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Tuesday, 18 August 2020

राज्य और क्रांति - अध्याय २

राज्य और क्रांति

अध्याय

राज्य और क्रांति। १८४८ - १८५१ का अनुभव

 

१.    क्रांति से ठीक पहले

 

परिपक्व मार्क्सवाद की पहली कृतियां 'दर्शन की दरिद्रता' और 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' ८४ की क्रांति से ठीक पहले निकलीं। इसी कारण, मार्क्सवाद के आम उसूलों के विवरण के साथ-साथ हम यहां किसी हद तक उस समय की ठोस क्रांतिकारी परिस्थिति का प्रतिबिंब पाते हैं और इसलिए शायद यह देखना अधिक उपयुक्त होगा कि १८४८-१८५१ के अनुभव के निष्कर्षों से ठीक पहले इन कृतियों के लेखक राज्य के संबंध में क्या कहते हैं। 

      'दर्शन की दरिद्रता' में मार्क्स लिखते हैं : "... विकास के दौरान मज़दूर वर्ग पुराने बुर्जुवा समाज के स्थान पर ऐसे संगठन की स्थापना करेगा , जो वर्गों और उनके विरोधों को वर्जित कर देगा ; सही मानों में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं रह जायेगी, क्योंकि राजनीतिक सत्ता ही बुर्जुग्रा समाज के प्रांतरिक वर्ग विरोधों की आधिकारिक अभिव्यक्ति है।" (पृ० १८२, जर्मन संस्करण , १८८५) 

वर्गों के उन्मूलन के बाद राज्य के विलोप के विचार की इस प्राम विवेचना की मार्क्स और एंगेल्स द्वारा कुछ ही महीने बाद , याने नवंबर , १८४७ में लिखित 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में दी गयी विवेचना से तुलना करना शिक्षाप्रद होगा

".सर्वहारा वर्ग के विकास की सबसे सामान्य अवस्थाओं का वर्णन करते हुए हमने वर्तमान समाज के अंदर न्यूनाधिक प्रच्छन्न रूप से चलनेवाले गृहयुद्ध का उसी बिंदु तक चित्रण किया है , जहां वह युद्ध प्रत्यक्ष क्रांति के रूप में भड़क उठता है और जहां बुर्जुवा वर्ग का बलात पर्युत्क्षेपण सर्वहारा वर्ग की प्रभुता के लिए आधार प्रस्तुत करता है ... 

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"ऊपर हम देख पाये हैं कि मजदूर वर्ग की क्रांति का पहला कदम सर्वहारा वर्ग को उठाकर शासक वर्ग के प्रासन पर बैठाना और जनवाद के लिए होनेवाली लड़ाई को जीतना है।

"सर्वहारा वर्ग अपना राजनीतिक प्रभुत्व बुर्जुग्रा वर्ग से धीरे-धीरे कर सारी पूंजी छीनने के लिए , उत्पादन के सारे प्रौज़ारों को राज्य के , अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के हाथों में केंद्रीकृत करने के लिए तथा समग्र उत्पादक शक्तियों में यथाशीघ्र वृद्धि के लिए इस्तेमाल करेगा" (पृ० ३१ और ३७ , सातवां जर्मन संस्करण , १६०६ )  

 

यहां हम राज्य के प्रश्न पर मार्क्सवाद के एक सबसे उल्लेखनीय और सबसे महत्वपूर्ण विचार का , अर्थात "सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व" के विचार का ( जैसे पेरिस कम्यून के बाद से मार्क्स और एंगेल्स कहने लगे थे), सूत्रीकरण देखते हैं और उसके बाद राज्य की एक बहुत ही दिलचस्प परिभाषा देखते हैं, जो मार्क्सवाद के " विस्मृत शब्दों" की श्रेणी में भी ती है। " राज्य , अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग।

 

आधिकारिक सामाजिक-जनवादी पार्टियों के जिस प्रचारात्मक और आंदोलनात्मक साहित्य का बोलबाला है, उसमें राज्य की इस परिभाषा को न केवल कभी नहीं समझाया गया है, बल्कि इससे भी बढ़कर, उसे भुला ही दिया गया है , क्योंकि सुधारवाद के साथ उसका क़तई मेल नहीं हो सकता, वह "जनवाद के शांतिपूर्ण विकास' के संबंध में अवसरवादी पूर्वाग्रहों और दकियानूसी भ्रांतियों के मुंह पर तमाचा है। 

 

सर्वहारा को राज्य की ज़रूरत होती हैइसे सभी अवसरवादी, सामाजिक-अंधराष्ट्रवादी और काउत्स्कीवादी दुहराते हैं , जो विश्वास दिलाते हैं कि मार्क्स की यही शिक्षा है, लेकिन यह जोड़ना "भूल जाते हैं" कि मार्क्स के अनुसार , सबसे पहले , सर्वहारा को केवल विलुप्त हो जानेवाले राज्य की ज़रूरत होती है, अर्थात इस प्रकार निर्मित राज्य की , जिसका अविलंब विलोप शुरू हो जाये और जो विलुप्त हुए बिना नहीं रह सकता। दूसरे , मेहनतकशों को " राज्य, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग" की ज़रूरत होती है। 

