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Tuesday, 29 November 2022

सुकरात: ब्राजील का क्रांतिकारी फुटबॉलर



अपने जीवन के शुरुवाती दौर में लगभग सभी युवाओं की तरह सुकरात भी अपना करियर बनाना चाहते थे, हालांकि एक जन पक्षधर परिवार से होने के कारण उन्होंने चिकित्सा को अपने करियर के रूप में चुना ताकि वो अपने देश की गरीबी और भारी असमानता को कम करने में योगदान दे सकें| 

परंतु सुकरात के दर्शन प्रेमी पिता (जिन्होंने अपने दर्शन प्रेम के कारण अपने बेटे का नाम सुकरात रख दिया) ने उन्हें समझाया कि कैसे फुटबॉल के प्यार में उनके देश के लोग पागल हैं और सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को उठाने के लिए इससे बेहतरीन मंच कोई और नहीं है| अपने पिता को याद करते हुए वो बताते हैं की कैसे, सैन्य तानाशाही में गिरफ्तारी के डर से उनके पिता को बोल्शेविक किताबें जलानी पड़ी थी। हालांकि अपनी मेडिकल डिग्री पूरी करने के बाद ही उन्होंने पेशेवर तौर पर फुटबॉल खेलना शुरू किया । 

70 के दशक के मध्य में वह कोरिंथियंस फुटबॉल क्लब में शामिल हुए, इस दौर में ब्राज़ीलियाई फ़ुटबॉल में एक दमनकारी प्रणाली काम कर रही थी जिसे 'कॉन्सेंटराकाओ' कहा जाता था, यह व्यवस्था सैन्य तानाशाही की कठोर और लोकतंत्र विरोधी मानसिकता का प्रतीक थी| इस व्यवस्था के तहत ब्राज़ीलियाई फ़ुटबॉल खिलाड़ी के हर कदम को नियंत्रित किया जाता था।

1981 में वामपंथी विचारों वाले एडिलसन अल्वेस को कोरिंथियंस फुटबॉल का क्लब निदेशक नियुक्त किया गया|अल्वेस, सुकरात और व्लादिमीर नाम के एक अश्वेत खिलाड़ी की तिकड़ी ने क्लब और खेल के लिए एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण का निर्माण किया जिसे आगे चल कर "कोरिंथियंस लोकतंत्र आंदोलन" के रूप में जाना जाने लगा।  सुकरात ने   क्लब को एक भ्रूण लोकतंत्र की प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया, जिससे सैन्य तानाशाही को एक वैचारिक चुनौती दी जा सकती है और वह इस बात को जानते थे कि देश के विशाल मज़दूर वर्ग के दिलों में खेल के प्रति अनूठी लोकप्रियता सैन्य तानाशाही को क्लब के संचालन में हस्तक्षेप करने और उसे कुचलने से रोकेगी। 

सुकरात की जीवनी लिखने वाले लेखक एंड्रयू डाउनी इस आंदोलन के बारे में बताते हैं की:-

"सुकरात मानते थे कि खिलाड़ियों की मालिश करने वाले, कपड़े धोने वाली महिला, स्टेडियम के चौकीदार, खाना बनाने वाले व खेल से जुड़े अन्य सभी लोग खेल में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जितनी कि राइट बैक, मिडफील्डर या गोलकीपर, और उन्होंने प्रस्ताव दिया कि जीत के बोनस में इन सभी लोगों को भी हिस्सा दिया जाएगा जो मान लिया गया। सुकरात के नेतृत्व में, कोरिंथियंस क्लब में व्यावहारिक रूप से सभी मामले - चाहे वह पिच पर हो या बाहर दोनों - बहस, मतदान और जवाबदेही का विषय बन गए।  खेल से जुड़े सभी प्रमुख प्रश्न जैसे किन खिलाड़ियों को क्लब में लेना है, व छोटे प्रश्न जैसे खाने के मेन्यू में क्या होगा सब लोगतांत्रिक तरीके से किया जाता था, क्लब असल मायने में लोकतंत्र की प्रयोगशाला बन गया।"

सुकरात के साथी खिलाड़ियों में से एक इस परिघटना का वर्णन करते हुए कहते हैं: "हमने एक ऐसे लोकतंत्र का निर्माण किया जिसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा रहा था|"

यह टीम तानाशाही विरोधी आंदोलन का प्रतीक बन चुकी थी,1982 में, कोरिंथियंस ने एक मैच में अपनी शर्ट पर 'आई वांट टू वोट फॉर माई प्रेसिडेंट' लिखवा कर खेला । उस समय तक, ब्राजील की सेना जुंटा सैकड़ों लोगों का कत्लेआम कर चुकी थी। 1983 में, टीम एक बैनर के साथ मैदान पर उतरी जिस पर लिखा था "जीत या हार लेकिन हमेशा लोकतंत्र के साथ"।

1986 मेक्सिको वर्ल्ड कप के समय, अमेरिका ने लीबिया पर बमबारी की थी, सुकरात जो ब्राज़ील की वर्ल्ड कप टीम का हिस्सा थे अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी हेडबैंड पहनकर मैदान पर खेलने उतरे|

एक और रोचक तथ्य यह है कि क्यूबा की क्रांति के समर्थन में सुकरात ने अपने एक पुत्र का नाम फिदेल रखा।

सैन्य तानाशाही के खिलाफ़ लड़ने वाले सुकरात, अपने जीवन अंतिम दौर में पूंजीवादी लोकतंत्र के भी खुले आलोचक रहे और इस बात को कहने से कभी नहीं कतराते थे कि लोकतंत्र आंदोलन अपने वादों को पूरा करने में विफल रहा है। 2011 में जब उनकी मृत्यु हुई, सुकरात ब्राजील में होने वाले आगामी 2014 विश्व कप के बारे में एक उपन्यास पर काम कर रहे थे। जिसमें वह लिखते हैं कि कैसे इस व्यवस्था ने गरीबी से त्रस्त झुग्गियों में नर्क जैसा जीवन जीते लाखों लोगों की पहुंच से वर्ल्ड कप को बाहर कर दिया है| 

बात फुटबॉल की हो रही हो तो सुकरात को याद करना आवश्यक है, एक ऐसा खिलाड़ी जो इटली खेलने चले गए ताकि वह "मूल भाषा में ग्राम्शी को पढ़ सकें और मजदूरों के आंदोलन के इतिहास का अध्ययन कर सकें।"


openlibrary.org



Pirati

आरोन स्वार्टज आज 36 के हो गए होते।

जेएसटीओआर से वैज्ञानिक लेख स्थानांतरित करने और साझा करने के लिए अमेरिकी अधिकारियों द्वारा 35 साल जेल की सजा सुनाई जाने के बाद आरोन ने आत्महत्या कर ली।

ज्ञान तक पहुँच सक्षम करना उनके जीवन में मुख्य लक्ष्यों में से एक था, जैसा कि उन्होंने कई परियोजनाओं द्वारा पुष्टि की:

उन्होंने और उनके सहयोगियों ने 2007 में एक डिजिटल पुस्तकालय शुरू किया openlibrary.org सभी कार्यों की एक खुली सूची बनने के लक्ष्य के साथ जो कभी प्रकाशित हुए हैं। 2.5 लाख से अधिक किताबें आज इस पर स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है।

उन्होंने आरएसएस और मार्कडाउन और क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेंसिंग के विकास में मदद की, जो सभी आज इंटरनेट पर सामग्री के निर्माण और वितरण में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। 1

आरोन को रेडडिट नेटवर्क के सह-संस्थापक के रूप में भी मान्यता प्राप्त है और मुफ्त पहुंच के लिए गुरिल्ला मैनिफेस्टो के लेखकों में से एक है (पीसी। अगर / gmanzof ).

स्वार्ट्ज़ ने पारदर्शिता के लिए और भ्रष्टाचार और सेंसरशिप के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और कार्रवाई के समन्वय के अलावा, उन्होंने एक प्लेटफार्म सिक्योरड्रॉप

securedrop.org स्थापित किया जो व्हिसलब्लोवर्स के लिए अज्ञात और सुरक्षित संचार को सक्षम बनाता है।


https://www.facebook.com/98358327274/posts/pfbid0jY1EbXoBcQe1dhnAu9KWsovtuFAVhNDe8jtRdnwDVWTmFsXG9SehyZYFFzV8QnvUl/?mibextid=Nif5oz


Monday, 28 November 2022

क्या है छठ की पूजा ??



छठ पूजा की सच्चाई जाने बिना अज्ञानी, अंध विश्वासी बिहारी लोग इसे धूम धूमधाम से मनाते हैं. 
तथा धीरे- धीरे वोट के लिये राजनीतिज्ञों द्वारा पूरे देश में ये फैलाया जा रहा है. 
ब्राह्मण किस तरह से भोले भाले अंजान लोगों को बेवकूफ बना सकता है, ये एक वर्तमान उदाहरण है. 
असल में तथाकथित छठ माता, महाभारत के एक चरित्र कुंती की प्रतीक है जो कुंवारी होते हुये भी सूरज नाम के व्यक्ति से शादी के पहले के सम्बन्ध से प्रेग्नेंट(पेट से) हो जाती है। 
 सच ये है की, खुद प्रेग्नेंट है इस बात की कुंती को समझने में देरी हो जाने से, कर्ण नाम का पुत्र पैदा करती है। 
महाभारत की इस घटना ( सूर्य से वरदान वाली जूठी कहानी) को इस दिन मंचित किया जाता है. जो परम्परा का रुप ले लिया है. 
शुरू में केवल वो औरतें जिनको बच्चा नहीं होता था, वही छठ मनाती थी तथा कुंवारी लड़कियां नहीं मना सकती थीं क्योंकि इसमे औरत को बिना पेटिकोट ब्लाउज के ऐसी पतली साड़ी पहननी पड़ती है जो पानी में भीगने पर शरीर से चिपक जाय तथा पूरा शरीर सूरज को दिखायी दे जिससे कि वो आसानी से बच्चा पैदा करने का उपक्रम कर सके. 
सूरज को औरतों द्वारा अर्घ देना उसको अपने पास बुलाने की प्रक्रिया है जिससे उस औरत को बच्चा हो सके. 
ये अंधविश्वास और अनीति की पराकाष्ठा है कि आज इसको त्योहार का रुप दे दिया गया है तथा आज कल अज्ञानी एवं अंध विश्वासी आदमी तथा कुंवारी लड़कियां भी इस भीड़ में शामिल हो गये हैं. 
ज्ञात हो कि ये बीमारी बिहार से सटे यू पी के जिलों में भी बड़ी तेजी से फैल रही है।
आशा है कि इस पोस्ट को पढ़ने के बाद देश कि औरते इस बीमारी का शिकार होने से बचेगी।


द्रविड़ लोग कोई भारत के मूलनिवासी नहीं थे।

द्रविड़ लोग कोई भारत के मूलनिवासी नहीं थे। द्रविड़ लोग आज से 12000 साल पहले दक्षिण पश्चिम ईरान के zagros पर्वतीय क्षेत्र और इराक के सुमेर सभ्यता के क्षेत्र से आकर बसे थे। राखीगढ़ी के डीएनए सैंपल में ईरान के प्राचीन कृषक और पशुपालक समुदाय का डीएनए मिला है। द्रविड़ लोग वास्तव में भारत पर बसने वाले सबसे प्राचीन काकेशस नस्ल के लोग थे।नस्लीय रूप से द्रविड़ काकेशस नस्ल की अन्य जातियों जैसे आर्यों से मिलते जुलते लोग थे परंतु भाषाई और सांस्कृतिक रूप से कुछ अलग थे।

आम लोगों के मन में यह धारणा है कि द्रविड़ मतलब दक्षिण भारतीय होता है जो कि बिल्कुल गलत है। द्रविड़ लोग आज से 5000 साल पहले पाकिस्तान के सिंध प्रांत और बलूचिस्तान में निवास करते थे। पश्चिम एशिया के इराक और दक्षिण पश्चिमी ईरान से द्रविड़ लोग बलूचिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश किए थे।
बलूचिस्तान में द्रविड़ लोगों की बहुत बड़ी आबादी निवास करती थी और बलूचिस्तान द्रविड़ भाषा संस्कृति का केंद्र हुआ करता था।

भारतीय उपमहाद्वीप में द्रविड़ भाषाओं के इस मानचित्र को ध्यान से देखिए। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के आज भी द्रविड़ भाषा ब्राहुई (Brahui) बोली जाती है। बलूचिस्तान में भारी संख्या में द्रविड़ कुल के और द्रविड़ भाषा बोलने वाले ब्राहुई (ब्राहुई) लोगो कि मौजूदगी इस बात का सबूत है कि द्रविड़ लोग मूल रूप से दक्षिण पश्चिम ईरान और इराक की तरफ से आकर बसे है। इराक के सुमेरियन सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता में अद्भुत सामंजस्य है। दक्षिण भारत की द्रविड़ भाषाओं के साथ बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा का अद्भुत सामंजस्य है।




Thursday, 24 November 2022

स्वास्थ

*आपके बॉडी पार्ट्स आपसे कब - कब डरते हैं , जानिये ?*
1. *पेट* (Stomach)
उस वक्त डरा होता है जब आप सुबह का नाश्ता नहीं करते।
2. *गुर्दे* (Kidneys)
उस वक्त खौफ में होते हैं जब आप प्यास लगने पर पानी नहीं पीते। 
3. *पित्ताशय* (Gallbladder) 
उस वक्त परेशान होता है जब आप रात 11:00 बजे तक सोते नहीं और सूरज उगने से पहले जागते नहीं हैं।
4.  *छोटी आंत* (Small Intestine)
उस वक्त तकलीफ महसूस करती है जब आप ठंडी चीजें पीते हैं और बासी खाना खाते हैं।
5. *बड़ी आंत* (Large Intestine) में उस वक्त ज्यादा तकलीफ होती है जब आप तली हुई या मसालेदार चीजें खाते हैं। 
6. *फेफड़े* (Lungs) उस वक्त बहुत तकलीफ महसूस करते हैं जब आप धुआं धूल सिगरेट बीड़ी से भरपूर हवा में सांस लेते हैं।
7. *यकृत* (Liver) उस वक्त बीमार होता है जब आप बहुत तली हुई खुराक और फास्ट फूड खाते हैं।
8. *दिल* (Heart) उस वक्त बहुत गमगीन होता है जब आप ज्यादा नमकीन और कोलेस्ट्रोल वाली चीजें खाते हैं।
9. *अग्न्याशय* (Pancreas) उस वक्त बहुत डरता है जब आप बहुत ज्यादा मिठाई खाते हैं और खासकर जब वह फ्री में मिल रहीं हों। 
10. *आंखें* (Eyes) उस वक्त तंग आ जाती हैं जब आप अंधेरे में मोबाइल और कंप्यूटर पर उनकी तेज रोशनी में काम करते हैं। 
11. *दिमाग* (Brain) उस वक्त बहुत दु:खी होता है जब आप नेगेटिव सोचते हैं। 
*अपने शरीर के हर हिस्से का ख्याल रखें। याद रखें ये अंग बाजार में नहीं मिलते हैं।*

Wednesday, 23 November 2022

कैसा सामाजिक न्याय और किसे?



