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Saturday, 31 December 2022
नये साल की शुभकामनाएँ! - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
नये साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की मेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
नए साल की शुभकामनाएँ - कविता
ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये व्यवहार नहीं
धरा ठिठुरती है सर्दी से
आकाश में कोहरा गहरा है
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा है
सूना है प्रकृति का आँगन
कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं
हर कोई है घर में दुबका हुआ
नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं
चंद मास अभी इंतज़ार करो
निज मन में तनिक विचार करो
नये साल नया कुछ हो तो सही
क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही
उल्लास मंद है जन -मन का
आयी है अभी बहार नहीं
ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
ये धुंध कुहासा छंटने दो
रातों का राज्य सिमटने दो
प्रकृति का रूप निखरने दो
फागुन का रंग बिखरने दो
प्रकृति दुल्हन का रूप धार
जब स्नेह – सुधा बरसायेगी
शस्य – श्यामला धरती माता
घर -घर खुशहाली लायेगी
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि
नव वर्ष मनाया जायेगा
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर
जय गान सुनाया जायेगा
युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध
आर्यों की कीर्ति सदा -सदा
नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
अनमोल विरासत के धनिकों को
चाहिये कोई उधार नहीं
ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
रामधारी सिंह "दिनकर"
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खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को
नए साल की शुभकामनाएं !
जाँते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएँ !
इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएँ !
वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएँ !
*सर्वेश्वर दयाल सक्सेना*
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तुझमें नयापन क्या है ?
ऐ नए साल बता, तुझमें नयापन क्या है
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है
रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही
आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं
एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं
अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे
जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी
तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा
अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा
तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई
बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें
तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की
'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की
- फ़ैज़ लुधियानवी
ख़ल्क़ = मानवता, हिंदसे = संख्या, जिद्दत = नया-पन, अगले = पिछले/गुज़रे हुए, क़रीने = क्रम, दहर = दुनिया, मीआद = मियाद/अवधि, बे-सबब = बे-वजह, ग़ालिबन = शायद, आमद = आना, ढब = तरीक़ा
Wednesday, 28 December 2022
Jenny Marx to Friedrich Engels, London
//Jenny Marx, writes a precious letter to comrade and dearest friend Friedrich Engels on a Christmas//
[Jenny Marx to Friedrich Engels, London, Monday 1 o'clock 24 December 1866]
My dear Mr Engels,
The hamper has just arrived, and the bottles have been put on parade, with the Rhenish to the fore! How can we thank you for all your friendship! The 10 which arrived on Saturday will avert the harshest storms of Christmas tide and enable us to celebrate a Merry Christmas. The wine was particularly welcome this year, as with the young Frenchman [Paul Lafargue] in the house we like to keep up appearances.
If the publisher in Hamburg' really can print the book [Capital] as fast as he says, it is certain to come out by Easter in any case. It is a pleasure to see the manuscript lying there copied out and stacked up so high. It is an enormous weight off my mind; we have enough troubles and worries left without that, especially when the girls fall in love and become and to Frenchmen and medical students to boot! I wish I could see everything couleur de rose as much as the others do, but the long years with their many anxieties have made me nervous, and the future often looks black to me when it all looks rosy to a more cheerful spirit. Cela entre nous.
Once more, a thousand thanks for the hock and all its train!
Yours Jenny Marx
// जेनी मार्क्स, एक क्रिसमस पर कॉमरेड और सबसे प्रिय मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स को एक अनमोल पत्र लिखते हैं//
[ जेनी मार्क्स से फ्रेडरिक एंगेल्स, लंदन, सोमवार 1 बजे 24 दिसंबर 18666]
मेरे प्रिय श्री एंगेल्स,
हैम्पर अभी आया है, और बोतलों को परेड पर रखा गया है, सामने के लिए रेनिश के साथ! हम आपकी सारी दोस्ती के लिए आपको कैसे धन्यवाद दे सकते हैं! शनिवार को आने वाले 10 क्रिसमस ज्वार के सबसे कठिन तूफानों को टालेगा और हमें एक मैरी क्रिसमस मनाने में सक्षम करेगा। इस साल शराब का विशेष रूप से स्वागत किया गया था, क्योंकि युवा फ्रेंचमैन [पॉल लाफरग] के साथ घर में हम उपस्थिति रखना चाहते हैं।
यदि हैम्बर्ग में प्रकाशक वास्तव में पुस्तक में [कैपिटल] को जितनी तेजी से छाप सकता है, तो किसी भी मामले में ईस्टर तक बाहर आना निश्चित है। यह देखकर खुशी होती है कि वहां पड़ी पांडुलिपि को कॉपी करके इतना ऊपर ढेर कर दिया गया। यह मेरे दिमाग से एक बहुत बड़ा बोझ है; हमारे पास इसके बिना पर्याप्त परेशानी और चिंताएं हैं, खासकर जब लड़कियां प्यार में पड़ जाती हैं और सगाई हो जाती हैं, और फ्रांसीसी और मेडिकल छात्रों को बूट करने के लिए! मेरी इच्छा है कि मैं हर चीज को देख सकता जितना कि दूसरों की तरह, लेकिन उनकी कई चिंताओं के साथ लंबे वर्षों ने मुझे परेशान कर दिया है, और भविष्य अक्सर मुझे काला दिखता है जब यह सब अधिक हंसमुख भावना के लिए गुलाबी दिखता है। Cela entre nous.
एक बार फिर, हॉक और उसकी सभी ट्रेन के लिए हजार धन्यवाद !
आप का जेनी मार्क्स
Sunday, 25 December 2022
कैथोलिक ईसाई
आपने सिर्फ कैथोलिक ईसाई और प्रोटेस्टेंट ईसाई का ही नाम सुना होगा? लेकिन ईसाई भी इसी तरह कई विचारों में विभक्त है जैसे रोमन कैथेलिक, प्रोटेस्टेंट, लैटिन कैथोलिक, सीरियाई कैथोलिक, मर्थोमा, पेंटेकोस्ट, साल्वेशन आर्मी, एडवेंटिस्ट चर्च इत्यादि। इन सबकी आपस में कोई न कोई धार्मिक वैचारिक असहमति है।
यह अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात हुई इसी तरह भारतीय ईसाईयों में इससे कई गुना अधिक वैरायटी मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह केवल सैद्धांतिक असहमति मिलेगी जबकि भारतीय परिपेक्ष्य में इसमें जातिवाद, छुआछूत, असमानता और कई कारक जुड़ जाते हैं। इसीलिए भारत में हिन्दू ही नहीं बल्कि मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी में जातिवाद, छुआछूत के गुण विधमान है।
इसे आपको बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले "रंगनाथ मिश्र आयोग" की रिपोर्ट को समझना पड़ेगा। उसमें दलित मुस्लिम और दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण की सिफारिश की गई है। यदि वहां जातिवाद न होता तो यह तर्क कहाँ से आता? और यदि रिजर्वेशन की बात अमल में आती तो उसमें किसे शामिल किया जाता? यहां यह जरूर याद रखें कि इसमें गरीबी की बात नहीं हो रही है।
बहरहाल! जैसा कि मैंने कहा था कि क्रिसमस के उपलक्ष्य पर आपके समक्ष इसपर लेख लिखूंगा तो इसमें सबसे जरूरी तथ्य होता है संदर्भ। इसलिए "भंवर में दलित ईसाई" किताब का संदर्भ देकर ही बाक़ी बातें करूँगा। इसके लेखक आर एल फ्रांसिस "पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट" के संस्थापक अध्यक्ष हैं। जो ईसाई समाज के निर्धन, वंचित लोगों के लिए कार्य करते हैं।
उनके अनुसार खुद कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस 9ऑफ इंडिया ने 1981 में एक प्रस्ताव पारित कर कहा था कि ईसाइयत में जातिप्रथा का कोई स्थान नहीं है। यह प्रथा मनुष्यों को विभाजित करने वाली भेदभाव कारक है। फादर अंटोनी राज के अध्ययन ने भी यही सिद्ध किया तमाम बाइबलीय प्रतिबंधों, वेटिकन के आदेशों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जातिवाद, छुआछूत अपराध माना जाय।
बावजूद इसके धर्मांतरित ईसाइयों को पग, पग पर चर्च के अंदर अपमान सहना पड़ा। चर्च संसाधनों पर मुट्ठीभर उच्च जातियों से आये कर्लजी वर्ग का एकाधिकार बना हुआ है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कैथोलिक चर्च के पास 168 बिशप हैं ( ईसाई समाज में सर्वाधिक ताकतवर पद) इनमें केवल 4 बिशप ही दलित समुदाय से हैं। जबकि ईसाई में सबसे अधिक जनसंख्या दलित, आदिवासी समुदाय की है।
इसी प्रकार 13 हजार डायसेशन प्रिस्ट, चौदह हजार रिलिजियस प्रिस्ट, पांच हजार बर्दज और एक लाख से अधिक नन हैं। जिनमें से महज़ कुछ सौ ही दलित पादरी हैं जो चर्च ढांचे के हाशिये में पड़े हैं। दिल्ली कैथोलिक आर्चडायसिस के एकमात्र दलित ईसाई पादरी , फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने अपनी आत्मकथा "एन अनवांटेड प्रिस्ट" में वह दलित पादरियों की व्यथा पेश कर चुके हैं।
हाँ यह जरूर है कि भारतीय ईसाइयों के पास शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत बड़ा साम्राज्य है। अकेले कैथोलिक चर्च के पास 480 कॉलेज, 63 मेडिकल और नर्सिंग कॉलेज, 9500 सेकंडरी स्कूल, 4000 हाईस्कूल, 14000 प्राइमरी स्कूल, 7500 नर्सरी स्कूल, 500 ट्रेनिंग स्कूल, 900 टेक्निकल स्कूल, 2600 प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट, 6 इंजीनियरिंग कॉलेज, 3000 हॉस्टल और 1000 से ऊपर अस्पताल, डिस्पेंसरी है।
यदि इसमें प्रोटेस्टेंट को भी मिला दिया जाय तो यह 50 हजार पार होंगे। अब मुख्य सवाल यह है कि इनमें दलित ईसाइयों की हिस्सेदारी कितनी है? कितने अध्यापक, डॉक्टर, प्रोफेसर, डीन इत्यादि हैं? चर्च और इसके साम्राज्यवादी लोग यह तक नहीं बताते कि आखिर उनमें दलित, आदिवासी बच्चों की भागीदारी कितनी है? राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कैथोलिक चर्च द्वारा संचालित सेंट थॉमस स्कूल में 1500 बच्चे पढ़ते हैं लेकिन इसमें दलित ईसाइयों की कोई भागीदारी ही नहीं है
देश के शिक्षण संस्थानों पर ईसाई समुदाय का 22 प्रतिशत एकाधिकार है बावजूद 40 प्रतिशत ग्रामीणों में तथा 15 प्रतिशत शहरों में ईसाई बच्चे निरक्षर है। चर्च द्वारा संचालित कॉन्वेंट स्कूलों में दलित, आदिवासी, गरीब बच्चों को दाखिला नहीं मिलता है। क्या यह भेदभाव नहीं? कुछ समय पूर्व चर्च ऑफ नार्थ इंडिया ( सीएनआई) द्वारा संचालित दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में दलित ईसाई बच्चों के लिए सीटें निर्धारण करने का निर्णय लिया। जिसमें 30 प्रतिशत कोटा देने का स्वागत हुआ और दो वर्ष के भीतर इस निर्णय को रदद् किया गया।
भले ही हो सकता है कि चर्च के लोग कोटा का इंकार इस तर्क से कर दें कि हम जाति के आधार पर कोटा फिक्स नहीं कर सकते लेकिन आप यकीन कीजिए यदि रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट लागू हो जाती तो यही ईसाई, मुस्लिम वर्ग बताते कि हमारे यहां कितने दलित, आदिवासी विधमान हैं, जिन्हें सरकार शामिल करे। आज से नहीं बल्कि जब से ईसाई और इस्लाम का भारत में आगमन हुआ, तब से लेकर अबतक का डाटा सामने प्रस्तुत करते। बाक़ी मैं यहां महिलाओं के शोषण, अत्याचार पर तो बात ही क्या करूँ। ननों की व्यथा के लिए असँख्य आत्मकथाएं बाजार में उपलब्ध है।
यह तो विडंबना यह भी है कि इन गहराइयों को सरकार और हिन्दू बहुसंख्यक नहीं समझ पाते और विरोध पर उतर जाते हैं अन्यथा अल्पसंख्यकों को भी अपने धर्म, समाज में वंचित को हिस्सेदारी, भागीदारी और जिम्मेदारी देनी पड़ती तथा बाहर से दिखावे की ओढ़ी गई चादर छीन जाती। जातिवाद की जड़ें भारत के सभी धर्मों में विधमान है और धर्म का प्रतिनिधित्व वर्चस्ववादी लोगों के हाथ में है जो सरकार, समाज के बीच धर्म व विचार से नहीं, साधन और संसाधनों तथा लाभ एवं हानि के दृष्टिकोण से सामंजस्य बनाते हैं। #आर_पी_विशाल।
सांताक्लाज की वापसी के लिए
25 दिसंबर, क्रिसमस के अवसर पर, पढ़ें 'नागरिक अखबार' के पूर्व संपादक कॉ. नगेंद्र की कविता:
*_सांताक्लाज की वापसी के लिए_*
मेरे बच्चों
आज बड़ा दिन है
सुना है
हर साल इसी की रात
सांताक्लाज नाम का एक भला बूढ़ा
आता है दुखियों की मदद के वास्ते
उनके बच्चों को बहुत से तोहफे
और खुशियां बख्शने...
सारी कायनात की
सांताक्लाज के स्वागत में
सज रहे हैं
बहुत सारे गिरजाघर, महल, होटल और स्कूल भी
लेकिन हमारी बस्ती में उसके आने की कोई खबर ही नहीं
स्कूल के मास्साब को भी उसके आगमन की कोई सूचना नहीं
सुना है अरसा बीत चुका है
सांताक्लाज को हमारी बस्ती से गुजरे
इस बार भी बहुत व्यस्त कार्यक्रम है उसका
अंग्रेजीदां सुकुमारों और सुकन्याओं के वास्ते
वह रख जाएगा तोहफे
क्रिसमस वृक्ष की शाखा पर
गरीब बच्चों के मोजों में
तोहफे छुपाने की उसे फुर्सत कहाँ
सुना है, इस बार उसे खरीद लिया है अपनी बेटी के वास्ते
सौरव गांगुली ने,
बच्चों, तुमने क्रिसमस वृक्ष देखा है?
