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Tuesday, 19 March 2024

इलेक्टोरल बांड की नसीहत.... "रिलीजन, मनुष्यता के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है!"

इलेक्टोरल बांड की नसीहत....  
"रिलीजन, मनुष्यता के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है!" 

(जनगण की लूट और शोषण के उपकरण हैं, धर्म और आस्था ! धर्म की राजनीति का चोला ओढ़कर हमारे देश में लाखों करोड़ों की लूट से, यह बात तो खूब अच्छे से समझ में आ ही गई होगी।) 

महान समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स जब 17 वर्ष के थे,  उन्होंने जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। उनका ज़ेहन सवालों से भरा था। उनके पिता हाइनरिख़- जो ख़ुद बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति थे- ने उन्हें एक प​त्र लिखकर कहा कि "अगर ईश्वर ने चाहा तो तुम बहुत तरक़्क़ी करोगे और न केवल अपने और अपने​ परिवार, बल्कि मनुष्यता की भलाई के लिए भी बहुत काम करोगे।" युवा कार्ल को इन बातों पर अविश्वास न था, लेकिन ईश्वर की इच्छा उनके लिए एक अबूझ वस्तु थी। उन्होंने पिता से अपने संशय साझा किए। पिता ने एक और पत्र लिखकर कहा, "देखो कार्ल, मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ, लेकिन आज नहीं तो कल तुम्हें समझना होगा कि मनुष्य के लिए आस्था ज़रूरी है... न्यूटन और लाइबनीज़ जैसे महान वैज्ञानिक और दार्शनिक भी ईश्वर में विश्वास करते थे!"
लेकिन मार्क्स अपने पिता की इन बातों से राज़ी न हो सके। वे घोर बुद्धिवादी थे और अनास्था का ज्वार उनके भीतर उमड़ता था। वे यह भी देख रहे थे कि आस्था ने मनुष्य को बेड़ियों में बाँध रखा है और यह वर्चस्वशाली समूहों के द्वारा उसके शोषण का उपकरण सिद्ध हो रही है। बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के बाद, 21 वर्ष की उम्र में जब मार्क्स ने पीएचडी डिग्री के लिए अपनी डॉक्टोरल ​थीसिस लिखने का निर्णय किया, तब तक उनके अनीश्वरवादी विचार बहुत पुख़्ता हो चुके थे। उनकी थीसिस एपिकुरस, डेमोक्रिटस और लुक्रिटस के दर्शन पर आधारित थी। यानी इतनी शुरुआत में ही- और फ़्यूएरबाख़ के प्रभाव-क्षेत्र में आने से पूर्व ही- मार्क्स भौतिकवाद की ओर अग्रसर हो चले थे। एपिकुरस के दर्शन में मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए जैसी छटपटाहट थी, उसने मार्क्स को मोह लिया था। अपनी पीएचडी थीसिस में मार्क्स ने एपिकुरस को गर्व से उद्धृत करते हुए लिखा :
"असंख्यजनों के द्वारा पूजे जाने वाले ईश्वरों को नकारने वाला नहीं, बल्कि वह जो उन ईश्वरों में आस्था रखता है, अपवित्र है!"
फिर उन्होंने प्रमिथियस- जिस आदि-विद्रोही से कार्ल मार्क्स की आजीवन तुलना की जाती रही- के हवाले से कहा : 
"मुझे ईश्वरों के झुण्ड से वितृष्णा है!"
अपनी थीसिस में मार्क्स ने निष्कर्ष निकाला कि ईश्वर में आस्था मनुष्य की चेतना के विकास का प्राथमिक-चरण है। यह मनुष्य की बुद्धि का आदिम स्तर है, जहाँ वह अपने इर्द-गिर्द हो रही घटनाओं को समझ नहीं पाता है तो उनकी व्याख्या करने के लिए तमाम तरह की बेसिरपैर की बातों का सहारा लेने लगता है। मार्क्स ने लिखा : "जिसे इस संसार का कोई कारण समझ नहीं आता, और जिसके स्वयं के होने का कोई कारण नहीं है, उसी के लिए ईश्वर का अस्तित्व हो सकता है!"
