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Friday, 29 July 2022

पहचान की राजनीति को गालियों से नहीं पहचान सकते


  
ठाकुर अमर सिंह जब सपा के कद्दावर नेता थे, तब दलितों पिछड़ों का बहुत पक्ष लेते दिखते थे, आरएसएस और भाजपा की आलोचना करते थे, इससे कुछ लोग समझते थे कि ये तो पिछड़ों के मसीहा हैं। वह मसीहा जब मरने लगे तो अपनी करोड़ों की पैतृक सम्पत्ति दलित,  या पिछड़ी जाति के संगठन को नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दान कर दिए। कोई आदमी अपनी सम्पत्ति का वारिश उसे ही बनाता है जो उसके दिल के बहुत करीब हो।
 
इसी तरह सतीश मिश्रा जी हैं, संघ और भाजपा को लताड़ते हैं मगर चुनाव आता है तो बसपा में रह कर भाजपा को जिताने का आह्वान करवाते हैं। उनकी जाति पर मत जाइए।  मायावती जी तो दलित ही हैं, मगर संघ को खुश करने के लिए एस सी/एस टी ऐक्ट को संशोधन करके उसे नख-दन्त विहीन शेर बना देती हैं।
 
इसी तरह मुलायम सिंह यादव जी हैं, जनता पार्टी की सरकार थी, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री रामनरेश यादव ने पिछड़ी जाति को 15% आरक्षण देने की बात किया तो संघ के लोग नाराज़ होकर अविश्वास प्रस्ताव लाए थे, तब मुलायम सिंह यादव ने कैबिनेट मंत्री रहते हुए अपनी ही सरकार के खिलाफ वोट देकर रामनरेश यादव की सरकार को गिरा कर संघ को खुश कर दिया था और उस वक्त नारा चला "राम नरेश वापस जाओ, लाठी लेकर भैंस चराओ।" इसी तरह अखिलेश यादव जी संघ को खुश करने के लिए प्रमोशन में आरक्षण खत्म कर देते हैं।
  
संघ के लोग किस संगठन में कहां-कहां बैठे हैं आम आदमी इसका अंदाजा नहीं लगा सकता। कुछ अपवादों को छोड़ कर लगभग सभी दलों के प्रमुख या महत्वपूर्ण पदों पर संघ के लोग काबिज हैं। यहां तक कि कई कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी हैं। 
  
आप को याद होगा छात्र नेता कन्हैया कुमार जी दलितों का भावनात्मक शोषण करने के लिए जयभीम लाल सलाम बोलते हैं। आरक्षण की खूब वकालत करते हैं, आरएसएस के टीवी चैनलों पर इनके चेहरे को खूब चमकाया जाता है। फिर इन्हें कांग्रेस में भेज दिया जाता है।
 
ओवैशी महाराज किस तरह आरएसएस को मदद पहुंचा रहे हैं, ये तो आम आदमी समझने लगा है। ऐसे बहुत लोग हैं जो दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों का हितैषी बनने का दिखावा करके जातिवाद और साम्प्रदायिकता को हवा देकर जनता में फूट डालकर शासक वर्ग को मजबूत कर रहे हैं। 
   
मुलायम सिंह यादव जी खुद को मुल्ला मुलायम कह कर मुसलमानों का हितैषी बनने का ढोंग कर रहे थे। इसी तरह फेसबुक पर एक महिला को देखा वो खुद को 'मुल्ली', 'लेडी ओवैशी', 'मुस्लिमों का सेलिब्रिटी' कहती हैं, पानी पी पी कर संघ को गाली देती है, बादल सरोज जैसे लोग उसकी मार्क्सवाद विरोधी पोस्ट पर तारीफ करते हैं, वह महिला अपने आलोचक को मुस्लिम विरोधी या संघी कहकर ब्लाक या अन्फ्रेंड कर देती है, झूठे आरोप लगाती है, गेट आउट कहती है। इससे लोगों को लग सकता है कि वह महिला संघ विरोधी होगी। मगर यह सब भ्रम है। 

बहुत लोग आरएसएस को गाली देते रहते हैं, आम आदमी भ्रमित हो जाता है, उसे लगता है कि वह आरएसएस को गाली दे रहा है तो जरूर आरएसएस का विरोधी होगा। मगर याद रहे, गाली देना विरोधी होने की पहचान नहीं है, गाली तो बारात में सुने होंगे जब कन्या पक्ष की महिलायें वर पक्ष के लोगों को गाली देती हैं। गाली सुनने वाले भी खूब खुश होते हैं। सुबह तक गाली गवाई के रूप में वे महिलाएं पैसा भी पाती हैं। अत: गाली भी दुश्मनी का पैमाना नहीं है। अगर विरोध व्यवहारिक और सैद्धान्तिक दोनों स्तरों पर नहीं है तो वह विरोध भी एक तरह से विरोधियों के लिए सहयोग ही होता है। 
   
इस सच्चाई को सभी लोग जानते हैं कि सभी धर्मों में अमीर और गरीब हैं, सभी जातियों में अमीर और गरीब हैं, महिलाओं में भी अमीर और गरीब हैं। अगर कोई मायावती की तरह सारे दलितों की बात करता है, मुलायम सिंह की तरह सारे पिछड़ों की बात करता है, या ओवैसी की तरह सारे मुसलमानों या मोदी की तरह सारे हिन्दुओं की बात करता है। मगर इन जातीय,धार्मिक समूहों के 95% गरीबों की बात नहीं करता, तो सही मायने में वह जातिवाद और साम्प्रदायिकता की ही बात करके जनता की एकता को तोड़कर शोषक वर्ग का काम आसान कर रहा होता है।
  
दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, मुसलमानों, हिन्दुओं, सिक्खों, इसाईयों में जो लगभग 95% गरीब और शोषित-पीड़ित हैं, उनकी बात संघ के लोग नहीं करते। क्योंकि गरीबों की बात करेंगे तो गरीबों की एकता की बात जरूर करना होगा, और गरीबों की एकता की बात करेंगे तो जाति, धर्म, पंथ, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र के झगड़ों से ऊपर उठकर जनता को गोलबन्द करना होगा मगर इससे अमीरों को खतरा होगा इसी लिए संघ के लोग जहां भी हैं, वे किसी न किसी जाति, धर्म, पंथ, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र का ही पक्ष लेते हैं। कोई संघी होकर भी मुसलमानों का पक्ष लेता हुआ दिखता है, तो कोई दलितों का, कोई पिछड़ों, कोई आदिवासियों… का पक्ष लेने के नाम पर मुर्मू को राष्ट्रपति तक बना देता है, मगर शोषित-पीड़ित गरीब 'वर्ग' की बात नहीं करता है। ये लोग कभी-कभी उत्पीड़न के खिलाफ तो दिख जाते हैं मगर शोषण के खिलाफ कत्तई नहीं होते। 
 
जो लोग शोषित-पीड़ित वर्ग का पक्ष लेने की बजाय जाति, धर्म, पंथ, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र के नाम पर किसी भी समूह का पक्ष ले रहे हैं वे गरीबों की एकता खण्डित करके शोषक वर्ग का ही काम कर रहे हैं। सावधान रहें, हर पीली धातु सोना नहीं होती।

*रजनीश भारती*
*जनवादी किसान सभा*

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31 जुलाई , प्रेमचन्द जयंती

"निंदा, क्रोध और घृणा यह सभी दुर्गुण हैं लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिये तो संसार नरक हो जायेगा. यह निंदा का ही भय है जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है, यह क्रोध ही है जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है .... घृणा स्वाभाविक मनोवृत्ति है और प्रकृति द्वारा आत्मरक्षा के लिए सिरजी गयी है. जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है उसे शिथिल होने देना अपने पांव में कुल्हाडी  मारना है.  जरूरत इस बात की है कि हम घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें. इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें ... पाखंड, धूर्तता, अन्याय,  बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृतियों के प्रति हमारे अन्दर जितनी ही प्रचंड घृणा हो उतनी ही कल्याणकारी होगी ..
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है."

----प्रेमचंद
(1932 में लिखित 'जीवन में घृणा का स्थान' लेख से) 

रशीद जहाँ स्मृति- समकालीन जनमत में प्रकाशित लेख 'रशीद जहाँ अंगारे वाली'-

रशीद जहाँ स्मृति-
समकालीन जनमत में प्रकाशित लेख 'रशीद जहाँ अंगारे वाली'-
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रशीद जहाँ ' अंगारेवाली'

प्रगतिशील आंदोलन की नींव मज़बूत कर उसको धार देने वाली कॉमरेड रशीद जहाँ अपने लेख   'हमारी आज़ादी' में कहती हैं- "हमें मुल्क में ऐसी आज़ादी चाहिए कि हमारे हिंदुस्तान में कोई भूखा और बेरोज़गार न रह जाए।हमारे यहां के हर बच्चे को हाईस्कूल तक की तालीम मुफ़्त और ज़रूर मिले।शिफ़ाख़ाने (अस्पताल) मुफ़्त हों और इतने हों कि कोई बीमार घर मे पड़ा न सड़े या सड़क के किनारे दम न तोड़ दे आए और हमारे मुल्क में अवाम की जम्हूरी हुक़ूमत हो और वह अपने फ़ायदे के लिए मुल्क की सारी पैदावार ख़्वाह वह ज़मीन से हो, ख़्वाह फैक्टरियों से हो, उन पर जनता का पूरा-पूरा अख़्तियार हो।
अब इस क़िस्म की आज़ादी को हासिल करने के लिए हमें बहुत दूर तक जाना पड़ेगा।एक प्रोग्राम तो दूर का बनाना है और एक फ़ौरी प्रोग्राम बनाकर लड़ाई जारी रखनी है।दूर का प्रोग्राम तो जैसे-जैसे हमारी किसानों, मज़दूरों और मध्यम वर्ग के लोगों की लामबंदी होकर एक बड़ी जमात बन जाएगी तो वह ख़ुद लड़कर आज़ादी हासिल कर लेगी..लेकिन हमारा फ़ौरी प्रोग्राम फ़ेडरेशन के ख़िलाफ़ लड़ना है।हमें फ़ेडरेशन का मतलब गाँव-गाँव जाकर हर आदमी को समझाना है और साथ-साथ उसको लागू होने मुल्क को जो नुकसान  पहुँचेगा वह समझाना है और जनता को  उस ग़ुलाम क़ानून के ख़िलाफ़ बहुत ज़ोर से मुनज़्ज़म (संगठित) करना है।इस लड़ाई में ब्रिटिश इंडिया और रियासतों में किसी किस्म का इम्तियाज़ (पक्षपात) या फ़र्क़ नहीं रखना होगा क्योंकि आज़ादी सारे मुल्क को हासिल करनी है।!ख़्वाह अंग्रेजों के हाथ में हो या रियासतों के।
सारे हिंदुस्तान के मज़दूर हमारे साथ हों और ज़बरदस्त हड़तालें फैक्ट्रियां रेलों वगैरह पर करें और किसान लगान देना बंद कर दें और  हमारे छोटे-मोटे दुकानदार और हमारे छात्र भी साथ मिलकर हड़तालें करें।'

अपने भाषणों में रशीद जहाँ बार-बार यह कहती रहीं कि अगर समूचे मुल्क़ में आज़ादी नहीं आई तो मुट्ठी भर लोगों को मिली इस आज़ादी के भयावह परिणाम होंगे।तीस के दशक में जब कम्युनिस्ट पार्टी कई एक मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़ी हो जाती थी; रशीद जहाँ साथ रहकर भी अपने सभी साथियों में सर्वाधिक पुरज़ोर आवाज़ में अधूरी आज़ादी पर बात किया करती थीं-' अब मिसाल के तौर पर लीजिए कि बम्बई की कांग्रेस हुकूमत ने यह बिल अपनी असेंबली में पास कर दिया कि मजदूरों को हड़ताल का हक़ नहीं होगा पर जब मज़दूरों ने इसकी मुख़ालिफ़त में बहुत ज़ोरदार हड़ताल 7 नवम्बर 1938 में की तो कांग्रेसी हुक़ूमत ने मज़दूरों पर गोलियाँ चलाईं। मद्रास में चिराला शहर के मजदूरों पर कांग्रेस ने सख़्त ज़ुल्म किए और गोली चली।कई मजदूर मारे गए, कई घायल हुए।तहक़ीकाती जाँच कमेटी जो मद्रास कांग्रेस हुकूमत ने बनाई, उसमे सद्र अंग्रेज़ अफ़सर रखा जिसने मज़दूरों के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया और जिसे हुक़ूमत ने माना।बिहार में कांग्रेसी हुक़ूमत ने जमींदारों के साथ समझौता किया है और जिस हक़ का वादा किसानों से अपने मेनिफेस्टो में किया था उसे बिल्कुल पूरा नहीं किया।यू.पी में सियासी क़ैदी अब तक जेल में हैं।'
प्रगतिशील धारा में इस स्पष्ट तल्खियत से कोई नहीं बोल रहा था जो बात  रशीद जहां  'हमारी आज़ादी' लेख और अपने वक्तव्यों में बार बार कह रही थीं।

यह सुधारवाद और संशोधनवाद का दौर था; समूल परिवर्तन और संशोधन के फ़र्क को समझना कठिन हो रहा था।बड़े-बड़े चिंतक-विचारक सामंती रूढ़ियों के भीतर ही किसी रास्ते की तलाश कर रहे थे और संसदीय राह से किसी लोकतन्त्र की कल्पना कर रहे थे जिसका परिणाम बाद के दशकों में सामने आया।रशीद जहां आज़ादी के लिए पहले सोपान की तरह तो कांग्रेस के साथ खड़ी रहती हैं लेकिन आगे समूची आज़ादी के लिए वे बराबर ज़द्दोजहद करती हैं- 'हम जो आज़ादी का दिन मनाते हैं, हमें यह भी देखना चाहिए कि हम कैसी आज़ादी कहहते हैं और उस आज़ादी को हासिल करने के लिए हम क्या-क्या तैयारी करें।'