सन् 1917 की महान नवम्बर क्रान्ति की तोपों की गड़गड़ाहट से भयभीत होकर पूँजीवादी साम्राज्यवादी देशों के नेताओं ने 'पेरिस शान्ति सम्मेलन1818' सम्पन्न किया। इस सम्मेलन के निर्णयों के अनुसार रूसी क्रान्ति के बढ़ते वैश्विक प्रभाव को रोकने के लिए 1919 में इण्टरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (ILO) का गठन किया। इण्टरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (ILO) के संविधान की भूमिका में श्रमिकों को "सामाजिक न्याय" देने की बात की गयी है। वह इसलिए ताकि मेहनतकश लोग किसी तरह की क्रान्ति वगैरह की बात न करें। और गुमराह होकर शोषक वर्ग से लड़ने की बजाय उनकी मदद करते रहें।

    वर्गीय दृष्टिकोण से देखें तो भारतीय संदर्भ में
 सामाजिक न्याय की दो अवधारणाएँ हो सकती हैं-
1-सर्वहारा वर्ग के हितों के अनुसार "प्रत्येक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय" दिया जाये।
2- शोषक वर्ग के हितों के अनुसार "प्रत्येक वंचित जाति को सामाजिक न्याय" दिया जाये। 
 
 सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों का तर्क है कि अगर 'प्रत्येक वंचित जाति' को सामाजिक न्याय दिया जाए तो उन वंचित जातियों में जो एक या दो प्रतिशत सबल होते हैं वही झपट लेते हैं। और पीढ़ी दर पीढ़ी वही लोग झपटते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में वंचित जाति के गरीबों की कोई सुनवाई भी नहीं हो सकती। दलित के नाम पर जो आरक्षित सीट मिलती है अगर उस आरक्षित सीट/पद को मायावती और उनके भतीजे हड़प जाएँ तो कोई गरीब वंचित दलित व्यक्ति न्यायालय में यह दावा नहीं कर सकता कि उन सम्पन्न लोगों की बजाय हम गरीब को सामाजिक न्याय क्यों नहीं दिया गया? यहाँ कोई संविधान वंचित व्यक्ति का साथ नहीं दे पायेगा। जबकि हर एक वंचित व्यक्ति के आधार पर सामाजिक न्याय देने पर कोई अपात्र व्यक्ति गरीब बनकर हड़़पेगा तो वंचित व्यक्ति को कानूनी संरक्षण मिल सकता है।

 जाति आधारित सामाजिक न्याय का समर्थन करने वाले शोषक वर्ग के बुद्धिजीवियों का तर्क है कि अगर प्रत्येक वंचित व्यक्ति के आधार पर दिया जाएगा तो खतरा यह बन जाता है कि सवर्ण जाति के लोग गरीब बनकर दलित वर्ग के गरीबों का हिस्सा हड़प लेंगे। मगर जब हर एक जाति के आधार पर दिया जाएगा तो इस सवर्ण लोग दलितों का हिस्सा नहीं हड़प सकते। मगर यह हड़पने की बात तो तब आएगी जब शोषक वर्ग आर्थिक आधार पर प्रत्येक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय देने में सक्षम हो।  सही मायने में वह प्रत्येक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय देने में सक्षम ही नहीं है।

 दर असल पूंजीवादी व्यवस्था में 'थोड़े से लोगों द्वारा थोड़े से लोगों के लिए थोड़ा सा ही उत्पादन' हो सकता है। अत: पूंजीवादी व्यवस्था हर एक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय नहीं दे सकती। वह थोड़े से लोगों को थोड़ा सा ही सामाजिक न्याय दे सकती है। उदाहरण के लिए - पूँजीवादी व्यवस्था सारे दलितों को सामाजिक न्याय नहीं दे सकती। वह दलितों में से 1 या 2 प्रतिशत लोगों को ही सामाजिक न्याय दे सकती है, जिसे दलितों में से सबल लोग ही झपट लेते हैं। यही हाल पिछड़ों, सवर्णों, आदिवासियों के साथ भी होता है। अधिकतम् 2-3% लोग ही सामाजिक न्याय का लाभ उठा पाते हैं।
 अब सवाल उठता है कि जो पूँजीवादी सामाजिक न्याय व्यवस्था अधिकतम् 2-3% लोगों को ही लाभ पहुँचा सकती है, उसका समर्थन शेष 98% लोगों से क्यों करवाया जा रहा है? जिन्हें मिल रहा है वे लोग उसका समर्थन करें तो एक हद तक ठीक है मगर ये 2-3% लाभार्थी लोग उन 98% लोगों को पिछले 75 साल से उसी सामाजिक न्याय का समर्थन करवा रहे हैं तथा उसके लिए उन 98% लोगों को लार टपकाने को प्रेरित कर रहे हैं, जबकि वे जानते हैं कि इस व्यवस्था में उन 98% लोगों को सामाजिक न्याय मिल ही नहीं सकता।

 भारत का शोषक वर्ग  एक या दो प्रतिशत दलितों को आरक्षण देकर यह दावे करता है कि हमने दलितों को सामाजिक न्याय दे दिया। इसी तरह पिछड़ों, आदिवासियों और गरीब सवर्णों में से 2-3% लोगों को थोड़ा सा सामाजिक न्याय देकर दावा करता है कि हमने पिछड़ों, आदिवासियों और गरीब सवर्णों को सामाजिक न्याय दे दिया। और अक्सर यही दो-तीन प्रतिशत लाभार्थी लोग ही बामसेफ-दामसेफ जैसे अनेक जातिवादी  संगठन बनाकर शोषक वर्ग के दावे का समर्थन और प्रचार भी करते और करवाते हैं।

 याद रखिये, अगर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों एवं सवर्णों या अन्य सभी जातियों या धर्मों से संबंधित सभी वंचित, शोषित, उत्पीड़ित लोगों को सामाजिक न्याय चाहिए तो उसके लिए समाजवादी व्यवस्था कायम करना होगा। 

 जहाँ पूंजीवादी व्यवस्था थोड़े से लोगों द्वारा थोड़े से लोगों के लिए थोड़ा सा ही उत्पादन कर सकती है, वहीं समाजवादी व्यवस्था पूरे समाज की जरूरतों के अनुसार पूरे समाज के लिए, पूरे समाज द्वारा उत्पादन करती है। अत: पूँजीवाद जो सुख-सुविधा थोड़े से लोगों को दे पाता है, समाजवाद उससे बेहतर सुख-सुविधा पूरे समाज को देता है।
 मगर समाजवाद कायम करने का काम पूँजीपति वर्ग के राज में असंभव है। इसके लिए मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता का राज लाना होगा। जनता के राज में ही समाजवाद संभव है। ध्यान रहे, जनता का राज पूँजीपतिवर्गों की भ्रष्ट और दिखावटी चुनाव पद्धति से नहीं आ सकता। और पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर निष्पक्ष और साफ-सुथरा चुनाव नहीं हो सकता। इसलिए जनता का राज बगैर किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन के संभव नहीं है। 
 अगर आप चाहते हैं कि दलितों, पिछड़ों और गरीब सवर्णों में जो 98 प्रतिशत वंचित लोग हैं, उन्हें भी सामाजिक न्याय मिले तो आपको समाजवाद लाने के लिए क्रान्तिकारी कदम उठाना ही होगा।

   अगर आप चाहते हैं कि दलितों, पिछड़ों और गरीब सवर्णों में से सिर्फ डेढ़-दो प्रतिशत लोग और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लोग ही आरक्षण के तौर पर सत्ता की मलाई चाटते रहें और बाकी 98% वंचित लोग मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार का जूता खाते रहें, और ये 98% वंचित लोग सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी… के चंगुल में फँसे रहें तो मौजूदा सड़ी-गली व्यवस्था को बनाए रखिए, गाय, गोबर, गंगा, मंदिर, मस्जिद करते रहिए, अगड़ा, पिछड़ा, सवर्ण के हितों के नाम पर जात-पात, साम्प्रदायिकता और इसकी अबतक की सबसे बड़ी उपलब्धि पाँच किलो राशन… आप को मुबारक हो।

                        रजनीश भारती
                   जनवादी किसान सभा

Monday, 21 November 2022

शायर वामिक जौनपुरी की पुण्यतिथि पर

आवाम के शायर वामिक जौनपुरी की पुण्यतिथि पर

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प्रगतिशील लेखक संघ का हिस्सा रहे वामिक जौनपुरी ने अपनी नज्मों से आजादी के आंदोलन को आगे बढ़ाया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उसकी लूट के खिलाफ वामिक साहब ने कई नज्में लिखीं जिसकी वजह से उन्हें अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी। इनकी नज्मों में बंगाल के अकाल पर लिखी इनकी नज्म इतनी प्रचलित हुई कि वो एक आंदोलन बन गई।

'भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल' वह नज्म है, जिससे वामिक जौनपुरी की शोहरत पूरे मुल्क में फैली। साल 1944 में लिखी गई इस नज्म ने उन्हें एक नई पहचान दी। इस नज्म का पसमंजर साल 1943 में बंगाल में पड़ा भयंकर अकाल है। इस अकाल में उस वक्त एक आंकड़े के मुताबिक करीब तीस लाख लोग भूख से मारे गए थे। वह तब, जब मुल्क में अनाज की कोई कमी नहीं थी। गोदाम भरे पड़े थे। बावजूद इसके लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था। एक तरफ लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार के कान पर जूं तक नही रेंग रही थी। बंगाल के ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात की तर्जुमानी 'भूका है बंगाल' नज्म में है। यह नज्म, बंगाल के अकाल पीड़ितों की आवाज़ बन गई। आईए इस नज्म पर नजर-ए-सानी करें,

"पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला दुख का जाल
दुख की अगनी कौन बुझाये सूख गए सब ताल
जिन हाथों ने मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी
आज वही कंगाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल

कोठरियों में गांजे बैठे बनिये सारा नाज
सुंदर नारी भूक की मारी बेचे घर घर लाज
चौपट नगरी कौन संभाले चारों तरफ भूचाल रे साथी
चारों तरफ भूचाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल"

वामिक जौनपुरी ने इस नज्म में न सिर्फ अकाल से पैदा हुए दर्दनाक हालात का पूरा मंजर बयां किया है, बल्कि नज्म के आखिर में वे बंगाल वासियों से अपनी एकजुटता दर्शाते हुए कहते हैं,

"प्यारी माता चिंता जिन कर हम हैं आने वाले
कुंदन रस खेतों से तेरी गोद बसाने वाले
खून पसीना हल हंसिया से दूर करेंगे काल रे साथी
दूर करेंगे काल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल"

एक नई उम्मीद, नया हौसला बंधाने के साथ इस नज्म का इख्तिताम होता है।

इप्टा के 'बंगाल स्कवॉड' और सेंट्रल स्कवॉड ने 'भूका है बंगाल' नज्म की धुन बनाई और चंद महीनों के अंदर यह तराना मुल्क के कोने-कोने में फैल गया। इस नज्म ने लाखों लोगों के अंदर वतनपरस्ती और एकता, भाईचारे के जज्बात जगाए। इप्टा के कलाकारों ने नज्म को गा-गाकर बंगाल रिलीफ फंड के लिए हजारों रुपये और अनाज बंगाल के लिए इकट्ठा किया। इससे लाखों हमवतनों की जान बची। नज्म की मकबूलियत को देखते हुए, इसका मुल्क की दीगर जबानों में भी तर्जुमा हुआ।

(कुछ हिस्सा 'जनचौक' से साभार)

Thursday, 17 November 2022

टॉलस्टॉय

"सारे सुखी परिवार एक जैसे होते हैं. हर दुखी परिवार अपने तरीके से दुखी होता है." – यह 1878 में छप कर आई टॉलस्टॉय की 'अन्ना कैरेनिना' की पहली पंक्ति है.

1862 में लियो टॉलस्टॉय के साथ हुई शादी के समय सोफिया आंद्रेयेव्ना कुल अठारह की थी - पति से 16 साल छोटी. टॉलस्टॉय तब तक एक बड़े उपन्यासकार के तौर पर रूस भर में ख्याति हासिल कर चुके थे. हद दर्जे के जुआरी और वेश्यागामी टॉलस्टॉय के असंख्य औरतों के साथ शारीरिक सम्बन्ध रहे थे. इनमें उनके फार्म पर काम करने वाली अनेक नौकरानियां भी थीं जिनमें से एक ने उनके बच्चे को भी जन्म दिया था. अपने सेक्स जीवन की तमाम तफसीलें टॉलस्टॉय डायरियों में लिखा करते थे. शादी होने के तुरंत बाद उन्होंने अपनी नवेली बीवी को ये डायरियां पढ़ने कि दीं ताकि उसे पता लग सके वह कैसे आदमी के साथ अपना जीवन बिताने जा रही है. कच्ची उम्र की सोफिया के लिए यह अनुभव किस कदर तहस-नहस करने वाला रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है.

इस शादी के परिणामस्वरूप कुल तेरह बच्चे पैदा हुए जिनमें से तीन बचपन में ही गुजर गए. शादी के शुरुआती पंद्रह सालों में टॉलस्टॉय के लिखे 'युद्ध और शान्ति' और 'अन्ना कैरेनिना' दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े गए उपन्यासों में हैं. इन पंद्रह सालों में टॉलस्टॉय की पत्नी ने नौ बच्चों को जन्म दिया. सोफिया ने अपने जीनियस पति के काम को अंजाम देने में अपना खुद का जीवन होम कर दिया. एक गर्भावस्था से दूसरी गर्भावस्था के बीच सोफिया के लिए अथक मेहनत का समय होता था. उसे अपने पति की सेक्रेटरी, कॉपी सम्पादक और आर्थिक प्रबन्धक का काम भी करना होता था.  1869 के साल के आते आते जब 'युद्ध और शान्ति' के आख़िरी अध्याय लिखे जा रहे थे, सोफिया ने पूरी पांडुलिपि में आठ बार संशोधन किये और इतनी ही बार उसकी प्रतिलिपियाँ तैयार कीं. बाल-बच्चों के साथ दिन भर मसरूफ़ रहने के बाद वह रात को मोमबत्ती की रोशनी में इस काम को अंजाम देती थी.

सोफिया एक बेहद पढ़े-लिखे परिवार से ताल्लुक रखती थी और उसके परनाना रूस के इतिहास के पहले शिक्षा मंत्री रहे थे. उसे ख़ुद कहानियां सुनाना अच्छा लगता था और उसने अपने अनुभवों को अनेक डायरियों की सूरत दी. उसके पास लिखने के लिए अपने परिवार की असंख्य कहानियां थीं लेकिन टॉलस्टॉय की कहानियों को ठीक करने में ही उसकी आधी जिन्दगी खप गई. यह अलग बात है कि टॉलस्टॉय की निगाह में साहित्य की दुनिया में औरतों के लिए कोई जगह नहीं थी. 

विवाह के तीन दशक बीतते न बीतते यह सम्बन्ध एक बड़ा बोझ बन चुका था. टॉलस्टॉय के भीतर का वैचारिक संघर्ष भी नए आयाम लेता जा रहा था. अगले अठारह-बीस साल दोनों के बीच अजीब सी कैफ़ियत रही और आखिरकार 1910 में एक दिन अपनी पत्नी को बताये बगैर बूढ़े टॉलस्टॉय घर से निकल गए. अगले दिन आस्तापोवो नाम के रेलवे स्टेशन पर निमोनिया से उनकी मौत हो गयी. 
मोटे तौर पर देखा जाय तो यह एक त्रासद सम्बन्ध था जिसने संसार को महान साहित्यिक रचनाएं दीं लेकिन सोफिया और टॉलस्टॉय दोनों को भावनात्मक रूप से तबाह कर दिया.

