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Tuesday, 27 June 2023

आर्थिक मंदी



आर्थिक मंदी

मौजूदा व्यवस्था के रहते हमारे देश में चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का उत्पादन सम्भव नहीं है क्योंकि यदि पूँजीपति वर्ग अपने उद्योगों का विस्तार करके चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का उत्पादन करता है तो एक हद तक सस्ता माल तैयार हो सकता है और सस्ते मालों के बल पर कुछ समय के लिए चीन को टक्कर दिया जा सकता है। मगर हमारे देश का पूँजीपति वर्ग चीन के टक्कर में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर ही नहीं सकता क्योंकि-
1- उसके पास पूँजी का अभाव है।
2- उसके पास आन्तरिक बाजार नहीं है क्योंकि यहाँ लोगों के पास क्रय शक्ति नहीं है। 
3- आर्थिक मंदी के कारण उसका माल अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में भी नहीं बिक सकता।

अब यंहा फिर प्रश्न उठता है कि क्या कोई पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वाला विकसित देश भी चीन के टक्कर में बड़े पैमाने का औद्योगीकरण नहीं कर सकता है? तो कोई कितना भी विकसित पूँजीवादी देश क्यों न हो वह चीन के टक्कर में विराट पैमाने का उत्पादन नहीं कर पा रहा है और कर भी नहीं पायेगा, क्योंकि समाजवादी देशों  में जल, जंगल, जमीन कल-कारखाना, खान-खदान, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा, बीमा और बैंक सरकारी हैं इसका मतलब सारी पूँजी सरकार द्वारा नियंत्रित होती है। एफ.डी.आई., एफ.आई.आई.... आदि के जरिये जो विदेशी पूँजी आती है वह भी सरकार के नियंत्रण में ही रहती है। इस प्रकार सारी पूँजी एक जगह से नियंतित्र होती है। इसी कारण चीन की पूँजी पूरी दुनिया में फैली होने के बावजूद भी संगठित है। इसीलिये वह बड़े से बड़ा उद्योग लगाने में सक्षम है इसके विपरीत पूँजीवादी देशों  की पूँजी में तीन कमजोरियाँ होती हैं-
1- उत्पादन के संसाधनों के निजी मालिकाने के कारण पूँजीवादी देशों  की सारी पूँजी बिखरी हुई होती है।
2- पूँजीपति वर्गों में आपसी तालमेल नहीं होता। लाखों पूँजीपति अपनी-अपनी पूँजी को अपने-अपने ढंग से जहाँ चाहते हैं वहाँ लगाते हैं। वे अपनी पूँजी को अलग-अलग नियंत्रित करते हैं।
3- पूंजीपति एक दूसरे से अधिक मुनाफा कमाने के लिये आपस में होड़ करते हैं तथा एक दूसरे के विरुद्ध गलाकाट प्रतिस्पर्धा करते हैं। 
इन तीन कारणों से पूँजीवादी देशों की पूँजी से विराट पैमाने का उत्पादन संभव ही नहीं है। विश्व के सारे पूँजीवादी देशों  का सरगना अमेरिका भी चीन की तुलना में बड़े से बड़ा उद्योग लगाने में सक्षम नहीं हैं।
वालमार्ट अमेरिका की बहुत बड़ी कम्पनी है, जो दुनिया भर में शापिंग माल खोल कर चीन का सस्ता माल बेच रही है। और भारी मुनाफा कमा रही है। यदि वालमार्ट कम्पनी अपना कारखाना खोलकर माल पैदा करके बेचती तो उसे जोखिम ज्यादा उठाना पड़ता। और जोखिम के मुकाबले उतना भारी मुनाफा नहीं मिलता। बाजार में चीन के सस्ते मालां के मुकाबले उसका माल नहीं बिक पाता तो उसे भारी घाटा हो सकता था, और उसकी पूँजी डूब सकती थी। यही भय भारत के पूँजीपतियों को भी है। 

पूँजीवादी तरीके से समाजवादी उत्पादन का मुकाबला करना सम्भव नहीं रह गया है क्यांकि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली अनियंत्रित बाढ़ अथवा सूखे की तरह होती है। पूँजीवादी उत्पादन हमेशा ही सीमित पैमाने का उत्पादन होता है। पूँजीवादी उत्पादन जितना ही ज्यादा बढा़ते हैं उतनी ही ज्यादा भयानक मन्दी आती है। पूँजीवादी व्यवस्था में जितना ही भारी पैमाने का उत्पादन करेंगे, पूँजीपतियों के बीच निजी स्वामित्व के कारण उतनी ही भयानक प्रतिस्पर्धा होगी। वे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए लागत मूल्य घटायेंगे। लागत मूल्य घटाने के लिए बड़ी से बड़ी मशीनें लगायेंगे जिससे कम मजदूरों द्वारा ज्यादा माल पैदा कर सकेंगे। बड़ी मशीनें लगा कर पैदावार को बढ़ा देते हैं, परन्तु मजदूरों की छँटनी कर देते हैं। इस प्रकार खरीदने वालों की संख्या घटा देते हैं। दरअसल काम से हटाये गये मजदूर तनख्वाह नहीं पाते हैं, अतः खरीददारी नहीं कर पाते इस प्रकार पूँजीपति माल की पैदावार तो बढ़ा देता है परन्तु साथ ही साथ खरीदने वालों की संख्या घटा देता है। जिसके कारण अनिवार्य रूप से एक ऐसा समय आता है, जब बाजार माल से पट जाता है और खरीदने वाले बहुत कम रह जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक मंदी आ जाती है। पूँजीपति जितने ही बड़े पैमाने का उत्पादन करते हैं उतनी ही भयानक आर्थिक मंदी आती है। पूँजीवाद विकसित होकर साम्राज्यवाद में बदल जाता है तब अति उत्पादन के कारण नहीं बल्कि उत्पादन ठप्प या कम होने के कारण भी मंदी आती है। इस दौर में औद्योगिक पूँजी वित्तीय पूँजी के रूप में बदलती जाती है। वह वित्तीय पूँजी उन तमाम गैर जरूरी चीजों के उत्पादन को बढ़ावा देती है, जिसमें कम से कम समय, कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा हो। तब वह वित्तीय पूँजी मनुश्य की बुनियादी जरूरतों- रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी वस्तुओं का उत्पादन करने की बजाय हथियार, शराब आदि नशीले पदार्थ, गंदी फिल्में, गंदे गाने तथा कामुकता बढ़ाने की दवायें एवं उपकरण आदि के उत्पादन को बढ़ावा देती है। और अपने मजबूत प्रचार तंत्रों के जरिये अपने इन गैर जरूरी उत्पादों को खरीदने के लिए लोगो के मन में कृत्रिम जरूरत पैदा करती है।

