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Thursday, 30 March 2023

दुर्लभ प्रसंग -रामायण

रामानंद सागर कृत *रामायण* तो आप लोगो ने देख ही ली है रावण का वध भी हो ही गया। ...... अब उससे आगे की कथा सुनिए। ............

'तब भारद्वाज बोले, "हे ऋषिवर, आपने मुझे परम पुनीत राम-कथा सुनाई, जिसे सुनकर मैं कृतार्थ हुआ। परन्तु लंका-विजय के बाद बानरो के चरित्र के विषय में आपने कुछ नहीं कहा। अयोध्या लौटकर बानरों ने कैसे कार्य किए, सो अब समझाकर कहिये।"

याज्ञवल्क्य बोले, "हे भारद्वाज, वह प्रसंग श्रद्धालु भक्तों के श्रवण योग्य नहीं है। उससे श्रद्धा स्खलित होती है। उस प्रसंग के वक्ता और श्रोता दोनों ही पाप के भागी होते हैं।"

तब भारद्वाज हाथ जोड़कर कहने लगे, "भगवन, आप तो परम ज्ञानी हैं। आपको विदित ही है कि श्रद्धा के आवरण में सत्य को नहीं छिपाना चाहिए। मैं एक सामान्य सत्यांवेशी हूँ। कृपा कर मुझे बानरों का सत्य चरित्र ही सुनाईए।"

याज्ञवल्क्य प्रसन्न होकर बोले, "हे मुनि, मैं तुम्हारी सत्य-निष्ठा देखकर परम प्रसन्न हुआ। तुममें पात्रता देखकर अब मैं तुम्हें वह दुर्लभ प्रसंग सुनाता हू, सो ध्यान से सुनो।"

इतना कहकर याज्ञवल्क्य ने नेत्र बंद कर लिए और ध्यान-मग्न हो गए। भारद्वाज उनके उस ज्ञानोद्दीप्त मुख को देखते रहे। उस सहज, शांत और सौम्य मुख पर आवेग और क्षोभ के चिन्ह प्रकट होने लगे और ललाट पर रेखाएं उभर आईं। फिर नेत्र खोलकर याज्ञवल्क्य ने कहना प्रारम्भ किया:

"हे भारद्वाज, एक दिन भरत बड़े खिन्न और चिंतित मुख से महाराज रामचंद्र के पास गए और कहने लगे, 'भैया, आपके इन बानरों ने बड़ा उत्पात मचा रखा है। राज्य के नागरिक इनके दिन-दूने उपद्रवों से तंग आ गए हैं। ये बानर लंका-विजय के मद से उन्मत्त हो गए हैं। वे किसी के भी बगीचे में घुस जाते हैं और उसे नष्ट कर देते हैं; किसी के भी घर पर बरबस अधिकार जमा लेते हैं। किसी का भी धन-धान्य छीन लेते हैं, किसी की भी स्त्री का अपहरण कर लेते हैं। नागरिक विरोध करते हैं, तो कहते हैं कि हमने तुम्हारी स्वतंत्रता के लिए संग्राम किया था; हमने तुम्हारी भूमि को असुरों से बचाया; हम न लड़ते तो तुम अनार्यों की अधीनता में होते; हमने तुम्हारी आर्यभूमि के हेतु त्याग और बलिदान किया है। देखो हमारे शरीर के घाव'।

कहते-कहते भरत आवेश से विचलित हो गए। फिर खीझते-से बोले, 'भैया, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि इन बंदरों को मुँह मत लगाईये। मैं इसीलिये चित्रकूट तक सेना लेकर गया था कि आप अयोध्या की अनुशासन-पूर्ण सेना ही अपने साथ रखें। परन्तु आपने मेरी बात नहीं मानी। और अब हम परिणाम भुगत रहे हैं। ये आपके बानर प्रजा को लूट रहे हैं। एक प्रकार से बानर-राज्य ही हो गया है।'

भरत के मुँह से क्रोध के कारण शब्द नहीं निकलते थे। वे मौन हो गए। रामचंद्र भी सिर नीचा करके सोचने लगे। हे मुनिवर, उस समय मर्यादापुरुषोत्तम के शांत मुख पर भी चिन्ता और उद्वेग के भाव उभरने लगे।

सहसा द्वार पर कोलाहल सुनाई पडा। भरत तुरंत उठकर द्वार पर गए और थोड़ी देर बाद लौटे तो उनका मुख क्रोध से तमतमाया हुआ था। बड़े आवेश में अग्रज से बोले, 'भैया, आपके बानर नया बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। द्वार पर इकठ्ठे हो गए हैं और चिल्ला रहे हैं कि हमने आर्यभूमि की रक्षा की है, इसलिए राज्य पर हमारा अधिकार हैं। राज्य के सब पद हमें मिलने चाहिए; हम शासन करेंगे।'

हे भारद्वाज, इतना सुनते ही राम उठे और भरत के साथ द्वार पर गए। उच्च स्वर में बोले; "बानरों, अपनी करनी का बार-बार बखान कर मुझे लज्जित मत करो। इस बात को कोई अस्वीकार नहीं करता कि तुमने देश के लिए संग्राम किया है। परन्तु लड़ना एक बात है और शासन करना सर्वथा दूसरी बात। अब इस देश का विकास करना है, इसकी उन्नति करनी है। अतएव शासन का कार्य योग्य व्यक्तियों को ही सौंपा जायेगा। तुम लोग अन्य नागरिकों की भांति श्रम करके जीविकोपार्जन करो और प्रजा के सामने आदर्श उपस्थित करो।"

महाराज रामचंद्र के शब्द सुनकर बानरों में बड़ी हलचल मची। कुछ ने उनकी बात को उचित बतलाया। पर अधिकांश बानर क्रोध से दाँत किटकिटाने लगे। उनमें जो मुखिया थे, वे बोले, "महाराज, हम श्रम नहीं कर सकते। आपकी 'जै' बोलने से अधिक श्रम हमसे नहीं बनता। हमने संग्राम में पर्याप्त श्रम कर लिया। हमने इसलिए आर्य संग्राम में भाग नहीं लिया था कि पीछे हमें साधारण नागरिक की तरह खेतों में हल चलाना पड़ेगा। और अपनी योग्यता का परिचय हमने लंका में पर्याप्त दे दिया है। ये हमारे शरीर के घाव हमारी योग्यता के प्रमाण हैं। इन घावों से ही हमारी योग्यता आंकी जाय। हमारे घाव गिने जाएँ।

हे भारद्वाज, राम ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु बानरों ने बुद्धि को तो वन में ही छोड़ दिया था। हताश होकर राम ने भरत से कहा, "भाई, ये नहीं मानेंगे। इनके घाव गिनने का प्रबंध करना ही पड़ेगा।"
इसी समय उस भीड़ से गगनभेदी स्वर उठा, "हमारे घाव गिने जाएँ। हमारे घाव ही हमारी योग्यता हैं।"

तब भरत ने कहा, "बानरों, अब शांत हो जाओ। कल अयोध्या में 'घाव-पंजीयन कार्यालय' खुलेगा। तुम लोग कार्यालय के अधिकारी के पास जाकर उसे अपने-अपने सच्चे घाव दिखा, उसके प्रमाणपत्र लो। घावों की गिनती हो जाने पर तुम्हें योग्यतानुसार राज्य के पद दिए जायेंगे।"
इस पर बानरों ने हर्ष-ध्वनि की। आकाश से देवताओं ने जय-जयकार किया और पुष्प बरसाए। हे भारद्वाज, निठल्लों को दूसरे की विजय पर जय बोलने ओ फूल बरसाने के अतिरिक्त और काम ही क्या है? बानर प्रसन्नता से अपने-अपने निवास स्थान को लौट गए।"
दूसरे दिन नंग-धड़ंग बानर राज्य-मार्गों पर नाचते हुए घाव गिनाने जाने लगे। अयोध्या के सभ्य नागरिक उनके नग्न-नृत्य देख, लज्जा से मुँह फेर-फेर लेते।

हे भारद्वाज, इस समय बानरों ने बड़े-बड़े विचित्र चरित्र किए। एक बानर अपने घर में तलवार से स्वयं ही शरीर पर घाव बना रहा था। उसकी स्त्री घबरा कर बोली, "नाथ, यह क्या कर रहे हो?" बानर ने हँस कर कहा, "प्रिये, शरीर में घाव बना रहा हूँ। आज-कल घाव गिनकर पद दिए जा रहे हैं। राम-रावण संग्राम के समय तो भाग कर जंगलों में छिप गया था। फिर जब राम की विजय-सेना लौटी, तो मैं उसमें शामिल हो गया। मेरी ही तरह अनेक बानर वन से निकलकर उस विजयी सेना में मिल गए। हमारे तन पर एक भी घाव नहीं था, इसलिए हमें सामान्य परिचारक का पद मिलता। अब हम लोग स्वयं घाव बना रहे हैं।"

स्त्री ने शंका जाहिर की, "परन्तु प्राणनाथ, क्या कार्यालय वाले यह नहीं समझेंगे कि घाव राम-रावण संग्राम के नहीं हैं?" बानर हँस कर बोला, "प्रिये, तुम भोली हो। वहाँ भी धांधली चलती है।"
स्त्री बोली, "प्रियतम, तुम कौन सा पद लोगे?"

बानर ने कहा, "प्रिये, मैं कुलपति बनूँगा। मुझे बचपन से ही विद्या से बड़ा प्रेम है। मैं ऋषियों के आश्रम के आस-पास मंडराया करता था। मैं विद्यार्थियों की चोटी खींचकर भागता था, हव्य सामग्री झपटकर ले लेता था। एक बार एक ऋषि का कमंडल ही ले भागा था। इसी से तुम मेरे विद्या-प्रेम का अनुमान लगा सकती हो। मैं तो कुलपति ही बनूँगा।"

याज्ञवल्क्य तनिक रुककर बोले, "हे मुनि, इस प्रकार घाव गिना-गिनाकर बानर जहाँ-तहाँ राज्य के उच्च पदों पर आसीन हो गए और बानर-वृत्ति के अनुसार राज्य करने लगे। कुछ काल तक अयोध्या में राम-राज के स्थान पर वानर-राज ही चला।"
भारद्वाज ने कहा, "मुनिवर, बानर तो असंख्य थे, और राज के पद संख्या में सीमित। शेष बानरों ने क्या किया?"

याज्ञवल्क्य बोले, "हे मुनि, शेष बानर अनेक प्रकार के पाखण्ड रचकर प्रजा से धन हड़पने लगे। जब रामचंद्र ने जगत जननी सीता का परित्याग किया, तब कुछ बनारों ने 'सीता सहायता कोष' खोल लिया और अयोध्या के उदार श्रद्धालु नागरिकों से चन्दा लेकर खा गए।"

याज्ञवल्क्य ने अब आंखें बंद कर लीं और बड़ी देर चिन्ता में लीन रहे। फिर नेत्र खोलकर बोले, "हे भारद्वाज, श्रद्धालुओं के लिए वर्जित यह प्रसंग मैंने तुम्हें सुनाया है। इसके कहने और सुनने वाले को पाप लगता है। अतएव हे मुनि, हम दोनों प्रायश्चित-स्वरूप तीन दिनों तक उपवास करेंगे।"

- हरिशंकर परसाई

Saturday, 25 March 2023

People

In 1871, there were only two chief components of the word "People" and not four classes.  Lenin says:

"In Europe, in 1871, the proletariat did not constitute the majority of the people in any country on the Continent. A "people's" revolution, one actually sweeping the majority into its stream, could be such only if it embraced both the proletariat and the peasants. These two classes then constituted the "people".

Wednesday, 22 March 2023

चैत्र नवरात्रि , "हिंदू नववर्ष " या " भारतीय नववर्ष "

चैत्र नवरात्रि को , " हिंदू नववर्ष "  या " भारतीय नववर्ष "    कहना वास्तव में यह उत्तर भारतीय वर्चस्व का एक और उदाहरण है!  इसे केवल हिन्दी नववर्ष ही कहा जाना चाहिए! हिन्दूओं में अनेक नववर्ष है, जैसे असमिया , तमिल, बंगला, मलयाली, यहाँ तक की गुजराती नववर्ष भी है।  जैन और बौद्ध नववर्ष भी है। छोटे नागपुर में अनेक कबीलों में भी उनके अपने नववर्ष है। वास्तव में हजारों साल से दिल्ली या कहें उत्तर भारत सत्ता का केन्द्र रहा हैं,इसलिए उत्तर भारत के लोगों को ऐसा लगता है, की भारतीय संस्कृति और सभ्यता के वे ही केन्द्र है। जबकि दक्षिण भारत की सभ्यता और संस्कृति भी हजारों साल पुरानी है! उदाहरण के लिए तमिल भाषा संस्कृत भाषा की तरह ही हजारों साल पुरानी है, तथा यह करीब हजार वर्ष से तमिल समाज की मुख्य भाषा है । इसका साहित्य भी बेजोड़ है। बंगला और मलयाली सहित्य भी अनेक मामले में हिन्दी साहित्य से उत्कृष्ट है। दुर्भाग्य से हम जितना अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषा के साहित्य और संस्कृति के बारे में जानकारी है, उससे बहुत कम अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में  है, क्योंकि इनका हिन्दी में अनुवाद बहुत कम हुआ है। वास्तव में" हिन्दू राष्ट्र "की अवधारणा भी " उत्तर भारतीय ब्रहामणवादी" अवधारणा है। यही कारण है की भाजपा का प्रोजेक्ट दक्षिण भारत में सफल नहीं हो पाया। उसे वहाँ  हिन्दूत्व , या राममंदिर के नाम पर वोट नहीं मिले। वास्तव में हिन्दू राष्ट्र का निर्माण जिस तरह दलित, पिछड़े और जनजातियों तथा अल्पसंख्यकों को विरोधी है, इसी तरह यह मिलीजुली भारतीय संस्कृति जिसकी  अभिव्यक्ति यहाँ की विभिन्न राष्ट्रीयताओ में होती है, उसकी भी विरोधी है। इसलिए इस देश की सभी राष्ट्रीयताओ अल्पसंख्यकों तथा बहुजन समाज को मिलकर किसी भी तरह के धार्मिक राष्ट्र की अवधारणा का विरोध करना चाहिए।




कात्यायनी 'समूह' का बहस करने का एक नमूना

कात्यायनी 'समूह' का बहस करने का एक नमूना देखिए। फोटो भी उन्हीं का है। (इसका अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो रहा है)

एक अतिकिरांतिकारी का अवसरवादी रुदन...