अपनी पति की आदतों को लेकर अपनी एक डायरी में सोफिया ने लिखा है – 

"मानवता को खुश रखने के लिए जिन बातों का वे उपदेश देते हैं, वही चीजें जीवन को इस कदर जटिल बना देती हैं कि मेरे लिए जीना और भी मुश्किल  होता जाता है. उन्होंने शाकाहारी खाना ही खाना होता है. इसका मतलब हुआ खाना दो बार बनाना पड़ता है. इसमें दुगना खर्च होता है और दुगनी ही मेहनत लगती है. प्रेम और भलेपन पर दिए जाने जाने वाले उनके प्रवचन उन्हें अपने परिवार के प्रति बेपरवाह बनाते हैं और वे पारिवारिक जिन्दगी में तमाम तरह की गैरजरूरी नोंकझोंक करने लगते हैं. और दुनियावी चीजों के उनके त्याग (जो सिर्फ शब्दों में होता है) ने उन्हें एक ऐसे आदमी में बदल दिया है जो बिना रुके हर समय दूसरों की बुराई करता रहता है." 

एक बेहद प्रतिभावान और संवेदनशील स्त्री के रूप में सोफिया को अपने विचारों के लिए बहुत बड़े आसमान की दरकार थी लेकिन उसके पति ने उसे लगातार हाशिये में फेंका और गैरज़रूरी महसूस कराया. टॉलस्टॉय और सोफिया की सम्बन्ध एक ऐसी दास्तान है जिसमे स्त्री बिना शर्त पुरुष को अपना आदर्श और भगवान मानती है जबकि पुरुष उसे लगातार यातना पहुंचाता रहता है. सोफिया की प्रतिभा किस बेचैनी से अपने लिए रास्ते खोजा करती थी इसका प्रमाण यह तथ्य है कि उन्होंने फोटोग्राफी में भी हाथ आजमाया जिसकी खोज उनके बुढ़ापे में हुई थी.   

आदमियों की लिखी आदमियों की कहानियों से अटी इस दुनिया में कितनी सारी औरतों की कहानियां नहीं लिखी गईं. 

कोई हिसाब है!

#तलस्तोय
#सोफ़िया

Wednesday, 16 November 2022

धार्मिक पुस्तक

मेरा पक्का यकीन और पूर्ण विश्वास है कि इस संसार की कोई भी पुस्तक किसी भी ईश्वर,भगवान अल्लाह, गॉड या देवता ने नहीं लिखी हैं दुनिया की सारी पुस्तकें मानवलिखित हैं दुनिया के कोई भी पुस्तक आसमान से नहीं उतरी है, और न ही किसी महान पुरुष के मुख से निकली है, न समुद्र से  ऐसा होना प्राकृतिक नियम के खिलाफ है, जो संभव नहीं !  विचारवानों ने अपने मत को सर्वमान्य बनाने के लिए ईश्वरवचन या ईश्वरकृत पुस्तक का आरोप लगाया !  #कुरान में ऊंट बकरी का ज़िक्र है, क्योंकि इसे रेगिस्तानी परिवेश में लिखा गया । और वेदों में गाय घोड़े का ज़िक्र है क्योंकि इसे भारतीय परिवेश में लिखा गया इनके लेखकों को सिर्फ अपने #परिवेश की ही जानकारी थी यदि विश्व की होती तो इनके ग्रंथों में #जेबरा और #शुतुरमुर्ग भी होता ! यदि करोड़ों साल पहले लिखे गए होते, ( जो वैज्ञानिक और ऐतिहासिक रूप से सम्भव नहीं ) तो इसमें #डायनोसोर भी होते और #_Mammoth भी होता ! सीमित भौगोलिक ज्ञान की वज़ह से इसकी पुष्टि होती है कि सभी धार्मिक ग्रंथ मानव निर्मित हैं।

नोट - ट्रोल आर्मी धार्मिक कट्टरपंथियों संघी - मुसंघी और ज़ाहिल गालीबाजों का स्वागत रहेगा

Monday, 14 November 2022

शुरू है हक की लड़ाई


शुरू है हक की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।

छीन लिया है अधिकार तुम्हारा 
अब कलम को तलवार बना लो !
तोड़ दिया ग़र कलम तुम्हारी
गीतों-नारों को हथियार बना लो!

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई। 

लुटेरे जालिमों का सच जान कर
तालीम के लिए मरने वालों को अपना मान लो!
शोषित आवाम को साथ लेकर 
जुल्म के खिलाफ बन्द मुट्ठियाँ अपनी तान लो!

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई। 

पिता को मालिक की मार कब तक सहते देखोगे?
पेट की खातिर माँ को तुमने दर-दर भटकते देखा!
हैवानों से बहनों को कब तलक डरते देखोगे?
उठो, मिटा अमीरी-गरीबी, ऊँच नीच की रेखा! 

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई। 

तेरे हाथों में ही तो कैद है वो नया सबेरा 
तेरे कदमों के बढ़ने से ही छंटेगा ये अंधेरा 
नजर उठा देख ये सारा जहाँ है अपना बसेरा 
इस दुनिया को अब इक तेरा ही आसरा।

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।

Anjali Yadav

शुरू है हक की लड़ाई




शुरू है हक की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।

छीन लिया है अधिकार तुम्हारा 
अब कलम को तलवार बना लो !
तोड़ दिया ग़र कलम तुम्हारी
गीतों-नारों को हथियार बना लो!

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई। 

लुटेरे जालिमों का सच जान कर
तालीम के लिए मरने वालों को अपना मान लो!
शोषित आवाम को साथ लेकर 
जुल्म के खिलाफ बन्द मुट्ठियाँ अपनी तान लो!

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई। 

पिता को मालिक की मार कब तक सहते देखोगे?
पेट की खातिर माँ को तुमने दर-दर भटकते देखा!
हैवानों से बहनों को कब तलक डरते देखोगे?
उठो, मिटा अमीरी-गरीबी, ऊँच नीच की रेखा! 

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई। 

तेरे हाथों में ही तो कैद है वो नया सबेरा 
तेरे कदमों के बढ़ने से ही छंटेगा ये अंधेरा 
नजर उठा देख ये सारा जहाँ है अपना बसेरा 
इस दुनिया को अब इक तेरा ही आसरा।

शुरू है हक़ की लड़ाई 
तुम भी हाथ बढ़ाओ, साथ निभाओ भाई।

Anjali Yadav 

Workers march in Delhi against anti-worker labour codes and privatization; Demand secure employment and pro-labour reforms


*November 13, New Delhi |*

 Thousands of workers from every corner of the country raised their voices in unison at the Ramlila Grounds in New Delhi, as part of *'Mazdoor Aakrosh Rally' organized by Mazdoor Adhikar Sangharsh Abhiyan (MASA)*. Workers demanded the withdrawal of the four new anti-worker labour codes passed by the Indian government; an end to the privatisation drive of public industries and assets; permanent and secure employment for all; Rs. 26,000 as minimum monthly wage; a monthly unemployment allowance of Rs 15,000; declaration of lay-offs, closures and retrenchments as illegal; abolition of the contract system and various kinds of temporary employment; recognition of domestic-gig-scheme workers under labour laws; job security, housing, healthcare, child care for all migrant and rural workers and universal PDS. Over five thousand workers, students and teachers from 18 states including Delhi NCR, Uttar Pradesh, Haryana, Uttarakhand, Punjab, Rajasthan, Bihar, Bengal, Assam, Himachal, Chhattisgarh, Karnataka, Tamil Nadu, Andhra Pradesh, Telangana, Maharashtra and Gujarat participated in the demonstration.

The workers were met with heavy police deployment and barricading despite having notified the administration months in advance of the program. The march pushed aside two rounds of barricading to block the main Jawaharlal Nehru Marg towards New Delhi railway station. A delegation submitted the memorandum containing the six central demands to the President's office. The rally was concluded with a pledge to strengthen and extend the scope of the platform and build an uncompromising, militant and continuous working class struggle against the neoliberal policies of the government. 

The Rally was addressed by representatives from the sixteen constituent organisations of MASA, i.e.  All India Workers Council, Grameen Mazdoor Union (Bihar), Indian Council of Trade Unions (ICTU), Indian Federation of Trade Unions (IFTU), IFTU (Sarwahara), Inqlabi Mazdoor Kendra, Inqlabi Mazdoor Kendra Punjab, Jan Sangharsh Manch Haryana, Karnataka Shramika Shakthi, Lal Jhanda Mazdoor Union (Samanvay Samiti), Mazdoor Sahayata Samiti, Mazdoor Sahyog Kendra, New Democratic Labour Front-State Coordination Committee (NDLF SCC Tamilnadu), Socialist Workers Centre (Tamilnadu), Struggling Workers Coordination Centre (SWCC, West Bengal), Trade Union Centre of India (TUCI). Cultural performances by teams from Karnataka, Telangana, Tamil Nadu, Punjab and West Bengal energised the rally with songs of struggle and transformation. 

The air reverberated with revolutionary slogans and demands representing workers from the vast spectrum of industries and regions of the country in attendance at the march as the ground was transformed into a sea of red flags. The protest was joined by *organised private sector workers from automobile, engineering, textile, garment and food processing industries* including the struggling terminated workers of Maruti Suzuki, the Maruti Suzuki Workers' Union, Belsonnica Employees Union and contract workers from Sunbeam and Hitachi in Haryana; Daikin Air Conditioner Workers' Union and Daido Mazdoor Union from Neemrana, Rajasthan; Bhagwati Micromax, Nestle, Parle, Rocket Riddhi Siddhi, Kirolia Lighting, Voltas, Intrark and other unions from Uttarakhand; unions from Hindi Motors, Kanoria Jute Mill, Bauria Cotton Mills and other units from West Bengal and Steel and Molding Workers Union (Punjab); *Workers from public sector enterprises* including BHEL (Uttarakhand), BSNL (WB), Eastern Coalfeilds Limited (WB), Singareni Collieries Company Limited (Telangana) and Indian Railways (Easter UP); *Tea Plantation workers* from Jakai, Nahorkotia, Gotonga, Naginijan, Jaipur, Samuguri, Hautley, Furkating and Missamara Tea Estates in Assam and Margaret's Hope, Dhotrey, Baghrakote, Phulbari and Peshok Tea Gardens from Darjeeling joined the rally in significant numbers. *Unions of rural workers and urban unorganized sectors* such as Anganwadi Workers and Helpers Union (Haryana), MGNREGA and Sarva Kamgar Union (Himachal Pradesh), Chhattisgarh Mukti Morcha Mazdoor Karyakarta Samiti (Chhatisgarh), Rural Employees Union (Haryana), Nirman Mazdoor Sangharsh Union (Bihar) and others among MNREGA, Sanitation, Construction, Domestic work, Anganwadi, Mid-day meal, IT-ITES, gig workers, loading-unloading and private transport from different states lent immense strength to the march. The mobilisation witnessed a strong presence of women workers.

The program was the culmination of a four month long widespread agitational campaign on six central demands. The campaign was carried out both jointly and independently by the constituent organizations of MASA at factory gates, labour lines, fields, mines and industrial areas across the country. *Three regional conventions were held in Kolkata, Hyderabad and Delhi in build up to the march.*

The march reflected the rising disquiet within the working class in India, being pushed to the wall with rising cost of living, stagnant and even decreasing wages and rising unemployment and social insecurity. Slogans for working class unity across lines of communal divisions, regional and sectoral differences were also raised. Such wide ranging section of the country's working class coming together as an organised force sent an important message to the central and state governments. The sense of unity and camaraderie in the march is sure to bring fresh energy among all who participated in the demonstration, to organise the working class and fight back the unbriddled capitalist exploitation ongoing in the country and the world today!

Revolutionary Greetings,
*Mazdoor Adhikar Sangharsh Abhiyan (MASA)*


Saturday, 12 November 2022

ईश्वर नहीं है यहां

कितना अच्छा है कि कोई  ईश्वर नहीं 
 है यहां
सिर्फ है  उसका सेमल के फल सा
खरगोश के सींग सा
बांझ के बेटे सा
भूस- भरे जर्जर बाघ सा
एक अर्थ हीन, खोखला,भुरभुराता हुआ नाम
जो आता रहता है वक्त -बेवक्त
धूर्त सत्ताधारियों, शोषक व्यापारीयों
और पाखंडी पुजारियों के काम
और जिसे भोले भाले बोधहीन  दीन- दु:खी लोग
लगाते रहते हैं अपने दु:ख- दर्दो पर
समझ कर बाम. 

रणजीत


Friday, 11 November 2022

साथ खड़ा होने का समय है साथी!✊🏿



यह हिम्मत के साथ, अपने लोगों के साथ
खड़ा रहने का समय है साथी
भूख के खिलाफ दमन के खिलाफ
आवाज दबाने की साजिश के खिलाफ
इंकलाब को रोकने के मंसूबों के खिलाफ
यह खड़ा होने का समय है साथी
भूख से सड़कों पर मार्च करते हैं हजारों मजदूरों के साथ
फसल खो देने के बाद
सरकार की उपेक्षा झेलते किसानों के साथ
बेरोजगार बनने के बाद आत्महत्या करते लोगों के
बच्चों और परिवार के साथ
खड़ा होने का समय है साथी
बेरोजगार होते युवाओं के साथ
बच्चों का पेट न भर पाने के बाद
रोती माताओं के साथ

कैसे खड़ा होंए साथी?
कहना तुम्हारे लिए हो सकता है आसान
भूख ने तो हमें भी ला खड़ा किया है
उन्हीं के साथ
चलो थाम लेते हैं हम सब मिलकर एक दूसरे का हाथ
और खड़ा होते हैं उन लोगों के खिलाफ
जिन्होंने भूख को पैदा किया है
गोदामों में अनाज को कैद कर
मजदूरों को 10 बाई 10 के कमरों में
जानवरों से भी बदतर तरीके से ठूंसकर
जो भोजन देने और काम शुरू करने के पहले
नापतोल लेते हैं फायदे के इतिहास और भूगोल को
खड़ा होते हैं साथी मिलकर
उनके खिलाफ
जिनके लिए सब कुछ ठीक-ठाक होने के मतलब है
श्रम के मालिकों का चलता रहे हाथ
लेकिन दुनिया के लोगों के पेट भरने के लिए नहीं
तन ढकने के लिए नहीं
खनकतते सिक्कों के पहाड़ को खड़ा करने के लिए

इस पहाड़ के नीचे दबना नहीं है साथी
पहाड़ में सुरंग बनाना है उस पार जाने के लिए
जहां गढ़ा जा सकता है
एक सुंदर दुनिया भूख के खिलाफ
निर्वस्त्र लोगों के कंपकपाते शरीर के लिए
नई आत्माओं को गढ़ने करने के लिए
जिनकी धड़कनों में बसते हैं
करोड़ों शिशुओं के क्रंदन और धड़कन।

नरेंद्र कुमार 

मुक्तिबोध - तुम्हारे पास.....

तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ़ एक चीज़ है –
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेती है
हृदय की तगारी है – तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।
जीवन-मैदानों में
लक्ष्य के शिखरों पर
नए किले बनाने में
व्यस्त हैं हमीं लोग
हमारा समाज यह जुटा ही रहता है।
पहाड़ी चट्टानों को
चढ़ान पर चढ़ाते हुए
हज़ारों भुजाओं से
ढकेलते हुए कि जब
पूरा शारीरिक ज़ोर
फुफ्फुस की पूरी साँस
छाती का पूरा दम
लगाने के लक्षण-रूप
चेहरे हमारे जब
बिगड़ से जाते हैं –
सूरज देख लेता है
दिशाओं के कानों में कहता है –
दुर्गों के शिखर से
हमारे कंधे पर चढ़
खड़े होने वाले ये
दूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे –
कि मंगल में क्या-क्या है!!
चंद्रलोक-छाया को मापकर
वहाँ के पहाड़ों की उँचाई नहीं नापेंगे,
वरन् स्वयं ही वे
विचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में,
देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये।
इसलिए अगर ये लोग
सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप
मामूली रूप-रंग
लिए हुए होने से
तथाकथित 'सफलता' के
खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि
निरर्थक व महत्वहीन
क़रार दिए जाते हों
तो कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं।

-मुक्तिबोध
चित्र: हरिपाल त्यागी

Thursday, 10 November 2022

Ahmad Faraz : *बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो*

Ahmad Faraz : *बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो*

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो

नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो
अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो

तवाफ़-ए-मंज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है
'फ़राज़' तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो

रूसी क्रांति को कैसे देखें -- कविता कृष्‍णपल्लवी

रूसी क्रांति को कैसे देखें
-- कविता कृष्‍णपल्लवी

(यह लेख 2017 में अक्टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी के अवसर पर 'रविवार डाइजेस्ट' के तत्कालीन संपादक दिवंगत साथी राजकिशोर जी ने बहुत आग्रहपूर्वक लिखवाया था और पत्रिका के जून 2017 अंक में प्रकाशित किया था! उम्मीद है कि आप आज भी इसे उपयोगी पायेंगे) 

रूस की अक्टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी (नये कैलेण्‍डर के हिसाब से यह 7 नवम्बर, 1917 को हुई थी) के अवसर पर पूरी दुनिया में वे सभी लोग इसे याद कर रहे हैं, जिन्होंने 'इतिहास के अन्त', 'क्रान्तियों के महाख्यानों के विसर्जन' और उत्तर-मार्क्सवाद से ले कर उत्तर-सत्य के नये युग के आगमन के बौद्धिक शोरगुल के बीच भी मानवता की मुक्ति और एक शोषणमुक्त, समतामूलक समाज के निर्माण की ऐतिहासिक परियोजना में अपना विश्‍वास नहीं खोया है।
बीसवीं सदी के इतिहास को गढ़ने और एक सुनिश्चित शक्ल देने में अक्टूबर क्रान्ति की भूमिका सर्वोपरि थी। 7 नवम्बर, 1917 के बाद दुनिया वैसी ही नहीं रह गयी, जैसी वह पहले थी। अक्टूबर क्रान्ति के बाद जर्मनी, हंगरी और इटली में सर्वहारा क्रान्ति के प्रयास यदि विफल नहीं हो जाते, तो शायद आज तक का इतिहास कुछ और ही होता। लेकिन इसके बावजूद अक्टूबर क्रान्ति का आमूलगामी प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा। युद्धपोत अव्रोरा के तोपों के धमाकों की गूँज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ी। ग्रीस, आयरलैंड और माल्टा से ले कर तुर्की, मिस्र और मेक्सिको तक पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति की लहर आगे बढ़ी, जो अपने अधूरेपन के बावजूद इतिहास को आगे गति दे रही थी। उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों और नाम मात्र की राजनीतिक स्वतंत्रता वाले देशों में (जिन्हें बाद में नवउपनिवेश कहा जाने लगा) राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्ष की उत्ताल तरंगें उठने लगीं। गु़लाम देशों के बौद्धिक मानस में राष्‍ट्रीय जागरण की नयी चेतना पैदा करने और समाजवाद की अवधारणा को स्थापित करने में अक्टूबर क्रान्ति ने कितनी बड़ी भूमिका निभायी थी, इसका प्रमाण भारत में 1918 से लेकर 1940 तक की अवधि में प्रकाशित होने वाली हिन्दी की 'प्रताप', 'प्रभा', 'अभ्युदय', 'चाँद', 'सुधा', 'माधुरी', 'हंस', 'स्वदेश' आदि अग्रणी पत्रिकाओं और सभी भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं को देखने से मिल जाता है। इतिहास गवाह है कि अक्टूबर क्रान्ति ने न केवल पूरी दुनिया में चल रहे राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों को गहराई से प्रभावित किया, बल्कि उसके प्रभाव में इन देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन की भी शुरुआत हुई और तेज गति से विकास हुआ। इसमें 1919 में गठित 'कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल' (कोमिण्टर्न) की विशेष भूमिका थी। यूरोपीय मजदूर आन्दोलन का एक बड़ा हिस्सा सुधारवादी और अंधराष्‍ट्रवादी दूसरे इण्टरनेशनल से टूट कर 'कोमिण्टर्न' से जुड़ी लेनिनवादी पार्टियों के नेतृत्व में काम करने लगा। पूर्वी यूरोप के अतिरिक्त मेक्सिको, भारत, चीन, इण्डोनेशिया और अरब क्षेत्र के कुछ देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन का तेजी से विकास हुआ। विदेशों में स्थित मानवेंद्र नाथ राय, भूपेन्द्र नाथ दत्त, अवनी मुखर्जी आदि और गदर पार्टी के कुछ क्रान्तिकारियों के साथ ही देश के भीतर सक्रिय 'युगांतर', 'अनुशीलन' और भगत सिंह के संगठन 'एचएसआरए' के अधिकांश क्रान्तिकारियों ने 1920 के दशक से ले कर 1930 के दशक तक मार्क्सवाद को स्वीकार कर लिया था। अक्टूबर क्रान्ति के इन विश्‍वव्यापी प्रभावों पर पुस्तकाकार चर्चा हो सकती है और इन पर विपुल संख्या में शोधग्रन्थ और इतिहास की पुस्तकें मौजूद हैं, लेकिन विश्‍व इतिहास के मात्र इसी उत्तरवर्ती घटना-प्रवाह से अक्टूबर क्रान्ति के युगांतरकारी महत्व का पता नहीं चलता। इस महत्व को और अधिक व्यापक विश्‍व-ऐतिहासिक सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। 
फ्रेडरिक एंगेल्स ने यूरोपीय पुनर्जागरण को उस समय तक के इतिहास की महानतम क्रान्ति बताया था, जिसने मानव समाज के धर्मकेन्द्रित (थियोसेण्ट्रिक) ढाँचे को मानवकेन्द्रित (एन्थ्रोपोसेण्ट्रिक) ढाँचे में बदल डालने का महाअभियान छेड़ा था। उसके बाद की सर्वाधिक आमूलगामी और विश्‍व-ऐतिहासिक महत्व की घटना 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति थी, जिसके तूफानी अग्रदूत जैकोबैं नायकों ने प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के 'स्वंतत्रता-समानता-भ्रातृत्व' और 'तर्कणा के राज्य' के आदर्शों को साकार रूप देने की कोशिश की। हालाँकि यह आदर्श क्षणजीवी ही रहा, लेकिन इसके परिणामस्वरूप जो पूँजीवादी जनवादी गणराज्य अस्तित्व में आये, वे तमाम पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न के बावजूद सामन्ती स्वेच्‍छाचारिता के मध्ययुगीन अँधेरे की तुलना में इतिहास की महान क्रान्तिकारी प्रगति के सूचक मील के पत्थर थे। इसके बाद इतिहास की जो तीसरी सर्वाधिक आमूलगामी परिवर्तनकारी घटना थी, वह थी रूस की 1917 की अक्टूबर क्रान्ति। मानव इतिहास में निजी स्वामित्व और उस पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के पैदा होने का इतिहास तकरीबन चार-पाँच हजार वर्षों पुराना है। अब तक के सभी सामाजिक संघर्ष निजी स्वामित्व की व्यवस्था के अमानवीय और अन्यायपूर्ण परिणामों और अभिव्यक्तियों के विरुद्ध जन-विद्रोह होते थे, लेकिन किसी भी क्रान्ति ने बुनियाद को, यानी निजी स्वामित्व की व्यवस्था को सीधे निशाने पर नहीं लिया था। अक्टूबर क्रान्ति से पहले 1871 में पेरिस कम्यून के 72 दिनों के दौरान मजदूरों ने निजी स्वामित्व आधारित सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर सर्वहारा जनवाद की शासन-प्रणाली का एक मॉडल पेश किया था, पर उस क्रान्तिकारी घटना के पीछे वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न किसी पार्टी का नेतृत्व नहीं था, वह जाग्रत सर्वहारा के सामूहिक वर्गगत अनुभवजन्य ज्ञान की उपज था, इसलिए उसका अल्पजीवी होना स्वाभाविक था। रूस में लेनिन के नेतृत्व में बोल्‍शेविक पार्टी ने मार्क्सवाद की सम्पूर्ण सैद्धान्तिकी के साथ ही पेरिस कम्यून के अनुभवों का भी गहन अध्‍ययन-समाहार किया और युद्ध की परिस्थितियों और सरकार की अस्थिरता जैसी परिस्थितियों का सटीक ढंग से लाभ उठाते हुए बूर्जुआ राज्यसत्ता का बलात ध्‍वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की, या सर्वहारा के वर्गीय अधिनायकत्व की स्थापना की, जिसके अन्तर्गत पेरिस कम्यून के विकसित रूप में सोवियत की नये किस्म की जनवादी व्यवस्था कायम की गयी। अब तक की सभी राज्यसत्ताएँ शोषित बहुमत पर शोषक अल्पमत का अधिनायकत्व हुआ करती थी, सोवियत सत्ता पहली ऐसी राज्यसत्ता थी जो शोषक अल्पमत पर शोषित बहुमत का अधिनायकत्व थी। यह पहली ऐसी राज्यसत्ता थी, जिसे वर्गों, निजी स्वामित्व आधारित असमानता एवं विशेषाधिकारों और वर्ग संघर्षों के क्रमश: विलोपन के साथ ही विलोपित होते जाना था, हालाँकि कम्युनिज्म़ की मंजि़ल तक जाने वाली समाजवादी संक्रमण की इस यात्रा में शताब्दियाँ लगनी थीं और इस दौरान कई हार-जीत और चढ़ाव-उतार का पूर्वानुमान लेनिन ने ही लगाया था। अक्टूबर क्रान्ति का नेतृत्व चूँकि सर्वहारा वर्ग की पार्टी कर रही थी और सर्वहारा वर्ग इतिहास का पहला ऐसा वर्ग था जिसके पास उत्पादन के साधनों का कोई भी स्वामित्व नहीं था, इसलिए उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को समाप्त करना केवल इसी वर्ग का ऐतिहासिक मिशन हो सकता था और इसीलिए, अक्टूबर क्रान्ति के बाद खेती, उद्योग, व्यापार - इन सभी क्षेत्रों में उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को समाप्त कर पाना संभव हो सका। 
लेकिन समाजवादी निर्माण के कामों को अंजाम देने के लिए सोवियत क्रान्ति को असामान्य बीहड़ रास्ते और चुनौतियों से गुजरना पड़ा। क्रान्ति के तुरत बाद सभी औद्योगिक-व्यापारिक प्रतिष्‍ठानों और समूची जमीन को राष्‍ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। समूची काम करने योग्य आबादी को रोजगार देना और सभी अनाथों और वृद्धों की देखभाल सरकारी जि़म्मेदारी घोषित कर दी गयी। हजा़रों की तादाद में सामूहिक भोजनालय खोले गये। शिक्षा पूरी तरह नि:शुल्क और सरकार की जिम्मेदारी बना दी गयी। लेकिन इन समाजवादी कदमों को आगे बढ़ाने में गंभीर बाधा यह थी कि पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान पहले से ही तबाह देश की पूँजीवादी दुनिया ने न सिर्फ नाकेबन्दी कर दी थी, बल्कि 14 साम्राज्यवादी देशों ने मिल कर नवजात समाजवादी देश पर धावा बोल दिया था। देश के भीतर देनिकिन, कोल्चाक, व्रांगेल आदि की प्रतिक्रियावादी सेनाओं ने गृहयुद्ध छेड़ रखा था। आम मेहनतकश जनता ने एकजुट होकर प्रतिक्रिया की शक्तियों के सभी षड्यंत्रों और हमलों को नाकाम तो कर दिया, लेकिन पूरी अर्थव्यवस्था तबाह थी और देश भुखमरी की चपेट में था। शहरी आबादी को भुखमरी से बचाने के लिए और सामुदायिक भोजनालयों तथा नि:शुल्क भोजन कार्यक्रम को चलाने के लिए किसानों से जो जबरिया अनाज-वसूली की गयी थी, उससे छोट-मँझोले किसान भी नाखुश थे। ऐसी स्थिति में लेनिन ने 1921 में 'नयी आर्थिक नीति' ('नेप') का प्रस्ताव रखा। यह समाजवाद के दूरगामी हितों को देखते हुए, कुछ समय के लिए पीछे हटने की नीति थी, जिसके अन्तर्गत योजनाबद्ध ढंग से, सीमित पैमाने पर उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व, श्रमशक्ति की खरीद-फरोख्त और किसानों को अपने उत्पाद खुले बाजार में बेचने की सीमित-आंशिक छूट दी गयी। इन कदमों से समाज में नये पूँजीवादी तत्व तो पैदा हुए, लेकिन छह-सात वर्षों में अर्थव्यवस्था पटरी पर आ गयी।

