा। बड़े-बड़े झुंड बना कर किसान जमींदारों के खिलाफ़ चलने लगे। वे उनकी रियासतों, शक्कर साफ़ करने के कारखानों और शराब बनाने की भट्ठियों को घेर लेते थे और उनकी गढ़ी और कोठियों में आग लगा देते थे। कई जगह किसानों ने जमींदारों की जमीनें छीन लीं, जंगल के जंगल काटना शुरु कर दिये और यह मांग की कि उनकी रियासतें जनता के हवाले की जायें। उन्होंने जमींदारों के गल्ले और दूसरी जिन्सों के गोदामों पर कब्जा कर लिया और उन्हें भूखों मरने वालों में बाँट दिया। जमींदार बदहवास होकर शहरों में भाग आये। ज़ार सरकार ने किसानों का विद्रोह कुचलने के लिये सिपाही और कज्जाक भेजे। फौज ने किसानों पर गोली चलायी, उनके 'सरदारों' को पकड़ लिया और उन्हें पीटा और तरह-तरह से यंत्रणा दी। लेकिन, किसानों ने अपनी लड़ाई बन्द न की।
किसान आन्दोलन रूस के मध्य भाग में बोल्गा-प्रदेश और टंसकाॅकेशिया में, खास तौर से जाॅर्जिया में, बराबर फैलता गया।
सोशल-डेमोक्रैट सुदूर गाँवों में पहुँच गये। पार्टी की केन्द्रीय कमिटी ने किसानों के नाम अपील निकाली: 'किसानों, हमें तुमसे यह शब्द कहने हैं!' त्वेर, सारातोव, पोल्तावा, चर्निगोव, एकातेरिनोस्लाव, तिफ़लिस और दूसरे बहुत से सूबों की सोशल-डेमोक्रैटिक कमिटियों ने किसानों के नाम अपीलें निकालीं। सोशल-डेमोक्रैट गाँवों में सभायें करते, किसानों में मण्डल संगठित करते और किसान कमिटियाँ कायम करते। 1905 की गर्मियों में, सोशल-डेमोक्रैटों की संगठित की हुई खेत-मजदूरों की हड़तालें बहुत जगह हुईं।
लेकिन, यह किसान-संघर्ष की शुरुआत ही थी। किसान-आन्दोलन की लपेट में सिर्फ़ 85 उयेज़्द (जिले) ही आये थे, यानी मोटे तौर से ज़ारशाही रूस के यूरोपीय भाग के कुल उयेज्दों का 1/7 हिस्सा ही आया था।
मजदूरों और किसानों के अन्दोलन और रूस-जापान युद्ध में रूसी फ़ौजों की हार पर हार का असर फ़ौज पर भी पड़ा। ज़ारशाही का यह गढ़ डावाँडोल हो उठा।
जून 1905 में, काले समुद्र के बेड़े के पोतेमकिन नामक युद्ध-पोत पर विद्रोह फूट पड़ा। युद्ध-पोत उस समय ओदेसा के नज़दीक था, जहाँ मजदूरों की आम हड़ताल चालू थी। बाग़ी मल्लाहों ने अपने ज़्यादा घृणित अफ़सरों से बदला लिया और जहाज़ को ओदेसा ले आये। युद्ध पोत पोतेमकिन क्रान्ति की तरफ़ आ गया था।
लेनिन ने इस बग़ावत को बहुत ही महत्वपूर्ण बतलाया। उन्होंने बोल्शेविकों के लिये जरूरी समझा कि वे इस आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लें और मजदूरों, किसानों तथा स्थानीय छावनियों के आन्दोलन से उसे जोड़ दें।
ज़ार ने पोतेमकिन के खिलाफ़ कई युद्ध-पोत भेजे, लेकिन इन जहाज़ों के मल्लाहों ने अपने विद्रोही भाईयों पर गोली चलाने से इन्कार किया। कई दिनों तक युद्ध-पोत पोतेमकिन के मस्तूल पर क्रान्ति का लाल निशान फहराता रहा। लेकिन, उन दिनों 1905 में आन्दोलन की अगुवाई करने वाली बोल्शेविक पार्टी ही एक पार्टी न थी, जैसा कि आगे 1917 में हुआ। पोतेमकिन पर मेन्शेविक, समाजवादी क्रान्तिकारी और अराजकतावादी भी काफ़ी तादाद में थे। इसका नतीजा यह हुआ कि हालाँकि सोशल-डेमोक्रैटों ने व्यक्तिगत रूप से विद्रोह में हिस्सा लिया, फिर भी उसमें योग्य और काफी अनुभवी नेतृत्व की कमी थी। ऐन मौके पर, मल्लाहों का एक हिस्सा ढुलमुल हो गया। काले समुद्र के बेड़े के दूसरे जहाजों ने पोतेमकिन की बग़ावत में साथ नहीं दिया। कोयला और सामान कम पड़ जाने पर, क्रान्तिकारी युद्ध-पोत को रूमानियां के तट की तरफ़ बढ़ना पड़ा और वहाँ पर अधिकारियों के आगे आत्म-समर्पण करना पड़ा।
युद्ध-पोत पोतेमकिन के मल्लाहों की बग़ावत का अंत हार में हुआ। आगे चल कर जो मल्लाह ज़ार सरकार के हाथ में पड़ गये, उन पर मुकदमा चलाया गया। कुछ को प्राण-दण्ड दिया गया और बाकी को निर्वासन और कड़ी मेहनत की सज़ा दी गयी। लेकिन, यह बग़ावत अपने आप में एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना थी। पोतेमकिन का विद्रोह फ़ौज और बेड़े में आम जनता की क्रान्तिकारी कार्यवाही की पहली मिसाल थी। यह पहला मौक़ा था जब ज़ार की फ़ौज की एक बड़ी टुकड़ी क्रान्ति की तरफ़ आयी थी। इस विद्रोह से मजदूर और किसान इस बात को समझ गये और यह उनके दिल में बैठ गयी कि फ़ौज और बेड़ा मजदूर वर्ग और जनता का साथ दे सकते हैं; खास तौर से खुद फ़ौजियों और मल्लाहों ने इस बात को समझा।
मज़दूरों का आम राजनीतिक हड़तालें और प्रदर्शन करना, किसान आन्दोलन की बढ़ती, पुलिस और फ़ौज से जनता की हथियारबन्द टक्करें और अंत में काले समुद्री बेड़े की बग़ावत, इन सबसे ज़ाहिर होता था कि जनता के सशस्त्र विद्रोह के लिये हालत तैयार हो रही है। इससे उदारपंथी पूंजीपति भी मैदान में आये। क्रान्ति से डरते हुए और साथ ही क्रान्ति के हौवे से ज़ार को डराते हुये, उन्होंने चाहा कि क्रान्ति के खिलाफ़ ज़ार से समझौता कर लें। उन्होंने 'जनता के लिये' मामूली सुधारों की माँग की जिससे कि जनता को 'शांत किया जाये', क्रान्ति की ताकतों में फूट डाली जाये और इस तरह से 'क्रान्ति की विभीषिका' से बचा जाये। उदारपंथी जमींदार कहते थे: "सर देने से थोड़ी ज़मीन दे देना बेहतर है।" उदारपंथी पूंजीपति ज़ार के साथ सत्ता में हिस्सा बटाने की तैयारी कर रहे थे! मज़दूर वर्ग की कार्यनीति और उदारपंथी पूंजीपतियों की कार्यनीति के सिलसिले में, उन दिनों लेनिन ने लिखा था: "सर्वहारा वर्ग लड़ रहा है; पूंजीपति चोरी-चोरी सत्ता हथियाने के लिये बढ़ रहे हैं।"
ज़ार सरकार पाशविक बर्बरता से मज़दूरों और किसानों का दमन करती रही। लेकिन, उसे यह दिखाई दिये बिना न रहा कि वह दमन से ही क्रान्ति की रोक-थाम नहीं कर सकती। इसलिये दमन बन्द किये बिना, उसने दाँव-पेंच से काम लेने की नीति अपनाई। एक तरफ, वह जासूसों की मदद से रूसी जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ़ भड़काती थी, यहूदियों के कत्लेआम और आर्मीनियनों और तातारों के आपसी हत्याकाण्ड कराती थी। दूसरी तरफ़, उसने वादा किया कि वह जेम्स्की सोबोर1 या राज्य-परिषद (दूमा) के रूप में एक प्रतिनिधि संस्था बुलायेगी। उसने मंत्री बुनिगिन को आदेश दिया कि ऐसी दूमा के लिये वह एक योजना बनाये। साथ ही, उसने यह ख़याल रखा कि दूमा के पास कानून बनाने के अधिकार न हों। ये सब उपाय इसलिये किये गये थे कि क्रान्ति की शक्तियों में फूट डाल दी जाये और जनता के नरम विचार के लोगों को उससे अलग कर दिया जाये।
बोल्शेविकों ने जनता के प्रतिनिधित्व के इस स्वांग को खत्म करने के लिये बुलिगिन दूमा के बायकाट का ऐलान किया।
दूसरी तरफ़ मेन्शेविकों ने फै़सला किया कि वे दूमा भंग न करेंगे और उन्होंने उसमें हिस्सा लेना जरूरी समझा। ------------------------------------------------------- 1. सरकार के साथ विचार करने के लिये 16-17वीं सदी में बुलाई जाने वाली उच्च स्तरों की
सभा - अंग्रेजी अनुÛ
2. बोल्शेविकों और मेन्शेविकों के कार्यनीति सम्बन्धी मतभेद। तीसरी पार्टी कांग्रेस। लेनिन की पुस्तक 'जनवादी क्रान्ति में सोशल-डेमोक्रैसी की दो कार्य-नीतियाँ'। मार्क्सवादी पार्टी की कार्यनीति सम्बन्धी बुनियाद।
क्रान्ति ने समाज के सभी वर्गों को गतिशील बना दिया था। देश के राजनीतिक जीवन में क्रान्ति से जो तब्दीली हुई, उससे वे अपनी पुरानी जानी-पहचानी जगहों से बिछुड़ गये। नयी परिस्थिति के अनुकूल, उन्हें फिर से व्यवस्थित होने के लिये मजबूर होना पड़ा। हर वर्ग और हर पार्टी ने अपनी कार्यनीति, अपने काम की लाइन, दूसरे वर्गों की तरफ अपना रुख और हुकूमत की तरफ अपना रवैया बनाने की कोशिश की। ज़ार सरकार को भी मजबूर होकर नयी और बेपहचानी कार्यनीति गढ़नी पड़ी, जिसकी मिसाल बुलिगिन दूमा जैसी 'प्रतिनिधि संस्था' को बुलाने के वादे से मालूम होती है।
सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी को भी अपनी कार्यनीति बनानी थी। क्रान्ति के बढ़ते हुए ज्वार से यह जरूरत पैदा हुई थी और इसलिये पैदा हुई थी कि सर्वहारा वर्ग के सामने ऐसे अमली सवाल आये थे जिन्हें हल करने में देर न की जा सकती थी: हथियारबन्द विद्रोह का संगठन, ज़ार सरकार का खात्मा, अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार का निर्माण, इस सरकार में सोशल-डेमोक्रैटों का हिस्सा लेना, किसानों और उदारपंथी पूंजीपतियों की तरफ़ रुख, इत्यादि। सोशल-डेमोक्रैटों को अपने लिये ध्यानपूर्वक सोच कर और एक-जैसी मार्क्सवादी कार्यनीति बनानी थी।
लेकिन, मेन्शेविकों के अवसरवाद और उनकी फूट की कार्यवाही की वजह से रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी उस समय दो दलों में बँटी हुई थी। इनका अलगाव अभी पूरा न समझा जा सकता था और नियमानुसार दोनों दल अभी दो पार्टियाँ न थे। लेकिन वास्तव में, वे दो अलग पार्टियों से बहुत ज्यादा मिलते-जुलते थे जिनमें से हरेक का अपना नेतृत्व-केन्द्र और अपना अखबार हो।
जिस बात से फूट और बढ़ गयी, वह यह थी कि संगठन के सवालों पर पार्टी के बहुमत से अपने पुराने मतभेदों में मेन्शेविकों ने अब नये मतभेद, कार्यनीति के सवालों पर मतभेद भी जोड़ दिये थे।
संयुक्त पार्टी न होने से, पार्टी की एक-जैसी कार्यनीति भी न थी।
इस परिस्थिति से निकलने का एक रास्ता था कि तुरंत एक और कांग्रेस, पार्टी की तीसरी कांग्रेस बुलायी जाती। यह कांग्रेस सामान्य कार्यनीति तय करती और अल्पमत को इस बात के लिये बाध्य करती कि वह कांग्रेस के फैसलों को, बहुमत के फैसलों को, ईमानदारी से पूरा करे। मेन्शेविकों के सामने बोल्शेविकों ने यह प्रस्ताव रखा। लेकिन, मेन्शेविक तीसरी कांग्रेस बुलाने की बात सुनने को तैयार न थे। बोल्शेविकों ने सोचा कि पार्टी को ऐसी कार्यनीति के बिना और ज्यादा छोड़ना अपराध होगा जिसे पार्टी ने स्वीकृत किया हो और जिसे तमाम पार्टी सदस्य मानाने के लिये बाध्य हों। इसलिये, उन्होंने तीसरी कांग्रेस बुलाने में पहल करने का काम अपने हाथों में लिया। सभी पार्टी-संगठन, बोल्शेविक और मेन्शेविक दोनों ही, कांग्रेस में बुलाये गये। लेकिन, मेन्शेविकों ने तीसरी कांग्रेस में हिस्सा लेने से इन्कार कर दिया और तय किया कि खुद अपनी कांग्रेस करेंगे। उनकी कांग्रेस में थोड़े ही प्रतिनिधि आये, इसलिये उन्होंने उसे कान्फ्रेंस का नाम दिया। लेकिन, दरअसल वह एक कांग्रेस थी, मेन्शेविक पार्टी की कांग्रेस, जिसके फैसले सभी मेन्शेविकों के लिये मान्य थे।
रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी की तीसरी कांग्रेस अप्रैल 1905 में लन्दन में हुई। उसमें 20 बोल्शेविक कमिटियों की तरफ़ से 24 प्रतिनिधि शामिल हुए थे। उसमें पार्टी के सभी बड़े संगठनों का प्रतिनिधित्व था।
कांग्रेस ने मेन्शेविकों की यह कह कर निन्दा की कि "वे एक ऐसा गुट हैं जो पार्टी से टूट कर अलग हो गया है," और इसके बाद कांग्रेस ने मुख्य काम संभाला, यानी, पार्टी की कार्यनीति का निर्माण।
जिस समय यह कांग्रेस हुई, उसी समय मेन्शेविकों ने अपनी कान्फ्रेंस जिनेवा में की।लेनिन ने परिस्थिति का सार बतलाते हुए कहा था: "दो कांग्रेसें - दो पार्टियाँ।"
कांग्रेस और कान्फ्रेंस दोनों ने वस्तुतः कार्यनीति के एक ही सवालों पर बहस की, लेकिन उन्होंने जो फैसले किये, वे एक-दूसरे के बिल्कुल उल्टे थे। कांग्रेस और कान्फ्रेंस ने क्रमशः जो दो तरह के फैसले मंजूर किये, उनसे तीसरी पार्टी कांग्रेस और मेन्शेविक कान्फ्रेंस के बीच के, बोल्शेविकों और मेन्शेविकों के बीच के, कार्यनीति सम्बंधी भेद की पूरी गहराई ज़ाहिर हुई।
मतभेद की मुख्य बातें यह हैं।
तीसरी पार्टी कांग्रेस की कार्यनीति सम्बन्धी लाइन।
कांग्रेस का विचार था कि यद्यपि उस समय होने वाली क्रान्ति का रूप पूंजीवादी-जनवादी था और पूंजीवाद के ढाँचे के अन्दर जो कुछ मुमकिन था, उसकी सीमाओं के बाहर वह न जा सकती थी, फिर भी सर्वहारा वर्ग ही मुख्य रूप से उसकी पूरी जीत में दिलचस्पी रखता था। सबब यह कि इस क्रान्ति की जीत से सर्वहारा वर्ग अपने को संगठित कर सकता था, राजनीतिक रूप से बढ़ सकता था, मेहनतकश आवाम का राजनीतिक नेतृत्व करने में योग्यता और अनुभव हासिल कर सकता था और पूंजीवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की तरफ बढ़ सकता था।
पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति की पूरी जीत हासिल करने के लिये सर्वहारा वर्ग ने जो कार्यनीति अपनायी थी, उसका समर्थन किसान ही कर सकते थे। किसान ज़मींदारों से अपना हिसाब-किताब तब तक तय न कर सकते थे और अपनी जमीन पर तब तक अधिकार न पा सकते थे जब तक कि क्रान्ति की पूरी विजय न हो। इसलिये, किसान सर्वहारा वर्ग के स्वाभाविक सहयोगी थे।
उदारपंथी पूंजीपतियों को क्रान्ति की पूरी जीत में दिलचस्पी न थी। वे मजदूरों और किसानों से जितना डरते थे उतना और किसी चीज़ से नहीं, और इन्हीं के खिलाफ़ बतौर कोड़े के उन्हें ज़ारशाही की जरूरत थी। वे कोशिश करते कि ज़ारशाही कायम रहे, सिर्फ उसके अधिकार सीमित कर दिये जायें। इसलिये, उदारपंथी पूंजीपति वैधानिक सम्राटवाद के आधार पर ज़ार से समझौता करके मामला रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करते थे।
क्रान्ति तभी बिजयी होगी जब सर्वहारा वर्ग उसका नेतृत्व करेगा; जब क्रान्ति के नेता की तरह सर्वहारा वर्ग किसानों का सहयोग हासिल करेगा; जब उदारपंथी पूंजीपति अकेले कर दिये जायेंगे; जब सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी ज़ारशाही के खिलाफ़ जनता के विद्रोह के संगठन में सक्रिय हिस्सा लेगी; जब सफल विद्रोह के बाद एक अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार कायम की जायेगी जो क्रान्ति-विरोध को जड़ से उखाड़ कर फेंक सकेगी और तमाम जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली विधान-सभा बुलायेगी; जब परिस्थिति अलुकूल होने पर क्रान्ति को अंतिम ध्येय तक पहुँचाने के लिये सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी अस्थायी क्रान्तिकारी हुकूमत में हिस्सा लेने से इन्कार न करेगी।
