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Wednesday, 28 February 2024

In Distance, Relationships Are Tested


दूरियों में ही परखे जाते हैं रिश्ते

आंखों के सामने तो सभी वफादार होते हैं।

दूरियां ही बताती हैं,

कौन है आपके साथ,

और कौन है आपके पीठ पीछे छुरा घोंपने को तैयार।

दूरियां ही सिखाती हैं,

किसी को कैसे संभालना है,

और किसी को कैसे दूर रखना है।

दूरियां ही बताती हैं,

किसी का प्यार कितना सच्चा है,

और किसी का प्यार कितना झूठा है।

इसलिए, दूरियों से डरें नहीं,

बल्कि उनका सामना करें,

क्योंकि दूरियां ही आपको बताएंगी,

कौन है आपके जीवन में सबसे अनमोल।

Relationships are tested in distances

Everyone is loyal in front of the eyes.

Only distances tell,

Who is with you,

And who is ready to stab you in the back.

Only distances teach,

How to handle someone,

And how to keep someone away.

Only distances tell,

How true someone's love is,

And how false someone's love is.

Therefore, do not be afraid of distances,

But face them,

Because only distances will tell you,

Who is the most precious in your life.

2.

In Distance, Relationships Are Tested

In proximity, all are true, But in distance, relationships are tested anew.

When miles apart, love is put to the test, With time and space, it can be hard to invest.

But those who remain faithful, through thick and thin, Are the ones who truly deserve your love to win.

For distance can weaken even the strongest bond, But true love will overcome any obstacle beyond.

So if you are in a long-distance relationship, Don't give up, have faith and keep your expectations.

For in the end, if your love is real, Distance will only make it stronger and reveal.


Time

Time

Time is a precious thing, It's always slipping through our fingers. We must use it wisely, Or we'll regret it in the end.

Time waits for no one, It doesn't care about our plans or our dreams. It keeps moving forward, Whether we're ready or not.

So make the most of your time, Don't waste it on things that don't matter. Spend it with the people you love, And do the things that make you happy.

Because before you know it, Your time will be up.


समय

समय एक अनमोल चीज है, यह हमेशा हमारी उंगलियों से फिसलती रहती है। हमें इसका बुद्धिमानी से उपयोग करना चाहिए, या हम अंत में इसका पछतावा करेंगे।

समय किसी का इंतजार नहीं करता, यह हमारी योजनाओं या हमारे सपनों की परवाह नहीं करता है। यह आगे बढ़ता रहता है, चाहे हम तैयार हों या नहीं।

इसलिए अपने समय का सदुपयोग करें, इसे उन चीजों पर बर्बाद न करें जो मायने नहीं रखती हैं। इसे उन लोगों के साथ बिताएं जिन्हें आप प्यार करते हैं, और वे काम करें जो आपको खुश करते हैं।

क्योंकि इससे पहले कि आप संभले, आपका समय समाप्त हो जाएगा।


Wednesday, 14 February 2024

वे हाथ-जो.....



वे हाथ-जो, जो धरती को सहारा देते हैं, 
जो अनाज उगाते हैं, जो जीवन देते हैं।

वे हाथ-जो, जो हथौड़ा उठाते हैं, 
जो लोहा गलाते हैं, जो मकान बनाते हैं।

वे हाथ-जो, जो कलाकारी करते हैं, 
जो रंगों से खेलते हैं, जो जीवन को रंग देते हैं।

वे हाथ-जो, जो प्यार बांटते हैं, 
जो मदद करते हैं, जो दुखों को मिटाते हैं।

वे हाथ-जो, जो सच बोलते हैं, 
जो अन्याय के खिलाफ लड़ते हैं, जो क्रांति लाते हैं।

वे हाथ-जो, जो लगातार उग रहे हैं, 
बरस रहे हैं, जो अवतार से ले रहे हैं,

खेतों में, खलिहानों में, सड़कों पर, गलियों में।

वे हाथ-जो, जो दुनिया बदल रहे हैं, 
जो एक नया इतिहास लिख रहे हैं।

वे हाथ-जो, जो हमारे भविष्य हैं, 
जो हमें आशा देते हैं,

वे हाथ-जो, जो हमें प्रेरणा देते हैं, 
जो हमें जीवन जीने का तरीका सिखाते हैं।

वे हाथ-जो, जो हमें एक करते हैं, 
जो हमें प्यार करते हैं,

शोषण दमन के खिलाफ उठे हुए 
वे हर हाथ हमारे हैं, हम उनके हैं।

बाल गंगाधर तिलक की महानता के दीवाने क्यों नहीं थे डॉ. आंबेडकर By डॉ मुख्तयार सिंह



बाल गंगाधर तिलक (23 जुलाई 1856 – 1 अगस्त 1920 ) को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस के गरम दल का प्रमुख नेता माना जाता है. उनको लोकमान्य की उपाधि से नवाजा गया था. स्वराज और स्वाधीनता में अंतर होने के बावजूद, उनका नारा – 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' स्वतंत्रता आंदोलन का लोकप्रिय नारा बना.

तिलक के राजनीतिक विचारों के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है. इसलिए प्रस्तुत लेख में मेरी कोशिश उनके सामाजिक विचारों को सामने लाने की होगी और ये बताने की होगी कि जिस दौर में महादेव गोविंद रानाडे और गोपाल कृष्ण गोखले से लेकर ज्योतिबा फुले समाज सुधार के लिए काम कर रहे थे, उस समय तिलक किस तरह परंपरावादियों का नेतृत्व कर रहे थे. इस संदर्भ में ये भी देखा जाएगा कि डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने तिलक को लेकर लगातार आलोचनात्मक लेखन क्यों किया है.

