सन् 1917 की महान नवम्बर क्रान्ति की तोपों की गड़गड़ाहट से भयभीत होकर पूँजीवादी साम्राज्यवादी देशों के नेताओं ने 'पेरिस शान्ति सम्मेलन1818' सम्पन्न किया। इस सम्मेलन के निर्णयों के अनुसार रूसी क्रान्ति के बढ़ते वैश्विक प्रभाव को रोकने के लिए 1919 में इण्टरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (ILO) का गठन किया। इण्टरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (ILO) के संविधान की भूमिका में श्रमिकों को "सामाजिक न्याय" देने की बात की गयी है। वह इसलिए ताकि मेहनतकश लोग किसी तरह की क्रान्ति वगैरह की बात न करें। और गुमराह होकर शोषक वर्ग से लड़ने की बजाय उनकी मदद करते रहें।
वर्गीय दृष्टिकोण से देखें तो भारतीय संदर्भ में
सामाजिक न्याय की दो अवधारणाएँ हो सकती हैं-
1-सर्वहारा वर्ग के हितों के अनुसार "प्रत्येक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय" दिया जाये।
2- शोषक वर्ग के हितों के अनुसार "प्रत्येक वंचित जाति को सामाजिक न्याय" दिया जाये।
सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों का तर्क है कि अगर 'प्रत्येक वंचित जाति' को सामाजिक न्याय दिया जाए तो उन वंचित जातियों में जो एक या दो प्रतिशत सबल होते हैं वही झपट लेते हैं। और पीढ़ी दर पीढ़ी वही लोग झपटते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में वंचित जाति के गरीबों की कोई सुनवाई भी नहीं हो सकती। दलित के नाम पर जो आरक्षित सीट मिलती है अगर उस आरक्षित सीट/पद को मायावती और उनके भतीजे हड़प जाएँ तो कोई गरीब वंचित दलित व्यक्ति न्यायालय में यह दावा नहीं कर सकता कि उन सम्पन्न लोगों की बजाय हम गरीब को सामाजिक न्याय क्यों नहीं दिया गया? यहाँ कोई संविधान वंचित व्यक्ति का साथ नहीं दे पायेगा। जबकि हर एक वंचित व्यक्ति के आधार पर सामाजिक न्याय देने पर कोई अपात्र व्यक्ति गरीब बनकर हड़़पेगा तो वंचित व्यक्ति को कानूनी संरक्षण मिल सकता है।
जाति आधारित सामाजिक न्याय का समर्थन करने वाले शोषक वर्ग के बुद्धिजीवियों का तर्क है कि अगर प्रत्येक वंचित व्यक्ति के आधार पर दिया जाएगा तो खतरा यह बन जाता है कि सवर्ण जाति के लोग गरीब बनकर दलित वर्ग के गरीबों का हिस्सा हड़प लेंगे। मगर जब हर एक जाति के आधार पर दिया जाएगा तो इस सवर्ण लोग दलितों का हिस्सा नहीं हड़प सकते। मगर यह हड़पने की बात तो तब आएगी जब शोषक वर्ग आर्थिक आधार पर प्रत्येक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय देने में सक्षम हो। सही मायने में वह प्रत्येक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय देने में सक्षम ही नहीं है।
दर असल पूंजीवादी व्यवस्था में 'थोड़े से लोगों द्वारा थोड़े से लोगों के लिए थोड़ा सा ही उत्पादन' हो सकता है। अत: पूंजीवादी व्यवस्था हर एक वंचित व्यक्ति को सामाजिक न्याय नहीं दे सकती। वह थोड़े से लोगों को थोड़ा सा ही सामाजिक न्याय दे सकती है। उदाहरण के लिए - पूँजीवादी व्यवस्था सारे दलितों को सामाजिक न्याय नहीं दे सकती। वह दलितों में से 1 या 2 प्रतिशत लोगों को ही सामाजिक न्याय दे सकती है, जिसे दलितों में से सबल लोग ही झपट लेते हैं। यही हाल पिछड़ों, सवर्णों, आदिवासियों के साथ भी होता है। अधिकतम् 2-3% लोग ही सामाजिक न्याय का लाभ उठा पाते हैं।