हां शायद ए. बी. सी. डी वाली किताब में
फ़ॉर... वाले स्थान पर छपा हुआ
बहुत खूबसूरत पेड़ होता है वह
वह आम-अमरूद की तरह आंगन में नहीं उगता
न ही महुआ-बरगद की तरह खेत-जंगल में
बड़े होटलों, महलों और गिरजे की दीवारों के भीतर ही वह उगता है
बिल्कुल विलायती नस्ल के कुत्तों की मानिंद
मेरे बच्चे
कड़ाके की सर्दी में इस बार तुम
सांताक्लाज की राह मत देखना
अब उसे रात के अंधियारे में
गरीब की बस्तियों का चक्कर लगाने का
ख्याल ही नहीं आता
वह तो सुकुमारों-सुकन्याओं के साथ
नाचता गाता रहता है हफ़्तों तक कार्निवाल में
तनिक भी फुर्सत नहीं है उसके पास
सुना है अब होटलों और क्लबों में
कुलीनता व भव्यता के जलवों के बीच
भांडों और अर्द्धवासनाओं के साथ
पॉप और डिस्को की महफिलें सजाता है सांताक्लाज
श्वेत जटाजूट की तनिक भी परवाह किए बगैर
मेरे बच्चों
मत करना विश्वास उनकी बातों पर
जो कहते हैं सांताक्लाज आता है बच्चों के लिए
तोहफे लेकर
वह हमारी बस्ती से नहीं गुजरेगा
लेकिन मेरे प्यारे बच्चों
तुम उदास मत होना
एक राज की बात सुनो
होटलों, महलों और तालीम की दुकानों में
भद्रलोक के सुकुमारों-सुकन्याओं
को रिझाने वाला
पॉप डिस्को थीक पर थिरकने वाला
यह सांताक्लाज नहीं है
यह तो सांताक्लाज के वेश में
कोई बहरूपिया है
मेरे बच्चों
सुना है
सात समुद्र पार
डिजनीलैंड नाम के एक तिलिस्मी किले में
एक बहुत बड़े शैतान ने
जिसकी जान एक ईगल में बसती है
कर रखा है कैद तुम्हारे असली सांताक्लाज को
और उसके साथ उन सब परियों को भी
जो बच्चों को स्वर्ग की सैर कराती थीं
इसलिए मेरे बच्चों
हमें धावा बोलना ही होगा
सात समुद्र पार उस तिलिस्मी किले पर
तोड़ना होगा उस शैतान का तिलिस्म
ईगल की गर्दन मरोड़कर
और आज़ाद कराना ही होगा
अपने प्यारे सांताक्लाज और सपनों की परियों को
इसलिए मेरे प्यारे बच्चों
अब हमें सांताक्लाज की राह ताकना छोड़कर।
सांताक्लाज तक पहुंचने की राह ढूंढनी होगी
बहुत जल्द
कहीं तुम्हारी सपनीली दुनिया की परियां बूढ़ी न हो जाएं।
क्रिसमस की रात और चार्ली चैपलिन की बात
---
चार्ली ने अपनी नृत्यांगना बेटी को एक मशहूर खत लिखा। कहा- मैं सत्ता के खिलाफ विदूषक रहा, तुम भी गरीबी जानो, मुफलिसी का कारण ढूंढो, इंसान बनो, इंसानों को समझो, जीवन में इंसानियत के लिए कुछ कर जाओ, खिलौने बनना मुझे पसंद नहीं बेटी। मैं सबको हंसा कर रोया हूं, तुम बस हंसते रहना। बूढ़े पिता ने प्रिय बेटी को और भी बहुत कुछ ऐसा लिखा।
मेरी प्यारी बेटी,
रात का समय है। क्रिसमस की रात। मेरे इस छोटे से घर की सभी निहत्थी लड़ाइयां सो चुकी हैं। तुम्हारे भाई-बहन भी नीद की गोद में हैं। तुम्हारी मां भी सो चुकी है। मैं अधजगा हूं, कमरे में धीमी सी रौशनी है। तुम मुझसे कितनी दूर हो पर यकीन मानो तुम्हारा चेहरा यदि किसी दिन मेरी आंखों के सामने न रहे, उस दिन मैं चाहूंगा कि मैं अंधा हो जाऊं। तुम्हारी फोटो वहां उस मेज पर है और यहां मेरे दिल में भी, पर तुम कहां हो? वहां सपने जैसे भव्य शहर पेरिस में! चैम्प्स एलिसस के शानदार मंच पर नृत्य कर रही हो। इस रात के सन्नाटे में मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुन सकता हूं। शरद ऋतु के आकाश में टिमटिमाते तारों की चमक मैं तुम्हारी आंखों में देख सकता हूं। ऐसा लावण्य और इतना सुन्दर नृत्य। सितारा बनो और चमकती रहो। परन्तु यदि दर्शकों का उत्साह और उनकी प्रशंसा तुम्हें मदहोश करती है या उनसे उपहार में मिले फूलों की सुगंध तुम्हारे सिर चढ़ती है तो चुपके से एक कोने में बैठकर मेरा खत पढ़ते हुए अपने दिल की आवाज सुनना।
...मैं तुम्हारा पिता, जिरलडाइन! मैं चार्ली, चार्ली चेपलिन! क्या तुम जानती हो जब तुम नन्ही बच्ची थी तो रात-रातभर मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हें स्लीपिंग ब्यूटी की कहानी सुनाया करता था। मैं तुम्हारे सपनों का साक्षी हूं। मैंने तुम्हारा भविष्य देखा है, मंच पर नाचती एक लड़की मानो आसमान में उड़ती परी। लोगों की करतल ध्वनि के बीच उनकी प्रशंसा के ये शब्द सुने हैं, इस लड़की को देखो! वह एक बूढ़े विदूषक की बेटी है, याद है उसका नाम चार्ली था।
...हां! मैं चार्ली हूं! बूढ़ा विदूषक! अब तुम्हारी बारी है! मैं फटी पेंट में नाचा करता था और मेरी राजकुमारी! तुम रेशम की खूबसूरत ड्रेस में नाचती हो। ये नृत्य और ये शाबाशी तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाने के लिए सक्षम है। उड़ो और उड़ो, पर ध्यान रखना कि तुम्हारे पांव सदा धरती पर टिके रहें। तुम्हें लोगों की जिन्दगी को करीब से देखना चाहिए। गलियों-बाजारों में नाच दिखाते नर्तकों को देखो जो कड़कड़ाती सर्दी और भूख से तड़प रहे हैं। मैं भी उन जैसा था, जिरल्डाइन! उन जादुई रातों में जब मैं तुम्हें लोरी गा-गाकर सुलाया करता था और तुम नीद में डूब जाती थी, उस वक्त मैं जागता रहता था। मैं तुम्हारे चेहरे को निहारता, तुम्हारे हृदय की धड़कनों को सुनता और सोचता, चार्ली! क्या यह बच्ची तुम्हें कभी जान सकेगी? तुम मुझे नहीं जानती, जिरल्डाइन! मैंने तुम्हें अनगिनत कहानियां सुनाई हैं पर, उसकी कहानी कभी नहीं सुनाई। वह कहानी भी रोचक है। यह उस भूखे विदूषक की कहानी है, जो लन्दन की गंदी बस्तियों में नाच-गाकर अपनी रोजी कमाता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं पेट की भूख किसे कहते हैं! मैं जानता हूं कि सिर पर छत न होने का क्या दंश होता है। मैंने देखा है, मदद के लिए उछाले गये सिक्कों से उसके आत्म सम्मान को छलनी होते हुए पर फिर भी मैं जिंदा हूं, इसीलिए फिलहाल इस बात को यही छोड़ते हैं।
...तुम्हारे बारे में ही बात करना उचित होगा जिरल्डाइन! तुम्हारे नाम के बाद मेरा नाम आता है चेपलिन! इस नाम के साथ मैने चालीस वर्षों से भी अधिक समय तक लोगों का मनोरंजन किया पर हंसने से अधिक मैं रोया हूं। जिस दुनिया में तुम रहती हो वहां नाच-गाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधी रात के बाद जब तुम थियेटर से बाहर आओगी तो तुम अपने समृद्ध और सम्पन्न चाहने वालों को तो भूल सकती हो, पर जिस टैक्सी में बैठकर तुम अपने घर तक आओ, उस टैक्सी ड्राइवर से यह पूछना मत भूलना कि उसकी पत्नी कैसी है? यदि वह उम्मीद से है तो क्या अजन्मे बच्चे के नन्हे कपड़ों के लिए उसके पास पैसे हैं? उसकी जेब में कुछ पैसे डालना न भूलना। मैंने तुम्हारे खर्च के लिए पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं, सोच समझकर खर्च करना।
...कभी कभार बसों में जाना, सब-वे से गुजरना, कभी पैदल चलकर शहर में घूमना। लोगों को ध्यान से देखना, विधवाओं और अनाथों को दया-दृष्टि से देखना। कम से कम दिन में एक बार खुद से यह अवश्य कहना कि, मैं भी उन जैसी हूं। हां! तुम उनमें से ही एक हो बेटी!
...कला किसी कलाकार को पंख देने से पहले उसके पांवों को लहुलुहान जरूर करती है। यदि किसी दिन तुम्हें लगने लगे कि तुम अपने दर्शकों से बड़ी हो तो उसी दिन मंच छोड़कर भाग जाना, टैक्सी पकड़ना और पेरिस के किसी भी कोने में चली जाना। मैं जानता हूं कि वहां तुम्हें अपने जैसी कितनी नृत्यागनाएं मिलेंगी। तुमसे भी अधिक सुन्दर और प्रतिभावान फर्क सिर्फ इतना है कि उनके पास थियेटर की चकाचौंध और चमकीली रोशनी नहीं है। उनकी सर्चलाईट चन्द्रमा है! अगर तुम्हें लगे कि इनमें से कोई तुमसे अच्छा नृत्य करती है तो तुम नृत्य छोड़ देना। हमेशा कोई न कोई बेहतर होता है, इसे स्वीकार करना। आगे बढ़ते रहना और निरंतर सीखते रहना ही तो कला है।
...मैं मर जाउंगा, तुम जीवित रहोगी। मैं चाहता हूं तुम्हें कभी गरीबी का एहसास न हो। इस खत के साथ मैं तुम्हें चेकबुक भी भेज रहा हूं ताकि तुम अपनी मर्जी से खर्च कर सको। पर दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना कि तुम्हारे हाथ में पकड़ा तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है, यह उस अज्ञात व्यक्ति का है जिसे इसकी बेहद जरूरत है। ऐसे इंसान को तुम आसानी से ढूंढ सकती हो, बस पहचानने के लिए एक नजर की जरूरत है। मैं पैसे की इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि मैं इस राक्षस की ताकत को जानता हूं।
...हो सकता है किसी रोज कोई राजकुमार तुम्हारा दीवाना हो जाए। अपने खूबसूरत दिल का सौदा सिर्फ बाहरी चमक-दमक पर न कर बैठना। याद रखना कि सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है जो सबके लिए चमकता है। हां! जब ऐसा समय आये कि तुम किसी से प्यार करने लगो तो उसे अपने पूरे दिल से प्यार करना। मैंने तुम्हारी मां को इस विषय में तुम्हें लिखने को कहा था। वह प्यार के सम्बन्ध में मुझसे अधिक जानती है।
...मैं जानता हूं कि तुम्हारा काम कठिन है। तुम्हारा बदन रेशमी कपड़ों से ढका है पर कला खुलने के बाद ही सामने आती है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। हो सकता है मेरे शब्द तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ें पर मेरे विचार में तुम्हारे अनावृत शरीर का अधिकारी वही हो सकता है जो तुम्हारी अनावृत आत्मा की सच्चाई का सम्मान करने का सामर्थ्य रखता हो।
...मैं ये भी जानता हूं कि एक पिता और उसकी सन्तान के बीच सदैव अंतहीन तनाव बना रहता है पर विश्वास करना मुझे अत्यधिक आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं। मैं सचमुच चाहता हूं कि इस क्रिसमस की रात कोई करिश्मा हो ताकि जो मैं कहना चाहता हूं वह सब तुम अच्छी तरह समझ जाओ।
...चार्ली अब बूढ़ा हो चुका है, जिरल्डाइन! देर सबेर मातम के काले कपड़ों में तुम्हें मेरी कब्र पर आना ही पड़ेगा। मैं तुम्हें विचलित नहीं करना चाहता पर समय-समय पर खुद को आईने में देखना उसमें तुम्हें मेरा ही अक्स नजर आयेगा। तुम्हारी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित है। जब मेरी धमनियों में बहने वाला रक्त जम जाएगा तब तुम्हारी धमनियों में बहने वाला रक्त तुम्हें मेरी याद कराएगा। याद रखना, तुम्हारा पिता कोई फरिश्ता नहीं, कोई जीनियस नहीं, वह तो जिन्दगी भर एक इंसान बनने की ही कोशिश करता रहा। तुम भी यही कोशिश करना।
ढेर सारे प्यार के साथ
चार्ली क्रिसमस 1965
Chandrashekhar Joshi fb wall se
Saturday, 24 December 2022
जे.एन.यू. की फीसवृद्धि विरोधी आन्दोलन का मतलब, महत्व (निजीकरण) ---------------------------------------
जे.एन.यू. की फीसवृद्धि विरोधी आन्दोलन का मतलब, महत्व
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मंथन अंक : 24 आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें
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लेखक : जनार्दन सिंह। ( बलिया ) फरवरी 2020
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जे.एन.यू. में फीसवृद्धि के खिलाफ चला छात्र आन्दोलन वर्तमान दौर की असामान्य परिघटना है। इसे हम असामान्य परिघटना इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि जाति-धर्म की राजनीति के एवं आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी, अश्लील पूंजीवादी उपभोक्ता संस्कृति के वर्तमान दौर में फीस वृद्धि के खिलाफ, महंगाई, बेकारी, खेती-किसानी के संकट जैसे सवालों पर आन्दोलन होना असम्भव सा हो गया है। ऐसे में जे.एन.यू आन्दोलन स्वागत योग्य है और उसे करने वाले छात्र युवा बधाई के पात्र है। क्योंकि वर्गीय आधार पर खड़े होकर न केवल फीसवृद्धि के खिलाफ, बल्कि शिक्षा व शिक्षण संस्थानों के निजीकरण, बाजारीकरण के खिलाफ भी उन्होंने संघर्ष को जोड़ दिया। प्रश्न है कि फीसवृद्धि-विरोधी आन्दोलन और वह भी जे.एन.यू. से ही क्यों शुरू हुआ? क्योंकि एक तो देश के काने-कोने से आकर यहाँ पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र साधारण परिवारों से होते हैं। फीसवृद्धि उन्हें उच्च शिक्षा से वंचित कर देती। अतः वे संघर्ष में कूद पड़े। दूसरे, देशी, खासकर विदेशी साम्राजी पूंजीपति वर्ग व उनकी राजसत्ता द्वारा (1991 में) लागू की गयी नई आर्थिक नीति के तहत सरकारी उद्योगों व सेवा क्षेत्रों का, और उसमें भी खासकर शिक्षा, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों का निजीकरण करके उसे निजी मुनाफे पर चलाया जाने लगा है। यही नहीं, तीसरे, जे.एन.यू. बी.एच.यू. जाधवपुर यूनिवर्सिटी जैसे सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) आमंत्रित किया जाने लगा है। मतलब यह कि निजी शिक्षण संस्थानों की तरह जे.एन.यू. जैसे संस्थान भी देशी-विदेशी पूंजीपतियों के नियंत्रण में उनके लाभ के लिए चलायें जायेंगे। भारी फीस वृद्धि के साथ उद्योग व बाजार की मांग के अनुसार नये कोर्स पढ़ाये जायेंगे। पढा़ने के लिए विशेषज्ञ शिक्षक तैयार किए जायेंगे और साम्राज्यी देशों से भी शिक्षकों का आयात किया जायेगा। इन सभी का परिणाम यह होगा कि साधारण परिवारों के छात्र यहाँ नहीं पढ़ पायेंगे, केवल अमीर व सम्भ्रान्त छात्र यहाँ आयेंगे। उच्च शिक्षा से वंचित होने पर गरीब छात्र हंगामा न करें, इसके लिए ऑनलाईन डिग्री कोर्स का कार्यक्रम भी बनाया जा रहा है।
निजीकरण, उदारीकरण व विश्वीकरणवादी आर्थिक नीति के तहत फिलहाल जे.एन.यू. जैसे 20 उच्च शिक्षण संस्थानों को विश्वस्तरीय अर्थात वैश्विक (ग्लोबल) बनाने की योजना पर काम चल रहा है। ऐसी योजना द्वारा प्रचारित दावा तो यह है कि सरकार भारत को ज्ञान व कौशल की महाशक्ति बनाना चाहती है। लेकिन हकीकत क्या है- ज्ञान की महाशक्ति बनाना या मुनाफा कमाने की योजना?! उदाहरण देखें- एक अखबार के अनुसार 2013 के बाद सरकारी कालेजों- बी.टेक की फीस कई गुना बढ़ा दी गई। फिर 2019 में एम.टेक की फीस में 900 प्रतिशत की वृद्धि की गई।
अगले सत्र में बी.टेक, एम.टेक की फीस 2 लाख रुपया सालाना की गई है। निजी उच्च शिक्षण संस्थानों की फीस
बढ़ोत्तरी की तो कोई सीमा ही नहीं है। इसी के लिए उच्च सरकारी शिक्षण संस्थानों का भी निजीकरण किया जा रहा है।
अब दूसरी बात, अधिकाधिक फीस को चुकता करने के लिए स्टूडेंट लोन की योजना आई। यह कहा गया कि प्लेसमेंट
के द्वारा ऋण का चुकता हो जायेगा। फलतः अमीर छात्रों के साथ-साथ कर्ज लेकर पढ़ने वाले अधिकांश गरीब छात्र भी.