राज्य ताक़त का विशेष संगठन है, किसी वर्ग को दबाने के लिए बल प्रयोग का संगठन है। सर्वहारा वर्ग के लिए किस वर्ग को दबाना ज़रूरी 

 

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है? बेशक, केवल शोषक वर्ग , याने बुर्जया वर्ग को। मेहनतकशों को राज्य की जरूरत केवल शोषकों के प्रतिरोध के दमन के लिए होती है और अंत क्रांतिकारी रहनेवाले एकमात्र वर्ग के रूप में, बुर्जुग्रा वर्ग के खिलाफ़ संघर्ष के लिए, उसके पूर्ण विस्थापन के लिए सभी मेहनतकशों और शोषितों को एकताबद्ध कर सकनेवाले एकमात्र वर्ग के रूप में उस दमन का नेतृत्व करने में, उसकी तामील करने में केवल सर्वहारा वर्ग ही समर्थ है।

 

शोषक वर्गों को राजनीतिक प्रभुत्व की ज़रूरत है शोषण की बरकरारी के हित में , याने जनता की विशाल बहुसंख्या के विरुद्ध नगण्य अल्पसंख्या के स्वार्थपूर्ण हित में। शोषित वर्गों को राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत है हर प्रकार के शोषण के पूर्ण उन्मूलन के हित में , अर्थात जनता को विशाल बहुसंख्या के हित में , नगण्य अल्पसंख्या के आधुनिक गुलाम मालिकों के , याने ज़मींदारों और पूंजीपतियों के हित के खिलाफ़। 

 

टूटपुंजिया जनवादियों ने , इन प्रतीयमान समाजवादियों ने , वर्ग संघर्ष के बजाय वर्ग सामंजस्य के सपने देखने वालों ने समाजवादी रूपांतरण को भी स्वप्निल ढंग से शोषक वर्ग के प्रभुत्व के विस्थापन के रूप में नहीं, बल्कि अपने कार्यभारों को समझ चुकनेवाली बहुसंख्या के प्रागे अल्पसंख्या द्वारा शांतिपूर्ण आत्मसमर्पण के रूप में देखा। वर्गोपरि राज्य की मान्यता के साथ अभिन्न रूप से संबद्ध यह टुटपुंजिया कल्पना व्यवहार में मेहनतकश वर्गों के हितों के साथ गद्दारी का कारण बनी, जैसा कि, उदाहरण के लिए, १८४८ प्रौर १८७१ की फ्रांसीसी क्रांतियों के इतिहास ने, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं के शुरू में इंगलैंड, फ्रांस , इटली तथा अन्य देशों के अंदर बुर्जया मंत्रिमंडलों में "समाजवादियों" की शिरकत के अनुभव ने प्रगट किया था। 

इस  टुटपूंजिया समाजवाद के खिलाफ़ , जिसे समाजवादी-क्रांतिकारी और मेंशेविक पार्टियों ने अब रूस में पुनरुज्जीवित किया है , मार्क्स जीवन भर लडते रहे। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की शिक्षा को सुसंगत रूप से राजनीतिक मना की, राज्य की शिक्षा तक पहुंचा दिया। 

बुर्जआ वर्ग के शासन को उलटने का काम उस खास वर्ग की हैसियत से कंवल सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है, जिसके जीवन की आर्थिक परिस्थितियां उसे इस काम के लिए प्रशिक्षित करती हैं , क्षमता और शक्ति 

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देती हैं। बुर्जुवा वर्ग जहां किसानों और सभी टुटपुंजिया तबक़ों को विखंडित और विभाजित करता है, वहीं वह सर्वहारा वर्ग को जमा करता है, एकताबद्ध और संगठित करता है। केवल सर्वहारा वर्ग ही - बड़े पैमाने के उत्पादन में अपनी आर्थिक भूमिका के कारणउस तमाम श्रमजीवी और शोषित जनता का नेतृत्व कर सकता है, जिसका शोषण , उत्पीडन और दमन बुर्जुमा वर्ग सर्वहारा के से कम नहीं , बल्कि अकसर ज्यादा करता है, लेकिन जो अपनी स्वाधीनता के लिए स्वतंत्र रूप से संघर्ष चलाने में असमर्थ होती है।

राज्य और समाजवादी क्रांति के प्रश्न पर लागू की गयी मार्क्स के वर्ग संघर्ष की शिक्षा सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक प्रभुत्व की , उसके अधि नायकत्व की स्वीकृति की ओर अनिवार्य रूप से ले जाती है , अर्थात उसकी ऐसी ताक़त की स्वीकृति की ओर , जिसमें और किसी का हिस्सा हो और जो सीधे-सीधे जनता की सशस्त्र शक्ति द्वारा समर्थित हो। बुर्जुआ वर्ग के अनिवार्य और घोरतम प्रतिरोध को कुचलने और नयी आर्थिक व्यवस्था की रचना के लिए तमाम श्रमजीवी और शोषित जनता को संगठित करने में सक्षम शासक वर्ग में परिणत होकर ही सर्वहारा वर्ग बुर्जुग्रा वर्ग का तख्ता उलट सकता है। 

