रशीद जहाँ स्मृति-
समकालीन जनमत में प्रकाशित लेख 'रशीद जहाँ अंगारे वाली'-
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रशीद जहाँ ' अंगारेवाली'
प्रगतिशील आंदोलन की नींव मज़बूत कर उसको धार देने वाली कॉमरेड रशीद जहाँ अपने लेख 'हमारी आज़ादी' में कहती हैं- "हमें मुल्क में ऐसी आज़ादी चाहिए कि हमारे हिंदुस्तान में कोई भूखा और बेरोज़गार न रह जाए।हमारे यहां के हर बच्चे को हाईस्कूल तक की तालीम मुफ़्त और ज़रूर मिले।शिफ़ाख़ाने (अस्पताल) मुफ़्त हों और इतने हों कि कोई बीमार घर मे पड़ा न सड़े या सड़क के किनारे दम न तोड़ दे आए और हमारे मुल्क में अवाम की जम्हूरी हुक़ूमत हो और वह अपने फ़ायदे के लिए मुल्क की सारी पैदावार ख़्वाह वह ज़मीन से हो, ख़्वाह फैक्टरियों से हो, उन पर जनता का पूरा-पूरा अख़्तियार हो।
अब इस क़िस्म की आज़ादी को हासिल करने के लिए हमें बहुत दूर तक जाना पड़ेगा।एक प्रोग्राम तो दूर का बनाना है और एक फ़ौरी प्रोग्राम बनाकर लड़ाई जारी रखनी है।दूर का प्रोग्राम तो जैसे-जैसे हमारी किसानों, मज़दूरों और मध्यम वर्ग के लोगों की लामबंदी होकर एक बड़ी जमात बन जाएगी तो वह ख़ुद लड़कर आज़ादी हासिल कर लेगी..लेकिन हमारा फ़ौरी प्रोग्राम फ़ेडरेशन के ख़िलाफ़ लड़ना है।हमें फ़ेडरेशन का मतलब गाँव-गाँव जाकर हर आदमी को समझाना है और साथ-साथ उसको लागू होने मुल्क को जो नुकसान पहुँचेगा वह समझाना है और जनता को उस ग़ुलाम क़ानून के ख़िलाफ़ बहुत ज़ोर से मुनज़्ज़म (संगठित) करना है।इस लड़ाई में ब्रिटिश इंडिया और रियासतों में किसी किस्म का इम्तियाज़ (पक्षपात) या फ़र्क़ नहीं रखना होगा क्योंकि आज़ादी सारे मुल्क को हासिल करनी है।!ख़्वाह अंग्रेजों के हाथ में हो या रियासतों के।
सारे हिंदुस्तान के मज़दूर हमारे साथ हों और ज़बरदस्त हड़तालें फैक्ट्रियां रेलों वगैरह पर करें और किसान लगान देना बंद कर दें और हमारे छोटे-मोटे दुकानदार और हमारे छात्र भी साथ मिलकर हड़तालें करें।'
अपने भाषणों में रशीद जहाँ बार-बार यह कहती रहीं कि अगर समूचे मुल्क़ में आज़ादी नहीं आई तो मुट्ठी भर लोगों को मिली इस आज़ादी के भयावह परिणाम होंगे।तीस के दशक में जब कम्युनिस्ट पार्टी कई एक मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़ी हो जाती थी; रशीद जहाँ साथ रहकर भी अपने सभी साथियों में सर्वाधिक पुरज़ोर आवाज़ में अधूरी आज़ादी पर बात किया करती थीं-' अब मिसाल के तौर पर लीजिए कि बम्बई की कांग्रेस हुकूमत ने यह बिल अपनी असेंबली में पास कर दिया कि मजदूरों को हड़ताल का हक़ नहीं होगा पर जब मज़दूरों ने इसकी मुख़ालिफ़त में बहुत ज़ोरदार हड़ताल 7 नवम्बर 1938 में की तो कांग्रेसी हुक़ूमत ने मज़दूरों पर गोलियाँ चलाईं। मद्रास में चिराला शहर के मजदूरों पर कांग्रेस ने सख़्त ज़ुल्म किए और गोली चली।