इस पूरे विमर्श को कांग्रेस के अंदर दो धड़ों के संघर्ष के रूप में भी देखा जा सकता है. महिलाओं और जाति के प्रश्न पर कांग्रेस में दो धड़े थे- सुधारवादी और रूढ़िवादी. सुधारवादी धारा के चार मुख्य आधार थे – जातिभेद का उन्मूलन, बालिका विवाह का निषेध, विधवा विवाह का समर्थन और महिला शिक्षा. महादेव गोविन्द रानाडे, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, विष्णु हरि पंडित, और आगे चलकर जी. जी. अगरकर तथा गोपाल कृष्ण गोखले आदि इस पक्ष में थे. दूसरी ओर, विष्णुशास्त्री चिपलूणकर और तिलक रूढ़िवादी विचार का नेतृत्व कर रहे थे. रुढ़ीवादी खेमे ने आगे चलकर खुद को राष्ट्रवादी खेमे का नाम दे दिया.

महिलाओं की शिक्षा और तिलक

तिलक ने महिला शिक्षा का पूरी क्षमता के साथ विरोध किया. परिमाला वी. राव ने अपने शोधपत्र में मुख्य रूप से तिलक के अखबार मराठा के हवाले से बताया है कि विष्णुशास्त्री चिपलूणकर और तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस के कट्टरवादी धड़े ने 1881 से 1920 के बीच किस तरह बालिका विद्यालयों की स्थापना और हर समुदाय के लिए शिक्षा देने के प्रयासों का विरोध किया. इस धड़े के विरोध के कारण महाराष्ट् में 11 में से 9 नगरपालिकाओं में हर किसी के लिए शिक्षा देने के प्रस्ताव को हार का सामना करना पड़ा. इस धड़े ने राष्ट्रवादी शिक्षा की वकालत की, जिसमें धर्मशास्त्रों का अध्ययन और हुनर सिखाने पर जोर था.
तिलक के नेतृत्व में कट्टरवादी धड़े का तर्क था कि पेशवा के शासन के दौरान महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी थी. तिलक के ये विचार उनके अखबार मराठा के 15 मार्च 1885 के अंक में छपे हैं. महिला शिक्षा के विरोध में तिलक का तर्क था कि महिलाएं कमजोर होती हैं और संतति को आगे बढ़ाना उनका काम है, इसलिए उनको शिक्षित करने से उनको पीड़ा होगी क्योंकि आधुनिक शिक्षा को समझना उनकी शक्ति से बाहर है. उनकी ये बात मराठा अखबार के 31 अगस्त 1884 के अंक में छपी थी.

तिलक का कहना था कि यदि विशेष जरूरत हो, तो महिलाओं को गृह विज्ञान और सफाई कार्य जैसी शिक्षा दी जानी चाहिए. ऐसी महिलाएं ही आगे जाकर निपुण बन सकती है. उसके अनुसार महिलाएं इंग्लिश, गणित, विज्ञान जैसे कठोर विषय पढ़ने के लिए बिलकुल उपयुक्त नहीं है. उसने कहा कि हिन्दू समाज में पुरुष और महिला के कार्य अलग अलग हैं, इसलिए उनको अलग अलग शिक्षा दी जानी चाहिए.

गौर किया जाना चाहिए कि यह वही दौर था जब ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने 1848 में पहला बालिका विद्यालय खोला था. वहीं, राणाडे के नेतृत्व में कांग्रेस के उदारवादियों ने 1884 में पुणे में लड़कियों का हाई स्कूल खोला. गोखले ने भी तिलक के स्त्री शिक्षा संबंधी विचारों को सही नहीं माना और फर्गुसन कॉलेज में बालिकाओं को पढ़ाए जाने का समर्थन किया.

विवाह की आयु और तिलक के विचार

उस समय लड़कियों की शादी बहुत छोटी उम्र में कर दी जाती थी, जिससे उन्हें असहनीय यातना से गुजरना पड़ता था. पेशवा राज में ब्राह्मण परिवारों के लिए ये अनिवार्य था कि वे अपनी बच्चियों की शादी 9 साल से कम उम्र में ही कर दें. एक चर्चित मामले में, बच्ची फूलमणि की शादी 11 वर्ष की उम्र में कर दी गयी थी, उसके 35 वर्षीय पति ने उसके साथ जबरदस्ती सेक्स किया, जिससे उसकी मौत हो गयी. ऐसी अनेक घटनाएं थीं जिनमे छोटी बच्चियों के साथ सेक्स करने से वे अपाहिज तक हो गयीं.

समाज सुधारको की ओर से ऐसी मांग थी कि शादी और सहमति से सेक्स की उम्र को बढ़ाया जाए. इसलिए ब्रिटिश सरकार ने एक कानून Age of Consent Act 1891 बनाया जिसके अनुसार 12 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ, चाहे वह विवाहित है या अविवाहित, सेक्स करना बलात्कार की श्रेणी में आएगा. कांग्रेस के सुधारवादी लोग भी इस बिल के पक्ष में थे, किन्तु तिलक ने इस मामले में ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप का विरोध किया. उन्होंने कहा – 'हो सकता है कि इस सरकार का ये कानून सही हो और उपयोगी हो, फिर भी हम नहीं चाहते हैं कि सरकार हमारी सामाजिक परंपराओं और जीवन शैली में हस्तक्षेप करे.'

गैर-ब्राह्मणों के बारे में तिलक के विचार

तिलक वर्ण व्यवस्था में दृढ विश्वास रखते था. इसका मानना था कि ब्राह्मण जाति शुद्ध है तथा जाति व्यवस्था का बने रहना देश और समाज के लाभ में है. इसने कहा था कि जाति का ह्रास होने का अर्थ राष्ट्रीयता का ह्रास होना है. इसका मानना था कि जाति हिन्दू समाज का आधार है और जाति के नष्ट होने का अर्थ हिन्दू समाज का नष्ट होना है.

