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Friday, 15 July 2022

भारत में गोर्की के उपन्यास "मां" की लोकप्रियता - वीरेन्द्र त्रिपाठी


गांधीजी संभवतः गोर्की की प्रतिभा को पहचानने वाले पहले ख्यातिलब्ध भारतीय थे।

 इंडियन ओपिनियन के 1905 के एक अंक में गांधीजी ने अपने एक लेख में गोर्की को महान अधिकारों का एक महान योद्धा घोषित किया। गांधीजी ने अपने लेख में कहा, "कुछ समय पहले रूस में एक विद्रोह हुआ। उसमें भाग लेने वाले प्रमुख व्यक्तियों में गोर्की भी थे। उनका जन्म और पालन-पोषण घोर गरीबी में हुआ था। उन्होंने एक मोची के साथ उनके सहायक के रूप में काम करना शुरू किया, लेकिन उसने शीघ्र ही उन्हें काम से हटा दिया। बाद में वह फौज में भर्ती हो गए। फौज में काम करते हुए उनमें पढ़ाई-लिखाई के प्रति रुचि पैदा हुई। 1892 में उन्होंने अपनी पहली पुस्तक लिखी। वह पुस्तक इतनी अधिक दिलचस्प थी कि वह शीघ्र ही लोकप्रिय हो गए। उन्होंने लिखना जारी रखा। उनका मुख्य उद्देश्य जनता को सजग रखना था ताकि वह अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को तैयार रहे। उन्होंने रुपए-पैसे की कभी चिंता नहीं की। उनकी कृतियां इतनी तीखी थीं कि सरकारी अधिकारी चौकन्ने हो गए। उन्हें जनता की सेवा में जेल भी जाना पड़ा। वह जेल को एक सम्मानित स्थान समझते थे। कहा जाता है कि यूरोप में गोर्की जैसा कोई दूसरा लेखक नहीं है जिसने जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष किया हो।"

न सिर्फ सोवियत पाठकों में, वरन सारे संसार के पाठकों में गोर्की की अतिशय लोकप्रियता का मुख्य कारण यह है कि उनकी रचनाएं दलित लोगों के सच्चे संघर्षों, संभावनाओं और इच्छाओं को सच्चाई के साथ उद्घाटित कर अर्ध-उपनिवेशी रूस के जीवन के एक नए वीरतापूर्ण युग को वाणी प्रदान करती है। इसी विशिष्टता ने उनके पात्रों को औपनिवेशिक भारत की जनता का प्रिय बना दिया, क्योंकि उनमें भारतीय जनता को अपने ही जैसे दुख झेलते लोगों के दर्शन होते थे। 

गोर्की के जीवन की परिस्थितियों ने उन्हें अपनी जनता के दुखों-कष्टों का दर्शक तथा भागीदार बना दिया। सामाजिक न्याय के लिए उनके अथक प्रयासों ने उन्हें जनता की अगली पांत- प्रगतिशील क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की पांत- में पहुंचा दिया।

 उनकी प्रारंभिक रचनाएं रोमांटिक थीं, लेकिन उसमें रूसी जीवन के नए युग का प्रभाव भी प्रतिबिंबित होता था। वह प्रथम रूसी लेखक थे जिन्होंने रूस में उथल-पुथल के आसन्न बादल के विस्तार को पहले से ही भांप लिया था। यही मुख्य कारण है कि भारत के क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों ने गोर्की को तुरंत स्वीकार कर लिया और यह महसूस किया कि जिस तरह की घटनाएं रूस में हुई है, ठीक उसी तरह की घटनाएं भारत में भी होने जा रही है।

 हिंदी, उर्दू और बंगला पत्रिकाओं में गोर्की की कहानियों का अनुवाद तीसरे दशक से होने लगा। दूसरी भारतीय भाषाएं भी पीछे न रहीं। भारतीय साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन के विकास के साथ-साथ गोर्की और अन्य रूसी लेखकों में लोगों की दिलचस्पी बहुत अधिक बढ़ गई। उनके अनुवाद और तेजी से होने लगे और हिंदी तथा उर्दू की कुछ पत्रिकाओं ने रूसी लेखकों की कहानियों के विशेषांक भी निकालें। उर्दू में इस प्रकार के एक विशेषांक का संपादन मशहूर कहानी लेखक सआदत हसन मंटो ने किया।

