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Wednesday, 1 March 2023

नौसैनिक विद्रोह की वर्षगांठ पर : जब सागर की लहरों से उठा इंकलाब



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1946 का नौसैनिक विद्रोह भारत की आजादी के आंदोलन का एक स्वर्णिम अध्याय है। राष्ट्रीय आंदोलन के जबर्दस्त उभार के दौर में और उसी पृष्ठभूमि में हुआ यह विद्रोह अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। नौसैनिक विद्रोह उस दौर में अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ व्यापक जनउभार व साम्राज्यवादी विरोधी चेतना से प्रभावित तो था ही साथ ही उस दौर के क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन से भी यह काफी प्रभावित था।

1946 का वर्ष भारत में अंग्रेजी शासन के अवसान की आखिरी घड़ी थी। अंग्रेज वैसे तो भारत को सदा-सर्वदा के लिए अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे लेकिन भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बढ़ते हुए जन आंदोलन खासतौर पर 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान पैदा हुए व्यापक जनउभार ने भारत में उनके शासन की चूलें ढीली कर दी थीं। सशस्त्र सेनाओं में विद्रोह खासकर पहले वायु सैनिकों की जनवरी 1946 बम्बई में हुई हड़ताल और फिर 'शाही भारतीय नौसेना' (रायल इंडियन नेवी) के नाविकों की हड़ताल ने भारत में अंग्रेजी शासकों को अपना बोरिया-बिस्तर समेटने के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया।

सेना में विद्रोह की शुरूआत चंद्र सिंह के नेतृत्व में गढ़वाल रेजीमेण्ट 1930 में ही कर चुकी थी। वायु सैनिकों ने इस परम्परा को जारी रखा और उस कड़ी में नौसैनिकों ने व्यापक और संगठित विद्रोह के माध्यम से इस परम्परा को आगे बढ़ाया। पहले के विद्रोहों के मुकाबले नौसैनिक विद्रोह का आयाम व स्वरूप काफी व्यापक था। यह मुम्बई से लेकर करांची व कलकत्ता तक फैल गया और दूसरे शब्दों में पूरी शाही नौसेना या नौसेना का बड़ा हिस्सा इस विद्रोह में शामिल हो गया। यह विद्रोह भले ही भारतीय नौसैनिकों के साथ भेदभाव और बेहतर भत्तों आदि की मांग से शुरू हुआ हो लेकिन शीघ्र ही भारत में ब्रिटिश राज के खात्मे की ओर लक्षित हो गया। मजदूरों के क्रांतिकारी आंदोलन ने इससे एकजुटता प्रदर्शित की और भारी संख्या में नौसैनिकों के समर्थन में बम्बई की अंग्रेज पुलिस व सशस्त्र बलों से लोहा लिया। नौसैनिक विद्रोह हिन्दू-मुस्लिम एकता का भी प्रतीक बनकर उभरा। कुल मिलाकर अपने संघर्ष के स्वरूप, लक्ष्य व व्यापकता में यह भारतीय सशस्त्र बलों का एक क्रांतिकारी संघर्ष था।

इस विद्रोह की जड़ें काफी गहरी थीं; जो भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत होने वाले शोषण, उत्पीड़न, अन्याय व गुलामी के बोध से जुड़ी थीं। तात्कालिक तौर पर भारतीय नौसैनिकों के साथ होने वाला भेदभाव इस विद्रोह का एक प्रमुख कारण बना। इसी भेदभाव को लेकर 1946 में बम्बई में वायुसेना के सैनिकों ने हड़ताल की। हड़ताली वायुसैनिकों ने मांग की कि उन्हें भी अंग्रेज वायुसैनिकों के समान अधिकार दिये जायें। इस हड़ताल में 1500 से ज्यादा वायु सेना के कर्मचारी शामिल हुए थे। हड़ताल एक भारतीय वायुसैनिक के साथ अंग्रेज अधिकारी के दुर्व्यवहार करने के कारण शुरू हुई। लेकिन यह लम्बे समय से दबे आक्रोश का परिणाम थी।

इसी के अगले महीने फरवरी 1946 में नौसेना ने विद्रोह कर दिया। भारतीय समुद्र तट की रक्षा करने वाले जंगी जहाज पहले ब्रिटिश नौसेना के अधीन थे। दूसरे 'महायुद्ध' के ठीक पहले इन्हें नौसेना से अलग कर दिया गया और 'रायल इंडियन नेवी' यानी शाही भारतीय नौसेना गठित की इस शाही सेना में प्रायः सभी बड़े अफसर अंग्रेज होते थे। अंग्रेज अधिकारी अक्सर भारतीय नौसैनिकों का अपमान करते थे। उन्हें बहुत घटिया खाना दिया जाता था और नौसेना से छंटनी होने पर बहुत कम भत्ता दिया जाता था। छंटनी होने पर उन्हें अपनी वर्दी भी वापस करनी होती थी। नौसैनिकों के बार-बार अनुरोध करने पर भी उनकी शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था।