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1926-27 तक अर्थतंत्र के तबाही से उबरने के साथ ही 'नयी आर्थिक नीति' को समाप्त करक समाजवादी निर्माण के काम को फिर तूफानी गति से आगे बढ़ाया गया। तेज गति से समाजवादी औद्योगीकरण किया गया, एक दशक के भीतर ही औद्योगिक उत्पादन दूने से भी अधिक हो गया और सोवियत संघ ने ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति के दौरान हुए विकास की रफ्तार को भी काफी पीछे छोड़ दिया। कृषि उत्पादन में भी ऐसी ही तेज वृद्धि हुई, सामूहिक खेती का तेज गति से मशीनीकरण हुआ और ग्राम सोवियतों की व्यवस्था पूरे देश में फैल गयी। शिक्षा, विज्ञान और तक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी द्वितीय विश्‍व युद्ध के पहले तक सोवियत संघ पश्चिम के विकसित पूँजीवादी देशों की बराबरी पर आ खड़ा हुआ था। 1930 के दशक के मध्य तक पूरे देश में न कोई बेघर था, न बेरोजगार। वेश्‍यावृत्ति और यौन रोगों का समूल नाश हो गया था। देशभर में शिशुशालाओं, बाल विहारों और सामूहिक भोजनालयों की व्यवस्था के चलते स्त्रियाँ चूल्हे-चौकठ की गुलामी से आजाद हो गयी थीं। 1929 में कुल कामगारों में 29 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं जो 1941 में बढ़कर 45 प्रतिशत हो गयी थी। सेक्टरों में बाँट कर देखें तो इस अवधि में स्त्रियों की भागीदारी बड़े उद्योगों में 30 प्रतिशत से बढ़ कर 45 प्रतिशत, परिवहन में 10 प्रतिशत से बढ़ कर करीब 38 प्रतिशत, शिक्षा में 55 प्रतिशत से बढ़ कर 72 प्रतिशत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में 65 प्रतिशत से बढ़ कर करीब 78 प्रतिशत हो गयी। 
पितृसत्तात्मक परिवार संस्था का जन्म निजी सम्पत्ति के जन्म के साथ हुआ था। निजी स्वामित्व की व्यवस्था पर कुठाराघात करते हुए समाजवाद ने परिवार और पुरुष सत्ता की जड़ों पर भी मारक चोट की। अक्टूबर 1918 के 'विवाह परिवार और बच्चों के अभिभावकत्व सम्बन्धी कोड' ने जेण्डर-समानता और व्यक्तिगत अधिकारों के मामले में स्त्रियों को पहली बार वे अधिकार दिये, जो दुनिया का कोई उन्नततम जनवादी देश भी आज तक नहीं दे पाया है। विवाह, सहजीवन और तलाक सहित यौन सम्बन्धों के हर मामले में राज्य, समाज और धर्म के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया गया। समलैंगिकता और आपसी सहमति से किये जाने वाले अन्य यौन क्रियाकलापों के विरुद्ध जो भी कानून थे, उन्हें समाप्त कर दिया गया! इसी तरह वेश्‍यावृत्ति को अपराध मानने वाले कानूनों को भी समाप्त कर दिया गया, क्योंकि बोल्‍शेविकों का मानना था कि शरीर की खरीद-फरोख्त की प्राचीनतम बुराई को दण्ड-विधानों के द्वारा नहीं, बल्कि स्त्रियों को स्वतंत्र सामाजिक-आर्थिक हैसियत और समान नागरिक अधिकार दे कर ही समाप्त किया जा सकता है। समय ने इस धारणा को सही साबित किया और 1930 के उत्तरार्द्ध तक सोवियत समाज से वेश्‍यावृत्ति, यौन अपराधों और यौन रोगों का लगभग पूरी तरह से खात्मा हो गया।
क्रान्ति के तत्काल बाद, स्त्री मजदूरों के लिए सोवियत सत्ता ने सामाजिक-सांस्कृतिक सुविधाओं, सामुदायिक सेवाओं तथा प्रशिक्षण एवं शिक्षा के कार्यक्रमों की शुरुआत कर दी थी। 1918 के 'लेबर कोड' के अंतर्गत स्त्री मजदूरों, विशेषकर गर्भवती स्त्रियों और छोटे बच्चों की माँओं के लिए कई विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया गया। स्त्रियों को न केवल प्रसव के दौरान, बल्कि हर माह रजोनिवृत्ति के दिनों में भी सवैतनिक अवकाश दिया जाने लगा। 1920 में एक आज्ञप्ति जारी करके गर्भपात के लिए आपराधिक दण्ड के कानूनी प्रावधान को समाप्त कर दिया गया। 1926 में एक नया 'फैमिली कोड' लागू हुआ जो 1918 के कोड से काफी आगे का कदम था। इस नये कोड के तहत, विवाह पंजीकरण को स्वैच्छिक बना दिया गया और सहजीवन ('लिव इन रिलेशनशिप') को 'डिफैक्टो मैरिज' के रूप में मान्यता दे दी गयी। राजनीति और सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाने के लिए बोल्‍शेविकों ने क्रान्ति के पहले 'राबोत्नित्सा' नामक संस्था का गठन किया था। क्रान्ति के बाद 'झेनोत्देल' नामक संस्था ने इसे और बड़े पैमाने पर अंजाम दिया। बोल्‍शेविक पार्टी और सोवियत सत्ता के शीर्ष नेतृत्व में क्रुप्सकाया, अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई, अनेसाँ आरमा, समाइलोव्‍ना, लीदिया फोतियेवा आदि पचास से अधिक स्त्रियाँ तो थी हीं, नीचे कारखानों और गाँवों की सोवियतों तक में लाखों स्त्रियाँ नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही थीं।
द्वितीय विश्‍वयुद्ध में सोवियत संघ की विजय और दुर्दान्त फासिस्टों के विनाश के पीछे मुख्य कारण यह था कि समूची जनता बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे कर भी समाजवाद को बचाना चाहती थी। समूची जनता की इस जुझारू एकजुटता के पीछे स्त्रियों की सामाजिक मुक्ति की अहम भूमिका थी। युद्ध के वर्षों में पूरी सामूहिक खेती स्त्रियों ने सम्हाल रखी थी। इस दौरान स्त्री हार्वेस्टर चालकों और ट्रैक्टर चालकों की संख्या में क्रमश: सात गुने और ग्यारह गुने की तथा मशीन ट्रैक्टर स्टेशनों पर काम करने वाली स्त्रियों की संख्या में दस गुने की बढ़ोत्तरी हो गयी। युद्ध के वर्षों में उद्योगों में 53 प्रतिशत, चिकित्सा सेवा में 83 प्रतिशत और शिक्षा में 58 प्रतिशत काम स्त्रियाँ सम्‍हाल रही थी। यही नहीं, उत्पादन को सम्हालने के साथ ही देश के भीतर घुस आये हिटलर की सेना के विरुद्ध छापामार संघर्ष चलाने वाले दस्तों में भी स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर शामिल थीं। समूची मेहनतकश जनता के फौलादी संकल्पों और मुक्त स्त्रियों की असीम शक्ति का ही यह नतीजा था कि जो देश विजय के बाद अपनी 2 करोड़ 70 लाख आबादी को खो कर तबाही के उस मुकाम पर खड़ा था, जहाँ 70 प्रतिशत शहर और कारखाने ध्वस्त पड़े थे और खेती तबाह हो चुकी थी, वही तीन-चार वर्षों के भीतर, तूफानी गति से पुनर्निर्माण करके उठ खड़ा हुआ और 1950 का दशक शुरू होते-होते, न केवल उद्योग, खेती और सामाजिक प्रगति, बल्कि विज्ञान और तकनोलॉजी के क्षेत्र में भी दुनिया के सर्वाधिक विकसित पूँजीवादी देशों की टक्कर में खड़ा हो गया। 
भौतिक प्रगति के अतिरिक्त कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में सोवियत समाज ने जो नये मील के पत्थर गाड़े, उन्हें आज के पढ़े-लिखे लोगों की नयी पीढ़ी नहीं जानती है, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर युग में नये संचार माध्यम समाजवाद-विरोधी कुत्सा-प्रचार शीतयुद्ध के दौर से भी कई गुना अधिक प्रभावी ढंग से कर रहे हैं। अध्‍ययन करने के बाद ही कोई जान सकता है कि गोर्की, मयाकोव्स्की, येस्येनिन, ब्लोक, फेदिन, फदेयेव, शोलोखोव आदि के बिना बीसवीं सदी के साहित्य की, लुनाचार्स्की, मिखाइल लिफ्शित्ज, वोरोव्स्की, वोरोन्स्की आदि के बिना साहित्य-सैद्धान्तिकी की, स्तानिस्लाव्स्की, मेयेरहोल्ड और वाख्तांगोव के बिना थियेटर की , आइजेंस्ताइन, पुदोवकिन, दोवझेंकों और वेर्तोव आदि के बिना सिनेमा की तथा शास्ताकोविच, प्रोकोफियेव, खाचातुरिन आदि के बिना संगीत की चर्चा कर पाना असम्भव है। यही नहीं, बीसवीं शताब्दी के दुनिया भर के महानतम चिन्तकों, साहित्यकारों और कलाकारों के एक बड़े हिस्से के चिन्तन और सृजन पर अक्टूबर क्रान्ति और सोवियत समाजवाद का गहरा प्रभाव पड़ा।

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तब फिर सहज ही, यही प्रश्‍न यक्षप्रश्‍न बन कर सामने आता है कि गृहयुद्ध, आर्थिक नाकाबन्दी और साम्राज्यवादी देशों के हमले को भी झेल कर जिस समाजवाद ने भौतिक और आत्मिक प्रगति के अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किये और लगभग अकेले दम पर फासिस्टों को नेस्तनाबूद कर पूरी दुनिया की हिफाजत की, वह बिना किसी बाहरी हमले के अपने अन्दरूनी अन्तरविरोधों से ही तबाह कैसे हो गया? सवाल वाजिब है और पूर्वाग्रहमुक्त हो कर इसका जवाब जानने के लिए समाजवादी संक्रमणकालिक समाज की प्रकृति के बारे में एक अतिसंक्षिप्त चर्चा तो करनी ही पड़ेगी।
लेनिन और उनके बाद माओ ने कई जगह कई बार इस बाबत लिखा था कि समाजवादी समाज पूँजीवाद और वर्गविहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमणकाल होता है, जिस दौरान वर्ग संघर्ष जारी रहता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना का खतरा लम्बे समय तक बना है। पहले तो उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व भी पूरी तरह समाप्त होने में समय लगता है, बड़े पूँजीपतियों और भूस्वामियों के स्वामित्वहरण के बाद भी गाँवों-शहरों में छोटे निजी उत्पादक बचे रहते हैं, क्योंकि उन्हें बल-प्रयोग की जगह नजीरों के जरिये कायल करके ही समाजवाद के पक्ष में लाना होता है। जब तक यह छोटे पैमाने का पूँजीवादी उत्पादन जारी रहता है, तब तक 'प्रतिदिन, प्रतिघण्टा' नये बूर्जुआ तत्व पैदा होते रहते हैं। 
इसके बाद उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण की समस्या को भी समझ लें। उत्पादन सम्बन्धों के तीन पहलू होते है : (i) स्वामित्व का स्वरूप , (ii) उत्पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्बन्ध, और (iii) उत्पादों के वितरण का स्वरूप। यह बात समझनी होगी कि निजी मालिकाना समाप्त होने मात्र से समाज समतामूलक नहीं हो जाता। उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की समाप्ति के बाद भी समाजवादी समाज में लम्बे समय तक 'क्षमता मुताबिक काम करने और आवश्‍यकता मुताबिक पाने' की जगह श्रमशक्ति के मूल्य के भुगतान की प्रणाली तथा नैतिक प्रोत्साहन की जगह भौतिक प्रोत्साहन (यथा, बोनस, ओवरटाइम आदि) की व्यवस्था जारी रहती है और चूँकि लोगों की श्रम करने की क्षमता प्राकृतिक रूप से कम-ज्यादा होती है, इसलिए समाज में लगातार असमानता पैदा होती रहती है। तीन अन्‍तरवैयक्तिक असमानताएँ (गाँव और शहर के बीच, कृषि और उद्योग के बीच तथा शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच अन्तर) भी लम्बे समय तक बनी रहती है और इनके आधार पर स्थापित सामाजिक असमानता और बूर्जुआ अधिकार भी मौजूद रहते हैं। वेतनों की असमानता भी समाप्त होने में समय लगता है। यह तो हुई आर्थिक मूलाधार यानी उत्पादन सम्बन्धों की बात, अब यदि सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचना की बात करें; तो समाजवादी समाज में बूर्जुआ मूल्य-मान्यताएँ-संस्थाएँ-आदतें और संस्कार लम्बे समय तक मौजूद रहते हैं जो उत्पादन सम्बन्ध और पूरे समाज के समाजवादी रूपांतरण की राह में रोड़े अँटकाते रहते हैं। इन सभी उपादानों के योगात्मक प्रभाव से राजनीतिक अधिरचना यानी पार्टी और राज्य की मशीनरी के भीतर नौकरशाही के मजबूत होने की जमीन तैयार होती है और एक नया बूर्जुआ वर्ग पैदा होता रहता है। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का खात्मा समाजवाद की बुनियाद है, जो जबर्दस्त आर्थिक-सामाजिक प्रगति के द्वार खोल देती है, पर इतने से ही समाजवाद अपने आप आगे नहीं जा सकता। इसके लिए उत्पादन सम्बन्धों के उपर्युक्त शेष दो पहलुओं पर भी ध्यान देना होता है, उनका सतत क्रान्तिकारी रूपान्तरण करना होता है, बूर्जुआ अधिकारों को क्रमश: समाप्त करना होता है और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक ऊपरी ढाँचे के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति चलानी होती है। स्तालिन काल की सबसे बड़ी गलती यह थी कि उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के उन्मूलन मात्र को समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना का कार्यभार पूरा होना मान लिया गया। यह मान लिया गया कि बस, अब उत्पादक शक्तियों को लगातार विकसित करते जाना होगा और ऐसा होते जाने के साथ ही वर्गों का अपने आप विलोपन होता चला जायेगा। इस सैद्धान्तिक गलती के कारण, पार्टी और राज्य के तंत्र के भीतर नये बूर्जुआ वर्ग के फलने-फूलने की प्रक्रिया जारी रही और उसका सामाजिक आधार मजबूत होता रहा। स्तालिन ने अनुभवसंगत ढंग से तो समाजवाद के इन अन्दरूनी शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष चलाया, लेकिन इनके पैदा होने की प्रक्रिया को सैद्धान्तिक तौर पर नहीं समझ सके। अनुभवसंगत ढंग से संघर्ष चलाने के कारण ही 1930 के दशक में समाजवाद के शत्रुओं के दमन का दायरा विस्तारित हो गया और कई बेगुनाह और विभ्रमित लोग भी उसकी चपेट में आ गये। इसी को नमक-मिर्च लगा कर पूरी दुनिया का बूर्जुआ प्रचार तंत्र स्तालिन को भी हिटलर जैसा सनकी तानाशाह बताने का काम शीतयुद्ध के जमाने से करता आ रहा है। हाल के दशकों के दौरान, रूसी अभिलेखागार खुलने के बाद ग्रोवर फर, मारियो सूसा आदि दर्जनों शोधकर्ताओं ने दस्तावेजों के आधार पर इस झूठ को तार-तार कर दिया है, लेकिन दुनिया के ज्यादा लोग तो अभी भी स्तालिन को उसी चश्‍मे से देखते हैं जो बूर्जुआ विद्वानों और मीडिया ने उन्हें पहनाया है।
स्तालिन काल के दौरान, कम्युनिस्ट वेशधारी जो नया बूर्जुआ वर्ग फला-फूला था, उसी ने स्तालिन की मृत्यु के बाद, संशोधनवाद का परचम लहराते हुए ख्रुश्‍चोव की अगुवाई में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के काम को अंजाम दिया। इस ऐतिहासिक पराजय के बाद, सोवियत समाज में भ्रष्‍टाचार, सत्ता की निरंकुशता, बूर्जुआ विशेषाधिकार, असमानता आदि तेजी से बढ़े, लेकिन दूसरी ओर, समाज में तृणमूल स्तर पर समाजवादी संस्थाएँ, मूल्य और स्पिरिट भी लम्बे समय तक मौजूद बने रहे और दुनिया में बहुतेरे लोगों में यह भ्रम बना रहा कि कतिपय बुराइयों के बावजूद समाजवाद सोवियत संघ में अभी भी कायम है। 1980 का दशक आते आते समाजवाद नामधारी सोवियत राजकीय पूँजीवाद अपनी स्वाभाविक आन्तरिक गति से जड़ता और संकटों के भँवर में फँस कर चरमराने लगा था, जिसकी परिणति 1990 में सोवियत संघ के विघटन तथा रूस और सभी पूर्व सोवियत गणराज्यों में पश्चिमी ढंग की खुली बाजार अर्थव्यवस्था और निजी एकाधिकारी पूँजीवाद के रूप में सामने आयी। नियोजित अर्थतंत्र, सोवियतों का ढाँचा और तृणमूल स्तर पर बची-खुची समाजवादी संस्थाएँ एक झटके से टूट कर बिखर गयीं।
सोवियत संघ में स्तालिन काल के समाजवादी प्रयोगों और उनकी पराजय के कारणों के लम्बे गहन अध्ययन के बाद माओ त्से-तुङ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने यह निष्‍कर्ष निकाला कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना को तभी रोका जा सकता है और समाजवादी रूपांतरण को तभी आगे बढ़ाया जा सकता है जब उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के समाप्ति के बाद उत्पादन सम्बन्धों के सभी पहलुओं के उच्चतर धरातल के समाजवादी रूपांतरण का काम लगातार जारी रखा जाये, सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति जारी रखी जाये तथा चौतरफा सर्वहारा अधिनायकत्व को कायम रखने के लिए पार्टी और राज्य के ढाँचे के भीतर से पैदा होने वाले बूर्जुआ तत्वों के विरुद्ध लगातार वर्ग संघर्ष चलाया जाये। चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966-76) इसी सोच का अमली रूप थी, लेकिन तब तक चीन में भी देर हो चुकी थी और नये बूर्जुआ तत्वों ने अपना सामाजिक आधार इतना मजबूत बना लिया था कि 1976 में माओ की मृत्यु के बाद वहाँ भी 'बाजार समाजवाद' के नाम पर पूँजीवाद फिर से बहाल हो गया।
लेकिन जो लोग यह समझते हैं कि अक्टूबर क्रान्ति द्वारा प्रज्वलित मशाल हमेशा के लिए बुझ चुकी है और मार्क्सवाद की विचारधारा अब गलत एवं अव्यावहारिक सिद्ध हो चुकी है, वे बूर्जुआ सिद्धान्तकारों और प्रचार तंत्र द्वारा निर्मित 'मिथ्या चेतना' के शिकार हैं। आज दुनिया के परिवर्तनकामी मेहनतकशों के पास कोई बड़ी पार्टी या समाजवादी राज्य भले न हो, लेकिन वह सैद्धान्तिक समझ इतिहास की स्लेट से मिटायी नहीं जा सकती, जो बताती है कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना को कैसे रोका जा सकता है और समाजवाद के अग्रवर्ती विकास का रास्ता क्या होगा। आज जरूर क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है, लेकिन प्रतिक्रिया की यह विजय अन्तिम नहीं है। पूँजीवाद जैसी अनाचारी, मानवद्रोही व्यवस्था मानव इतिहास की अन्तिम मंजिल हो ही नहीं सकती। आज का पूँजीवाद असाध्य ढाँचागत संकट और अन्तकारी (टर्मिनल) व्याधियों से ग्रस्त है। सीमित लोक कल्याणकारी स्वरूप अपनाने की क्षमता भी यह खो चुका है। दुनिया में बूर्जुआ जनवाद सर्वत्र छीज रहा है और सभी जगह फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार हो रहा है। लोभ-लाभ की अंधी हवस विनाशकारी युद्धों के अतिरिक्त ऐसी पर्यावरणीय तबाही को जन्म दे रही है कि पृथ्वी पर मानव सभ्यता का वजूद ही खतरे में पड़ता जा रहा है। ऐसे में समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है और देर-सबेर मनुष्‍यता इसी दिशा में आगे कदम बढ़ायेगी।
यदि विश्‍व-ऐतिहसिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। इतिहास में सामाजिक क्रान्तियों के शुरुआती संस्करण प्रायः पराजित होते रहे हैं। अपनी निर्णायक जीत के पहले उदीयमान वर्ग ह्रासमान वर्ग से और उदीयमान व्यवस्था ह्रासमान व्‍यवस्‍था से एकाधिक बार पराजित होती रही है। पूँजीवाद ने भी सामंतवाद पर कई पराजयों और पुनर्स्थापनाओं के बाद फैसलाकुन जीत हासिल की थी और इसमें लगभग तीन शताब्दियों का समय लग गया था। अक्टूबर क्रान्ति को तो अभी महज सौ साल ही बीते हैं। यह भी ध्यान में रखना होगा कि सर्वहारा क्रान्तियों का रास्ता पूर्ववर्ती क्रान्तियों से अधिक कठिन, जटिल और लम्बा होगा, क्योंकि ये क्रान्तियाँ केवल पूँजीवाद के खिलाफ ही नहीं हैं, बल्कि चार-पाँच हजार वर्षों लम्बी उम्र वाले समूचे वर्ग समाज के विरुद्ध है और इनका लक्ष्य संक्रमण की एक लम्बी अवधि से गुजर कर वर्गविहीन समाज की स्थापना करना है।
अक्टूबर क्रान्ति से लेकर समाजवाद की पराजय तक का दौर पूँजी और श्रम के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक महासमर का पहला चक्र था। इतिहास अब इसके नये चक्र की शुरुआत की दहलीज की ओर आगे बढ़ रहा है। यह दौर नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन का दौर है जब अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों के निर्माण की पूर्वपीठिका तैयार हो रही है। रोशनी फूटने के पहले, बेशक अँधेरा बहुत अधिक गहरा हो गया है।
यह बात विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि अक्टूबर क्रान्ति और उसकी उत्तरवर्ती क्रान्तियों से भावी क्रान्तियों की वाहक शक्तियों को बहुत कुछ सीखना होगा, लेकिन उन क्रान्तियों का अंधानुकरण कतई नहीं किया जा सकता। इतिहास कभी भी अपने को हूबहू नहीं दुहराता। आज के पूँजीवादी अर्थतन्त्र और राज्यतंत्र में काफी बदलाव आ चुके हैं, उन्हें अच्छी तरह जान-समझ कर ही नयी सर्वहारा क्रान्तियाँ अपनी राह और रणनीति का निर्धारण कर सकती हैं। कठमुल्लावादी नजरिया पुरानी क्रान्तियों को हूबहू दुहराने की कोशिश करता है, और इस तरह नयी क्रान्तियों की राह में रोड़े अँटकाता है। दूसरी ओर जो संसदमार्गी सुधारवादी कम्युनिस्ट (जैसे भारत की संसदीय वाम पार्टियाँ) अक्टूबर क्रान्ति की बुनियादी विचारधारा को ही छोड़ चुकी हैं, वे मार्क्सवाद को कलंकित और लांछित करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर रही हैं। इनके दूसरे छोर पर वे अतिवामपंथी दुस्साहसवादी खड़े हैं जो व्यापक मेहनतकश आबादी को जाग्रत और संगठित किये बिना देश के कुछ सुदूरवर्ती दुर्गम अंचलों में हथियारबन्द छापामार संघर्ष छेड़ कर इस राज्यसत्ता को ध्वस्त कर देने का दिवास्वप्न पाले हुए हैं। यह क्रान्तिकारी जनदिशा नहीं बल्कि आतंकवाद का रास्ता है जो अक्टूबर क्रान्ति की बुनयादी शिक्षा का निषेध करता है।
निस्सन्देह अक्टूबर क्रान्ति की मशाल बुझी नहीं है, लेकिन उसे जंगल की आग में तबदील कर देने के लिए क्रान्तिकारियों को इतिहास के साथ ही अपने-अपने देशों की सामाजिक-आर्थिक संरचना को भी समझना होगा, सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान की गहरी समझ बनानी होगी और एक सही कार्यदिशा पर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी और आम मध्य वर्ग के लोगों को संगठित करना होगा।