कात्यायनी की कविता पर चल रही बहस में पधार ही गये हर तरह की तार्किक मनीषा से आज़ाद अतिकिरान्तिकारी जड़भरत महराज (इनके कमेंट का स्क्रीन शॉट नीचे है)।
मौक़ा अच्छा जो था कवियों-लेखकों की निगाह में आने का जिनकी बिरादरी में शामिल होने की आतुरता में तो इन्होंने कात्यायनी पर यह आरोप थोप मारा है कि अपनी लकीर को बड़ी करने के लिए कात्यायनी ने एक 'सॉफ्ट टारगेट' चुन लिया है !! आह! कितनी हमदर्दी है नव-आधुनिकतावादी रूपवादी (और साथ ही नव-रीतिकालीन) स्त्री कवियों के लिए जिन्होंने प्रेम को अशोक वाजपेयी मार्का दैहिक भोगवाद और आहों-कराहों में रिड्यूस कर दिया है ! इनका कहना है कि ऐसी स्त्रियाँ हैं ही कितनी ! पहली बात तो यह कि किसी ग़लत प्रवृत्ति की आलोचना करने-न करने का आधार यह नहीं होता कि उसे कितने लोग कर रहे हैं ! किसी ग़लत बात को बिना आलोचना किये छोड़ देना एक बौद्धिक बेईमानी होती है, मार्क्स ने तो यही कहा था लेकिन हिसाबी-किताबी जड़भरत महराज को इससे क्या लेना-देना ! यह वही महोदय हैं जो कई मुद्दे पर उठाए सवाल पर चुप्पी मार गए और जवाब देने की जगह उल्टे-सीधे कमेंट को लाइक ठोक रहे थे।

 दूसरी बात यह कि कल्पनालोक में घूम रहे अतिकिरान्तिकारी महराज को यह पता ही नहीं कि इनदिनों सोशल मीडिया से लेकर अविनाश मिश्र संचालित 'सदानीरा' जैसी पत्रिकाओं और 'हिन्दवी' जैसे ऑनलाइन मंचों पर ऐसी कथित नव-आधुनिकाओं की भीड़ है जो ऐसी ही रूपवादी-भोगवादी कविताओं की रेलमपेल किये हुए हैं I ये सभी या तो प्रेम की मर्दवादी अवधारणा की गिरफ्त में हैं, या फिर अस्मितावादी नारीवाद की चपेट में ! कात्यायनी की कविता पर चोट करते हुए फेमिनिस्ट वीरांगनाओं ने जो तर्क दिये, उससे यह बात और अधिक स्पष्ट हो गयी, लेकिन जड़भरत को यह बात क्यों समझ आयेगी जबकि उसके संगठन की लाइन भी अस्मितावादी पॉलिटिक्स के साथ मधुयामिनी मनाने की ही है, चाहे वह दलित अस्मितावाद हो या स्त्री अस्मितावाद ! कोई भी कम्युनिस्ट ऐसी कविताओं की स्वभावतः कठोरतम आलोचना करेगा जो प्रेम की जनवादी अवधारणा और स्त्री के स्वातंत्र्य के विरुद्ध हो और भोगवाद तथा अस्मितावाद के भँवर में चक्कर काट रही हो, लेकिन जड़भरत जी तो एकदम पितृसत्तात्मक "संरक्षण" की भावना से रोने-रोने को हो जाते हैं और कहते हैं कि इन स्त्रियों की आलोचना इसलिए नहीं की जानी चाहिए क्योंकि ये पढ़ने-लिखने वाली पहली पीढ़ी की स्त्रियाँ हैं ! कितना "उदात्त" पितृत्वपूर्ण संरक्षणवाद है !! अव्वलन तो अगर ऐसा होता भी तो ऐसी स्त्रियों को पतनशील बुर्जुआ आत्मिक व सांस्कृतिक और सौन्दर्यात्मक प्रभावों से सचेत करने के लिए उनकी कठोर आलोचना की जानी चाहिए ! दूसरी बात यह कि ऐसा है ही नहीं ! जड़भरत महराज लगता है कि अभी आशापूर्णा देवी के उपन्यास 'प्रथम प्रतिश्रुति' के ज़माने में जी रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे कि उनका संगठन भारत को आज भी अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक मानते हुए साठ-सत्तर साल पहले के समय में जी रहा है ! ऐसी जो स्त्री कवि हैं उनका बड़ा हिस्सा महानगरीय कुलीन मध्यवर्ग का सदस्य है जिनके घरों की स्त्रियाँ दो-तीन पीढ़ियों से पढ़ी-लिखी होती आयी हैं I दिल्ली-भोपाल-रायपुर-लखनऊ आदि के सरकारी अकादमियों के आयोजनों और पूँजी-प्रायोजित साहित्य महोत्सवों के मंचों पर जिसने इन फेमिनिस्ट पिकनिकबाजों को देखा है, वह इनके उत्सवधर्मी अभिजात्य को सहज ही समझ सकता है, नाम गिनाने की कोई ज़रूरत नहीं !
जड़भरत महराज का निर्देश है कि कविता इन "नॉन-इश्यूज" पर नहीं बल्कि बस्तर में सत्ता के बर्बर दमन पर लिखी जानी चाहिए I फिर उनपर कोई लिखे तो शायद कहें कि अब पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में दमन पर लिखिए I इनकी पार्टी के साहित्य-संस्कृति के कमिसार शायद प्राथमिकता-क्रम से विषयों की एक लिस्ट बनाकर देते होंगे कि कविगण इन-इन विषयों पर कविता लिखेंगे ! कविता बेशक समाज के जीवित-ज्वलंत प्रश्नों को विषय बनाती है और कवि की विचारधारात्मक-राजनीतिक लाइन उसमें स्वतः आ जाती है, अगर वास्तव में वह एक कम्युनिस्ट है तो ! कविता के विषयों की निर्देश-सूची कोई पार्टी नहीं बनाती ! ऐसे ज्वलंत विषय कभी वैचारिक हो सकते हैं, कभी कोई समसामयिक घटना ! सत्ता के दमन पर पिछले चालीस वर्षों में कात्यायनी ने कई कविताएँ लिखी हैं I दूसरी बात, यह सिर्फ़ कविता लिखने की ही चीज़ नहीं है I राज्यसत्ता के हर दमन के विरुद्ध कात्यायनी हमेशा सक्रिय रही हैं, साझा कार्रवाइयों में भागीदारी के ज़रिये और लेख, टिप्पणियों आदि के ज़रिये भी ! छत्तीसगढ़ में सत्ता के दमन के विरुद्ध भी ऐसा ही रहा है, न केवल आम आदिवासी आबादी के दमन के ख़िलाफ़, बल्कि उनके बीच काम करने वाले "वाम" दुस्साहसवादियों के सत्ता द्वारा दमन के ख़िलाफ़ भी, क्योंकि यह जनवादी अधिकारों का सवाल है ! लेकिन हम साथ ही उस "वाम" दुस्साहसवादी लाइन के भी कटु आलोचक हैं जिसके नतीजे के तौर पर अंततः भारतीय क्रान्ति को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है, सिवाय भीषण नुकसान के ! बहरहाल यह अभी इतना प्रासंगिक नहीं है।

जड़भरत जी ने कविता कृष्णपल्लवी की कविता की भी भीषण दुर्व्याख्या की है I कविता का कथ्य मात्र इतना है कि राजनीतिक-सामाजिक परिवेश से एकदम असम्पृक्त आप किसी द्वीप पर कितने भी पवित्र और मासूम प्यार में डूबे हों, जब बर्बरता का समय आयेगा तो आप उससे अछूते नहीं रह पायेंगे I बर्बर फासिस्ट ताक़तें आपको शिकार बनायेंगी ही।

प्रसेन की वाल से साभार


ऋतु और भूमध्य रेखा

21 मार्च (बसंत विषुव) को सूर्य भूमध्य रेखा पर लम्बवत चमकता है और सम्पूर्ण विश्व में रात-दिन बराबर होते हैं। इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में बसंत ऋतु होती है। इसके पश्चात् सूर्य उत्तरायण हो जाता है और 21 जून (ग्रीष्म संक्रांति) को कर्क रेखा पर लम्बवत होता है। इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में अधिकतम सूर्यातप मिलता है और ग्रीष्म ऋतु होती है। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्द्ध में अल्पतम सूर्यातप प्राप्त होने के कारण शीत ऋतु होती है। इसके पश्चात् सूर्य की स्थिति पुनः दक्षिण की ओर होने लगती है और 23 सितम्बर (शरद विषुव) को पुनः सूर्य भूमध्य रेखा पर लम्बवत् होता है और सर्वत्र दिन-रात बराबर होते हैं। इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में पतझड़ ऋतु होती है। सितम्बर से सूर्य दक्षिणायन होने लगता है और 22 दिसम्बर (शीत संक्रांति) को मकर रेखा पर लम्बवत् होता है। इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में अल्पतम सूर्यातप प्राप्त होता है और यहाँ शीत ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में अधिकतम सूर्यातप की प्राप्ति के कारण ग्रीष्म ऋतु होती है। इस प्रकार उत्तरी गोलार्द्ध और दक्षिणी गोलार्द्ध में विपरीत ऋतुएं पायी जाती हैं।

दिसंबर : विषुवत के नीचे ग्रीष्म, विषुवत के उपर शीत। सूर्य किरणे दक्षिणी गोलार्ध के उपर सीधे पड़ती है जबकी वे उत्तरी गोलार्ध पर तीरछे पड़ती है।
 मार्च : विषुवत के नीचे पतझड़, विषुवत के उपर वसंत। सूर्य किरणे दक्षिणी गोलार्ध तथा उत्तरी गोलार्ध एक जैसे ही पड़्ती है।
 जुन : विषुवत के नीचे शीत, विषुवत के उपर ग्रीष्म। सूर्य किरणे दक्षिणी गोलार्ध के उपर तीरछे पड़ती है जबकी वे उत्तरी गोलार्ध पर सीधे पड़ती है।
 सितंबर : विषुवत के नीचे वसंत, विषुवत के उपर पतझड़। सूर्य किरणे दक्षिणी गोलार्ध तथा उत्तरी गोलार्ध एक जैसे ही पड़्ती है।

विस्तार से https://vigyanvishwa.in/2016/12/21/seasons/




Sunday, 19 March 2023

कुलतार के नाम भगतसिंह का अन्तिम पत्र'



सेण्ट्रल जेल, लाहौर

3 मार्च, 1931

प्यारे कुलतार,

आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख पहुँचा। आज तुम्हारी बातों में

बहुत दर्द था। तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार, हिम्मत से विद्या प्राप्त करना और स्वास्थ्य का ध्यान रखना। हौसला रखना, और क्या कहूँ

उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्ज़े-जफ़ा क्या है, हमें यह शौक है देखें सितम की इन्तहा क्या है। दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चख का क्यों गिला करें, सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें। कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल, चरागे-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ। मेरी हवा में रहेगी ख़याल की बिजली, ये मुश्ते-खाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे।

अच्छा रुखसत। खुश रहो अहले वतन; हम तो सफ़र करते हैं। हिम्मत से

रहना। नमस्ते।

तुम्हारा भाई, भगतसिंह
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1. फाँसी लगने से बीस दिन पूर्व

432 / भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़


पेरिस कम्यून के सबक


आज ही के दिन 152 साल पहले यानी 18 मार्च 1871 को फ्रान्स के मजदूरों ने गोलबन्द होकर पूंजीपतियों के खिलाफ बलप्रयोग करते हुए फ्रान्स की राजसत्ता पर कब्जा कर लिया था, और 72 दिन तक मजदूरों की सरकार चली थी। 18 मार्च 1871 से 28 मार्च 1871 तक मजदूरों ने फ्रांस में अपनी सरकार चलाई। सभी वंचितों को समता, स्वतंत्रता, न्याय का अधिकार दिया।

पेरिस कम्यून से पहले दुनिया के मजदूरों में बहुत भ्रम था। वे सोचते थे कि पूँजीपति ही देश चला सकता है, वही सरकार चला सकता है, वही कानून व्यवस्था सँभाल सकता है और मजदूर तो लात-घूसे खा-खा कर 18-20 घंटे काम करने के लिए बने हैं।

  फ्रान्स की सत्ता में बैठे पूँजीपतियों को भी प्रकारान्तर से ऐसा ही भ्रम था। वे पूँजीपति यह सोचते थे कि धन के बल पर वे हर चुनाव जीतते रहेंगे, उनको कोई सत्ता से बेदखल नहीं कर पायेगा। मगर उनका यह भ्रम 18 मार्च 1871 को टूट गया, जब हथियारबन्द मजदूरों ने गोल बन्द होकर बलपूर्वक शोषक वर्ग का तख्तापलट दिया। 

  नशा काफूर हो गया। इस घटना से जहाँ पूरी दुनिया के पूँजीपति थर्रा उठे, वहीं दुनिया भर के मजदूरों में एक नया जोश भर गया, शासक बनने का जोश।

 इसके बाद कई देशों के पूँजीपतियों ने मिलकर फ्रांस के इस इकलौते मजदूर राज को खून की नदी में डुबो दिया। हाथ के घट्ठे देख-देख कर मजदूरों की पहचान करके उनका कत्लेआम किया। इस क्रूर दमन के पीछे शोषक वर्ग की यह भी मंसा थी कि दुनिया भर का मजदूर वर्ग इस कत्लेआम से डर जाएगा और भविष्य में कभी भी कहीं भी राजसत्ता पर कब्जा करने की कोशिश नहीं करेगा।

  पेरिस के मजदूर नेता ईमानदार और बड़ा कानूनवादी बनने के कारण बैंकों का अधिग्रहण नहीं किये, थोड़े परिवर्तनों के साथ वही जेल, वही अदालत, वही सेना, वही पुलिस बने रहने दिया। थोड़े बुनियादी परिवर्तनों के साथ वही कानून भी रह गये थे। अनुभव की कमी के कारण किसानों को अपने साथ नहीं ले पाये थे। ऐसी ही कई गलतियों के कारण वे कमजोर हुए।

 मगर मजदूर वर्ग पेरिस कम्यून की गलतियों से सीख लेकर पहले से अधिक जागरूक हो गया और अक्टूबर सन् 1917 आते-आते रूस में पूँजीपतिवर्ग का तख्तापलट कर दिया। एक करोड़ बयालिस लाख सैनिकों वाली विशाल फौज भी जारशाही हुकूमत की रक्षा नहीं कर पायी। पेरिस कम्यून की गलतियों से सबक लेते हुए इस बार मजदूरों ने समझ लिया था कि पूँजीपतिवर्ग की बनी बनाई राज मशीनरी से वे अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते, इसलिए इस बार मजदूरों ने अपनी सेना, अपनी जनमिलीशिया, अपनी जेल, अपनी जनअदालत बना कर शोषक वर्ग की राज मशीनरी को परास्त कर दिया फलस्वरूप जहाँ फ्रांस में पेरिस कम्यून का शासन सिर्फ 72 दिन चला था वहीं रूस में मजदूरों का राज 72 साल तक चला।