मेन्शेविक कान्फ्रेंस की कार्यनीति सम्बन्धी लाइन। क्रान्ति पूंजीवादी क्रान्ति थी, इसलिये उदारपंथी पूंजीपति उसके नेता हो सकते थे। सर्वहारा वर्ग को किसानों से नज़दीकी सम्बंध न कायम करने चाहिये बल्कि उदारपंथी पूंजीपतियों से कायम करने चाहिये। मुख्य बात यह है कि क्रान्तिकारी जोश दिखला कर उदारपंथी पूंजीपतियों को डरा न देना चाहिये और क्रान्ति से हटने के लिये उन्हें बहाना न देना चाहिये, क्योंकि अगर वे क्रान्ति से हट गये तो क्रान्ति कमजोर पड़ जायेगी।
यह मुमकिन था कि विद्रोह विजयी हो। लेकिन, विद्रोह की जीत के बाद सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी को अलग हट जाना चाहिये, जिससे कि उदारपंथी पूंजीपति डर न जायें। यह मुमकिन था कि विद्रोह के फलस्वरूप एक अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार कायम की जाये। लेकिन, सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी को किसी भी हालत में उसमें हिस्सा लेना न चाहिये क्योंकि यह सरकार सोशलिस्ट न होगी, और यह मुख्य बात थी, सरकार में हिस्सा लेकर, तथा अपने क्रान्तिकारी जोश से, सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी उदारपंथी पूंजीपतियों को डरा सकती है। और, इस तरह से क्रान्ति कमजोर पड़ सकती है।
क्रान्ति की भावी प्रगति के लिये यह ज्यादा अच्छा होगा कि जे़म्स्की सोबोर या राज्य दूमा की तरह की कोई प्रतिनिधि सभा बुलायी जाये, जिस पर बाहर से मजदूर वर्ग का दबाव डाला जा सके और उसे विधान-सभा में तब्दील किया जा सके, या उसे विधान-सभा बुलाने के लिये प्रेरित किया जाये।
सर्वहारा वर्ग के अपने स्पष्ट और शुद्ध मज़दूरी कमाने वालों के हित हैं। उसे इन्हीं हितों की तरफ़ ध्यान देना चाहिये और पूंजीवादी क्रान्ति का नेता बनने की कोशिश न करनी चाहिये। यह पूंजीवादी क्रान्ति एक आम राजनीतिक क्रान्ति है, इसलिये उसका सभी वर्गों से सम्बंध है, न कि सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग से। संक्षेप में, रूसी सोशल-डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी के दो दलों की ये दो कार्यनीतियाँ थीं।
अपनी ऐतिहासिक पुस्तक जनवादी क्रान्ति में सोशल-डेमोक्रैसी की दो कार्यनीतियां में, लेनिन ने मेन्शेविकों की कार्यनीति की पक्की आलोचना की थी और बोल्शेविक कार्यनीति का सुन्दर प्रतिपादन किया था।
यह किताब जुलाई 1905 में, यानी तीसरी पार्टी कांग्रेस के दो मास बाद प्रकाशित हुई थी। उसके नाम से सोचा जा सकता है कि उसमें लेनिन ने पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति के दौर के कार्यनीति सम्बन्धी सवालों पर ही प्रकाश डाला होगा और उनका ध्यान सिर्फ़ रूसी मेन्शेविकों पर ही रहा होगा। लेकिन वास्तव में, जब उन्होंने मेन्शेविकों की कार्यनीति की आलोचना की, तो उन्होंने साथ ही अंतर्राष्टंीय अवसरवाद की कार्यनीति का भी पर्दाफ़ाश किया। जब उन्होंने पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति के दौर की मार्क्सवादी कार्यनीति का प्रतिपादन किया और पंूजीवादी क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति का भेद किया, तो उन्होंने साथ ही पूंजीवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की तरफ बढ़ने के दौर की मार्क्सवादी कार्यनीति के बुनियादी सिद्धान्तों की स्थापना की।
लेनिन ने जनवादी क्रान्ति में सोशल-डेमोक्रैटिक की दो कार्यनीतियां नाम की अपनी पुस्तिका में कार्यनीति के जिन बुनियादी उसूलों का प्रतिपादन किया, वे इस प्रकार हैं:
(1) कार्यनीति का मुख्य सिद्धान्त, जो लेनिन की पूरी किताब में मिलता है, यह है कि सर्वहारा वर्ग को पूंजीवादी क्रान्ति का नेता होना चाहिये और वह हो सकता है; उसे रूस में पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति की रास्ता दिखाने वाली शक्ति होना चाहिये और वह हो सकता है।
लेनिन ने इस क्रान्ति के पूंजीवादी रूप को स्वीकार किया था, क्योंकि जैसा उन्होंने कहा था, वह "एक शुद्ध जनवादी क्रान्ति की सीमाओं को सीधे लाँघने में असमर्थ है।" फिर भी, उनका कहना था कि यह ऊपर के वर्गों की क्रान्ति नहीं बल्कि जनता की क्रान्ति है, जो तमाम जनता, समूचे मजदूर वर्ग, तमाम किसानों को गतिशील बनायेगी। इसलिये, मेन्शेविकों द्वारा सर्वहारा वर्ग के लिये पूंजीवादी क्रान्ति के महत्व को कम करके दिखाना, उसके सर्वहारा वर्ग की भूमिका को तुच्छ बताना और उससे सर्वहारा को दूर रखना, लेनिन की राय में सर्वहारा वर्ग के हितों से ग़द्दारी थी।
लेनिन ने लिखा था:
"मार्क्सवाद सर्वहारा वर्ग को सिखलाता है कि वह पूंजीवादी क्रान्ति से अलग न रहे, उसकी तरफ उदासीन न हो, क्रान्ति का नेतृत्व पूंजीपतियों के हाथ में न जाने दे। इसके विपरीत, वह पूरी ताकत से उसमें हिस्सा ले, खूब डट कर सुसंगत सर्वहारा जनतंत्र के लिये लड़े, क्रान्ति को उसके आखिरी नतीजे तक ले जाने के लिये लड़े।" (लेनिन, संÛग्रÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1947, खÛ 1, पृष्ठ 369)।
लेनिन ने आगे लिखा था:
"हमें याद रखना चाहिये कि आज के ज़माने में समजावाद को नज़दीक लाने के लिये पूरी राजनीतिक आज़ादी के अलावा, जनवादी प्रजातंत्र के अलावा, दूसरा कोई रास्ता न है, न हो सकता है।" (उपÛ, पृष्ठ 414)।
लेनिन ने देखा कि क्रान्ति के दो परिणाम हो सकते हैं:
(अ) या तो वह ज़ारशाही पर पूरी जीत से, ज़ारशाही की पराजय और जनवादी प्रजातंत्र की स्थापना से खत्म होगी;
(आ) या अगर शक्तियाँ नाकाफ़ी हुईं, तो जनता के हितों की बलि देकर ज़ार और पूंजीपतियों के बीच समझौते से, किसी तरह से सीमित विधान सभा, या बहुत मुमकिन है विधान के स्वांग से खत्म हो।
सर्वहारा वर्ग इन दोनों से बेहतर नतीजे में दिलचस्पी रखता था, यानी वह चाहता था कि ज़ारशाही पर पूरी जीत हो। लेकिन, इस तरह का नतीजा तभी मुमकिन होगा जब सर्वहारा वर्ग क्रान्ति का नेता और उसका पथप्रदर्शक बन पाये।
लेनिन ने कहा था:
"क्रान्ति का नतीजा इस बात पर निर्भर है कि मजदूर वर्ग पूंजीपतियों के मातहत अपना पार्ट अदा करता है, इस तरह मातहत कि ज़ारशाही पर हमला करने में तो उसकी शक्ति प्रबल हो लेकिन राजनीतिक रूप से वह अपाहिज हो, या कि वह जनता की क्रान्ति के नेता का पार्ट अदा करता है।" (उपÛ, पृष्ठ 344)।
लेनिन का कहना था कि सर्वहारा वर्ग के पास हर तरह की संभावना है कि वह पूंजीपतियों के मातहत बनने से बचे और पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति का नेता बन जाये। लेनिन के अनुसार, यह संभावना इस बात से पैदा होती थी -
पहले तो, "सर्वहारा वर्ग अपनी स्थिति की वजह से ही सबसे आगे बढ़ा हुआ वर्ग और एकमात्र सुसंगत क्रान्तिकारी वर्ग है। इस वजह से ही, रूस के आम जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन में उसे मुख्य भूमिका अदा करनी होगी।" (उपÛ, पृष्ठ 386)।
दूसरे, सर्वहारा वर्ग की अपनी राजनीतिक पार्टी है। यह पार्टी पूंज ीपतियों से स्वतंत्र है और सर्वहारा वर्ग के लिये यह मुमकिन बनाती है कि वह अपने को "एक संय ुक्त और स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में" सुगठित कर सके। (उपÛ, पृष्ठ 386)
तीसरे, पूंजीपतियों के मुबाबिले में सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति की निश्चित जीत में ज्यादा दिलचस्पी है। इस लिहाज से, "एक अर्थ में, पूंजीवादी क्रान्ति पूंजीपतियों से ज्यादा सर्वहारा वर्ग के लिये लाभकारक है।" उपÛ, पृष्ठ 368)
लेनिन ने लिखा था:
"सर्वहारा वर्ग के मुकाबिले में पूंजीपतियों को राज्यतंत्र, स्थायी फ़ौज वग़ैरह जैसी अतीत की कुछ बची-खुची चीजों का सहारा लेने में लाभ है। पूंजीपतियों को इसमें फायदा है कि पूंजीवादी क्रान्ति पुराने जमाने के अवशेषों को बहुत दृढ़ता से साफ़ न कर दे, बल्कि उनमें से कुछ को रहने दे, यानी अगर यह क्रान्ति पूरी तरह से संगत न हो, अगर वह पूरी न हो, अगर वह दृढ़ता और निर्ममता से चलने वाली न हो तो इससे पूंजीपतियों को फायदा है। ...पूंजीपतियों के लिये यह ज्यादा लाभदायी है यदि पूंजीवादी जनतंत्र की दिशा में ज़रूरी परिवर्तन और भी धीरे, और क्रमशः और फंूक-फूंक कर, कम दृढ़ता से, सुधारों के ज़रिये हों और क्रान्ति के ज़रिये न हों ... यदि ये परिवर्तन आम जनता, यानी किसानों और खास तौर से मज़दूरों की स्वतंत्र क्रंातिकारी कार्यवाही, पहल और शक्ति को कम से कम विकसित करें। ऐसा न होने पर, मज़दूरों के लिये आसान होगा कि, जैसा कि फ्रांसीसी कहते हैं, 'एक कन्धे से उठा कर बन्दूक दूसरे कन्धे पर रख ली' यानी पूंजीवादी क्रान्ति उनके हाथों में जो बन्दूकें देगी, जो आजादी क्रान्ति लायेगी, भूदास प्रथा से धरती पाक होने पर वहां जो जनवादी संस्थायें पनपेंगी, उन्हें वे पूंजीपतियों के खिलाफ़ इस्तेमाल करेंगे। दूसरी तरफ़, मजदूरों के लिये इस बात से ज्यादा फायदा है कि पूंजीवादी जनतंत्र की दिशा में जो परिवर्तन जरूरी हैं, वे क्रान्ति के ज़रिये हों और सुधारों के ज़रिये न हों। सुधारों का तरीका देर लगाने का तरीका है, मामला टालने का तरीका है, जातीय जीवन के सड़े-गले तबकों के दर्दनाक, धीमे-धीमे घुलने का तरीका है। सर्वहारा वर्ग और किसान भी इस सड़ाँध से सबसे पहले तकलीफ़ उठाते हैं। क्रान्तिकारी तरीका तुरन्त चीर-फाड़ का तरीका है, जो सर्वहारा वर्ग के लिये सबसे कम दर्दनाक है। यह तरीका गलते हुए हिस्सों को सीधे हटा देने का तरीका है, यह तरीका राज्यतंत्र और उसके साथ चलने वाली घृणित, घटिया, सड़ी हुई और छूत फैलाने वाली संस्थाओं को कम से कम रियायतें देने का और उनका कम से कम लिहाज़ करने का तरीका है।" (उप., पृष्ठ 368-69)।
लेनिन ने अनगे लिखा है:
"इसी वजह से, सर्वहारा वर्ग प्रजातंत्र के लिये अगली पांत में लड़ता है और इस मूर्खतापूर्ण और अपने लिये अयोग्य सलाह को घृणा से ठुकरा देता है कि वह पूंजीपतियों को डरा कर भगा न देने का ध्यान रखें।" (उप., पृष्ठ 405)।
सर्वहारा वर्ग क्रान्ति का नेता बने, इस संभावना को वास्तविकता का रूप देने के लिये, इसके लिये कि सर्वहारा वर्ग हक़ीकत में पूंजीवादी क्रान्ति का नेता, उसकी पथ-प्रदर्शक शक्ति बने, लेनिन के अनुसार कम से कम दो शर्तें जरूरी थीं।
पहले तो, सर्वहारा वर्ग के लिये एक ऐसे सहयोगी की जरूरत थी जिसे ज़ारशाही पर पूरी जीत हासिल करने से दिलचस्पी हो और जो सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व स्वीकार कर सकता हो। नेतृत्व के ही विचार से यह बात पैदा होती थी, क्योंकि किसी का नेतृत्व ही न करना हो तो नेता नेता न रह जाये। रास्ता देखने के लिये कोई न हो तो रास्ता दिखाने वाला भी नाममात्र को रह जायेगा। लेनिन का विचार था कि किसान ऐसे ही सहयोगी हैं।
दूसरे यह जरूरी था कि जो वर्ग क्रान्ति के नेतृत्व के लिये सर्वहारा वर्ग से लड़ रहा था और उसका एकमात्र नेता बनने की कोशिश कर रहा था, उसे नेतृत्व के मैदान से हटा दिया जाये और अकेला कर दिया जाये। यह बात भी नेतृत्व के ही विचार से पैदा होती थी, क्योंकि क्रान्ति के दो नेता होने की संभावना उस विचार से बाहर थी। लेनिन का मत था कि उदारपंथी पूंजीपतियों का वर्ग ऐसा ही वर्ग है।
लेनिन ने लिखा था:
"सर्वहारा वर्ग ही जनतंत्र के लिये सुसंगत रूप से लड़ने वाला हो सकता है। जनतंत्र के लिये वह तभी विजयी लड़ाका हो सकता है जब आम किसान उसके क्रान्तिकारी संघर्ष में हिस्सा लें।" (उप., पृष्ठ 376)।
और आगे:
"किसानों में अर्द्ध-सर्वहारा की बहुत बड़ी तादाद है और निम्न पूंजीवादी लोग भी हैं। इस वजह से, किसान अस्थिर होते है और सर्वहारा वर्ग को मजबूर होकर बिल्कुल एक वर्ग-पार्टी में संगठित होना पड़ता है। लेकिन, किसानों की अस्थिरता पूंजीपतियों की अस्थिरता से बुनियादी तौर पर भिन्न है। कारण यह कि मौजूदा वक्त में किसानों को व्यक्तिगत सम्पत्ति की पूर्ण रक्षा से इतनी दिलचस्पी नहीं है जितनी जमींदारों की रियासतें ज़ब्त करने से है, जो कि व्यक्तिगत संपत्ति का एक मुख्य रूप है। इससे किसान समाजवादी नहीं हो जाते, न उनका मध्यवित्त होना खत्म होता है। फिर भी, किसान जनवादी क्रान्ति के दिल से समर्थक और उसके सबसे उग्र समर्थक हो सकते हैं। किसान लाजमी तौर से ऐसे समर्थक तभी बनेगें जब क्रान्तिकारी घटनाओं की प्रगति, जिनसे उनकी चेतना जागती है, पूंजीपतियों की गद्दारी और सर्वहारा वर्ग की हार से बहुत जल्द भंग न हो जाये। इस शर्त के पूरी होने पर, किसान अनिवार्य रूप से क्रान्ति और प्रजातंत्र के दृढ़ समर्थक बन जायेंगे। पूरी तरह से विजयी क्रान्ति ही कृषि-सुधारों के क्षेत्र में किसानों को सब कुछ दे सकती है - सब कुछ जो किसान चाहते हैं, जिसका सपना देखते हैं और जिसकी उन्हें दरअसल जरूरत है।" (उप., पृष्ठ 405)।
मेन्शविकों की आपत्तियाँ थीं कि बोल्शेविक कार्यनीति से " पूंजीवादी वर्ग क्रान्ति से हट जायेंगे और इस तरह उसका प्रवाह कम हो जायेगा।" इन आपत्तियों की छान-बीन करते हुए, लेनिन ने उन्हें "क्रान्ति से ग़द्दारी की कार्यनीति" और ऐसी "कार्यनीति जो सर्वहारा वर्ग को पूंजीवादी वर्गों का तुच्छ पिछलगुवा बना देगी" बताया था। लेनिन ने लिखा था:
