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Wednesday, 22 March 2023

कात्यायनी 'समूह' का बहस करने का एक नमूना

कात्यायनी 'समूह' का बहस करने का एक नमूना देखिए। फोटो भी उन्हीं का है। (इसका अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो रहा है)

एक अतिकिरांतिकारी का अवसरवादी रुदन...

कात्यायनी की कविता पर चल रही बहस में पधार ही गये हर तरह की तार्किक मनीषा से आज़ाद अतिकिरान्तिकारी जड़भरत महराज (इनके कमेंट का स्क्रीन शॉट नीचे है)।
मौक़ा अच्छा जो था कवियों-लेखकों की निगाह में आने का जिनकी बिरादरी में शामिल होने की आतुरता में तो इन्होंने कात्यायनी पर यह आरोप थोप मारा है कि अपनी लकीर को बड़ी करने के लिए कात्यायनी ने एक 'सॉफ्ट टारगेट' चुन लिया है !! आह! कितनी हमदर्दी है नव-आधुनिकतावादी रूपवादी (और साथ ही नव-रीतिकालीन) स्त्री कवियों के लिए जिन्होंने प्रेम को अशोक वाजपेयी मार्का दैहिक भोगवाद और आहों-कराहों में रिड्यूस कर दिया है ! इनका कहना है कि ऐसी स्त्रियाँ हैं ही कितनी ! पहली बात तो यह कि किसी ग़लत प्रवृत्ति की आलोचना करने-न करने का आधार यह नहीं होता कि उसे कितने लोग कर रहे हैं ! किसी ग़लत बात को बिना आलोचना किये छोड़ देना एक बौद्धिक बेईमानी होती है, मार्क्स ने तो यही कहा था लेकिन हिसाबी-किताबी जड़भरत महराज को इससे क्या लेना-देना ! यह वही महोदय हैं जो कई मुद्दे पर उठाए सवाल पर चुप्पी मार गए और जवाब देने की जगह उल्टे-सीधे कमेंट को लाइक ठोक रहे थे।

