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Friday, 23 December 2022

वर्तमान (2019) की आर्थिक मन्दी के कारण क्या है? इसके लिए जिम्मेवार कौन ? सरकारी पैकेज किनके संकटों के समाधान ?

वर्तमान (2019) की आर्थिक मन्दी के कारण क्या है? इसके लिए जिम्मेवार कौन ? सरकारी पैकेज किनके संकटों के समाधान ?
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मंथन अंक: 23   आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें
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लेखक :  ओमप्रकाश सिंह  ( आजमगढ़ ) नवंबर 2019
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पिछले कई महीने से लगातार भारतीय अर्थव्यवस्था में मन्दी के जैसे आर्थिक संकट की खबरें आती रही है। हालांकि शुरू में सरकार ने मन्दी के जैसे संकटों से इन्कार कर दिया परन्तु न केवल सरकार को मन्दी जैसे आर्थिक संकट कबूलना पड़ा बल्कि संकटग्रस्त क्षेत्रों को बाहर निकालने हेतु सुधारों व समाधानों रूपी सहायतायें भी देना पड़ा। तब स्वाभाविक सवाल खड़ा होगा कि क्या वास्तव में अर्थव्यवस्था में मन्दी के संकट है? अथवा यह केवल आर्थिक संकटों का हो-हल्ला मचाकर पूंजीपतियों द्वारा सरकार से छूटे, सहायतायें लेने का बहाना है? सच्चाई क्या है? सच्चाई जानने से पहले सरकार विरोधी दलों को सुने- कांग्रेस पार्टी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में आई मन्दी के लिए सरकार की गलत नीतियां जैसे, नोटबंदी व जी.एस.टी. आदि लागू करने को प्रमुख दोषी माना है, इसे स्वीकार करते हुए प्रमुख वामपंथी दलों ने मजदूरों किसानों की खरीदने की गिरती क्षमता के चलते मालों-सामानों की मांग की कमी को वर्तमान आर्थिक मंदी का प्रमुख कारण बतलाया है। इसलिए हमारे सामने यह भी प्रमुख सवाल खड़ा होता है कि क्या वर्तमान आर्थिक मंदी के लिए भाजपा सरकार की नीतियां दोषी है? भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट क्या कांग्रेस के विभिन्न कालों में नहीं आये थे? आये तो थे बार-बार आये थे, उन्हें आप जानते भी हैं, लेकिन याद नहीं करना चाहते क्यों? क्योंकि तब पूरी अर्थव्यवस्था पर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर ही सवाल खड़े करने पड़ जायेंगे जो आप वामपंथी पूंजीवादी सज्जन चाहते नहीं है। उससे बचना चाहते हैं। इसलिए कभी मनमोहन सिंह की नीतियों को, तो आज भाजपा की नीतियों को दोष देकर पूंजीवादी व्यवस्था को उसके भीतर के संकटों के जिम्मेवार कारकों व कारणों को छिपाना चाहते हैं। इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे पहले संकटों को और उसके समाधान के सरकारी प्रयास को देखे-

सर्वप्रथम सबसे ज्यादा चर्चा में आये संकटग्रस्त आटोमोबाइल क्षेत्र को देखा जाय तो इन वाहन कम्पनियों के शीर्ष संगठन सियाम के तरफ से बताया गया कि सभी तरह के वाहनों की विक्री में सितम्बर तक 23.5 प्रतिशत की कमी आयी। जबकि जुलाई में वाहनों की बिक्री में 18.7 प्रतिशत की कमी थी। घरेलू बाजार में पैसेंजर वाहनों की बिक्री 41 प्रतिशत से ज्यादा घटी है यह लगातार पिछले 10 महीने से कम हो रही है। कामर्शियल वाहनों की विक्री में भी कमी आयी है, जिसमें ट्रैक्टर की विक्री में 20 प्रतिशत की कमी बतायी जा रही है। सबसे बड़ी वाहन कम्पनियां मारूति सुजकी में 24 प्रतिशत, दूसरी बड़ी कम्पनी हुंडई की घरेलू विक्री में 15 प्रतिशत तथा महेन्द्रा एण्ड महेन्द्रा में 21 प्रतिशत एवं टाटा मोटर्स की विक्री में 48 प्रतिशत तक गिरावट हुई तथा निर्यात बाजार में 41 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी। मतलब, कामर्शियल, पैसेंजर दो पहिया, तीन पहिया सभी तरह के वाहनों की दिग्गज बड़ी कम्पनियों में उत्पादन की भारी वृद्धि के बावजूद विक्री में गिरावट दर्ज की गयी है। फ्रंट लाइन पत्रिका ने सितम्बर 13, 2019 के अंक में आटो मोबाइल उत्पादन का आंकड़ा प्रकाशित किया है जिसे देखने से पता चलता है कि निर्मित पैसेंजर वाहनों की इस समय संख्या 40 लाख है, कमर्शियल वाहनों की संख्या 11 लाख, तीन पहिया वाहनों की संख्या 13 लाख, दो पहिया वाहनों की संख्या 2 करोड़ 45 लाख है। पिछले सालों की तुलना में हर साल वाहनों के उत्पादन में उतरोत्तर वृद्धि होती रही है। उत्पादन ज्यादा और विक्री कम होने के कारण औद्योगिक इकाईयों में बंदी करनी पड़ी। इस गिरावट को देखते हुए आटो मोबाइल क्षेत्र की टाटा मोटर्स, महेन्द्रा एण्ड महेन्द्रा मारूति सुजकी योटा, अशोका लेलैण्ड और हीरो मोटो कार्य आदि ने जुलाई-अगस्त में कुछ दिनों की बंदी कर दी थी। इन्हीं के साथ-साथ पार्टपुर्जा बनाने वाली बोध, जमाना आटो बाबको जैसी कम्पनियों में भी 10-20 दिनों तक बंदी रही।

