भारत में मुसलमान, अपनी भारतीयता का नहीं, अपनी इस्लामिक पहचान को वरीयता देता है, वैसे ही सिख अपने सिख पहचान को वरीयता देता है, लेकिन इस्लामिक पहचान को ही अलगाव की जड़ माना जाता है, और हिन्दू मुस्लिम विवाद का मुख्य कारण बनाया जा रहा है...!
भारतीयता की पहचान किसी एक धर्म की पहचान को वरीयता देना नही, बल्कि सभी धर्मों की पहचान को सम्मान देना है।
हिजाब प्रकरण पर इंक़लाबी छात्र मोर्चा का बयान-
कर्नाटक में एक स्कूल के मैनेजमेंट द्वारा मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाना मुस्लिमों के जनवादी अधिकारों पर एक साम्प्रदायिक फासीवादी हमला है - एग्जीक्यूटिव कमिटी, इंक़लाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद
कर्नाटक के एक स्कूल में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनकर प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाने की इंक़लाबी छात्र मोर्चा कड़े शब्दों में निंदा व भर्त्सना करता है और इसे मुस्लिम स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की एक घृणित कोशिश के रूप में भी देखता है। लंबे संघर्षों के बाद तमाम धर्मों व संप्रदायों से जुड़ी स्त्रियां पितृसत्ता की बेड़ियों को तोड़कर थोड़ा- बहुत शिक्षण संस्थानों तक अब आना शुरू की हैं। इस तरह का तानाशाहीपूर्ण रवैय्या निश्चित रूप से मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा से दूर करने व पितृसत्ता की गुलामी में धकेलने का ही काम करेंगे। हमारा संगठन उस मुस्लिम छात्रा को क्रांतिकारी सलाम पेश करता है जिसने भगवा गमछाधारी लम्पटों के 'जय श्रीराम' के आक्रामक नारे का जवाब बहादुराना ढंग से 'अल्लाह-हु-अकबर' का नारा लगाकर दिया। उस मुस्लिम छात्रा के 'अल्लाह-हु-अकबर' का नारा लगाने का विरोध वही लोग कर रहे हैं जो साम्प्रदायिक फासिस्टों द्वारा बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद वहां फिर से बाबरी मस्जिद के निर्माण की जनवादी मांग उठाने की बजाय स्कूल व अस्पताल बनाने की मांग कर रहे थे। ऐसे ही लोगों को उस छात्रा में अपने धर्म के प्रति कट्टरता दिखाई पड़ रही है। जबकि यह उस छात्रा की एक स्वाभाविक व न्यायसंगत प्रतिक्रिया थी। जब हमला मुस्लिम होने की वजह से किया जाएगा तो जवाब भी मुस्लिम के रूप में ही मिलेगा। जहां तक मुस्लिम अल्पसंख्यकों के कट्टरता की बात है, बहुसंख्यकों की कट्टरता व उनके द्वारा अल्पसंख्यकों की अस्मिता पर लगातार बढ़ता हमला ही उसके लिए खाद- पानी का काम कर रहा है। असुरक्षाबोध से कट्टरता पैदा होती है। कर्नाटक हिजाब प्रकरण सिर्फ और सिर्फ आरएसएस- बीजेपी का एक नया हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक एजेंडा है। जिसके माध्यम से वो कर्नाटक और दक्षिण भारत को भी हिंदुत्व की साम्प्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला बनाना चाहते हैं। स्त्रियों की शिक्षा के सवाल और पितृसत्ता से उनकी मुक्ति को लेकर इनके विचार व सरोकार किसी से छिपे नहीं है।
इंक़लाबी छात्र मोर्चा का यह स्पष्ट मानना है कि बुर्का, हिजाब या किसी अन्य धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल करने या न करने के बारे में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ उस महिला का है। इस आधार पर किसी को शिक्षा के अधिकार से वंचित करना तानाशाही है। इन धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से कोई अपनी असहमति जरूर रख सकता है लेकिन उसे जबरदस्ती अपना विचार किसी पर थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। शिक्षा से चेतना आती है। चेतना आएगी तो लड़कियां खुद सोचेंगी की उनके लिए क्या सही है और क्या गलत। अपने धार्मिक व सांस्कृतिक रीति- रिवाजों का पालन करना, अपने धर्म व संस्कृति के हिसाब से अथवा अपने मन- माफिक कपड़े पहनना हर व्यक्ति का बुनियादी जनवादी अधिकार है। स्कूल व शिक्षण संस्थानों का काम छात्र- छात्राओं को वैज्ञानिक व तर्कपरक शिक्षा देना है, ताकि छात्र- छात्राएं स्वयं सही निर्णय ले सकें। स्कूल व शिक्षण संस्थानों का काम यह तय करना नहीं है कि कौन क्या पहनकर पढ़ने आएगा। वैसे तो हम शिक्षण संस्थानों में किसी प्रकार के ड्रेस कोड का विरोध करते हैं लेकिन अगर कोई संस्था किसी प्रकार का ड्रेस कोड तय भी करे तो वो बाध्यकारी नहीं होना चाहिए। यह व्यक्ति की धार्मिक व निजी स्वतंत्रता और उसकी गरिमा के खिलाफ है। व्यक्तियों की धार्मिक व निजी स्वतंत्रता का ध्यान रखा जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति या संस्था किसी भी विषय पर अपना मत रखने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन वो अपना मत किसी पे थोपने का अधिकार नहीं रखता। भारत एक बहु धार्मिक व बहुसांस्कृतिक देश है। यहां अलग- अलग बोलियां हैं, भाषाएं हैं, खान- पान हैं, पहनावे हैं। सभी लोगों पर एक नियम थोपना तानाशाही के सिवाय और कुछ नहीं है। भारत का संविधान भी लोगों को धार्मिक व नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह अलग है कि अब ये बातें सिर्फ संविधान के किताब की शोभा बढ़ाने से ज्यादा महत्व नहीं रखतीं।
इंक़लाबी छात्र मोर्चा का यह स्पष्ट मत है कि हिजाब, बुर्का, घूंघट, मंगलसूत्र, सिंधुर ये सब पितृसत्ता की निशानी हैं। हम इनके पक्ष में नहीं हैं। लेकिन हम इन सब चीजों से असहमत होते हुए भी अगर कोई स्त्री अपनी मर्जी से यह सब चीजें धारण करती है तो उसको जबरदस्ती ऐसा करने से रोकने के सख्त खिलाफ हैं। यहां मामला पूरी तरह से जनवाद का है। हालिया विवाद को सह देने वाले आरएसएस- बीजेपी जैसे फासीवादी संगठनों का इतिहास उठाकर देखें तो वो अपने जन्म से ही मुस्लिमों के खिलाफ साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर सत्ता तक पहुंचने की कोशिश करते रहे हैं। खासतौर पर 2014 में बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से उसके मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक कार्यवाइयों में और तेजी आई है। इसके लिए वो रोज CAA-NRC, ट्रिपल तलाक, लव जिहाद, सार्वजनिक जगहों पर नमाज पढ़ने, इस्लामिक पोशाक पहनने, अयोध्या-काशी-मथुरा व इतिहास की तमाम मनगढंत बातों जैसे नए- नए मुद्दे लाकर मुस्लिमों के खिलाफ बाकी जनता के मन में साम्प्रदायिक उन्माद भड़काते हैं ताकि उसकी आड़ में वो दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, मजदूरों, किसानों, आदिवासियों व मुस्लिमों पर अपनी साम्राज्यवाद परस्त व दलाल पूंजीवादी आर्थिक नीतियां थोप सकें व अपना सांस्कृतिक वर्चस्व बनाये रख सकें। असल में आरएसएस- बीजेपी का मुख्य एजेंडा भारत में ब्राह्मणवादी- सामंती पेशवा राज कायम करने की है। भले ही इसके लिए देश को साम्राज्यवादियों के अधीन ही क्यों न करना पड़े। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दलाली करने का इनका इतिहास जगजाहिर है। देश को मिली झूठी आजादी और साम्राज्यवाद- सामन्तवाद विरोधी राष्ट्रीय व जनवादी क्रांति न होने की वजह से आज भी भारत एक अर्द्ध सामंती- अर्द्ध औपनिवेशिक देश बना हुआ है। लड़के- लड़कियों को आज भी अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी तक चुनने का अधिकार नहीं है।