शोषकों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए और साथ ही समाजवादी अर्थव्यवस्था के "संगठन" में आबादी के विशाल जन-समूहकिसानों , टुटपुंजिया लोगों और अर्द्धसर्वहारा - का नेतृत्व करने के लिए भी सर्वहारा वर्ग को राज्य-सत्ता की, शक्ति के केंद्रीभूत संगठन की और बल प्रयोग के संगठन की ज़रूरत होती है।

 मजदूरों की पार्टी को शिक्षित करते हुए मार्क्सवाद सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्ते को शिक्षित करता है, जिसमें सत्ता ग्रहण करने और तमाम जनता को समाजवाद की तरफ़ ले जाने की , नयी व्यवस्था का संचालन और संगठन करने की , बुर्जुग्रा वर्ग के बिना और उसके विरुद्ध सभी मेहनतकशों और शोषितों के सामाजिक जीवन के संगठन में उनका शिक्षक , पथप्रदर्शक और नेता बनने की क्षमता है। इसके बरखिलाफ़ अवसरवाद, जिसका आज दौर-दौरा है , मजदूरों की पार्टी के सदस्यों को अच्छी मज़दूरी पानेवाले मजदूरों के प्रतिनिधि बनने की शिक्षा देता है, जिनका साधारण 

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मजदूरों से संपर्क टूट जाता है, जिनकी जिंदगी पूंजीवाद के अंतर्गत काफ़ी मजे में "कटती" है और जो अपने जन्मसिद्ध अधिकार को रोटी के चंद टुकडों के लिए बेच देते हैं , अर्थात बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध जनता की लड़ाई में क्रांतिकारी नेताओं की अपनी भूमिका को तिलांजलि दे देते हैं।

 "राज्य, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग" - मार्क्स के इस सिद्धांत का इतिहास में सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका के बारे में उनकी पूरी शिक्षा के साथ अटूट संबंध है। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व, सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक शासन इस भूमिका की परिणति है।

 लेकिन अगर सर्वहारा वर्ग को बुर्जुया वर्ग के विरुद्ध बल प्रयोग के विशेष संगठन के रूप में राज्य की ज़रूरत होती है, तो उससे अपने आप निम्न निष्कर्ष निकलता है : जब तक पहले राज्य की उस मशीनरी को , जिसे बुर्जुश्रा वर्ग ने अपने लिए बनाया है , मिटा नहीं दिया जाता , नष्ट नहीं कर दिया जाता , तब तक क्या इस प्रकार के संगठन के निर्माण की बात सोची भी जा सकती है ? 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' से सीधा यही निष्कर्ष निकलता है और १८४८-१८५१ की क्रांति के अनुभवों का सारांश बताते हुए मार्क्स इसी निष्कर्ष की बात करते हैं। 

. क्रांति के निष्कर्ष

राज्य के जिस प्रश्न पर हम विचार कर रहे हैं , उसके संबंध में १८४८-१८५१ की क्रांति के निष्कर्ष मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर' के निम्न तर्क में दिये हैं :

"... किंतु क्रांति अपना प्रक्रम पूरा करती है। वह अभी पापमुक्ति की मंजिल से ही गुज़र रही है। वह अपना काम पूरी तरतीब से करती है। दिसंबर , १८५१" ( लुई बोनापार्त के उत्प्लव के दिन ) "तक उसने तैयारी के अपने काम का धा खत्म किया था, अब वह दूसरे धे को खत्म कर रही है। पहले , उसने संसदीय सत्ता को सर्वांगपूर्ण बनाया, इसलिए कि उसे उलट सके। अब, जबकि वह इस काम को पूरा कर चुकी है, तो कार्यकारी सत्ता को सर्वांगपूर्ण बना रही है, उसे उसकी विशद्धतम अभिव्यक्ति दे रही है, उसे पृथक कर रही है और उसे अपना एकमात्र निशाना बनाकर खड़ा कर रही है ताकि विनाश को अपनी समग्र शक्ति 

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लेकर उस पर टूट सके " ( शब्दों पर जोर हमारा है ) "जिस दिन वह अपने इस रंभिक कार्य का दूसरा अर्धाश पूरा करेगी , यूरोप कुर्सी से उछल पडेगा और हेगा : शाबा , बूढ़ी छूछंदर, तूने कमाल किया ! 18 

"यह कार्यकारी सत्ता, जिसका पना विराट नौकरशाहाना और फौजी संगठन है, बड़ी सूझ-बू से बनाया हु पना राज्य यंत्र है , जिसके दायरे में समा के अनेक स्तर ते हैं और जिसके लाख अमले हैं तथा ही लाख के करीब सैनिक हैं, जो एक डरावना परजीवी निकाय है, जिसने फ्रांससीसी समा के शरीर को एक ऐसे जाल में बांध रखा है कि उसका एक एक रोमकूप बंद है, निरंकुश राजतंत्र के दिनों में उत्पन्न हुई थी, जब सामन्ती समाज व्यवस्था विगलित हो रही थी और जिसके विगलन की क्रिया को तेज करने में उसने मदद की थी" पहली फ्रांसीसी क्रांति ने केंद्रीयकरण को बढ़ाया था , " किंतु उसके साथ ही सरकारी सत्ता की परिधि, विशेषताओं और अभिकर्ताओं का भी विकास किया। नेपोलियन ने इस राज्य यंत्र को सर्वांगपूर्ण बनाया। लेजिटिमिस्ट राजतंत्र और जुलाई राजतंत ने और भी धिक श्रम विभाजन के सिवा इसमें कुछ नहीं जोड़ा ... 