आर्थिक मंदी के दौरान अपना मुनाफा बरकरार रखने के लिए जब पूँजीपति लोग मजदूरों की छँटनी करते हैं  तो मंदी और बढ़ जाती है। मंदी के दौरान मुनाफा बढ़ाने के लिए जब पूँजीपति महँगाई बढ़ाते हैं तो चीन का सस्ता माल और अधिक तेजी से उन्हें बाजार से बाहर खदेड़ता है। महँगाई बढ़ने से खर्च भी बढ़ जाता है। तब बढ़े हुए खर्च को पूरा करने के लिए भ्रष्टाचार भी बढ़ता है। जहाँ पूँजीपति वर्ग प्राकृतिक संसाधनों एवं टैक्स की चोरी आदि से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है वहीं सरकारी अधिकारी व कर्मचारी अपने कानूनी अधिकारों को बेचकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते रहते हैं। यदि आर्थिक मंदी से उबरने के लिए विदेशों  से कर्ज लेते हैं, तो कर्ज देने वाले देश की शर्तों को मानना पड़ता है, जिससे साम्राज्यवादी शोषण व गुलामी की जकड़न और अधिक बढ़ जाती है, जिससे जनाक्रोश बढ़ता है, जनता विकल्प तलाशती है तो पूँजीपति वर्ग जनता को भुलावा देने के लिए चुनाव करवाता है। चुनाव का खर्च जनता से वसूलने के लिए टैक्स बढ़ाया जाता है जिससे महँगाई बढती है। और यह महँगाई आर्थिक मंदी को और बढ़ाती है। अतः पूँजीपति वर्ग समाजवादी उत्पादन के मुकाबले भारी पैमाने का उद्योग चला ही नहीं सकता। इसलिए पूँजीवादी उत्पादन द्वारा समाजवादी उत्पादन के मुकाबले सस्ता माल नहीं तैयार किया जा सकता। 
समाजवादी उत्पादन का मुकाबला करने में पूँजीपतियों की पूँजी निश्चित ही डूब जायेगी। क्योंकि समाजवादी उत्पादन में आर्थिक मंदी नहीं आती जबकि पूँजीवादी उत्पादन में हर छठवें-सातवें.... दसवें-पन्द्रहवें.... साल तक अनिवार्य रूप से आर्थिक मंदी आती ही है। पहले जब आर्थिक मंदी आती थी तो धीरे-धीरे साल दो साल में दूर हो जाया करती थी परन्तु जब पूँजीवादी मंदी का फायदा उठाने में समाजवादी अर्थव्यवस्था सक्षम हो जाती है तब पूँजीवादी मंदी प्रायः महामंदी में बदल जाती है और उस महामंदी के दूर होने की संभावना खत्म होती जाती है। ऐसी परिस्थिति में अल्प विकसित देशों  की बात ही छोडि़ये, अमेरिका जैसे विकसित पूँजीवादी साम्राज्यवादी देश की पूँजी को सौ गुना बड़ा कर दिया जाय तो भी उसकी पूँजी भागकर चीन की तरफ जायेगी। पूँजीवाद की आर्थिक मंदी का फायदा उठाकर समाजवादी उत्पादन उससे बहुत आगे बढ़ता जायेगा और इतना बड़ा हो जायेगा कि पूँजीवादी उद्योगों को ही निगल जायेगा। अतः समाजवादी उत्पादन के मुकाबले पूँजीवादी उद्योग लगाकर पूँजीपति वर्ग मुनाफा कमाने की बात छोडि़ये अपना उद्योग भी नहीं बचा पायेगा। और बिना मुनाफा के वह कोई जोखिम उठा ही नहीं पायेगा। इसलिए उसके सामने एक ही उपाय होता है कि वह अपने उद्योग बन्द कर समाजवादी उद्योगों का माल खरीदे और बेचे।
तो फिर  चीन में बड़े पैमाने का उत्पादन करने के बावजूद भी आर्थिक मंदी क्यों नहीं आती? क्योंकि चीन का सामाजिक संगठन पूँजीवादी देशों के सामाजिक संगठन से अलग तरह का है। वहाँ दास और दास मालिक वाला समाज नहीं है, वहाँ राजा-प्रजा या मजदूर-मालिक वाला समाज नहीं है। वहां पूरा समाज ही उत्पादन के साधनों का मालिक है। श्रमिक वर्ग के सामूहिक नेतृत्व में कारखाने चल रहे हैं। श्रमिक वर्ग आपस में मुनाफाखोरी के लिए होड़ नहीं करता। वह समाज की आवष्यकताओं को ध्यान में रखकर "योजनाबद्ध तरीके" से उत्पादन करता है। और भारी पैमाने के उद्योगां के बल पर सस्ता सामान सबके लिए उपलब्ध कराता है। इसी वजह से बडे़ पैमाने का उत्पादन होने के बावजूद भी चीन में आर्थिक मंदी नहीं आती और न ही वहाँ महँगाई और बेरोजगारी की गुंजाइश बन पाती है। ऐंगेल्स ने घोशणा-पत्र में पेज 80 पर लिखा है-''.... इस तरह, बड़े पैमाने के उद्योग का ठीक वह गुण जो आज के समाज में सारी गरीबी और सारे व्यापार संकटों को जन्म देता है, ही बिल्कुल वह गुण है जो भिन्न सामाजिक संगठन में उस दरिद्रता को तथा इन विनाशकारी उतार-चढ़ावों को नश्ट कर देगा।'' अर्थात बड़े पैमाने के उद्योग द्वारा किये जाने वाले भारी पैमाने के उत्पादन पूँजीपति वर्ग के अधीन होते हैं तो विनाशकारी उतार-चढ़ावों (आर्थिक मंदी) को जन्म देते हैं जिससे तमाम छोटे कारखानेदार तबाह हो जाते हैं और लाखों मजदूर बेरोजगार हो जाते हैं। महँगाई बढ़ती है तो भ्रष्टाचार भी बढ़ता है और कर्ज, युद्ध एवं दिवालियापन का संकट भी बढ़ता है परन्तु बड़े पैमाने के वही उद्योग जब समाज के अधीन रह कर उत्पादन का असीम विस्तार करते हैं तो विकास होता है तथा आर्थिक मंदी भी नहीं आती और महँगाई, बेरोजगारी, गरीबी आदि तमाम संकट दूर हो जाते हैं। 

*रजनीश भारती*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा*

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Sunday, 25 June 2023

Disha Ravi, Sophie Scholl and the Unravelling of Indian Fascism

Disha Ravi, a 21-year-old climate activist from Bangalore has been arrested for editing a toolkit in support of the farmers' agitation in India against the farm laws passed by the government without any discussion in the parliament which will make the farmers squatters in their own land. These laws also will make the farmers contract farmers for the big agri-corporations of the world. Disha Ravi has been charged with sedition, a colonial law, which was slapped on Mahatma Gandhi and several other freedom fighters. The Delhi police who arrested Disha says that by her action she brought 'disaffection' to the country. It is interesting to note that Disha Ravi was arrested for a toolkit (Google Doc) tweeted by Greta Thunberg. If the government of India had the jurisdiction to arrest Greta it would have arrested Greta! Instead, it arrested her compatriot Disha Ravi.


Hindutva has Strong Links with Fascism – But Today’s Leaders Want to Forget Them

Last month, a teacher of political science in Uttar Pradesh's Sharda University posed this examination question to his students: "Do you find any similarities between Fascism/ Nazism and Hindu right-wing (Hindutva)? Elaborate with the argument." The teacher was suspended by the university authorities, on the grounds that the very posing of the question was "totally averse" to the "great national identity" of our country and "may have the potential for fomenting social discord".