जो लोग लव जिहाद जैसे साम्प्रदायिक और पितृसत्तात्मक कानून लाकर दो बालिगों को अपना जीवनसाथी चुनने से रोकते हैं, जो वर्ण व्यवस्था और सती प्रथा का समर्थन करते हैं, जो महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं देना चाहते, आज उन्हें सिर्फ इस्लाम में पितृसत्ता दिख रही है और वो खुद को मुस्लिम महिलाओं का हितैषी घोषित कर रहे हैं। जो लोग देश का मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री रहते हुए और संविधान की कसम खाकर भी एक धर्म विशेष के बाबा बने हुए हैं, पंडे- पुजारियों का वस्त्र पहनते हैं, दिन रात खुलेआम एक धर्म विशेष का प्रचार करते हैं आज वो मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनकर स्कूल आने पर रोक लगा रहे हैं। इनकी घटिया राजनीति और मंसूबों को समझने व उजागर करने की जरूरत है। यह इनकी घृणित फासीवादी सोच ही है कि जो ये न खाएं वो कोई न खाए, जो ये न पहनें वो कोई न पहने। आज जिस पैमाने पर इन्होंने जनता की जनवादी चेतना को कुंद करने का काम किया है वो अभूतपूर्व है। वो चाहे दलित हों, चाहे पिछड़े हों, चाहे महिलाएं हों सभी तबकों के एक हिस्से का साम्प्रदायिकरण करने में ये कामयाब हुए हैं। इसके लिए वो तमाम राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अपने निहित स्वार्थों की वजह से अपने कार्यकर्ताओं व जनता की जनवादी राजनीतिक चेतना बढ़ाने की जगह उन्हें अपना पिछलग्गू बनाये रखने का काम किया है और आज भी कर रहे हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि आरएएस- भाजपा जैसे साम्प्रदायिक फासीवादी दल सिर्फ मुस्लिमों के दमन तक ही सीमित रहने वाले हैं वे बहुत भोले हैं। अगर इन पर लगाम नहीं लगाया गया तो कल को ये सिखों को पगड़ी नहीं बांधने देंगे, ईसाइयों को चर्च नहीं जाने देंगे, दलितों व महिलाओं को स्कूल नहीं जाने देंगे। वैसे भी देश तो सिर्फ कहने के लिए ही धर्मनिरपेक्ष है। कौन नहीं जानता कि हमारे देश में शिक्षण संस्थानों से लेकर, थाना, कोर्ट- कचहरी और तमाम संस्थाएं ब्राह्मणवादी हिदुत्व के रंग में ही रंगे हुए हैं।
आज राज्य मशीनरी सहित देश की तमाम संस्थाओं पर साम्राज्यवाद परस्त ब्राह्मणवादी हिंदुत्व फासीवादियों का कब्जा है। न्यायपालिका जिसे कथित तौर पर नागरिक अधिकारों का संरक्षक माना जाता है, इन तमाम मसलों पर उसकी चुप्पी किसी को हैरान करने वाली नहीं है। भारत की न्यायपालिका वास्तव में मनुपालिका है। इससे यह उम्मीद करना कि वो आपके जनवादी और नागरिक अधिकारों की हिफाजत करेगी खुद को धोखा देने के समान है। अनगिनत मामलों में इसका चरित्र स्पष्ट हो चुका है। आज जरूरत है कि देश में मुकम्मल जनवादी व धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए क्रांतिकारी जन संघर्ष को तेज किया जाए और देश में चल रही नवजनवादी क्रांति को मजबूत बनाया जाए ताकि सभी वर्गों व संप्रदायों के जनवादी अधिकारों की गारंटी की जा सके।
इंक़लाब ज़िंदाबाद!
एग्जीक्यूटिव कमिटी(EC)
इंक़लाबी छात्र मोर्चा(ICM), इलाहाबाद
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काश वो लड़की इन्कलाब जिन्दाबाद कहती
इस देश को सुंदर बनाने में सभी कौमों की भागीदारी रही है, यह भारतीय गंगा जमुनी सभ्यता का एक बेहद खूबसूरत मेल है और इस भारतभूमि का सौभाग्य है कि इन तमाम कौमों में मुसलमानों की भागीदारी इस सुंदर बनाने की प्रक्रिया में ज्यादा रही है। दुनिया का हर कदम आगे की ओर बढ़ रहा है। समाज , राजनीति और विज्ञान हर क्षेत्र में परिवर्तन के नये कीर्तिमान बनाने की होड़ लगी है लेकिन एक अपना मुल्क है कि जहां हर चीज उल्टी दिशा में चल रही है और उसकी जय जयकार हो रही है। कर्नाटक की अल्लाह हू अकबर वाली लड़की निश्चित तौर पर एक साहसी लड़की है लेकिन भगवा गुंडों की घेराबंदी से घिरी उस लड़की के अल्लाह हू अकबर में प्रतिरोध का अंश नहीं बल्कि पूरी तरह प्रतिशोध के विस्फोटित होते बीज थे और पूंजीवाद इस टकराव को यथावत बनाए रखना चाहता है। भारत के इस घिनौने पुरुषवादी मानसिकता के समाज में हर जाति-धर्म की स्त्री हिजाब में है यह जरूरी नहीं कि कपड़े का ही हिजाब हो, मध्ययुगीन दकियानूसी रीति रिवाजों की कथित पवित्रता को बनाए रखने के लिए हर धर्म आज के समय में लालयित है और यह कपड़े के हिजाब से भी भयावह और जानलेवा है। जरा ठहरकर सोचिए यदि वह लड़की हिजाब संस्कृति के विरुद्ध खड़ी होती और ज्ञान विज्ञान के जरिए पुरातनपंथी जड़ समाज की आलोचना करती तो अभी तक उसका क्या हस्र हुआ होता। लेकिन उसने तो उसी संस्कृति को आगे बढ़ाने का उग्र रूप रख लिया जिस संस्कृति को बनाए रखने के लिए हर धर्म की दिशा अपने रूढ़िवादी मार्गों का विस्तार करने में लगा है इसीलिए एक मौलाना ने तो उस लड़की को 5 लाख रुपए देने की तुरंत घोषणा तक कर डाली। यह सब त्वरित तौर पर इसलिए होता है कि कहीं कोई स्त्री अगर संवेदनहीन धर्म के विरोध में पहलकदमी लेने की कोशिश कर रही है तो उसे "ऐसे अल्लाह हू अकबर वाली लड़कियों का उदाहरण देकर" हतोत्साहित किया जा सके डराया धमकाया जा सके। लेकिन जो भी हो इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा प्रायोजित कर्नाटक के इस सस्ते मनोरंजन का आशय इतना ही है कि यह व्यवस्था हर एंगल से स्त्री समाज का सिर्फ इस्तेमाल ही कर सकती है। मुझे तो इन कम्युनिस्टों पर बड़ा तरस आ रहा है जो कर्नाटक मामले में स्त्रियों को शिक्षा से बेदखल करने का स्यापा मचा रहे हैं। दरअसल वामपंथियों के चंगुल में फंसा "स्त्री मुक्ति विमर्श" से ही स्त्री संघर्षों की दशा दयनीय हुई है। अब इन्हें कौन समझाए कि कोई भी शिक्षा पद्धति मूल रूप से स्त्रियों के लिए है ही नहीं। जो भी शिक्षा है उस शिक्षा के जरिए सिर्फ और सिर्फ इस पुरुष प्रधान मानसिकता वाली व्यवस्था को ही शक्तिशाली बनाया जाता रहा है और स्त्रियों को पुरुषों के अधीन ही रहने के इस षड्यंत्र में स्त्रियों का ही इस्तेमाल सबसे ज्यादा हुआ है। इसलिए स्त्रियों के शिक्षा पर हमले का तो सवाल ही नहीं है। हम स्त्रियों की कोई जाति धर्म नहीं है इसलिए हमें इस घूंघट हिजाब पर्दा प्रथा के विरुद्ध खड़े होकर इस पुरुषवादी समाज के विरुद्ध राजनीतिक स्टैंड लेने की जरूरत है हमारे संघर्ष बहुत ही दुरूह और आत्मघाती हैं और इन संघर्षों की सफलता और पवित्रता की चिंता किए बगैर पहले हमें तनकर सवाल पूछने के लिए हिम्मती होना होगा। हमारे संघर्षों ने इतिहास में सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के समूचे ताने-बाने को बदला है और आगे भी यह संघर्ष जारी रहेंगे। हिजाब संस्कृति बनाये रखने की चिंता में अपनी सेहत खराब कर डालने वाले बुद्धिजीवयो हिजाब पहनने की संस्कृति की जय जयकार करने से बाज आओ , हमें मालूम है तुम हिजाब में स्त्री देह नहीं बल्कि अपने मंसूबों को छिपा रहे हो।
- वर्षा गायकवाड़
नांदेड़ , महाराष्ट्र !
