Total Pageviews

Wednesday, 8 March 2023

आध्यात्मिक बाबाओं और चुनावी मदारियों का याराना



अपने एतिहासिक रूप में धर्म मनुष्य के अज्ञान, बेबसी और डर की उपज है। प्रकृति के प्रति अपने अज्ञान में से वह इसका दैवीकरण करता है और खद को कमज़ोर मानते हुए इसके आगे झुकता है। दैवीकरण का अर्थ है प्रकृति के बर्ताव को किसी अदृश्य, रहस्यमय और पराभौतिक शक्ति की इच्छा का नतीजा मान लेना। मध्य युग या जागीरदारी के समय धर्म शासक वर्ग के हाथ में जनता की अधीनता का हथियार बना रहा। एक तरफ़ धर्म राजा की सत्ता को दैवी सत्ता का प्रतीक बताते हुए उसे क़बूल करने का उपदेश देता था, और दूसरी तरफ़ जनता के हालात को उनके भगवान की इच्छा और उनके पिछले जन्मों के कर्मों का फल बताते हुए सब कुछ स्वीकार करके जीने की सलाह देता था। इसी सामंती समाज के गर्भ में एक नया पूँजीवादी समाज भी जन्म लेने लगा। अस्तित्व में आ रहे इस नए पूँजीवादी समाज के लिए ज़रूरी था कि वह सामंती आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को तबाह कर दे। इसलिए उभर रहे पूँजीवाद ने तर्कशीलता को अपना दर्शन बनाया, जिसके द्वारा मध्यकालीन मूल्य-मान्यताओं के साथ-साथ धर्म पर भी चोट की गई। जनवाद, तर्कशीलता जनता की चेतना का हिस्सा बने, तो उन्होंने धर्म आधारित सामाजिक, राजनीतिक सत्ता भी तबाह कर दी। इसने धर्म को ख़त्म तो नहीं किया, लेकिन सत्ता और धर्म के गठबंधन को तोड़ दिया। काफ़ी हद तक धर्म निजी मामला बनकर रह गया और धर्म-निरपेक्ष राज्य अस्तित्व में आए। लेकिन यह केवल वहीं हुआ, जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था सामंतशाही के साथ संघर्ष की प्रक्रिया से गुज़रकर क्रांतिकारी ढंग से सत्ता में आई। बहुत से देशों में सामंतशाही से पूँजीवाद का बदलाव ऊपर से लागू किए गए धीमे सुधारों से हुआ। इस तरह आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में तो पूँजीवादी तौर-तरीके़ लागू हो गए, लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में सामंती विचार काफ़ी हद तक हावी रहे। इन देशों में लोकतंत्र और तर्कशीलता जैसी अवधारणा आम सामाजिक चेतना का हिस्सा ना बन सकी। ऐसे देशों में धर्म की जकड़, अंधविश्वास और मध्यकालीन पिछड़ेपन का ख़ासा असर रहा।

भारत में पूँजीवादी विकास भी ऐसे ही ऊपर से लागू किए गए सुधारों के ज़रि‍ए हुआ, जिसकी वजह से यहाँ भी सांस्कृतिक पिछड़ापन हावी है। एक तरफ़ हम आधुनिक मशीनी उद्योग, गगनचुंबी इमारतें, कंप्यूटर, हवाई जहाज़, विज्ञान अनुसंधान केंद्र देख सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ धागे-ताबीज़ और जादू-टोना जैसे अंधविश्वास भी बहुत ज़्यादा मिल जाते हैं। एक तरफ़ सार्विक वयस्क मताधिकार आधारित संसद है, तो दूसरी तरफ़ खाप पंचायतें और घर के बड़े-बुजुर्गों के प्रभुत्व वाले परिवार देखते हैं, जहाँ नौजवानों को अपने फ़ैसले तक ख़ुद नहीं करने दिए जाते। आधुनिकता और पिछड़ेपन का यह मिश्रण यहाँ के ऊपरी सुधारों की वजह से हुए पिछड़े पूँजीवादी विकास का नतीजा है। इसीलिए यहाँ अंधविश्वास और धर्म की पकड़ बहुत मज़बूत है। हालाँकि संविधान धर्म-निरपेक्षता का दावा करता है, मगर असलियत में सत्ता और धर्म का गठबंधन अभी भी बहुत गहरा है। इसीलिए यहाँ सांप्रदायिक राजनीति की ज़मीन बहुत उपजाऊ है। यहाँ पर बाबाओं, संतों और डेरों की बहुतायत है, जो आज भी जनता को अंधविश्वास में उलझाए रखते हैं। पूँजीवादी युग की यह संतगिरी एक तरफ़ बड़ी कमाई करने वाला धंधा भी है और दूसरी तरफ़ यह सत्ता के साथ घी-खिचड़ी हुआ भी दिखाई देता है।

ऐसा ही एक बाबा इन दिनों मुख्यधारा मीडिया, ख़ासकर ख़बरी टी.वी. चैनलों पर छाया रहा है। छाया नहीं, बल्कि उभारा गया है। यह बाबा 26 साल का धीरेंद्र शास्त्री है, जो मध्यप्रदेश के छत्रपुर जि़ला के गाँव गड़ा से आया है। इसे बागेश्वर धाम के नाम से भी जाना जाता है। यह बाबागिरी का धंधा पिछले 4-5 साल से मध्यप्रदेश से चला रहा है। इसी समय के दौरान इसने कई राजनीतिक नेता, ख़ासकर भाजपा के साथ नज़दीकियाँ बढ़ाई हैं। बहुत से भाजपा नेता उसके डेरे पर जाते हुए देखे जा सकते हैं। यह इसके पास चौकी भरने आए लोगों में से किसी एक को अपने पास बुलाकर उसके नाम, पारिवारिक पृष्ठभूमि, बीमारी और दूसरी समस्याओं के बारे में बताने की जादूगरी करता है। इस जादूगरी को वह हनुमान की कृपा से हुआ चमत्कार बताता है। भाजपा के मीडिया की बदौलत उसका धंधा अच्छा चल रहा है। पिछले साल भी यह थोड़ा चर्चा में आया था, जब उसने अपने पाँव छूने की कोशिश करते हुए एक दलित व्यक्ति को छूआछूत की बात करते हुए पाँव छूने से मना कर दिया था।

पिछले कुछ समय से अपनी धार्मिक सभा में वह राजनीतिक टीका-टिप्पणी करने लगा है, जिसकी वजह से मीडिया उसे चर्चा का केंद्र बना रहा है। इस समय वह छत्तीसगढ़ में काफ़ी सरगर्म है। छत्तीसगढ़ में इस समय कांग्रेस की सरकार है और कुछ महीनों में यहाँ विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। इस मौके़ पर भाजपा के पक्ष में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में धीरेंद्र शास्त्री अहम भूमिका निभा रहा है। वह कहता है कि ईसाई यहाँ "जबरन" धर्म परिवर्तन कर रहे हैं और इसके लिए वह कांग्रेस सरकार को दोषी बताता है। वह कहता है कि वह उनकी "घर वापसी" के लिए काम कर रहा है। सनातनी हिंदुओं को चाहिए कि वे ईसाइयों को सबक़ सिखाएँ। मुसलमानों के विरुद्ध वह कहता है कि "हिंदुओं पर पत्थर फेंकने वालों को बुलडोज़र से कुचलना होगा", और "सरकार कब तक बुलडोज़र से उनके घर गिराती रहेगी, यह काम हिंदुओं को करना होगा।" वह यह भी आह्वान करता है कि "तुम मेरा साथ दो, हम हिंदू राष्ट्र बनाएँगे।" यानी आजकल वह पूरी तरह ईसाई, मुसलमान विरोधी और हिंदू राष्ट्र बनाने की संघ-भाजपा की सिखाई गई बोली बोल रहा है। भाजपा के इशारे पर ही मीडिया इसे चर्चा का विषय बना रहा है। हैरानी की बात नहीं है कि मीडिया के जो चैनल ख़ास तौर पर भाजपा के भौंपू बने हुए हैं, वही इस बाबा के बारे में जोर-शोर से चर्चा कर रहे हैं।

पिछले दिनों उसने महाराष्ट्र में कुछ दिन लगातार चलने वाला बाबागिरी का कार्यक्रम रखा हुआ था। मीडिया ने जब इसके "चमत्कारों" के दावों की तारीफ़ों के पुल बाँधने शुरू किए तो अखिल भारतीय अंधविश्वास निर्मूलन समिति के नेता प्रो. श्याम मानव ने चुनौती दी कि वह उनकी शर्तों के तहत चमत्कार करके दिखाए। इस चुनौती से बौखलाया शास्त्री मीडिया में बहुत गरजा, मगर प्रो. श्याम मानव की चुनौती क़बूल करने की हिम्मत ना जुटा सका। बल्कि डर के मारे अपना नागपुर का कार्यक्रम समय से पहले ही ख़त्म करके वापिस छत्तीसगढ़ चला गया।

इस बाबा के श्रद्धालू या इसके मददगार कुछ राजनीतिक नेताओं की तरफ़ एक नज़र डालने की ज़रूरत है। इनमें भाजपा का केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, महाराष्ट्र का उप मुख्यमंत्री देविंद्र फड़नवीस, छत्तीसगढ़ से भाजपा का पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह समेत और भी कई राज्य स्तरीय और केंद्रीय नेता शामिल हैं। इसके सिवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा विश्व हिंदू परिषद और संघ की कठपुत्ली बाबा रामदेव भी उसके हिमायती हैं। इस तरह यह बाबा इस बात का सबूत है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ और ख़ास तौर पर भाजपा का कैसे आध्यात्मिक ठगों, मदारियों, बाबाओं के साथ इतना गहरा नाता है।