गोर्की का उपन्यास "मां" भारतीय भाषाओं में अनूदित होने वाली उनकी पहली महत्वपूर्ण कृति थी। अंग्रेजी में सर्वप्रथम यह पुस्तक 1907 में छपी। उसके बाद 1921 में यह दुबारा प्रकाशित हुई। मां में, जिसमें अत्यंत विश्वसनीयता और मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता के साथ यह दर्शाया गया है कि सामाजिक आकांक्षाएं व्यक्ति की आत्मा के साथ एकाकार होकर कैसे उसके लिए एक वैयक्तिक मूल्य ग्रहण कर लेती है, भारतीय पाठकों को व्यक्ति और समाज के एक नये संबंध के विकास की झांकी मिली। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि मां न केवल सामाजिक संघर्ष की एक गाथा है, बल्कि दलितों के ऐतिहासिक परिवर्तन को दर्शाने वाली एक ऐसी मानवीय दस्तावेज है जो "मानवजाति के नए मानव" को शिक्षित भी करती है।

हिंदी में "मां" का पहला अनुवाद 30 साल पहले छविनाथ पांडेय ने किया था जिसका शीर्षक था 'मां का हृदय'। उन्होंने यह अनुवाद हिंदी के कहानीकार स्वर्गीय विनोद शंकर व्यास की प्रेरणा से किया था। यह एक अविकल अनुवाद था। उन्हीं दिनों गोर्की की कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमें चेलकश, छब्बीस मर्द और एक औरत तथा ओडेेस्सा का राजकुमार कहानियां भी शामिल थीं।
 
स्वर्गीय चंद्रभाल जौहरी ने भी कुछ वर्ष बाद इस उपन्यास का बहुत अच्छा अनुवाद किया। अपने अनुवाद की भूमिका में उन्होंने लिखा: "यह मात्र उपन्यास नहीं है, बल्कि पूंजीवाद के जुए के नीचे समाज की यंत्रणा की एक सजीव गाथा है। इसे सरसरी तौर पर पढ़ने से इसका वास्तविक सौंदर्य उद्घाटित नहीं होता, पर ध्यानपूर्वक पढ़ने से ऐसा स्थाई भाव पैदा होता है जैसा कोई सुंदर चित्र देखने से होता है।"

 सियाराम शरण प्रसाद ने हिंदी उपन्यासकार डॉ वृंदावन लाल वर्मा पर अपनी डॉक्टरेट की थीसिस में गोर्की के "मां" की नायिका तथा इंदौर की रानी अहिल्याबाई में निकट साम्य बताया है।

 हिंदी के विख्यात उपन्यासकार और आलोचक इलाचंद्र जोशी के कथनानुसार," यदि स्वयं गोर्की का हृदय मां की तरह न होता, तो वह मां जैसा शक्तिशाली उपन्यास कभी न लिख पाते।" एक और सुप्रसिद्ध हिंदी लेखक स्वर्गीय रांगेय राघव ने अपने लेख "मैक्सिम गोर्की और प्रगतिशील साहित्य" में गोर्की की प्रतिभा के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए कहा है कि मां संपूर्ण मानवता का प्रतीक है और गोर्की ने इसमें समकालीन समाज का चित्रण अत्यंत यथार्थवादी ढंग से किया है। प्रेमचंद ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपनी फिल्म "मिल और मजूर" की पटकथा लिखी जिस पर ब्रिटिश सरकार ने रोक लगा दी थी। गोर्की के लिए उनके ह्रदय में इतना गहरा सम्मान था कि 1936 में बहुत बीमार होने पर भी जब उन्हें गोर्की की मृत्यु का समाचार मिला तो वह उनकी स्मृति में आयोजित शोक सभा में भाग लेने के लिए रोगशैैय्या से उठ कर गए। उस सभा में उन्होंने गोर्की को जो श्रद्धांजलि अर्पित की, वह सूचनाप्रद होने के साथ ही एक महान लेखक द्वारा दूसरे महान लेखक को अर्पित अंतिम श्रद्धांजलि थी।