 रूस की महान अक्टूबर क्रान्ति के बाद तो दुनिया भर का शोषक वर्ग बहुत ही डर गया। यहाँ तक कि शोषक वर्ग की सेना और पुलिस, उनके जासूस एवं गुण्डे कम्यूनिस्ट क्रान्तिकारियों को खोज-खोज कर, चुन-चुन कर मौत के घाट उतारने लगे। लाखों कम्यूनिस्टों की हत्या किया। कई देशों के पूँजीपति मिलकर अपनी सेना के बल पर रूस में मजदूर वर्ग की सत्ता का खात्मा करने पर तुल गये। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तो कई पूँजीवादी देश मिलकर हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के नेतृत्व में रूस पर हमला कर दिया। मगर रूस के लड़ाकू मजदूरों, किसानों ने हिटलर, मुसोलिनी और तोजो की विशाल सेना को ध्वस्त कर दिया। जो लोग रूस के मजदूर राज को खत्म करने चले थे, वे खुद खत्म हो गये। इसी दौरान चीन समेत आधा दर्जन देशों पर मजदूरों-किसानों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया। 

 द्वितीय विश्व युद्ध के बाद क्यूबा, वियतनाम, उत्तर कोरिया के मजदूरों किसानों ने लम्बे संघर्ष में अमेरिकी साम्राज्यवाद को परास्त करके अपना राज कायम किया।

  हमारे देश के कुछ धूर्त और शोषक वर्ग के जातिवादी, सम्प्रदायवादी एजेंट कहते हैं कि "भारत में जातियाँ हैं यहाँ क्रान्ति नहीं हो सकती। मगर इन धूर्त, गद्दार धोखेबाजों की आँख के सामने 2006 में हमारे पड़ोसी देश नेपाल में जातियों के रहते ही वहाँ की जनता ने राजशाही को बलपूर्वक उखाड़ फेंका।

रूस में मजदूर राज के पतन के बावजूद आज भी लगभग एक दर्जन देशों में मजदूरों किसानों का राज चल रहा है। भारत का शोषक वर्ग मजदूरों किसानों की ताकत से डर रहा है। इसीलिए वह भारत की जनता को जाति धर्म के नाम पर आपस में लड़ाकर कमजोर कर रहा है। साथ ही साथ पांच किलो राशन, आरक्षण का टुकड़ा, वजीफा,... आदि मामूली रियायतों की लालच देकर भारत के मजदूरों किसानों का दिमाग भिखारियों/मुफ्तखोरों जैसा बनाया जा रहा है। अधिकांश किसानों, मजदूरों, दस्तकारों की मानसिकता इतनी गिरा दी गई है कि पाव भर चीनी, आटा के लिये कई किलोमीटर लम्बी लाइन लगा सकते हैं। भिखारियों की तरह धक्के खा सकते हैं मगर लड़ कर अपना हक नहीं छीन सकते।

  जातिवाद और साम्प्रदायिकता फैलाकर इनको इतना कमजोर, काहिल और कायर बना दिया गया है कि इन्हें आज भी खुद पर भरोसा नहीं है कि वे ही देश को चलाते हैं। और वे अपनी सरकार भी बना सकते हैं, इस बात पर उन्हें यकीन भी नहीं हो पा रहा है। कुछ तो इतने पिछड़ी सोच वाले हैं कि उनकी बिरादरी के मुख्मयमंत्री बन जाए तो उसे अपनी राजसत्ता समझ लेते हैं।

  देश चलाने को लेकर लोगों में बहुत भ्रम है। जातिवादी और साम्प्रदायवादी धूर्तों के बँहकावे में आकर हमारे देश के अधिकांश मजदूर किसान सोचते हैं कि सरकार चलाना हम मजूरों-किसानों के वश की बात नहीं है। वे सोचते हैं कि बड़े-बड़े पोस्टर छाप नेता और बड़े-बड़े नवाब, राजे-रजवाड़े, मठाधीश और बड़े पूँजीपति ही देश चला सकते हैं। 

 जब कि सच्चाई यह है कि बड़े-बड़े पोस्टरछाप नेता, बड़े-बड़े नवाब, राजे-रजवाड़े, मठाधीश और बड़े पूँजीपति देश नहीं सिर्फ अपनी सरकार चला रहे हैं। वे सरकार बनाकर जेल, अदालत, सेना, पुलिस की बन्दूकों के बल पर मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी, जुआखोरी,... को बढ़ावा देकर देश की जनता को लूट कर खुद मालामाल हो रहे हैं। अत: ये शोषक वर्ग के लोग तो सिर्फ सरकार चला रहे हैं, देश तो कोई और ही चला रहा है।

  किसी शायर ने बहुत सटीक लिखा है-

जिनके हाथों में लकीरें नहीं छाले होंगे।
वतन की डोर वही  लोग  सँभाले होंगे।।

  पेरिस कम्यून से लेकर अब तक हुई क्रान्ति यों से भयभीत होकर भारत का शोषकवर्ग पहले से कहीं अधिक सजग हो कर बहुत आक्रामक तरीके से जातिवाद और साम्प्रदायिकता फैला रहा है। मगर भूख का सवाल तो जाति, धर्म के सवाल से भी ऊपर होता है। भूख का सवाल तो पाँच किलो राशन से खत्म होने वाला नहीं है। इतिहास ने यह साबित किया है कि अमेरिका जैसे धनी देश में पूँजीवादी साम्राज्यवादियों की राजसत्ता में करोड़ों लोग भूखे सोते हैं जब कि वहीं क्यूबा, उत्तरकोरिया जैसे छोटे-छोटे देशों में जब इंकलाब के बाद मजदूरों की राजसत्ता आयी तब से आज तक एक भी आदमी भूखा नहीं सोया। भारत के शोषक वर्ग की मीडिया चीन के बारे में भले ही बहुत झूठ बोलती है, मगर विशाल आबादी वाले चीन में भी भूख की समस्या नहीं रह गयी है। अत: सिर्फ इंकलाब ही भूख की समस्या का समाधान दे सकता है। पेरिस कम्यून अमर रहे।
                                    रजनीश भारती
                               जनवादी किसान सभा


Tuesday, 14 March 2023

मार्क्स , वर्ल्ड की लगभग आधी आबादी जिनकी फालोवर है......



 ऐसे महान शख़्सियत,वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स जो दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और पत्रकार थे, आज उनकी पुण्यतिथि है। उनका जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी के ट्रियर शहर में हुआ था. कार्ल मार्क्स ने दुनिया को समाज और आर्थिक गतिविधियों के बारे में अपने विचारों से आंदोलित कर दिया।

उनके विचारों से प्रभावित होकर कई क्रांतियों की नींव 
पड़ी,वह ताउम्र कामकाजी तबके की आवाज बुलंद करते रहे। इसके कारण उन्हें पूंजीपती वर्गों का काफी विरोध भी सहना पड़ा। 

अपने क्रांतिकारी लेखों के कारण उन्हें जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम से भगा दिया गया था. साल 1864 में लंदन में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' की स्थापना में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

उन्होंने कहा था: पूंजी मृत श्रम है , जो पिशाच की तरह केवल जीवित श्रमिकों का खून चूस कर जिंदा रहता है, और जितना अधिक ये जिंदा रहता है उतना ही अधिक श्रमिकों को चूसता है। 

दार्शनिक के तौर पर उनका मानना था कि लोगों की खुशी के लिए पहली आवश्यकता 'धर्म का अंत' है।उन्होंने कहा था कि 'धर्म लोगों का अफीम है'। 

उनके अनुसार नौकरशाह के लिए दुनिया महज एक हेर-फेर करने की वस्तु है। 'अमीर गरीबों के लिए कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन उनके ऊपर से हट नहीं सकते। 

उन्होंने कहा था इतिहास खुद को दोहराता है, पहले एक त्रासदी की तरह , दुसरे एक मज़ाक की तरह। 

 उन्होंने हमें सिर्फ़ कम्युनिस्ट घोषणापत्र और दास कैपिटल जैसी किताब ही नहीं दी बल्कि कुछ ऐसी कविताएं भी दी हैं......जो पूंजीवाद की असलियत और समाजवाद की ज़रूरत को हमारे सामने अलग ढंग से रेखांकित करती हैं। आइए आज पढ़ते हैं ऐसी ही एक कविता.... 

बेरोजगारी (unemployment) 
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इतनी चमक-दमक के बावजूद

तुम्हारे दिन

तुम्हारे जीवन

को सजीव बना देने के

इतने सवालों के बावजूद

तुम इतने अकेले क्यों हो मेरे दोस्त ?

 
जिस नौजवान को कविताएं लिखने और

बहसों में शामिल रहना था

वो आज सड़कों पर लोगों से एक सवाल

पूछता फिर रहा है

महाशय, आपके पास क्या मेरे लिए

कोई काम है?

वो नवयुवती जिसके हक़ में

ज़िंदगी की सारी ख़ुशियां होनी चाहिए थी

इतनी सहमी-सहमी व इतनी नाराज़ क्यों है ?

 

शहरों में

संगीतकार ने

क्यों खो दिया है

अपना गान ?

 
अदम्य रोशनी के बाक़ी विचार भी

जब अंधेरे बादलों से अच्छादित है

जवाब

मेरे दोस्त ..हवाओं में तैर रहे हैं

समा लो अपने भीतर

जैसे हर किसी को रोज़ का खाना चाहिए

महिला को चाहिए अपना अधिकार

कलाकार को चाहिए रंग और अपनी तूलिका

उसी तरह

हमारे समय के संकट को चाहिए

एक विचार धारा

और एक अह्वान--

अंतहीन संघर्षों, अनंत उत्तेजनाओं,

सपनों में बंधे

मत ढलो यथास्थिति के अनुसार

मोड़ो दुनिया को अपनी ओर

समा लो अपने भीतर

समस्त ज्ञान

घुटनों के बल मत रेंगों

उठो—

गीत, कला और सच्चाइयों की

तमाम गहराइयों की थाह लो

-----  कार्ल मार्क्स

Monday, 13 March 2023

95वां ऑस्कर:

95वां ऑस्कर: अनाथ हाथी, पुतिन के प्रतिद्वंद्वी से लेकर मल्टीवर्स तक फैला कंटेंट


95वें ऑस्कर पुरस्कार कंटेंट और उसकी शैली को लेकर नई राह दिखाने वाला है। जिन फिल्मों को पुरस्कृत किया गया है, उनमें युद्ध की निरर्थकता, रिश्तों में घटते मूल्य और समर्पण, अवसाद-अकेलापन, प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, ब्रह्मांड का कौतूहल और अनजाने का डर…सब कुछ है। हालांकि यूरोप के तमाम फिल्म फेस्टिवल्स की तरह एकैडमी अवॉर्ड्स पर भी रूस-यूक्रेन युद्ध की छाया दिखी, लेकिन अपनी तरह से। ऑस्कर में पुरस्कृत हुई फिल्मों के बहाने उन फिल्मों और उनके इर्द गिर्द एक चर्चा के तौर पर आशीष कुमार सिंह का आलेख


95वें ऑस्कर समारोह मेंअमेरिका समेत दुनियाभर की फिल्मों को उत्कृष्ट काम के लिए कुल 23 कैटेगरी में अवॉर्ड दिए गए।

भारत के लिए इस बार के ऑस्कर अवॉर्ड समारोह बहुत खास  थे, क्योंकि यहां की 3-3 फिल्मों को नामांकन मिले थे। पिछले साल की बहुचर्चित फिल्म 'आरआरआर' के गाने 'नाटू नाटू' को बेस्ट ओरिजनल सॉन्ग का नामांकन मिला था, जो आखिरकार इसने जीत लिया। समारोह के दौरान मंच पर इसके गायकों राहुल सिपलीगंज और कालभैरव (संगीतकार एम एम कीरावनी के बेटे और कंपोज़र-सिंगर) पेश भी किया गया। प्रस्तुति से पहले इस गाने को बॉलीवुड अभिनेत्री दीपिका पदुकोन ने मंच पर बहुत ही खूबसूरती से इंट्रोड्यूस किया। मंच पर पावरपैक्ड प्रस्तुति के दौरान बैकड्रॉप पर भी लोगों का ध्यान गया, जिसमें फिल्म में गाने की मूल लोकेशन की तस्वीर चिपकी रही, जो दरअसल यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की का महल है। ये गाना वहीं पर रूस-यूक्रेन युद्ध शुरु होने के पहले 2021 में शूट हुआ था, पूरा गाना पहीं फिल्माया गया है।

भारत की दूसरी और सबसे खूबसूरत एंट्री थी 'द एलीफैंट व्हिस्परर्स' जिसे कार्तिकी गोंसालवेज़ ने निर्देशित किया था और गुनीत मोंगा ने प्रोड्यूस किया था। इसे बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट (जिन फिल्मों की अवधि 40 मिनट से कम होती है) की कैटेगरी में ऑस्कर मिला। ये फिल्म तमिलनाडु के जंगलों में रहने वाले एक दंपति बोमन और बेली की कहानी पर आधारित है, जिन्होने एक अनाथ नन्हे हाथी रघु को  पाने के बाद उसे पालने पोसने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। ये एक खूबसूरत फिल्म है और नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है, इसे ज़रुर देखना चाहिए।

भारत की एक और प्रमुख एंट्री थी फीचर लेंथ डॉक्यूमेंट्री में फिल्मकार शौनक सेन (जो जाने माने फिल्म समीक्षक राजा सेन के भाई हैं) की डॉक्यूमेंट्री 'ऑल दैट ब्रीद्स', जो इकोसिस्टम में चीलों की अहमियत को समझते हुए उन्हे बचाने में जुटे दिल्ली के दो भाइयों की कहानी पर आधारित है, लेकिन ये फिल्म ऑस्कर पाने से चूक गई।

क्यों… क्योंकि इस कैटेगरी में ऑस्कर मिला डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'नावेलनी' को। बता दें एलेक्सी नावेलनी रूस के प्रमुख विपक्षी नेता हैं और पुतिन के घोर विरोधी हैं। पिछले साल उन्हे भ्रष्टाचार के आरोप में सजा सुनाई गई थी, और तब से वो रूस की जेल में बंद हैं। पुतिन के विरोधी होने की वजह से 'नावेलनी' को भी ऑस्कर मिलना एक तरह से तय ही था। अवॉर्ड रिसीव करने मंच पर निर्देशक डैनियल रोहर के साथ नावेलनी की पत्नी यूलिया भी मौजूद थीं। 'नावेलनी' को ऑस्कर दिए जाने पर रूस ने इसे हॉलीवुड का राजनीतिकरण करार दिया है।