" . . . अंतिम बात यह कि क्रांति के विरुद्ध अपने संघर्ष में संसदीय जनतंत्र ने दमनकारी कार्रवाइयों के अलावा सरकारी सत्ता के साधनों एवं केंद्रीयकरण को भी सुदढ़ करने के लिए अपने को मजबूर पाया था। सभी क्रान्तियों ने इस यंत्र को चकनाचूर करने के बदले इसे सर्वांगपूर्ण बनाया" ( शब्दों पर जोर मारा है) "बारी-बारी से प्रभूत्व के लिए होड़ करनेवाली पार्टियां इस विशालकाय राजकीय ढांचे का स्वामित्व प्राप्त करना विजय का प्रधान पुरस्कार समझती थीं" ('लूई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर', पृ० ६८-६६ , चतुर्थ संस्करण , हैंबर्ग , १९०७ )19

यह उल्लेखनीय तर्क 'कम्युनिस्ट' . घोषणापत्र' की तुलना में मार्क्सवाद का आगे की ओर बहुत बड़ा कदम है। 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में राज्य के प्रश्न की अभी अत्यंत अमूर्त रूप में, बिलकुल शब्दों और अभिव्यक्तियों में ही व्याख्या की गयी थी। ऊपर उद्धत अंश में इस प्रश्न पर ठोस ढंग से विचार किया गया है और निष्कर्ष बिलकुल सटीक, निश्चित, व्यावहारिक और प्रत्यक्ष है : तक जितनी क्रांतियां हुई हैं, उन्होंने राज्य की मशीनरी को सर्वांगपूर्ण बनाया है, जबकि ज़रूरत है उसे नष्ट करने की, चकनाचूर करने की। 

यह निष्कर्ष राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत की मुख्य और बुनियादी चीज़ है। और ठीक इसी बुनियादी चीज़ को तमाम प्रभुत्वशाली आधिकारिक 

 

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सामाजिक-जनवादी पार्टियों ने केवल पूर्ण रूप से भुला दिया है, बल्कि ( जैसा कि बाद में देखेंगे ) दूसरे इंटरनेशनल के प्रमुख सिद्धांताचार्य कार्ल काउत्स्की ने विकृत कर दिया है।

 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' इतिहास का आम सारांश प्रस्तुत करता है, जो हमें राज्य को वर्ग शासन का निकाय मानने के लिए मजबूर करता है और इस अनिवार्य निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि पहले राजनीतिक सत्ता पर क़ब्ज़ा किये बिना, राजनीतिक आधिपत्य कायम किये बिना, राज्य को " शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग" में बदले बिना सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग का तख्ता नहीं उलट सकता; कि यह सर्वहारा राज्य अपनी विजय के फ़ौरन ही बाद धीरे-धीरे विलुप्त होने लगेगा, क्योंकि ऐसे समाज में राज्य अनावश्यक और असंभव है, जिसमें वर्ग विरोध नहीं हैं। यहां यह प्रश्न नहीं उठाया गया है कि ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से बुर्जुआ वर्ग के राज्य का स्थान सर्वहारा वर्ग का राज्य किस प्रकार लेगा। 

मार्क्स इसी सवाल को १८५२ में उठाते हैं और उसे हल करते हैं। अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के प्रति वफ़ादार मार्क्स क्रांति के १८४८ से १८५१ तक के महान वर्षों के ऐतिहासिक अनुभव को अपने हल का आधार बनाते हैं। सदा की तरह यहां भी उनकी शिक्षा अनुभव का ही सारांश है, जो गंभीर दार्शनिक विश्वदृष्टि और इतिहास के अगाध ज्ञान से आलोकित है। 

राज्य के प्रश्न को ठोस रूप में रखा गया है : बुर्जुवा वर्ग का राज्य, बुर्जुवा वर्ग के प्रभुत्व के लिए आवश्यक राजकीय मशीनरी ऐतिहासिक रूप से किस प्रकार उत्पन्न हुई ? बुर्जुवा क्रांतियों के दौरान और उत्पीडित वर्गों की स्वतंत्र कार्रवाइयों के सामने उसके अंदर क्या-क्या परिवर्तन हुए, क्या क्या क्रमोन्नति हुई ? राज्य की इस मशीनरी के संबंध में सर्वहारा वर्ग के क्या कार्यभार हैं ?

