सिर्फ धार्मिक कट्टरता नहीं, सरकार का रवैया भी ज़िम्मेदार
( 'हस्तक्षेप', राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित)
इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद साहब से जुड़ी एक घटना बेहद लोकप्रिय है. यह न केवल लोकप्रिय है, बल्कि इस्लाम का अर्थ इसी घटना के संदेश में छिपा है. असल में, दिन के पांचों वक्त की नमाज़ मोहम्मद साहब की दिनचर्या का हिस्सा थी. जब वो नमाज़ के लिए अपने घर से मस्जिद को जाते, तो रास्ते में एक वृद्ध महिला (जो तब तक इस्लाम की अनुयायी नहीं थी) हर रोज छत से उन पर कूड़ा डाल दिया करती. लेकिन, वो इससे कभी गुस्सा नहीं होते. कपड़े पर पड़े कूड़े को छाड़ देते और चुपचाप मस्जिद की ओर चल पड़ते. एक दिन ऐसा हुआ कि उस महिला ने कूड़ा नहीं डाला. यह देख कर मोहम्मद साहब बहुत हैरान हुए. इसकी वजह जानने के लिए वो उस महिला के घर चले गए. पता चला कि आज वो बीमार है. इजाजत लेकर मोहम्मद साहब उस महिला के करीब गए और उनकी तबियत का जायजा लिया. मोहम्मद साहब की इस रहमदिली को देख कर वृद्ध महिला बहुत प्रभावित हुई. हदीसों में लिखा है कि इसके बाद वृद्ध महिला ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया. यह एक ऐसी घटना है जिससे यह समझना बेहद आसान है कि एक मुस्लिम की जिंदगी किन राहों पर और किन तौर-तरीकों पर गुजरनी चाहिए. उदयपुर की घटना तो इस्लाम की शिक्षा के बिलकुल उलट है. जब इतनी बदतमीजियों के बाद भी मोहम्मद साहब वृद्ध महिला की हाल पूछने जा रहे हैं, तो उनके बारे में एक अभद्र टिप्पणी करने वाले की जान ले लेना तो उनकी शिक्षाओं का ही अपमान है. जो मजहब एक कत्ल को पूरी इंसानियत के कत्ल के बराबर करार देता हो, उस मजहब के अनुयायी इस घटना के पक्षधर कभी नहीं हो सकते. यानी उदयपुर में हुई हत्या बेहद निंदनीय और गंभीर है. जाहिर है, इसको अंजाम देने वाला व्यक्ति सही अर्थों में इस्लामिक नहीं हो सकता.
नुपुर शर्मा द्वारा मोहम्मद साहब पर अभद्र टिप्पणी और उसके बाद जन्मी परिस्थितियों और पूरी बहस का तो यह एक पक्ष है. इस पूरे मामले का दूसरा पक्ष भी कोई कम गंभीर और चिंताजनक नहीं है. इस दूसरे पक्ष में शासन और प्रशासन की हीलाहवाली है जिसके चलते सरकार की मंशा ही कटघरे में है. असल में, जब नुपूर शर्मा ने मोहम्मद साहब के खिलाफ भावनाएं भड़काने वाली टिप्पणी की, तब से उन पर दिल्ली समेत कई राज्यों में पुलिस केस दर्ज हैं. लेकिन, पुलिस उन्हें अब तक गिरफ्तार नहीं कर सकी है. दूसरी ओर, मोहम्मद जुबैर नामक एक पत्रकार को हाल ही में दिल्ली पुलिस ने धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दिलचस्प बात यह है कि नुपूर और जुबैर दोनों पर एक जैसी धाराओं में केस दर्ज है. धारा 295ए (किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करना) और 153ए (धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना) के तहत दोनों आरोपी हैं. लेकिन, दोनों मामलों में कार्रवाई को लेकर पुलिस का रवैया बिलकुल अलग है. यह मामला इतना साफ है कि एक मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी सरकार के मंसूबों को समझ सकता है. यही कारण है कि इस पूरे प्रकरण में सरकार पर कार्रवाई करने में भेदभाव के आरोप लग रहे हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी ने और पुख्ता कर दिया है. नुपूर शर्मा की एक याचिका को खारिज करते हुए जज ने कहा- "क्या कारण है कि इतने मुकदमे के बावजूद पुलिस आपको छू नहीं पा रही और आपकी शिकायत पर आरोपी को गिरफ्तार किया जा रहा है".