स्टूडेंट लोन, व प्लेसमेंट के झांसे में आ गये हैं फिर भी जे.एन.यू. आन्दोलन देश के कई हिस्सों में फैल गया, वह भी तब, जब 1991 के बाद सरकारों द्वारा छात्रों को संघर्ष, प्रतिरोध से अलग करने के लिए छात्रसंघ को भंग कर दिया गया. सेमेस्टर प्रणाली लागू की गई ताकि छात्रों को अपने शोषण उत्पीडन व अन्य सामाजिक गतिविधियों के बारे में सोचने व लड़ने का समय ही न मिले। अपने सहित समाज के अन्य हिस्सों की वर्गीय समस्याओं को छात्र न उठावें, या उठे सवालों पर भागीदारी न करें।
कृपया ध्यान दें! निजीकरण द्वारा उच्च शिक्षण संस्थाओं को विश्वस्तरीय (ग्लोबल) बनाकर उसे कौशन व ज्ञान की महाशक्ति बनाना सरकार का लक्ष्य नहीं है। यद्यपि उसका कहना है कि ऐसे संस्थान यहाँ खुलने से भारतीय छात्र विदेशों में न जाकर जब यहीं पढ़ेंगे तथा विदेशी छात्र भी यहाँ पढ़ेंगे तो राष्ट्रधन की बचत होगी, आय बढ़ेगी। साथ ही यहाँ से शिक्षित भारतीय छात्रों को विदेशों में कर्मियों के रूप में निर्यात करके विदेशी मुद्रा भी कमाई जा सकेगी। इन तर्कों से सरकार खुद को राष्ट्रवादी बताती है। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे उच्च शिक्षण संस्थान इसलिए ग्लोबल बनाये जा रहे हैं, जहां से देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए सस्ते व कुशल डाक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन व श्रमिक प्राप्त किए जा सकें और शिक्षण संस्थानों को भी मुनाफे के लिए चलाया जा सके। कुल मतलब यह है कि हर काम देशी विदेशी पूंजीपतियों के हितार्थ ही किये जा रहे है। एक तरफ तो यह हो रहा है और दूसरी तरफ सरकारों द्वारा नई आर्थिक नीति लागू करवाने वाले देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग यह अच्छी तरह जानते हैं कि उससे महंगाई, बेकारी, आत्महत्यायें बढ़ती जायेंगी। फलतः इसका आम जनता द्वारा भयंकर विरोध होगा। अतः उन्होंने जाति, धर्म की राजनीति को एवं आत्मकेन्द्रित स्वार्थी उपभोक्ता संस्कृति को अभूतपूर्व ढंग से लागू कर दिया। नतीजन न केवल आम जनता, बल्कि उससे कहीं अधिक छात्र-युवा आपस में बंटे हुए हैं तथा मोबाइल, टी.वी. कम्प्यूटर पर आने वाली अश्लील फूहड व उकसाने वाली बातों में फंसे हुए हैं। लेकिन महंगी होती शिक्षा व घटते रोजगार की पराकाष्ठा ने उन्हें सड़कों पर आने के लिए बाध्य कर दिया। शिक्षा के संदर्भ में यहीं पर एक बात कहते चलें निजीकरण, बाजारीकरण के पहले यह माना जाता था कि राष्ट्र के निर्माण व विकास के लिए इंसान का स्वस्थ होना जरूरी है। आप जानते हैं कि शिक्षा से स्वस्थ व विकसित मस्तिष्क का निर्माण होता है और चिकित्सा से शरीर स्वस्थ बनता है, अर्थात् स्वस्थ दिमाग के लिए शिक्षा व स्वस्थ शरीर के लिए चिकित्सा आवश्यक है। 1947 के बाद सस्ती व मुफ्त शिक्षा व चिकित्सा से ही निर्मित मेहनतकशों ने राष्ट्र के निर्माण व विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया। हालांकि उनके योगदान का ज्यादा लाभ देशी-विदेशी पूंजीपति ही उठाये। पर अब आधुनिक विज्ञान व तकनीक के विकास के एक स्तर के बाद पूंजीपतियों को कर्मियों की पहले जैसी व जितनी जरूरत नहीं है। अतः वे सस्ती व मुफ्त शिक्षा व चिकित्सा की प्रणाली का खात्मा करके उसे भी मुनाफे का साधन बना रहे हैं। वे चाहते हैं कि पढ़ाई व दवाई को जरूरतमंद पैसे से खरीदें और ऐसी शिक्षा ग्रहण करें जो उनके मुनाफे की प्रणाली व पूंजीवादी राजकाज में खलल न डालें। जबकि शिक्षा का अर्थ ही अलग है। केवल शब्दों, सूत्रों का ज्ञान प्राप्त करना मात्र साक्षर होना है। लेकिन ऐसा साक्षर या पढ़ा-लिखा व्यक्ति जो अपने साथ-साथ पूरे समाज के हित में सोचता व लड़ता है, वही सही मायने में शिक्षित कहलाने का हकदार है। वैसे भी एक उच्च शिक्षित व सुसभ्य सुसंस्कृत व्यक्ति को पैदा करने में भारी राष्ट्रीय संसाधन व्यय होता है जो मेहनतकशों द्वारा पैदा किया होता है। अतः शिक्षित व्यक्ति का यह दायित्व होता है कि वह आम समाज की बेहतरी में उसकी मुक्ति में योगदान दे। अब आगे.......
जे.एन.यू. आन्दोलन पर सरकार व अधिकांश मीडिया यह तर्क देते हैं कि जब अन्य शिक्षण संस्थानों में भारी फीस लगती है तो यहाँ मुफ्तखोरी क्यों हो कहते हैं कि यहाँ के छात्र जनता के टैक्सों के पैसों पर मौज उड़ाते हैं। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, सांसद, विधायक और नौकरशाहों पर उनका ध्यान क्यों नहीं जाता। देशी-विदेशी पूंजीपतियों को आये दिन मिलने वाली छूटे व सहूलियतें और उनके कर्ज को बट्टेखाते (एन.पी.ए.) में डालना उन्हें क्यों नहीं दिखता? क्या यह जनता का पैसा नहीं है? दूसरी बात यह कि जे.एन.यू. के छात्रों के माता-पिता एवं स्वयं छात्र भी क्या टैक्स नहीं देते और फिर पढ़कर निकलने के बाद यहाँ के छात्र राष्ट्र निर्माण में कोई योगदान नहीं देते?! देते हैं और ऐसा देते हैं जिसकी तुलना फीस बढ़ाने--घटाने से नहीं हो सकती। कम से कम पूंजीवादी व्यवस्था को तो जे.एन.यू. जैसी यूनिवर्सिटियों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने बहुत सारे अफसर, नेता, विद्वान, अर्थशास्त्री उन्हें दिए हैं। दरअसल समस्या दूसरी जगह है। वह यह कि जे.एन.यू. जैसे संस्थानों में व्यवस्था समर्थक के अलावा ऐसे भी छात्र पैदा होते हैं जो सत्ता- सरकार विरोधी आवाज उठाते रहे हैं। जैसे, कभी कांग्रेस सरकार के विरुद्ध अब भाजपा सरकार के विरुद्ध उनके द्वारा सत्ता-सरकार विरोधी आवाज उठाने से ही भाजपा सरकार को उनसे चिढ़ है। इसीलिए वह उन्हें देशद्रोही, अर्बन नक्सली, टुकड़े-टुकड़े गैंग कहकर प्रचारित करती है और उनका दमन करती है। मतलब यह कि भाजपा सरकार पिछली सरकारों से भी बढ़कर नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव को निर्लज्ज व हिंसक तरीके से लागू करके देशी-विदेशी पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों की लूट में उनका खुलेआम मदद करना चाहती है। बडी मजेदार बात यह है कि कांग्रेस जब नई आर्थिक नीति लागू कर रही थी तो अन्य के साथ भाजपा दो हाथ आगे बढ़कर उसका विरोध कर रही थी। उसे देश व समाज को विदेशियों की गुलामी में डालने वाला सुधार कहती थी। और आज उन्हीं आर्थिक सुधारों का विरोध करने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों पर वह हमले करती है। पहले उनपर दुष्प्रचार के बाण चलाये गये और अब पुलिस व नकाबपोश गुण्डों द्वारा शारीरिक हमला करवाया जा रहा है।
बहरहाल फीसवृद्धि विरोधी छात्र आन्दोलन शुरूआती दौर में सरकार विरोधी था परन्तु विपक्षी पार्टियों व खासकर वामपंथी दलों के प्रभावों में आकर यह आन्दोलन भटक गया और नागरिकता कानून विरोधी, सम्प्रदायवादी बन गया, तब उस छात्र आन्दोलन में भी फूट पड़ गयी। छात्र हिन्दूवादी धर्मवादी और मुस्लिमवादी धर्मनिरपेक्षतावाद के दो घड़ों में बंट गये। आन्दोलन भटककर टूट व बिखर गया। कारण, छात्र यह नहीं समझते कि जिन आर्थिक वर्गों के हितोंनुसार आर्थिक सुधार लागू हो रहे हैं। जिसके तहत फीसवृद्धियां व कापी किताब के मूल्यों दामों में वृद्धियां आदि हो रही हैं उन्हीं वर्गों के आर्थिक हितों की सुरक्षा में ही जातिवाद, धर्मवाद, लिंगवाद आदि के भेदभावों का इस्तेमाल करके राजनीतियां करने वाले राजनीतिक दल खड़े हैं जो आर्थिक वर्गों के राजनीतिक नुमाइन्दे हैं। लिहाजा, छात्रों को समाज व राजनीति की गहरी जानकारी होनी चाहिए और यह जानकारी केवल मार्क्सवादी ज्ञान व व्यवहार सीखने जानने से ही होगी। न कि मार्क्सवादी से संशोधनवादी व सुधारवादी बने वामपंथी दलों का पिछलग्गू बनने से क्योंकि आप छात्र नेता जहां से राजनीति सीख रहे हैं वे उसी पूंजीवाद साम्राज्यवाद के वाम पाये है जिसके दक्षिण पाये भाजपा आदि दल हैं।
लेखक: जनार्दन सिंह ( बलिया )
जनवरी फरवरी 2020, मंथन, अंक-24
Friday, 23 December 2022
वर्तमान (2019) की आर्थिक मन्दी के कारण क्या है? इसके लिए जिम्मेवार कौन ? सरकारी पैकेज किनके संकटों के समाधान ?
वर्तमान (2019) की आर्थिक मन्दी के कारण क्या है? इसके लिए जिम्मेवार कौन ? सरकारी पैकेज किनके संकटों के समाधान ?
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मंथन अंक: 23 आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें
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लेखक : ओमप्रकाश सिंह ( आजमगढ़ ) नवंबर 2019
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पिछले कई महीने से लगातार भारतीय अर्थव्यवस्था में मन्दी के जैसे आर्थिक संकट की खबरें आती रही है। हालांकि शुरू में सरकार ने मन्दी के जैसे संकटों से इन्कार कर दिया परन्तु न केवल सरकार को मन्दी जैसे आर्थिक संकट कबूलना पड़ा बल्कि संकटग्रस्त क्षेत्रों को बाहर निकालने हेतु सुधारों व समाधानों रूपी सहायतायें भी देना पड़ा। तब स्वाभाविक सवाल खड़ा होगा कि क्या वास्तव में अर्थव्यवस्था में मन्दी के संकट है? अथवा यह केवल आर्थिक संकटों का हो-हल्ला मचाकर पूंजीपतियों द्वारा सरकार से छूटे, सहायतायें लेने का बहाना है? सच्चाई क्या है? सच्चाई जानने से पहले सरकार विरोधी दलों को सुने- कांग्रेस पार्टी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में आई मन्दी के लिए सरकार की गलत नीतियां जैसे, नोटबंदी व जी.एस.टी. आदि लागू करने को प्रमुख दोषी माना है, इसे स्वीकार करते हुए प्रमुख वामपंथी दलों ने मजदूरों किसानों की खरीदने की गिरती क्षमता के चलते मालों-सामानों की मांग की कमी को वर्तमान आर्थिक मंदी का प्रमुख कारण बतलाया है। इसलिए हमारे सामने यह भी प्रमुख सवाल खड़ा होता है कि क्या वर्तमान आर्थिक मंदी के लिए भाजपा सरकार की नीतियां दोषी है? भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट क्या कांग्रेस के विभिन्न कालों में नहीं आये थे? आये तो थे बार-बार आये थे, उन्हें आप जानते भी हैं, लेकिन याद नहीं करना चाहते क्यों? क्योंकि तब पूरी अर्थव्यवस्था पर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर ही सवाल खड़े करने पड़ जायेंगे जो आप वामपंथी पूंजीवादी सज्जन चाहते नहीं है। उससे बचना चाहते हैं। इसलिए कभी मनमोहन सिंह की नीतियों को, तो आज भाजपा की नीतियों को दोष देकर पूंजीवादी व्यवस्था को उसके भीतर के संकटों के जिम्मेवार कारकों व कारणों को छिपाना चाहते हैं। इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे पहले संकटों को और उसके समाधान के सरकारी प्रयास को देखे-
सर्वप्रथम सबसे ज्यादा चर्चा में आये संकटग्रस्त आटोमोबाइल क्षेत्र को देखा जाय तो इन वाहन कम्पनियों के शीर्ष संगठन सियाम के तरफ से बताया गया कि सभी तरह के वाहनों की विक्री में सितम्बर तक 23.5 प्रतिशत की कमी आयी। जबकि जुलाई में वाहनों की बिक्री में 18.7 प्रतिशत की कमी थी। घरेलू बाजार में पैसेंजर वाहनों की बिक्री 41 प्रतिशत से ज्यादा घटी है यह लगातार पिछले 10 महीने से कम हो रही है। कामर्शियल वाहनों की विक्री में भी कमी आयी है, जिसमें ट्रैक्टर की विक्री में 20 प्रतिशत की कमी बतायी जा रही है। सबसे बड़ी वाहन कम्पनियां मारूति सुजकी में 24 प्रतिशत, दूसरी बड़ी कम्पनी हुंडई की घरेलू विक्री में 15 प्रतिशत तथा महेन्द्रा एण्ड महेन्द्रा में 21 प्रतिशत एवं टाटा मोटर्स की विक्री में 48 प्रतिशत तक गिरावट हुई तथा निर्यात बाजार में 41 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी। मतलब, कामर्शियल, पैसेंजर दो पहिया, तीन पहिया सभी तरह के वाहनों की दिग्गज बड़ी कम्पनियों में उत्पादन की भारी वृद्धि के बावजूद विक्री में गिरावट दर्ज की गयी है। फ्रंट लाइन पत्रिका ने सितम्बर 13, 2019 के अंक में आटो मोबाइल उत्पादन का आंकड़ा प्रकाशित किया है जिसे देखने से पता चलता है कि निर्मित पैसेंजर वाहनों की इस समय संख्या 40 लाख है, कमर्शियल वाहनों की संख्या 11 लाख, तीन पहिया वाहनों की संख्या 13 लाख, दो पहिया वाहनों की संख्या 2 करोड़ 45 लाख है। पिछले सालों की तुलना में हर साल वाहनों के उत्पादन में उतरोत्तर वृद्धि होती रही है। उत्पादन ज्यादा और विक्री कम होने के कारण औद्योगिक इकाईयों में बंदी करनी पड़ी। इस गिरावट को देखते हुए आटो मोबाइल क्षेत्र की टाटा मोटर्स, महेन्द्रा एण्ड महेन्द्रा मारूति सुजकी योटा, अशोका लेलैण्ड और हीरो मोटो कार्य आदि ने जुलाई-अगस्त में कुछ दिनों की बंदी कर दी थी। इन्हीं के साथ-साथ पार्टपुर्जा बनाने वाली बोध, जमाना आटो बाबको जैसी कम्पनियों में भी 10-20 दिनों तक बंदी रही।
दूसरा रियल स्टेट क्षेत्र में मन्दी है। अखबारी सूचना के अनुसार इस वक्त देश के 30 बड़े शहरों में 12.76 लाख फ्लैट्स (मकान बनकर बिकने के लिए तैयार हैं। ये साधारण मकान नहीं है, बड़े-बड़े शहरों में बने ऊँचे-ऊँचे 25/30 मंजिला मकान है। जिनके एक-एक पलेट की कीमत 30 लाख से लेकर 2-3 करोड़ रुपये है। जिन्हें खरीदने की आम आदमी की औकात नहीं है। तब ये किसके लिए बनाये गये हैं? चार पहिया वाहनों एवं फ्लैट्स के मूल्य इतने ज्यादा है कि शहरों में रहने वाला मध्यम व उच्च वर्ग के लोग इसके बाजार (खरीददार) है। जिनकी आमदनियाँ वेतन 60-80 हजार महावारी से ऊपर लाखों-करोड़ों की है, सो भी कर्जे लिए बगैर उनकी भी खरीदने की क्षमता नहीं होती। लिहाजा कर्जे उधार देने वाली टाटा मोर्ट्स फाइनेंस लि.. बजाज फाइनेंस आदि दिग्गज गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ, उधार व कर्जे देकर ग्राहकों को खरीद-बिक्री के लिए उकसाती व प्रोत्साहित करती है। विक्री के अवसर पैदा करती है। बताया जा रहा है कि कर्जे-उधार देने वाली दिग्गज गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां भी दिवालिया होने की कगार पर हैं। इसलिए उन्होंने कर्जे उधार देना बन्द कर दिया। जबकि यही कम्पनिया 60-70 प्रतिशत कर्ज फाइनेंस करती है। इनमें पूजी की कमी इसलिए आई क्योंकि बैंक और म्यूचुअल फण्ड जो गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों एवं मैक्रो फाइनेंसर को कर्जे देते रहे हैं वो खुद पूंजी की तरलता की कमी के कारण इन्हें उधार व कर्जे देना बन्द कर दिये।