इसके कुछ वर्षों के बाद, 1845 में जब मार्क्स ब्रसेल्स में थे और अपनी किताब 'द जर्मन आइडियोलॉजी' पर एंगेल्स के साथ मिलकर काम कर रहे थे, तब उन्होंने उसकी प्रवेशिका लिखी। इस प्रवेशिका को ही कालान्तर में 'थीसिस ऑन फ़्यूएरबाख़' के नाम से जाना गया। इसके लिखे जाने तक वे अपने ऐतिहासिक भौतिकवाद के विचारों को अंतिम रूप दे चुके थे और इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि 'प्रोलिटेरियन एथीज़्म' यानी सर्वहारा वर्ग के द्वारा अंगीकार किया जाने वाला दुर्द्धर्ष अनीश्वरवाद ही समाज से रिलीजन नामक बुराई का अंत कर सकता है, और जब तक यह नहीं होगा, तब तक सामाजिक-संरचनाओं में क्रांति नहीं हो सकेगी।
"धर्म जनता की अफीम है-" यह प्रसिद्ध वाक्य मार्क्स ने 1843 में लिखा था। यह उनके अख़बार 'जर्मन-फ्रेंच एनल्स' (Deutsch–Französische Jahrbücher) में 'क्रिटीक ऑफ़ हेगेल्स फिलॉस्फ़ी ऑफ़ राइट : इंट्रोडक्शन' नामक लेख में 1844 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने लिखा कि "मनुष्यों ने धर्मों को बनाया है, धर्मों ने मनुष्यों को नहीं। मनुष्य कोई अमूर्त वस्तु नहीं है, वह समाज और राज्यसत्ता का एक अंग है। ये समाज और राज्यसत्ताएँ ही धर्म की रचना करती हैं, जो कि एक 'इनवर्टेड कांशियसनेस' है। रिलीजन एक इनवर्टेड दुनिया की थ्योरी है, यह एक नैतिक क़रार है, सांत्वना और औचित्य का वैश्विक आधार है। यह मनुष्यता के सारतत्त्व की एक कपोल-कल्पित वास्तविकता है। रिलीजन नामक काल्पनिक-सुख का उन्मूलन ही मनुष्य की वास्तविक ख़ुशी की शर्त है।"
मार्क्स ने जिस बात को रूपकात्म​क शैली में कहा था, उसे वर्षों बाद कॉमरेड व्ला.इ. लेनिन ने एक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया। 'द एटिट्यूड ऑफ़ द वर्कर्स पार्टी टु रिलीजन' में लेनिन ने लिखा, "धर्म जनता की अफीम है- इसमें रिलीजन के प्रति मार्क्सवाद की पूरी विचारधारा आ गई है। तमाम धर्मों और उनकी संस्थाओं को मार्क्सवाद में हमेशा बूर्ज्वा प्रतिक्रिया का एक अंग माना गया है और उनका उपयोग कामगारों का शोषण करने वाली व्यवस्था को क़ायम रखने के लिए किया जाता रहा है।" 
बोल्षेविक क्रांति के बाद सोवियत-संघ का गठन एक एथीस्ट-स्टेट के रूप में किया गया था। राज्यसत्ता का कोई धर्म नहीं था और दो-तिहाई जनता एथीस्ट हो चुकी थी। शासकीय प्रचार-सामग्री ईश्वर के विरोध में प्रकाशित की जाती थी। जब सोवियतों ने अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजा तो यूनियन ने पोस्टर जारी किया कि "हम अंतरिक्ष में जाकर पृथ्वी पर लौट आए लेकिन हमें वहाँ कोई ईश्वर नहीं मिला!" कल्पना करें जब राज्यसत्ता ही इस तरह के पोस्टर जारी करेगी तो आम जनता का शैक्षिक स्तर कैसा होगा। इसकी तुलना उन देशों की आम जनता के बौद्धिक स्तर से करें, जिनके नेता ही बिना किसी सार्वजनिक-संकोच और लज्जा के पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड में लिप्त रहते हैं!