यह बताने की जरूरत नहीं है कि नुपूर शर्मा के बयान के बाद देश के कई हिस्सों में कानून व्यवस्था की स्थिति खराब हुई. विरोध प्रदर्शनों में आगजनी हुई. यहाँ तक कि कुछ लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी. उदयपुर और अमरावती में दो हत्याकांड हुए और दोनों ही मामलों के पीछे नुपूर शर्मा की टिप्पणी को वजह बताई गई. ऐसा कह कर इन हत्याकांड को जायज नहीं ठहराया जा रहा है, लेकिन हैरतअंगेज बात है कि इन तमाम मामलों के बावजूद नुपूर शर्मा पुलिस की गिरफ्त से बाहर है. वहीं, जिस मोहम्मद जुबैर की ट्विटर पोस्ट से किसी हिंसा की खबर नहीं है, वह जेल की सलाखों के पीछे है. बात सिर्फ़ नुपूर शर्मा की नहीं है. हालिया वर्षों में देखा गया है कि मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने और उनकी भावनाओं को भड़काने वालों पर शासन और प्रशासन वक्त रहते जरूरी कार्रवाई नहीं करता. दिल्ली दंगा भड़काने वाली रागिनी तिवारी और नरसंहार की अपील करने वाले नरसिंहानंद इसके उदाहरण हैं. सरकार और प्रशासन बार-बार ऐसे उदाहरण पेश कर रहे हैं जिनसे साफ तौर पर पक्षपात का पता चलता है और यह सब एक आजाद और लोकतांत्रिक देश के लिए बिलकुल भी मुनासिब नहीं है.
दरअसल, यहीं पर हम और हमारा संविधान दोनों की हार हो जाता है. जिस संविधान में 'कानून के समक्ष समानता' और 'विधि का शासन' की प्रतिज्ञा ली गई है, उस संविधान वाले देश में भेदभाव की ऐसी पराकाष्ठा तो नहीं होनी चाहिए. सवाल है कि क्या हम एक ऐसी व्यवस्था की ओर चल पड़े हैं जहाँ कानूनी प्रावधानों के बजाय मनमानेपन से कार्रवाई की जाएगी? क्या हम पड़ोसी देश पाकिस्तान की शैली की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ से अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ भेदभाव की खबरों से हम चिंतित हो जाते हैं. यकीनन हम वैसा नहीं बनना चाहेंगे. लेकिन, मौजूदा हालात को देखते हुए भारतीय मुस्लिम व्यवस्था पर भरोसा नहीं कर पा रहा है. संविधान जिस सेक्यूलरिज़्म की बात करता है, उसकी अवहेलना हो रही है. ऐसे में एक अल्पसंख्यक के तौर पर मुस्लिम समुदाय खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है.
असल में, सरकार को समझना होगा कि देश में बढ़ रही कट्टरता के लिए केवल धर्म जिम्मेदार नहीं है, सरकार का ढीला रवैया भी इसको बढ़ाता है. जब धार्मिक भावनाओं को भड़काने वालों पर वक्त रहते कार्रवाई नहीं होती है, तब आहत होने वालों का गुस्सा धर्म के अंदर कट्टरता को बढ़ावा देता है. ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी है कि वक्त रहते असामाजिक तत्वों पर कार्रवाई करे. लेकिन, सत्ता अपने चरित्र के मुताबिक जब तक कट्टरता को नासूर बना कर अपनी सियासी रोटी सेंकती रहेगी, मुल्क अपना अमन-चैन यूंही खोता रहेगा.
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