रशीद जहाँ पेशे से चिकित्सक थीं, सी.एम.ओ के पद पर कार्यरत रहीं।उनके छोटे से जीवन काल को समझते हुए क्रांतिदूत चे ग्वेरा का ध्यान आता है।रशीद जहां ने अपनी सीमाओं में भी अपने चिकित्सीय पेशे को जनवादी बना दिया।समाज मे चली आ रही असमानता के लिए उनका पेशा बुनियादी तौर पर क्या काम कर सकता है; यह भी उनकी चिंताओं में शामिल रहा।उनका दवाखाना कामगार मज़दूरों के लिए हर वक्त खुला रहा।अपने पेशे की ज़िम्मेदारी के साथ उन्होंने मज़दूरों की इकाईयां गठित कीं!आज़ादी और लोकतंत्र के लिए आंदोलन किए और गिरफ़्तार हुईं।
साहित्य का समाज से क्या रिश्ता हो इस पर भी कॉमरेड रशीद जहाँ ने लोगों के बीच स्पष्टता से बात रखी और न सिर्फ़ बात रखी बल्कि परिवर्तन के लिए काम शुरू भी कर दिया।वे अकादमिक बुद्धिजीवियों की तरह सिर्फ़ लिखने-बोलने पर नहीं, सड़क आंदोलनों पर भरोसा रखती थीं और सक्रिय रहती थीं।

हमारी आज़ादी तथा अन्य लेख' पुस्तक में शक़ील सिद्दीक़ी वरिष्ठ समालोचक अहमद सुरूर के हवाले से लिखते हैं-' उन्हें एक रंग महबूब था, वह था सुर्ख़ रंग।वह उन कम्युनिस्टों में नहीं थीं जो ड्राइंग रूम और कॉफ़ी हाउस में बैठकर दुनिया को बदलने के ख़्वाब देखती थीं।वे दुनिया को बदलने में मसरूफ़ थीं।' 
शक़ील साहब कहते हैं -'देहरादून में क़याम के दौरान उन्होंने एक ओर यदि सफ़ाई मज़दूरों, श्रमिकों, छात्रों को संगठित करने का बीड़ा उठाया,मेहतरों की यूनियन बनाई तो दूसरी ओर आर्य समाज मंदिर जाकर ऊँची जाति की मानी जाने वाली स्त्रियों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया।

बाद में 1947 'चिंगारी' पत्रिका निकली जिसके संपादक मंडल में सज्जाद ज़हीर और सोहन सिंह शामिल थे।'
1949 में हुए रेल कर्मचारियों के विशाल आंदोलन और हड़ताल में वे उन दिनों शामिल हुईं जब वे सी.एम.ओ के पद पर काम कर रही थीं।उन्हीं दिनों वे जेल गईं और जेल में भूख हड़ताल पर बैठीं।इन्हीं वजहों से उनकी सेहत लगातार गिरती गयी और वे इस क़दर बीमार पड़ीं कि 47 बरस की छोटी उम्र में उनका निधन हो गया।इस आंदोलन में रशीद जहां के साथ बेग़म हाजरा और पंद्रह अन्य महिला साथी भी गिरफ़्तार हुईं।जेल से वापसी के बाद वे भूमिगत होकर नेतृत्व करने लगीं।
इस्मत चुग़ताई कहा करती थीं कि मेरी रचनाओं के पात्र रशीद जैसे होने चाहिए।उर्दू साहित्य में बदलाव और क्रांतिकारी लेखन के लिए अक्सर इस्मत चुग़ताई, मंटो और कुर्रतुल एन हैदर का नाम लिया जाता है लेकिन हमें देखना चाहिए कि उसी दौर में रशीद जहाँ क्या लिख रही थीं! 

1933 में 'अंगारे' जैसे क्रांतिकारी कथा-संग्रह में प्रखरता से लिखने के कारण उनको लोग 'अंगारे वाली' कहने लगे थे। 'अंगारे' में छपने वाले सभी लेखकों के प्रति यही धारणा बन गयी थी लेकिन प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े रहने के बावजूद अहमद अली, मुमताज़ मुफ़्ती यहाँ तक कि मंटो जैसे लेखक भी अतियथार्थवाद की ओर मुड़ चले थे और व्यक्ति मन के अवचेतन-जनित निराशाओं, विद्रूपताओं, सेक्स और कुंठाओं पर लिखने लगे थे।मंटो तो अपने लेखन मेँ इस तरह नकारवादी होते चले गए कि रशीद जहाँ के लेखन का ख़ूब मज़ाक भी बनाया क्योंकि रशीद जहाँ का स्पष्ट मानना था कि यथार्थ को मात्र रख भर देने से सांस्कृतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।डॉक्टर होने के नाते वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक-राजनीतिक एक्टविस्ट होने के कारण उनका लेखन मोहभंग और नकारवाद नहीं पैदा करता न ही सिर्फ़ काल्पनिक स्वप्न दिखाता है।उनकी कहानियों और नाटकों को पढ़ें तो वे नकली रोमांटिसिज़्म को बड़े पैने ढंग से काटता है।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अदब में  'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग' लिख रहे थे और लोकप्रिय सिनेमा में साहिर जैसे गीतकार 'मेरे महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे' लिख रहे थे इस प्रखरता के पीछे रशीद जहाँ का बुनियादी काम था।निराशा, दुख और स्वप्नभंग बड़ी तेजी से अध्यात्म घुली दार्शनिकता की ओर ले जाते हैं। प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ने के पहले फ़ैज़ की उम्दा शायरी भी सूफीवाद की तरफ़ झुकती दिखाई पड़ रही थी।1932 के दौरान जब वे सज्जाद ज़हीर के साथ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से मिलीं।बहसों-मुबाहिसों से धीरे-धीरे रशीद जहाँ फ़ैज़ जैसे शायर को मार्क्सवाद की वर्ग-चेतस भूमि तक ले आईं।

रशीद जहाँ कहानी में प्रेमचंद की लाइन को सही जगह पर मानती थीं और चाहती थीं कि उर्दू अदब ख़ास तौर पर काव्य में एक बड़ा बदलाव हो। डॉ.क़मर रईस लिखती हैं कि -' प्रगतिशील लेखकों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहाँ अकेली थीं जिन्होंने उर्दू में सामाजिक क्रांतिकारी यथार्थवादिता की परंपरा को सुदृढ बनाने के लिए संघर्ष किया।उर्दू में पहली बार एक क्रांतिकारी और वैज्ञानिक ज़ेहन रखने वाली महिला ने जीवन को उसके ऐतिहासिक और भौतिक परिप्रेक्ष्य में देखा।हमारा अदब ज़रूर मुर्दा लाश की तरह सड़ रहा है तो क्या हमारी सोसाइटी हँसती-खेलती ख़ुश रह सकती है।
जोश मलीहाबाद के प्रासिद्ध लेख 'उर्दू अदब और इन्क़िलाब की ज़रूरत' को संदर्भ में लेकर उन्होंने उर्दू के अदबी माहौल में निहित सामंती बिंदुओं को रेखांकित किया है।बुद्धि और संवेदना से रहित साहित्य किस तरह भावुकता की चिपचिपाहट से भरा हुआ है।जोश मलीहाबादी के हवाले से वे ऐसी निर्मम टिप्पणी लिखती हैं जिससे समूचा उर्दू साहित्य ही खारिज़ हो सकता है-'उर्दू अदब बनावटी तौर-तरीक़े, गुलमाना ज़िंदगी, कहिलाना लापरवाहियों, बेचारगियों वगैरह का संकलन है।मुझे उनसे (जोश मलीहाबादी से) पूरा इत्तेफ़ाक़ है क्योंकि उर्दू अदब में यह चीजें निकाल ली जाएं तो अदब क़रीब-क़रीब ग़ायब ही हो जाएगा।
किस तरह उर्दू का शायर असल और सही, हुस्न और इश्क़ का किस्सा कह सकता है जबकि उसको इश्क़ करने का मौका हमारी सोसायटी नहीं देती, जबकि औरत उससे दूर रखी जाती है।तो यक़ीनन हुस्न और इश्क़ की चाशनी उसके इमकान से बाहर होगी।अब वह सिवाय लड़कों और तवायफ़ों के तजुर्बे, जहाँ उसका गुज़र होता है और क्या लिख सकता है।एक तो ग़ैर फ़ितरी चीज़ है और दूसरी ख़रीदी हुई बीमारी!लेकिन क्या यह असलियत नहीं है और यह कहाँ तक अदब है, हमें सोचना होगा।।'

अपने लेख 'अदब और अवाम' में वह फासिज़्म से संघर्ष करने के लिए साहित्य को सबसे कारगर और मूल्यवान मानती हैं।
'हमारे हिन्दुस्तानी लेखकों पर ग़ैर मुल्की लिटरेचर का बहुत असर पड़ता है।हमारे अदीब तुर्गनेव, तोल्स्तोय, चेख़व और गोर्की जैसे ज़बरदस्त मुसन्निफों की किताबें पढ़कर उनसे प्रभावित होते हैं तो क्या यह मुमकिन है कि इस फ़ासिस्ट जर्मनी को जिसने तोल्स्तोय और मिसिनिया को बर्बाद कर दिया, उन्हें गारत करने में मदद न दें या जिन्होंने चेख़व, गोर्की के घरों को उजाड़ दिया उनको नेस्ते नाबूत न करना चाहिए?हमारी पूरी तरफ़दारी लाल फ़ौज के साथ है जो उन जाहिल फ़ासिस्टों को मिटाने में लगी है।दुनिया की अवाम एक तरफ़ हैं और उनके दुश्मन एक तरफ़।हम लेखकों की ज़बान चाहे अलग हो लेकिन सबको एक आवाज़ ख़्याल होकर यही कहना है कि फ़ासिज़्म की मौत हो, ग़ुलामी की मौत हो , आज़ादी और अवाम की हर जगह फ़तह हो।'

 रशीद जहां की एक कहानी है 'चोर'।एकबारगी पढ़ने पर ऑस्कर वाइल्ड की एक कहानी जैसा प्रभाव यहाँ नज़र आता है लेकिन सबसे ज़्यादा याद आते हैं हबीब तनवीर।हबीब तनवीर ने अपने नाटकों में मुहिम की तरह वर्ग अन्विति को दिखाने की राह ले ली थी।उनका नाटक 'चरनदास चोर' बड़े फ़लक पर नए जनतंत्र का पोल खोलता है।क्या पुजारी, क्या पुलिस, क्या साधु क्या सत्ता;  चरनदास चोर अपनी ईमानदारी के विश्वास से लबरेज़ होकर सबसे खुली बहस करता है और आज़ाद भारत के इस नकली जनतंत्र के पुर्ज़े ढीले कर देता है।रशीद की कहानी 'चोर' का चोर बड़ी विनम्रता से अपने बीमार बच्चे को डॉक्टर साहिबा को दिखाने आता है और बहस करता है लेकिन उसकी विनम्रता बड़ी दृढ़ और निडर है।देर रात में भी डॉक्टर को बच्चे का इलाज करना पड़ता है।इलाज के बाद पैसे न लेने की डॉक्टर की सहानुभूति वह स्वीकार नहीं करता।वह नोटों की गड्डी रख देता है।डॉक्टर हैरान।मालूम पड़ता है कि वह चोर है और शान से अपना परिचय देता है कि हम मैं चोर हुनर ख़ैरात में कोई काम नहीं कराता।'ये साले पुलिस वाले मादर.. पहले अपना हिस्सा वसूल कर लेते हैं फिर हमको हमारा हिस्सा मिलता है।बहन! हमको ये बदनाम करते हैं।चोर से कहें चोरी कर..साह से कहते हैं तेरा घर लुटता है।बेटा.. दरोगा को मैं देख लूँगा।मेरे घर में साहब साल में सैकड़ो बार दौड़ आती है पर यही पुलिस वाले मुझे पहले से ख़बर कर देते हैं।सब सालों ने महीने बांध रखे हैं।पांच साल से बराबर वारंट मेरे नाम जारी रहता है ओर ख़ुदा का फ़ज़ल है कि अभी तक तो पकड़ा नहीं गया।।'

सज्जाद ज़हीर ने रशीद जहाँ पर लिखे एक संस्मरण में बताते हैं कि रशीदा को अमीरों, ताकतवरों, काम न करने वालों और अगम्भीर किस्म के लोगों से एक तरह की नफ़रत थी।डॉक्टरी पेशे के कारण वह अनेक किस्म के लोगों और परिवारों से मिला करती थी और फिर उनका कच्चा चिट्ठा बयान किया करती थी।अंग्रेजों और अमीरों के चेलों की ख़ुशामदी, नए अमीरज़ादों के खोखलेपन से खूब वाकिफ़ थी और बताया करती थी कि जिनके यहाँ पर्दे के रिवाज़ उठ चुका था, उनकी बहन, बीवियां, बहनें और लड़कियाँ अंग्रेज़ी में गिट-पिट करतीं!ब्रिज और रमी खेलतीं और पिकनिक पर जातीं।उन्होंने अपनी भाषा, जातीयता और संस्कृति की दौलत गंवा दी थी।उनकी सारी ज़िंदगी बेहूदा हैजान बनकर रह गयी है।उनकी निरर्थकता और पतनशीलता को पाश्चात्य मुलम्मे से नहीं छिपाया जा सकता।
1936 में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ की ज़मीन तो 1930-32 तक ही जम गई थी।इसे प्रसारित करने में सज्जाद ज़हीर, रशीद जहां और  अहमद अली ने 'अंगारे' नाम से जो पत्रिका निकाली वह इतनी जीवंत और क्रांतिकारी थी कि उस पर 1933 में प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया।जिन रचनाओं पर यह समूह काम करता था वह सामाजिक राजीनीतिक रूप से सजग-सक्रिय होने के साथ साथ साहित्य में कला और सौंदर्यबोध के मानकों को बदलने पर भी काम कर रहा था।
इन्हीं दिनों रशीद जहां ने मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज के दोमुंहेपन, कट्टरता, औरतों की बेबसी और अकेलेपन को संदर्भित कर कहानियां और नाटक लिखे।'औरत और अन्य कहानियां' और  'पर्दे के पीछे' इसी दौरान लिखे गए।'पर्दे के पीछे' 1932 में लिखी गयी संभवतः एकांकी है जब एकांकी विधा उर्दू में बिल्कुल नई ही थी। 