कई मजदूर मारे गए, कई घायल हुए।तहक़ीकाती जाँच कमेटी जो मद्रास कांग्रेस हुकूमत ने बनाई, उसमे सद्र अंग्रेज़ अफ़सर रखा जिसने मज़दूरों के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया और जिसे हुक़ूमत ने माना।बिहार में कांग्रेसी हुक़ूमत ने जमींदारों के साथ समझौता किया है और जिस हक़ का वादा किसानों से अपने मेनिफेस्टो में किया था उसे बिल्कुल पूरा नहीं किया।यू.पी में सियासी क़ैदी अब तक जेल में हैं।'
प्रगतिशील धारा में इस स्पष्ट तल्खियत से कोई नहीं बोल रहा था जो बात रशीद जहां 'हमारी आज़ादी' लेख और अपने वक्तव्यों में बार बार कह रही थीं।
यह सुधारवाद और संशोधनवाद का दौर था; समूल परिवर्तन और संशोधन के फ़र्क को समझना कठिन हो रहा था।बड़े-बड़े चिंतक-विचारक सामंती रूढ़ियों के भीतर ही किसी रास्ते की तलाश कर रहे थे और संसदीय राह से किसी लोकतन्त्र की कल्पना कर रहे थे जिसका परिणाम बाद के दशकों में सामने आया।रशीद जहां आज़ादी के लिए पहले सोपान की तरह तो कांग्रेस के साथ खड़ी रहती हैं लेकिन आगे समूची आज़ादी के लिए वे बराबर ज़द्दोजहद करती हैं- 'हम जो आज़ादी का दिन मनाते हैं, हमें यह भी देखना चाहिए कि हम कैसी आज़ादी कहहते हैं और उस आज़ादी को हासिल करने के लिए हम क्या-क्या तैयारी करें।'
रशीद जहाँ पेशे से चिकित्सक थीं, सी.एम.ओ के पद पर कार्यरत रहीं।उनके छोटे से जीवन काल को समझते हुए क्रांतिदूत चे ग्वेरा का ध्यान आता है।रशीद जहां ने अपनी सीमाओं में भी अपने चिकित्सीय पेशे को जनवादी बना दिया।समाज मे चली आ रही असमानता के लिए उनका पेशा बुनियादी तौर पर क्या काम कर सकता है; यह भी उनकी चिंताओं में शामिल रहा।उनका दवाखाना कामगार मज़दूरों के लिए हर वक्त खुला रहा।अपने पेशे की ज़िम्मेदारी के साथ उन्होंने मज़दूरों की इकाईयां गठित कीं!आज़ादी और लोकतंत्र के लिए आंदोलन किए और गिरफ़्तार हुईं।
साहित्य का समाज से क्या रिश्ता हो इस पर भी कॉमरेड रशीद जहाँ ने लोगों के बीच स्पष्टता से बात रखी और न सिर्फ़ बात रखी बल्कि परिवर्तन के लिए काम शुरू भी कर दिया।वे अकादमिक बुद्धिजीवियों की तरह सिर्फ़ लिखने-बोलने पर नहीं, सड़क आंदोलनों पर भरोसा रखती थीं और सक्रिय रहती थीं।
हमारी आज़ादी तथा अन्य लेख' पुस्तक में शक़ील सिद्दीक़ी वरिष्ठ समालोचक अहमद सुरूर के हवाले से लिखते हैं-' उन्हें एक रंग महबूब था, वह था सुर्ख़ रंग।वह उन कम्युनिस्टों में नहीं थीं जो ड्राइंग रूम और कॉफ़ी हाउस में बैठकर दुनिया को बदलने के ख़्वाब देखती थीं।वे दुनिया को बदलने में मसरूफ़ थीं।'
शक़ील साहब कहते हैं -'देहरादून में क़याम के दौरान उन्होंने एक ओर यदि सफ़ाई मज़दूरों, श्रमिकों, छात्रों को संगठित करने का बीड़ा उठाया,मेहतरों की यूनियन बनाई तो दूसरी ओर आर्य समाज मंदिर जाकर ऊँची जाति की मानी जाने वाली स्त्रियों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया।