Saturday, 24 June 2023

तमाम एनजीओ पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के रक्षा कवच बन गए हैं

तमाम एनजीओ पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के रक्षा कवच बन गए हैं 
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        ,,,,, मुनेश त्यागी

     1920 के दशक में समाजवाद, साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए एनजीओ यानी non-governmental organisation यानी गैर सरकारी संगठन को अमेरिकी पूंजीपति रॉकफेलर ने सबसे पहले बनाया था। इस संगठन को एनजीओ का नाम, जनता और दुनिया को गुमराह करने के लिए जानपूछ कर दिया गया था।
     ये संगठन दुनिया के बड़े बड़े पूंजीपतियों ने बनाए हैं जैसे फोर्ड फाउंडेशन, बिलगेट्स फाउंडेशन, pepsi-cola फाउंडेशन, आदि आदि हजारों लाखों एनजीओ दुनियाभर में पूंजीपतियों ने बना रखे हैं। भारत के बड़े एकाधिकारी पूंजीपति भी इस दौड़ से बाहर नहीं हैं, टाटा फाउंडेशन, बिरला फाउंडेशन, रिलायंस फाउंडेशन आदि हजारों एनजीओ भारत में भी काम कर रहे हैं।
     दिखाने के लिए एनजीओ को गैर राजनीतिक संगठन बताया जाता है, मगर दुनिया भर में इनकी गतिविधियां और कामों को देख कर यह निश्चित है कि पूंजीवादी दुनिया से त्रस्त परेशान लोग, छात्र, नौजवान, बेरोजगार, वामपंथ और समाजवाद की ओर ना चले जाएं और संकटग्रस्त पूंजीवादी दुनिया को पलटने के संघर्ष और अभियान में ना लग जाए और समाजवादी विचारों को अपनाकर समाजवादी व्यवस्था के निर्णय निर्माण में ना लग जाए, अतः लोगों को वहां जाने से रोकने के लिए, पूंजीपतियों ने एनजीओ का रास्ता अपनाया था ताकि इस समस्याग्रस्त तबके को एनजीओ के जाल में फंसा कर, अपने भविष्य को सुरक्षित किया जा सके।
     दुनिया के जितने भी एनजीओ हैं ये सारे के सारे एकाधिकारी पूंजीपतियों ने बना रखे हैं। इनकी सारी नीतियां, इनका संचालन और खर्चा, इन पूंजीपतियों द्वारा ही उठाया जाता है। इन तमाम एनजीओ की सारी राजनीति और कार्यक्रमों की पूरी रूपरेखा इन पूंजीपतियों और उनके द्वारा संरक्षित लोगों द्वारा तैयार की जाती है। इन्हीं नीतियों के अनुसार ये एनजीओ के लोग काम करते हैं। ये तमाम एनजीओ अपना स्वतंत्र एजेंडा तैयार नहीं कर सकते, इनकी अपनी कोई स्वतंत्र औकात नहीं है। इनको पूंजीपतियों द्वारा तैयार किए गए एजेंडे पर ही चलना पड़ता है।
    इन एनजीओ का मुख्य कार्य है कि संकटग्रस्त और समस्याग्रस्त नौजवानों को समाजवादी व्यवस्था और सोच की ओर जाने से रोका जाए, समाजवाद और वामपंथ के उभार को रोका जाए और उस जनसमर्थक क्रांतिकारी आंदोलन को बढ़ने से रोका जाए।
     हमने व्यवहार में देखा है कि रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, गरीबी, भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त लोग समाजवादी व्यवस्था की ओर जाने की बजाए, इन एनजीओ के जाल में फंस जाते हैं जिन्हें क्रांति करनी चाहिए और क्रांतिकारी आंदोलन को दिशा, विस्तार और गति देकर आगे बढ़ाना चाहिए था, वे अपनी पेट पूजा के लिए जाने अंजाने क्रांति के विरोध में, पूंजीवाद की हिफाजत और सुरक्षा में लग जाते हैं। 
        ये एनजीओ वैज्ञानिक समाजवाद के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभरे हैं। ये तमाम एनजीओ संकटग्रस्त पूंजीवाद के बुझते दियों की लौ को बचा लेना चाहते हैं। ये समाजवाद की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा बन गए हैं, इन्होंने समाजवाद की ओर बढ़ते जन सैलाब को रोक दिया है, उन्हें गुमराह कर दिया है।
     थोड़े काल के लिए जनता को भरमाने के लिए ये एनजीओ लोकलुभावन कदम उठा कर जनता को गुमराह कर सकते हैं, मगर अंतिम रूप से इनका मुख्य काम समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन को रोकना और पूंजीवादी साम्राज्यवाद व्यवस्था को बरकरार रखना है। सारे के सारे एनजीओ साम्राज्यवादी एजेंट की भूमिका अदा करते हैं।
     इन्हें जनता की बुनियादी समस्याओं,,, शोषण, अन्याय, भेदभाव, बढ़ती असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई पर कभी भी वार्ता करते नहीं देखा होगा। पूंजीवादी लूट के खिलाफ आवाज उठाते नही देखा गया है। ये पूंजीवादी साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के रक्षा कवच का काम कर हैं और साम्राज्यवाद के वाहक और प्रहरी बन गए हैं। यह भी देखा गया है कि ये एनजीओ के लोग कई बार भोले भाले और नये वामपंथी कार्यकर्ताओं को गुमराह करते हैं, उन्हें इनाम तमगे और शील्ड भी दिलवा देते हैं और अंत में उन्हें वामपंथी पार्टियों से अलग-थलग कर उन्हें एनजीओ का पिछलग्गू बनादेते हैं।
     आजकल एनजीओ में काम कर रहे लोग, क्रांति के रुझान के नौजवानों और लोगों को भटका कर और गुमराह कर, एनजीओ में जाने और उनको ज्वाइन करने के लिए दिन-रात प्रयत्नशील है। ये लोग समय के अनुसार समाजवाद और क्रांति का भी चोला पहनकर जनता को धोखा देते हैं और दे रहे हैं, कई बार तो यह भी देखा गया है कि जो लोग कम्युनिस्ट पार्टियों से किन्ही मुद्दों को लेकर विवाद ग्रस्त हो जाते हैं, तो ये एनजीओ के लोग उन लोगों के पास जाते हैं और उन्हें एनजीओ में खींचने का प्रयास करते हैं। कभी-कभी तो एनजीओ को रजिस्टर्ड करवाने के पैसे भी ये लोग ही दे देते हैं। इन लोगों का बस एक ही मकसद है कि किसी भी तरह से नौजवान क्रांतिकारियों को वामपंथी संगठनों से अलग-थलग किया जाए। जनता को इनसे बहुत-बहुत सावधान होने की जरूरत है।

भगत सिंह

क्रांति का सच्चा सिपाही, एक सच्चा कम्युनिस्ट बनने  के लिए सिर्फ आँखों में जुल्मो सितम के खिलाफ नफ़रत और हाथों में पत्थर नहीं, पास में वैज्ञानिक समाजवाद की किताबे, उसे समझने की उत्कट इच्छा  और भगत सिंह की तरह क्रांति की राह में मर मिटने की प्रतिबद्धता होनी चाहिए.

एक सही क्रन्तिकारी पार्टी का हिस्सा बन कर क्रन्तिकारी काम करने के लिए बहुत बड़े श्रेणी का बुद्धिजीवी होना कोई जरुरी नहीं है, दर्द होना चाहिय, पूँजी के विरुद्ध खड़ा होने का साहस होना चाहिए, जुल्मो सितम के खिलाफ घृणा होनी चाहिए और कुछ करने का जज्बा होना चाहिए. सही क्रन्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में मिहनतकास वर्ग  के महान संघर्ष, समाजवादी समाज की स्थापना के लिए संघर्ष  से जुड़ कर ही आज नवजवान अपने को गर्वान्वित कर सकता है, अपनी अकर्मंन्यता से मुक्ति पा सकता है

कॉफ़ी हाउसी-फेसबुकी-ब्लॉ गबहादुर रणछोड़ ''वामपंथियों'', पीत पत्रकारों, एन.जी.ओ.-पंथियों और कैरियरवादी निठल्लेव बुद्धिजीवियों की आदि के पांतो में शामिल हो कर कोई भी युआ व्यर्थ में अपने बौद्धिक और चारित्रिक पतन के सिवा कुछ भी हासिल नहीं कर सकता. संशय और अविश्वा स का माहौल बनाकर, युवाओं को दुनियादारी की नसीहत देकर उन्हें  निरुत्सा हित करने  की कोई भी कोशिस पूंजीवादी शोषण और दमन से त्रस्त युवाओं को सर्वहारा वर्ग के महान लक्ष्य के लिए चलने वाले संघर्ष से विमुख नहीं कर सकता क्योकि आज पूँजी की निरंकुश और जुल्मी व्यवस्था हर रोज नवजवानों को इस अन्याय पूर्ण व्यवस्था से लड़ने के लिए, इसे उखाड़ फेकने के लिए मजबूर कर रही है, उन्हें वैज्ञानिक समाजवाद का, मार्क्सवाद-लेनिनवाद  का  हथियार उठाने के लिए, समाजवाद के लिए मिहनतकास जनता के महान वर्ग संघर्ष में कूद पड़ने के लिए ललकार रही है.