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13 Feb 2022
सोशल मीडिया पर सक्रिय वामपंथी साथियों का एक हिस्सा उन वामपंथियों की आलोचना बड़ी झल्लाहट के साथ कर रहा है, जो मुस्लिम लड़कियों द्वारा फासिस्ट गुंडों के सामने सर ऊँचा कर घुटने टेकने से मना करने और प्रतिरोध स्वरूप हिज़ाब ओढ़ने की हिम्मत की, तारीफ़ कर रहे हैं, उनका समर्थन कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि उन साहसी लड़कियों का समर्थन करना इस्लामिक कट्टरता, पित्रसत्तात्मक सोच का समर्थन करना है और कम्युनिस्टों को ऐसा नहीं करना चाहिए. बल्कि इससे भी आगे बढ़ते हुए, 'इन लोगों को इतना भी मार्क्सवाद नहीं समझता' कहकर उन्हें लताड़ भी रहे हैं.
मैं भी उन बहादुर मुस्लिम लड़कियों के साथ हूँ जिन्होंने हिंसा पर उतारू और पुलिस प्रशासन की शह प्राप्त फासिस्ट गुंडों की धमकियों से डरने से दृढ़ता से मना कर दिया और चुनौती देने की हिम्मत की कि हम पहनेंगे जो करना है कर लो. मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ ,ये बात एक उदहारण से समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.
'सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक आडम्बर नहीं होने चाहिएं.' फंडूओं को छोड़कर शायद ही इस बात से कोई ऐतराज़ करे. लेकिन यदि एक धार्मिक समुदाय को सरकार द्वारा आबंटित प्लाट पर मस्जिद ना बनाने दी जा रही हो, प्रशासन द्वारा कुछ चुनिन्दा स्थानों को नमाज पढ़ने के लिए आबंटित करने पर भी वहाँ नमाज ना पढ़ने दी जा रही हो, नमाज़ पढ़ने के विरुद्ध आपति प्रशासन-पुलिस में दर्ज़ ना कर नमाज़ पढ़ रहे लोगों को तरह तरह से, अश्लील, भड़काऊ हरक़तें लगातार कर डराया जा रहा हो, पुलिस तमाशबीन बनी खड़ी हो, पुलिस में नमाजियों द्वारा शिकायत करने पर पुलिस खुद उन्हें ही धमका रही हो, गुंडों के पक्ष में डटी हुई हो, नमाज़ विरोधी समुदाय अपना हर धार्मिक आयोजन सार्वजनिक स्थानों पर लाउड स्पीकर लगाकर ही करता हो और हर जुलुस मुस्लिम मोहल्लों से निकालने के लिए ही अड़ा रहता हो, तो आप क्या करेंगे? क्या ये अभी भी वही सामान्य मुद्दा है कि सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ क्यों पढ़ी जा रही है? इस भयंकर प्रताड़ना के विरुद्ध डट जाना भी क्या कठमुल्लों का साथ देना माना जाएगा?
भाजपा और संघ परिवार बहुत सोच समझकर एक- एक कदम फासीवाद घटाटोप को गहरा करने की ओर उठा रहे हैं. हर क़दम पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का अध्ययन कर रहे हैं. किसी भी क़दम को पीछे लेने को तैयार नहीं हैं बल्कि एक-एक कर प्रशासन के हर अंग को अपने चंगुल में लेते जा रहे हैं. परिस्थितियों की द्वंद्वात्मक पद्धति की जगह यांत्रिक सोच का शिकार हो फासिस्टों का एस स्टेज में विरोध ना करना एक भयंकर भूल होगी.
Satbir singh
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साम्प्रदायिक ताकतों को शिक्षा से दूर करो!
शैक्षिक समस्याओं के खिलाफ छात्रों की एकता को मजबूत करो!
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स्कूल-कॉलेजों में यूनिफॉर्म के नियम लागू करने का मामला कर्नाटक हाई कोर्ट तक पहुंच गया है और जल्द ही इस पर कोर्ट में सुनवाई शुरू होगी। लेकिन कर्नाटक राज्य की बीजेपी सरकार ने फैसले का इंतजार किए बिना स्कूलों और कॉलेजों में यूनिफॉर्म अनिवार्य कर दी है। ऐसे समय में जब यह मामला कोर्ट में विचाराधीन है सरकार का यह कदम बेहद निंदनीय है।
भगत सिंह, नेताजी जैसे अन्य सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने धर्म को शिक्षा से दूर रखने के लिए कहा था। उन्होंने कहा था कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है और इसे ऐसे ही रहना चाहिए। यहां तक कि विवेकानंद ने भी घोषणा की, *"धर्म को छोड़ दो! सामाजिक कानून बनाने में धर्म का कोई काम नहीं है!"*
लेकिन, आजादी के बाद, कांग्रेस और अन्य पार्टियों के नेतृत्व वाली सभी सरकारों ने धर्म को शिक्षा से दूर नहीं रखा, बल्कि उन्होंने शिक्षा और राजनीति के हर पहलू में धर्म को मिला दिया है।
यह अकेले हिजाब का सवाल नहीं है! स्कूलों और कॉलेजों में धार्मिक प्रथाओं को निभाने की कोई सीमा नहीं है। यह उन स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों के साथ विश्वासघात है जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी थी। सांप्रदायिक माहौल से लड़ने के लिए, नेताजी ने कहा था *"धार्मिक कट्टरता से लड़ने का एकमात्र समाधान वैज्ञानिक व धर्मनिरपेक्ष शिक्षा ही है।"* इसलिए वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा समय की मांग है।
सरकार द्वारा छात्र समुदाय और शिक्षा पर किये जा रहे हमले हाल के दिनों में बढ़े हैं। वर्तमान संकट छात्रों को अपनी एकता मजबूत करने का आह्वान करता है। छात्रों को सोचना चाहिए कि अगर वे खुद को जाति और धर्म के साम्प्रदायिक रूप में बांट लेते हैं तो किसको फायदा होने वाला है और किसे नुकसान होने वाला है।
छात्रों को यह भी समझना होगा कि सरकार खुद इस तरह की साम्प्रदायिक ताकतों को प्रोत्साहित कर रही है। छात्रों को सही व वास्तविक समस्याओं के खिलाफ लड़ने के लिए खुद को तैयार रखना होगा। साथ ही, सभी को शिक्षा के व्यापारीकरण जैसी समस्या के खिलाफ एकजुट होना होगा।
छात्र संगठन-एआईडीएसओ कर्नाटक के छात्रों को सतर्क रहने और शिक्षा की समस्याओं से लड़ने के लिए एकजुट होने का आह्वान करता है।
एआईडीएसओ (AIDSO)
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*हिजाब के बहाने नागरिक आज़ादियों को कुचलने की कोशिश*
देश भर के हम लेखक-कलाकार कर्नाटक में हिजाब पहनने के कारण मुसलमान लड़कियों को डराने-धमकाने, उत्पीड़ित करने और उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की शर्मनाक कोशिशों के प्रति अपना गहरा क्षोभ प्रकट करते हैं।
हम लड़कियों के अपनी मनमर्जी की पोशाक पहनने के अधिकार का पुरज़ोर समर्थन करते हैं और इस समय हिजाब पहनने की मांग करनेवाली लड़कियों के साथ अपनी एकजुटता ज़ाहिर करते हैं।
भारत में सदियों से महिलाएं सिर के बालों को ढंकने के लिए हिजाब, दुपट्टे या साड़ी के पल्लू का इस्तेमाल करती आई हैं। हिजाब को लेकर उठा नया विवाद हिंदुस्तान में अल्पसंख्यकों के ग़ैरीकरण की लगातार चल रही प्रक्रिया का नया हिस्सा है।
इस प्रक्रिया की शुरुआत हिंदूराष्ट्र-वादी पार्टियों के द्वारा बाबरी-मस्जिद के विध्वंस और चोरी-चुपके रखी गई मूर्तियों के नाम पर मंदिर निर्माण पर चले अयोध्या आंदोलन से हुई थी। बहुत-से उदारचेता उदारवादी लोगों का ख्याल था कि बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर के निर्माण की मांग अनैतिक और अवैध होते हुए भी इसलिए स्वीकार कर ली जानी चाहिए कि उसके बाद हिंदूवादी सांप्रदायिक तत्वों के हाथ से मुद्दा छिन जाएगा और देश में सामाजिक सौहार्द और लोकतांत्रिक आज़ादी का माहौल फिर से क़ायम किया जा सकेगा।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं ने सभी के सामने यह साफ़ कर दिया है कि हिंदू सांप्रदायिक फ़ासीवादी तत्त्वों के साथ समझौता करते हुए लोकतंत्र के रास्ते पर एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
अयोध्या के बाद अब काशी और मथुरा को भी हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने की रणनीति के तहत विकसित किया जा रहा है। बात यहां तक बढ़ी है कि गुड़गांव जैसे अनेक शहरों में मुसलमानों को उन तमाम जगहों पर नमाज़ पढ़ने से भी रोका जा रहा है, जहां वे परंपरागत रूप से सद्भावपूर्ण वातावरण में नमाज़ पढ़ते आए थे।
अल्पसंख्यक विरोधी नागरिकता क़ानून के ज़रिए भी उन्हें दूसरे दर्जे की नागरिकता में धकेलने की कोशिश की गई। इसके विरोध में उठ खड़े हुए राष्ट्रव्यापी आंदोलन को सरकारी और ग़ैर-सरकारी एजेंसियों की हिंसा के ज़रिए दबाने की कोशिश की गई। सत्ताधारी पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं ने अल्पसंख्यकों को उनकी पोशाक के कारण निशाना बनाया। चुनावी रैलियों में हिंदुत्व के नाम पर सांप्रदायिकता का ज़हर बोने की कोशिशें लगातार की गईं।
आज सिर के बाल ढंकने के अधिकार की मांग करने पर भी मुसलमान लड़कियों को देशद्रोही और आतंकी ठहराया जा रहा है। अल्पसंख्यकों के ग़ैरीकरण के ज़रिए फ़ासीवादी निज़ाम क़ायम करने की मंशा के अलावा इस अभियान के पीछे सक्रिय पितृसत्तावादी मंसूबों को भी आसानी से पहचाना जा सकता है।
हिजाब पहननेवाली लड़कियों को उत्पीड़ित करनेवाले तत्व उसी राजनीतिक कुनबे के हैं, जिसने सालों जींस पहननेवाली और वैलेंटाइन डे पर अपने मित्रों के साथ दिखाई पड़नेवाली लड़कियों को भी अपमानित करने की कोशिश की है। परम्परा, बहुमतवाद और कथित राष्ट्रीय एकरूपता के नाम पर नागरिक आज़ादियों और सांस्कृतिक विविधताओं को कुचलने की कोशिशें की जाती रही हैं। यह स्कूल यूनिफ़ॉर्म का मुद्दा नहीं है, क्योंकि सिर के बाल ढंकना, पगड़ी पहनना या बिंदी-सिंदूर जैसे चिह्न धारण करना यूनिफ़ॉर्म का हिस्सा नहीं है।
कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, वह दक्षिण भारत में हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला खोलने की एक लंबी योजना का हिस्सा जान पड़ता है। यह अकारण नहीं है कि कर्नाटक के अगले चुनाव के साल भर पहले से अल्पसंख्यक-विरोधी घृणा का एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जो पहले कभी देखा नहीं गया था। ऐसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, जो पहले कभी सुने नहीं गए थे।
यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ग़ैरीकरण की इन कोशिशों को केवल बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी और ग़ैरबराबरी के मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश के रूप में नहीं देखा जा सकता। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदूराष्ट्रवादी राजनीति बेरोज़गारी और ग़रीबी के मुद्दों को अपने समर्थकों के ध्यान से ग़ायब करने में क़ामयाबी हासिल कर चुकी है। इन मुद्दों की अब कोई चिंता या गरज हो, ऐसा नहीं जान पड़ता है।
हिंदुत्ववादी राजनीति इस समय केवल अल्पसंख्यक-विरोधी घृणा और ग़ैरीकरण को एक स्थायी राजनीतिक एजेंडे के रूप में विकसित करने में लगी हुई है। उसे उम्मीद है कि इस अभियान के सफल होने पर हिंदू के नाम पर इस देश के समूचे राजनीतिक मैदान पर आसानी से क़ाबिज़ हो जाएगी। राहत की बात यह है कि बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से आनेवाली युवा पीढ़ी ने इस राजनीतिक साज़िश को अच्छी तरह पहचान लिया है। वह सीएए विरोधी आंदोलन से लेकर हिजाब के विवाद तक मज़बूती से हिंदूराष्ट्रवादी तत्वों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न की शिकार लड़कियों और आम लोगों के साथ खड़ी है।
हम सभी लेखक-कलाकार प्रतिरोध की तमाम जनवादी आवाज़ों के साथ अपनी आवाज़ मिलाते हुए आम जनता से नफ़रती हिन्दूराष्ट्रवाद के खिलाफ़ भगतसिंह, आंबेडकर, महात्मा गाँधी और कवींद्र रवींद्र के भारतीय स्वप्न की रक्षा के संघर्ष में शामिल होने का आह्वान करते हैं।
*जारीकर्ता*
*हम देखेंगे:राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान*
*बुर्का या घूँघट पर*
मेरी दादी पहनती थी उससे थोड़े आधुनिक वस्त्र मेरी मां पहनती थी। मेरी मां से ज्यादा आधुनिक वस्त्र मेरी पत्नी पहनती है। मेरी पत्नी से ज्यादा आधुनिक वस्त्र मेरे बेटे की पत्नी पहनती है। प्रगतिशीलता धीरे-धीरे आती है। उसे आप थोप नहीं सकते हैं।
किसे क्या खाना वह तय करने का अधिकार दूसरे लोगों को नहीं होना चाहिए। किसे क्या पहनना है वह तय करने का अधिकार दूसरे लोगों को नहीं दे सकते हैं। जय श्री राम बोलती गुंडों की भीड़ को तो ये अधिकार कभी नहीं दे सकते हैं।
अगर लडकियां स्कुल कोलेज जाती रहेगी तो एक दिन वह अपने परिवार में जरुर कहेगी कि मुझे बुरखा अच्छा नहीं लगता है। लेकिन उसके लिए उसे कोलेज जाने की छूट तो दिजिए। आप हिजाब के नाम पर स्कुल जाने की पाबंदी लगाओगे तो वह पढेगी कैसे?
आरफा खानम शेरवानी, राणा अयूब, नगमा शहर जैसे कंई उदाहरण मिल जायेंगे। उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और खुद तय किया कि बुरखा पहनना है या नहीं।
सिर पर पल्लु रखने का रिवाज तो पूरे भारत में हर समुदाय में है। इन्दिरा गांधी भी साड़ी का पल्लु सिर पर रखती थी। कंई समाज में पुरुष भी पघडी टोपी हेट पहनकर अपने सिर की रक्षा करते हैं।
शिक्षा का स्तर जैसे जैसे बढेगा, प्रगतिशीलता अपने आप आने लगेगी। लड़की भी अपने परिवार में बोलने लगेगी कि पिताजी मुझे ये नहीं पहनना है। खुद अपने जीवन में नहीं कर पायेगी तो वह अपनी बेटी को स्वतंत्रता देगी।
लेकिन कट्टरपंथी गुंडों को हम ये अधिकार नहीं दे सकते हैं वह किसी स्कुल या कोलेज के बाहर खड़े होकर ये तय करे कि हिजाब पहनने वाली लड़की को वे अंदर नहीं जाने देंगे।
लड़की को ही अधिकार होना चाहिए कि उसे क्या पहनना है। उसके माता-पिता से वह अपनी स्वतंत्रता के बारे में बात कर सके उतनी शिक्षित तो उसे होने दिजिए। शिक्षा आयेगी तो धीरे-धीरे सब कुछ होगा।
-- अनिल रेशनलिस्ट
हिजाब तो बस बहाना है
युवाओं को मुद्दे से भटकाना है
युवा आपस में उलझे रहेंगे,
तो ना शिक्षा लेंगे ना रोजगार मांगेंगे
(Vis WA)
हिजाब प्रकरण में मित्र रंगनाथ सिंह का यह लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए......
आज सुबह खबर आयी कि अफगानिस्तान पुलिस की पूर्व महिला कर्मी को गोली मार दी गयी है। क्यों और कैसे इसकी दुनिया में किसी को परवाह नहीं है तो हमें भी क्यों हो।अफगानिस्तान की एक यूनिवर्सिटी गेट से उन लड़कियों को लौटाया जा रहा है जिन्होंने बुरका नहीं पहना है। जाहिर है कि फिलहाल तालिबान प्रवक्ता यूरोप की यात्रा पर हैं।
अफगानिस्तान में महिलाओं के संग जो हो रहा है वह इंटरनेट पर वायरल नहीं हो रहा है। ईरान में एक शख्स अपनी 17 की पत्नी की सिर काटकर सड़क पर लेकर आ गया। लड़की की जब12-15 साल की बच्ची थी तभी उसकी शादी हो गयी थी। वह पति से बचकर तुर्की भाग गयी थी। ईरानी पत्रकार कह रही हैं कि उस लड़की को ईरान वापस भेजने में ईरान के तुर्की दूतावास की भूमिका थी। वह देश लौटी तो पति ने गला काटकर सड़क पर जगजाहिर कर दिया। ईरान के एक इस्लामी विद्वान ने स्थानीय टीवी चैनल पर लड़की का गला काटकर घूमने वाले पति का बचाव करने का प्रयास किया। जाहिर है कि ऐसे मसलों पर इंटरनेट नहीं हिलता। लोकतान्त्रिक देशों को आजकल 'मुस्लिम महिलाओं' को बुरका पहनाने की ज्यादा चिन्ता है।
जाहिर है कि लोकतांत्रिक देशों में स्कूल में बुरका अधिकार बताया जा सकता है लेकिन अन्य देशों में यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ भी कपड़े के मामले में 'माई च्वाइस' नहीं कह सकतीं। हमारे बीच कुछ लोग सेलेक्टिव सेकुलर हैं कि उन्हें अपने बच्ची के लिए कुछ और अच्छा लगता है, दूसरे की बच्चियों के लिए कुछ और। मासूमियत देखिए कि वो यह महान काम 'धार्मिक अधिकारों की रक्षा' के लिए कर रहे हैं। यह आम समझ है कि दुनिया के सभी प्राचीन धर्म मूलतः पितृसत्तात्मक हैं। उनकी जकड़ से महिलाओं को निकलने के लिए मूलतः धर्म की बेड़ियाँ ही तोड़नी पड़ती हैं। रिलीजियस फ्रीडम का अधिकार मूलतः अपने मनपसन्द ईश्वर की पूजा करने का अधिकार है। स्वाभाविक सी लगने वाली यह बात अधिकार के रूप में दुनिया में क्यों प्रचारित की जाती है? क्योंकि कुछ धर्मों को लगता है कि केवल उनका ईश्वर ही सही है और उनकी पूजा-पद्धति ही सही है। इस मामले में हमारे देश में टू-मच डेमोक्रेसी रही है। कुछ देश तो ऐसे हैं कि उनके एक की जगह किसी दूसरे की तरफ हाथ जोड़ लिया तो जान गयी। हमारे देश में 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 33 करोड़ का जबका डेटा है उस समय के हिसाब से इस देश में पर-हेड तीन-चार देवी-देवता पड़ेंगे। तो फ्रीडम ऑफ फेथ एंड वर्शिप तो यहाँ का स्वभाव है।
कुछ लोग यह दिखाना चाह रहे हैं कि कर्नाटक विवाद की जड़ में केवल सत्ताधारी दल है। ऐसे लोग या तो मासूम हैं या चरमपंथी प्रोपगैण्डा नेटवर्क का हिस्सा हैं। सत्ताधारी दल मामले को हवा दे रहा होगा या उसका अपने चुनावी हित में इस्तेमाल कर रहा होगा लेकिन यह मामला उसके सत्ता में आने से बहुत पहले का है, उसकी सत्ता से बाहर की बहुत बड़ी दुनिया का है। भारत में भी स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने का मामला केरल में हाईकोर्ट तक गया जहाँ आज तक भाजपा का दो विधायक या एक सांसद नहीं जीता।
अंतरराष्ट्रीय बुरका अभियान ने पहले चरण में नौजवान महिलाओं को टारगेट किया। उसके बाद वह स्कूली बच्चियों को टारगेट कर रहे हैं। इस्लामी देशों में बुरके के खिलाफ आन्दोलन चल रहे हैं। लोकतान्त्रिक देशों में बुरका पहनने को लेकर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं। पिछले 100 सालों में फैले इस्लामी चरमपन्थ के बहुत से मामलों की तरह इस मामले की भी जड़ में अमेरिका-यूरोप नजर आते हैं। एक बुरका-विरोधी आन्दोलन को शुरू करने वाली एक ईरानी पत्रकार ने सही सवाल पूछा है कि इस्लामी देशों में बुरके का विरोध करने वाली लड़कियाँ तो जेल, कोड़े या कत्ल किए जाने का रिस्क लेती हैं, लोकतांत्रिक देशों की लड़कियाँ क्या ऐसा रिस्क लेती हैं?
साल 2013 में न्यूयॉर्क में रहने वाली एक महिला ने एक फरवरी को हिजाब डे मनाने की शुरुआत की। 2013 से उसने शुरुआत की यानी इसकी भूमिका उसके पहले से बन रही थी। एक फरवरी वही दिन है जब ईरान की कथित इस्लामिक क्रान्ति के चलते अयातुल्लाह खुमैनी फ्रांस से ईरान लौटे! जरा सोचिए, ईरानी महिलाओं पर पर्दा थोपने वाला शख्स दुनिया के सबसे आजादख्याल मुल्क में पनाह लिए हुए था! आज पचास साल बाद फ्रांस में सार्वजनिक स्थानों पर बुरके पर प्रतिबन्ध लग चुका है। इस प्रोपगैण्डा की शुरुआत बहुत साफ्ट तरीके से यह कहकर हुई कि मुस्लिम-द्वेष के खिलाफ साल में एक दिन हिजाब लगाना चाहिए। इसकी शुरुआत एक लड़की ने की। जाहिर है कि हिजाब शब्द का चुनाव सोचसमझकर किया गया। कर्नाटक में भी विरोध-प्रदर्शन में शामिल ज्यादातर लड़कियाँ बुरके में नजर आ रही हैं लेकिन इंग्लिश मीडिया जानबूझकर हिजाब शब्द का प्रयोग कर रहा है। प्रोपगैण्डा युद्ध में शब्दों का चयन बहुत अहम है।
कर्नाटक विवाद में जिस स्कूल से ताजा विवाद शुरू हुआ है उसका नाम प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज है। जिन लड़कियों से विवाद शुरू हुआ वो 11-12वीं पढ़ती हैं लेकिन इस आन्दोलन के रणनीतिकारों ने यह सुनिश्चित किया कि कॉलेज शब्द का अस्पष्ट प्रयोग किया जाए क्योंकि भारत की बड़ी आबादी इस बात पर लड़कियों के साथ रहेगी कि कॉलेज की लड़की को अपनी मर्जी के कपड़े पहनने का हक है। लेकिन यह कोई नहीं पूछेगा कि देश के किस-किस ग्रेजुएशन कॉलेज-यूनिवर्सिटी में लड़कियों के लिए ड्रेसकोड लागू है। ड्रेसकोड स्कूल तक ही लागू रहता है और यह प्रोपगैण्डा नेटवर्क स्कूल में बुरका लागू कराने के लिए ही सक्रिय है। अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो ज्यादातर स्कूली लड़कियाँ नाबालिग या 18 से कम ही होंगी। ताजा विवाद के बाद कल ऐसे पुराने विवादों के बारे में पढ़ रहा था तो पता चला कि इससे पहले एक विवाद में कक्षा 8 में पढ़ने वाली लड़की से स्कूल में बुरका पहनकर जाने की याचिका डलवायी गयी थी।
पॉपुलर फ्रंट केरल से निकला संगठन है। उसे अच्छी तरह पता है कि केरल में जब एक ईसाई स्कूल में बच्चियों के (जी हाँ, बच्चियों न कि महिलाओं के कपड़े जैसा कि प्रोपगैण्डा नेटवर्क ने स्थापित कर दिया है) के बुरका पहनने को लेकर मामला हाईकोर्ट पहुँचा तो अदालत ने न्याय दिया कि किसी एक बच्ची के अधिकार और संस्थान के अधिकार ( जो व्यापक समूह का अधिकार है) के बीच गतिरोध हो तो एक या कुछ व्यक्ति के अधिकार पर संस्था को तरजीह देनी पड़ेगी। यह मामला भले अदालत पहुँच गया हो लेकिन इतना तो कॉमन सेंस होना चाहिए कि हर व्यक्ति की पसन्द के हिसाब से संस्था नहीं चल सकती।
ज्यादातर कॉलेजों में ड्रेसकोड लागू नहीं होता। ताजा विवाद और इससे पहले के विवाद भी स्कूल में बुरका पहनने को लेकर ही शुरू हुए। जब कॉलेज में बुरके पर रोक नहीं है तो स्कूल में बुरको को लेकर इतनी जिद क्यों! क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि लड़कियों की माहवारी शुरू होते ही वह छिपाने लायक हो जाती हैं। ऐसी सोच वाले अपने बचाव में सबसे ज्यादा यह तर्क देते हैं कि फलाँ लोग भी पहले यही मानते थे आदि-इत्यादि। जाहिर है कि महिलाओं को अधिकार देने के मामले में कुछ लोग बाकी लोग से कई दशक या सदी पीछे चलते हैं। अफगानिस्तान जैसे देश तो उल्टी दिशा में चल पड़े हैं।
इस्लामी चरमपंथी स्कूली लड़कियों को बुरका पहनाने का अभियान चला रहे हैं। उनका अभियान इतना शातिर रहा कि ताजा विवाद में ग्रेजुएशन कॉलेज और यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ, प्रोफेशनल लड़कियाँ कह रही हैं कि उनके पास बुरका पहनने का अधिकार है। उनसे यह कोई नहीं पूछ रहा कि यह अधिकार तो आपके पास पहले से ही है फिर आप स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने के अभियान में क्यों भागीदार बन रही हैं? ताजा मामले भी गर्ल्स स्कूल की लड़कियों के अभिभावक स्कूल प्रशासन से मिले। उनका कहने का मतलब यही है कि जब माता-पिता के कहने से प्रशासन नहीं झुका तो वो कैम्पस फ्रंट के पास गयीं। ध्यान रहे कि ये स्कूल जाने वाली लड़कियाँ हैं। ज्यादातर अभी बालिग भी नहीं होंगी।
कुछ लोग यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि यह 'अल्पसंख्यक' का मुद्दा है तो उन्हें यह याद दिलाना जरूरी है कि इंटरनेट से कनेक्टेड ग्लोबल विलेज में सही मायनों में अल्पसंख्यक जैन, अहमदिया, पारसी इत्यादि ही कहे जा सकते हैं। अन्य धर्मों का छोड़िए कम्युनिस्टों का भी इंटरनेशनल सपोर्ट नेटवर्क है तो वो भी डिजिटल संसार में अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते। हमारे देश में बहुत सारे लोगों की राय इस वक्त इसलिए बदली हुई है कि कर्नाटक या केंद्र में भाजपा सरकार है। एक चर्चित महिला एंकर और एक मशहूर नोबेल विजेता जिन्हें स्कूल जाने के लिए ही गोली मारी गयी थी, के इस मामले से जुड़े विचार और पुराने विचार सोशलमीडिया पर वायरल हो चुके है।
यह पहला मामला नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार को कट्टरपंथियों ने सरकार पर दबाव बनाकर दबाए हैं। हिन्दू धर्म में शामिल ज्यादातर महिला अधिकार सरकार और अदालत के रास्ते से आये हैं। यही बात मुस्लिम महिला के लिए भी सही है। मुस्लिम महिलाओं के लिए भी सरकार-न्यायालय मुल्लाओं-अब्बाओं से ज्यादा उदार और आधुनिक साबित हुआ। आज ही एक हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि मृतक आश्रित की नौकरी पाने के मामले में बेटी का भी बेटे बराबर ही हक है। पिछले महीने अदालत का फैसला आया कि पिता की सम्पत्ति की इकलौती बेटी भी वारिस होगी। यह लिस्ट लम्बी है। मुस्लिम महिला को गुजाराभत्ता देने के शाह बानो का मामला रहा हो या ताजा एक बार में तीन तलाक देने का मामला। सोचिए जो त्वरित तीन तलाक दो दर्जन से ज्यादा इस्लामी देशों में मान्य नहीं है उसे बचाने के लिए हमारे देश की समूची लिबरल लॉबी उतर पड़ी। भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति जगजाहिर है लेकिन विडम्बना देखिए कि मुस्लिम महिलाओं को पूरी तरह संवैधानिक तौर पर त्वरित तीन तलाक से मुक्ति भाजपा सरकार ने दिलायी। उसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट के त्वरित तीन तलाक के खिलाफ दिए गए आदेश से ही कुछ मुस्लिम महिलाएँ न्याय हासिल कर पाती थीं। भाजपा राज में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के हर तरह के प्रदर्शन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखी गयी है। लता जी के निधन पर शाहरुख खान को जिस तरह हिन्दू कट्टरपंथियों ने ट्रॉल किया वह उसका ताजा उदाहरण है। लेकिन क्या हम केवल मुस्लिम पुरुषों की सुरक्षा और न्याय के रक्षा के लिए चिन्तित रहते हैं? महिला-पुरुष के सवाल क्या धर्म और जाति से परे नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि जो मर्द घर से बाहर शोषित हो वह भी घर में आकर पत्नी के सामने शोषक हो सकता है! क्या किसी भी समाज में एक ही समय में एक ही वैचारिक संघर्ष होता है? इस समय हमारे समाज में कई सामाजिक संघर्ष एक साथ नहीं चल रहे हैं? इन सभी सामाजिक संघर्षों से जुड़े विमर्श एक साथ ही जारी रहते हैं। अपनी रुचि और क्षमता के हिसाब से लोग उनमें भागीदारी करते हैं।
हमारे ज्यादातर लिबरल मित्र उन आठ लड़कियों के साथ खड़े हैं जिनको गर्ल्स स्कूल के गर्ल्स क्लासरूम में भी बुरका (या हिजाब) पहनना है, लेकिन उसी स्कूल की उन 70-150 (अलग-अलग जगह भिन्न-भिन्न आँकड़े हैं।) मुस्लिम लड़कियों के साथ कौन खड़ा है जो गर्ल्स स्कूल में बुरका या हिजाब पहनकर क्लास नहीं करतीं! या नहीं करना चाहतीं! उनके पास स्कूल के नियमों के अलावा कौन सी ढाल है? और स्कूल के बाद तो वो यूनिफार्म के मामले में पूरी तरह आजाद होती हैं। उनके ऊपर जो भी पाबन्दी होती है वो परिवार द्वारा थोपी गयी होती है। बुरके के समर्थन में मर्दों की संख्या देखिए और उनके द्वारा दिए गए तर्क देखिए। क्या बुरका का विकल्प केवल बिकिनी है? क्या आप सचमुच मानते हैं कि बुरका या हिजाब नहीं पहनना नंगा रहना है? क्या आप सचमुच मानते हैं कि हजार साल पुरानी प्रथा के शिंकजे से आजाद होने से ज्यादा अहम है, उस शिकंजे को अपने ऊपर लादने का अधिकार हासिल करना? कौन सी ऐसी महिला-विरोधी कुप्रथा है जिसे महिलाओं के एक वर्ग का समर्थन नहीं प्राप्त है? 15-16 साल की सौ लड़कियाँ कल शादी करने का अधिकार माँगने लगें तो आप क्या स्टैण्ड लेंगे? मुझे पूरा भरोसा है कि दूसरे की बेटी का मामला होगा तो बहुत से लोग उसे भी 'फ्रीडम ऑफ च्वाइस' कहेंगे। फर्क ये होगा कि गरीब-निम्नमध्यमवर्गीय बेटियों को अक्सर 15 में ब्याह की च्वाइस चूज करते देखा जाएँगी और इलीट बुद्धिजीवियों की बेटियाँ पढ़-लिखकर देश-दुनिया घूमने और अफसर बनने की च्वाइस चूज करेंगी। कितनी अच्छी आजादी है, शेर को शिकार करने की आजादी, मेमने को शिकार होने की आजादी।
कुछ घाघ संविधान की दुहाई दे रहे हैं जबकि इस मामले में अदालतें बहुत पहले साफ कर चुकी हैं कि संस्थान या समाज का अधिकार व्यक्ति के अधिकार के ऊपर है। अगर किसी व्यक्ति का अधिकार संस्थान के अधिकार के प्रतिकूल है तो संस्थान के अधिकार को प्राथमिकता दी जाएगी क्योंकि वह सामूहिक अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह के तर्क देने वाले में वो लोग ज्यादा हैं जो कट्टरपंथी नेटवर्क के सीधे प्रभाव में होते हैं। उन्हें प्रोपगैण्डा नरेटिव के औजार सौंपे जाते हैं जिनका वो इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोगों को इन्फ्लुएंसर कहते हैं। राइट-लेफ्ट, हिन्दू-मुस्लिम-कम्युनिस्ट कोई भी समूह हो उसका एक प्रोपगैण्डा नेटवर्क होता है और उसके कुछ इन्फ्लुएंसर होते हैं जो अपने नीचे वाली जमात को बहसबाजी-कठदलीली के लिए कुतर्क-कुतथ्य उपलब्ध कराते हैं।
थोड़ी बात बुरका-हिजाब पर भी जरूरी है। गौरतलब है कि कर्नाटक विवाद में अबी तक जितनी तस्वीरें-वीडियो आये हैं उनमें ज्यादातर में वो लड़कियाँ बुरके में नजर आयी हैं लेकिन वो खुद और लिबरल ईकोसिस्टम के इन्फ्लुएंसर बुरके के लिए 'हिजाब' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। हिजाब इस्लामी पर्दे का सबसे मॉडरेट रूप है। हिजाब और बुरके में सबसे बड़ा अन्तर चेहरा दिखाने-छिपाने का है। कोई लड़की अपने सिर पर दुपट्टा बाँधे हुए है यह कम से कम हमारे देश में कभी आपत्ति का कारण नहीं है। लेकिन प्रोपैगण्डा नेटवर्क को जब सेकुलर यूनिफॉर्म के खिलाफ दलील देनी होती है तो वो सबसे पहले हिजाब का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हिजाब देखने में अफेंसिव नहीं लगता। इससे नौजवान मुस्लिम लड़कियों और गैर-मुसलमानों की सहानुभूति हासिल करने में आसानी होती है। हिजाब और बुरका शब्द के प्रयोग के मनोवैज्ञानिक प्रभाव में बहुत फर्क है लेकिन तर्क एक ही है। अगर आपने यह स्वीकार कर लिया कि मुस्लिम स्कूली बच्ची को उसके दीन के हिसाब से 'हिजाब' पहनना जरूरी है तो आप यह मान लेते हैं कि उस बच्ची को 'हिजाब न पहनने की आजादी' नहीं है क्योंकि उसके धर्म में ऐसा लिखा है। उसके बाद हिजाब-नकाब-बुरका केवल इंटरप्रिटेशन का मामला हो जाता है। ईरानी हिजाब, भारतीय बुर्के और अफगानिस्तानी बुर्के के बीच आप फर्क देख सकते हैं? और यहाँ से नारीवादियों के पिछले 100 सालों में हासिल किया गया वह नरेटिव कफन-दफन हो जाता है जिसमें 'स्त्री के शरीर पर उसका हक' माना जाता है। रिलीजियस स्टडी का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि पितृसत्तात्मक धर्म सबसे ज्यादा औरत के शरीर से बौखलाता है। उसका मानना है कि औरत के शारीरिक उभारों और बालों में वह 'पाप' छिपा हुआ है जिससे वो खतरे में पड़ जाती हैं। बुरकानशीं समाजों में महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों के आँकड़ों से ये धर्माधिकारी मुँह चुरा लेते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में बुरका ही प्रचलित है। हिजाब भारत में नया फैशन है। बहुत पहले एक मुस्लिम मित्र से पूछा कि जब ज्यादातर मुस्लिम देशों में बुरका-नकाब चलता है तो हज में महिलाएँ हिजाब क्यों पहनकर जाती हैं? उनका जवाब था कि वहाँ इतनी बड़ी संख्या में महिलाएँ होती हैं कि यह जरूरी हो जाता होगा। हो सकता है कि सऊदी या ईरान या तुर्की में हिजाब के प्रचलन के पीछे कोई और वजह हो। हिजाब में महिलाएँ एक छोटी चादर सिर के चारों तरफ लपेट लेती हैं जिससे उनके बाल न दिखें। बाकी वो सामान्य कपड़े पहनती हैं। हिजाब मूलतः बेहद प्रचलित बुरका और आधुनिक जरूरतों के बीच समझौते की कड़ी जैसा लगता है। कल ही किसी ने किसी भारतीय राज्य में बुरके में फुटबॉल खेलती लड़कियों का वीडियो शेयर किया है। जाहिर है कि लड़कियों का फुटबॉल खेलना हर धर्म में कभी न कभी अस्वीकार्य रहा है। ये लड़कियाँ आज बुरके में फुटबॉल खेल रही हैं तो कल बिना बुरके के खेलेंगी।
रही इस विवाद के समाधान की तो अब इस बात पर लगभग सहमति है कि ऐसे विवादों का अन्तिम निपटारा सुप्रीमकोर्ट करेगा। ज्यादा बड़ा मसला होगा तो संविधान पीठ करेगी। उससे बड़ा मसला होगा तो और बड़ी संविधान पीठ करेगी। कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया है। न्यायालय जो कहेगा वही हम जैसे मानेंगे। केरल हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला स्पष्ट हो जाना चाहिए था लेकिन वकील और प्रोपगैण्डिस्ट अगर नुक्ताचीनी न कर सकें तो बेरोजगार हो जाएँगे।
यह भी याद रहे कि मौजूदा सरकार 2014 में आयी है, शायद 2024 में रहे, न रहे। इस सरकार से जुड़े मुद्दे इस सरकार से पहले भी थे, इसके बाद भी रहेंगे, हिन्दू चरमपंथ की समस्या मुख्यतः भारत की सीमा तक महदूद हैं लेकिन धर्मपोषित पितृसत्ता और स्त्री का संघर्ष कई हजार साल से चल रहा है और पूरी दुनिया में चल रहा है। इसे अपने फौरी एजेंडे या फायदे तक सीमित न करें। पोस्ट की शुरुआत एक बुरी खबर से हुई है। अंत एक अच्छी खबर से करना चाहूँगा। कश्मीर की जबीना बशीर अनुसूचित जनजाति (मुस्लिम गुर्जर समुदाय) से आती हैं। उन्होंने NEET की परीक्षा पास कर ली है। जबीना के अनुसार वो यह उपलब्धि हासिल करने वाली अपनी जाति की पहली लड़की हैं। उनके पिता साधारण किसान हैं। उसी खबर में पढ़ा कि पिछले साल तमिलनाडु की आदिवासी मालासर समुदाय की लड़की ने NEET निकाला था और यह उपलब्धि हासििल करने वाली अपने समुदाय-गाँव की पहली लड़की बनी थी।
https://www.facebook.com/100000649721564/posts/5159366457428294/
अरे अभागे ! प्रेम करके तो देख !
-सरला माहेश्वरी
हिजाब पहना तो मारेंगे
जींस पहना तो मारेंगे
बुर्का पहना तो मारेंगे
टाँगें दिखाई तो मारेंगे
घूँघट हटाया तो मारेंगे
बोली तो मारेंगे !
न बोली तो मारेंगे !
खिलखिलाई तो मारेंगे
मोबाइल रखा तो मारेंगे
प्रेम किया तो मारेंगे
नौकरी की तो मारेंगे
घर पर रही तो मारेंगे !
इस बहाने ! उस बहाने मारेंगे !
धर्म के नाम पर मारेंगे !
अधर्म के नाम पर मारेंगे !
तुम मारोगे जरूर
ढकूं या उघाड़ूँ कुछ भी
मेरे होने के लिए ही मारोगे
जनम के पहले ही मारोगे !
सच यह है कि तुम्हे
हमारा हिजाब भी डराता है ! हमारी जींस भी डराती है !
घूँघट उठाना भी डराता है ! हमारा बुर्का भी डराता है !
हमारा चुप रहना भी डराता है ! बोलना भी डराता है !
हमारा पढ़ना भी डराता है ! ना पढ़ना भी डराता है !
नौकरी करना भी डराता है ! और घर में रहना भी डराता है !
हमारा खिलखिलाना भी डराता है ! चुप रहना भी डराता है !
गोया हम इंसान नहीं मुट्ठी में बंद तुम्हारे डर का दूसरा नाम हैं !
पर वे दिन दूर नहीं जब
मार ! मार ! मार ! होगा पलटवार !
पलटवार !
खार ! खार ! खार ! ये मार ! वो मार !
ये मार ! वो मार !
तब लड़ाई बराबरी की होगी ! तब आएगा लड़ाई का मज़ा !!
अरे कायर पुरुष मत डर ! मत डर !
हम इंसान है ! मुट्ठी खोल हाथ मिला !
साथ चलकर तो देख ! अपने से निकल कर तो देख !
हमारी आँख से भी देख !
ज़िंदगी को फूलों की तरह महकते तो देख !
पागल ! नजरों को दो-चार करके तो देख !
अरे अभागे ! प्रेम करके तो देख !
--सरला माहेश्वरी--
जालिम ने मारा
बहुत गलत किया
पर मजलूम भी तो सिर उठा कर सीधा खडा हुआ था
गलती उसकी भी तो है
मैं न जालिम के साथ हूं
मैं न मजलूम के साथ हूं
मैं हूं थाली का बैंगन
रहता हूं उधर जिधर हो वजन ज्यादा
हुकूमत के साथ
कुछ 'तार्किक, आधुनिक, सेकुलर' लोग बिना यह गौर किये कि कौन शोषण-जुल्म की व्यवस्था का संचालक है, कौन अपने हिसाब से आम जीवन जीता व्यक्ति, दोनों को समान नजर से देखने के हिमायती हैं। संभव है यह आम व्यक्ति हमारे विचारों मुताबिक आधुनिक तार्किक न होकर पिछड़ा, अंधविश्वासी, अतार्किक हो। हो सकता है कि हम इसे बदलना चाहते हों। पर क्या बदलाव की यह इच्छा हमें फासिस्टों और इस व्यक्ति को 'समान' दृष्टिकोण से देखने के निष्कर्ष पर ले जा सकती है?
कोई स्त्री अंधविश्वास के नाते किसी 'बाबा' के पास जाये, उससे बलात्कार हो तो क्या बलात्कारी के खिलाफ आवाज नहीं उठायेंगे क्योंकि वह अंधविश्वास की वजह से बलात्कार की शिकार हुई?
कोई दलित धार्मिक अंधविश्वास से मुक्त न होने के कारण मंदिर में जाये, वहां जुल्म का शिकार हो तो कहेंगे कि ठीक हुआ, अंधविश्वासी को सही सजा मिली?
मैं भी चाहता हूं कि पर्दा/बुर्का मुक्त समाज हो, पर ये लडकियां इस वक्त संघी गिरोह के डर से हिजाब छोड़ दें तो यह गारंटी तो है न कि संघी गिरोह भी फासिस्ट के बजाय शिष्ट-सदाचारी बन जायेगा, इनके खिलाफ अपनी मुहिम छोड देगा? कुछ वक्त पहले जो सुल्ली डील्स बुल्ली बाई एप बने उनमें जिन मुस्लिम स्त्रियों को निशाना बनाया गया वे तो लगभग सभी उच्च शिक्षित, आधुनिक, बुर्का-हिजाब मुक्त अपने क्षेत्रों की जानी-मानी प्रोफेशनल थीं। फिर?
ये सब परीक्षण 1930 के दशक में नाजियों के साथ हो चुका है जब परंपरागत नेतृत्व यहूदियों को नाजियों के शुरुआती हमलों के सामने झुकने के लिए, नाजी विरोधी साझा संघर्ष से अलग रहने के लिए, समझाता रहा कि ऐसा करने से वे शांत हो जायेंगे। नतीजा सबको मालूम है।
*मुकेश असीम*
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कर्नाटक में मुस्लिम छात्रा के हिजाब पहनने के खिलाफ हिंदू युवकों द्वारा भगवा गमछे और झंडे लेकर उसे डराने की कोशिश करने की घटना का विरोध करने पर हमारे कुछ दोस्त कह रहे हैं कि आप लोग हिजाब का समर्थन मत कीजिए
हम हिजाब का समर्थन नहीं कर रहे
हम नागरिक की स्वतंत्रता का समर्थन कर रहे हैं
कल्पना कीजिए कल को मुसलमान लड़के भीड़ लगाकर हरे झंडे लेकर हिंदू औरतों के मांग में सिंदूर लगाने का विरोध करें
और सड़क पर जाती हिंदू औरतों से कहें कि अपनी मांग का सिंदूर मिटाओ क्योंकि यह पितृसत्ता की निशानी है औरतों की गुलामी का प्रतीक है
Koतब क्या आप यह कहेंगे कि यह मुसलमान लड़के ठीक कर रहे हैं और हिंदू औरतों को पितृसत्ता से आजाद कर रहे हैं
नहीं तब आप कहेंगे कि हिंदू औरतों को पितृसत्ता से आजाद करने का यह सही तरीका नहीं है
हर औरत को मांग में सिंदूर लगाने या ना लगाने के बारे में खुद फैसला करना है
इसी तरह हर महिला को हिजाब पहनने या ना पहनने के बारे में खुद फैसला करने की आजादी है
हम औरतों की इसी आजादी का समर्थन कर रहे हैं
*हिमांशु कुमार*
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हिजाब के बहाने ….
हिजाब के बहाने ….😌🙃😡
कर्नाटक के शिक्षा संस्थानों में लड़कियों के हिजाब के विरोध में जो मुहिम चलाई जा रही है, वह बेहद शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है।
कुछ कॉलेजों के यूनिफार्म ड्रेस कोड के विरोध के तहत कुछ मुस्लिम लड़कियों ने हिजाब पहनने का अपना अधिकार नहीं छोड़ा तो कुछ हिन्दू लड़के भगवा ओढ़कर कॉलेज पहुंचने लगे।
कॉलेजों में 'जय श्रीराम' के नारे भी लगे और कहीं-कहीं 'अल्लाहु अकबर' का उद्घोष भी हुआ। वहां धार्मिक विभाजन तेजी से बढ़ा है और शिक्षा संस्थान जंग के मैदान में तब्दील होते जा रहे हैं। घटनाक्रम को देखकर साफ लग रहा है कि यह सब धार्मिक आधार पर लोगों के ध्रुवीकरण की सोची-समझी राजनीति के तहत सुनियोजित रूप से किया जा रहा है।
मैं स्वयं बुर्का या पर्दा प्रथा का समर्थक नहीं हूं लेकिन कोई अगर धर्म के नाम पर या व्यक्तिगत इच्छा से परदे में रहना चाहता है तो उसकी आस्था और इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। वैसे ज्यादातर मुस्लिम औरतें हिजाब नहीं पहनतीं।
जो पहनना चाहती हैं उन्हें इसे उतारने के लिए मजबूर करना उनकी आस्था का अपमान भी है और उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी। विविधताओं से भरे हमारे देश में हज़ारों तरह के पहनावे हैं। कहीं-कहीं तो औरतों के सामने गज-गज भर के घूंघट में रहने की भी मजबूरी है।
समस्या बस मुस्लिम औरतों के हिजाब से है। यह हिजाब गलत है तो उसके खिलाफ आवाज़ मुस्लिम औरतों के बीच से ही उठनी चाहिए। उठती भी रही है। एक लोकतांत्रिक देश में कोई भगवाधारी डरा-धमकाकर उन्हें हिजाब उतारने का आदेश नहीं दे सकता।
संस्कृतियों, आस्थाओं, वेशभूषा और भाषाओं की असंख्य दृश्य विविधताओं के बीच एकात्मकता का अदृश्य धागा सदा से हमारे देश की खूबसूरती रही है।
सत्ता के लिए जिस तरह से इस धागे को तोड़ने की निरंतर कोशिशें हो रही है उससे हम सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब देश की बुनियाद ही बिखर जाएगी।
✍🏻:~ Dhruv Gupt Ji Former IPS Officer ✊🏻🌅🙏🏻
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