बाद में 1947 'चिंगारी' पत्रिका निकली जिसके संपादक मंडल में सज्जाद ज़हीर और सोहन सिंह शामिल थे।'
1949 में हुए रेल कर्मचारियों के विशाल आंदोलन और हड़ताल में वे उन दिनों शामिल हुईं जब वे सी.एम.ओ के पद पर काम कर रही थीं।उन्हीं दिनों वे जेल गईं और जेल में भूख हड़ताल पर बैठीं।इन्हीं वजहों से उनकी सेहत लगातार गिरती गयी और वे इस क़दर बीमार पड़ीं कि 47 बरस की छोटी उम्र में उनका निधन हो गया।इस आंदोलन में रशीद जहां के साथ बेग़म हाजरा और पंद्रह अन्य महिला साथी भी गिरफ़्तार हुईं।जेल से वापसी के बाद वे भूमिगत होकर नेतृत्व करने लगीं।
इस्मत चुग़ताई कहा करती थीं कि मेरी रचनाओं के पात्र रशीद जैसे होने चाहिए।उर्दू साहित्य में बदलाव और क्रांतिकारी लेखन के लिए अक्सर इस्मत चुग़ताई, मंटो और कुर्रतुल एन हैदर का नाम लिया जाता है लेकिन हमें देखना चाहिए कि उसी दौर में रशीद जहाँ क्या लिख रही थीं!
1933 में 'अंगारे' जैसे क्रांतिकारी कथा-संग्रह में प्रखरता से लिखने के कारण उनको लोग 'अंगारे वाली' कहने लगे थे। 'अंगारे' में छपने वाले सभी लेखकों के प्रति यही धारणा बन गयी थी लेकिन प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े रहने के बावजूद अहमद अली, मुमताज़ मुफ़्ती यहाँ तक कि मंटो जैसे लेखक भी अतियथार्थवाद की ओर मुड़ चले थे और व्यक्ति मन के अवचेतन-जनित निराशाओं, विद्रूपताओं, सेक्स और कुंठाओं पर लिखने लगे थे।मंटो तो अपने लेखन मेँ इस तरह नकारवादी होते चले गए कि रशीद जहाँ के लेखन का ख़ूब मज़ाक भी बनाया क्योंकि रशीद जहाँ का स्पष्ट मानना था कि यथार्थ को मात्र रख भर देने से सांस्कृतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।डॉक्टर होने के नाते वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक-राजनीतिक एक्टविस्ट होने के कारण उनका लेखन मोहभंग और नकारवाद नहीं पैदा करता न ही सिर्फ़ काल्पनिक स्वप्न दिखाता है।उनकी कहानियों और नाटकों को पढ़ें तो वे नकली रोमांटिसिज़्म को बड़े पैने ढंग से काटता है।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अदब में 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग' लिख रहे थे और लोकप्रिय सिनेमा में साहिर जैसे गीतकार 'मेरे महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे' लिख रहे थे इस प्रखरता के पीछे रशीद जहाँ का बुनियादी काम था।निराशा, दुख और स्वप्नभंग बड़ी तेजी से अध्यात्म घुली दार्शनिकता की ओर ले जाते हैं। प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ने के पहले फ़ैज़ की उम्दा शायरी भी सूफीवाद की तरफ़ झुकती दिखाई पड़ रही थी।1932 के दौरान जब वे सज्जाद ज़हीर के साथ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से मिलीं।बहसों-मुबाहिसों से धीरे-धीरे रशीद जहाँ फ़ैज़ जैसे शायर को मार्क्सवाद की वर्ग-चेतस भूमि तक ले आईं।