समालोचक अर्जुमंद आरा कहती हैं कि अमूमन लोग दलील देते हैं कि मुस्लिम समाज मे जातिवाद नहीं है या उसकी कोई मज़बूत जड़ नहीं है।पढ़े लिखे प्रगतिशील मुस्लिम भी अनेक बार इन मुद्दों पर चुप्पी साधे रहते हैं लेकिन रशीद जहाँ मीटिंगों और व्याख्यानों में इस पर भी तर्क से बात उठाया करती थीं।उन्होंने मुस्लिम समुदाय के भीतरी अंतर्विरोधों और कट्टरता को केंद्रित कर कई कहानियाँ लिखीं।यह महत्वपूर्ण है कि तत्कालीन राजनीति और सुधारवादी छद्म में वे नहीं आईं।हालांकि वे नीतिगत रूप से कांग्रेस और गांधी के आंदोलनों में संलग्न होती थीं लेकिन अपनी मार्क्सवादी समझ के कारण आज़ाद भारत मे कांग्रेस की नीतियों की प्रबल आलोचक रहीं।लैंगिक मुद्दों पर उन्होंने स्त्री-मुद्दों को केंद्र में रखकर भी वर्गीय दृष्टिकोण को सामने रखा है।कम से कम उस दौर के साहित्यिक तबकों में यह बहुत आगे आगे की बात थी।नाटक 'औरत और मर्द'  जवाबतलबी के अंदाज़ में लिखा हुआ छोटा सा नाटक है जो स्त्री-पुरुष की बहस के बाद  एक दिलचस्प नुक्ते पर ख़त्म होता है।

डॉ. क़मर रईस लिखती हैं- 'रशीद जहाँ की नायिका यह समझ रखती है कि उसके अधिकारों की बहाली आम इंसान की ज़िंदगी और उसके हक़ों से जुड़ी हुई है और इसके लिए इस पूरी अन्यायपूर्ण वर्गगत व्यवस्था को बदलना होगा।'
उर्दू की क्लासिक धारा अपने युगबोध के साथ  बहुत पहले से वेश्या जीवन की त्रासदियों पर लिखती रही है लेकिन उस युगबोध के बावजूद वहाँ भावुकता और सुधारवाद की एक रेखा तारी रहती है।रशीद जहाँ के कुछ नाटक वेश्या जीवन पर केंद्रित हैं जिनका अभी ठीक से अनुवाद नहीं हुआ है लेकिन समालिचकों का मानना है कि ये कहानियां उर्दू साहित्य में वेश्याओं पर लिखे पारंपरिक सोच से बिल्कुल भिन्न यथार्थ की ज़मीन पर लिखे गए हैं।उर्दू साहित्य में स्त्री के प्रति प्रेमिल, भावुक और करुण- रंगीनी और सामंती सहानुभूति की उन्होंने काट- छांट की है।वे मानती हैं कि सामंती जकड़नों से संघर्ष के लिए पारंपरिक ग़ज़ल विधा को छोड़ नज़्मों में लिखना चाहिए।अकारण नहीं कि उस दौर के सभी बड़े शायर नज़्मों में लिख रहे थे।फ़ैज़ ने नज़्मों में लिखकर शासन की नींद उड़ा रखी थी।
अपनी कहानियों और नाटकों में मध्यवर्ग के पाखंड को दिखाने के लिए रशीद जहाँ ने जिस तरह उर्दू मुहाविरों, कहावतों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया ; भाषा मे इसका असर रज़िया सज्जाद ज़हीर पर बख़ूबी पड़ा है।दरअसल उर्दू की गद्य भाषा अब तक यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर कसी हुई नहीं थी!भाषा की भावभूमि पर यथार्थबोध को इस स्तर पर लाने में भी रशीद जहाँ की अग्रणी भूमिका रहेगी।इन सबके बावजूद उनकी रचनाओं में भोंडापन नहीं आता।उर्दू गद्य, विशेष रूप से नाटक और एकांकी को यह संघर्ष करना अभी बाक़ी था।
उनके प्रसिद्ध एकांकी 'औरत' इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है।फ़ैसला, दिल्ली की सैर, इफ्तारी, आसिफ़ जहाँ की बहू, बेज़बान आदि कहानियाँ नए पनपते मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों के पाखंडों की निशानदेही करती कहानियाँ हैं।
भारत मे सांस्कृतिक मोर्चे के तौर पर जन नाट्य संघ (इप्टा) की बड़ी भूमिका है।इप्टा की स्थापना (1943) में रशीद जहाँ अगुवा रहीं प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' संपादन कर उसका नाट्यमंचन उन्होंने इप्टा के मंच पर किया।बाद में काँटेवाला, हिंदुस्तानी आदि भी उन्होंने विशेष तौर पर इप्टा के लिए ही लिखे।

आज जब लव जेहाद जैसे ज़हरीले मुद्दे बनाकर प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश को सांप्रदायिक दंगों में झोंक देने पर 
उतारू हैं!इस पर क़ानून बना रहे हैं; ऐसे में रशीद जहाँ का 'हिंदुस्तानी' नाटक बार-बार खेला जाना चाहिए जिसका पूरा प्लॉट ही विभिन्न धर्म-संप्रदायों के बीच विवाह के समर्थन और बढ़ावे पर लिखा है।यह उस समय के लिहाज़ से इतनी भी साधारण बात नहीं थी।
इतनी कम उम्र में रशीद जहाँ ने लगभग बीस नाटक और नौ एकांकी लिखे।कितने ही नाटकों का अनुवाद किया।कहानियां लिखीं! कहानियों का नाट्य-रूपांतरण किया।पत्रिकाएँ संपादित कीं और वैचारिक लेख लिखे।
1857 के विद्रोह के बाद सेना में चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व मे विद्रोह हुआ।चंद्र सिंह गढ़वाली ने जेलों में मार्क्सवादी साहित्य पढ़ते हुए लंबा समय बिताया और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के होल-टाइमर बनकर अनेक मुहिमों से जुड़ गए।रशीद जहाँ ने चन्द्र सिंह गढ़वाली की इस विद्रोह-गाथा पर विस्तार से लिखा।रशीद जहाँ ने बहुत कम उम्र मे जिस तरह का सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक जीवन जिया वह अमूल्य है।स्त्रीवाद की ठोस समझ और प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी मूल्यों में भरोसा रखने वालों के लिए वे रोशन मीनार की तरह रहेंगी।

Vandana Choubey

Monday, 25 July 2022

Bahas: Issue 7 Sri Lanka in deep social, economic and political crisis: An analysis

Bahas: Issue 7

Sri Lanka in deep social, economic and political crisis: An analysis

(The working class and its revolutionary party lost revolutionary opportunity to take over the state power, once again)

We all, especially the Indians, know about Sri Lanka, a small island, with a population of slightly more than 20 million (2 Crore), where IPKF (Indian Peace Keeping Force) was stationed in 1987 for almost 3 years to "help" the then government to stabilize the country, which was battling a bloody war against LTTE (Liberation Tigers of Tamil Eelam) led armed struggle, but very soon was crushing the LTTE with all the might. By the way, for first few days, the Indian soldiers used to be in very friendly relation with the LTTE militants, giving and accepting food and gifts, as they had not gone there to crush their revolt against the Colombo repression.

Present Sri Lankan crisis started about 3-4 months back, when the people found market was unable to supply them petrol, diesel, oil, food, etc. Whatever was available, were very expensive, like food and scarcity of electricity became normal. World Food Program (WFP) feared, about 4.9 million (49 lakhs) people were on verge of starvation.

Last many weeks, people were on roads, protesting against the ex-President and now the new regime, demanding the resignation of all the old rulers. However, the protesting people had no vision to capture the state power themselves, as there was no revolutionary party, with a revolutionary idea or vision, to educate themselves, the protesting mass and lead them.

Sri Lanka was reeling under heavy loan, more than 50 billion USD (50 Aarab $), of which 50% was from the world market. Inability to pay back was due destruction of tourism (25% of the population are dependent on tourism) during Coronavirus Pandemic and even earlier due Easter explosion (on 21 April, 2019), in which 269 people were killed and more than 500 injured, in a terrorist attack.

Rajapaksa clan, based on personality cult, and polarization of the masses on religion, could do nothing to save the economic disaster. President Gotabaya fled the country (in his second effort, as in first one, he was not allowed by the migration staff) via Male (Maldives) to Singapore and "officially" resigned as President on 14 Jul, 2022. A "strong" and charismatic President, loved by the Buddhists, the majorities of Sri Lanka, had got more than 40 thousand Tamilians and hundreds of activists, journalists, Leftists killed and was hailed as the "emancipator" of the country.

An emergency was declared by him on 01 April, 2022 to suppress the mass revolt, but that further fueled the movement and was withdrawn. Now after his departure, the new government has again declared emergency. 

It must be noted that Sri Lankan's closeness with China was not liked by the USA and even by India. Biden administration removed its name from Democratic Summit in 2021, where both India and Pakistan were invited.

Background: Loan in 2019 was close to 36 billion USD (Arab $). Sri Lanka's loan from China was 10% of the whole debt, WB and ADB another 10%, and from US, Japan and other European monopoly banks was 80%. The bail out was offered by IMF, like it happens elsewhere. IMF loans are always with terms and conditions, which are designed not really to bail out the victim country, but rope it deeply, in a vicious circle, a whirlwind, which only drowns the victim or the target further. One of the conditions is always to cut down the subsidies (food, fertilizers, electricity, transportation, healthcare and education system, etc.) and welfare measure of the people. Another one is absolute destruction of labor laws, environment laws to favor the capitalist class in increasing profit rate and cut down its taxes and waive off the unpaid taxes and loans. Farm laws in most of the Latin, African and in India had been invented and implemented to rout the peasants from the land, convert them into agricultural workers and extract maxim profit from the agricultural land. Wherein the corporates always get the most of the benefits of such aids. Most of the Constitutions of the developed or undeveloped countries (in fact the state itself) favor the elite or the ruling class and not the proletarian class.

IMF, WB and other monopoly banking system forced Sri Lanka to produce goods for international market and earn profit, rather for home consumption. This helps finance capital to extract maximum profit, plunder the victim nations; monopolize their natural resources and public property, banks, etc. Law of uneven development, in capitalism, works within a country as well as globally. And the effect can be seen in some parts of the world, both ruination or rise of a country economically.

Remember, Khrushchev advising Enver Hoxha to pay more attention on agriculture and small industries rather on heavy industrialization; and the needed industrial products would be imported from USSR, while grains, other non-industrial and small goods or products would be exported from Albania?

Revolutionary Situation of Sri Lanka: When thousands of people had captured the Presidential residence and hundreds of thousands were in street, when police as well as army were immobilized or incapacitated and the PM resigned, the President ran away from the country, the so-called revolutionary forces, Communists were just part of the crowd, bystanders of a "revolution", rather marching forward to take over the state, establish their own state and machinery. 

New President Ranil Wickremesinghe was elected and sworn in on 21 Jul, 2022 and next day, that is on 22 July 2022, he ordered his Military, police and police special forces to raid the "anti-government protest camp" outside the President's office. All the soldiers were in riot gears. This joint operation was carried out in early morning, in which 7 were arrested and 50 were beaten and injured. One of the activists said, the police beat them mercilessly and wondered if the new President knows what is democratic rights of the "peaceful" protestors! While the police spokesperson said, "They (The protestors) have no legal rights to hold it"!!

The new Prime Minister is a political old-timer. Dinesh Gunawardena is the leader of the Trotskyist majority nationalist Mahajana Eksath Peramuna (MEP), which is a constituent party of Sri Lanka's ruling Sri Lanka Podujana Peramuna (SLPP). He has served as foreign and education minister of the country and recently was appointed as Home Minister by the outgoing President in April, 2022. As good as social democrats, part of parliamentarian politics, they (He, his family and his party, Lanka Sama Samaja Party, SMPP) have enjoyed all the pay, perks from the bourgeois class. To expect them to lead a proletarian revolution, establish Dictatorship of the Proletarian Class, after demolishing the old state and build socialism by negating private property is absolute utopia.

Lost opportunity, as these leaders and the party cadres never thought of revolution, neither were ready for that, and it seems they never appreciated the qualitative changes that occurs and leads to a revolutionary situation, presenting an opportunity for the proletarian class to take over the old state power, demolish it and build its own state. No socialist society can ever be built while the state power is in the hands of the bourgeois class. What maximum can happen is, a pro people government, ensuring "again" some subsidy and welfare measures, but this balance of power between the capitalist class and the proletarian class is never stable, but changes and in due course, when the unity of the working class and the oppressed people weakens, the bourgeois class retakes the state power in its earlier form, may be with different mask, depending on new situation, and all the 'concessions' given to the people are withdrawn. India is an example. 