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सच्चिदानंद सिन्हा

क्या सच्चिदानंद सिन्हा का नाम आपने सुना है 

प्रेमकुमार मणि 

मुझे बिहार की कुछ चुनिंदा विभूतियों के प्रति अतीव सम्मान है। उनमें एक हैं सच्चिदानंद सिन्हा। संभव है आप उन्हें जानते हों ; नहीं भी जानते हों। मुझे अधिक विश्वास है कि नयी पीढ़ी उनके बारे में कुछ नहीं जानती। यह मेरे लिए अत्यंत पीड़ादायक है। पिछले साल मैंने चुपचाप छज्जूबाग स्थित सिन्हा लाइब्रेरी में जाकर कुछ समय बिताए। जीर्ण -शीर्ण स्थिति देख कर मन क्षुब्ध हुआ था। आज़ाद भारत की हुकूमतें आई और गईं, सिन्हा लाइब्रेरी की हालत निरंतर बद से बदतर होती चली गई। बिहार को गुंडों -शोहदों के महिमामंडन से फुर्सत मिले तब तो ! 

लेकिन मैं भी तो अवांतर बातें करने लगा। शायद इसका कारण मेरा भावावेग हो। नयी पीढ़ी को पहले पता तो हो कि सच्चिदानंद सिन्हा थे कौन। इसके लिए आवश्यक है कि पहले उनकी संक्षिप्त चर्चा कर ली जाय। 

सिन्हा साहब के नाम से  मशहूर सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म आज ही के दिन यानी 10 नवम्बर को 1871 में मौजूदा बक्सर जिले के कोरान सराय के पास मोरार गाँव में हुआ था, जहाँ उनके पिता की छोटी -सी ज़मींदारी थी। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और फिर लंदन जाकर बैरिस्टर बने। वहाँ उनके शिक्षकों में सुप्रसिद्ध भारतविद मैक्स मूलर भी थे, जिन्होंने इन्हें अपना नाम शुद्ध लिखना सिखाया। सिन्हा अपना नाम अशुद्ध लिखा करते थे। इसकी चर्चा उन्होंने अपने संस्मरणलेख में की है। भारत लौटने पर उन्होंने पहले कोलकाता ,फिर इलाहाबाद और आखिर में पटना में वकालत की। लेकिन यह तो उनका पेशा था ,जिनसे उनका जीवनयापन होता था। सिन्हा साहब के  दो कार्य मेरी दृष्टि में महत्वपूर्ण है एक राजनीतिक और दूसरा सामाजिक। राजनैतिक तौर पर उन्होंने बिहार को अलग प्रान्त बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाई और सामाजिक स्तर पर बिहार में रेनेसां अथवा नवजागरण का सूत्रपात किया। यह उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि बिहार 1912 में बंगाल से पृथक प्रान्त के रूप में अस्तित्व में आया। सिन्हा साहब ही थे जिन्होंने इस तथ्य को समझा था कि बिहार जैसे पिछड़े इलाके दोहरा औपनिवेशिक संकट झेल रहे हैं। पहला तो ब्रिटिश उपनिवेशवाद  था और दूसरा बंगाली उपनिवेशवाद। ब्रिटिश उपनिवेशवाद तो ऊपर -ऊपर था ,लेकिन यह बंगला उपनिवेशवाद प्रत्यक्ष सीने पर सवार था। हर शहर का नागरिक जीवन बंगालियों की गिरफ्त में था। हर जगह डाक्टर ,वकील ,प्रोफ़ेसर बंगाली ही होते थे। वे बिहारियों से भरपूर नफरत भी करते थे। रेलवे के विस्तार के साथ बंगालियों का भी अखिल भारतीय विस्तार हो गया। कहते हैं सिन्हा साहब जब लंदन से पढाई कर गाँव लौटे और बक्सर रेलवे स्टेशन पर एक रेलवे कांस्टेबल को बंगाल पुलिस का बिल्ला लगाए देखा ,तब क्षुब्ध हुए । उन्होंने लंदन प्रवास में ही ठान लिया था कि बिहार को बंगालियों के चंगुल से मुक्त कराऊंगा। बिहार लौट कर तुरत -फुरत वह अपने काम में लग गए और महेश नारायण जैसे कुछ मित्रों के सहयोग से बिहार की आज़ादी का झंडा बुलंद कर दिया।

बिहारियों का नागरिक जीवन बहुत सुस्त था। जात-पात में उलझे सत्तूखोर बिहारी केवल कमाना- खाना जानते थे। भोन्दू भाव न जाने, पेट भरे सो काम। उनका एक बहुत छोटा हिस्सा ही  शहरी हुआ था, जिसमें मुख्यतः अशरफ़ मुसलमान और श्रीवास्तव कायस्थ थे। ये लोग भी हद दर्जे के काहिल थे। पटना से न कोई अखबार निकलता था, न यहाँ  थियेटर और क्लब या सामाजिक विमर्श की कोई परंपरा थी। साहित्य -संस्कृति के क्षेत्र में भी बिहारियों का पढ़ा -लिखा तबका बंगालियों का पिछलग्गू था। सिन्हा साहब के शब्दों में ' चारों ओर मायूसी थी '। उन्होंने इस कमजोरी को चिन्हित किया। उन्होंने 1894 में  बिहार टाइम्स अख़बार का प्रकाशन शुरू किया। बंगालियों ने इसे बिहारियों का प्रलाप कहा । सिन्हा डिगे नहीं। आगे चल कर उन्होंने इलाहबाद से निकलने वाले कायस्थ समाचार पत्रिका को खरीद लिया और उसे हिंदुस्तान रिव्यू बना दिया। इसी अख़बार के सम्पादकीय में उन्होंने  राजेंद्र बाबू पर टिप्पणी की थी, जब प्रवेशिका परीक्षा में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रथम आकर कमाल का प्रदर्शन किया था। दरअसल सिन्हा साहब ने इसे बिहार के उभरते गौरव के रूप में देखा था। 1907 में अपने मित्र और सहयोगी महेश नारायण के देहांत के बाद वह अकेले हो गए, लेकिन 1911 में अपने साथी सर अली इमाम से मिल कर इन्होने केंद्रीय विधान परिषद् में बिहार का मामला रखने केलिए उत्साहित किया। अली साहब ने सम्राट की घोषणा में बिहार केलिए लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। जैसे ही सम्राट की घोषणा हुई, सिन्हा बच्चों की मानिंद उल्लास से भर गए । दरअसल अपने मित्र से उन्होंने छल किया था। अली इमाम साहब बिहार केलिए लेफ्टिनेंट गवर्नर की घोषणा का ही प्रस्ताव करना चाहते थे। सिन्हा ने जिद की उसे कौंसिल के साथ करवाइये। वह मान गए और अंग्रेज हुक्मरानों, जिनके बगलबच्चे बंगाली भी थे, इस बारीकी पर ध्यान नहीं दे पाए। जैसे ही घोषणा हुई सिन्हा साहब ने अपनी ख़ुशी को प्रदर्शित किया । इमाम को बिहार के निर्माण की बधाई दी। इमाम साहब ने कहा - '  मूर्खता की बातें कर रहे हो। बिहार कैसे बन गया ? '  सिन्हा साहब ने स्पष्ट किया यदि कौंसिल बनेगा तो अलग प्रान्त बनाना  ही होगा। उनकी वकील बुद्धि पर इमाम साहब हैरान हो गए। नाराजगी  प्रदर्शित करते हुए कहा -सिन्हा ,तुमने मेरे साथ छल किया है। अंग्रेज लोगों ने आँख मूँद कर मुझ पर विश्वास किया और मैंने उन्हें धोखा दे दिया। सिन्हा साहब का कहना था ,मैंने जो भी किया अपने बिहार केलिए किया। 