रशीद जहाँ कहानी में प्रेमचंद की लाइन को सही जगह पर मानती थीं और चाहती थीं कि उर्दू अदब ख़ास तौर पर काव्य में एक बड़ा बदलाव हो। डॉ.क़मर रईस लिखती हैं कि -' प्रगतिशील लेखकों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहाँ अकेली थीं जिन्होंने उर्दू में सामाजिक क्रांतिकारी यथार्थवादिता की परंपरा को सुदृढ बनाने के लिए संघर्ष किया।उर्दू में पहली बार एक क्रांतिकारी और वैज्ञानिक ज़ेहन रखने वाली महिला ने जीवन को उसके ऐतिहासिक और भौतिक परिप्रेक्ष्य में देखा।हमारा अदब ज़रूर मुर्दा लाश की तरह सड़ रहा है तो क्या हमारी सोसाइटी हँसती-खेलती ख़ुश रह सकती है।
जोश मलीहाबाद के प्रासिद्ध लेख 'उर्दू अदब और इन्क़िलाब की ज़रूरत' को संदर्भ में लेकर उन्होंने उर्दू के अदबी माहौल में निहित सामंती बिंदुओं को रेखांकित किया है।बुद्धि और संवेदना से रहित साहित्य किस तरह भावुकता की चिपचिपाहट से भरा हुआ है।जोश मलीहाबादी के हवाले से वे ऐसी निर्मम टिप्पणी लिखती हैं जिससे समूचा उर्दू साहित्य ही खारिज़ हो सकता है-'उर्दू अदब बनावटी तौर-तरीक़े, गुलमाना ज़िंदगी, कहिलाना लापरवाहियों, बेचारगियों वगैरह का संकलन है।मुझे उनसे (जोश मलीहाबादी से) पूरा इत्तेफ़ाक़ है क्योंकि उर्दू अदब में यह चीजें निकाल ली जाएं तो अदब क़रीब-क़रीब ग़ायब ही हो जाएगा।
किस तरह उर्दू का शायर असल और सही, हुस्न और इश्क़ का किस्सा कह सकता है जबकि उसको इश्क़ करने का मौका हमारी सोसायटी नहीं देती, जबकि औरत उससे दूर रखी जाती है।तो यक़ीनन हुस्न और इश्क़ की चाशनी उसके इमकान से बाहर होगी।अब वह सिवाय लड़कों और तवायफ़ों के तजुर्बे, जहाँ उसका गुज़र होता है और क्या लिख सकता है।एक तो ग़ैर फ़ितरी चीज़ है और दूसरी ख़रीदी हुई बीमारी!लेकिन क्या यह असलियत नहीं है और यह कहाँ तक अदब है, हमें सोचना होगा।।'
अपने लेख 'अदब और अवाम' में वह फासिज़्म से संघर्ष करने के लिए साहित्य को सबसे कारगर और मूल्यवान मानती हैं।
'हमारे हिन्दुस्तानी लेखकों पर ग़ैर मुल्की लिटरेचर का बहुत असर पड़ता है।हमारे अदीब तुर्गनेव, तोल्स्तोय, चेख़व और गोर्की जैसे ज़बरदस्त मुसन्निफों की किताबें पढ़कर उनसे प्रभावित होते हैं तो क्या यह मुमकिन है कि इस फ़ासिस्ट जर्मनी को जिसने तोल्स्तोय और मिसिनिया को बर्बाद कर दिया, उन्हें गारत करने में मदद न दें या जिन्होंने चेख़व, गोर्की के घरों को उजाड़ दिया उनको नेस्ते नाबूत न करना चाहिए?हमारी पूरी तरफ़दारी लाल फ़ौज के साथ है जो उन जाहिल फ़ासिस्टों को मिटाने में लगी है।दुनिया की अवाम एक तरफ़ हैं और उनके दुश्मन एक तरफ़।हम लेखकों की ज़बान चाहे अलग हो लेकिन सबको एक आवाज़ ख़्याल होकर यही कहना है कि फ़ासिज़्म की मौत हो, ग़ुलामी की मौत हो , आज़ादी और अवाम की हर जगह फ़तह हो।'