धर्म का आधार मिथकीयता, पौराणिकता और कल्पना पर टिका है। अगर यह आत्मप्रवंचना भर ही होती तो कोई बात न थी, लेकिन धर्म एक संगठन भी है, वह लोगों को एकजुट करता है (चुनावी लोकतंत्र में इस समूहीकरण को 'वोटबैंक' कहते हैं), वह यथास्थितिवादी होता है, लोगों के लिए आचार-संहिताएँ जारी करता है और धर्मगुरुओं का गठजोड़ सदैव ही सत्ताधीशों और पूँजीपतियों से होता है। ये तीनों मिलकर सदियों से मानव-आत्मा का शोषण कर रहे हैं। ईश्वरों ने आज त​क किसी का हित किया हो, किसी को दंड दिया हो, कोई न्याय किया हो- इसका कोई प्रमाण नहीं है। स्वयं ईश्वर का ही कोई प्रमाण नहीं है! रिलीजन मनुष्यता के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है।
आज से लगभग दो सौ साल पूर्व कार्ल मार्क्स के द्वारा कही गई यह बात बिलकुल दुरुस्त है कि धर्म मनुष्य की चेतना के विकास का प्राथमिक और आदिम-चरण है। और जैसे-जैसे मनुष्य की तर्क-बुद्धि का विकास होगा- धर्म, उसकी सत्ता, उसकी राजनीति और उसके स्वघोषित प्रतिनिधियों का स्वत: ही उन्मूलन हो जावेगा।

पत्रकारिता करो तो कार्ल मार्क्स की तरह

'जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो', यह कहावत कार्ल मार्क्स पर पूरी तरह से सटीक बैठती है, जिन्होंने आजीवन क़लम को ही तलवार की तरह भाँजा था। उन्होंने अख़बारों के लिए लेख लिखे, ख़ुद अख़बार निकाले, अपने समय के ज्वलंत सवालों पर जिरहें कीं, दुनिया में हो रही हलचलों पर पैनी नज़र रखकर उन पर रिपोर्टें लिखीं और सत्तातंत्र से वैर ठाना। उनके अख़बारों पर पाबंदियाँ लगाई गईं, प्रतियाँ ज़ब्त की गईं, उन्हें शहरबदर होना पड़ा, लेकिन वे अनवरत पढ़ते, सोचते और लिखते रहे। एक पत्रकार के रूप में ही मार्क्स ने इतना लेखन किया है कि 'मार्क्स-एंगेल्स कम्प्लीट वर्क्स' के 50 में से 10 खण्ड उनके द्वारा विभिन्न अख़बारों के लिए लिखे लेखों से भरे हैं। 500 से ज़्यादा लेख तो उन्होंने अकेले 'न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून' के लिए ही लिखे थे।
पत्रकारिता की दुनिया से मार्क्स का पहला परिचय साल 1842 में हुआ, जब उन्होंने कोलोन से प्रकाशित होने वाले पत्र 'रीनिश न्यूज़पेपर' (Rheinische Zeitung) के लिए लिखना शुरू किया। जल्द ही वे इस अख़बार के सम्पादक नियुक्त हो गए। शुरू में इसकी केवल 400 प्रतियाँ थीं। मार्क्स इसे एक साल के भीतर ही बढ़ाकर 3400 प्रतियों तक ले आए और यह अख़बार प्रशिया की सीमाओं से बाहर भी पढ़ा जाने लगा। इंग्लैंड तक से फ्रेडरिक एंगेल्स इस अख़बार के लिए तब अपनी रिपोर्टें भेजा करते थे।