सच्चिदानंद सिन्हा पर लिखने और बोलने केलिए समय चाहिए । मैं रोम -रोम से उनका सम्मान करता हूँ । राजनीति को वह पसंद नहीं करते थे और इसे ऐरू-गैरु -नत्थू खैरु लोगों का शगल कहते थे । वह खयालों में यथास्थितिवादी थे और उनके इस रूप का मैं आलोचक हूं। वह ज़मींदारों के हित के पक्षधर थे। एक वक़्त उन्होंने ज़मींदारों की सभा की सदारत भी की थी । लेकिन व्यक्ति का रूप एकपक्षीय नहीं होता और  पूरी तरह किसी का शफ्फाक होना तो मुश्किल होता है। सिन्हा साहब ने बिहार के निर्माण और यहाँ सामाजिक नवजागरण विकसित करने में जो योगदान किया है उसे नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए,  उसपर व्यवस्थित काम होना ही चाहिए ।  9 दिसम्बर 1946 को जब संविधान सभा की पहली बैठक हुई तो सबसे उम्रदराज सदस्य के नाते सिन्हा साहब को ही इसका अस्थायी अध्यक्ष (सभापति ) बनाया गया । जब संविधान बन गया ,तब उनके हस्ताक्षर केलिए राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में एक दल पटना आया ,क्योंकि सिन्हा साहब दिल्ली जाने में अस्वस्थता के कारण अक्षम थे। पटना में इस वास्ते एक छोटा -सा समारोह हुआ। कहते हैं राष्ट्रगान पर उनका बिहारीपन एकबार फिर मचल उठा। उन्होंने एतराज किया -' इस गान में हमारा बिहार तो है ही नहीं ।'  सिन्हा साहब हिंदी समर्थक भी नहीं थे। वह बिहारी बोलियों को भाषा का दर्जा देना चाहते थे। वह कभी हिंदी नहीं बोलते थे। भोजपुरी उनकी जुबान थी और इस पर उन्हें जरूरत से कुछ ज्यादा गुमान था। अंग्रेजी से फुर्सत मिलने पर वह भोजपुरी ही बोलते थे। भिखारी ठाकुर को पहली दफा नागरिक सम्मान उन्होंने दिया। उनके सम्मान में एक भोज दिया जिसमें पटना के गणमान्य लोग उपस्थित थे ।

लेकिन सबसे बड़ी सेवा उन्होंने शिक्षा जगत को दी। 1924 में पचास हजार रुपए देकर उन्होंने एक लाइब्रेरी स्थापित की जो आज भी सिन्हा लाइब्रेरी के नाम से आख़िरी सांसें ले रहा है। उसी के साथ राधिका सिन्हा इंस्टिट्यूट है। राधिका सिन्हा उनकी पत्नी थीं। 1936 से 1944 तक वह पटना विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उस समय संभवतः वह बिहार का एकमात्र विश्वविद्यालय था। इस विश्वविद्यालय को ऊंचाइयां देने केलिए उन्होंने सब कुछ किया। उनका कार्यकाल स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। इन व्यस्तताओं से समय निकाल कर वह लिख -पढ़ भी लेते थे। कहते हैं वह खूब पढ़ते थे। पढ़ते वक़्त किताब की पसंदीदा पंक्तियों पर लाल -नीली रेखाएं खींचना भूलते नहीं थे। सिन्हा लाइब्रेरी की शायद ही कोई पुस्तक हो जो उनके रेखांकन से बची हुई हो। उन्होंने अपने वक़्त के लोगों पर खूबसूरत संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं। कवि इक़बाल पर भी उनकी एक किताब है - ' इक़बाल: द पोएट एंड हिज मैसेज ' ।

सिन्हा साहब ही थे जिन्होंने जाति से जमात की ओर और प्रदेश से देश की ओर का नारा बुलंद किया था। वह कायस्थों की जातिसभा के अध्यक्ष रहे ,लेकिन जाति की कट्टरता को तोड़ते हुए उन्होंने विवाह किया था और इसके लिए उन्हें जातिवहिष्कृत कर दिया गया। इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं थी। राजेंद्र बाबू ने आत्मकथा में लिखा है कि किस तरह मैट्रिक पास करने के बाद सिन्हा साहब का आशीर्वाद लेने केलिए वह पटना आना चाहते थे ,लेकिन इस भय से कि उन्हें भी जातिवहिष्कृत कर दिया जाएगा डर गए थे। आखिरकार बहुत छुपते हुए वह सिन्हा साहब से मिले और चरणस्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया। सिन्हा साहब जब इलाहाबाद में वकालत कर रहे थे ,तब मोतीलाल नेहरू के अभिन्न मित्र थे । दोनों कांग्रेस में साथ -साथ सक्रिय हुए । हालांकि 1920  के बाद सिन्हा साहब दलगत राजनीति से अलग हो गए । इलाहाबाद में मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर इन्होने सत्यसभा की स्थापना में योगदान दिया । यह सत्यसभा ब्रह्मसमाज की तरह का एक सामाजिक मंच था । जिसपर अब तक कोई शोधकार्य नहीं हुआ है । 

मैं समझता हूँ मैंने एक बेतरतीब वृतांत लिख दिया है । इसे संवारने की मुझे  फुरसत नहीं है । मैं अपने मित्रों केलिए इसे छोड़ता हूँ । अभी मुझे बस मित्रों से यही अनुरोध करना है कि सिन्हा साहब के जन्मदिन पर एक छोटा -सा संकल्प लें कि बिहार में एक मुकम्मल नागरिक जीवन बहाल करेंगे ।

डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का उनके जन्मदिन पर सादर नमन।

Premkumar Mani के वाल से साभार ।

Wednesday, 9 November 2022

कुछ शायरी

वो मुझ को टूट के चाहेगा,छोड़ जाएगा !
मुझे ख़बर थी,उसे ये हुनर भी आता है !!

मोहसिन नक़वी !!

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि,हर तक़दीर से पहले !
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है ?
अल्लामा इक़बाल !!

याद ने आकर, यकायक पर्दा खीँचा दूर तक !
में भरी महफिल में बैठा था,कि तन्हा हो गया !! 

सलीम अहमद !!

ये कैसा नशा है,मैं किस अजब खुमार में हूँ।
तू आके,जा भी चुका,मैं इंतज़ारमें हूँ।।

मुनीर नियाज़ी।।

खुजली

आपके साथ कभी ये हुआ है कि आप कुछ ऐसे काम कर रहे हैं, जैसे आटा गूंथना या हाथों से मिट्टी निकालना या कोई भी ऐसा काम जिसमें आपके दोनों हाथ सने हुए हों या फिर आपने ग्लव्स डाल रखे हों और उसी वक्त आपकी नाक में या सर के पीछे या किसी ऐसी जगह खुजली होने लगे जहाँ आप सने हुए हाथ नहीं लगा सकते हों? ये सबके साथ होता है। क्या आपको पता है कि खुजली होती ही क्यों है? इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे कोई एलर्जिक प्रतिक्रिया, या त्वचा का सूखापन या फिर कोई बीमारी। और इसके अलावा ऐसी खुजली जिसका कोई कारण नहीं होता और यह कभी भी कहीं भी हो सकती है। जैसे आपके सर के पीछे, कमर में ऐसी जगह जहां आपका हाथ ही नहीं पहुंच पाए या फिर अभी जो आपके कान के पीछे या दाहिने घुटने पर या फिर कहीं पर एकदम से स्टार्ट हो गई हो क्योंकि अभी हम खुजली की बात कर रहे हैं। (अभी अभी आपने खुजाया भी है। राइट?) 
तो खुजली होती क्यों है? इसके कई स्रोत हो सकते हैं। जैसे मच्छर के काटने से। जब मच्छर हमें खून पीने के लिए काटता है तो यह अपनी लार के साथ कुछ केमिकल हमारी बॉडी में छोड़ता है ताकि इसके खून पीने तक खून का थक्का न बन जाये और खून पीने में आसानी रहे। ये केमिकल जो खून का थक्का बनने (यानी कोएगूलेशन) से रोकते हैं इन्हें एन्टी कोएगूलेंट्स कहते हैं। साथ में ये केमिकल हमारे शरीर के लिए थोड़े से एलर्जिक होते हैं, और इनके हमारे शरीर में घुसने की प्रतिक्रिया में हमारा शरीर एक अन्य केमिकल छोड़ता है जिसका नाम है हिस्टामिन। हिस्टामिन हमारी रक्त केशिकाओं (केशिका यानी केश यानी बाल के समान सूक्ष्म रक्तशिराएँ) को काफी ज्यादा खोल देता है। इससे उस जगह खून का प्रवाह बढ़ जाता है और हमारे शरीर की प्रतिरोधक प्रणाली इस बाहरी खतरे (यानी एन्टी कोएगूलेंट्स) के खिलाफ सक्रिय हो जाती है। इसी वजह से इस जगह पर छोटी सी सूजन आ जाती है। दूसरा काम हिस्टामिन ये करता है कि इस जगह की उन तंत्रिकाओं को सक्रिय कर देता है जो खुजली का संदेश दिमाग तक लेकर जाती हैं। और इस तरह से खुजली शुरू हो जाती है। फिर हम जब हाथ से खुजाते हैं तो राहत मिलती है। हमारे इधर कहावत भी है कि जो मजा खाज करने में है वो राज करने में भी नहीं। खैर। खुजाने से ये राहत कैसे मिलती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जो तंत्रिकाएं खुजली का संदेश दिमाग तक लेकर जाती हैं वे असल में दर्द का सिग्नल लेकर जाने वाली तंत्रिकाओं की ही एक कैटेगरी होती हैं। जब हम खुजाते हैं तो एक तरह से हम हल्का दर्द पैदा कर रहे होते हैं जिसकी वजह से दिमाग खुजली के और हल्के सिग्नल से उसी जगह हो रहे हल्के दर्द वाले सिग्नल पर चला जाता है और खुजली से राहत के साथ आनंद की अनुभूति होती है। किसी एलर्जी की स्थिति में या फिर किसी इन्फेक्शन की स्थिति में भी यही हिस्टामिन काम करता है। एक बीमारी होती है स्केबीज। आम भाषा में इसे खाज लगना कहा जाता है। यह itch mite नामक एक परजीवी की वजह से होता है। यह परजीवी मरीज की त्वचा की परतों में फलता फूलता है और अंडे देता है। इस बीमारी में मरीज को भयंकर खुजली होती है। खासतौर पर रात के वक्त। इतनी भयंकर कि मरीज रात भर सो भी नहीं पाता। त्वचा पर इसके निशानों के नीचे यह परजीवी नंगी आंखों से देखा जा सकता है। यह पहली बीमारी है जिसके कारक जीव का पता मनुष्य को सबसे पहले लगा था। यह बहुत तेजी से फैलती है। बिस्तर, कपड़े शेयर करने से और यहां तक कि हाथ मिलाने से भी।
ये हो हुई मच्छर के काटने या फिर किसी एलर्जी या बीमारी की स्थिति में खुजली होने की वजह। लेकिन जो खुजली बिन बात होती है उसका क्या? जैसे अभी अभी आपको भी हुई। इसका कारण वैज्ञानिक बताते हैं कि हमारे विकास के दौरान हमारी त्वचा का विकास इस तरह से हुआ है कि यह किसी भी स्पर्श के प्रति बहुत संवेदनशील होती है। जब मानव का विकास हो रहा था तो उसे बड़े खतरों के अलावा जहरीले कीड़े मकोड़ों से भी खतरा होता था क्योंकि तब मनुष्य या मनुष्य के भी पूर्वज प्रजातियों के पास कपड़े भी नहीं होते थे। इसलिए हमारा दिमाग भी उसी तरह से कंडिशन्ड हुआ। कोई कीड़ा शरीर पर रेंगता है तो उसका पता चल जाता है साथ में खुजली भी होती है। जब हम खुजली करते हुए उस जगह पर हाथ चलाते हैं तो वह कीड़ा या कोई ऐसा जहरीला पत्ता या कोई भी हानिकारक चीज हम अपने शरीर से हटा देते हैं। लाखों साल के एवोल्यूशन ने दिमाग को इस तरह से कंडीशन किया है कि ये रक्षात्मक रेस्पॉन्स अपने आप बिना किसी ट्रिगर के भी अक्सर होता रहता है। सोचने से भी और बिना सोचे भी। कभी कभी किसी मरीज में एक साइकोलॉजिकल स्थिति हो जाती है कि उसे लगता है कि उसकी त्वचा पर या फिर त्वचा के नीचे कीड़े मकोड़े रेंग रहे हैं। और इस वजह से वह लगातार खुजाता रहता है। या फिर कभी कभी ये भी होता है कि किसी एक्सीडेंट या बीमारी की वजह से किसी मरीज का कोई अंग काटना पड़ जाता है। और अब उसे लगता है कि उसे उसी अंग में खुजली हो रही है जिसको काट दिया गया था। ये इसलिए होता है क्योंकि अंगभंग का हमारे शरीर के नर्वस सिस्टम यानि तंत्रिका तंत्र पर बहुत बुरा असर पड़ता है, इसलिए दिमाग को यह कंफ्यूजन हो जाता है कि खुजली उस अंग में हो रही है जो कि असल में है ही नहीं। इस क्षेत्र में वैज्ञानिक अभी और शोध कर रहे हैं। नई नई जानकारियां रोज सामने आ रही हैं। बीमारियों के लिए नई दवाएं भी बनाई जा रही हैं। 
खैर। इमेजिन कीजिए। अगर आपको तीव्र खुजली होने लगे और आप खुजा न पा रहे हों तो आपको कैसा लगेगा? इटालियन कवि दांते एक कविता में नर्क का वर्णन करते हैं। इस नर्क में व्यक्ति को अनन्त काल तक खुजली से परेशान होने के लिए छोड़ दिया जाता है। 

खाज नर्क भी है। खाज आनंद भी है। खाज बीमारी या बाहरी हानिकारक वस्तु या जीव के प्रति शरीर की प्रतिरोधक क्रिया भी है। और बीमारी का लक्षण भी है। यही इसका डायलेक्टिक है।

नावमीट




मृत्युभोज



मैं डेढ़ साल का था और मेरे पिताजी गुजर गए।समाज के सफेदपोश लोगों ने मिलकर मृत्युभोज किया।मेरी विधवा मां ने दशकों तक कर्ज के बोझ को ढोया।हम दो भाई व एक बहन का पेट भरने के लिए रात में खुद के खेत मे काम करती व दिन में मजदूरी के लिए दूसरों के खेतों में काम करती थी।

बढ़े भाई की पढ़ाई छूट गई।भाई चौदह साल की उम्र में स्टील फैक्ट्री में एक मजदूर बन गया।हम दोनों बहन-भाई स्कूल जाने लगे।अकाल पड़ गया।घर मे कुछ खाने को नहीं था।आस पड़ोस में उम्मीद भरी नजरों से देखा मगर मायूसी मिली।दोनों बहन-भाई ननिहाल उम्मीद लेकर गए थे मगर उनकी हालत भी ज्यादा ठीक नहीं थी।

एक दिन उपवास में कटा व अगले दिन नानी कुछ बाजरी लेकर आई।उस साल अकाल में राशन वितरण हो रहा था मगर एक बोरी धान के 180 रुपये कीमत थी।माँ 2-4 लोगों के पास गई।किसी ने कहा कि जमीन का क्या करेगी तो किसी ने तीसरे को संबोधित करते हुए कहा कि दे तो दें मगर वसूली कौनसे हुड़(भेड़ का नर बच्चा)बेचकर करेंगे।