रशीद जहां की एक कहानी है 'चोर'।एकबारगी पढ़ने पर ऑस्कर वाइल्ड की एक कहानी जैसा प्रभाव यहाँ नज़र आता है लेकिन सबसे ज़्यादा याद आते हैं हबीब तनवीर।हबीब तनवीर ने अपने नाटकों में मुहिम की तरह वर्ग अन्विति को दिखाने की राह ले ली थी।उनका नाटक 'चरनदास चोर' बड़े फ़लक पर नए जनतंत्र का पोल खोलता है।क्या पुजारी, क्या पुलिस, क्या साधु क्या सत्ता; चरनदास चोर अपनी ईमानदारी के विश्वास से लबरेज़ होकर सबसे खुली बहस करता है और आज़ाद भारत के इस नकली जनतंत्र के पुर्ज़े ढीले कर देता है।रशीद की कहानी 'चोर' का चोर बड़ी विनम्रता से अपने बीमार बच्चे को डॉक्टर साहिबा को दिखाने आता है और बहस करता है लेकिन उसकी विनम्रता बड़ी दृढ़ और निडर है।देर रात में भी डॉक्टर को बच्चे का इलाज करना पड़ता है।इलाज के बाद पैसे न लेने की डॉक्टर की सहानुभूति वह स्वीकार नहीं करता।वह नोटों की गड्डी रख देता है।डॉक्टर हैरान।मालूम पड़ता है कि वह चोर है और शान से अपना परिचय देता है कि हम मैं चोर हुनर ख़ैरात में कोई काम नहीं कराता।'ये साले पुलिस वाले मादर.. पहले अपना हिस्सा वसूल कर लेते हैं फिर हमको हमारा हिस्सा मिलता है।बहन! हमको ये बदनाम करते हैं।चोर से कहें चोरी कर..साह से कहते हैं तेरा घर लुटता है।बेटा.. दरोगा को मैं देख लूँगा।मेरे घर में साहब साल में सैकड़ो बार दौड़ आती है पर यही पुलिस वाले मुझे पहले से ख़बर कर देते हैं।सब सालों ने महीने बांध रखे हैं।पांच साल से बराबर वारंट मेरे नाम जारी रहता है ओर ख़ुदा का फ़ज़ल है कि अभी तक तो पकड़ा नहीं गया।।'
सज्जाद ज़हीर ने रशीद जहाँ पर लिखे एक संस्मरण में बताते हैं कि रशीदा को अमीरों, ताकतवरों, काम न करने वालों और अगम्भीर किस्म के लोगों से एक तरह की नफ़रत थी।डॉक्टरी पेशे के कारण वह अनेक किस्म के लोगों और परिवारों से मिला करती थी और फिर उनका कच्चा चिट्ठा बयान किया करती थी।अंग्रेजों और अमीरों के चेलों की ख़ुशामदी, नए अमीरज़ादों के खोखलेपन से खूब वाकिफ़ थी और बताया करती थी कि जिनके यहाँ पर्दे के रिवाज़ उठ चुका था, उनकी बहन, बीवियां, बहनें और लड़कियाँ अंग्रेज़ी में गिट-पिट करतीं!ब्रिज और रमी खेलतीं और पिकनिक पर जातीं।उन्होंने अपनी भाषा, जातीयता और संस्कृति की दौलत गंवा दी थी।उनकी सारी ज़िंदगी बेहूदा हैजान बनकर रह गयी है।उनकी निरर्थकता और पतनशीलता को पाश्चात्य मुलम्मे से नहीं छिपाया जा सकता।
1936 में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ की ज़मीन तो 1930-32 तक ही जम गई थी।इसे प्रसारित करने में सज्जाद ज़हीर, रशीद जहां और अहमद अली ने 'अंगारे' नाम से जो पत्रिका निकाली वह इतनी जीवंत और क्रांतिकारी थी कि उस पर 1933 में प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया।जिन रचनाओं पर यह समूह काम करता था वह सामाजिक राजीनीतिक रूप से सजग-सक्रिय होने के साथ साथ साहित्य में कला और सौंदर्यबोध के मानकों को बदलने पर भी काम कर रहा था।