 दूसरी बात यह कि कल्पनालोक में घूम रहे अतिकिरान्तिकारी महराज को यह पता ही नहीं कि इनदिनों सोशल मीडिया से लेकर अविनाश मिश्र संचालित 'सदानीरा' जैसी पत्रिकाओं और 'हिन्दवी' जैसे ऑनलाइन मंचों पर ऐसी कथित नव-आधुनिकाओं की भीड़ है जो ऐसी ही रूपवादी-भोगवादी कविताओं की रेलमपेल किये हुए हैं I ये सभी या तो प्रेम की मर्दवादी अवधारणा की गिरफ्त में हैं, या फिर अस्मितावादी नारीवाद की चपेट में ! कात्यायनी की कविता पर चोट करते हुए फेमिनिस्ट वीरांगनाओं ने जो तर्क दिये, उससे यह बात और अधिक स्पष्ट हो गयी, लेकिन जड़भरत को यह बात क्यों समझ आयेगी जबकि उसके संगठन की लाइन भी अस्मितावादी पॉलिटिक्स के साथ मधुयामिनी मनाने की ही है, चाहे वह दलित अस्मितावाद हो या स्त्री अस्मितावाद ! कोई भी कम्युनिस्ट ऐसी कविताओं की स्वभावतः कठोरतम आलोचना करेगा जो प्रेम की जनवादी अवधारणा और स्त्री के स्वातंत्र्य के विरुद्ध हो और भोगवाद तथा अस्मितावाद के भँवर में चक्कर काट रही हो, लेकिन जड़भरत जी तो एकदम पितृसत्तात्मक "संरक्षण" की भावना से रोने-रोने को हो जाते हैं और कहते हैं कि इन स्त्रियों की आलोचना इसलिए नहीं की जानी चाहिए क्योंकि ये पढ़ने-लिखने वाली पहली पीढ़ी की स्त्रियाँ हैं ! कितना "उदात्त" पितृत्वपूर्ण संरक्षणवाद है !! अव्वलन तो अगर ऐसा होता भी तो ऐसी स्त्रियों को पतनशील बुर्जुआ आत्मिक व सांस्कृतिक और सौन्दर्यात्मक प्रभावों से सचेत करने के लिए उनकी कठोर आलोचना की जानी चाहिए ! दूसरी बात यह कि ऐसा है ही नहीं ! जड़भरत महराज लगता है कि अभी आशापूर्णा देवी के उपन्यास 'प्रथम प्रतिश्रुति' के ज़माने में जी रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे कि उनका संगठन भारत को आज भी अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक मानते हुए साठ-सत्तर साल पहले के समय में जी रहा है ! ऐसी जो स्त्री कवि हैं उनका बड़ा हिस्सा महानगरीय कुलीन मध्यवर्ग का सदस्य है जिनके घरों की स्त्रियाँ दो-तीन पीढ़ियों से पढ़ी-लिखी होती आयी हैं I दिल्ली-भोपाल-रायपुर-लखनऊ आदि के सरकारी अकादमियों के आयोजनों और पूँजी-प्रायोजित साहित्य महोत्सवों के मंचों पर जिसने इन फेमिनिस्ट पिकनिकबाजों को देखा है, वह इनके उत्सवधर्मी अभिजात्य को सहज ही समझ सकता है, नाम गिनाने की कोई ज़रूरत नहीं !
जड़भरत महराज का निर्देश है कि कविता इन "नॉन-इश्यूज" पर नहीं बल्कि बस्तर में सत्ता के बर्बर दमन पर लिखी जानी चाहिए I फिर उनपर कोई लिखे तो शायद कहें कि अब पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में दमन पर लिखिए I इनकी पार्टी के साहित्य-संस्कृति के कमिसार शायद प्राथमिकता-क्रम से विषयों की एक लिस्ट बनाकर देते होंगे कि कविगण इन-इन विषयों पर कविता लिखेंगे ! कविता बेशक समाज के जीवित-ज्वलंत प्रश्नों को विषय बनाती है और कवि की विचारधारात्मक-राजनीतिक लाइन उसमें स्वतः आ जाती है, अगर वास्तव में वह एक कम्युनिस्ट है तो ! कविता के विषयों की निर्देश-सूची कोई पार्टी नहीं बनाती ! ऐसे ज्वलंत विषय कभी वैचारिक हो सकते हैं, कभी कोई समसामयिक घटना ! सत्ता के दमन पर पिछले चालीस वर्षों में कात्यायनी ने कई कविताएँ लिखी हैं I दूसरी बात, यह सिर्फ़ कविता लिखने की ही चीज़ नहीं है I राज्यसत्ता के हर दमन के विरुद्ध कात्यायनी हमेशा सक्रिय रही हैं, साझा कार्रवाइयों में भागीदारी के ज़रिये और लेख, टिप्पणियों आदि के ज़रिये भी ! छत्तीसगढ़ में सत्ता के दमन के विरुद्ध भी ऐसा ही रहा है, न केवल आम आदिवासी आबादी के दमन के ख़िलाफ़, बल्कि उनके बीच काम करने वाले "वाम" दुस्साहसवादियों के सत्ता द्वारा दमन के ख़िलाफ़ भी, क्योंकि यह जनवादी अधिकारों का सवाल है ! लेकिन हम साथ ही उस "वाम" दुस्साहसवादी लाइन के भी कटु आलोचक हैं जिसके नतीजे के तौर पर अंततः भारतीय क्रान्ति को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है, सिवाय भीषण नुकसान के ! बहरहाल यह अभी इतना प्रासंगिक नहीं है।

जड़भरत जी ने कविता कृष्णपल्लवी की कविता की भी भीषण दुर्व्याख्या की है I कविता का कथ्य मात्र इतना है कि राजनीतिक-सामाजिक परिवेश से एकदम असम्पृक्त आप किसी द्वीप पर कितने भी पवित्र और मासूम प्यार में डूबे हों, जब बर्बरता का समय आयेगा तो आप उससे अछूते नहीं रह पायेंगे I बर्बर फासिस्ट ताक़तें आपको शिकार बनायेंगी ही।

प्रसेन की वाल से साभार


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