 केंद्रीयकृत राज्य-सत्ता , जो बुर्जुआ समाज की विशेषता है, निरंकुशता के पतन के युग में उत्पन्न हुई थी। राज्य की इस मशीनरी के लिए दो संस्थाएं खा तौर पर लाक्षणिक हैं : नौकरशाही और स्थायी फ़ौज। अपनी रचनाओं में मार्क्स और एंगेल्स ने बार-बार कहा है कि ये संस्थाएं हजारों 

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सूत्रों से बुर्जुआ वर्ग के साथ बंधी हुई हैं। हर मज़दूर का अनुभव इस संबंध को बहुत ही साफ़ और ज़ोरदार ढंग से ज़ाहिर करता है। इस संबंध को देखना मजदूर वर्ग स्वयं अपने कटु अनुभव से सीखता है। यही कारण है कि वह इस संबंध की अनिवार्यता के सिद्धांत को, उस सिद्धांत को इतनी सानी से ग्रहण और इतनी संपूर्णता से हृदयंगम कर लेता है, जिसे टुटपुंजिया जनवादी या तो अज्ञानता या गैर संजीदगी के कारण अस्वीकार करते हैं, या और भी गैर संजीदगी से " तौर से" मान लेते हैं, लेकिन तदनुकूल व्यावहारिक परिणाम निकालना भूल जाते हैं।

नौकरशाही और स्थायी फ़ौज बुर्जुवा समाज के शरीर पर "परजीवी" हैं, जो उस समाज को छिन्न-भिन्न करनेवाले आंतरिक विरोधों से पैदा हुआ है, लेकिन वह परजीवी ही है, जो तमाम प्राणदायी रोमकूपों को "बंद कर रहा है। इस विचार को कि राज्य परजीवी निकाय है, आजकल आधिकारिक सामाजिक-जनवादी क्षेत्रों में फैला हुआ काउत्स्कीवादी अवसरवाद अराजकतावाद की खास और निजी विशेषता समझता है। स्वाभाविक ही है कि मार्क्सवाद की यह विकृति उन कूपमंडूकों के लिए बहुत उपयोगी है , जिन्होंने साम्राज्यवादी युद्ध पर "पितृभूमि की रक्षा" की अवधारणा को लागू करके , उसे सजा-बनाकर न्यायोचित ठहराने की अपनी कोशिशों द्वारा समाजवाद को अश्रुतपूर्व हद तक लांछित कर दिया है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह विकृति ही है।

सामंतवाद के पतन के बाद से यूरोप में जितनी ढेर-सी बुर्जुआ क्रांतियां हुई हैं, उन सब के दौरान नौकरशाही और फ़ौज की मशीनरी का विकास , सुधार और सुदृढ़ीकरण जारी रहा है। उदाहरण के लिए , टुटपुंजिया वर्ग के ही लोगों को बड़े बुर्जुवा वर्ग के पक्ष में आकर्षित किया जाता है और इसी मशीनरी के ज़रिए बहुत हद तक उसके मातहत बनाया जाता है , जो किसानों के ऊपरी तबकों, छोटे कारीगरों, व्यापारियों और इसी तरह के दूसरे लोगों को अपेक्षाकृत अधिक आरामदेह , शांतिपूर्ण और इज्जत की नौकरियां मुहैया कर देती है, जो इन लोगों को साधारण जनता के ऊपर उठा देती हैं। यही देखिये कि २७ फ़रवरी, १९१७ के बाद के : महीनों में रूस में क्या हुआ20 : जो सरकारी नौकरियां पहले तरजीहन यमदूत सभाइयों 21 को दी जाती थीं, वे अब कैडेटों, मेंशेविकों और समाजवादी 

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क्रांतिकारियों की लुट की चीजें बन गयीं। कोई गंभीर सुधार लागू करने की बात वास्तव में किसी ने नहीं सोची है, हर तरह से कोशिश की जाती है कि उन्हें "संविधा सभा के बुलाये जाने तक" स्थगित कर दिया जाये और संविधा सभा के बुलाने को युद्ध के अंत तक धीरे-धीरे टाल दिया जाये ! लेकिन लूट की चीज़ों को बांटने के  संबंध में , मंत्रियों, मंत्रियों,  गवर्नर-जनरलों , दि के रामदेह पद हथियाने के संबं में किसी प्रकार का विलंब नहीं किया गया और संविधान सभा की कोई प्रतीक्षा नहीं की गयी ! सरकार बनाने में जोड़-तोड़ का जो नाटक खेला गया है. वह सारतः "लूट की चीज़ों" के उस बंटवारे और पुनःबंटवारे की ही अभिव्यक्ति थी, जो देश भर में, नीचे से ऊपर तक, केंद्रीय और स्थानीय प्रशासन के प्रत्येक विभाग में चलती रही है। २७ फ़रवरी से २७ अगस्त , १९१७ तक के छः महीनों का कुल परिणाम प्रत्यक्ष है : सुधारों को ताक़ पर रख दिया गया, सरकारी नौकरियों का बंटवारा पूरा कर लिया गया और लूट की चीज़ों के उस बंटवारे के संबंध में जो "ग़लतियां' हुई , उनको चंद दुबारा बंटवारों के जरिए सुधार लिया गया।

 