प्रमुख श्रेणियों के पुरस्कारों की बात करें तो इस बार ऑस्कर समारोह में 'डैनियल्स' के नाम से मशहूर निर्देशक द्वय डैनियल क्वान और डैनियल शाइनर्ट की फिल्म 'एवरीथिंग एवरीव्हेयर ऑल एट वन्स' (EEAAO) ने लगभग सभी प्रमुख श्रेणियों में कुल 7 ऑस्कर जीत कर अपना परचम लहराया। इसे कुल 11 अवॉर्ड्स के लिए नामांकित किया गया था, जिसमें से बेस्ट फिल्म (फिल्म के कुल 7 निर्माताओं में प्रमुख दो निर्माता मशहूर रूसो ब्रदर्स हैं, जिन्हने 'एवेंजर्स एंड गेम' बनाई थी और मार्वल की 4 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं ), बेस्ट डायरेक्टर (डैनियल्स), बेस्ट स्क्रीनप्ले (डैनियल्स), बेस्ट एडिटिंग (पॉल रोजर्स), बेस्ट एक्ट्रेस (मिशेल यो), बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर (के हुई क्वान), बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस (जेमी ली कर्टिस) कैटेगरी में इसने ऑस्कर हासिल किए।


इस बार ऑस्कर में छायी रही फिल्म 'एवरीथिंग एवरीव्हेयर ऑल एट वन्स' को कई लिहाज़ से काफी खास कहा जा रहा है। ऊपरी तौर पर ये एक एक्शन फिल्म लगती है, जिसमें मल्टीवर्स को बचाने की जद्दोजहद है। लेकिन इस थीम में कई परतें हैं जो इस फिल्म को गहराई देती है। फिल्म दरअसल अधेड़ उम्र की एक प्रवासी अमेरिकी-चीनी एवलिन वांग की कहानी है, जो जीवन के संघर्षों से जूझ रही है…जिसमें आजीविका पर आया संकट भी, पति-बेटी-पिता से रिश्तों का संकट है और जीवन की नीरसता और अवसाद भी है। लेकिन सबकुछ अचानक तब बदल जाता है जब वो पैरेलल यूनिवर्स से अपने ही एक हमवजूद से मिलती है और फिर उस पर अचानक पूरे मल्टीवर्स को बचाने की जिम्मेदारी आ जाती है। इस कहानी में फैंटेसी है तो कॉमेडी भी है, साइंस फिक्शन है तो फैमिली ड्रामा भी… और अपनी इसी कहानी और प्रेजेंटेशन स्टाइल से ये जीवन के उन मुद्दों को उठाती है, जहां दर्शकों से इसका एक कनेक्ट एस्टैब्लिश होता है। शैली में मनोरंजन है और कथ्य में गहराई और यही इसकी सबसे बड़ी ताकत बनती है।

बेस्ट एक्टर का ऑस्कर 'द व्हेल' के लिए ब्रेंडन फ्रेज़र को मिला। बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म का अवॉर्ड जर्मन फिल्म 'ऑल क्वाएट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट' को मिला जो इसी नाम के प्रथम विश्वयुद्ध पर आधारित एरिक मारिया रमार्क के उपन्यास पर आधारित है। 1029 का ये उपन्यास और फिल्म युद्ध की निरर्थकता को रेखांकित करती है। इस फिल्म ने 3 और ऑस्कर जीते जिनमें ओरिजिनल स्कोर, प्रोडक्शन डिज़ाइन और सिनेमाटोग्राफी शामिल है।


बॉक्स ऑफिस पर सबसे अधिक कमाई का रिकॉर्ड रचने वाली दिग्गज निर्देशक जेम्स कैमरुन की फिल्म 'अवतार: द वे ऑफ वॉटर' को सिर्फ बेस्ट विजुअल इफेक्ट्स का ऑस्कर मिला, जबकि मशहूर अभिनेता टॉम क्रूज़ की चर्चित  फिल्म 'टॉप गन मावरिक' को साउंड का ऑस्कर मिला। ये दोनों ही समारोह में मौजूद नहीं रहे।

बेस्ट एनीमेशन फिल्म का अवॉर्ड मेक्सिकन फिल्कार गिलेर्मो देल तोरो की फिल्म 'पिनोशियो' को मिला। ये जानना दिलचस्प है कि देल तोरो को इससे पहले 2018 में अपनी फिल्म 'द शेप ऑफ वॉटर' के लिए भी बेस्ट पिक्चर और बेस्ट डायरेक्टर और 2007 में 'पैन्स लैबिरिंथ' के लिए बेस्ट स्क्रीनप्ले का ऑस्कर मिल चुका है।  

हाल के दशक में मेक्सिकन मूल के फिल्मकारों ने हॉलीवुड में बेहद मज़बूत उपस्थिति दर्ज कराई है, जिनमे देल तोरो के अलावा प्रमुख हैं एलफोंसो क्वेरोन ('हैरी पॉटर एंड द प्रिज़नर ऑफ एज़्काबान', 'ग्रेविटी', 'रोमा'), एलेजांद्रो गोंज़ालेज़ इनारितु, ('बर्डमैन', 'द रेवनेंट')। ये तीनों 3 दोस्त के तौर पर भी लोकप्रिय हैं और 'चा चा चा फिल्म्स' के नाम से इनका एक संयुक्त प्रोडक्शन हाउस भी है।

मार्वल स्टूडियोज़ की चर्चित 'ब्लैक पैंथर वाकंडा फॉरएवर' को सिर्फ बेस्ट कॉस्ट्यूम के लिए ऑस्कर मिला। मार्वल के बेहद लोकप्रिय किरदार 'ब्लैक पैंथर' (वाकंडा के राजा टी चाला के नाम से भी लोकप्रिय) को पर्दे पर अभिनेता चैडविक बोसमैन निभाते थे, जिनका अगस्त 2020 में कैंसर से निधन हो गया था। संभवत:  ब्लैक पैथर के क्रेज़ को भुनाने के लिए ये फिल्म बनाई गई थी। फिल्म में वाकंडा राज्य के राजा टी चाला के निधन के बाद इसको बचाने की कहानी दिखाई गई है।

एशिया और भारत के लिए इस बार के ऑस्कर में कुछ और भी खास बातें रहीं। जैसे कि बेस्ट एक्स्ट्रेस की कैटेगरी में पहली बार किसी एशियन अभिनेत्री (मिशेल यो, मलेशिया, EEAAO के लिए) ने ऑस्कर जीता। वहीं 'नाटू नाटू' को मिला बेस्ट ओरिजिनल सॉन्ग का अवॉर्ड भी पहली बार किसी भारतीय प्रोडक्शन के लिए मिला इस कैटेगरी का अवॉर्ड है। बेस्ट डॉक्यूमेंट्री के तौर पर भी पहली बार किसी भारतीय डॉक्यूमेंट्री फिल्म को ये अवॉर्ड मिला है। इससे पहले 2019 में 'पीरियड: एंड ऑफ सेंटेंस' को इस कैटेगरी में ऑस्कर मिला था, जिसमें दिल्ली की पृष्ठभूमि थी, लेकिन इसकी निर्देशक अमेरिकी-ईरानी राएका ज़ेताब्ची थीं। गुनीत मोंगा इसकी एक्जीक्टूयिव प्रोड्यूसर थीं। जबकि 2008 में इसी कैटेगरी में ऑस्कर पायी फिल्म 'स्माइल पिंकी' की पृष्ठभूमि भी भारत (यूपी) थी लेकिन उसकी निर्माता निर्देशक अमेरिका की मेगन मायलन थीं। जबकि फीचर लेंथ डॉक्यूमेंट्री की कैटेगरी में इस बार नामांकित होकर चूक गई ऑल दैट ब्रीद्स (निर्माता-निर्देशक- शौनक सेन) की ही तरह 2021 में राइटिंग विद फायर (बुंदेलखंड की दलित महिलाओं द्वारा प्रकाशित अखबार 'खबर लहरिया' पर आधारित) भी इसी कैटेगरी में नामांकित हुई और चूक गई। ये फिल्म रिंटू थ़ॉमस और सुश्मित घोष द्वारा निर्मित और निर्देशित थी। दोनों ही फिल्में भारतीय द्वारा निर्मित और निर्देशित थीं, अगर इन्हे सफलता मिलती तो ये भी ऐतिहासिक होता… लेकिन इस कैटेगरी के लिए शायद थोड़ा और इंतज़ार करना होगा। उम्मीद करें कि इस ऐतिहासिक उपलब्धि का इंतज़ार अच्छे कंटेंट के लिए फिल्मकारों को और प्रेरित करेगा

https://bit.ly/3l7Zxzl



Sunday, 12 March 2023

मक्सिम गोर्की (सर्वहारा वर्ग का मानववाद)

अरबों मेहनतक़श लोगों पर अपनी सत्‍ता जमाये रखने और श्रम का निरंकुश शोषण करने की अपनी स्वतन्त्रता को क़ायम रखने के लिए दुनिया के पूँजीपति अपना पूरा ज़ोर लगाकर फ़ासिज्म का संगठन कर रहे हैं। फ़ासिज्म जर्जर बुर्जुआ समाज के शारीरिक और नैतिक रूप अस्वस्थ -- शराबखोरी और सिफ़लिस के शिकार पूँजीपतियों और उनकी विक्षिप्त सन्तान का, जो सन 1914-18 के अनुभवों से पीड़ि‍त है, निम्न मध्यवर्ग के बच्चों का, पराजय का 'प्रतिशोध' लेनेवालों तथा उन लोगों का मिलकर संगठित होने का परिणाम है, युद्ध में जिनकी सफलताएँ भी बुर्जुआ वर्ग के लिए पराजय से कम विनाशकारी नहीं थीं। इन सब नौजवानों की मनोवृत्ति का रूप निम्न तथ्यों से पहचाना जा सकता है: ''इस वर्ष के मई महीने के आरम्भ में, जर्मनी के एस्सेन नगर में, चौदह साल के एक लड़के 'हाइन क्रिस्टेन' ने तेरह साल के अपने दोस्त 'फ्रित्ज़ वाकेनहोत्स्रज' की हत्या कर दी। हत्यारे ने बड़े शान्त भाव से बताया कि उसने पहले से ही अपने दोस्त के लिए एक कब्र खोद ली थी, जिसमें उसको गिराकर उसने हाथों से अपने दोस्त का मुँह मिट्टी में तबतक जबरदस्ती दबाये रखा जबतक उसका दम नहीं घुट गया। उसने कहा कि यह हत्या उसने इसलिए की, क्योंकि वह अपने दोस्त वा‍केनहोत्र्स्ज की हिटलर स्टॉर्मट्रूपर पर की वर्दी को हथियाना चाहता था।''
जिन्होंने भी फासिस्टों की परेडें देखी हैं, वे जानते हैं कि ये परेडें उन नौजवानों की होती हैं, जिनकी रीढ़ें रोग से सूजी हुई हैं, जिनके शरीरों पर चकत्ते पड़े हुए हैं और जो क्षयग्रस्त हैं, किन्तु जो बीमार आदमियों के उन्माद से जीवित रहना चाहते हैं और जो ऐसी किसी भी चीज़ को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं जो उनके विषाक्त रक्त की सड़ांध को बिखेरने की उन्हें आज़ादी देती है। इन हजारों कान्तिहीन और रक्तहीन चेहरों में स्वस्थ और चमकते चेहरे दूर से ही नज़र आ जाते हैं, क्योंकि उनकी संख्या इतनी नगण्य है। निश्चय ही ये थोड़े-से चमकते हुए चेहरे सर्वहारा वर्ग के सचेत दुश्मनों के हैं या दुस्साहसी टटपूँजियों के हैं जो कल तक सोशल डेमोक्रेट थे या छोटे व्यापारी थे और अब बड़े व्यापारी बनना चाहते हैं और जिनके वोट, जर्मनी के फासिस्ट नेता मज़दूरों और किसानों के हिस्से की लकड़ी या आलू मुफ्त में देकर ख़रीद लेते हैं। होटलों के हेड-वेटर चाहते हैं कि वे अपने-अपने रेस्तराँ के मालिक हों, छोटे चोर चाहते हैं कि शासन बड़े चोरों को लूटमार और चोरी करने की जो छूट देता है वह उन्हें भी दी जाये -- ऐसे लोगों की पाँत में से फासिज्म अपने रंगरूट भरती करता है। फासिस्टों की परेड एक साथ ही पूँजीवाद की शक्ति और उसकी कमज़ोरियों की परेड होती है।
हमें आँखें बंद नहीं कर लेनी चाहिए: फासिस्‍टों की जमात में मज़दूरों की संख्‍या भी कम नहीं है -- ऐसे मज़दूरों की संख्या जो अभी तक क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग की निर्णयकारी शक्ति से बेख़बर हैं। हमें अपनेआप से यह तथ्य भी नहीं छिपाना चाहिए कि संसार का उपजीवी -- पूँजीवाद -- आज भी काफी मजबूत है, क्योंकि मज़दूर और किसान अभी भी उसके हाथ में हथियार और भोजन देते जाते हैं और उसे अपने रक्त और मांस से पौष्टिक तत्‍व प्रदान करते जाते हैं। इस विप्‍लवी जमाने का यह सबसे क्षोभजनक और शर्मनाक तथ्य है। जिस विनम्रता से मज़दूर वर्ग अपने दुश्मन को खिलाता-पिलाता है, वह कितनी घृणास्पद है। सोशल डेमोक्रेट नेताओं ने उसके मन में यह विनम्रता पैदा की है। इन नेताओं के नाम हमेशा के लिए शर्म के पीले और चिपचिपे रंग से पुते रहेंगे। कितने आश्चर्य की बात है कि बेकार और भूखे लोग इन तथ्यों को बर्दाश्त करते चले जाते हैं, जैसे मिसाल के लिए, बाजार के भाव ऊँचे रखने के लिए बड़ी तादाद में अनाज को नष्ट करना, वह भी ऐसे समय में जब बेरोज़गारी बढ़ रही है, वेतन की दरें गिर रही हैं और मध्यवर्ग के लोगों तक की ख़रीदने की क्षमता घटती जा रही है।

--- मक्सिम गोर्की (सर्वहारा वर्ग का मानववाद)

उन्मुक्त स्त्रीत्व ■ रामवृक्ष बेनीपुरी



भाग-1

सोवियत संघ में स्त्रीत्व ने एक नये संसार में प्रवेश किया है। सोवियत नारियां पुरुषों के साथ एक नयी समता का उपभोग करती हैं चाहे वे जिस क्षेत्र में भी हों शिक्षा में, राजनीति में, उद्योग में, पद-मर्यादा में, संस्कृति में जारशाही से बढ़कर स्त्रियों को गुलाम बनाने वाला कोई राज्य संसार में नहीं था, सोवियत शासन से बढ़कर उन्हें उन्मुक्त करने वाली संसार में कोई शासन पद्धति नहीं है।

लेकिन यह मुक्ति उन्हें मुफ्त नहीं मिली है। उन्होंने यह कीमती चीज अपने हृदयरक्त के दाम पर खरीदी है।

1917 में क्रांति के जिस तूफान ने पुरानी इमारतों को ढहाकर, एक नयी इमारत की नींव के लिए जमीन खाली कर दी, वह आंधियों की लंबी जंजीर की एक कड़ी मात्र था। कितने दिनों से संघर्षों का एक सिलसिला जारी था, जिसमें स्त्रियों का हिस्सा मामूली नहीं था। कितनी ही बार उन्होंने पुरुषों का पथप्रदर्शन किया।

युगों से रूस की स्त्रियां गुलामी की बेड़ी से जकड़ी थीं। ईसा की पवित्र वेदी को छूने तक का उन्हें अधिकार नहीं था शादी के मौके पर पुरुष सोने की अंगूठियों के हकदार थे, स्त्रियों को लोहे की काली अंगूठियों पर संतोष करना पड़ता था। रूस के पोप ने फरमान निकाला था- औरतें मर्दों की व्यक्तिगत सम्पति हैं। अगर कोई स्त्री अपने पति की बात नहीं मानती तो उसे कोड़ों से पीटा जाना चाहिए। कोड़ों की चोट पीड़ा देती है, वह तुरंत होश दुरुस्त करती और पार्थ आगे के लिए चेतावनी बनती है।

लेकिन इन राक्षसी फरमानों के बावजूद रूस ताकत को बढ़ाती ही गयीं। की औरतों में मानवी भावनाएं मरने नहीं पायीं । जारशाही के विरुद्ध जब लोगों के मन में विद्रोह भावना हुई, कितने ही बड़े-बड़े अफसर, कितने ही बड़े-बड़े विद्वान उस आंदोलन में आये। उन्हें साइबेरिया का वनवास मिला। उनकी पतिपरायण पत्नी घर छोड़ घर का वैभव, विलास और बच्चों तक को छोड़कर सीता की तरह उनके पीछे वनवासिनी हुई। साइबेरिया के संकटों को उनके पास रहकर हंसते-हंसते झेला।

पिछली शताब्दी के दूसरे हिस्से में कितनी ही पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने शहरों को छोड़, वहां की सुख-सुविधा, औज मौज को छोड़, देहातों में गयी और सूखी रोटी पर गुजर करती, लोगों की शिक्षा-दीक्षा में, उनमें जागृति पैदा करने में अपने को बिल्कुल खपा दिया। बैकुनिन के प्रभाव में आकर कितनी ही युवक-युवतियां विश्वविद्यालयों को छोड़कर जनता के बीच उससे सबक सीखने गयीं।

जार के न्यायमंत्री ने 1877 में कहा था- "क्रांतिकारियों की सफलता का कारण उनके अंदर स्त्रियों का होना है।" पढ़ी-लिखी स्त्रियां कारखानों में सोलह घंटे काम करने के बाद मजदूरों के बारिक के गंदे, रूखे वातावरण में रहकर, क्रांतिकारी प्रचार में दिन-रात लगी रहतीं। जारशाही का दमन उनके दिल को कभी पस्त नहीं कर सका। मौत को उन्होंने हमेशा ही हिकारत और उपेक्षा की नजर से देखा। कठिनाइयां उनकी ताकत को बढ़ाती ही गयी।

ये क्रांतिकारी स्त्रियां ज्यादातर नवयुवती थीं। पढ़ी-लिखी, दिमाग और दिल की धनी कितनी ही अनिद्य सुंदरी और कला की भावना से ओतप्रोत कोई भी युवक उनका हाथ लेकर अपने को धन्य मान सकता था किंतु उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रेम को देशप्रेम में इस तरह परिणत कर दिया था कि शादी-ब्याह की उनके दिल में जगह ही नहीं रह गयी थी। उनका चरित्र दर्पण-सा उज्ज्वल; बलिदान भावना की आग में तभी वे कुंदन-सी चमकतीं।

मास्को से सुदूर साखालिन तक उनकी जंजीरों से झनझनाता रहता। उन पर होने वाले अत्याचारों की गिनती नहीं। कठोर कारागारों और वनवासों में वे अपने युवक साथियों के साथ रहतीं। एक परिवार के व्यक्तियों की तरह एक-दूसरे के सुख-दुख में हाथ बंटाती सभी सामाजिक बंधन दमन की इस आग में जल-से गये। उनके बदले समानता के आधार पर बौद्धिक और हार्दिक सहमति और सहयोग की नींव पर एक नवीन सम्बंध पैदा हुआ जंजीरों की झंकारों में पलने वाला यह सम्बंध ही, स्वाधीनता प्राप्त होने पर, स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्बंध का मूलाधार हुआ। वहीं रहते, उनमें पढ़ने का चस्का बढ़ा जो मूर्ख थीं उन्होंने लिखना पढ़ना सीखा, जो पीढ़ी पढ़ी-लिखी थीं; उन्होंने उच्च शिक्षा पर ध्यान दिया जो विदुषी थीं उन्होंने भिन्न-भिन्न विषयों पर और अधिक व्युत्पन्नता प्राप्त की।

जब रूस का औद्योगिक विकास हुआ और वहां मजदूर वर्ग का जन्म हुआ 1895 में मजदूर मुक्ति संघ का संगठन हुआ। लेनिन इसके एक सदस्य थे। उसकी कार्य समिति में चार स्त्रियां थीं। उनमें एक थी कुप्सकाया कुप्सकाया ने ग्रामर स्कूल की शिक्षा समाप्त कर शिक्षा सम्बंधी सिद्धांतों का अध्ययन शुरू किया। इसी अध्ययन के दरम्यान उसका सम्पर्क क्रांतिकारी समूह से हुआ मार्क्स के सिद्धांतों ने उसे ज्यादा प्रभावित किया। वह सेंटपीटर्सबर्ग के मजदूर कॉलेज में अध्यापिका का काम करने लगी। उसके कितने ही शिष्यों ने रूस के साम्यवादी आंदोलन में बड़ा भाग लिया। अंततः वह गिरफ्तार की गयी और तीन वर्षों के लिए साइबेरिया का वनवास उसे मिला। साइबेरिया में ही उस समय लेनिन भी वनवासी थे दोनों में घनिष्टता बढ़ी, दोनों ने एक-दूसरे पर अपने को न्योछावर किया। छुटकारा मिलते ही लेनिन लंदन आए और वहां से अपना पत्र 'इस्क्रा (स्फुलिंग) निकाला। कुप्सकाया भी वहां पहुंची और वह उसकी प्रबंध सम्पादिका बनी। पीछे वह क्रांति की माता की हैसियत से मशहूर हुई।

पढ़ी-लिखी युवतियों में क्रांतिकारी आंदोलन को बढ़ते देख 1887 में जार ने अपनी मंत्री को कहा- "अब अधिक शिक्षा नहीं।" स्त्रियों के जितने कॉलेज थे, सब बंद कर दिये गये। लेकिन इसका नतीजा? क्या स्त्रियों ने पढ़ना छोड़ा नहीं, वे जर्मनी गयीं, जहां लिब्तक्नेख्त वगैरह साम्यवादियों के प्रभाव में आयीं। वेरा सैसुलिच स्विट्जरलैंड गयी और वहां मार्क्स और एंगेल्स के प्रभाव में आकर साम्यवादी बनी और अपनी जिंदगी के चालीसवें वर्ष में कितनी जाती थीं। ही साम्यवादी पुस्तकों से रूस के साहित्य भंडार को भरा। अपनी जिंदगी का उसने अपने मित्र के पास पत्र में यों वर्णन किया महीनों तक शायद ही मैंने किसी से बातें की हों। संगी-साथी. से विहीन, एकांत और जनहीन कमरे में बैठी, कॉफी और चाय पी-पीकर मैंने अपना काम जारी रखा। रात के दो बजे के पहले शायद ही मैंने कभी आंखें झपकाई । -

रूस में मजदूर आंदोलन बढ़ने पर उसमें औरतों ने बहुत बड़ा हिस्सा लिया। हड़ताल कराने में उनका मुख्य हाथ रहता था। सूती मिलें अशांति का अड्डा थीं, क्योंकि उनमें सस्ती मजदूरी पर औरतें काम में लगायी।

1905 में जो खूनी रविवार हुआ उसमें औरतों का भाग कुछ कम नहीं था। जिस समय जुलूस जार के महल की ओर जाने की तैयारी में था, एक मजदूर औरत कैरेलीना ने कहा- "माताओ और देवियो! अपने बच्चों, पतियों और भाइयों को उचित और न्यायपूर्ण काम के लिए जान पर खतरा लेने से मत रोको हमारे साथ बढ़ो। अगर हम पर चढ़ाई की जाये या गोलियां चलायी जायें तो रोओ मत, बिलखो मत। माता मैरी के नाम पर हंसते-हंसते गोलियां खाओ।" सभी स्त्रियों ने एक स्वर में कहा- हम सब तुम्हारे साथ हैं और वे साथ ही बढ़ीं। जार के भेड़ियों की गोलियों से जो एक हजार आदमी मारे गये थे, उनमें औरतों और उनके बच्चों की तादाद भी कम नहीं थी। एक स्त्री को चार गोलियां लगी थीं। मरते समय वह बोली- मुझे उसका अफसोस नहीं है, मैं सानंद मर रही हूं।

'खूनी रविवार के कांड को फिर ओडेसा में दुहराया गया। ओडेसा के इस आंदोलन में स्मीदोविच नामक युवती का बड़ा हाथ था। उसकी हिम्मत की तरह ही उसकी सूझ भी थी। एक बार वह कीव में गिरफ्तार की गयी, जबकि वह 'इस्क्रा' की कापियां वितरण कर रही थी। गिरफ्तार कर वह थाने में लायी गयी। थाने में आकर उसने स्नानगृह में जाने की इजाजत मांगी। स्नानगृह में जाकर उसनें अपनी कीमती ऊनी पोशाक और टोपी झटपट उतार दी। सिर में रूमाल बांधा और इस पोशाक के नीचे ऐसी ही जरूरत के वक्त के लिए जो फटी-बिटी पोशाक वह पहने रहती थी, उसी को पहने वह निकल गयी बात की बात में उसका भेस इतना बदल गया था कि बेचारे पुलिसवाले उसे पहचान भी नहीं सके। सौ वर्षों तक रूस की महिलाओं ने क्रांति के लिए जो असाध्य साधन किये थे उसी का यह नतीजा था कि क्रांति की सफलता के बाद ही उन्हें वह पद- मर्यादा प्राप्त हुई जो अन्य देशों में नहीं देखी जा सकती।

1917 की क्रांति में भी उनका कोई कम हिस्सा नहीं रहा है। स्त्रियों ने जो कुछ किया, उसका वर्णन क्रांति के आचार्य लेनिन के मुंह से ही सुनिये "पेट्रोग्राद में मास्को में दूसरे शहरों और उद्योग केंद्रों में, देहातों तक में स्त्रियां क्रांति की इस परीक्षा में सोलह आने सफल उतरी हैं। उनके बिना हम विजयी हो नहीं सकते थे या मुश्किल से होते यह मेरा सोचा-समझा विचार है। उफ, वे कितनी बहादुर है। उनकी बहादुरी जिंदा रहे जरा उनकी तकलीफों और संकटों की कल्पना कीजिए, जिन्हें उन्होंने हंसते-हंसते बर्दाश्त किया है। ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्योंकि वे सोवियत कायम करना चाहती थीं, क्योंकि वे स्वाधीनता चाहती थीं।"

भाग 2

ज्यों ही जारशाही खत्म हुई और साम्यवादी शासन का श्रीगणेश हुआ, त्यों ही स्त्रियों को मातहती या गुलामी में रखने वाले सभी पुराने कानूनों को कलम के एक ही झटके में रद्द कर दिया गया। लेनिन ने वज्रवाणी की "साम्यवाद की क्या बात, सम्पूर्ण जनतंत्र भी तब तक सम्भव नहीं, जब तक स्त्रियों देश के राजनीतिक जीवन और समाज के सार्वजनिक जीवन में अपने न्यायोचित पद को स्थायी रूप से प्राप्त नहीं कर लेतीं।" बाईस वर्ष के बाद जब 1938 में सोवियत का नया विधान बना, उसमें उल्लेख किया गया-

" सोवियत संघ में स्त्रियों को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में पुरुषों की बराबरी का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार के अनुसार स्त्रियों को मर्दों के समान ही काम करने, पारिश्रमिक पाने, आराम करने, शिक्षा पाने, सामाजिक बीमा की सुविधा उठाने के हकों के आलावा माताओं और बच्चों को राज्य का अभिरक्षण प्राप्त हैं, गर्भवती की हालत में छुट्टी और वेतन का बंदोबस्त है और मातृगृहों, शिशु भवनों और किंडरगार्डन का जाल संघ भर में बिछा हुआ है। "

इस उद्धरण से सोवियत संघ में औरतों का दर्जा साफ हो जाता है। यह केवल कागजी बात नहीं है, इसे बड़ी सख्ती से काम में लाया जाता है। स्त्रियों के बारे में जो बद्धमूल धारणाएं थी, उन पर विजय प्राप्त की जा चुकी है और उद्योग, अन्य पेशे, कला और विज्ञान- सबके दरवाजे स्त्रियों के लिए समान रूप से खुले हुए हैं।

शुरू से ही स्त्रियों ने अपने को इस बराबरी के दर्जे के योग्य साबित किया है। साथी की तरह वे मर्दों की बगल में जाकर खड़ी हुई और अपने को उनकी योग्य साथी उन्होंने सिद्ध कर दिखाया है। जिस समय गृहयुद्ध जारी था, स्त्रियों ने अपने नाम सिपाही में लिखाये, घुड़सवारी की, मशीनगनें चलायीं। जब कार्निलोव अपनी फौज लिये लेनिनग्राद की ओर दौड़ा आ रहा था, दो लाख स्त्रियां मोर्चे पर जा डटीं प्लौतनिकौवा उस समय बच्ची सी ही थी। जोन ऑफ आर्क की तरह उसने उन्नीसवीं घुड़सवार पल्टन को भागते हुए से रोक लिया। अपने घोड़े को फंदाती, उछालती वह दुश्मन पर चढ़ दौड़ी। समूची पल्टन उसके पीछे हो ली। नतीजा? दुश्मन भागा, क्रांति की जय हुई। वह बेचारी इतनी घायल हो गयी थी कि उसे टांगकर छावनी में लाया गया।