इन्हीं दिनों रशीद जहां ने मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज के दोमुंहेपन, कट्टरता, औरतों की बेबसी और अकेलेपन को संदर्भित कर कहानियां और नाटक लिखे।'औरत और अन्य कहानियां' और 'पर्दे के पीछे' इसी दौरान लिखे गए।'पर्दे के पीछे' 1932 में लिखी गयी संभवतः एकांकी है जब एकांकी विधा उर्दू में बिल्कुल नई ही थी।
समालोचक अर्जुमंद आरा कहती हैं कि अमूमन लोग दलील देते हैं कि मुस्लिम समाज मे जातिवाद नहीं है या उसकी कोई मज़बूत जड़ नहीं है।पढ़े लिखे प्रगतिशील मुस्लिम भी अनेक बार इन मुद्दों पर चुप्पी साधे रहते हैं लेकिन रशीद जहाँ मीटिंगों और व्याख्यानों में इस पर भी तर्क से बात उठाया करती थीं।उन्होंने मुस्लिम समुदाय के भीतरी अंतर्विरोधों और कट्टरता को केंद्रित कर कई कहानियाँ लिखीं।यह महत्वपूर्ण है कि तत्कालीन राजनीति और सुधारवादी छद्म में वे नहीं आईं।हालांकि वे नीतिगत रूप से कांग्रेस और गांधी के आंदोलनों में संलग्न होती थीं लेकिन अपनी मार्क्सवादी समझ के कारण आज़ाद भारत मे कांग्रेस की नीतियों की प्रबल आलोचक रहीं।लैंगिक मुद्दों पर उन्होंने स्त्री-मुद्दों को केंद्र में रखकर भी वर्गीय दृष्टिकोण को सामने रखा है।कम से कम उस दौर के साहित्यिक तबकों में यह बहुत आगे आगे की बात थी।नाटक 'औरत और मर्द' जवाबतलबी के अंदाज़ में लिखा हुआ छोटा सा नाटक है जो स्त्री-पुरुष की बहस के बाद एक दिलचस्प नुक्ते पर ख़त्म होता है।
डॉ. क़मर रईस लिखती हैं- 'रशीद जहाँ की नायिका यह समझ रखती है कि उसके अधिकारों की बहाली आम इंसान की ज़िंदगी और उसके हक़ों से जुड़ी हुई है और इसके लिए इस पूरी अन्यायपूर्ण वर्गगत व्यवस्था को बदलना होगा।'
उर्दू की क्लासिक धारा अपने युगबोध के साथ बहुत पहले से वेश्या जीवन की त्रासदियों पर लिखती रही है लेकिन उस युगबोध के बावजूद वहाँ भावुकता और सुधारवाद की एक रेखा तारी रहती है।रशीद जहाँ के कुछ नाटक वेश्या जीवन पर केंद्रित हैं जिनका अभी ठीक से अनुवाद नहीं हुआ है लेकिन समालिचकों का मानना है कि ये कहानियां उर्दू साहित्य में वेश्याओं पर लिखे पारंपरिक सोच से बिल्कुल भिन्न यथार्थ की ज़मीन पर लिखे गए हैं।उर्दू साहित्य में स्त्री के प्रति प्रेमिल, भावुक और करुण- रंगीनी और सामंती सहानुभूति की उन्होंने काट- छांट की है।वे मानती हैं कि सामंती जकड़नों से संघर्ष के लिए पारंपरिक ग़ज़ल विधा को छोड़ नज़्मों में लिखना चाहिए।अकारण नहीं कि उस दौर के सभी बड़े शायर नज़्मों में लिख रहे थे।फ़ैज़ ने नज़्मों में लिखकर शासन की नींद उड़ा रखी थी।
अपनी कहानियों और नाटकों में मध्यवर्ग के पाखंड को दिखाने के लिए रशीद जहाँ ने जिस तरह उर्दू मुहाविरों, कहावतों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया ; भाषा मे इसका असर रज़िया सज्जाद ज़हीर पर बख़ूबी पड़ा है।दरअसल उर्दू की गद्य भाषा अब तक यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर कसी हुई नहीं थी!भाषा की भावभूमि पर यथार्थबोध को इस स्तर पर लाने में भी रशीद जहाँ की अग्रणी भूमिका रहेगी।इन सबके बावजूद उनकी रचनाओं में भोंडापन नहीं आता।उर्दू गद्य, विशेष रूप से नाटक और एकांकी को यह संघर्ष करना अभी बाक़ी था।
उनके प्रसिद्ध एकांकी 'औरत' इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है।फ़ैसला, दिल्ली की सैर, इफ्तारी, आसिफ़ जहाँ की बहू, बेज़बान आदि कहानियाँ नए पनपते मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों के पाखंडों की निशानदेही करती कहानियाँ हैं।
भारत मे सांस्कृतिक मोर्चे के तौर पर जन नाट्य संघ (इप्टा) की बड़ी भूमिका है।इप्टा की स्थापना (1943) में रशीद जहाँ अगुवा रहीं प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' संपादन कर उसका नाट्यमंचन उन्होंने इप्टा के मंच पर किया।बाद में काँटेवाला, हिंदुस्तानी आदि भी उन्होंने विशेष तौर पर इप्टा के लिए ही लिखे।
आज जब लव जेहाद जैसे ज़हरीले मुद्दे बनाकर प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश को सांप्रदायिक दंगों में झोंक देने पर
उतारू हैं!इस पर क़ानून बना रहे हैं; ऐसे में रशीद जहाँ का 'हिंदुस्तानी' नाटक बार-बार खेला जाना चाहिए जिसका पूरा प्लॉट ही विभिन्न धर्म-संप्रदायों के बीच विवाह के समर्थन और बढ़ावे पर लिखा है।यह उस समय के लिहाज़ से इतनी भी साधारण बात नहीं थी।
इतनी कम उम्र में रशीद जहाँ ने लगभग बीस नाटक और नौ एकांकी लिखे।कितने ही नाटकों का अनुवाद किया।कहानियां लिखीं! कहानियों का नाट्य-रूपांतरण किया।पत्रिकाएँ संपादित कीं और वैचारिक लेख लिखे।
1857 के विद्रोह के बाद सेना में चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व मे विद्रोह हुआ।चंद्र सिंह गढ़वाली ने जेलों में मार्क्सवादी साहित्य पढ़ते हुए लंबा समय बिताया और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के होल-टाइमर बनकर अनेक मुहिमों से जुड़ गए।रशीद जहाँ ने चन्द्र सिंह गढ़वाली की इस विद्रोह-गाथा पर विस्तार से लिखा।रशीद जहाँ ने बहुत कम उम्र मे जिस तरह का सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक जीवन जिया वह अमूल्य है।स्त्रीवाद की ठोस समझ और प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी मूल्यों में भरोसा रखने वालों के लिए वे रोशन मीनार की तरह रहेंगी।
Vandana Choubey
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