जब तिलक यह विचार दे रहा थे, उससे पहले महाराष्ट्र में ही ज्योतिबा फुले ने जाति के आधार असमानता का विरोध किया था. जब ज्योतिबा फुले ने अनिवार्य शिक्षा का कार्यक्रम चलाया तो इसका तिलक ने विरोध किया था. तिलक का मानना था कि प्रत्येक बच्चे को इतिहास, भूगोल, गणित पढ़ाये जाने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में इनका इस्तेमाल नहीं है. तिलक का कहना था कि कुनबी जाति के बच्चों को इतिहास, भूगोल या गणित की शिक्षा देने से उनका नुकसान होगा क्योंकि वे अपना जातीय हुनर भूल जाएंगे. उसने कहा कि कुनबी जाति के बच्चों को अपना परम्परागत किसान का पेशा करना चाहिए, और शिक्षा से दूर रहना चाहिए. जिस समय तिलक यह विचार दे रहा था, उसी समय ब्रिटिश सरकार स्कूल खोल रही थी, और उसमें सभी जाति के बच्चों को पढ़ने का अधिकार दे रही थी.

तिलक ने इसे ब्रिटिश सरकार की गंभीर गलती बताया. सार्वजिनक स्कूल में महार और मांग जाति के बच्चों को प्रवेश देने पर तिलक ने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि महार-मांग बच्चों के ब्राह्मणो बच्चों के साथ बैठने से हिन्दू धर्म सुरक्षित नहीं रह पायेगा.

तिलक के बारे में डॉ. आंबेडकर

तिलक उस समय कांग्रेस पार्टी में कार्य कर रहे थे. कांग्रेस के अंदर ही एक संगठन – सोशल कांफ्रेंस था जो समाज सुधार के लिए कार्य करता था. 1895 में जब कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था, कुछ लोगों ने कहा कि यदि कांग्रेस के अंदर सोशल कांफ्रेंस ने समाज सुधार का कार्य किया तो हम कांग्रेस के पंडाल को जला देंगे. ऐसे लोगों का वैचरिक नेतृत्व तिलक ने किया था. अंत में तय हुआ कि कांग्रेस समाज सुधार के किसी कार्यक्रम से कोई संबंध नहीं रखेगी, चाहे वह कितना भी जरूरी क्यों नहीं हो. इस प्रकार कांग्रेस केवल एक राजनीतिक प्लेटफार्म बन कर गयी, उसने समाज सुधार के कार्यक्रम बिलकुल बंद कर दिए.

इसका जिक्र डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपनी किताब कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया में विस्तार से किया है. अपनी एक और किताब राणाडे, गांधी और जिन्ना में वे लिखते हैं – 'बुद्धिजीवियों का एक समूह कट्टरवादी और अराजनैतिक और दूसरा समूह प्रगतिशील और राजनीति है. पहले समूह का नेतृत्व पहले चिपलूणकर और बाद में तिलक ने किया. इन दोनों ने राणाडे के लिए हर तरह की मुसीबत खड़ी की. इससे न सिर्फ समाज सुधार के कामों को नुकसान हुआ बल्कि अनुभव बताते हैं कि इस वजह से राजनीतिक सुधारों की भी सबसे अधिक हानि हुई.'

तिलक और राणाडे की तुलना करते हुए आंबेडकर ये भी लिखते हैं कि तिलक बेशक जेल में रहे, लेकिन राणाडे की लड़ाई ज्यादा मुश्किल थी. राजनीतिक लड़ाई लड़ने वाले को समाज सिर माथे पर बिठाता है, जबकि समाज सुधार के लिए लड़ने वाला अक्सर अकेला होता है और उसे तमाम तरह के अपमान झेलने पड़ते हैं.

तिलक की स्पष्ट मान्यता थी कि किसान और कारीगर जातियों को राजनीति में नहीं आना चाहिए. 1918 में जब इन जातियों ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग उठाई तो तिलक ने शोलापुर की एक सभा में कहा था कि 'तेली-तमोली-कुनबी विधानसभा में जाकर क्या करेंगे'. बाबा साहेब के मुताबिक तिलक के हिसाब से इन जातियों के लोगों का काम कानून का पालन करना है और उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं होना चाहिए.

कुल मिलाकर देखा जाए तो तिलक के सामाजिक विचारों को वर्तमान भारत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. इसका ये भी मतलब है कि सबसे महान मान लिए व्यक्ति को भी समग्रता में ही देखा जाना चाहिए और उन्हें जरूरी हो तो उन्हें संपूर्णता में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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Deepali Tayday की पोस्ट यहाँ प्रीति कुसुम की wall से-

"हमें प्रकृति और सामाजिक नीतियों के मुताबिक चलना चाहिए। पीढ़ियों से घर की चारदीवारी महिलाओं के काम का मुख्य केंद्र रहा है। उनके लिए अपना  बेहतर प्रदर्शन करने हेतु यह दायरा पर्याप्त है। एक हिंदू लड़की को निश्चित रूप से एक बेहतरीन बहू के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। हिंदू औरत की सामाजिक उपयोगिता उसकी  सिंपैथी और परंपरागत साहित्य को ग्रहण करने को लेकर है। लड़कियों को हाइजीन, डोमेस्टिक इकोनॉमी, चाइल्ड नर्सिंग, कुकिंग, सिलाई आदि की बेहतरीन जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।"(बाल गंगाधर तिलक, 20 फरवरी 1916, मराठा अखबार)

