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Friday, 5 May 2023

मार्क्स को नमन नहीं , मनन करें !


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"अज्ञान एक राक्षसी शक्ति है और हमें डर है कि यह कई त्रासदियों का कारण बनेगा ।"

                              --- कार्ल मार्क्स

कुछ और ज़रूरी उद्धरण
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" यह भौतिकवादी सिद्धांत कि मनुष्य परिस्थितियों एवं शिक्षा-दीक्षा की उपज है , और इसलिए परिवर्तित मनुष्य भिन्न परिस्थियों एवं भिन्न शिक्षा-दीक्षा की उपज है इस बात को भुला देता है कि परिस्थितियों को मनुष्य ही बदलते हैं और शिक्षक को स्वयं शिक्षा की आवश्यकता होती है।....... परिस्थितियों एवं मानव क्रियाकलाप के परिवर्तन का संपात केवल क्रांतिकारी व्यवहार के रूप में विचार तथा तर्कबुद्धि द्वारा समझा जा सकता है ।"

       ------ कार्ल मार्क्स ( फायरबाख पर निबंध )
" सामाजिक जीवन मूलतः व्यवहारिक है । सारे रहस्य जो सिद्धांत को रहस्यवाद के गलत रास्ते पर भटका देते हैं , मानव व्यवहार में और इस व्यवहार के संज्ञान में अपना बुद्धिसम्मत समाधान पाते हैं  ।"        
                     ---- मार्क्स ( फायरबाख पर निबंध )

" दार्शनिकों ने विभिन्न विधियों से विश्व की केवल व्याख्या ही की है , लेकिन प्रश्न विश्व को बदलने का है । "

                        ---- मार्क्स ( फायरबाख पर निबंध )

"उनके ( ट्रेड यूनियनों के ) प्राथमिक उद्देश्य कुछ भी हों उन्हें अब मजदूर वर्ग की पूर्ण मुक्ति के व्यापक हितार्थ उसके संगठनकारी केंद्रों के रूप में सचेत रूप से कार्य करना सीखना चाहिए । उन्हें इस दिशा की ओर उन्मुख प्रत्येक सामाजिक तथा राजनीतिक आंदोलन का समर्थन करना चाहिए । अपने को पूरे मजदूर वर्ग का प्रतिनिधि मानते हुए और उसके हितों की वकालत करते हुए वे सोसायटी से बाहर के लोगों को अपनी कतारों में शामिल करने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं । उन्हें सबसे कम पारिश्रमिक वाले व्यवसायों के , उदाहरण के लिए खेत - मज़दूरों के , जिन्हें असाधारण परिस्थितियों ने असहाय बना दिया है , हितों का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए । उन्हें पूरे संसार के सामने यह प्रदर्शित करना चाहिए कि उनके प्रयत्न संकीर्ण तथा स्वार्थपूर्ण नहीं हैं अपितु उनका उद्देश्य करोड़ों पददलित लोगों को मुक्ति दिलाना है ।"

                                  --- कार्ल मार्क्स
 ( अस्थायी जनरल कौंसिल के डेलीगेटों के लिए निर्देश -1866 में लिखित )

दुनिया के मज़दूरों के रोज़मर्रा के संघर्षों ( ट्रेड यूनियन संघर्ष ) और मज़दूर वर्ग की राजनीति का सार ( कार्ल मार्क्स के शब्दों में )
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" यदि पूंजी के मुकाबले में अपने प्रतिदिन के संघर्ष में मज़दूर बुजदिली के साथ घुटने टेक देते हैं तो वे कोई बड़ा आंदोलन छेड़ने के काबिल नहीं रहेंगे ।
इसके साथ-साथ , मजूरी की व्यवस्था से जुड़ी हुई आम ग़ुलामी के अलावा , मज़दूर वर्ग को इन रोज़मर्रा के संघर्षों के अंतिम कार्य-परिणाम को बढ़ा -चढ़ाकर न आंकना चाहिए । मज़दूरों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे परिणामों से लड़ रहे हैं , न कि उन परिणामों के कारणों से ; वे पतनशील गति को केवल विलंबित कर रहे हैं , पर रोग को नष्ट नहीं कर रहे । अतः मज़दूरों को पूंजी के निरंतर अतिक्रमण या बाजार के परिवर्तनों के कारण नित्य पैदा होनेवाले अनिवार्य छापेमार संघर्षों में फँसकर नहीं रह जाना चाहिए । उन्हें समझना चाहिए कि मौजूदा व्यवस्था , उनसब मुसीबतों के बावजूद जो वह मज़दूरों पर ढाती है , साथ ही समाज के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक रूपों को उत्पन्न करती है । इसलिए इस रूढ़िगत मूलमंत्र - ' दिन के माकूल काम की माकूल मजदूरी ' के बजाय मज़दूरों को अपने झंडे पर यह क्रांतिकारी नारा लिख लेना चाहिए - मज़दूरी व्यवस्था का अंत हो ! "

                    --- कार्ल मार्क्स ( मज़दूरी , दाम और मुनाफ़ा )

" सम्पत्तिधारी वर्गों की संयुक्त सत्ता के विरुद्ध अपने संघर्ष में सर्वहारा अपने को एक विशेष राजनीतिक पार्टी में गठित करके ही वर्ग के रूप में काम कर सकते हैं जो सम्पत्तिधारी वर्गों की तमाम पार्टियों के विरुद्ध हो । राजनीतिक पार्टी में सर्वहारा का यह गठन सामाजिक क्रांति की और उसके अंतिम लक्ष्य - वर्गों के उन्मूलन के लक्ष्य - की विजय सुनिश्चित करने के लिए अपरिहार्य है । ...... चूंकि भूमि तथा पूंजी के अधिपति अपनी आर्थिक इजारेदारियों को बरकरार रखने और श्रम को दास बनाने के लिए अपने राजनीतिक विशेषाधिकारों का सदैव उपयोग करते हैं , इसलिए राजनीतिक सत्ता विजित करना सर्वहारा का महान कर्तव्य बन जाता है ।"

                 --- मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा तैयार ( 1872 की हेग जनरल कांग्रेस के प्रस्तावों में धारा 7 क के रूप में प्रस्तावित और कांग्रेस द्वारा अनुमोदित धारा का अंश ।)

" पूंजीपति वर्ग ने , जहाँ भी उसका पलड़ा भारी हुआ , वहाँ सभी सामंती , पितृसत्तात्मक और ' काव्यात्मक ' संबंधों का अंत कर दिया । उसने मनुष्य को अपने ' स्वाभाविक बड़ों ' के साथ बांध रखनेवाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला ; और नग्न स्वार्थ के , ' नकद पैसे-कौड़ी ' के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा संबंध नहीं रहने दिया । धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक को , वीरोचित उत्साह और कुपमंडूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फीले पानी में डुबा दिया है । मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय-मूल्य बना दिया है , और पहले के अनगिनत प्रदत्त और हासिल किए गए स्वातंत्रयों की जगह अब उसने उस एक निर्लज्जतापूर्ण स्वातंत्र्य की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं । एक शब्द में , धार्मिक और राजनीतिक धोखे की टट्टी के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न , निलज्ज , प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है । " .............
" पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा वर्ग का संघर्ष , यद्यपि अन्तर्य की दृष्टि से नहीं , तथापि रूप की दृष्टि से शुरू में राष्ट्रीय संघर्ष होता है । हर देश के सर्वहारा वर्ग को , जाहिर है , पहले अपने ही पूंजीपतियों से निबटना होगा । "

                   --- कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ( कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र )

" अठारहवीं शताब्दी की क्रांतियाँ जैसी पूंजीवादी क्रांतियाँ तूफानी चाल से कामयाबियों पर कामयाबियाँ हासिल करतीं हैं ; उनकी प्रत्येक नाटकीय निष्पत्ति दूसरी को मात करती है ; मनुष्य और वस्तुएँ दोनों जगमगाते दिखाई देतीं हैं ; उल्लास की भावना प्रतिदिन की भावना बन जाती है ; किन्तु ये सारी बातें अल्पजीवी होती हैं ,वे शीघ्र ही अपने शिखर-बिंदु तक पहुँच चुकती हैं ; समाज पर इसके पहले कि वह अपने तूफानी दौर के परिणामों को गंभीरतापूर्वक आत्मसात करना सीखे , एक खुमारी भरा अवसाद छ जाता है ।
दूसरी ओर उन्नीसवीं शताब्दी की क्रांतियों जैसी सर्वहारा क्रांतियाँ निरंतर अपनी आलोचना करतीं हैं , आगे बढ़ते-बढ़ते स्वयं ही बार-बार रुक जातीं हैं , ज़ाहिरा तय किए हुए रास्ते पर फिर लौट आती हैं ताकि अपनी यात्रा दोबारा शुरू कर सकें , अपने प्रथम प्रयासों की अपर्याप्तताओं, कमज़ोरियों और तुक्ष्ताओं की निर्मम आद्यंत भर्त्सना करती हैं , शत्रु को मानो इसीलिए पटकतीं हैं कि वह धरती से नवीन बल प्राप्त कर और अधिक विराट होकर फिर उनके सामने आए ; स्वयं अपने लक्ष्यों के अस्पष्ट से विराट आकार से बारम्बार झिझक कर पीछे हो जाती हैं - तब तक , जब तक कि ऐसी परिस्थिति तैयार नहीं हो जाती जिसमे पीछे हटना बिलकुल असंभव होता है और परिस्थितियाँ स्वयं पुकारकर कहतीं हैं -
Hic Rhodus , Hic Salta ! ( यहाँ गुलाब है , नाचो यहाँ ) "
--- कार्ल मार्क्स ( लूई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर )

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