जब गृहयुद्ध समाप्त हुआ, स्त्रियां उसी उत्साह से साम्यवाद के निर्माण में जुट पड़ीं। वे कारखाने में घुसी महीन कारीगरी के कामों में भी उन्होंने अपनी धाक जमायी घर में काम करते रहने के कारण उनमें अनुशासन का माद्दा इतना अधिक रहता है। कि उद्योग में, जहां अनुशासन की बड़ी जरूरत है, वे खूब काम की सिद्ध हुई। पुराने मैनेजरों या कारीगरों को, जिनके मन में यह धारणा थी कि औरतों में टेक्निकल काम करने की योग्यता नहीं है, उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी। एक उदाहरण 1925 में लेनिनग्राद के ट्रैक्टर के कारखाने में मजदूरों की कमी हुई। मजदूर भरती करने वाले विभाग ने स्त्रियों को वहां भेजा। मैनेजर झल्ला उठाये नाजुक कलाइयां, क्या इतना भारी काम कर पायेंगी? लेकिन भरती विभाग ने जोर दिया, इन्हीं से काम लेना होगा। वे काम में ली गयीं। पहले तो बहुत दिक्कत हुई, किंतु इन स्त्रियों में धुन थी, पकड़ थी। एक दिन आया और वह दिन तुरंत ही आया, जब मैनेजर ने लिखा- "इन स्त्रियों के काम की सिफ्त या तादाद के बारे में कोई शिकायत करने की गुंजाइश नहीं रह गयी। वे अपने काम में मुस्तैदी से डटी रहती हैं और कल- पुर्जों की देख-रेख बड़ी होशियारी से करती हैं।"

स्त्रियों ने अपनी योग्यता बड़ी तेजी से बढ़ायी। 1937 में उद्योग-धंधों के पेशों की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में स्त्रियों की संख्या इक्तालीस फी सैकड़े थी। एक लाख से ज्यादा स्त्रियां इंजीनियर या टेकनीशियन के पदों पर सोवियत संघ के भिन्न-भिन्न उद्योग-धंधों में काम करती हैं। इतनी ही संख्या उन स्त्रियों की होगी जिन्होंने काम की प्रतियोगिताओं में मर्दों के साथ सम्मान या विशेषत्व प्राप्त किया है। दौस्सिया और मैरोसिया स्त्रियां थीं न, जिन्होंने सूती उद्योग में पैदावार बढ़ाने का श्रेय प्राप्त किया है। हर एकड़ में बीस टन मीठी चुकंदर पैदा कर के मैरिया ने कृषि क्षेत्र में नाम पाया है।

स्त्रियों के लिए सब कामों का दरवाजा खोलने के साथ-ही-साथ उनके लिए पुरुषों के बराबर ही पारिश्रमिक का प्रबंध किया गया है। संसार में रूस ही ऐसा देश है, जहां स्त्रियों को पुरुष के बराबर मजदूरी और मुशाहरा मिलता है। इस बराबरी को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए जरूरी यह समझा गया कि जब स्त्री गर्भवती हो, तो न सिर्फ उन्हें लंबी छुट्टी मिले, बल्कि पूरा मुशाहरा भी भत्ते के रूप में मिले। सोवियत संघ अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिए मातृत्व को प्रोत्साहन देता है। विवाहित स्त्रियों के लिए अन्य देशों की तरह कुछ पेशे वर्जित नहीं हैं। हां, भारी बोझ उठाने आदि के कामों में, उनके स्वास्थ्य को दृष्टि में रखकर उन्हें नहीं लगाया जाता। बच्चा होने का खर्च ही सोवियत बर्दाश्त नहीं करती, बच्चों के लालन-पालन के लिए भी वह कुछ उठा नहीं रखती है। जगह-जगह ऐसे शिशुगृह है, जहाँ काम के वक्त स्त्रियां अपने बच्चों को रख सके। वहां चतुर दाइयां बच्चे की देखभाल करती हैं। बड़े-बड़े सार्वजनिक भोजनालय कायम करके औरतों को घरेलू झंझटों से मुक्ति दिलाने का भी आयोजन किया गया है।

काम करने, बराबर वेतन पाने, घरेलू झंझटों से छुटकारा पाने के साथ-ही-साथ सोवियत संघ ने स्त्रियों के लिए और भी कितने ही उपयोगी काम किये हैं।

विवाह करने या नहीं करने के बारे में स्त्रियों को पूरी आजादी दी गयी है। शादी के साथ रुपये या परिवेश के सम्बंध को बिल्कुल खत्म कर दिया गया है। शादी को प्रेम की पवित्र नींव पर वहां प्रतिष्ठित किया गया है। रुपये या जीविका की झंझटों के कारण विवाह में वहां रुकावट नहीं होती । विवाह के चलते वहां स्त्रियों की जीविका नहीं छीनी जाती। पति-पत्नी विवाह के बाद भी अपने-अपने पेशे में लगे रहते हैं। पति सम्पादक का काम कर रहा है, पत्नी पथप्रदर्शिका का दोनों कमाते हैं। जरूरत होने पर एक-दूसरे से हाथ फेरे करते हैं। आर्थिक दृष्टि से दोनों स्वतंत्र हैं।

स्त्रियां अधिक-से-अधिक बच्चे पैदा करने में आजाद है। बड़े परिवार की आर्थिक झंझटों से बचने के लिए संतान निग्रह की शरण में जाने की जरूरत नहीं। सोवियत उनके बच्चों की यथार्थ माता है और उसे ज्यादा से ज्यादा कमाऊ पूतों की जरूरत है। रूस में जन्म कारेट यूरोप भर से अधिक है। प्रारम्भिक वर्षों में जो है। युद्ध के अवसाद से माता-पिता खिन्न थे, जब अकाल का दौर था, गर्भपात को कानूनी जायज करार दिया गया था - बशर्ते कि वह स्वास्थ्यकर ढंग से और प्रकट रूप में हो। लेकिन 1936 में उसे कानूनन रोक दिया गया है और यह जनता की सहमति से ।

सोवियत को कमाऊ पूतों की जरूरत है, इसलिए अधिक बच्चों की माताओं को अतिरिक्त आर्थिक सहायता दी जाती है। छ बच्चों की मां को इसके बाद हर बच्चे पर जहां दो हजार रुबल सालाना वजीफा भी वर्षों तक मिलता है, वहां दस बच्चों की मां को इसके बाद हर बच्चे पर पांच हजार की भेंट बच्चे के जन्म के अवसर पर और तीन हजार रूबल सालाना वजीफा चार वर्षों तक मिलता है। 1937 के पांच महीने में सोवियत संघ के अंदर तेरह लाख पचहत्तर हजार बच्चों का जन्म हुआ। पूरे फिनलैंड की जनसंख्या इससे ज्यादा नहीं है।

स्त्रियों को पति छोड़ने या तलाक देने का पूरा अधिकार प्राप्त है। लेकिन ऐसा करने से उन्हें यथासंभव रोका जाता है। पति या पत्नी दोनों में से किसी एक के चाहने पर कानूनन तलाक तुरंत मिल जाता है, लेकिन बार-बार के तलाक और पुनर्विवाह की सख्त निंदा की जाती है और जब बच्चे हों तब दोनों को उनका खर्च बर्दाश्त करने को बाध्य किया जाता है। रूस में तलाकों की संख्या दिनों-दिन कम हो रही है। पारिवारिक जीवन की कद्र करने पर जोर दिया जाता है साम्यवादी सरकार बच्चों के लिए कुछ करने से बाज नहीं आती, तो भी माता-पिता को अपने कर्तव्य पालन के लिए उत्साहित किया जाता है अगर माता-पिता इस कर्तव्य में त्रुटि करते हैं तो उन पर मुकदमा तक चलाया जाता है और कैद की सजा तक उन्हें भुगतनी पड़ती है।

वेश्यावृति का तो वहां नामोनिशान तक नही है।

एक पत्नीव्रत या एक पतिव्रत को हर तरह से उत्साहित किया जाता है। इसके बारे में लेनिन की राय बड़ी ही उपदेशप्रद है। नये नैतिक नियम के नाम पर उच्छृंखल प्रेम या भ्रमरवृत्ति को वह बुरी नजर से देखते थे और उसे पूंजीवादी वेश्यावृत्ति का नया संस्करण मात्र मानते काम पिपासा की शांति तो प्यास लगने पर एक गिलास पानी पीने की तरह एक मामूली सी बात है, जो लोग इस प्रकार की बहकी बातें करते फिरते थे, उन लोगों को उन्होंने जवाब दिया था "क्या कोई स्वस्थ . आदमी, होश-हवाश दुरुस्त रहते, प्यास लगने पर गलीज में घुसकर नाबदान का पानी पियेगा? या वह एक ऐसे गिलास में पानी पीयेगा, जिसमें कितने ही होठों के लार और थूक लगे हों!" यह तो साम्यवाद के भी अपना असर डालता है। दुश्मनों का काम था कि वे संसार में "स्त्रियों के समाजीकरण" या "एक ही कम्बल के अंदर सभी के झूठे नारे देकर लोगों को इस प्रथम साम्यवादी राज्य की ओर मुखातिब होने से रोकें।

बात तो यह है कि वहां के सामाजिक जीवन में स्त्री-पुरुष का सहवास अपनी रोमांचक रंगीनियां सदा के लिए खो चुका है। एक साथ की शिक्षा के कारण सोवियत युवक-युवतियों में यह सहवास अपने खिंचाव तनाव को खोकर अपनी आंखमिचीनियों का परित्याग कर, एक स्वाभाविक आकर्षण मात्र रह गया है। युवतियां शारीरिक दृष्टि से काफी मजबूत और तंदुरुस्त होती हैं। उन्हें किसी के सहारे या थपकियों की जरूरत नहीं होती। वे अपनी हैसियत युवकों की बराबरी में समझती हैं। उनके दिल और दिमाग़ में, बचपन से ही एक नये आदर्श का सपना और कामना भर दी जाती है। ये चीजें काम-वासना को कहीं पीछे ढकेल वेश्यावृत्ति का तो वहां नामोनिशान तक नहीं देती हैं। एक स्वस्थ, स्वाभाविक जीवन वे बिताना चाहती हैं। क्षणिक सौंदर्य और चाक्चिक्य के स्थान पर एक उच्च और दिव्य भावना उन्हें प्रेरित करती है। 'कली-कली रस ले' का छिछोरापन वे क्यों चाहें, कैसे बर्दाश्त करें? नतीजा यह है कि प्राचीन स्त्रीत्व नये वैज्ञानिक रूप में वहां फिर प्रतिष्ठित हो रहा है।

स्त्रियों को देश के शासन और सार्वजनिक जीवन में हिस्सा बंटाने की पूरी आजादी है। सोवियत संघ की बड़ी सोवियत के सदस्यों में एक सौ नवासी स्त्रियां हैं। संसार के किसी देश की पार्लियामेंट में औरतों का यह अनुपात नहीं होगा। यही नहीं, आठ बड़े-बड़े सरकारी ओहदों को भी वे सुशोभित करती हैं। शायद ही कोई कचहरी हो, जहां न्याय के आसन पर औरतें नहीं बैठी हैं। स्त्री जजों के इंसाफ में सिर्फ बदले की भावना नहीं काम करती, मातृत्व का हृदय भी अपना असर डालता है।

सांस्कृतिक जीवन में भी स्त्रियां पीछे नहीं हैं। बच्चियों और युवतियों में पढ़ने का जो चाव है, उसे क्या कहना? बूढ़ी दादियों ने भी, जिंदगी के आखिरी दिनों में, अपने को शिक्षिता बनाया है। स्त्रियों की पत्रिकाओं और अखबारों में उनकी पाठिकाओं के जो लेख, कविता, कहानी, शब्दचित्र आदि छपा करते हैं, उनके पढ़ने से जागृति से अछूती नहीं हैं। सब जगह एक महान हलचल है, स्त्रियों में एक नवीन कविता का वहां जन्म हो रहा है। इसको जागरण है।

देते। कालयुक लोग अपनी स्त्रियों को बच्चा पैदा होने के समय घूरे पर रख आते। उत्तर में माताओं को गंदे, बर्फीले तम्बू में अकेले बच्चा

वहां की स्त्रियों के मानसिक क्षितिज के विस्तार का पता लग सकता है। एक नये ढंग की ग्राम रचनेवाली स्त्रियां हैं स्त्रियों ने रूस के प्राचीन वीर-काव्यों के ढर्रे पर नये विषयों पर गेय कविताओं की रचना शुरू की है, बहत्तर वर्ष की उम्र की मार्या क्रीवोपोल्मेनोवा अपनी जन्मभूमि आरचेंजल के देहातों में गांव-गांव घूमकर ऐसी कविताएं सुनाया करती थी अब साम्यवादी सरकार की गुणग्राहकता से उसकी कविता की मास्को के रंगमंचों पर धूम मची रहती है।

साहित्य की तरह कला में भी स्त्रियों ने कमाल दिखलाया है। मूर्ति निर्माण में तो वे मर्दों से बाजी मार ले गयी हैं। उनकी बनायी मूर्तियां सबल और सजीव दीखती हैं। सिर्फ संगमरमर की ही नहीं, लकड़ी की मूर्तियां बनाने में भी उन्होंने बड़ा नाम कमाया है।

लोग कहा करते हैं, सोवियत ने पारिवारिक जीवन को खत्म कर दिया है। यदि पारिवारिक जीवन का अर्थ हो पति काम करे कमाये और पत्नी उसी के आश्रय पर घर की गंदगी में मरती रहे या धनी विलासी पति के दिल को लुभाने के लिए तरह-तरह के श्रृंगार और ढोंग बनाये, तो निस्संदेह सोवियत ने पारिवारिक जीवन का खात्मा कर दिया है लेकिन यदि पारिवारिक थीं। जीवन का मानी हो, पति पत्नी बराबरी की हैसियत से बिना एक-दूसरे पर बोझ बने, पारस्परिक सहयोग भावना लिए हुए, शुद्ध प्रेम के आधार पर, सानन्द, सोल्लास जीवनयात्रा तय करें तो संसार में अगर कहीं पारिवारिक जीवन है तो सोवियत रूस में ही।

