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Sunday, 19 March 2023

पेरिस कम्यून के सबक


आज ही के दिन 152 साल पहले यानी 18 मार्च 1871 को फ्रान्स के मजदूरों ने गोलबन्द होकर पूंजीपतियों के खिलाफ बलप्रयोग करते हुए फ्रान्स की राजसत्ता पर कब्जा कर लिया था, और 72 दिन तक मजदूरों की सरकार चली थी। 18 मार्च 1871 से 28 मार्च 1871 तक मजदूरों ने फ्रांस में अपनी सरकार चलाई। सभी वंचितों को समता, स्वतंत्रता, न्याय का अधिकार दिया।

पेरिस कम्यून से पहले दुनिया के मजदूरों में बहुत भ्रम था। वे सोचते थे कि पूँजीपति ही देश चला सकता है, वही सरकार चला सकता है, वही कानून व्यवस्था सँभाल सकता है और मजदूर तो लात-घूसे खा-खा कर 18-20 घंटे काम करने के लिए बने हैं।

  फ्रान्स की सत्ता में बैठे पूँजीपतियों को भी प्रकारान्तर से ऐसा ही भ्रम था। वे पूँजीपति यह सोचते थे कि धन के बल पर वे हर चुनाव जीतते रहेंगे, उनको कोई सत्ता से बेदखल नहीं कर पायेगा। मगर उनका यह भ्रम 18 मार्च 1871 को टूट गया, जब हथियारबन्द मजदूरों ने गोल बन्द होकर बलपूर्वक शोषक वर्ग का तख्तापलट दिया। 

  नशा काफूर हो गया। इस घटना से जहाँ पूरी दुनिया के पूँजीपति थर्रा उठे, वहीं दुनिया भर के मजदूरों में एक नया जोश भर गया, शासक बनने का जोश।

 इसके बाद कई देशों के पूँजीपतियों ने मिलकर फ्रांस के इस इकलौते मजदूर राज को खून की नदी में डुबो दिया। हाथ के घट्ठे देख-देख कर मजदूरों की पहचान करके उनका कत्लेआम किया। इस क्रूर दमन के पीछे शोषक वर्ग की यह भी मंसा थी कि दुनिया भर का मजदूर वर्ग इस कत्लेआम से डर जाएगा और भविष्य में कभी भी कहीं भी राजसत्ता पर कब्जा करने की कोशिश नहीं करेगा।

  पेरिस के मजदूर नेता ईमानदार और बड़ा कानूनवादी बनने के कारण बैंकों का अधिग्रहण नहीं किये, थोड़े परिवर्तनों के साथ वही जेल, वही अदालत, वही सेना, वही पुलिस बने रहने दिया। थोड़े बुनियादी परिवर्तनों के साथ वही कानून भी रह गये थे। अनुभव की कमी के कारण किसानों को अपने साथ नहीं ले पाये थे। ऐसी ही कई गलतियों के कारण वे कमजोर हुए।

 मगर मजदूर वर्ग पेरिस कम्यून की गलतियों से सीख लेकर पहले से अधिक जागरूक हो गया और अक्टूबर सन् 1917 आते-आते रूस में पूँजीपतिवर्ग का तख्तापलट कर दिया। एक करोड़ बयालिस लाख सैनिकों वाली विशाल फौज भी जारशाही हुकूमत की रक्षा नहीं कर पायी। पेरिस कम्यून की गलतियों से सबक लेते हुए इस बार मजदूरों ने समझ लिया था कि पूँजीपतिवर्ग की बनी बनाई राज मशीनरी से वे अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते, इसलिए इस बार मजदूरों ने अपनी सेना, अपनी जनमिलीशिया, अपनी जेल, अपनी जनअदालत बना कर शोषक वर्ग की राज मशीनरी को परास्त कर दिया फलस्वरूप जहाँ फ्रांस में पेरिस कम्यून का शासन सिर्फ 72 दिन चला था वहीं रूस में मजदूरों का राज 72 साल तक चला।

 रूस की महान अक्टूबर क्रान्ति के बाद तो दुनिया भर का शोषक वर्ग बहुत ही डर गया। यहाँ तक कि शोषक वर्ग की सेना और पुलिस, उनके जासूस एवं गुण्डे कम्यूनिस्ट क्रान्तिकारियों को खोज-खोज कर, चुन-चुन कर मौत के घाट उतारने लगे। लाखों कम्यूनिस्टों की हत्या किया। कई देशों के पूँजीपति मिलकर अपनी सेना के बल पर रूस में मजदूर वर्ग की सत्ता का खात्मा करने पर तुल गये। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तो कई पूँजीवादी देश मिलकर हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के नेतृत्व में रूस पर हमला कर दिया। मगर रूस के लड़ाकू मजदूरों, किसानों ने हिटलर, मुसोलिनी और तोजो की विशाल सेना को ध्वस्त कर दिया। जो लोग रूस के मजदूर राज को खत्म करने चले थे, वे खुद खत्म हो गये। इसी दौरान चीन समेत आधा दर्जन देशों पर मजदूरों-किसानों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया। 