यह पंक्तियां किसी अनाम व्यक्ति कि नहीं बल्कि भारत में लोकमान्य के रूप में स्वीकार किए जाने वाले बाल गंगाधर तिलक की है। स्त्रीद्वेषी विचारों के बाद भी चितपावन ब्राह्मण होने का लाभ हमेशा से तिलक को मिला है इसलिए वे भारत में लोकमान्य के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।
हिंदुत्ववादी फायरब्रांड नेता कहे जाने वाले तिलक ने 1885 में लड़कियों के लिए पहला हाई स्कूल खोले जाने के रमाबाई के प्रयासों का घनघोर विरोध किया था। इस प्रयास में असफल होने पर उन्होंने लड़कियों के 11:00 बजे से 5:00 बजे तक घर के बाहर रहने का भी विरोध किया और उन्हें घर के कामकाज सिखाने के लिए तीव्र अभियान चलाया। इन्होंने लगातार अपने अखबारों के लेखों में लिखा की कोई भी अपनी लड़की को इतने समय तक घर से बाहर नहीं रहने दे ताकि वे स्कूल नहीं जा सके। उनका कहना था कि पढ़-लिखकर लड़कियां रमाबाई की तरह हो जाएंगी जो अपने पति का विरोध करके समाज और संस्कृति को खराब करेंगी। 
तिलक ने लड़कियों की शिक्षा का पाठ्यक्रम बदलकर उन्हें केवल पुराण, धर्म और घरेलू काम जैसे बच्चों की देखभाल, खाना बनाना आदि की शिक्षा प्राप्त करने तक ही सीमित रखने की वकालत की। उनका मानना था कि लड़कियों को शिक्षा देना करदाताओं के धन की बर्बादी है |
महिलाओं के संदर्भ में तिलक के विचार मनु के विचारों से किसी भी रुप में अलग न होकर उसका ही विस्तार और अभिव्यक्ति है। हिंदू धर्म में स्त्री शिक्षा एवं स्वतंत्रता के प्रश्न को सदैव ही नकारा गया है| यदि शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले ,सावित्रीबाई फुले, बाबासाहेब अंबेडकर जैसे महान बहुजन नायक नहीं होते तो स्त्री शिक्षा और उनके अधिकारों की शुरुआत कभी होती ही नहीं|
# आखिर क्यों तिलक महान है?
# क्यों बहुजन नायक सामाजिक न्याय और सुधार के मील के पत्थर के रूप में होते हुए भी नकारे जाते हैं?
# स्त्री शिक्षा फेमिनिज़्म का हिस्सा नहीं है क्या?

भारत के दलक फेमिनिज्म में यह सवाल कहीं नहीं मिलेंगे…………...

Deepali Tayday

बिहार विधानसभा में फ्लोर टेस्ट: आशा की एक किरण या बुर्जुआ लोकतंत्र में एक और नाटक?



फ्लोर टेस्ट की नौबत आते ही बिहार की कड़ाही में सियासी पारा चढ़ गया।  सोशल मीडिया पर अफवाहें नाचने लगीं और समाचार चैनल युद्ध का मैदान बन गए। हवा तनाव से फट रही थी, इतनी घनी कि दम घुट जाए।

चाय की दुकानों में फुसफुसाहट, उन्मत्त कॉल, और मंद रोशनी वाले पीछे के कमरों में चुपचाप बैठकें - शहर बिहार फ्लोर टेस्ट की चपेट में था, एक राजनीतिक नाटक जहां अफवाहें रिक्शा से भी तेज चलती थीं।

जैसे-जैसे शक्ति परीक्षण का भव्य नजारा नजदीक आया,  फुसफुसाहटें कानों को चकनाचूर कर देने वाली दहाड़ में बदल गए, अफवाहों ने सोशल मीडिया पर एक जंगली कार्निवल शुरू कर दिया, और समाचार चैनल ख़ुशी से आभासी युद्ध के मैदान में बदल गए।  हवा, एक राजनेता के वादों से भी अधिक मोटी, तनाव से फटी हुई, किसी भी बदकिस्मत व्यक्ति के लिए इसमें सांस लेने के लिए एक दम घुटने वाला अनुभव प्रदान करती थी।

 निर्विकार चेहरे वाले रहस्यमय पलटूदास नीतीश कुमार, अपने भारी किलेबंद कक्ष में बैठे हुए थे और उनका फोन क्रोधित मधुमक्खी के छत्ते की तरह गूंज रहा था।   

भाजपा खेमे में चिंताएं अहंकार के कारण छिपी हुई थीं। "हमारे पास संख्याएं हैं," एक भगवाधारी मंत्री ने कहा, पत्रकारों की जांच के दौरान उनकी आवाज टूट रही थी। फिर भी, विपक्ष द्वारा अवैध शिकार के प्रयासों की सुगबुगाहट ने उनकी रीढ़ में सिहरन पैदा कर दी। पार्टी के सचेतक एकजुट होकर गिनती और पुनर्गणना कर रहे थे, रणनीति बना रहे थे कि अपने झुंड को भटकने से कैसे बचाया जाए।

पूरे गलियारे में राजद खेमा एक अलग तरह की चिंता से गूंज उठा। नीतीश की वापसी का उत्साह एनडीए के मजबूत संख्या खेल के कारण फीका पड़ गया था। छोटी पार्टियों के साथ "रिवर्स हॉर्स-ट्रेडिंग" और "गुप्त सौदे" की कानाफूसी ने उनके आत्मविश्वास को कुंद कर दिया। तेजस्वी यादव ने  बैठकें कीं, उनकी आँखें हर वोट, हर दलबदल की गणना करने वाली स्प्रेडशीट पर टिकी रहीं। डेटा से लैस उनके रणनीतिकारों ने नीतीश को "विश्वासघाती" और एनडीए को "डूबते जहाज" के रूप में चित्रित करते हुए, भाजपा की कहानी का मुकाबला किया।

 हर राजनीतिक दल एक घिरे हुए किले की तरह खड़ा था।  भाजपा विधायकों को रिसॉर्ट में भेज दिया गया, उनके फोन जब्त कर लिए गए, वादों और धमकियों के मिश्रण के साथ उनकी वफादारी की जांच की गई।  राजद ने, मात न खाने के लिए, भाजपा नेताओं के बीच असंतोष के बीज बोने, सुरक्षित आश्रय और नियति को फिर से लिखने का मौका देने के लिए अपने "कार्यकर्ताओं" को तैनात कर दिया।

 सोशल मीडिया पर मीम्स और हैशटैग पसंदीदा हथियार बन गए।  प्रत्येक पक्ष ने दूसरे को खलनायक, नायक या बीच में कुछ संदिग्ध के रूप में चित्रित किया।  समाचार चैनलों ने रेटिंग की निरंतर खोज में अपना एक दिलचस्प खेल खेला।  खिड़कियों को तेज़ करने में सक्षम आवाज़ वाले एंकर कथाएँ सुनाते हैं, पक्षपाती अतिथि आपस में भिड़ते हैं, और सत्य को बहरे शोर में दुखद निधन का सामना करना पड़ता है।

 बुर्जुवा पार्टियों के इस पागलपन के बीच आम बिहारवासी सांस रोककर देखते रहे.  किसान अपनी सिंचाई परियोजनाओं को लेकर चिंतित थे, छात्र छात्रवृत्ति को लेकर परेशान थे और बेरोजगार अपने भविष्य को ले कर चिंतित थे।  शक्ति परीक्षण केवल राजनीतिक शक्ति के बारे में था, बुर्जुवा के हित मे राज्य चलाने का सबसे बेहतर प्रबंधक होने के दावे के बारे में था;  यह उनके जीवन, उनके भविष्य और उनकी नाजुक आशाओं के बारे में कत्तई नही था।

इस बीच, सुर्ख़ियों का भूखा मीडिया, बाज़ार का सबसे ज़ोरदार प्रचारक बन गया। हर अफवाह, हर सुनी हुई बातचीत को एक सनसनीखेज समाचार में बदल दिया गया। एंकरों ने भौंहें सिकोड़कर और नाटकीय घोषणाओं के साथ घोषणा की कि उन्हें "अंदर की कहानी" पता है कि कौन खरीद रहा था और कौन बेच रहा था। अटकलों के इस बवंडर में फंसी जनता चकरा गई और भ्रमित हो गई, हर गुजरते घंटे के साथ राजनीतिक प्रक्रिया पर उनका भरोसा कम होता गया।

 जैसे ही परीक्षण का दुर्भाग्यपूर्ण दिन आया, तनाव घने कोहरे की तरह हवा में फैल गया।  सुरक्षा बलों ने विधानसभा की सुरक्षा की, कैमरे टिमटिमा रहे थे, और पत्रकार प्रमुख पदों के लिए अराजक धक्का-मुक्की में लगे हुए थे।  अंदर, हवा प्रत्याशा से गूंज रही थी, क्योंकि प्रत्येक वोट लाखों लोगों का भार वहन करता था, और प्रत्येक दलबदल राजनीतिक परिदृश्य में झटके भेजता था।

 भाषण उग्र थे, आरोप ज़हरीले।  मुख्यमंत्री ने, एक अनुभवी कलाकार की कुशलता के साथ, अपने निर्णयों का बचाव किया, उनके शब्दों में परोक्ष धमकियाँ और वादे झलक रहे थे।  विपक्षी नेता ने बुद्धि और व्यंग्य के तीखे मिश्रण के साथ, कथित विश्वासघातों और छिपे हुए एजेंडे को उजागर किया।
 फिर हिसाब-किताब का क्षण आया।  अध्यक्ष ने, राजनीतिक ओपेरा से तनावग्रस्त अपनी आवाज़ में, वोट के लिए बुलाया। लेकिन इसके पहले ही महा गठबंधन के विधायक उठ खड़े हुए, और सदन से बाहर चले गए।  संख्याएं गिनी गईं, दोबारा गिनाई गईं, 130 वोटों के साथ प्रस्ताव पास हो गया था। फ्लोर टेस्ट पास हो गया, सरकार बच गई।

भाजपा ने राहत की सांस ली लेकिन सतर्क होकर अपनी जीत का जश्न मनाया। राजद ने अपने घावों को चाटते हुए आगे लड़ने की कसम खाई। मीडिया, जो अगले नाटक की ओर बढ़ने के लिए उत्सुक था, ने बिहार में फ्लोर टेस्ट को ले कर होने वाले नाटक को  समाप्त घोषित कर दिया। लेकिन इस बीच महा गठबंधन में शामिल वाम दल एक पीछलग्गु की भूमिका में रहा, पूरे खेल में उसकी कोई स्वतंत्र भूमिका नही दिखी।

लेकिन जैसे-जैसे धूल जमी, एक सवाल बना रहा: फुसफुसाहट की इस लड़ाई में वास्तव में कौन जीता? उत्तर, शायद, स्क्रीन पर प्रदर्शित संख्याओं में नहीं, बल्कि जनता के विश्वास में कमी और उससे पैदा हुई गहरी शंका में है। बिहार में शक्ति परीक्षण ने एक स्पष्ट अनुस्मारक के रूप में कार्य किया कि राजनीति के खेल में, सच्चाई अक्सर पहले हताहत होती है, और असली हारने वाले खिलाड़ी नहीं होते हैं, बल्कि वे लोग होते हैं जिनका वे प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं।

सतही तौर पर फ्लोर टेस्ट लोकतांत्रिक सिद्धांतों की जीत प्रतीत होता है। लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली सभा ने सरकार के भाग्य का फैसला करने में अंतिम मध्यस्थ के रूप में कार्य किया। विश्वास मत हासिल करने का नीतीश कुमार का निर्णय, सिद्धांत रूप में, वैधता और जवाबदेही की आवश्यकता की स्वीकृति थी। 

हालाँकि, करीब से देखने पर इस "बुर्जुआ" लोकतंत्र की सीमाएँ और विरोधाभास सामने आते हैं। सबसे पहले, फ्लोर टेस्ट ने मुख्य रूप से राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की सेवा की। गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक असमानता जैसे गंभीर मुद्दों को संबोधित करने के बजाय सत्ता समीकरणों और राजनीतिक चालबाजी पर ध्यान केंद्रित रहा । 

फ्लोर टेस्ट से पहले बदलते गठबंधनों और खरीद-फरोख्त के शोर ने धन और बाहुबल के प्रति सिस्टम की कमजोरी को उजागर कर दिया। विधायकों का दलबदल, अक्सर वादों या धमकियों से प्रभावित होकर, निर्वाचित प्रतिनिधियों की वास्तविक स्वायत्तता और शक्तिशाली व्यक्तियों या समूहों द्वारा हेरफेर की संभावना पर सवाल उठाता है।

इसलिए, जबकि बिहार में फ्लोर टेस्ट को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए एक क्षणिक जीत के रूप में देखा जा सकता है, यह उन प्रणालीगत खामियों की याद दिलाने के रूप में भी काम करता है जो भारतीय लोकतंत्र को परेशान कर रही हैं। यह हमें सत्ता संरचनाओं, निहित पूंजीवादी स्वार्थों और अंतर्निहित सीमाओं की आलोचनात्मक जांच करने के लिए मजबूर करता है जो अक्सर इसे लोगों की इच्छा का सही मायने में प्रतिनिधित्व करने और सार्थक परिवर्तन लाने से रोकते हैं।

 अधिक न्यायपूर्ण और न्यायसंगत लोकतंत्र की लड़ाई के लिए न केवल औपचारिक प्रक्रियाओं का पालन करना आवश्यक है, बल्कि असमानता और अशक्तीकरण को कायम रखने वाली अंतर्निहित पूंजीवादी संरचनाओं को भी नष्ट करना होगा। तभी विधानसभा का मंच आम लोगों की आवाज़ों और आकांक्षाओं के लिए एक सच्चा मंच बन सकता है, न कि केवल पूंजीवादी  वर्ग के राजनीतिक खेलों का मंच।

इस वैलेंटाइन


चॉकलेट, लाल गुलाब और लेस को भूल जाइए, 
इस वैलेंटाइन, आइए एक अलग जगह को प्रज्वलित करें। 
भूल जाइए  हीरे, फुसफुसाती मीठी बातों को, 
आइए अपनी आवाज उठाएं, बदलाव के गीत गाएं।


क्रांति मोमबत्ती की रोशनी से भी अधिक तेज जलती है, 
क्योकि न्याय  के लिये संघर्ष सबसे सच्चा, कामोत्तेजक होता है। 
हाथ में हाथ डालकर, हम सड़कों पर मार्च करेंगे, 
प्यार के अंगारे हमारे पैरों के नीचे आग भड़का रहे हैं।


कोई भी मखमली बक्सा उस खजाने को नहीं रखता जिसकी हम तलाश करते हैं, 
समानता का वादा, जिस भविष्य की हम बात करते हैं। 
बैनरों के नीचे चुंबन, आदर्श को चुनौती देना, प्रेम की क्रांति, हर तूफ़ान का सामना करना।


सॉनेट्स, पुरानी कविताओं को भूल जाओ, 
आइए अपनी कहानी लिखें, बहादुर और निर्भीक। 
हर विरोध के साथ, एक प्रेम गीत उड़ान भरेंगे,
न्याय के लिए लड़ता हुआ, प्रेम की उज्ज्वल रोशनी में नहाया हुआ।


तो इस वैलेंटाइन, आइए इस रूढ़ि को तोड़ें, 
प्रेम की नई कहानी फुसफुसाय, क्रांति की भविष्यवाणी करें। 
क्योंकि एक निष्पक्ष और सच्ची दुनिया की लड़ाई में, 
प्यार का सच्चा सार नए सिरे से अपना अर्थ ढूंढता है।

*#किसानआंदोलन #जोरम*

*#किसानआंदोलन #जोरम*

"जोरम" नाम से मनोज वाजपेई अभिनीत फिल्म आई है।

कल जब नेट बंद था तो मोबाइल में डाउनलोड की हुई "जोरम" देखने लगा, ये महसूस करते हुए की सड़को पर पंजाब के किसान सरकार से लोहा ले रहे है।

झारखंड, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर सरकारों ने कितना जुल्म किया है। हजारों सालों से जंगलों में अपने परिवार, रीति रिवाजों के साथ सुखम्य जिंदगी जी रहे आदिवासियों को इसलिए जंगलों से खदेड़ा दिया गया की इन जंगलों की धरती में कोयला था।। जिसे सरकारों ने पूंजीपतियों को दे दिया और उनके लिए जंगल खाली करवाने थे।।

जंगलों को जब खोदा जाता है तो इस आदिवासी ही नही मारे जाते, हजारों पेड़, नदियां, पंक्षी, जानवर भी मारे जाते है।

प्रकृति को मारना ईश्वर को ही मारना है,, भगवान पत्थरों के मकान में रखी मूर्ति का नही प्रकृति का ही नाम है जो जीवन चलाती है।

जब आदिवासियों को खदेड़ा गया तो बहुत सारे आदिवासी जिन्होंने कभी शहर भी नही देखे थे वे मुबई आकर मजदूरी करने लगे धारावी जैसे सल्म एरिया में कीड़े मकोड़ों की तरह सड़ने लगे, आप सोचिए जिन्होंने जंगल की खुली आबोहवा में जीवन जिया ही उनके लिए धारावी किसी नरक से कम नहीं होगी।

