बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ने का मुख्य कारण और पूँजीपतियों व जनसाधारण पर उसका प्रभाव
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मंथन अंक : 24 आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें
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लेखक : बाबूराम पाल ( मऊ ) फरवरी 2020
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दैनिक जागरण 31 दिस. 2019 के एक सम्पादकीय लेख के अनुसार केन्द्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2017-18 एवं 2018-19 में सरकारी क्षेत्र के बैंकों को सरकारी खजाने से 1,96,000 के. रु. सहायता दिया है और वर्तमान वित्तीय वर्ष 2019-20 में अब तक 70,000 क.रु. सहायता दे चुकी है। इस तरह लगभग 3 वित्तीय वर्षों में कुल 2,66,000 क.रु. बैंकों को सहायता दिया है। कारण? बैंकों की वित्तीय हालत खराब है। वे उद्योगपतियों, व्यापारपतियों, सड़क-मकान निर्माण कम्पनियों, मकानों गाड़ियों के खरीदार उपभोक्ताओं आदि को कर्जा नहीं दे पा रही हैं। बैंकों की पूँजी कम हो जाने का एक प्रमुख कारण एन. पी. ए. बढ़ना है, जो जून 2014 में 2,24,552 क.रु. से बढ़कर दिस. 2017 तक 7,23,216 क.रु. एवं मार्च 2019 तक 8,33,000 क.रु. हो गया। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण भी संसद में व उसके बाहर उपरोक्त तथ्यों की घोषणा करती रही हैं। उसी लेख की सूचना है कि वित्तीय वर्ष 2013-14 में जनता से डीजल पेट्रोल पर उत्पाद कर 46,386 क.रु. वसूला गया, जिसे बढ़ाते हुये वित्तीय वर्ष 2018-2019 में 2,13,400 क.रु. वसूला गया।
अब सवाल है कि एन.पी.ए. की भरपाई के लिए सरकार अपने खजाने से जो धन बैंकों को दे रही है, वह घन मूलतः कहाँ से आता है? यह एन.पी.ए. क्या है? उसके बढ़ने का मुख्य कारण क्या है? एन.पी.ए. बढ़ने एवं सरकारी खजाने से उसकी भरपाई करने का पूँजीपतियों व जनसाधारण पर क्या प्रभाव पड़ता है? तकनीकी ढंग से कहें तो एन.पी.ए. बैंकों द्वारा दिया गया वह कर्जा या अग्रिम है जिसके मूलधन व ब्याज का भुगतान 90 दिनों तक या निर्धारित अवधि तक या उसके बाद भी नहीं किया जाता है। इससे बैंकों का जमा धन कम हो जाता है और बैंक अपने ग्राहकों को कर्जा देने एवं जमाकर्ताओं का धन वापस करने में कठिनाई में फँस जाते हैं। अब यह देखा जाय कि एन.पी.ए. बढ़ाने वाले अर्थात बैंको से कर्जा या अग्रिम लेने और उसे जमा न करने वाले कौन है? आप जानते ही होंगे कि बैंकों से कर्जा लेने वाले मुख्य है- 1. पूँजीपति और व्यापारपति 2. खुद केन्द्र व राज्य की सरकारें, 3 दोपहिया चारपहिया वाहनों, मकानों व अन्य मालों के खरीदार उपभोक्ता, 4. किसान इनमें उपभोक्ता व किसान यदि सूद व कर्जा समय पर न लौटायें, तो उनके या जमानतदारों के घर, मकान, गाड़ियों, खेत, ट्रैक्टर आदि नीलाम करके बैंक अपना कर्जा वसूलती रहती है, बाकायदा