सर्वहारा नेतृत्व बनाम जातीय नेतृत्व
एक दलितवादी सरकारी शिक्षक हैं, वे एक शिक्षक संघ छोटे-मोटे पदाधिकारी भी हैं, उनके शिक्षक संघ के सबसे बड़े नेता एक ब्राह्मण हैं। उस दलित वादी शिक्षक
को अपने ब्राह्मण शिक्षक नेता की जाति से कोई एतराज़ नहीं है।
यह तो अच्छा है, इसपर एतराज़ होना भी नहीं चाहिए। जब शिक्षक हितों का सवाल है तो नेता किस जाति में पैदा हुआ यह सवाल खड़ा करना बेहूदगी है।
मगर वही दलित वादी शिक्षक जब गाँव में भूमिहीन गरीब किसानों, मजदूरों के बीच जाते हैं तो उनसे कहते हैं कि कम्यूनिस्टों के साथ मत जाओ इनका नेता ब्राह्मण है। और ब्राह्मण आपका दुश्मन है। तुम अपनी जाति का संगठन बनाओ।
जरा देखिए, अपने शिक्षक हितों की लड़ाई हर जाति के शिक्षकों को गोलबंद करके लड़ रहे हैं, मगर मजदूरों किसानों को जातियों का संगठन बनाने की शिक्षा दे रहे हैं।
जातिवादी विचारकों का यही घिनौना रूप आप को कमोवेश पूरे देश में मिलेगा।
इसी तरह के दोगले चरित्र वाले लोग अक्सर आवाज उठाते हैं कि दलित ही सर्वहारा है कम्यूनिस्ट पार्टियों में सर्वहारा के नेता ब्राह्मण हैं यह ब्राह्मणों की पार्टी है।
चूँकि भारत में जातिव्यवस्था है इसलिए जातिवाद से लड़े बगैर क्रान्तिकारी विचारों को स्थापित नहीं किया जा सकता। अत: इन दोगले चरित्र के मजदूर किसान विरोधियों का जवाब देना अत्यन्त आवश्यक है-
मार्क्स ने जिस सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की बात की है वो है आधुनिक औद्योगिक मशीनों पर काम करने वाला वह मजदूर जिसके पास अपना श्रम बेचने के अलावा और कोई आजीविका का साधन नहीं है। यही है आधुनिक सर्वहारा।
कुछ अर्धसर्वहारा होते हैं, जो अपनी छोटी मशीनों पर काम करते हैं, जैसे एक दर्जी जो अपनी खुद की मशीन पर काम करता है, या एक मोची के पास अपने खुद के औजारों से जूता बनाकर बेचता है, या कोई रिक्शावाला खुद का रिक्शा चलाता है ऐसे लोग अर्धसर्वहारा होते हैं।
कुछ सर्वहारा जो गांवों में अपना श्रम बेचते हैं और व्यक्ति केन्द्रित औजारों पर काम करते हैं वे ग्रामीण सर्वहारा होते हैं, इनमें ज्यादातर भूमिहीन व गरीब किसान होते हैं।
ये सभी क्रान्तिकारी बदलाव चाहते हैं। मगर इनमें सबसे आगे बढ़ी हुई चेतना उनकी होती है जो आधुनिक औद्योगिक मशीनों पर काम करते हैं।
दरअसल बड़ी मशीनें अकेले एक व्यक्ति से चल ही नहीं सकती हैं अतः इन बड़ी मशीनों पर काम करने वाले मजदूर समूहों में एक साथ तालमेल बनाकर काम करते हैं, कारखानों में विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न ज्ञान रखने वाले मजदूरों का एक साथ, उठना, बैठना, रहना होता है।
इससे वे एक दूसरे से सीखते रहते बड़ी मशीनें सामूहिक प्रयास से ही चल सकती हैं, इस लिए इन पर काम करने वाले मजदूरों में "मैं" की बजाय "हम" की भावना अधिक होती है।
इसलिए सामाजिक मालिकाने के सबसे आगे बढ़े हुए प्रबल समर्थक यही होते हैं। आधुनिक मशीनों पर सबके साथ मिलकर काम करने के कारण इनकी चेतना का स्तर अन्य सभी मजदूरों से उच्च हो जाती है।
इस सर्वहारा के ऊपर सबसे अधिक विस्वास इसलिए भी किया जाता है कि जो आधुनिक पूँजीपति वर्ग है उससे इसकी सीधी टक्कर होती रहती है, तथा पूँजीपतियों से जो इसका अन्तर्विरोध है वह शत्रुतापूर्ण होता है, इसमें किसी तरह के समझौते से इस अन्तर्विरोधों के हल होने के गुंजाइश नहीं होती है।
इनका नेतृत्व इसलिए कि इनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता, अत: ये सर्वहारा सीबीआई और ईडी के छापा मारने से झुकने वाले नहीं।
चूँकि ये सर्वहारा आर्थिक रूप से विपन्न होते हैं अतः सभी उत्पीड़ितों को साथ लिए बगैर अपनी मुक्ति की लड़ाई भी नहीं जीत सकते।
अत: सभी उत्पीड़ित वर्ग की लड़ाई लड़ना उनकी मजबूरी भी है। इस तरह की मजबूरी और योग्यता मध्यम या धनी किसानों, निम्नपूंजीपतियों, सामंतों आदि किसी भी वर्ग में कत्तई नहीं होती।
अत: ये सभी वर्ग क्रान्ति में सहयोगी भूमिका तो अदा कर सकते हैं, मगर सही नेतृत्वकारी भूमिका नहीं अदा कर सकते।
अगर इन मध्यवर्गियों को नेतृत्वकारी भूमिका में लाएँगे तो ये सभी लोग पूरे क्रान्तिकारी आन्दोलन को संशोधनवाद के दलदल में फँसा देंगे। सीबीआई, ईडी का डण्डा देखते ही मायावती और अखिलेश की तरह रोने गिड़गिड़ाने लगेंगे।
भारत की मुख्यधारा की कम्यूनिस्ट पार्टियों में मध्यवर्गियों, निम्नपूंजीपतियों के नेतृत्व प्रभाव ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों ये पार्टियां संशोधनवाद और नवसंशोधनवाद के दलदल में फँसती चली गईं।
आप कहेंगे कि मार्क्स, एँगेल्स तो खुद पूंजीपति घरानों से थे वे कैसे नेतृत्वकारी भूमिका में आ गए और वे तो मरते दम तक सही नेतृत्व करते रहे?