"जो लोग दरअसल एक विजयी रूसी क्रान्ति से किसानों की भूमिका समझते हैं, वे यह ख्वाब में भी न कहेंगे कि अगर पूंजीपति उससे हट गये तो क्रान्ति का प्रवाह कम हो जायेगा। वास्तव में, रूसी क्रान्ति का सच्चा प्रवाह तभी शुरु होगा, पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति के युग में उसमें विशालतम क्रान्तिकारी प्रवाह तभी पैदा होगा जब पूंजीपति उससे हट जायेंगे और जब आम किसान सर्वहारा वर्ग के साथ-साथ सक्रिय क्रान्तिकारियों के रूप में आगे आयेंगे। हमारी जनवादी क्रान्ति सुसंगत रूप से अपने परिणाम तक ले जायी जाये, इसके लिये जरूरी है कि वह उन्हीं ताकतों पर निर्भर रहे जो पूंजीपतियों की लाज़िमी असंगति को बेकार कर दे, यानी जो 'क्रान्ति से हटाने में ही' कामयाब हो सके।" (उप., पृष्ठ 406)।
लेनिन ने अपनी किताब जनवादी क्रान्ति में सोशल-डेमोक्रैसी की दो कार्यनीतियां में कार्यनीति का यह मुख्य सिद्धान्त रखा था। यह सिद्धान्त सर्वहारा वर्ग के बारे में था, जो पूंजीवादी क्रान्ति का नेता होगा। यह कार्यनीति का बुनियादी सिद्धान्त पूंजीवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग के एकछत्र नेतृत्व (प्रमुख भूमिका) के बारे में था।
पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति में कार्यनीतिक सवालों पर मार्क्सवादी पार्टी की यह एक नयी लाइन थी। मार्क्सवाद की टकसाल में कार्यनीति की जो लाइनें अभी तक थीं, उनसे यह बुनियादी तौर से भिन्न थी। पूंजीवादी क्रान्तियों में - मिसाल के लिये पच्छिमी यूरोप में - अब तक हालत यह थी कि मुख्य भूमिका पूंजीपतियों की होती थी। सर्वहारा वर्ग चाहे या न चाहे, उनके मातहत का पार्ट अदा करता था और किसान पूंजीपतियों की रिज़र्व का काम देते थे। इस तरह के परस्पर सम्बंध को मार्क्सवादी बहुत कुछ अनिवार्य मानते थे। साथ ही, यह ख्याल रखते थे कि जहाँ तक हो सके, सर्वहारा अपनी फ़ौरी वर्गगत माँगों के लिये लड़े और उसकी अपनी राजनीतिक पार्टी हो। अब नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों में, लेनिन के अनुसार, हालत जब यों बदल रही थी कि सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी क्रान्ति की प्रमुख शक्ति बन रहा था, पूंजीवादी वर्ग क्रान्ति के नेतृत्व से हटाया जा रहा था और किसान सर्वहारा वर्ग की रिज़र्व बन रहे थे।यह दावा कि प्लेखानोव "भी" सर्वहारा वर्ग के एकछत्र नेतृत्व का "समर्थन करता था", एक भ्रम पर निर्भर है। यह सही है कि प्लेखानोव सर्वहारा नेतृत्व की कल्पना से खेल करता था और उसे ज़बानी मानने में भी उसे आनाकानी न थी, लेकिन दरअसल तत्व रूप में इस विचार का वह विरोधी था। सर्वहारा वर्ग के एकछत्र नेतृत्व का मतलब है - पूंजीवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग की प्रमुख भूमिका, उसके साथ सर्वहारा वर्ग और किसानों के सहयोग की नीति हो और उदारपंथी पूंजीपतियों को अकेले कर देने की नीति हो। लेकिन प्लेखानोव, जैसा कि हमें मालूम है, उदारपंथी पूंजीपतियों को अकेले कर देने की नीति का विरोध करता था, उदारपंथी पूंजीपतियों से समझौते की नीति का समर्थन करता था और सर्वहारा वर्ग और किसानों के सहयोग की नीति का विरोध करता था। वास्तव में, प्लेखानोव की कार्यनीति की लाइन मेन्शेविक लाइन थी जो सर्वहारा नेतृत्व अस्वीकार करती थी।
(2) लेनिन का विचार था कि ज़ारशाही को खत्म करने और जनवादी प्रजातंत्र कायम करने का सबसे कारगर तरीका जनता का विजयी सशस्त्र विद्रोह है। मेन्शेविकों के खिलाफ़, लेनिन का कहना था कि "आम जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन ने सशस्त्र विद्रोह की ज़रूरत अभी भी पैदा कर दी है," कि "विद्रोह के लिये सर्वहारा वर्ग का संगठन" अभी भी "फौरी कामों में आ चुका है। वह पार्टी का ज़रूरी मुख्य और अनिवार्य काम है।" और यह ज़रूरी है कि "सर्वहारा वर्ग को हथियारबन्द करने के लिये पूरा जोर लगाया जाये और विद्रोह का सीधे नेतृत्व करने की संभावना पक्की करने के लिये ज़ोरदार उपाय किये जायें।" (उप., पृष्ठ 386) ।
विद्रोह की तरफ जनता को ले जाने और उसे समूची जनता का विद्रोह बना देने के लिये, लेनिन ने यह जरूरी समझा कि ऐसे नारे दिये जायें, जनता के नाम ऐसी अपीलें निकाली जायें जिनसे कि उसकी क्रान्तिकारी पहलकदमी को पूरी छूट मिले, वह विद्रोह के लिये संगठित हो और ज़ारशाही सत्ता के कलपुर्जे ढीले पड़ जायें। उनका विचार था कि ये नारे तीसरी पार्टी कांग्रेस के कार्यनीति सम्बन्धी फै़सलों से मिलते हैं, जिनके समर्थन में उन्होंने अपनी किताब जनवादी क्रान्ति में सोशल-डैमोक्रैसी की दो कार्यनीतियाँ लिखी थी।
उनके विचार से, वे नारे ये थे:
(क) "आम राजनीतिक हड़तालें, जो शुरु में और विद्रोह के दौर में भी बहुत महत्व की हो सकती हैं" (उप., पृ 386);
(ख) "क्रान्तिकारी ढंग से 8 घंटों का दिन और मजदूर वर्ग की दूसरी फौरी माँगें तुरंत हासिल करना" ( उप, पृ 358);
(ग) क्रान्तिकारी ढंग से "सभी जनवादी परिवर्तन" करने के लिये, जिनमें रियासतों की ज़मीन छीनना भी शामिल हो, "क्रान्तिकारी किसान कमिटियाँ तुरंत संगठित करना"; (उप, पृष्ठ 398);
(घ) मज़दूरों को हथियारबन्द करना।
यहाँ दो बातें खास दिलचस्पी की हैं। पहली तो, शहरों में 8 घंटों का दिन हासिल करने और गाँवों में जनवादी परिवर्तन करने के क्रान्तिकारी ढंग की कार्यनीति। दूसरे शब्दों में, यह ऐसी कार्यनीति थी जो अधिकारियों की परवाह नहीं करती, कानून की परवाह नहीं करती, जो अधिकारियों और कानून दोनों को भुला देती है, मौजूदा कानूनों को तोड़ती है और अनधिकारी कामों से एक नयी व्यवस्था कायम करती है। यह नयी व्यवस्था एक कर डाले हुए काम के रूप में सामने आती है। यह कार्यनीति का एक नया तरीका था, जिसके इस्तेमाल से ज़ारशाही सत्ता के कलपुर्जे ठप पड़ गये और आम जनता की कार्यवाही और रचनात्मक पहलकदमी को छूट मिली। इस कार्यनीति से शहरों में क्रान्तिकारी हड़ताल कमिटियाँ बनीं और गाँवों में क्रान्तिकारी किसान कमिटियाँ बनीं। पहली तरह की कमिटियाँ आगे चल कर मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतें बनीं, और दूसरी तरह की कमिटियां किसान प्रतिनिधियों की सोवियतें बनीं।दूसरी बात आम राजनीतिक हड़तालों का इस्तेमाल है। क्रान्ति के दौर में आगे चल कर आम राजनीतिक हड़तालें जनता को क्रान्तिकारी ढंग से बटोरने के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हुई। सर्वहारा वर्ग के हाथ में यह एक नया और बहुत ही महत्वपूर्ण हथियार था। यह एक ऐसा हथियार था जो मार्क्सवादी पार्टियों के अमल में अभी तक अनजाना रहा था और जो आगे चल कर सुपरिचित हो गया।
लेनिन का कहना था कि जनता का सफल विद्रोह होने के बाद, ज़ार सरकार की जगह एक अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार कायम करनी चाहिये। अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार का यह काम होगा कि क्रान्ति में मिली हुई सफलताओं को पक्का करे, क्रान्ति विरोधियों की मुखालिफ़त को कुचल दे और ऐसी सोशल-डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी के अल्पतम प्रोग्राम को पूरा करे। लेनिन का कहना था कि जब तक ये काम पूरे न किये जायेंगे, तब तक ज़ारशाही को पूरी तरह से हराना नामुमकिन होगा। और इन कामों को पूरा करने के लिये और ज़ारशाही पर पूरी विजय हासिल करने के लिये, यह जरूरी होगा कि अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार कोई मामूली तरह की सरकार न हो बल्कि विजयी वर्गों की, मज़दूरों और किसानों की, डिक्टेटरशिप की सरकार हो। यह सर्वहारा और किसानों की क्रान्तिकारी डिक्टेटरशिप हो। मार्क्स का यह प्रसिद्ध सूत्र पेश करते हुए कि "क्रान्ति के बाद राज्य के हर अस्थायी संगठन को एक डिक्टेटरशिप की ज़रूरत होती है और वह भी एक शक्तिशाली डिक्टेटरशिप की, लेनिन ने यह नतीजा निकाला कि अगर अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार को ज़ारशाही पर अपनी पूरी जीत पक्की करनी है तो वह सर्वहारा वर्ग और किसानों की डिक्टेटरशिप के अलावा कुछ नहीं हो सकती।
लेनिन ने लिखा था:
"ज़ारशाही पर क्रान्ति की पूरी जीत का मतलब है - सर्वहारा वर्ग और किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी डिक्टेटरशिप। ...और, इस तरह की जीत एक डिक्टेटरशिप ही होगी, यानी उसे फ़ौजी ताकत पर लाज़िमी तौर से निर्भर होना पड़ेगा, आम जनता को हथियारबन्द करने पर, विद्रोह पर निर्भर करना पड़ेगा और 'कानून' या 'शान्तिपूर्ण' तरीके से कायम की हुई जैसी-तैसी संस्थाओं से काम न चलेगा। यह डिक्टेटरशिप ही होगी; क्योंकि जब सर्वहारा वर्ग और किसानों के लिये तुरंत जरूरी और एकदम आवश्यक तब्दीलियाँ करनी होगी तो ज़मींदार जान पर खेल कर विरोध करेंगे, बड़े पूंजीपति और ज़ारशाही प्राणपण से विरोध करेंगे। डिक्टेटरशिप के बिना, उस विरोध को तोड़ना और क्रान्ति-विरोधी कोशिशों को विफल करना असम्भव है। लेकिन अवश्य ही, वह एक जनवादी डिक्टेटरशिप होगी, न कि सोशलिस्ट डिक्टेटरशिप। (क्रान्तिकारी विकास की बीच की कई मंजिलें पार किये बिना) वह पूंजीवाद की बुनियाद पर असर न डाल सकेंगी। ज्यादा से ज़्यादा, किसानों के पक्ष में वह रियासतों की ज़मीन का आमूल नया बँटवारा कर सकती है। वह सुसंगत और पूर्ण जनतंत्र कायम कर सकती है, जिसमें प्रजातंत्र कायम करना भी शामिल है। वह एशियायी गुलामी के तमाम सताने वाले रूप खत्म कर सकती है, न सिर्फ गाँवों में बल्कि कारखानों की जिन्दगी में भी। वह मजदूरों की हालत में पूरी उन्नति के लिये नींव डाल सकती है और उनकी जिन्दगी के स्तर को ऊँचा करने के लिये नींव डाल सकती है। और अंत में - और इस अंतिम कार्य का महत्व कम नहीं है - यूरोप में क्रान्ति की लपटें पहुँचा सकती है। इस तरह की जीत अभी किसी तरह हमारी पूंजीवादी क्रान्ति को समाजवादी क्रान्ति का रूप न दे देगी। जनवादी क्रान्ति पूंजीवादी सामाजिक और अर्थिक सम्बन्धों की हदें सीधे न लाँघ जायेगी। फिर भी, इस तरह की जीत का जो महत्व रूस के भावी विकास के लिये और तमाम दुनिया के भावी विकास के लिये होगा, वह बहुत ज्यादा है। कोई भी चीज़ दुनिया के सर्वहारा की क्रान्तिकारी शक्ति को इस तरह न उभारेगी, कोई भी चीज़ इस हद तक उसकी पूरी जीत की मंबिजल तक उसका रास्ता कम न करेगी जैसा कि इस क्रान्ति की पूरी जीत, जो अब रूस में शुरु हुई है।" (उप, पृ 373)।
अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार की तरफ सोशल-डेमोक्रैटों का रुख क्या हो और उसमें वे हिस्सा ले सकेंगे या नहीं, इन सवालों पर लेनिन ने तीसरी पार्टी कांग्रेस के प्रस्ताव का पूरी तरह समर्थन किया, जिसमें कहा गया था:
"हमारी पार्टी के प्रतिनिधि अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार में हिस्सा ले सकते हैं। शर्त यह होगी कि शक्तियों का आपसी सम्बन्ध अनुकूल हो और वे दूसरी बातें अनुकूल हों जबो पहले से ठीक-ठीक निश्चित नहीं की जा सकती। पार्टी के प्रतिनिधि इस सरकार में इसलिये हिस्सा लेंगे कि वे तमाम क्रान्ति-विरोधी कोशिशों के खिलाफ़ डटकर लड़ सकें और मजदूर वर्ग के स्वतबंत्र हितों की रक्षा कर सकें। इस तरह का हिस्सा लेने के लिये एक लाज़िमी शर्त यह है कि पार्टी अपने प्रतिनिधियों पर कठोरता से नियंत्रण रखे। सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी पूरी समाजवादी क्रान्ति के लिये कोशिश कर रही है और इसलिये, सभी पूंजीवादी पार्टियों के प्रति, वह बिना किसी मेल-मुलाहिज़े के, शत्रु-भाव रखती है। उस लाज़िमी शर्त में सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी की आजादी को पूरी-पूरी बतरह बनाये रखना जरूरी होगा। अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार में सोशल-डेमोक्रैटों का हिस्सा लेना मुमकिन हो चाहे न हो, हमें आम सर्वहारा में इस बात का प्रचार करना चाहिये कि क्रान्ति की जीत की रक्षा करने के लिये, उसे सुदृढ़ करने और उसका विस्तार करने के लिये सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी के नेतृत्व में हथियारबन्द सर्वहारा को अस्थायी सरकार पर टिकाऊ दबाव डालना जरूरी होगा।" (उप, पृष्ठ 348-49)।
मेन्शेविकों को आपत्ति थी कि अस्थायी सरकार पूंजीवादी सरकार ही होगी। सोशल-डेमोक्रैट ऐसी सरकार में हिस्सा न लेंगे वर्ना वह वही गलती करेंगे जो फ्रांस के सोशलिस्ट मिलेराॅ ने फ्रांस की पूंजीवादी सरकार में शामिल होकर की थी। लेनिन ने इस आपत्ति का जवाब यह कह कर दिया कि मेन्शेविक यहाँ दो भिन्न चीजों को उलझा रहे हैं और यह दिखला रहे हैं कि मार्क्सवादियों की तरह वे इस सवाल पर विचार करने में असमर्थ हैं। फ्रांस में सवाल था कि क्या समाजवादी ऐसे समय में जबकि देश में कोई क्रान्तिकारी परिस्थिति न थी, एक प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी सरकार में हिस्सा लें। ऐसी हालत में, समाजवादियों के लिये यह लाज़िमी था कि ऐसी सरकार में वे हिस्सा न लें। दूसरी तरफ, रूस में यह सवाल था कि क्या सोशलिस्ट ऐसे समय जबकि क्रान्ति पूरी उठान पर हो, एक क्रान्तिकारी पूंजीवादी सरकार में हिस्सा लें जो क्रान्ति की जीत के लिये लड़ रही हो। ऐसे हालत में, सोशल-डेमोक्रैटों के लिये ऐसी सरकार में हिस्सा लेना उचित ही न होगा बल्कि अनुकूल हालत में लाज़िमी भी होगा, जिससे कि वे क्रान्ति-विरोध के खिलाफ़ न सिर्फ़ 'नीचे से', न सिर्फ़ बाहर से, बल्कि 'ऊपर से' भी, हुकूमत के अन्दर से भी प्रहार कर सकें।