भाग-3

स्त्रियों की यह स्वाधीनता, यह समता सिर्फ यूरोपीय रूस तक ही सीमित नहीं। सुदूर उत्तर के स्कीमो चकची, कोरियाक जातियां और सुदूर दक्षिण के आरमेनियन, जॉर्जियन, उजबेक जातियां भी स्त्रियों की 
इस महान जागृति से अछूती नही है। सब जगह एक महान हलचल है, स्त्रियों में एक नयी जागरण है।

पूर्वीय देशों की स्त्रियां सदियों से गुलामी के पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता था। बंधनों में जकड़ी थीं। पुरुष उन पर तरह-तरह के अत्याचार करते थे और उन्हें सिर झुकाकर सब बर्दाश्त करना पड़ता था। यह बर्दाश्त अंततः एक आदत में बदल गयी थी। समता या स्वाधीनता की कल्पना भी उनमें नहीं रह गयी थी।

तुर्कमान, उजबेक और कजाक जातियों ने इस्लाम कबूल कर लिया था। स्त्रियों की स्वाधीनता वहां सदा के लिए खत्म हो चुकी थी। शादी तो एक व्यापार बन चुका था। बाल-विवाह आम बात थी स्त्रियां मर्दों की काम वासना की तृप्ति की पात्र मात्र समझी जाती थीं। जैसा कि ऐसी हालत में होता है, स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा काम पड़ते। वासना है, यह बात मान ली गयी थी। स्त्रियां उजबेकिस्तान और तजाकिस्तान में बुरका घोड़े अपवित्र समझी जाती थीं। उन्हें या तो एकांत कमरे में रहना चाहिए या घने बुरके के अंदर । कुरानशरीफ ने स्त्रियों के कितने ही हकूक दे  रखे हैं, लेकिन यह तो किताबी बातें हुई, व्यवहार की बात यह थी कि स्त्रियां गुलाम थी।

इन स्त्रियों की जिंदगी की सख्तियां सीमा पार कर चुकी थीं। वे आदमी तक नहीं समझी जाती थीं। स्त्रियों की मौत पर आंसू बहाना मना था। बच्चा पैदा होने के समय जब वे पीड़ा से छटपटाती थीं, कोई सहानुभूति नहीं दिखाता था। जॉर्जिया की कुछ पहाड़ी जातियों में बच्चा पैदा होने के लगभग दो सप्ताह पहले ही स्त्रियों को घर के बाहर, किसी एकांत कमरे में रख दिया जाता था। जहां वे घोड़ियों को बच्चा पैदा होने के समय अस्तबल से दालान में ले आते, वहां अपनी स्त्रियों को घर से निकालकर अस्तबल में रख  देते। कालयुक लोग अपनी स्त्रियों को बच्चा पैदा होने के समय घूरे पर रख आते। उत्तर में माताओं को गंदे, बर्फीले तम्बू में अकेले बच्चा पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता था।

उजबेक और ताजिक लड़कियां यह जान भी नहीं पाती, कि लड़कपन की रंगरलियां क्या चीज है? आठ-नौ वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती। तुर्कमान जाति में शादी के वक्त दूल्हा, दुलहिन को कोड़े से पीटता आस्काबाद मैं कोहबर रात में दुलहिन को दूल्हे का जूता खोलना पड़ता और उस बेचारी को परेशानी में डालने के लिए फीते में तरह-तरह की पेंच और गिरह बना दी जाती । उजबेक पत्नियों को जमीन पर सोना पड़ता और पतिदेव पलंग-गद्दे पर मौज करते। उजबेकिस्तान, तजाकिस्तान और तुर्कमानिस्तान में स्त्रियों को न सिर्फ घर के बल्कि खेत-खलिहान के सभी काम करने पड़ते।

उजबेकिस्तान और तजाकिस्तान में बुरका घोड़े के बाल से बनाया जाता भद्दा, काला, तकलीफदेह सूर्य की रोशनी भी उससे होकर नहीं जा सकती।

पश्चिमी रूस की तरह कलम के एक झटके में पूर्वीय रूस की स्त्रियों के सभी बंधनों को खत्म कर दिया गया और उन्हें भी पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया गया। लेकिन कानून की किताब में कोई बात लिख देना एक बात है और उसे काम में लाना दूसरी बात।  सोवियत सरकार को इसके लिए कठिन परिश्रम करना पड़ा है। 1925 में जब मध्य एशिया की सभी जातियों को साम्यवादी शासन के अंदर लाया गया, तब जाकर इस ओर प्रभावशाली कदम बढ़ाया जा सका।

जीनत खेरमीतोवा की शादी बचपन में ही हो गयी थी। पति के अत्याचारों से ऊबकर वह साम्यवादियों के पास भाग आयी। लेकिन किसी तरह वह बेचारी फिर उस जालिम के पंजे में आ गयी। उसने पीटते-पीटते उसे नीला- काला कर दिया, फिर उसकी जीभ काट ली और सिर्फ उसका मुंह ऊपर रखकर उसे जिंदा जमीन में गाड़ दिया। साम्यवादियों ने उसका उद्धार किया। बेचारी अब तक मास्को के अस्पताल रखी गयी है। जब हाल ही उसकी जन्मभूमि ताशकंद की सोवियत की अध्यक्षा मास्को गयी थी और उसे देखा था, तब उसने कहा था- उफ, क्या था, पहले मेरा देशा मैं तो उसे देखकर तीन दिनों के लिए बीमार हो गयी!

साम्यवादी राज्य ने अनिवार्य विवाह को रोक दिया। बाल विवाह, जबरदस्ती विवाह, स्त्रियों की बिक्री आदि के लिए सख्त सजायें रख दीं। सहगमन की उम्र सोलह वर्ष कर दी, रूस में य तो अब सहगमन के लिए अठारह वर्ष की उम्र प्रचलित है।

कानून के अलावा पूर्वीय स्त्रियों में प्रचार करने का भी विस्तृत आयोजन किया गया और इसके लिए नये-नये उपाय काम में लाये गये। स्त्रियों के क्लबघर, लाल गोशे, लाल नार्वे, लाल खीमे- जिनमें प्राय: बिजली और रेडियो लगे होते और सिर्फ स्त्रियां ही प्रवेश पा सकती- इन पिछड़े प्रदेशों के कोने-कोने में देखे जाने लगे। इनके द्वारा औरतों को शिक्षित किया जाता, उन्हें कानूनी मदद दी जाती, उनके लिए पेशे का प्रबंध किया जाता।

इस प्रचार में शिक्षिता रूसी नारियों का बड़ा भाग रहा। उन्होंने नयी भाषाएं सीखी, इन पिछड़े प्रांतों की रीति-नीति की जानकारी हासिल की, गंदे जीवन और जान के खतरे की परवाह छोड़कर वहां पहुंची, उनमें से कितनी स्त्रियों ने तो खुद अपने मुंह पर घोड़े के बाल के बने 'पारांजा' नामक नकाब को डाल लिया, जिससे 'उनके घरों में बेखटके प्रवेश वे पा सकें।

धीरे-धीरे उन्होंने मूढधारणाओं पर विजय प्राप्त की। वहां की स्त्रियां अपने घर साफ-सुथरा रखना, साबुन का व्यवहार करना, तरकारियां पैदा करना, बच्चों का वैज्ञानिक ढंग से पालन-पोषण करना सीख गयीं। अड़तीस जंगली जातियों को लिपि का ज्ञान दिया गया, क्योंकि उनके पास अपनी भाषाएं तो थीं भी, लिपि का वे नाम भी नहीं जानती थीं।

मध्य एशिया भर में जो परदा विरोधी दिवस 8 मार्च 1928 को मनाया गया था, उसका दृश्य क्या कभी भूला जा सकता है?

उस दिन हजारों-हजार स्त्रियां परांजा और चाच्वान से जकड़ी पतली गलियों, चौराहों, और बाजारों से खौफनाक आंधी की तरह निकलीं। न उनके मुंह दिखायी पड़ते, न आंखें। हां, उनके इन मनहूस चेहरों के ऊपर, हवा में लहराता, लाल झंडा अवश्य दिखायी देता। सूखे मैदान में एकाकी खिले गुलाब की तरह उनमें कहीं-कहीं एकाध ऐसी युवतियां जब-तब दिखायी पड़ती जिनके मुंह खुले थे और लाल रूमाल से जिनके बाल बंधे थे। उनके पैर दृढ़ता से उठते। वे अग्रदूतिकाएं थीं, जिन्होंने बुरके को कब का फाड़ फेंका था।

बाजे-गाजे के बीच वे लेनिन की मूर्ति के निकट आ पहुंची और उसे चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं। उनके साथ कुछ बच्चे और कुछ पुरुष भी थे, जो अलग खड़े थे। लेनिन की मूर्ति को भी लाल झंडों और लाल कालीनों से उस दिन सजा दिया गया था। वे स्त्रियां वहां सांस रोके खड़ी, आगे की कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रही थीं। हृदयवेधी, गुरु-गंभीर वाणी में वक्ताओं ने परदा प्रथा की बुराइयों पर प्रकाश डाला और इसे फाड़ फेंकने के लिए जोरदार अपील की। साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय गान हुआ। गाना समाप्त होते-होते, बुरके उतारकर फेंके जाने लगे। पहले थरथराते हाथों से फिर उत्तेजना और मजबूती से परांजा, चाच्वान और बादरा स्त्रियों की गुलामी के ये पुराने चिह्न स्त्रियों ने इन्हें बात ही बात में उतार फेंका।

इन्हें इकट्ठा किया गया, इन पर तेल छिड़का गया, चिंगारी छुलाई गयी और थोड़ी देर में ही वे धू-धू कर जलने लगे। उनके धुएं ने उनकी कालिमा को सदा के लिए आसमान पर फेंक दिया; उनकी ज्वाला से स्त्रियों के चेहरे चमक बैठे!

आज समूचे बुखारा में आप घूम आइये, कहीं आपको बुरके का नामोनिशान नहीं मिलेगा। मुल्लाओं और मर्दों का विरोध उन्हें गुलामी में नहीं रख सका। स्त्रियां एक ही छलांग में चौदहवीं सदी से बीसवीं सदी में पहुंच चुकी हैं। बारह वर्ष की उम्र के पहले ही, बगैर देखे सुने आदमी से शादी कर लेने को बाध्य किये जाने, परिवार भर के मदों और मेहमानों के पांवों को धोने, उनके सामने हमेशा खड़ी रहने और जूठे- रूखे भोजन पर ही संतोष करने वाली युवती आज अपने पति के साथ मास्को के पूर्वीय विश्वविद्यालय में पढ़ती है। उसके साथ ही उसकी वह सहेली भी पढ़ रही है जिसकी मां ने कभी नया कपड़ा नहीं देखा, कभी जूता नहीं पहना, जो हमेशा खुली जमीन पर सोती रही और कभी अपने पति पर नाराजगी जाहिर करने की गुस्ताखी नहीं कर सकी।

जो स्त्रियां पुरुषों की काम वासना की तृप्ति की साधन मात्र समझी जाती थीं या बच्चा पैदा करने की मशीन मात्र, वे ही अपने पति को कामरेड (साथी) कहकर पुकारती हैं। स्त्रियां अब उद्योग-धंधों में प्रवेश करती और राजनीति में अपना हिस्सा बंटाती हैं। जो अब तक चुप थी, वे चहकने लगी हैं। जिनकी कमर झुकी थी, वे आकाश में उड़ती और पैराशूट से कूदती हैं। मध्य एशिया के सर्वप्रमुख शहर ताशकंद की सोवियत की अध्यक्ष एक ऐसी औरत है, जो पहले परांजा में मुंह छिपाए दासी का काम करती थी। बुखारा के ट्रेनिंग कॉलेज की अध्यक्षा की छ वर्ष की पुत्री उस दिन उससे पूछ रही थी- "अम्मा, परांजा किसे कहते हैं?"
*यथार्थ,  फरवरी-मार्च 2023 से साभार*

Saturday, 11 March 2023

Moni guha

We may have admitted that no formal introduction is needed and it is enough to name Moni Guha or even MG for narrating a phase in the struggle against modern revisionism though somebody prefer to level the name as a Stalinist, as if by giving a trade name for anything all is settled for closing a chapter. This but only a petty bourgeois practice to avoid cudgeling one's head in any problem and inside the communist movement especially after 20th congress many such practices and trends may be found. As for example some of the leaders themselves or the followers of some leaders claimed themselves as the pioneer of such and such stand or slogan just twisting even the facts and figures and their historical roles only to get an acceptance inside the toiling masses as well as rank and files. But no body can deny the facts that immediately after 20th congress of CPSU [B] Neil Gold of the communist party (Irish) and MG of CPI raised voice declaring that the congress is but a revisionist one, obviously without having any support from any Communist Party.

Thus in the shape of opposition to personality cult nurtured by Stalin, Khrushchevite revisionism – we may name it as rightist deviation – got a foothold on solid foundation unanimously. But within a few years as a result of national conflict between Soviet and China again in the shape of opposition to Khrushchevite revisionism we found Maoist revisionism as ultra leftist deviation and the entire international movement got split. Though we have no opportunity to put a detailed picture of the development, we hereby take the privilege to refer to revisionism against revisionism by MG and in this connection we must mention the role of Tito as the maker of modern revisionism theoretically claiming national interest is preferable to stand for the sake of Soviet State, the dreamland of all the workers throughout the world. MG analysed in details the Yugoslav question and the role of CPC and CPSU considering that a pivotal job to make sense of modern revisionism. Lastly his "20th congress and Stalin" completed the platform from which to fight against modern revisionism could be launched with unerring aim.
The economic basic of both the forms of modern revisionism is but national deviation refuting the internationalism which is remained the fundamental one till date to fight capitalism even with its highest stage imperialism. In this perspectives we must refer to Stalin's speech mentioning the danger of national trend inside the soviet workers and leaders which got tremendous profundity after the explosion of atom bomb and we might sat that the conflict was the cause of Stalin's mysterious and sudden death because in his presence modern revisionism could not get foothold so firmly by giving up the cause of internationalism. Practically this trend took shape during the fascist regime when Nazi Hitler began to smash all the democratic rights and thinking and thus the prime duty of the communists was to uphold the banner of democracy and to fight fascist massacre with all democratic powers.

Obviously it's a mammoth job before us – who are committed to the cause of toiling masses and workers of all the countries and to way out to fight for socialism today – to make a path towards our goal and cleaning the heap of falsification of history dumped by the enemies and even by friendly sections with petty bourgeois set of mind and full of ignorance of historical facts that occurred during that period i.e., from 1954 since when the writings of Stalin were banned by the Khrushchev and co. to mislead us with his fairy tales and treacherous plan to make the path to socialism even beyond our dream and imagination. In this context we may put forward that nobody can ignore the role of internationals towards the cause, strength and fight in international sphere against capitalism and nobody also deny the role of capital in international sphere but who cares for making an international as a solid platform. we must take the burden to dig out the cause of  collapse of Comintern (third international) and find out the cause of failure of the Cominform which Stalin tried his best to establish in vain. Recently there were some initiatives to form international among which the Brussels seminar has got the position to reveal out as news in daily papers and that only unfolds the bankruptcy of any ideological profoundness just by making a caricature of the traditions of the internationals and MG could not keep himself mum on this subject. In spite of his old age related ailments he wrote in Bengali a booklet over the utter nonsense of this initiative and the opportunism prevailed in the activities of the participants. Lastly to mention his works in the problems of Marxism in international arena and in ideological sphere we should mention his thesis on people's democracy after the collapse of soviet socialist power. In this thesis emphasized its irrelevancy in the absence of soviet socialist power to the cause of internationalism. Interested readers can avail all this major and vital works of Moni Guha in our web site.
In the domain of problems sustained in India he had started his magazine proletarian path in a new orientation with some of comrades from Patna. In its inaugural issue emphasized given on the question of stage of revolution in India, clearly putting arguments in favour of socialist revolution and refuting the arguments in favour of peoples democracy put forwarded by major part of the theorists. Till now we have not received any sound theoretical opposition and criticism. Instead of we received scattered questions throwing haphazardly specially on some data and quotations that have been used in the draft. He personally was not in an answerable position because of the draft initially made by the comrades of Patna keeping the manuscript and all the relevant documents with them. And as they isolated MG in course of time after the publications of some issues from Patna, obviously without any ideological conflict which but a regular practice we can find in almost every group, we r in an embarrassing situation to answer as those scattered and technical questions and the Patna comrades being asked to prepare the same to fulfill the responsibility replied that these do not have any credibility to make any serious efforts and to get any answer. Thus the responsibility is lying on us when we lost him forever. Practically we have to start making not two but half dozen steps back to go forward one step further.
Now to share his memory with you all we want to relate a few activities of him only to picture out a personality that made him an ideal one to us. First of all, one vital one – in respect of making his life partner.  He openly confided into his would be wife that never he would be in a position to earn sufficient to maintain themselves. His family, rather as a wife of a man like him she might have to face torture from police and etc. and such was his wife who accepted all and in her family life for more than 50 years she never raised any voice in spite of having troubles including his suffering from TB due to torture he got from police and some of the so called Naxalites during 70s. Even he took a part of her earnings during the crisis period of illness of his son just to publish his booklet on 20th congress and Stalin, which he openly distributed in an open meeting organized by the then party facing troubles for such audacious conduct. That fights against Khrushchevite treachery towards socialism made him expelled and isolated from the party and expect four comrades including the then editor of Parity, Satya Gupta were two comrades along with him wrote against the article of Saroj Aacharya in support of Khrushchev. The other two comrades were Abdul Momin and Sushital Roychowdhury and all were followed the same treatment by the party. Immediately after this the editor of Ispat joined this circle on this question of Mao and MG in association of Nagi Reddy and DV Rao started to fight with their little might and scope. MG wrote an article Mao supplements Khrushchev in two issues of PP in which joined Vijay Singh of RD at that time. Thus a campaign against Mao's leftist deviation got a critic in India along with bill bland of compass form London.
But the path followed by MG was not at all smooth. He often avoided diplomacy in his activities and thus had to pay with his clear image in politics. One such incident occurred when in good faith agreed to publish criticism of Stalin by a group which was known as the followers of Trotsky in a proposed series of booklets from his own address. He was totally unaware of their intention and after the first issue the said group disassociate themselves with him as if that very issue was the only to which MG agreed. Obviously he got many occasion to open the treacherous act publicity, but never had he tried to get defensive argument in many cases like this one. He only laughed when asked to write on such things and told us its too serious job to clean my image putting aside assignments that the situation demands.
Before coming of age he made himself active in politics when he was a student of class seven and led the students with the slogan go back Symon and was taken behind the bar in 1930 when he was only 16 yr old. Practically he got his academic degree along with a sound knowledge on Marxism during his staying inside many jails. His knowledge on Marxism (on theoretical aspect) was recognized by the party and he was selected as a political teacher when he presented a different  programme  which also have recognition from the then authority and that identity and popularity saved him once from the attack once made by some Naxalites when one of the attacker recognized him as his teacher. Once again his fearless attitude to face any consequences saved him from the attack caused of political differences which is a common practice prevailed inside the communist movement just revealing this as a ultra leftist petty bourgeois set of mind and which has no connection with Marxism. In this event he came out of his house with a club and challenged the attackers that his political commitment made himself to sacrifice his life any time and he wants to meet such a person from the attackers whom he must hit to death before his own death. Such fearless attitude he earned in his struggle from childhood during which he once selected leader to a group in a successful Swadeshi dacoity campaign.
Lastly to honour homage towards his memory we are just to say in spite of his old age related ailments he was so enthusiast that he toured many places in India getting opportunity offered to a freedom fighter by the government for polemical discussions with many groups in their places and amongst the followers especially on the question of Mao and dreamed to live for a successful turning point in Indian political arena till he lost his strength along with vision and hearing power when he practically became childish just realizing that he actually became a rejected one from his actual place—politic.

People's Democracy : It's Irrelevancy Today (history and Theory)

People's Democracy : It's Irrelevancy Today (history and Theory)
1. The rise and development of People's democracy should be examined in concrete historical conditions.
2. In the 1930s with the rise of fascism the world revolutionary movement received a setback and the worked proletariat had to take recourse to a defensive line of struggle. Fascism came as a great threat to mankind. It became the main obstacle in the path of historical development and unless it was destroyed mankind could not move forward. The struggle against fascism and the struggle in defence and restoration of bourgeois democracy determined the direction of the main blow and the alignment of class forces both in the international and national arena. Even those countries where the socialist revolution had been on the agenda, tasks of bourgeois democratic nature came to the fore. These were anti-imperialist, anti-fascist tasks and the tasks of national liberation and hence democratic.
3. The domination and the danger of domination of fascism meant regression in all fields of public life, whether political, social or national.
Politically, fascism liquidated even those pitiful democratic rights and liberties which helped the proletariat to open the gates of class-struggle. Socially, the domination of fascism meant the restoration of feudal serfdom and even slave from of exploitation.
Nationally, fascist domination meant regression on the national question on account of direct occupation of the nations by fascist forces.
Fascism meant that history had moved a step backward and the working class and the people were faced with completely new specific tasks to restore democratic order, democratic rights and liberties ON A NEW BASIS.
"The Hitler Party", said Stalin, "is a party of enemies of democratic liberties, a party of medieval reaction and Black-Hundred pogroms." Stalin further said: 'The German invaders have enslaved the peoples of the European Continent - from France to the Soviet Baltic countries, from Norway, Denmark, Belgium, the Netherlands and Soviet Byelo-Russia to the Balkans and the Soviet Ukraine. They have robbed them of their elementary democratic liberties. They have deprived them of the right to order their own destiny, they have taken away their grain, meat and raw materials; they have converted them into slaves," (On the Great Patriotic war of the Soviet Union)
4. At the highest point of the anti-fascist democratic movement in Spain, in February, 1936, a Popular Front Government came to power, consisting of all democratic and Communist Parties, which began an anti-fascist democratic revolution, both from below and above. It at once became an international class-struggle between democracy and fascism, in which the middle strata, especially, the middle bourgeoisie, in alliance with the proletariat, became the active partner of the anti-fascist democratic revolution. The existence of the Socialist Soviet Union and her help to the Spanish democratic revolution on the one hand, and the existence of fascist dictatorship in a number of bourgeois states and their help to the Spanish Fascists on the other, determined the alignment of class-forces in the world and thus the question of the class-character of the then Spanish state was posed by the Communist International in different way. The genuinely popular form of anti-fascist democratic revolution by the Spanish Popular Front government could not be reduced to a simple antithesis between bourgeois and proletarian single class democracy. The Government that emerged in Spain was neither a proletarian one not a bourgeois one. It was, rather, an intermediary between the two, which was characterised by the Communist International as "People's democracy" or "New democracy" under the new historical international condition, when the growing role of the Soviet Union and the world proletariat became an important factor in shaping the world scenario against Fascism. Thus People's democracy was born as an intermediate stage facilitating the passing over to the dictatorship of the proletariat more or less peacefully without any break, like that of the 'Democratic Dictatorship of the Proletariat and the Peasantry', on a broader social base under the leadership of the working class.
5. During the anti-fascist patriotic war the Soviet Union, routing German and the Japanese aggressors, released throughout the world, the huge revolutionary potentialities of the entire democratic forces, that had been so long suppressed. The direct presence of the Soviet army could foil the evil designs of Anglo-American imperialism as well as the launching of civil war by the internal counter-revolutionary forces. As a result, People's democracy, as the political organisation of society could arise in alliance with all the anti-fascist democratic forces.
6. Hence, the rise of People's democracy as a direct connecting link between the anti-fascist struggle and the struggle for socialism was the result of the development of world history in a period, when the Soviet Union, the land of socialism, acquired the unbeaten position of exerting almost a decisive influence in shaping the international situation, when the relation and alignment of class forces in the national and international arena had definitely shifted in favour of socialism, when the general crisis of capitalism reached its zenith and brought capitalism on the very verge of collapse, when the middle strata was vacillating between fascism and anti-fascism and finally, when the working class, in many countries was almost in an exclusive position to lead the anti-fascist and anti-imperialist straggle.
"Had there been no Soviet Union", Mao Tse-Tung wrote, "had there been no victory in the anti-fascist Second World War, had Japanese imperialism not been defeated (which is particularly important for us), had there been no People's Democracies in Europe. then the pressure of the international reactionary forces would, of course, have been much stronger than it is today. Would we have been able to achieve victory in those circumstances? Of course not. So, too, it would have been impossible to consolidate victory after it had been achieved." (On the People's Democratic Dictatorship)
7. The establishment of People's democracy solved the question of power in the sense that the big bourgeoisie and landlords were overthrown. However, that was still not the complete solution of the question of power. In the initial period of People's democracy, the middle bourgeois and the rich peasants could not be politically isolated and defeated and the problem of winning over the majority of the population was not fully solved. The middle bourgeoisie and the rich peasants were allowed to participate in governing the country side by side with the working class and the peasantry. The bourgeoisie existed as an independent, politically organised force, with its own parties, press, representative in the government, in the legislative bodies and in the state apparatus.
8. Hence there were two stages of the People's democratic revolution - democratic and socialist. The task of the preliminary first stage was directed at eliminating the political and economic bases of the pro-fascist bourgeoisie and big landlords upon the basis of the political alliance of the working class, the peasantry as a whole and the anti-fascist middle bourgeoisie including all the middle strata. In this period, the People's democratic form of the state could not and did not exercise the function of the dictatorship of the proletariat as power was shared with a section of the bourgeoisie. As such,People's democracy was not and could not be synonymous with the dictatorship of the proletariat, nor the People's democratic bloc and its mass organisation could be the political organisation of the dictatorship of the proletariat IN ALL ITS PHASES as propagated by the revisionists and crypto-revisionists.
9. The People's democratic regime exercised the function of the dictatorship of the proletariat only in the second stage of the revolution. This second stage had to begin before the maturity, before the completion of the exposure, isolation of the middle bourgeoisie and the rich peasants and before the consolidation of the working class power, exactly like that of the introduction of war communism by Lenin. Despite the existence of the mighty Soviet Union, the middle bourgeoisie and the rich peasants dared to launch subversive activities in league with the defeated big bourgeoisie and big landlords, instigated and inspired by the Anglo-American conspiracy of cold and hot war against the Soviet Union. They sabotaged the implementation of political and economic reforms, planned one counter-revolutionary conspiracy after another, energetically organised espionage and wrecking. Not only had this bourgeoisie no desire to co-operate with the regime of People's democracy, but persistently sought to overthrow the People's power. Experience showed that the middle bourgeoisie strove to utilise the participation in the united bloc and government apparatus in order to hinder the progress of revolution and restore its own power. The People's democratic regime could exercise the function of the dictatorship of the proletariat after having exposed, isolated and expelled the parties of the middle bourgeoisie and the rich peasants from the government and united bloc and after having expropriated their capital and land. Only on this basis People's democracy, with the assistance of the Soviet Union - including military assistance - could initiate the programme for laying of the foundation of socialism by the policies of industrialisation and establishment, on a voluntary basis, of agricultural co-operatives.
Experience of the People's democracies clearly shows that the dictatorship of the proletariat cannot be exercised by sharing power with a section of the bourgeoisie or vested interests and laying of foundation of socialism was quite impossible without the dictatorship of the proletariat.
Unless one understands this, the classical tasks of the dictatorship of the proletariat, he can understand neither Titoite brand of socialism nor Khruschovite brand of modern revisionism nor the CPI(M)'s hollow and abstract illusion - mongering talk of People's democracy with broader social base.
10. People's democracy did not triumph in certain countries, though the internal conditions of those countries were most favourable. The internal conditions of Greece, France, Italy and Belgium were ripe for the establishment of People's democracy, but the Anglo-American imperialists sought to land their troops in Albania and Bulgaria, to break through Czechoslovakia, Poland and Hungary and to reach there before the Soviet army. Had the British and American troops entered those countries before the Soviet army, they would have done their utmost to prevent the victory of People's democracy.
11. People's democracy triumphed as a result of the defeat of fascism by the common front of the international struggle against the common enemy - fascism. Naturally, the social base of anti-fascism and of the first stage of the People's democratic revolution was much broader, which was not the case in the second stage.
12. One must note with care that with the degeneration of the dictatorship of the proletariat in 1953, its Titoite distortion and with the recognition of Yugoslavia as a socialist country (though no tasks of the second stage were completed there), the degeneration of People's democracy and the socialist camp began.
13. Today, there is no common enemy like that of fascism nor is there any common front. There is no socialist country, (which decisively influences world politics) under whose umbrella People's democracy may develop into the second stage. The genuine Communists must realise that in the absence of those above-stated conditions and in the heyday of imperialism, deceptive bourgeois democracy and the much trumpeted free enjoyment of the 'right' of private property, if a firm and resolute proletarian policy is not pursued and if the victorious proletariat does not deal very resolutely with rich peasants, and non-big bourgeoisie, the cause of the revolution would be severely jeopardised. (Without such a policy neither would it be possible to exercise hegemony nor stop the vacillation of the non-proletarian working people already corrupted by profiteering and proprietary habits.)
14. Our main article on the stage of the revolution has clearly shown that only the socialist revolution in India today can solve both the anti-imperialist and the task of uprooting the vestiges of feudalism.