We had similar situations elsewhere, where we lost opportunity and what we gained was an analysis of the past situation, learn the lessons again and again. Did we not have an opportunity in Kazakhstan recently? Earlier in Chile, under the leadership of Allende, in Burkina Faso, under the leadership of Thomas Sankara, and, recently even in in Bolivia and Venezuela? In India in 1946, when the Indian soldiers mutinied against the British Raj, some opportunity existed for the CPI.

Well, we have examples of many Social Democracy in the world; in social imperialist China, Scandinavian and Latin American countries. Yes, the leaders of the stated countries, who are over satisfied with their power and people's "support", are unaware of the sword hanging over their necks, created due deep irreconcilable, rising contradictions in capitalism and by the US imperialism, allies and NATO, the finance capital through institutionalization, like IMF, WB. Even many Communist Parties, in these countries, are doing service to their respective countries, playing the role of "opposition".

The Communist Parties of Sri Lanka had given up their class struggle (a direct confrontation between the capitalist class and the working class), leading to the question of the state power. Self-education, educating the masses, working in the military, para-military forces, police were not part of their syllabus. Underground or legal or semi-legal works were buried and constitution was upheld. Now, they are waiting for next election to come to power and build socialism!! End of the present Sri Lankan crisis or the revolt of the people?

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936)

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रस्तुत है उनकी रचनाओं से चुने हुए उद्धरण: 

सम्पत्ति विष की गाँठ
 
जब तक सम्पत्ति मानव-समाज के संगठन का आधार है, संसार में अन्तरराष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। राष्ट्रों-राष्ट्रों की, भाई-भाई की, स्त्री-पुरुष की लड़ाई का कारण यही सम्पत्ति है। संसार में जितना अन्याय और अनाचार है, जितना द्वेष और मालिन्य है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है, उसका मूल रहस्य यही विष की गाँठ है। जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव-समाज का उद्धार नहीं हो सकता। मज़दूरों के काम का समय घटाइये, बेकारों को गुज़ारा दीजिये, ज़मींदारों और पूँजीपतियों के अधिकारों को घटाइये, मज़दूरों-किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइये, सिक्के का मूल्य घटाइये, इस तरह के चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस तरह के टीपटाप से नहीं खड़ी रह सकती। इसे नये सिरे से गिराकर उठाना होगा।—

— संसार आदिकाल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है।— लेकिन संसार का जितना अकल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया। यह देवी नहीं डायन है।

-- सम्पत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम तक भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय, इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसा-यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएँ क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन नहीं होगा, जब तक सम्पत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी।
✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद ('राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता' लेख से)

महाजनी सभ्यता
आग लगाकर चाहें कि लपटें न उठें, असम्भव। पैसा अपने साथ ये सारी बुराइयाँ लाता है, जिन्होंने दुनिया को नरक बना दिया है। इस पैसा पूजा को मिटा दीजिये सारी बुराइयाँ अपने आप मिट जाएंगी, जड़ न खोदकर केवल फुंदगी की पत्तियां तोडना तो बेकार है। 

...यह नयी सभ्यता (रूस की समाजवादी व्यवस्था) धनाढ्यता को हेय और लज़्ज़ाजनक तथा घातक विष समझती है। वहां कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है। 
✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद
 

आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस

"लोग कहते हैं आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस निकालने से क्या होता है...? 
इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं हैं। 
हमें अपने हार न मानने वाले स्वाभिमान का प्रमाण देना था। 
हमें यह दिखाना है कि हम गोलियों और अत्याचारों से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अंत करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थीपन और खून पर है। "
✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद

क्रांति

"अब क्रांति में ही देश का उद्धार है – ऐसी क्रांति में, जो सर्वव्यापक हो, जीवन के मिथ्या आदर्शों का, झूठे सिद्धांतों का, परिपाटियों का अंत कर दे, जो एक नए युग की प्रवर्तक हो, एक नयी सृष्टि खड़ी कर दे, जो मिट्टी के असंख्य देवताओं को तोड़-फोड़कर चकना-चूर कर दे। जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दे।" 
✍🏻प्रेमचंद के "कर्मभूमि" उपन्यास से

 कानून और न्याय

"न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं, वह जैसे चाहती है नचाती है।" ~ मुंशी प्रेमचंद

"कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है।कानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई जमींदार किसी कास्तकार के साथ सख्ती न करे; मगर होता क्या है। रोज ही देखते हो। जमींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़ा है, उससे न जमींदार बोलता है, न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं।"
✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद के "गोदान" उपन्यास से

"इस तरह जबर-जस्ती करने के लिए जो कानून चाहे, बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़ने-वाला तो है नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ-महाजन ही हैं।"
✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद के 'रंगभूमि' उपन्यास से

डेमोक्रेसी

जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं,वह व्यहवार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है जिसके पास रुपये हैं। रुपये के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएं तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले जो जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहे फेर दें। सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं ।   
✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद (गोदान )

साहित्य का उद्देश्य

"जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।" ~ ✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद

"हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब सोना मृत्यु का लक्षण है ।" ✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद
 (सभापति, प्रलेस, 1936)

राष्टवाद

राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बॅंटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है। जागरूक आत्माएँ संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं, लेकिन राष्ट्रीयता के बन्धन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।' (विविध प्रसंग, 2, अमृतराय, 1980, पृष्ठ 333-34)

पूंजीपति और किसान

"जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से। कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था, यह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा है, जिसका पसीना उसी की सेवा में पानी की तरह बह रहा है।' (वही, पृ. 331)

किसान 

"जब किसान निपट मूर्ख था, तो उसके लिए काले और गोरे पूंजीपति में कोई अन्तर न था। पर, जब धीरे-धीरे उसने राजनैतिक ज्ञान सीखा, राष्ट्र और जाति जैसे शब्दों से उसका परिचय हुआ, तो उसने सेठ पुनपुनवाला के वैष्णव तिलक और हिन्दूधर्म के प्रति असीम श्रद्धा और उनके द्वारा बनाए गए धर्मशालाओं और मन्दिरों को देखकर उन्हें अपना उद्धारक समझा। लेकिन जब पुनपुनवाला की मिलों में उसकी ऊख की खरीद होने लगी, जब उनकी आढ़तों में उसका अनाज या सन तौला जाने लगा, तब उसे अनुभव हुआ कि सेठ जी बाहर से जितने बड़े धर्मात्मा और देशभक्त हैं, भीतर से उतने ही लुटेरे और बन्धुद्रोही भी हैं, और धन और देशप्रेम का यह सारा आडम्बर उन्होंने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रच रक्खा है।" (वही, पृ. 33)

शिक्षा का व्यापारिकरण 

"यह किराये की तालीम हमारे कैरेक्टर को तबाह किये डालती है। हमने तालीम को भी एक व्यापार बना लिया है। व्यापार में ज्यादा पूंजी लगाओ ज्यादा नफा होगा। तालीम में भी ज्यादा खर्च करो ज्यादा ऊंचा ओहदा पाओगे।मैं चाहता हूँ ऊंची से ऊंची तालीम सबके लिए मुफ्त हो ताकि गरीब से गरीब आदमी भी ऊंची से ऊंची लियाकत हासिल कर सके और ऊंचे से ऊंचा ओहदा पा सके। यूनिवर्सिटी के दरवाजे मैं सब के लिये खुले रखना चाहता हूँ। सारा खर्च गवर्नमेंट पर पड़ना चाहिये। मुल्क को तालीम की उससे कहीं ज्यादा जरूरत है जितनी फौज की।" ✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थान पूजक नहीं है। ताजिये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढ़नी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइये, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते है तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने ज़ोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं तो हिन्दू भी अस्सी फीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाजी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालांकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?

संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुगलकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।

फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता को सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रियायतें पा गया है तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुख़र्रू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, ज़मींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता  पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज़्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफसरों की निगाह में बड़ी इज्जत है, इनकी वे बड़ी ख़ातिर करते हैं।

इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं,  ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में खूब लड़े जाओ, खूब एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाये जाओ। उनके पास फरियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मजा यह है कि बाजों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये  जाते हैं। इस तरह की गलतहमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज़्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई ज़माना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के ज़माने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन ज़मानों को भूल जाइये। वह मुबारक दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर ग़रीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न ज़रूरत। 'संस्कृति' अमीरों, पेटभरों का बेफिक्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।

उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज़्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखें बन्द किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।✍🏻:- मुंशी प्रेमचंद

Saturday, 23 July 2022

अंधविश्वास और ओशो

1930 से रूस वालो ने अपने बच्चों को ये सिखाया की ना ही आत्मा होती है और ना ही परमात्मा होता है, पूरे 25 वर्ष लगे ये बात समझाने में तब जाकर उनकी पीढ़ी इस बात को समझी और आज रूस नास्तिक देश है, और साथ में विकसित देश है। आज यदि भारत के लोगो को कोई आत्मा, परमात्मा, चमत्कार, भूत, प्रेत के अस्तित्व के बारे में कोई कह रहा हो, तो जल्दी से उनके दिमाग मे उतरने लगता है। लेकिन इसके विपरीत कोई कुछ कह रहा है, तो उल्टा उसे पागल करार कर दिया जाता है ।

इस मुल्क ने ध्यान समाधि आत्मा और मोक्ष पर सबसे ज्यादा साहित्य रचा है। सबसे ज्यादा गुरु, शिष्य, बाबा, योगी, सन्यासी, भक्त और भगवान पैदा किये। अगर ये सारे लोग पांच प्रतिशत भी सफल रहते तो भारत सबसे अमीर वैज्ञानिक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज का धनी होता। क्योंकि ध्यान के जो फायदे गिनाये जाते हैं उसके अनुसार आदमी सृजनात्मक करुणावान तटस्थ और सदाचारी बन जाता है।

अब भारतीय समाज और इसके निराशाजनक इतिहास व वर्तमान को गौर से देखिये। इसकी गरीबी आपसी भेदभाव, छुआछुत, अन्धविश्वास, पाखण्ड, भाग्यवाद और गन्दगी देखकर आपको लगता है पिछले तीन हज़ार सालों में इसके अध्यात्म ने इसे कुछ भी क्रियेटिव करने दिया है? 

पिछले दो हज़ार साल से ये मुल्क किसी न किसी अर्थ में किसी न किसी बाहरी कौम का गुलाम रहा है। मुट्ठी भर आक्रमणकारियों ने करोड़ों के इस देश को कैसे गुलाम बनाया ये एक चमत्कार है। ऐसे हज़ारों अध्याय इस देश में छुपे है। इसीलिये इस मुल्क ने अपना वास्तविक इतिहास कभी नही लिखा बल्कि वह लिखा जिससे  मूर्खताओं के सबूत मिटते रहे। गौरवशाली इतिहास की कल्पनाओं को गढ़कर गर्व करते हैं पर वह लुटा क्यों उसकी जिम्मेदारी कभी नहीं लेते। 

ये सब देखकर दुबारा सोचिये भारत के परलोकवादि अध्यात्म आत्मा परमात्मा और ध्यान ने इस देश के लोगों को क्या दिया है। इन्होंने अलग किस्म के आविष्कार किये, ऊपरवाला ख़ुश कैसे होता है?  ऊपरवाला नाराज़ क्यों होता है? स्वर्ग में कैसे जायें? नरक से कैसे बचें? स्वर्ग में क्या-क्या मिलेगा? नरक में क्या-क्या सज़ा है? हलाल क्या है, हराम क्या है? बुरे ग्रहों को कैसे टालें? मुरादें कैसे पूरी होती है? पाप कैसे धुलते हैं? पित्तरों की तृप्त कैसे करें ? 