 गोर्की ने अनेक हिंदी लेखकों को प्रेरणा दी। उनसे प्रेरणा पाने वालों में हिंदी के अन्यतम शैलीकार पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र भी थे। उन्होंने अपनी कहानी "मां" में जिसमें एक भारतीय क्रांतिकारी की एक वीर माता का चित्रण है, गोर्की की ही "मां" का एक प्रतिरूप प्रस्तुत किया। चौथे दशक और पांचवें दशक के प्रारंभ में मां और मजदूर अथवा मजदूर नेता लेखकों की प्रिय विषयवस्तु थे। 

"मां" का पहला उर्दू अनुवाद लाहौर में 1946 में छपा। इसके अनुवादक मखमूर जालंधरी थे जिन्हें गोर्की के एक और उपन्यास फोमा गोर्देयेव के अनुवाद (दीवाना है दीवाना) के लिए हाल में सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया है। उर्दू में "मां" का एक सस्ता संस्करण 1953 में मकतब शाह-ए-राह ने छापा।

 "मां" का प्रथम पंजाबी अनुवाद मजदूर शीर्षक से पांचवें दशक के प्रारंभ में छपा। नरिन्दर सिंह "सोच" के इस अनुवाद के बाद इसका एक और अनुवाद छपा। यह अनुवाद गुरबख्श सिंह ने, जो स्वयं पंजाबी के अच्छे लेखक हैं, "मां" शीर्षक से किया।

 बंगला में अनूदित गोर्की की किसी कृति का पुस्तक-रूप में पहला प्रकाशन तीसरे दशक के प्रारंभ में हुआ। यह पुस्तक की विमल सेन की "मां" जो गोर्की के उपन्यास का संक्षिप्त रूपांतर थी। 1933 में नृपेन्द्र कृष्ण चट्टोपाध्याय ने भी "मां" का बंगला रूपांतरण किया। मां का बंगला में संपूर्ण अनुवाद श्रीमती पुष्पमयी बोस ने किया जो 1954 में प्रकाशित हुआ। "मां" के इन सभी अनुवादों के अनेक संस्करण निकल चुके हैं।

 उत्पल दत्त के लिटिल थियेटर ग्रुप में ने छठे दशक के आरंभ में मां के उस प्रसंग का जिसमें मई दिवस का चित्रण है, बंगला नाट्य रूपांतरण भी प्रस्तुत किया। यही रूपांतरण दिल्ली में भी अभिनीत किया गया। बंगाल की प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री मोलिना देवी ने "मां" उपन्यास पर आधारित एक नाटक भी प्रस्तुत किया जिसकी मुख्य भूमिका में खुद उन्होंने ही अभिनय किया।

 रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरतचंद्र भी एक शक्तिशाली लेखक के रूप में गोर्की का बहुत अधिक सम्मान करते थे। अपने उपन्यास "पथेर दाबी" में शरत बाबू गोर्की से प्रभावित लगते हैं। इलाचंद्र जोशी से एक साक्षात्कार में शरतचंद्र ने कहा था: "गोर्की को पढ़ने के बाद अनुभव होता है कि मानव जीवन का जितनी गहराई से गोर्की ने विश्लेषण किया है, वैसा किसी और लेखक ने नहीं किया।..."
 शरतचंद्र ने जोशी को गोर्की की एक कहानी "जीव जो कभी मनुष्य थे" का 1922 के आरंभ में प्रकाशित बंगला अनुवाद पढ़ने के लिए कहा। उन्होंने आगे बताया:  "आप इसमें एकदम नया दृष्टिकोण, नए विचार, नयी शैली तथा नई तकनीक पायेंगे। गोर्की ने मानवता को एक नया संदेश दिया है। यदि आप गोर्की को नहीं पढ़ेंगे, तो अपने को जीवन के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू की जानकारी से वंचित रखेंगे।"