जिलों तहसीलों पर बकायेदारों के साइनबोर्ड लगाकर एवं अखबारों आदि में विज्ञापन देकर। यदि सरकारें कभी किसानों का कर्जा माफ भी करती हैं, तो उसकी एवजी में माफी की धनराशि के बराबर धनराशि सरकारी खजाने से बैंकों को भुगतान करती हैं। अतः उपभोक्ताओं एवं किसानों को दिए सारे कर्जे व सूद बैंक स्वयं एवं सरकारी मदद से वसूलती रहती है; उनका भुगतान होता रहता है। उपरोक्त बातें आप किसी बैंक कर्मचारी से भी जान सकते हैं। केन्द्र व प्रान्तीय सरकारें भी बैंकों के कर्जों व व्याजों का भुगतान करती रहती हैं। लेकिन पूँजीपति, व्यापारपति? बहुचर्चित है कि विजयमाल्या, नीरवमोदी, जतिन मेहता, मेहुल चोकसी जैसे 31 पूजीपति सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का अरबों रुपये लेकर विदेश भाग गये। दूसरे, 20 फरवरी 2018 के इंडिया. काम के समाचार के अनुसार पूँजीपतियों की एस्सार स्टील, भूषण स्टील, जे.पी. इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि 400 कम्पनियाँ बैंकों के कर्जों व सूदों की अदायगी नहीं कर रहीं हैं। इनमें से मात्र 12 कम्पनियों पर फरवरी 2019 तक 35 प्रतिशत एन.पी.ए. की देनदारी है जो धनराशि में 3,45,000 क रु. है। अतः सार्वजनिक बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ाने एवं उनकी वित्तीय हालत खराब करने के मुख्य दोषी पूँजीपति, व्यापारपति है। लेकिन किन 12 व अन्य कम्पनियों पर उनके मालिक पूँजीपतियों पर कितनी कितनी धनराशि एन.पी.ए. के रूप में बकाया है-उनका नाम और एन.पी.ए. की राशि सरकार नहीं बताती, जबकि बकायेदार किसानों का साइनबोर्ड लगाती है। अब इससे संबंधित दूसरी बात बारह कम्पनियों की एन.पी.ए. की यह 3,45,000 क.रु. की धनराशि तुलनात्मक रूप से 10 राज्य सरकारों- उ.प्र. म. प्र. महाराष्ट्र, तेलंगाना, आन्ध्र प्र पंजाब कर्नाटक, असम, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारों द्वारा वित्तीय वर्ष 2017-18 से फरवरी 2019 तक माफ की गयी किसानों की कर्जराशि 1,84,000 क.रु. से लगभग दोगुना है। किसानों की कर्जमाफी एन.पी.ए. भी नहीं है; क्योंकि सरकारें उसे बैंकों को अदा कर देती रही हैं। लेकिन पूँजीपतियों के टुकड़खोर पत्रकार, विद्वान किसानों की कर्जमाफी पर यह दुष्प्रचार करते हैं कि उससे बैंकों की वित्तीय हालत खराब होती है। वे यह भी प्रचार करते हैं कि सरकार को किसानों की कर्जमाफी की धनराशि देश विकास में लगाना चाहिए इससे इतना उतना राष्ट्र विकास होता, दूसरे, कर्जमाफी के कारण किसान बार बार कर्जा लेने और उसे न चुकाने के सरकारी सहायता पर निर्भर होने के आदती बन जाते हैं, राष्ट्रविकास में बाधा पहुँचाते हैं। जबकि हकीकत है कि बैंकों को मात्र 3 वर्षो में दी गयी उरोक्त सहायता राशि 2,66,000 क.रु. से 26,600 किमी फोरलेन सड़कें बनायी जा सकती है (31 दिस. के उसी समाचार के अनुसार)। उसी हिसाब से 8,33,000 करु. के एन.पी.