फरवरी 1946 में शाही नौसेना के कुछ नाविकों की ट्रेनिंग बम्बई में युद्धपोत 'तलवार' पर हो रही थी। जहाज पर नौसैनिकों को बेहद खराब खाना दिया जा रहा था। इसकी शिकायत नाविकों ने जब अंग्रेज अधिकारी से की तो उसने इनकी शिकायत पर ध्यान देने के बजाय इनका मजाक उड़ाते हुए कहा, ''भिखमंगों के पास चुनने का अधिकार नहीं होता (Beggers have no choice)।'' उसने यह भी कहा कि नाविकों को कंकड़-पत्थर वाला चावल ही मिलेगा, जिसे यह नहीं खाना हो वह खुद अपने हाथ से साफ कर ले। नाविकों ने अफसर की इस बात का विरोध किया। शीघ्र ही यह विरोध बैरक में फैल गया। नाविकों ने बैरकों की दीवारों पर 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' और 'हिन्दुस्तान जिन्दाबाद' के नारे लिख दिये। कमाण्डर ने इस सबके लिए रेडियो ऑपरेटर दत्त को जिम्मेदार माना और उसे कम्युनिस्ट कहकर गिरफ्तार कर लिया। इसके जवाब में नाविकों ने 18 जुलाई को भूख हड़ताल शुरू कर दी।

यह हड़ताल बैरक के नाविकों से शुरू हुई। दोपहर तक 'तलवार' के सभी नाविक हड़ताल में शामिल हो गये। उस वक्त बम्बई में नौसेना के 22 जहाज थे। 19 फरवरी को इन सब जहाजों के नाविकों ने हड़ताल का समर्थन कर दिया। जहाजों के मस्तूल से बरतानवी झंड़े यूनियन जैक को उतार दिया गया। उसकी जगह नाविकों ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग व कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे एक साथ फहरा दिये। इस तरह हड़ताल ने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतीक को हटाकर एक विद्रोह का ऐलान कर दिया।  

इसके बाद हड़तालियों ने बम्बई शहर में वर्दी पहन कर जुलूस निकाला। जुलूस-प्रदर्शनों का यह सिलसिला लगातार जारी रहा। नाविकों के प्रदर्शन में तीन झंड़े एक साथ चलते थे- कांग्रेस का तिरंगा, मुस्लिम लीग का हरा झंड़ा और उनके बीच में कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंड़ा। कांग्रेस और लीग के झंड़े राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम एकजुटता के प्रतीक थे, तो कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ एकजुटता का प्रतीक था। 

नाविकों के प्रदर्शनों में प्रमुख नारे थे- 'जय हिन्द', 'इंकलाब-जिन्दाबाद', 'हिन्दू-मुस्लिम एक हो', 'ब्रिटिश साम्राज्यवादी मुर्दाबाद', 'आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों व अन्य राजनीतिक बंदियों को रिहा करो', 'हिन्देशिया से भारतीय सैनिक वापस बुलाओ', 'हमारी मांगें पूरी करो' आदि।

जिस-जिस रास्ते पर जुलूस गया वहां से अंग्रेज सैनिक व अफसर हटा लिये गये। विदेशी फर्मों ने अपनी दुकानें बंद कर दीं। हड़ताल मद्रास व करांची के नौसैनिकों में भी फैल गयी। कैसल और फोर्ट स्थित बैरकों के नौसैनिक इसमें शामिल हो गये। अन्य युद्धपोतों के साथ करांची के 'हिन्दुस्तान' युद्धपोत के नाविकों ने भी हड़ताल की दी। इस युद्धपोत ने बाद में अंग्रेज सेना के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लिया।

19 फरवरी को दोपहर के बाद अंग्रेज फ्लैग ऑफिसर रोथ रॉय 'तलवार' पर आया। उसने नाविकों से उनकी मांगें पूछीं ताकि उन्हें सदर दफ्तर भेजा जा सके। उसने वादा किया कि हड़ताली नेता गिरफ्तार नहीं किये जायेंगे। इस वायदे के साथ एक नौसैनिक केन्द्रीय हड़ताल समिति का चुनाव किया गया। हड़ताल समिति ने सरकार के सामने अपनी मांगें रखीं। इसमें प्रमुख मांगें थीं-

1. भारतीयों के साथ नस्लवादी (गोरे-काले) और जातिगत (यूरोपीय बनाम भारतीय) भेदभाव बंद किया जाये।