दूसरा रियल स्टेट क्षेत्र में मन्दी है। अखबारी सूचना के अनुसार इस वक्त देश के 30 बड़े शहरों में 12.76 लाख फ्लैट्स (मकान बनकर बिकने के लिए तैयार हैं। ये साधारण मकान नहीं है, बड़े-बड़े शहरों में बने ऊँचे-ऊँचे 25/30 मंजिला मकान है। जिनके एक-एक पलेट की कीमत 30 लाख से लेकर 2-3 करोड़ रुपये है। जिन्हें खरीदने की आम आदमी की औकात नहीं है। तब ये किसके लिए बनाये गये हैं? चार पहिया वाहनों एवं फ्लैट्स के मूल्य इतने ज्यादा है कि शहरों में रहने वाला मध्यम व उच्च वर्ग के लोग इसके बाजार (खरीददार) है। जिनकी आमदनियाँ वेतन 60-80 हजार महावारी से ऊपर लाखों-करोड़ों की है, सो भी कर्जे लिए बगैर उनकी भी खरीदने की क्षमता नहीं होती। लिहाजा कर्जे उधार देने वाली टाटा मोर्ट्स फाइनेंस लि.. बजाज फाइनेंस आदि दिग्गज गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ, उधार व कर्जे देकर ग्राहकों को खरीद-बिक्री के लिए उकसाती व प्रोत्साहित करती है। विक्री के अवसर पैदा करती है। बताया जा रहा है कि कर्जे-उधार देने वाली दिग्गज गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां भी दिवालिया होने की कगार पर हैं। इसलिए उन्होंने कर्जे उधार देना बन्द कर दिया। जबकि यही कम्पनिया 60-70 प्रतिशत कर्ज फाइनेंस करती है। इनमें पूजी की कमी इसलिए आई क्योंकि बैंक और म्यूचुअल फण्ड जो गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों एवं मैक्रो फाइनेंसर को कर्जे देते रहे हैं वो खुद पूंजी की तरलता की कमी के कारण इन्हें उधार व कर्जे देना बन्द कर दिये।

जुलाई-अगस्त में सकल घरेलू उत्पादन के गिरने, कारखानों के बंद होने, मजदूरों में बढ़ती बेकारी आदि संकटों को दिखा बताकर पूंजीपति वर्ग व उसके प्रचार माध्यमी अर्थशास्त्री व राजनीतिज्ञ एवं विद्वानों ने हल्ला प्रचार शुरू किया तो संकटों के समाधान हेतु सरकार को तुरन्त आगे आना पड़ा।

वित्तमंत्री ने 23 अगस्त 2019 को मंदी दूर करने हेतु (1) 70 हजार करोड़ रुपये सरकारी खजाने से पूंजी की कमी दूर करने के लिए बैंकों को पैकेज देने की घोषणा की साथ ही (ii) विदेशी पोर्टफोलियो निवेश पर लगा सरचार्ज हटा लिया तथा (ii) मार्च 2020 तक डीजल पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों की विक्री को उनके लाइफ टाइम तक रजिस्ट्रेशन करने व वैध बने रहने की छूट दे दी (पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त करने के नाम पर इन पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये थे)। 15 सितम्बर को सरकार ने (iv) अधूरे फ्लैट्स को शीघ्र पूरा करने के लिए 20 हजार करोड़ का नया फण्ड बनाने की घोषणा की। सरकार ने बताया कि इस कदम से 3.5 लाख फ्लैट खरीददारों को राहत मिलेगी। (v) निर्यात बढ़ाने के लिए और हाउसिंग सेक्टर के लिए 70 हजार करोड़ रुपये का पैकेज भी दिया। इसके अलावा सरकार जनवरी 2020 से दुबई फेस्टिवल (मेला) की तर्ज पर देश में 4 बड़े शापिंग फेस्टिवल आयोजित करेगी। (vi) निर्यात पर टैक्स व चुंगी दरें कम करने की घोषणा के साथ ही नियतोन्मुख उत्पादों को जी.एस.टी. समेत तमाम करों से छूटें देंगी। ये छूटें विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के अधीन दी गयी है। इस योजना के तहत 50 हजार करोड़ रुपये का राजस्व घाटा बढ़ेगा। (vii) पुनः सरकार ने 21 सितम्बर को कार्पोरेट टैक्स की दर 30% से घटाकर 22% कर दी। जबकि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश करने पर नई कम्पनियों को 25% से घटाकर 15% की दर से ही कारपोरेट टैक्स देना पड़ेगा। इन छूटों से सरकारी खजाने पर 1 लाख 45 हजार करोड़ का बोझा पड़ेगा। 

देखा न आपने सरकारी खजाने से बैंकों को 70000 करोड़ रुपये + बड़े-बड़े शहरों में बनी ऊँची अट्टालिकाओं के अधूरे फ्लैट्स को 20000 करोड़ रुपये + निर्यात एवं रियलस्टेट क्षेत्र को 70000 करोड़ रुपये + निर्यातोन्मुख मालों सामानों को कर टैक्स में छूटों से सरकारी राजस्व की 50000 करोड़ रुपये की कमी +145000 करोड़ रुपये राजस्व घाटा कारपोरेट टैक्स की छूटों से होगा। यानी सरकार ने अपने खजाने से रियल स्टेट एवं निर्यात कारोबार में लगे पूंजीपतियों एवं बड़े व्यापारियों समेत बैंकों को 1 लाख 60 हजार करोड़ रुपये सहायतार्थ देकर सरकारी खर्चा (बजट व्यय) बढ़ा लिया है तथा लगभग 2 लाख करोड़ रुपये पूंजीपतियों एवं निर्यातक व्यापारियों को टैक्सों में छूट देकर सरकार ने अपनी आमदनी कम करके राजस्व घाटा बढ़ा लिया है। इस तरह से सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को 3 लाख 55 हजार करोड़ रुपये का पैकेज देकर आर्थिक संकटों का बोझा स्वयं उठाया है। सो भी, मंदी जैसे आर्थिक संकटों से इंकार करते हुए बिना हल्ला हंगामा मचाये।

इसपर 2-3 बातें ध्यान देने लायक है। पहली टैक्सों करों में छूटों के ये सुधार नये नहीं हैं। ये उदारीकरणवादी सुधारों की श्रृंखलाएं हैं जिसे 1991 में कांग्रेस पार्टी ने लागू किया था जिसे सत्ता सरकार में आये सभी दलों ने नीतिगत रूप से आगे बढ़ाया है। इसमें आश्चर्यजनक बस इतना ही है कि इन नीतिगत सुधारों पर संसद में थोड़ा-बहुत विरोध हल्ला-हंगामा होकर लागू होता रहा, लेकिन इस साल बजट पेश होते समय तो पूंजीपतियों पर 5 प्रतिशत कारपोरेट टैक्स व कैपिटल गेन टैक्स बढ़ाया गया था तब इसे गरीबों का बजट कहा गया था परन्तु महीना- डेढ़ महीना बाद ही पूंजीपतियों द्वारा मंदी का हंगामा करते ही सरकार झुक गयी और बड़े हुए टैक्स वापस ले ली एवं कारपोरेट टैक्स घटा दिया सो भी मात्र वित्तमंत्री के फरमान से बिन संसद व जनप्रतिनियों की चिंता परवाह किये। जिस जनता ने अभी-अभी चुनकर अपने जनप्रतिनिधियों को संसद में भेजा है उसके साथ यह छल-कपट और धोखा है। यह जनतंत्र का नहीं, सत्ता सरकार पर देशी-विदेशी पूंजीपतियों के बढ़ते दबदबे व प्रभुत्व का द्योतक है। दूसरी बात, कारपोरेट टैक्सों में दी गयी छूटों से साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों समेत भारतीय कम्पनियों व उनके मालिकान पूंजीपति वर्ग की लाभ दरें बढ़ गयी हैं जिससे उन्हें करोड़ों-अरबों का फायदा हुआ है। उन्हें यह फायदा केवल तात्कालिक नहीं है।

स्थाई रूप से दिया गया है। जिसके परिणाम स्वरूप सरकार ने स्थाई रूप से अपनी सालाना आमदनी का स्रोत घटा लिया है। तीसरी बात, उपरोक्त गिनाये गये भारी-भरकम पैकजों से सरकार का बजटीय घाटा और राजकोषीय घाटा ज्यादा बढ़ जायेगा। जिसे पूरा करने हेतु सरकार कर्ज ज्यादा लेगी। जिससे मुद्रास्फीति फैलेगी। परिणामतः थोक व फुटकर मंहगाई बढ़ेगी जैसेकि बढ़ी भी है। चौथी बात, मंदी दूर करने के नाम पर वित्तमंत्री ने जो धन व छूटे व पैकेज पूंजीपतियों को दिया है वह धन कोई मंत्री व नेता ने अपने पाकेट से नहीं दिया है और न ही किसी त्यागी, योगी के त्याग व योग से जुटाया धन है बल्कि वह धन सरकारी खजाने का है जो जनसाधारण मेहनतकश वर्गों के खून-पसीना से पैदा किया हुआ एवं करों-टैक्सों के रूप में निचोड़ा धन है। इसलिए सरकार को इस तरह बेखौफ होकर पूंजीपतियों को छूटे देने का कोई नैतिक व जनतांत्रिक अधिकार नहीं है। यदि किसी सज्जन का यह तर्क हो कि इसमें पूंजीपतियों ने भी राष्ट्रीय योगदान दिया होता है तो उसे यह भी जानना समझना चाहिए कि पूंजीपतियों ने जो योगदान दिया होता है उससे दसियों, बीसियों गुना ज्यादा छूटे व सहायताएं पहले ही लेते रहे हैं। यह जनतांत्रिक तो तब होता जब इन छूटों द सुधारों से महगाई, बेकारी जैसे जनसाधारण के संकट घटाये जाते और अब अंतिम बात, 2008-09 में अमरीका में आये वित्त-संकटों से वैश्विक बनते वित्त-संकटों में भारत ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को तथा संकटग्रस्त कम्पनियों को राहत पैकेज दिये थे। उनके बकाये टैक्स कर माफ कर दिये थे और बैंकों के कर्जे बट्टे खाते में डाल दिये थे। उनके संकटों का बोझा भारतीय सरकार ने वैसे ही उठाया था जैसे कि अमरीका, इंग्लैण्ड की सरकारें उठा रही थीं। परन्तु आज या पहले भी जब कभी भारत पर संकट आते हैं हालांकि इन संकटों के लिए प्रमुखतः अमरीका, इंग्लैण्ड ही जिम्मेवार है तो भी हमारे संकटों में वे सहयोगी भागीदार नहीं बनते। यह वैसा ही दस्तूर है जैसाकि वर्गीय समाजों में पहले भी था। यदि किसी राजा या जमींदार के घर कोई संकट व दुःख पड़ जाये तो मातमी दुख में रियाया तो शामिल होती है। परन्तु वैसा ही दुख रियाया पर पड़े तो राजा व जमींदार पर जूं तक नहीं रेंगता वही पुराना दस्तूर वर्तमान जनतांत्रिक कहलाने वाले युग में भी लागू है। अलबत्ता भारत जैसे गरीब व पिछड़े देशों में मंदी या संकट आने पर पुरानी व पिछड़ी तकनीक को मंदी का कारण बताकर साम्राज्यवादी देश अमरीका आदि नई विज्ञान व तकनीकी प्रबंधकीय ज्ञान, मशीने, कलपुर्जे, बौद्धिक कुशलताएं आदि इन देशों में बेच लेते हैं, साथ ही निजीकरण के नाम पर सरकारी प्रतिष्ठानों व सम्पतियों को खरीद लेते हैं। जैसाकि आटोक्षेत्र में नये तकनीकी वाले इलेक्ट्रिक व सी. एन. जी. वाहनों के लिए वे दबाव डाल रहे हैं और टाटा जैसे कई पूंजीपति नई तकनीक आधारित वाहन बनाने भी लगे हैं। क्या इन सुधारों से और संकटों के समाधान के इन सरकारी प्रयासों से अब अर्थव्यवस्था में संकट कभी नहीं आयेंगे? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। संकट कुछ समय के लिए टाले जा सकते हैं! क्यो? इस सवाल का जवाब संकटों के कारणों को जाने बगैर सम्भव नहीं है। लिहाजा अब भारतीय अर्थव्यवस्था में आये मंदी नामक संकटों के कारणों पर चर्चा की जाय। सबसे पहले बैंकों में पूंजी की (तरलता) कमी के क्या कारण है? हम अपनी तरफ से बाद में बतायेंगे पहले, मौद्रिक व वित्तीय नीति नियंत्रणकर्ता रिजर्व बैंक को सुनें।