ए. की वसूली से 80,000 किमी से अधिक फोरलेन सड़कें बनायी जा सकती हैं। लेकिन पूंजीपतियों से एन.पी.ए. वसूलने में सरकारें वैसी कड़ाई नहीं करतीं, जैसी किसानों के साथ। इसके अलावा सरकारें देशी विदेशी पूँजीपतियों पर हर साल लगे लाखों क.रु. के टैक्सों के बकाये माफ कर देती हैं और उन्हें छूट देकर उसे नहीं वसूलती रही है और उन पर लगे करों की दरें भी घटा देती रही है (तथा सरकारी खजाने से उन्हें वित्तीय सहायता अलग देती रही हैं। यदि उन्हें पूर्णतः वसूलकर राष्ट्रविकास में लगाया जाता तो कितना विकास होता? इसे ये पत्रकार, विद्वान नहीं बताते। बल्कि पूँजीपतियों से एन.पी.ए. एवं करों को न वसूलने, एवं उनके करों को कम करने, तथा उन्हें सरकारी धन देने को ये विद्वान एवं सरकार राष्ट्र विकास के लिये, देशी विदेशी पूँजीपतियों को आकर्षित करने के लिए जरूरी बताते रहते हैं। उदाहरणार्थ, इकोनामिक टाइम्स 5 जुलाई 2019 की सूचना के अनुसार सरकार ने वित्तीय वर्ष 2018-19 में पूँजीपतियों को कारपोरेट टैक्स 1,08,785 के. रु. और सीमा शुल्क टैक्स 1,43,26 क.रु. की छूट दे दिया. माफ कर दिया और उसे नहीं वसूला। ध्यान देने की बात है कि पूँजीपति- व्यापारपति इन करों को उपभोक्ता से तो वसूल लेते हैं, लेकिन सरकार पूँजीपतियों से नहीं वसूलती है। मोदी भाजपा सरकार के समय ही नहीं बल्कि 2005-06 से 2013-14 तक के 09 वित्तीय वर्षों मे कुल 36,59,496 क.रु. का टैक्स (कारपोरेट टैक्स, सीमाकर, उत्पादकर) पूँजीपतियों से मनमोहन सिंह कांग्रेस सरकार ने भी माफ करते हुये नहीं वसूला था (पीसाईनाथ के लेख से, जिसे उन वित्तीय वर्षों के बजटों से इस लेखक द्वारा संकलित तालिका में पृष्ठ 15 पर देख सकते हैं)। दूसरे, वर्तमान वित्तीय वर्ष में भी सित. 20 को सरकार ने कारपोरेट टैक्स की लागू दर 35 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत, एवं नये कारपोरेट निवेशकों की लागू टैक्स दर 29 प्रतिशत से घटाकर 17 प्रतिशत कर दिया, और इन दोनों कर्मों से सरकारी खजाने की आय 1,45,000 क.रु. कम कर लिया। उसी समय निर्यात व रियल एस्टेट को प्रोत्साहन देने के लिए पूँजीपतियों को 70,000 क.रु. का पैकेज दिया। सरकार द्वारा पूंजीपतियों को दी जा रही इस विशाल धनराशि से देश राष्ट्र का कितना विकास होता ?! विकास के बजाय सरकार ने इन सबसे कम हो गयी सरकारी आय पूरा करने के लिये रिजर्व बैंक से 1.76,000 क.रु. जबरदस्ती उधार ले लिया; और अपने ऊपर कर्जा बढ़ा लिया। लेकिन इन कदमों, छूटों से सरकार ने पूँजीपतियों के लाभों पूँजीयों में तत्काल वृद्धियां करा दिया। जनसाधारण पर इनका क्या प्रभाव पड़ रहा है? इस पर चर्चा से पहले किसानों के बारे दूसरे प्रचारों की सच्चाई को लें।
बताने की जरुरत नहीं कि किसान अनाज, दलहन, तिलहन, फल, सब्जी, अंडा, मछली, मांस, दूध, घी, पनीर, फूल, औषधीय पौधे आदि का व्यापक उत्पादन करके शहरों, उद्योगों व विदेशों तक उनकी आपूर्ति करके एवं उद्योगों के बने खेती में लगने वाले एवं अपने जीवन की जरूरतों के माल सामान खरीदकर राष्ट्रविकास में भारी योगदान करते रहे हैं। इसके बावजूद ज्यादातर किसान खेती किसानी से लाभ नहीं कमाते, बल्कि घाटे में रहते हैं, कर्जा अदा नहीं कर पाते हैं, जमीनें बेचने को मजबूर होते रहते हैं, आत्महत्यायें करते रहते हैं। यह सब जानते हुये ही सरकारें कभी कभी किसानों की कर्जामाफी करके उन्हें नया कर्जा दे देती हैं, ताकि किसान कृषि में लगे रहें, उद्योगों के माल सामान खरीदकर उन्हें लाभ पहुँचाते रहे और कृषि उत्पादन बढ़ाकर उनकी जरूरतें पूरी करते रहें, भले ही स्वयं घाटा उठाते रहें, अपनी जमीने बेचते रहे व आत्महत्यायें करते रहें। जबकि पूँजीपति, व्यापारपति कजों से अपना उद्योग, व्यापार बढ़ाते रहते हैं, लाभ बचत बढ़ाते हुये अपनी निजी पूँजी व परिसम्पतियां बढ़ाते रहते हैं, देश विदेश में नयी-नयी कम्पनियों खड़ी कर लेते हैं। और! कुछ दशाओं में पहले की कम्पनियों के नाम पर लिये गये कर्जों की अदायगी नहीं करते हैं, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ाते रहते हैं। फिर भी, यह सब जानते हुये भी सरकार बैंकों को अपने खजाने से सहायता धनराशि देकरके पूँजीपतियों को नये कर्जे देती दिलवाती रहती है, अब नये कर्जों से भी पूँजीपति अपना लाभ पूँजी बढ़ा लेते हैं; लेकिन कुछ कर्जा नहीं अदा करते, एन.पी.ए. बढ़ा देते हैं तो भी सरकार पुनः उनकी लूटखोरी, हड़़पखोरी में सहायता करने पहुंच जाती है। इस तरह देशी विदेशी पूँजीपति वर्ग बैंकों का कर्जा हड़पने, सरकारों पर दबाव डालकर सहायता लेने, टैक्स कर न वसूलने देने व कम करवाने, और यह सब करके अपनी पूँजी परिसम्पत्तियों बढ़ाने का आदी बना हुआ है। यह
आदत उसकी चारित्रिक विशेषता है लेकिन हमारे 'राष्ट्रवादी' पत्रकार, विद्वान इस प्रकार के सरकारी सहयोग से
पूँजीपतियों के निजी लाभ जोड़ने व पूँजी वृद्धि करने की उनकी आदत चरित्र पर चर्चा नहीं करते, उनके निजी विकास
को पूँजीपतियों का विकास नही कहते बल्कि उसे राष्ट्रविकास कहते हैं और सरकारों द्वारा उन्हें वित्तीय सहायता देने,
उनके बकाया करों को न वसूलने, करों को कम करने, कर्जों को न वसूलने आदि सहयोगों को राष्ट्र विकास के लिए
आवश्यक बताते रहते हैं जबकि मजदूरों, किसानों, दस्तकारों के जीवन चलाने के लिए भोजन, पानी, बिजली, खाद,
बीज, मशीन, दवा, शिक्षा, कर्जा आदि पर दी जाने वाली सहायताओं, छूटों को राष्ट्रविकास में बाधक बताते रहते हैं।
उपरोक्त बातों से साफ है कि पत्रकारी जगत पूंजीपतियों की जेब का है और सरकार पूँजीपतियों व्यापारपतियों की
हिमायती है, और मजदूर, किसान, दस्तकार व अन्य जनसाधरण की विरोधी है। अब देखा जाय कि जिस सरकारी
खजाने से बैंकों, पूँजीपतियों व्यापारपतियों व जनसाधारण को सहायतायें दी जाती हैं, उस खजाने की धनराशि मूलतः
किस जनता के करों से आती है?