 लेकिन नौकरशाही की मशीनरी को विभिन्न बुर्जुग्रा और टुटपुंजिया पार्टियों के बीच ( रूस का उदाहरण लें , तो कैडेटों, समाजवादी-क्रांतिका रियों और मेंशेविकों के बीच) जितनी ही अधिक बार "फिर से बांटा जाता है", उतनी ही स्पष्टता के साथ उत्पीडित वर्ग और उसका नेतृत्व करनेवाला सर्वहारा वर्ग संपूर्ण बुर्जुआ समाज के प्रति अपनी अमिट शत्रुता की बात को समझने लगते हैं। यही कारण है कि तमाम बुर्जुआ पार्टियों के लिए - अधिक से अधिक जनवादी और "क्रांतिकारी-जनवादी" पार्टियों के लिए भी - वश्यक हो जाता है कि वे क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के खिलाफ़ दमन की कार्रवाइयों को तीव्र करें, दमन की मशीनरी, याने राज्य की मशीनरी को और मज़बूत बनायें। घटनाओं का यह चक्र क्रांति को मजबूर करता है कि वह राज्य-सत्ता के खिलाफ़ "विनाश की अपनी समग्र शक्ति" को सकाद्रत कर दे और राज्य की मशीनरी को सुधारने का नहीं, बल्कि उस तहस-नहस और खत्म करने का उद्देश्य रखे।

 समस्या को इस प्रकार प्रस्तुत करने की प्रेरणा तार्किक विवेचन से नहीं , बल्कि घटनाओं के वास्तविक विकास से , १८४८-१८५१ के सजीव 

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अनुभव से मिली। मार्क्स किस हद तक ऐतिहासिक अनुभव के ठोस आधार पर दृढ़ रहते थे , इस बात को इस तथ्य से देखा जा सकता है कि १८५२ में अभी उन्होंने इस प्रश्न को ठोस रूप में पेश नहीं किया था कि नष्ट की जानेवाली राजकीय मशीनरी का स्थान कौन-सी चीज़ लेगी। अनुभव ने तब तक ऐसे प्रश्न के लिए सामग्री नहीं प्रदान की थी ; इस प्रश्न को इतिहास ने बाद को, १८७१ में जाकर कार्यसूची में रखा। १८५२ में प्राकृतिक-ऐतिहासिक पर्यवेक्षण की अचूकता के साथ केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता था कि सर्वहारा क्रांति राज्य-सत्ता के ख़िलाफ़ "विनाश की अपनी समग्र शक्ति" को संकेंद्रित कर देने के कार्यभार, राज्य की मशीनरी को " चकनाचूर करने' के कार्यभार के निकट आयी है। 

यहां सवाल उठ सकता है : क्या यह उचित है कि मार्क्स के अनुभव , पर्यवेक्षणों और निष्कर्षों को एक आम नियम मानकर उन्हें एक ऐसे क्षेत्र में लागू किया जाये , जो १८४८ से १८५१ तक के तीन वर्षों के फ्रांसीसी इतिहास से कहीं अधिक विस्तृत है ? इस सवाल की छानबीन के लिए पहले एंगेल्स की एक उक्ति को याद करें और तब तथ्यों की ओर बढ़े। 

'अठारहवीं ब्रूमेर' के तीसरे संस्करण की अपनी भूमिका में एंगेल्स ने लिखा था

 " ... फ़्रांस वह देश है, जहां अन्य किसी भी देश से अधिक ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष हर बार अंतिम निर्णय तक लड़े गये हैं ; और जहां इसके फलस्वरूप बदलते हुए राजनीतिक रूप, जिन रूपों में ये संघर्ष चलते थे और जिनमें इन संघर्षों के परिणाम साररूप में प्रस्तुत होते थे , सुस्पष्ट आकार ग्रहण करते थे। मध्य युग में सामंतवाद के केंद्र , रेनासांस4 के बाद से सामाजिक श्रेणी व्यवस्था पर आश्रि , एकताबद्ध राजतंत्र के आदर्श देश फ्रांस ने महान क्रांति में सामंतवाद का सफाया कर दिया और बुर्जुमा वर्ग का अमिश्रित शासन स्थापित किया , जिसकी अपूर्व विशुद्धता का किसी भी अन्य यूरोपीय देश में जोड़ नहीं मिलता। और अपनी उन्नति के लिए सचेष्ट सर्वहारा का शासक बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध संघर्ष भी फ्रांस में इतने तीव्र रूप में प्रगट हुआ कि अन्यत्र उसकी मिसाल नहीं मिलती" ( पृ० , १९०७ का संस्करण )  

अंतिम उक्ति अब पुरानी पड़ गयी है, क्योंकि १८७१ के बाद से फ्रांसीसी सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी संघर्ष में ठहराव गया है, लेकिन 

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यह ठहराव चाहे जितना भी लंबा क्यों हो, उससे इस बात की संभावना नहीं मिटती कि आनेवाली सर्वहारा क्रांति में फ्रांस निर्णयकारी अंत तक पहुंचानेवाले वर्ग संघर्ष के क्लासिकीय देश के रूप में प्रकट हो सकता है।