जो आदिवासी जंगल छोड़ने को तैयार नहीं थे उनके परिवारों को सुरक्षा बलो ने गोलियों से भून दिया,, जिन्होंने प्रतिशोद में बंदूके उठा ली उन्हे माओवादी घोषित कर दिया गया और ढूंढ ढूंढ कर, एक एक का एनकाउंटर कर जंगल आदिवासी मुक्त कर दिया।

दिल्ली किसान आंदोलन में शामिल किसान आदिवासी नही है इसलिए डटकर खड़े है सरकारों से लोहा ले रहे है, अगर आदिवासी होते तो अब तक मार दिए गए होते और देश को खबर भी नहीं लगती।।

जो किसान मोदी के भक्त बने बैठे है उन्हे "जोरम" देखनी चाहिए,,
जब किसी किसान, आदिवासी से उसकी जमीन छीनने की साजिश रची जाए तो वो कितना भयानक होता है।

अहिंसक आंदोलन तभी तक लड़े जाते है जब तक सरकार दमन की सीमाएं न लांघे,, बंदूक की नोक पर जीवन, रोजी छीनने का प्रयास जब होता है तो किसान माओवादी ही बनते है। वो मौत से पहले स्वाभिमान बचाने की अंतिम लड़ाई होती ही।

*कॉ पृथ्वीराज बुडानिया*

डार्विनवाद और अवतारवादी मायाजाल ++++++++++++++++++++

डार्विनवाद और अवतारवादी मायाजाल
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चार्ल्स डार्विन का आज जन्मदिन है. 

डार्विन ने इंसानियत को एक वैज्ञानिक समझ देने की दिशा में जो योगदान दिया है वह अद्वितीय है. 

डार्विन ने जिस तरह से दर्शन और धर्म दर्शन को एक करारा धक्का दिया उससे यूरोप में एक नया युग शुरू हुआ. ऐसे अन्य वैज्ञानिक या विचारक बहुत ही कम हैं जिनकी तुलना डार्विन से की जा सके. न्यूटन, गेलिलियो, रदरफोर्ड या आइन्स्टीन जैसे वैज्ञानिकों ने जिस तरह से मनुष्यता को प्रभावित किया है उनकी तुलना में भी डार्विन का योगदान मौलिक रूप से भिन्न और गहरा है. 

भौतिकी, गणित, खगोल, रसायन, चिकित्सा या भेषज इत्यादि में जो भी नयी प्रस्तावनाएँ आयीं उनसे तकनीक को पैदा करने में बहुत मदद मिली है. लेकिन डार्विन की खोज ने जीव विज्ञान में जिस गुत्थी को सुलझाया है उससे दर्शन और धर्म दर्शन को बड़ा धक्का लगा है और उसी के परिणाम में एक नया वैचारिक युग शुरू हुआ है. 

मार्क्स और एंगेल्स अपनी स्थापनाओं के लिए जिस वैज्ञानिक प्रष्ठभूमि और प्रमाण को खोज रहे थे वह डार्विन ने उन्हें उपलब्ध करा दी. 

मार्क्स और मार्क्सवादियों ने डार्विन की खोज को बहुत मूल्य दिया है और एक ठोस जीव वैज्ञानिक खोज को दर्शन और विश्वव्यवस्था बदलने के लिए इस्तेमाल किया है. 

यूरोप में डार्विनवाद ने बहुत कुछ बदल दिया और फिर यूरोप ने एशिया को बदला. इस तरह एशिया और शेष गैर यूरोपीय जगत ने उपनिवेशों के रूप में डार्विन को समझना शुरू किया. 

दक्षिण एशिया में भी डार्विन का विरोध हुआ और डिवाइन क्रियेशन ( जगत की रचना ईश्वर ने की) की थ्योरी पर आधारित धर्मसत्ता और राजसत्ता ने इसका खूब विरोध किया.

लेकिन बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि सनातनी वेदान्तिक बाबाओं ने डार्विन को भी चबाकर निगलने की भरसक कोशिश की है. 

न केवल बुद्ध या कबीर का यहाँ ब्राह्मणीकरण हुआ है, बल्कि डार्विन के सिद्धांत को भी वेद वेदान्त और पुराणों में दिखाने का प्रयास हुआ है. 

आजादी के पहले भारत में नियो वेदान्त और नियो हिन्दुइज्म के जनक स्वामी विवेकानन्द और थियोसोफिकल सोसाइटी ने भारतीय पुराणों में बतलाये गये अवतार और अवतारों के क्रम को डार्विन के क्रम विकास (एवोल्यूशन) की भारतीय खोज की तरह प्रचारित किया. 

उन्होंने यह प्रचारित किया कि मत्स्यावतार से लेकर कल्कि अवतार तक की भारतीय पौराणिक मान्यता, असल में डार्विन के क्रमविकास की तरह का कोई प्राचीन भारतीय सिद्धांत है. 

इस बात को एक अन्य भारतीय नियो वेदान्तिक बाबा – अरबिंदो घोष ने दोहराया. 

बाद में एक अन्य वेदांती ओशो रजनीश ने भी इसी बात को कई जगह दोहराया है और आजकल जग्गी वासुदेव भी इसी भाषा में अवतारवाद को डार्विनवाद से प्राचीन और एवोल्यूशन की भारतीय थ्योरी के रूप में दिखाने का प्रयास करते हैं. 

इस प्रचार को गंभीरता से नहीं लिया गया है. 

यह आश्चर्यजनक बात है. पूरे यूरोप को हिलाकर रख देने वाले डार्विनवाद को भारतीय वेदान्तिक अवतारवाद ने जिस तरह से निगलने का प्रयास किया है, वह कोई छोटी मोटी बात नहीं है. 

इस केस स्टडी को कभी उसके तार्किक विस्तार में सामने नहीं लाया गया. 

अरबिंदो घोष ने फ्रेडरिक नीत्शे की "विल टू पावर", "सुपरमेन" और डार्विन के "एवोल्यूशन" की खिचड़ी बनाकर जिस "अतिमानस" का सिद्धांत दिया वह हालाँकि ज्यादा टिक न सका, लेकिन वेदान्तिक पाखण्ड किस तरह ज्ञान की राजनीति को राजनीति के ज्ञान से चलाता है- इसकी यह बहुत अच्छी केस स्टडी तैयार कर दी. 

आज भी अरबिंदो घोष के अतिमानस को नजदीक से देखें तो उसमे नीत्शे और डार्विन साफ़ नजर आते हैं. 

लेकिन विवेकानन्द, थियोसोफी, अरबिंदो, ओशो या जग्गी वासुदेव जिस तरह डार्विनवाद को अवतारवाद में प्रक्षेपित करते हैं उसका गहरा अर्थ समझा जाना चाहिए. 

गौतम बुद्ध और कबीर की क्रान्ति को जैसे उन्हें अवतारवाद और ब्राह्मणवाद में दबाकर खत्म किया गया उसी तरह का खेल डार्विन के साथ भी खेला गया है.

 हालाँकि यह बात अलग है कि भारत सहित शेष दक्षिण एशिया इतना आलसी और अनपढ़ निकला कि उस पर डार्विन का वैसा असर नहीं हुआ, जैसा यूरोप में हुआ. 

एक अन्य कारण उपनिवेशी दासता की भी है. 

खैर, इस सबके बावजूद नियो वेदान्त या नियो हिन्दुइज्म ने डार्विन के क्रमविकासवाद को अवतारवाद में प्रक्षेपित करने का अपना इन्तेजाम कर लिया था ताकि भारत में डार्विनवाद और मार्क्सवाद की आग को घुसने से रोका जा सके. 

लेकिन क्या हम इस बात को दुबारा सामने लाकर भारत की सनातन वेदान्तिक षड्यंत्र बुद्धि को बेनकाब कर सकते हैं? 

डार्विन ही नहीं आइन्स्टीन की सापेक्षिकता और नील्स बोर के क्वांटम फिजिक्स को भी आजकल वेद वेदान्त में दिखाया जा रहा है. 

ब्लेक होल, बिग बैंग और क्वांटम इंटेगल्मेंट सहित टेलीपोर्टेशन को भी रहस्यवाद में जाने किन किन व्याख्याओं में घुमा फिराकर घुसेड़ा जा रहा है. 

एक अन्य वेदांती बाबा दीपक चोपड़ा तो खुले आम क्वांटम हीलिंग करते ही हैं और इसके लिए रिचर्ड डाकिंस ने उनकी खूब खिंचाई भी की है लेकिन फिर भी यह सब बंद नहीं होता. 

यह सब जानना क्यों जरुरी है? 

इसलिए कि इस सबसे हम यह जान सकेंगे कि भारत असल में वेदान्तिक षड्यंत्रों में इतनी बुरी तरह से फंसाया गया है कि दुनिया का कोई भी विचार हो, कितनी भी क्रांतिकारी प्रस्तावना क्यों न हो, उसे भारतीय बाबा किसी न किसी तरह बर्बाद करना जान गये हैं. 

इसलिए बहुत गौर से देखा जाए तो भारत की गहनतम समस्या वेदान्त ही है. 

अवतारवाद और आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म के अन्य अंधविश्वास इसी जहरीले क़ुवें से निकलते हैं.

डार्विनवाद को अवतारवाद द्वारा निगलने की इस असफल योजना को चर्चा में लाना जरुरी है. 

कम से कम इस देश के शोषितों/निर्बल तबके  को इसपर ध्यान देना चाहिए ताकि वे यूरोपीय पुनर्जागरण के प्रकाश को भारत तक न पहुँचने देने के वेदान्तिक षड्यंत्रों को समझ सकें.

Courtesy: 
DrSanjay Jothe

Saturday, 10 February 2024

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के जन्मदिन (10 फरवरी) के अवसर पर

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के जन्मदिन (10 फरवरी) के अवसर पर 

लेखन के ज़रिये लड़ो! दिखाओ कि तुम लड़ रहे हो! ऊर्जस्‍वी यथार्थवाद! यथार्थ तुम्‍हारे पक्ष में है, तुम भी यथार्थ के पक्ष में खड़े हो! जीवन को बोलने दो! इसकी अवहेलना मत करो! यह जानो कि बुर्जुआ वर्ग इसे बोलने नहीं देता! लेकिन तुम्‍हे इजाज़त है। तुम्‍हे इसे बोलने देना चाहिये। चुनो उन जगहों को जहां यथार्थ को झूठ से, ताकत से,चमक-दमक से छुपाया जा रहा है। अन्‍तरविरोधों को उभारो!... अपने वर्ग के लक्ष्‍य को, जो सारी मानवता का लक्ष्‍य है, आगे बढ़ाने के लिये सबकुछ करो, लेकिन किसी भी चीज़ को सिर्फ इसलिये मत छोड़ दो, क्‍योंकि वह तुम्‍हारे निष्‍कर्षों, प्रस्‍तावों और आशाओं के साथ मेल नहीं खाती बल्कि ऐसे निष्‍कर्ष को छोड़ ही दो, बशर्ते सच्‍चाई आड़े न आये, लेकिन ऐसा करते हुए भी इस बात पर ज़ोर दो, कि उस भयंकर लग रही कठिनाई पर जीत हासिल कर ली गयी है। तुम अकेले नहीं लड़ रहे हो, तुम्‍हारा पाठक भी लड़ेगा, यदि तुम उसमें लड़ाई के लिए उत्‍साह भरोगे। तुम अकेले ही समाधान नहीं ढूँढ़ोगे, वह भी उसे ढूॅंढ़ेगा।

-बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट