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Tuesday, 1 November 2022

विभाजन विरोधी मुसलमान

जिन्हें 'गरमदली' वामपंथी समझा जाता है, उनमें दो ऐसे लोग हैं जिनका मैं हृदय से सम्मान करता हूँ। दोनों मेरे आत्मीय मित्र हैं। एक तरुणतर हैं, दूसरे थोड़ा वरिष्ठ। 

संयोग देखिए, दोनों का सम्बंध रंगकर्म से है। एक हैं अनिल शुक्ल जिनका ठिकाना आगरा में है और वे 'रंगलीला' नामसे संस्था चलाते हैं। दूसरे हैं शम्सुल इस्लाम जो दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक रहे हैं और निशांत नाट्यमंच के संस्थापक, संचालक हैं। 

दिल्ली में एक समय नुक्कड़ नाटक के जनक सफ़दर हाशमी और निशांत के संचालक शम्सुल दोनों सक्रिय थे। 

दोनों हम सब के मित्र थे।

अनिल शुक्ल से पहली बार 1974 में मिलना हुआ था। वे मेरे आगरावासी अभिन्न मित्र पीयूष श्रीवास्तव के साथ कुछ बातचीत के लिए दिल्ली आये थे। तब मैं एमए पूर्वार्द्ध में पढ़ रहा था। अनिल और पीयूष बीए/बीएससी के विद्यार्थी थे। दोनों आगरे में रंगकर्म करते थे। 

शम्सुल से मुलाकात भी तभी हुई थी जब मैं एमए में पढ़ता था। वे सत्यवती कॉलेज में इतिहास पढ़ाने लगे थे और तेज़-तर्रार युवा शिक्षक के रूप में लोकप्रिय थे। सत्यवती कॉलेज में मेरे मित्र द्वारिका प्रसाद चरुमित्र थे। इस कारण वहाँ बराबर आना जाना होता था। कॉलेज के प्राचार्य बाँदा साहब से खूब दोस्ती हो गयी थी। शम्सुल से भी बहुत सम्वाद होता था। उनकी अपनी क्रांतिकारी समझ थी जिसके साथ कहीं-कहीं मेरी असहमति थी लेकिन वे निरर्थक विवाद में नहीं उलझते थे, सार्थक बहस से बचते भी नहीं थे। 

आगे चलकर मानबहादुर सिंह की हत्या के खिलाफ लेखकों-संस्कृतिकर्मियों का एक बड़ा जत्था प्रतिरोध यात्रा लेकर सुल्तानपुर गया तब उसमें निशांत की ओर से शम्सुल और नीलिमा शर्मा जी भी थीं। 

मुझे सबसे प्रभावित करने वाली बात लगी थी, जहाँ संध्या वंदन के रूप में मदिरा के बिना प्रगतिशीलता अधूरी रहती है, वहाँ शम्सुल-नीलिमा जी का इस व्यसन से कुछ भी लेना-देना नहीं था। रात के कवि सम्मेलन में जब कुछ दिल्ली से आये कवि मंच पर खड़े नहीं हो पा रहे थे, कोई-कोई तो खड़े होने की कोशिश करते ही साष्टांग की मुद्रा में धराशायी हो जाते थे, तब लोगबाग कह रहे थे कि ये प्रगतिशील लोग हैं, एक कवि की श्रद्धाजंलि में आये हैं, उस समय शम्सुल-नीलिमा उत्तेजित होने और क्रोध करने की जगह परिस्थितियों को संभालने का काम कर रहे थे!!

शराब पीना नैतिक प्रश्न नहीं है। लेकिन परिस्थिति की मर्यादा का प्रश्न तो है ही। वहाँ हम लोग मानबहादुर जी की हत्या का ग़म ग़लत करने नहीं गये थे। 

आचरण की मर्यादा का सम्बंध दृष्टिकोण की गम्भीरता से है। शम्सुल ने रंगकर्म के साथ-साथ इतिहास का अपना क्षेत्र नहीं छोड़ा। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। आज एक पुस्तक का ज़िक्र करना चाहता हूँ। 

पुस्तक है: भारत-विभाजन विरोधी मुसलमान (देशप्रेमी मुसलमानों की अनकही दास्तान)  

प्रकाशक: फ़रोस
अँग्रेज़ी से अनुवाद: जावेद आलम। 
प्राक्कथन: प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया। 

सच बात तो यह है कि इसपर मुझे एक विस्तृत परिचय लिखना चाहिए था। लेकिन इधर के अनेक उलझावों के कारण यह संभव नहीं हो रहा था। इसलिए लगा कि केवल सूचना डाल देना भी आवश्यक है। यह विषय जिस शोध और तटस्थता की माँग करता है, वह इतिहासकार शम्सुल में भरपूर है। 

आपको जानकर अचंभा होगा कि जहाँ सावरकर और गोलवलकर हिन्दू पक्ष की ओर से इक़बाल और जिन्नाह की भूमिका निभा रहे थे, वहीँ अल्लाह बख़्श के नेतृत्व में मुसलमान अलगाववाद के खिलाफ जंग लड़ रहे थे। हम न अभी 1857 की बात कर रहे हैं, न उन शायरों की बात कर रहे हैं जिन्होने साहित्य की महान परम्पराओं का निर्वाह करते हुए बँटबारे का विरोध किया--1947 के पहले भी, 1947 के बाद भी!

जिनकी रुचि नफ़रती प्रचार में न होकर सच्चाई में है, उनके लिए इस समस्या पर  दो पुस्तकें अनिवार्य हैं। एक शम्सुल की 'भारत-विभाजन विरोधी मुसलमान' और दूसरी कर्मेन्दु शशिर की 'भारतीय मुसलमान'। कर्मेन्दु जी की पुस्तक का उपयोग मैंने 'संगीत कविता हिंदी और मुग़ल बादशाह' में प्रचुरता से किया है। शम्सुल की पुस्तक का उल्लेख टालता जाता था। आज भी उसका केवल ज़िक्र भर कर रहा हूँ। लिखने की इच्छा बाद में पूरी करूँगा। 

सबसे पहले केवल उन नामों को देखिए जिन्होंने विभाजन का निरंतर विरोध किया: शिबली नोमानी, हसरत मोहानी, अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान, मुख्तार अहमद अंसारी, शौकतुल्ला अंसारी, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, सैयद अब्दुल्ला बरेलवी, अब्दुल मजीद ख़्वाजा। 

ये सभी लोग'अल्पसंख्यक कार्ड' क़विरोधी थे। साथ ही, उर्दू नवजागरण की खिल्ली उड़ाने वाले इरफ़ान हबीब की दुराग्रही मान्यताओं का जवाब भी इन सब के जीवन से मिलता है। 

कर्मेन्दु जी की तरह शम्सुल की पुस्तक से भी ज्ञात होता है कि आज़ाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस न केवल भारत विभाजन के ख़िलाफ़ लड़ रही थी बल्कि वह मुस्लिम लीग से ज़्यादा लोकप्रिय थी। इसीलिए अँग्रेज़ों और लीगियों के षड़यंत्र के तहत अल्लाह बख़्श की हत्या कर दी गयी थी। 

सबसे बुरी बात यह थी कि कॉंग्रेस ने आज़ाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस से नहीं, अँग्रेज़ों को खुश रखने के लिए मुस्लिम लीग से संधि की! लीग, कॉंग्रेस और अंग्रेजों में समझौते के चलते देश विभाजित हुआ। इस राजनीति को बारीकी से समझने में शम्सुल की पुस्तक बड़ी मददगार है। 

शम्सुल उन प्रवादों का उत्तर हैं जो कहते या सोचते हैं कि कोई मुसलमान सचमुच धर्मनिरपेक्ष होता है या नहीं? वे स्वयं एक सच्चे देशभक्त भारतीय हैं। 

पदावली के उपयोग में शम्सुल बहुत सावधान हैं। वे 'राष्ट्रवादी हिन्दू' और 'राष्ट्रवादी मुसलमान' शब्दों का व्यवहार करने के पक्ष में नहीं हैं। उनके अनुसार, ये दोनों ही सम्पदायिक दृष्टिकोण को स्वीकार करते थे। शम्सुल 'देशप्रेमी मुसलमान 'इस्तेमाल करते हैं। यह मुझे भी ठीक लगता है। 

दो बातों पर गौर करना चाहिए। एक, अधिकांश हिन्दू और अधिकांश मुसलमान बँटवारे के विरोधी थे; दूसरे, विभाजन विरोधी मुसलमानों की तादात कम नहीं थी इसीलिए बहुत से मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए, यहीं रहे। इन्हीं को अब 'हिन्दू राष्ट्र' से खदेड़ने का अभियान चलाया जा रहा है क्योंकि मुसलमानों को उनका देश तो दे दिया गया है! यह कितना बड़ा झूठ है, इसे इतिहास के तथ्यों से ही जाना जा सकता है। मसलन, 1946 में मुस्लिम लीग को जो भारी बहुमत मिलता दिखाया जाता है, वह सीमित मतदान प्रणाली का नतीजा था। इन सब तथ्यों का विस्तृत विवेचन शम्सुल की पुस्तक में है। 

कर्मेन्दु की पुस्तक का दायरा बड़ा है। वह भारतीय मुसलमानों का पूरा विश्लेषण है। वह भी नवजागरण को केंद्र में रखकर। शम्सुल की पुस्तक का ध्यानकेन्द्र भारत के विभाजन में मुसलमानों की वास्तविक भूमिका की खोज है। इस दृष्टि से शम्सुल की पुस्तक आज की राजनीतिक परिस्थितियों के लिए अधिक चुटीली है। 

इसपर विस्तार से लिखने का काम बाक़ी है। मैं तो लिखूँगा ही, दूसरे मित्र भी लिखें तो एक ऐतिहासिक संघर्ष में उनका सहयोग होगा।

शम्सुल की पुस्तकों के लिए लिंक:




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