लेकिन प्रशियन हुकूमत ने इसे राज्यसत्ता के लिए ख़तरनाक बताते हुए बैन कर दिया। अख़बार में मार्क्स के द्वारा प्रेस फ्रीडम, लोकतंत्र के स्वरूप, निजी सम्पत्ति और ग़रीब-विरोधी क़ानूनों पर लिखे लेखों ने उस समय सनसनी पैदा कर दी थी। अख़बार पर रोक लगाए जाने की तत्कालीन राइनलैंड (जर्मनी का वह प्रांत, जहाँ से यह अख़बार निकलता था) में तीखी प्रतिक्रिया हुई और हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। एक अख़बार ने एक कार्टून छापा, जिसमें मार्क्स को ग्रीक विप्लवी देवता प्रमिथियस की तरह चित्रित किया गया था। व्यंग्यचित्र में वे एक प्रिंटिंग​ प्रेस से बंधे थे और प्रशियन सेंसरशिप उन पर प्रहार कर रही थी।
मार्क्स ने तब प्रशिया छोड़ने का फ़ैसला किया, जब प्रशियन सरकार ने उन्हें घूस देने की कोशिश की। मार्क्स के पिता के एक मित्र ने उनके सामने प्रशियन सिविल सेवा में एक प्रभावी ओहदे की पेशकश रखी। जैसे ही स्वाभिमानी मार्क्स ने यह प्रस्ताव सुना, उन्होंने आहत होकर अपनी पत्नी जेनी से कहा, "चलो अब यहाँ से कहीं और चलते हैं।" वे प्रशिया छोड़कर पेरिस जा बसे।
पेरिस में मार्क्स ने अर्नाल्ड रूग के साथ फ़रवरी 1844 में एक और अख़बार निकाला- 'जर्मन-फ्रेंच एनल्स' (Deutsch–Französische Jahrbücher)। इसके दो ही अंक निकले, लेकिन इसमें मार्क्स के दो महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए थे- 'ऑन द ज्यूइश क्वेश्चन' और 'क्रिटीक ऑफ़ हेगेल्स फिलॉस्फ़ी ऑफ़ राइट : इंट्रोडक्शन'। मार्क्स के इन लेखों में हेगेल के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर निकलकर भौतिकवाद की ओर उनके बढ़ते रुख़ की स्पष्ट झलक दिखलाई दी थी। उस समय के महत्त्वपूर्ण जर्मन कवि हाइनरिख़ हाइने ने भी इस अख़बार के लिए लिखा। एंगेल्स सहित अन्य के लेख भी इसमें आए। इस अख़बार की प्रतियाँ सुदूर रूस तक पहुँची थीं। लेकिन इसकी 3000 प्रकाशित प्रतियों में से दो-तिहाई को प्रशियन पुलिस ने ज़ब्त कर लिया और मार्क्स की गिरफ़्तारी का आदेश जारी कर दिया।
चार साल बाद मार्क्स ने कोलोन से अपना सबसे महत्त्वपूर्ण अख़बार निकाला और अतीत में बैन किए गए 'रीनिश न्यूज़पेपर' की याद में उसे 'न्यू रीनिश न्यूज़पेपर' (Neue Rheinische Zeitung) कहकर पुकारा। यह अख़बार 1 जून 1848 से 19 मई 1849 त​क निकला। साल 1848 यूरोप में क्रांतियों का वर्ष था और 'न्यू रीनिश न्यूज़पेपर' को जर्मन-विप्लव का मुखपत्र कहकर पुकारा गया था। इसके 301 अंक निकले और इसकी प्रसार-संख्या 6000 प्रतियों तक पहुँची। एक बार फिर प्रशियन सत्ता ने अख़बार के काम में दख़ल दिया। सरकार के मुलाजिम अख़बार के एक लेखक को गिरफ़्तार करने प्रेस आ धमके। मार्क्स ने अपने लेखक को सरकार को सौंपने से इनकार कर दिया। आखिरकार इस अख़बार को भी बंद करना पड़ा। 19 मई 1849 को इसका अंतिम अंक मार्क्स ने लाल स्याही से प्रकाशित किया था। इसे 'लाल पन्ना' नाम से जाना गया। इस अख़बार में प्रकाशित मार्क्स के लेख पहली बार सवा सौ साल बाद 1977 में ही जाकर अंग्रेज़ी में अनूदित हो सके थे, जब प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को ने 50 खण्डों में 'मार्क्स-एंगेल्स कलेक्टेड वर्क्स' निकाले। 'कलेक्टेड वर्क्स' का सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ खण्ड पूर्णतया 'न्यू रीनिश न्यूज़पेपर' में प्रकाशित लेखों से निर्मित हुआ है।