2. अंग्रेज अफसरों को हटाकर भारतीय अफसर नियुक्त किये जायें।

3. भारतीय जहाजियों को बेहतर खाना मिले।

4. भारतीय जहाजियों को गोरे जहाजियों के बराबर वेतन व अधिकार मिलें।

5. परिवार भत्ता बढ़ाया जाये।

6. नौसेना में छंटनी के बाद दूसरे काम का बंदोबस्त किया जाये।

7. आजाद हिन्द फौज के सैनिकों समेत सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाये।

8. हिन्दचीन (Indochina) व जावा से भारतीय सेना वापस बुलायी जाये।

लेकिन रोथा रॉय ने उसी दिन अपना वादा तोड़ दिया। अंग्रेजों ने खमलिया जहाज के 300 नाविकों को गिरफ्तार करने का हुक्म जारी कर दिया। वे नाविक उस समय तट पर थे।

अंग्रेजों के इस व्यवहार से हड़ताल ने और जोर पकड़ा और जहाजों की मरम्मत करने वाले कारखानों तक यह फैल गयी। गोदी मजदूर भी हड़ताली नाविकों के साथ आकर मिल गये। 19 फरवरी की रात 10 बजे विभिन्न जहाजों के प्रतिनिधियों ने हड़ताल कमेटी की बैठक की; जिसमें पांच लोगों की कार्यकारिणी कमेटी चुनी गयी। 'तलवार' में इसका सदर दफ्तर बनाने का फैसला हुआ।

20 फरवरी को हड़ताल अन्य बंदरगाहों और शहरों में भी फैल गयी। बम्बई के पास थाना शहर में नौसेना की बैरकें थीं। इन बैरकों में 'अकबर' नामक गस्ती जहाज के 300 नाविक थे, जो उसी दिन हड़ताल में शामिल हो गये। 'इंडिया' नामक युद्धपोत के नाविकों ने हड़ताल कर दी। यह युद्धपोत उस समय रॉयल इंडियन नेवी के जनरल स्टाफ का काम करता था। करांची, कलकत्ता, विशाखापट्टनम और दूसरे बंदरगाहों पर खड़े जहाज भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फरवरी तक देश के सभी नौसैनिक अड्डों में विद्रोह फैल चुका था। करीब 78 जहाज, 20 नौसैनिक केन्द्र और 20 हजार सैनिक विद्रोह में शामिल थे। इसी के साथ सारी भारतीय नौसेना इस विद्रोह में शामिल हो चुकी थी।

हड़ताल को इस तरह फैलता देख अंग्रेज अधिकारी बुरी तरह घबरा गये। उन्होंने हड़तालियों को सबक सिखाने के लिए बल प्रयोग का सहारा लिया। हड़ताली सैनिकों ने साहसपूर्वक अंग्रेजी दमन का मुकाबला किया। बम्बई ही नहीं दूर-दराज के इलाकों में यह मुकाबला हुआ। ब्रिटिश सेना की बख्तरबंद गाड़ियों ने नाविकों की बैरकों को घेर लिया। हड़ताली जहाजों व युद्धपोतों को हवाई जहाजों व बमवर्षक जहाजों ने घेर लिया। लेकिन ब्रिटिश सेना में शामिल हिन्दुस्तानी सैनिकों ने विद्रोही नाविकों पर गोली चलाने से मना कर दिया। इन बागी सैनिकों को हटाकर विशुद्ध गोरी पलटनों को विद्रोह के दमन के लिए तैनात किया गया। 21 फरवरी को सुबह भारतीय सेना और अंग्रेज सैनिकों में लड़ाई छिड़ गयी। लड़ाई की शुरूआत अंग्रेजी सेना ने की तथा बैरक से बाहर निकल रहे सैनिकों पर गोलियां चला दीं। इस पर अपनी रक्षा में शस्त्रागार से हथियार निकाल कर नौसैनिक मैदान में आ डटे।

ब्रिटिश तोपों ने भारी गोलीबारी कर युद्धपोत सिंध पर 4 नाविकों को मार डाला। नाविकों ने भी अपने युद्धपोतों को हमलावर ब्रिटिश सेना की तरफ मोड़ दिया। सात घंटे तक भीषण संग्राम चला जो 21 फरवरी की शाम युद्ध विराम घोषित होने तक जारी रहा।

21 फरवरी को तीसरे पहर एडमिरल गॉडफ्रे ने रेडियो पर नौसैनिकों को आत्मसमर्पण का अल्टीमेटम दिया। ऐसा न करने पर उसने कठोरतम और प्रबलतम कार्यवाही की धमकी देते हुए कहा कि इस कार्यवाही में पूरी नौसेना भी नष्ट हो जाये तो उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं।

गॉडफ्रे के इस अल्टीमेटम पर नौसैनिकों ने सभी राजनीतिक दलों से सहायता की अपील की। उन्होंने बम्बई में मजदूरों व जनता से भी सहयोग की अपील की। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने नौसैनिकों की हड़ताल व विद्रोह का खुलकर समर्थन किया। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी ट्रेड यूनियनों में मजदूरों व आम मेहनतकशों से हड़ताल के समर्थन व नौसैनिकों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए हड़ताल की अपील की। अरुणा आसफ अली व अन्य नेताओं ने हड़ताल का नेतृत्व किया। कांग्रेस व लीग के ज्यादातर बड़े नेताओं ने नौसैनिकों के विद्रोह से दूरी बनाये रखी।

21 फरवरी को नौसैनिकों के समर्थन में बम्बई के 3 लाख मजदूरों ने हड़ताल में भाग लिया। शहर में जुलूसों व प्रदर्शनों का तांता लग गया। छात्रों ने भी हड़ताल में साथ दिया। बम्बई के कामगार मैदान में एक बड़ी सभा हुई जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य श्रीपाद अमृत डांगे प्रधान वक्ता थे।

नौसैनिकों के पक्ष में मजदूर वर्ग व आम जनता का समर्थन देख अंग्रेज बुरी तरह घबरा गये। उन्होंने मजदूरों पर बर्बर हमला किया। मजदूरों के घरों में घुस कर हमले किये गये। भारी संख्या में मजदूरों को गोली से उड़ा दिया। हजारों घायल हुए। शांति व्यवस्था के नाम पर सेना की दो बटालियनें तैयार कर दी गयीं। पुलिस व सेना ने मजदूरों का किस कदर दमन किया। उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 21 से 23 फरवरी के बीच 250 लोग मार डाले गये। गैर सरकारी आंकड़ों में हताहतों की संख्या हजारों में थी।

नौसैनिकों के विद्रोह को देश भर में भारतीय जनता का अभूतपूर्ण समर्थन मिला। देश भर में हड़ताल-आंदोलन होने लगे। 23 फरवरी को जबलपुर स्थित भारतीय सिग्नल कोर में हड़ताल हो गयी। करांची में मजदूरों और छात्रों ने मिलकर नौसैनिकों का समर्थन किया। सेना व पुलिस ने प्रदर्शनकारियों का बर्बर दमन किया। कई लोग हताहत हुए, कई लोग गिरफ्तार हुए।

प्रदर्शनकारियों में हिन्दू व मुसलमान दोनों थे। नौसैनिकों के पक्ष में मजदूर महिलायें व लड़कियां भी साहस के साथ आगे आयीं। जब अंग्रेजों ने पोस्टर व पर्चों पर प्रतिबंध लगाया तो लड़कियों व मजदूर महिलाओं ने इन्हें आम जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया। वे पर्चों को खाने के डिब्बों में भरकर ले जातीं और फिर कारखानों व मजदूर मोहल्लों में जाकर बांट देती थीं। भारी दमन का मुकाबला करते हुए वे यह जोखिमपूर्ण कार्य करती थीं।

भारतीय सैनिकों की सहानुभूति भी नौसैनिकों के साथ थीं। सैनिक, नौसेना विद्रोह को दबाने में सरकार की मदद से इंकार कर रहे थे। 23 फरवरी को जबलपुर स्थित भारतीय सिग्नल कोर में हड़ताल हो गयी। अप्रैल महीने में बिहार व दिल्ली पुलिस ने भी हड़ताल कर दी। इस दौरान देश के अन्य हिस्सों में भी किसान आंदोलन भी चल रहे थे। इस तरह यह विद्रोह भारत में अंग्रेजी शासन के ताबूत की आखिरी कील साबित होने जा रहा था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इस हड़ताल का समर्थन नहीं किया। पटेल जैसे नेता नौसैनिकों को आत्मसमर्पण के लिए कहते रहे। अंत में मुकदमा न लगने देने का उनका आश्वासन फर्जी साबित हुआ।

नौसैनिक विद्रोह ने देश की आजादी की लड़ाई में जनता को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करने के साथ इस लड़ाई को एक नये मुकाम पर पहुंचा दिया, जहां अंग्रेजों को भारत में और अधिक दिन शासन करना खतरे से खाली नहीं लगा। और शीघ्र ही वे भारत छोड़ने को मजबूर हुए और देश आजादी हुआ। नौसैनिक हड़ताल कमेटी ने अपने अंतिम संदेश में कहा था और बहुत ठीक कहा था- ''हमारी हड़ताल इस देश के जीवन में ऐतिहासिक घटना है। पहली बार वर्दीधारी सैनिक और आम जनता का खून एक समान मकसद के लिए गलियों में एक साथ बहा।'' 

साभार : 'परचम' त्रैमासिक पत्रिका




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