एक सही क्रन्तिकारी पार्टी का हिस्सा बनने के पहले उसकी पहचान करना जरुरी है, विचारधारा और कार्यक्रम के ऊपर उनकी अवस्थिति को समझना जरुरी है. यह भी जानना जरुरी है कि हर सवाल का  वे खुले दिमाग से और क्रन्तिकारी भावना से जबाब देने को तत्पर है या नहीं. या फिर लफ्फाजी भरी बाते ही करना जानते है, सवाल उठाने पर वे वेचैनी महसूस तो नहीं करते या अनावश्यक प्रचारात्मक  टिपण्णी करने में ही  ज्यादा मशगूल रहते है.

सैनिकों

सैनिकों! अपने आप को इन वहशी जानवरों के हवाले मत करो - वे लोग जो आपसे नफ़रत करते हैं - आपको गुलाम बनाते हैं - जो आपके जीवन पर नियंत्रण रखते हैं - आपको बताते हैं कि क्या करना है - क्या सोचना है और क्या महसूस करना है! जो तुम्हें ड्रिल करते हैं - तुम्हें आहार देते हैं - तुम्हारे साथ मवेशियों जैसा व्यवहार करते हैं, और तुम्हें तोप के चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं. अपने आप को इन दोगले लोगों के हवाले मत कीजिए - मशीनी दिमाग और मशीनी दिल वाले मशीनी लोग! आप मशीन नहीं हैं! आप जानवर नहीं हैं! आप इंसान हैं! आपके हृदय में मानवता के प्रति प्रेम है! आप नफरत नहीं कर सकते! केवल घटिया लोग ही नफ़रत करते हैं – बदनुमा और बनावटी लोग! सैनिकों! गुलामी के लिए मत लड़ो! आज़ादी के लिए लड़ो!

महान कलाकार चार्ली चैपलिन, 'द ग्रेट डिक्टेटर' में

Monday, 19 June 2023

Human Rights, a Mask of Imperialism


Human Rights, a Mask of Imperialism


In the realm of politics and might,

Imperialism wears a mask so tight.

They speak of Human Rights, they claim,

But their actions serve finance's aim.


Trump, Biden, Putin, and Xi,

Leaders who dance to the capital key.

Their talk of "democracy" is just a guise,

To conceal their crimes and human despise.


Taliban, ISIS, creations of the West,

Terrorist organizations, a dangerous nest.

Capitalist imperialism, a contradiction profound,

Resorting to wars, destruction all around.


Ukraine, a theater of power and strife,

Factions rallying, fueling a fascist life.

Blackmail and coups, the rise is grand,

Dictatorial regimes gaining command.


Afghanistan, India, Saudi, and more,

Targeted nations, exploited to the core.

Their leaders and bourgeoisie, filled with glee,

As they plunder the working class, carefree.


Behold the hypocrisy of the US Empire,

Foreign ministers scheming, fueling the fire.

In China, to halt aid to Russia's plight,

While inviting India to join the fight.


EU, a pawn in the strategic game,

Working to defeat Russia, to its own shame.

China's market control, they seek to cease,

Imperialists plotting for power and peace.


Revolutionary forces, their task so clear,

Among the oppressed, they spread hope and cheer.

Building an alternative, a society free,

From exploitation, through social transformation spree.



https://www.huffpost.com/entry/human-rights-groups-blast-white-house-for-modi-visit-shame-on-you_n_648c9832e4b025003ee42ef4?fbclid=IwAR0TQ10YZsRPd6woc3G66pYEh4DeiZGluBdVnvCJ0ZIZ2Z6xPu2-ZOKzv0w 

Wednesday, 14 June 2023

*लोक जनवाद : वर्तमान में इसकी अप्रासंगिकता, (इतिहास एवं सिद्धांत)* - *मोनी गुहा*

*लोक जनवाद : वर्तमान में इसकी अप्रासंगिकता, 
(इतिहास एवं सिद्धांत)* - *मोनी गुहा*

(1) लोक जनवाद के उद्भव और विकास को ठोस ऐतिहासिक परिस्थितियों के संदर्भ में 'परखा जाना चाहिए ।

(2) 1930 के दशक में फासीवाद के उदय के साथ विश्व क्रांतिकारी आन्दोलन को एक झटका लगा तथा विश्व सर्वहारा को संघर्ष की प्रतिरक्षा नीति अपनानी पड़ी। मानव जाति के लिए एक बड़े खतरे के रूप में फासीवाद उभरकर सामने आया। इतिहास के विकास के रास्ते में यह सबसे बड़ी बाधा बन गया था और इसे नष्ट किए विना मानव जाति का आगे बढ़ना असम्भव था। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष तथा बुर्जुवा जनवाद की रक्षा और पुनर्स्थापना के संघर्ष ने ही मुख्य प्रहार की दिशा तथा अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में वर्ग शक्तियों के तालमेल को निर्धारित किया। *उन देशों में भी जहाँ अभी तक समाजवादी क्रांति कार्यसूची पर था बुर्जुवा जनवादी किस्म के कार्य सामने आ गये। ये साम्राज्यवाद विरोधी फासीवाद विरोधी तथा राष्ट्रीय मुक्ति के कार्य थे और इसलिए जनवादी थे।*

(3) फासीवाद के प्रभुत्व और उसके प्रभुत्व के खतरे का अर्थ सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिगमन होता है, वह क्षेत्र चाहे राजनैतिक हो, सामाजिक या राष्ट्रीय।

राजनैतिक तौर पर, फासीवाद ने उन सीमित जनवादी अधिकारों और स्वातंत्र्य को समाप्त कर दिया जिसने वर्ग संघर्ष का रास्ता खोलने में सर्वहारा को मदद दी थी। सामाजिक तौर पर, फासीवाद के प्रभुत्व का अर्थ था सामंती भूदासता और यहाँ तक कि शोषण के दास रूप की पुनर्स्थापना।

राष्ट्रीय तौर पर, फासीवादी शक्तियों द्वारा राष्ट्रों पर सीधे कब्जा जमा लेने के कारण फासीवादी प्रभुत्व का अर्थ था राष्ट्रीय प्रश्न पर प्रतिगमन। फासीवाद का यह अर्थ था कि इतिहास एक कदम पीछे हटा है तथा मजदूर वर्ग और जनता के लिए जनवादी व्यवस्था, जनवादी अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को एक नये आधार पर पुनर्स्थापित करने का बिल्कुल नया विशिष्ट कार्यभार सामने आ गया था।

"हिटलर की पार्टी" स्तालिन कहते हैं, "जनवादी स्वातंत्र्य के दुश्मनों की पार्टी है, मध्ययुगीन प्रतिक्रिया और बलवाई दंगा-फसादों की पार्टी है ।" वे आगे कहते हैं, "जर्मन आक्रमणकारियों ने यूरोपीय महादेश की जनता को फ्रांस से सोवियत बाल्टिक देशों तक, नार्वे, डेनमार्क, बेल्जियम, नीदरलैंड और सोवियत बेलोरूस से लेकर बाल्कन देशों और सोवियत उक्रेन तक गुलाम बनाया है। फासिस्टों ने जनता से उनके बुनियादी जनवादी स्वातंत्र्य को छीन लिया है, उन्हें अपना भविष्य स्वयं निर्धारित करने के हक से वंचित किया है, उनके अनाज, मांस और कच्चे मालों को लूट लिया है; उन्हें गुलाम बना लिया है,......... " (सोवियत संघ के महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के बारे में।) 