ऊपरवाला किस्मत लिखता है..वो सब देखता है.. वो हमारे पाप-पुण्य का हिसाब लिखता है.. जीवन-मरण उसके हाथ में है.. उसकी मर्ज़ी बगैर पत्ता नहीं हिलता.. ऊपरवाला खाने को देता है.. वो तारीफ़ का भूखा है.. वो पैसे लेकर काम करता है..  मंत्रों द्वारा संकट निवारण.. हज़ारों किस्म के शुभ-अशुभ.. हज़ारों किस्म के शगुन-अपशगुन.. धागे-ताबीज़.. भूत-प्रेत.. पुनर्जन्म.. टोने-टोटके.. राहु-केतु.. शनि ग्रह.. ज्योतिष.. वास्तु-शास्त्र...पंचक. मोक्ष.. हस्तरेखा..मस्तक रेखा..वशीकरण.. जन्मकुंडली..काला जादू.. तंत्र-मन्त्र-यंत्र.. झाड़फूंक.. वगैरह.. वगैरह..इस किस्म के इनके हज़ारों अविष्कार हैं।

अब यूरोप को देखीये वहां धर्म की परमात्मा की और अध्यात्म की बकवास को नकारते हुए चार सौ साल पहले व्यवस्थित ढंग से विज्ञान और तर्क पैदा हुआ। आज जो तकनीक और सुविधाएँ है वो उसी की उपज है। और मजे की बात ये है कि धर्म और सदाचार की बकवास किये बिना औसत आबादी में आपस में कहीं ज्यादा मित्रता समानता और खुलापन आया है। ट्रेन, होटल, थियेटर में सब बराबर होते हैं साथ में खाते पीते हैं। 

पहली बार सबको शिक्षा स्वास्थ्य और मनचाहा रोजगार नसीब हुआ है। भारतीय माडल पर न तो कोई स्कूल खड़ा है न कालेज न कोई फेक्ट्री। न कोई तकनीक न कोई राजनितिक व्यवस्था। विज्ञान, समाजशास्त्र, तकनीक, मेडिसिन, लोकतन्त्र इत्यादि सब कुछ विश्व के उन नास्तिकों ने विकसित किया है जिन्हें हमारे बाबा लोग रात दिन गाली देते रहते हैं। 

हमने विज्ञान को इतनी तवज्जो क्यों नहीं दी? इसका जवाब ये है कि बचपन से होनेबवाले हमारे मन पर आस्तिक संस्कार। स्कूल हो, या घर हो, हर तरफ दैवीय शक्ति को बचपन से हमारे कच्चे मन मे बिठा दि जाती है। ऐसे संस्कारो में हम पलते है, बडे होते है और हमारे अंतर्मन मे यह बैठ जाता है कि भगवान का अस्तित्व है , शैतान भी है। उसे नकारने के लिए मन तैयार नही हो पाता। इसलिए अपने उन लोगो के सामने कितना भी माथा पीटे, तो भी वे यही कहेंगे कि कुछ तो है।

आज भी टी.वी सिरीयल मे अंधविश्वास ,काल्पनिक बातो के अतिरिक्त और कुछ भी नही दिखाया जाता। हमें बचपन से कैसे तैयार किया जाता है यह जानना बेहद जरूरी है। बचपन में माँ कहती है उधर मत जाना भो आ जाएगा.. बचपन मे माँ बताती है भगवान के सामने हाथ जोडकर  बोल 'भगवान मुझे पास कर दो '।

टीवी पर कार्टून मे चमत्कार, जादू जैसी अवैज्ञानिक बाते दिखाकर बच्चो का मनोरंजन किया जाता है, लेकिन चमत्कार और जादू की बच्चो के अंतर्मन मे गहराई तक असर होता है और बडे होने के बाद भी इंसान के मन मे चमत्कार और जादू के लिए आकर्षण कायम रहता है.. स्कूल मे जो विज्ञान सिखाया जाता है उसका संबंध रोजमर्रा की जिंदगी से न जोडना। Law Of Monopoly मतलब 99% समाज के लोग इसी राह पर चल रहे है तो जरूर वे सही ही होंगे, हमने उनका अनुकरण करना चाहिये ये समझ।

 इंसानी जीवन भाव भावनाओ की ओर उलझा होने के कारण उसमे असीम सुख और दुख की विस्मयकारक शाॅकिंग मिलावट है, जो बाते उसे हिलाकर रख देती है और उसका चमत्कारो पर यकीन पक्का होता जाता है।  हमने ये किया इसिलिये ऐसा हुआ और हमने ऐसा नही किया इसलिए हमारे साथ वैसा कुछ हुआ है। ऐसी कुछ योगायोग की घटनाओ को इंसान नियम समझकर जीवन भर उसका बोझ उठाता रहता है। Law Of Repeated Audio Visual Effect- इस तत्व के अनुसार समाज मे मिडिया, माउथ पब्लिसिटी, सामाजिक उत्सव इत्यादि माध्यम से जो इंसान को बारबार दिखाया जाता है, सुनाया जाता है उसपर इंसान आसानी से यकीन कर लेता है ।

 'डर ' और ' लोभ ' ये दो नैसर्गिक भावनाए हर इंसान के भीतर बडे तौर पर होती है, लेकिन जिस दिन ये भावनाए इंसान के जीवन पर प्रभुत्व प्रस्थापित करती है तब वह मानसिक गुलामगिरी मे फसता जाता  है। और अंत मे सभी मे महत्वपूर्ण बात 'चमत्कार' होता है ऐसा सौ बार आग्रह से बताने वाले सभी धर्म के ग्रंथ इस बात की वजह है। इसलिए धर्म ग्रंथ मे बतायी गयी अतिरंजित बाते कैसे गलत है, ये वक्त रहते ही बच्चो को समझाने की कोशिश करे। 

जो इंसान भूत प्रेत के कारण रात के अंधेरे में अकेले सोने, चलने से डरता है, समझ लेना वह सबसे ज्यादा अंधविश्वासी है। उसका मन मानता है कि भूत है और यह धारणा यह साबित करती है कि भूत पहले है। भूत है तो ईश्वर है। उसका अंधविश्वासी होना एक प्रकार के डर से है।

इसमें धार्मिक प्राणियों की कमी नहीं है, जो साइंस की हर चीज़ इस्तेमाल करते हैं और साइंस के विरुद्ध भी बोलते हैं। साइंस की भावनाएं आहत नहीं होती क्योंकि उसका प्रचार प्रसार नहीं करना पड़ता। सत्य का कैसा प्रचार वह तो स्वतः ही स्वीकार हो जायेगा लेकिन झूठ को प्रचार की आवश्यकता होती है। जिन अविष्कारों ने हमारे जीवन और दुनिया को बेहतर बनाया है, वे सब अविष्कार उन्होंने किये, जिन्होंने धार्मिक कर्मकांडों में समय बर्बाद नहीं किया।

आज कोई भी धार्मिक प्राणी साइंस से संबंधित चीज़ों के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता, लेकिन ये साइंसदानों का एहसान नहीं मानते, ये उस काल्पनिक शक्ति का एहसान मानते हैं, जिसने मानव के विकास में बाधा डाली है। जिसने मानवता को टुकड़ों में बांटा है। साइंसदान, अक्सर नास्तिक होते हैं। लेकिन धार्मिक प्राणी कहेंगें," साइंसदानों को अक्ल तो हमारे God ने ही दी है"
लेकिन ऐसे मूर्ख इतना नहीं सोचते कि उनके God ने सारी अक्ल नास्तिकों को क्यों दे दी, धार्मिक प्राणियों को इतना मन्दबुद्धि क्यों बनाया ?

पिछले 150 साल में, जिन अविष्कारों ने दुनिया बदल दी, वे ज़्यादातर नास्तिकों ने किये या उन आस्तिकों ने किये जो पूजा-पाठ, इबादत नहीं करते थे। अंधविश्वास और कट्टरता से भरे किसी भी धर्म वालों ने ऐसा कोई अविष्कार नहीं किया, जिससे दुनिया का कुछ भला होता है। हाँ यह जरूर है कि ये अपनी किताबों में विज्ञान जरूर खोजते रहते हैं लेकिन अगली खोज क्या होगी यह नहीं बताएंगे जबतक अगली खोज सफल न हो जाये उसके बाद कहेंगे यह तो हमारी किताब में पहले से ही मौजूद थी।

इन्सान को उसके विकसित दिमाग़ ने ही इन्सान बनाया है, नहीं तो वह चिंपैंजी की नस्ल का एक जीव ही है, जो इन्सान अपना दिमाग़ प्रयोग नहीं करते, वे इन्सान जैसे दिखने वाले जीव होते हैं पूर्ण इन्सान नहीं होते। अपने दिमाग़ का बेहतर इस्तेमाल कीजिये अंदर जो अंधविश्वासों का कचरा भरा है, मान्यताओं को साइड कीजिए, पूर्वाग्रहों को जला दीजिये, अंधेरा मिट जायेगा। आपके अंदर रौशनी हो जायेगी। 

आस्था से नहीं विज्ञानं से देश आगे बढ़ेगा अध्यात्म, आस्था को अलग करके यदि किसी भी देश में केवल शिक्षक वर्ग धर्मनिरपेक्ष हो जायें खासकर विज्ञान के शिक्षक तो यकीन कीजिए उस देश का मुकाबला पूरी दुनिया में कोई नहीं कर सकेगा। क्योंकि बाकी पीढियां शिक्षकों से सीखती है और एक शिक्षक का तथ्यात्मक होने की बजाय भावनात्मक होना या विचारधाओं के एवज में झूठ परोसना कई पीढ़ियों को अज्ञानी ही नहीं मानसिक अपंग भी बना सकता है।  .

Thursday, 21 July 2022

"किसानों के बारे में कम्युनिस्ट दृष्टिकोण : कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू- लेनिन




…वर्ग-चेतन मज़दूर के लाल झण्डे का पहला मतलब है, कि हम अपनी पूरी शक्ति के साथ पूरी आज़ादी और पूरी ज़मीन के लिए किसानों के संघर्ष का समर्थन करते हैं; दूसरे, इसका अर्थ है कि हम यहीं नहीं रुकते बल्कि इससे आगे जाते हैं। हम आज़ादी और ज़मीन के साथ ही समाजवाद के लिए युद्ध छेड़ रहे हैं। समाजवाद के लिए संघर्ष पूँजी के शासन के विरुद्ध संघर्ष है। यह सर्वप्रथम और सबसे मुख्य रूप से उजरती मज़दूर द्वारा चलाया जाता है जो प्रत्यक्षतः और पूर्णतः पूँजीवाद पर निर्भर होता है। जहाँ तक छोटे मालिक किसानों का प्रश्न है, उनमें से कुछ के पास ख़ुद की ही पूँजी है, और प्रायः वे ख़ुद ही मज़दूरों का शोषण करते हैं। इसलिए सभी छोटे मालिक किसान समाजवाद के लिए लड़ने वालों की क़तार में शामिल नहीं होंगे, केवल वही ऐसा करेंगे जो कृतसंकल्प होकर सचेतन तौर पर पूँजी के विरुद्ध मज़दूरों का पक्ष लेंगे, निजी सम्पत्ति के विरुद्ध सार्वजनिक सम्पत्ति का पक्ष लेंगे।"

('किसान समुदाय और सर्वहारा')

"पूँजीवाद के अन्तर्गत छोटा मालिक किसान, वह चाहे या न चाहे, इससे अवगत हो या न हो, एक माल-उत्पादक बन जाता है और यही वह परिवर्तन है जो मूलभूत है, क्योंकि केवल यही उसे, बावजूद इसके कि वह भाड़े के श्रम का शोषण नहीं करता, एक निम्न-पूँजीपति बना देता है और उसे सर्वहारा के एक विरोधी के रूप में बदल देता है। वह अपना उत्पादन बेचता है, जबकि सर्वहारा अपनी श्रम-शक्ति। एक वर्ग के रूप में छोटा मालिक किसान केवल कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि ही चाह सकता है और यह बड़े भूस्वामियों के साथ लगान में उसकी हिस्सेदारी और शेष समाज के विरुद्ध भूस्वामियों के साथ उसकी पक्षधरता के समान है। माल-उत्पादन के विकास के साथ ही छोटा मालिक किसान अपनी वर्ग-स्थिति के अनुरूप एक निम्न-भूसम्पत्तिवान मालिक बन जाता है।"

('कृषि में पूँजीवाद के विकास के आँकड़े')

"… यदि रूस में वर्तमान क्रान्ति की निर्णायक विजय जनता की पूर्ण सम्प्रभुता क़ायम करती है, यानी एक गणराज्य और एक पूर्ण जनवादी राज्य व्यवस्था की स्थापना करती है, तो पार्टी ज़मीन के निजी मालिकाने को ख़त्म कर देगी और सारी ज़मीन सामान्य सम्पत्ति के रूप में पूरी जनता को सौंप देगी।

"इसके अतिरिक्त, सभी परिस्थितियों में रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी का उद्देश्य, जनवादी भूमि-सुधारों की चाहे जो भी स्थिति हो, ग्रामीण सर्वहारा के स्वतन्त्र वर्ग संगठन के लिए, उसे समझाने के लिए कि उसका हित किसान पूँजीपति वर्ग के हित से असमाधेय रूप से विरोधी है, उसे छोटे पैमाने के मालिकाने के विरुद्ध चेतावनी देने के लिए जो, जब तक माल-उत्पादन मौजूद रहेगा तब तक जनता की दरिद्रता दूर नहीं कर सकता और अन्त में, समस्त दरिद्रता और समस्त शोषण को समाप्त करने के एकमात्र साधन के रूप में एक पूर्ण समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता पर ज़ोर देने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना है।"

('मज़दूर पार्टी के भूमि कार्यक्रम में संशोधन')

"कोई पूछ सकता है: इसका हल क्या है, किसानों की स्थिति कैसे सुधारी जा सकती है? छोटे किसान ख़ुद को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन से जोड़कर और समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष में एवं ज़मीन तथा उत्पादन के अन्य साधनों (कारख़ानें, मशीनें आदि) को सामाजिक सम्पत्ति के रूप में बदल देने में मज़दूरों की मदद करके ही अपने आप को पूँजी की जकड़ से मुक्त कर सकते हैं। छोटे पैमाने की खेती और छोटी जोतों को पूँजीवाद के चतुर्दिक हमले से बचाकर किसान समुदाय को बचाने का प्रयास सामाजिक विकास की गति को अनुपयोगी रूप से धीमा करना होगा, इसका मतलब पूँजीवाद के अन्तर्गत भी ख़ुशहाली की सम्भावना की भ्रान्ति से किसानों को धोखा देना होगा, इसका मतलब मेहनतकश वर्गों में फ़ूट पैदा करना और बहुमत की क़ीमत पर अल्पमत के लिए एक विशेष सुविधाप्राप्त स्थिति पैदा करना होगा।"

('मज़दूर पार्टी और किसान')

Wednesday, 20 July 2022

End Of Casteism

तमिलनाडु के मशहूर दलित लीडर और जातिवाद के ख़िलाफ़ अन्दोलन करने वाले टी एम मणि जिन्होंने 2007 में अपने सैंकड़ो अनुयायियों के साथ इस्लाम क़बूल किया और अपना नाम टी एम उमर फ़ारूक़ रखा, जिन्होंने कई पुस्तकों के साथ End Of Casteism नाम की मशहूर किताब लिखी, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ, सात साल पहले आज ही के दिन 5 जून 2015 को उनका इंतक़ाल हो गया, उनकी पुण्यतिथि पर टी एम मणि साहब के बारे में संक्षिप्त जानकारी पढ़ें -