हिन्दी अखबार "आज" तथा "दि हिन्दू" अंग्रेजी दैनिक ने 30 अगस्त 2019 को भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि (1) आई.एल. एण्ड एफ.एस. कम्पनी के दिवालिया होने के बाद गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों से वाणिज्यिक क्षेत्र को ऋण प्रवाह में 20 प्रतिशत की गिरावट आयी है। (2) इस साल 71 हजार करोड़ रुपये के बैंक घोटाले हुए हैं। (3) रिजर्व बैंक को अपने विदेशी विनिमय रिजर्व फण्ड से विदेशी मुद्रा डालर को खुली बाजार में बेचना पड़ा है। रिजर्व बैंक 1991 के आर्थिक संकटों के बाद से रिजर्व फण्ड में जो डालर रखता आया है उसे वह 53 रुपया खरीद मूल्य की जगह आज 72 रुपये में बेंचकर लाभ कमाना बताया है। रिपोर्ट में उसने यह भी बताया कि जब अमरीकी फेडरल रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक नीति में बदलाव करके व्याजदर बढ़ाया तो रुपये का मूल्य बाजार में लुढ़कने लगा इसे गिरने से बचाने के लिए डालर को खुली बाजार में बेचना पड़ा। इसे बेचकर भारतीय रिजर्व बैंक ने 28998 करोड़ रुपये का लाभ कमाया (4) पूंजी की तरलता बढ़ाने के उपाय के रूप में उसने पिछले साल 19 लाख करोड़ के मुकाबले इस साल चलन में मुद्रा की मात्रा बढ़ाकर 21 लाख 68 हजार करोड़ रुपये कर दिया है। (5) भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने रिजर्व फण्ड से तथा लाभांश आदि से 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये सरकार को दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक की इस रिपोर्ट से निचोड़ निकाला जाय तो इसका साफ अर्थ है कि रिजर्व बैंक खुद मौद्रिक व वित्तीय संकटों की स्वीकार करता है। दूसरे, खुद इन संकटों से बाहर निकलने के मौद्रिक व वित्तीय उपाय भी किया है।

पिछले साल 7 फरवरी 2018 को रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समीक्षा को अखबारों ने छापा था कि ब्याज दरों में स्थिरता बनी रहेगी, ब्याज दरें घटाई नहीं जायेंगी। हालांकि पंजाब नेशनल बैंक और स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया ने ब्याज दरें बढ़ाई हुई थीं। उसी समय यह भी खबर थी कि जनवरी 2018 तक 2.02 लाख करोड़ रुपये के बैंकों ने कर्ज बांटे थे जबकि बैंकों के पास जमाराशि के तौर पर मात्र 1.27 लाख करोड़ रुपये ही आये थे। तब ही आर्थिक जानकारों ने पूंजी तरलता की स्थिति को बेहतर बनाने के सुझाव रिर्जव बैंक को दिये थे। परन्तु जब ऋण की मांग कम हो गयी तब बैंकों ने ब्याज दरें घटाई है। रिजर्व बैंक ने फरवरी 2019 के बाद कई बार ब्याज दरें घटाने के मौद्रिक उपाय किया है ताकि कर्ज की मांग बढ़ सके। इसके लिए अब सरकार की मदद से ऋण मेले का आयोजन भी किया जा रहा है।

उपरोक्त ख़बरों के अनुसार अगर संक्षेप में कहा जाय तो आटोक्षेत्र, चार पहिया वाहनों मोटर साइकलों आदि की तथा रियल स्टेट क्षेत्र में बने बहुमंजिला मकानों आदि की बिक्री में कमी का कारण कर्जे उधार देने वाले गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों एवं बैंकों में आज भी पूंजी की तरलता की कमी बताया जा रहा है। तब स्वाभाविक सवाल खड़ा होता है कि आखिर पूंजी की तरलता की कमी क्यों हुई। बैंकों में पूंजी अभाव के कारण क्या हैं? ये कारण गहरे रूप से भारत की अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं पर कैसे? इसपर चर्चा करने से पहले हम पाठकों को याद दिला दें कि 'मंथन' अंक 13 में "विमुद्रीकरण (नोटबंदी) क्यों? इससे किसको नुकसान और किसको फायदा?" (2016) नामक लेख में इस लेखक ने विमुद्रीकरण के प्रभाव को बताते हुए यह बताया है कि सरकार ने जनसाधारण को उनके अपने कमाये धन् (नोटों) को बैंक में जमा कराकर जनसाधारण को उसके धन के इस्तेमाल व उपभोग पर अंकुश लगाकर तथा टैक्सों की धन उगाही बढ़ाकर उसे धन विहीन बना दिया है। याद रखें यही जनसाधारण जो पूंजीवाद की उपभोक्ता बाजार भी है। अगर इसकी खरीद क्षमता नहीं बढ़ी तो पुर्नउत्पादन बढ़ाने के बावजूद खरीद-बिक्री की क्रिया रुक जायेगी और जिस मंदी से उबरने की आशा में नोटबंदी करके निवेशकों, खरीददारों को पुनः कर्जा देकर उद्योगों व रियल स्टेट को चालू करने की योजना है वह ध्वस्त हो जायेगी। पुनः अर्थव्यवस्था में संकट आ जायेंगे।"

जैसाकि 2/3 साल बाद ही आर्थिक मंदी के संकट आ भी गये। जिसे पूंजी अभाव के कारण आया संकट बताया जा रहा है। यह संकट भारतीय अर्थव्यवस्था में कैसे व क्यों आया इसके एक कारण पर ऊपर चर्चा की गयी है। अब दूसरे अन्य कारण देखें- (i) बैंक जमा- जिसमें बैंकपतियों के धन के अलावा जनसाधारण मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों, दुकानदारों छोटे व्यापारियों व दीगर मध्यमवर्गों ने अपनी जरूरतें काट कर भविष्य की सुरक्षा के लिए धन जमा किया होता है। बैंक इस जमाधन को उधार व कर्जे बांटकर सूद कमाते हैं। बैंकों के पास यह जमा धन कर्जे बांटने की तुलना में कम आया है।
जैसाकि फरवरी 2018 की सूचना ऊपर दी गयी है। 

(ii) भारत जैसे देश साम्राज्यवादी देशों अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि से पूंजी व पूंजीगत माल- मशीने विज्ञान व तकनीकी आदि ऊंची ब्याजदरों पर और मंहगे मूल्यों पर आयात करते हैं, बदले में अपने देश के निर्मित सिले सिलाये कपड़े, जूते, चमड़े के सामान, चाय, चीनी, चावल, मिर्च-मत्ताले, खाद्य व पेय पदार्थ, दूध आदि को सस्ते में उन्हें निर्यात करते हैं। लिहाजा हर साल उत्तरोत्तर निर्यात बढ़ने के बावजूद बढ़े हुए आयात मूल्य हमेशा चढ़े रहते हैं जिससे व्यापार घाटा होता है जैसे इसी साल व्यापार घाटा बढ़कर 186 अरब डालर हो गया है। बढ़ते व्यापार घाटा व कर्ज आदि की विदेशी देनदारी बढ़ने से तथा आयात के मूल्य चुकाने हेतु डालर की मांग बढ़ने लगती है। जिससे डालर का मूल्य रुपये के मुकाबले चढ़ने लगता है। जैसाकि पाठक जानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय खरीद-बिक्री भारतीय मुद्रा रुपये में नहीं होती. पहले ब्रिटिश पौण्ड में होती थी परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि की बरबादी के बाद अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रभुत्व पूरी दुनिया पर बढ़ता गया। लिहाजा, मालों व पूंजियों के विश्वव्यापार में अमरीकी डालर की भूमिका प्रभुत्वकारी बन गई। अब 1966 से भारत का विदेशी व्यापार डालर में होता है। दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर अपना आर्थिक नियंत्रण प्रभुत्व बनाये रखने के लिए अमरीका का केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व अपनी मुद्रा व पूंजी का मूल्य घटाता बढ़ाता रहता है। इसलिए अमरीकी बैंक ने डालर का मूल्य बढ़ाया तो रुपये का मूल्य लुढ़कने लग गया। 2015 में एक डालर का मूल्य 62 रुपया के मुकाबले अब सितम्बर 2018 तक 72 रुपये तक गिर गया। यानी रुपये का लगभग 16 प्रतिशत तक अवमूल्यन हो गया। जिसके परिणामस्वरूप रिजर्व बैंक को रुपये का मूल्य स्थिर रखने हेतु तथा घरेलू बाजार में डालर की बढ़ती मांग को पूरा करने हेतु अपने (रिजर्व) संरक्षित धन को बाजार में बेचना पड़ा। मतलब, माल की तरह मुद्रा (डालर) का मूल्य भी मांग बढ़ने घटने पर बढ़ता-घटता है और यह सब इसके असल भण्डारी अमरीका जी महराज के हाथ में है जिसके इशारे पर भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाएं कठपुतली की तरह नाचती हैं। यह भारत की परबसता व नवउपनिवेशिक गुलामी का सबूत है। उदाहरणार्थ-

जैसे, मान लें 2015 के बाद रुपये का 16 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ। अब भारत के लिए 100 रुपये का अमरीकी माल सामान 116 रुपये का मिलेगा यानी उतनी ही मुद्रा में कम माल का आयात होगा और अगर माल उतना ही आयात होता है तो मूल्य ज्यादा चुकाना पड़ेगा तथा अमरीका को भारत से जाने वाला माल सामान 100 रुपये की जगह अब 116 रुपये का माल सामान निर्यात करना पड़ेगा यानी नालों का निर्यात ज्यादा होने के बावजूद भारत को मूल्य कम मिलेगा। मतलब, आयात के लिए 16 प्रतिशत ज्यादा मूल्य चुकाने और उसके बदले निर्यात होने वाले मालों सामानों का मूल्य 16 प्रतिशत कम पाने के चलते भारत को 100 रुपये के आयात निर्यात में अमरीका ने 32 रु. मुफ्त में लूट लिया और भारत को घाटा हुआ। एक तो इससे व्यापार घाटा बढ़ता है, दूसरे पहले से लिए गये कर्जे की देनदारी भी 16 प्रतिशत फूलकर ज्यादा हो जायेगी। परिणामतः विदेशी देनदारी बढ़ने के कारण भी भारत में पूंजी का अभाव हो जाता है। जैसाकि हुआ भी शायद पाठकों को याद होगा कि 1981 के 10 साल बाद 1991 में डालर के मुकाबले रुपये का 22 प्रतिशत अवमूल्यन होने पर कितना हाय तौबा मचा था। सत्ता सरकार में बैठे भाजपाई व गैर कांग्रेसी दल सड़क पर विरोध करते दिखते थे परन्तु आज महज पांच साल में 20 प्रतिशत रुपये का अवमूल्यन होने पर भी कोई चू-चप्पड़ नहीं हुआ होगा भी कैसे? कई एक वामपंथी भी भारत को अब साम्राज्यवादी देश मानते हैं और सत्ता में बैठे दल अमरीका को साम्राज्यवादी नहीं 1 भारत का मित्र मानकर दिनरात प्रेमराम की धुनें अलापते हैं। खैर पाप का पेट छिपाने से नहीं छिपता भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजी अभाव के ये प्रमुख कारक व कारण हैं। इसलिए वर्तमान आर्थिक मंदी के लिए मात्र सरकार की गलत नीतियों को दोष देना अमरीकी साम्राज्यवाद व उसके लुटेरे चरित्र को और प्रभुत्वकारी डालर व उसके मालिकान वित्तीय सम्राट पूंजीपति वर्ग को दोष न देना साम्राज्यवादपरस्त बौद्धिक दासता के सिवाय और कुछ नहीं है।

(ii!) तीसरे 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में जब आर्थिक संकट आया था तो पुरानी राष्ट्रीयकरण की नीतियों को संकटों का कारण बताकर निजीकरणवादी विश्वीकरण की नीतियाँ लागू की गई। जिसके तहत साम्राज्यवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को और भारतीय बड़ी कम्पनियों को औद्योगिक व कृषिक उत्पादन, व्यापार सेवाओं, बैंकों आदि में उदार छूटे दी गई। जिसके चलते छोटे उद्योग, व्यापार, दस्तकार, छोटे-मझोले किसान आदि टूट-फूट गये उनमें कार्यरत मजदूर, दस्तकार, किसान बेकार हो गये और बड़े उद्योगों व सेवाओं का उत्पादन खर्चा कम करने एवं निजी लाभ बचत बढ़ाने के उद्देश्यों अनुसार मजदूरों व कर्मचारियों की छँटनिया करने, कम वेतन मजदूरी पर ज्यादा काम लेने, स्थाई की जगह अस्थाई ठीके पर मजदूर कर्मचारी रखने के चलते मजदूरों में बेकारी व गरीबी फैली। परिणामतः मजदूरों कर्मचारियों में मालों सामानों की उपभोग क्षमता कम हुई और निचली बहुसंख्यक आबादी में फैली बाजार में सिकुड़न आई। हालांकि मध्यमवर्गीय आबादी के एक हिस्से के लिए पाचवें, छठे, सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियों को लागू करके वेतन वृद्धियाँ की गईं। इन्हीं को उपभोक्ता बाजार मानकर इन्हीं उच्चवर्गों की जरूरतों व लालसाओं के अनुसार देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने इन्हीं वर्गों से जुड़े चंद उत्पादक क्षेत्रों में पूंजी विनियोजन ज्यादा किया। आम जनता के उपभोग लायक मालसामान के उत्पादन की अवहेलना कर दी। लिहाजा, 20 प्रतिशत मध्यम वर्गीय आबादी को सीमित बाजार होने के चलते सीमित बिक्री ही सम्भव हो पाई। मध्यमवर्गियों में खूब कमाओ, खूब खाओ पीओ-मौज उड़ाओ की संस्कृति फैलाई गई। जिससे ये कर्ज लेकर उपभोक्ता बनते गये परन्तु वे कर्जे की अदायगी नहीं कर पाये। जिसके चलते कर्ज देने वाले बैंक फंसते गये। दूसरे, विदेशी बाजारों में निर्यात बढ़ाकर बचत लाभ कमाने और विदेशी देनदारी चुकाने के जो दावे वादे थे वे भी पूरे नहीं हुए। कारण, निर्यात बढ़ाने के लिए उत्पादन तो देश में खूब हुआ परन्तु निर्यात बाजार पर नियंत्रण भारत का नहीं है। अमरीका आदि साम्राज्यवादी देशों का है जैसाकि ऊपर बताया भी गया। निर्यात ज्यादा होने के बावजूद देश के व्यापार में घाटा ही हुआ। परन्तु इसी आयात-निर्यात में लूटकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने खूब लाभ कमाया। फलतः निजी पूंजी, निजी लाभ व निजी बचत में उत्तरोत्तर वृद्धि के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजी के अभाव फलतः आर्थिक मंदी के जैसे संकट बार-बार आते रहे हैं और आते भी रहेंगे। अपने परिणामों में नयी आर्थिक नीतिया और उससे निजी लाभ कमाने वाले साम्राज्यवादी व पूंजीवादी वर्ग वर्तमान मंदी के लिए प्रमुखतः जिम्मेवार है। इसलिए 1991 में शुरू हुए जनविरोधी व राष्ट्रविरोधी आर्थिक सुधारों के समर्थकों व लागूकर्ताओं को इन संकटों की जिम्मेवारी लेनी चाहिए। और आर्थिक सुधारों को रोक देना चाहिए। (iv) चौथे, जिन बड़े-बड़े उद्योगों एवं व्यापार व सेवाओं के मालिकान पूंजीपतियों ने बैंकों से कर्जे उधार लेकर अपने उद्योगों, सेवाओं व व्यापार का विकास विस्तार किया वे बैंकों के कर्ज नहीं चुकाए, एक कारखाने से 2/4 कारखाने तो बढ़ा लिए पूजी व घन के पहले से ज्यादा धनी मालिक भी बने, फिर भी दिवालिया कानून का लाभ लेकर खुद को दिवालिया घोषित कराकर चकों के उधार व कर्जे को हड़प लिए या देश छोड़कर भाग गये। बैंक वसूली नहीं कर पाए. कर्जे को बट्टे खाते में डालते गये। फलतः बैंकों खासकर सार्वजनिक कहलाने वाले सरकारी बैंकों के पास पूंजी की तरलता कम हो गयी। जिससे बैंक अब और अधिक कर्जे बांटने की स्थितियों में नहीं रहे।

बैंकों की उयारी पूंजी के द्वारा उत्पादन तो बड़ा लिया गया, परन्तु विक्री नहीं हुयी, या उचारी पूंजी से खरीद-बिक्री तो बढ़ा ली जाए परन्तु बैंकों की उपारी पूंजी वसूल न हो पाए तो बैंकों की उचारी पूंजी डूब जाती है। या इन तीनों क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पादन, विनिमय, व बैंक पूंजी के मालिकों को निजी लाभ व सूद में वृद्धि दर वृद्धि हासिल होकर जमा जोड कुल पूंजी में वृद्धि न हो। इनमें से किसी एक क्रिया के रुक जाने से पूरी प्रणाली (तीनो चारों क्रियाएं) ठप्प पड़ जाती है। उदाहरणार्थ, पैसेंजर व कामर्शियल वाहनों की विक्री के लिए फाइनेंसिग कम्पनियों ने ऋण बाटे विक्री तो हुई परन्तु विक्री में लगी उधारी, पूजी वापस नहीं आयी। फलस्वरूप फाइनेंसिंग कम्पनियां बैंकों से लिए उधार उन्हें ब्याज सहित चुका नहीं पाये और दिवालिया बनने लगे। परन्तु वाहनों के निर्माता कम्पनियों के वाहन बाजार में कम बिकते रहे और वाहनों का उत्पादन ज्यादा होता रहा। जब उधार व कर्ज देने वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां कर्जे व उधार देना बंद कर दी तब विक्री की दर गिरने लगी और उत्पादन क्रिया बन्द होने लगी। परिणामतः उत्पादन साधनों मशीनों का क्षमता भर इस्तेमाल नहीं हो पाता, बहुत जल्दी ही आधुनिक विज्ञान व तकनीकी पुरानी पड़ गयी हैं। कारखाने बंद हो रहे हैं, कच्चेमाल, मशीने, श्रम (मजदुर) लाभ, पूंजी, सब के सब बेकार हो गये हैं। तब भला बैंकों की वित्त पूंजी (उधार) सूद सहित वापस कहां से आयेगी। क्योंकि उत्पादन तो व्यापक मेहनतकश जनसाधारण- किसान, मजदूर सभी करते हैं और खुद उत्पादन बढ़ाने के बावजूद क्रयशक्ति न होने के कारण उन सामानों को खरीद नही पाते और पूजीपति निजी लाभ व पूंजी में वृद्धि के उद्देश्यों अनुसार उत्पादन करता है, उत्पादक वर्गों की खरीद क्षमता के अनुसार नहीं करता है। यानी उत्पादन तो सामाजिक है। परन्तु नालिकाना निजी पूंजीपतियों का और तीसरे उपभोग भी उच्च व मध्यमवर्गीय यानी उपभोग भी सामाजिक नहीं है। ये वह प्रमुख कारण हैं जिससे पूंजीवादी व्यवस्था संकटग्रस्त होती रही है और आज लगातार चार-छ सालों में संकटग्रस्त बनी हुई है। जो किन्हीं विशेष क्षेत्रों से होती हुई चौतरफा फैल चुकी है।

मंदी क्यों आयी। इस पर चर्चा हो चुकी है, सो भी प्रचारित कारणों को मात्र क्रमबद्ध कर दिया गया है। जैसाकि पूंजीवादी अर्थशास्त्री व विद्वान, राजनीतिज्ञ खुद मानते व बताते है कि मन्दी इसलिए आयी है, क्योंकि मालों व सामानों जैसे वाहनों, घरों, मकानों का उत्पादन, निर्माण ज्यादा हुआ परन्तु राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में विक्री पहले से कम हो गयी। क्योंकि कर्ज देने वाली वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने लगी जिससे बाजार में विक्री की मंदी है तब सवाल है कि आपने इतना ज्यादा (वाहन व मकान) क्यों बनाया? दूसरी बात, राष्ट्रीय बाजार में विक्री क्यों नहीं हुई, बाजार के सिकुड़ने के क्या कारण है? इसका जवाब पूंजीवादी अर्थशास्त्री व विद्वान नहीं देना चाहते। वे भय खाते हैं कि असली कारण बता देने पर कहीं उनकी नौकरी चाकरी न चली जाय। क्योंकि इसका असल कारण यह है कि इतनी ज्यादा मंहगी चार पहिया गाड़ियां, चमकीले भड़कीले फ्लैट्स (मकान बनाने में लगी देशी-विदेशी दिग्गज कम्पनियां केवल उनका निर्माण, विकास, विस्तार इसलिए नहीं करती कि वे भारत को बाजार में बिकें बल्कि इसलिए करती है कि भारत में उन्हें सस्ता श्रम, सस्ता कच्चा व अर्धतयार माल, कम लागत की जमीन, बिजली पानी सब सस्ता उपलब्ध होता है जिससे कम लागत खर्चे में भारी मुनाफा प्राप्त होता है। इसलिए भारी मुनाफा देने वाले इन व ऐसे ही क्षेत्रों में पूंजीपति, पूंजीविनियोजन ज्यादा करते हैं, आम जनता लायक माल सामान बनाने में रुचि नहीं लेते। फलतः आम उपभोक्ता मालों सामानों की राष्ट्रीय बाजार में कमी किल्लत बनी रहती है और जिस उच्च आय वर्ग के देशी-विदेशी मध्यम व उच्च मध्यम वर्गों के लिए उत्पादन व विक्री बाजार चलायी जाती है उससे देश विदेश की बाजारों में विक्री करके लाभ ही नहीं पूंजीपति वर्ग अति लाभ कमाता है। इसी अति लाभ की लालच में जिस अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विक्री के उद्देश्य से जो उत्पादन ज्यादा हुआ है वह उस बाजार में चुंगी दरें बढ़ने से दूसरे देशों से सस्ता उत्पादन मिलने व अन्तर्राष्ट्रीय होड़ के चलते व ऐसे ही कई कारणों से माल खपा नहीं पाते। वहीं घरेलू बाजार में जिस मध्यम व उच्च मध्यमवर्ग को बाजार मानकर कारों व मकानों (फ्लैट्स) का उत्पादन बढ़ाया गया था वह मध्यम वर्ग एक तो पहले से लिए गये कर्जे न चुका पाने के चलते दूसरे, महंगी होती गाड़ियां व मकान न खरीद पाने की क्षमता में आयी गिरावट के चलते घरेलू बाजार सिकुड़ गयी। याद रखें सिकुड़ी हुयी यह मंडी बाजार करोड़ों अरबों रुपये विज्ञापनवाज कलाकारों, खिलाडियो, हीरो-हिरोइनों पर खर्च करके आप विज्ञापनबाजी से नहीं बढ़ा सकते। भूख तो खरीददारों में जगा सकते हैं! परन्तु यदि उनकी आमदनी छंटनियां, कम वेतनमत्तों, स्थाई की जगह अस्थाई नौकरियों, असमय नौकरियों से निकाले जाने, नयी भर्तियों पर रोक लगाने आदि के नीतिगत तरीकों से गिरा देते हैं तो मध्यम वर्ग की आमदनी में आयी कमी मध्यम वर्ग की उपभोग क्षमता गिरा देगी (जैसा कि हुआ भी)। इसलिए आपकी घरेलू बाजार भी सिकुड़ गयी। दूसरे, आपने 70 प्रतिशत निचली आबादी को अपना बाजार मानना छोड़ दिया (सबूत, कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सरकार का घटता बजटीय खर्चा)। पिछले 25-30 सालों से इन्हीं मध्यम वर्गों को ही अपनी बाजार मानकर पूंजीपतियों ने निजी लाभ ज्यादा कमाने की लालचों में उत्पादन ज्यादा बढ़ाया हुआ था। लिहाजा वर्तमान मंदी के संकटों के वास्ते प्रमुखतः जिम्मेवार कारक व कारण देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग और उनकी निजी लाभखोरी की अतृप्त भूख है।

पिछले 25-30 सालों में पूंजीपतियों एवं अरबपतियों की संख्या में और उनकी पूजियों व परिसम्पत्तियों में भारी वृद्धियां हुयी है साथ ही उच्च मध्यमवर्ग- हीरो, हिराइने, खेल-खिलाड़ी, मंत्री, अधिकारी, पत्रकार, विद्वान आदि एक छोटे से हिस्से की आमदनियों भी बढ़ी हैं। इसलिए लुटेरे शासक व शोषक देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग इन संकटों की जिम्मेवारी लेना तो दूर उनकी अलबारे रेडियो, टेलीविजन चैनल आदि प्रचार माध्यम व प्रचार माध्यमी - विद्वान व अर्थशास्त्री व सत्ता सरकारें इसे आर्थिक संकट नहीं मानते इसे सुस्ती या चक्रीय मंदी बताकर चर्चा से कतराते हैं। हालांकि देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में आयी मंदी दूर करने का बोझा सरकार खुद उठा रही है। क्योंकि सरकार न केवल मेहनतकश वर्गों के खून-पसीने की लूटपाट से भरे सार्वजनिक खजाने की मालिक है बल्कि 130 करोड़ लोगों की सरकार कहलाती है। इसलिए सबका साथ सबका विकास से उपजे धन से पूंजीपतियों का संकट दूर करती है। लेकिन जनसाधारण मेहनतकश वर्गों का संकट ? जैसेकि 1991 के पूर्व भी महगाई, बेकारी, गरीबी आदि थी वैसे ही आज भी है, कम नहीं हुई निरन्तर बढ़ती जा रही है। तब होना क्या चाहिए? क्या बार-बार संकटग्रस्त होती इस प्रणाली का बोझा ढोना चाहिए या इसे बदल देना चाहिए। क्यों? क्योंकि जैसे पहले कभी सामंती प्रणाली खेती व उद्योग के विकास में बाधा बन गयी थी । उत्पादक वर्गों व उत्पादक शक्तियों के विकास को डण्डा व तलवार के बूते अवरुद्ध कर रही थी, तो उसे पूंजीवादी वर्गों ने दो सौ साल पहले बार - बार पश्चिमी यूरोप में क्रांतिकारी युद्धे लड़कर उखाड़ फेंका और उसकी जगह वर्तमान जनतांत्रिक पूंजीवादी प्रणाली स्थापित किया। वैसे ही वर्तमान पूंजीवाद अपने प्रतिक्रियावादी दौर में समाज के विकास में रोड़ा बनकर खड़ा है माल तो बाजारों में भरे पड़े हैं। उपभोक्ता उन्हें देखकर तरस रहे हैं परन्तु जेब में पैसा नहीं है। उत्पादन, विक्री गिरती हुई ठप पड़ती जा रही है। मजदूर कर्मचारी, मशीनें आदि उत्पादक शक्तियां बेकार व बर्बाद हो रही हैं। और मालिक पूंजीपति अपने निजी लाभ व निजी मालिकाने में वृद्धि की खातिर उन्हें बर्बाद होता देख रहा है। खुद मंदी दूर करने में अक्षम हो गया है तो आर्थिक मंदी व संकट का हल्ला मचाकर सत्ता सरकार के बूते अपने संकटों का बोझा जनसाधारण वर्गों पर लाद रहा है। लिहाजा, साधनों से वंचित मेहनतकश वर्गों, किसानों, मजदूरों और पूंजीपतियों व व्यापारियों से बने शोषक-शोषित व शासक-शासित के आपसी सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों को बर्बाद कर रहे हैं। इन सम्बन्धों के पड़े रहने से बर्बादी ही बर्बादी होनी है। लिहाजा, वर्तमान पूंजीवादी समाज व्यवस्था को उखाड़कर मार्क्सवादी समाजवाद लाने के लिए मजदूरों-किसानों को संगठित होकर आगे आना होगा। और मार्क्सवादी रास्ते पर चलकर निजी लाभ व निजी मालिकाने की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली को उखाड़कर उसकी जगह पर सामाजिक लाभ व सामाजिक मालिकाने वाली समाजवादी प्रणाली को कायम करना होगा। तभी इन संकटों से इन पूजीवादी उत्पादन के सम्बन्धों की जकड़न से मुक्त होकर समाज का उत्पादन व उत्पादक शक्तियों का और ज्यादा विकास सम्भव है। चन्द लोगों के विकास की जगह समूचे समाज के विकास के लिए मजदूर राज्य समाजवाद लाने की अपरिहार्य आवश्यकता है। 

नोट: उपरोक्त लेख जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की पुस्तक "मूल्य वृद्धियाँ" एवं "जून 2012 का जी-20 सम्मेलन" के सहयोग से लिखा गया है।

लेखक : ओमप्रकाश सिंह

आजमगढ़  मो०  09452577375

अक्टूबर-नवम्बर 2019, मंथन, अंक-23

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