(4) स्पेन में फासिस्ट विरोधी जनवादी आन्दोलन के चरमोत्कर्ष पर, फरवरी 1936 में, सभी जनवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों की मिली-जुली जनमोर्चा (Popular Front) सरकार सत्ता में आई जिसने नीचे और ऊपर दोनों तरफ से फासिस्ट विरोधी जनवादी क्रांति की शुरुआत की। यह तुरन्त जनवाद और फासीवाद के बीच का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ग-संघर्ष बन गया जिसमें मध्यम श्रेणी खासकर मध्यम पूँजीपति वर्ग ने सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर फासिस्ट - विरोधी जनवादी क्रांति में सक्रिय भागीदारी ली। एक ओर समाजवादी सोवियत संघ के अस्तित्व और उसके द्वारा स्पेन की जनवादी क्रांति को पहुँचाई गई मदद और दूसरी ओर कई बुर्जुवा राज्यों में फासीवादी तानाशाही का होना और उनके द्वारा स्पेन के फासिस्टों को दी गयी मदद ने विश्व पैमाने पर वर्ग-शक्तियों के तालमेल को निर्धारित किया और यही वजह थी कि उस समय के स्पेनी राज्य के वर्ग-चरित्र के सवाल को कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल ने दूसरे ढंग से पेश किया। स्पेन की जन मोर्चा सरकार ने फासिस्ट -विरोधी जनवादी क्रांति के जिस सचमुच लोकप्रिय रूप को जन्म दिया, उसे बुर्जुआ और सर्वहारा के बीच के एक वर्गीय जनवाद के सीधे अंतरविरोध के रूप में नहीं देखा जा सकता था। स्पेन में जो सरकार बनी, वह न तो सर्वहारा की सरकार थी और न बुर्जुआ की। अलबत्ता यह दोनों के बीच की एक मध्यवर्ती सरकार थी जिसे नई ऐतिहासिक अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में, जब फासीवाद के विरुद्ध विश्व परिदृश्य को रूप देने में सोवियत संघ और विश्व सर्वहारा की बढ़ती भूमिका एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गयी थी, कम्युनिस्ट इन्टर- नेशनल ने 'लोक जनवाद' या 'नव-जनवाद' की संज्ञा दी थी।

इस प्रकार लोक जनवाद का उद्भव एक मध्यवर्ती अवस्था के रूप में हुआ जिसमें मजदूर वर्ग के नेतृत्व में एक अधिक व्यापक सामाजिक आधार पर, सर्वहारा और किसानों के जनवादी अधिनायकत्व की तरह, कमोवेश शांतिपूर्ण ढंग से बिना किसी रुकावट के सर्वहारा के अधिनायकत्व में संक्रमण को सुगम बनाना था।

(5) फासीवाद-विरोधी देशभक्तिपूर्ण युद्ध के दौरान जर्मन और जापानी आक्रमणकारियों को शिकस्त देते हुए सोवियत संघ ने सारी दुनिया के तमाम जनवादी ताकतों की जबर्दस्त क्रांतिकारी क्षमताओं को मुक्त किया, जिन्हें अब तक दबाया गया था। सोवियत सेना की प्रत्यक्ष मौजूदगी ने आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद के नापाक इरादों और प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों द्वारा गृहयुद्ध छेडने की को नाकाम किया। इसके स्वर समाज के राजनैतिक संगठन के रूप में, सभी फासिस्ट विरोधी जनवादी शक्तियों के मिलने से लोक-जनवाद अस्तित्व में आ सका।

(6) अतः फासीवाद-विरोधी संघर्ष और समाजवाद के लिए संघर्ष के बीच की प्रत्यक्ष संयोजक कड़ी के रूप में लोक जनवाद की उत्पत्ति एक ऐसे काल में विश्व इतिहास के विकास का नतीजा था जब समाजवाद की भूमि सोवियत संघ अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति को लगभग निर्णायक ढंग से प्रभावित करने की अपराजेय स्थिति में था, जब राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग शक्तियों के आपसी सम्बन्ध और तालमेल में निश्चित रूप से समाजवाद का पलड़ा भारी हो गया था, जब पूँजीवाद का आम संकट अपने पराकाष्ठा पर थी और पूँजीवाद को पतन के कगार पर ला दी थी, जब मध्यम श्रेणी फासीवाद और फासीवाद विरोध के बीच की ढुलमुल स्थिति में था और अन्त में, जब बहुत से देशों में मजदूर वर्ग फासीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को नेतृत्व देने की लगभग एकान्तिक स्थिति में था।

माओ लिखते हैं- "अगर सोवियत संघ अस्तित्व में नहीं होता, अगर फासीवाद विरोधी द्वितीय विश्व-युद्ध में जीत हासिल नहीं होती, अगर जापनी साम्राज्यवाद को शिकस्त नहीं दिया गया होता (जिसका हमारे लिए खास महत्त्व है)- अगर यूरोप में लोक जनवादी राज्यों की स्थापना नहीं होती तब अन्तरराष्ट्रीय प्रतिक्रियावादी ताकतों का दबाव आज से कहीं ज्यादा होता। वैसी परिस्थितियों में क्या हम जीत हासिल कर पाते? बिल्कुल नहीं। और जीत हासिल करने के बाद उसे सुदृढ़ करना भी असम्भव हो जाता।" (जनता के जनवादी अधिनायकत्व के बारे में)।

(7) लोक जनवाद की स्थापना ने बड़े पूँजीपति और जमींदार का तख्ता उलट कर एक अर्थ में सत्ता के सवाल का समाधान कर दिया। परन्तु यह सत्ता के सवाल का सम्पूर्ण समाधान नहीं था। लोक जनवाद के आरंभिक काल में, मध्यम पूँजीपति और धनी किसानों को राजनीतिक रूप से पृथक करके पराजित नहीं किया जा सका था और जनता के बहुमत को अपने पक्ष में करने की समस्या को पूरी तरह सुलझाया नहीं गया था। मजदूर वर्ग और किसानों के साथ मध्यम पूँजीपति और धनी किसानों ने भी शासन में भाग लिया था। एक स्वतंत्र, राजनीतिक रूप से संगठित ताकत के रूप में बुर्जुआ वर्ग अस्तित्व में था जिसकी अपनी पार्टी थी, प्रेस था और सरकार, वैधानिक निकायों और राज्य मशीनरी में नुमाइन्दे थे ।

(8) इस तरह लोक जनवादी क्रांति की दो मंजिलें थीं— जनवादी और समाजवादी। मजदूर वर्ग, समस्त किसान वर्ग और सारे माध्यम श्रेणी समेत फासिस्ट - विरोधी मध्यम पूँजीपतियों की राजनीतिक मंत्री के आधार पर फासिस्ट समर्थक पूँजीपति और बड़े जमींदारों के राजनैतिक और आर्थिक आधारों को नष्ट करना प्रारंभिक पहली मंजिल का काम था। इस दौरान, राज्य, के लोक जनवादी ढांचे ने सर्वहारा के अधिनायकत्व के कार्यों का निष्पादन नहीं किया और न ही कर सकता था क्योंकि पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को भी सत्ता में भागीदारी थी। इस तरह लोक जनवाद सर्वहारा के अधिनायकत्व का पर्याय नहीं था और न हो सकता था और न ही लोक जनवादी गुट और इसके जन-संगठन अपने सभी चरणों में सर्वहारा के अधिनायकत्व का राजनीतिक संगठन हो सकते थे, जैसा कि संशोधनवादियों और छद्य संशोधनवादियों ने प्रचार किया है।