भाजपा के साथ संबंध रखने वाले ऐसे बाबाओं की सूची काफ़ी लंबी है। इनमें से 2013 में एक नाबालिग के साथ बलात्कार के मामले में जेल में कै़द आसाराम बापू, सतलोक आश्रम का संत रामपाल, मध्यवर्गीय बाबा श्री-श्री रवि शंकर, बाबा रामदेव, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, नित्यानंद और रामभद्राचार्य जैसे सैकड़ों छोटे-बड़े बाबा, संत शामिल हैं। योगी अदित्यनाथ तो भाजपा का उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना बैठा है। 2015 में हरियाणा सरकार ने बाबा रामदेव को मंत्री बनाने की पेशकश की थी, तो उसने यह कहकर पेशकश ठुकरा दी थी कि "अब तो प्रधानमंत्री भी अपना, पूरी कैबिनेट अपनी, हरियाणा का मुख्यमंत्री भी अपना, अब मुझे बस बाबागिरी करने दो।" हरियाणा के डेरा सिरसा मुखी को भाजपा सरकार ने पहले पंजाब चुनाव के समय पैरोल दी थी और अब पिछले एक साल में उसे चार बार पैरोल दी जा चुकी है। यानी अगले चुनाव में उसे वोटों की फ़सल काटने के लिए तैयार किया जा रहा है।

इस तरह सभी धार्मिक डेरे, साधु-संत पूँजीवादी राजनीति के साथ गठबंधन और चुनावी पार्टियों की राजनीतिक शह पर ही फलते-फूलते हैं। पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियों के लिए डेरे, साधु, संत और धर्मगुरु सब चुनाव जीतने के लिए एक बहुत मज़बूत वोट बैंक हैं, दूसरा जनता में पहचान बनाने और अपनी साख़ सुधारने का भी साधन हैं। इसके सिवा ये जनता में फूट डालने, निहत्थे करने का साधन हैं। इन धार्मिक गुरुओं, डेरों के साधु-संतों को राजनीतिक गठबंधन रखने का यह फ़ायदा होता है कि इन्हें क़ानूनी तौर पर परेशान नहीं किया जाता, बल्कि सरकारी और दूसरी विरोधी शक्तियों से राजनीतिक शक्ति इनका बचाव करती है, दूसरा इससे उनके श्रद्धालु और आमदनी का घेरा भी फैलता है। वैसे तो सभी पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियों का अलग-अलग डेरों, धार्मिक गुरुओं और साधु-संतों से गठबंधन होता है, लेकिन भाजपा बिना शक इस मामले में सबसे आगे है।

मुख्यधारा का या सत्ताधारी वर्ग का मीडिया पूँजीपतियों के विचारों के दबदबे और उनकी राजनीति को आगे बढ़ाने वाला औजार होता है। इसी लिए यह मीडिया तर्कशील, जनवादी मूल्य-मान्यताओं का प्रचार-प्रसार नहीं करता, बल्कि अंधविश्वास, पिछड़ापन, सांप्रदायिकतावादी जुनून फैलाने और इन बाबाओं के पक्ष में जनता की राय बनाने का ही काम करता है। रवि शंकर, रामदेव, निर्मल बाबा और अब धीरेंद्र शास्त्री जैसे आधुनिक युग के इन बाबाओं का धंधा फैलाने में इस मीडिया ने जी-जान से अपनी भूमिका निभाई है और निभाता रहेगा।

जिस समाज की बुनियाद ही ग़ैर-बराबरी, लूट और दमन पर टिकी हो, वहाँ जनता को पिछड़ेपन, अज्ञानता, अंधविश्वास और धर्म की पकड़ में कै़द रखना सत्ताधारी वर्ग की ज़रूरत होती है, जिसके दम पर जनता पर अपना दमनकारी शासन बरकरार रखा जा सके। यह समाज की वर्गीय बँटवारे से जन्मी समस्याओं को हल करने की बजाय जनता को वर्ग संघर्ष की जगह आध्यात्मिक, स्वर्ग और धर्म जैसी अफ़ीम के नशे की राहत देते हैं। इस तरह पूँजीवादी विकास के बावजूद यहाँ आध्यात्मिक गुरु और सत्ता परस्पर प्यार का झूला झूलते रहते हैं। मीडिया, प्रशासन, क़ानून सभी इनकी सेवा में हाज़िर रहते हैं। इस शोषण-उत्पीड़न पर आधारित समाज को बदलने की जद्दोजहद में आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष के साथ ही वैचारिक संघर्ष करना भी मेहनतकश जनता की अहम ज़रूरत है। इस वैचारिक संघर्ष के हिस्से के रूप में अंधविश्वास, धर्म, डेरे और बाबाओं के चंगुल से मेहनतकश जनता को मुक्ति दिलवाना और उन्हें तर्कशीलता और वैज्ञाविक सोच के साथ जोड़ना समाज की क्रांतिकारी शक्तियों का अहम कार्यभार है।

– गुरप्रीत

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 28 ♦ मार्च  2023 में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment