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Saturday, 24 December 2022

जे.एन.यू. की फीसवृद्धि विरोधी आन्दोलन का मतलब, महत्व (निजीकरण) ---------------------------------------

जे.एन.यू. की फीसवृद्धि विरोधी आन्दोलन का मतलब, महत्व
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मंथन अंक : 24  आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें 
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लेखक :  जनार्दन सिंह।  ( बलिया ) फरवरी 2020
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जे.एन.यू. में फीसवृद्धि के खिलाफ चला छात्र आन्दोलन वर्तमान दौर की असामान्य परिघटना है। इसे हम असामान्य परिघटना इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि जाति-धर्म की राजनीति के एवं आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी, अश्लील पूंजीवादी उपभोक्ता संस्कृति के वर्तमान दौर में फीस वृद्धि के खिलाफ, महंगाई, बेकारी, खेती-किसानी के संकट जैसे सवालों पर आन्दोलन होना असम्भव सा हो गया है। ऐसे में जे.एन.यू आन्दोलन स्वागत योग्य है और उसे करने वाले छात्र युवा बधाई के पात्र है। क्योंकि वर्गीय आधार पर खड़े होकर न केवल फीसवृद्धि के खिलाफ, बल्कि शिक्षा व शिक्षण संस्थानों के निजीकरण, बाजारीकरण के खिलाफ भी उन्होंने संघर्ष को जोड़ दिया। प्रश्न है कि फीसवृद्धि-विरोधी आन्दोलन और वह भी जे.एन.यू. से ही क्यों शुरू हुआ? क्योंकि एक तो देश के काने-कोने से आकर यहाँ पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र साधारण परिवारों से होते हैं। फीसवृद्धि उन्हें उच्च शिक्षा से वंचित कर देती। अतः वे संघर्ष में कूद पड़े। दूसरे, देशी, खासकर विदेशी साम्राजी पूंजीपति वर्ग व उनकी राजसत्ता द्वारा (1991 में) लागू की गयी नई आर्थिक नीति के तहत सरकारी उद्योगों व सेवा क्षेत्रों का, और उसमें भी खासकर शिक्षा, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों का निजीकरण करके उसे निजी मुनाफे पर चलाया जाने लगा है। यही नहीं, तीसरे, जे.एन.यू. बी.एच.यू. जाधवपुर यूनिवर्सिटी जैसे सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) आमंत्रित किया जाने लगा है। मतलब यह कि निजी शिक्षण संस्थानों की तरह जे.एन.यू. जैसे संस्थान भी देशी-विदेशी पूंजीपतियों के नियंत्रण में उनके लाभ के लिए चलायें जायेंगे। भारी फीस वृद्धि के साथ उद्योग व बाजार की मांग के अनुसार नये कोर्स पढ़ाये जायेंगे। पढा़ने के लिए विशेषज्ञ शिक्षक तैयार किए जायेंगे और साम्राज्यी देशों से भी शिक्षकों का आयात किया जायेगा। इन सभी का परिणाम यह होगा कि साधारण परिवारों के छात्र यहाँ नहीं पढ़ पायेंगे, केवल अमीर व सम्भ्रान्त छात्र यहाँ आयेंगे। उच्च शिक्षा से वंचित होने पर गरीब छात्र हंगामा न करें, इसके लिए ऑनलाईन डिग्री कोर्स का कार्यक्रम भी बनाया जा रहा है।

निजीकरण, उदारीकरण व विश्वीकरणवादी आर्थिक नीति के तहत फिलहाल जे.एन.यू. जैसे 20 उच्च शिक्षण संस्थानों को विश्वस्तरीय अर्थात वैश्विक (ग्लोबल) बनाने की योजना पर काम चल रहा है। ऐसी योजना द्वारा प्रचारित दावा तो यह है कि सरकार भारत को ज्ञान व कौशल की महाशक्ति बनाना चाहती है। लेकिन हकीकत क्या है- ज्ञान की महाशक्ति बनाना या मुनाफा कमाने की योजना?! उदाहरण देखें- एक अखबार के अनुसार 2013 के बाद सरकारी कालेजों- बी.टेक की फीस कई गुना बढ़ा दी गई। फिर 2019 में एम.टेक की फीस में 900 प्रतिशत की वृद्धि की गई।

अगले सत्र में बी.टेक, एम.टेक की फीस 2 लाख रुपया सालाना की गई है। निजी उच्च शिक्षण संस्थानों की फीस
बढ़ोत्तरी की तो कोई सीमा ही नहीं है। इसी के लिए उच्च सरकारी शिक्षण संस्थानों का भी निजीकरण किया जा रहा है।
अब दूसरी बात, अधिकाधिक फीस को चुकता करने के लिए स्टूडेंट लोन की योजना आई। यह कहा गया कि प्लेसमेंट
के द्वारा ऋण का चुकता हो जायेगा। फलतः अमीर छात्रों के साथ-साथ कर्ज लेकर पढ़ने वाले अधिकांश गरीब छात्र भी.
स्टूडेंट लोन, व प्लेसमेंट के झांसे में आ गये हैं फिर भी जे.एन.यू. आन्दोलन देश के कई हिस्सों में फैल गया, वह भी तब, जब 1991 के बाद सरकारों द्वारा छात्रों को संघर्ष, प्रतिरोध से अलग करने के लिए छात्रसंघ को भंग कर दिया गया. सेमेस्टर प्रणाली लागू की गई ताकि छात्रों को अपने शोषण उत्पीडन व अन्य सामाजिक गतिविधियों के बारे में सोचने व लड़ने का समय ही न मिले। अपने सहित समाज के अन्य हिस्सों की वर्गीय समस्याओं को छात्र न उठावें, या उठे सवालों पर भागीदारी न करें।

कृपया ध्यान दें! निजीकरण द्वारा उच्च शिक्षण संस्थाओं को विश्वस्तरीय (ग्लोबल) बनाकर उसे कौशन व ज्ञान की महाशक्ति बनाना सरकार का लक्ष्य नहीं है। यद्यपि उसका कहना है कि ऐसे संस्थान यहाँ खुलने से भारतीय छात्र विदेशों में न जाकर जब यहीं पढ़ेंगे तथा विदेशी छात्र भी यहाँ पढ़ेंगे तो राष्ट्रधन की बचत होगी, आय बढ़ेगी। साथ ही यहाँ से शिक्षित भारतीय छात्रों को विदेशों में कर्मियों के रूप में निर्यात करके विदेशी मुद्रा भी कमाई जा सकेगी। इन तर्कों से सरकार खुद को राष्ट्रवादी बताती है। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे उच्च शिक्षण संस्थान इसलिए ग्लोबल बनाये जा रहे हैं, जहां से देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए सस्ते व कुशल डाक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन व श्रमिक प्राप्त किए जा सकें और शिक्षण संस्थानों को भी मुनाफे के लिए चलाया जा सके। कुल मतलब यह है कि हर काम देशी विदेशी पूंजीपतियों के हितार्थ ही किये जा रहे है। एक तरफ तो यह हो रहा है और दूसरी तरफ सरकारों द्वारा नई आर्थिक नीति लागू करवाने वाले देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग यह अच्छी तरह जानते हैं कि उससे महंगाई, बेकारी, आत्महत्यायें बढ़ती जायेंगी। फलतः इसका आम जनता द्वारा भयंकर विरोध होगा। अतः उन्होंने जाति, धर्म की राजनीति को एवं आत्मकेन्द्रित स्वार्थी उपभोक्ता संस्कृति को अभूतपूर्व ढंग से लागू कर दिया। नतीजन न केवल आम जनता, बल्कि उससे कहीं अधिक छात्र-युवा आपस में बंटे हुए हैं तथा मोबाइल, टी.वी. कम्प्यूटर पर आने वाली अश्लील फूहड व उकसाने वाली बातों में फंसे हुए हैं। लेकिन महंगी होती शिक्षा व घटते रोजगार की पराकाष्ठा ने उन्हें सड़कों पर आने के लिए बाध्य कर दिया। शिक्षा के संदर्भ में यहीं पर एक बात कहते चलें निजीकरण, बाजारीकरण के पहले यह माना जाता था कि राष्ट्र के निर्माण व विकास के लिए इंसान का स्वस्थ होना जरूरी है। आप जानते हैं कि शिक्षा से स्वस्थ व विकसित मस्तिष्क का निर्माण होता है और चिकित्सा से शरीर स्वस्थ बनता है, अर्थात् स्वस्थ दिमाग के लिए शिक्षा व स्वस्थ शरीर के लिए चिकित्सा आवश्यक है। 1947 के बाद सस्ती व मुफ्त शिक्षा व चिकित्सा से ही निर्मित मेहनतकशों ने राष्ट्र के निर्माण व विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया। हालांकि उनके योगदान का ज्यादा लाभ देशी-विदेशी पूंजीपति ही उठाये। पर अब आधुनिक विज्ञान व तकनीक के विकास के एक स्तर के बाद पूंजीपतियों को कर्मियों की पहले जैसी व जितनी जरूरत नहीं है। अतः वे सस्ती व मुफ्त शिक्षा व चिकित्सा की प्रणाली का खात्मा करके उसे भी मुनाफे का साधन बना रहे हैं। वे चाहते हैं कि पढ़ाई व दवाई को जरूरतमंद पैसे से खरीदें और ऐसी शिक्षा ग्रहण करें जो उनके मुनाफे की प्रणाली व पूंजीवादी राजकाज में खलल न डालें। जबकि शिक्षा का अर्थ ही अलग है। केवल शब्दों, सूत्रों का ज्ञान प्राप्त करना मात्र साक्षर होना है। लेकिन ऐसा साक्षर या पढ़ा-लिखा व्यक्ति जो अपने साथ-साथ पूरे समाज के हित में सोचता व लड़ता है, वही सही मायने में शिक्षित कहलाने का हकदार है। वैसे भी एक उच्च शिक्षित व सुसभ्य सुसंस्कृत व्यक्ति को पैदा करने में भारी राष्ट्रीय संसाधन व्यय होता है जो मेहनतकशों द्वारा पैदा किया होता है। अतः शिक्षित व्यक्ति का यह दायित्व होता है कि वह आम समाज की बेहतरी में उसकी मुक्ति में योगदान दे। अब आगे.......

जे.एन.यू. आन्दोलन पर सरकार व अधिकांश मीडिया यह तर्क देते हैं कि जब अन्य शिक्षण संस्थानों में भारी फीस लगती है तो यहाँ मुफ्तखोरी क्यों हो कहते हैं कि यहाँ के छात्र जनता के टैक्सों के पैसों पर मौज उड़ाते हैं। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, सांसद, विधायक और नौकरशाहों पर उनका ध्यान क्यों नहीं जाता। देशी-विदेशी पूंजीपतियों को आये दिन मिलने वाली छूटे व सहूलियतें और उनके कर्ज को बट्टेखाते (एन.पी.ए.) में डालना उन्हें क्यों नहीं दिखता? क्या यह जनता का पैसा नहीं है? दूसरी बात यह कि जे.एन.यू. के छात्रों के माता-पिता एवं स्वयं छात्र भी क्या टैक्स नहीं देते और फिर पढ़कर निकलने के बाद यहाँ के छात्र राष्ट्र निर्माण में कोई योगदान नहीं देते?! देते हैं और ऐसा देते हैं जिसकी तुलना फीस बढ़ाने--घटाने से नहीं हो सकती। कम से कम पूंजीवादी व्यवस्था को तो जे.एन.यू. जैसी यूनिवर्सिटियों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने बहुत सारे अफसर, नेता, विद्वान, अर्थशास्त्री उन्हें दिए हैं। दरअसल समस्या दूसरी जगह है। वह यह कि जे.एन.यू. जैसे संस्थानों में व्यवस्था समर्थक के अलावा ऐसे भी छात्र पैदा होते हैं जो सत्ता- सरकार विरोधी आवाज उठाते रहे हैं। जैसे, कभी कांग्रेस सरकार के विरुद्ध अब भाजपा सरकार के विरुद्ध उनके द्वारा सत्ता-सरकार विरोधी आवाज उठाने से ही भाजपा सरकार को उनसे चिढ़ है। इसीलिए वह उन्हें देशद्रोही, अर्बन नक्सली, टुकड़े-टुकड़े गैंग कहकर प्रचारित करती है और उनका दमन करती है। मतलब यह कि भाजपा सरकार पिछली सरकारों से भी बढ़कर नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव को निर्लज्ज व हिंसक तरीके से लागू करके देशी-विदेशी पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों की लूट में उनका खुलेआम मदद करना चाहती है। बडी मजेदार बात यह है कि कांग्रेस जब नई आर्थिक नीति लागू कर रही थी तो अन्य के साथ भाजपा दो हाथ आगे बढ़कर उसका विरोध कर रही थी। उसे देश व समाज को विदेशियों की गुलामी में डालने वाला सुधार कहती थी। और आज उन्हीं आर्थिक सुधारों का विरोध करने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों पर वह हमले करती है। पहले उनपर दुष्प्रचार के बाण चलाये गये और अब पुलिस व नकाबपोश गुण्डों द्वारा शारीरिक हमला करवाया जा रहा है। 

बहरहाल फीसवृद्धि विरोधी छात्र आन्दोलन शुरूआती दौर में सरकार विरोधी था परन्तु विपक्षी पार्टियों व खासकर वामपंथी दलों के प्रभावों में आकर यह आन्दोलन भटक गया और नागरिकता कानून विरोधी, सम्प्रदायवादी बन गया, तब उस छात्र आन्दोलन में भी फूट पड़ गयी। छात्र हिन्दूवादी धर्मवादी और मुस्लिमवादी धर्मनिरपेक्षतावाद के दो घड़ों में बंट गये। आन्दोलन भटककर टूट व बिखर गया। कारण, छात्र यह नहीं समझते कि जिन आर्थिक वर्गों के हितोंनुसार आर्थिक सुधार लागू हो रहे हैं। जिसके तहत फीसवृद्धियां व कापी किताब के मूल्यों दामों में वृद्धियां आदि हो रही हैं उन्हीं वर्गों के आर्थिक हितों की सुरक्षा में ही जातिवाद, धर्मवाद, लिंगवाद आदि के भेदभावों का इस्तेमाल करके राजनीतियां करने वाले राजनीतिक दल खड़े हैं जो आर्थिक वर्गों के राजनीतिक नुमाइन्दे हैं। लिहाजा, छात्रों को समाज व राजनीति की गहरी जानकारी होनी चाहिए और यह जानकारी केवल मार्क्सवादी ज्ञान व व्यवहार सीखने जानने से ही होगी। न कि मार्क्सवादी से संशोधनवादी व सुधारवादी बने वामपंथी दलों का पिछलग्गू बनने से क्योंकि आप छात्र नेता जहां से राजनीति सीख रहे हैं वे उसी पूंजीवाद साम्राज्यवाद के वाम पाये है जिसके दक्षिण पाये भाजपा आदि दल हैं।

लेखक:  जनार्दन सिंह  ( बलिया )

जनवरी फरवरी 2020, मंथन, अंक-24

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