जुलाई-अगस्त में सकल घरेलू उत्पादन के गिरने, कारखानों के बंद होने, मजदूरों में बढ़ती बेकारी आदि संकटों को दिखा बताकर पूंजीपति वर्ग व उसके प्रचार माध्यमी अर्थशास्त्री व राजनीतिज्ञ एवं विद्वानों ने हल्ला प्रचार शुरू किया तो संकटों के समाधान हेतु सरकार को तुरन्त आगे आना पड़ा।
वित्तमंत्री ने 23 अगस्त 2019 को मंदी दूर करने हेतु (1) 70 हजार करोड़ रुपये सरकारी खजाने से पूंजी की कमी दूर करने के लिए बैंकों को पैकेज देने की घोषणा की साथ ही (ii) विदेशी पोर्टफोलियो निवेश पर लगा सरचार्ज हटा लिया तथा (ii) मार्च 2020 तक डीजल पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों की विक्री को उनके लाइफ टाइम तक रजिस्ट्रेशन करने व वैध बने रहने की छूट दे दी (पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त करने के नाम पर इन पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये थे)। 15 सितम्बर को सरकार ने (iv) अधूरे फ्लैट्स को शीघ्र पूरा करने के लिए 20 हजार करोड़ का नया फण्ड बनाने की घोषणा की। सरकार ने बताया कि इस कदम से 3.5 लाख फ्लैट खरीददारों को राहत मिलेगी। (v) निर्यात बढ़ाने के लिए और हाउसिंग सेक्टर के लिए 70 हजार करोड़ रुपये का पैकेज भी दिया। इसके अलावा सरकार जनवरी 2020 से दुबई फेस्टिवल (मेला) की तर्ज पर देश में 4 बड़े शापिंग फेस्टिवल आयोजित करेगी। (vi) निर्यात पर टैक्स व चुंगी दरें कम करने की घोषणा के साथ ही नियतोन्मुख उत्पादों को जी.एस.टी. समेत तमाम करों से छूटें देंगी। ये छूटें विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के अधीन दी गयी है। इस योजना के तहत 50 हजार करोड़ रुपये का राजस्व घाटा बढ़ेगा। (vii) पुनः सरकार ने 21 सितम्बर को कार्पोरेट टैक्स की दर 30% से घटाकर 22% कर दी। जबकि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश करने पर नई कम्पनियों को 25% से घटाकर 15% की दर से ही कारपोरेट टैक्स देना पड़ेगा। इन छूटों से सरकारी खजाने पर 1 लाख 45 हजार करोड़ का बोझा पड़ेगा।
देखा न आपने सरकारी खजाने से बैंकों को 70000 करोड़ रुपये + बड़े-बड़े शहरों में बनी ऊँची अट्टालिकाओं के अधूरे फ्लैट्स को 20000 करोड़ रुपये + निर्यात एवं रियलस्टेट क्षेत्र को 70000 करोड़ रुपये + निर्यातोन्मुख मालों सामानों को कर टैक्स में छूटों से सरकारी राजस्व की 50000 करोड़ रुपये की कमी +145000 करोड़ रुपये राजस्व घाटा कारपोरेट टैक्स की छूटों से होगा। यानी सरकार ने अपने खजाने से रियल स्टेट एवं निर्यात कारोबार में लगे पूंजीपतियों एवं बड़े व्यापारियों समेत बैंकों को 1 लाख 60 हजार करोड़ रुपये सहायतार्थ देकर सरकारी खर्चा (बजट व्यय) बढ़ा लिया है तथा लगभग 2 लाख करोड़ रुपये पूंजीपतियों एवं निर्यातक व्यापारियों को टैक्सों में छूट देकर सरकार ने अपनी आमदनी कम करके राजस्व घाटा बढ़ा लिया है। इस तरह से सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को 3 लाख 55 हजार करोड़ रुपये का पैकेज देकर आर्थिक संकटों का बोझा स्वयं उठाया है। सो भी, मंदी जैसे आर्थिक संकटों से इंकार करते हुए बिना हल्ला हंगामा मचाये।
इसपर 2-3 बातें ध्यान देने लायक है। पहली टैक्सों करों में छूटों के ये सुधार नये नहीं हैं। ये उदारीकरणवादी सुधारों की श्रृंखलाएं हैं जिसे 1991 में कांग्रेस पार्टी ने लागू किया था जिसे सत्ता सरकार में आये सभी दलों ने नीतिगत रूप से आगे बढ़ाया है। इसमें आश्चर्यजनक बस इतना ही है कि इन नीतिगत सुधारों पर संसद में थोड़ा-बहुत विरोध हल्ला-हंगामा होकर लागू होता रहा, लेकिन इस साल बजट पेश होते समय तो पूंजीपतियों पर 5 प्रतिशत कारपोरेट टैक्स व कैपिटल गेन टैक्स बढ़ाया गया था तब इसे गरीबों का बजट कहा गया था परन्तु महीना- डेढ़ महीना बाद ही पूंजीपतियों द्वारा मंदी का हंगामा करते ही सरकार झुक गयी और बड़े हुए टैक्स वापस ले ली एवं कारपोरेट टैक्स घटा दिया सो भी मात्र वित्तमंत्री के फरमान से बिन संसद व जनप्रतिनियों की चिंता परवाह किये। जिस जनता ने अभी-अभी चुनकर अपने जनप्रतिनिधियों को संसद में भेजा है उसके साथ यह छल-कपट और धोखा है। यह जनतंत्र का नहीं, सत्ता सरकार पर देशी-विदेशी पूंजीपतियों के बढ़ते दबदबे व प्रभुत्व का द्योतक है। दूसरी बात, कारपोरेट टैक्सों में दी गयी छूटों से साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों समेत भारतीय कम्पनियों व उनके मालिकान पूंजीपति वर्ग की लाभ दरें बढ़ गयी हैं जिससे उन्हें करोड़ों-अरबों का फायदा हुआ है। उन्हें यह फायदा केवल तात्कालिक नहीं है।
स्थाई रूप से दिया गया है। जिसके परिणाम स्वरूप सरकार ने स्थाई रूप से अपनी सालाना आमदनी का स्रोत घटा लिया है। तीसरी बात, उपरोक्त गिनाये गये भारी-भरकम पैकजों से सरकार का बजटीय घाटा और राजकोषीय घाटा ज्यादा बढ़ जायेगा। जिसे पूरा करने हेतु सरकार कर्ज ज्यादा लेगी। जिससे मुद्रास्फीति फैलेगी। परिणामतः थोक व फुटकर मंहगाई बढ़ेगी जैसेकि बढ़ी भी है। चौथी बात, मंदी दूर करने के नाम पर वित्तमंत्री ने जो धन व छूटे व पैकेज पूंजीपतियों को दिया है वह धन कोई मंत्री व नेता ने अपने पाकेट से नहीं दिया है और न ही किसी त्यागी, योगी के त्याग व योग से जुटाया धन है बल्कि वह धन सरकारी खजाने का है जो जनसाधारण मेहनतकश वर्गों के खून-पसीना से पैदा किया हुआ एवं करों-टैक्सों के रूप में निचोड़ा धन है। इसलिए सरकार को इस तरह बेखौफ होकर पूंजीपतियों को छूटे देने का कोई नैतिक व जनतांत्रिक अधिकार नहीं है। यदि किसी सज्जन का यह तर्क हो कि इसमें पूंजीपतियों ने भी राष्ट्रीय योगदान दिया होता है तो उसे यह भी जानना समझना चाहिए कि पूंजीपतियों ने जो योगदान दिया होता है उससे दसियों, बीसियों गुना ज्यादा छूटे व सहायताएं पहले ही लेते रहे हैं। यह जनतांत्रिक तो तब होता जब इन छूटों द सुधारों से महगाई, बेकारी जैसे जनसाधारण के संकट घटाये जाते और अब अंतिम बात, 2008-09 में अमरीका में आये वित्त-संकटों से वैश्विक बनते वित्त-संकटों में भारत ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को तथा संकटग्रस्त कम्पनियों को राहत पैकेज दिये थे। उनके बकाये टैक्स कर माफ कर दिये थे और बैंकों के कर्जे बट्टे खाते में डाल दिये थे। उनके संकटों का बोझा भारतीय सरकार ने वैसे ही उठाया था जैसे कि अमरीका, इंग्लैण्ड की सरकारें उठा रही थीं। परन्तु आज या पहले भी जब कभी भारत पर संकट आते हैं हालांकि इन संकटों के लिए प्रमुखतः अमरीका, इंग्लैण्ड ही जिम्मेवार है तो भी हमारे संकटों में वे सहयोगी भागीदार नहीं बनते। यह वैसा ही दस्तूर है जैसाकि वर्गीय समाजों में पहले भी था। यदि किसी राजा या जमींदार के घर कोई संकट व दुःख पड़ जाये तो मातमी दुख में रियाया तो शामिल होती है। परन्तु वैसा ही दुख रियाया पर पड़े तो राजा व जमींदार पर जूं तक नहीं रेंगता वही पुराना दस्तूर वर्तमान जनतांत्रिक कहलाने वाले युग में भी लागू है। अलबत्ता भारत जैसे गरीब व पिछड़े देशों में मंदी या संकट आने पर पुरानी व पिछड़ी तकनीक को मंदी का कारण बताकर साम्राज्यवादी देश अमरीका आदि नई विज्ञान व तकनीकी प्रबंधकीय ज्ञान, मशीने, कलपुर्जे, बौद्धिक कुशलताएं आदि इन देशों में बेच लेते हैं, साथ ही निजीकरण के नाम पर सरकारी प्रतिष्ठानों व सम्पतियों को खरीद लेते हैं। जैसाकि आटोक्षेत्र में नये तकनीकी वाले इलेक्ट्रिक व सी. एन. जी. वाहनों के लिए वे दबाव डाल रहे हैं और टाटा जैसे कई पूंजीपति नई तकनीक आधारित वाहन बनाने भी लगे हैं। क्या इन सुधारों से और संकटों के समाधान के इन सरकारी प्रयासों से अब अर्थव्यवस्था में संकट कभी नहीं आयेंगे? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। संकट कुछ समय के लिए टाले जा सकते हैं! क्यो? इस सवाल का जवाब संकटों के कारणों को जाने बगैर सम्भव नहीं है। लिहाजा अब भारतीय अर्थव्यवस्था में आये मंदी नामक संकटों के कारणों पर चर्चा की जाय। सबसे पहले बैंकों में पूंजी की (तरलता) कमी के क्या कारण है? हम अपनी तरफ से बाद में बतायेंगे पहले, मौद्रिक व वित्तीय नीति नियंत्रणकर्ता रिजर्व बैंक को सुनें।
हिन्दी अखबार "आज" तथा "दि हिन्दू" अंग्रेजी दैनिक ने 30 अगस्त 2019 को भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि (1) आई.एल. एण्ड एफ.एस. कम्पनी के दिवालिया होने के बाद गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों से वाणिज्यिक क्षेत्र को ऋण प्रवाह में 20 प्रतिशत की गिरावट आयी है। (2) इस साल 71 हजार करोड़ रुपये के बैंक घोटाले हुए हैं। (3) रिजर्व बैंक को अपने विदेशी विनिमय रिजर्व फण्ड से विदेशी मुद्रा डालर को खुली बाजार में बेचना पड़ा है। रिजर्व बैंक 1991 के आर्थिक संकटों के बाद से रिजर्व फण्ड में जो डालर रखता आया है उसे वह 53 रुपया खरीद मूल्य की जगह आज 72 रुपये में बेंचकर लाभ कमाना बताया है। रिपोर्ट में उसने यह भी बताया कि जब अमरीकी फेडरल रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक नीति में बदलाव करके व्याजदर बढ़ाया तो रुपये का मूल्य बाजार में लुढ़कने लगा इसे गिरने से बचाने के लिए डालर को खुली बाजार में बेचना पड़ा। इसे बेचकर भारतीय रिजर्व बैंक ने 28998 करोड़ रुपये का लाभ कमाया (4) पूंजी की तरलता बढ़ाने के उपाय के रूप में उसने पिछले साल 19 लाख करोड़ के मुकाबले इस साल चलन में मुद्रा की मात्रा बढ़ाकर 21 लाख 68 हजार करोड़ रुपये कर दिया है। (5) भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने रिजर्व फण्ड से तथा लाभांश आदि से 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये सरकार को दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक की इस रिपोर्ट से निचोड़ निकाला जाय तो इसका साफ अर्थ है कि रिजर्व बैंक खुद मौद्रिक व वित्तीय संकटों की स्वीकार करता है। दूसरे, खुद इन संकटों से बाहर निकलने के मौद्रिक व वित्तीय उपाय भी किया है।
पिछले साल 7 फरवरी 2018 को रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समीक्षा को अखबारों ने छापा था कि ब्याज दरों में स्थिरता बनी रहेगी, ब्याज दरें घटाई नहीं जायेंगी। हालांकि पंजाब नेशनल बैंक और स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया ने ब्याज दरें बढ़ाई हुई थीं। उसी समय यह भी खबर थी कि जनवरी 2018 तक 2.02 लाख करोड़ रुपये के बैंकों ने कर्ज बांटे थे जबकि बैंकों के पास जमाराशि के तौर पर मात्र 1.27 लाख करोड़ रुपये ही आये थे। तब ही आर्थिक जानकारों ने पूंजी तरलता की स्थिति को बेहतर बनाने के सुझाव रिर्जव बैंक को दिये थे। परन्तु जब ऋण की मांग कम हो गयी तब बैंकों ने ब्याज दरें घटाई है। रिजर्व बैंक ने फरवरी 2019 के बाद कई बार ब्याज दरें घटाने के मौद्रिक उपाय किया है ताकि कर्ज की मांग बढ़ सके। इसके लिए अब सरकार की मदद से ऋण मेले का आयोजन भी किया जा रहा है।
उपरोक्त ख़बरों के अनुसार अगर संक्षेप में कहा जाय तो आटोक्षेत्र, चार पहिया वाहनों मोटर साइकलों आदि की तथा रियल स्टेट क्षेत्र में बने बहुमंजिला मकानों आदि की बिक्री में कमी का कारण कर्जे उधार देने वाले गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों एवं बैंकों में आज भी पूंजी की तरलता की कमी बताया जा रहा है। तब स्वाभाविक सवाल खड़ा होता है कि आखिर पूंजी की तरलता की कमी क्यों हुई। बैंकों में पूंजी अभाव के कारण क्या हैं? ये कारण गहरे रूप से भारत की अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं पर कैसे? इसपर चर्चा करने से पहले हम पाठकों को याद दिला दें कि 'मंथन' अंक 13 में "विमुद्रीकरण (नोटबंदी) क्यों? इससे किसको नुकसान और किसको फायदा?" (2016) नामक लेख में इस लेखक ने विमुद्रीकरण के प्रभाव को बताते हुए यह बताया है कि सरकार ने जनसाधारण को उनके अपने कमाये धन् (नोटों) को बैंक में जमा कराकर जनसाधारण को उसके धन के इस्तेमाल व उपभोग पर अंकुश लगाकर तथा टैक्सों की धन उगाही बढ़ाकर उसे धन विहीन बना दिया है। याद रखें यही जनसाधारण जो पूंजीवाद की उपभोक्ता बाजार भी है। अगर इसकी खरीद क्षमता नहीं बढ़ी तो पुर्नउत्पादन बढ़ाने के बावजूद खरीद-बिक्री की क्रिया रुक जायेगी और जिस मंदी से उबरने की आशा में नोटबंदी करके निवेशकों, खरीददारों को पुनः कर्जा देकर उद्योगों व रियल स्टेट को चालू करने की योजना है वह ध्वस्त हो जायेगी। पुनः अर्थव्यवस्था में संकट आ जायेंगे।"
जैसाकि 2/3 साल बाद ही आर्थिक मंदी के संकट आ भी गये। जिसे पूंजी अभाव के कारण आया संकट बताया जा रहा है। यह संकट भारतीय अर्थव्यवस्था में कैसे व क्यों आया इसके एक कारण पर ऊपर चर्चा की गयी है। अब दूसरे अन्य कारण देखें- (i) बैंक जमा- जिसमें बैंकपतियों के धन के अलावा जनसाधारण मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों, दुकानदारों छोटे व्यापारियों व दीगर मध्यमवर्गों ने अपनी जरूरतें काट कर भविष्य की सुरक्षा के लिए धन जमा किया होता है। बैंक इस जमाधन को उधार व कर्जे बांटकर सूद कमाते हैं। बैंकों के पास यह जमा धन कर्जे बांटने की तुलना में कम आया है।
जैसाकि फरवरी 2018 की सूचना ऊपर दी गयी है।
(ii) भारत जैसे देश साम्राज्यवादी देशों अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि से पूंजी व पूंजीगत माल- मशीने विज्ञान व तकनीकी आदि ऊंची ब्याजदरों पर और मंहगे मूल्यों पर आयात करते हैं, बदले में अपने देश के निर्मित सिले सिलाये कपड़े, जूते, चमड़े के सामान, चाय, चीनी, चावल, मिर्च-मत्ताले, खाद्य व पेय पदार्थ, दूध आदि को सस्ते में उन्हें निर्यात करते हैं। लिहाजा हर साल उत्तरोत्तर निर्यात बढ़ने के बावजूद बढ़े हुए आयात मूल्य हमेशा चढ़े रहते हैं जिससे व्यापार घाटा होता है जैसे इसी साल व्यापार घाटा बढ़कर 186 अरब डालर हो गया है। बढ़ते व्यापार घाटा व कर्ज आदि की विदेशी देनदारी बढ़ने से तथा आयात के मूल्य चुकाने हेतु डालर की मांग बढ़ने लगती है। जिससे डालर का मूल्य रुपये के मुकाबले चढ़ने लगता है। जैसाकि पाठक जानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय खरीद-बिक्री भारतीय मुद्रा रुपये में नहीं होती. पहले ब्रिटिश पौण्ड में होती थी परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि की बरबादी के बाद अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रभुत्व पूरी दुनिया पर बढ़ता गया। लिहाजा, मालों व पूंजियों के विश्वव्यापार में अमरीकी डालर की भूमिका प्रभुत्वकारी बन गई। अब 1966 से भारत का विदेशी व्यापार डालर में होता है। दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर अपना आर्थिक नियंत्रण प्रभुत्व बनाये रखने के लिए अमरीका का केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व अपनी मुद्रा व पूंजी का मूल्य घटाता बढ़ाता रहता है। इसलिए अमरीकी बैंक ने डालर का मूल्य बढ़ाया तो रुपये का मूल्य लुढ़कने लग गया। 2015 में एक डालर का मूल्य 62 रुपया के मुकाबले अब सितम्बर 2018 तक 72 रुपये तक गिर गया। यानी रुपये का लगभग 16 प्रतिशत तक अवमूल्यन हो गया। जिसके परिणामस्वरूप रिजर्व बैंक को रुपये का मूल्य स्थिर रखने हेतु तथा घरेलू बाजार में डालर की बढ़ती मांग को पूरा करने हेतु अपने (रिजर्व) संरक्षित धन को बाजार में बेचना पड़ा। मतलब, माल की तरह मुद्रा (डालर) का मूल्य भी मांग बढ़ने घटने पर बढ़ता-घटता है और यह सब इसके असल भण्डारी अमरीका जी महराज के हाथ में है जिसके इशारे पर भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाएं कठपुतली की तरह नाचती हैं। यह भारत की परबसता व नवउपनिवेशिक गुलामी का सबूत है। उदाहरणार्थ-
जैसे, मान लें 2015 के बाद रुपये का 16 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ। अब भारत के लिए 100 रुपये का अमरीकी माल सामान 116 रुपये का मिलेगा यानी उतनी ही मुद्रा में कम माल का आयात होगा और अगर माल उतना ही आयात होता है तो मूल्य ज्यादा चुकाना पड़ेगा तथा अमरीका को भारत से जाने वाला माल सामान 100 रुपये की जगह अब 116 रुपये का माल सामान निर्यात करना पड़ेगा यानी नालों का निर्यात ज्यादा होने के बावजूद भारत को मूल्य कम मिलेगा। मतलब, आयात के लिए 16 प्रतिशत ज्यादा मूल्य चुकाने और उसके बदले निर्यात होने वाले मालों सामानों का मूल्य 16 प्रतिशत कम पाने के चलते भारत को 100 रुपये के आयात निर्यात में अमरीका ने 32 रु. मुफ्त में लूट लिया और भारत को घाटा हुआ। एक तो इससे व्यापार घाटा बढ़ता है, दूसरे पहले से लिए गये कर्जे की देनदारी भी 16 प्रतिशत फूलकर ज्यादा हो जायेगी। परिणामतः विदेशी देनदारी बढ़ने के कारण भी भारत में पूंजी का अभाव हो जाता है। जैसाकि हुआ भी शायद पाठकों को याद होगा कि 1981 के 10 साल बाद 1991 में डालर के मुकाबले रुपये का 22 प्रतिशत अवमूल्यन होने पर कितना हाय तौबा मचा था। सत्ता सरकार में बैठे भाजपाई व गैर कांग्रेसी दल सड़क पर विरोध करते दिखते थे परन्तु आज महज पांच साल में 20 प्रतिशत रुपये का अवमूल्यन होने पर भी कोई चू-चप्पड़ नहीं हुआ होगा भी कैसे? कई एक वामपंथी भी भारत को अब साम्राज्यवादी देश मानते हैं और सत्ता में बैठे दल अमरीका को साम्राज्यवादी नहीं 1 भारत का मित्र मानकर दिनरात प्रेमराम की धुनें अलापते हैं। खैर पाप का पेट छिपाने से नहीं छिपता भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजी अभाव के ये प्रमुख कारक व कारण हैं। इसलिए वर्तमान आर्थिक मंदी के लिए मात्र सरकार की गलत नीतियों को दोष देना अमरीकी साम्राज्यवाद व उसके लुटेरे चरित्र को और प्रभुत्वकारी डालर व उसके मालिकान वित्तीय सम्राट पूंजीपति वर्ग को दोष न देना साम्राज्यवादपरस्त बौद्धिक दासता के सिवाय और कुछ नहीं है।
(ii!) तीसरे 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में जब आर्थिक संकट आया था तो पुरानी राष्ट्रीयकरण की नीतियों को संकटों का कारण बताकर निजीकरणवादी विश्वीकरण की नीतियाँ लागू की गई। जिसके तहत साम्राज्यवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को और भारतीय बड़ी कम्पनियों को औद्योगिक व कृषिक उत्पादन, व्यापार सेवाओं, बैंकों आदि में उदार छूटे दी गई। जिसके चलते छोटे उद्योग, व्यापार, दस्तकार, छोटे-मझोले किसान आदि टूट-फूट गये उनमें कार्यरत मजदूर, दस्तकार, किसान बेकार हो गये और बड़े उद्योगों व सेवाओं का उत्पादन खर्चा कम करने एवं निजी लाभ बचत बढ़ाने के उद्देश्यों अनुसार मजदूरों व कर्मचारियों की छँटनिया करने, कम वेतन मजदूरी पर ज्यादा काम लेने, स्थाई की जगह अस्थाई ठीके पर मजदूर कर्मचारी रखने के चलते मजदूरों में बेकारी व गरीबी फैली। परिणामतः मजदूरों कर्मचारियों में मालों सामानों की उपभोग क्षमता कम हुई और निचली बहुसंख्यक आबादी में फैली बाजार में सिकुड़न आई। हालांकि मध्यमवर्गीय आबादी के एक हिस्से के लिए पाचवें, छठे, सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियों को लागू करके वेतन वृद्धियाँ की गईं। इन्हीं को उपभोक्ता बाजार मानकर इन्हीं उच्चवर्गों की जरूरतों व लालसाओं के अनुसार देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने इन्हीं वर्गों से जुड़े चंद उत्पादक क्षेत्रों में पूंजी विनियोजन ज्यादा किया। आम जनता के उपभोग लायक मालसामान के उत्पादन की अवहेलना कर दी। लिहाजा, 20 प्रतिशत मध्यम वर्गीय आबादी को सीमित बाजार होने के चलते सीमित बिक्री ही सम्भव हो पाई। मध्यमवर्गियों में खूब कमाओ, खूब खाओ पीओ-मौज उड़ाओ की संस्कृति फैलाई गई। जिससे ये कर्ज लेकर उपभोक्ता बनते गये परन्तु वे कर्जे की अदायगी नहीं कर पाये। जिसके चलते कर्ज देने वाले बैंक फंसते गये। दूसरे, विदेशी बाजारों में निर्यात बढ़ाकर बचत लाभ कमाने और विदेशी देनदारी चुकाने के जो दावे वादे थे वे भी पूरे नहीं हुए। कारण, निर्यात बढ़ाने के लिए उत्पादन तो देश में खूब हुआ परन्तु निर्यात बाजार पर नियंत्रण भारत का नहीं है। अमरीका आदि साम्राज्यवादी देशों का है जैसाकि ऊपर बताया भी गया। निर्यात ज्यादा होने के बावजूद देश के व्यापार में घाटा ही हुआ। परन्तु इसी आयात-निर्यात में लूटकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने खूब लाभ कमाया। फलतः निजी पूंजी, निजी लाभ व निजी बचत में उत्तरोत्तर वृद्धि के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजी के अभाव फलतः आर्थिक मंदी के जैसे संकट बार-बार आते रहे हैं और आते भी रहेंगे। अपने परिणामों में नयी आर्थिक नीतिया और उससे निजी लाभ कमाने वाले साम्राज्यवादी व पूंजीवादी वर्ग वर्तमान मंदी के लिए प्रमुखतः जिम्मेवार है। इसलिए 1991 में शुरू हुए जनविरोधी व राष्ट्रविरोधी आर्थिक सुधारों के समर्थकों व लागूकर्ताओं को इन संकटों की जिम्मेवारी लेनी चाहिए। और आर्थिक सुधारों को रोक देना चाहिए। (iv) चौथे, जिन बड़े-बड़े उद्योगों एवं व्यापार व सेवाओं के मालिकान पूंजीपतियों ने बैंकों से कर्जे उधार लेकर अपने उद्योगों, सेवाओं व व्यापार का विकास विस्तार किया वे बैंकों के कर्ज नहीं चुकाए, एक कारखाने से 2/4 कारखाने तो बढ़ा लिए पूजी व घन के पहले से ज्यादा धनी मालिक भी बने, फिर भी दिवालिया कानून का लाभ लेकर खुद को दिवालिया घोषित कराकर चकों के उधार व कर्जे को हड़प लिए या देश छोड़कर भाग गये। बैंक वसूली नहीं कर पाए. कर्जे को बट्टे खाते में डालते गये। फलतः बैंकों खासकर सार्वजनिक कहलाने वाले सरकारी बैंकों के पास पूंजी की तरलता कम हो गयी। जिससे बैंक अब और अधिक कर्जे बांटने की स्थितियों में नहीं रहे।
बैंकों की उयारी पूंजी के द्वारा उत्पादन तो बड़ा लिया गया, परन्तु विक्री नहीं हुयी, या उचारी पूंजी से खरीद-बिक्री तो बढ़ा ली जाए परन्तु बैंकों की उपारी पूंजी वसूल न हो पाए तो बैंकों की उचारी पूंजी डूब जाती है। या इन तीनों क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पादन, विनिमय, व बैंक पूंजी के मालिकों को निजी लाभ व सूद में वृद्धि दर वृद्धि हासिल होकर जमा जोड कुल पूंजी में वृद्धि न हो। इनमें से किसी एक क्रिया के रुक जाने से पूरी प्रणाली (तीनो चारों क्रियाएं) ठप्प पड़ जाती है। उदाहरणार्थ, पैसेंजर व कामर्शियल वाहनों की विक्री के लिए फाइनेंसिग कम्पनियों ने ऋण बाटे विक्री तो हुई परन्तु विक्री में लगी उधारी, पूजी वापस नहीं आयी। फलस्वरूप फाइनेंसिंग कम्पनियां बैंकों से लिए उधार उन्हें ब्याज सहित चुका नहीं पाये और दिवालिया बनने लगे। परन्तु वाहनों के निर्माता कम्पनियों के वाहन बाजार में कम बिकते रहे और वाहनों का उत्पादन ज्यादा होता रहा। जब उधार व कर्ज देने वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां कर्जे व उधार देना बंद कर दी तब विक्री की दर गिरने लगी और उत्पादन क्रिया बन्द होने लगी। परिणामतः उत्पादन साधनों मशीनों का क्षमता भर इस्तेमाल नहीं हो पाता, बहुत जल्दी ही आधुनिक विज्ञान व तकनीकी पुरानी पड़ गयी हैं। कारखाने बंद हो रहे हैं, कच्चेमाल, मशीने, श्रम (मजदुर) लाभ, पूंजी, सब के सब बेकार हो गये हैं। तब भला बैंकों की वित्त पूंजी (उधार) सूद सहित वापस कहां से आयेगी। क्योंकि उत्पादन तो व्यापक मेहनतकश जनसाधारण- किसान, मजदूर सभी करते हैं और खुद उत्पादन बढ़ाने के बावजूद क्रयशक्ति न होने के कारण उन सामानों को खरीद नही पाते और पूजीपति निजी लाभ व पूंजी में वृद्धि के उद्देश्यों अनुसार उत्पादन करता है, उत्पादक वर्गों की खरीद क्षमता के अनुसार नहीं करता है। यानी उत्पादन तो सामाजिक है। परन्तु नालिकाना निजी पूंजीपतियों का और तीसरे उपभोग भी उच्च व मध्यमवर्गीय यानी उपभोग भी सामाजिक नहीं है। ये वह प्रमुख कारण हैं जिससे पूंजीवादी व्यवस्था संकटग्रस्त होती रही है और आज लगातार चार-छ सालों में संकटग्रस्त बनी हुई है। जो किन्हीं विशेष क्षेत्रों से होती हुई चौतरफा फैल चुकी है।
मंदी क्यों आयी। इस पर चर्चा हो चुकी है, सो भी प्रचारित कारणों को मात्र क्रमबद्ध कर दिया गया है। जैसाकि पूंजीवादी अर्थशास्त्री व विद्वान, राजनीतिज्ञ खुद मानते व बताते है कि मन्दी इसलिए आयी है, क्योंकि मालों व सामानों जैसे वाहनों, घरों, मकानों का उत्पादन, निर्माण ज्यादा हुआ परन्तु राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में विक्री पहले से कम हो गयी। क्योंकि कर्ज देने वाली वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने लगी जिससे बाजार में विक्री की मंदी है तब सवाल है कि आपने इतना ज्यादा (वाहन व मकान) क्यों बनाया? दूसरी बात, राष्ट्रीय बाजार में विक्री क्यों नहीं हुई, बाजार के सिकुड़ने के क्या कारण है? इसका जवाब पूंजीवादी अर्थशास्त्री व विद्वान नहीं देना चाहते। वे भय खाते हैं कि असली कारण बता देने पर कहीं उनकी नौकरी चाकरी न चली जाय। क्योंकि इसका असल कारण यह है कि इतनी ज्यादा मंहगी चार पहिया गाड़ियां, चमकीले भड़कीले फ्लैट्स (मकान बनाने में लगी देशी-विदेशी दिग्गज कम्पनियां केवल उनका निर्माण, विकास, विस्तार इसलिए नहीं करती कि वे भारत को बाजार में बिकें बल्कि इसलिए करती है कि भारत में उन्हें सस्ता श्रम, सस्ता कच्चा व अर्धतयार माल, कम लागत की जमीन, बिजली पानी सब सस्ता उपलब्ध होता है जिससे कम लागत खर्चे में भारी मुनाफा प्राप्त होता है। इसलिए भारी मुनाफा देने वाले इन व ऐसे ही क्षेत्रों में पूंजीपति, पूंजीविनियोजन ज्यादा करते हैं, आम जनता लायक माल सामान बनाने में रुचि नहीं लेते। फलतः आम उपभोक्ता मालों सामानों की राष्ट्रीय बाजार में कमी किल्लत बनी रहती है और जिस उच्च आय वर्ग के देशी-विदेशी मध्यम व उच्च मध्यम वर्गों के लिए उत्पादन व विक्री बाजार चलायी जाती है उससे देश विदेश की बाजारों में विक्री करके लाभ ही नहीं पूंजीपति वर्ग अति लाभ कमाता है। इसी अति लाभ की लालच में जिस अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विक्री के उद्देश्य से जो उत्पादन ज्यादा हुआ है वह उस बाजार में चुंगी दरें बढ़ने से दूसरे देशों से सस्ता उत्पादन मिलने व अन्तर्राष्ट्रीय होड़ के चलते व ऐसे ही कई कारणों से माल खपा नहीं पाते। वहीं घरेलू बाजार में जिस मध्यम व उच्च मध्यमवर्ग को बाजार मानकर कारों व मकानों (फ्लैट्स) का उत्पादन बढ़ाया गया था वह मध्यम वर्ग एक तो पहले से लिए गये कर्जे न चुका पाने के चलते दूसरे, महंगी होती गाड़ियां व मकान न खरीद पाने की क्षमता में आयी गिरावट के चलते घरेलू बाजार सिकुड़ गयी। याद रखें सिकुड़ी हुयी यह मंडी बाजार करोड़ों अरबों रुपये विज्ञापनवाज कलाकारों, खिलाडियो, हीरो-हिरोइनों पर खर्च करके आप विज्ञापनबाजी से नहीं बढ़ा सकते। भूख तो खरीददारों में जगा सकते हैं! परन्तु यदि उनकी आमदनी छंटनियां, कम वेतनमत्तों, स्थाई की जगह अस्थाई नौकरियों, असमय नौकरियों से निकाले जाने, नयी भर्तियों पर रोक लगाने आदि के नीतिगत तरीकों से गिरा देते हैं तो मध्यम वर्ग की आमदनी में आयी कमी मध्यम वर्ग की उपभोग क्षमता गिरा देगी (जैसा कि हुआ भी)। इसलिए आपकी घरेलू बाजार भी सिकुड़ गयी। दूसरे, आपने 70 प्रतिशत निचली आबादी को अपना बाजार मानना छोड़ दिया (सबूत, कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सरकार का घटता बजटीय खर्चा)। पिछले 25-30 सालों से इन्हीं मध्यम वर्गों को ही अपनी बाजार मानकर पूंजीपतियों ने निजी लाभ ज्यादा कमाने की लालचों में उत्पादन ज्यादा बढ़ाया हुआ था। लिहाजा वर्तमान मंदी के संकटों के वास्ते प्रमुखतः जिम्मेवार कारक व कारण देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग और उनकी निजी लाभखोरी की अतृप्त भूख है।
पिछले 25-30 सालों में पूंजीपतियों एवं अरबपतियों की संख्या में और उनकी पूजियों व परिसम्पत्तियों में भारी वृद्धियां हुयी है साथ ही उच्च मध्यमवर्ग- हीरो, हिराइने, खेल-खिलाड़ी, मंत्री, अधिकारी, पत्रकार, विद्वान आदि एक छोटे से हिस्से की आमदनियों भी बढ़ी हैं। इसलिए लुटेरे शासक व शोषक देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग इन संकटों की जिम्मेवारी लेना तो दूर उनकी अलबारे रेडियो, टेलीविजन चैनल आदि प्रचार माध्यम व प्रचार माध्यमी - विद्वान व अर्थशास्त्री व सत्ता सरकारें इसे आर्थिक संकट नहीं मानते इसे सुस्ती या चक्रीय मंदी बताकर चर्चा से कतराते हैं। हालांकि देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में आयी मंदी दूर करने का बोझा सरकार खुद उठा रही है। क्योंकि सरकार न केवल मेहनतकश वर्गों के खून-पसीने की लूटपाट से भरे सार्वजनिक खजाने की मालिक है बल्कि 130 करोड़ लोगों की सरकार कहलाती है। इसलिए सबका साथ सबका विकास से उपजे धन से पूंजीपतियों का संकट दूर करती है। लेकिन जनसाधारण मेहनतकश वर्गों का संकट ? जैसेकि 1991 के पूर्व भी महगाई, बेकारी, गरीबी आदि थी वैसे ही आज भी है, कम नहीं हुई निरन्तर बढ़ती जा रही है। तब होना क्या चाहिए? क्या बार-बार संकटग्रस्त होती इस प्रणाली का बोझा ढोना चाहिए या इसे बदल देना चाहिए। क्यों? क्योंकि जैसे पहले कभी सामंती प्रणाली खेती व उद्योग के विकास में बाधा बन गयी थी । उत्पादक वर्गों व उत्पादक शक्तियों के विकास को डण्डा व तलवार के बूते अवरुद्ध कर रही थी, तो उसे पूंजीवादी वर्गों ने दो सौ साल पहले बार - बार पश्चिमी यूरोप में क्रांतिकारी युद्धे लड़कर उखाड़ फेंका और उसकी जगह वर्तमान जनतांत्रिक पूंजीवादी प्रणाली स्थापित किया। वैसे ही वर्तमान पूंजीवाद अपने प्रतिक्रियावादी दौर में समाज के विकास में रोड़ा बनकर खड़ा है माल तो बाजारों में भरे पड़े हैं। उपभोक्ता उन्हें देखकर तरस रहे हैं परन्तु जेब में पैसा नहीं है। उत्पादन, विक्री गिरती हुई ठप पड़ती जा रही है। मजदूर कर्मचारी, मशीनें आदि उत्पादक शक्तियां बेकार व बर्बाद हो रही हैं। और मालिक पूंजीपति अपने निजी लाभ व निजी मालिकाने में वृद्धि की खातिर उन्हें बर्बाद होता देख रहा है। खुद मंदी दूर करने में अक्षम हो गया है तो आर्थिक मंदी व संकट का हल्ला मचाकर सत्ता सरकार के बूते अपने संकटों का बोझा जनसाधारण वर्गों पर लाद रहा है। लिहाजा, साधनों से वंचित मेहनतकश वर्गों, किसानों, मजदूरों और पूंजीपतियों व व्यापारियों से बने शोषक-शोषित व शासक-शासित के आपसी सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों को बर्बाद कर रहे हैं। इन सम्बन्धों के पड़े रहने से बर्बादी ही बर्बादी होनी है। लिहाजा, वर्तमान पूंजीवादी समाज व्यवस्था को उखाड़कर मार्क्सवादी समाजवाद लाने के लिए मजदूरों-किसानों को संगठित होकर आगे आना होगा। और मार्क्सवादी रास्ते पर चलकर निजी लाभ व निजी मालिकाने की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली को उखाड़कर उसकी जगह पर सामाजिक लाभ व सामाजिक मालिकाने वाली समाजवादी प्रणाली को कायम करना होगा। तभी इन संकटों से इन पूजीवादी उत्पादन के सम्बन्धों की जकड़न से मुक्त होकर समाज का उत्पादन व उत्पादक शक्तियों का और ज्यादा विकास सम्भव है। चन्द लोगों के विकास की जगह समूचे समाज के विकास के लिए मजदूर राज्य समाजवाद लाने की अपरिहार्य आवश्यकता है।
नोट: उपरोक्त लेख जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की पुस्तक "मूल्य वृद्धियाँ" एवं "जून 2012 का जी-20 सम्मेलन" के सहयोग से लिखा गया है।
लेखक : ओमप्रकाश सिंह
आजमगढ़ मो० 09452577375
अक्टूबर-नवम्बर 2019, मंथन, अंक-23
बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ने का मुख्य कारण और पूँजीपतियों व जनसाधारण पर उसका प्रभाव
बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ने का मुख्य कारण और पूँजीपतियों व जनसाधारण पर उसका प्रभाव
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मंथन अंक : 24 आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें
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लेखक : बाबूराम पाल ( मऊ ) फरवरी 2020
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दैनिक जागरण 31 दिस. 2019 के एक सम्पादकीय लेख के अनुसार केन्द्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2017-18 एवं 2018-19 में सरकारी क्षेत्र के बैंकों को सरकारी खजाने से 1,96,000 के. रु. सहायता दिया है और वर्तमान वित्तीय वर्ष 2019-20 में अब तक 70,000 क.रु. सहायता दे चुकी है। इस तरह लगभग 3 वित्तीय वर्षों में कुल 2,66,000 क.रु. बैंकों को सहायता दिया है। कारण? बैंकों की वित्तीय हालत खराब है। वे उद्योगपतियों, व्यापारपतियों, सड़क-मकान निर्माण कम्पनियों, मकानों गाड़ियों के खरीदार उपभोक्ताओं आदि को कर्जा नहीं दे पा रही हैं। बैंकों की पूँजी कम हो जाने का एक प्रमुख कारण एन. पी. ए. बढ़ना है, जो जून 2014 में 2,24,552 क.रु. से बढ़कर दिस. 2017 तक 7,23,216 क.रु. एवं मार्च 2019 तक 8,33,000 क.रु. हो गया। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण भी संसद में व उसके बाहर उपरोक्त तथ्यों की घोषणा करती रही हैं। उसी लेख की सूचना है कि वित्तीय वर्ष 2013-14 में जनता से डीजल पेट्रोल पर उत्पाद कर 46,386 क.रु. वसूला गया, जिसे बढ़ाते हुये वित्तीय वर्ष 2018-2019 में 2,13,400 क.रु. वसूला गया।
अब सवाल है कि एन.पी.ए. की भरपाई के लिए सरकार अपने खजाने से जो धन बैंकों को दे रही है, वह घन मूलतः कहाँ से आता है? यह एन.पी.ए. क्या है? उसके बढ़ने का मुख्य कारण क्या है? एन.पी.ए. बढ़ने एवं सरकारी खजाने से उसकी भरपाई करने का पूँजीपतियों व जनसाधारण पर क्या प्रभाव पड़ता है? तकनीकी ढंग से कहें तो एन.पी.ए. बैंकों द्वारा दिया गया वह कर्जा या अग्रिम है जिसके मूलधन व ब्याज का भुगतान 90 दिनों तक या निर्धारित अवधि तक या उसके बाद भी नहीं किया जाता है। इससे बैंकों का जमा धन कम हो जाता है और बैंक अपने ग्राहकों को कर्जा देने एवं जमाकर्ताओं का धन वापस करने में कठिनाई में फँस जाते हैं। अब यह देखा जाय कि एन.पी.ए. बढ़ाने वाले अर्थात बैंको से कर्जा या अग्रिम लेने और उसे जमा न करने वाले कौन है? आप जानते ही होंगे कि बैंकों से कर्जा लेने वाले मुख्य है- 1. पूँजीपति और व्यापारपति 2. खुद केन्द्र व राज्य की सरकारें, 3 दोपहिया चारपहिया वाहनों, मकानों व अन्य मालों के खरीदार उपभोक्ता, 4. किसान इनमें उपभोक्ता व किसान यदि सूद व कर्जा समय पर न लौटायें, तो उनके या जमानतदारों के घर, मकान, गाड़ियों, खेत, ट्रैक्टर आदि नीलाम करके बैंक अपना कर्जा वसूलती रहती है, बाकायदा जिलों तहसीलों पर बकायेदारों के साइनबोर्ड लगाकर एवं अखबारों आदि में विज्ञापन देकर। यदि सरकारें कभी किसानों का कर्जा माफ भी करती हैं, तो उसकी एवजी में माफी की धनराशि के बराबर धनराशि सरकारी खजाने से बैंकों को भुगतान करती हैं। अतः उपभोक्ताओं एवं किसानों को दिए सारे कर्जे व सूद बैंक स्वयं एवं सरकारी मदद से वसूलती रहती है; उनका भुगतान होता रहता है। उपरोक्त बातें आप किसी बैंक कर्मचारी से भी जान सकते हैं। केन्द्र व प्रान्तीय सरकारें भी बैंकों के कर्जों व व्याजों का भुगतान करती रहती हैं। लेकिन पूँजीपति, व्यापारपति? बहुचर्चित है कि विजयमाल्या, नीरवमोदी, जतिन मेहता, मेहुल चोकसी जैसे 31 पूजीपति सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का अरबों रुपये लेकर विदेश भाग गये। दूसरे, 20 फरवरी 2018 के इंडिया. काम के समाचार के अनुसार पूँजीपतियों की एस्सार स्टील, भूषण स्टील, जे.पी. इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि 400 कम्पनियाँ बैंकों के कर्जों व सूदों की अदायगी नहीं कर रहीं हैं। इनमें से मात्र 12 कम्पनियों पर फरवरी 2019 तक 35 प्रतिशत एन.पी.ए. की देनदारी है जो धनराशि में 3,45,000 क रु. है। अतः सार्वजनिक बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ाने एवं उनकी वित्तीय हालत खराब करने के मुख्य दोषी पूँजीपति, व्यापारपति है। लेकिन किन 12 व अन्य कम्पनियों पर उनके मालिक पूँजीपतियों पर कितनी कितनी धनराशि एन.पी.ए. के रूप में बकाया है-उनका नाम और एन.पी.ए. की राशि सरकार नहीं बताती, जबकि बकायेदार किसानों का साइनबोर्ड लगाती है। अब इससे संबंधित दूसरी बात बारह कम्पनियों की एन.पी.ए. की यह 3,45,000 क.रु. की धनराशि तुलनात्मक रूप से 10 राज्य सरकारों- उ.प्र. म. प्र. महाराष्ट्र, तेलंगाना, आन्ध्र प्र पंजाब कर्नाटक, असम, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारों द्वारा वित्तीय वर्ष 2017-18 से फरवरी 2019 तक माफ की गयी किसानों की कर्जराशि 1,84,000 क.रु. से लगभग दोगुना है। किसानों की कर्जमाफी एन.पी.ए. भी नहीं है; क्योंकि सरकारें उसे बैंकों को अदा कर देती रही हैं। लेकिन पूँजीपतियों के टुकड़खोर पत्रकार, विद्वान किसानों की कर्जमाफी पर यह दुष्प्रचार करते हैं कि उससे बैंकों की वित्तीय हालत खराब होती है। वे यह भी प्रचार करते हैं कि सरकार को किसानों की कर्जमाफी की धनराशि देश विकास में लगाना चाहिए इससे इतना उतना राष्ट्र विकास होता, दूसरे, कर्जमाफी के कारण किसान बार बार कर्जा लेने और उसे न चुकाने के सरकारी सहायता पर निर्भर होने के आदती बन जाते हैं, राष्ट्रविकास में बाधा पहुँचाते हैं। जबकि हकीकत है कि बैंकों को मात्र 3 वर्षो में दी गयी उरोक्त सहायता राशि 2,66,000 क.रु. से 26,600 किमी फोरलेन सड़कें बनायी जा सकती है (31 दिस. के उसी समाचार के अनुसार)। उसी हिसाब से 8,33,000 करु. के एन.पी.ए. की वसूली से 80,000 किमी से अधिक फोरलेन सड़कें बनायी जा सकती हैं। लेकिन पूंजीपतियों से एन.पी.ए. वसूलने में सरकारें वैसी कड़ाई नहीं करतीं, जैसी किसानों के साथ। इसके अलावा सरकारें देशी विदेशी पूँजीपतियों पर हर साल लगे लाखों क.रु. के टैक्सों के बकाये माफ कर देती हैं और उन्हें छूट देकर उसे नहीं वसूलती रही है और उन पर लगे करों की दरें भी घटा देती रही है (तथा सरकारी खजाने से उन्हें वित्तीय सहायता अलग देती रही हैं। यदि उन्हें पूर्णतः वसूलकर राष्ट्रविकास में लगाया जाता तो कितना विकास होता? इसे ये पत्रकार, विद्वान नहीं बताते। बल्कि पूँजीपतियों से एन.पी.ए. एवं करों को न वसूलने, एवं उनके करों को कम करने, तथा उन्हें सरकारी धन देने को ये विद्वान एवं सरकार राष्ट्र विकास के लिये, देशी विदेशी पूँजीपतियों को आकर्षित करने के लिए जरूरी बताते रहते हैं। उदाहरणार्थ, इकोनामिक टाइम्स 5 जुलाई 2019 की सूचना के अनुसार सरकार ने वित्तीय वर्ष 2018-19 में पूँजीपतियों को कारपोरेट टैक्स 1,08,785 के. रु. और सीमा शुल्क टैक्स 1,43,26 क.रु. की छूट दे दिया. माफ कर दिया और उसे नहीं वसूला। ध्यान देने की बात है कि पूँजीपति- व्यापारपति इन करों को उपभोक्ता से तो वसूल लेते हैं, लेकिन सरकार पूँजीपतियों से नहीं वसूलती है। मोदी भाजपा सरकार के समय ही नहीं बल्कि 2005-06 से 2013-14 तक के 09 वित्तीय वर्षों मे कुल 36,59,496 क.रु. का टैक्स (कारपोरेट टैक्स, सीमाकर, उत्पादकर) पूँजीपतियों से मनमोहन सिंह कांग्रेस सरकार ने भी माफ करते हुये नहीं वसूला था (पीसाईनाथ के लेख से, जिसे उन वित्तीय वर्षों के बजटों से इस लेखक द्वारा संकलित तालिका में पृष्ठ 15 पर देख सकते हैं)। दूसरे, वर्तमान वित्तीय वर्ष में भी सित. 20 को सरकार ने कारपोरेट टैक्स की लागू दर 35 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत, एवं नये कारपोरेट निवेशकों की लागू टैक्स दर 29 प्रतिशत से घटाकर 17 प्रतिशत कर दिया, और इन दोनों कर्मों से सरकारी खजाने की आय 1,45,000 क.रु. कम कर लिया। उसी समय निर्यात व रियल एस्टेट को प्रोत्साहन देने के लिए पूँजीपतियों को 70,000 क.रु. का पैकेज दिया। सरकार द्वारा पूंजीपतियों को दी जा रही इस विशाल धनराशि से देश राष्ट्र का कितना विकास होता ?! विकास के बजाय सरकार ने इन सबसे कम हो गयी सरकारी आय पूरा करने के लिये रिजर्व बैंक से 1.76,000 क.रु. जबरदस्ती उधार ले लिया; और अपने ऊपर कर्जा बढ़ा लिया। लेकिन इन कदमों, छूटों से सरकार ने पूँजीपतियों के लाभों पूँजीयों में तत्काल वृद्धियां करा दिया। जनसाधारण पर इनका क्या प्रभाव पड़ रहा है? इस पर चर्चा से पहले किसानों के बारे दूसरे प्रचारों की सच्चाई को लें।