लेकिन मार्क्स के पत्रकारिता-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अध्याय लंदन में लिखा गया, जब उन्होंने अमेरिका के 'न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून' के लिए रिपोर्टें भेजना शुरू किया। उस समय पूरी दुनिया में हलचलें हो रही थीं। चीन में दूसरा ओपियम वॉर, भारत में 1857 का ग़दर, अमेरिका में गृहयुद्ध, यूरोप में क्रांतियों के बाद की उथलपुथल, इंग्लैंड में चुनाव आदि। मार्क्स ने इन तमाम विषयों पर अथक परिश्रम करके तथ्य-संकलन किए और लेख लिखे। उस समय यह स्थिति थी कि वे घंटों लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी में बैठे रहते थे और संदर्भ खंगालते रहते थे। कई बार तो वे पढ़ते-पढ़ते अचेत हो जाते थे। इन लेखों को भाप के जहाज़ की मदद से न्यूयॉर्क भेजा जाता था और वे लिखे जाने के दस से पंद्रह दिन बाद ही प्रकाशित हो पाते थे। उस समय 'न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून' दुनिया के प्रमुख अख़बारों में से था। वह अमेरिका में दासप्रथा के प्रतिरोध का मुखपत्र भी था। इसमें प्रकाशित मार्क्स के सैकड़ों लेखों ने उन्हें आँग्लभाषी वर्ग में पहचान दिलाई, क्योंकि मूलत: जर्मन में लिखी होने के कारण उनकी अधिकांश किताबों से अंग्रेज़ी के पाठक तब तक परिचित नहीं थे। स्वयं 'द कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो' का प्रकाशन मार्क्स के जीवनकाल में अंग्रेज़ी में नहीं हो सका था। यह सबसे पहले 1888 में ही जाकर प्रकाशित हुआ था।
उसी कालखण्ड में भारत के इतिहास और उसकी नियति में कार्ल मार्क्स की गहरी रुचि जगी और उन्होंने मध्यकालीन और समकालीन भारतीय इतिहास पर अनेक नोट्स लिए। 'न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून' में प्रकाशित मार्क्स के लेखों के आधार पर ही भारत पर केंद्रित मार्क्स की किताबें 'द फ़र्स्ट इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस' और 'ऑन कलोनियलिज़्म' कालान्तर में प्रकाशित हुई हैं। भारत के पाठकों को मार्क्स की इन दो किताबों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। 
पत्रकारिता को इतिहास का पहला प्रारूप (फ़र्स्ट ड्राफ़्ट ऑफ़ हिस्ट्री) कहा गया है। इसका निष्पक्ष, तार्किक, शोधपूर्ण, प्रखर और सत्यान्वेषी होना सभ्य-समाज के लिए अत्यावश्यक है। वर्तमान में पत्रकारिता के पतन का जैसा शर्मनाक दौर चल रहा है, उसके परिप्रेक्ष्य में कार्ल मार्क्स को एक जर्नलिस्ट के रूप में याद करने का पृथक से महत्त्व है।
प्रोलिटेरियट, कार्ल मार्क्स के दर्शन का आधार-पद है। इसे ही सर्वहारा या श्रमजीवी भी कहते हैं। मार्क्स ने इसे रिवोल्यूशनरी क्लास बताया है, क्योंकि- जैसा कि मार्क्स-एंगेल्स ने 'कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो' में कहा था- "रूलिंग क्लास की ऊपरी परतों को पलटे बिना यह सर्वहारा वर्ग हिल तक नहीं सकता!" कोई दो सौ साल पहले गढ़ी गई यह थ्योरी आज कितनी कारगर या प्रासंगिक है, इसके लिए कुछ परिप्रेक्ष्यों को समझना होगा।
प्रोलिटेरियट वह है, जिसके पास मीन्स ऑफ़ प्रोडक्शंस (उत्पादन के औज़ार) नहीं हैं। यानी अगर वह काम न करे तो भूखों मरेगा। उसके पास वैल्यू के रूप में अपना श्रम या कौशल भर है, जिसे बेचकर वह आजीविका चलाता है। बूर्ज्वा वह है, जिसके पास मीन्स ऑफ़ प्रोडक्शंस हैं और उसे आजीविका के लिए काम करने की ज़रूरत नहीं। मार्क्स के समय में यह कारख़ाने का मालिक था, आज सीईओ, एमडी, डायरेक्टर, चेयरमैन, और बेनेफिशियरी क्लास के तमाम मुफ़्तख़ोर परजीवी इसी वर्ग में आते हैं। पेटी-बूर्ज्वा वह है, जिसके पास मीन्स ऑफ़ प्रोडक्शंस तो हैं, लेकिन वह ख़ुद भी काम करता है, जैसे किसी छोटी दुकान का संचालक। इसके हित सर्वहारा से ज़्यादा बूर्ज्वा से जुड़े होते हैं। लुम्पेनप्रोलिटेरियट वह है, जो नियतिवंचित है और औपचारिक-अर्थव्यवस्था के दायरों से बाहर संचालित होता है, जैसे ठग, अपराधी, भिखारी, नट, वेश्याएँ। 
इन सबके कारण समाज में आर्थिक आधार पर विभिन्न वर्ग निर्मित होते हैं और इन वर्गों में अपने हितों की रक्षा के लिए टकराव (क्लास-स्ट्रगल) चलता है।
प्रोलिटेरियट में जब वर्गचेतना (क्लास-कांशियसनेस) जागती है तो वह अपनी जातीय और साम्प्रदायिक चेतना से मुक्त होता है और सत्ताधीश यह नहीं चाहते, जो कि पूँजीपतियों के वित्तपोषण से फलते-फूलते हैं। धर्म इस तंत्र में अफ़ीम का काम करता है। वह सर्वहारा को उसकी वर्गचेतना से मुक्त कर उसके शोषण में अपना योगदान देता है। एक कारख़ाने में अगड़ा और पिछड़ा, हिन्दू और मुसलमान, यहूदी और ईसाई साथ काम कर रहे हो सकते हैं, लेकिन वे ख़ुद को एक वर्ग के रूप में नहीं देखते। और यह बात कारख़ाने के मालिक के हित में है।
पूँजी, धर्म और राजनैतिक सत्ता का चोली-दामन का सम्बंध है। ये तीनों बिज़नेस-पार्टनर्स हैं। यह हक़ीक़त दिन की रौशनी की तरह इतनी साफ़ है कि अंधा भी देख सकता है।
धर्म और राष्ट्रवाद की अफ़ीम चटा दी जाये तो ग़रीब आदमी भी धनकुबेर की शोभायात्रा में नाचकर और तालियाँ बजाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करने लगता है- क्योंकि उसको उसकी क्लास-कांशियसनेस से वंचित कर दिया गया है।
मार्क्सवादी थ्योरी में बेस और सुपरस्ट्रक्चर की बात आती है। प्रोडक्शन आधार है, और कल्चर, रिलीजन, मीडिया, स्टेट ये सुपरस्ट्रक्चर हैं। अर्थतंत्र कल्चर को भी प्रभावित करता है, मीडिया को भी, स्टेट को भी, और रिलीजन उसका गठबंधन-सहयोगी है।
ये अकारण नहीं है कि देश में एक तरफ़ सत्ताधीश रोज़ मंदिरों में जाकर तस्वीरें खिंचवाने का ढोंग करता है और दूसरी तरफ़ सत्ता के उपकरण अदालत में यह अर्ज़ी देते हैं कि कृपया उन धनकुबेरों के नामों का खुलासा न करें, जिन्होंने चुनाव लड़ने के लिए मोटी रकम (इलेक्टोरल बॉन्ड) दी है। रिलीजन का सुपरस्ट्रक्चर इसी तरह से प्रोडक्शन के बेस को केमाफ़्लेज करता है। जनता को मगन रखने के लिए रिलीजन से अच्छी चटनी कोई दूसरी नहीं चटाई जा सकती।
एक तरफ़ देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में दवाइयाँ नहीं हैं और गाँवों में बच्चे किसी विद्यालय-भवन के बिना खुले आकाश के नीचे बैठकर पढ़ते हैं, दूसरी तरफ़ धनकुबेर अपने बेटे की प्री-वेडिंग में अंतरराष्ट्रीय-नर्तकी को एक नाच के 74 करोड़ रुपए देता है- आर्थिक विषमता का यह खुल्ला खेल फ़र्रुख़ाबादी की तर्ज़ पर नंगा-नाच एक ऐसे समाज में ही सम्भव है, जिसमें प्रोलिटेरियट को उसकी वर्गचेतना से वंचित कर दिया गया हो और जिसमें सरकार का बूर्ज्वा को पूर्ण-प्रश्रय प्राप्त हो।
कार्ल मार्क्स के समय में इंडस्ट्री सबसे प्रमुख क्षेत्र था, वर्तमान में सर्विस अग्रणी सेक्टर बन गया है। मार्क्स के युग में कारख़ाने के मज़दूर, भूदास, बंधुआ श्रमिक प्रोलिटेरियट थे, आज इन सबके साथ ही (भूदास अब नहीं होते) गिग वर्कर्स, कॉल सेंटर में काम करने वाले, ब्लू कॉलर जॉब्स करने वाले, मामूली नौकरियों के वेतनयाफ़्ता विशेषकर निजी क्षेत्र के कर्मचारी प्रोलिटेरियट की श्रेणी में आने चाहिए। लेकिन इंटरनेट के उद्भव के बाद और एआई के ज़माने में सुपरस्ट्रक्चर अब बहुत बहुआयामी, जटिल और व्यापक हो गया है- इसे सर्वहारा की बुद्धि आसानी से बेध नहीं सकती।
कार्ल मार्क्स के समय में मोनार्की थी, आज डेमोक्रेसी है- मैं समझता हूँ आज का सर्वहारा इस मौजूदा परिप्रेक्ष्य में रिवोल्यूशनरी-क्लास नहीं हो सकता, वह इतना ज़रूर कर सकता है कि अपनी वर्गचेतना के प्रति सजग हो (इसके लिए शिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण औज़ार है) और लोकतंत्र के उपकरणों का लाभ उठाकर स्टेट को भरसक प्रश्नांकित करे। 
मीडिया इस कार्य में प्रोलिटेरियट का मुखपत्र होना चाहिए, लेकिन अब वह न केवल सत्तातंत्र का भोंपू बन चुका है, बल्कि पूँजीवादी-उपभोगवादी शैली की बूर्ज्वा संस्कृति को ही नित्यप्रति प्रचारित करता रहता है। 
और लेखक? वो आज इस फिक्र में घुल रहा है कि विज्ञापन से धन कैसे कमाऊँ, ऐसी किताब लिखकर कैसे बिकूँ जो यथास्थिति का गुणगान करे और अपनी जीवनशैली को किसी कम्पनी के सीईओ-सरीखी कैसे बनाऊँ?
लेखक- जो हमेशा से प्रोलिटेरियट का प्रवक्ता था, अब स्वयं बूर्ज्वा जैसा होने, दिखने के लिए लोलुप है- वर्तमान में कार्ल मार्क्स के पुनर्पाठ का प्रबुद्ध-पाठक वर्ग के लिए इससे बड़ा कारण और क्या हो सकता है?
(सुधीर सिंह के एफबी वाल से संपादित अंश)

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