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Sunday, 29 May 2022

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में पहला है महायान, जिसमें बुद्ध को पूजने की परंपरा है, और दूसरा है हीनयान, जिसे मानने वाले बुद्ध को देवता नहीं स्वीकार करते। इसी हीनयान के गर्भ से निकला है थेरवाद, जिसका अर्थ है, 'श्रेष्ठजनों की बात'। थेरवादी धर्मगुरूओं में राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने और सत्ता को अपने वश में करने का जुनून रहा है, यही समझने के वास्ते कंबोडिया, थाईलैंड, म्यांमार और श्रीलंका की चर्चा होनी ज़रूरी है। 
बुद्ध के अनुयायियों को सत्ता क्यों सुहाने लगी?
पुष्परंजन

 वाशिंगटन डीसी स्थित पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट 2020 में आई, जिसमें दुनिया के दस बौद्ध बहुल देशों का ब्योरा दिया गया था। बुद्ध को मानने वाले सर्वाधिक कंबोडिया में 96.80 प्रतिशत लोग हैं। थाईलैंड में 92.60, म्यांमार में 79.80, भूटान में 74.70, श्रीलंका में 68.60, लाओस में 64 फीसद, मंगोलिया में 54.50, जापान में 33.20, सिंगापुर में 32.30 और दक्षिण कोरिया में 21.90 प्रतिशत बौद्ध रहते हैं। इन दसियों देशों में बुद्ध ने कभी भ्रमण नहीं किया। बुद्ध जहां जन्में, आज के उस नेपाल में कुल जमा 10 फीसद बौद्ध मिलेंगे। और जिस भारत में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, एक फीसद भी बौद्ध नहीं मिलेंगे। भारत में 0.70 प्रतिशत बौद्ध मतावलंबी रह गये हैं, यह सुनकर हैरानी होती है। 

महाभिनिष्क्रमण से लेकर महापरिनिर्माण तक, बुद्ध ने सत्ता से कोई संबंध नहीं रखा। राजकुमार सिद्धार्थ को राजगद्दी संभालने के लिए पर्याप्त रूप प्रशिक्षित करवाया था राजा शुद्धोधन ने। भोग-विलास का पूरा प्रबंध। पत्नी यशोधरा और पुत्र मोह में भी नहीं बंध पाये सिद्धार्थ। सबकुछ त्यागकर तपस्या और ज्ञान की खोज में चल पड़े। इतनी आसान सी बात को बुद्ध के सभी अनुयायियों ने क्या ग्रहण किया है?

 कंबोडिया से ही शुरू करते हैं, जहां विश्व में सर्वाधिक 96.80 फीसद बौद्ध जनसंख्या है। पहली सदी के फुनान राजाओं ने बौद्ध व हिंदू धर्म को एक साथ चलने दिया, जिससे मेकोंग डेल्टा में सियासी माहौल बना रहा। बाद के 802 से 1431 के ख़मेर साम्राज्य में बौद्ध मठों के समर्थन से सत्ता चलती रही। उस ज़माने में एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा और संस्कृति का सृजन हुआ। खमेर गणराज्य में जयवर्मन से सूर्यवर्मन जैसे राजा भी हुए। 

अमेरिका के मेरीलैंड में वाल्टर्स आर्ट म्यूज़ियम में मैंने कंबोडियाई किंग जयवर्मन की बारहवीं सदी में निर्मित प्रतिमा देखी थी, जिन्हें ब्रह्मा के रूप में प्रस्तुत किया गया था। एक हाथ में चक्र लिये जयवर्मन की अष्टभुजा धारी कांस्य प्रतिमा यह बता रही थी, कि वो हिंदू राजा थे। इसके बरक्स अंकोरवाट की वास्तुकला में राजा सूर्यवर्मन बौद्ध रूप में नुमायां हुए हैं। पांचवी सदी में भारत से बौद्ध धर्म का प्रवेश कंबोडिया में होता है। सम्राट और साम्राज्ञियों की लंबी सूची देखिये, हिंदू मिलेंगे या फ़िर बौद्ध। जयवर्मन सप्तम (1181 से 1218) महायान मत को मानने वाले थे, उनके समय कंबोडिया में बौद्ध धर्म को राजकीय मान्यता दी गई।

 लगभग 800 वर्षों तक कंबोडिया में थेरेवाद बौद्ध मत उरूज पर रहा था, मगर इनके अच्छे दिनों का अंत 1975 से 1979 तक खमेर रूज़ के शासन में हुआ, जिसका नेतृत्व वामपंथी नेता पोल पॉट, लेंग सारी, सोन सेन और खिऊ सम्फान प्रकारांतर से कर रहे थे। क़त्लेआम की वजह से बौद्ध मिक्षु हज़ारों की संख्या में कंबोडिया छोड़कर वियतनाम व थाईलैड भाग गये। 1979 में वियतनाम के समर्थन से हेंग सेमरिन कंबोडिया के राष्ट्रपति बने, उनके बाद से बौद्धों के अच्छे दिन वापिस हुए।

तीन साल तक राष्ट्रपति बनने के बाद से 21 मार्च 2006 को हेंग सेमरिन कंबोडिया के निचले सदन नेशनल असंेबली के अध्यक्ष बने। हेंग सेमरिन को राजनीति में टिकाये रखने में बौद्ध घर्मगुरूओं की बड़ी भूमिका रही है। कंबोडिया में जिस भी दल को सत्ता में रहना है, सबसे पहले उसे बौद्ध धर्म गुरू परम पावन तेप वोंग का आशीर्वाद प्राप्त करना होता है। थेरेवादी लामा 90 साल के तेप वोंग को 'संघराजा' बुलाते हैं। इसे विडंबना ही कहिए, शाक्य मुनि ने राजपाठ त्याग दिया, उनके अनुयायियों को राजा बनना पसंद है।

 बाहर से आधुनिक दिखने वाले थाईलैंड की राजनीतिक रगों में भी बौद्ध धर्म तेज़ी से दौड़ता है। सत्ता में रहना है तो 'संघम शरणम गच्छामि' का मंत्र थाई नेता जपते हैं। किसी को सत्ता से बाहर करना है, तो बौद्ध धर्मगुरू ही इनके काम आते हैं। यह सब देखते हुए 2017 के संविधान के अनुच्छेद 96 (चैप्टर सात) में यह स्पष्ट किया गया कि बौद्ध लामाओं को चुनाव में वोट देने का अधिकार नहीं है। सोचिए कि क्या ऐसा भारतीय संविधान में संभव है कि जो साधु संत हो जाए वो चुनाव लड़ना तो भूल जाए, वोट तक नहीं दे सकता। 11 नवंबर 2020 को बौद्ध धर्मगुरूओं की शासी निकाय 'सुप्रीम संघ कौंसिल' की बैठक में प्रस्ताव पास हुआ कि बौद्ध भिक्षु और माई ची (भिक्षुणियां) विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा नहीं लेंगे। ऐसा करने की वजह थाकसिन शिनवात्रा को सत्ता में आने से रोकना है।

 19 सितंबर 2006 को थाकसिन शिनवात्रा प्रधानमंत्री पद से सेना द्वारा हटाये गये थे। थाकसिन के विरूद्ध उन दिनों येलो शर्ट आंदोलन हुआ, जिसे मीडिया मुग़ल सोंघी लिमथोंगकुल, चामलोंग श्रीमुआंग का समर्थन था। जनवरी 2011 के बाद यही येलो शर्ट आंदोलनकारी थाकसिन को माफी देने और देश वापसी की मांग पर दो हज़ार की संख्या में सड़क पर उतर आये थे। विगत दस वर्षों में थाकसिन शिनवात्रा ने रेड शर्ट आंदोलनकारी भी तैयार किये। थाकसिन समर्थक प्रदर्शकारियों में बौद्ध लामाओं की संख्या अच्छी ख़ासी बताई जाती है।  

 सच यह है कि बौद्ध धर्मगुरू अपने मार्ग से पहले भी कई बार भटक चुके हैं। 1962 में संघ एक्ट थाईलैंड में आयद हुआ था, जिसमें राजा को धर्म प्रधान नियुक्त करने का अधिकार मिला। 1992 में थाई संसद में इस क़ानून को संशोधित कर यह तय किया गया कि संघ सुप्रीम कौंसिल की अनुशंसा और प्रधानमंत्री की सहमति के बाद धर्माधिपति नियुक्त किये जाएंगे। सर्वोच्च घर्मगुरू सोमदेत छुआंग का मामला बड़ा विवादास्पद था, जिन्हें संघ की सुप्रीम कौंसिल द्वारा अनुशंसा के बाद भी नियुक्ति पर प्रधानमंत्री की मुहर नहीं लग पा रही थी। बौद्ध घर्मगुरू सोमदेत छुआंग ने अकूत धन इकट्ठा कर रखा था, मर्सडीज़ बेंज विदेश से मंगाकर वो और उलझ गये थे। 9 दिसंबर 2021 को 96 साल की उम्र में घर्मगुरू सोमदेत छुआंग की मृत्यु हो गई। मगर, थाईलैंड में बौद्ध घर्माचार्यों की सर्वोच्च संस्था, 'संघ सुप्रीम कौंसिल' में वर्चस्व की लड़ाई थमती नहीं दिखती है। सरकार को अपने आइने में उतारने, और करप्शन पर मिट्टी डालने के वास्ते बौद्ध धर्मगुरू कुछ भी कर जाने पर आमादा दिखते हैं।

मगर, जब हम म्यांमार की ओर झांकते हैं, बेशर्मी और बर्बरता में बहुत से बौद्ध धर्मगुरू एक दूसरे से होड़ लेते दिखते हैं। म्यांमार के सैन्य शासक मिन आंग हिलिंग विश्व में अपनी छवि सुधारने के वास्ते राजधानी न्येपी दो में पालथी मार कर बैठी विश्व में सबसे बड़ी बुद्ध प्रतिमा बना भर देने से सोचते हैं कि रोहिंग्या नरसंहार का पाप धुल जाएगा, ऐसा केवल भ्रम है।

मेखतिला, तातकोन, ग्योबिंगौक, मिन्हला नरसंहारों के अपराधियों को उकसाने में किन-किन बौद्ध धर्मगुरूओं के हाथ थे, इसकी ख़बरें वो छिपा नहीं पाये। कू्ररता के मामले में कुख्यात बौद्ध धर्मगुरू आशिन विराथु को जब सितंबर 2021 में म्यांमार की सेना ने रिहा किया, दिल्ली के जंतर-मंतर तक पर विरोध प्रदर्शन हुए। विराथु वही धर्मगुरू है, जिसने सितंबर 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति थेन सेइन के समर्थन में मंडाले में बौद्ध लामाओं की रैली कराई थी, उसके कुछ माह बाद, 2013 में व्यापक दंगे कराये, जिसमें डेढ़ लाख लोग उजड़ गये। इस कांड का अफसोसनाक पहलू यह है कि विराथु को 'सन ऑफ बुद्धा' की उपाधि मिली। यह कौन सी सोच वाला बौद्ध धर्म है? कोई समझा दे।

 म्यांमार के सैन्य शासक मिन आंग हिलिंग जून 2021 में रूस गये। अपने साथ बौद्ध धर्मगुरू सितागू सायादो और कुछ अन्य भिक्षुओं को राजकीय यात्रा पर लेते गये। बहाना क्या था कि मास्को के उपनगर में थेरेवदा बौद्ध मठ के उदधाटन के वास्ते धर्मगुरूओं की टीम जा रही है। 9 सितंबर 2021 को प्रमुख दैनिक इरावदी ने एक दिलचस्प तस्वीर छापी थी। बौद्ध धर्मगुरू सितागू सायादो कुर्सी पर विराजे हुए, सामने ज़मीन पर सैन्य शासक की पत्नी बैठी हुई, और वो ख़ुद सेना के बड़े अधिकारियों के साथ लाइन में पीछे खड़े हुए। म्यांमार में धर्म के आगे सेना भी नतमस्तक है, या फिर धर्मगुरू अपने कंधे को लोकतंत्र कुचलने के वास्ते इस्तेमाल करने दे रहे हैं, दोनों में से कुछ तो हैं, उस तस्वीर में।

 बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में पहला है महायान, जिसमें बुद्ध को पूजने की परंपरा है, और दूसरा है हीनयान, जिसे मानने वाले बुद्ध को देवता नहीं स्वीकार करते। इसी हीनयान के गर्भ से निकला है थेरवाद, जिसका अर्थ है, 'श्रेष्ठजनों की बात'। थेरवादी धर्मगुरूओं में राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने और सत्ता को अपने वश में करने का जुनून रहा है, यही समझने के वास्ते कंबोडिया, थाईलैंड, म्यांमार और श्रीलंका की चर्चा होनी ज़रूरी है। ये अहिंसा परमो धर्म को खारिज़ करते हैं, उसके कई उदाहरण आपको श्रीलंका में भी मिलेंगे। तालदुवे सोमरामा थेवो का नाम आप किसी श्रीलंकाई से पूछिएगा वह तुरंत बताएगा कि उस हत्यारे बौद्ध भिक्षु ने 25 सितंबर 1959 को श्रीलंका के चौथे प्रधानमंत्री एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायक के सीने में गोली दाग दी थी। इस साजिश में सात और लोग पकड़े गये, उनमें से केलेनिया महाविहार के मुख्य धर्माधिकारी मपितिगमा बुद्धरखिता थेरो भी थे।

 आपको ताज़ा दृश्य याद दिला दें, जब 20 अक्टूबर 2021 को कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के उदधाटन के अवसर पर महिंदा राजपक्षे के पुत्र नमल राजपक्षे के साथ एक दर्जन श्रीलंकाई धर्मगुरू पधारे थे। तब जो बयान आये उसमें नवंबर 2019 के संसदीय चुनाव परिणाम के हवाले से 'सिंहाला-बुद्धिस्ट राष्ट्रवाद' को जमकर बधारा गया था। कोई पूछे, आज की तारीख़ मंे ये राष्ट्रवादी बौद्ध धर्मगुरू क्यों नहीं दिखते श्रीलंका की सड़कों पर? आम चुनाव में राजपक्षे कुनबे को विजय दिलाने वाले बोडू बल सेना के नेता गलगोडा गणसारा अब कोई राष्ट्रवादी बयान नहीं दे रहे। नाम क्या रखा है, 'बोडू बल सेना' जिसका अर्थ है ' बुद्धिस्ट पावर फोर्स'। क्या बुद्ध ने कभी कल्पना की थी कि उनके नाम एक प्राइवेट आर्मी श्रीलंका में बनेगी, जिसके भगवाधारी भिक्षुओं ने 14 अक्टूबर 2012, व जून 2014 के दंगों में कत्लेआम किया, और हज़ारों लोगों को उजाड़ दिया था!
(ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक।)

ShudraTheRising movie

#ShudraTheRising is the story of 250 million people subjugated in war and condemned to slavery and bestial existence for ages. These peace loving & imprudent people of ancient times were usurped by more aggressive and acquisitive group of men and societies.

A poignant tale of misery, hopelessness, doom and finally an outburst of rebellion with apocalyptic consequences Shudra The Rising highlights the depths to which evil human mind can succumb to cling on to power and supremacy.

Agni, Vaayu, Jal aur Sthal se bahiskrit ek samaaj ki swatantrta ki kahani. Shudra - The Rising.

Production - Rudraksh Adventures Pvt. Ltd.

Streaming Channel: Baba Play (Owned By Rudraksh Adventures Pvt. Ltd.) Written & Directed By - Sanjiv Jaiswal Producers - Nitin Mishra, Meesum Abbas Co producer- Aaditya Om, Anil Jaiswal D.O.P. - Pratik Deora

Music Director - Jaan Nissar Lone Lyrics- Tanvir Gazi & Shiv Sagar Singh


'शूद्र द राइजिंग'  250 मिलियन लोगों की कहानी है जो युद्ध में वशीभूत हुए और युगों-युगों तक गुलामी और पाशविक अत्याचार को सहते रहे। प्राचीन काल के इन शांतिप्रिय और अविवेकी लोगों को समाज के दबंग और अधिक आक्रामक  लोगो के समूह द्वारा  सबकुछ हड़प लिया गया था।    दुख, निराशा, कयामत की एक मार्मिक कहानी और अंत में सर्वनाशकारी परिणामों के साथ विद्रोह का प्रकोप,  शूद्र द राइजिंग उस गहराई को उजागर करता है जिसमें दुष्ट मानव मन सत्ता और वर्चस्व से चिपके रह सकता है।    अग्नि, वायु, जल और स्थल से बहिष्कृत एक समाज की स्वतंत्रता की कहानी। शूद्र - उदय।    प्रोडक्शन - रुद्राक्ष एडवेंचर्स प्रा. लिमिटेड

Thursday, 26 May 2022

सेक्स वर्क को एक पेशे के रूप में मान्यता

 सेक्स वर्क को एक पेशे के रूप में मान्यता देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि पुलिस को वयस्क और सहमति देने वाले यौनकर्मियों के खिलाफ न तो हस्तक्षेप करना चाहिए और न ही आपराधिक कार्रवाई करनी चाहिए। अदालत ने कहा कि सेक्स वर्कर कानून के तहत सम्मान और समान सुरक्षा के हकदार हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस बलों को यौनकर्मियों और उनके बच्चों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करने और मौखिक या शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार नहीं करने का निर्देश दिया है।

कोर्ट ने कई निर्देश जारी करते हुए कहा कि इस देश में सभी व्यक्तियों को जो संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं, उसे उन अधिकारियों द्वारा ध्यान में रखा जाए जो अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 के तहत कर्तव्य निभाते हैं।

पीठ ने कहा कि यौन उत्पीड़न की पीड़ित किसी भी यौनकर्मी को कानून के अनुसार तत्काल चिकित्सा सहायता सहित यौन उत्पीड़न की पीड़िता को उपलब्ध सभी सुविधाएं मुहैया कराई जानी चाहिए।

पीठ ने कहा, ''यह देखा गया है कि यौनकर्मियों के प्रति पुलिस का रवैया अक्सर क्रूर और हिंसक होता है। ऐसा लगता है कि वे एक वर्ग हैं जिनके अधिकारों को मान्यता नहीं है। पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को यौनकर्मियों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए जिन्हें सभी नागरिकों को संविधान में प्रदत्त सभी बुनियादी मानवाधिकार और अन्य अधिकार प्राप्त हैं। पुलिस को सभी यौनकर्मियों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिए और उनके साथ मौखिक और शारीरिक दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए, उनके साथ हिंसा नहीं करनी चाहिए या उन्हें किसी भी यौन गतिविधि के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए।''

Monday, 23 May 2022

राममोहन राय


"झूठ बिना किसी भेदभाव के सभी धर्मों में एक समान तत्व है।" 1804 में प्रकाशित फारसी पुस्तक 'तुहफत अल मुवाहिदीन' (एकेश्वरवादियों को भेंट') की अरबी में लिखित भूमिका में राममोहन राय लिखते हैं। 
पुस्तक में निष्कर्ष है कि सृजन के लिए एक सर्वोच्च शक्ति (ब्रह्म) का अस्तित्व तो स्वीकार्य है, पर उसके आगे सभी मनुष्यों को सभी कामों में अपनी बुद्धि और तर्क का इस्तेमाल करना चाहिए। धार्मिक विश्वासों द्वारा स्थापित सभी रूढियां मानवता के लिए फोडे की तरह है जो रिवाज व लंबे प्रशिक्षण से पैदा हुआ है। 
हालांकि राममोहन इस वक्त तक यूरोपीय दर्शन से भी परिचित हो रहे थे पर इन निष्कर्षों पर वे अरबी फारसी की दार्शनिक परंपरा की तार्किकता के जरिए पहुंचे थे। 1804 के बंगाल में 30 साल की उम्र में ये प्रकाशित कराने के लिए सचमुच हिम्मत चाहिए थी। इसका व छुआछूत न मानने का नतीजा था कि अन्य ब्राह्मण ही नहीं खुद उनकी मां को राममोहन से इतनी कोफ्त व नफरत हुई कि अंग्रेजी अदालत में मुकदमा दायर कर दिया कि उनकी संपत्ति में बेटे को कोई हिस्सा न मिले। राममोहन ने इस स्वतंत्र फैसले व उस पर कार्रवाई के लिए मां की तारीफ की कि इस तरह वह परंपरागत भारतीय नारियों से आगे बढ़ गई, पर विचार पर समझौता नहीं किया। 
अंततः राममोहन को भारत छोड अपने जीवन के अंतिम वर्ष इंग्लैंड में बिताने पडे। पर हमारे इतिहास में उनका जिक्र आम तौर पर सती प्रथा के विरोध तक ही किया जाता है। उनके फारसी लेखों पुस्तिकाओं में मात्र यह एक ही बची है।

Sunday, 22 May 2022

भारतीय संविधान के 10 एपिसोड

भारतीय संविधान के 10  एपिसोड 
भाग-1 
भाग-2 
भाग-3
भाग- 4
भाग- 5
भाग-6
भाग-7
भाग-8
भाग-9
भाग-10

अविनाश दास के खिलाफ


फिल्ममेकर अविनाश दास के खिलाफ अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ने केस दर्ज किया है। रिपोर्ट्स के अनुसार, अविनाश पर कथित तौर पर फेक खबर फैलाने के लिए जालसाजी का मामला दर्ज किया है। क्योंकि फिल्ममेकर ने निलंबित IAS पूजा सिंघल के साथ देश के गृह मंत्री अमित शाह की फोटो शेयर की थी। इसके साथ ही अविनाश पर तिरंगे को अपमान करने का भी आरोप लगा है।


भारत में इस्लाम



यदि भारत में मुसलमानी अत्याचार भयानक रहा, तो तत्कालीन राजपूती वीरता की कहानी भी कुछ कम लोमहर्षक नहीं है । कम से कम, राजपूतों के प्रसंग में तो यह कहा ही जा सकता है कि वे तुर्कों की तलवार को कुछ नहीं समझते थे और सच भी यही है कि मुसलमान तलवार के जोर से नहीं बढे, भारतवासियों ने उनका सामना ही नहीं किया । इसी प्रकार इस्लाम भारत में केवल खड्गबल से नहीं फैला । हिन्दू समाज में वेद-विरोधी आन्दोलन इस्लाम के उदय से कम से कम, एक हजार वर्ष पहले ही छिड़ चुका था और बहुत से लोग वेद, ब्राह्मण, प्रतिमा और व्रत-अनुष्ठानों में विश्वास खो चुके थे । धर्म-परिवर्तन के अधिक आसान शिकार ये ही लोग हुए । इस्लाम ने बहुत से ऐसे लोगों को भी अपने वृत्त में खींच लिया जो अछूत होने के कारण अपमानित हो रहे थे और बहुत से लोग इसलिए भी मुसलमान हो गए, चूँकि प्रायश्चित के नियम हिन्दुओं के यहाँ थे ही नहीं । हिंदुत्व छुइ-मुई सा नाजुक धर्म हो गया था । इसलिए गाँव के कुँए में अगर मुसलमान पानी डाल देते तो सारा गाँव स्वतः मुसलमान हो जाता और शास्त्रों के प्रहरियों को यह सूझता ही नहीं कि पानी के समान मनुष्य भी शुद्ध किया जा सकता है । आक्रमण के रास्ते में गाय पड़ गयी तो हिन्दुओं की स्वतः पराजय हो जाती थी । फ़ौज की जद में अगर मन्दिर पड़ जाते तो हिन्दुओं को कँपकँपी छूटने लगती थी । 

[संस्कृति के चार अध्याय - रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ-३२०-३२१ ]

Saturday, 21 May 2022

इतिहास



सब के पास स्वर्णिम इतिहास था

ब्राह्मणों के पास ठाकुरों के पास वैश्यों के पास आदिवासियों के पास कारीगरों शिल्पकारों मूर्तिकारों चित्रकारों नर्तकों संगीतज्ञों कलावंतों दरबारियों सिपाहियों कृषकों
लगभग सबके पास स्वर्णिम इतिहास था 
और वे अब भी उसकी खोज में लगे थे
सारे देश में खुदाई चल रही थी 

मेरे पास क्या था जिसकी खोज करता जिस पर गर्व करता

बचपन में मेरी मां एक हाथ में झाड़ू टोकरी एक से मेरा हाथ थामे मुझे घर घर ले जाती थी
और ऐसी जगह बिठा देती थी जहां कोई मुझे न छुए 
या मैं किसी चीज को न छू सकूं
फिर घर के बाहर गलियारे में आंगन में झाड़ा बुहारी करती थी
लूगड़ी का डाटा मुंह पर कसकर 
तारतें साफ करती थीं
परात भर भर मल सोरती थी फेंक कर आती थी
तब झोली फैलाती थी 
जिसमें दूर से रोटी  फेंकती थीं उन घरों की स्त्रियां 
जिन्हें हम भूख लगने पर चबाते थे

अब इसमें स्वर्णिम इतिहास की क्या खोज करता मैं
क्या कहता कि सिंधु घाटी के हम मूल बाशिंदे हैं
हमारे पास तो ईश्वर भी नहीं था

हां, जीवन तो  था हमारा भी 
हमारे भी शादियां थीं लगन सगाई तीज त्योहार भात पैरावणी
आना जाना मिलना जुलना  हंसी ठठ्ठा
पर यह ज़मीन में गडकर जीने जैसा था

हां यह बात गर्व के लायक हो सकती थी कि  मेरी मां सुंदर थी
वह सचमुच  सुंदर थी ,लोग अब भी कहते हैं
दुबली पतली सांवली बडरी बडरी आंखें
मोगरे के फूलों जैसे दांत
हंसती थी तो गालों में गड्ढे पडते थे

पर यह गर्व की  बात ही हमारे लिए  लज्जा की हुई

मैने देखा था कि उन घरों के कई मर्द
मेरी मां को देखकर लार टपकाते थे
अंधेरे कोनों में उसे दबोच लेते थे
वह बिलौटे के पंजे में कबूतरी की तरह छटपटाती थी
पर बोल नहीं पाती थी
मेरा बाप उसे मारता था और चुप रहने को कहता था

अब इसमें स्वर्णिम इतिहास कहां से खोजूं
लोग कहते हैं कि मेरे छोटे भाई की शकल
फलां पंडित जी से मिलती है
- Vinod Padraj

अनुसूचित जातियों के हक, अधिकार, समानता

अनुसूचित जातियों के हक, अधिकार, समानता, समृद्धि, उन्नति, प्रगति इत्यादि का सबसे अधिक विरोधी कौन है? हिन्दू? मुस्लिम? सिख? ईसाई? जैन? बौद्ध? पारसी? यहूदी? लिंगायत? कौन?

मन्दिर जाने से दलितों को कौन रोकते हैं? आरक्षण का विरोध कौन करते हैं? एससी, एसटी एक्ट के विरोधी कौन है? दूसरी जाति में शादी करने से कौन रोकता है? कुएं से पानी भरने से कौन रोकता है? 
घोड़ी चढ़ने से कौन रोकता है? मूछ रखने से कौन रोकता है? अपने से बड़े, बुजुर्गों को भी नाम से पुकारते कौन हैं? कुर्सी पर बैठने से तकलीफ किसे होती है? सवर्णों के मोहल्ले में जूत्ते चप्पल पहनने से आघात किसे होता है?
तमाम जाति के आधार पर भेदभाव, उत्पीड़न, दुर्व्यवहार, अपमान कौन करता है? यकीनन सबसे आगे हिन्दू ही हैं तो फिर बताओ कि दलित किस तरह के हिन्दू? और हिंदुओं में नफरत, झगड़े, दरार, बंटवारा कौन बढ़ा रहे हैं?

#आर_पी_विशाल।

Escape from Sobibor



Drama (1987) 142minutes 41 seconds 


The Sobibor Death Camp was the site of this heart-wrenching story set during World War II. The 600 Jewish laborers enslaved there longed to escape, but the camp commandant gave orders that for every prisoner that tried to escape, and equal number of those left behind would be executed. Knowing this, the prisoners will all have to escape together, or perish in Sobibor one by one. Director: Jack Gold Writer: Thomas 'Toivi' Blatt (manuscript "From the Ashes of Sobibor"), Richard Rashke (book), Richard Rashke (teleplay) and Stanislaw 'Shlomo' Szmajzner (book) Stars: Rutger Hauer, Alan Arkin, Hartmut Becker, Joanna
Pacula

सोबिबोर डेथ कैंप द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान स्थापित इस दिल दहला देने वाली कहानी का स्थल था। वहाँ ग़ुलाम बनाए गए 600 यहूदी मजदूर भागने के लिए तरस गए, लेकिन कैंप कमांडेंट ने आदेश दिया कि हर कैदी के लिए जो भागने की कोशिश करेगा, और जो पीछे छूट गए हैं, उन्हें समान संख्या में मार दिया जाएगा। यह जानकर, सभी कैदियों को एक साथ भागना होगा, या सोबिबोर में एक-एक करके नष्ट होना होगा। निर्देशक: जैक गोल्ड लेखक: थॉमस 'तोइवी' ब्लैट (पांडुलिपि "फ्रॉम द एशेज ऑफ सोबिबोर"), रिचर्ड रश्के (पुस्तक), रिचर्ड रश्के (टेलीप्ले) और स्टैनिस्लाव 'श्लोमो' स्ज़माजनेर (पुस्तक) सितारे: रटगर हाउर, एलन आर्किन, हार्टमुट बेकर, जोआना  पैकुला

Friday, 20 May 2022

निजीकरण (Out sourcing) और बेरोजगारी

अब इन जैसे लाखों पदों की आवश्यकता शायद भारतीय नौजवानों को नहीं है.

पेंशन फण्ड कॉर्पोरेट के हवाले

यह मेहरबानी 2019 में की गयी थी। इस पूंजी से अकूत मुनाफा कमाने का इन्हें अवसर मिलेगा और इसके बदले एक छोटी सी राशि पेंशनर्स को मिलेगी। और अगर घाटा हुआ तो ! तो पेंशनर्स के पैसे डूबेंगे। पूंजी पेंशनर्स का, रिस्क पेंशनर्स का, लेकिन मुनाफा अम्बानी का। 

Thursday, 19 May 2022

सूनामी आने ही वाली है

सूनामी आने ही वाली है, 

भारत की अर्थव्यवस्था सितंबर से भयानक मंदी में डूबने वाली है। हालत श्रीलंका से भी खराब होगी; यह तय मानिए। 

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार फिलहाल 600 बिलियन डॉलर के नीचे है। इसमें सितंबर तक खास बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं है। 

इसी सितंबर में देश को 256 बिलियन डॉलर का विदेशी क़र्ज़ चुकाना है। फिर बटुए में कितने बचेंगे यह हिसाब आप लगा लीजिए। 

अगले साल मार्च तक देश का कुल क़र्ज़ 153 लाख करोड़ का हो जाएगा। जबकि 2014  में यह 53 लाख करोड़ था।

भारत का व्यापार घाटा मार्च 2022 में 18.51 बिलियन था। निर्यात के मुकाबले देश का आयात 24% से ज़्यादा है। 

देश के बैंकों ने 2014 के बाद से अमीरों का करीब 11 लाख करोड़ का लोन माफ किया है। 

इस साल के आखिर तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में वस्तुओं के दाम बेतहाशा बढ़ेंगे। यानी आयात लगातार महंगा होता जायेगा और बटुए से डॉलर निकलेंगे ज़्यादा, आएंगे कम। 

अब आप बताएं कि खीसे में सिर्फ़ 350 बिलियन डॉलर रखकर देश कितने दिन तक महंगा आयात बिल चुका सकेगा? 

ज़्यादा से ज़्यादा 3 महीने? उसके बाद? देश दिवालिया हो जाएगा? क्या सोना गिरवी रखेंगे? या फिर कुछ बेचेंगे? कुछ बचा भी है? 

कमर पर सीट बेल्ट बांध लें। प्लेन क्रैश होने वाला है। बचेंगे तो ही मस्जिद/मकबरे खोद पाएंगे।



(साभार—Soumitra Roy )

जनगीत / आदित्य कमल ------------------------------------ लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ... ------------------------------------


सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
पूछो , ऐसा क्यों है भाई !
कहो , कि ऐसा नहीं चलेगा 
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....

ईंट-ईंट को जोड़ा हमने
अपना सीना तोड़ा हमने
कमरतोड़ मेहनत की हमने
सड़क बिछाई , भवन बनाए
ऊँचे - ऊँचे महल उठाए
पर नगरों के बाहर , नगरों की तलछट में हम बसते हैं
अपने हिस्से की खोली पर भी बुलडोजर ही चलते हैं
फुटपाथों तक पर गुंडों का और पुलिस का कब्ज़ा है क्यों ?
ठोकर है , अपमान है , गाली - गोली है और डंडा है क्यों ?
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....

मिलों , कारख़ानों की चिमनी
से जो धुआँ - धुआँ उठता है
उसमे अपना लहू जला है
हरेक माल के चेहरे पर जो
रंगत , रौनक , रा'नाई है
मेरे पसीने से आई है
लेकिन अपनी रोटी पर भी ख़तरे की घंटी लटकी है
छँटनी है , बेकारी है कि साँस भी सांसत में अटकी है
हालत से पामाल हम्हीं हैं , जेबों से बदहाल हम्हीं हैं
बस ठन-ठन गोपाल हम्हीं हैं , सबसे सस्ता माल हम्हीं हैं
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....

हमने धरती की छाती पर
हल दौड़ाए , फाल चलाए
हमने रोपे बीज अन्न के
फसल उगाई , रखवारी की
जीवन की सारी फुलवारी
अपना जीवन - सत्व डालकर
लुटकर पोसा , खून से सींचा
अन्न उगे , गोदाम भर गए ; इधर भूख से हम्हीं मर गए
जब कपास का ढेर लगाया, खुद को पूरा नंगा पाया
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....

हम मज़दूर हैं , हम हैं कमकर
हम जो हैं जीवन के बुनकर
अपनी ही बस्ती में भाई
मौत बनाकर बैठी क्यों घर ?
सोचो भाई !
मैं खटता हूँ और जुमन भाई भी खटते
एक तरह की खोली - झुग्गी में हम रहते
एक- सा जुआ सबके काँधे पर भारी है
एक- सा जीवन और एक सी लाचारी है
एक साथ जीना - मरना , रोना - गाना है
एक हमारा वर्ग , एक सा अफसाना है
सोचो भाई !
किसने यह दीवार उठाई सबके भीतर
कहीं बंगाली और कहीं गुजराती कहकर
जहर घुसाया गया नसों में मद्धम - मद्धम
हमको बोला गया कि हम हैं हिन्दू - मुस्लिम
कहीं बिरहमन , शेख , कहीं ऊँचा - नीचा का
और कहीं पर देश - प्रांत , अगड़ा - पिछड़ा का
कहीं मराठी और बिहारी कह लड़वाया
शक्तिहीन कर गया हमें , हर ज़ुल्म बढ़ाया
सोचो भाई !
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
पूछो , ऐसा क्यों है भाई !
कहो , कि ऐसा नहीं चलेगा
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....

              -------आदित्य कमल

Wednesday, 18 May 2022

सरकारी स्कूल बंद

निजीकरण के खिलाफ उमा भारती

बढ़ती महंगाई

लगातार बढ़ती महंगाई के बावजूद अगर आपको तेल, बिस्किट, चिप्स और नमकीन जैसे प्रोडक्ट उसी दाम में मिल रहे हैं तो इस भ्रम में मत रहिए कि कंपनियों ने इनके दाम नहीं बढ़ाए हैं। दरअसल, एफएमसीजी कंपनियां चिप्स, बिस्किट, नमकीन आदि के पैकेट का वजन घटाकर अपनी जेब भर रही हैं और अपकी जेब हल्का कर रही हैं। कंपनियों ने कच्चे माल की कीमतों में भारी उछाल के बाद बढ़ी हुई लगात की भरपाई के लिए यह तरीका निकाला है।https://www.google.com/amp/s/www.patrika.com/new-delhi-news/fmcg-companies-slashed-weight-of-products-to-gain-maximum-profit-7476046/%3famp=1

गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं

पच्चीस साल पहले बीजेपी जब पहली बार सत्ता में आई थी, तब भी हिंदुत्ववादियों ने कम हुड़दंग नहीं मचाया था। लेकिन आज जैसी अंधेरगर्दी तब नहीं थी। संविधान और लोकतंत्र का लिहाज था। तब एक ग़ज़ल कही थी। आज वह ग़ज़ल बहुत याद आ रही है, जिसे शेयर करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूं। मुलाहिजा फरमाएं...

 *ग़ज़ल* 

गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं
जो ज़िंदा हैं, वो गाढ़े जा रहे हैं 

निठल्लों की बड़ाई हो रही है,
जो कर्मठ हैं, लताड़े जा रहे हैं

शहर की फ़िक्र में हैं मुब्तला जो,
उन्हीं के घर उजाड़े जा रहे हैं

जिन्हें चलना था सीधी रहगुज़र पर,
वो रहबर आड़े-आड़े जा रहे हैं

जो पौधे आंधियों से बच गये थे,
वो अब जबरन उखाड़े जा रहे हैं

सफ़हे जो ख़ून से लिक्खे गये हैं,
वही चुन-चुन के फाड़े जा रहे हैं‌

इबादतगाहें रोंदी जा रही हैं,
सनमख़ाने बिगाड़े जा रहे हैं

गणित बच्चों का जो कर देंगे गड़बड़, 
रटाये वो पहाड़े जा रहे हैं

अखाड़े में है जिनसे भिड़ना मुश्किल,
वो साज़िश से पछाड़े जा रहे हैं

सताइश, शोहरतें, ईनाम, ओहदे,
जुगाड़ों से कबाड़े जा रहे हैं

चढ़ी हैं साकलें शेरों के मुंह पे,
जो गीदड़ हैं, दहाड़े जा रहे हैं

हुई है मौत गर तहज़ीब की तो,
बजाये क्यूं नगाड़े जा रहे हैं
                          -- *राकेश शर्मा*

Tuesday, 17 May 2022

कीमत से ज्यादा टैक्स तो अकेले केंद्र सरकार लेती है; मोदी राज में पेट्रोल पर टैक्स 3 गुना तो डीजल पर 7 गुना बढ़ा | Petrol Diesel Price ToolKit; Petrol Price During Narendra Modi (NDA) vs Manmohan Singh (Congress) | What is Fuel Duty? India Fuel Tax Explained - Dainik Bhaskar

दलित' शब्द के प्रयोग पर हाई कोर्ट ने लगाई रोक


ग्वालियर
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच ने जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए 'दलित' शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाने के आदेश दिए हैं। दरअसल, डॉ. मोहन लाल माहौर ने दलित शब्द पर आपत्ति जताते हुए जनहित याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि संविधान में इस शब्द का कोई उल्लेख नहीं है।


Sunday, 15 May 2022

पीकर मानूँगा

बड़ी मुद्दत से सजाया है मैंने शाम को।
पीकर मानूँगा  न गिरने दूँगा जाम को।।

           "सागर"

साक़िया!मन्दिर ओ मस्ज़िद नहीं,मयख़ाना है
देखना _यां भी ग़लत लोग ना आने लग जाएं?¿
*अहमद फ़राज़

Ek bilari wala gustakhi maaf ho
Saaki sharaab mat pi masjid me baith ker
Ek hi bottle kahi khuda na 
Chhen le🙏


थोक एवम खुदरा महंगाई

: थोक महंगाई में भी इजाफा हुआ है। सरकार की ओर से जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति नवंबर में बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गई, जो अक्तूबर में 12.54 प्रतिशत थी। इस आंकड़े के साथ थोक महंगाई 12 साल के उच्च स्तर पर पहुंच गई है। 


महंगाई ने आम आदमी को दिया तगड़ा झटका, मार्च में खाने-पीने की चीजें हो गईं इतनी महंगी

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मार्च 2022 में थोक महंगाई दर बढ़कर 14.55 फीसदी रही है. फरवरी में थोक महंगाई दर 13.11 फीसदी रही थी जबकि जनवरी में 12.96 परसेंट रही थी.


#महंगाई ।। तीन साल में लोहा 141%, एल्यूमिनियम 136, वायर 101 और प्लास्टिक पाइप 117 प्रतिशत हुआ महंगा | मकान बनाना एक बार फिर से महंगा हो गया है। तीन साल में लोहा 141%, एल्यूमिनियम 136, वायर 101 और प्लास्टिक पाइप 117 प्रतिशत महंगा हो गया है। बिना किसी ठोस कारण के सीमेंट फैक्ट्री वालों ने 50 रुपए प्रति बोरी कीमत बढ़ा दी। अभी तक 290 से 300 रुपए मिलने वाली सीमेंट की बोरी अब 350 रुपए से कम कहीं भी नहीं मिल �

Saturday, 14 May 2022

पटना और दिल्ली में पुस्तकालय

पटना में लोकनायक जयप्रकाश विश्व शांति प्रतिष्ठान द्वारा  "जयप्रभा पुस्तकालय एवं शोध संस्थान " चलाया जा रहा  है , यहाँ पुस्तकें दान में दी जा सकती है। पता एवं मो. व्हाट्सएप निम्नांकित है।   डॉ एम के मधु , निर्देशक , जयप्रभा पुस्तकालय एवं शोध संस्थान , भवन सं. 15 , पथ सं. 5 , पूर्वी पटेल नगर, पटना .800023 , बिहार  .  मो. तथा व्हाट्सएप . 9234768727


New Delhi 

मेरे पास विभिन्न प्रकाशकों की हजारों पुस्तकें हैं, इसमें वैचारिक क्रांतिकारी साहित्य आदिवासियों से संबंधित, इतिहास दर्शन तथा ढेरों उपन्यास और क्रांतिकारी कविताओं की पुस्तकें उपलब्ध है, आप हिन्दी अंग्रेजी की किसी भी प्रकाशक कि पुस्तकें हमसे मंगवा सकते हैं, हम कोशिश करेंगे कि उचित मूल्य पर आपको पुस्तकें उपलब्ध हो जाये!
अगर आप दिल्ली या संपूर्ण एनसीआर मे कही भी रहते हो तो  या कही भी बाहर से आये हो तो आप दिल्ली में मेरे निवास स्थान पर भी आकर पुस्तकें ले सकते हैं, अगर आप केवल पुस्तकों को पढना चाहते हैं, तोभी आपका मेरे घर में स्वागत है, वहाँ आप वातानुकूलित कक्ष में पुस्तकें पढ सकते हैं, लेकिन एक शर्त जो सभी के लिए अनिवार्य है, आप भोजन करके न आये, आपको मेरे साथ भोजन और चाय, काफी तथा नास्ता भी करना होगा! हाँ अगर पुस्तकों में कोई खास रुचि ना हो तब भी भोजन करने तो आ ही सकते हैं। मेरा वाट्सऐप नंबर 9839223957 है, यह मेरा फोन नंबर भी है, इसपर भी आप कभी भी दिन में 10 बजे से रात्रि 10 तक संपर्क कर सकते हैं। Swadesh Sinha https://www.facebook.com/100005071361573/posts/2139385019573856/ 

Friday, 13 May 2022

देश की आवो-हवा

कम्युनिष्ट सरकार ने 1918 में अनाज की कीमतों को तिगुना कर दिया



'लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि मजदूर वर्ग मध्यम किसान से झगड़ा करे। श्रमिक कुलक के साथ समझौता नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे मध्यम किसान के साथ एक समझौते की तलाश कर सकते हैं और मांग रहे हैं। मजदूरों की सरकार, बोल्शेविक सरकार ने इस काम को साबित कर दिया है।'

'हमने इसे (उस दिन) अनाज की कीमतों को तिगुना करके साबित कर दिया"; क्योंकि हम पूरी तरह से महसूस करते हैं कि मध्यम किसान की कमाई अक्सर निर्मित वस्तुओं के लिए वर्तमान कीमतों से अधिक होती है और इसे बढ़ाया जाना चाहिए।'

'प्रत्येक वर्ग-सचेत कार्यकर्ता मध्यम किसान को यह समझाएगा और धैर्यपूर्वक, दृढ़ता से, और बार-बार उसे बताएगा कि उसके लिए ज़ारों, जमींदारों और पूंजीपतियों की सरकार की तुलना में समाजवाद असीम रूप से अधिक फायदेमंद है।'

Vladimir Lenin
Comrade Workers, Forward To The Last, Decisive Fight!
Written: August 1918
CW Volume 28

https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1918/aug/x01.htm 

कम्पनी और किसान के माल में फ़र्क देखिए...

कम्पनी और किसान के माल में फ़र्क देखिए... 
आज सब्जी मंडी में पालक का भाव है- चार रुपये किलो. तीस रुपये में साढे सात किलो पालक. 
पालक को किसान सीधे खेत से काटकर मंडी में लारहे हैं. 
जब यह कम्पनी के पास होता है.. 
उदाहरण के लिए बिग बास्केट पर बीस प्रतिशत छूट के बाद आज पालक का भाव है 124₹ किलो.
नये कृषि कानून कंपनियों की मनमानी और बढायेन्गे. मिडिल क्लास को तो सामान किसी भी भाव मिले बस पांच प्रतिशत कैश बैक मिल जाय उसी में खुश. 

 *राजेश कुमार* के वाल से

It is because Small Peasants are willing to accept lower profit on their capital to be able to survive in the market. 

In the third volume of Das Kapital, Marx in fact mentions various processes which might 'conserve' peasant agriculture in the short to medium term. He noted, for example, that because peasant farmers were under no complusion to realize the average rate of profit on capital, grain prices would be low where peasant proprietorship predominated (Capital, Vol. III: 805-6).

Thursday, 12 May 2022

महंगाई की असली वजह कॉर्पोरेट मुनाफाखोरी ब्याज दरों की हेराफेरी के बजाय सीधे दाम घटाओ



4 मई को रिजर्व बैंक ने अचानक रेपो रेट में 0.4% व नकदी रिजर्व अनुपात (सीआरआर) में 0.5% की वृद्धि का ऐलान कर दिया। बताया गया कि बिना अग्रिम सूचना के ही मौद्रिक नीति कमिटी या एमपीसी की इमर्जेंसी बैठक आयोजित की गई जिसमें यह दरें घटाने का फैसला हुआ। वजह बताई गई कि महंगाई बढने की रफ्तार चिंताजनक है, खास तौर पर गवर्नर शक्तिकांत दास द्वारा खाद्य पदार्थों की बढती कीमतों का कई बार जिक्र किया गया, हालांकि महंगाई बढने और उससे देश की मेहनतकश गरीब जनता के जीवन में मचे हाहाकार की बात तो सभी को पहले से ही मालूम थी और यह दर कानूनी तौर पर रिजर्व बैंक के लिए तय उच्चतर सीमा अर्थात 6% लंबे समय से छू रही थी और मार्च में ही 6.95% पहुंच चुकी थी। इसके बावजूद रिजर्व बैंक पिछले कई महीनों से लगातार बढती महंगाई को कोई समस्या मानने से इंकार करते हुए आर्थिक वृद्धि तेज करने को ही सबसे जरूरी प्राथमिकता बता रहा था। इस वास्ते वह पूंजीपतियों को सस्ती दर पर पूंजी उपलब्ध कराने को ही इस वक्त अपनी मुख्य जिम्मेदारी मान रहा था, हालांकि कमिटी के एक मेंबर जयंत वर्मा ने पिछले एक साल से हर मीटिंग में महंगाई के बढने की चेतावनी देते हुए उस पर जल्द कदम उठाने की मांग की थी, मगर बाकी कमिटी इस समस्या से पूरी तरह इंकार कर रही थी। 8 अप्रैल को इस कमिटी की पिछली दोमाही बैठक हुई थी। उसमें महंगाई बढने के जोखिम को पहली बार स्वीकार करने के बावजूद भी सस्ती पूंजी उपलब्ध कराने और नकदी का प्रवाह बनाए रखने की प्रतिबद्धता जाहिर की गई थी, बस इसकी प्रचुरता की बात हटा ली गई थी। कुल मिलाकर इन आंकड़ों के विस्तार में जाने के बजाय हम कह सकते हैं कि महंगाई की समस्या से लगातार इंकार करते आ रहे रिजर्व बैंक द्वारा ली गई यह अचानक पलटी बताती है कि सरकार को भी महंगाई की वास्तविकता, एवं आगामी विकरालता, का पता है, मगर वह इसे मानने से अब भी इंकार कर रही है, और ब्याज दरों को घटाने की मुख्य वजह कुछ और है।

एक रिपोर्ट मुताबिक महंगाई के सार्वजनिक आंकड़ों के अतिरिक्त रिजर्व बैंक उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय, कृषि बाजारों एवं अन्य स्रोतों के जरिए नजर रख रहा था जिसमें पाया गया कि दाम न सिर्फ बढ रहे हैं बल्कि उनके बढने की रफ्तार पहले के अनुमानों से कहीं तेज है। रिजर्व बैंक को पता चला है कि अप्रैल में ही फुटकर महंगाई की दर 7.6% पहुंच जाने वाली है (हिंदुस्तान टाइम्स, 6 मई)। हालांकि इसकी गणना करने के तरीके की वजह से फुटकर उपभोक्ता महंगाई दर या सीपीआई महंगाई की वास्तविकता को पूरी तरह बयान नहीं करती। पर इसका इतनी तेजी से बढना भी वास्तविकता को इंगित तो करता ही है। उधर थोक महंगाई दर मार्च में ही 14.55% थी और यह लगातार ऊपर ही जा रही है। इससे पता चलता है कि महंगाई बढने से सारे इंकार के बावजूद आखिर मोदी सरकार इससे कुछ चिंतित जरूर हुई है और इस पर कुछ करते दिखना चाहती है ताकि बाद में वह कह सके कि उसने तो कीमतों पर नियंत्रण की पूरी कोशिश की, पर अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है, अतः महंगाई के लिए वह जिम्मेदार नहीं। इसका पता इसी बात से चलता है कि सरकार उन कीमतों को कम करने के लिए कुछ नहीं कर रही जो सीधे उसके नियंत्रण में हैं और जिन्हें कम कर अन्य जरूरी वस्तुओं की कीमतें भी कम की जा सकती हैं। पेट्रोलियम-गैस उत्पादों की यही स्थिति है। इनके वास्तविक मूल्यों पर केंद्र-राज्य सरकारों के लगभग डेढ गुणा अप्रत्यक्ष करों की वजह से न सिर्फ इनकी कीमतें आसमान पर है बल्कि लागत व यात्री-माल भाडा वृद्धि के जरिए इनकी वजह से सभी वस्तुओं की कीमतें बढ रही हैं। ऊपर से सरकारी तेल कंपनियां अभी भी कीमतों को कम बताते हुए डीजल पर 22 रु व पेट्रोल पर 7.5 रु लीटर घाटा होने की शिकायत कर रही हैं अर्थात कीमतों को और भी अधिक बढाना चाहती हैं। इसके लिए वे आपूर्ति में कटौती कर कृत्रिम कमी भी बना रही हैं (हिंदुस्तान टाइम्स, 6 मई)। खाद्य तेलों के दामों में मुनाफाखोरी पर हम पहले भी विस्तार से लिख चुके हैं। जीएसटी के अंतर्गत अप्रत्यक्ष कर कम करना, शिक्षा स्वास्थ्य यातायात आदि में बढते शुल्कों व भाडों को नियंत्रित करना जैसे कई और उदाहरण दिये जा सकते हैं जिन पर कार्रवाई कर सरकार जनता को जरूरी वस्तुओं के दामों में राहत दे सकती है। पर वैसा करने के बजाय वह बस ब्याज दरों व नकदी प्रवाह कुछ ऊपर नीचे की हेरफेर कर रही है जबकि मीडिया में खबरें हैं कि जीएसटी दरों में और भी वृद्धि का प्रस्ताव विचाराधीन है जिससे महंगाई और अधिक बढ़ जाएगी। ब्याज दरों में वृद्धि के दूसरे कारण पर हम बाद में आयेंगे।

इस संबंध में यह भी जान लेना उपयुक्त है कि जिस ब्याज दर पर व्यवसायिक बैंक अपनी सिक्युरिटीज या बांड्स रिजर्व बैंक के पास रेहन रख उससे अल्पावधि उधार लेते हैं उसे रेपो रेट कहा जाता है। माना जाता है कि इससे बैंकों की नकदी लागत बढ जायेगी और यह बैंकों द्वारा दिये जाने ऋणों पर ब्याज दर बढाने का संकेत है। नकदी रिजर्व अनुपात या सीआरआर बैंकों की जमाराशि का वह हिस्सा है जो उन्हें अपने या रिजर्व बैंक के पास नकद रखना अनिवार्य है अर्थात अपनी जमाराशि का इतना अंश वे ऋण नहीं दे सकते। मौजूदा स्थिति में इससे बैंकों के पास कर्ज देने के लिए उपलब्ध रकम 87 हजार करोड़ रुपये कम हो जायेगी। इससे भी उनकी लागत बढेगी और वे ब्याज दर बढाने को मजबूर होंगे। इन दोनों का संयुक्त प्रभाव यह बताया जाता है कि न सिर्फ पूंजीपतियों के लिए कर्ज लेना महंगा हो जायेगा, बल्कि मुश्किल भी। माना जाता है कि कर्ज लेना मुश्किल व महंगा होने से पूंजीपतियों के लिए जमाखोरी अलाभकारी हो जायेगी और वे अपने स्टॉक बेचने के लिए बाध्य होंगे। इससे कीमतें गिरेंगी। मगर यह वास्तव में कितना प्रभावी है इस पर हम बाद में लौटते हैं।

महंगाई के मौजूदा दौर में हमें यह भी जानना जरूरी है कि यह पिछले 5 दशक की पूंजीवादी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के संकट का परिणाम है जिसे कोविड व रूस उक्रेन युद्ध ने और गंभीर कर दिया है। हमारे पडोस में श्रीलंका में भारी संकट सर्वज्ञात है (इस पर अलग से एक लेख इसी अंक में) जहां आधिकारिक महंगाई दर तो 19% तक पहुंची है मगर बाजार में वास्तविक दामों पर आधारित गैरआधिकारिक अध्ययन इसे 55% तक बता रहे हैं। तुर्की में ताजा आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर 69% तक पहुंच गई है। विकसित पूंजीवाद देशों में भी महंगाई 1970 के दशक के सर्वोच्च स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने इसके 10% से ऊपर जाने की चेतावनी दे दी है। अमरीकी आंकड़े भी 8% पार कर रहे हैं। पेट्रोलियम का सबसे बड़ा भंडार व उत्पादन के बावजूद अमरीकी बाजार में डीजल व जेट ईंधन एक साल में दुगना महंगा हो गया है। ऐसी ही स्थिति अन्य कई जरूरी वस्तुओं की है। पाकिस्तान में नई सरकार ने आते ही आईएमएफ के साथ बात कर पहला ऐलान यही किया है कि पेट्रोल डीजल के दाम बढाने जरूरी हैं। ऐसी ही खबरें दुनिया के सभी कोनों से आ रही हैं।

मगर इसका कारण क्या है? पूंजीपति वर्ग का मीडिया प्रचार में जुटा है कि इसका मुख्य कारण पहले कोविड की वजह से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में आई बाधाएं तथा फिर उक्रेन में छिडी जंग से पैदा जरूरी वस्तुओं का अभाव व बढती लागत है। इस आधार पर पहले ही नहीं अभी तक भी बहुत से बुर्जुआ अर्थशास्त्री कीमतों पर नियंत्रण के किसी प्रयास तक का ही विरोध करते रहे हैं। उनके मुताबिक यह महंगाई अस्थायी है और इस महंगाई का इलाज खुद महंगाई है! ये बुर्जुआ विद्वान तर्क देते हैं कि कीमतें अधिक होंगी तो मुनाफा बढेगा जिससे उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश होने से बाजार में माल की आपूर्ति बढने से दाम कम होंगे जबकि कीमतों पर नियंत्रण से मुनाफा कम होगा और पूंजी निवेश नहीं होने से आपूर्ति कम होने से दाम और बढेंगे। अतः इनके मुताबिक महंगाई पर नियंत्रण के लिए असल में महंगाई को और तेजी से बढाना चाहिए! मगर जब पहले से स्थापित उद्योग ही आर्थिक संकट के कारण पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रहे और आपूर्ति शृंखला में संकट का शोर चारों ओर है तब इस तर्क के अनुसार नया पूंजी निवेश होकर इतनी जल्दी उत्पादन कैसे बढ़ जाएगा? आज के समय में तथ्यों के पूरी विपरीत यह बात सिर्फ भोले या धूर्त लोग ही कहते रह सकते है।  दूसरे, इजारेदारी पूंजी के युग में नए पूंजीपति द्वारा उनके नियंत्रण वाले उद्योग में प्रवेश के रास्ते में सिर्फ आर्थिक ही नहीं तमाम किस्म की बाधाएं हैं क्योंकि इजारेदार पूंजी बाजार को ही नहीं, राजसत्ता तक पर अधिकाधिक नियंत्रण करती जा रही है। भारत में ही अदानी-अंबानी के रास्ते की बाधाएं कैसे राजसत्ता द्वारा साफ की जा रही हैं, यह इसे समझने के लिए पर्याप्त है।  

बुर्जुआ विद्वानों के अनुसार महंगाई का दूसरा कारण (इस पर खास तौर से अमरीकी केंद्रीय बैंक का जोर है और जो ब्याज दरें बढाने का एक खास कारण है) वह यह कि उनके अनुसार अमरीका में रोजगार के बाजार में अधिक नौकरियों व कम श्रमिक आपूर्ति से मजदूरी बढी है जिससे एक और बढी उत्पादन लागत तथा दूसरी ओर बढी मजदूरी से ऊंची बाजार मांग महंगाई बढा रही है। फेडरल रिजर्व के प्रधान जेरोम पावेल तो लगभग कसम खा चुके हैं कि उन्हें अर्थव्यवस्था में मंदी मंजूर है मगर मजदूरी बढना नहीं। इसलिए फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढाना शुरू कर चुका है ताकि आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती आये और श्रमिकों की मांग कम हो मजदूरी गिर जाये। उनके मुताबिक मजदूरी गिरने से बाजार मांग भी सीमित होगी और महंगाई पर नियंत्रण होगा। खैर, मजदूरी जितनी बढ़ी उससे अधिक तो वह वास्तव में महंगाई बढ़ने से कम हुई क्रयशक्ति से पहले ही कम हो चुकी है, पर इस बात पर आज बहुत से बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी भरोसा नहीं करते कि ब्याज दरों के जरिए महंगाई पर नियंत्रण किया जा सकता है। खास तौर पर अगर महंगाई के लिए आपूर्ति की कमी को जिम्मेदार माना जाए तब तो ऊंची ब्याज दरों से पूंजी महंगी होने से पूंजी निवेश रुकेगा और आपूर्ति और भी कम हो जाएगी, तब इससे महंगाई कैसे नियंत्रित होगी। असल में ब्याज दर की मुख्य भूमिका औद्योगिक व वित्तीय पूंजीपतियों के बीच में मुनाफे के बंटवारे में है, कीमतों के नियंत्रण में बहुत कम।     

निश्चित रूप से उपरोक्त दो कारणों का महंगाई में भूमिका से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु हमने 'यथार्थ' के मार्च अंक में कई उदाहरण देते हुए इन तर्कों पर विस्तार से जवाब देते हुए लिखा था कि यह दोनों ही मुख्य कारण नहीं है। इसके बजाय महंगाई का मुख्य कारण बाजार पर नियंत्रण रखने कॉर्पोरेट पूंजीपतियों खास तौर पर इजारेदार पूंजीपतियों की सुपर मुनाफे की हवस है। हम उन तर्कों को यहां दोहरायेंगे नहीं (लेख यहां पढा जा सकता है https://tinyurl.com/2p872x98), बस इतना जोडेंगे कि अमरीका के ही इकॉनोमिक पालिसी इंस्टीट्यूट ने कंपनियों के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों से बढ़े दामों के के हाल में प्रकाशित अध्ययन में बताया है कि दाम बढ़ने का मुख्य कारण (54%) कॉर्पोरेट मुनाफा है जबकि मजदूरी का बढना इसके लिए नाममात्र अर्थात सिर्फ 7.9% ही जिम्मेदार है (https://tinyurl.com/4wcxk55m)। इसके अतिरिक्त भी यह सार्वजनिक जानकारी है कि कोविड, उक्रेन युद्ध व रिकॉर्ड महंगाई के दौर में कॉर्पोरेट मुनाफे भी कई दशकों के रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं। अगर पूंजीपति लागत बढने से परेशान हैं तो उनके मुनाफे इतनी रिकॉर्ड तेजी से कैसे बढ रहे हैं? एक ही उदाहरण दें कि जिस बिजली क्षेत्र में कोयले-गैस की ऊंची कीमतों के हवाले से कॉर्पोरेट बिजली की कमी का शोर मचा रहे हैं उसी क्षेत्र में अदानी पावर का मुनाफा 2021 की मार्च तिमाही के 13 करोड़ से बढ़कर 2022 की मार्च तिमाही में 4645 करोड़ रु हो गया। 

किंतु इस पर विस्तृत चर्चा में जाये बगैर हम फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की संभावना से रिजर्व बैंक व भारत सरकार में मचे हडकंप का जिक्र करेंगे जिसकी वजह से फेडरल रिजर्व के कुछ घंटे पहले ही रिजर्व बैंक ने पहले की घोषणाओं से पलटी मारते हुए अचानक न सिर्फ ब्याज दरों में वृद्धि कर दी बल्कि नकदी उपलब्धता को भी संकुचित कर दिया, और कमाल की बात यह कि फिर भी पूंजीपति वर्ग की पूंजी की जरूरतों का ख्याल (accomodate) रखने का आश्वासन भी दिया। 

अमरीकी ब्याज दरों से जुड़ी इस वजह को समझने के लिए हमें भारत के व्यापार व भुगतान संतुलन पर एक सरसरी नजर डालनी होगी। हालांकि पिछले दिनों हम सबने पिछले वित्तीय वर्ष में निर्यात में 24% वृद्धि हो उसके 400 अरब डॉलर पार होने की बडी खबरें देखीं, मगर जिन्होंने खबर को नीचे तक पढा उन्हें यह भी जानने को मिला कि आयात इससे भी अधिक तेजी से बढकर 600 अरब डॉलर पार कर गये। अप्रैल के व्यापार आंकड़े आये तो यही रूझान जारी रहा और मासिक व्यापार घाटा 20 अरब डॉलर पार हो गया। अब समस्या है कि इस व्यापार घाटे को भुगतान संतुलन में संकट में बदलने से कैसे रोका जाए? याद रहे कि नेट आयातक होने के कारण भारत 1991 व 2013 में ऐसे ही भुगतान संकट से गुजर चुका है जैसे अभी श्रीलंका गुजर रहा है। पहली बार इसके लिए हवाई जहाजों में भरकर सोना स्विट्जरलैंड के बैंकों में गिरवी रखने के लिए भेजना पडा था तो दूसरी बार रघुराम राजन की गवर्नरी के वक्त ऐसी स्थिति आने के पहले अनिवासी भारतीयों आदि को ऊंचे ब्याज दर का प्रलोभन देकर अपना विदेशी मुद्रा का पैसा भारत में जमा करने के लिए राजी किया गया था।

यहां कोई कह सकता है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार श्रीलंका की तरह खाली नहीं है बल्कि 600 अरब डॉलर से अधिक है। अतः भुगतान संकट का कोई खतरा नहीं है। पर हर महीने निर्यात से 20 अरब डॉलर अधिक आयात करने वाले मुल्क के पास विदेशी मुद्रा का भंडार कैसे इकट्ठा हुआ है? यह भंडार जर्मनी, जापान, कोरिया, चीन आदि की तरह अधिक निर्यात से अर्जित न होकर कर्ज के धन का भंडार है जो मुख्यतः बैंकों या कंपनियों ने विदेशों से लिया है या शेयर बाजार में मुनाफा कमाने के लिए आई मुनाफाखोर वित्तीय पूंजी है। समस्या है कि मुनाफे के लालच में जितनी तेजी से यह विदेशी पूंजी आती है, दूसरी जगह अधिक व सुरक्षित मुनाफे के लालच में उतनी ही तेजी से जा भी सकती है। यहीं पर फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढाने का महत्व है क्योंकि उससे मुनाफे के लिए अमरीकी बाजार का आकर्षण बढ जाता है जो फिलहाल तुलनात्मक रूप से पूंजी के लिए अधिक सुरक्षित भी माना जाता है। 2013 का संकट भी कुछ ऐसे ही परिस्थितियों की वजह से हुआ था। अतः अमरीका में ब्याज दरें बढने की संभावना को देखते ही इमर्जेंसी बैठक बुला रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने भी ब्याज दरें बढा दी हैं, हालांकि बताया जा रहा है कि महंगाई पर नियंत्रण के लिए ऐसा किया गया है। परंतु जाहिर है कि वास्तव में महंगाई पर नियंत्रण के लिए सरकार जो कदम वास्तव में उठा सकती है वह करने का उसका कोई इरादा नहीं है। हो भी कैसे महंगाई का दौर पूंजीपतियों के लिए ऊंचे मुनाफे का मौका जो लाया है जबकि मजदूर वर्ग पर एक और टैक्स जिससे उनकी मजदूरी जीवन निर्वाह के न्यूनतम स्तर से भी नीचे जा रही है।  

भारत के नरोदवादियों का अवसरवाद


भारत के नरोदवादी डॉ. अम्बेडकर के उद्धरण का खूब इस्तेमाल करते हैं कि "भारत में मज़दूर वर्ग के दो शत्रु हैं – ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद"। लेकिन बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। डॉ अम्बेडकर आगे लिखते हैं कि कांग्रेस, सोशलिस्ट और वामपन्थी तीनों अस्पृश्य कामगारों के विशेष दुश्मन ब्राह्मणवाद से संघर्ष करने को तैयार नहीं हैं।

वास्तव में डॉ. अम्बेडकर के उद्धरणों को काट-छाँट कर मार्क्सवाद के साथ उसके समन्वय की कोशिश करना मार्क्सवाद नहीं बल्कि सार-संग्रहवाद है। जबकि सच तो यह है कि डॉ अम्बेडकर अपने पूरे विश्ववदृष्टिकोण में पूँजीवादी थे।

1936 में डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद को भारत में मज़दूर वर्ग का मुख्य शत्रु घोषित किया था। वहीं आज़ादी के तुरन्त बाद पूँजीवादी नेहरू की सरकार बनते ही जब नेहरू सरकार ने तेलंगाना में जमीन के बँटवारे के लिए लड़ रही दलित-मेहनतकश आबादी के ऊपर सेना भेजकर दमन किया तो न केवल इस पर चुप रहे बल्कि सरकार में भी बने रहे।
वास्तव में डॉ. अम्बेडकर के विचारों में इतना स्कोप है कि संघी फ़ासिस्ट भी उनके विचारों को इस्तेमाल कर लेते हैं। कुछ उदाहरण देखिए -

"मैं आपको कम्युनिस्टों से सावधान रहने की चेतावनी देता हूं। वो (कम्युनिस्ट) मजदूरों के हितों के खिलाफ काम करते हैं और मेरा विश्वास है कि कम्युनिस्ट मजदूरों के दुश्मन हैं।
 - डॉ बी आर अम्बेडकर, नागपुर चुनावी सभा, 4 दिसम्बर 1945.

"कम्युनिस्टों ने मजदूरों का हमेशा शोषण और दमन किया है। मैं कम्युनिस्टों का पक्का दुश्मन हूँ।"
- डॉ बी आर अम्बेडकर, बहिष्कृत जिला सम्मेलन, मसूर - सतारा जिला, सितंबर 1937

"कोई भी धर्म जो साम्यवाद को जवाब नहीं देगा वो ज़िन्दा नहीं रह सकता।"
- डॉ. बी आर अम्बेडकर, 5 फरवरी 1956

"कम्युनिज्म आपको जंगल की तरफ ले जाएगा, अराजकता की ओर धकेलेगा। कम्युनिस्ट कम्युनिज्म की स्थापना के लिए विरोधियों की हत्या करने से भी हिचकिचाते नहीं है। कम्युनिस्ट अराजक हैं, उन्हें हिंसा का मार्ग प्रिय है "
- डॉ बी आर अम्बेडकर, विश्व बौद्ध सम्मलेन, काठमांडू - नेपाल, (तारीख उपलब्ध नहीं है)

इतना ही नहीं, काल्पनिक समाजवादी चार्ल्स फूरिये के एक प्रसिद्ध उद्धरण 'किसी समाज की प्रगति को महिलाओं की प्रगति से मापा जा सकता है' को भी डॉ अम्बेडकर के नाम से अक्सर चस्पा कर दिया जाता है, जबकि सच तो यह है कि महिलाओं के प्रति भी डॉ अम्बेडकर के जो विचार थे, वह बुर्ज़ुआ जनवादी दार्शनिकों से भी पीछे थे। यहाँ तक कि महिलाओं के संसद में भागीदारी के सवाल पर भी डॉ अम्बेडकर ने टिप्पणी की थी कि "स्वधर्म छोड़कर महिलाएँ राजनीति करती घूमें इसके जैसी शर्म की बात कोई और नहीं" (डॉ. भीमराव अम्बेडकर : लेख तथा वक्तव्य भाग 3 (वर्ष 1946-1956), खण्ड – 40, पृ. – 467)

अगर ऐसे उद्धरणों की काट-छाँट की जाये तो विवेकानन्द से लेकर बहुत से लोगों को मार्क्सवाद के साथ फिट किया जा सकता है।
वास्तव में अपने तात्कालिक और संकीर्ण राजनीतिक लाभों के लिए विचारधारा और राजनीति में इस तरह का घालमेल निकृष्ट कोटि का राजनीतिक अवसारवाद है।

Wednesday, 11 May 2022

अनुसूचित जाति के लोगो को मंदिर में जाने से रोक गया

राजस्थान: दलित जोड़े के मंदिर में प्रवेश को लेकर हुए विवाद में पुजारी गिरफ्तार





मुरादाबाद: अनुसूचित जाति की महिलाओं का आरोप- पुजारी ने मंदिर में घुसने से रोका, नहीं निभाने दी रस्म





आपकी बात: अब भी दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारने के मामले क्यों हो रहे हैं?

पत्रिकायन में सवाल पूछा गया था। पाठकों की मिलीजुली प्रतिक्रियाएं आईं, पेश हैं चुनिंदा प्रतिक्रियाएं।


https://www.patrika.com/opinion/why-are-there-still-cases-of-dalit-grooms-being-taken-off-the-mare-7337503/

Tuesday, 10 May 2022

हिजाब प्रकरण


भारत में मुसलमान, अपनी भारतीयता का नहीं, अपनी इस्लामिक पहचान को वरीयता देता है, वैसे ही सिख अपने सिख पहचान को वरीयता देता है, लेकिन इस्लामिक पहचान को ही अलगाव की जड़ माना जाता है, और हिन्दू मुस्लिम विवाद का मुख्य कारण बनाया जा रहा है...!


भारतीयता की पहचान किसी एक धर्म की पहचान को वरीयता देना नही, बल्कि सभी धर्मों की पहचान को सम्मान देना है।


हिजाब प्रकरण पर इंक़लाबी छात्र मोर्चा का बयान-


कर्नाटक में एक स्कूल के मैनेजमेंट द्वारा मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाना मुस्लिमों के जनवादी अधिकारों पर एक साम्प्रदायिक फासीवादी हमला है - एग्जीक्यूटिव कमिटी, इंक़लाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद


कर्नाटक के एक स्कूल में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनकर प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाने की इंक़लाबी छात्र मोर्चा कड़े शब्दों में निंदा व भर्त्सना करता है और इसे मुस्लिम स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की एक घृणित कोशिश के रूप में भी देखता है। लंबे संघर्षों के बाद तमाम धर्मों व संप्रदायों से जुड़ी स्त्रियां पितृसत्ता की बेड़ियों को तोड़कर थोड़ा- बहुत शिक्षण संस्थानों तक अब आना शुरू की हैं। इस तरह का तानाशाहीपूर्ण रवैय्या निश्चित रूप से मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा से दूर करने व पितृसत्ता की गुलामी में धकेलने का ही काम करेंगे। हमारा संगठन उस मुस्लिम छात्रा को क्रांतिकारी सलाम पेश करता है जिसने भगवा गमछाधारी लम्पटों के 'जय श्रीराम' के आक्रामक नारे का जवाब बहादुराना ढंग से 'अल्लाह-हु-अकबर' का नारा लगाकर दिया। उस मुस्लिम छात्रा के 'अल्लाह-हु-अकबर' का नारा लगाने का विरोध वही लोग कर रहे हैं जो साम्प्रदायिक फासिस्टों द्वारा बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद वहां फिर से बाबरी मस्जिद के निर्माण की जनवादी मांग उठाने की बजाय स्कूल व अस्पताल बनाने की मांग कर रहे थे। ऐसे ही लोगों को उस छात्रा में अपने धर्म के प्रति कट्टरता दिखाई पड़ रही है। जबकि यह उस छात्रा की एक स्वाभाविक व न्यायसंगत प्रतिक्रिया थी। जब हमला मुस्लिम होने की वजह से किया जाएगा तो जवाब भी मुस्लिम के रूप में ही मिलेगा। जहां तक मुस्लिम अल्पसंख्यकों के कट्टरता की बात है, बहुसंख्यकों की कट्टरता व उनके द्वारा अल्पसंख्यकों की अस्मिता पर लगातार बढ़ता हमला ही उसके लिए खाद- पानी का काम कर रहा है। असुरक्षाबोध से कट्टरता पैदा होती है। कर्नाटक हिजाब प्रकरण सिर्फ और सिर्फ आरएसएस- बीजेपी का एक नया हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक एजेंडा है। जिसके माध्यम से वो कर्नाटक और दक्षिण भारत को भी हिंदुत्व की साम्प्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला बनाना चाहते हैं। स्त्रियों की शिक्षा के सवाल और पितृसत्ता से उनकी मुक्ति को लेकर इनके विचार व सरोकार किसी से छिपे नहीं है।


इंक़लाबी छात्र मोर्चा का यह स्पष्ट मानना है कि बुर्का, हिजाब या किसी अन्य धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल करने या न करने के बारे में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ उस महिला का है। इस आधार पर किसी को शिक्षा के अधिकार से वंचित करना तानाशाही है। इन धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से कोई अपनी असहमति जरूर रख सकता है लेकिन उसे जबरदस्ती अपना विचार किसी पर थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। शिक्षा से चेतना आती है। चेतना आएगी तो लड़कियां खुद सोचेंगी की उनके लिए क्या सही है और क्या गलत। अपने धार्मिक व सांस्कृतिक रीति- रिवाजों का पालन करना, अपने धर्म व संस्कृति के हिसाब से अथवा अपने मन- माफिक कपड़े पहनना हर व्यक्ति का बुनियादी जनवादी अधिकार है। स्कूल व शिक्षण संस्थानों का काम छात्र- छात्राओं को वैज्ञानिक व तर्कपरक शिक्षा देना है, ताकि छात्र- छात्राएं स्वयं सही निर्णय ले सकें। स्कूल व शिक्षण संस्थानों का काम यह तय करना नहीं है कि कौन क्या पहनकर पढ़ने आएगा। वैसे तो हम शिक्षण संस्थानों में किसी प्रकार के ड्रेस कोड का विरोध करते हैं लेकिन अगर कोई संस्था किसी प्रकार का ड्रेस कोड तय भी करे तो वो बाध्यकारी नहीं होना चाहिए। यह व्यक्ति की धार्मिक व निजी स्वतंत्रता और उसकी गरिमा के खिलाफ है। व्यक्तियों की धार्मिक व निजी स्वतंत्रता का ध्यान रखा जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति या संस्था किसी भी विषय पर अपना मत रखने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन वो अपना मत किसी पे थोपने का अधिकार नहीं रखता। भारत एक बहु धार्मिक व बहुसांस्कृतिक देश है। यहां अलग- अलग बोलियां हैं, भाषाएं हैं, खान- पान हैं, पहनावे हैं। सभी लोगों पर एक नियम थोपना तानाशाही के सिवाय और कुछ नहीं है। भारत का संविधान भी लोगों को धार्मिक व नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह अलग है कि अब ये बातें सिर्फ संविधान के किताब की शोभा बढ़ाने से ज्यादा महत्व नहीं रखतीं।


इंक़लाबी छात्र मोर्चा का यह स्पष्ट मत है कि हिजाब, बुर्का, घूंघट, मंगलसूत्र, सिंधुर ये सब पितृसत्ता की निशानी हैं। हम इनके पक्ष में नहीं हैं। लेकिन हम इन सब चीजों से असहमत होते हुए भी अगर कोई स्त्री अपनी मर्जी से यह सब चीजें धारण करती है तो उसको जबरदस्ती ऐसा करने से रोकने के सख्त खिलाफ हैं। यहां मामला पूरी तरह से जनवाद का है। हालिया विवाद को सह देने वाले आरएसएस- बीजेपी जैसे फासीवादी संगठनों का इतिहास उठाकर देखें तो वो अपने जन्म से ही मुस्लिमों के खिलाफ साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर सत्ता तक पहुंचने की कोशिश करते रहे हैं। खासतौर पर 2014 में बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से उसके मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक कार्यवाइयों में और तेजी आई है। इसके लिए वो रोज CAA-NRC, ट्रिपल तलाक, लव जिहाद, सार्वजनिक जगहों पर नमाज पढ़ने, इस्लामिक पोशाक पहनने, अयोध्या-काशी-मथुरा व इतिहास की तमाम मनगढंत बातों जैसे नए- नए मुद्दे लाकर मुस्लिमों के खिलाफ बाकी जनता के मन में साम्प्रदायिक उन्माद भड़काते हैं ताकि उसकी आड़ में वो दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, मजदूरों, किसानों, आदिवासियों व मुस्लिमों पर अपनी साम्राज्यवाद परस्त व दलाल पूंजीवादी आर्थिक नीतियां थोप सकें व अपना सांस्कृतिक वर्चस्व बनाये रख सकें। असल में आरएसएस- बीजेपी का मुख्य एजेंडा भारत में ब्राह्मणवादी- सामंती पेशवा राज कायम करने की है। भले ही इसके लिए देश को साम्राज्यवादियों के अधीन ही क्यों न करना पड़े। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दलाली करने का इनका इतिहास जगजाहिर है। देश को मिली झूठी आजादी और साम्राज्यवाद- सामन्तवाद विरोधी राष्ट्रीय व जनवादी क्रांति न होने की वजह से आज भी भारत एक अर्द्ध सामंती- अर्द्ध औपनिवेशिक देश बना हुआ है। लड़के- लड़कियों को आज भी अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी तक चुनने का अधिकार नहीं है।


 जो लोग लव जिहाद जैसे साम्प्रदायिक और पितृसत्तात्मक कानून लाकर दो बालिगों को अपना जीवनसाथी चुनने से रोकते हैं, जो वर्ण व्यवस्था और सती प्रथा का समर्थन करते हैं, जो महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं देना चाहते, आज उन्हें सिर्फ इस्लाम में पितृसत्ता दिख रही है और वो खुद को मुस्लिम महिलाओं का हितैषी घोषित कर रहे हैं। जो लोग देश का मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री रहते हुए और संविधान की कसम खाकर भी एक धर्म विशेष के बाबा बने हुए हैं, पंडे- पुजारियों का वस्त्र पहनते हैं, दिन रात खुलेआम एक धर्म विशेष का प्रचार करते हैं आज वो मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनकर स्कूल आने पर रोक लगा रहे हैं। इनकी घटिया राजनीति और मंसूबों को समझने व उजागर करने की जरूरत है। यह इनकी घृणित फासीवादी सोच ही है कि जो ये न खाएं वो कोई न खाए, जो ये न पहनें वो कोई न पहने। आज जिस पैमाने पर इन्होंने जनता की जनवादी चेतना को कुंद करने का काम किया है वो अभूतपूर्व है। वो चाहे दलित हों, चाहे पिछड़े हों, चाहे महिलाएं हों सभी तबकों के एक हिस्से का साम्प्रदायिकरण करने में ये कामयाब हुए हैं। इसके लिए वो तमाम राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अपने निहित स्वार्थों की वजह से अपने कार्यकर्ताओं व जनता की जनवादी राजनीतिक चेतना बढ़ाने की जगह उन्हें अपना पिछलग्गू बनाये रखने का काम किया है और आज भी कर रहे हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि आरएएस- भाजपा जैसे साम्प्रदायिक फासीवादी दल सिर्फ मुस्लिमों के दमन तक ही सीमित रहने वाले हैं वे बहुत भोले हैं। अगर इन पर लगाम नहीं लगाया गया तो कल को ये सिखों को पगड़ी नहीं बांधने देंगे, ईसाइयों को चर्च नहीं जाने देंगे, दलितों व महिलाओं को स्कूल नहीं जाने देंगे। वैसे भी देश तो सिर्फ कहने के लिए ही धर्मनिरपेक्ष है। कौन नहीं जानता कि हमारे देश में शिक्षण संस्थानों से लेकर, थाना, कोर्ट- कचहरी और तमाम संस्थाएं ब्राह्मणवादी हिदुत्व के रंग में ही रंगे हुए हैं। 


आज राज्य मशीनरी सहित देश की तमाम संस्थाओं पर साम्राज्यवाद परस्त ब्राह्मणवादी हिंदुत्व फासीवादियों का कब्जा है। न्यायपालिका जिसे कथित तौर पर नागरिक अधिकारों का संरक्षक माना जाता है, इन तमाम मसलों पर उसकी चुप्पी किसी को हैरान करने वाली नहीं है। भारत की न्यायपालिका वास्तव में मनुपालिका है। इससे यह उम्मीद करना कि वो आपके जनवादी और नागरिक अधिकारों की हिफाजत करेगी खुद को धोखा देने के समान है। अनगिनत मामलों में इसका चरित्र स्पष्ट हो चुका है। आज जरूरत है कि देश में मुकम्मल जनवादी व धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए क्रांतिकारी जन संघर्ष को तेज किया जाए और देश में चल रही नवजनवादी क्रांति को मजबूत बनाया जाए ताकि सभी वर्गों व संप्रदायों के जनवादी अधिकारों की गारंटी की जा सके।

                                         इंक़लाब ज़िंदाबाद!


                          एग्जीक्यूटिव कमिटी(EC)

                  इंक़लाबी छात्र मोर्चा(ICM), इलाहाबाद


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काश वो लड़की इन्कलाब जिन्दाबाद कहती


इस देश को सुंदर बनाने में सभी कौमों की भागीदारी रही है, यह भारतीय गंगा जमुनी सभ्यता का एक बेहद खूबसूरत मेल है और इस भारतभूमि का सौभाग्य है कि इन तमाम कौमों में मुसलमानों की भागीदारी इस सुंदर बनाने की प्रक्रिया में ज्यादा रही है। दुनिया का हर कदम आगे की ओर बढ़ रहा है‌। समाज , राजनीति और विज्ञान हर क्षेत्र में परिवर्तन के नये कीर्तिमान बनाने की होड़ लगी है लेकिन एक अपना मुल्क है कि जहां हर चीज  उल्टी दिशा में चल रही है और उसकी जय जयकार हो रही है। कर्नाटक की अल्लाह हू अकबर वाली लड़की निश्चित तौर पर एक साहसी लड़की है लेकिन भगवा गुंडों की घेराबंदी से घिरी उस लड़की के अल्लाह हू अकबर में प्रतिरोध का  अंश नहीं बल्कि पूरी तरह प्रतिशोध के विस्फोटित होते बीज थे और पूंजीवाद इस टकराव को यथावत बनाए रखना चाहता है। भारत के इस घिनौने पुरुषवादी मानसिकता के समाज में हर जाति-धर्म की स्त्री हिजाब में है यह जरूरी नहीं कि कपड़े का ही हिजाब हो, मध्ययुगीन दकियानूसी रीति रिवाजों  की कथित पवित्रता को बनाए रखने के लिए हर धर्म आज के समय में लालयित है और यह कपड़े के हिजाब से भी भयावह और जानलेवा है।   जरा ठहरकर सोचिए यदि वह लड़की हिजाब संस्कृति के विरुद्ध खड़ी होती और ज्ञान विज्ञान के जरिए पुरातनपंथी जड़ समाज की आलोचना करती तो अभी तक उसका क्या हस्र हुआ होता। लेकिन उसने तो उसी संस्कृति को आगे बढ़ाने का उग्र रूप रख लिया जिस संस्कृति को बनाए रखने के लिए हर धर्म की दिशा अपने रूढ़िवादी मार्गों का विस्तार करने में लगा है इसीलिए एक मौलाना ने तो उस लड़की को 5 लाख रुपए देने की तुरंत घोषणा तक कर डाली। यह सब त्वरित तौर पर इसलिए होता है कि कहीं कोई स्त्री अगर संवेदनहीन धर्म के विरोध में पहलकदमी लेने की कोशिश कर रही है तो उसे "ऐसे अल्लाह हू अकबर वाली लड़कियों का उदाहरण देकर" हतोत्साहित किया जा सके डराया धमकाया जा सके। लेकिन जो भी हो इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा प्रायोजित कर्नाटक के इस सस्ते मनोरंजन का आशय इतना ही है कि यह व्यवस्था हर एंगल से स्त्री समाज का सिर्फ इस्तेमाल ही कर सकती है। मुझे तो इन कम्युनिस्टों पर बड़ा तरस आ रहा है जो कर्नाटक मामले में स्त्रियों को शिक्षा से बेदखल करने का स्यापा मचा रहे हैं। दरअसल वामपंथियों के चंगुल में फंसा "स्त्री मुक्ति विमर्श" से ही स्त्री संघर्षों की दशा दयनीय हुई है। अब इन्हें कौन समझाए कि कोई भी शिक्षा पद्धति मूल रूप से स्त्रियों के लिए है ही नहीं। जो भी शिक्षा है उस शिक्षा के जरिए सिर्फ और सिर्फ इस पुरुष प्रधान मानसिकता वाली व्यवस्था को ही शक्तिशाली बनाया जाता रहा है और स्त्रियों को पुरुषों के अधीन ही रहने के इस षड्यंत्र में स्त्रियों का ही इस्तेमाल सबसे ज्यादा हुआ है। इसलिए स्त्रियों के शिक्षा पर हमले का तो सवाल ही नहीं है। हम स्त्रियों की कोई जाति धर्म नहीं है इसलिए हमें इस घूंघट हिजाब पर्दा प्रथा के विरुद्ध खड़े होकर इस पुरुषवादी समाज के विरुद्ध राजनीतिक स्टैंड लेने की जरूरत है हमारे संघर्ष बहुत ही दुरूह और आत्मघाती हैं और इन संघर्षों की सफलता और पवित्रता की चिंता किए बगैर पहले हमें तनकर सवाल पूछने के लिए हिम्मती होना होगा। हमारे संघर्षों ने इतिहास में सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के  समूचे ताने-बाने को बदला है और आगे भी यह संघर्ष जारी रहेंगे। हिजाब संस्कृति बनाये रखने की चिंता में अपनी सेहत खराब कर डालने वाले बुद्धिजीवयो हिजाब पहनने की संस्कृति की जय जयकार करने से बाज आओ , हमें मालूम है तुम हिजाब में स्त्री देह नहीं बल्कि अपने मंसूबों को छिपा रहे हो।

                - वर्षा गायकवाड़

                  नांदेड़ , महाराष्ट्र !


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13 Feb 2022


सोशल मीडिया पर सक्रिय वामपंथी साथियों का एक हिस्सा उन वामपंथियों की आलोचना बड़ी झल्लाहट के साथ कर रहा है, जो मुस्लिम लड़कियों द्वारा फासिस्ट गुंडों के सामने सर ऊँचा कर घुटने टेकने से मना करने और प्रतिरोध स्वरूप हिज़ाब ओढ़ने की हिम्मत की, तारीफ़ कर रहे हैं, उनका समर्थन कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि उन साहसी लड़कियों का समर्थन करना इस्लामिक कट्टरता, पित्रसत्तात्मक सोच का समर्थन करना है और कम्युनिस्टों को ऐसा नहीं करना चाहिए. बल्कि इससे भी आगे बढ़ते हुए, 'इन लोगों को इतना भी मार्क्सवाद नहीं समझता' कहकर उन्हें लताड़ भी रहे हैं.  


मैं भी उन बहादुर मुस्लिम लड़कियों के साथ हूँ जिन्होंने हिंसा पर उतारू और पुलिस प्रशासन की शह प्राप्त फासिस्ट गुंडों की धमकियों से डरने से दृढ़ता से मना कर दिया और चुनौती देने की हिम्मत की कि हम पहनेंगे जो करना है कर लो. मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ ,ये बात एक उदहारण से समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.


'सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक आडम्बर नहीं होने चाहिएं.' फंडूओं को छोड़कर शायद ही इस बात से कोई ऐतराज़ करे. लेकिन यदि एक धार्मिक समुदाय को सरकार द्वारा आबंटित प्लाट पर मस्जिद ना बनाने दी जा रही हो, प्रशासन द्वारा कुछ चुनिन्दा स्थानों को नमाज पढ़ने के लिए आबंटित करने पर भी वहाँ नमाज ना पढ़ने दी जा रही हो, नमाज़ पढ़ने के विरुद्ध आपति प्रशासन-पुलिस में दर्ज़ ना कर नमाज़ पढ़ रहे लोगों को तरह तरह से, अश्लील, भड़काऊ हरक़तें लगातार कर डराया जा रहा हो, पुलिस तमाशबीन बनी खड़ी हो, पुलिस में नमाजियों द्वारा शिकायत करने पर पुलिस खुद उन्हें ही धमका रही हो, गुंडों के पक्ष में डटी हुई हो, नमाज़ विरोधी समुदाय अपना हर धार्मिक आयोजन सार्वजनिक स्थानों पर लाउड स्पीकर लगाकर ही करता हो और हर जुलुस मुस्लिम मोहल्लों से निकालने के लिए ही अड़ा रहता हो, तो आप क्या करेंगे? क्या ये अभी भी वही सामान्य मुद्दा है कि सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ क्यों पढ़ी जा रही है? इस भयंकर प्रताड़ना के विरुद्ध डट जाना भी क्या कठमुल्लों का साथ देना माना जाएगा? 


भाजपा और संघ परिवार बहुत सोच समझकर एक- एक कदम फासीवाद घटाटोप को गहरा करने की ओर उठा रहे हैं. हर क़दम पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का अध्ययन कर रहे हैं. किसी भी क़दम को पीछे लेने को तैयार नहीं हैं बल्कि एक-एक कर प्रशासन के हर अंग को अपने चंगुल में लेते जा रहे हैं. परिस्थितियों की द्वंद्वात्मक पद्धति की जगह यांत्रिक सोच का शिकार हो फासिस्टों का एस स्टेज में विरोध ना करना एक भयंकर भूल होगी.

Satbir singh


https://www.facebook.com/100001294390337/posts/4811518178901281/



साम्प्रदायिक ताकतों को शिक्षा से दूर करो!

शैक्षिक समस्याओं के खिलाफ छात्रों की एकता को मजबूत करो!

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स्कूल-कॉलेजों में यूनिफॉर्म के नियम लागू करने का मामला कर्नाटक हाई कोर्ट तक पहुंच गया है और जल्द ही इस पर कोर्ट में सुनवाई शुरू होगी।  लेकिन कर्नाटक राज्य की बीजेपी सरकार ने फैसले का इंतजार किए बिना स्कूलों और कॉलेजों में यूनिफॉर्म अनिवार्य कर दी है। ऐसे समय में जब यह मामला कोर्ट में विचाराधीन है सरकार का यह कदम बेहद निंदनीय है। 


भगत सिंह, नेताजी जैसे अन्य सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने धर्म को शिक्षा से दूर रखने के लिए कहा था। उन्होंने कहा था कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है और इसे ऐसे ही रहना चाहिए। यहां तक ​​कि विवेकानंद ने भी घोषणा की, *"धर्म को छोड़ दो! सामाजिक कानून बनाने में धर्म का कोई काम नहीं है!"* 


लेकिन, आजादी के बाद, कांग्रेस और अन्य पार्टियों के नेतृत्व वाली सभी सरकारों ने धर्म को शिक्षा से दूर नहीं रखा, बल्कि उन्होंने शिक्षा और राजनीति के हर पहलू में धर्म को मिला दिया है।


यह अकेले हिजाब का सवाल नहीं है!  स्कूलों और कॉलेजों में धार्मिक प्रथाओं को निभाने की कोई सीमा नहीं है। यह उन स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों के साथ विश्वासघात है जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी थी। सांप्रदायिक माहौल से लड़ने के लिए, नेताजी ने कहा था *"धार्मिक कट्टरता से लड़ने का एकमात्र समाधान वैज्ञानिक व धर्मनिरपेक्ष शिक्षा ही है।"*  इसलिए वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा समय की मांग है।


सरकार द्वारा छात्र समुदाय और शिक्षा पर किये जा रहे हमले हाल के दिनों में बढ़े हैं। वर्तमान संकट छात्रों को अपनी एकता मजबूत करने का आह्वान करता है। छात्रों को सोचना चाहिए कि अगर वे खुद को जाति और धर्म के साम्प्रदायिक रूप में बांट लेते हैं तो किसको फायदा होने वाला है और किसे नुकसान होने वाला है।


छात्रों को यह भी समझना होगा कि सरकार खुद इस तरह की साम्प्रदायिक ताकतों को प्रोत्साहित कर रही है। छात्रों को सही व वास्तविक समस्याओं के खिलाफ लड़ने के लिए खुद को तैयार रखना होगा। साथ ही, सभी को शिक्षा के व्यापारीकरण जैसी समस्या के खिलाफ एकजुट होना होगा।


छात्र संगठन-एआईडीएसओ कर्नाटक के छात्रों को सतर्क रहने और शिक्षा की समस्याओं से लड़ने के लिए एकजुट होने का आह्वान करता है।


एआईडीएसओ (AIDSO)

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*हिजाब के बहाने नागरिक आज़ादियों को कुचलने की कोशिश*


देश भर के हम लेखक-कलाकार कर्नाटक में हिजाब पहनने के कारण मुसलमान लड़कियों को डराने-धमकाने, उत्पीड़ित करने और उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की शर्मनाक कोशिशों के प्रति अपना गहरा क्षोभ प्रकट करते हैं।



हम लड़कियों के अपनी मनमर्जी की पोशाक पहनने के अधिकार का पुरज़ोर समर्थन करते हैं और इस समय हिजाब पहनने की मांग करनेवाली लड़कियों के साथ अपनी एकजुटता ज़ाहिर करते हैं।



भारत में सदियों से महिलाएं सिर के बालों को ढंकने के लिए हिजाब, दुपट्टे या साड़ी के पल्लू का इस्तेमाल करती आई हैं। हिजाब को लेकर उठा नया विवाद हिंदुस्तान में अल्पसंख्यकों के ग़ैरीकरण की लगातार चल रही प्रक्रिया का नया हिस्सा है। 



इस प्रक्रिया की शुरुआत हिंदूराष्ट्र-वादी पार्टियों के द्वारा बाबरी-मस्जिद के विध्वंस और चोरी-चुपके रखी गई मूर्तियों के नाम पर मंदिर निर्माण पर चले अयोध्या आंदोलन से हुई थी। बहुत-से उदारचेता उदारवादी लोगों का ख्याल था कि बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर के निर्माण की मांग अनैतिक और अवैध होते हुए भी इसलिए स्वीकार कर ली जानी चाहिए कि उसके बाद हिंदूवादी सांप्रदायिक तत्वों के हाथ से मुद्दा छिन जाएगा और देश में सामाजिक सौहार्द और लोकतांत्रिक आज़ादी का माहौल फिर से क़ायम किया जा सकेगा।



लेकिन पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं ने सभी के सामने यह साफ़ कर दिया है कि हिंदू सांप्रदायिक फ़ासीवादी तत्त्वों के साथ समझौता करते हुए लोकतंत्र के रास्ते पर एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। 



अयोध्या के बाद अब काशी और मथुरा को भी हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने की रणनीति के तहत विकसित किया जा रहा है। बात यहां तक बढ़ी है कि गुड़गांव जैसे अनेक शहरों में मुसलमानों को उन तमाम जगहों पर नमाज़ पढ़ने से भी रोका जा रहा है, जहां वे परंपरागत रूप से सद्भावपूर्ण वातावरण में नमाज़ पढ़ते आए थे।



अल्पसंख्यक विरोधी नागरिकता क़ानून के ज़रिए भी उन्हें दूसरे दर्जे की नागरिकता में धकेलने की कोशिश की गई। इसके विरोध में उठ खड़े हुए राष्ट्रव्यापी आंदोलन को सरकारी और ग़ैर-सरकारी एजेंसियों की हिंसा के ज़रिए दबाने की कोशिश की गई। सत्ताधारी पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं ने अल्पसंख्यकों को उनकी पोशाक के कारण निशाना बनाया। चुनावी रैलियों में हिंदुत्व के नाम पर सांप्रदायिकता का ज़हर बोने की कोशिशें लगातार की गईं। 



आज सिर के बाल ढंकने के अधिकार की मांग करने पर भी मुसलमान लड़कियों को देशद्रोही और आतंकी ठहराया जा रहा है। अल्पसंख्यकों के ग़ैरीकरण के ज़रिए फ़ासीवादी निज़ाम क़ायम करने की मंशा के अलावा इस अभियान के पीछे सक्रिय पितृसत्तावादी मंसूबों को भी आसानी से पहचाना जा सकता है।



हिजाब पहननेवाली लड़कियों को उत्पीड़ित करनेवाले तत्व उसी राजनीतिक कुनबे के हैं, जिसने सालों जींस पहननेवाली और वैलेंटाइन डे पर अपने मित्रों के साथ दिखाई पड़नेवाली लड़कियों को भी अपमानित करने की कोशिश की है। परम्परा, बहुमतवाद और कथित राष्ट्रीय एकरूपता के नाम पर नागरिक आज़ादियों और सांस्कृतिक विविधताओं को कुचलने की कोशिशें की जाती रही हैं। यह स्कूल यूनिफ़ॉर्म का मुद्दा नहीं है, क्योंकि सिर के बाल ढंकना, पगड़ी पहनना या बिंदी-सिंदूर जैसे चिह्न धारण करना यूनिफ़ॉर्म का हिस्सा नहीं है।



कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, वह दक्षिण भारत में हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला खोलने की एक लंबी योजना का हिस्सा जान पड़ता है। यह अकारण नहीं है कि कर्नाटक के अगले चुनाव के साल भर पहले से अल्पसंख्यक-विरोधी घृणा का एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जो पहले कभी देखा नहीं गया था। ऐसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, जो पहले कभी सुने नहीं गए थे।



यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ग़ैरीकरण की इन कोशिशों को केवल बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी और ग़ैरबराबरी के मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश के रूप में नहीं देखा जा सकता। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदूराष्ट्रवादी राजनीति बेरोज़गारी और ग़रीबी के मुद्दों को अपने समर्थकों के ध्यान से ग़ायब करने में क़ामयाबी हासिल कर चुकी है। इन मुद्दों की अब कोई चिंता या गरज हो, ऐसा नहीं जान पड़ता है।



हिंदुत्ववादी राजनीति इस समय केवल अल्पसंख्यक-विरोधी घृणा और ग़ैरीकरण को एक स्थायी राजनीतिक एजेंडे के रूप में विकसित करने में लगी हुई है। उसे उम्मीद है कि इस अभियान के सफल होने पर  हिंदू के नाम पर इस देश के समूचे राजनीतिक मैदान पर आसानी से क़ाबिज़ हो जाएगी। राहत की बात यह है कि बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से आनेवाली युवा पीढ़ी ने इस राजनीतिक साज़िश को अच्छी तरह पहचान लिया है। वह सीएए विरोधी आंदोलन से लेकर हिजाब के विवाद तक मज़बूती से हिंदूराष्ट्रवादी तत्वों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न की शिकार लड़कियों और आम लोगों के साथ खड़ी है।


 


हम सभी लेखक-कलाकार प्रतिरोध की तमाम जनवादी आवाज़ों  के साथ अपनी आवाज़ मिलाते हुए आम जनता से नफ़रती हिन्दूराष्ट्रवाद के खिलाफ़ भगतसिंह, आंबेडकर, महात्मा गाँधी और कवींद्र रवींद्र के भारतीय स्वप्न की रक्षा के संघर्ष में शामिल होने  का आह्वान करते हैं।

             *जारीकर्ता*

*हम देखेंगे:राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान*






*बुर्का या घूँघट पर*

मेरी दादी पहनती थी उससे थोड़े आधुनिक वस्त्र मेरी मां पहनती थी। मेरी मां से ज्यादा आधुनिक वस्त्र मेरी पत्नी पहनती है। मेरी पत्नी से ज्यादा आधुनिक वस्त्र मेरे बेटे की पत्नी पहनती है। प्रगतिशीलता धीरे-धीरे आती है। उसे आप थोप नहीं सकते हैं।

किसे क्या खाना वह तय करने का अधिकार दूसरे लोगों को नहीं होना चाहिए। किसे क्या पहनना है वह तय करने का अधिकार दूसरे लोगों को नहीं दे सकते हैं। जय श्री राम बोलती गुंडों की भीड़ को तो ये अधिकार कभी नहीं दे सकते हैं।

अगर लडकियां स्कुल कोलेज जाती रहेगी तो एक दिन वह अपने परिवार में जरुर कहेगी कि मुझे बुरखा अच्छा नहीं लगता है। लेकिन उसके लिए उसे कोलेज जाने की छूट तो दिजिए। आप हिजाब के नाम पर स्कुल जाने की पाबंदी लगाओगे तो वह पढेगी कैसे?

आरफा खानम शेरवानी, राणा अयूब, नगमा शहर जैसे कंई उदाहरण मिल जायेंगे। उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और खुद तय किया कि बुरखा पहनना है या नहीं।

सिर पर पल्लु रखने का रिवाज तो पूरे भारत में हर समुदाय में है। इन्दिरा गांधी भी साड़ी का पल्लु सिर पर रखती थी। कंई समाज में पुरुष भी पघडी टोपी हेट पहनकर अपने सिर की रक्षा करते हैं।

शिक्षा का स्तर जैसे जैसे बढेगा, प्रगतिशीलता अपने आप आने लगेगी। लड़की भी अपने परिवार में बोलने लगेगी कि पिताजी मुझे ये नहीं पहनना है। खुद अपने जीवन में नहीं कर पायेगी तो वह अपनी बेटी को स्वतंत्रता देगी।

लेकिन कट्टरपंथी गुंडों को हम ये अधिकार नहीं दे सकते हैं वह किसी स्कुल या कोलेज के बाहर खड़े होकर ये तय करे कि हिजाब पहनने वाली लड़की को वे अंदर नहीं जाने देंगे।

लड़की को ही अधिकार होना चाहिए कि उसे क्या पहनना है। उसके माता-पिता से वह अपनी स्वतंत्रता के बारे में बात कर सके उतनी शिक्षित तो उसे होने दिजिए। शिक्षा आयेगी तो धीरे-धीरे सब कुछ होगा।

-- अनिल रेशनलिस्ट






हिजाब तो बस बहाना है

युवाओं को मुद्दे से भटकाना है 


युवा आपस में उलझे रहेंगे,

 तो ना शिक्षा लेंगे ना रोजगार मांगेंगे


(Vis WA)



हिजाब प्रकरण में मित्र रंगनाथ सिंह  का यह लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए......


आज सुबह खबर आयी कि अफगानिस्तान पुलिस की पूर्व महिला कर्मी को गोली मार दी  गयी है। क्यों और कैसे इसकी दुनिया में किसी को परवाह नहीं है तो हमें भी क्यों हो।अफगानिस्तान की एक यूनिवर्सिटी गेट से उन लड़कियों को लौटाया जा रहा है जिन्होंने बुरका नहीं पहना है। जाहिर है कि फिलहाल तालिबान प्रवक्ता यूरोप की यात्रा पर हैं। 


अफगानिस्तान में महिलाओं के संग जो हो रहा है वह इंटरनेट पर वायरल नहीं हो रहा है। ईरान में एक शख्स अपनी 17 की पत्नी की सिर काटकर सड़क पर लेकर आ गया। लड़की की जब12-15 साल की बच्ची थी तभी उसकी शादी हो गयी थी। वह पति से बचकर तुर्की भाग गयी थी। ईरानी पत्रकार कह रही हैं कि उस लड़की को ईरान वापस भेजने में ईरान के तुर्की दूतावास की भूमिका थी। वह देश लौटी तो पति ने गला काटकर सड़क पर जगजाहिर कर दिया। ईरान के एक इस्लामी विद्वान ने स्थानीय टीवी चैनल पर लड़की का गला काटकर घूमने वाले पति का बचाव करने का प्रयास किया। जाहिर है कि  ऐसे मसलों पर इंटरनेट नहीं हिलता। लोकतान्त्रिक देशों को आजकल 'मुस्लिम महिलाओं' को बुरका पहनाने की ज्यादा चिन्ता है।


जाहिर है कि लोकतांत्रिक देशों में स्कूल में बुरका अधिकार बताया जा सकता है लेकिन अन्य देशों में यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ भी कपड़े के मामले में 'माई च्वाइस' नहीं कह सकतीं। हमारे बीच कुछ लोग सेलेक्टिव सेकुलर हैं कि उन्हें अपने बच्ची के लिए कुछ और अच्छा लगता है, दूसरे की बच्चियों के लिए कुछ और। मासूमियत देखिए कि वो यह महान काम 'धार्मिक अधिकारों की रक्षा' के लिए कर रहे हैं। यह आम समझ है कि दुनिया के सभी प्राचीन धर्म मूलतः पितृसत्तात्मक हैं। उनकी जकड़ से महिलाओं को निकलने के लिए मूलतः धर्म की बेड़ियाँ ही तोड़नी पड़ती हैं। रिलीजियस फ्रीडम का अधिकार मूलतः अपने मनपसन्द ईश्वर की पूजा करने का अधिकार है। स्वाभाविक सी लगने वाली यह बात अधिकार के रूप में दुनिया में क्यों प्रचारित की जाती है? क्योंकि कुछ धर्मों को लगता है कि केवल उनका ईश्वर ही सही है और उनकी पूजा-पद्धति ही सही है। इस मामले में हमारे देश में टू-मच डेमोक्रेसी रही है। कुछ देश तो ऐसे हैं कि उनके एक की जगह किसी दूसरे की तरफ हाथ जोड़ लिया तो जान गयी। हमारे देश में 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 33 करोड़ का जबका डेटा है उस समय के हिसाब से इस देश में पर-हेड तीन-चार देवी-देवता पड़ेंगे। तो फ्रीडम ऑफ फेथ एंड वर्शिप तो यहाँ का स्वभाव है।  


कुछ लोग यह दिखाना चाह रहे हैं कि कर्नाटक विवाद की जड़ में केवल सत्ताधारी दल है। ऐसे लोग या तो मासूम हैं या चरमपंथी प्रोपगैण्डा नेटवर्क का हिस्सा हैं। सत्ताधारी दल मामले को हवा दे रहा होगा या उसका अपने चुनावी हित में इस्तेमाल कर रहा होगा लेकिन यह मामला उसके सत्ता में आने से बहुत पहले का है, उसकी सत्ता से बाहर की बहुत बड़ी दुनिया का है। भारत में भी स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने का मामला केरल में हाईकोर्ट तक गया जहाँ आज तक भाजपा का दो विधायक या एक सांसद नहीं जीता। 


अंतरराष्ट्रीय बुरका अभियान ने पहले चरण में नौजवान महिलाओं को टारगेट किया। उसके बाद वह स्कूली बच्चियों को टारगेट कर रहे हैं। इस्लामी देशों में बुरके के खिलाफ आन्दोलन चल रहे हैं। लोकतान्त्रिक देशों में बुरका पहनने को लेकर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं। पिछले 100 सालों में फैले इस्लामी चरमपन्थ के बहुत से मामलों की तरह इस मामले की भी जड़ में अमेरिका-यूरोप नजर आते हैं। एक बुरका-विरोधी आन्दोलन को शुरू करने वाली एक ईरानी पत्रकार ने सही सवाल पूछा है कि इस्लामी देशों में बुरके का विरोध करने वाली लड़कियाँ तो जेल, कोड़े या कत्ल किए जाने का रिस्क लेती हैं, लोकतांत्रिक देशों की लड़कियाँ क्या ऐसा रिस्क लेती हैं?    


साल 2013 में न्यूयॉर्क में रहने वाली एक महिला ने एक फरवरी को हिजाब डे मनाने की शुरुआत की। 2013 से उसने शुरुआत की यानी इसकी भूमिका उसके पहले से बन रही थी। एक फरवरी वही दिन है जब ईरान की कथित इस्लामिक क्रान्ति के चलते अयातुल्लाह खुमैनी फ्रांस से ईरान लौटे! जरा सोचिए, ईरानी महिलाओं पर पर्दा थोपने वाला शख्स दुनिया के सबसे आजादख्याल मुल्क में पनाह लिए हुए था! आज पचास साल बाद फ्रांस में सार्वजनिक स्थानों पर बुरके पर प्रतिबन्ध लग चुका है। इस प्रोपगैण्डा की शुरुआत बहुत साफ्ट तरीके से यह कहकर हुई कि मुस्लिम-द्वेष के खिलाफ साल में एक दिन हिजाब लगाना चाहिए। इसकी शुरुआत एक लड़की ने की। जाहिर है कि हिजाब शब्द का चुनाव सोचसमझकर किया गया। कर्नाटक में भी विरोध-प्रदर्शन में शामिल ज्यादातर लड़कियाँ बुरके में नजर आ रही हैं लेकिन इंग्लिश मीडिया जानबूझकर हिजाब शब्द का प्रयोग कर रहा है। प्रोपगैण्डा युद्ध में शब्दों का चयन बहुत अहम है। 


कर्नाटक विवाद में जिस  स्कूल से ताजा विवाद शुरू हुआ है उसका नाम प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज है। जिन लड़कियों से विवाद शुरू हुआ वो 11-12वीं पढ़ती हैं लेकिन इस आन्दोलन के रणनीतिकारों ने यह सुनिश्चित किया कि कॉलेज शब्द का अस्पष्ट प्रयोग किया जाए क्योंकि भारत की बड़ी आबादी इस बात पर लड़कियों के साथ रहेगी कि कॉलेज की लड़की को अपनी मर्जी के कपड़े पहनने का हक है। लेकिन यह कोई नहीं पूछेगा कि देश के किस-किस ग्रेजुएशन कॉलेज-यूनिवर्सिटी में लड़कियों के लिए ड्रेसकोड लागू है। ड्रेसकोड स्कूल तक ही लागू रहता है और यह प्रोपगैण्डा नेटवर्क स्कूल में बुरका लागू कराने के लिए ही सक्रिय है। अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो ज्यादातर स्कूली लड़कियाँ नाबालिग या 18 से कम ही होंगी। ताजा विवाद के बाद कल ऐसे पुराने विवादों के बारे में पढ़ रहा था तो पता चला कि इससे पहले एक विवाद में कक्षा 8 में पढ़ने वाली लड़की से स्कूल में बुरका पहनकर जाने की याचिका डलवायी गयी थी। 


पॉपुलर फ्रंट केरल से निकला संगठन है। उसे अच्छी तरह पता है कि केरल में जब एक ईसाई स्कूल में बच्चियों के (जी हाँ, बच्चियों न कि महिलाओं के कपड़े जैसा कि प्रोपगैण्डा नेटवर्क ने स्थापित कर दिया है) के बुरका पहनने को लेकर मामला हाईकोर्ट पहुँचा तो अदालत ने न्याय दिया कि किसी एक बच्ची के अधिकार और संस्थान के अधिकार ( जो व्यापक समूह का अधिकार है) के बीच गतिरोध हो तो एक या कुछ व्यक्ति के अधिकार पर संस्था को तरजीह देनी पड़ेगी। यह मामला भले अदालत पहुँच गया हो लेकिन इतना तो कॉमन सेंस होना चाहिए कि हर व्यक्ति की पसन्द के हिसाब से संस्था नहीं चल सकती।  


ज्यादातर कॉलेजों में ड्रेसकोड लागू नहीं होता। ताजा विवाद और इससे पहले के विवाद भी स्कूल में बुरका पहनने को लेकर ही शुरू हुए। जब कॉलेज में बुरके पर रोक नहीं है तो स्कूल में बुरको को लेकर इतनी जिद क्यों! क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि लड़कियों की माहवारी शुरू होते ही वह छिपाने लायक हो जाती हैं। ऐसी सोच वाले अपने बचाव में सबसे ज्यादा यह तर्क देते हैं कि फलाँ लोग भी पहले यही मानते थे आदि-इत्यादि। जाहिर है कि महिलाओं को अधिकार देने के मामले में कुछ लोग बाकी लोग से कई दशक या सदी पीछे चलते हैं। अफगानिस्तान जैसे देश तो उल्टी दिशा में चल पड़े हैं। 


इस्लामी चरमपंथी स्कूली लड़कियों को बुरका पहनाने का अभियान चला रहे हैं। उनका अभियान इतना शातिर रहा कि ताजा विवाद में ग्रेजुएशन कॉलेज और यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ, प्रोफेशनल लड़कियाँ कह रही हैं कि उनके पास बुरका पहनने का अधिकार है। उनसे यह कोई नहीं पूछ रहा कि यह अधिकार तो आपके पास पहले से ही है फिर आप स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने के अभियान में क्यों भागीदार बन रही हैं? ताजा मामले भी गर्ल्स स्कूल की लड़कियों के अभिभावक स्कूल प्रशासन से मिले। उनका कहने का मतलब यही है कि जब माता-पिता के कहने से प्रशासन नहीं झुका तो वो कैम्पस फ्रंट के पास गयीं। ध्यान रहे कि ये स्कूल जाने वाली लड़कियाँ हैं। ज्यादातर अभी बालिग भी नहीं होंगी।


कुछ लोग यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि यह 'अल्पसंख्यक' का मुद्दा है तो उन्हें यह याद दिलाना जरूरी है कि इंटरनेट से कनेक्टेड ग्लोबल विलेज में सही मायनों में अल्पसंख्यक जैन, अहमदिया, पारसी इत्यादि ही कहे जा सकते हैं। अन्य धर्मों का छोड़िए कम्युनिस्टों का भी इंटरनेशनल सपोर्ट नेटवर्क है तो वो भी डिजिटल संसार में अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते। हमारे देश में बहुत सारे लोगों की राय इस वक्त इसलिए बदली हुई है कि कर्नाटक या केंद्र में भाजपा सरकार है। एक चर्चित महिला एंकर और एक मशहूर नोबेल विजेता जिन्हें स्कूल जाने के लिए ही गोली मारी गयी थी, के इस मामले से जुड़े विचार और पुराने विचार सोशलमीडिया पर वायरल हो चुके है। 


यह पहला मामला नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार को कट्टरपंथियों ने सरकार पर दबाव बनाकर दबाए हैं। हिन्दू धर्म में शामिल ज्यादातर महिला अधिकार सरकार और अदालत के रास्ते से आये हैं। यही बात मुस्लिम महिला के लिए भी सही है। मुस्लिम महिलाओं के लिए भी सरकार-न्यायालय मुल्लाओं-अब्बाओं से ज्यादा उदार और आधुनिक साबित हुआ। आज ही एक हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि मृतक आश्रित की नौकरी पाने के मामले में बेटी का भी बेटे बराबर ही हक है। पिछले महीने अदालत का फैसला आया कि पिता की सम्पत्ति की इकलौती बेटी भी वारिस होगी। यह लिस्ट लम्बी है। मुस्लिम महिला को गुजाराभत्ता देने के शाह बानो का मामला रहा हो या ताजा एक बार में तीन तलाक देने का मामला। सोचिए जो त्वरित तीन तलाक दो दर्जन से ज्यादा इस्लामी देशों में मान्य नहीं है उसे बचाने के लिए हमारे देश की समूची लिबरल लॉबी उतर पड़ी। भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति जगजाहिर है लेकिन विडम्बना देखिए कि मुस्लिम महिलाओं को पूरी तरह संवैधानिक तौर पर त्वरित तीन तलाक से मुक्ति भाजपा सरकार ने दिलायी। उसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट के त्वरित तीन तलाक के खिलाफ दिए गए आदेश से ही कुछ मुस्लिम महिलाएँ न्याय हासिल कर पाती थीं। भाजपा राज में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के हर तरह के प्रदर्शन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखी गयी है। लता जी के निधन पर शाहरुख खान को जिस तरह हिन्दू कट्टरपंथियों ने ट्रॉल किया वह उसका ताजा उदाहरण है। लेकिन क्या हम केवल मुस्लिम पुरुषों की सुरक्षा और न्याय के रक्षा के लिए चिन्तित रहते हैं? महिला-पुरुष के सवाल क्या धर्म और जाति से परे नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि जो मर्द घर से बाहर शोषित हो वह भी घर में आकर पत्नी के सामने शोषक हो सकता है! क्या किसी भी समाज में एक ही समय में एक ही वैचारिक संघर्ष होता है? इस समय हमारे समाज में कई सामाजिक संघर्ष एक साथ नहीं चल रहे हैं? इन सभी सामाजिक संघर्षों से जुड़े विमर्श एक साथ ही जारी रहते हैं। अपनी रुचि और क्षमता के हिसाब से लोग उनमें भागीदारी करते हैं।


 हमारे ज्यादातर लिबरल मित्र उन आठ लड़कियों के साथ खड़े हैं जिनको गर्ल्स स्कूल के गर्ल्स क्लासरूम में भी बुरका (या हिजाब) पहनना है, लेकिन उसी स्कूल की उन 70-150 (अलग-अलग जगह भिन्न-भिन्न आँकड़े हैं।) मुस्लिम लड़कियों के साथ कौन खड़ा है जो गर्ल्स स्कूल में बुरका या हिजाब पहनकर क्लास नहीं करतीं! या नहीं करना चाहतीं! उनके पास स्कूल के नियमों के अलावा कौन सी ढाल है? और स्कूल के बाद तो वो यूनिफार्म के मामले में पूरी तरह आजाद होती हैं। उनके ऊपर जो भी पाबन्दी होती है वो परिवार द्वारा थोपी गयी होती है। बुरके के समर्थन में मर्दों की संख्या देखिए और उनके द्वारा दिए गए तर्क देखिए। क्या बुरका का विकल्प केवल बिकिनी है? क्या आप सचमुच मानते हैं कि बुरका या हिजाब नहीं पहनना नंगा रहना है?  क्या आप सचमुच मानते हैं कि हजार साल पुरानी प्रथा के शिंकजे से आजाद होने से ज्यादा अहम है, उस शिकंजे को अपने ऊपर लादने का अधिकार हासिल करना? कौन सी ऐसी महिला-विरोधी कुप्रथा है जिसे महिलाओं के एक वर्ग का समर्थन नहीं प्राप्त है? 15-16 साल की सौ लड़कियाँ कल शादी करने का अधिकार माँगने लगें तो आप क्या स्टैण्ड लेंगे? मुझे पूरा भरोसा है कि दूसरे की बेटी का मामला होगा तो बहुत से लोग उसे भी 'फ्रीडम ऑफ च्वाइस' कहेंगे। फर्क ये होगा कि गरीब-निम्नमध्यमवर्गीय बेटियों को अक्सर 15 में ब्याह की च्वाइस चूज करते देखा जाएँगी और इलीट बुद्धिजीवियों की बेटियाँ पढ़-लिखकर देश-दुनिया घूमने और अफसर बनने की च्वाइस चूज करेंगी। कितनी अच्छी आजादी है, शेर को शिकार करने की आजादी, मेमने को शिकार होने की आजादी।  


कुछ घाघ संविधान की दुहाई दे रहे हैं जबकि इस मामले में अदालतें बहुत पहले साफ कर चुकी हैं कि संस्थान या समाज का अधिकार व्यक्ति के अधिकार के ऊपर है। अगर किसी व्यक्ति का अधिकार संस्थान के अधिकार के प्रतिकूल है तो संस्थान के अधिकार को प्राथमिकता दी जाएगी क्योंकि वह सामूहिक अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह के तर्क देने वाले में वो लोग ज्यादा हैं जो कट्टरपंथी नेटवर्क के सीधे प्रभाव में होते हैं। उन्हें प्रोपगैण्डा नरेटिव के औजार सौंपे जाते हैं जिनका वो इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोगों को इन्फ्लुएंसर कहते हैं। राइट-लेफ्ट, हिन्दू-मुस्लिम-कम्युनिस्ट कोई भी समूह हो उसका एक प्रोपगैण्डा नेटवर्क होता है और उसके कुछ इन्फ्लुएंसर होते हैं जो अपने नीचे वाली जमात को बहसबाजी-कठदलीली के लिए कुतर्क-कुतथ्य उपलब्ध कराते हैं।     


थोड़ी बात बुरका-हिजाब पर भी जरूरी है। गौरतलब है कि कर्नाटक विवाद में अबी तक जितनी तस्वीरें-वीडियो आये हैं उनमें ज्यादातर में वो लड़कियाँ बुरके में नजर आयी हैं लेकिन वो खुद और लिबरल ईकोसिस्टम के इन्फ्लुएंसर बुरके के लिए 'हिजाब' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। हिजाब इस्लामी पर्दे का सबसे मॉडरेट रूप है। हिजाब और बुरके में सबसे बड़ा अन्तर चेहरा दिखाने-छिपाने का है। कोई लड़की अपने सिर पर दुपट्टा बाँधे हुए है यह कम से कम हमारे देश में कभी आपत्ति का कारण नहीं है। लेकिन प्रोपैगण्डा नेटवर्क को जब सेकुलर यूनिफॉर्म के खिलाफ दलील देनी होती है तो वो सबसे पहले हिजाब का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हिजाब देखने में अफेंसिव नहीं लगता। इससे नौजवान मुस्लिम लड़कियों और गैर-मुसलमानों की सहानुभूति हासिल करने में आसानी होती है। हिजाब और बुरका शब्द के प्रयोग के मनोवैज्ञानिक प्रभाव में बहुत फर्क है लेकिन तर्क एक ही है। अगर आपने यह स्वीकार कर लिया कि मुस्लिम स्कूली बच्ची को उसके दीन के हिसाब से 'हिजाब' पहनना जरूरी है तो आप यह मान लेते हैं कि उस बच्ची को 'हिजाब न पहनने की आजादी' नहीं है क्योंकि उसके धर्म में ऐसा लिखा है। उसके बाद हिजाब-नकाब-बुरका केवल इंटरप्रिटेशन का मामला हो जाता है। ईरानी हिजाब, भारतीय बुर्के और अफगानिस्तानी बुर्के के बीच आप फर्क देख सकते हैं? और यहाँ से नारीवादियों के पिछले 100 सालों में हासिल किया गया वह नरेटिव कफन-दफन हो जाता है जिसमें 'स्त्री के शरीर पर उसका हक' माना जाता है। रिलीजियस स्टडी का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि पितृसत्तात्मक धर्म सबसे ज्यादा औरत के शरीर से बौखलाता है। उसका मानना है कि औरत के शारीरिक उभारों और बालों में वह 'पाप' छिपा हुआ है जिससे वो खतरे में पड़ जाती हैं। बुरकानशीं समाजों में महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों के आँकड़ों से ये धर्माधिकारी मुँह चुरा लेते हैं।  

  

भारतीय उपमहाद्वीप में बुरका ही प्रचलित है। हिजाब भारत में नया फैशन है। बहुत पहले एक मुस्लिम मित्र से पूछा कि जब ज्यादातर मुस्लिम देशों में बुरका-नकाब चलता है तो हज में महिलाएँ हिजाब क्यों पहनकर जाती हैं? उनका जवाब था कि वहाँ इतनी बड़ी संख्या में महिलाएँ होती हैं कि यह जरूरी हो जाता होगा। हो सकता है कि सऊदी या ईरान या तुर्की में हिजाब के प्रचलन के पीछे कोई और वजह हो। हिजाब में महिलाएँ एक छोटी चादर सिर के चारों तरफ लपेट लेती हैं जिससे उनके बाल न दिखें। बाकी वो सामान्य कपड़े पहनती हैं। हिजाब मूलतः बेहद प्रचलित बुरका और आधुनिक जरूरतों के बीच समझौते की कड़ी जैसा लगता है। कल ही किसी ने किसी भारतीय राज्य में बुरके में फुटबॉल खेलती लड़कियों का वीडियो शेयर किया है। जाहिर है कि लड़कियों का फुटबॉल खेलना हर धर्म में कभी न कभी अस्वीकार्य रहा है। ये लड़कियाँ आज बुरके में फुटबॉल खेल रही हैं तो कल बिना बुरके के खेलेंगी।


रही इस विवाद के समाधान की तो अब इस बात पर लगभग सहमति है कि ऐसे विवादों का अन्तिम निपटारा सुप्रीमकोर्ट करेगा। ज्यादा बड़ा मसला होगा तो संविधान पीठ करेगी। उससे बड़ा मसला होगा तो और बड़ी संविधान पीठ करेगी। कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया है। न्यायालय जो कहेगा वही हम जैसे मानेंगे। केरल हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला स्पष्ट हो जाना चाहिए था लेकिन वकील और प्रोपगैण्डिस्ट अगर नुक्ताचीनी न कर सकें तो बेरोजगार हो जाएँगे। 


यह भी याद रहे कि मौजूदा सरकार 2014 में आयी है, शायद 2024 में रहे, न रहे। इस सरकार से जुड़े मुद्दे इस सरकार से पहले भी थे, इसके बाद भी रहेंगे, हिन्दू चरमपंथ की समस्या मुख्यतः भारत की सीमा तक महदूद हैं लेकिन धर्मपोषित पितृसत्ता और स्त्री का संघर्ष कई हजार साल से चल रहा है और पूरी दुनिया में चल रहा है। इसे अपने फौरी एजेंडे या फायदे तक सीमित न करें। पोस्ट की शुरुआत एक बुरी खबर से हुई है। अंत एक अच्छी खबर से करना चाहूँगा। कश्मीर की जबीना बशीर अनुसूचित जनजाति (मुस्लिम गुर्जर समुदाय) से आती हैं। उन्होंने NEET की परीक्षा पास कर ली है। जबीना के अनुसार वो यह उपलब्धि हासिल करने वाली अपनी जाति की पहली लड़की हैं। उनके पिता साधारण किसान हैं। उसी खबर में पढ़ा कि पिछले साल तमिलनाडु की आदिवासी मालासर समुदाय की लड़की ने NEET निकाला था और यह उपलब्धि हासििल करने वाली अपने समुदाय-गाँव की पहली लड़की बनी थी।

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अरे अभागे ! प्रेम करके तो देख ! 

-सरला माहेश्वरी 


हिजाब पहना तो मारेंगे 

जींस पहना तो मारेंगे

बुर्का पहना तो मारेंगे

टाँगें दिखाई तो मारेंगे

घूँघट हटाया तो मारेंगे

बोली तो मारेंगे !

न बोली तो मारेंगे !


खिलखिलाई तो मारेंगे

मोबाइल रखा तो मारेंगे

प्रेम किया तो मारेंगे

नौकरी की तो मारेंगे

घर पर रही तो मारेंगे !

इस बहाने ! उस बहाने मारेंगे !

धर्म के नाम पर मारेंगे !

अधर्म के नाम पर मारेंगे !


तुम मारोगे जरूर 

ढकूं या उघाड़ूँ कुछ भी 

मेरे होने के लिए ही मारोगे

जनम के पहले ही मारोगे !


सच यह है कि तुम्हे 

हमारा हिजाब भी डराता है ! हमारी जींस भी डराती है !

घूँघट उठाना भी डराता है ! हमारा बुर्का भी डराता है !

हमारा चुप रहना भी डराता है ! बोलना भी डराता है !

हमारा पढ़ना भी डराता है ! ना पढ़ना भी डराता है !

नौकरी करना भी डराता है ! और घर में रहना भी डराता है !

हमारा खिलखिलाना भी डराता है ! चुप रहना भी डराता है !

गोया हम इंसान नहीं मुट्ठी में बंद तुम्हारे डर का दूसरा नाम हैं !


पर वे दिन दूर नहीं जब

मार ! मार ! मार ! होगा पलटवार ! 

पलटवार !

खार ! खार ! खार ! ये मार ! वो मार ! 

ये मार ! वो मार !

तब लड़ाई बराबरी की होगी ! तब आएगा लड़ाई का मज़ा !!


अरे कायर पुरुष मत डर ! मत डर ! 

हम इंसान है ! मुट्ठी खोल हाथ मिला ! 

साथ चलकर तो देख ! अपने से निकल कर तो देख ! 

हमारी आँख से भी देख !

ज़िंदगी को फूलों की तरह महकते तो देख !


पागल ! नजरों को दो-चार करके तो देख !

अरे अभागे ! प्रेम करके तो देख !


--सरला माहेश्वरी--




जालिम ने मारा

बहुत गलत किया

पर मजलूम भी तो सिर उठा कर सीधा खडा हुआ था

गलती उसकी भी तो है

मैं न जालिम के साथ हूं

मैं न मजलूम के साथ हूं

मैं हूं थाली का बैंगन

रहता हूं उधर जिधर हो वजन ज्यादा 

हुकूमत के साथ


कुछ 'तार्किक, आधुनिक, सेकुलर' लोग बिना यह गौर किये कि कौन शोषण-जुल्म की व्यवस्था का संचालक है, कौन अपने हिसाब से आम जीवन जीता व्यक्ति, दोनों को समान नजर से देखने के हिमायती हैं। संभव है यह आम व्यक्ति हमारे विचारों मुताबिक आधुनिक तार्किक न होकर पिछड़ा, अंधविश्वासी, अतार्किक हो। हो सकता है कि हम इसे बदलना चाहते हों। पर क्या बदलाव की यह इच्छा हमें फासिस्टों और इस व्यक्ति को 'समान' दृष्टिकोण से देखने के निष्कर्ष पर ले जा सकती है?

कोई स्त्री अंधविश्वास के नाते किसी 'बाबा' के पास जाये, उससे बलात्कार हो तो क्या बलात्कारी के खिलाफ आवाज नहीं उठायेंगे क्योंकि वह अंधविश्वास की वजह से बलात्कार की शिकार हुई?

कोई दलित धार्मिक अंधविश्वास से मुक्त न होने के कारण मंदिर में जाये, वहां जुल्म का शिकार हो तो कहेंगे कि ठीक हुआ, अंधविश्वासी को सही सजा मिली?

मैं भी चाहता हूं कि पर्दा/बुर्का मुक्त समाज हो, पर ये लडकियां इस वक्त संघी गिरोह के डर से हिजाब छोड़ दें तो यह गारंटी तो है न कि संघी गिरोह भी फासिस्ट के बजाय शिष्ट-सदाचारी बन जायेगा, इनके खिलाफ अपनी मुहिम छोड देगा? कुछ वक्त पहले जो सुल्ली डील्स बुल्ली बाई एप बने उनमें जिन मुस्लिम स्त्रियों को निशाना बनाया गया वे तो लगभग सभी उच्च शिक्षित, आधुनिक, बुर्का-हिजाब मुक्त अपने क्षेत्रों की जानी-मानी प्रोफेशनल थीं। फिर? 

ये सब परीक्षण 1930 के दशक में नाजियों के साथ हो चुका है जब परंपरागत नेतृत्व यहूदियों को नाजियों के शुरुआती हमलों के सामने झुकने के लिए, नाजी विरोधी साझा संघर्ष से अलग रहने के लिए, समझाता रहा कि ऐसा करने से वे शांत हो जायेंगे। नतीजा सबको मालूम है।


*मुकेश असीम*


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कर्नाटक में मुस्लिम छात्रा के हिजाब पहनने के खिलाफ हिंदू युवकों द्वारा भगवा गमछे और झंडे लेकर उसे डराने की कोशिश करने की घटना का विरोध करने पर हमारे कुछ दोस्त कह रहे हैं कि आप लोग हिजाब का समर्थन मत कीजिए


हम हिजाब का समर्थन नहीं कर रहे


हम नागरिक की स्वतंत्रता का समर्थन कर रहे हैं


कल्पना कीजिए कल को मुसलमान लड़के भीड़ लगाकर हरे झंडे लेकर हिंदू औरतों के मांग में सिंदूर लगाने का विरोध करें


और सड़क पर जाती हिंदू औरतों से कहें कि अपनी मांग का सिंदूर मिटाओ क्योंकि यह पितृसत्ता की निशानी है औरतों की गुलामी का प्रतीक है


Koतब क्या आप यह कहेंगे कि यह मुसलमान लड़के ठीक कर रहे हैं और हिंदू औरतों को पितृसत्ता से आजाद कर रहे हैं


नहीं तब आप कहेंगे कि हिंदू औरतों को  पितृसत्ता से आजाद करने का यह सही तरीका नहीं है


हर औरत को मांग में सिंदूर लगाने या ना लगाने के बारे में खुद फैसला करना है


इसी तरह हर महिला को हिजाब पहनने या ना पहनने के बारे में खुद फैसला करने की आजादी है


हम औरतों की इसी आजादी का समर्थन कर रहे हैं


*हिमांशु कुमार*


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हिजाब के बहाने ….



हिजाब के बहाने ….😌🙃😡


कर्नाटक के शिक्षा संस्थानों में लड़कियों के हिजाब के विरोध में जो मुहिम चलाई जा रही है, वह बेहद शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। 


कुछ कॉलेजों के यूनिफार्म ड्रेस कोड के विरोध के तहत कुछ मुस्लिम लड़कियों ने हिजाब पहनने का अपना अधिकार नहीं छोड़ा तो कुछ हिन्दू लड़के भगवा ओढ़कर कॉलेज पहुंचने लगे। 


कॉलेजों में 'जय श्रीराम' के नारे भी लगे और  कहीं-कहीं  'अल्लाहु अकबर' का उद्घोष भी हुआ। वहां धार्मिक विभाजन तेजी से बढ़ा है और शिक्षा संस्थान जंग के मैदान में तब्दील होते जा रहे हैं। घटनाक्रम को देखकर साफ लग रहा है कि यह सब धार्मिक आधार पर लोगों के ध्रुवीकरण की सोची-समझी राजनीति के तहत सुनियोजित रूप से किया जा रहा है। 


मैं स्वयं बुर्का या पर्दा प्रथा का समर्थक नहीं हूं लेकिन कोई अगर धर्म के नाम पर या व्यक्तिगत इच्छा से परदे में रहना चाहता है तो उसकी आस्था और इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। वैसे ज्यादातर मुस्लिम औरतें हिजाब नहीं पहनतीं। 


जो पहनना चाहती हैं उन्हें इसे उतारने के लिए मजबूर करना उनकी आस्था का अपमान भी है और उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी। विविधताओं से भरे हमारे देश में हज़ारों तरह के पहनावे हैं। कहीं-कहीं तो औरतों के सामने गज-गज भर के घूंघट में रहने की भी मजबूरी है। 


समस्या बस मुस्लिम औरतों के हिजाब से है। यह हिजाब गलत है तो उसके खिलाफ आवाज़ मुस्लिम औरतों के बीच से ही उठनी चाहिए। उठती भी रही है। एक लोकतांत्रिक देश में कोई भगवाधारी डरा-धमकाकर उन्हें हिजाब उतारने का आदेश नहीं दे सकता।


संस्कृतियों, आस्थाओं, वेशभूषा और भाषाओं की असंख्य दृश्य विविधताओं के बीच एकात्मकता का अदृश्य धागा सदा से हमारे देश की खूबसूरती रही है। 


सत्ता के लिए जिस तरह से इस धागे को तोड़ने की निरंतर कोशिशें हो रही है उससे हम सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब देश की बुनियाद ही बिखर जाएगी।


✍🏻:~ Dhruv Gupt Ji Former IPS Officer ✊🏻🌅🙏🏻