आप जानते हैं कि सरकार अपना खजाना, जनता पर तरह तरह के टैक्स कर जैसे, आयात कर या सीमा कर मालो सामानों पर उत्पाद कर मालो सेवाओं की बिक्री पर जी.एस.टी. कर, कम्पनियों के लाभों पर कारपोरेट कर, कलाकारों, खिलाड़ियों, मैनेजरों, डाइरेक्टरों अधिकारियों, वकीलों डाक्टरों, प्रोफेसरों आदि मध्यमवर्गों पर आयकर आदि लगाकर भरती है। इसका लेखा जोखा वह हर साल बजट में देती है। इसके बारे में 'मंथन' के पिछले अंकों से या अन्य संचार माध्यमों से आप विस्तार से जान सकते हैं। इस लेख में केवल विषय के सन्दर्भ में आप यह जाने कि सरकार को कर देने वाली प्रचारित जनता मुख्यतः 3 वर्गों में बँटी है:- 1. धन्नाढ़ उद्योगपति, व्यापारपति बैंकपति वर्ग, 2. उच्च व मध्यम वर्ग के मध्यमवर्गीय कलाकार, विज्ञापनबाज, खिलाड़ी, मैनेजर, डाइरेक्टर, लेखक, पत्रकार वकील, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, अधिकारी, कर्मचारी, अध्यापक आदि, 3. मजदूर किसान, दस्तकार, दुकानदार, अध्यापक, चपरासी, क्लर्क आदि जनसाधरण विद्वानों के प्रचारों से लगता है, और साधारण लोग भी समझते हैं कि सारा टैक्स कर पहले और दूसरे वर्ग के धनवान लोग ही चुकाते है। जबकि पहले वर्ग के पूजीपति, व्यापारपति अपने द्वारा सरकार को अदा किया जाने वाला सम्पूर्ण टैक्स मजदूरों की मेहनत से पैदा किये मालों सामानों के दामों में जोड़कर खरीददारों उपभोक्ताओं से वसूल लेते हैं और ग्राहक सभी करों सहित मालों सामानों का दाम देते हैं। तुर्रा यह कि ये पूँजीपति, व्यापारपति ग्राहकों से वसूले सम्पूर्ण कर को सरकारी खजाने में जमा ही नहीं करते, इसके लिए करों की चोरी करते हैं, काला धन बनाते हैं और सरकार से करों को न जमा करने की एवं टैक्स दरों को कम करने की छूट ले लेते हैं और निर्यात आदि के लिए सरकरी खजाने से सहायता धन भी लेते रहते हैं। यह सब करके अपनी निजी पूँजी परिसम्पत्ति बढ़ाते रहते हैं। दूसरे वर्ग की मध्यमवर्गीय जनता का व्यापक हिस्सा डाइरेक्टर मैनेजर, अधिकारी, प्रोफेसर आदि जितना टैक्स सरकार को देता है, उससे दसियों, बीसियों गुना ज्यादा धनराशि वेतन, भत्ता, पुरस्कार आदि के रूप में सरकारी खजाने से (या पूँजीपतियों से) ले लेता है उसी तरह विज्ञापनबाज, कलाकार, खिलाड़ी आदि लाखों करोड़ों की फीसें, पुरस्कार रुपी आय पूँजीपतियों से पाते हैं; जिससे थोड़ा सा कर दे देते हैं। अतः सरकार का खजाना मुख्यतः जनसाधारण के शोषण व दोहन से भरा जाता है। पूँजीपति व सरकारें मजदूरों व किसानो से मालों सामानों को, कम मजदूरी व कम मूल्य पर उत्पादन करवाके उनका शोषण करती हैं। साथ ही बहुसंख्यक मजदूर किसान व अन्य जनसाधरण मालों सामानों के खरीदार बनकर सभी प्रकार के करों का बड़ा हिस्सा चुकाते हैं। दोनों तरह से, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तरीकों से सरकार का खजाना भरते हैं उस खजाने से कुछ दान दक्षिणा (सस्ता राशन, विधवा बृद्धा पेंशन आदि) के अलावा कुछ नहीं पाते। जबकि धन्नाड व मध्यमवर्ग मालो सामानों की खरीदारी से भी जितना टैक्स कर अदा करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा धनराशि सरकारी खजाने से वेतन सहायता छूट आदि के रूप में सरकार से ले लेते हैं। निष्कर्ष यह कि सरकारें मजदूरों, किसानों व अन्य जनसाधारण का शोषण दोहन करके अपना सरकारी खजाना भरती है.
और उस खजाने से, व ऊपर बताये गये दूसरे ढंगो से पूँजीपतियों व्यापारपतियों की सहायता, सहयोग करके उनकी लाभ पूँजी बढ़वाती है। लेकिन दूसरी तरफ .... सरकार जिन कदमों, सहयोगों से पूजीपतियों के लाभ पूँजी बढ़वाती है, उन्हीं कदमों से मँहगाई खासकर जनसाधारण के दैनिक जरूरत के मालों सामानों की मँहगाई बढ़ाती है? कैसे? जब वह मालों सामानों पर टैक्स कर लगाती है य बढ़ाती है तो मँहगाई बढ़ जाती है। क्योंकि सरकार द्वारा लगायें या बढ़ाये टैक्सों को पूँजीपति मालों के दामों में (प्राय: और अधिक बढ़ाकर) जोड़ देते हैं। डीजल पेट्रोल पर कर बढ़ने से उनके दाम बढ़ जाते हैं। साथ ही पैसेंजर किराये बढ़ने के अलावा डुलाई भाडा बढ़ने से कई सामानों, अनाजों, दालों, सब्जियों, फलों आदि के दाम बढ़ जाते हैं। जैसे डीजल पेट्रोल पर उत्पाद कर सरकार ने 2013-14 में 46.386 क.रु. से बढ़ाकर 2018-19 में 2,13,400 के. रु. कर दिया तो सभी मालों सामानों की मँहगाई उसी अनुपात से बढ़ती गयी है। दूसरे, सरकार जब इधर अपने खजाने से बैंकों, पूँजीपतियों को धन देकर बजट घाटा बढ़ा रही होती है, तब उधर उस घाटे को कम करने के लिए रेलगाडा, डीजल, पेट्रोल, गैस के दाम, कई सामानों की जी.एस.टी. आदि बढ़ा देती रही है। जैसे 2020 के नये साल के पहले ही दिन रेल भाड़ा, रसोई गैस का दाम बढ़ा दिया। तीसरे बजट घाटा पूरा करने लिए जब सकार रिजर्व बैंक आदि से कर्ज ले रही है, तब इससे मुद्रा या रु. का मूल्य कम हो रहा है, मुद्रास्फीति बढ़ रही है। इस कारण भी सब्जियों, दालों, अनाजों आदि सामानों की मँहगाई बढ़ रही है। जैसे, समाचारों के अनुसार जुलाई 2019 की तुलना में जनवरी 2020 में मुद्रास्फीति बढ़ने से थोक उपभोक्ता मँहगाई दर दोगुना हो गयी है। लेकिन धन्नाड़ों, मध्यमवर्गों के लिए दालों, सब्जियों, अनाजों की मँहगाई कोई समस्या ही नहीं है बल्कि धन्नाठों के लिए लाभदायक है, उनके लाभ पूँजी बढ़ाने का जरिया व परिणाम है; और स्थायी नौकरी पेशा वाले मध्यमवर्ग के लिए मँहगाई भत्ता व वेतन बढ़ने का आधार है। इसलिए मध्यमवर्ग जनसाधरण के जीवन के लिए जरूरी अनाजों, दालों, सब्जियों आदि की मँहगाई की समस्या को कोई समस्या ही नहीं मानता बल्कि मँहगाई बढ़ने का समर्थन करता है। अब अगली बात, सरकार बँकपतियों, पूँजीपतियों, व्यापारपतियाँ को दी जाने वाली सहायताओं, सहयोगों का बोझ तो टैक्स व मँहगाई बढ़ाकर जनसाधारण पर खालती ही है। साथ ही। आम जनता के शिक्षा व स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्च को घटाती रही है और उन्हें स्थापित संचालित करने का जिम्मा धन्नाट वर्ग ले रहे हैं और शिक्षा स्वास्थ्य में पूँजी निवेश करके लाभ पूँजी कमा रहे हैं। किसानों के खाद बीज पर दी जानेवाली छूटों को काटती घटाती रही है। किसानों के हित में सिंचाई परियोजनाओं के लिए धन देना