टी एम उमर फारूक तमिलनाडु के तंजावुर जिले में टी एम मणि के रूप में एक हिंदू परिवार में पैदा हुए थे। उनके पूर्वज बंधुआ मजदूर थे और उन्होंने केवल प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। हालांकि, टी.एम. मणि तमिल साहित्य और इसकी दार्शनिक परंपरा में पारंगत थे। एक जाति-विरोधी कार्यकर्ता के रूप में उन्हें मार्क्सवादी विचारधाराओं की भी अच्छी समझ थी। हाशिए पर पड़े लोगों के लिए विरोध करते हुए उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।

1960 में, 16 साल की उम्र में, उन्होंने युवाओं के लिए एक राजनीतिक संगठन शुरू किया, और बाद में 1962 में इसे अम्बेडकर एजुकेशनल एंड डेवलपमेंट सोसाइटी के रूप में स्थापित किया। उन्होंने तमिलनाडु के एक अन्य जाति-विरोधी नेता एल. इलायपेरुमल के साथ मिलकर काम किया। 1990 के दशक में, टी एम मणि ने नीला पुलिगल इयक्कम (ब्लू पैंथर्स मूवमेंट) शुरू किया। उन्होंने अपने ब्लू पैंथर्स आंदोलन के माध्यम से जाति व्यवस्था के खिलाफ दृढ़ता से लड़ाई लड़ी।

तमिलनाडु में जितनी भी क्षेत्रीय जाति विरोधी राजनीतिक पार्टियां थी और जिनका बड़ा जनाधार था वो सब तमिल राष्ट्रवाद की समर्थक थी लेकिन टी एम मणि तमिल राष्ट्रवाद के आलोचक थे और उनका मानना था के तमिल राष्ट्रवाद की जड़ें हिन्दू धर्म मे हैं इसलिए उन्हें तमिल राजनीतिक पार्टियों ने किनारे कर दिया और तमिल सियासत के मुख्यधारा में नही आने दिया

टी.एम. मणि ने जाति के मुद्दे को संबोधित करने में वामपंथ और तमिल राष्ट्रवाद इन दोनों विकल्पों को खारिज कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि तमिल राष्ट्रवादी विचारधारा का आधार हिंदू धर्म में है। उन्होंने चुनावी राजनीति को भी खारिज कर दिया क्योंकि उनका कहना था के अनुसूचित जाति कभी भी बहुमत का वोट हासिल नहीं कर पाएगी और वहां भी राजनीतिक 'अछूत' ही बने रहेंगे ।

टी.एम. मणि ने वामपंथ को एक विकल्प के रूप में भी माना लेकिन फिर इस विचार को खारिज कर दिया क्योंकि वह बताते हैं कि भारत में उत्पीड़न वर्ण व्यवस्था से आता है न कि वर्ग संघर्ष से।

विभिन्न विकल्पों पर विचार करने के बाद, टी.एम. मणि ने दृढ़ता से धर्म परिवर्तन को दलित मुक्ति का एकमात्र साधन बताया। उन्होंने दलितों को उन देवताओं से मुक्त होने की सलाह दी जिन्होंने उन्हें हिंदू जाति व्यवस्था के माध्यम से गुलाम बनाया था।

टी एम मणि ने अपने हजारों अनुयायियों को इस्लाम में परिवर्तित होने और खुद को मुक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। हालांकि, एक सवाल यह था कि उन्होंने इस्लाम को क्यों चुना, जब जाति-विरोधी आंदोलन के सबसे बड़े नेता अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

टी. एम. मणि ने अपनी पुस्तक 'अम्बेडकर का धर्म परिवर्तन' में बौद्ध धर्मांतरण के तर्क में कमजोरी की ओर इशारा किया है। टी एम मणि ने माना की बौद्ध धर्म में परिवर्तन के परिणामस्वरूप दलितों की संख्या बल में मजबूती नहीं आई बल्कि समस्या को और बढ़ा दिया क्योंकि बौद्ध भारत में दूसरे सबसे छोटे धार्मिक अल्पसंख्यक बने हुए हैं जिससे दलित संख्याबल में मज़बूत नही हो पाए,
उन्होंने पाया की बौद्ध धर्म को सांस्कृतिक रूप से हिंदू धर्म के साथ पहचाना जाता है। उन्होंने भारतीय संविधान में बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म को भी इंगित किया (अनुच्छेद 25 (ए) - खंड बी में स्पष्टीकरण II) कानूनी रूप से बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के एक हिस्से के रूप में माना जाता है। इसलिए, उन्होंने अपने अनुयायियों को इस्लाम में धर्म परिवर्तित करने का सुझाव दिया और 1980 के दशक से इस विचार पर चर्चा की।

मई 2007 तक टी.एम. मणि ने अपने हज़ारों अनुयायियों के साथ आधिकारिक तौर पर इस्लाम को अपना लिया  और टी.एम उमर फ़ारूक़ के रूप में जाना जाने लगे, उनकी पत्नी, अगिलम्मई भी आयशा अम्मल बन गईं। उनका पूरा जीवन जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में बीता।

उन्होंने थेनपीसकु थेरवु (अस्पृश्यता के लिए समाधान), और साथी ओझिंधाधु (जाति विनाश अर्थात End Of Casteism) सहित कई किताबें लिखी हैं, जिसमें उन्होंने हिंदू धर्म के त्याग के बारे में बात की है। टी.एम. उमर फारूक का मानना ​​था कि इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो दलितों को स्वाभिमान हासिल करने में मदद करेगा। सात साल पहले आज ही के दिन 5 जून 2015 को उनका इंतक़ाल हो गया, अल्लाह उनके क़ब्र को नूर से भर दे, आमीन । 

आख़िर में टी.एम. उमर फारूक साहब की पुस्तक के एक उद्धरण से इस लेख का अंत करते हैं, -

"गर्व से टोपी और दाढ़ी की मुस्लिम पहचान को गले से लगाओ। और ज़ोर से कहो: अल्लाहो अकबर, अल्लाहो अकबर। इस्लाम का आह्वान उन दुश्मनों तक पहुंचें जिन्होंने 2000 से अधिक वर्षों से हम पर अत्याचार किया है।"


Friday, 15 July 2022

भारत में गोर्की के उपन्यास "मां" की लोकप्रियता - वीरेन्द्र त्रिपाठी


गांधीजी संभवतः गोर्की की प्रतिभा को पहचानने वाले पहले ख्यातिलब्ध भारतीय थे।

 इंडियन ओपिनियन के 1905 के एक अंक में गांधीजी ने अपने एक लेख में गोर्की को महान अधिकारों का एक महान योद्धा घोषित किया। गांधीजी ने अपने लेख में कहा, "कुछ समय पहले रूस में एक विद्रोह हुआ। उसमें भाग लेने वाले प्रमुख व्यक्तियों में गोर्की भी थे। उनका जन्म और पालन-पोषण घोर गरीबी में हुआ था। उन्होंने एक मोची के साथ उनके सहायक के रूप में काम करना शुरू किया, लेकिन उसने शीघ्र ही उन्हें काम से हटा दिया। बाद में वह फौज में भर्ती हो गए। फौज में काम करते हुए उनमें पढ़ाई-लिखाई के प्रति रुचि पैदा हुई। 1892 में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक लिखी। वह पुस्तक इतनी अधिक दिलचस्प थी कि वह शीघ्र ही लोकप्रिय हो गए। उन्होंने लिखना जारी रखा। उनका मुख्य उद्देश्य जनता को सजग रखना था ताकि वह अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को तैयार रहे। उन्होंने रुपए-पैसे की कभी चिंता नहीं की। उनकी कृतियां इतनी तीखी थीं कि सरकारी अधिकारी चौकन्ने हो गए। उन्हें जनता की सेवा में जेल भी जाना पड़ा। वह जेल को एक सम्मानित स्थान समझते थे। कहा जाता है कि यूरोप में गोर्की जैसा कोई दूसरा लेखक नहीं है जिसने जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष किया हो।"

न सिर्फ सोवियत पाठकों में, वरन सारे संसार के पाठकों में गोर्की की अतिशय लोकप्रियता का मुख्य कारण यह है कि उनकी रचनाएं दलित लोगों के सच्चे संघर्षों, संभावनाओं और इच्छाओं को सच्चाई के साथ उद्घाटित कर अर्ध-उपनिवेशी रूस के जीवन के एक नए वीरतापूर्ण युग को वाणी प्रदान करती है। इसी विशिष्टता ने उनके पात्रों को औपनिवेशिक भारत की जनता का प्रिय बना दिया, क्योंकि उनमें भारतीय जनता को अपने ही जैसे दुख झेलते लोगों के दर्शन होते थे। 

गोर्की के जीवन की परिस्थितियों ने उन्हें अपनी जनता के दुखों-कष्टों का दर्शक तथा भागीदार बना दिया। सामाजिक न्याय के लिए उनके अथक प्रयासों ने उन्हें जनता की अगली पांत- प्रगतिशील क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की पांत- में पहुंचा दिया।

 उनकी प्रारंभिक रचनाएं रोमांटिक थीं, लेकिन उसमें रूसी जीवन के नए युग का प्रभाव भी प्रतिबिंबित होता था। वह प्रथम रूसी लेखक थे जिन्होंने रूस में उथल-पुथल के आसन्न बादल के विस्तार को पहले से ही भांप लिया था। यही मुख्य कारण है कि भारत के क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों ने गोर्की को तुरंत स्वीकार कर लिया और यह महसूस किया कि जिस तरह की घटनाएं रूस में हुई है, ठीक उसी तरह की घटनाएं भारत में भी होने जा रही है।

 हिंदी, उर्दू और बंगला पत्रिकाओं में गोर्की की कहानियों का अनुवाद तीसरे दशक से होने लगा। दूसरी भारतीय भाषाएं भी पीछे न रहीं। भारतीय साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन के विकास के साथ-साथ गोर्की और अन्य रूसी लेखकों में लोगों की दिलचस्पी बहुत अधिक बढ़ गई। उनके अनुवाद और तेजी से होने लगे और हिंदी तथा उर्दू की कुछ पत्रिकाओं ने रूसी लेखकों की कहानियों के विशेषांक भी निकालें। उर्दू में इस प्रकार के एक विशेषांक का संपादन मशहूर कहानी लेखक सआदत हसन मंटो ने किया।

गोर्की का उपन्यास "मां" भारतीय भाषाओं में अनूदित होने वाली उनकी पहली महत्वपूर्ण कृति थी। अंग्रेजी में सर्वप्रथम यह पुस्तक 1907 में छपी। उसके बाद 1921 में यह दुबारा प्रकाशित हुई। मां में, जिसमें अत्यंत विश्वसनीयता और मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता के साथ यह दर्शाया गया है कि सामाजिक आकांक्षाएं व्यक्ति की आत्मा के साथ एकाकार होकर कैसे उसके लिए एक वैयक्तिक मूल्य ग्रहण कर लेती है, भारतीय पाठकों को व्यक्ति और समाज के एक नये संबंध के विकास की झांकी मिली। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि मां न केवल सामाजिक संघर्ष की एक गाथा है, बल्कि दलितों के ऐतिहासिक परिवर्तन को दर्शाने वाली एक ऐसी मानवीय दस्तावेज है जो "मानवजाति के नए मानव" को शिक्षित भी करती है।

हिंदी में "मां" का पहला अनुवाद 30 साल पहले छविनाथ पांडेय ने किया था जिसका शीर्षक था 'मां का हृदय'। उन्होंने यह अनुवाद हिंदी के कहानीकार स्वर्गीय विनोद शंकर व्यास की प्रेरणा से किया था। यह एक अविकल अनुवाद था। उन्हीं दिनों गोर्की की कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमें चेलकश, छब्बीस मर्द और एक औरत तथा ओडेेस्सा का राजकुमार कहानियां भी शामिल थीं।
 
स्वर्गीय चंद्रभाल जौहरी ने भी कुछ वर्ष बाद इस उपन्यास का बहुत अच्छा अनुवाद किया। अपने अनुवाद की भूमिका में उन्होंने लिखा: "यह मात्र उपन्यास नहीं है, बल्कि पूंजीवाद के जुए के नीचे समाज की यंत्रणा की एक सजीव गाथा है। इसे सरसरी तौर पर पढ़ने से इसका वास्तविक सौंदर्य उद्घाटित नहीं होता, पर ध्यानपूर्वक पढ़ने से ऐसा स्थाई भाव पैदा होता है जैसा कोई सुंदर चित्र देखने से होता है।"

 सियाराम शरण प्रसाद ने हिंदी उपन्यासकार डॉ वृंदावन लाल वर्मा पर अपनी डॉक्टरेट की थीसिस में गोर्की के "मां" की नायिका तथा इंदौर की रानी अहिल्याबाई में निकट साम्य बताया है।

 हिंदी के विख्यात उपन्यासकार और आलोचक इलाचंद्र जोशी के कथनानुसार," यदि स्वयं गोर्की का हृदय मां की तरह न होता, तो वह मां जैसा शक्तिशाली उपन्यास कभी न लिख पाते।" एक और सुप्रसिद्ध हिंदी लेखक स्वर्गीय रांगेय राघव ने अपने लेख "मैक्सिम गोर्की और प्रगतिशील साहित्य" में गोर्की की प्रतिभा के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा है कि मां संपूर्ण मानवता का प्रतीक है और गोर्की ने इसमें समकालीन समाज का चित्रण अत्यंत यथार्थवादी ढंग से किया है। प्रेमचंद ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपनी फिल्म "मिल और मजूर" की पटकथा लिखी जिस पर ब्रिटिश सरकार ने रोक लगा दी थी। गोर्की के लिए उनके ह्रदय में इतना गहरा सम्मान था कि 1936 में बहुत बीमार होने पर भी जब उन्हें गोर्की की मृत्यु का समाचार मिला तो वह उनकी स्मृति में आयोजित शोक सभा में भाग लेने के लिए रोगशैैय्या से उठ कर गए। उस सभा में उन्होंने गोर्की को जो श्रद्धांजलि अर्पित की, वह सूचनाप्रद होने के साथ ही एक महान लेखक द्वारा दूसरे महान लेखक को अर्पित अंतिम श्रद्धांजलि थी।

 गोर्की ने अनेक हिंदी लेखकों को प्रेरणा दी। उनसे प्रेरणा पाने वालों में हिंदी के अन्यतम शैलीकार पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र भी थे। उन्होंने अपनी कहानी "मां" में जिसमें एक भारतीय क्रांतिकारी की एक वीर माता का चित्रण है, गोर्की की ही "मां" का एक प्रतिरूप प्रस्तुत किया। चौथे दशक और पांचवें दशक के प्रारंभ में मां और मजदूर अथवा मजदूर नेता लेखकों की प्रिय विषयवस्तु थे। 

"मां" का पहला उर्दू अनुवाद लाहौर में 1946 में छपा। इसके अनुवादक मखमूर जालंधरी थे जिन्हें गोर्की के एक और उपन्यास फोमा गोर्देयेव के अनुवाद (दीवाना है दीवाना) के लिए हाल में सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया है। उर्दू में "मां" का एक सस्ता संस्करण 1953 में मकतब शाह-ए-राह ने छापा।

 "मां" का प्रथम पंजाबी अनुवाद मजदूर शीर्षक से पांचवें दशक के प्रारंभ में छपा। नरिन्दर सिंह "सोच" के इस अनुवाद के बाद इसका एक और अनुवाद छपा। यह अनुवाद गुरबख्श सिंह ने, जो स्वयं पंजाबी के अच्छे लेखक हैं, "मां" शीर्षक से किया।

 बंगला में अनूदित गोर्की की किसी कृति का पुस्तक-रूप में पहला प्रकाशन तीसरे दशक के प्रारंभ में हुआ। यह पुस्तक की विमल सेन की "मां" जो गोर्की के उपन्यास का संक्षिप्त रूपांतर थी। 1933 में नृपेन्द्र कृष्ण चट्टोपाध्याय ने भी "मां" का बंगला रूपांतरण किया। मां का बंगला में संपूर्ण अनुवाद श्रीमती पुष्पमयी बोस ने किया जो 1954 में प्रकाशित हुआ। "मां" के इन सभी अनुवादों के अनेक संस्करण निकल चुके हैं।

 उत्पल दत्त के लिटिल थियेटर ग्रुप में ने छठे दशक के आरंभ में मां के उस प्रसंग का जिसमें मई दिवस का चित्रण है, बंगला नाट्य रूपांतरण भी प्रस्तुत किया। यही रूपांतरण दिल्ली में भी अभिनीत किया गया। बंगाल की प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री मोलिना देवी ने "मां" उपन्यास पर आधारित एक नाटक भी प्रस्तुत किया जिसकी मुख्य भूमिका में खुद उन्होंने ही अभिनय किया।

 रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरतचंद्र भी एक शक्तिशाली लेखक के रूप में गोर्की का बहुत अधिक सम्मान करते थे। अपने उपन्यास "पथेर दाबी" में शरत बाबू गोर्की से प्रभावित लगते हैं। इलाचंद्र जोशी से एक साक्षात्कार में शरतचंद्र ने कहा था: "गोर्की को पढ़ने के बाद अनुभव होता है कि मानव जीवन का जितनी गहराई से गोर्की ने विश्लेषण किया है, वैसा किसी और लेखक ने नहीं किया।..."
 शरतचंद्र ने जोशी को गोर्की की एक कहानी "जीव जो कभी मनुष्य थे" का 1922 के आरंभ में प्रकाशित बंगला अनुवाद पढ़ने के लिए कहा। उन्होंने आगे बताया:  "आप इसमें एकदम नया दृष्टिकोण, नए विचार, नयी शैली तथा नई तकनीक पायेंगे। गोर्की ने मानवता को एक नया संदेश दिया है। यदि आप गोर्की को नहीं पढ़ेंगे, तो अपने को जीवन के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू की जानकारी से वंचित रखेंगे।"

"मां" का मराठी अनुवाद "आई" नाम से प्रभाकर ऊर्ध्वरेशे ने किया है। यह पांचवें दशक के प्रारंभ में प्रकाशित हुआ। बाद में इस पुस्तक के कई और मराठी अनुवाद प्रकाशित हुए। मराठी लेखकों पर गोर्की की पुस्तकों का गहरा प्रभाव पड़ा। उदाहरणार्थ, बी. वी. (मामा) वरेरकर के नाटक "सोने का कलश" पर गोर्की का प्रभाव देखा जा सकता है तथा उपन्यास "पुतलीघर" सीधे गोर्की के "मां" से प्रेरित लगता है। मामा वरेरकर ने "सोने का कलश" में वर्ग संघर्ष का तथा "पुतलीघर" में बम्बई के मिल मजदूरों के जीवन का चित्रण किया है। 

आलोचक बटुक देसाई के कथनानुसार गोर्की गुजराती जनता के सभी वर्गों में, यहां तक कि "ऊंचे बुद्धिजीवियों" के बीच भी बहुत लोकप्रिय हैं। "मां" का गुजराती में दो बार अनुवाद हो चुका है और दोनों ही अनुवादों के एक से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। चौथे दशक के प्रारंभ से जब समाजवादी विचारधारा न केवल बुद्धिजीवियों, वरन मजदूरों और किसानों के व्यापक तबकों के बीच भी फैलने लगी, तो गोर्की का उपन्यास "मां" गुजरात में जन-आंदोलन के संगठनकर्ताओं के लिए एक उपयोगी अस्त्र सिद्ध हुआ।

 असमिया में "मां" का अनुवाद करने का प्रयास कई लेखकों ने किया और उनके अनुवादों के अंश विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे। लेकिन इसका प्रथम संपूर्ण अनुवाद जदुनाथ सैकिया ने किया। इस पुस्तक की भूमिका में असम के सुप्रसिद्ध राजनीतिक नेता फणि बोरा ने, जिन्होंने यह अनुवाद प्रकाशित किया है, कहा है कि "संसार की ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसमें गोर्की की अमर कृति "मां" का अनुवाद न हुआ हो। "मां" समस्त संसार के सामाजिक क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का अनन्त स्त्रोत है।"

"अम्मां" नाम से लिंगराज ने "मां" का तेलुगु अनुवाद किया जो 1934 में छपा। किंतु तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उसे जब्त कर लिया। पर पढ़ने वाली जनता ने उसका उत्साहपूर्ण स्वागत किया और उसका वितरण गुप्त रूप से होता रहा। 1939 में मद्रास की प्रथम कांग्रेस सरकार ने "मां" पर लगा प्रतिबंध हटा लिया। तब से इस पुस्तक के 8 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों में इतने व्यापक लोकप्रियता प्राप्त कर ली है।

 तमिल में "मां" का अनुवाद टी. एस. चिदंबर रघुनाथन ने किया है जो 1952 में प्रकाशित हुआ।

 उड़िया में "मां" का अनुवाद अनंत पटनायक ने किया है जो स्वयं उड़िया के प्रसिद्ध कवि हैं।

 बंगला में गोर्की के संबंध में 5 पुस्तकें हैं। उनमें से एक सोमेंद्रनाथ ठाकुर की है जो गोर्की से विदेश में मिले थे। उन्होंने इस भेंट का वर्णन अपनी पुस्तक त्रयी (तीन) में किया है।

मैसूर राज्य की युवा पीढ़ी के अगुआ लेखक और उपन्यासकार ने गोर्की के "मां" का अनुवाद कन्नड़ में किया है।
"मां" का यह अनुवाद पहले लोकप्रिय साप्ताहिक पत्र चित्रगुप्त में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। मैसूर के एक उदीयमान प्रकाशक और मुद्रक सी. एच. रामाराव ने "मां" का सरल सचित्र संस्करण प्रकाशित किया है।

प्रस्तुत लेख वीरेंद्र त्रिपाठी द्वारा लिखित है,जो कि लिया गया है:
मैक्सिम गोर्की जन्मशती अंक, 
सोवियत दर्पण 
खंड 3, अंक 17-18 6 अप्रैल, 1968

प्रस्तुत लेख व पत्रिका का चित्र आदरणीया Richa Rana मेम से साभार प्राप्त

Thursday, 14 July 2022

किसी के घर मे यूं ही नहीं घुस जाया जाता

किसी के घर मे यूं ही नहीं घुस जाया जाता
फिर चाहे वह राष्ट्रपति का ही घर क्यों न हो.

रसोई में बिना पूछे कोई कैसे घुस सकता है?
वो तो बहुत 'पवित्र' जगह है
फिर चाहे वह राष्ट्रपति की ही रसोई क्यों न हो.

और बेडरूम में घुसना तो सरासर असभ्यता है
और वह भी मोटे मोटे विदेशी महंगे गद्दों पर जूतों के साथ कूदना?
यह तो बर्दाश्त के बाहर है.

किसी के निजी स्वीमिंग पूल के साफ पारदर्शी पानी में 
पसीने और धूल से लथपथ शरीर के साथ 
सैकड़ों की संख्या में नहाने का क्या मतलब है?
यही न, कि आप अभी तक सभ्य नहीं हुए हैं.

जिस आलीशान भवन में आपने हज़ारों की संख्या में प्रवेश किया है,
उसे 'असभ्य' तरीके से अपने पैरों तले रौंदा है,
वह एक 'महान' व्यक्ति का भवन था.

उसने आपके लिए क्या-क्या नहीं किया
पहले मुस्लिमों को ठिकाने लगाया.
आपने में से कुछ लोगों ने इस पर ताली भी बजाई.

फिर आपकी सुरक्षा के नाम पर 
देश की सुरक्षा के नाम पर
लिट्टे को कुचल कर रख दिया.

नफ़रत इतनी कि
प्रभाकरन  के 9 साल के बच्चे को बंकर से निकाल कर
उसके कपड़े उतार कर 
उसकी खुली छाती पर
मीडिया के सामने गोली मारी.

तमिलों को बहुत 'सभ्य' तरीके से उनकी औक़ात बताई.

भले ही तमाम तस्वीरें तमिलों के बर्बर कत्लेआम की  कहानी कह रही हों.
लेकिन आपने तो यही समझा कि यह सब देश की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है
अपने धर्म की पताका को सबसे ऊंचा रखने के लिए ज़रूरी है.

बुद्ध पूर्णिमा के दिन भी जब चांद पर रक्त के छींटे पड़े
तो आपको लगा कि आपका शांति पूर्ण धर्म 
अब आक्रामक हो रहा है.
लेकिन इसी में आपने अपनी सुरक्षा समझी.

रोटी और नौकरी के बदले यह आक्रामक धर्म आपका ही तो चुनाव था.
आप तो खुश थे कि तमिलों - मुस्लिमों को
हाशिये पर धकेला जा रहा है.
उन्हें घुटनों के बल चलने पर मजबूर किया जा रहा है.

लेकिन सच तो यह भी है कि
किसी भी खेल को भूखे पेट कब तक देखा जा सकता है?
पेट की मरोड़ के साथ
कब तक खेला जा सकता है?

धर्म और नफ़रत से दिमाग भरता है पेट नहीं
और जब आप से न रहा गया 
तो आपने रोटी की खातिर राष्ट्रपति के भवन को रौंद डाला?

यह तो सरासर एहसान फ़रामोशी है.

रोटी तो आपका चुनाव ही नहीं था.

चलिए, इसके बावजूद
आप वहां चले ही गए
 तो आपने कुछ तो देखा होगा
महसूस किया होगा.

राष्ट्रपति की आलीशान भरी हुई रसोई देखकर
शायद आपको महसूस हुआ होगा कि
आपकी रसोई खाली क्यों है!

समृद्धि में बजबजाते महल को देखकर 
शायद आपको अपनी गरीबी का कारण समझ आया हो!

स्विमिंग पूल के अथाह पानी को देखकर
शायद आपको अपनी गहरी प्यास का अहसास हुआ होगा!

उसके विशाल आलीशान बेडरूम को देखकर
शायद आप इसकी जादुई ताकत को पहचान पाए हो,
कि हर रात यह आपकी नींद चुम्बक की तरह कैसे खींच लेती हैं!

लेकिन एक अहसास शायद अभी बाकी है 
हमारे धर्म भले ही अलग अलग हों
लेकिन हमारी रोटी एक ही है.

भूख सबकी एक ही है
बच्चों की चिंता सबकी एक ही है!

यह अहसास
हमें उनसे जोड़ेगा, जिनसे नफ़रत के बदले 
हमने अपनी रोटी गवाई है.

बच्चों का भविष्य गंवाया है!

अपने भविष्य को राजा के हाथों गिरवी रखा है!

इस अहसास के बाद
रोटी और बच्चों के भविष्य की सांझी लड़ाई में
हम सिर्फ इन आलीशान, समृद्धि से बजबजाते भवनों में
प्रवेश ही नहीं करेंगे,
बल्कि उस पर बुलडोजर चलाकर
उसे समतल भी कर देंगे.

फिर वहां हम एक फुलवारी लगाएंगे
जिसमें हर रंग, हर खुशबू के फूल होंगे.
और सभी अपने रंग अपनी खुशुब पर ताउम्र इतराएँगे...

#मनीषआज़ाद

Amita Sheereen की वाल से

दर्शनों के लिए शुल्क

https://www.aajtak.in/india/uttar-pradesh/story/kashi-vishwanath-temple-worship-in-sawan-2022-new-rate-list-varanasi-lcl-1498755-2022-07-13 

चर्च में प्रार्थना, मस्जिद में नमाज और गुरुद्वारे में अरदास निशुल्क है बल्कि सिक्ख तो लंगर भी छकाते हैं
दुनिया भर में बड़े हिंदू मंदिर ही हैं जहाँ दर्शनों के लिए शुल्क देना पड़ता है। 

हिमांशु कुमार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा 5 लाख रुपये का जुर्माना।

बस्तर के आदिवासियों के बीच दो दशक रहकर उनकी लड़ाई और हक़ के लिए अपना खून पसीना बहाने वाले हिमांशु कुमार पर सुप्रीम कोर्ट ने 5 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया है.यह राशि उन्हें 4 हफ्तों में देना होगा,अगर जुर्माना नहीँ दे पाए तो उन्हें जेल जाना होगा.छत्तीसगढ़ सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि धारा 211 के तहत उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज करें.हिमांशु कुमार एक असाधारण योद्धा हैं.वे युवा रहते हुए ही आदिवासियों की भलाई के लिए बस्तर आये और परिवार के साथ बस्तर के दंतेवाड़ा में ही रहना शुरू किए.वनवासी चेतना आश्रम बनाकर आदिवासियों के बीच काम करने लगे.छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार जब माओवादियों के नाम पर भोले -भाले आदिवासियों को मारने लगे तो उन्होंने विद्रोह किया.उनके आश्रम को रमन सिंह सरकार ने उजाड़ दिया.इसी दौरान कल्लूरी नामक एक दुर्दांत पुलिस अधिकारी ने बस्तर में खूब मारकाट मचाया.और सैकड़ो आदिवासियों को नक्सली कहकर मरवा दिया.2009 में सुकमा ज़िले के गोमपाड़ में 16 आदिवासियों के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने और एक मासूम बच्चे का हाथ काटने के मामले में हिमांशु कुमार ने सुरक्षा बलों पर आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.13 साल बाद न्याय तो नहीं मिला लेकिन हिमांशु कुमार को आदिवासियों के लिए न्याय मांगने पर सजा जरूर मिल गई है.पिछले दिनों ब्रेन हेमरेज झेलने वाले हिमांशु कुमार चेहरे पर मुस्कान रख तानाशाही से लड़ते हैं.मैं व्यक्तिगत तौर पर उन्हें 2007 से जानता हूँ.जब वे एक वेबसाइट में बस्तर के अलग -अलग हिस्सों में सुरक्षा बलों के जुल्म की कहानी लिखते थे. बाद में सुप्रीम कोर्ट में वे कई मामले लेकर गए और उन्हें तब न्याय भी मिला.हिमांशु कुमार अभी कहते हैं उनके जेब में 5 लाख तो क्या 5 हजार भी नहीं है.हर एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता की जेब की यही कहानी है.उनके पास क्या होगा मैं बता सकता हूँ. उनके झोले में बस्तर के आदिवासियों की चिट्ठी होगी.देश के किसी हिस्से में इस तानाशाही सरकार के खिलाफ लड़ने,एक होने का पम्पलेट होगा.कल संजीव भट्ट को गुजरात दंगा मामले में जेल से ही गिरफ्तार किया गया है और आज 13 साल बाद आदिवासियों के लिए न्याय मांगने पर हिमांशु कुमार को जेल भेजने की पूरी तैयारी है.हम हमारे लिए इस तानाशाही दौर में लड़ने और लड़ने की हिम्मत देने वाले साथियों को खोते जा रहे हैं.उन्हें जेल में ठूंसा जा रहा है.प्रताड़ना दी जा रही है.आप अगर इस तानाशाही सरकार और बिक चुके न्यायपालिका के खिलाफ हिमांशु कुमार के साथ खड़े नहीं होते हैं तो समझिए आप मुर्दा हैं.लाल सलाम हिमांशु कुमार.हम सब हिमांशु कुमार हैं.

*विक्रम सिंह चौहान*

Monday, 11 July 2022

पूँजीवाद में 'प्रेस की स्‍वतंत्रता' के खोखले जुमले पर लेनिन के विचार



पूँजीपतियों ने हमेशा से ही ''स्‍वतंत्रता'' शब्‍द को अमीरों के और अमीर होने और मज़दूूरों के भूखे मरने की स्‍वतंत्रता के रूप में इस्‍तेमाल किया है। पूँजीवादी मायने में प्रेस की स्‍वतंत्रता का अर्थ है: प्रेस को रिश्‍वत देने की अमीरों की स्‍वतंत्रता, उनके द्वारा तथाकथित जनमत का निर्माण करने के लिए अपनी सम्‍पत्ति का इस्‍तेमाल करने की स्‍वतंत्रता। इस सन्‍दर्भ में भी ''शुद्ध लोकतंत्र'' के हिमायती एक निहायत ही घटिया और भ्रष्‍ट तंत्र की हिमायत करते हैं जो अमीरों को मास मीडिया पर नियंत्रण करने देता है। वे जनता की आँँख में धूल झोंकने का काम करते हैं और और सुनने में अच्‍छे व तर्कसंगत लगने वाले लेकिन पूरी तरह से झूठे जुमलों के ज़रिये प्रेस को पूँजीवादी ग़ुलामी से मुक्‍त करने के ठोस ऐतिहासिक कार्यभार से लोगों का ध्‍यान भटकाते हैं।

- लेनिन

Sunday, 10 July 2022

सिर्फ धार्मिक कट्टरता नहीं, सरकार का रवैया भी ज़िम्मेदार

सिर्फ धार्मिक कट्टरता नहीं, सरकार का रवैया भी ज़िम्मेदार
( 'हस्तक्षेप', राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित) 

इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद साहब से जुड़ी एक घटना बेहद लोकप्रिय है. यह न केवल लोकप्रिय है, बल्कि इस्लाम का अर्थ इसी घटना के संदेश में छिपा है. असल में, दिन के पांचों वक्त की नमाज़ मोहम्मद साहब की दिनचर्या का हिस्सा थी. जब वो नमाज़ के लिए अपने घर से मस्जिद को जाते, तो रास्ते में एक वृद्ध महिला (जो तब तक इस्लाम की अनुयायी नहीं थी) हर रोज छत से उन पर कूड़ा डाल दिया करती. लेकिन, वो इससे कभी गुस्सा नहीं होते. कपड़े पर पड़े कूड़े को छाड़ देते और चुपचाप मस्जिद की ओर चल पड़ते. एक दिन ऐसा हुआ कि उस महिला ने कूड़ा नहीं डाला. यह देख कर मोहम्मद साहब बहुत हैरान हुए. इसकी वजह जानने के लिए वो उस महिला के घर चले गए. पता चला कि आज वो बीमार है. इजाजत लेकर मोहम्मद साहब उस महिला के करीब गए और उनकी तबियत का जायजा लिया. मोहम्मद साहब की इस रहमदिली को देख कर वृद्ध महिला बहुत प्रभावित हुई. हदीसों में लिखा है कि इसके बाद वृद्ध महिला ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया. यह एक ऐसी घटना है जिससे यह समझना बेहद आसान है कि एक मुस्लिम की जिंदगी किन राहों पर और किन तौर-तरीकों पर गुजरनी चाहिए. उदयपुर की घटना तो इस्लाम की शिक्षा के बिलकुल उलट है. जब इतनी बदतमीजियों के बाद भी मोहम्मद साहब वृद्ध महिला की हाल पूछने जा रहे हैं, तो उनके बारे में एक अभद्र टिप्पणी करने वाले की जान ले लेना तो उनकी शिक्षाओं का ही अपमान है. जो मजहब एक कत्ल को पूरी इंसानियत के कत्ल के बराबर करार देता हो, उस मजहब के अनुयायी इस घटना के पक्षधर कभी नहीं हो सकते. यानी उदयपुर में हुई हत्या बेहद निंदनीय और गंभीर है. जाहिर है, इसको अंजाम देने वाला व्यक्ति सही अर्थों में इस्लामिक नहीं हो सकता.

नुपुर शर्मा द्वारा मोहम्मद साहब पर अभद्र टिप्पणी और उसके बाद जन्मी परिस्थितियों और पूरी बहस का तो यह एक पक्ष है. इस पूरे मामले का दूसरा पक्ष भी कोई कम गंभीर और चिंताजनक नहीं है. इस दूसरे पक्ष में शासन और प्रशासन की हीलाहवाली है जिसके चलते सरकार की मंशा ही कटघरे में है. असल में, जब नुपूर शर्मा ने मोहम्मद साहब के खिलाफ भावनाएं भड़काने वाली टिप्पणी की, तब से उन पर दिल्ली समेत कई राज्यों में पुलिस केस दर्ज हैं. लेकिन, पुलिस उन्हें अब तक गिरफ्तार नहीं कर सकी है. दूसरी ओर, मोहम्मद जुबैर नामक एक पत्रकार को हाल ही में दिल्ली पुलिस ने धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दिलचस्प बात यह है कि नुपूर और जुबैर दोनों पर एक जैसी धाराओं में केस दर्ज है. धारा 295ए (किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करना) और 153ए (धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना) के तहत दोनों आरोपी हैं. लेकिन, दोनों मामलों में कार्रवाई को लेकर पुलिस का रवैया बिलकुल अलग है. यह मामला इतना साफ है कि एक मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी सरकार के मंसूबों को समझ सकता है. यही कारण है कि इस पूरे प्रकरण में सरकार पर कार्रवाई करने में भेदभाव के आरोप लग रहे हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी ने और पुख्ता कर दिया है. नुपूर शर्मा की एक याचिका को खारिज करते हुए जज ने कहा- "क्या कारण है कि इतने मुकदमे के बावजूद पुलिस आपको छू नहीं पा रही और आपकी शिकायत पर आरोपी को गिरफ्तार किया जा रहा है".

यह बताने की जरूरत नहीं है कि नुपूर शर्मा के बयान के बाद देश के कई हिस्सों में कानून व्यवस्था की स्थिति खराब हुई. विरोध प्रदर्शनों में आगजनी हुई. यहाँ तक कि कुछ लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी. उदयपुर और अमरावती में दो हत्याकांड हुए और दोनों ही मामलों के पीछे नुपूर शर्मा की टिप्पणी को वजह बताई गई. ऐसा कह कर इन हत्याकांड को जायज नहीं ठहराया जा रहा है, लेकिन हैरतअंगेज बात है कि इन तमाम मामलों के बावजूद नुपूर शर्मा पुलिस की गिरफ्त से बाहर है. वहीं, जिस मोहम्मद जुबैर की ट्विटर पोस्ट से किसी हिंसा की खबर नहीं है, वह जेल की सलाखों के पीछे है. बात सिर्फ़ नुपूर शर्मा की नहीं है. हालिया वर्षों में देखा गया है कि मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने और उनकी भावनाओं को भड़काने वालों पर शासन और प्रशासन वक्त रहते जरूरी कार्रवाई नहीं करता. दिल्ली दंगा भड़काने वाली रागिनी तिवारी और नरसंहार की अपील करने वाले नरसिंहानंद इसके उदाहरण हैं. सरकार और प्रशासन बार-बार ऐसे उदाहरण पेश कर रहे हैं जिनसे साफ तौर पर पक्षपात का पता चलता है और यह सब एक आजाद और लोकतांत्रिक देश के लिए बिलकुल भी मुनासिब नहीं है.

दरअसल, यहीं पर हम और हमारा संविधान दोनों की हार हो जाता है. जिस संविधान में 'कानून के समक्ष समानता' और 'विधि का शासन' की प्रतिज्ञा ली गई है, उस संविधान वाले देश में भेदभाव की ऐसी पराकाष्ठा तो नहीं होनी चाहिए. सवाल है कि क्या हम एक ऐसी व्यवस्था की ओर चल पड़े हैं जहाँ कानूनी प्रावधानों के बजाय मनमानेपन से कार्रवाई की जाएगी? क्या हम पड़ोसी देश पाकिस्तान की शैली की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ से अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ भेदभाव की खबरों से हम चिंतित हो जाते हैं. यकीनन हम वैसा नहीं बनना चाहेंगे. लेकिन, मौजूदा हालात को देखते हुए भारतीय मुस्लिम व्यवस्था पर भरोसा नहीं कर पा रहा है. संविधान जिस सेक्यूलरिज़्म की बात करता है, उसकी अवहेलना हो रही है. ऐसे में एक अल्पसंख्यक के तौर पर मुस्लिम समुदाय खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है.

असल में, सरकार को समझना होगा कि देश में बढ़ रही कट्टरता के लिए केवल धर्म जिम्मेदार नहीं है, सरकार का ढीला रवैया भी इसको बढ़ाता है. जब धार्मिक भावनाओं को भड़काने वालों पर वक्त रहते कार्रवाई नहीं होती है, तब आहत होने वालों का गुस्सा धर्म के अंदर कट्टरता को बढ़ावा देता है. ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी है कि वक्त रहते असामाजिक तत्वों पर कार्रवाई करे. लेकिन, सत्ता अपने चरित्र के मुताबिक जब तक कट्टरता को नासूर बना कर अपनी सियासी रोटी सेंकती रहेगी, मुल्क अपना अमन-चैन यूंही खोता रहेगा.