आज तथाकथित साहित्यिक अवांगार्द की चर्चा बहुत होती है, और इस शब्द का अभिप्राय मुख्यत: रूप के क्षेत्र में होने वाले फैशनेबुल प्रयोगों से ही होता है। मेरे विचार में सच्चे अवांगार्द, सच्चे हरावल वे रचनाकार हैं, जो अपनी कृतियों में हमारे युग के जीवन के लक्षण निर्धारित करनेवाली नयी अंतर्वस्तु को उजागर करते हैं। सामान्यत: यथार्थवाद और यथार्थवादी उपन्यास -- दोनों ही अतीत के महान रचनाकारों के कलात्मक अनुभव पर आधारित हैं। परंतु अपने विकास में उन्होंने महत्वपूर्ण नये, आधुनिक लक्षण प्राप्त किये हैं।
मैं इस यथार्थवाद की चर्चा कर रहा हूँ, जो जीवन के नवीकरण का, मानव के हित में उसके पुनर्गठन का विचार लिए होता है। बेशक, मैं उस यथार्थवाद की बात कर रहा हूँ, जिसे हम समाजवादी यथार्थवाद कहते हैं। उसकी मौलिकता इस बात में है कि वह उस विश्वदृष्टिकोण को व्यक्त करता है, जो न मात्र अवलोकन को स्वीकार करता है और न ही वास्तविकता से पलायन को, जो मानवजाति की प्रगति के लिए संघर्ष का आह्वान करता है तथा कोटि-कोटि जनता के प्रिय लक्ष्यों को समझना तथा इन लोगों के लिए संघर्ष का पथ आलोकित करना संभव बनाता है।
मानवजाति एकाकी व्यक्तियों की भीड़ मात्र नहीं है, जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकले अंतरिक्षनाविक की भांति भारहीनता की अवस्था में तिरते रहते हैं। हम पृथ्वी पर रहते हैं, उसके नियमों से शासित हैं, और हमारे जीवन पर हावी हैं दैनिक चिंताएँ और अपेक्षाएँ, उज्ज्वल भविष्य की आशाएँ। पृथ्वी के आबादी के विराट संस्तर एकसमान आकांक्षाओं से प्रेरित हैं, उनके समान हित हैं, जो उन्हें एक-दूसरे से अलग करने की अपेक्षा कहीं अधिक हद तक उन्हें एक सूत्र में पिरोते हैं।
ये श्रमिक जन हैं, वे लोग हैं, जो अपने हाथों और मस्तिष्क से सभी वस्तुओं का सृजन करते हैं। मैं उन लेखकों में से हूँ, जो अपना सर्वोच्च मान और सर्वोपरि स्वतंत्रता अपनी कलम से श्रमिक जनता की सेवा करने की निर्बाध संभावना में ही देखते हैं।
-- मिख़ाईल शोलोख़ोव
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