लगभग बन्द ही कर दिया है। जैसे वर्तमान 2019-20 के वित्तीय वर्ष में सिंचाई पर खर्चा कुल बजट का 0035 प्रतिशत है। लेकिन यही सरकार पूंजीपतियों व्यापारपतियों के माल, मजदूर, कर्मचारी, अधिकारी, नेता, मंत्री, ग्राहक आदि ढोने के लिए रेलों, सड़कों के निर्माण व विकास के लिए सरकारी खजाने से रक्षा के बाद सबसे ज्यादा धन, कुल बजट का लगभग 10 प्रतिशत खर्च करती रही है। या वास्तव में कहिये तो देशी विदेशी धन्नाट पूँजीपति व्यापारपति बैंकपति वर्ग सरकारों पर दबाव डालकर अपने हितों में व जनसाधारण के विरोध में उपरोक्त कार्य सरकारों से करवाता रहता है।
उनका यह सब कार्य निर्विरोध रुप से जारी रखने के लिये सरकार बनाने वाले दलों नेताओं ने उनके समर्थक विद्वानों बुद्धिजावियों ने, देशी विदेशी पूँजीपतियों के टी.वी. चैनलों, समाचार पत्रों, इंटरनेट आदि के माध्यम से पिछले 25 30 सालों से जनसाधारण की जाति, धर्मसम्प्रदाय, इलाका, लिंग, भाषा के भावनात्मक मानसिकताओं, विचारों, अलगावों, भेदभावों को बढ़ाते हुए उनका राजनीतिक इस्तेमाल तेज कर दिया है। नये पुराने मुद्दे खड़े करके जातिवादी, धर्म सम्प्रदायवादी गोलबन्दियों को और ज्यादा बढ़ाते व मजबूत करते रहते हैं जैसे पिछले 5/6 माह से तीन तलाक, अनु 370 का समापन, सी.ए.ए., एन.आर.सी., एन. पी. आर. आदि से। ताकि जनसाधारण महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि समस्याओं की उपरोक्त व अन्य बातों को न सुने, न जाने, उन्हें न समझे अपनी समस्याओं के लिये सरकारों एवं पूंजीपतियों को दोष न दे, अपनी मँहगाई, बेरोजगारी आदि समस्याओं को लेकर उनका विरोध न करे विरोध करने के लिये एकता न बना सके। लेकिन जाति, धर्म, इलाका, भाषा, लिंग आदि पर खूब चर्चा करता रहे और उनके नाम पर वोट देने के लिए गोलबन्द हुआ करे। वैसे तो पूँजीपतियों के विद्वानों, पत्रकारों के साथ कांग्रेस, अधिकांश वामपंथी सहित सपा, बसपा, राजद आदि सभी दल इसके दोषी रहे हैं, लेकिन इस समय भाजपा सबसे आगे है। क्यों व कैसे? एवं समाज व राष्ट्र के लिए उसके परिणाम क्या आ रहे हैं व आयेंगे। इस पर फिर कभी बाद में। इस लेख के छपते छपते 'दैनिक जागरण' अखबार में 3 मार्च 2020 को खबर छपी कि कम्पनियों द्वारा कर्ज अदायगी
न कर पाने के चलते 10 लाख करोड़ बैंकों का एन.पी.ए. होने वाला है जो इस लेख में बताये गये एन.पी.ए. के कारणों
की पुष्टि करता है।
नोट : लेख में व्यक्त विचारों को गहराई से जानने समझने के लिये पाठक श्री जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की पुस्तकें देश की दिशाए'- संदर्भ बजट 1997, भाग एक एवं "मूल्य बृद्धियाँ", क्या केवल यही और ये भी क्यों? और" जी. 20 सम्मेलन पढ़ने का कष्ट करें।
लेखक : बाबूराम पाल। ( मऊ) फरवरी 2020
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