पूंजीवादी क्रान्ति की जीत और जनवादी प्रजातंत्र हासिल करने का समर्थन करते हुए, लेनिन की यह जरा भी इच्छा न थी कि जनवादी मंजिल पर ही रुक जायें और पूंजीवादी-जनवादी काम पूरे करने तक क्रान्तिकारी आन्दोलन का दायरा सीमित कर दिया जाये। इसके विपरीत, लेनिन का कहना था कि जनवादी काम पूरे होने पर सर्वहारा वर्ग और दूसरे शोषित बअवाम को संघर्ष शुरु करना होगा। इस बार, यह संघर्ष समाजवादी क्रान्ति के लिये होगा। लेनिन यह जानते थे और इसे सोशल-डेमोक्रैटों का कर्तव्य समझते थे कि वे इस बात के लिये भरसक कोशिश करें कि पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश करे। लेनिन का कहना था कि सर्वहारा वर्ग और किसानों की डिक्टेटरशिप इसलिये जरूरी न थी कि ज़ारशाही पर क्रान्ति की विजय पूरी होते ही उसे खत्म कर दिया जाये बल्कि इसलिये कि जहाँ तक हो सके क्रान्ति की हालत को बढ़ाया जाये, क्रान्ति-विरोध के आखिरी अवशेष खत्म कर दिये जायें, क्रान्ति की लपटें यूरोप में फैलायी जायें और इसी बीच सर्वहारा वर्ग को यह मौका देकर कि वह राजनीतिक रूप से अपने को शिक्षित करे और एक बड़ी फ़ौज में अपने को संगठित करे, समाजवादी क्रान्ति की तरफ़ सीधे बढ़ चलने का काम शुरु किया जाये।
पूंजीवादी क्रान्ति का दायरा क्या हो और मार्क्सवादी पार्टी उसे क्या रूप दे, इन सवालों पर रोशनी डालते हुए लेनिन ने लिखा था,
"सर्वहारा वर्ग को चाहिये कि आम किसानों का सहयोग हासिल करके जनवादी क्रान्ति को पूरा करें, जिससे वह निरंकुश सत्ता के विरोध को बलपूर्वक कुचल दे और पूंजीपतियों की अस्थिरता नाकाम कर दे। सर्वहारा वर्ग को चाहिये कि जनता के आम अर्द्ध-सर्वहारा लोगों का सहयोग हासिल करके समाजवादी क्रान्ति पूरी करे, जिससे कि वह पूंजीपतियों के विरोध को बलपूर्वक कुचल दे और किसानों और मध्यवित्त लोगों की अस्थिरता नाकाम कर दें। सर्वहारा वर्ग के ये काम हैं, जिन्हें नये इस्क्रावादी (यानी मेन्शेविक – सम्पादक) अपनी दलीलों में और क्रान्ति के दायरे के बारे में अपने प्रस्तावों में इतनी संकीर्णता से पेश करते हैं।" (उप, पृष्ठ 40ब6)।
और आगे:
"पूरी आज़ादी के लिये, सुसंगत जनवादी क्रान्ति के लिये, प्रजातंत्र के लिये - तमाम जनता के सिरे पर और खास तौर से किसानों के सिरे पर! समाजवाद के लिये - तमाम मेहनतकशों और शोषितों रके सिरे पर! - क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की नीति अमल में ऐसी होनी चाहिये। यह है वर्ग-नारा जो कार्यनीति की हर समस्या का हल निश्चित करे और उस हल में मौजूद हो, जो क्रान्ति के दौर में मजदूरों की पार्टी के हर अमली कदम पर असर डाले और उसे निश्चित करे।" (उप, पृष्ठ 415)।
कोई भी बात अस्पष्ट न रह जाये, इसलिये दो कार्यनीतियाँ छपने के दो महीने बाद लेनिन ने एक लेख लिखा -"किसान आन्दोलन की तरफ सोशल-डेमोक्रैटों का रुख।" इसमें उन्होंने समझाया:
"जनवादी क्रान्ति से हम तुरंत समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश करना शुरू कर देंगे। यह काम हमारी शक्ति के अनुसार, वर्ग-चेतन आरैर संगठित सर्वहारा की शक्ति के अनुसार होगा। हम अविराम क्रान्ति के समर्थक हैं। हम बीच में न रुकेंगे।" (उप, पृष्ठ 442)।
पूंजीवादी क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति के सम्बन्ध के सवाल पर यह एक नई लाइन थी, सर्वहारा वर्ग के चारों तरफ शक्तियों को फिर से संगठित करने का एक नया सिद्धान्त था, जिससे कि पूंजीवादी क्रान्ति के खत्म होते-होते समाजवादी क्रान्ति की तरफ सीधे बढ़ा जाये। यह पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति के समाजवादी क्ररान्ति की मंजिल में प्रवेश करने का सिद्धान्त था।
यह नयी लाइन निकालने में, लेनिन ने सबसे पहले मार्क्स के अविराम क्रान्ति सम्बन्धी प्रसिद्ध सूत्र को अपना आधरार बनाया। 1850 के कुछ पहले कम्युनिस्ट लीग के सामने भाषण देते हुए, मार्क्स ने यह सूत्र पेश किया था। दूसरे, मार्क्स ने 1856 में एंगेल्स को एक खत में किसानों के क्रान्तिकारी आन्दोलन को सर्वहारा क्रान्ति से मिलाने की आवश्यकता पर अपनी प्रसिद्ध स्थापनार लिखी थी। लेनिन ने उसे अपना आधार बनाया। मार्क्स ने लिखा था: "जर्मनी में सारी बात इस पर निर्भर होगी कि हम किसान युद्ध के किसी दूसरे संस्करण से सर्वहारा क्रान्ति की मदद कर सकते हैं या नहीं।" फिर भी, मार्क्स के ये श्रेष्ठ विचार मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं में आगे चल कर विकसित न किये गये थे और दूसरी इन्टर-नेशनल के सिद्धान्तकारों ने उन्हें भरसक दफ़ना देने और हमेशा के लिये भुला देने की कोशिश की। लेनिन पर यह जिम्मेदारी पड़ी की वह मार्क्स के इन भुलाये हुएर विचारों को फिर से रोशनी में लायें और उन्हें वाजिबी जगह दिलायें। लेकिन, मार्क्स के इन विचारों को बहाल करने में, लेनिन उन्हें सिर्फ़ दुहराने तक अपने को सीमित न कर सकते थे, न उन्होंने किया। उन्होंने उन्हें आगे विकसित किया और समाजवादी क्रान्ति के एक सांगोपांग सिद्धांत में उन्हें ढाला। इसके लिये उन्होंने एक नया तत्व जोड़ा, जो समाजवादी क्रान्ति का लाज़िमी तत्व था। यह तत्व शहर और देहात के अर्द्ध-सर्वहारा लोगों के साथ सर्वहारा वर्ग का सहयोग था, और यह सहयोग सर्वहारा क्रान्ति की जीत की शर्त थी।
इस लाइन ने पच्छिमी यूरोप की सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियों की कार्यनीति की जड़ काट दी। ये पार्टियाँ मान बैठी थीं कि पूंजीवादी क्रान्ति के बाद किसान अवाम, गरीब किसानों समेत, जरूररब ही क्रान्ति से भाग खड़े होंगे। इसका नतीजा यह होगा कि पूंजीवादी क्रान्ति के बाद एक लम्बा अवकाश का समय आयेगा, एक लम्बी 'चुप्पी' का समय जो ज्यादा नहीं तो 50 या 100 साल तक चलेगा। इस बीच सर्वहारा वर्ग का 'शान्ति के साथ' शोषण होगा और पूंजीपति 'कानूनी तौर से' धनी बनते जायेंगे जब तक कि एक नयी क्रान्ति, समाजवादी क्रान्ति, का समय न आये।
यह एक नया सिद्धान्त था, जिसका दावा था कि समूचे पूंजीवादी वर्ग के खिलाफ़ सर्वहारा वर्ग अकेले रह कर समाजवादी क्रान्ति न करेगा। सर्वहारा वर्ग प्रमुख वर्ग के रूप में, जिसके सहयोगी जनता के अर्द्ध-सर्वहारा लोग, "करोड़ों शोषित और मेहनतकश" होंगे, समाजवादी क्रान्ति पूरी करेगा।
इस सिद्धान्त के अनुसार, पूंजीवादी क्रान्ति में कायम होने वाला सर्वहारा वर्ग का एकछत्र नेतृत्व, - जब सर्वहारा वर्ग और किसानों का परस्पर सहयोग होगा, - समाजवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग का एकछत्र नेतृत्व बन जायेगा, जबकि सर्वहारा वर्ग का सहयोग दूसरे मेहनतरकश और शोषित अवाम के साथ होगा। साथ ही, सर्वहारा और किसानों की जनवादी डिक्टेटरशिप सर्वहारा वर्ग की समाजवादी डिक्टेटरशिप के लिये ज़मीन तैयार करेगी।
पच्छिमी यूरोप के सोशल-डेमोक्रैट शहर और देहात के अर्द्ध-सर्वहारा आवाम की छिपी हुई क्रान्तिकारी शक्ति अस्वीकार करते थे। वे यह मान बैठे थे कि "पूंजीपतियों और सर्वहारा से अलग, हमें अपने देश में ऐसी सामाजिक ताकतें नहीं दिखाई पड़ती जिनसे विरोधी रया क्रान्तिकारी दल मदद ले सकें", 1⁄4ये प्लेखानोव के शब्द थे, जो पच्छिमी यूरोप के सोशल-डेमोक्रैटों के मनोभाव प्रकट करते थे1⁄2। लेनिन के सिद्धान्त ने पच्छिमी यूरोप के सोशल-डेमोक्रैटों में प्रचलित इन विचारों का खण्डन किया।
पच्छिमी यूरोप के सोशल-डेमोक्रैटों का कहना था कि समाजवादी क्रान्ति में तमाम पूंजीपतियों के खिलाफ़ सर्वहारा वर्ग अकेला होगा। उसके कोई सहयोगी न होंगे और वह सभी गैर सर्वहारा वर्गों और स्तरों के खिलाफ़ होगा। वह इस बात पर ध्यान न देते थे कि पूंजी सर्वहारा का ही शोषण नहीं करती बल्कि शहर और देहात के करोड़ों अर्द्ध-सर्वहारा का भी शोषण करती है। पूंजीवाद इनको कुचलता है कि और वे पूंजीवादी गुलामी से समाज को मुक्त करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग के सहयोगी हो सकते हैं। इसलिये, पच्छिमी यूरोप के सोशल-डेमोक्रैटों का कहना था कि यूरोप में समाजवादी क्रान्ति के लिये हालत अभी तैयार नहीं है। हालत तभी तैयार समझी जायेगी जबकि सर्वहारा वर्ग समाज के और भी आर्थिक विकास के फलस्वरूप राष्टं का बहुसंख्यक हिस्सा, समाज का बहुसंख्यक हिस्सा, बन जाये।
समाजवादी क्रान्ति के बारे में लेनिन के सिद्धान्त ने पच्छिमी यूरोप के सोशल-डेमोक्रैटों के इस सर्वहारा-विरोधी झूठे मत को एकदम उलट दिया।
लेनिन के सिद्धान्त में अभी इस बारे में कोई प्रत्यक्ष परिणाम न निकाला गया था कि अकेले किसी एक देश में समाजवाद की जीत हो सकती है। लेकिन, उसमें सभी या लगभग सभी आवश्यक बुनियादी तत्व मौजूद थे, जिनसे आगे-पीछे यह नतीजा निकाला जा सकता था।
जैसा कि हमें मालूम है, दस साल बाद 1915 में, लेनिन ने यह परिणाम निकाला।
अपनी ऐतिहासिक कृति जनवादी क्रान्ति में सोशल-डेमोक्रैसी की दो कार्यनीतियां में लेनिन ने कार्यनीति के जिन बुनियादी उसूलों का प्रतिपादन किया, वे इस प्रकार हैं:
इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व सबसे ज्यादा इस बात में है कि लेनिन ने सैद्धान्तिक रूप से मेन्शेविकों की निम्नपूंजीवादी कार्यनीति की लाइन को चूर कर दिया। उन्होंने पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति की अगली प्रगति के लिये रूस के मजदूर वर्ग को सैद्धान्तिक रूप से सशस्त्र कर दिया, ज़ारशाही पर नये हमले के लिये उसे लैस कर दिया। उन्होंने रूसी सोशल-डेमोक्रैटों को एक साफ़ रास्ता दिखाया कि पूंजीवादी क्रान्ति का समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश करना जरूरी है।
लेकिन, इससे लेनिन की पुस्तक का महत्व खत्म नहीं होता। उसका अमूल्य महत्व इस बात में है कि उसने मार्क्सवाद को क्रान्ति के एक नये सिद्धान्त से समृद्ध किया। उसने बोल्शेविक पार्टी की क्रान्तिकारी कार्यनीति की नींव डाली, जिसकी मदद से 1917 में हमारे देश के सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवाद पर विजय प्राप्त की।
4. क्रान्ति की उठान में प्रगति। अक्तूबर 1905 की अखिल रूसी राजनीतिक हड़ताल। ज़ारशाही का पीछे हटना। ज़ार का घोषणापत्र। मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतों का जन्म।
1905 की शरद तक, क्रान्तिकारी आन्दोलन सारे देश में फैल गया था और अब उसका वेग बहुत ही प्रखर हो गया था।
19 सितम्बर को, मास्को में प्रेस-कर्मचारियों की एक हड़ताल हुई। वह पीतरबुर्ग और दूसरे कई शहरों में फैल गयी। खुद मास्कों में दूसरे उद्योग-धंधों के मजदूरों ने प्रेस-कर्मचारियों की हड़ताल का समर्थन किया और वह बढ़ कर एक आम राजनीतिक हड़ताल बन गयी।
अक्तूबर के आरम्भ में, मास्को-क़जान रेलवे में हड़ताल शुरू हुई। दो दिनों में ही, मास्को रेलवे जंकशन के सभी रेल-कर्मचारी उसमें शामिल हो गये और बहुत जल्द ही सारे देश की रेलें हड़ताल की गिरफ़्त में आ गयीं। डाक और तार का काम ठप हो गया। रूस के विभिन्न शहरों में मजदूर बड़ी-बड़ी सभाओं में इकट्ठे हुए और उन्होंने काम बन्द करने का फैसला किया। एक कारखाने से दूसरे कारखाने तक, एक मिल से दूसरी मिल तक, एक शहर से दूसरे शहर तक और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक हड़ताल फैलती गयी। छोटे कर्मचारी, विद्यार्थी और बुद्धिजीवी - वकील, इंजीनियर और डाक्टर मजदूरों के साथ शामिल हो गये।
अक्तूबर की राजनीतिक हड़ताल अखिल रूसी हड़ताल बन गयी। लगभग पूरा देश उसकी लपेट में आ गया । दूर-दूर के जिले और करीब-करीब सभी मजदूर, जिनमें सबसे पिछड़े हुए मजदूर भी थे, हड़ताल में शामिल हुए। अकेले दस लाख औद्योगिक मजदूरों ने आम हड़ताल में हिस्सा लिया। इनमें रेल-कर्मचारियों, डाक और तार-कर्मचारियों वगैरह की गिनती नहीं है। सारे देश का जीवन ठप हो गया। सरकार पंगु बन गयी।
निरंकुश सत्ता के खिलाफ़, आम जनता के संघर्ष के सिरे पर मजदूर वर्ग था।
बोल्शेविकों ने जो आम राजनीतिक हड़ताल का नारा दिया था, वह सफल हुआ।अक्तूबर की आम हड़ताल ने सर्वहारा आन्दोलन की ताकत और उसके कस-बल का पता दिया। उसने बेहद डरे हुए ज़ार को मजबूर किया कि वह 17 अक्तूबर, 1905 को अपना घोषणापत्र निकाले। इस घोषणापत्र में वादा किया गया था कि जनता को "नागरिक स्वाधीनता के दृढ़ आधार मिलेंगे: व्यक्ति की वास्तविक स्वाधीनता, और विचार, भाषण, सभा और संगठन की स्वाधीनता।" उसमें वादा किया गया था कि वैधानिक दूमा बुलायी जायेगी और जनता के सभी वर्गों को वोट देने का हक मिलेगा।
इस तरह से बुलिगिन-दूमा, जिसे सिर्फ़ विचार करने का अधिकार था, क्रान्ति के ज्वार में बह गयी। बुलिगिन-दूमा का बायकाट करने की बोल्शेविक कार्यनीति सही साबित हुई।
फिर भी, 17 अक्तूबर का घोषणापत्र जनता के साथ एक फरेब था। ज़ार का यह एक पैंतरा था, जिससे उसे कुछ मोहलत मिल जाये। वह चाहता था कि इस मोहलत में वह सीधे-सादे लोगों को चुप कर दे और अपनी ताकत बटोरने के लिये उसे वक्त मिले और उसके बाद, वह क्रान्ति पर हमला करे। ज़ार सरकार ने शब्दों में स्वाधीनता देने का वादा किया, लेकिन अमल में उसने कोई ठोस चीज न दी। अभी तक मजदूरों और किसानों को वादे ही वादे मिले थे। आम राजनीतिक रिहाई के बदले, जिसका वादा किया गया था, 21 अक्तूबर को राजनीतिक बन्दियों में से सिर्फ थोड़े लोग छोड़े गये। इसके साथ ही, जनता की ताकतों में फूट डालने के विचार से हुकूमत ने यहूदियों के कई खूनी कत्लेआम कराये। इनमें कई हज़ार आदमी मारे गये। क्रान्ति को कुचलने के लिये, उसने पुलिस की देख-रेख में कई गुण्डा-संगठन बनवाये जिनका नाम रूसी जन संघ और देवदूत-मइकेल संघ था। इन संगठनों में प्रतिक्रियावादी जमींदार, सौदागर, पुरोहित और आवारा क़िस्म के अर्द्ध-जरायम पेशा लोग मुख्य भाग लेते थे। लोगों ने इनका नाम 'यमराज सभा' ('ब्लैक हंड्रेड') रखा था। पुलिस की मदद से, ये 'यमराज सभायें' आगे बढ़े हुए मजदूरों को खुले आम पीटतीं और उनकी हत्या करतीं। उनका यही सलूक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों और विद्यार्थियों के साथ होता था। वे सभा-स्थानों को जला देती और नागरिकों की सभाओं पर गोलियाँ चलाती थीं। ज़ार के घोषणापत्र के अभी तक यही नतीजे निकले थे।
उस समय एक लोकप्रिय गीत रचा गया था:
"बदहवास होकर यों बोल उठा ज़ार: मुर्दों को आजादी और जिन्दा गिरफ्तार!"
बोल्शेविकों ने जनता को समझाया कि 17 अक्तूबर का घोषणापत्र एक जाल था। उन्होंने हुकूमत के व्यवहार को, जो उसने घोषणापत्र निकालने के बाद किया था, उकसावा पैदा करने वाला बतलाया। बोल्शेविकों ने मज़दूरों को आह्वान किया - हथियार उठाओ, सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करो!
मज़दूर पहले से भी ज्यादा मुस्तैदी से लड़ाकू जत्थे बनाने लगे। वह अच्छी तरह से समझ गये कि 17 अक्तूबर को, आम राजनीतिक हड़ताल करके उन्होंने जो आज़ादी हासिल की थी, उसके लिये और कोशिश करना जरूरी है। ज़ारशाही का खात्मा करने के लिये संघर्ष जारी रखना ज़रूरी है।
लेनिन का विचार था कि 17 अक्तूबर का घोषणापत्र एक हद तक शक्तियों का अस्थायी संतुलन ज़ाहिर करता है। सर्वहारा वर्ग और किसानों ने ज़ार को घोषणापत्र निकालने पर मजबूर किया था, लेकिन वे अभी इतने मज़बूत न थे कि ज़ारशाही का तख्ता उलट दें। उधर, ज़ारशाही अब पुराने तरीकों से ही और ज्यादा दिन हुकूमत न कर सकती थी। उसे मजबूर होकर 'नागरिक स्वाधीनता' और 'कानून बनाने वाली' दूमा का काग़जी वादा करना पड़ा था।
अक्तूबर की राजनीतिक हड़ताल के तूफ़ानी दिनों में, ज़ारशाही के खिलाफ़ संघर्ष की आग में मजदूर जनता की क्रान्तिकारी रचनात्मक पहलकदमी ने एक नया और शक्तिशाली हथिायार गढ़ा। यह हथियार था - मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतें।
मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतें सभी मिलों और कारखानों के प्रतिनिधियों की सभायें थीं। यह मजदूर वर्ग का ऐसा आम राजनीतिक संगठन था जैसा कि दुनिया में पहले कभी न देखा गया था। 1905 में, ये सोवियतें सबसे पहले बनीं। इनका रूप उस सोवियत सत्ता से काफ़ी मिलता-जुलता था जिसे बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग ने 1917 में कायम किया। ये सोवियतें जनता की रचनात्मक पहलकदमी का एक नया क्रान्तिकारी रूप थीं। उन्हें जनता के सिर्फ़ क्रान्तिकारी हिस्सों ने का़यम किया था। उन्होंने ज़ारशाही के तमाम कानून कायदों को ठुकरा कर उन्हें कायम किया था। ज़ारशाही के खिलाफ़ जो जनता लड़ने के लिये उठ रही थी, उसकी स्वतंत्र कार्यवाही का वे सबूत थीं।
बोल्शेविक सोवियतों को क्रान्तिकारी सत्ता का बीज रूप समझते थे। उनका कहना था कि सोवियतों की ताक़त और उनका महत्व विद्रोह की शक्ति और सफलता पर ही निर्भर करेगा।
मेन्शेविक सोवियतों को न तो क्रान्तिकारी सत्ता की संस्थाओं का बीज रूप मानते थे, न उन्हें विद्रोह की संस्थायें मानते थे। वे सोवियतों को स्थानीय खुद-मुख्तार हुकूमत की संस्था मानते थे, जो म्युनिसिपल शासन की जनवादी संस्थाओं जैसी थीं।
पीतरबुर्ग की सभी मिलों और कारखानों में 13 (नई शैली, 26) अक्तूबर, 1905 को मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियत के चुनाव हुए। सोवियत का पहला अधिवेशन उसी दिन रात को हुआ। मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियत बनाने में मास्को ने पीतरबुर्ग का अनुसरण किया।
पीतरबुर्ग रूस का सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक और क्रान्तिकारी केन्द्र था। वह ज़ारशाही रूस की राजधानी था। इसलिये, वहाँ पर मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियत को 1905 की क्रान्ति में एक निर्णायक भूमिका अदा करनी चाहिये थी। लेकिन बुरे मेन्शेविक नेतृत्व की वजह से, उसने यह काम पूरा नहीं किया। जैसा कि हमें मालूम है, लेनिन उस समय तक पीतरबुर्ग में न आये थे। वे अभी विदेश में थे। मेन्शेविकों ने लेनिन की गै़रहाज़िरी का फ़ायदा उठाया और वे पीतरबुर्ग-सोवियत में घुस आये और उसके नेतृत्व पर उन्होंने कब्जा कर लिया। ऐसी हालत में, कोई ताज्जुब नहीं जो मेन्शेविक खुस्तालेव, त्रात्सकी, पारवुस और दूसरों ने पीतरबुर्ग-सोवियत को विद्रोह की नीति के खिलाफ़ मोड़ दिया। बजाये इसके कि वे सिपाहियों को सोवियत के नज़दीकी सम्पर्क में लायें और सामान्य लड़ाई से उनका सम्बन्ध जोड़ें, उन्होंने माँग की कि सिपाही पीतरबुर्ग से हटाये जायें। मज़दूरों को हथियारबन्द करने और विद्रोह के लिये तैयार करने के बदले, सोवियत सिर्फ़ टाल-मटोल करती रही। वह विद्रोह की तैयारी के खिलाफ़ थी।
मज़दूर प्रतिनिधियों की मास्को-सोवियत ने जो पार्ट अदा किया, वह इससे बिल्कुल भिन्न था। शुरु से ही, मास्को-सोवियत ने भरपूर क्रान्तिकारी नीति का पालन किया। मास्को-सोवियत का नेतृत्व बोल्शेविकों के हाथ में था। उन्हीं की वजह से, मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियत के साथ-साथ मास्को में सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियत का भी जन्म हुआ। मास्को-सोवयित सशस्त्र विद्रोह की संस्था बन गयी।
अक्तूबर से दिसम्बर 1905 तक के दिनों में, कई बड़े शहरों में और करीब-करीब सभी मजदूर केन्द्रों में मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतें कायम की गयीं। कोशिश की गयी कि सैनिकों और मल्लाहों की सोवियतें भी संगठित की जायें और मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतों से उनका एका कायम किया जाये। कई जगह मजदूरों और किसानों के प्रतिनिधियों की सोवियतें बनायी गयीं।
सोवियतों का बेहद असर पड़ा। अक्सर वे अपने-आप उठ खड़ी होती थीं, उनका ढाँचा निश्चित नहीं था और संगठन ढीला होता था, फिर भी उन्होंने शासन सत्ता की तरह काम किया। बिना कानूनी अधिकार के, उन्होंने प्रेस की स्वाधीनता और 8 घण्टों का दिन चालू कर दिया। उन्होंने जनता को आहवान किया कि ज़ार सरकार को टैक्स न दें। कई जगह उन्होंने सरकारी धन ज़ब्त कर लिया और क्रान्ति की आवश्यकताओं के लिये उसे इस्तेमाल किया।
5. दिसम्बर का सशस्त्र विद्रोह। विद्रोह की पराजय। क्रान्ति का पीछे हटना। पहली राज्य दूमा। चैथी (एकता) पार्टी काँग्रेस।
अक्तूबर और नवम्बर 1905 में, आम जनता का क्रान्तिकारी संघर्ष खूब ज़ोर-शोर से बढ़ता गया। मजदूरों की हड़तालें ज़ारी रहीं।
जमींदारों के खिलाफ़ किसानों के संघर्ष ने 1905 की शरद में विशाल रूप धारण किया। देश के एक-तिहाई से ऊपर जिले किसान आन्दोलन की लपेट में आ गये। सारातोव, ताम्बोव, चार्निगोव, तिफ़लिस, कुताइस और दूसरे कई सूबे सचमुच किसान विद्रोह के रंगस्थल बन गये। फिर भी, किसान जनता का हमला नाकाफी था। किसान आन्दोलन में संगठन और नेतृत्व की कमी थी।
कई शहरों के सैनिकों में - तिफ़लिस, ब्लादिवस्तोक, ताशकंद, समरकंद, कुस्र्क, सुखुन, वारसा, कियेव और रीगा में - बेचैनी बढ़ी। क्रोन्स्तात और सेवास्तोपोल में काले समुद्री बेड़े के मल्लाओं में विद्रोह फूट पड़े (नवम्बर 1905)। लेकिन, ये विद्रोह अलग-थलग थे और ज़ार सरकार उन्हें दबाने में सफल हुई।
फ़ौज और जलसेना के दस्तों मेें अक्सर विद्रोह इस वजह से हो जाते थे कि अफ़सरों का व्यवहार जंगली होता था, खाना बहुत ही खराब मिलता था ("साग-सब्जी के विद्रोह") और ऐसी ही दूसरी बातें होती थीं। जो मल्लाह और सैनिक विद्रोह करते थे, वे अभी साफ़-साफ़ यह महसूस न करते थे कि ज़ार सरकार का तख्ता उलटना ज़रूरी है, कि हथियारबन्द लड़ाई को जोरदार तरीके से आगे चलाना है। वे अब भी बहुत ही शान्तिपूर्ण और आत्मसंतुष्ट थे। विद्रोह के शुरु में जिन अफ़सरों को वे पकड़ लेते थे, वे उन्हें छोड़ देने की गलती अक्सर करते थे। ऊपर वालों के वादों की मीठी बोली से वे अपना दिल पिघल जाने देते थे।
क्रान्तिकारी आन्दोलन हथियारबन्द बग़ावत की सीमा तक आ पहुंचा था। बोल्शेविकों ने आम जनता का आहवान किया - ज़ार और जमींदारों के खिलाफ़ हथियार लेकर उठ खड़े हो! उन्होंने समझाया कि यह सब होकर रहेगा। बोल्शेविकों ने साशस्त्र विद्रोह की तैयारी के लिये अथक रूप से काम किया। सैनिकों और मल्लाहों में क्रान्तिकारी काम किया और फ़ौज में पार्टी के सैनिक संगठन कायम किये गये। कई शहरों में मजदूरों के लड़ाकू जत्थे बनाये गये और उनके सदस्यों को हथियारों का इस्तेमाल करना सिखाया गया। विदेश में हथियार खरीदने और गुप्त रूप से उन्हें रूस भेजने का प्रबंध किया गया। उन्हें लाने का इन्तजाम करने में पार्टी के प्रमुख सदस्यों ने हिस्सा लिया।
नवम्बर 1905 में, लेनिन रूस लौट आये। ज़ार की सशस्त्र पुलिस और जासूसों से बचते हुए, लेनिन ने सशस्त्र विद्रोह की तैयारी में खुद हिस्सा लिया। बोल्शेविक अख़बार नोवाया जीस्न (नव जीवन) में उनके लेखों ने पार्टी को रोज-बरोज के काम में रास्ता दिखाया।
इन्हीं दिनों, कामरेड स्तालिन ट्रांसकाॅकेशिया में भारी क्रान्तिकारी काम कर रहे थे। उन्होंने मेन्शेविकों को क्रान्ति और सशस्त्र विद्रोह का दुश्मन बतलाते हुए, उनका पर्दाफ़ाश किया और उनकी अच्छी तरह मरम्मत की। निरंकुश सत्ता के खिलाफ़ फैसले की लड़ाई के लिये, उन्होंने मज़दूरों को दृढ़ता से तैयार किया। जिस दिन ज़ार का घोषणापत्र निकला था, उसी दिन तिफ़लिस के मजदूरों की एक सभा में भाषण देते हुए, काॅमरेड स्तालिन ने कहा था:
"दरअसल जीतने के लिये हमें क्या चाहिये? हमें तीन चीजें चाहिये: पहले - हथियार, दूसरे - हथियार, तीसरे - हथियार, और फिर हथियार!"
दिसम्बर 1905 में, फ़िनलैंड के तामरफ़ोर्स नगर में एक बोल्शेविक कान्फ्रेंस हुई। हालाँकि बोल्शेविक और मेन्शेविक नियमानुसार एक ही सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी में थे, लेकिन वास्तव में वे दो अलग पार्टियाँ थे जिनमें से हरेक का अपना नेतृत्व-केन्द्र था। इस कान्फ्रेंस में लेनिन और स्तालिन पहली बार मिले। तब तक उन्होंने आपसी सम्पर्क पत्र-व्यवहार और साथियों के ज़रिये कायम रखा था।
तामरफ़ोर्स कान्फ्रैंस के फैसलों में दो ध्यान देने योग्य हैं। पहला पार्टी की एकता कायम करने के बारे में था; पार्टी वास्तव में टूट कर दो पार्टियाँ बन गयी थी। दूसरा, पहली दूमा के बायकाट के बारे में था, जिसे वित्ते दूमा कहते थे।
उस समय तक मास्को में सशस्त्र विद्रोह शुरु हो चुका था, इसलिये लेनिन की सलाह पर, कान्फ्रेंस ने अपना काम जल्दी समाप्त किया और सभी चल दिये, जिससे कि प्रतिनिधि विद्रोह में व्यक्तिगत रूप से हिस्सा ले सकें।
लेकिन, ज़ार सरकार भी ऊँघ न रही थी। वह भी फैसले की लड़ाई के लिये तैयारी कर रही थी। जापान से सुलह करने के बाद, और इस तरह अपनी कठिनाइयाँ कम करने के बाद, ज़ार सरकार ने मजदूरों और किसानों के खिलाफ़ हमला शुरू किया। उसने कई सूबों में, जहाँ किसान विद्रोह तेजी पर थे, फ़ौजी कानून जारी कर दिया। उसने सिपाहियों को यह क्रूर आज्ञा दी: "गिरफ्तार मत करो" और "कार्तूस खर्च करने में न हिचको।" उसने क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेताओं को पकड़ने और मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतों को भंग कर देने की आज्ञा दी।
इसके जवाब में, मास्को के बोल्शेविकों ने और उनके नेतृत्व में चलने वाली मज़दूर प्रतिनिधियों की मास्को-सोवियत ने, जिसका आम मजदूरों से सम्बन्ध था, फैसला किया कि सशस्त्र विद्रोह के लिये तुरंत तैयारी की जाये। 5 (18) दिसम्बर को, मास्को की बोल्शेविक कमिटी ने फैसला किया कि आम राजनीतिक हड़ताल करने के लिये सोवियत का आहवान करे। उद्देश्य यह था कि संघर्ष के दौरान में उसे विद्रोह का रूप दे दिया जाये। आम मज़दूरों की सभाओं में इस फैसले का समर्थन किया गया। मास्को-सोवियत ने मजदूर वर्ग की इच्छा को स्वीकार किया और एकमत होकर आम राजनीतिक हड़ताल शुरु करने का फै़सला किया।
मास्को के सर्वहारा वर्ग ने जब विद्रोह शुरु किया तब क़रीब एक हज़ार योद्धाओं का उसका लड़ाकू संगठन था, जिनमें से आधे से ज़्यादा बोल्शेविक थे। इसके सिवा, मास्को के कई कारखानों में कई लड़ाकू जत्थे थे। कुल मिलाकर, विद्रोहियों की शक्ति दो हज़ार योद्धाओं की थी। मज़दूरों को उममीद थी कि वे छावनी के सिपाहियों को तटस्थ कर देंगे और उनमें से एक हिस्सा अपनी तरफ़ कर लेंगे।
7 (20) दिसम्बर को, मास्को में राजनीतिक हड़ताल शुरु हुई। फिर भी, उसे सारे देश में फैलाने की कोशिशें नाकाम हुई। पीतरबुर्ग में उसे नाकाफी समर्थन मिला और इससे आरम्भ से ही विद्रोह की सफलता की संभावनायें कम हो गयीं। निकालायेव्स्काया (अब, अक्तूबर) रेलवे ज़ार सरकार के हाथ में रही। इस लाइन पर आमदरफ़्त बन्द न हुई, जिससे हुकूमत विद्रोह को दबाने के लिये पीतरबुर्ग से गार्ड फ़ौजें मास्को ले आयी।
खुद मास्को में छावनी के सिपाही आगा-पीछा करते रहे। मज़दूरों ने जब विद्रोह शुरु किया था तब उन्हें आंशिक रूप से उम्मीद थी कि छावनी से मदद मिलेगी। लेकिन, क्रान्तिकारियों ने बहुत देर कर दी थी और हुकूमत छावनी के असन्तोष की रोक-थाम कर सकी।
9 (22) दिसम्बर को, मास्को की सड़कों पर पहली मोर्चाबन्दी हुई। जल्दी ही शहर की सड़कें बैरीकेडों से भर गयीं। ज़ार सरकार मैदान में तोपें ले आयी। विद्रोहियों की जितनी ताकत थी, उससे कई गुनी ज्यादा ताकत उसने जुटायी। नौ दिनों तक लगातार कई हज़ार हथियारबन्द मजदूर वीरता से लड़ते रहे। पीतरबुर्ग, त्वेर और पच्छिमी प्रदेश से फ़ौजें लाकर ही, ज़ार सरकार विद्रोह दबा सकी। लड़ाई शुरु होने से पहले ही, विद्रोह के कुछ नेता तो पकड़ लिये गये और कुछ अकेले पड़ गये। मास्को की बोल्शेविक कमिटी के सदस्य गिरफ्तार कर लिये गये। हथियारबन्द कार्यवाही ने अलग-अलग जिलों मंे एक-दूसरे से अलग विद्रोहों का रूप धारण कर लिया संचालन-केन्द्र न होने पर और समूचे नगर के लिये सामान्य योजना के अभाव में, जिलों ने अपना काम मुख्यतः रक्षा करने तक सीमित कर लिया। मास्को विद्रोह की कमजोरी का यह मुख्य कारण था, और जैसा कि लेनिन ने बाद में बताया था, उसकी हार का एक कारण था।
मास्को के क्रासनायाप्रेस्न्या ज़िले में विद्रोह ने खास तौर से कट्टर और घनघोर संघर्ष का रूप ले लिया। यह विद्रोह का मुख्य गढ़ और केन्द्र था। यहाँ पर सबसे अच्छे लड़ाकू जत्थे बोल्शेविकों के नेतृत्व में थे। लेकिन, क्रासनायाप्रेस्न्या को संगीनों और गोलियों के बल से ही दबाया जा सका। वह खून में तर कर दिया गया और तोपों के गोलों की आग से जल उठा। मास्को विद्रोह कुचल दिया गया।
विद्रोह मास्को तक ही सीमित न था। कई और शहरों और जिलों में क्रान्तिकारी विद्रोह फूट पड़े। क्रासनोयास्र्क, मोतोविलीखा (पर्म), नोवोरोसिस्क, सोर्मोवो, सेवास्तोपोल और क्रोन्त्स्तात में भी सशस्त्र विद्रोह हुए।
रूस की पीड़ित जातियाँ भी हथियारबन्द लड़ाई करने के लिये उठ खड़ी हुईं। लगभग समूचे जार्जियाँ ने हथियार उठा लिये। उक्रैन में दोन्येत्स प्रदेश के गोर्लोव्का, अलैक्सान्द्रोव्स्क और लुगान्स्क (अब बोरोशिलोवग्राद) नाम के शहरों में भारी विद्रोह हुआ। लैटविया में जमकर लड़ाई हुई। फ़िनलैण्ड में मजदूरों ने अपना रैड गार्ड बनाया और विद्रोह में उठ खड़े हुए।
लेकिन मास्को विद्रोह की तरह, इन सभी विद्रोहों को सत्ता ने निरंकुश पाशविक बर्बरता के साथ कुचल दिया।
दिसम्बर के सशस्त्र विद्रोह का मूल्यांकन मेन्शेविकों और बोल्शेविकों ने अलग-अलग तरीकों से किया।
विद्रोह के बाद, मेन्शविक प्लेखानोव ने पार्टी को यह कह कर फटकारा: "तुम्हें हथियार उठाने ही नहीं चाहिये थे।" मेन्शेविकों की दलील थी कि विद्रोह अनावश्यक और हानिकारक है। क्रान्ति में उसके बिना काम चल सकता है। सफलता हथियारबन्द विद्रोह से नहीं, बल्कि संघर्ष के शान्तिपूर्ण तरीकों से मिलेगी।
बोल्शेविकों ने इस दृष्टिकोण की निन्दा करते हुए कहा कि यह गद्दारी है। उनका कहना था कि मास्को के सशस्त्र विद्रोह के अनुभव ने यही बात पक्की कर दी है कि मजदूर वर्ग सफलतापूर्वक हथियारबन्द लड़ाई लड़ सकता है। प्लेखानोव की फटकार - "तुम्हें हथियार उठाने ही न चाहिये थे" - के जवाब में, लेनिन ने कहा:
"इसके विपरीत, हमें और दृढ़ता से, शक्ति से और हमलावर तरीके से हथियार उठाने चाहिये थे। हमें आम जनता को समझाना चाहिये था कि अपने को शान्तिपूर्ण हड़ताल तक सीमित रखना असम्भव है, और निडर होकर और जमकर हथियारबन्द लड़ाई चलाना अनिवार्य है।" (लेनिन, संक्षिप्त ग्रंथावली, अं. सं., मास्को, 1947, खण्ड 1, पृष्ठ 446)।
दिसम्बर 1905 के विद्रोह में क्रान्ति अपने चरम उत्कर्ष तक पहुँच गयी। निरंकुश ज़ारशाही ने विद्रोह को हरा दिया। उसके बाद, क्रान्ति ने पल्टा खाया और पीछे हटने लगी। क्रान्ति का ज्वार धीरे-धीरे शान्त हो गया।
ज़ार सरकार ने इस हार से तुरंत ही फ़ायदा उठाकर क्रान्ति पर आखिरी हमला करने का विचार किया। ज़ार के जेलर और जल्लाद अपने खूनी काम में लग गये। पोलैंड, लैटविया, एस्टोनिया, ट्रांसकाॅकेशिया और साइबेरिया में दण्ड देने वाले दस्ते धमाचैकड़ी मचाने लगे।
लेकिन, क्रान्ति अभी कुचली न गयी थी। मज़दूर और क्रान्तिकारी किसान लड़ते हुए धीरे-धीरे पीछे हटे। मज़दूरों के नये हिस्से लड़ाई में शामिल हुए। दस लाख से ऊपर मज़दूरों ने 1906 की हड़तालों में हिस्सा लिया और सात लाख चालिस हज़ार ने 1907 की हड़तालों में। किसान आन्दोलन 1906 के पूर्वार्द्ध में ज़ारशाही रूस के लगभग आधे उयेज़्दों में फैल गया और 1906 के उत्तरार्द्ध में 1/5 जिलों में फैल गया। फ़ौज और जल सेना में असंतोष जारी रहा।
ज़ार सरकार ने क्रान्ति की रोकथाम करने में अपने को दमन तक ही सीमित नहीं रखा। दमन में प्रारम्भिक सफलता पाने के बाद नयी दूमा, "कानून बनाने वाली" दूमा, बुला कर उसने क्रान्ति पर नया प्रहार करने का फैसला किया। उसे उम्मीद थी कि इस तरह किसान क्रान्ति से अलग हो जायेंगे और क्रान्ति खत्म हो जायेगी। दिसम्बर 1905 में, ज़ार सरकार ने एक कानून बनाया जिसके अनुसार एक नयी "कानून बनाने वाली" दूमा बुलायी जा सकती थी। यह दूमा पुरानी "विचार करने वाली" बुलिगिन-दूमा से भिन्न थी, जिसे बोल्शेविक बायकाट ने रास्ते से हटा दिया था। ज़ार का चुनाव-कानून जनतंत्र-विरोधी तो था ही। चुनाव सार्वजनिक न थे। आधी आबादी से ज्यादा लोग - मिसाल के लिये स्त्रियाँ और बीस लाख मजदूर - वोट देने का हक़ पा ही न सके थे। चुनावों में समानता का अधिकार न था। मतदाता चार विभागों - या जैसा कि उनका नाम था, क्यूरियों - में बँटे हुए थे: ग्रामीण (जमींदार), शहरी (पूंजीपति), किसान और मज़दूर क्यूरियों। चुनाव सीधे नहीं, बल्कि कई मंज़िलों में होते थे। वास्तव में, गुप्त बैलट था ही नहीं। चुनाव-कानून से दूमा में करोड़ों मजदूरों और किसानों पर मुट्ठी भर जमींदारों और पूंजीपतियों का जबर्दस्त बहुमत पक्का हो जाता था।
ज़ार ने सोचा कि आम जनता को क्रान्ति से हटाने के लिये दूमा का इस्तेमाल किया जाये। उन दिनों बहुत काफ़ी किसानों को विश्वास था कि दूमा के जरिये जमीन मिल सकती है। काॅस्टीटयूशनल डेमोक्रैट मेन्शेविक और समाजवादी क्रान्तिकारी मजदूरों और किसानों को यह कह कर धोखा देते थे कि जनता को जिस व्यवस्था की ज़रूरत है, वह बिना विद्रोह के, बिना क्रान्ति के मिल सकती है। जनता के साथ इस फ़रेब का मुकाबिला करने के लिये, बोल्शेविकों ने पहली राज्य दूमा के बायकाट में कार्यनीति का ऐलान किया और उसका पालन किया। तामरफोर्स कान्फ्रेंस ने जो फैसला किया था, यह उसके अनुकूल था।
ज़ारशाही के खिलाफ़ लड़ाई में, मजदूरों ने पार्टी की शक्तियों की एकता की माँग की, सर्वहारा वर्ग की पार्टी की एकता की माँग की। तामरफोर्स कान्फ्रेंस के एकता सम्बन्धी फैसले से सज्जित होकर, बोल्शेविकों ने मजदूरों की इस मांग का समर्थन किया और मेन्शेविकों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि पार्टी की एकता कांग्रेस बुलाई जाये। मजदूरों के दबाव की वजह से, मेन्शेविकों को एकता के लिये राज़ी होना पड़ा।
लेनिन एकता के पक्ष में थे, लेकिन सिर्फ़ ऐसी एकता के पक्ष में जो क्रान्ति की समस्याओं पर जो मतभेद थे उन पर पर्दा न डाले। समझौतावादियों (बोग्दानोव, क्रासिन वग़ैरह) ने पार्टी का काफ़ी नुकसान किया। वे यह साबित करना चाहते थे कि बोल्शेविकों और मेन्शेविकों में कोई गम्भीर मतभेद नहीं था। लेनिन ने समझौतावादियों से संघर्ष किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि कांग्रेस में बोल्शेविक अपनी अलग नीति लेकर आयें, जिससे कि मजदूर साफ़-साफ़ देख सकें कि बोल्शेविक क्या कहते हैं और किस आधार पर एकता कायम की जा रही है। बोल्शेविकों ने कांग्रेस के लिये अपनी नीति तय की और पार्टी सदस्यों के सामने उसे बहस के लिये रखा।
रू. सो. डे. ले. पा. की चैथी कांग्रेस, जिसका नाम एकता कांग्रेस था, अप्रैल, 1906 में स्टाॅकहोम (स्वेडन) में हुई। इसमें पार्टी के 57 स्थानीय संगठनों की तरफ़ से 111 प्रतिनिधि आये, जिन्हें वोट देने का हक़ था। इनके अलावा, जातीय सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टियों के प्रतिनिधि थे: 3 बुन्द से, 3 पोलैंड की सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी से और 3 लैटविया के सोशल-डेमोक्रैटिक संगठन से।
दिसम्बर विद्रोह के दौर में और उसके बाद, बोल्शेविक संगठनों के कुचले जाने की वजह से ये सभी संगठन प्रतिनिधि न भेज सके। इसके अलावा, 1905 के "आजादी के दिनों" में मेन्शेविकों ने अपनी पाँति में निम्न पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की बड़ी तादाद भरती कल ली थी। क्रान्तिकारी मार्क्सवाद से इन लोगों का कोई भी सम्बन्ध न था। इतना कहना काफ़ी होगा कि तिफ़लिस के मेन्शेविकों ने (और तिफ़लिस में बहुत कम औद्योगिक मज़दूर थे) कांग्रेस में उतने ही प्रतिनिधि भेजे थे जितने कि सबसे बड़े सर्वहारा संगठन, पीतरबुर्ग संगठन, ने भेजे थे। नतीजा यह हुआ कि स्टाकहोम कान्फ्रेंस में मेन्शेविकों का बहुमत रहा, हालाँकि यह सही है कि वह नगण्य था।
कांग्रेस की इस बनावट ने कई सवालों पर लिये जाने वाले फै़सलों का मेन्शेविक रूप निश्चित कर दिया।
इस कांग्रेस में केवल ऊपरी एकता कायम हुई। वास्तव में, बोल्शेविकों और मेन्शेविकों ने अपने मत और अपने स्वतंत्र संगठन कायम रखे।
चैथी कांग्रेस में जिन मुख्य सवालों पर बहस हुई, वे खेती का सवाल, मौजूदा हालत और सर्वहारा के वर्गगत काम, राज्य दूमा की तरफ़ नीति और संगठन के सवाल थे।
कांग्रेस में यद्यपि मेन्शेविकों का बहुमत था, फिर भी पार्टी नियमावली के पहले पैराग्राफ़ पर जो मसौदा लेनिन ने रखा उससे उन्हें सहमत होना पड़ा, जिससे कि मज़दूर उनके विरोधी न हो जायें।
खेती के सवाल पर, लेनिन ने जमीन के राष्टंीयकरण का समर्थन किया। उनका कहना था कि क्रान्ति की जीत से ही, ज़ारशाही का तख्ता उलटने पर ही, ज़मीन का राष्टंीयकरण संभव होगा। ऐसी हालत में, ज़मीन का राष्टंीयकरण सर्वहारा वर्ग के लिये यह काम आसान कर देगा कि गरीब किसानों के सहयोग से वह समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश करे। ज़मीन के राष्टंीयकरण का मतलब था - बिना मुआविज़ा दिये तमाम रियासतों की ज़मीन ज़ब्त कर लेना और उन्हें किसानों को दे देना। बोल्शेविकों के खेती सम्बन्धी प्रोग्राम ने किसानों का आहवान किया कि वे ज़ार और जमींदारों के खिलाफ़ क्रान्ति के लिये उठ खड़े हों।
मेन्शेविकों का दृष्टिकोण दूसरा था। वे म्युनिसिपलीकरण के प्रोग्राम का समर्थन करते थे। इनके प्रोग्राम के अनुसार, रियासती ज़मीन ग्राम समाजों को न दी जाती, न उन्हें काम के लिये ही उठाया जाता, बल्कि वह म्युनिसिपलिटी के हाथ में रहती (यानी खुदमुख्तार हुकूमत की स्थानीय संस्थाओं या जे़म्स्त्वो के हाथ में रहती) और हर किसान इस ज़मीन से अपने बूते के अनुसार लगान पर हिस्सा ले लेता।
मेन्शेविकों का म्युनिसिपलीकरण का प्रोग्राम, समझौते का प्रोग्राम था और इसलिये क्रान्ति के लिये हानिकर था। वह किसानों को क्रान्तिकारी संघर्ष के लिये न बटोर सकता था और ज़मीन पर ज़मींदारों के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों को पूरी तरह खत्म न कर सकता था। मेन्शेविक प्रोग्राम ऐसे रचा गया था कि क्रान्ति को अधविच में ही रोक दे। मेन्शेविक किसानों को क्रान्ति के लिये उभारना न चाहते थे।
कांग्रेस में मेन्शेविक प्रोग्राम को बहुमत प्राप्त हुआ।
मेन्शेविकों ने अपना सर्वहारा-विरोधी, अवसरवादी रूप खास तौर से तब प्रकट किया जब कि मौजूदा हालत और राज्य दूमा के प्रस्ताव पर बहस हो रही थी। मेन्शेविक मार्तिनोव क्रान्ति मंे सर्वहारा वर्ग के एकछत्र नेतृत्व के खिलाफ़ खुल कर बोला। मेन्शविकों का जवाब देते हुए, काॅमरेड स्तालिन ने इस बारे में दो टूक बात कही:"या तो सर्वहारा का एकछत्र नेतृत्व हो, या जनवादी पूंजीपतियों का हो - पार्टी में सवाल का रूप यही है और यहीं हमारा मतभेद है।"
जहाँ तक राज्य दूमा का सम्बन्ध था, मेन्शेविकों ने अपने प्रस्ताव में उसे क्रान्ति की समस्यायें हल करने और ज़ारशाही से जनता को आजाद करने का सबसे अच्छा साधन बताकर, उसकी तारीफ़ की। इसके विपरीत, बोल्शेविकों का विचार था कि दूमा ज़ारशाही का बेकार पुछल्ला है। ज़ारशाही के पास छिपाने के लिये पर्दा है और जैसे ही उसे सुविधा हुई, ज़ारशाही उसे उतार फेंकेगी।
चौथी कांग्रेस में जो केन्द्रीय समिति चुनी गयी, उसमें 3 बोल्शेविक और 6 मेन्शेविक थे। केन्द्रीय अखबार के सम्पादक-मण्डल में सिर्फ़ मेन्शेविक थे।
यह बात साफ़ थी कि पार्टी का अन्दरूनी संघर्ष जारी रहेगा।
चौथी कांगे्रस में, बोल्शेविकों और मेन्शेविकों का परस्पर संघर्ष नये ज़ोरशोर से फूट पड़ा। स्थानीय संगठनों में, जो सिर्फ़ ऊपरी तौर पर एक थे, अक्सर दो-दो वक्ताओं ने कांग्रेस की रिपोर्ट पेश की: एक बोल्शेविकों में से और दूसरा मेन्शेविकों में से। दोनों लाइनों की बहस का नतीजा यह हुआ कि ज्यादातर संगठनों का बहुमत बोल्शेविकों के साथ हुआ।
घटना-क्रम ने साबित कर दिया कि बोल्शेविक सही थे। चैथी कांग्रेस में जो मेन्शेविक केन्द्रीय समिति चुनी गयी थी, वह अधिकाधिक अपना अवसरवाद और आम
जनता के क्रान्तिकारी संघर्ष का नेतृत्व करने की पूर्ण आयोग्यता ज़ाहिर करने लगी। 1906 की ग्रीष्म और शरद में, आम जनता के क्रान्तिकारी संघर्ष ने नया जोर पकड़ा। क्रोन्स्तात और स्वीयाबोर्ग में मल्लाहों के विद्रोह हुए। ज़मींदारों के खिलाफ़ किसानों की लड़ाई भड़क उठी। फिर भी, मेन्शेविक केन्द्रीय समिति अवसरवादी नारे देती रही, जिनका जनता ने अनुसरण नहीं किया।
6. पहली राज्य दूमा का भंग होना। दूसरी राज्य दूमा का अधिवेशन। पाँचवी पार्टी कांग्रेस। दूसरी राज्य दूमा का भंग होना। पहली रूसी क्रान्ति की हार के कारण।
पहली राज्य दूमा काफ़ी आज्ञाकारी न साबित हुई, इसलिये ज़ार सरकार ने उसे भंग कर दिया। हुकूमत ने जनता के खिलाफ़ और भी तीव्र दमन शुरु किया। सज़ा देने वाले दस्तों की तबाही ढाने वाली कार्यवाही सारे देश में फैला दी गयी। ज़ार सरकार ने थोड़े ही दिनों में दूसरी राज्य दूमा बुलाने के फैसले का ऐलान किया। ज़ाहिर था कि ज़ार सरकार पर सत्ता का मद और भी चढ़ रहा था। उसे अब क्रान्ति से डर न गलता था, क्यांेकि वह देख रही थी कि क्रान्ति का ज्वार अब खत्म हो रहा है।
बोल्शेविकों को फैसला करना था कि दूसरी दूमा में हिस्सा लें या उसका बायकाट करें। बायकाट से आम तौर पर बोल्शेविकों का मतलब सक्रिय बायकाट होता था, न कि सिर्फ़ चुनाव में निष्क्रिय रूप से वोट न देना। बोल्शेविकों की नजर में सक्रिय बायकाट जनता को सावधान करने का एक क्रान्तिकारी साधन था। ज़ार यह कोशिश कर रहा था कि जनता को क्रान्ति के रास्ते से हटा कर ज़ारशाही 'विधान' के रास्ते पर लाया जाये। इस कोशिश के खिलाफ़, जनता को आगाह करने का वह क्रान्तिकारी साधन था। इस तरह की कोशिश नाकाम करने और ज़ारशाही के खिलाफ़ जनता का नया आक्रमण संगठित करने का वह क्रान्तिकारी साधन था।
बुलिगन-दूमा के बायकाट के तजुर्बें ने दिखा दिया था कि बायकाट "ही उस समय सही कार्यनीति थी, और घटना-क्रम से वह क़तई सही साबित हुआ।" (लेनिन, संगं्र., अं.सं., मास्को, 1947, खंड 1, पृष्ठ 450)। यह बायकाट इसी लिये सफल नहीं हुआ कि उसने ज़ारशाही विधानवाद की राह के खतरे से जनता को सावधान किया, बल्कि इसलिये भी कि उसने दूमा के जन्म को ही व्यर्थ कर दिया। बायकाट इसलिये सफल हुआ कि वह क्रान्ति के उठते हुए ज्वार के समय किया गया था और इस ज्वार का उसे समर्थन प्राप्त था। वह उस समय न किया गया था जबकि क्रान्ति का ज्वार बैठ रहा हो। दूमा का बुलाना तभी नाक़ाम किया जा सकता था जब क्रान्ति का ज्वार वेग पर हो।
वित्ते-दूमा, यानी पहली दूमा का बायकाट दिसम्बर विद्रोह की पराजय के बाद हुआ, उस समय जबकि ज़ार विजयी साबित हुआ, यानी ऐसे समय जबकि यह विश्वास करने के लिये कारण थे कि क्रान्ति का ज्वार बैठने लगा है।
लेनिन ने लिखा था:
"लेकिन, कहना न होगा कि उस समय अब यह समझने का कोई कारण न था कि यह जीत (ज़ार की जीत - संपादक) निर्णायक जीत है। दिसम्बर 1905 के विद्रोह के बाद, 1906 की गर्मियों में कई अलग-थलग और आंशिक सैनिक विद्रोह और हड़तालें हुईं। वित्ते-दूमा का बायकाट करने का आववान इस बात के लिये आववान था कि इन विद्रोह को केन्द्रित किया जाये और उन्हें आम बनाया जाये।" (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 12, पृष्ठ 201)।
वित्ते-दूमा का बायकाट उसके अधिवेशन को नाकाम न कर सका, हालाँकि इससे उसका रोब काफ़ी कम हुआ और जनता के एक हिस्से का विश्वास उसमें शिथिल हो गया। बायकाट दूमा का अधिवेशन इसलिये नाकाम न कर सका कि, जैसा कि आगे चल कर स्पष्ट हो गया, वह ऐसे समय हुआ जबकि क्रान्ति का ज्वार बैठ रहा था, जब उसका प्रवाह मन्द पड़ रहा था। इस वजह से, 1906 में पहली दूमा का बायकाट असफल रहा। इस सिलसिले में, लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका "वामपंथी" कम्युनिज़्म, एक बचकाना बीमारी में लिखा था:
"1905 में, 'पार्लियामेंट' के बोल्शेविक बायकाट ने क्रान्तिकारी सर्वहारा को बहुत ही मूल्यवान राजनीतिक अनुभव से समृद्ध किया। उसने दिखलाया कि कानूनी और गै़र कानूनी संघर्ष के रूपों को, पार्लियामेंटरी और ग़ैर पार्लियामेंटरी रूपों को, मिलाने में कभी-कभी यह लाभदायी और आवश्यक भी हो जाता है कि पार्लियामेंटरी रूपों को ठुकरा दिया जाये। ... फिर भी, 1906 में बोल्शेविकों द्वारा दूमा का बायकाट एक ग़लती थी, हालाँकि यह एक छोटी ग़लती थी और उसका आसानी से सुधार हो सकता था।...जो बात व्यक्तियों पर लागू होती है, वह - आवश्यक तबदीली के साथ - राजनीति और पार्टियों पर भी लागू होती है। बुद्धिमान वह नहीं है जो गलतियाँ ही न करे। ऐसे आदमी न तो होते हैं और न हो सकते हैं। बुद्धिमान वह है जो बहुत गंभीर ग़लतियाँ नहीं करता और उन्हें आसानी से और तुरंत सुधारना जानता है।" (लेनिन, सं.ग्र., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 2, पृष्ठ 582-83)।
जहाँ तक दूसरी राज्य दूमा का सवाल है, लेनिन का कहना था कि बदली हुई हालत और क्रान्ति के ज्वार के मन्द पड़ने को ध्यान में रखते हुए बोल्शेविकों को "राज्य दूमा के बायकाट के सवाल पर फिर से विचार करना चाहिये।" (उप., खण्ड 1, पृष्ठ 450)।
लेनिन ने लिखा था:
"इतिहास ने दिखा दिया है कि दूमा का अधिवेशन होने पर ऐसा अवसर मिलता है कि दूमा के अन्दर और उसके बारे में बाहर भी लाभदायी आन्दोलन किया जा सके। काॅस्टीटयूशनल डेमोक्रैटों के खिलाफ़, क्रान्तिकारी किसानों के साथ सहयोग करने की नीति दूमा में भी लागू की जा सकती है।" (उप., पृष्ठ 453)।
इस सबसे ज़ाहिर होता था कि हमें यही न जानना चाहिये कि जब क्रान्ति उभार पर हो तब कैसे दृढ़ता से आगे बढ़ा जाये, कैसे अगली पाँति में रहकर आगे बढ़ा जाये, बल्कि जब क्रान्ति उभार पर न रहे तब कैसे क्रम से पीछे हटा जाये, कैसे सबसे पीछेवाली पाँति में रहकर हटा जाये और बदलती हुई हालत के अनुसार अपने दाँव-पेंच बदले जायें, ताबड़तोड़ पीछे न हटा जाये बल्कि संगठित रूप से, शान्ति के साथ और बिना भगदड़ के पीछे हटा जाये, दुश्मन की मार से अपने कार्यकर्ताओं को बचाने के लिये छोटे से छोटे अवसर से भी लाभ उठाया जाये, अपनी पाँति फिर से बनायी जाये, अपनी शक्तियों को फिर बटोरा जाये और दुश्मन के खिलाफ़ नया हमला करने की तैयारी की जाये।
बोल्शेविकों ने फै़सला किया कि वे दूसरी दूमा के चुनाव में हिस्सा लेंगे।
लेकिन, बोल्शेविक दूमा के अन्दर ठोस "कानून बनाने" का काम करने के लिये वहाँ नहीं गये थे। मेन्शेविकों ने इसी काम के लिये वहाँ पर काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैटों के साथ दल बनाया था। इसके खिलाफ़, बोल्शेविकों का उद्देश्य था कि क्रान्ति के हितों में उसे एक मंच की तरह इस्तेमाल करें।
इसके विपरीत, मेन्शेविक केन्द्रीय समिति इस बात पर जोर दे रही थी कि काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैटों के साथ चुनाव सम्बन्धी समझौते किये जायें और दूमा में उनका समर्थन किया जाये, क्योंकि उनकी निगाह में दूमा एक कानून बनाने वाली संस्था थी, जो ज़ार सरकार पर लगाम लगा सकती थी।
पार्टी-संगठनों के बहुमत ने मेन्शेविक केन्द्रीय समिति की नीति का विरोध किया।
बोल्शेविकों ने माँग की कि नयी पार्टी कांग्रेस बुलायी जाये।
मई 1907 में, लन्दन में पाँचवीं पार्टी कांग्रेस हुई। इस कांग्रेस के वक्त रू.सो.डे.ले.पा. में (जातीय सोशल-डेमोक्रेटिक संगठनों को मिलाकर) डेढ़ लाख सदस्य थे। कुल मिलाकर, कांग्रेेस में 336 प्रतिनिधि थे, जिनमें से 105 बोल्शेविक और 97 मेन्शेविक थे। बाकी प्रतिनिधि जातीय सोशल-डेमोक्रेटिक संगठनों की तरफ़ से पोलैंड और लटविया के सोशल-डेमोक्रेटों और बुन्द की तरफ़ से - जो पिछली कांग्रेस में रू.सो.डे.ले.पा. में भर्ती किये गये थे - आये थे। त्रात्स्की ने कांग्रेस में अपना एक अलग गुट, एक केन्द्रवादी यानी अर्द्ध -मेन्शेविक गुट बनाने की कोशिश की, लेकिन उसे अनुयायी न मिले।
पोलैण्ड और लैटविया के प्रतिनिधि बोल्शेविकों के साथ थे, इसलिये कांग्रेस में उनका दृढ़ बहुमत था। कांग्रेस में बहस के लिये एक मुख्य सवाल पूंजीवादी पार्टियों की तरफ नीति अपनाने का था। इस सवाल पर, दूसरी कांग्रेस में ही बोल्शेविकों और मेन्शेविकों में संघर्ष चल चुका था। पाँचवीं कांग्रेस ने सभी गैर सर्वहारा पार्टियों का बोल्शेविक मूल्यांकन पेश किया - यमराज सभायें, अक्तूबर पंथी (17 अक्तूबर का यूनियन), काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैटों और समाजवादी क्रान्तिकारी - और इन पार्टियों के बारे में बोल्शेविक कार्यनीति का मसौदा रखा।
कांग्रेस ने बोल्शेविकों की नीति मंजूर की और फैसला किया कि वह यमराज सभा पार्टियों के खिलाफ - रूसी जनसंघ, सम्राटवादियों, अभिजातवर्गीय संयुक्त मंडल के खिलाफ़ - और अक्तूबर पंथियों, व्यापार और उद्योग-धंधों की पार्टी और शान्तिपूर्ण सुधार की पार्टी के खिलाफ़ भी डट कर संघर्ष चलायेगी। ये सब पार्टियाँ खुल्लमखुल्ला क्रान्ति-विरोधी थीं।
जहाँ तक उदारपंथी पूंजीपतियों का सम्बन्ध था, काॅन्स्टीटयूशनल डमोक्रैटिक पार्टी का सम्बन्ध था, कांग्रेस ने बिना समझौते के उनका पर्दाफाश करने की नीति की सिफ़ारिश की। काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रैटिक पार्टी की झूठ और मक्कारी से भरी हुई 'डेमोक्रेसी' (प्रजातंत्रवाद) का पर्दाफ़ाश करना था और उदारपंथी पूंजीपतियों की किसान आन्दोलन पर कब्ज़ा करने की कोशिश का मुकाबिला करना था।
जहाँ तक नरोदनिक या त्रुदोविक1 पार्टियों (पापुलर सोशलिस्ट, त्रुदोविक गुट और (सोशलिस्ट रिवोलुशनरी) समाजवादी क्रान्तिकारियों) का सम्बन्ध था, कांग्रेस ने सिफ़ारिश की कि समाजवादियों की नकाब पहनने की उनकी कोशिशों का पर्दाफाश किया जाये। इसके साथ ही, कांग्रेस यह उचित समझती थी कि जब तक इन पार्टियों के साथ ज़ारशाही और काॅन्स्टीटयूशनल डेमोक्रेटिक पूंजीपतियों के खिलाफ़ संयुक्त और एक साथ हमला करने के लिये समझौते कर लिये जायें। कारण यह कि उस समय ये पार्टियाँ जनवादी पार्टियाँ थीं और शहर और देहात के निम्न पूंजीवादियों के हित प्रकट करती थीं।
(1. 1906 में बनने वाला एक निम्नपूंजीवादी गुट, जिसमें अंशतः पहली राज्य दूमा के किसान सदस्य थे जिनके सिरे पर समाजवादी क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी थे। )
इस कांग्रेस से पहले भी, मेन्शेविकों ने प्रस्ताव रखा था कि एक तथाकथित मज़दूर कांग्रेस बुलायी जाये। मेन्शेविकों का विचार था कि ऐसी कांग्रेस बुलायी जाये जिसमें सोशल-डेमोक्रैटों, समाजवादी क्रान्तिकारियों और अराजकवादियों - सभी का प्रतिनिधित्व हो। यह "मजदूर" कांग्रेस कुछ "गैर पार्टीजन पार्टी" जैसी चीज, या एक "व्यापक" निम्नपूंजीवादी मजदूर पार्टी बनायी जाये, जिसका कोई कार्यक्रम न हो। लेनिन ने मेन्शेविकों की इस घातक कोशिश का पर्दाफ़ाश किया, जो सोशल-डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी को खत्म करने और मजदूर वर्ग के हिरावल को निम्नपूंजीवादी अवाम में घुलमिल जाने देने की कोशिश थी। कांग्रेस ने 'मजदूर-कांग्रेस' बुलाने की मेन्शेविक योजना का ज़ोरों से खण्डन किया।
कांग्रेस में, ट्रेड यूनियनों के विषय पर खास तौर से ध्यान दिया गया। मेन्शेविक टेंड यूनियनों की 'तटस्थता' का समर्थन करते थे, दूसरे शब्दों में, वे इस बात का विरोध करते थे कि पार्टी उनमें नेतृत्व की भूमिका अदा करे। कांग्रेस ने मेन्शेविकों का प्रस्ताव रद्द कर दिया और बोल्शेविकों के पेश किये हुए प्रस्ताव को मंजूर कर लिया। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि पार्टी को ट्रेड यूनियनों में सैद्धान्तिक और राजनीतिक नेतृत्व हासिल करना चाहिये।
पाँचवीं कांग्रेस मजदूर आन्दोलन में बोल्शेविकों के लिये भारी जीत थी।
लेकिन, बोल्शेविकों ने न तो इसकी खुशी में अपने को बहने ही दिया, न उन्होंने अपनी विजय पर ही संतोष कर लिया। लेनिन ने उन्हें यह न सिखाया था। बोल्शेविक जानते थे कि मेन्शेविकों से अभी और संघर्ष होगा।
"एक प्रतिनिधि के नोट" नाम के लेख में, जो 1907 में प्रकाशित हुआ था, काॅमरेड स्तालिन ने कांग्रेस के नतीजों का इस तरह मूल्यांकन किया था:
"क्रान्तिकारी सोशल-डेमोक्रैसी के झण्डे के नीचे रूस के तमाम आगे बढ़े हुए मज़दूरों का एक ही अखिल रूसी पार्टी में वास्तविक एकीकरण - लन्दन कांग्रेस का यह महत्व है, यह उसकी आम विशेषता है।"
इस लेख में, काॅमरेड स्तालिन ने आंकड़े देकर कांग्रेस की बनावट पर प्रकाश डाला। आंकड़ों से पता चलता था कि मुख्यतः बड़े औद्योगिक केन्द्रों (पीतरबुर्ग, मास्को, यूराल, इवानोवोवज़्नेसेंस्क वगैरह) ने कांग्रेस को बोल्शेविक प्रतिनिधि भेजे थे। उधर मेन्शेविक उन जिलों की तरफ से भेजे गये थे जहाँ छोटे पैमाने की पैदावार चालू थी, जहाँ दस्तकार, अर्द्ध सर्वहारा बहुतायात से थे, और कुछ विशुद्ध देहाती इलाकों से भी मेन्शेविक भेजे गये थे।
काॅमरेड स्तालिन ने कांग्रेस के नतीजों का सार देते हुए कहा था:
"यह स्पष्ट है कि बोल्शेविकों की कार्यनीति बड़े उद्योग-धंधों के सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति है, उन इलाकों की कार्यनीति है जहाँ वर्ग-विरोध खास तौर से साफ़ है और वर्ग-संघर्ष खास तौर से तीखा है। बोल्शेविज़्म सच्चे सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति है। दूसरी तरफ, यह भी कम स्पष्ट नहीं है कि मेन्शेविकों की कार्यनीति मुख्यतः दस्तकारों और अर्द्ध-सर्वहारा किसानों की कार्यनीति है, जहां वर्ग-विरोध बहुत साफ़ नहीं है और वर्ग-संघर्ष छिपा हुआ है। मेन्शेविज़्म सर्वहारा वर्ग के अन्दर अर्द्ध-पूंजीवादी लोगों की कार्यनीति है। आंकड़े यही कहते हैं।" (रू. सो. डे. ले. पा. की पांचवी कांग्रेस की शब्दशः रिपोर्ट, रू.सं. 1935, पृष्ठ 11-12)।
जब ज़ार ने पहली दूमा भंग की तो उसे उम्मीद थी कि दूसरी दूमा ज्यादा ताबेदार होगी। लेकिन, दूसरी दूमा ने भी उसकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इस पर, ज़ार ने उसे भी भंग कर देने का फैसला किया। उसने ज्यादा संकुचित मताधिकार की बुनियाद पर, तीसरी दूमा बुलाने का निश्चय किया। उसे आशा थी कि यह दूमा ज्यादा आज्ञाकारी साबित होगी।
पाँचवीं कांग्रेस के कुछ ही दिन बाद, ज़ार सरकार ने 3 जून को बलपूर्वक सत्ताहरण किया। 3 जून 1907 को, ज़ार ने दूसरी राज्य दूमा को भंग कर दिया। दूमा के सोशल-डेमोक्रैटिक गुट के 65 प्रतिनिधि गिरफ्तार कर लिये गये और साइबेरिया में निर्वासिक कर दिये गये। एक नया चुनाव-कानून चालू किया गया। मजदूरों और किसानों के अधिकार और भी सीमित कर दिये गये। ज़ार सरकार ने अपना हमला जारी रखा।
ज़ार के मंत्री स्तोलिपिन ने मज़दूरों और किसानों के खिलाफ़ खूनी बदला लेने की मुहीम और तेज़ की। सज़ा देने वाले दस्तों ने हज़ारों क्रान्तिकारी मजदूरों और किसानों को गोली से उड़ा दिया, या फांसी पर लटका दिया। ज़ार की कालकोठरियों में क्रान्तिकारियों को मानसिक और शारीरिक रूप से तिलतिल कर मारा गया। मजदूर संगठनों, खास तौर से बोल्शेविकों पर, दमन चक्र बहुत ही बर्बरता से चला। ज़ार के कुत्ते लेनिन को ढूंढ़ रहे थे, जो उस समय फ़िनलैंड में छिपे हुये थे। वे क्रांति के नेता से बैर निकालना चाहते थे। दिसम्बर 1907 में, लेनिन भारी खतरा उठा कर विदेश जा सके और फिर निर्वासित हो गये।
स्तोलिपिन, प्रतिक्रियावाद का दुस्समय आरंभ हो गया। इस तरह, पहली रूसी क्रान्ति का अंत पराजय में हुआ। जिन कारणों से यह पराजय हुई, वे इस प्रकार थे:
(1) क्रान्ति में ज़ारशाही के खिलाफ़ अभी मज़दूरों और किसानों का पक्का सहयोग कायम न हुआ था। किसानों ने जमींदारों के खिलाफ़ विद्रोह किया और वे उनके विरुद्ध मज़दूरों से सहयोग करने के लिये तैयार थे। लेकिन, उन्होंने अभी यह महसूस न किया था कि जब तक ज़ार का तख्ता न उल्टा जायेगा, तब तक जमींदारों को नहीं पछाड़ा जा सकता। उन्होंने यह महसूस न किया था कि ज़ार और जमींदारों की मिलीभगत है। किसानों की बहुत बड़ी तादाद को अब भी ज़ार में विश्वास था और उनकी आशायें ज़ारशाही राज्य दूमा पर लगी हुई थी। यही सबब है कि किसानों का काफी हिस्सा ज़ारशाही का खात्मा करने के लिये, मजदूरों से सहयोग करने के लिये अनिच्छुक था। किसानों को समझौता परस्त समाजवादी क्रान्तिकारियों पर ज्यादा भरोसा था और सच्चे क्रांतिकारियों पर - बोल्शेविकों पर - कम था। इसका नतीजा यह हुआ कि जमींदारों के खिलाफ़ किसानों का संघर्ष काफ़ी संगठित न था। लेनिन ने कहा था:
"...किसानों की कार्यवाही बहुत ही बिखरी हुई, बहुत ही असंगठित और नाक़ाफी तौर से हमलावर थी; और क्रान्ति की पराजय का यह एक बुनियादी कारण था।" (लेनिन ग्रन्थावली रूसी संस्करण, खण्ड 19, पृष्ठ 354)।
(2) किसानों का काफी बड़ा हिस्सा ज़ारशाही का खात्मा करने के लिये मज़दूरों से सहयोग करने में अनिच्छुक था; उसका असर फ़ौज़ के व्यवहार पर भी पड़ा। फ़ौज में ज्यादातर सिपाहियों की वर्दी पहने हुए किसानों के बेटे थे। ज़ार की फ़ौज के कई दस्तों में असंतोष और विद्रोह फूट पड़ा लेकिन अधिकांश सैनिकों ने अब भी मज़दूरों की हड़तालें और विद्रोह दबाने में ज़ार की मदद की।
(3) मजदूरों की कार्यवाही भी काफ़ी सुगठित न थी। मजदूर वर्ग के आगे बढ़े हुए हिस्सों ने 1905 में वीरतापूर्ण क्रान्तिकारी संघर्ष शुरु किया। ज्यादा पिछडे़ हुए हिस्से - उन सूबों के मजदूर जहाँ का औद्योगीकरण कम हुआ था, वे लोग जो गाँव में रहते थे - कार्यवाही में और विलम्ब से आये। क्रान्तिकारी संघर्ष में वे 1906 में ज्यादा सक्रिय रूप से हिस्सा लेने लगे, लेकिन उस समय तक मजदूर वर्ग का हिरावल काफी कमजोर हो चुका था।
(4) मजदूर वर्ग क्रान्ति की पहली और प्रमुख शक्ति था; लेकिन मजदूर वर्ग की पार्टी की सफ़ों में आवश्यक एकता और दृढ़ता का अभाव था। रू.सो.डे.ले.पा. - मजदूर वर्ग की पार्टी - दो दलों में बँटी हुई थी: बोल्शेविक और मेन्शेविक। बोल्शेविक सुसंगत क्रान्तिकारी लाइन पर चलते थे। उन्होंने ज़ारशाही का खात्मा करने के लिये मज़दूरों का आववान किया था। मेन्शेविकों ने अपनी समझौतापरस्त कार्यनीति से क्रान्ति में बाधा डाली, मजदूरों की बड़ी तादाद के मन में उलझन पैदा कर दी और मजदूर वर्ग में फूट डाली। इसलिये, मजदूरों ने क्रान्ति में हमेशा एकजुट होकर काम नहीं किया। खुद अभी अपनी पाँति में एकता न होने की वजह से, मजदूर वर्ग क्रान्ति का सच्चा नेता न बन सका।
(5) निरंकुश ज़ारशाही को 1905 की क्रान्ति का दमन करने में पच्छिमी यूरोप के साम्राज्यवादियों से मदद मिली। विदेशी पूंजीपति रूस में लगाई हुई पूंजी और अपने भारी मुनाफ़ों के लिये चिन्तित थे। इसके सिवा, उन्हें डर था कि अगर रूसी क्रान्ति सफल हुई तो दूसरे देशों के मजदूर भी क्रान्ति करने के लिये उठ खड़े होंगे। इसलिये, पच्छिमी यूरोप के साम्राज्यवादी जल्लाद ज़ार की मदद के लिये आ गये। फ्रांस के बैंक-साहूकारों ने क्रान्ति को दबाने के लिये ज़ार को भारी रक़म उधार दी। जर्मनी का कैसर रूसी ज़ार की मदद के लिये दखलन्दाजी करने को एक बड़ी फौज़ तैयार रखता था।
(6) सितम्बर 1905 में, जापान से शान्ति-सन्धि हो जाने पर ज़ार को काफी मदद मिली। लड़ाई में हार और क्रान्ति की खतरनाक बढ़ती से, ज़ार को संधि करने में जल्दी करनी पड़ी। युद्ध में हारने से, ज़ारशाही कमजोर हुई। संधि होने से, ज़ार का पाया मजबूत हुआ।
सारांश
पहली रूसी क्रान्ति हमारे देश के विकास में एक पूरी ऐतिहासिक मंजिल थी। इस ऐतिहासिक मंजिल के दो दौर थे। पहला दौर वह था जब अक्तूबर की आम हड़ताल से क्रान्ति का ज्वार उठा और दिसम्बर के सशस्त्र विद्रोह तक पहुँच गया। इस समय क्रान्ति के ज्वार ने ज़ार की कमजोरी से फायदा उठाया, जो मंचूरिया के युद्ध क्षेत्रों में हार खा चुका था। कमजोरी से फायदा उठा कर बुलिगिन-दूमा रास्ते से हटा दी गयी और ज़ार से एक के बाद दूसरी रियायतें हासिल की गयीं। दूसरा दौर वह था जब ज़ारशाही ने, जापान के साथ संधि करने के बाद संभल कर, उदार पूंजीपतियों के क्रान्ति से डरने का फायदा उठाया, किसानों के ढुलमुलपन का फायदा उठाया, वित्ते-दूमा के रूप में उनके सामने एक टुकड़ा डाला और मजदूर वर्ग के खिलाफ़, क्रान्ति के खिलाफ़ हमला शुरु किया।
क्रान्ति के तीन वर्षों की छोटी अवधि (1905-07) में ही, मजदूर वर्ग और किसानों ने इतनी भरपूर राजनीतिक शिक्षा प्राप्त की जैसी उन्हें साधारण शान्तिपूर्ण विकास के तीस वर्षों में भी न मिल सकती थी। क्रान्ति के थोड़े ही वर्षों ने वे सब बातें स्पष्ट कर दीं जो बीसों वर्षों के शान्तिमय विकास के दौर में न हो सकती थीं।
क्रान्ति ने दिखला दिया कि ज़ारशाही जनता की कट्टर दुश्मन है, कि ज़ारशाही कहावतों के उस कुबड़े की तरह है जिसकी पीठ क़ब्र में सीधी होती है।
क्रान्ति ने दिखला दिया कि उदारपंथी पूंजीपति ज़ार से, न कि जनता से, सहयोग करने की फ़िक्र में हैं। वे एक क्रान्ति-विरोधी शक्ति हैं, जिनसे समझौता करना जनता से गद्दारी करने के समान है।
क्रान्ति ने दिखला दिया कि सिर्फ़ मजदूर वर्ग पूंजीवादी जनवादी क्रान्ति का नेता हो सकता है। सिर्फ़ मजदूर वर्ग उदारपंथी काॅन्स्टीट्यूषनल डेमोक्रैटिक पूंजीपतियों को बलपूर्वक हटा सकता है, किसानों पर उनका असर खत्म कर सकता है और जमींदारों को खदेड़ सकता है, क्रान्ति को आखिरी मंजिल तक पहुँचा सकता और समाजवाद के लिये रास्ता साफ़ कर सकता है।
अंत में, क्रान्ति ने दिखला दिया कि मेहनतकश किसान ही, ढुलमुलपन के बावजूद भी, वह महत्वपूर्ण शक्ति हैं जो मजदूर वर्ग के साथ सहयोग कर सकते हैं।
क्रान्ति के दौरान में, रू. सो.डे.ले.पा. के अन्दर दो लाइनें एक दूसरे से टक्कर ले रही थीं। एक लाइन बोल्शेविकों की थी और दूसरी लाइन मेन्शेविकों की। बोल्शेविकों का रास्ता क्रान्ति को फैलाने का रास्ता था, सशस्त्र विद्रोह के जरिये ज़ारशाही के खात्मे, मजदूर वर्ग के एकछत्र नेतृत्व, काॅन्स्टीट्यूशनल डेमोक्रैटिक पूंजीपतियों को अकेले करने, किसानों से सहयोग, मजदूरों और किसानों के प्रतिनिधियों से बनी हुई अस्थायी क्रान्तिकारी हुकूमत के निर्माण, क्रान्ति को जीत की मंजिल तक ले जाने का रास्ता था। दूसरी तरफ, मेन्शेविकों का रास्ता क्रान्ति के विसर्जन का रास्ता था।
विद्रोह के जरिये ज़ारशाही का तख्ता उलटने के बदले, उन्होंने उसे सुधारने और 'उन्नत करने' का प्रस्ताव रखा। सर्वहारा वर्ग के एकछत्र नेतृत्व के बदले, उन्होंने उदारपंथी पूंजीपतियों के एकछत्र नेतृत्व का प्रस्ताव रखा। किसानों से सहयोग के बदले, उन्होंने काॅन्स्टीट्यूशनल डेमोक्रैटिक पूंजीपतियों से सहयोग का प्रस्ताव रखा।
अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार के बदले, उन्होंने राज्य दूमा का प्रस्ताव रखा, जो देश की 'क्रांतिकारी शक्तियों' का केन्द्र बने।
इस तरह, मेन्शेविक समझौते के दलदल में फँसते गये और मजदूर वर्ग पर पूंजीवादी असर के साधन बने, वे मजदूर वर्ग के अन्दर वस्तुतः पूंजीपतियों के दलाल बन गये।
बोल्शेविक ही पार्टी के अन्दर और देश में क्रान्तिकारी माक्र्सवादी शक्ति साबित हुए।
यह स्वाभाविक था कि ऐसे गंभीर मतभेद होने की वजह से रूÛसोÛडेÛलेÛपाÛ दरअसल दो पार्टियों में बंटी हुई साबित हुई - बोल्शेविकों की पार्टी और मेन्शेविकों की पार्टी। चैथी पार्टी कांग्रेस ने पार्टी की वास्तविक अन्दरूनी हालत में कोई तब्दीली न की। उसने सिर्फ़ पार्टी की ऊपरी एकता कायम रखी और उसे कुछ-कुछ मजबूत किया। पांचवी पार्टी कांग्रेस ने पार्टी में वास्तविक एकता की तरफ एक कदम उठाया, ऐसी एकता जो बोल्शेविक झण्डे के नीचे हासिल की गयी थी।
क्रान्तिकारी आन्दोलन का मूल्यांकन करते हुए, पाँचवी पार्टी कांग्रेस ने मेन्शेविक लाइन को सेमझौते की लाइन कहकर उसकी निन्दा की और बोल्शेविक लाइन को क्रान्तिकारी माक्र्सवादी लाइन कहकर उसका समर्थन किया। ऐसा करके, उसने उसी बात को पक्का किया जिसे पहली रूसी क्रान्ति की समूची प्रगति ने पक्का किया था।
क्रान्ति ने दिखला दिया कि बोल्शेविक परिस्थिति की मांग पर आगे बढ़ना जानते हैं, कि उन्होंने अगली पांति में आगे बढ़ना और हमले में समूची जनता का नेतृत्व करना सीख लिया है; लेकिन क्रान्ति ने यह भी दिखलाया कि जब परिस्थि ति प्रतिकूल हो जाये जब क्रान्ति का बेग मन्द पड़ जाये तब बोल्शेविक व्यवस्थित ढंग से पीछे हटना जानते हैं, कि बोल्शेविकों ने उचित रूप से बिना भगदड़ या हड़बड़ाहट के पीछे हटना सीख लिया है, जिससे कि वे अपने कार्यकर्ताओं को बनाये रख सकें, अपनी शक्तियों को बटोर सकें और नयी परिस्थिति के अनुसार अपनी पांति फिर से जोड़कर एक बार फिर दुश्मन पर धावा बोल सकें।
बिना यह जाने हुए कि सही तौर पर हमला कैसे करना चाहिये, दुश्मन को हराना असंभव है।
बिना यह जाने हुए कि सही तौर पर कैसे पीछे हटना चाहिये, कैसे बिना भगदड़ और हड़बड़ाहट के पीछे हटना चाहिये, हार होने पर सत्यानाश से बचना असंभव है।
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