"मां" का मराठी अनुवाद "आई" नाम से प्रभाकर ऊर्ध्वरेशे ने किया है। यह पांचवें दशक के प्रारंभ में प्रकाशित हुआ। बाद में इस पुस्तक के कई और मराठी अनुवाद प्रकाशित हुए। मराठी लेखकों पर गोर्की की पुस्तकों का गहरा प्रभाव पड़ा। उदाहरणार्थ, बी. वी. (मामा) वरेरकर के नाटक "सोने का कलश" पर गोर्की का प्रभाव देखा जा सकता है तथा उपन्यास "पुतलीघर" सीधे गोर्की के "मां" से प्रेरित लगता है। मामा वरेरकर ने "सोने का कलश" में वर्ग संघर्ष का तथा "पुतलीघर" में बम्बई के मिल मजदूरों के जीवन का चित्रण किया है। 

आलोचक बटुक देसाई के कथनानुसार गोर्की गुजराती जनता के सभी वर्गों में, यहां तक कि "ऊंचे बुद्धिजीवियों" के बीच भी बहुत लोकप्रिय हैं। "मां" का गुजराती में दो बार अनुवाद हो चुका है और दोनों ही अनुवादों के एक से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। चौथे दशक के प्रारंभ से जब समाजवादी विचारधारा न केवल बुद्धिजीवियों, वरन मजदूरों और किसानों के व्यापक तबकों के बीच भी फैलने लगी, तो गोर्की का उपन्यास "मां" गुजरात में जन-आंदोलन के संगठनकर्ताओं के लिए एक उपयोगी अस्त्र सिद्ध हुआ।

 असमिया में "मां" का अनुवाद करने का प्रयास कई लेखकों ने किया और उनके अनुवादों के अंश विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे। लेकिन इसका प्रथम संपूर्ण अनुवाद जदुनाथ सैकिया ने किया। इस पुस्तक की भूमिका में असम के सुप्रसिद्ध राजनीतिक नेता फणि बोरा ने, जिन्होंने यह अनुवाद प्रकाशित किया है, कहा है कि "संसार की ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसमें गोर्की की अमर कृति "मां" का अनुवाद न हुआ हो। "मां" समस्त संसार के सामाजिक क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का अनन्त स्त्रोत है।"

"अम्मां" नाम से लिंगराज ने "मां" का तेलुगु अनुवाद किया जो 1934 में छपा। किंतु तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उसे जब्त कर लिया। पर पढ़ने वाली जनता ने उसका उत्साहपूर्ण स्वागत किया और उसका वितरण गुप्त रूप से होता रहा। 1939 में मद्रास की प्रथम कांग्रेस सरकार ने "मां" पर लगा प्रतिबंध हटा लिया। तब से इस पुस्तक के 8 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों में इतने व्यापक लोकप्रियता प्राप्त कर ली है।

 तमिल में "मां" का अनुवाद टी. एस. चिदंबर रघुनाथन ने किया है जो 1952 में प्रकाशित हुआ।

 उड़िया में "मां" का अनुवाद अनंत पटनायक ने किया है जो स्वयं उड़िया के प्रसिद्ध कवि हैं।

 बंगला में गोर्की के संबंध में 5 पुस्तकें हैं। उनमें से एक सोमेंद्रनाथ ठाकुर की है जो गोर्की से विदेश में मिले थे। उन्होंने इस भेंट का वर्णन अपनी पुस्तक त्रयी (तीन) में किया है।

मैसूर राज्य की युवा पीढ़ी के अगुआ लेखक और उपन्यासकार ने गोर्की के "मां" का अनुवाद कन्नड़ में किया है।
"मां" का यह अनुवाद पहले लोकप्रिय साप्ताहिक पत्र चित्रगुप्त में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। मैसूर के एक उदीयमान प्रकाशक और मुद्रक सी. एच. रामाराव ने "मां" का सरल सचित्र संस्करण प्रकाशित किया है।

प्रस्तुत लेख वीरेंद्र त्रिपाठी द्वारा लिखित है,जो कि लिया गया है:
मैक्सिम गोर्की जन्मशती अंक, 
सोवियत दर्पण 
खंड 3, अंक 17-18 6 अप्रैल, 1968

प्रस्तुत लेख व पत्रिका का चित्र आदरणीया Richa Rana मेम से साभार प्राप्त

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