दरअसल मार्क्स, एँगेल्स, लेनिन, माओ, फिदेल कास्त्रो आदि लोग सम्पन्न घरानों में पैदा जरूर हुए मगर उन्होंने अपने वर्ग के साथ गद्दारी किया और मजदूर वर्ग में आकर मिल गए।
जैसे एक चाय बेचने वाला गरीब आदमी गरीबों के साथ गद्दारी करके पूँजीपतियों के खेमे में शामिल हो जाता है। कोई भूमिहीन की बेटी अपने वर्ग से गद्दारी करके पूँजीपतिवर्ग से मिल जाती है, और अपने वर्ग के लोगों का वोट बेचकर अरबपति बन जाती है। इसी तरह कोई मध्यम किसान वर्ग में पैदा होकर पूँजीपति वर्ग से मिल जाता है, अपनी जाति के लोगों के अधिकारों का सौदा करके अरबपति बन जाता है।
वैसे ही कोई करोड़पति या अरब पति अपने वर्ग से गद्दारी करके सर्वहारावर्ग में आकर मिल जाता है। अपना सबकुछ छोड़कर अपना सर्वहाराकरण कर लेता है। इतिहास गवाह है कि ऐसे डीक्लास(वर्गच्युत) बुद्धिजीवी अक्सर अच्छा नेतृत्व देते रहे हैं।
गरीब परिवारों में पैदा हुए अनेक बुद्धिजीवी भाजपा कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी पूँजीवादी पार्टियों में शामिल होकर सोने की कटोरी में झूठ मलाई चाटने के लिए शोषक वर्ग की सेवा कर रहे हैं।
जबकि जमींदार परिवार में पैदा हुए कई लोग सर्वहारावर्ग की मुक्ति के विचारों से लैस होकर सोने की कटोरी को लात मारकर झोपड़ियों में पत्तल में खाना खाते रहें हैं।
जहाँ कई नेता शोषित वर्ग में पैदा होकर शोषित जनता को लूटकर खुद और अपने परिवार एवं नजदीकी रिश्तेदारों को मालामाल करते रहे हैं।
वहीँ जमींदार या पूँजीपति घरानों में पैदा हुए हजारों लोग खुद को डिक्लास करके यानी अपना सर्वहाराकरण करके बड़े-बड़े कम्यूनिस्ट नेता बने। जिन्होंने अपने परिवार, रिश्तेदारों यहाँ तक कि अपने बाप तक के खिलाफ बगावत किया था।
इनमें से लाखों लोग जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा जेलों में बिताए हैं और उनमें से हजारों शहीद हुए।
इसलिए कौन कहाँ किस जाति/वर्ग में पैदा हुआ यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि वह किस वर्ग के लिए काम कर रहा है।
इसके उल्ट शोषक वर्ग के के विचारों से प्रभावित होकर कुछ दिमागी दलित लोग अपनी विरादरी के नेता को ही कम्यूनिस्ट संगठनों का नेता न बनाएं जाने की शिकायत करते हैं।
इन जाहिलों को ये नहीं मालूम कि कम्यूनिस्ट पार्टी में जातियों का नेतृत्व नहीं होता, इसमें सर्वहारावर्ग का नेतृत्व होता है। इसमें लीडरशिप जाति, वंश, धर्म, रंग, लिँग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र के आधार पर नहीं तय होती।
जो संगठन वर्गयुद्ध के लिए होते हैं उनमें वही लीडरशिप कर सकेगा जो सही रणनीति या रणकौशल बनाने की कला जानता/समझता होगा और लागू करने की क्षमता रखता होगा। चाहे वो किसी भी जाति धर्म में पैदा हुआ हो।
रजनीश भारती
जनवादी किसान सभा
No comments:
Post a Comment