 द्वितीय विश्व युद्ध के बाद क्यूबा, वियतनाम, उत्तर कोरिया के मजदूरों किसानों ने लम्बे संघर्ष में अमेरिकी साम्राज्यवाद को परास्त करके अपना राज कायम किया।

  हमारे देश के कुछ धूर्त और शोषक वर्ग के जातिवादी, सम्प्रदायवादी एजेंट कहते हैं कि "भारत में जातियाँ हैं यहाँ क्रान्ति नहीं हो सकती। मगर इन धूर्त, गद्दार धोखेबाजों की आँख के सामने 2006 में हमारे पड़ोसी देश नेपाल में जातियों के रहते ही वहाँ की जनता ने राजशाही को बलपूर्वक उखाड़ फेंका।

रूस में मजदूर राज के पतन के बावजूद आज भी लगभग एक दर्जन देशों में मजदूरों किसानों का राज चल रहा है। भारत का शोषक वर्ग मजदूरों किसानों की ताकत से डर रहा है। इसीलिए वह भारत की जनता को जाति धर्म के नाम पर आपस में लड़ाकर कमजोर कर रहा है। साथ ही साथ पांच किलो राशन, आरक्षण का टुकड़ा, वजीफा,... आदि मामूली रियायतों की लालच देकर भारत के मजदूरों किसानों का दिमाग भिखारियों/मुफ्तखोरों जैसा बनाया जा रहा है। अधिकांश किसानों, मजदूरों, दस्तकारों की मानसिकता इतनी गिरा दी गई है कि पाव भर चीनी, आटा के लिये कई किलोमीटर लम्बी लाइन लगा सकते हैं। भिखारियों की तरह धक्के खा सकते हैं मगर लड़ कर अपना हक नहीं छीन सकते।

  जातिवाद और साम्प्रदायिकता फैलाकर इनको इतना कमजोर, काहिल और कायर बना दिया गया है कि इन्हें आज भी खुद पर भरोसा नहीं है कि वे ही देश को चलाते हैं। और वे अपनी सरकार भी बना सकते हैं, इस बात पर उन्हें यकीन भी नहीं हो पा रहा है। कुछ तो इतने पिछड़ी सोच वाले हैं कि उनकी बिरादरी के मुख्मयमंत्री बन जाए तो उसे अपनी राजसत्ता समझ लेते हैं।

  देश चलाने को लेकर लोगों में बहुत भ्रम है। जातिवादी और साम्प्रदायवादी धूर्तों के बँहकावे में आकर हमारे देश के अधिकांश मजदूर किसान सोचते हैं कि सरकार चलाना हम मजूरों-किसानों के वश की बात नहीं है। वे सोचते हैं कि बड़े-बड़े पोस्टर छाप नेता और बड़े-बड़े नवाब, राजे-रजवाड़े, मठाधीश और बड़े पूँजीपति ही देश चला सकते हैं। 

 जब कि सच्चाई यह है कि बड़े-बड़े पोस्टरछाप नेता, बड़े-बड़े नवाब, राजे-रजवाड़े, मठाधीश और बड़े पूँजीपति देश नहीं सिर्फ अपनी सरकार चला रहे हैं। वे सरकार बनाकर जेल, अदालत, सेना, पुलिस की बन्दूकों के बल पर मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी, जुआखोरी,... को बढ़ावा देकर देश की जनता को लूट कर खुद मालामाल हो रहे हैं। अत: ये शोषक वर्ग के लोग तो सिर्फ सरकार चला रहे हैं, देश तो कोई और ही चला रहा है।

  किसी शायर ने बहुत सटीक लिखा है-

जिनके हाथों में लकीरें नहीं छाले होंगे।
वतन की डोर वही  लोग  सँभाले होंगे।।

  पेरिस कम्यून से लेकर अब तक हुई क्रान्ति यों से भयभीत होकर भारत का शोषकवर्ग पहले से कहीं अधिक सजग हो कर बहुत आक्रामक तरीके से जातिवाद और साम्प्रदायिकता फैला रहा है। मगर भूख का सवाल तो जाति, धर्म के सवाल से भी ऊपर होता है। भूख का सवाल तो पाँच किलो राशन से खत्म होने वाला नहीं है। इतिहास ने यह साबित किया है कि अमेरिका जैसे धनी देश में पूँजीवादी साम्राज्यवादियों की राजसत्ता में करोड़ों लोग भूखे सोते हैं जब कि वहीं क्यूबा, उत्तरकोरिया जैसे छोटे-छोटे देशों में जब इंकलाब के बाद मजदूरों की राजसत्ता आयी तब से आज तक एक भी आदमी भूखा नहीं सोया। भारत के शोषक वर्ग की मीडिया चीन के बारे में भले ही बहुत झूठ बोलती है, मगर विशाल आबादी वाले चीन में भी भूख की समस्या नहीं रह गयी है। अत: सिर्फ इंकलाब ही भूख की समस्या का समाधान दे सकता है। पेरिस कम्यून अमर रहे।
                                    रजनीश भारती
                               जनवादी किसान सभा


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