"निंदा, क्रोध और घृणा यह सभी दुर्गुण हैं लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिये तो संसार नरक हो जायेगा. यह निंदा का ही भय है जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है, यह क्रोध ही है जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है .... घृणा स्वाभाविक मनोवृत्ति है और प्रकृति द्वारा आत्मरक्षा के लिए सिरजी गयी है. जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है उसे शिथिल होने देना अपने पांव में कुल्हाडी मारना है. जरूरत इस बात की है कि हम घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें. इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें ... पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृतियों के प्रति हमारे अन्दर जितनी ही प्रचंड घृणा हो उतनी ही कल्याणकारी होगी ..
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है."
----प्रेमचंद
(1932 में लिखित 'जीवन में घृणा का स्थान' लेख से)
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है."
----प्रेमचंद
(1932 में लिखित 'जीवन में घृणा का स्थान' लेख से)
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