(9) लोक जनवादी शासन ने सर्वहारा के अधिनायकत्व के कार्यों का निष्पादन केवल क्रांति की दूसरी मंजिल में किया। ठीक लेनिन द्वारा प्रवर्तित युद्ध-साम्यवाद की तरह इस दूसरे चरण की शुरुआत इसके परिपक्व होने से पहले, मध्यम पूँजीपति और धनी किसानों का भंडाफोड़ और पृथक्करण के पूरा होने से पहले और मजदूर वर्ग की सत्ता के सुदृढीकरण से पहले ही करनी पड़ी। शक्तिशाली सोवियत संघ के मौजूदगी के बावजूद, मध्यम बुर्जुआ और धनी किसानों ने, पराजित बड़े पूँजीपति और बड़े जमींदार के साथ सांठ-गांठ करके और सोवियत संघ के विरुद्ध शीत और गर्म युद्ध चलाने की आंग्ल-अमरीकी साजिश के उकसावे और उत्प्रेणा पर उच्छेदक कार्रवाई करने का दुस्साहस किया। उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन का अन्तर्ध्वंस किया, एक पर एक प्रतिक्रांतिकारी षडयंत्र रचा और जासूसी और विध्वंसन को संगठित करने में क्रियाशीलता दिखलाई। इस बुजुआ वर्ग को न केवल लोक जनवादी शासन से सहयोग करने की कोई इच्छा नहीं थी बल्कि इसने हमेशा लोक सत्ता को उलटने की कोशिश की। अनुभव यह दिखलाता है कि संयुक्त गुट और सरकारी तंत्र में अपनी भागीदारी के द्वारा मध्यम बुर्जुआ वर्ग ने क्रांति की प्रगति को बाधित करने और अपनी सत्ता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। मध्यम बुर्जुआ वर्ग और धनी किसानों की पार्टियों का पर्दाफाश करने और उन्हें पृथक कर सरकार और संयुक्त गुट से निष्कासित करने तथा उनकी पूँजी और जमीन को जब्त करने के बाद ही लोक जनवादी शासन सर्वहारा के अधिनायकत्व के कार्यों का निष्पादन कर सकता था। केवल इसी आधार पर सोवियत संघ की सहायता- सामरिक सहायता सहित-से लोक जनवाद उद्योगीकरण और स्वेच्छा के आधार पर कृषि सहकारिता समितियों का गठन करके समाजवाद की बुनियाद रखने के कार्यक्रम की शुरुआत कर सकता था।

लोक जनवादी राज्यों के अनुभव से यह साफ है कि बुर्जुआ वर्ग के एक भाग या निहित स्वार्थों के साथ सत्ता में साझेदारी करके सर्वहारा के अधिनायकत्व को अमल में नहीं लाया जा सकता और बिना सर्वहारा के अधिनायकत्व के समाजवाद की बुनियाद रखना असंभव था।

सर्वहारा अधिनायकत्व के श्रेष्ठ कार्यों को समझे बिना, न तो टीटो मार्क समाजवाद को, न ख्रुश्चेव मार्का आधुनिक संशोधनवाद को और न ही सी० पी० आई० (एम०) के एक व्यापकतर सामाजिक आधार वाले लोक जनवाद की खोखली, अमूर्त और भ्रांतिजनक बातों को समझा जा सकता है।

(10) कुछ देशों में लोक जनवाद की जीत नहीं हुई हाँलाकि इन देशों की आन्तरिक स्थिति इसके लिए काफी अनुकुल थी। यूनान, फ्रांस, इटली और बेल्जियम की आन्तरिक स्थिति लोक जनवाद की स्थापना के लिए परिपक्व थी, लेकिन आंग्ल-अमरीकी हस्तक्षेप के कारण उन देशों के देशी पूँजीपति वर्ग को अपनी प्रमुख स्थिति बरकरार रखने में कामयाबी मिली। आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अल्वानिया और बुल्गारिया में अपनी सेना उतारने की कोशिश की और चेको- स्लोवाकिया, हंगरी तथा पोलैंड में घुसने और वहाँ सोवियत सेना से पहले पहुँचने की कोशिश की। अगर इन देशों में ब्रिटिश और अमरीकी फौजें सोवियत सेना से पहले प्रवेश कर पाती तो वे लोक जनवाद की जीत को रोकने का भरसक प्रयास करतीं।

(11) सामूहिक शत्रु- फासीवाद के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष के सामूहिक मोर्चा द्वारा फासीवाद के पराजय के परिणामस्वरूप लोक जनवाद की जीत हुई । स्वाभाविक तौर पर फासीवाद विरोध और लोक जनवादी क्रांति की पहली मंजिल का सामाजिक आधार अधिक व्यापक था जो कि इसकी दूसरी मंजिल के लिए सही नहीं था।

(12) इस बात पर गम्भीरतापूर्वक गौर करना चाहिए कि 1953 में सर्वहारा के अधिनायकत्व का अधःपतन इसका टीटोवादी विरूपण और एक समाजवादी देश के रूप में युगोस्लाविया की मान्यता (हाँलाकि वहाँ दूसरी मंजिल का कोई कार्य पूरा नहीं किया गया था) के बाद समाजवादी खेमा और लोक जनवाद का अधःपतन शुरू हुआ।

(13) आज फासीवाद के तरह न तो कोई सामूहिक शत्रु है और न ही कोई सामूहिक मोर्चा। कोई समाजवादी देश (जिसका विश्व राजनीति पर निर्णायक प्रभाव हो) नहीं है जिसकी छत्रछाया में लोक जनवाद दूसरी मंजिल तक विकास कर सके। सच्चे कम्युनिस्टों को समझना चाहिए कि इन उपर्युक्त परिस्थितियों के अभाव में और साम्राज्यवाद, भ्रामक बुर्जुआ जनवाद और निजी सम्पत्ति के 'अधिकार' के अत्योद्घोषित स्वच्छंद उपभोग के चरम दिनों में, यदि एक दृढ़ और कृत संकल्प सर्वहारा नीति का अनुसरण नहीं किया गया और यदि विजयी सर्वहारा वर्ग ने धनी किसानों और गैर बड़े पूँजीपतियों से सख्ती से नहीं निपटा, तो क्रांति का उद्देश्य गम्भीर रूप से खतरे में पड़ जायेगा। (ऐसी नीति के बिना न तो आधिपत्य जमाना सम्भव है और न ही गैर-सर्वहारा मेहनतकश जनता, जो पहले से ही मुनाफाखोरी और मालिकाना आदतों का शिकार हैं, के ढुलमुलपन को रोका जा सकता है।)

(14) क्रांति की मंजिल पर हमारे मुख्य लेख से यह स्पष्ट कि आज के भारत में केवल समाजवादी क्रांति ही साम्राज्यवाद विरोध और सामंती अवशेषों को उखाड़ फेंकने के कार्यों को पूरा कर सकती है।
सर्वहारा पथ, 1991 से साभार

Monday, 12 June 2023

Nagarjun



Nagarjun, whose real name was Vaidya Nath Mishra, was a prominent poet and writer in the Hindi literature. He was born on June 30, 1911, in Satlakha village in Madhubani district of Bihar, India. Nagarjun's work had a significant impact on Hindi poetry, and he is considered one of the pioneers of modern Hindi literature.


Nagarjun grew up in a Brahmin family and received his early education in Darbhanga. He later moved to Kolkata (then Calcutta) for higher studies and became involved in the revolutionary movement against British colonial rule. During this period, he came into contact with renowned Bengali poets and intellectuals, which greatly influenced his literary and political thinking.


Nagarjun's poetry reflects his deep concern for social and political issues. His writing style is characterized by its rawness, rebellion, and emotional intensity. He explored themes such as social inequality, poverty, caste discrimination, and the struggles of the marginalized sections of society. His work often questioned established norms and traditions, challenging the existing power structures.


One of Nagarjun's most famous poems is "Badal Rahe Hain Daur," which captures the spirit of revolution and change. It became an anthem for the progressive movement in Hindi literature. His other notable works include "Patarheen," "Yahan se Dekho," "Vanshree," and "Rajghat: Naake waali Makan."


Nagarjun's poetry was not only confined to the written word but also extended to public performances. He was known for his powerful recitations and his ability to captivate audiences with his passionate delivery. His performances brought his poetry to life and added another dimension to his literary expression.


Apart from his poetic contributions, Nagarjun was also a prolific essayist and critic. He wrote extensively on various social, political, and literary topics, offering insightful commentary and analysis. His essays reflected his progressive and humanistic worldview, advocating for social justice, equality, and the upliftment of the marginalized.


Nagarjun's literary achievements were widely recognized and celebrated. He received several prestigious awards, including the Sahitya Akademi Award in 1969 for his collection of poems "Patarheen." He was also honored with the Padma Bhushan, one of India's highest civilian awards, in 1983.


Throughout his life, Nagarjun remained committed to his principles and beliefs. He continued to write and actively participate in social and political movements. His poems and writings continue to inspire generations of readers and poets, leaving a lasting impact on Hindi literature.


Nagarjun passed away on November 5, 1998, leaving behind a rich legacy of poetry and a legacy of social and literary activism. His contributions to Hindi literature have made him an enduring figure and a source of inspiration for those who seek to challenge the status quo and bring about positive change through their words.


Nagarjun, one of the prominent poets in Hindi literature, produced a significant body of work throughout his career. Here is a list of some of his published literary works:


Badal Rahe Hain Daur (Collection of poems)

Patarheen (Collection of poems)

Yahan se Dekho (Collection of poems)

Vanshree (Collection of poems)

Rajghat: Naake waali Makan (Collection of poems)

Talash (Collection of poems)

Sham Ka Nirman Phir (Collection of poems)

Geet Shatabdi ke (Collection of poems)

Khurdure Geet (Collection of poems)

Kathopnishad (Collection of poems)

Chidambara (Collection of poems)

Himalay Darshan (Collection of poems)

Rag Darbari (Collection of poems)

Harsh Shaili (Collection of poems)

Jayadrath Vadh (Epic poem)

These are some of the notable literary works by Nagarjun, but he has written many more poems, essays, and critical writings throughout his career. His work remains influential in Hindi literature, addressing various social, political, and philosophical themes with a distinctive and powerful voice.
















Dictatorship Disguised



Oh, let me regale you with a tale,

Of a land where democracy seems frail,

In the realm of Yogi's power so grand,

Where the people's rights sink in quicksand.


Uttar Pradesh, where tyranny thrives,

A government that no one survives,

They denied permission, oh what a blow,

To celebrate Kabir's birth, don't you know?


Prime Minister Modi's own domain,

Varanasi, where spirituality's reign,

But Kabir's festival, a joyful affair,

Was deemed unworthy, a decree unfair.


How dare they trample on people's voice,

Denying permission, their callous choice,

Dictatorship disguised as governance,

Leaving us all in a state of perplexing trance.


Oh, pray tell, what kind of democracy is this?

Where the ruler decides what to dismiss,

The rights of the people, cast aside,

In the name of power, they subside.

कफ़न

"कफ़न" हिंदी के प्रमुख लेखक मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध लघुकथा है। यह कहानी 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ग्रामीण भारत में सामाजिक असमानताओं और समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के सामने आने वाली कठोर वास्तविकताओं पर प्रकाश डालती है। दलित और सवर्ण के नजरिए से कहानी का विश्लेषण करने से जाति उत्पीड़न और सामाजिक पदानुक्रम पर विभिन्न दृष्टिकोणों की गहरी समझ मिलती है।


दलित दृष्टिकोण से, "कफ़न" उत्पीड़ित जाति के अनुभवों और संघर्षों को दर्शाता है, जिन्हें अक्सर दलित या अछूत कहा जाता है। कहानी में माधव, उनकी पत्नी धनिया और उनके बेटे घासीराम से मिलकर बने एक गरीब, निम्न-जाति के परिवार के जीवन को दर्शाया गया है। वे अत्यधिक गरीबी, सामाजिक भेदभाव और बुनियादी सुविधाओं की कमी का सामना करते हैं।

दलित पाठक पात्रों और उनकी दुर्दशा के प्रति सहानुभूति रखते हैं। वे कहानी को जाति व्यवस्था की एक शक्तिशाली आलोचना और हाशिए के समुदायों पर इसके अमानवीय प्रभावों के रूप में देखेंगे। "कफ़न" समाज में दलितों द्वारा सामना किए जा रहे गहरे पूर्वाग्रहों और सम्मान की उपेक्षा को उजागर करता है। अपनी मृत बहू के लिए कफन प्रदान करने के पात्रों के बेताब प्रयास गरिमा और बुनियादी मानवाधिकारों के लिए उनके संघर्ष का प्रतीक हैं।


दलित पाठक प्रेमचंद द्वारा उनके समुदाय के सामने आने वाली कठोर वास्तविकता के चित्रण की सराहना करेंगे। वे पात्रों की शक्तिहीनता की भावना और गरीबी और उत्पीड़न की चक्रीय प्रकृति के साथ प्रतिध्वनित होंगे। कहानी सामाजिक सुधारों की तत्काल आवश्यकता और जाति-आधारित भेदभाव के उन्मूलन में उनके विश्वास को मजबूत करेगी।


सवर्ण (विशेषाधिकार प्राप्त जाति) के दृष्टिकोण से, "कफ़न" जाति पदानुक्रम के भीतर अपनी स्थिति और उनके द्वारा प्राप्त विशेषाधिकारों को प्रतिबिंबित करने का अवसर प्रदान करता है। कहानी हाशिए पर पड़े दलित परिवार और अपेक्षाकृत समृद्ध सवर्ण समुदाय के बीच के अंतर को दर्शाती है।

सवर्ण पाठक "कफ़न" को अपनी जाति की उदासीनता और निचली जातियों की पीड़ा के प्रति उदासीनता के रूप में देख सकते हैं। कहानी संसाधनों और अवसरों तक पहुंच में भारी असमानताओं को उजागर करती है, समाज में प्रचलित असमान शक्ति गतिशीलता पर प्रकाश डालती है।


कुछ सवर्ण पाठकों को कहानी में प्रस्तुत कठोर वास्तविकताओं का सामना करते हुए दलितों के साथ हुए अन्याय के लिए अपराध या जिम्मेदारी की भावना महसूस हो सकती है। यह उन्हें अपने स्वयं के विशेषाधिकारों और जाति व्यवस्था की निरंतरता पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है।


कुल मिलाकर, "कफ़न" दलित और सवर्ण पाठकों की विपरीत प्रतिक्रियाओं को उद्घाटित करता है। जहां दलित पाठक व्यक्तिगत स्तर पर कहानी से जुड़ते हैं, वहीं इसे अपने संघर्षों का एक शक्तिशाली चित्रण मानते हैं, वहीं सवर्ण पाठक इसे आंख खोलने वाली आलोचना के रूप में देख सकते हैं, जो उनके विशेषाधिकार की स्थिति को चुनौती देती है। कहानी का उद्देश्य जाति व्यवस्था में निहित असमानताओं और अन्याय को उजागर करके सहानुभूति, जागरूकता और सामाजिक परिवर्तन के लिए आग्रह करना है।


मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से मुंशी प्रेमचंद की कहानी "कफन" की जांच ग्रामीण भारत में 20वीं सदी की शुरुआत के दौरान श्रमिक वर्ग द्वारा सामना किए गए संघर्षों, शोषण और प्रणालीगत उत्पीड़न की अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।