भाई ने फैक्ट्री में मजदूरी करके घर चलाने का बहुत प्रयास किया मगर मजबूरी में मेरी बहन को स्कूल छोड़नी पड़ गई।संघर्ष करते-करते मेरे परिवार को गांव छोड़ना पड़ा।15 साल बाहर खेती बाड़ी की और सहारा बना एक बनिया परिवार।मैंने शिक्षा को भविष्य समझा और रातदिन एक ही बात सोचता था कि दुबारा परिवार अगर जड़ों पर खड़ा हो सकता है तो सिर्फ मेरी शिक्षा से।

मेरी नौकरी के 2साल बाद परिवार को अपने बाप की जमीन व उनके द्वारा निर्मित घर मे स्थापित कर पाया।

पिताजी के मृत्युभोज पर समाज लूटने के बजाय सहारा बन जाता,खाने के बजाय मददगार बन जाता तो मेरे भाई को पढ़ाई छोड़नी नहीं पड़ती,बहन को पढ़ाई नहीं छोड़नी पड़ती!पूरे परिवार का दर्द व बेबसी के आंसू मेरी कॉपियों में चलने वाली कलम के इर्द-गिर्द मंडराते रहे!कई बार आत्महत्या करने का ख्याल मन मे आया मगर दूसरे ही पल सोचता कि परिवार जिंदा ही मेरी शिक्षा व सफलता की उम्मीदों पर है।नहीं!यह ख्याल लड़ाकों के नहीं होते।इसपर मुझे जीत हासिल करनी है।

जीवन के इस संघर्ष में कई बार ढीठ बनना पड़ता है।

घर मे कई महीनों तड़का नहीं लगता था।
स्कूल में कभी टिफिन साथ लेकर नहीं गया।
माँ के हाथ से सीला बेग लेकर जाता था।
बिना कारी का निक्कर पहनने का अवसर बहुत कम मिला।
बहन के गौने में पहली बार पेंट पहनी थी।
11वीं कक्षा में पहली बार जूता पहना था।

जो लोग आज मृत्युभोज के समर्थक बनकर कह रहे है कि बाप ने तुम्हारे लिए इतना किया तो तुम उनके पीछे मिठाईयां तक नहीं करोगे!उनसे मेरा एक ही सवाल है मेरे बाप की मौत हुई थी उस दिन तक परिवार पर कोई कर्ज नहीं था।उनकी मौत के बाद समाज ने परिवार को कर्ज में धकेला।उसका दर्द तो आपने पढ़ ही लिया होगा?अगर किसी का बाप 5-10 लाख का कर्ज परिवार पर छोड़कर गुजर जाए तो उनके पीछे मृत्युभोज करना चाहिए या मरने पर चौराहे पर पेट्रोल डालकर फूँकना चाहिए?

बहुत कम लिखा है व ज्यादा समझा जाएं।ये भामाशाह,दानदाता जो भजन संध्या लगाते है,मंदिरों पर इंडा चढ़ाने की बोलियां आदि लगाते है उनमे से ज्यादातर बाप या माँ के पीछे मृत्युभोज करके भाई की जमीन पर नजर गड़ाये,गांव के किसी गरीब की जमीन पर कब्जा करने,24%ब्याज गरीबों से वसूली करने वाले गिद्ध निकलेंगे!

आपके एक समय का भोजन व डोडा पोस्त के चार घूंट किसी गरीब के परिवार पर क्या कहर ढहाते है वो इस बच्चे का जीवन तुम्हारी करतूतों का प्रतिबिंब बनकर तुम्हारे भविष्य को आइना दिखाता रहेगा।

प्रेमाराम सियाग


Sunday, 6 November 2022

हीरा डोम की कविता

हीरा डोम की कविता

यह कविता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित 'सरस्वती' (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी। इसे आरंभिक दलित साहित्य का प्रकाशन माना जाता है।

अछूत की शिकायत – हीरा डोम

हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धसरम न छोड़त बनत बा जे,
बे-धरम होके कैसे मुंहवा दिखइबि ।।१।।
खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
धोतीं जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब।
डोम तानि हमनी क छुए से डेराले ।।२।।
हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उहओं बेगारीया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरी सरकार के सुनाइबि ।।३।।
बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि ।।४।।
अपने पहसनवा कै पइसा कमादबजां,
घर भर मिलि जुलि बांटि-चोंटि खदबि।
हड़वा मसुदया कै देहियां बभनओं कै बानीं,
ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमने के एतनी काही के हलकानी ।।५।।

असली_पुरुषोत्तम_चंगेज़_खां

#असली_पुरुषोत्तम_चंगेज़_खां

16 साल की उम्र में चंगेज़ ने बोरते से शादी की लेकिन दुश्मन मेर्किट उनकी पत्नी को उठाकर ले गए, उनकी पत्नी को मेर्किट के बलात्कार से एक संतान हुई जोचि।

कुछ सालों बाद जब चंगेज़ ज़बरदस्त युद्ध जीत कर अपनी पत्नी को वापस लाने जाते हैं, तब ना सिर्फ अपनी पत्नी बोरते को बल्कि उसकी संतान जोचि को भी लेकर आते हैं और अपनी ही संतान सा प्यार, दुलार और सम्मान देते हैं। 

आगे चलकर भी ताउम्र बोरते उनकी महारानी बनी रहतीं हैं और वे जोचि को कईं राज्यों का प्रमुख बनाकर, सौतेला बाप होते हुए भी एक बेहतरीन पिता की भूमिका निभाते हैं। वे अपनी पत्नी के साथ हुए अत्याचार और बलात्कार के लिए उसे न तो दोषी मानते हैं, न अग्निपरीक्षा माँगते हैं और ना ही दुश्मन की संतान से नफ़रत कर पाते हैं, पत्नी से उनके प्रेम पर कोई भी पुरुषवादी घृणा हावी तक न हो पाई।

इस बात में कोई दो राय नही कि चंगेज़ खां बेहद ख़ौफ़नाक लड़ाकू था, लेकिन प्रेम की समझ उसमे हमारे किसी भी मिथकीय मर्यादा पुरुषोत्तम से बहुत अधिक थी। 

इसीलिये जब तक हम दुनिया के बारे में नही जानेंगे, अपनी कपोल कल्पनाओं में विश्वगुरु बने रहेंगे और पूरी दुनिया के सामने हँसी का पात्र और राम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानते रहेंगे।


महिषासुर

https://m.thewirehindi.com/article/asur-adiwasi-mahishasur-durga-puja/20014/amp

जिस महिषासुर का दुर्गा ने वध किया उन्हें आदिवासी अपना पूर्वज और भगवान क्यों मानते हैं


महिषासुर का शहादत दिवस झारखंड के सिंहभूम इलाके में भी मनाया जा रहा है. कई जगहों पर महिषासुर पूजे जाते रहे हैं.

इसी सिलसिले में नवरात्र के नवमी पूजन के दिन यानि शुक्रवार को चाकुलिया में आयोजित शहादत दिवस कार्यक्रम में आदिवासी संथाल, भूमिज, कुड़मी के साथ दलित समुदाय के लोग भी शामिल हुए.

महिषासुर को पूजे जाने की खबर झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कई आदिवासी इलाकों से भी मिलती रही है. अलबत्ता बंगाल के काशीपुर में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन बड़े पैमाने पर होने लगा है.

सखुआपानी गुमला की सुषमा असुर कहती हैं कि उनकी उम्मीदें बढ़ी है कि अब देश के कई हिस्सों में आदिवासी इकट्ठे होकर पुरखों को शिद्दत से याद कर रहे हैं.

झारखंड की राजधानी रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गुमला जिले के सखुआपानी, जोभापाट आदि पहाड़ी इलाके में असुर बसते हैं. इंटर तक पढ़ी सुषमा कथाकार हैं और वे आदिवासी रीति, पंरपरा, संस्कृति को सहेजे रखने के अलावा असुरों के कल्याण व संरक्षण पर काम करती हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में असुरों की आबादी महज 22 हजार 459 है. झारखंड जनजातीय शोध संस्थान के विशेषज्ञों का मानना है कि आदिम जनजातियों में असुर अति पिछड़ी श्रेणी में आते हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था न्यूनतम स्तर पर है. असुरों में कम ही लोग पढ़े-लिखे हैं.

जगन्नाथपुर कॉलेज में इतिहास विभाग के प्राध्यापक और आदिवासी विषयों के जानकार जगदीश लोहरा का कहना है कि असुरों के अलावा कई और आदिवासी समुदाय भी मानते हैं कि वे लोग महिषासुर के वंशज हैं. इन समुदायों को ये भी जानकारी मिलती रही है कि वह आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी. इसमें महिषासुर मार दिए गए. कई जगहों पर लोग महिषासुर को राजा भी मानते हैं.

आदिवासी विषयों के एक अन्य जानकार लक्ष्मीनारायण मुंडा के मुताबिक इसे आदिवासी समुदाय द्वारा उनके पुरखों के इतिहास को सामने लाने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए. क्योंकि कथित तौर पर मिथकों के जरिए एक बड़े तबके की भावनाएं दबाई जाती रही हैं.

छल से मारे गए!

सुषमा असुर कहती हैं कि महिषासुर की याद में नवरात्र की शुरुआत के साथ दशहरा यानि दस दिनों तक वे लोग शोक मनाते हैं.

इस दौरान किसी किस्म की रीति-रस्म या परपंरा का निर्वहन नहीं होता. बड़े-बुजुर्गों के बताए गए नियमों के तहत उस रात एहतियात बरते जाते हैं जब महिषासुर का वध हुआ था. मूर्ति पूजक नहीं हैं, लिहाजा महिषासुर को दिल में रखते हैं.

पिछले साल झारखंड के पंचपरगना इलाके में एक कार्यक्रम में महिषासुर को पूजते लोग.

बकौल सुषमा किताबों में भी पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया, जो हमारे पूर्वज थे. सुषमा का जोर इस बात पर है कि वह कोई युद्ध नहीं था.

वो बताती हैं कि महिषासुर का असली नाम हुडुर दुर्गा था. वह महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे. इसलिए दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई.

वाकिफ कराने की चुनौती

इस असुर महिला के मुताबिक आने वाली पीढ़ी को पुरखों के द्वारा बताई गई बातों तथा परंपरा को सहेजे रखने के बारे में जानकारी देने की चुनौती है. कई युवा लिखने-पढ़ने को आगे बढ़े भी, पर पिछली कतार में रहने की वजह से जिंदगी की मुश्किलों के बीच ही वे उलझ जा रहे हैं. वे खुद भी कठिन राहों से गुजरती रही है.

इसी इलाके से मिलन असुर को विश्वास है कि उनके पुरखों का नरसंहार किया गया. इसलिए शोक मनाना लाजिम है और इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए , जबकि नरसंहारों के विजय की स्मृति में दशहरा मनाया जाता है.

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गौरतलब है कि साल 2008 में विजयादशमी के मौके पर झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने रांची के मोराबादी मैदान में होने वाले रावण दहन समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि रावण आदिवासियों के पूर्वज हैं. वे उनका दहन नहीं कर सकते.

जबकि पिछले दिनों तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्‍मृति ईरानी ने महिषासुर को 'शहीद' के तौर पर बताए जाने पर काफी नाराजगी जताई थी.

पुरखे-परंपरा के लिए संघर्ष

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति 'अखड़ा' की अगुआ वंदना टेटे कहती हैं कि आप इसे पूर्वज-पंरपरा को याद रखने के तौर पर देख सकते हैं. बेशक आदिवासियों को अपने रूट्स में जाने की जरूरत है, ताकि एक ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सके, क्योंकि कई चीजें गुम होती जा रही है और कई विषयों को अलग-अलग तरीके से उनके सामने रखा जाता रहा है.

झारखंड के चाकुलिया में शुक्रवार को महिषासुर पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. (फोटो: दिलीप महतो)

बकौल वंदना वे अक्सर असुरों के बीच जाती रही हैं. वाकई में वे लोग महिषासुर को अपना पूर्वज मानते रहे हैं साथ ही कई मौके पर भाषा, संस्कृति, पंरपरा और पुरखौती अधिकारों के लिए सृजनात्मक संघर्ष करने के लिए खड़े होते हैं.

दसाई और काठी नृत्य

उधर झारखंड के चाकुलिया में देशज संस्कृति रक्षा मंच के बैनर तले महिषासुर शहादत दिवस मनाने वालों में कपूर टुडू ऊर्फ कपूर बागी बताते हैं कि दशहरा के मौके पर संथाल समाज के लोग दशकों से नृत्य-गीत के माध्यम से महिषासुर के मारे जाने पर दुख जताते हैं.

इसे दसाई और कांठी नाच कहा जाता है. इन समुदायों में शोक गीत के बोल-' हर रे हय रे हय ओकार नमरे हय, ओकाय नमरे हुदुड़ दर्गी'… लोकप्रिय हैं.

उनका जोर है कि आदिवासियों को विश्वास है कि महिषासुर फिर लौटेंगे, क्योंकि उनके राजा को छल-कपट से मारा गया. रावण वध जैसी पौराणिक घटनाओं को भी मिथकीय रूप दिया जाता रहा है.

रावण दहन क्यों?

सिहंभूम इलाके के कुमारचंद्र मार्डी कहते हैं कि महिषासुर वीर पुरूष थे और छल से ही मारे गए. बुराई पर अच्छाई की जीत बताकर और रावण का पुतला बनाकर जलाये जाने को भी वे लोग सहज तौर पर नहीं लेते, क्योंकि रावण भी हमारे पूर्वज थे.

झारखंड के जोभीपाट नेतरहाट गांव में असुर समाज के लोग बैठक करते हुए. (फोटो: वंदना टेटे)

मार्डी के मुताबिक इस पूरे मामले में बड़ा इतिहास है, जिसे जानने की जरूरत है.मार्डी इस मुहिम को सकारात्मक बताते हैं कि कुड़मी-भूमिज समेत कई समाज-समुदाय के लोग भी इस मसले पर उनका साथ देते रहे हैं.

मार्डी कहते हैं कि अब उत्तर भारत में भी महिसासुर का शहादत दिवस मनाया जाने लगा है.

असलियत पर बहस

देशज संस्कृति रक्षा मंच से ही जुड़े दिलीप महतो बताते हैं कि कुड़मी समाज में इस तरह की परंपरा रही है. वे लोग किसी देवी की पूजा या उत्सव का विरोध नहीं करते, लेकिन जिस तरह से महिषासुर का वध दर्शाया जाता है, वह आहत करता रहा है.

इस बारे में असलियत सामने लाये जाने की जरूरत है. क्योंकि इतिहास को गलत तरीके से दर्शाया जा रहा है. हालांकि इस विषय पर बहसें होती रही है.

इस बीच असुर आदिवासी विजडम डॉक्यूमेटेंशन इनीसियेटिव में खंडवा मध्य प्रदेश की आदिवासी महिला सुंगधी वीडियो के मार्फत यह बताने की कोशिश कर रही हैं वे लोग असुरों की संतान हैं तथा मेघनाद को पूजते हैं.

लिहाजा नस्लीय भेदभाव और इंसानी गरिमा के हनन की कोशिशों के खिलाफ वे आवाज मुखर करना चाहती हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं)