आपने सिर्फ कैथोलिक ईसाई और प्रोटेस्टेंट ईसाई का ही नाम सुना होगा? लेकिन ईसाई भी इसी तरह कई विचारों में विभक्त है जैसे रोमन कैथेलिक, प्रोटेस्टेंट, लैटिन कैथोलिक, सीरियाई कैथोलिक, मर्थोमा, पेंटेकोस्ट, साल्वेशन आर्मी, एडवेंटिस्ट चर्च इत्यादि। इन सबकी आपस में कोई न कोई धार्मिक वैचारिक असहमति है।
यह अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात हुई इसी तरह भारतीय ईसाईयों में इससे कई गुना अधिक वैरायटी मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह केवल सैद्धांतिक असहमति मिलेगी जबकि भारतीय परिपेक्ष्य में इसमें जातिवाद, छुआछूत, असमानता और कई कारक जुड़ जाते हैं। इसीलिए भारत में हिन्दू ही नहीं बल्कि मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी में जातिवाद, छुआछूत के गुण विधमान है।
इसे आपको बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले "रंगनाथ मिश्र आयोग" की रिपोर्ट को समझना पड़ेगा। उसमें दलित मुस्लिम और दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण की सिफारिश की गई है। यदि वहां जातिवाद न होता तो यह तर्क कहाँ से आता? और यदि रिजर्वेशन की बात अमल में आती तो उसमें किसे शामिल किया जाता? यहां यह जरूर याद रखें कि इसमें गरीबी की बात नहीं हो रही है।
बहरहाल! जैसा कि मैंने कहा था कि क्रिसमस के उपलक्ष्य पर आपके समक्ष इसपर लेख लिखूंगा तो इसमें सबसे जरूरी तथ्य होता है संदर्भ। इसलिए "भंवर में दलित ईसाई" किताब का संदर्भ देकर ही बाक़ी बातें करूँगा। इसके लेखक आर एल फ्रांसिस "पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट" के संस्थापक अध्यक्ष हैं। जो ईसाई समाज के निर्धन, वंचित लोगों के लिए कार्य करते हैं।
उनके अनुसार खुद कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस 9ऑफ इंडिया ने 1981 में एक प्रस्ताव पारित कर कहा था कि ईसाइयत में जातिप्रथा का कोई स्थान नहीं है। यह प्रथा मनुष्यों को विभाजित करने वाली भेदभाव कारक है। फादर अंटोनी राज के अध्ययन ने भी यही सिद्ध किया तमाम बाइबलीय प्रतिबंधों, वेटिकन के आदेशों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जातिवाद, छुआछूत अपराध माना जाय।
बावजूद इसके धर्मांतरित ईसाइयों को पग, पग पर चर्च के अंदर अपमान सहना पड़ा। चर्च संसाधनों पर मुट्ठीभर उच्च जातियों से आये कर्लजी वर्ग का एकाधिकार बना हुआ है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कैथोलिक चर्च के पास 168 बिशप हैं ( ईसाई समाज में सर्वाधिक ताकतवर पद) इनमें केवल 4 बिशप ही दलित समुदाय से हैं। जबकि ईसाई में सबसे अधिक जनसंख्या दलित, आदिवासी समुदाय की है।
इसी प्रकार 13 हजार डायसेशन प्रिस्ट, चौदह हजार रिलिजियस प्रिस्ट, पांच हजार बर्दज और एक लाख से अधिक नन हैं। जिनमें से महज़ कुछ सौ ही दलित पादरी हैं जो चर्च ढांचे के हाशिये में पड़े हैं। दिल्ली कैथोलिक आर्चडायसिस के एकमात्र दलित ईसाई पादरी , फादर विलियम प्रेमदास चौधरी ने अपनी आत्मकथा "एन अनवांटेड प्रिस्ट" में वह दलित पादरियों की व्यथा पेश कर चुके हैं।
