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Saturday, 31 December 2022

नए साल की शुभकामनाएँ - कविता



ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये व्यवहार नहीं

धरा ठिठुरती है सर्दी से
आकाश में कोहरा गहरा है
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा है

सूना है प्रकृति का आँगन
कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं
हर कोई है घर में दुबका हुआ
नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं


चंद मास अभी इंतज़ार करो
निज मन में तनिक विचार करो
नये साल नया कुछ हो तो सही
क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही

उल्लास मंद है जन -मन का
आयी है अभी बहार नहीं
ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं

ये धुंध कुहासा छंटने दो
रातों का राज्य सिमटने दो
प्रकृति का रूप निखरने दो
फागुन का रंग बिखरने दो

प्रकृति दुल्हन का रूप धार
जब स्नेह – सुधा बरसायेगी
शस्य – श्यामला धरती माता

घर -घर खुशहाली लायेगी
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि
नव वर्ष मनाया जायेगा
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर

जय गान सुनाया जायेगा
युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध
आर्यों की कीर्ति सदा -सदा

नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
अनमोल विरासत के धनिकों को
चाहिये कोई उधार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं
है अपनी ये तो रीत नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं

रामधारी सिंह "दिनकर"

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खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को
नए साल की शुभकामनाएं !

जाँते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएँ !

इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएँ !

वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएँ !

 *सर्वेश्वर दयाल सक्सेना*

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तुझमें नयापन क्या है ?

ऐ नए साल बता, तुझमें नयापन क्या है
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है

रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही

आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं
एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं

अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे

जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी

तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा
अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा

तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई

बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें

तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की
'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की 

- फ़ैज़ लुधियानवी

ख़ल्क़ = मानवता, हिंदसे = संख्या, जिद्दत = नया-पन, अगले = पिछले/गुज़रे हुए, क़रीने = क्रम, दहर = दुनिया, मीआद = मियाद/अवधि, बे-सबब = बे-वजह, ग़ालिबन = शायद, आमद = आना, ढब = तरीक़ा

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