बताने की जरुरत नहीं कि किसान अनाज, दलहन, तिलहन, फल, सब्जी, अंडा, मछली, मांस, दूध, घी, पनीर, फूल, औषधीय पौधे आदि का व्यापक उत्पादन करके शहरों, उद्योगों व विदेशों तक उनकी आपूर्ति करके एवं उद्योगों के बने खेती में लगने वाले एवं अपने जीवन की जरूरतों के माल सामान खरीदकर राष्ट्रविकास में भारी योगदान करते रहे हैं। इसके बावजूद ज्यादातर किसान खेती किसानी से लाभ नहीं कमाते, बल्कि घाटे में रहते हैं, कर्जा अदा नहीं कर पाते हैं, जमीनें बेचने को मजबूर होते रहते हैं, आत्महत्यायें करते रहते हैं। यह सब जानते हुये ही सरकारें कभी कभी किसानों की कर्जामाफी करके उन्हें नया कर्जा दे देती हैं, ताकि किसान कृषि में लगे रहें, उद्योगों के माल सामान खरीदकर उन्हें लाभ पहुँचाते रहे और कृषि उत्पादन बढ़ाकर उनकी जरूरतें पूरी करते रहें, भले ही स्वयं घाटा उठाते रहें, अपनी जमीने बेचते रहे व आत्महत्यायें करते रहें। जबकि पूँजीपति, व्यापारपति कजों से अपना उद्योग, व्यापार बढ़ाते रहते हैं, लाभ बचत बढ़ाते हुये अपनी निजी पूँजी व परिसम्पतियां बढ़ाते रहते हैं, देश विदेश में नयी-नयी कम्पनियों खड़ी कर लेते हैं। और! कुछ दशाओं में पहले की कम्पनियों के नाम पर लिये गये कर्जों की अदायगी नहीं करते हैं, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ाते रहते हैं। फिर भी, यह सब जानते हुये भी सरकार बैंकों को अपने खजाने से सहायता धनराशि देकरके पूँजीपतियों को नये कर्जे देती दिलवाती रहती है, अब नये कर्जों से भी पूँजीपति अपना लाभ पूँजी बढ़ा लेते हैं; लेकिन कुछ कर्जा नहीं अदा करते, एन.पी.ए. बढ़ा देते हैं तो भी सरकार पुनः उनकी लूटखोरी, हड़़पखोरी में सहायता करने पहुंच जाती है। इस तरह देशी विदेशी पूँजीपति वर्ग बैंकों का कर्जा हड़पने, सरकारों पर दबाव डालकर सहायता लेने, टैक्स कर न वसूलने देने व कम करवाने, और यह सब करके अपनी पूँजी परिसम्पत्तियों बढ़ाने का आदी बना हुआ है। यह
आदत उसकी चारित्रिक विशेषता है लेकिन हमारे 'राष्ट्रवादी' पत्रकार, विद्वान इस प्रकार के सरकारी सहयोग से
पूँजीपतियों के निजी लाभ जोड़ने व पूँजी वृद्धि करने की उनकी आदत चरित्र पर चर्चा नहीं करते, उनके निजी विकास
को पूँजीपतियों का विकास नही कहते बल्कि उसे राष्ट्रविकास कहते हैं और सरकारों द्वारा उन्हें वित्तीय सहायता देने,
उनके बकाया करों को न वसूलने, करों को कम करने, कर्जों को न वसूलने आदि सहयोगों को राष्ट्र विकास के लिए
आवश्यक बताते रहते हैं जबकि मजदूरों, किसानों, दस्तकारों के जीवन चलाने के लिए भोजन, पानी, बिजली, खाद,
बीज, मशीन, दवा, शिक्षा, कर्जा आदि पर दी जाने वाली सहायताओं, छूटों को राष्ट्रविकास में बाधक बताते रहते हैं।
उपरोक्त बातों से साफ है कि पत्रकारी जगत पूंजीपतियों की जेब का है और सरकार पूँजीपतियों व्यापारपतियों की
हिमायती है, और मजदूर, किसान, दस्तकार व अन्य जनसाधरण की विरोधी है। अब देखा जाय कि जिस सरकारी
खजाने से बैंकों, पूँजीपतियों व्यापारपतियों व जनसाधारण को सहायतायें दी जाती हैं, उस खजाने की धनराशि मूलतः
किस जनता के करों से आती है?
आप जानते हैं कि सरकार अपना खजाना, जनता पर तरह तरह के टैक्स कर जैसे, आयात कर या सीमा कर मालो सामानों पर उत्पाद कर मालो सेवाओं की बिक्री पर जी.एस.टी. कर, कम्पनियों के लाभों पर कारपोरेट कर, कलाकारों, खिलाड़ियों, मैनेजरों, डाइरेक्टरों अधिकारियों, वकीलों डाक्टरों, प्रोफेसरों आदि मध्यमवर्गों पर आयकर आदि लगाकर भरती है। इसका लेखा जोखा वह हर साल बजट में देती है। इसके बारे में 'मंथन' के पिछले अंकों से या अन्य संचार माध्यमों से आप विस्तार से जान सकते हैं। इस लेख में केवल विषय के सन्दर्भ में आप यह जाने कि सरकार को कर देने वाली प्रचारित जनता मुख्यतः 3 वर्गों में बँटी है:- 1. धन्नाढ़ उद्योगपति, व्यापारपति बैंकपति वर्ग, 2. उच्च व मध्यम वर्ग के मध्यमवर्गीय कलाकार, विज्ञापनबाज, खिलाड़ी, मैनेजर, डाइरेक्टर, लेखक, पत्रकार वकील, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, अधिकारी, कर्मचारी, अध्यापक आदि, 3. मजदूर किसान, दस्तकार, दुकानदार, अध्यापक, चपरासी, क्लर्क आदि जनसाधरण विद्वानों के प्रचारों से लगता है, और साधारण लोग भी समझते हैं कि सारा टैक्स कर पहले और दूसरे वर्ग के धनवान लोग ही चुकाते है। जबकि पहले वर्ग के पूजीपति, व्यापारपति अपने द्वारा सरकार को अदा किया जाने वाला सम्पूर्ण टैक्स मजदूरों की मेहनत से पैदा किये मालों सामानों के दामों में जोड़कर खरीददारों उपभोक्ताओं से वसूल लेते हैं और ग्राहक सभी करों सहित मालों सामानों का दाम देते हैं। तुर्रा यह कि ये पूँजीपति, व्यापारपति ग्राहकों से वसूले सम्पूर्ण कर को सरकारी खजाने में जमा ही नहीं करते, इसके लिए करों की चोरी करते हैं, काला धन बनाते हैं और सरकार से करों को न जमा करने की एवं टैक्स दरों को कम करने की छूट ले लेते हैं और निर्यात आदि के लिए सरकरी खजाने से सहायता धन भी लेते रहते हैं। यह सब करके अपनी निजी पूँजी परिसम्पत्ति बढ़ाते रहते हैं। दूसरे वर्ग की मध्यमवर्गीय जनता का व्यापक हिस्सा डाइरेक्टर मैनेजर, अधिकारी, प्रोफेसर आदि जितना टैक्स सरकार को देता है, उससे दसियों, बीसियों गुना ज्यादा धनराशि वेतन, भत्ता, पुरस्कार आदि के रूप में सरकारी खजाने से (या पूँजीपतियों से) ले लेता है उसी तरह विज्ञापनबाज, कलाकार, खिलाड़ी आदि लाखों करोड़ों की फीसें, पुरस्कार रुपी आय पूँजीपतियों से पाते हैं; जिससे थोड़ा सा कर दे देते हैं। अतः सरकार का खजाना मुख्यतः जनसाधारण के शोषण व दोहन से भरा जाता है। पूँजीपति व सरकारें मजदूरों व किसानो से मालों सामानों को, कम मजदूरी व कम मूल्य पर उत्पादन करवाके उनका शोषण करती हैं। साथ ही बहुसंख्यक मजदूर किसान व अन्य जनसाधरण मालों सामानों के खरीदार बनकर सभी प्रकार के करों का बड़ा हिस्सा चुकाते हैं। दोनों तरह से, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तरीकों से सरकार का खजाना भरते हैं उस खजाने से कुछ दान दक्षिणा (सस्ता राशन, विधवा बृद्धा पेंशन आदि) के अलावा कुछ नहीं पाते। जबकि धन्नाड व मध्यमवर्ग मालो सामानों की खरीदारी से भी जितना टैक्स कर अदा करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा धनराशि सरकारी खजाने से वेतन सहायता छूट आदि के रूप में सरकार से ले लेते हैं। निष्कर्ष यह कि सरकारें मजदूरों, किसानों व अन्य जनसाधारण का शोषण दोहन करके अपना सरकारी खजाना भरती है.
और उस खजाने से, व ऊपर बताये गये दूसरे ढंगो से पूँजीपतियों व्यापारपतियों की सहायता, सहयोग करके उनकी लाभ पूँजी बढ़वाती है। लेकिन दूसरी तरफ .... सरकार जिन कदमों, सहयोगों से पूजीपतियों के लाभ पूँजी बढ़वाती है, उन्हीं कदमों से मँहगाई खासकर जनसाधारण के दैनिक जरूरत के मालों सामानों की मँहगाई बढ़ाती है? कैसे? जब वह मालों सामानों पर टैक्स कर लगाती है य बढ़ाती है तो मँहगाई बढ़ जाती है। क्योंकि सरकार द्वारा लगायें या बढ़ाये टैक्सों को पूँजीपति मालों के दामों में (प्राय: और अधिक बढ़ाकर) जोड़ देते हैं। डीजल पेट्रोल पर कर बढ़ने से उनके दाम बढ़ जाते हैं। साथ ही पैसेंजर किराये बढ़ने के अलावा डुलाई भाडा बढ़ने से कई सामानों, अनाजों, दालों, सब्जियों, फलों आदि के दाम बढ़ जाते हैं। जैसे डीजल पेट्रोल पर उत्पाद कर सरकार ने 2013-14 में 46.386 क.रु. से बढ़ाकर 2018-19 में 2,13,400 के. रु. कर दिया तो सभी मालों सामानों की मँहगाई उसी अनुपात से बढ़ती गयी है। दूसरे, सरकार जब इधर अपने खजाने से बैंकों, पूँजीपतियों को धन देकर बजट घाटा बढ़ा रही होती है, तब उधर उस घाटे को कम करने के लिए रेलगाडा, डीजल, पेट्रोल, गैस के दाम, कई सामानों की जी.एस.टी. आदि बढ़ा देती रही है। जैसे 2020 के नये साल के पहले ही दिन रेल भाड़ा, रसोई गैस का दाम बढ़ा दिया। तीसरे बजट घाटा पूरा करने लिए जब सकार रिजर्व बैंक आदि से कर्ज ले रही है, तब इससे मुद्रा या रु. का मूल्य कम हो रहा है, मुद्रास्फीति बढ़ रही है। इस कारण भी सब्जियों, दालों, अनाजों आदि सामानों की मँहगाई बढ़ रही है। जैसे, समाचारों के अनुसार जुलाई 2019 की तुलना में जनवरी 2020 में मुद्रास्फीति बढ़ने से थोक उपभोक्ता मँहगाई दर दोगुना हो गयी है। लेकिन धन्नाड़ों, मध्यमवर्गों के लिए दालों, सब्जियों, अनाजों की मँहगाई कोई समस्या ही नहीं है बल्कि धन्नाठों के लिए लाभदायक है, उनके लाभ पूँजी बढ़ाने का जरिया व परिणाम है; और स्थायी नौकरी पेशा वाले मध्यमवर्ग के लिए मँहगाई भत्ता व वेतन बढ़ने का आधार है। इसलिए मध्यमवर्ग जनसाधरण के जीवन के लिए जरूरी अनाजों, दालों, सब्जियों आदि की मँहगाई की समस्या को कोई समस्या ही नहीं मानता बल्कि मँहगाई बढ़ने का समर्थन करता है। अब अगली बात, सरकार बँकपतियों, पूँजीपतियों, व्यापारपतियाँ को दी जाने वाली सहायताओं, सहयोगों का बोझ तो टैक्स व मँहगाई बढ़ाकर जनसाधारण पर खालती ही है। साथ ही। आम जनता के शिक्षा व स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्च को घटाती रही है और उन्हें स्थापित संचालित करने का जिम्मा धन्नाट वर्ग ले रहे हैं और शिक्षा स्वास्थ्य में पूँजी निवेश करके लाभ पूँजी कमा रहे हैं। किसानों के खाद बीज पर दी जानेवाली छूटों को काटती घटाती रही है। किसानों के हित में सिंचाई परियोजनाओं के लिए धन देना लगभग बन्द ही कर दिया है। जैसे वर्तमान 2019-20 के वित्तीय वर्ष में सिंचाई पर खर्चा कुल बजट का 0035 प्रतिशत है। लेकिन यही सरकार पूंजीपतियों व्यापारपतियों के माल, मजदूर, कर्मचारी, अधिकारी, नेता, मंत्री, ग्राहक आदि ढोने के लिए रेलों, सड़कों के निर्माण व विकास के लिए सरकारी खजाने से रक्षा के बाद सबसे ज्यादा धन, कुल बजट का लगभग 10 प्रतिशत खर्च करती रही है। या वास्तव में कहिये तो देशी विदेशी धन्नाट पूँजीपति व्यापारपति बैंकपति वर्ग सरकारों पर दबाव डालकर अपने हितों में व जनसाधारण के विरोध में उपरोक्त कार्य सरकारों से करवाता रहता है।
उनका यह सब कार्य निर्विरोध रुप से जारी रखने के लिये सरकार बनाने वाले दलों नेताओं ने उनके समर्थक विद्वानों बुद्धिजावियों ने, देशी विदेशी पूँजीपतियों के टी.वी. चैनलों, समाचार पत्रों, इंटरनेट आदि के माध्यम से पिछले 25 30 सालों से जनसाधारण की जाति, धर्मसम्प्रदाय, इलाका, लिंग, भाषा के भावनात्मक मानसिकताओं, विचारों, अलगावों, भेदभावों को बढ़ाते हुए उनका राजनीतिक इस्तेमाल तेज कर दिया है। नये पुराने मुद्दे खड़े करके जातिवादी, धर्म सम्प्रदायवादी गोलबन्दियों को और ज्यादा बढ़ाते व मजबूत करते रहते हैं जैसे पिछले 5/6 माह से तीन तलाक, अनु 370 का समापन, सी.ए.ए., एन.आर.सी., एन. पी. आर. आदि से। ताकि जनसाधारण महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि समस्याओं की उपरोक्त व अन्य बातों को न सुने, न जाने, उन्हें न समझे अपनी समस्याओं के लिये सरकारों एवं पूंजीपतियों को दोष न दे, अपनी मँहगाई, बेरोजगारी आदि समस्याओं को लेकर उनका विरोध न करे विरोध करने के लिये एकता न बना सके। लेकिन जाति, धर्म, इलाका, भाषा, लिंग आदि पर खूब चर्चा करता रहे और उनके नाम पर वोट देने के लिए गोलबन्द हुआ करे। वैसे तो पूँजीपतियों के विद्वानों, पत्रकारों के साथ कांग्रेस, अधिकांश वामपंथी सहित सपा, बसपा, राजद आदि सभी दल इसके दोषी रहे हैं, लेकिन इस समय भाजपा सबसे आगे है। क्यों व कैसे? एवं समाज व राष्ट्र के लिए उसके परिणाम क्या आ रहे हैं व आयेंगे। इस पर फिर कभी बाद में। इस लेख के छपते छपते 'दैनिक जागरण' अखबार में 3 मार्च 2020 को खबर छपी कि कम्पनियों द्वारा कर्ज अदायगी
न कर पाने के चलते 10 लाख करोड़ बैंकों का एन.पी.ए. होने वाला है जो इस लेख में बताये गये एन.पी.ए. के कारणों
की पुष्टि करता है।
नोट : लेख में व्यक्त विचारों को गहराई से जानने समझने के लिये पाठक श्री जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की पुस्तकें देश की दिशाए'- संदर्भ बजट 1997, भाग एक एवं "मूल्य बृद्धियाँ", क्या केवल यही और ये भी क्यों? और" जी. 20 सम्मेलन पढ़ने का कष्ट करें।
लेखक : बाबूराम पाल। ( मऊ) फरवरी 2020
Thursday, 22 December 2022
Marx on Nationalisation of Land, 1872
'I assert that the economical development of society, the increase and concentration of people, the very circumstances that compel the capitalist farmer to apply to agriculture collective and organised labour, and to have recourse to machinery and similar contrivances, will more and more render the nationalisation of land a "Social Necessity", against which no amount of talk about the rights of property can be of any avail. The imperative wants of society will and must be satisfied, changes dictated by social necessity will work their own way, and sooner or later adapt legislation to their interests.
What we require is a daily increasing production and its exigencies cannot be met by allowing a few individuals to regulate it according to their whims and private interests, or to ignorantly exhaust the powers of the soil. All modern methods, such as irrigation, drainage, steam ploughing, chemical treatment and so forth, ought to be applied to agriculture at large. But the scientific knowledge we possess, and the technical means of agriculture we command, such as machinery, etc., can never be successfully applied but by cultivating the land on a large scale.
If cultivation on a large scale proves (even under its present capitalist form, that degrades the cultivator himself to a mere beast of burden) so superior, from an economical point of view, to small and piecemeal husbandry, would it not give an increased impulse to production if applied on national dimensions?
The ever-growing wants of the people on the one side, the ever-increasing price of agricultural produce on the other, afford the irrefutable evidence that the nationalisation of land has become a social necessity.
Such a diminution of agricultural produce as springs from individual abuse, will, of course, become impossible whenever cultivation is carried on under the control and for the benefit of the nation. ...
In France, it is true, the soil is accessible to all who can buy it, but this very facility has brought about a division into small plots cultivated by men with small means and mainly relying upon the land by exertions of themselves and their families. This form of landed property and the piecemeal cultivation it necessitates, while excluding all appliances of modern agricultural improvements, converts the tiller himself into the most decided enemy to social progress and, above all, the nationalisation of land. Enchained to the soil upon which he has to spend all his vital energies in order to get a relatively small return, having to give away the greater part of his produce to the state, in the form of taxes, to the law tribe in the form of judiciary costs, and to the usurer in the form of interest, utterly ignorant of the social movements outside his petty field of employment; still he clings with fanatic fondness to his bit of land and his merely nominal proprietorship in the same. In this way the French peasant has been thrown into a most fatal antagonism to the industrial working class. ...
To nationalise the land, in order to let it out in small plots to individuals or working men's societies, would, under a middle-class government, only engender a reckless competition among themselves and thus result in a progressive increase of "Rent" which, in its turn, would afford new facilities to the appropriators of feeding upon the producers.
The nationalisation of land will work a complete change in the relations between labour and capital, and finally, do away with the capitalist form of production, whether industrial or rural. Then class distinctions and privileges will disappear together with the economical basis upon which they rest. To live on other people's labour will become a thing of the past. There will be no longer any government or state power, distinct from society itself! Agriculture, mining, manufacture, in one word, all branches of production, will gradually be organised in the most adequate manner. National centralisation of the means of production will become the national basis of a society composed of associations of free and equal producers, carrying on the social business on a common and rational plan. Such is the humanitarian goal to which the great economic movement of the 19th century is tending.'
Sunday, 18 December 2022
Stalin Quotes
The revolutions in France in 1848 and 1871 came to grief chiefly because the peasant reserves proved to be on the side of the bourgeoisie. The October Revolution was victorious because it was able to deprive the bourgeoisie of its peasant reserves, because it was able to win these reserves to the side of the proletariat, and because in this revolution the proletariat proved to be the only guiding force for the vast masses of the laboring people of town and country.
J V Stalin
On Fighting Fascism
Secondly, it is not true that the decisive battles have already been fought, that the proletariat was defeated in these battles, and that bourgeois rule has been consolidated as a consequence. There have been no decisive battles as yet, if only for the reason that there have not been any mass, genuinely Bolshevik parties, capable of leading the proletariat to dictatorship. Without such parties, decisive battles for dictatorship are impossible under the conditions of imperialism.
J V Stalin
"To carry out correct politics, one might sow a revolutionary mood and evoke differences within the reactionary circles."
By Comrade Stalin in 1951 in a talk with Indian Communist delegation.
"The art of the strategist and tactician lies in skillfully and opportunely transforming an agitation slogan into an action slogan, and in moulding, also opportunely and skillfully, an action slogan into definite, concrete, directives." (J.V. Stalin)
Our Soviet society is socialist society, because the private ownership of the factories, works, the land, the banks and the transport system has been abolished and public ownership put in its place. The social organisation which we have created may be called a Soviet socialist organisation, not entirely completed, but fundamentally, a socialist organisation of society.
The foundation of this society is public property : state, i.e., national, and also co-operative, collective farm property. Neither Italian fascism nor German National-"Socialism" has anything in common with such a society. Primarily, this is because the private ownership of the factories and works, of the land, the banks, transport, etc., has remained intact, and, therefore, capitalism remains in full force in Germany and in Italy.
- J. V. Stalin
Hence, a victory of the right deviation in our party would add to the conditions necessary for the restoration of capitalism in our country' (J. Stalin, "Problems of Leninism", F.L.P.H., Moscow, 1954, p. 276.).
Speech Delivered by Comrade J. Stalin at a Meeting of Voters of the Stalin Electoral Area, Moscow
"I would like to give you some advice, the advice of a candidate to his electors. If you take capitalist countries you will find that peculiar, I would say, rather strange relations exist there between deputies and voters. As long as the elections are in progress, the deputies flirt with the electors, fawn on them, swear fidelity and make heaps of promises of every kind. It would appear that the deputies are completely dependent on the electors. As soon as the elections are over, and the candidates have become deputies, relations undergo a radical change. Instead of the deputies being dependent on the electors, they become entirely independent. For four or five years, that is, until the next elections, the deputy feels quite free, independent of the people, of his electors. He may pass from one camp to another, he may turn from the right road to the wrong road, he may even become entangled in machinations of a not altogether desirable character, he may turn as many somersaults as he likes—he is independent.
Can such relations be regarded as normal? By no means, comrades. This circumstance was taken into consideration by our Constitution and it made it a law that electors have the right to recall their deputies before the expiration of their term of office if they begin to play monkey tricks, if they turn off the road, or if they forget that they are dependent on the people, on the electors.
This is a wonderful law, comrades. A deputy should know that he is the servant of the people, their emissary in the Supreme Soviet, and he must follow the line laid down in the mandate given him by the people. If he turns off the road, the electors. are entitled to demand new elections, and as to the deputy who turned off the road, they have the right to blackball him. (Laughter and applause.) This is a wonderful law. My advice, the advice of a candidate to his electors, is that they remember this electors' right, the right to recall deputies before the expiration of their term of office, that they keep an eye on their deputies, control them and, if they should take it into their heads to turn off the right road, get rid of them and demand new elections. The government is obliged to appoint new elections. My advice is to remember this law and to take advantage of it should need arise".
Photo voting Feb 10, 1946
#communism #capitalism #vote
Stalin, when addressing the People's of the East had distinguished by 1925: "at least three categories of colonial and dependent countries":
"Firstly countries like Morocco who have little or not proletariat, and are industrially quite undeveloped. Secondly countries like China and Egypt which are under-developed industries and have a relatively small proletariat. Thirdly countries like India, which are capitalistically more or less developed and have a more or less numerous national proletariat. Clearly all these countries cannot possibly be put on a par with one another."
(J.V.Stalin. "Political Tasks of the University of Peoples of the East." May 18. 1925. Reprinted San Francisco, 1975 in: J.V.Stalin. Marxism and the National Colonial question. P.317-8)
Stalin on Restoration of Capitalism in USSR
'A victory of the right deviation in our party would mean an enormous accession of strength to the capitalist elements in our country. And what does an accession of strength to the capitalist elements in our country mean? It means weakening the proletarian dictatorship and multiplying the chances of the restoration of capitalism.
'Hence, a victory of the right deviation in our party would add to the conditions necessary for the restoration of capitalism in our country' (J. Stalin, "Problems of Leninism", F.L.P.H., Moscow, 1954, p. 276.).
It is difficult for me to imagine what "personal liberty" is enjoyed by an unemployed person, who goes about hungry, and cannot find employment.
Real liberty can exist only where exploitation has been abolished, where there is no oppression of some by others, where there is no unemployment and poverty, where a man is not haunted by the fear of being tomorrow deprived of work, of home and of bread. Only in such a society is real, and not paper, personal and every other liberty possible.
Joseph Stalin
The Chinese path was good for China. But it is not sufficient for India where it is necessary to combine the proletarian struggle in the cities with the struggles of the peasants. Some think that the Chinese comrades are against such a combination. This is incorrect. Would Mao Zedong have been discontented if the workers of Shanghai had gone on strike when his army left for Nanking, or if the workers had struck work in the armaments factories? Of course not. But this did not take place as Mao Zedong's relations with the towns were severed. Of course, Mao Zedong would have been happy if the railwaymen had struck work and Chiang Kai-shek was deprived of the possibility of receiving projectiles. But there was an absence of relations with the workers – it was a grievous necessity, but it was not an ideal. It would be ideal if you strive for that which could not be done by the Chinese – to unite the peasant war with the struggle of the working class.
- J. V. Stalin
In India, some left groups are still hegitant to recognize capitalist order in Indian Society; they are saddled with semi-feudal concept of Indian society and they dream of democratic revolution as if induction and growth of capitalist order negates the stage of democratic revolution. It is because they fail to understand even the material basis of democratic revolution. The growth of capitalist order does not avert the democratic revolution, it does accelerate it. Stalin has said :
"The bourgeoisie revolution usually begins when there already exist more or less ready made forms belonging to the capitalist order, forms which have grown and matured within the womb of feudal society prior to the open revolution. J V. Stalin " Problems of Leninism P-168
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What Stalin commented on the European 'Left', gives light to understand our parliamentarian 'left', 'socialist' etc.
"Take any bourgeois-radical party— in France, let us say. It will unfailingly call itself a socialist party—"Radical Socialist," "Independent Socialist," etc., etc. Before the electors, the masses, the "lower orders," these parties always scatter "Left" phrases, particularly on the eve of elections, and particularly when they are being hard pressed by a competitor, a genuine socialist party. But "at the top," the "Radical Socialist" and "Independent Socialist" government ministers calmly carry on with their bourgeois work, totally regardless of the socialist aspirations of their electors."
Ludo Martin -Another view of Stalin
This book was hailed by many unsuspected and well intentioned communists all over the world as an "excellent pro-Stalin book". However, at the same time a number of Khruschevian revisionist and opportunist parties that have traditionally adopted an anti-Stalinist line advertised and promoted the book in many ways.
A review of this book was published under the title "Concerning certain distortions of Stalin's work and L. Martens' revisionist view of socialism" explaining that the mistake theory of Stalin was advanced to tarnish the image of Stalin, dilute the principle of Marxism Leninism on the nature of Socialist society and in fact was contrary to Marxism Leninism.
So, where did Mao's criticisms of Stalin come from? Obviously, Mao had no insider experience of what was happening among the Soviet leadership while he was in Yenan. The only information Mao could have had about Soviet events before 1949 would only come from either published sources or report-backs from deputies who had traveled to the USSR. Mao would have had no access to archival documents relative to Soviet decisions or internal disagreements — the very archival materials Grover is now uncovering. So, where did Mao's information about Stalin's "errors and abuses" come from?
They came from Khrushchev.
If one looks at Mao's criticism of Stalin and the indictments made by Khrushchev against the former Soviet leader, they are pretty much identical. The difference between the two being one of perspective and interpretation; with Khrushchev making his charges to condemn Stalin, while Mao accepted those charges, but argued that Stalin's "mistakes" were outweighed by his contributions. One is saying these charges are damning, the other saying the charges are "minor". But both accept the same charges.
Thus, by proving Khrushchev's charges to be false, Grover is not only revealing Khrushchev to be a liar and opportunist, but he is also removing the foundation for much of Mao's criticism of Stalin.
"In the so called mistakes of Stalin lies the difference between a revolutionary attitude and a revisionist attitude. You have to look at Stalin in the historical context in which he moves, you don't have to look at him as some kind of brute, but in that particular historical context . . . I have come to communism because of daddy Stalin and nobody must come and tell me that I mustn't read Stalin. I read him when it was very bad to read him. That was another time. And because I'm not very bright, and a hard-headed person, I keep on reading him. Especially in this new period, now that it is worse to read him. Then, as well as now, I still find a series of things that are very good." – Ernesto Che Guevara
M N Roy, a Marxist revolutionary from India, who helped to establish the communist Party in Mexico was invited by Lenin to attend a conference of the Communist International in 1920. Later, Roy became a member of the Presidium of the Communist International 's Political Secretariat. Roy had close association with Lenin, Trotsky and Stalin. He was known for his sympathy for Trotsky, which he changed later. (Roy was also expelled from the Commintern, he thought he was a victim of a conflict in the CI.) Roy was present at the meeting that expelled Trotsky from the CI in 1927. The following excerpt from Roy's obituary when Trotsky died shows graphically why Roy changed his position on Trotsky: ""Having agreed that it is not possible to build Socialism in the Soviet Union in the midst of a capitalist world there are two alternatives – either we should continue doing whatever is possible by way of advancing towards the ultimate goal of Socialism, pending the success of revolution in other countries; or we should lay down power in the Soviet Union and go back to emigration to wait for the time when there will be a revolution simultaneously throughout the world. I asked whether Trotsky would choose the latter alternative.
He shouted "No". Then I would vote for his expulsion, because he had been advocating a policy without understanding its implications or without meaning to put it into practice if he had the opportunity to do so.
Trotsky looked crestfallen. All through the night, he had heckled the speakers with challenging questions. He kept quiet while I spoke and hung his head in answer to my question. The historic vote was cast against him – unanimously. The Revolution went over the head of one of its most brilliant products".
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