आर्थिक शोषण: श्रमिक वर्ग के दृष्टिकोण से, "कफ़न" पात्रों द्वारा सहन किए गए आर्थिक शोषण और गरीबी को उजागर करता है। माधव और उनका परिवार समाज के सबसे निचले तबके से ताल्लुक रखते हैं, जो अपने श्रम प्रधान काम से होने वाली मामूली कमाई पर निर्भर हैं। कहानी उनकी मृतक बहू के लिए उनकी वित्तीय कठिनाइयों के बावजूद एक बुनियादी दफन कफ़न (कफ़न) को सुरक्षित करने के उनके हताश प्रयासों को दर्शाती है।

कामकाजी वर्ग के पाठक पात्रों के संघर्ष को पूरा करने के लिए और गरीबी के चक्र से मुक्त होने में असमर्थता के साथ प्रतिध्वनित होंगे। प्रेमचंद की शोषक आर्थिक व्यवस्था का चित्रण, जहां मजदूर कर्ज और अभाव के चक्र में फंस गए हैं, श्रमिक वर्ग के बीच सहानुभूति जगाएगा। कहानी आर्थिक शोषण के सामान्य अनुभवों और ऊपर की ओर गतिशीलता की कमी को उजागर करते हुए, अपने स्वयं के संघर्षों पर प्रतिबिंब का संकेत देती है।


सामाजिक पदानुक्रम और शक्ति गतिशीलता: श्रमिक वर्ग का परिप्रेक्ष्य "कफ़न" में दर्शाए गए सामाजिक पदानुक्रम और शक्ति की गतिशीलता पर जोर देता है। कहानी मजदूर वर्ग और समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के बीच के अंतर को दर्शाती है। माधव और उनके परिवार की तरह मजदूर, सामाजिक सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर हैं, जो उच्च जातियों से भेदभाव, अनादर और उदासीनता के अधीन हैं।

कामकाजी वर्ग के पाठक पात्रों की शक्तिहीनता और सामाजिक अन्याय के साथ उनके दैनिक मुठभेड़ों की पहचान करेंगे। वे अंतर्निहित असमानताओं और मजदूर वर्ग की सीमित एजेंसी की कहानी के चित्रण से संबंधित होंगे। कहानी उन दमनकारी संरचनाओं को रेखांकित करती है जो सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखती हैं और श्रमिक वर्ग के लिए ऊपर की ओर गतिशीलता के अवसरों को सीमित करती हैं।


कफ़न का प्रतीकवाद: कहानी में कफ़न का प्रतीकात्मक महत्व श्रमिक वर्ग के लिए विशेष प्रासंगिकता रखता है। मज़दूर वर्ग के पाठक कफ़न को अपनी अधूरी आकांक्षाओं, गरिमा से वंचित और दमनकारी व्यवस्थाओं के कारण अप्राप्य सपनों के लिए एक रूपक के रूप में देखेंगे। माधव के परिवार का अपनी बहू के लिए कफ़न प्रदान करने का संघर्ष बेहतर जीवन, समानता और बुनियादी मानवाधिकारों की उनकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।

"कफ़न" पर मजदूर वर्ग का दृष्टिकोण एकजुटता की गहरी भावना और सामाजिक सुधार के आह्वान को जगाएगा। यह कहानी उनकी आवाज को बुलंद करेगी, उनके सामने आने वाली कठोर वास्तविकताओं पर प्रकाश डालेगी और न्याय, उचित मजदूरी और बेहतर जीवन स्थितियों के लिए सामूहिक मांग को प्रेरित करेगी।


संक्षेप में, "कफ़न" पर श्रमिक वर्ग का दृष्टिकोण उस समय के दौरान प्रचलित आर्थिक शोषण, सामाजिक पदानुक्रम और शक्ति की गतिशीलता पर जोर देता है। कहानी श्रमिक वर्ग के संघर्षों के एक शक्तिशाली प्रतिबिंब के रूप में कार्य करती है, सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता को मजबूत करती है जो उनकी आर्थिक कठिनाइयों को दूर करती है और दमनकारी संरचनाओं को चुनौती देती है जो उनके हाशिए पर कायम रहती हैं।


Sunday, 11 June 2023

Signs Of Fascism's Reign


In the land where fascism grows,

Its signs and symptoms clearly shows.

A powerful and constant nationalism,

Using symbols and slogans as their mechanism.


Flags are displayed everywhere,

On clothes and in public squares.

The ideals of patriotism they preach,

Through songs, chants, and speeches they teach.


Disregard for human rights they display,

In the name of security, they betray.

Citizens are made to fear their foes,

Justifying torture and brutal blows.


Identifying enemies, labeling them all,

Uniting against those who they call,

The common threats they magnify,

To consolidate power, they intensify.


Military dominance they maintain,

Neglecting domestic issues in disdain.

Funding the glamour of war and might,

While the concerns of the people take flight.


Gender divisions they enforce,

With patriarchal norms as the main source.

Strict control over traditional roles,

Opposing reproductive rights and LGBT souls.


Media controlled, its freedom denied,

Under the government's watchful stride.

Censorship during times of strife,

Suppressing truth to maintain their life.


National security becomes an obsession,

A tool used to manipulate the nation.

Religion and government form an unholy pact,

Exploiting faith to distract and impact.


Corporate power protected and revered,

Fostering a mutually beneficial veneer.

Establishing a privileged alliance,

Between the elite and the government's compliance.


Suppression of labor unions they seek,

Erasing workers' voices, strong and meek.

Intellectuals and arts face disdain,

Academia's autonomy they try to drain.


Crime and punishment with fervor pursue,

Granting the police almost limitless view.

People often turn a blind eye,

Sacrificing civil liberties for a national lie.


Brotherhood and nepotism run rife,

Shielding each other from scrutiny and strife.

Exploiting power and resources at will,

Corruption rampant, causing a national ill.


These are the signs of fascism's reign,

A system that thrives on fear and disdain.

Vigilance and resistance must be our creed,

To ensure liberty, justice, and freedom we succeed.



Friday, 9 June 2023

पूंजीपतियों,नेताओं,नौकरशाहों और बाबाओं में से कौन सबसे भ्रष्ट,पतित,घृणित और क्रुर है, यह कहना मुश्किल है।सभी बराबर के भागीदार हैं।"



In the realm of power and might,

Where wealth and influence take flight,

Amidst the leaders and the affluent,

Who bears the mark of corruption's dent?

A question that's hard to decipher,

For each one is entangled in the mire.


The capitalists with their fortunes vast,

Their greed and opulence unsurpassed,

Exploiting the laborers, the common folk,

Leaving behind scars and dreams broke.

Their insatiable hunger for wealth,

Leads them down a treacherous stealth.


Then come the politicians, oh so sly,

With promises that often belie,

They dance upon the stage of deceit,

Seeking power, their egos to meet.

Corruption weaves its tangled web,

As they weave their tales, a painful ebb.


The bureaucrats, the wielders of might,

In their ivory towers, out of sight,

They hold the strings of authority,

But often misuse it with audacity.

Their actions sow seeds of discontent,

Leaving the innocent to lament.


And let's not forget the holy men,

Cloaked in robes, preaching in their den,

Some guided by pure intent and grace,

While others hide behind a false embrace.

Exploiting faith, feeding on fears,

Leaving behind a trail of tears.


So who among them is the vilest, indeed?

The most corrupt, the one we should impede?

In truth, it's hard to single one out,

For they all partake in the same bout.

The web of corruption knows no bounds,

As each one's hands in guilt are found.


In this world of power and might,

Where darkness often overshadows light,

We must rise above the wicked game,

And strive for justice, devoid of blame.

For it's not just one, but all together,

Who bear the burden, come whatever.


In unity, we must seek to rise,

Against the corruption that belies,

And build a world of fairness and grace,

Where virtue thrives, and evil will erase.

For it's the collective responsibility we bear,

To create a world that's just and fair.