अब सवाल उठता है कि जो पूँजीवादी सामाजिक न्याय व्यवस्था अधिकतम् 2-3% लोगों को ही लाभ पहुँचा सकती है, उसका समर्थन शेष 98% लोगों से क्यों करवाया जा रहा है? जिन्हें मिल रहा है वे लोग उसका समर्थन करें तो एक हद तक ठीक है मगर ये 2-3% लाभार्थी लोग उन 98% लोगों को पिछले 75 साल से उसी सामाजिक न्याय का समर्थन करवा रहे हैं तथा उसके लिए उन 98% लोगों को लार टपकाने को प्रेरित कर रहे हैं, जबकि वे जानते हैं कि इस व्यवस्था में उन 98% लोगों को सामाजिक न्याय मिल ही नहीं सकता।
भारत का शोषक वर्ग एक या दो प्रतिशत दलितों को आरक्षण देकर यह दावे करता है कि हमने दलितों को सामाजिक न्याय दे दिया। इसी तरह पिछड़ों, आदिवासियों और गरीब सवर्णों में से 2-3% लोगों को थोड़ा सा सामाजिक न्याय देकर दावा करता है कि हमने पिछड़ों, आदिवासियों और गरीब सवर्णों को सामाजिक न्याय दे दिया। और अक्सर यही दो-तीन प्रतिशत लाभार्थी लोग ही बामसेफ-दामसेफ जैसे अनेक जातिवादी संगठन बनाकर शोषक वर्ग के दावे का समर्थन और प्रचार भी करते और करवाते हैं।
याद रखिये, अगर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों एवं सवर्णों या अन्य सभी जातियों या धर्मों से संबंधित सभी वंचित, शोषित, उत्पीड़ित लोगों को सामाजिक न्याय चाहिए तो उसके लिए समाजवादी व्यवस्था कायम करना होगा।
जहाँ पूंजीवादी व्यवस्था थोड़े से लोगों द्वारा थोड़े से लोगों के लिए थोड़ा सा ही उत्पादन कर सकती है, वहीं समाजवादी व्यवस्था पूरे समाज की जरूरतों के अनुसार पूरे समाज के लिए, पूरे समाज द्वारा उत्पादन करती है। अत: पूँजीवाद जो सुख-सुविधा थोड़े से लोगों को दे पाता है, समाजवाद उससे बेहतर सुख-सुविधा पूरे समाज को देता है।
मगर समाजवाद कायम करने का काम पूँजीपति वर्ग के राज में असंभव है। इसके लिए मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता का राज लाना होगा। जनता के राज में ही समाजवाद संभव है। ध्यान रहे, जनता का राज पूँजीपतिवर्गों की भ्रष्ट और दिखावटी चुनाव पद्धति से नहीं आ सकता। और पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर निष्पक्ष और साफ-सुथरा चुनाव नहीं हो सकता। इसलिए जनता का राज बगैर किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन के संभव नहीं है।
अगर आप चाहते हैं कि दलितों, पिछड़ों और गरीब सवर्णों में जो 98 प्रतिशत वंचित लोग हैं, उन्हें भी सामाजिक न्याय मिले तो आपको समाजवाद लाने के लिए क्रान्तिकारी कदम उठाना ही होगा।
अगर आप चाहते हैं कि दलितों, पिछड़ों और गरीब सवर्णों में से सिर्फ डेढ़-दो प्रतिशत लोग और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लोग ही आरक्षण के तौर पर सत्ता की मलाई चाटते रहें और बाकी 98% वंचित लोग मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार का जूता खाते रहें, और ये 98% वंचित लोग सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी… के चंगुल में फँसे रहें तो मौजूदा सड़ी-गली व्यवस्था को बनाए रखिए, गाय, गोबर, गंगा, मंदिर, मस्जिद करते रहिए, अगड़ा, पिछड़ा, सवर्ण के हितों के नाम पर जात-पात, साम्प्रदायिकता और इसकी अबतक की सबसे बड़ी उपलब्धि पाँच किलो राशन… आप को मुबारक हो।
रजनीश भारती
जनवादी किसान सभा
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