 लेकिन पाइये, उन्नत देशों के उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ के इतिहास पर सरसरी नज़र डालें। हम देखेंगे कि अधिक धीरे-धीरे और अधिक भिन्न-भिन्न रूपों में , कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र में वही प्रक्रिया चालू रही : एक तरफ़ तो जैसे जनतांत्रिक देशों (फ्रांस , अमरीका , स्विट्ज़रलैंड), वैसे ही राजतंत्रों ( इंगलैंड, कुछ हद तक जर्मनी , इटली तथा स्कैंडिनेवियन देशों) में "संसदीय सत्ता" का विकास और दूसरी तरफ़ , बुर्जुया समाज की बुनियादों के अपरिवर्तित रहते हुए सरकारी पदों की "लूट की चीज़ों' का बार-बार बंटवारा करनेवाली विभिन्न बुर्जुआ और टुटपुंजिया पार्टियों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष, अंत में, "कार्यकारी सत्ता" की उसकी नौकरशाही और फ़ौजी मशीनरी की सर्वांगपूर्णता और सुदृढ़ता। 

 

इसमें कोई संदेह नहीं कि ये विशेषताएं पूंजीवादी राज्यों के संपूर्ण आधुनिक विकास में ग्राम हैं। १८४८ से १८५१ तक के तीन वर्षों में फ्रांस ने विकास की उन्हीं प्रक्रियाओं को त्वरित , तीव्र और संकेंद्रित रूप में प्रदर्शित किया था , जो संपूर्ण पूंजीवादी दुनिया की विशेषता हैं। 

 

खास तौर से साम्राज्यवाद ने , बैंक पूंजी के युग ने , विशाल पंजीवादी इजारेदारियों के युग ने , इजारेदार पूंजीवाद के राजकीय-इजारेदार पंजीवाद' में परिवर्तन के युग ने राजतांत्रिक देशों में और साथ ही स्वतंत्र से स्वतंत्र जनतांत्रि देशों में सर्वहारा वर्ग के ऊपर दमन की बढ़ती हुई कार्रवाई के संबंध में " राज्य की मशीनरी' की असाधारण बलवृद्धि और उसकी नौकरशाही और फ़ौजी मशीनरी की अभूतपूर्व वृद्धि प्रदर्शित की है। 

 

विश्व इतिहास अाज निस्संदेह सर्वहारा क्रांति की "समग्र शक्ति" राज्य की मशीनरी को "चकनाचूर करने" पर १८५२ की अपेक्षा अतुलनीय रूप से अधिक व्यापक पैमाने पर संकेंद्रित कर रहा है। 

उसके स्थान में सर्वहारा वर्ग किस चीज़ की स्थापना करेगा, इसका संकेत हमें पेरिस कम्यु द्वारा उपस्थित की गयी अत्यंत शिक्षाप्रद सामग्री में मिलता है। 

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. मार्क्स ने १८५२ में प्रश्न को किस

तरह पेश किया था*

१९०७ में मेहरिंग ने Neue Zeit नामक पत्रिका में28 (XXV , पृ० १६४) मार्क्स द्वारा मार्च, १८५२ को वेडे मेयर के नाम लिखे गये एक पव के कुछ अंश प्रकाशित किये थे। इस पत्र में अन्य तर्कों के अलावा गे का उल्लेखनीय तर्क भी शामिल है

"... जहां तक मेरा संबंध है, धुनिक समाज में वर्गों के अस्तित्व की खोज करने के श्रेय का मैं अधिकारी नहीं हू ही उनके संघर्ष की खोज करने का श्रेय मुझे मिलना चाहिए। मुझसे बहुत पहले ही बुर्जुआ इतिहासकार वर्गों के इस संघर्ष के ऐतिहासिक विकास का और बुर्जुआ अर्थशास्त्री वर्गों की र्थिक बनावट का वर्णन कर चुके थे। मैंने जो नयी चीज़ की, वह यह सिद्ध करना था कि : ) वर्गों का अस्तित्व उत्पादन के विकास के खास ऐतिहासिक दौरों के साथ बंधा हया है (historische Entwicklungsphasen der Produktion); ) वर्ग संघर्ष लाजिमी तौर से सर्वहारा के अधिनायकत्व की दिशा में ले जाता है; ) यह अधिनायकत्व स्वयं सभी वर्गों के उन्मूलन तथा वर्गहीन समाज की संक्रमण मात्र है …… . 127 

इन शब्दों में मार्क्स पहले तो बहुत स्पष्टता से अपने और बुर्जआ वर्ग के अग्रगामी और सबसे गंभीर विचारकों के सिद्धांतों के मुख्य और बुनियादी अंतर , और दूसरे, राज्य के संबंध में अपने सिद्धात का सार व्यक्त करने में सफल हुए थे।

अकसर कहा और लिखा जाता है कि मार्क्स की शिक्षा में मुख्य बात वर्ग संघर्ष है। लेकिन यह गलत है और इसी गलती का नतीजा बहुत अकसर ग्रह होता है कि मार्क्सवाद का वसरवादी विकृतीकरण किया जाता है और बुर्जुग्रा वर्ग के लिए मान्य भावना में उसके साथ जालसाजी की जाती है। इसलिए कि वर्ग संघर्ष के सिद्धात की सृष्टि मार्क्स ने नहीं, बल्कि मार्क्स से पहले बुर्जुया वर्ग ने की थी आम तौर से वह बुर्जु वर्ग को मान्य है। जो लोग केवल वर्ग संघर्ष को मानते हैं, वे अभी मार्क्सवादी नहीं हैं

* दूसरे संस्करण में जोड़ा गया। - सं० 

 

पेज ५१ 

वे संभवतः अभी बुर्जुआ चिंतन और बुर्जुआ राजनीति के दायरे में ही चक्कर काट रहे हैं। मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के सिद्धांत तक ही सीमित करने के मानी हैं मार्क्सवाद की काट-छांट करना , उसको तोड़ना-मरोड़ना , उसे एक ऐसी चीज़ बना देना , जो बुर्जुवा वर्ग को मान्य हो। मार्क्सवादी केवल वही है, जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की मान्यता तक ले जाता है। मार्क्सवादी और एक साधारण छोटे (और बड़े ) बुर्जुआ के बीच सबसे गंभीर अंतर यही है। यही वह कसौटी है , जिस पर मार्क्सवाद की वास्तविक समझ और मान्यता की परीक्षा की जानी चाहिए। और यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस प्रश्न को यूरोप के इतिहास ने जब व्यावहारिक रूप में मजदूर वर्ग के सामने रखा, तो केवल तमाम अवसरवादी और सुधारवादी, बल्कि तमाम "काउत्स्कीवादी" भी ( वे लोग, जो मार्क्सवाद और सुधारवाद के बीच ढुलमुल होते रहते हैं ) सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को अस्वीकार करनेवाले दयनीय कूपमंडूक और टुटपुंजिया जनवादी साबित हुए। काउत्स्की की पुस्तिका 'सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व', जो १९१८ के अगस्त में , याने प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम संस्करण के बहुत दिनों बाद प्रकाशित हुई थी, शब्दों में मार्क्सवाद को स्वीकार करने का ढोंग करते हुए व्यवहार में टुटपुंजिया ढंग से उसे तोड़ने-मरोड़ने और उसके साथ घृणित ग़द्दारी करने का एक उदाहरण है ( पेत्रोग्राद और मास्को से १९१८ में प्रकाशित मेरी पुस्तिका 'सर्वहारा क्रांति और ग़द्दार काउत्स्की' देखिये * )

 अपने प्रमुख प्रतिनिधि, भूतपूर्व मार्क्सवादी कार्ल काउत्स्की के रूप में वर्तमान अवसरवाद मार्क्स द्वारा वर्णित बुर्जुआ स्थिति की पूर्वोक्त चारित्रिकता से मेल खाता है, क्योंकि यह अवसरवाद वर्ग संघर्ष की स्वीकृति के क्षेत्र को बुर्जुआ संबंधों के क्षेत्र तक ही सीमित करता है। ( इस क्षेत्र के भीतर , उसके दायरे के भीतर वर्ग संघर्ष को "उसूली तौर से" मानने से एक भी शिक्षित उदारतावादी इनकार नहीं करेगा ! ) अवसरवाद वर्ग संघर्ष की स्वीकृति को उसके मुख्य बिंदु तक, पूंजीवाद से कम्युनिजम में संक्रमण के काल तक , बुर्जुग्रा वर्ग की तख्ता-उलटाई और उसके पूर्ण उन्मूलन के काल 

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* इस रचना को प्रस्तुत संस्करण के अाठवें खंड में देखें। - सं० 

पेज ५२ 

तक नहीं ले जाता। वास्तव में यह काल लाज़िमी तौर से वर्ग संघर्ष की अभूतपूर्व कठोरता, उसके रूपों की अपूर्व तीव्रता का काल होता है। इसलिए इस काल में राज्य को भी लाज़िमी तौर से नये ढंग का जनवादी ( सर्वहारा वर्ग और तौर से संपत्तिहीनों के लिए ) और नये ढंग का अधिनायकीय ( बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध ) राज्य होना चाहिए।

आगे चलें। राज्य के संबंध में मार्क्स की शिक्षा के सार को केवल उन्हीं लोगों ने आत्मसात किया, जिन्होंने समझा है कि एक वर्ग का अधिनायकत्व केवल आम तौर से प्रत्येक वर्ग समाज के लिए ज़रूरी है, केवल सर्वहारा वर्ग के लिए ज़रूरी है, जिसने बुर्जुआ  वर्ग का तख्ता उलट दिया, बल्कि उस पूरे ऐतिहासिक युग के लिए भी ज़रूरी है, जो पूंजीवाद और " वर्ग विहीन समाज", कम्युनिज्म के बीच पड़ता है। बुर्जुआ  राज्यों के रूप अनेक हैं, लेकिन उनका सार एक है: वे सभी राज्य, चाहे उनके रूप जैसे भी हों, अंतिम विश्लेषण में अनिवार्यतः बुर्जुग्रा वर्ग का अधिनायकत्व होते हैं। पूंजीवाद से कम्युनिज्म में संक्रमण निश्चित रूप से अनेक विभिन्न और बहुतेरे राजनीतिक रूपों की सृष्टि करेगा, लेकिन उनका सार अनिवार्य रूप से एक होगा: सर्वहारा वर्ग का

अधिनायकत्व। 

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