हाँ यह जरूर है कि भारतीय ईसाइयों के पास शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत बड़ा साम्राज्य है। अकेले कैथोलिक चर्च के पास 480 कॉलेज, 63 मेडिकल और नर्सिंग कॉलेज, 9500 सेकंडरी स्कूल, 4000 हाईस्कूल, 14000 प्राइमरी स्कूल, 7500 नर्सरी स्कूल, 500 ट्रेनिंग स्कूल, 900 टेक्निकल स्कूल, 2600 प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट, 6 इंजीनियरिंग कॉलेज, 3000 हॉस्टल और 1000 से ऊपर अस्पताल, डिस्पेंसरी है।
यदि इसमें प्रोटेस्टेंट को भी मिला दिया जाय तो यह 50 हजार पार होंगे। अब मुख्य सवाल यह है कि इनमें दलित ईसाइयों की हिस्सेदारी कितनी है? कितने अध्यापक, डॉक्टर, प्रोफेसर, डीन इत्यादि हैं? चर्च और इसके साम्राज्यवादी लोग यह तक नहीं बताते कि आखिर उनमें दलित, आदिवासी बच्चों की भागीदारी कितनी है? राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कैथोलिक चर्च द्वारा संचालित सेंट थॉमस स्कूल में 1500 बच्चे पढ़ते हैं लेकिन इसमें दलित ईसाइयों की कोई भागीदारी ही नहीं है
देश के शिक्षण संस्थानों पर ईसाई समुदाय का 22 प्रतिशत एकाधिकार है बावजूद 40 प्रतिशत ग्रामीणों में तथा 15 प्रतिशत शहरों में ईसाई बच्चे निरक्षर है। चर्च द्वारा संचालित कॉन्वेंट स्कूलों में दलित, आदिवासी, गरीब बच्चों को दाखिला नहीं मिलता है। क्या यह भेदभाव नहीं? कुछ समय पूर्व चर्च ऑफ नार्थ इंडिया ( सीएनआई) द्वारा संचालित दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में दलित ईसाई बच्चों के लिए सीटें निर्धारण करने का निर्णय लिया। जिसमें 30 प्रतिशत कोटा देने का स्वागत हुआ और दो वर्ष के भीतर इस निर्णय को रदद् किया गया।
भले ही हो सकता है कि चर्च के लोग कोटा का इंकार इस तर्क से कर दें कि हम जाति के आधार पर कोटा फिक्स नहीं कर सकते लेकिन आप यकीन कीजिए यदि रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट लागू हो जाती तो यही ईसाई, मुस्लिम वर्ग बताते कि हमारे यहां कितने दलित, आदिवासी विधमान हैं, जिन्हें सरकार शामिल करे। आज से नहीं बल्कि जब से ईसाई और इस्लाम का भारत में आगमन हुआ, तब से लेकर अबतक का डाटा सामने प्रस्तुत करते। बाक़ी मैं यहां महिलाओं के शोषण, अत्याचार पर तो बात ही क्या करूँ। ननों की व्यथा के लिए असँख्य आत्मकथाएं बाजार में उपलब्ध है।
यह तो विडंबना यह भी है कि इन गहराइयों को सरकार और हिन्दू बहुसंख्यक नहीं समझ पाते और विरोध पर उतर जाते हैं अन्यथा अल्पसंख्यकों को भी अपने धर्म, समाज में वंचित को हिस्सेदारी, भागीदारी और जिम्मेदारी देनी पड़ती तथा बाहर से दिखावे की ओढ़ी गई चादर छीन जाती। जातिवाद की जड़ें भारत के सभी धर्मों में विधमान है और धर्म का प्रतिनिधित्व वर्चस्ववादी लोगों के हाथ में है जो सरकार, समाज के बीच धर्म व विचार से नहीं, साधन और संसाधनों तथा लाभ एवं हानि के दृष्टिकोण से सामंजस्य बनाते हैं। #आर_पी_विशाल।
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